tag:blogger.com,1999:blog-26213644862856775532024-03-19T15:16:25.755+05:30SanskritSmall details about sanskrit that makes big difference when speaking or writing the languageSudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.comBlogger76125tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-12561223545688067622020-05-23T10:53:00.007+05:302020-06-02T19:47:59.270+05:30योगसूत्र व्याख्या - समाधिपाद<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<span style="color: #b45f06; font-family: sans-serif;">व्याख्याता</span><span style="color: blue; font-family: sans-serif;">: स्वामी निर्दोष</span><div><h1 class="title style-scope ytd-video-primary-info-renderer" style="background: rgb(249, 249, 249); border: 0px; font-family: roboto, arial, sans-serif; font-size: var(--ytd-video-primary-info-renderer-title-font-size, var(--yt-navbar-title-font-size, inherit)); line-height: 2.4rem; margin: 0px; max-height: 4.8rem; overflow: hidden; padding: 0px; text-shadow: var(--ytd-video-primary-info-renderer-title-text-shadow, none); transform: var(--ytd-video-primary-info-renderer-title-transform, none);"><yt-formatted-string class="style-scope ytd-video-primary-info-renderer" force-default-style="" style="word-break: break-word;"><font color="#3367d6" size="4">योगसूत्र व्याख्या सूत्र संख्या १ से ४ तक { समाधि पाद }</font></yt-formatted-string></h1>
<span style="color: blue; font-family: sans-serif;"><br /></span>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue; font-family: sans-serif;"><span style="color: black; font-family: "times new roman";">"</span><b style="color: black; font-family: "times new roman";">अथ योगानुशासनम्</b><span style="color: black; font-family: "times new roman";">"</span></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="color: blue; font-family: sans-serif;"><span style="color: black; font-family: "times new roman";"><br /></span></span></div>
जैसे एक कुशल किसान अपने खेत को तैयार करता है वैसे ही हम अपने चित्त की भूमि को कैसे तैयार करें इसके लिए महर्षि पतञ्जलि ने उत्तम अधिकारियों के लिए सर्वप्रथम समाधिपाद की रचना की। अर्थात मन को समाहित करने की शिक्षा का आरम्भ जिसके द्वारा लक्षण, भेद, उपाय और फलों के सहित शिक्षा दी जाए अर्थात व्याख्या की जाय उसको अनुशासन कहते हैं इसीलिए 'अथ योगानुशासन<span style="text-align: center;">म्</span>'। इसके अर्थ हुए कि अब लक्षण, भेद, उपाय और फलों सहित योग की शिक्षा देनेवाले शास्त्र को आरम्भ करते हैं।<br />
<br />
योग को समाधि कहते हैं यद्यपि समाधि योग का अङ्ग है योग का फल नहीं। योग का अन्तिम तात्पर्य, परिणाम उसका फल तो सत्वान्यताख्याति अथवा पुरुषाख्याति, प्रकृति-पुरुष का विवेक होकर के पुरुष में ???(1 -19) में आपत्ति योग का फल है। लेकिन जब तक चित्त समाहित नहीं होता, समाधिष्ठ नहीं होता तब तक इस भूमिका को प्राप्त नहीं किया जा सकता। '<span style="color: #b45f06;">यु</span><span style="color: #b45f06;">ज् संयोजने</span>' और '<span style="color: #b45f06;">युज् समाधौ</span>' - इन दो धातुओं से योग शब्द की निष्पत्ति होती है। "<span style="color: #b45f06;">संयोगोयोग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनो:</span>" - जीवात्मा का परमात्मा से संयोग, यही योग है। "<span style="color: #b45f06;">समाधिसमतावस्था जीवात्मपरमात्मनो: ब्रह्मण्येवस्थितरियासासमाधि: प्रत्यकात्मानः</span>" - जब जीवात्मा और परमात्मा एक सम अवस्था में अवस्थित हो जाएँ अर्थात प्रत्यकात्मा की ब्रह्म में सम्यक स्थिति हो जाए उसी का नाम समाधि है। इस प्रकार सभी व्याख्याकारों ने मुख्यतः व्यास जी ने यहाँ पर योग का अर्थ समाधि में ही लिया है और समाधि सारी भूमियों में सारी अवस्थाओं में चित्त का धर्म है। वह तीन भूमियों में, तीन अवस्थाओं में दबा रहता है और केवल दो भूमियों में प्रकट होता है। चित्त की पांच भूमियां है, पांच अवस्थाएं हैं - <span style="color: #b45f06;">क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र </span>और <span style="color: #b45f06;">निरुद्ध</span> - इनका विस्तारपूर्वक वर्णन आगे किया जाएगा। इनमें से अत्यन्त चञ्चल चित्त को क्षिप्त, जैसे किसी शान्त सरोवर में किसी ने ढेला डाल दिया अथवा चित्त की जो stressed अवस्था है अनेक इच्छाओं को एक साथ पूरा करना चाहता है, उसको क्षिप्त अवस्था कहते हैं। दूसरी है मूढ़ अवस्था, इसमें निद्रा, तन्द्रा और आलस्य आदि से युक्त जो चित्त है इसको मूढ़ कहते हैं। क्षिप्त से जो श्रेष्ठ चित्त है अर्थात जिसमें कभी कभी स्थिरता होती है ऐसे चित्त को विक्षिप्त चित्त कहा जाता है - विशेष रूप से क्षिप्त। वि - उपसर्ग है, इसका अर्थ विगत, विरुद्ध, विपरीत और विशेष, इस प्रकार से इस उपसर्ग के अर्थ होते हैं - "<span style="color: #b45f06;">विगतः क्षिप्तत्वं तस्मात्</span>" अथवा "<span style="color: #b45f06;">क्षिप्तत्वेन: विपरीतम्</span>" । ऐसा जो चित्त है, उसको विक्षिप्त चित्त कहेंगे। इस अवस्था में कुछ कुछ स्थिरता रहती है। क्षिप्त और मूढ़ चित्त में तो योग की गन्ध भी नहीं होती और विक्षिप्त चित्त में जो कभी कभी क्षणिक स्थिरता होती है उसकी भी योगपक्ष में गिनती नहीं है क्योंकि यह स्थिरता दीर्घकाल तक स्थिर नहीं रहने पाती, शीघ्र ही प्रबल चञ्चलता से नष्ट हो जाती है इसलिए विक्षिप्त भूमि भी योगरूप नहीं है। जिसका एक ही अग्र्विषय हो अर्थात एक ही विषय में विलक्षण वृत्ति के व्यवधान से रहित, बीच बीच में कोई दूसरी बात न आ जाये, ऐसे जो वृत्तियों का जो प्रवाह होता है उसको एकाग्रचित्त कहते हैं। ऐसी एकाग्रता नृत्य में भी हो जाती है, गायन, वादन में भी हो जाती है इष्टपदार्थ के भोजन में भी हो जाती है, इष्टमित्र के संयोग में भी ऐसी एकाग्रता हो जाती है। यह 'एकाग्र' नाम वाली जो चित्त की वृत्ति है अथवा अवस्था है, ये अपने आत्मा के सत्स्वरूप को प्रकाशित करने में और क्लेशों का नाश करने में, बन्धन को ढीला करने में और निरोधवृत्ति के प्रति अभिमुख करने में ये सहायक होती है। इसी एकाग्रवृत्ति में सम्प्रज्ञात समाधि अथवा सम्प्रज्ञानात योग प्राप्त होता है। इसके चार भेद हैं - <span style="color: #b45f06;">वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत</span> और <span style="color: #b45f06;">अस्मितानुगत</span>। ये सब विषय आगे आएंगे। इसके बाद जब सारी वृत्तियों का निरोध हो जाता है उस - सर्ववृत्ति निरोधस्वरुप - जो चित्त की वृत्ति है उस निरुद्ध चित्त में असम्प्रज्ञात समाधि घटित होती है, उसी को असम्प्रज्ञात योग कहते हैं। इस समाधि अवस्था को प्राप्त करने के लिए महर्षि पतञ्जलि ने आठ साधन बताये हैं , वो योग के आठ अंग कहे जाते हैं - <span style="color: #b45f06;">यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान</span> और <span style="color: #b45f06;">समाधि </span>- ये आठ अंग हैं। योग के आदिवक्ता हिरण्यगर्भ हैं - <span style="color: #b45f06;">हिरण्यगर्भोयोगस्यवक्तानान्यः पुरातनः। सांख्यस्य वक्ता कपिलः परमऋषि: स उच्यते। हिरण्यगर्भोयोगस्यवक्तानान्यः पुरातनः इदं हि योगेश्वर योगनेपुणं, हिरण्यगर्भो भगवाञजगाद् यत्।</span> यह वचन, याज्ञवल्क्य स्मृति, महाभारत और श्रीमद्भागवत से लिए हैं।<br />
ऋग्वेद में भी कहा है -<br />
<span style="color: #b45f06;">हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।।</span><br />
<br />
और यहाँ पर 'कस्मै' शब्द का अर्थ 'एकस्मै' ले लेना चाहिए, ये वहां पर ??अध्यार्थ??(7.13) कर लेना चाहिए। वह एक ही देव है जिसने 'द्यौ' व 'पृथ्वी' को धारण किया हुआ है।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">अथ य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते हिरण्यश्मश्रुर्हिरण्यकेश आप्रणखात्सर्व एव सुवर्णः।</span> - छान्दोग्य उपनिषद्<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">हिरण्यगर्भो द्युतिमान य एषच्छन्दशि स्तुतः।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">योगै: सम्पुज्यते नित्यं स च लोके विभु: स्मृतः।।</span><br />
- महाभारत<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">हिरण्यगर्भो भगवान् एष बुद्धिरिति स्मृत:।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">महानिति च योगेषु विरंचिरित्ति चाप्यजः।।</span><br />
<br />
हिरण्यगर्भो जगदन्तरात्मा - अद्भुत रामायण<br />
<br />
इस प्रकार ये हिरण्यगर्भ भगवान् ही योग के और वेदों के आदि-प्रवक्ता हैं, इन्होने कहा है -<br />
<span style="color: #b45f06;">तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।।</span><br />
<br />
अर्थात जब पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ जब मन के साथ स्थिर हो जाती हैं प्रत्याहार के द्वारा अन्तर्मुख हो जाती हैं और बुद्धि भी चेष्टा रहित हो जाती है, चित्त की सब वृत्तियों का निरोध हो जाता है, तब उसको परम गति - सबसे ऊंची अवस्था कहते हैं, उसी को योग मानते हैं। जो इन्द्रियों की निश्चल धारणा है, शरीर स्थिर, प्राण स्थिर, मन स्थिर, इन्द्रियां स्थिर उस समय वह योगी प्रमाद से अपने स्वरुप को भूला हुआ जो वृत्ति-सारूप्य प्रतीत हो रहा था, उससे रहित हो जाता है अर्थात शुद्ध परमतम भाव में अवस्थित हो जाता है क्योंकि योग, प्रभाव और अप्यय निरोध के संस्कारों के प्रादुर्भाव अर्थात प्रकट होने और व्युत्थान के संस्कारों के अभिभव अर्थात दबने का जो स्थान है, जहाँ व्युत्थान नहीं होता और निरोध की अवस्था स्थिर रहती है, उसी को योग कहते हैं। गीता में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है -<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">एकाकी यत चित्तात्मा निराशीरपरिग्रह।।</span><br />
<br />
योगी अकेला एकान्त स्थान में बैठकर, एकाग्रचित्त होकर, आशा और सङ्ग्रह को त्यागकर निरन्तर आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़े<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम।।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धय।।</span><br />
<br />
वह योगी पवित्र स्थान में जो अति ऊंचा भी न हो, अति नीचे भी न हो, कुश का आसन और वस्त्र को बिछाकर, कुशासन पर एकाग्र मन से बैठकर इन्द्रियों और चित्त को वश करके आत्मशुद्धि के लिए योगाभ्यास कर।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">समं काय शिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन।।</span><br />
<br />
सर गर्दन और धड़ एक सीध में, अचल और स्थिर करके, स्थिर रहे हुए, इधर उधर न देखता हुआ, नासिका के अग्रभाग में दृष्टी रख। नासिका का अग्रभाग माने, नासिका का मूल जहाँ पर है अर्थात आज्ञाचक्र में, वृत्ति को स्थिर करे। थोड़ा सा अधखुली आँखों से, थोड़ा ऊपर देखते हुए शाम्भवी मुद्रा में जल्दी एकाग्रता आ जाती है।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">प्रशान्तात्मा विगतभीः ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर:।।</span><br />
<br />
और शान्तचित्त होकर निर्भय होकर, ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित होकर, मन का संयम करके मुझ परमात्मा में परायण हुआ, योगयुक्त हो गए।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छत।।</span><br />
<br />
इस प्रकार निरन्तर अपने आप को योग में लगाए हुए तथा मन को निग्रह किये हुए योगी, मुझ परमात्मा में स्थित रहने वाली तथा परम निर्वाण को देनेवाली शान्ति को प्राप्त होता है।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जु।।</span><br />
<br />
योगी तपस्वियों में श्रेष्ठ है, शास्त्रों को जानने वाले ज्ञानियों में भी श्रेष्ठ माना गया है तथा कर्मकाण्डियों में भी श्रेष्ठ है इसलिए हे अर्जुन ! तू योगी बन।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">प्रयाणकाले मनसाचले न भक्त्यायुक्तो योगबलेनचै।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैितिदव्यम्।।</span><br />
<br />
