Day 6
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श्लोक:
यथा तु देवि भगवान ब्रह्मा लोकपितामह: ।
त्वाम् परित्यज्य नो तिष्ठेत तथा भव वरप्रदा ।।
वेदशास्त्राणि सर्वाणि नृत्यगीतादिकम् च यत ।
वाहितम् यत त्वया देवि तथा मे सन्तु सिद्धयः ।।
लक्ष्मीमेधां वरा रिष्टिगौरी तुष्टि: प्रभा मतिः ।
ऐताभिः पाहि तनुभीरष्टाभिमाँ सरस्वती ।।
अर्थ:
सरस्वती जी के आठ रूप - लक्ष्मी,वरा मेधा, रिष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा, मति
मेधा : स्मृति, धारण शक्ति जैसे - मेधावी छात्र
तुष्टि : सन्तोष, ज्ञानवान जैसे - संतुष्टि
प्रभा : सामर्थ्य, बुद्धिमान
बुद्धि : विवेचना करने की शक्ति ।
विवेक : सही गलत निर्चरण क्षमता
धी : समझ
प्रज्ञा : ज्ञान का बोध करने वाली बुद्धि जैसे - प्रज्ञावान
कुशाग्र : कुश(सूखी हुई घास) का अग्र भाग = तीव्र बुद्धि
हृल्लेख : हृदयम् लिखति इति हृल्लेख = ह्रदय के भावो की लिखना
पाहि : रक्षा करना
सुभाषित:
दानेन पाणिनः न तु कङ्कणेन: स्नानेन शुद्धिः न तु चन्दनेन ।
मनेन तृप्तिः न तु भोजनेन: ज्ञानेन मुक्तिः न तु मुण्डनेन ।।
हाथों की शोभा चूड़ियों से नहीं, दान देने से होती है ।
शरीर की शुद्धि चन्दन लगाने से नहीं, स्नान करने से होती है ।
मन की तृप्ति भोजन करने से नहीं, मान-सम्मान से होती है ।
मुक्ति मुण्डन करने से नहीं, ज्ञान अर्जित करने से मिलती है ।
पाँच कारणोंं से बुद्धि क्षय होती है - लालच, मोह, क्रोध, शोक, काम तो इन पांच स्थितियों से बचना चाहिए ।
मन चँगा तो कठौती में गंगा
सोमवती अमावस्या थी, सब लोग गङ्गा नहाने गए तो एक जूता बनाने वाले चमार को भी बोला चलने के लिए पर उसने मना कर दिया । जब लोग गङ्गा में नाहा रहे थे तो एक औरत का सोने का कङ्गन पानी में बह गया और बहुत ढूंढने पर भी नहीं मिला । वो औरत जब वापस आ गयी तो उसी जूता बनाने वाले ने उस औरत से उसके उदास होने का कारण पूछा तो औरत ने रुआंसे मुँह से सारी कहानी सुना दी । मोची ने औरत को बैठने के लिए कहा । फिर उसने अपनी कठौती में हाथ डाला और कङ्गन निकाल के दिया और पूछा कि माई यही कङ्गन था क्या? औरत ने हैरानी से कहा, हाँ यही कङ्गन था । औरत ने पूछा के तुम्हे ये कङ्गन कैसे मिला तो मोची ने कहा कि यही तो मैं कह रहा था - मन चँगा तो कठौती में गङ्गा ।
*कठौती - चमड़े का खुले मुँह का बर्तन जिसमे मोची पानी रखते हैं ।
निष्कर्ष: आंतरिक/मानसिक स्नान से ही आत्मा कि शुद्धि होती है न कि मीलों तक घूमकर भगवान् के दर्शन करने से ।
माघ कवी बहुत ही दरिद्र थे परन्तु उनका लोगों में बहुत सम्मान था । एक बार उनकी पत्नी की धोती थोड़ी सी फट गयी तो उन्होंने कवी माघ से राजा के पास
जड़ भरत की कहानी