वह भक्तियुक्त चित्त वाला पुरुष अंतकाल में भी योगबल से भृकुटि के मध्य में प्राण को अच्छी तरह से स्थापन करके फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरुप, परम पुरुष, परमात्मा को ही प्राप्त होता है।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम।।</span><br />
<br />
हे अर्जुन ! सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर अर्थात इन्द्रियों को विषयों से हटाकर तथा मन को हृद्देश में स्थित करके और प्राण को अपने ब्रह्मरन्ध्र में स्थापन करके योगधारणा में स्थिर होकर -<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">ॐ इत्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम।।</span><br />
<br />
जो पुरुष (ॐ) ऐसे, इस एक अक्षर रूप ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मेरे को, परमात्मा का चिन्तन करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह पुरुष परमगति को प्राप्त होता है। इन श्लोकों का तात्पर्य है कि ह्रदय बहुत सी नाड़ियों का केन्द्रस्थान है वहां से एक नाड़ी ब्रह्मरन्ध्र की तरफ जाती है। जैसा कि श्रुति बतलाती है -<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैक।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विश्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्त।।</span><br />
<br />
एक सौ एक ह्रदय की नाड़ियां हैं उनमें से एक, 'सुषुम्ना' नाम वाली नाड़ी मूर्धा की ओर निकलती है उस नाड़ी से ऊपर चढ़ता हुआ योगी अमृतत्व, ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है। दूसरी नाड़ियां निकलने में भिन्न-भिन्न गति देने वाली होती हैं। जो योगी प्रत्याहार द्वारा मन को ह्रदय में स्थिर करके, पूरे मनोबल से, सारे प्राण को उस मुख्य नाड़ी से, प्राण को ब्रह्मरन्ध्र में ले जाता है और वहां योगधारणा का आश्रय किये हुए 'ॐ' का जाप करता हुआ और उसके अर्थभूत ईश्वर का चिन्तन करता हुआ शरीर त्यागता है वह परमगति को प्राप्त होता है, किन्तु इस प्रक्रिया को अन्तसमय वही कर सकता है जिसने जीवनकाल में इसका अच्छी प्रकार अभ्यास कर लिया हो। योगदर्शन का परम प्रयोजन स्वरूप स्थिति है, इसको अत्यन्त सुगमता से, सरलता से नियम तथा ज्ञानपूर्वक इसको क्रियात्मक रूप कैसे दिया जाए इसका सुन्दरतम वर्णन योगदर्शन में किया गया है। साधनों के भेद से योग को राजयोग, ध्यानयोग, ज्ञानयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग, निष्काम कर्मयोग, अनासक्ति योग, भक्तियोग, हठयोग, लययोग इत्यादि श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। इस दर्शन का मुख्य विषय राजयोग अर्थात ध्यानयोग है पर उपर्युक्त सब प्रकार के योग इसके ही अन्तर्गत हैं।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">केवलं राजयोगाय हठविद्योपदिश्यते।</span><br />
<br />
केवल राजयोग के लिए ही हठविद्या का उपदेश किया जाता है।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">हकारः कीर्तितः सूर्यष्ठकारश्चंद्र उच्यते सूर्यचंद्रमसोर्योगाद्धठयोग निगद्यते।</span><br />
<br />
सूर्य - पिङ्गला नाड़ी अथवा दाहिनी नासिका अथवा प्राणवायु इसको <b><span style="color: #b45f06;">ह</span></b>-कार कहते हैं और चन्द्र - इड़ा नाड़ी अथवा अपान वायु और बायीं नासिका, इसको <b><span style="color: #b45f06;">ठ</span></b>-कार कहते हैं। ह-कार सूर्य, ठ-कार चन्द्रमा। इन सूर्य और चन्द्र अर्थात पिङ्गला और इड़ा नाड़ियों से बहने वाला जो प्राण का प्रवाह है अथवा प्राण और अपान वायु को मिलाने का नाम हठयोग है।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।</span><br />
<span style="color: #b45f06;">प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।।</span><br />
<span style="color: #b45f06;"><br /></span>
<span style="color: #b45f06;">अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपरे। </span><br />
<span style="color: #b45f06;">प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।</span><br />
<br />
इस प्रकार प्राणायाम और प्रत्याहार से मनोवृत्तियों को एकाग्र और निरुद्ध दशा की तरफ आगे बढ़ाया जा सकता है। यम और नियम, ये न केवल व्यक्तिगत रूप से, विशेषतया योगियों के लिए बल्कि सामान्य रूप से सभी वर्णों, आश्रमों तथा मत-मतान्तरों, जातियों, देशों और समस्त मनुष्य समाज के लिए माननीय हैं, मुख्य कर्तव्य हैं, परम धर्म हैं। इस प्रकार इस पातञ्जलि योगदर्शन में सब प्रकार के योगों का समावेश हो गया है।<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
दूसरा सूत्र है - <b>"योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः"</b></div>
<br />
चित्त की वृत्तियों को रोकना, यही योग है। निरोध अर्थात रोकना। जो बहिर्मुख वृत्तियाँ हैं जो संसार की तरफ, जो बाह्य विषयों की तरफ जा रही हैं, वहां से उनको लौटकर, उलटाकर, अन्तर्मुख करके अपने चित्त में लीन कर लेना, यही योग है। ऐसा यह निरोध सब चित्त की भूमियों में, सब प्राणियों का धर्म है जो कभी किसी के चित्त में प्रकट हो जाता है प्रायः यह चित्तों में छिपा हुआ ही रहता है अर्थात चित्त से तमरूपी मल का जो आवरण है उसको हटाकर और राजस की जो विक्षेपरूप चञ्चलता है उससे निवृत्त होकर सत्व के प्रकाश में जो एकाग्र वृत्ति से रहे उसको योग समझना चाहिए। सारी सृष्टि, सत्व, रजस और तमस, इन तीन गुणों का ही परिणाम रूप है। एक धर्म, आकार अथवा रूप को छोड़कर, धर्मान्तर के ग्रहण अर्थात दुसरे धर्म, आकार अथवा रूप के धारण करने को परिणाम कहते हैं। चित्त इन गुणों का सबसे प्रथम सत्व प्रधान परिणाम है इसीलिए इसको चित्तसत्व भी कहते हैं, यह इसका अपना व्यापक स्वरुप है। यह सारा स्थूल जगत जिसमें हमारा व्यवहार चल रहा है। रज तथा तम प्रधान गुणों का परिणाम है। बाह्य जगत के रज और तम प्रधान पदार्थों और विषयों से जब इस चित्त का संपर्क होता है तो उसको चित्तवृत्ति कहते हैं। विषय को और स्पष्ट रूप से समझना चाहिए, मानो चित्त एक अगाध, परिपूर्ण सागर का जल है। जिस प्रकार पृथ्वी के सम्बन्ध से खाड़ी, झील, तलाव, कुआं, सरोवर इत्यादि अनेक प्रकार के परिणाम को जल प्राप्त हो जाता है इसी प्रकार चित्त अपने अन्तर में राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय इत्यादि आकारों को धारण कर लेता है और जिस प्रकार वायु आदि के वेग से जल में तरंगे उठती हैं इसी प्रकार चित्त, इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों से आकर्षित होकर उनके जैसे ही आकारों के रूप में परिणित हो जाता है - यह सब चित्त की वृत्तियाँ कहलाती हैं जो कि अनन्त है और प्रतिक्षण उदय होती रहती हैं जैसे जल, वायु आदि के अभाव में तरंग आदि आकारों को परिणामों को त्याग कर अपने ही स्वभाव में, शान्त स्वभाव में अवस्थित हो जाता है वैसे ही जब चित्त, बाह्य तथा आभ्यन्तर विषयाकार परिणाम को त्यागकर अपने स्वरुप में अवस्थित हो जाता है तब उसको चित्तवृत्ति निरोध कहते हैं। ये वृत्तियाँ रजोगुणी, तमोगुणी और सतोगुणी होती हैं। जब उसमें रजोगुण और तमोगुण, इन दोनों का मेल होता है तब ऐश्वर्य और विषय प्रिय लगते हैं। जब यह तमोगुण से युक्त होता है तब अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनीश्वरी को प्राप्त होता है। वही चित्त जब तमोगुण के नष्ट होने पर रजोगुण के अंश से युक्त होता है तब धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐस्वर्य को प्राप्त होता है। वही चित्त जब रजोगुण के लेशमात्र मल से भी रहित होता है तब वह अपने स्वरुप में स्थिर होता है, प्रतिष्ठित कहलाता है। तब चित्त, सत्व और पुरुष की भिन्नता का ज्ञान होता है जिसको विवेक-ख्याति अथवा भेदज्ञान कहते हैं। विवेकख्याति के परिपक्व होने पर धर्म-मेघ समाधि की अवस्था प्राप्त होती है अर्थात वहां धर्म बरसता है, ब्रह्मानन्द अपना आत्मानन्द अपना स्वरुप है उसमें वो सराबोर हो जाता है। इस प्रकार चित्त से पुरुष का भिन्न देखना विवेकख्याति कहलाती है।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">तदा दृष्टस्वरूपे अवस्थानम्</span> - क्योंकि इसमें कोई सांसारिक, प्राकर्तिक विषय नहीं रह जाता और जब अविवेक की अवस्था होती है अर्थात जब विवेक नहीं होता है उस समय यह चित्त अपनी स्वाभाविक पांच अवस्थाओं में रहता है उनके नाम पहले गिनाये थे - मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध।<br />
<b>मूढ़ अवस्था</b> तम-प्रधान और सत्व वहां पर गौण होते हैं अर्थात दबे हुए होते हैं, तमोगुण की प्रधानता होती है इसलिए निद्रा, तन्द्रा, मोह, भय, आलस्य, दीनता, भ्रम इत्यादि इसके गुण है।<br />
<br />
दूसरी अवस्था है <b>क्षिप्त अवस्था</b> - इसमें रजोगुण प्रधान होता है तथा तम और सत्वगुण गौण होते हैं। दुःख, चञ्चलता, चिन्ता, शोक और संसार के कामों में प्रवृत्ति, अज्ञान, अधर्म, राग, अनैश्वर्य, ज्ञान, धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य इन सबमें मिली-जुली प्रवृत्ति इस क्षिप्त अवस्था में होती है। कभी धर्म का विचार करता है कभी अधर्म का विचार करता है।<br />
<br />
तीसरी अवस्था है <b>विक्षिप्त अवस्था </b>- यह सत्व प्रधान है, इसमें रज और तमोगुण गौण हैं, दबे हुए रहते हैं। इस अवस्था में सुख, प्रसन्नता, क्षमा, श्रद्धा, धैर्य, चैतन्यता, उत्साह, वीर्य, दान और दया और विशेषकर के ज्ञान, धर्म, वैराग्य और ऐस्वर्य की वृत्तियों की प्रबलता रहती है।<br />
<br />
चौथी अवस्था है <b>एकाग्र अवस्था</b> - इस अवस्था में भी सत्व गुण ही प्रधान रहता है, रज और तम, ये नाममात्र के लिए रहते हैं। इस अवस्था में वास्तु का यथार्थ ज्ञान होता है। इस अवस्था में तटस्थता आती है। यह इष्ट अवस्था है, प्राप्त करने जैसी स्थिति है।<br />
<br />
और अगली है पांचवीं <b>निरुद्ध अवस्था</b> - ये तीनों गुणों से बाहर है। यहाँ सारे चित्त के परिणाम बन्द हो जाते हैं केवल संसार शेष रहते हैं। इसी अवस्था में दृष्टा की स्वरुपस्थिति होती है। यह ऊंचे योगियों की स्थिति है। जब चित्त की वृत्तियों का सम्पूर्णतया निरोध हो जाता है तो -<br />
<span style="color: #b45f06;">दृश्यस्वरूपे अवस्थानं</span> - तदा मने तब ऐसी स्थिति में वह अपने स्वरुप में स्थित हो जाता है और यदि नहीं होता तो -<br />
<span style="color: #b45f06;">वृत्तिसारूप्य मितरत्र</span> - वृत्ति की ही समानरूपता को धारण कर लेता है। अब ये वृत्तियाँ पांच प्रकार की होती है। पतञ्जलि ने वृत्तियों का विभाग किया है, पांच में उनको बाँट दिया है। वो कौन कौन से होती हैं यह अगले प्रकरण में विचार करेंगे।<br />
धन्यवाद!<div><br /></div><div><div><b><font color="#3367d6" size="4">योगसूत्र व्याख्या सूत्र संख्या ५ से ११ तक {समाधिपाद}</font></b></div><div><div><br /></div><div>योग का अर्थ है, स्वयं के स्वरुप का यथार्थ ज्ञान कराना लेकिन इसका यथार्थ ज्ञान इसलिए नहीं होता है कि प्रकृति से यह मिला हुआ है, प्रकृति में इसका प्रतिबिम्ब पड़ता है और अन्तः करण प्रकृति का परिणाम है । मूल प्रकृति तीनों गुणों की साम्यावस्था है, उसमें जब क्षोभ होता है तो प्रकृति से विकृति उत्पन्न होती है। पहली विकृति है <font color="#f4a900">महत्तत्व</font>, महत्तत्व से फिर <font color="#f4a900">अहङ्कार </font>का जन्म होता है और अहङ्कार से<font color="#f4a900"> पाञ्च तन्मात्रों</font> का जन्म होता है और फिर उन पाञ्च तन्मात्रों से <font color="#f4a900">पञ्चमहाभूत</font>, <font color="#f4a900">पाञ्च ज्ञानेन्द्रिय</font>, <font color="#f4a900">पाञ्च कर्मेन्द्रि</font>य और <font color="#f4a900">मन</font>, इन सबकी उत्पत्ति होती है, तो मूल रूप से यह त्रिगुण रूप का ही चमत्कार है। इस <font color="#f4a900">त्रिगुण के कारण ही मन में शान्त, घोर और मूढ़</font> - ये तीन प्रकार की अवस्थाएं हमेशा रहती हैं। जब सत्वगुण प्रधान होता है तब शान्त अवस्था होती है; जब रजोगुण बलवान होता है तो घोर अवस्था होती है और जब तमोगुण प्रधान हो जाता है तो मूढ़ावस्था आ जाती है। इन्ही के अवान्तर भेद करके पाञ्च अवस्थाएं कही गयी हैं - <font color="#f4a900">मूढ़</font>, <font color="#f4a900">क्षिप्त</font>, <font color="#f4a900">विक्षिप्त</font>, <font color="#f4a900">एकाग्र </font>और <font color="#f4a900">निरुद्ध</font>। मूढ़, तमोगुण की और क्षिप्त रजोगुण की और विक्षिप्त सतोगुण की प्रधानता रहती है और एकाग्र में सत्व बहुत ज्यादा बढ़ जाता है, समाधी के बहुत ही करीब है और निरुद्ध तो सम्पूर्ण योग ही है। जब सारी वृत्तियाँ निरुद्ध हो जाती