एक थे राजा भरत जो कि ऋषभ देव (जैन समाज के पहले प्रवर्तक) जी के पुत्र थे । राजा भरत ने राजपाट संभाला और कई सालो के बाद समय आने पर वानप्रस्थ के लिए तैयार हुए और जंङ्गल चले गए । जंङ्गल जाकर वे ध्यान, जप, हवन, लकड़ियाँ काटना और ऋषियों के काम करते थे । एक दिन वे पानी भरने के लिए तो वह एक हिरणी पानी पीने के लिए आ गयी जोकि गर्भवती थी और थोड़ी देर में वहाँ एक शेर भी आ गया । जब शेर दहाड़ा तो हिरणी वहाँ से कुलाचें भरती हुई भाग निकली परन्तु कुलाचें भरने में उसका गर्भ नदी में गिर गया और हिरणी थोड़ी आगे थक कर मर गयी । हिरणी का बच्चा बहते हुए भरत के पास आ गया, उन्होंने देखा कि बच्चा तो जिन्दा है और उसकी माँ अब नहीं रही तो उसे अपने साथ आश्रम ले आये और उसकी देखभाल करने लगे । अब कोई भी काम करते हुए उनका ध्यान हिरणी के बच्चे कि तरफ ही लगा रहता था । वो ये भूल गए कि वे सब कुछ छोड़कर और सारे बन्धन तोड़कर जङ्गल में स्वाध्याय के लिए आये थे परन्तु उस हिरणी के बच्चे के मोह में फँस गए क्योंकि ज्ञानी पुरुष को भी विषय तनिक भर में ध्यानभङ्ग कर सकते हैं । उदहारण : "ऋषि विश्वामित्र ने कई साल तपस्या की और मेनका ने आकर उनकी तपस्या भङ्ग कर दी और उनका ध्यान भटक गया ।" एक रात हिरन बाहर गया और वापस नहीं आया । राजा उसकी चिन्ता में रहने लगे और इसी तरह वे मर गए । ऐसा कहा गया है जो अन्त समय में जैसा ध्यान करता है, वैसा ही बन जाता है तो भरत जो मरते समय भी उस हिरन की चिन्ता में थे तो अगले जन्म में वे भी हिरन ही बने परन्तु उनके तप के कारण उन्हें पिछले जन्म की स्मृति थी ।
*इसी कारण अन्त समय ईश्वर को याद करने को कहा जाता है ताकि ईश्वर को याद करके इस भव सागर से मुक्ति मिल जाये परन्तु अगर हमने आयु रहते कभी ईश्वर का नाम न लिया हो तो अन्त समय में, जब तरह तरह की चिन्ताएं एक पल में आँखों के सामने आ जाती हैं, तो फिर ईश्वर को नाम कैसे आ पायेगा इसलिए ईश्वर को याद करते रहो ।
हिरन वाला पूरा जन्म उन्होंने एक ऋषि के यहाँ काट दिया और मर गए । अगले जन्म में वे एक ब्राह्मण के यहाँ पैदा हुए और फिर तपस्या शुरू कर दी (इस बार किसी तरह के मोह से बचने के लिए उन्होंने चुप्पी साध ली, कुछ भी पढ़ना लिखना नहीं किया और जड़बुद्धि जैसे बन गए, क्योंकि वैसे भी पिछले जन्म से सब कुछ याद होने की वजह से उनका ज्ञान पहले से ही अर्जित था) । उनके पिताजी की मृत्यु के बाद उनके भाइयों ने सारी जमीन आपस में बाँट ली और उन्हें कुछ नहीं दिया । राहुगढ़ वो कपिल मुनि के आश्रम जाना चाहता था तो पालकी में बैठकर सैनिको को लेकर चल दिया। चलते चलते एक कहार की तबियत ख़राब हो गयी तो वे दूसरा कहार ढूंढने निकल पड़े और जड़ भरत को ही पकड़ लाये । वे चलते हुए नीचे देखते हुए चींटियों और दुसरे कीड़ो को बचाते हुए चलने लगे जिससे दुसरे कहार सामन्जस्य नहीं रख पाए और पालकी बहुत अधिक हिलने लगी । राजा ने जड़ भरत को डाँटा और
विषयों का चिन्तन करना चिंता होता है और ईश्वर में ध्यान लगाना चिन्तन होता है ।
चर्चा :