हैं, शान्त हो जाती हैं, तब पुरुष अपने रूप में प्रतिष्ठित, अवस्थित हो जाता है और यदि वृत्तियाँ निरुद्ध नहीं हुईं तो यह पुरुष वृत्तियों के आकार जैसा ही दिखता है :- जैसे लाल फूल के ऊपर आप स्फटिक रख दीजिये तो स्फटिक भी लाल लाल दिखता है लेकिन अगर वहां से फूल को हटा दो या लाल कपडे को हटा दो तो स्फटिक अपने शुद्ध रूप में सफ़ेद, शुभ्र, जैसा है वैसा दिखता है। जैसे कोई लाल चश्मा लगा ले तो सारी बिल्डिंगे, पेड़-पौधे सब लाल-लाल दिखें और पीला लगा ले तो पीले दिखें, हरा लगा ले तो हरे हरे दिखें ऐसे ही जो जो वृत्ति होती है उसी वृत्ति की स्वरूपता को यह धारण कर लेता है। अब यह वृत्तियाँ हज़ारों होती हैं। मिठाई के आकार की वृत्ति, साइकिल के आकार की वृत्ति, घर के आकार की वृत्ति, स्त्री के आकार की वृत्ति, पुरुष के आकार की वृत्ति परन्तु इनको अच्छी तरह से समझने के लिए महर्षि पतञ्जलि ने इनको पाञ्च विभागों में बाँट दिया -</div><div><b><font color="#f57c00">वृत्तयः पञ्चतय्यः क्लिष्टाक्लिष्टा। </font></b></div><div><br /></div><div>वृत्तियाँ पाञ्च प्रकार की होती हैं - क्लिष्ट अर्थात रागद्वेषादि क्लेशों की हेतु और अक्लिष्ट अर्थात रागद्वेषादि क्लेशों को नाश करनेवाली। </div><div>बाह्य पदार्थ असंख्य होने के कारण उनसे उत्पन्न होने वाली वृत्तियाँ भी असंख्य हैं। इन सबका सुगमता से ज्ञान हो सके इसलिए उन सब निरुद्धव्य वृत्तियों को पाञ्च श्रेणियों में विभक्त किया गया है। इन पाञ्च प्रकार की वृत्तियों में से कोई क्लिष्ट रूप होती हैं और कोई अक्लिष्ट रूप। सत्व प्रधान वृत्तियाँ अक्लिष्ट रूप होती हैं और तमस प्रधान वृत्तियाँ क्लिष्ट रूप होती हैं अर्थात जिन वृत्तियों के हेतु अविद्या आदि पाञ्च क्लेश हैं और जो कर्माशय, कर्मों के संस्कार इकठ्ठा करती हैं, कर्मों के समूह की उत्पत्ति को भूमियां हैं वे क्लिष्ट कहलाती हैं और जहाँ अविद्या आदि नहीं हैं वहां कर्माशय के समूह का भी नाश हो जाता है इसलिए वे अक्लिष्ट कहलाती हैं यद्यपि क्लिष्ट वृत्तियों के संस्कार बहुत गहरे जमे होते हैं तथापि उनके छिद्रों में सत्शास्त्र, सत्सङ्ग, गुरुजनों के उपदेश से, अभ्यास और वैराग्य से अक्लिष्ट वृत्तियाँ भी वर्तमान रहती हैं अर्थात उनके द्वारा अक्लिष्ट वृत्तियाँ उत्पन्न हो सकती हैं। वृत्तियों का यह स्वभाव के कि वे अपने सदृश संस्कारों को उत्पन्न करती हैं। क्लिष्ट वृत्तियाँ क्लिष्ट संस्कारों को उत्पन्न करती हैं और अक्लिष्ट वृत्तियाँ अक्लिष्ट संस्कारों को। इस प्रकार छिपी हुई अक्लिष्ट वृत्तियाँ उत्पन्न होकर अक्लिष्ट संस्कारों को और अक्लिष्ट संस्कार अक्लिष्ट वृत्तियों को उतपन्न करते रहते हैं। यह चक्र यदि निरन्तर चलता रहे तो क्लिष्ट वृत्तियों का निरोध हो जाता है पर इनके संस्कार सूक्ष्म रूप से वृत्तियों के छिद्रों के रूप में बने रहते हैं उनका भी जब नाश हो जाए तब निर्बीज समाधि सम्पन्न होती है । उपर्युक्त विधि के अनुसार जब क्लिष्ट वृत्तियाँ यहाँ-वहां सब जगह से दब जाती हैं तब अक्लिष्ट वृत्तियों का भी निरोध परवैराग्य से हो जाता है और इन सब वृत्तियों का निरोध ही असम्प्रज्ञात योग है। </div><div><br /></div><div>अब इन पाञ्च वृत्तियों के नाम बतलाते हैं। ये हैं - <font color="#f4a900">प्रमाण</font>, <font color="#f4a900">विपर्य</font>, <font color="#f4a900">विकल्प</font>, <font color="#f4a900">निद्रा </font>और <font color="#f4a900">स्मृति</font>। यह पाञ्च प्रकार की वृत्तियाँ हैं। </div><div><b>सबसे पहली वृत्ति</b> है प्रमाण वृत्ति जिसमें हमारा सारा लौकिक व्यवहार चलता है। वो प्रमाण हैं तीन - <font color="#f4a900">प्रत्यक्ष</font>, <font color="#f4a900">अनुमान </font>और <font color="#f4a900">आगम</font>। </div><div>प्रत्यक्ष प्रमाण वो होता है, जिसका हमको इन्द्रियों से ज्ञान होता है - रूप, रस, शब्द, स्पर्श इन सबका ज्ञान हमको आँख, कान, नाक, रसना और त्वचा से होता है। ये प्रत्यक्ष ज्ञान के करण हैं। ज्ञान को प्रमा कहते हैं और करण को प्रमाण कहते हैं और ज्ञाता को प्रमाता कहते हैं। <font color="#f4a900">ज्ञाता</font>, <font color="#f4a900">ज्ञान</font>, <font color="#f4a900">ज्ञेय</font>, <font color="#f4a900">प्रमाता</font>, <font color="#f4a900">प्रमाण</font>, <font color="#f4a900">प्रमेय</font>; यह त्रिपुटी है। प्रमा माने यथार्थ ज्ञान और उस यथार्थ ज्ञान, यथार्थ प्रमा का जो साधन है उसको प्रमाण कहते हैं जो चक्षु आदि इन्द्रियां उस ज्ञान के साधन हैं इसलिए वो प्रमाण हैं और रूप, रस, गन्धादि प्रमेय हैं तो मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सुखी हूँ, मैं दुखी हूँ ये सब प्रत्यक्ष प्रमाण हैं और यह बात मैं अनुमान से जानता हूँ और यह बात मैं वेद-शास्त्र के द्वारा जानता हूँ इस प्रकार से तीन प्रमाण होते हैं - प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम। </div><div><br /></div><div>अनुमान प्रमाण के तीन भेद होते हैं - <font color="#f4a900">पूर्ववत</font>, <font color="#f4a900">शेषवत </font>और <font color="#f4a900">सामान्यतोदृष्ट</font>। पूर्ववत अनुमान वो होता है जैसे कारण को देख के कार्य का अनुमान करना, बादलों के देखकर के होने वाली वर्षा का अनुमान कर लेना। दूसरा होता है शेषवत, कार्य से कारण का अनुमान जैसे नदी के मटीले पानी के देखकर ऊपर पहाड़ में कहीं वर्षा हुई है ऐसा अनुमान कर लेना; इसको शेषवत कहते हैं और एक होता है सामान्यतोदृष्ट - जो सामान्य रूप से देखा गया हो परन्तु विशेष रूप से न देखा गया हो जैसे घड़ा, जैसे मिटटी के बने हुए घड़े को देखकर उसके बनाने वाले कुम्हार का अनुमान कर लेना क्योंकि प्रत्येक बनी हुई वस्तु का कोई न कोई चेतन, निमित्त कारण सामान्य रूप से देखा जाता है। अनुमान का मूल प्रत्यक्ष ही है क्योंकि पूर्व प्रत्यक्ष द्वारा ही अनुमान होता है और तीसरा है आगम प्रमाण अथवा शब्द प्रमाण क्योंकि अलौकिक विषय में वेद ही प्रमाण हो सकते हैं। </div><div><b><font color="#f57c00">स्वर्गकामो यजेत् </font></b>- अब स्वर्ग किसने देखा है और जब देखा ही नहीं तो अनुमान भी कैसे कर सकते हैं तो उसमें केवल वेद ही, आप्त वचन ही प्रमाण हैं। यह प्रमाणों का विषय शास्त्रों में बड़ी ही जटिल भाषा में और बड़े ही विस्तार से वर्णन किया गया है, यहाँ तो हम संक्षेप में केवल परिचय मात्र ही दे रहे हैं। तो पाञ्च वृत्तियों में से पहली वृत्ति है प्रमाण और दूसरी वृत्ति है विपर्य। विपर्य माने - मिथ्या ज्ञान, विपरीत ज्ञान, यथार्थ ज्ञान से भिन्न। </div><div><br /></div><div><b>अतद्रूपप्रतिष्ठम् - सूत्र है</b> -<b><font color="#f57c00"> विपर्ययो मिथ्याज्ञानम् अतद्रूपप्रतिष्ठम् ।</font></b> </div><div>विपर्य माने मिथ्या ज्ञान और अतद्रूपप्रतिष्ठम् - जो उसके पदार्थ के रूप में प्रतिष्ठित नहीं है अर्थात जो उस पदार्थ के वास्तविक रूप को प्रकाशित नहीं करता। विपर्य मिथ्या ज्ञान है जो उस पदार्थ के रूप में प्रतिष्ठित नहीं है जैसे सीपी में चांदी देखना, एक चन्द्रमा में दो चन्द्रमा देखना, रज्जु में सर्प देखना, स्थाणु में पुरुष देखना चोर की कल्पना करना ये सब विपर्य ज्ञान के उदहारण हैं । </div><div><br /></div><div><b>तीसरा है विकल्प</b> - <b><font color="#f57c00">शब्दज्ञानानुपाती वस्तुशून्योविकल्पः ।</font></b> </div><div>शब्दज्ञान से उत्पन्न जो ज्ञान, उसका अनुगामी अर्थात उसके पीछे चलने वाला और वस्तु से शून्य, वस्तु की सत्ता की अपेक्षा नहीं रखता उसको विकल्पवृत्ति कहते हैं। जैसे राहु का सिर, मनुष्य ब्राह्मण है। राहु और सिर कोई अलग अलग वस्तु नहीं है; ब्राह्मण और मनुष्य कोई अलग अलग वस्तु नहीं है। यह शर्मा जी ब्राह्मण हैं और शर्मा तो ब्राह्मण होता ही है। यह पुरुष चैतन्य है; पुरुष का चैतन्य, भैय्या चैतन्य के सिवाय पुरुष होता ही कहाँ है ? तो शब्दों में तो जिसका व्यवहार हो, लोक में, परन्तु वस्तु से शून्य हो उसका नाम विकल्प है। </div><div>अनुत्पत्ति धर्मापुरुषः - पुरुष उत्पत्ति के धर्म वाला नहीं है तो पुरुष तो उत्पत्ति के धर्म वाला है ही नहीं फिर भी ऐसा शब्द व्यव्हार होता है। जैसे काठ की पुतली; पुतली तो काठ की ही होती है। मिटटी का घड़ा; घड़ा मिटटी का ही होता है। पुरुष का चैतन्य; पुरुष है तो चैतन्य ही होगा तो जहाँ अभेद में भेद और भेद में अभेद की कल्पना होती है उसको विकल्प वृत्ति कहते हैं। राहु और शिर, काठ और पुतली, यह दो-दो वस्तु नहीं है तथापि अभेद में भेद का आरोप किया गया है। लोहा और आग अथवा पानी और आग - यह दो-दो वस्तु हैं तथापि लोहे का गोला जलाने वाला है अथवा पानी से हाथ जल गया; इस कथन में भेद में अभेद का आरोप किया गया है तो शब्दज्ञानानुपाती - शब्द से तो जिसका व्यवहार हो लेकिन वास्तविकता में जो न हो। जैसे कलकत्ता यहाँ से पूरब में है लेकिन जापान में खड़े हो जाओ तो कलकत्ता पूरब में रहेगा? तो ये सब जो सापेक्ष होता है ये सब विकल्प ज्ञान है। </div><div><br /></div><div><b>अब चौथी वृत्ति है</b> - निद्रा </div><div><b><font color="#f57c00">अभावप्रत्ययालम्बना वृत्तिर्निद्रा</font></b> - अभाव प्रत्यय का जो आलम्बन करनेवाली है; मैंने कुछ नहीं जाना, मैंने कुछ नहीं देखा सबका अभाव था, न पदार्थ था न मैं था, न दृष्टा था न दृश्य था, प्रतीति मात्र का अभाव था। अभाव की प्रतीति को आश्रय करनेवाली जो वृत्ति है वो निद्रा है। निद्रा वृत्ति ही है, इसको सूचित करने के लिए सूत्र में वृत्ति शब्द का ग्रहण किया। कई आचार्य निद्रा को वृत्ति नहीं मानते किन्तु योग के आचार्य आत्मस्थिति के अतिरिक्त चित्त की प्रत्येक अवस्था को वृत्ति ही मानते हैं। अभाव शब्द से जागृत और स्वप्नावस्था की वृत्तियों का अभाव अर्थात जागृत और स्वप्न की वृत्तियों के अभाव का जो हेतु तमोगुण है उसको जानना चाहिए। रजोगुण का धर्म, क्रिया और प्रवृत्ति है। जागृत अवस्था में चित्त में रजोगुण प्रधान होता है इसलिए वह सत्वगुण को गौणरूप से अपना सहकारी बनाकर अस्थिर रूप से क्रिया में अर्थात विषयों में प्रवृत्त करने में लगा रहता है। तमोगुण का धर्म है स्थिति दबाना, रोकना अर्थात प्रकाश को और क्रिया को रोकना। सुषुप्ति अवस्था में तमोगुण, रजस तथा सत्व को प्रधान रूप से दबा देता है इसलिए चित्त में तमोगुण का ही परिणाम प्रधान रूप से होता रहता है। उस समय में अभाव की ही प्रतीति होती रहती है। जिस प्रकार एक अँधेरे कमरे में सब वस्तुएं छिप जाती हैं किन्तु सब वस्तुओं को छिपाने वाला अन्धकार दिखलाई देता है जो वस्तुओं के अभाव की प्रतीति करता है। प्राण चलता रहता है, रुधिरविचरण होता रहता है, करवटें बदलते रहते हैं लेकिन कुछ पता नहीं लगता; काम तो सारे चल रहे हैं और आत्मा तो कभी सोता ही नहीं वो तो नित्य चैतन्य है। इस प्रकार तमोगुण सुषुप्ति अवस्था में चित्त की सब वृत्तियों को दबा कर स्वयं स्थिर रूप से प्रधान रहता है किन्तु रजोगुण का नितान्त अभाव नहीं होता, तनिक मात्रा में रहता हुआ वह इस अभाव की प्रतीति कराता रहता है चित्त के ऐसे परिणाम को निद्रावृत्ति कहते हैं। तब चित्त में तमोगुण वाली, मैं सोता हूँ, इस प्रकार की वृत्ति होती है, इस वृत्ति के संस्कार चित्त में उत्पन्न होते हैं फिर उससे स्मृति होती है कि मैं सोया, मैंने कुछ नहीं जाना। यहाँ पर इतना विशेष यह भी जान लेना कि जिस निद्रा में सत्वगुण के लेशसहित तमोगुण का प्रचार होता है उस निद्रा से उठकर पुरुष को, मैं सुख से सोया मेरा मन प्रसन्न है और मेरी प्रज्ञा स्वच्छ है इस प्रकार की स्मृति होती है और जिस निद्रा में रजोगुण के लेशसहित तमोगुण का सञ्चार होता है उससे उठने पर इस प्रकार की स्मृति होती है कि मैं दुःखपूर्वक सोया, मेरा मन अस्थिर और घूमता सा है और जिस निद्रा में केवल तमोगुण का प्राबल्य होता है तो उससे उठने पर, एकदम बेसुध सोया, मेरे शरीर के अंग भारी हो रहे हैं, मेरा चित्त व्याकुल है इस प्रकार की स्मृति होती है। यदि उस वृत्ति का प्रत्यक्ष न हो तो उसके संस्कार भी न हों और संस्कार न होने से स्मृति भी नहीं हो सकती इसलिए निद्रा एक वृत्ति है, वृत्तिमात्र का अभाव नहीं है। श्रुति और स्मृतियों ने भी निद्रा को वृत्ति ही माना है -</div><div><b><font color="#f57c00"> जाग्रत्स्वप्नः सुषुप्तं च, गुणतो बुद्धिवृत्तयः </font></b></div><div><br /></div><div>जागृत, स्वप्न और निद्रा - ये गुणों से बुद्धि की वृत्तियाँ हैं। एकाग्रता के तुल्य होते हुए भी निद्रा तमोमयी होने से सबीज तथा निर्बीज समाधि की विरोधिनी है इसलिए रोकने योग्य है। नशा तथा क्लोरोफार्म आदि से उत्पन्न हुई मूर्छित अवस्था भी निद्रावृत्ति के अन्तर्गत ही है। </div><div><br /></div><div><b>अब अगली पांचवीं वृत्ति है</b> स्मृति </div><div><b><font color="#f57c00">अनुभूत विषया सम्प्रमोषः स्मृतिः</font></b> - अनुभव किया हुआ जो विषय है और उसमें असम्प्रवोश, घटाया बढ़ाया नहीं, चुराया नहीं, इधर उधर से नहीं, तन्मात्र ही, उतना ही ज्ञान होना, इसको स्मृति कहते हैं। स्मृति से भिन्न ज्ञान का नाम अनुभव है। अनुभव से ज्ञात, जानी हुई जो वस्तु है उसको अनुभूत कहते हैं। जब किसी दृष्ट या श्रुत, देखी या सुनी हुई वस्तु का ज्ञान होता है तब एक प्रकार का उस अनुभूत वस्तु का तदाकार संस्कार चित्त में पड़ जाता है फिर जब किसी समय जब कोई उद्बोधक सामग्री उपस्थित होती है तो वो संस्कार प्रफुल्लित हो उठता है और तब चित्त इस संस्कार विषयक परिणाम को प्राप्त हो जाता है। यह अनुभूत पदार्थ विषयक चित्त का तदाकार परिणाम स्मृति नाम की वृत्ति कहलाता है। इस प्रकार से संक्षेप में पाञ्च वृत्तियाँ बतायीं और इनका निरोध कैसे करना, अभ्यास और वैराग्य के द्वारा इनका निरोध होता है ये बात अगले प्रकरण में करेंगे। </div><div>धन्यवाद!