संगीत पैदाइश से ही हमारे साथ होता है क्योंकि पैदा होने पर जब बच्चा रोता है तो वो भी सङ्गीत ही है | सङ्गीत
तीन प्रकार का होता है
१. जब किसी बच्चे को गाने के लिए कहा जाता है तो वह श्रम होता है क्योंकि वह जबरदस्ती गाता है
२. जब हम सङ्गीत को पढ़ते हैं, समझते हैं, रागो को जानते हैं तो वह शिल्प होता है
३. जब हम सङ्गीत को आत्मसात कर लेते हैं, भाव से गाते हैं, तो वह कला बन जाती है, उदाहरणार्थ बहुत से ऐसे लोग हुए हैं जिनकी कोई संगीत शिक्षा नहीं हुई, जो रागो को नहीं जानते थे परन्तु गाते बहुत अच्छा थे |
सङ्गीत भी ईश्वर तक पहुंचने का एक साधन है |
सा रे गा मा पा ध नि स - ये सुर नहीं अपितु सुरों को लिखने का तरीका हैं | सुर असल में वे होते हैं जिनके उच्चारण में व्यवधान नहीं होता |
पहला सुर - षडज(छह बार जन्म लेने वाला ) - जो छह भागो में पाले गए हैं यानी कार्तिक(षडानन) और उनका वाहन मोर है |
दूसरा सुर - ऋषभ(बैल) -
छठा सुर - धैवत - दौड़ने वाला यानी घोडा
सातवा सुर - निषादी - महावत
लय - प्रकृति में हर जगह लय पायी जाती है जैसे की सागर की लेहरो में, वायु में |
लय तीन प्रकार की होती है
विलम्बित - उदाहरण - शिवताण्डव स्त्रोतम (प. जसराज द्वारा)
मध्यम -
द्रुत - सबसे तेज, उदहारण शिवताण्डव स्त्रोतम (शङ्कर महादेवन)
मात्रा(beat)- किसी अक्षर को बोलने में लगने वाला समय |
ह्र्स्व - छोटी मात्रा
दीर्घ - बड़ी मात्रा
प्लुत - सबसे बड़ी मात्रा
#sanskritik_satsang
यथा तु देवि भगवान ब्रह्मा लोकपितामह: ।
त्वाम् परित्यज्य नो तिष्ठेत तथा भव वरप्रदा ।।
वेदशास्त्राणि सर्वाणि नृत्यगीतादिकम् च यत ।
वाहितम् यत त्वया देवि तथा मे सन्तु सिद्धयः ।।
लक्ष्मीमेधां वरा रिष्टिगौरी तुष्टि: प्रभा मतिः ।
ऐताभिः पाहि तनुभीरष्टाभिमाँ सरस्वती ।।
अर्थ:
सरस्वती जी के आठ रूप - लक्ष्मी,वरा मेधा, रिष्टि, गौरी, तुष्टि, प्रभा, मति
मेधा : स्मृति, धारण शक्ति जैसे - मेधावी छात्र
तुष्टि : सन्तोष, ज्ञानवान जैसे - संतुष्टि
प्रभा : सामर्थ्य, बुद्धिमान
बुद्धि : विवेचना करने की शक्ति ।
विवेक : सही गलत निर्चरण क्षमता
धी : समझ
प्रज्ञा : ज्ञान का बोध करने वाली बुद्धि जैसे - प्रज्ञावान
कुशाग्र : कुश(सूखी हुई घास) का अग्र भाग = तीव्र बुद्धि
हृल्लेख : हृदयम् लिखति इति हृल्लेख = ह्रदय के भावो की लिखना
पाहि : रक्षा करना
सुभाषित:
दानेन पाणिनः न तु कङ्कणेन: स्नानेन शुद्धिः न तु चन्दनेन ।
मनेन तृप्तिः न तु भोजनेन: ज्ञानेन मुक्तिः न तु मुण्डनेन ।।
हाथों की शोभा चूड़ियों से नहीं, दान देने से होती है ।
शरीर की शुद्धि चन्दन लगाने से नहीं, स्नान करने से होती है ।
मन की तृप्ति भोजन करने से नहीं, मान-सम्मान से होती है ।
मुक्ति मुण्डन करने से नहीं, ज्ञान अर्जित करने से मिलती है ।
पाँच कारणोंं से बुद्धि क्षय होती है - लालच, मोह, क्रोध, शोक, काम तो इन पांच स्थितियों से बचना चाहिए ।