</div></div></div></div><div><br /></div><div><div><b><font color="#3367d6" size="4">योगसूत्र व्याख्या सूत्र संख्या 12 से 15 तक { समाधि पाद }</font></b></div><div><br /></div><div>अब तक जो पाञ्च वृत्तियाँ बतायीं - प्रमाण, विपर्य, विकल्प, निद्रा और स्मृति; ये वृत्तियाँ सात्विक, राजस और तामस होने से सुख, दुःख और मोहस्वरूप हैं। सात्विक वृत्तियाँ सुख देती हैं, राजस दुःख देती हैं और तामस मोह की कारण हैं और सुख-दुःख-मोह ये क्लेशरूप हैं। ये सब वृत्तियाँ ही निरोध करने योग्य हैं। मोह तो स्वयं ही अविद्यारूप होने से सब दुखों का मूल है। दुःख की वृत्तियाँ स्वयं ही दुःखरूप हैं। सुख की वृत्तियाँ सुख के विषयों और उनके साधनों में राग उत्पन्न करती हैं -</div><div><b><font color="#f57c00">सुखानुशयी रागः </font></b>- सुखभोग के पश्चात् जो उसकी वासना रहती है वह राग है। उन सुख के विषयों, उन साधनों में विघ्न होने पर द्वेष उत्पन्न होता है। </div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">दुःखानुशयी द्वेषः </font></b>- इसलिए क्लेशजनक सुख, दुःख और मोहस्वरुप होने से ये सभी प्रकार की वृत्तियाँ त्याज्य हैं। इनका निरोध होनेपर एकाग्रतारूप सम्प्रज्ञात योग और उसके बाद परवैराग्य के उदय होनेपर असम्प्रज्ञात योग, स्वस्वरूपावस्थान अथवा सत्वन्यथाख्याति, सत्व से मैं अलग हूँ, सत्व माने अन्तः करण, सत्व माने चित्त, चित्त से पुरुष, जीवात्मा, शुद्ध चैतन्य अलग है; वो सबका साक्षी है, सबका दृष्टा है - साक्षी चेता केवलो निर्गुणश्च - ये स्वरुप है, इसको ही पुरुषान्यथाख्याति, सत्वन्यथाख्याति जिसको कि योग का फल बताया है। </div><div><br /></div><div><b>अब अगला बारहवां सूत्र है -</b> <b><font color="#f57c00">अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः</font></b>। </div><div>इन सारी वृत्तियों का निरोध <font color="#f57c00">अभ्यास </font>और <font color="#f57c00">वैराग्य </font>से होता है। चित्त की वृत्तियों का निरोध करने के लिए दो उपाय हैं; अभ्यास और वैराग्य। चित्त का स्वाभाविक वैरमुख प्रवाह वैराग्य द्वारा निवृत्त होता है और अभ्यास द्वारा आत्मोन्मुख, आन्तरिक प्रवाह स्थिर हो जाता है। भगवान् वेद व्यास जी ने अभ्यास और वैराग्य को बड़े सुन्दर रूपक से वर्णन किया है जो इस प्रकार है - चित्त एक नदी है जिसमें वृत्तियों का प्रवाह बहता रहता है, इसकी दो धाराएं हैं; एक संसार-सागर की ओर, दूसरी कल्याण-सागर की ओर बहती रहती है। जिसने पूर्व-जन्म में सांसारिक विषयों के भोगार्थ कार्य किये हैं उसकी वृत्तियों की धारा उन संस्कारों के कारण विषय मार्ग से बहती हुई संसार-सागर में जा मिलती है और जिसने पूर्व-जन्म में कैवल्यार्थ प्रयास किया है, काम किये हैं उसकी वृत्तियों की धारा उन संस्कारों के कारण विवेक मार्ग में बहती हुई कल्याण-सागर में जा मिलती है। संसारी लोगों की प्रायः पहली धारा तो जन्म से ही खुली होती है किन्तु दूसरी धारा को शास्त्र, गुरु, आचार्य तथा ईश्वर चिन्तन से खोलते हैं। पहली धारा को बन्द करने के लिए विषयों के स्त्रोत पर वैराग्य का बन्ध लगाया जाता है और अभ्यास के बेलचे से दूसरी धारा का मार्ग गहरा खोद कर वृत्तियों के समस्त प्रवाह को विवेक के स्त्रोत में डाल दिया जाता है तब प्रबल वेग से वह सारा प्रवाह कल्याण रुपी सागर में जा कर लीन हो जाता है। इस कारण अभ्यास तथा वैराग्य दोनों ही इकट्ठे मिलकर चित्त की वृत्तियों के निरोध के साधन हैं। </div><div><b><font color="#f57c00">आत्मा नदी संयमतोय पूर्णा आत्मा नदी संयम पुण्यतीर्था, सत्योदका शील शमादियुक्ता । </font></b></div><div><b><font color="#f57c00">तस्यां स्नातः पुण्यकर्मा पुनाति न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा ।</font></b> </div><div><br /></div><div>आत्मा नदीरूप है, संयम और पुण्य इसके तीर्थ हैं। इसमें सत्य का जल बह रहा है और सदाचार और शान्ति आदि से युक्त है। इस आत्मा रुपी नदी में जो स्नान करता है वह पवित्र हो जाता है। जल से अन्तरात्मा शुद्ध नहीं होती और आत्मा शब्द, चित्त और मन का ही पर्यायवाची है। </div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">आत्माचित्ते धृतौ यत्ने धिष्ण्याम कलेवरे परमात्मनजीवेर्के हुताशन समीरयोः। </font></b></div><div><b><font color="#f57c00">आत्मा कलेवरे यत्ने स्वभावे परमात्मने चित्ते धृतौ च बुद्धौ च परव्यावर्तकेविच।। </font></b></div><div><br /></div><div>ये धरणी कोश से लिया है। जिस प्रकार पक्षी का आकाश में उड़ना दोनों ही पंखों के अधीन होता है न केवल एक पंख के ऊपर; इसी प्रकार समस्त वृत्तियों का निरोध न केवल अभ्यास से ही और न केवल वैराग्य से ही हो सकता है किन्तु उसके लिए अभ्यास और वैराग्य, दोनों का ही समुच्चय होना आवश्यक है। तमोगुण की अधिकता से चित्त में लय, रूप, निद्रा, आलस्य, निरुत्साह आदि मूढ़ावस्था का दोष उत्पन्न होता है और रजोगुण की अधिकता से चित्त में चञ्चलता रूप विक्षेप दोष उत्पन्न होता है। अभ्यास से तमोगुण की निवृत्ति होती है और वैराग्य से रजोगुण की। योग के जो आठ प्रधान अंग बताये जाते हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार ये पांच बहिरंग हैं, उनकी सिद्धि में अभ्यास अधिक सहायक होता है और तीन अंतरंग हैं - धारणा, ध्यान और समाधि यहाँ वैराग्य सहायता करता है। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को मन को रोकने के उपाय बताते समय अभ्यास और वैराग्य दोनों को ही समुच्चय रूप से साधन बतलाया है। </div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्। </font></b></div><div><b><font color="#f57c00">अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।। </font></b></div><div><b><font color="#f57c00"><br /></font></b></div><div><b><font color="#f57c00">असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः। </font></b></div><div><b><font color="#f57c00">वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।।</font></b> </div><div><br /></div><div>यहाँ भगवान् ने अर्जुन को सम्बोधित करते हुए महाबाहो, ऐसा कह के सम्बोधन किया है, यानि के आप यह कर सकते हो। पहले भी दुसरे अध्याय में भी कहा था </div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ</font></b> - हे अर्जुन ! तु नपुंसकता को ग्रहण न कर। तु कर सकता है। हे महाबाहो ! निस्संदेह मन चञ्चल है और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ये वश में हो जाता है। दूसरा सम्बोधन है कौन्तेय। अर्थात कुन्ती का पुत्र। कुन्त, भाला की नोक को कहते हैं अर्थात कुशाग्र बुद्धि वाला, शब्दों के यथार्थ तात्पर्य को समझ के उनको प्रयोग में लाने वाला। जिसने मन को वश में नहीं किया है उसको योग की प्राप्ति कठिन है; ऐसा भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं किन्तु स्वाधीन मन वाला प्रयत्नशील, अभ्यास करनेवाला पुरुष इस सिद्धि को प्राप्त कर सकता है। वृत्तियों को रोकने के उपाय, अभ्यास और वैराग्य में से प्रथम अभ्यास का स्वरुप और प्रयोजन अगले सूत्र में बतलाते हैं। </div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">तत्रस्थितौ यत्नोभ्यासः</font></b> - तत्र, उन दोनों, अभ्यास और वैराग्य में से; स्थितौ, चित्त की स्थिति में; यत्नः, यत्न करना अभ्यास है क्योंकि दृष्टा के स्वरुप में स्थित होना है तो उस स्थिति में चित्त को स्थिर करने का नाम, बारम्बार उसको touch करने का नाम अभ्यास है। चित्त के वृत्ति रहित होकर शांत प्रवाह में बहाने की स्थिति को स्थिति कहते हैं। उस स्थिति को प्राप्त करने के लिए वीर्य, पूर्ण सामर्थ्य और उत्साह पूर्वक यत्न करना अभ्यास कहलाता है। यम-नियम आदि योग के आठ अंगों का बार बार अनुष्ठान रूप प्रयत्न अभ्यास का स्वरुप है और चित्त वृत्तियों का निरोध होना अभ्यास का प्रयोजन है। संसार व्यवहार में भी पठन-पाठन, लेखन, पाक, क्रय-विक्रय, नृत्य-गायन आदि सर्वकार्य अभ्यास से ही सिद्ध होते हैं। अभ्यास के बल से रस्सी पे चढ़े हुए नट तथा सर्कस आदि में न केवल मनुष्य किन्तु सिंह, अश्व आदि पशु भी अपनी प्रकृति के विरुद्ध आश्चर्यजनक कार्य करते हुए देखे जाते हैं। अभ्यास के प्रभाव से अतिदुस्साध्यकारी भी सिद्ध हो सकते हैं इसलिए जब मुमुक्षु चित्त की स्थिरता के लिए अभ्यासनिष्ठ होगा तो वह स्थिरता भी उसको अवश्य प्राप्त होकर चित्त वशीभूत हो जाएगा क्योंकि अभ्यास के आगे कोई भी कार्य दुष्कर नहीं है </div><div><br /></div><div><div><b><font color="#f57c00">आत्मा नदी संयमतोय पूर्णा आत्मा नदी संयम पुण्यतीर्था, सत्योदका शील शमादियुक्ता । </font></b></div><div><b><font color="#f57c00">तस्यां स्नातः पुण्यकर्मा पुनाति न वारिणा शुद्धयति चान्तरात्मा । </font></b></div><div><br /></div><div>आत्मा नदीरूप है, संयम और पुण्य इसके तीर्थ हैं। इसमें सत्य का जल बह रहा है और सदाचार और शान्ति आदि से युक्त है। इस आत्मा रुपी नदी में जो स्नान करता है वह पवित्र हो जाता है। जल से अन्तरात्मा शुद्ध नहीं होती और आत्मा शब्द, चित्त और मन का ही पर्यायवाची है। </div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">आत्माचित्ते धृतौ यत्ने धिष्ण्याम कलेवरे परमात्मनजीवेर्के हुताशन समीरयोः। </font></b></div><div><b><font color="#f57c00">आत्मा कलेवरे यत्ने स्वभावे परमात्मने चित्ते धृतौ च बुद्धौ च परव्यावर्तकेविच।। </font></b></div><div><br /></div><div>ये धरणी कोश से लिया है। जिस प्रकार पक्षी का आकाश में उड़ना दोनों ही पंखों के अधीन होता है न केवल एक पंख के ऊपर; इसी प्रकार समस्त वृत्तियों का निरोध न केवल अभ्यास से ही और न केवल वैराग्य से ही हो सकता है किन्तु उसके लिए अभ्यास और वैराग्य, दोनों का ही समुच्चय होना आवश्यक है। तमोगुण की अधिकता से चित्त में लय, रूप, निद्रा, आलस्य, निरुत्साह आदि मूढ़ावस्था का दोष उत्पन्न होता है और रजोगुण की अधिकता से चित्त में चञ्चलता रूप विक्षेप दोष उत्पन्न होता है। अभ्यास से तमोगुण की निवृत्ति होती है और वैराग्य से रजोगुण की। योग के जो आठ प्रधान अंग बताये जाते हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार ये पांच बहिरंग हैं, उनकी सिद्धि में अभ्यास अधिक सहायक होता है और तीन अंतरंग हैं - धारणा, ध्यान और समाधि यहाँ वैराग्य सहायता करता है। गीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने भी अर्जुन को मन को रोकने के उपाय बताते समय अभ्यास और वैराग्य दोनों को ही समुच्चय रूप से साधन बतलाया है। </div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्। </font></b></div><div><b><font color="#f57c00">अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।। </font></b></div><div><b><font color="#f57c00"><br /></font></b></div><div><b><font color="#f57c00">असंयतात्मना योगो दुष्प्राप इति मे मतिः। </font></b></div><div><b><font color="#f57c00">वश्यात्मना तु यतता शक्योऽवाप्तुमुपायतः।। </font></b></div><div><br /></div><div>यहाँ भगवान् ने अर्जुन को सम्बोधित करते हुए महाबाहो, ऐसा कह के सम्बोधन किया है, यानि के आप यह कर सकते हो। पहले भी दुसरे अध्याय में भी कहा था </div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">क्लैव्यं मा स्म गम: पार्थ</font></b> - हे अर्जुन ! तु नपुंसकता को ग्रहण न कर। तु कर सकता है। हे महाबाहो ! निस्संदेह मन चञ्चल है और कठिनता से वश में होने वाला है परन्तु हे कुन्तीपुत्र अर्जुन ! अभ्यास और वैराग्य के द्वारा ये वश में हो जाता है। दूसरा सम्बोधन है कौन्तेय। अर्थात कुन्ती का पुत्र। कुन्त, भाला की नोक को कहते हैं अर्थात कुशाग्र बुद्धि वाला, शब्दों के यथार्थ तात्पर्य को समझ के उनको प्रयोग में लाने वाला। जिसने मन को वश में नहीं किया है उसको योग की प्राप्ति कठिन है; ऐसा भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं किन्तु स्वाधीन मन वाला प्रयत्नशील, अभ्यास करनेवाला पुरुष इस सिद्धि को प्राप्त कर सकता है। वृत्तियों को रोकने के उपाय, अभ्यास और वैराग्य में से प्रथम अभ्यास का स्वरुप और प्रयोजन अगले सूत्र में बतलाते हैं। </div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">तत्रस्थितौ यत्नोभ्यासः</font></b> - तत्र, उन दोनों, अभ्यास और वैराग्य में से; स्थितौ, चित्त की स्थिति में; यत्नः, यत्न करना अभ्यास है क्योंकि दृष्टा के स्वरुप में स्थित होना है तो उस स्थिति में चित्त को स्थिर करने का नाम, बारम्बार उसको touch करने का नाम अभ्यास है। चित्त के वृत्ति रहित होकर शांत प्रवाह में बहाने की स्थिति को स्थिति कहते हैं। उस स्थिति को प्राप्त करने के लिए वीर्य, पूर्ण सामर्थ्य और उत्साह पूर्वक यत्न करना अभ्यास कहलाता है। यम-नियम आदि योग के आठ अंगों का बार बार अनुष्ठान रूप प्रयत्न अभ्यास का स्वरुप है और चित्त वृत्तियों का निरोध होना अभ्यास का प्रयोजन है। संसार व्यवहार में भी पठन-पाठन, लेखन, पाक, क्रय-विक्रय, नृत्य-गायन आदि सर्वकार्य अभ्यास से ही सिद्ध होते हैं। अभ्यास के बल से रस्सी पे चढ़े हुए नट तथा सर्कस आदि में न केवल मनुष्य किन्तु सिंह, अश्व आदि पशु भी अपनी प्रकृति के विरुद्ध आश्चर्यजनक कार्य करते हुए देखे जाते हैं। अभ्यास के प्रभाव से अतिदुस्साध्यकारी भी सिद्ध हो सकते हैं इसलिए जब मुमुक्षु चित्त की स्थिरता के लिए अभ्यासनिष्ठ होगा तो वह स्थिरता भी उसको अवश्य प्राप्त होकर चित्त वशीभूत हो जाएगा क्योंकि अभ्यास के आगे कोई भी कार्य दुष्कर नहीं है। </div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">क्रियासिद्धिः सत्त्वे भवति महतां नोपकरणे</font></b> - यहाँ पर सत्व शब्द का अर्थ उत्साह और संकल्प की दृढ़ता में ही है समुद्र के प्रेरणा से राम ने अथवा तो नल ने या सब वानरों ने मिलकर के इतने लम्बे-चौड़े समुद्र के ऊपर बड़ा भारी पल बना दिया था, यह सब उत्साह और दृढ़ संकल्पशक्ति का ही परिणाम है। अब हमारे अभ्यास में जो विघ्नरूप राजस और तामस वृत्तियों के अनादि प्रबल संस्कार चित्त की एकाग्रता के जो विरोधी हैं उनसे प्रतिबद्ध, उनसे घिरा हुआ अभ्यास, एकाग्रतारूप जो स्थिति है उसको सम्पादन करने में हम कैसे समर्थ हो सकते हैं इस शङ्का की निवृत्ति के लिए अगले सूत्र में अभ्यास की भूमि दृढ़ कैसे हो इसके उपाय बताते हैं। </div><div>स: तु दीर्घकाल नैरन्तर्य सत्कारासेवितो दृढभूमिः। </div><div><br /></div><div><b>सः</b> माने वह, जो पूर्वक अभ्यास है वह। </div><div><b>तु</b> माने किन्तु </div><div><b>दीर्घकाल </b>- माने बहुत लम्बे काल पर्यन्त </div><div><b>नैरन्तर्य </b>- निरन्तर अर्थात लगातार, व्यवधान रहित </div><div><b>सत्कार आसेवितः</b> - सत्कार से आदरपूर्वक ठीक ठीक सेवन किया हुआ अर्थात श्रद्धा वीर्य भक्तिपूर्वक अनुष्ठान किया हुआ </div><div><b>दृढ़भूमिः </b>- दृढ़ अवस्था वाला हो जाता है। </div><div><br /></div><div>विषयभोग और वासनाजन्य व्युत्थान के संस्कार मनुष्य के चित्त में अनादि जन्म-जन्मान्तरों से पड़े चले आ रहे हैं उनको थोड़े ही समय में बीज-सहित नष्ट कर देना अत्यन्त कठिन कार्य है। वे निरोध के संस्कारों को तनिक सी भी असावधानी होने पर दबा के धर-दबोचते हैं इस कारण अभ्यास को दृढ़ भूमि बनाने के लिए धैर्य के साथ दीर्घकाल पर्यन्त लगातार श्रद्धा और उत्साहपूर्वक प्रयत्न करते रहना चाहिए। ये दृढ़भूमि प्राप्त कर के लिए सूत्र में तीन विशेषण दिए हैं। </div><div><br /></div><div><b>पहला विशेषण है 'दीर्घकाल'</b> - वहां दीर्घकाल से दस-बीस आदि वर्षों का नियम नहीं है क्योंकि योग के अधिकारी भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। जिन्होंने पूर्व-जन्मों में अभ्यास के संस्कारों को दृढ़ कर लिया है और जिनका वैराग्य भी तीव्र है उनको शीघ्र या अतिशीघ्र समाधि का लाभ हो जाता है। इतरजनों को शीघ्र समाधि-लाभ नहीं होता तो उन्हें निराश नहीं होना चाहिए किन्तु धैर्य के साथ चिरकाल तक एकाग्रता के निमित्त दृढ़ अवस्था के लिए अभ्यास का सेवन करते रहना चाहिए। </div><div><br /></div><div> <b>दूसरा विशेषण है 'नैरन्तर्य'</b> - अर्थात अभ्यास को लगातार, निरन्तर, व्यवधान रहित करते रहना चाहिए। रोज एक ही समय पर और जितना काल निश्चित कर लिया है उतने काल के लिए, ऐसा न हो कि एक मास अभ्यास किया और फिर दस दिन के लिए छोड़ दिया और फिर तीन मास किया और फिर एक मास के लिए छोड़ दिया। इस प्रकार व्यवधान के साथ किया हुआ अभ्यास बहुत समय में भी दृढ़भूमि नहीं हो पाता इसलिए बिना व्यवधान के, बिना अन्तराल के, बिना रूकावट के अभ्यास को निरन्तर करते रहना चाहिए। </div><div><br /></div><div><b>तीसरा विशेषण है 'सत्कार आसेवितः'</b> - वह अभ्यास ठीक ठीक अभ्यास पूर्वक श्रद्धा, भक्ति, वीर्य, ब्रह्मचर्य और उत्साहपूर्वक अनुष्ठान किया जाना चाहिए। दीर्घकाल तक निरन्तर सेवन किया हुआ अभ्यास भी बिना इस विशेषण के दृढ़ अवस्था वाला नहीं हो सकेगा। इन तीनो विशेषणों से युक्त अभ्यास, व्युत्थानरूप जो राजस, तामस वृत्तियाँ हैं उनके संस्कारों को प्रतिबद्ध कर सकेगा और इन संस्कारों को तिरोभूत करके चित्त की स्थिरता रूप प्रयोजन को सिद्ध करने में समर्थ हो सकेगा। अतः अभ्यासी जनों को थोड़े काल में हीअभ्यास से घबरा नहीं जाना चाहिए किन्तु दृढ़भूमि प्राप्ति के लिए दीर्घकाल, निरन्तर सत्कार से अभ्यास करते रहना चाहिए। इस सूत्र में जो सत्कार शब्द है उसका अर्थ श्रद्धा होता है - <b><font color="#f57c00">श्रद्धा योगिनं जननीमिवपाति</font></b> - श्रद्धा माता की तरह योगी की रक्षा करती है। गीता में भी भगवान् ने श्रद्धा को तीन तीन रूपों में बांटा है -</div><div><b><font color="#f57c00">त्रिविधा भवति श्रद्धा देहिनां सा स्वभावजा। </font></b></div><div><b><font color="#f57c00">सात्त्विकी राजसी चैव तामसी चेति तां श्रृणु।। १७-२।। </font></b></div><div><br /></div><div>वो तो गीता के सत्रहवें अध्याय में उसका नाम ही है - श्रद्धा त्रिविभाग योग </div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">त्रिविधा भवति श्रद्धा देहि प्रकृति भेदतः। </font></b></div><div><b><font color="#f57c00">सात्विकी राजसी चैव तामसीति बुभुत्सवः। </font></b></div><div><b><font color="#f57c00">तासान्तु लक्षणं विप्राः शृणुध्वं भक्तिभावतः।। </font></b></div><div><b><font color="#f57c00"><br /></font></b></div><div><b><font color="#f57c00">श्रद्धा सा सात्विकी ज्ञेया विशुद्धज्ञानमूलिका । </font></b></div><div><b><font color="#f57c00">प्रवृत्तिमूलिका चैव जिज्ञासा मूलिकाऽपरा। </font></b></div><div><b><font color="#f57c00">विचारहीन संस्कार मूलिका त्वन्तिमा मता।।</font></b> </div><div><br /></div><div>अर्थात देहधारियों की प्रकृति के भेदानुसार सात्विक, राजसिक और तामसिक तीन प्रकार की श्रद्धा होती है। विशुद्ध ज्ञानमूलक श्रद्धा सात्विक है, प्रवृत्ति और जिज्ञासामूलक श्रद्धा राजसिक है और विचारहीन संस्कारमूलक श्रद्धा तामसिक है। इनमें सात्विक श्रद्धा ही श्रेष्ठ है। सूत्र में इसी श्रद्धा को 'सत्कार' शब्द से अनुष्ठान करना बतलाया गया है। </div><div><br /></div><div>अब अगला सूत्र वैराग्य के विषय में है। ये वैराग्य दो प्रकार होता है - अपर <b>वैराग्य </b>और पर <b>वैराग्य</b>। अगले सूत्र में प्रथम अपर वैराग्य का रूप बताते हैं-</div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">दृष्टानुश्रविक विषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यं</font></b></div><div><br /></div><div>दृष्ट-आनुश्रविक-विषय-वितृष्णस्य। <b>दृष्ट </b>माने देखे हुए और <b>आनुश्रविक </b>माने सुने हुए तो देखे और सुने हुए विषयों में जिसको कोई तृष्णा नहीं है उसका "<b><font color="#f57c00">वशीकार संज्ञा वैराग्यं</font></b>", वशीकार नाम वाला ये वैराग्य है। दृष्ट माने देखे हुए - बम्बई, कलकत्ता देखा हुआ है, वहां पर कोई वासना इकट्ठी हो जाए और स्वर्गादि सुने हुए हैं उसके विषय में कोई तृष्णा हो जाए इनका वश में होना, तृष्णा का वश में होना। देखे और सुने हुए विषयों में जो तृष्णा है, प्राप्त करने की इच्छा है उसका वश में होना उसी का नाम है वशीकार वैराग्य। इस वैराग्य का नाम है वशीकार वैराग्य और इसी को अपर वैराग्य भी कहते हैं। विषय दो प्रकार के होते हैं दृष्ट और आनुश्रविक। दृष्ट वे हैं जो इस लोक में दृष्टिगोचर होते हैं जैसे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श; रसमलाई, मलाई, पूरी, कचौरी, रबड़ी और धन-सम्पत्ति, स्त्री, राज्य, ऐश्वर्य और आनुश्रविक वे हैं जो वेदों और शास्त्रों में जिनका वर्णन हुआ है - वैकुण्ठ, गोलोक, स्वर्ग, अमरावती, अलकावती ये सब दो प्रकार होते हैं - शरीरान्तर वेद्य जैसे देवलोक, स्वर्ग, विदेह और प्रकृतिलय का आनन्द और अवस्थान्तर वेद्य जैसे दिव्यरस, दिव्यागन्ध अथवा तीसरे पाद में अर्जित की हुई सिद्धियां; इन दोनों प्रकार के - दिव्य और अदिव्य, सांसारिक और पारलौकिक इन विषयों की उपस्थिति में जब चित्त प्रसंख्यान ज्ञान के बल से, इनमें दोषदृष्टि के बल से इनको देखता हुआ "इनके संग से दोष प्राप्त होता है", ऐसा विचार करता हुआ जब इनको न ग्रहण करता है न इनसे परे हटता है, वीतराग अवस्था में, इनमें उसका ग्रहण करने वाला राग और उससे परे हटने वाला द्वेष ये दोनों निवृत्त हो जाते हैं जैसा कि कहा गया है -</div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः । </font></b></div><div><br /></div><div>ये कुमारसम्भव का बड़ा ही प्रसिद्ध श्लोक है कि विकार का हेतु, विकार का कारण उपस्थित होनेपर भी जिनके चित्तों में विकार उत्पन्न नहीं होता वे ही धीर पुरुष हैं। पूरा श्लोक इस प्रकार है -</div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">प्रत्यर्थिभूतामपितांसमाधे: शुश्रूषमाणां गिरिशोनुमेने विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः ।</font></b></div><div><br /></div><div>समाधि में विघ्नस्वरुप वो जो गिरिराज की कन्या, गिरिराज की अनुमति से भगवान् शङ्कर के सेवा में लगी हुई थी उसकी उपस्थिति होनेपर भी सेवा करते हुए भी भगवान् शङ्कर के चित्त में कोई विकार नहीं हुआ उनकी समाधि खण्डित नहीं हुई - <b><font color="#f57c00">येषां न चेतांसि त एव धीराः</font></b>, </div><div>भगवान् ने गीता में भी कहा है - <b><font color="#f57c00">मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदा आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत। </font></b></div><div><b><font color="#f57c00"><br /></font></b></div><div>ये जो शब्दस्पर्शादि विषय हैं ये आगमापायी हैं, आने-जाने वाले हैं; इनको प्राप्त करके मोहित न हो जाना, इनको सहन कर लो तो इस प्रकार जो धीर पुरुष हैं उनका चित्त एकरस बना रहता है। चित्त की ऐसी अवस्था का नाम ही वशीकार संज्ञा वैराग्य है। इसी को अपर वैराग्य भी कहते हैं जिसकी अपेक्षा से दुसरे सूत्र में पर वैराग्य बतलाया है। किसी विषय के केवल त्यागने को वैराग्य नहीं कहते क्योंकि रोगादि होने के कारण भी विषयों से अरुचि हो जाती है जिससे उनका त्यागना हो जाता है। किसी विषय के अप्राप्त होने पर भी उसका भोग नहीं किया जा सकता। दिखावे के लिए तथा भय, लोभ और मोह के वशीभूत होकर अथवा दूसरों के आग्रह से भी किसी विषय को त्यागा जा सकता है। डॉक्टर मना कर दे, शुगर मत खाओ, मजबूरी है, क्या करे परन्तु उसकी तृष्णा सूक्ष्म रूप से बनी रहती है। विवेक के द्वारा विषयों को "अनन्त दुःख रूप हैं और बन्धन का कारण है", ऐसा समझ कर उनमें पूर्णतया अरुचि का हो जाना तथा उसमें सर्वथा संगदोष से निवृत्त हो जाना, यही वैराग्य का लक्षण है। </div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">न जातु कामः कामानां उपभोगेन शाम्यति । </font></b></div><div><b><font color="#f57c00">हविषा कृष्णवत्मैर्व भुय एवाभिवर्धते।। </font></b></div><div><br /></div><div>ये राजा ययाति की प्रसिद्ध उक्ति है - विषयों की कामना विषयों के भोग से कभी शान्त नहीं होती किन्तु जैसे अग्नि में हवि डालने से अग्नि की ज्वाला और अधिक प्रज्वलित होती है, बढ़ती है इस तरह से भोगने से भोग की अभिलाषा और बढ़ती जाती है। भर्तृहरि जी ने भी कहा है -</div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ताः तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः । </font></b></div><div><b><font color="#f57c00">कालो न यातो वयमेव याताः तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः।। </font></b></div><div><br /></div><div>अर्थात भोग नहीं भोगे गए, भोगों ने ही हमको भोग लिया किन्तु हमीं भोगे गए; तप नहीं तपे, हमीं तप गए; समय नहीं बीता किन्तु हम ही बीत गए; तृष्णा जीर्ण नहीं हुई किन्तु हम ही जीर्ण हो गए। </div><div><br /></div><div>वैराग्य की चार संज्ञाएं, चार नाम हैं - <b>यत्मान </b>वैराग्य, <b>व्यतिरेक </b>वैराग्य, <b>एकेन्द्रिय </b>वैराग्य और <b>वशीकार </b>वैराग्य। </div><div><br /></div><div><b>यत्मान वैराग्य</b> वह है जैसे कि चित्त में रागद्वेष पहले से ही जमे हुए हैं, उनके संस्कार, कुछ अच्छा लगता है, कुछ बुरा लगता है तो इन्द्रियों को अपने अपने विषयों में वो रागद्वेष प्रवृत्त करते हैं। उन रागद्वेषादि दोषों को बार बार चिन्तनरूप प्रयत्न से जिससे कि वो इन्द्रियों को उन विषयों में प्रवृत्त न कर सकें वो यत्मान संज्ञक वैराग्य है। </div><div><br /></div><div><b>व्यतिरेक वैराग्य</b> फिर विषयों में दोषों का चिन्तन करते करते निवृत्त और विद्यमान चित्त मलरूप दोषों का व्यतिरेक निश्चय अर्थात इतने मल निवृत्त हो गए हैं और इतने निवृत्त हो रहे हैं और इतने निवृत्त होनेवाले हैं। इस प्रकार जो निवृत्त और विद्यमान चित्त-मलों का पृथक-पृथक रूप से जो ज्ञान है, वह व्यतिरेक संज्ञक ज्ञान है। </div><div><br /></div><div><b>एकेन्द्रिय वैराग्य</b> - जब यह चित्त मलरूपी रागादि दोष बाह्य इन्द्रियों को तो इन्द्रियों में प्रवृत्त करने में समर्थ हो गए हों किन्तु सूक्ष्म रूप से मन में निवास करते हों जिससे विषयों की सन्निधि जब उपस्थित हो तो फिर से चित्त में क्षोभ उत्पन्न कर सकें। तो इस प्रकार जब केवल मन में सूक्ष्म रूप से विषय की वासना बनी रहती है तो उसको एकेन्द्रिय वैराग्य, उसका नाम उस वैराग्य की संज्ञा हो जाती है एकेन्द्रिय वैराग्य, केवल मन में रहता है, राग या तृष्णा और वशीकार संज्ञा उसकी होती है कि जब सूक्ष्मरूप से भी जब चित्त के मल रागादि दोषों की निवृत्ति हो जाए और दिव्य-अदिव्य, सुने हुए, देखे हुए समस्त विषयों के उपस्थित होनेपर भी उपेक्षा बुद्धि रहे, अपेक्षा-बुद्धि न रहे तब यह तीनों संज्ञाओं से परे, उसका नाम होता है वशीकार संज्ञक वैराग्य अर्थात यह ज्ञान कि "ममैते वश्या नाहं एतेषां वश्य", ये मेरे वशीभूत हैं, मैं इनके वशीभूत नहीं हूँ। ये पहली तीन भूमि वाले वैराग्य निरोध के साक्षात हेतु नहीं हैं। निरोध का साक्षात हेतु तो ये चौथी भूमि वाला जो वशीकार संज्ञक वैराग्य है, वही है। इसलिए सूत्रकार ने इसी वशीकार संज्ञा वाले वैराग्य का वर्णन किया। </div><div><br /></div><div><b><font color="#f57c00">दृष्टानुश्रविक विषयवितृष्णस्य वशीकारसंज्ञा वैराग्यं।</font></b> </div><div><br /></div><div>किन्तु ये जो वशीकार संज्ञा वाला विरगय है ये तीन भूमियों को पार करके ही प्राप्त होता है। जब तक इन तीन भूमियों को लांघकर नहीं जाएगा तब तक ये चौथी भूमि, वशीकार वैराग्य तक नहीं पहुँच पायेगा और इसी का दूसरा नाम है अपर वैराग्य और इसका फल है एकाग्रता और सम्प्रज्ञात समाधि जिसकी सबसे ऊंची भूमि पुरुष और चित्त की भिन्नता प्रतीत करानेवाली विवेकख्याति है। वैराग्य के बिना विवेक होता नहीं किन्तु यह भी त्रिगुणात्मक चित्त की ही एक वृत्ति है इससे भी विरक्त हो जाना, तो उसको पर वैराग्य कहते हैं और उसका फल है असम्प्रज्ञात समाधि। सम्प्रज्ञात समाधि के साधन अपर वैराग्य को बतला कर अब अगले सूत्र में असम्प्रज्ञात समाधि का साधन जो पर वैराग्य है उसका वर्णन अगले प्रकरण में करेंगे। </div><div>धन्यवाद ! </div></div></div>Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-27300008674791264762020-03-30T10:52:00.001+05:302020-05-09T19:15:03.599+05:30अग्नि<div style="text-align: center;">
<b>भगवान् शङ्कर के भजन-पूजन के लिए अग्निकार्य के वर्णन से अग्नि की व्याख्या</b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>--------------------------------------------------------------------------------------------------</b></div>
<br />
अग्निकुण्ड तैयार करके ब्रह्मवृक्ष(पलास या गूलर) आदि के छिद्ररहित बिछले दो पत्ते लेकर उन्हें कुश से पोंछे और अग्नि में तपकर उनका प्रोक्षण करें । उन्हीं पत्तों को स्रुक और स्त्रुवा का रूप दे उनमें घी उठाये और अपने गृह्यसूत्र में बताये हुए क्रम से शिवबीज (ॐ) सहित आठ बीजाक्षरों द्वारा अग्नि में आहुति दे । इससे अग्नि का संसार संपन्न होता है । वे बीज इस प्रकार हैं - <b>भ्रुं, स्तुं, ब्रुं, श्रुं, पुं, ड्रुं, द्रुं</b> । ये साथ हैं, इनमें शिवबीज (ॐ) को सम्मिलित कर लेनेपर <span style="color: #b45f06;">आठ बीजाक्षर</span> होते हैं । उपर्युक्त साथ बीज क्रमशः अग्नि की साथ जिह्वाओं के हैं । उनकी मध्यमा जिह्वा का नाम बहुरूपा है । उसकी तीन शिखाएं हैं । उनमें से एक शिखा दक्षिण में और दूसरी वाम दिशा (उत्तर) में प्रज्वलित होती है और बीचवाली शिखा बीच में ही प्रकाशित होती है । ईशानकोण में जो जिह्वा है, उसका नाम हिरण्या है । पुर्वदिशा में विद्यमान जिह्वा कनका नाम से प्रसिद्ध है । अग्निकोण में रक्ता, नैऋत्यकोण में कृष्णा और वायव्यकोण में सुप्रभा नाम की जिह्वा प्रकाशित होती है । इनके अतिरिक्त पश्चिम में जो जिह्वा प्रज्वलित होती है, उसका नाम मरुत यही । इन सबकी प्रभा अपने-अपने नाम के अनुरूप है । अपने-अपने बीज के अनन्तर क्रमशः इनका नाम लेना चाहिए और नाम के अंत में स्वाहा का प्रयोग करना चाहिए । इस तरह जो जिह्वामन्त्र बनते हैं, उनके द्वारा क्रमशः प्रत्येक जिह्वा के लिए एक एक घी की आहुति दे, परन्तु मध्यमा की तीन जिह्वाओं के लिए तीन आहुतियां दे ।<br />
<br />
<b>जिह्वामन्त्र - </b><br />
ओं भ्रुं त्रिशिखायै बहुरूपायै स्वाहा(दक्षिण मध्ये उत्तर च) ३ ।<br />
ओं स्तुं हिरण्यायै स्वाहा(ऐशान्यै) १ ।<br />
ओं ब्रुं कनकायै स्वाहा(पूर्वस्याम्) १ ।<br />
ओं श्रुं रक्तायै स्वाहा(आग्नेय्याम्) १ ।<br />
ओं पुं कृष्णायै स्वाहा(नैऋत्याम्) १ ।<br />
ओं ड्रुं सुप्रभायै स्वाहा(पश्चिमायाम्) १ ।<br />
ओं द्रुं मरुज्जिह्वायै स्वाहा(वायव्ये) १ ।<br />
<span style="text-align: center;"><span style="color: #b45f06;">(शिव पुराण, वायव्य संहिता, उत्तर खण्ड, अध्याय २३)</span></span><br />
<span style="text-align: center;"><span style="color: #b45f06;"><br /></span></span>
<br />
<br />
अध्याय ५९ - अग्निपुराण <br />
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<b>बीजमन्त्र</b></div>
<div style="text-align: center;">
--------------</div>
<br />
आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी - ये पांच भूत हैं । इनके द्वारा ही सबका आधारभूत स्थूल शरीर उत्पन्न होता है । इन तत्वों के वाचक जो उत्तम बीज-मन्त्र हैं उनका न्यास के लिए यहाँ वर्णन किया जाता है । <br />
<br />
'मं' - यह बीज जीवस्वरूप (अथवा जीवतत्व का वाचक) है । वह सम्पूर्ण शरीर में व्यापक है - इस भावना के साथ उक्त बीज का सम्पूर्ण देह में व्यापक-न्यास करना चाहिए ।<br />
<br />
'भं' - यह प्राणतत्व का प्रतीक है । यह जीव की उपाधि में स्थित है, अतः इसका वहीँ न्यास करना चाहिए ।<br />
<br />
'बं' - विद्वान पुरुष बुद्धितत्व के बोधक बकार का ह्रदय में न्यास करे । <br />
<br />
'फं' - यह अहङ्कार का स्वरुप है अतः इसका भी ह्रदय में न्यास करें ।<br />
<br />
'पं' - संकल्प के कारणभूत मनस्तत्त्वरूप पकार का भी वहीँ न्यास करें ।<br />
<br />
'नं' - शब्दतन्मात्रतत्त्व के बोधक नकार का मस्तक में न्यास करें <br />
<br />
'धं' - स्पर्शरूप धकार का मुखप्रदेश में न्यास करें ।<br />
<br />
'दं' - रुपतत्व के वाचक का न्यास नेत्रप्रान्त में ।<br />
<br />
'थं' - रसतन्मात्रा के बोधक का वस्तिदेश(मूत्राशय) में न्यास करें ।<br />
<br />
'तं' - गन्धतन्मात्रास्वरुप, पिण्डलियों में न्यास।<br />
<br />
'णं' - दोनों कानों में न्यास ।<br />
<br />
'ढं' - त्वचा में न्यास <br />
<br />
'डं' - दोनों नेत्रों में न्यास <br />
<br />
'ठं' - रसना में न्यास <br />
<br />
'टं' - नासिका में न्यास <br />
<br />
'ञं' - वागिन्द्रिय में न्यास <br />
<br />
'झं' - पाणितत्वरूप का दोनों हाथों में न्यास <br />
<br />
'जं' - दोनों पैरों में न्यास <br />
<br />
'छं' - पायु में न्यास <br />
<br />
'चं' - उपस्थ में न्यास <br />
<br />
'ङं' - पृथ्वी तत्त्व का प्रतीक, युगल चरणों में न्यास <br />
<br />
'घं' - वस्ति में न्यास <br />
<br />
'गं' - तेजस्तत्वस्वरूप, ह्रदय में न्यास <br />
<br />
'खं' - वायुतत्व का प्रतीक, नासिका में न्यास <br />
<br />
'कं' - आकाशतत्त्वस्वरूप, मस्तक में न्यास ।<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b>भारतवर्ष का वर्णन</b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>--------------------------</b></div>
<div style="text-align: center;">
अध्याय ११८, अग्निपुराण </div>
<br />
अग्निदेव कहते हैं: समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण की जो वर्ष है, उसका नाम 'भारत' है । उसका विस्तार नौ हज़ार योजन है । स्वर्ग तथा अपवर्ग पाने की इच्छा वाले पुरुषों के लिए यह कर्मभूमि है । महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान, हिमालय, विन्ध्य और पारियात्र - ये साथ यहाँ के कुल-पर्वत हैं । इन्द्रद्वीप, कसेरु, ताम्रवर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गान्धर्व और वारुण - ये आठ द्वीप हैं । समुद्र से घिरा हुआ भारत नवां द्वीप है ।<br />
भारतद्वीप उत्तर से दक्षिण की ओर हज़ारों योजन लम्बा है । भारत के उपर्युक्त नौ भाग हैं । भारत की स्थिति मध्य में है । इसमें पूर्व की ओर किरात और पश्चिम में यवन रहते हैं । मध्यभाग में ब्राह्मण आदि वर्णों का निवास है । वेद-स्मृति आदि नदियां पारियात्र पर्वत से निकलती हैं । विंध्याचल से नर्मदा आदि प्रकट हुई हैं । सह्य पर्वत से तापी, पयोष्णी, गोदावरी, भीमरथी और कृष्णवेणा आदि नदियों का प्रादुर्भाव हुआ है ।<br />
<br />
मलय से कृतमाला आदि और महेन्द्रपर्वत से त्रिसामा आदि नदियां निकली हैं । शुक्तिमान से कुमारि आदि और हिमालय से चन्द्रभागा आदि का प्रादुर्भाव हुआ है । भारत के पश्चिम में कुरु, पाञ्चाल और मध्यदेश आदि की स्थिति है ।<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b>भुवनकोश वर्णन </b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>----------------------</b></div>
<br />
अग्निदेव कहते हैं: वसिष्ठ ! भूमि का विस्तार सत्तर हज़ार योजन बताया गया है । इसकी ऊंचाई दस हज़ार योजन है । पृथ्वी के भीतर सात पाताल हैं । एक-एक पाताल दस-दस हज़ार योजन विस्तृत है । सात पातालों के नाम इस प्रकार हैं - अतल, वितल, नितल, प्रकाशमान महातल, सुतल, तलातल और सातवां रसातल या पाताल। इन पातालों की भूमियां क्रमशः काली, पीली, लाल, सफ़ेद, कंकरीली, पथरीली और सुवर्णमयी है । वे सभी पाताल बड़े रमणीय हैं । उनमें दैत्य और दानव आदि सुखपूर्वक निवास करते हैं । समस्त पातालों के नीचे शेषनाग विराजमान हैं, जो भगवान् विष्णु के तमोगुण-प्रधान विग्रह हैं । उनमें अनन्त गुण हैं, इसीलिए उन्हें 'अनन्त' भी कहते हैं । वे अपने मस्तक पर इस पृथ्वी को धारण करते हैं ।<br />