मन चँगा तो कठौती में गंगा
सोमवती अमावस्या थी, सब लोग गङ्गा नहाने गए तो एक जूता बनाने वाले चमार को भी बोला चलने के लिए पर उसने मना कर दिया । जब लोग गङ्गा में नाहा रहे थे तो एक औरत का सोने का कङ्गन पानी में बह गया और बहुत ढूंढने पर भी नहीं मिला । वो औरत जब वापस आ गयी तो उसी जूता बनाने वाले ने उस औरत से उसके उदास होने का कारण पूछा तो औरत ने रुआंसे मुँह से सारी कहानी सुना दी । मोची ने औरत को बैठने के लिए कहा । फिर उसने अपनी कठौती में हाथ डाला और कङ्गन निकाल के दिया और पूछा कि माई यही कङ्गन था क्या? औरत ने हैरानी से कहा, हाँ यही कङ्गन था । औरत ने पूछा के तुम्हे ये कङ्गन कैसे मिला तो मोची ने कहा कि यही तो मैं कह रहा था - मन चँगा तो कठौती में गङ्गा ।
*कठौती - चमड़े का खुले मुँह का बर्तन जिसमे मोची पानी रखते हैं ।
निष्कर्ष: आंतरिक/मानसिक स्नान से ही आत्मा कि शुद्धि होती है न कि मीलों तक घूमकर भगवान् के दर्शन करने से ।
माघ कवी बहुत ही दरिद्र थे परन्तु उनका लोगों में बहुत सम्मान था । एक बार उनकी पत्नी की धोती थोड़ी सी फट गयी तो उन्होंने कवी माघ से राजा के पास
जड़ भरत की कहानी
एक थे राजा भरत जो कि ऋषभ देव (जैन समाज के पहले प्रवर्तक) जी के पुत्र थे । राजा भरत ने राजपाट संभाला और कई सालो के बाद समय आने पर वानप्रस्थ के लिए तैयार हुए और जंङ्गल चले गए । जंङ्गल जाकर वे ध्यान, जप, हवन, लकड़ियाँ काटना और ऋषियों के काम करते थे । एक दिन वे पानी भरने के लिए तो वह एक हिरणी पानी पीने के लिए आ गयी जोकि गर्भवती थी और थोड़ी देर में वहाँ एक शेर भी आ गया । जब शेर दहाड़ा तो हिरणी वहाँ से कुलाचें भरती हुई भाग निकली परन्तु कुलाचें भरने में उसका गर्भ नदी में गिर गया और हिरणी थोड़ी आगे थक कर मर गयी । हिरणी का बच्चा बहते हुए भरत के पास आ गया, उन्होंने देखा कि बच्चा तो जिन्दा है और उसकी माँ अब नहीं रही तो उसे अपने साथ आश्रम ले आये और उसकी देखभाल करने लगे । अब कोई भी काम करते हुए उनका ध्यान हिरणी के बच्चे कि तरफ ही लगा रहता था । वो ये भूल गए कि वे सब कुछ छोड़कर और सारे बन्धन तोड़कर जङ्गल में स्वाध्याय के लिए आये थे परन्तु उस हिरणी के बच्चे के मोह में फँस गए क्योंकि ज्ञानी पुरुष को भी विषय तनिक भर में ध्यानभङ्ग कर सकते हैं । उदहारण : "ऋषि विश्वामित्र ने कई साल तपस्या की और मेनका ने आकर उनकी तपस्या भङ्ग कर दी और उनका ध्यान भटक गया ।" एक रात हिरन बाहर गया और वापस नहीं आया । राजा उसकी चिन्ता में रहने लगे और इसी तरह वे मर गए । ऐसा कहा गया है जो अन्त समय में जैसा ध्यान करता है, वैसा ही बन जाता है तो भरत जो मरते समय भी उस हिरन की चिन्ता में थे तो अगले जन्म में वे भी हिरन ही बने परन्तु उनके तप के कारण उन्हें पिछले जन्म की स्मृति थी ।
*इसी कारण अन्त समय ईश्वर को याद करने को कहा जाता है ताकि ईश्वर को याद करके इस भव सागर से मुक्ति मिल जाये परन्तु अगर हमने आयु रहते कभी ईश्वर का नाम न लिया हो तो अन्त समय में, जब तरह तरह की चिन्ताएं एक पल में आँखों के सामने आ जाती हैं, तो फिर ईश्वर को नाम कैसे आ पायेगा इसलिए ईश्वर को याद करते रहो ।
हिरन वाला पूरा जन्म उन्होंने एक ऋषि के यहाँ काट दिया और मर गए । अगले जन्म में वे एक ब्राह्मण के यहाँ पैदा हुए और फिर तपस्या शुरू कर दी (इस बार किसी तरह के मोह से बचने के लिए उन्होंने चुप्पी साध ली, कुछ भी पढ़ना लिखना नहीं किया और जड़बुद्धि जैसे बन गए, क्योंकि वैसे भी पिछले जन्म से सब कुछ याद होने की वजह से उनका ज्ञान पहले से ही अर्जित था) । उनके पिताजी की मृत्यु के बाद उनके भाइयों ने सारी जमीन आपस में बाँट ली और उन्हें कुछ नहीं दिया । राहुगढ़ वो कपिल मुनि के आश्रम जाना चाहता था तो पालकी में बैठकर सैनिको को लेकर चल दिया। चलते चलते एक कहार की तबियत ख़राब हो गयी तो वे दूसरा कहार ढूंढने निकल पड़े और जड़ भरत को ही पकड़ लाये । वे चलते हुए नीचे देखते हुए चींटियों और दुसरे कीड़ो को बचाते हुए चलने लगे जिससे दुसरे कहार सामन्जस्य नहीं रख पाए और पालकी बहुत अधिक हिलने लगी । राजा ने जड़ भरत को डाँटा और
विषयों का चिन्तन करना चिंता होता है और ईश्वर में ध्यान लगाना चिन्तन होता है ।
चर्चा :
संगीत पैदाइश से ही हमारे साथ होता है क्योंकि पैदा होने पर जब बच्चा रोता है तो वो भी सङ्गीत ही है | सङ्गीत
तीन प्रकार का होता है
१. जब किसी बच्चे को गाने के लिए कहा जाता है तो वह श्रम होता है क्योंकि वह जबरदस्ती गाता है
२. जब हम सङ्गीत को पढ़ते हैं, समझते हैं, रागो को जानते हैं तो वह शिल्प होता है
३. जब हम सङ्गीत को आत्मसात कर लेते हैं, भाव से गाते हैं, तो वह कला बन जाती है, उदाहरणार्थ बहुत से ऐसे लोग हुए हैं जिनकी कोई संगीत शिक्षा नहीं हुई, जो रागो को नहीं जानते थे परन्तु गाते बहुत अच्छा थे |
सङ्गीत भी ईश्वर तक पहुंचने का एक साधन है |
सा रे गा मा पा ध नि स - ये सुर नहीं अपितु सुरों को लिखने का तरीका हैं | सुर असल में वे होते हैं जिनके उच्चारण में व्यवधान नहीं होता |
पहला सुर - षडज(छह बार जन्म लेने वाला ) - जो छह भागो में पाले गए हैं यानी कार्तिक(षडानन) और उनका वाहन मोर है |
दूसरा सुर - ऋषभ(बैल) -
छठा सुर - धैवत - दौड़ने वाला यानी घोडा
सातवा सुर - निषादी - महावत
लय - प्रकृति में हर जगह लय पायी जाती है जैसे की सागर की लेहरो में, वायु में |
लय तीन प्रकार की होती है
विलम्बित - उदाहरण - शिवताण्डव स्त्रोतम (प. जसराज द्वारा)
मध्यम -
द्रुत - सबसे तेज, उदहारण शिवताण्डव स्त्रोतम (शङ्कर महादेवन)
मात्रा(beat)- किसी अक्षर को बोलने में लगने वाला समय |
ह्र्स्व - छोटी मात्रा
दीर्घ - बड़ी मात्रा
प्लुत - सबसे बड़ी मात्रा
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