पृथ्वी के नीचे अनेक नरक हैं, परन्तु जो भगवान् विष्णु का भक्त है, वह इन नरकों में नहीं पड़ता है । सूर्यदेव से प्रकाशित होनेवाली पृथ्वी का जितना विस्तार है, उतना ही नभोलोक(अन्तरिक्ष या भुवर्लोक) का विस्तार माना गया है । वसिष्ठ ! पृथ्वी से एक लाख योजन दूर सूर्यमण्डल है<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;"><b>त्रिपुष्करोग </b></span>- जिन नक्षत्रों के तीन चरण दूसरी राशि में प्रविष्ट हों । जैसे कृत्तिका, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, उत्तराषाढ़ा और पूर्वाभाद्रपदा - इन नक्षत्रों में, जब भद्रा द्वितीय, सप्तमी और द्वादशी तिथियां हों एवं राशि, शनि तथा मंगलवार हों तो त्रिपुष्कर योग होगा<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b>नाड़ीचक्र का वर्णन </b><br />
(अग्निपुराण अध्याय २१४) </div>
<div style="text-align: center;">
<b><br /></b></div>
<span style="color: #b45f06;">अग्निदेव कहते हैं</span> - वसिष्ठ ! अब मैं नाड़ीचक्र के विषय में कहता हूँ जिसके जानने से श्रीहरि का ज्ञान हो जाता है। नाभि के अधोभाग में कन्द(मूलाधार) है उससे अङ्कुरों की भांति नाड़ियां निकली हुई हैं । नाभि के मध्य में बहत्तर हज़ार नाड़ियां स्थित हैं । इन नाडियों ने शरीर को ऊपर-नीचे दाएं-बाएं सब ओर से व्याप्त कर रखा है और ये चक्राकार होकर स्थित हैं । इनमें प्रधान दस नाड़ियां हैं - इड़ा, पिङ्गला, सुषुम्णा, गान्धारी, हस्तिजिह्वा, पृथा, यशा, अलम्बुषा, कुहू और दसवीं शङ्किनी । ये दस प्राणों का वहन करनेवाली प्रमुख नाड़ियां बतलायी गयीं । प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनञ्जय - ये दस 'प्राणवायु' हैं । इनमें प्रथम वायु प्राण दसों का स्वामी है । यह प्राण - रिक्तता की पूर्ति प्रति प्राणों को प्राणयन(प्रेरण) करता है और सम्पूर्ण प्राणियों के हृदयदेश में स्थित रहकर अपान-वायुद्वारा मल-मूत्रादि के त्याग इ होनेवाली रिक्तता को नित्य पूर्ण करता है । जीव में आश्रित यह प्राण श्वासोछवास और कास आदि द्वारा प्रयाण (गमनागमन) करता है, इसलिए इसे 'प्राण' कहा गया है । अपानवायु मनुष्यों के आहार को नीचे की ओर ले जाता है और मूत्र एवं शुक्र आदि को भी नीचे की ओर वहन करता है इस अपानयन के कारण से 'अपान' कहा जाता है । समानवायु मनुष्यों के खाये-पिए और सूंघे हुए पदार्थों को एवं रक्त पित्त कफ और वात को सारे अंगों में समानभाव से ले जाता है इस कारण उसे उसे समान कहा गया है । उदान नामक वायु मुख और अधरों को स्पन्दित करता है नेत्रों की अरुणिमा को बढ़ाता है और मर्मस्थानों को उद्विग्न करता है इसीलिए उसका नाम 'उदान' है । 'व्यान' अंगों को पीड़ित करता है । यही व्याधि को कुपित करता है और कण्ठ को अवरुद्ध कर देता है । व्यापनशील होने से इसे 'व्यान' कहा गया है। 'नागवायु' उदगार(डकार-वमन आदि) में और 'कूर्मवायु' नयनों के उन्मीलन(खोलने) में प्रवृत्त होता है । 'कृकर' भक्षण में और 'देवदत्त' वायु जम्भाई में अधिष्ठित है । 'धनञ्जय' पवन का स्थान घोष है । यह मृत शरीर का भी परित्याग नहीं करता । इन दसों द्वारा जीव प्रयाण करता है इसलिए प्राणभेद से नाड़ीचक्र के भी दस भेद हैं ।<br />
<br />
संक्रान्ति, विषुव, दिन, रात, अयन, अधिमास, ऋण, उनरात्र एवं धन - ये सूर्य की गति से होनेवाली दस दशाएं शरीर में भी होती हैं । इस शरीर में हिक्का(हिचकी), उनरात्र, विजृंभिका(जम्भाई), अधिमास, कास(खांसी), ऋण और निःश्वास 'धन' कहा जाता है । शरीरगत वामनाड़ी 'उत्तरायण' और दक्षिणनाड़ी 'दक्षिणायन' है । दोनों के मध्य में नासिका के दोनों छिद्रों से निर्गत होने वाली श्वासवायु 'विषुव' कहलाती है । इस विषुववायु का ही अपने स्थान से चलकर दुसरे स्थान ये युक्त होना 'संक्रान्ति' है । द्विजश्रेष्ठ वसिष्ठ ! शरीर के मध्य में सुषुम्णा स्थित है, वामभाग में 'इड़ा' और दक्षिणभाग में 'पिङ्गला' है । ऊर्ध्वगतिवाला प्राण 'दिन' माना गया है और अधोगामी अपान को 'रात्रि' कहा गया है । एक प्राणवायु ही दस वायु के रूप में विभाजित है । देह के भीतर जो प्राणवायु का आयाम(बढ़ना) है, उसे 'चन्द्रग्रहण' कहते हैं । वही जब देह से ऊपर तक बढ़ जाता है तब उसे 'सूर्यग्रहण' मानते हैं ।<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b>धनुष के लक्षण </b></div>
<div style="text-align: center;">
(अग्निपुराण अध्याय २४५ )</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<span style="color: #b45f06;">अग्निदेव कहते हैं:</span> वसिष्ठ ! धनुष के निर्माण के लिए लौह, श्रृंग या काष्ठ - इन तीन द्रव्यों का प्रयोग करें । प्रत्यञ्चा के लिए तीन वस्तु उपयुक्त हैं - वंश, भङ्ग एवं चर्म ।<br />
<br />
दारुनिर्मित श्रेष्ठ धनुष का प्रमाण चार हाथ माना गया है । उसी में क्रमशः एक एक हाथ कम मध्यम और अधम होता है । मुष्टिग्राह के निमित्त धनुष के मध्यभाग में द्रव्य निर्मित करावे ।<br />
<br />
धनुष की कोटि कामिनी की भ्रू-लता के समान आकारवाली एवं अत्यंत संयत बनवानी चाहिए । लौह या श्रृंग के धनुष के धनुष पृथक-पृथक एक ही द्रव्य के या मिश्रित भी बनवाये जा सकते हैं । श्रृंगनिर्मित धनुष को अत्यन्त उपयुक्त तथा सुवर्ण बिंदुओं से अलङ्कृत करें । कुटिल, स्फुटित या छिद्रयुक्त धनुष निन्दित होता है । धातुओं में सुवर्ण, रजत, ताम्र एवं कृष्ण लौह का धनुष के निर्माण में प्रयोग करें । शार्ङ्गधनुषों में - महिष, शरभ एवं रोहिण मृग के श्रृंगों से निर्मित चाप शुभ माना गया है । चन्दन, बेतस, साल, धव तथा अर्जुन वृक्ष के काष्ठ से बना हुआ दारुमय शरासन उत्तम होता है । इनमें भी शरद ऋतु में काटकर लिए गए पके बांसों से निर्मित धनुष सर्वोत्तम माना जाता है । धनुष एवं खङ्ग की त्रैलोक्यमोहन मन्त्र से पूजा करें ।<br />
<br />
लोहे, बांस, सरकण्डे अथवा उससे भिन्न किसी और वस्तु के बने हुए बाण सीधे, स्वर्णाभ, स्नायुश्लिष्ट, सुवर्णपुङ्गभूषित, तैलधौत, सुनहले एवं उत्तम पंखयुक्त होने चाहिए ।<br />
<div>
<br />
<div style="text-align: center;">
<b>बारह प्रकार के सजातीय पुत्र</b> </div>
<div style="text-align: center;">
(अग्निपुराण - अध्याय २५६)</div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<span style="color: #b45f06;">औरस </span>- अपनी धर्मपत्नी से स्वकीय वीर्यद्वारा उत्पादित पुत्र। यह सब पुत्रों में मुख्य होता है ।<br />
<span style="color: #b45f06;">पुत्रिकापुत्र </span>- यह भी औरस के समान ही है ।<br />
<span style="color: #b45f06;">क्षेत्रज</span> - अपनी स्त्री के गर्भ से किसी सगोत्र या सपिण्ड पुरुष के द्वारा अथवा देवर के द्वारा उत्पन्न पुत्र ।<br />
<span style="color: #b45f06;">गूढ़ज </span>- पति के घर में छिपे तौर जो सजातीय पुरुष से उत्पन्न होता है ।<br />
<span style="color: #b45f06;">कानीन </span>- अविवाहिता कन्या से उत्पन्न पुत्र । वह नाना का पुत्र माना गया है ।<br />
<span style="color: #b45f06;">पौनर्भव </span>- अक्षतयोनि या क्षतयोनि की विधवा से सजातीय पुरुष द्वारा उत्पन्न पुत्र ।<br />
<span style="color: #b45f06;">दत्तक </span>- जिसे माता या पिता किसी को गोद दे दें ।<br />
<span style="color: #b45f06;">क्रीतपुत्र </span>- जिसे किसी माता-पिता ने खरीदा और दुसरे माता-पिता ने बेचा हो ।<br />
<span style="color: #b45f06;">कृत्रिम</span> - जिस को स्वयं धन आदि का लोभ देकर पुत्र बनाया गया हो ।<br />
<span style="color: #b45f06;">दत्तात्मा </span>- माता-पिता से रहित बालक जो "मुझे अपना पुत्र बना लें" - ऐसा कहकर स्वयं आत्मसमर्पण करता है ।<br />
<span style="color: #b45f06;">सहोढज</span> - जो विवाह से पूर्व ही गर्भ में आ गया और गर्भवती के विवाह होनेपर उसके साथ परिणीत हो गया ।<br />
<span style="color: #b45f06;">अपविद्ध</span> - जिसे माता-पिता ने त्याग दिया हो वह समान वर्ण का पुत्र यदि को ले ले ।<br />
<br />
इनमें से पूर्व पूर्व के अभाव में उत्तर उत्तर पिण्डदाता और धनांशभागी होता है<br />
<b>*</b><span style="color: #b45f06;">धर्मपत्नी </span>- अपने समान वर्ण की पत्नी जब धर्मविवाह के अनुसार ब्याहकर लायी जाती है ।</div>
<br />Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-38095603157467379462020-03-27T18:17:00.001+05:302020-03-27T18:17:18.838+05:30पञ्चावरण शिवमहास्तोत्र<div>उपमन्युरुवाच<br></div><div><main id="content" class="mw-body"><div id="bodyContent" class="content"><div id="mw-content-text" lang="sa" dir="ltr" class="mw-content-ltr"><div class="mw-parser-output"><section class="mf-section-0" id="mf-section-0"><div class="poem"><p>स्तोत्रं वक्ष्यामि ते कृष्ण पञ्चावरणमार्गतः ॥ ७.२,३१.१<br>योगेश्वरमिदं पुण्यं कर्म येन समाप्यते ॥ ७.२,३१.१<br>जय जय जगदेकनाथ शंभो प्रकृतिमनोहर नित्यचित्स्वभाव ॥ ७.२,३१.२<br>अतिगतकलुषप्रपञ्चवाचामपि मनसां पदवीमतीततत्त्वम् ॥ ७.२,३१.२<br>स्वभावनिर्मलाभोग जय सुन्दरचेष्टित ॥ ७.२,३१.३<br>स्वात्मतुल्यमहाशक्ते जय शुद्धगुणार्णव ॥ ७.२,३१.३<br>अनन्तकांतिसंपन्न जयासदृशविग्रह ॥ ७.२,३१.४<br>अतर्क्यमहिमाधार जयानाकुलमंगल ॥ ७.२,३१.४<br>निरंजन निराधार जय निष्कारणोदय ॥ ७.२,३१.५<br>निरन्तरपरानन्द जय निर्वृतिकारण ॥ ७.२,३१.५<br>जयातिपरमैश्वर्य जयातिकरुणास्पद ॥ ७.२,३१.६<br>जय स्वतंत्रसर्वस्व जयासदृशवैभव ॥ ७.२,३१.६<br>जयावृतमहाविश्व जयानावृत केनचित् ॥ ७.२,३१.७<br>जयोत्तर समस्तस्य जयात्यन्तनिरुत्तर ॥ ७.२,३१.७<br>जयाद्भुत जयाक्षुद्र जयाक्षत जयाव्यय ॥ ७.२,३१.८<br>जयामेय जयामाय जयाभाव जयामल ॥ ७.२,३१.८<br>महाभुज महासार महागुण महाकथ ॥ ७.२,३१.९<br>महाबल महामाय महारस महारथ ॥ ७.२,३१.९<br>नमः परमदेवाय नमः परमहेतवे ॥ ७.२,३१.१०<br>नमश्शिवाय शांताय नमश्शिवतराय ते ॥ ७.२,३१.१०<br>त्वदधीनमिदं कृत्स्नं जगद्धि ससुरासुरम् ॥ ७.२,३१.११<br>अतस्त्वद्विहितामाज्ञां क्षमते को ऽतिवर्तितुम् ॥ ७.२,३१.१२<br>अयं पुनर्जनो नित्यं भवदेकसमाश्रयः ॥ ७.२,३१.१३<br>भवानतो ऽनुगृह्यास्मै प्रार्थितं संप्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.१३<br>जयांबिके जगन्मातर्जय सर्वजगन्मयि ॥ ७.२,३१.१४<br>जयानवधिकैश्वर्ये जयानुपमविग्रहे ॥ ७.२,३१.१४<br>जय वाङ्मनसातीते जयाचिद्ध्वांतभंजिके ॥ ७.२,३१.१५<br>जय जन्मजराहीने जय कालोत्तरोत्तरे ॥ ७.२,३१.१५<br>जयानेकविधानस्थे जय विश्वेश्वरप्रिये ॥ ७.२,३१.१६<br>जय विश्वसुराराध्ये जय विश्वविजृंभिणि ॥ ७.२,३१.१६<br>जय मंगलदिव्यांगि जय मंगलदीपिके ॥ ७.२,३१.१७<br>जय मंगलचारित्रे जय मंगलदायिनि ॥ ७.२,३१.१७<br>नमः परमकल्याणगुणसंचयमूर्तये ॥ ७.२,३१.१८<br>त्वत्तः खलु समुत्पन्नं जगत्त्वय्येव लीयते ॥ ७.२,३१.१८<br>त्वद्विनातः फलं दातुमीश्वरोपि न शक्नुयात् ॥ ७.२,३१.१९<br>जन्मप्रभृति देवेशि जनोयं त्वदुपाश्रितः ॥ ७.२,३१.१९<br>अतो ऽस्य तव भक्तस्य निर्वर्तय मनोरथम् ॥ ७.२,३१.२०<br>पञ्चवक्त्रो दशभुजः शुद्धस्फटिकसन्निभः ॥ ७.२,३१.२०<br>वर्णब्रह्मकलादेहो देवस्सकलनिष्कलः ॥ ७.२,३१.२१<br>शिवभक्तिसमारूढः शांत्यतीतस्सदाशिवः ॥ ७.२,३१.२१<br>भक्त्या मयार्चितो मह्यं प्रार्थितं शं प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.२१<br>सदाशिवांकमारूढा शक्तिरिच्छा शिवाह्वया ॥ ७.२,३१.२२<br>जननी सर्वलोकानां प्रयच्छतु मनोरथम् ॥ ७.२,३१.२२<br>शिवयोर्दयिता पुत्रौ देवौ हेरंबषण्मुखौ ॥ ७.२,३१.२३<br>शिवानुभावौ सर्वज्ञौ शिवज्ञानामृताशिनौ ॥ ७.२,३१.२३<br>तृप्तौ परस्परं स्निग्धौ शिवाभ्यां नित्यसत्कृतौ ॥ ७.२,३१.२४<br>सत्कृतौ च सदा देवौ ब्रह्माद्यैस्त्रिदशैरपि ॥ ७.२,३१.२४<br>सर्वलोकपरित्राणं कर्तुमभ्युदितौ सदा ॥ ७.२,३१.२५<br>स्वेच्छावतारं कुर्वंतौ स्वांशभेदैरनेकशः ॥ ७.२,३१.२५<br>ताविमौ शिवयोः पार्श्वे नित्यमित्थं मयार्चितौ ॥ ७.२,३१.२६<br>तयोराज्ञां पुरस्कृत्य प्रार्थितं मे प्रयच्छताम् ॥ ७.२,३१.२६<br>शुद्धस्फटिकसंकाशमीशानाख्यं सदाशिवम् ॥ ७.२,३१.२७<br>मूर्धाभिमानिनी मूर्तिः शिवस्य परमात्मनः ॥ ७.२,३१.२७<br>शिवार्चनरतं शांतं शांत्यतीतं मखास्थितम् ॥ ७.२,३१.२८<br>पञ्चाक्षरांतिमं बीजं कलाभिः पञ्चभिर्युतम् ॥ ७.२,३१.२८<br>प्रथमावरणे पूर्वं शक्त्या सह समर्चितम् ॥ ७.२,३१.२९<br>पवित्रं परमं ब्रह्म प्रार्थितं मे प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.२९<br>बालसूर्यप्रतीकाशं पुरुषाख्यं पुरातनम् ॥ ७.२,३१.३०<br>पूर्ववक्त्राभिमानं च शिवस्य परमेष्ठिनः ॥ ७.२,३१.३०<br>शांत्यात्मकं मरुत्संस्थं शम्भोः पादार्चने रतम् ॥ ७.२,३१.३१<br>प्रथमं शिवबीजेषु कलासु च चतुष्कलम् ॥ ७.२,३१.३१<br>पूर्वभागे मया भक्त्या शक्त्या सह समर्चितम् ॥ ७.२,३१.३२<br>पवित्रं परमं ब्रह्म प्रार्थितं मे प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.३२<br>अञ्जनादिप्रतीकाशमघोरं घोरविग्रहम् ॥ ७.२,३१.३३<br>देवस्य दक्षिणं वक्त्रं देवदेवपदार्चकम् ॥ ७.२,३१.३३<br>विद्यापादं समारूढं वह्निमण्डलमध्यगम् ॥ ७.२,३१.३४<br>द्वितीयं शिवबीजेषु कलास्वष्टकलान्वितम् ॥ ७.२,३१.३४<br>शंभोर्दक्षिणदिग्भागे शक्त्या सह समर्चितम् ॥ ७.२,३१.३५<br>पवित्रं मध्यमं ब्रह्म प्रार्थितं मे प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.३५<br>कुंकुमक्षोदसंकाशं वामाख्यं वरवेषधृक् ॥ ७.२,३१.३६<br>वक्त्रमुत्तरमीशस्य प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठितम् ॥ ७.२,३१.३६<br>वारिमंडलमध्यस्थं महादेवार्चने रतम् ॥ ७.२,३१.३७<br>तुरीयं शिवबीजेषु त्रयोदशकलान्वितम् ॥ ७.२,३१.३७<br>देवस्योत्तरदिग्भागे शक्त्या सह समर्चितम् ॥ ७.२,३१.३८<br>पवित्रं परमं ब्रह्म प्रार्थितं मे प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.३८<br>शंखकुंदेंदुधवलं संध्याख्यं सौम्यलक्षणम् ॥ ७.२,३१.३९<br>शिवस्य पश्चिमं वक्त्रं शिवपादार्चने रतम् ॥ ७.२,३१.३९<br>निवृत्तिपदनिष्ठं च पृथिव्यां समवस्थितम् ॥ ७.२,३१.४०<br>तृतीयं शिवबीजेषु कलाभिश्चाष्टभिर्युतम् ॥ ७.२,३१.४०<br>देवस्य पश्चिमे भागे शक्त्या सह समर्चितम् ॥ ७.२,३१.४१<br>पवित्रं परमं ब्रह्म प्रार्थितं मे प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.४१<br>शिवस्य तु शिवायाश्च हृन्मूर्तिशिवभाविते ॥ ७.२,३१.४२<br>तयोराज्ञां पुरस्कृत्य ते मे कामं प्रयच्छताम् ॥ ७.२,३१.४२<br>शिवस्य च शिवायाश्च शिखामूर्तिशिवाश्रिते ॥ ७.२,३१.४३<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां ते मे कामं प्रयच्छताम् ॥ ७.२,३१.४३<br>शिवस्य च शिवायाश्च वर्मणा शिवभाविते ॥ ७.२,३१.४४<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां ते मे कामं प्रयच्छताम् ॥ ७.२,३१.४४<br>शिवस्य च शिवायाश्च नेत्रमूर्तिशिवाश्रिते ॥ ७.२,३१.४५<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां ते मे कामं प्रयच्छताम् ॥ ७.२,३१.४५<br>अस्त्रमूर्ती च शिवयोर्नित्यमर्चनतत्परे ॥ ७.२,३१.४६<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां ते मे कामं प्रयच्छताम् ॥ ७.२,३१.४६<br>वामौ ज्येष्ठस्तथा रुद्रः कालो विकरणस्तथा ॥ ७.२,३१.४७<br>बलो विकरणश्चैव बलप्रमथनः परः ॥ ७.२,३१.४७<br>सर्वभूतस्य दमनस्तादृशाश्चाष्टशक्तयः ॥ ७.२,३१.४८<br>प्रार्थितं मे प्रयच्छंतु शिवयोरेव शासनात् ॥ ७.२,३१.४८<br>अथानंतश्च सूक्ष्मश्च शिवश्चाप्येकनेत्रकः ॥ ७.२,३१.४९<br>एक रुद्राख्यमर्तिश्च श्रीकण्ठश्च शिखंडकः ॥ ७.२,३१.४९<br>तथाष्टौ शक्तयस्तेषां द्वितीयावरणे ऽर्चिताः ॥ ७.२,३१.५०<br>ते मे कामं प्रयच्छंतु शिवयोरेव शासनात् ॥ ७.२,३१.५०<br>भवाद्या मूर्तयश्चाष्टौ तासामपि च शक्तयः ॥ ७.२,३१.५१<br>महादेवादयश्चान्ये तथैकादशमूर्तयः ॥ ७.२,३१.५१<br>शक्तिभिस्सहितास्सर्वे तृतीयावरणे स्थिताः ॥ ७.२,३१.५२<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां दिशंतु फलमीप्सितम् ॥ ७.२,३१.५२<br>वृक्षराजो महातेजा महामेघसमस्वनः ॥ ७.२,३१.५३<br>मेरुमंदरकैलासहिमाद्रिशिखरोपमः ॥ ७.२,३१.५३<br>सिताभ्रशिखराकारः ककुदा परिशोभितः ॥ ७.२,३१.५४<br>महाभोगींद्रकल्पेन वालेन च विराजितः ॥ ७.२,३१.५४<br>रक्तास्यशृंगचरणौ रक्तप्रायविलोचनः ॥ ७.२,३१.५५<br>पीवरोन्नतसर्वांगस्सुचारुगमनोज्ज्वलः ॥ ७.२,३१.५५<br>प्रशस्तलक्षणः श्रीमान्प्रज्वलन्मणिभूषणः ॥ ७.२,३१.५६<br>शिवप्रियः शिवासक्तः शिवयोर्ध्वजवाहनः ॥ ७.२,३१.५६<br>तथा तच्चरणन्यासपावितापरविग्रहः ॥ ७.२,३१.५७<br>गोराजपुरुषः श्रीमाञ्छ्रीमच्छूलवरायुधः ॥ ७.२,३१.५७<br>तयोराज्ञां पुरस्कृत्य स मे कामं प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.५७<br>नन्दीश्वरो महातेजा नगेन्द्रतनयात्मजः ॥ ७.२,३१.५८<br>सनारायणकैर्देवैर्नित्यमभ्यर्च्य वंदितः ॥ ७.२,३१.५८<br>शर्वस्यांतःपुरद्वारि सार्धं परिजनैः स्थितः ॥ ७.२,३१.५९<br>सर्वेश्वरसमप्रख्यस्सर्वासुरविमर्दनः ॥ ७.२,३१.५९<br>सर्वेषां शिवधर्माणामध्यक्षत्वे ऽभिषेचितः ॥ ७.२,३१.६०<br>शिवप्रियश्शिवासक्तश्श्रीमच्छूलवरायुधः ॥ ७.२,३१.६०<br>शिवाश्रितेषु संसक्तस्त्वनुरक्तश्च तैरपि ॥ ७.२,३१.६१<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे कामं प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.६१<br>महाकालो महाबाहुर्महादेव इवापरः ॥ ७.२,३१.६२<br>महादेवाश्रितानां १ तु नित्यमेवाभिरक्षतु ॥ ७.२,३१.६२<br>शिवप्रियः शिवासक्तश्शिवयोरर्चकस्सदा ॥ ७.२,३१.६३<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.६३<br>सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः शास्ता विष्नोः परा तनुः ॥ ७.२,३१.६४<br>महामोहात्मतनयो मधुमांसासवप्रियः ॥ ७.२,३१.६४<br>तयोराज्ञां पुरस्कृत्य स मे कामं प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.६४<br>ब्रह्माणी चैव माहेशी कौमारी वैष्णवी तथा ॥ ७.२,३१.६५<br>वाराही चैव माहेंद्री चामुंडा चंडविक्रमा ॥ ७.२,३१.६५<br>एता वै मातरः सप्त सर्वलोकस्य मातरः ॥ ७.२,३१.६६<br>प्रार्थितं मे प्रयच्छंतु परमेश्वरशासनात् ॥ ७.२,३१.६६<br>मत्तमातंगवदनो गंगोमाशंकरात्मजः ॥ ७.२,३१.६७<br>आकाशदेहो दिग्बाहुस्सोमसूर्याग्निलोचनः ॥ ७.२,३१.६७<br>ऐरावतादिभिर्दिव्यैर्दिग्गजैर्नित्यमर्चितः ॥ ७.२,३१.६८<br>शिवज्ञानमदोद्भिन्नर्स्त्रिदशानामविघ्नकृत् ॥ ७.२,३१.६८<br>विघ्नकृच्चासुरादीनां विघ्नेशः शिवभावितः ॥ ७.२,३१.६९<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.६९<br>षण्मुखश्शिवसम्भूतः शक्तिवज्रधरः प्रभुः ॥ ७.२,३१.७०<br>अग्नेश्च तनयो देवो ह्यपर्णातनयः पुनः ॥ ७.२,३१.७०<br>गंगायाश्च गणांबायाः कृत्तिकानां तथैव च ॥ ७.२,३१.७१<br>विशाखेन च शाखेन नैगमेयेन चावृतः ॥ ७.२,३१.७१<br>इंद्रजिच्चंद्रसेनानीस्तारकासुरजित्तथा ॥ ७.२,३१.७२<br>शैलानां मेरुमुख्यानां वेधकश्च स्वतेजसा ॥ ७.२,३१.७२<br>तप्तचामीकरप्रख्यः शतपत्रदलेक्षणः ॥ ७.२,३१.७३<br>कुमारस्सुकुमाराणां रूपोदाहरणं महत् ॥ ७.२,३१.७३<br>शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपदार्चकस्सदा ॥ ७.२,३१.७४<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.७४<br>ज्येष्ठा वरिष्ठा वरदा शिवयोर्यजनेरता ॥ ७.२,३१.७५<br>तयोराज्ञां पुरस्कृत्य सा मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.७५<br>त्रैलोक्यवंदिता साक्षादुल्काकारा गणांबिका ॥ ७.२,३१.७६<br>जगत्सृष्टिविवृद्ध्यर्थं ब्रह्मणा ऽभ्यर्थिता शिवात् ॥ ७.२,३१.७६<br>शिवायाः प्रविभक्ताया भ्रुवोरन्तरनिस्सृताः ॥ ७.२,३१.७७<br>दक्षायणी सती मेना तथा हैमवती ह्युमा ॥ ७.२,३१.७७<br>कौशिक्याश्चैव जननी भद्रकाल्यास्तथैव च ॥ ७.२,३१.७८<br>अपर्णायाश्च जननी पाटलायास्तथैव च ॥ ७.२,३१.७८<br>शिवार्चनरता नित्यं रुद्राणी रुद्रवल्लभा ॥ ७.२,३१.७९<br>सत्कृट्य शिवयोराज्ञां सा मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.७९<br>चंडः सर्वगणेशानः शंभोर्वदनसंभवः ॥ ७.२,३१.८०<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.८०<br>पिंगलो गणपः श्रीमाञ्छिवासक्तः शिवप्रियः ॥ ७.२,३१.८१<br>आज्ञया शिवयोरेव स मे कामं प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.८१<br>भृंगीशो नाम गणपः शिवराधनतत्परः ॥ ७.२,३१.८२<br>सम्बन्धसामान्यविवक्षया कर्मणि पष्ठी<br>प्रयच्छतु स मे कामं पत्युराज्ञा पुरःसरम् ॥ ७.२,३१.८२<br>वीरभद्रो महातेजा हिमकुंदेंदुसन्निभः ॥ ७.२,३१.८३<br>भद्रकालीप्रियो नित्यं मात्ःणां चाभिरक्षिता ॥ ७.२,३१.८३<br>यज्ञस्य च शिरोहर्ता दक्षस्य च दुरात्मनः ॥ ७.२,३१.८४<br>उपेंद्रेंद्रयमादीनां देवानामंगतक्षकः ॥ ७.२,३१.८४<br>शिवस्यानुचरः श्रीमाञ्छिवशासनपालकः ॥ ७.२,३१.८५<br>शिवयोः शासनादेव स मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.८५<br>सरस्वती महेशस्य वाक्सरोजसमुद्भवा ॥ ७.२,३१.८६<br>शिवयोः पूजने सक्ता स मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.८६<br>विष्णोर्वक्षःस्थिता लक्ष्मीः शिवयोः पूजने रता ॥ ७.२,३१.८७<br>शिवयोः शासनादेव सा मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.८७<br>महामोटी महादेव्याः पादपूजापरायणा ॥ ७.२,३१.८८<br>तस्या एव नियोगेन सा मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.८८<br>कौशिकी सिंहमारूढा पार्वत्याः परमा सुता ॥ ७.२,३१.८९<br>विष्णोर्निद्रामहामाया महामहिषमर्दिनी ॥ ७.२,३१.८९<br>निशंभशुंभसंहत्री मधुमांसासवप्रिया ॥ ७.२,३१.९०<br>सत्कृत्य शासनं मातुस्सा मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.९०<br>रुद्रा रुद्रसमप्रख्याः प्रथमाः प्रथितौजसः ॥ ७.२,३१.९१<br>भूताख्याश्च महावीर्या महादेवसमप्रभाः ॥ ७.२,३१.९१<br>नित्यमुक्ता निरुपमा निर्द्वन्द्वा निरुपप्लवाः ॥ ७.२,३१.९२<br>सशक्तयस्सानुचरास्सर्वलोकनमस्कृताः ॥ ७.२,३१.९२<br>सर्वेषामेव लोकानां सृष्टिसंहरणक्षमाः ॥ ७.२,३१.९३<br>परस्परानुरक्ताश्च परस्परमनुव्रताः ॥ ७.२,३१.९३<br>परस्परमतिस्निग्धाः परस्परनमस्कृताः ॥ ७.२,३१.९४<br>शिवप्रियतमा नित्यं शिवलक्षणलक्षिताः ॥ ७.२,३१.९४<br>सौम्याधारास्तथा मिश्राश्चांतरालद्वयात्मिकाः ॥ ७.२,३१.९५<br>विरूपाश्च सुरूपाश्च नानारूपधरास्तथा ॥ ७.२,३१.९५<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां ते मे कामं दिशंतु वै ॥ ७.२,३१.९६<br>देव्या प्रियसखीवर्गो देवीलक्षणलक्षितः ॥ ७.२,३१.९६<br>सहितो रुद्रकन्याभिः शक्तिभिश्चाप्यनेकशः ॥ ७.२,३१.९७<br>तृतीयावरणे शंभोर्भक्त्या नित्यं समर्चितः ॥ ७.२,३१.९७<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु मंगलम् ॥ ७.२,३१.९८<br>दिवाकरो महेशस्य मूर्तिर्दीप्तिसुमंडलः ॥ ७.२,३१.९८<br>निर्गुणो गुणसंकीर्णस्तथैव गुणकेवलः ॥ ७.२,३१.९९<br>अविकारात्मकश्चाद्य एकस्सामान्यविक्रियः ॥ ७.२,३१.९९<br>असाधारणकर्मा च सृष्टिस्थितिलयक्रमात् ॥ ७.२,३१.१००<br>एवं त्रिधा चतुर्धा च विभक्ताः पञ्चधा पुनः ॥ ७.२,३१.१००<br>चतुर्थावरणे शंभोः पूजितश्चानुगैः सह ॥ ७.२,३१.१०१<br>शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपादार्चने रतः ॥ ७.२,३१.१०१<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु मंगलम् ॥ ७.२,३१.१०२<br>दिवाकरषडंगानि दीप्ताद्याश्चाष्टशक्तयः ॥ ७.२,३१.१०२<br>आदित्यो भास्करो भानू रविश्चेत्यनुपूर्वशः ॥ ७.२,३१.१०३<br>अर्को ब्रह्मा तथा रुद्रो विष्नुश्चादित्यमूर्तयः ॥ ७.२,३१.१०३<br>विस्तरासुतराबोधिन्याप्यायिन्यपराः पुनः ॥ ७.२,३१.१०४<br>उषा प्रभा तथा प्राज्ञा संध्या चेत्यपि शक्तयः ॥ ७.२,३१.१०४<br>सोमादिकेतुपर्यंता ग्रहाश्च शिवभाविताः ॥ ७.२,३१.१०५<br>शिवयोराज्ञयानुन्ना मंगलं प्रदिशंतु मे ॥ ७.२,३१.१०५<br>अथवा द्वादशादित्यास्तथा द्वादश शक्तयः ॥ ७.२,३१.१०६<br>ऋषयो देवगंधर्वाः पन्नगाप्सरसां गणाः ॥ ७.२,३१.१०६<br>ग्रामण्यश्च तथा यक्षा राक्षसाश्चासुरास्तथा ॥ ७.२,३१.१०७<br>सप्तसप्तगणाश्चैते सप्तच्छंदोमया हयाः ॥ ७.२,३१.१०७<br>वालखिल्या दयश्चैव सर्वे शिवपदार्चकाः ॥ ७.२,३१.१०८<br>सत्कृत्यशिवयोराज्ञां मंगलं प्रदिशंतु मे ॥ ७.२,३१.१०८<br>ब्रह्माथ देवदेवस्य मूर्तिर्भूमण्डलाधिपः ॥ ७.२,३१.१०९<br>चतुःषष्टिगुणैश्वर्यो बुद्धितत्त्वे प्रतिष्ठितः ॥ ७.२,३१.१०९<br>निर्गुणो गुणसंकीर्णस्तथैव गुणकेवलः ॥ ७.२,३१.११०<br>अविकारात्मको देवस्ततस्साधारणः पुरः ॥ ७.२,३१.११०<br>असाधारणकर्मा च सृष्टिस्थितिलयक्रमात् ॥ ७.२,३१.१११<br>भुवं त्रिधा चतुर्धा च विभक्तः पञ्चधा पुनः ॥ ७.२,३१.१११<br>चतुर्थावरणे शंभो पूजितश्च सहानुगैः ॥ ७.२,३१.११२<br>शिवप्रियः शिवासक्तश्शिवपादार्चने रतः ॥ ७.२,३१.११२<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु मंगलम् ॥ ७.२,३१.११३<br>हिरण्यगर्भो लोकेशो विराट्कालश्च पूरुषः ॥ ७.२,३१.११३<br>सनत्कुमारः सनकः सनंदश्च सनातनः ॥ ७.२,३१.११४<br>प्रजानां पतयश्चैव दक्षाद्या ब्रह्मसूनवः ॥ ७.२,३१.११४<br>एकादश सपत्नीका धर्मस्संकल्प एव च ॥ ७.२,३१.११५<br>शिवार्चनरताश्चैते शिवभक्तिपरायणाः ॥ ७.२,३१.११५<br>शिवाज्ञावशगास्सर्वे दिशंतु मम मंगलम् ॥ ७.२,३१.११६<br>चत्वारश्च तथा वेदास्सेतिहासपुराणकाः ॥ ७.२,३१.११६<br>धर्मशास्त्राणि विद्याभिर्वैदिकीभिस्समन्विताः ॥ ७.२,३१.११७<br>परस्परविरुद्धार्थाः शिवप्रकृतिपादकाः ॥ ७.२,३१.११७<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां मंगलं प्रदिशंतु मे ॥ ७.२,३१.११८<br>अथ रुद्रो महादेवः शंभोर्मूर्तिर्गरीयसी ॥ ७.२,३१.११८<br>वाह्नेयमण्डलाधीशः पौरुषैश्वर्यवान्प्रभुः ॥ ७.२,३१.११९<br>शिवाभिमानसंपन्नो निर्गुणस्त्रिगुणात्मकः ॥ ७.२,३१.११९<br>केवलं सात्त्विकश्चापि राजसश्चैव तामसः ॥ ७.२,३१.१२०<br>अविकाररतः पूर्वं ततस्तु समविक्रियः ॥ ७.२,३१.१२०<br>असाधारणकर्मा च सृष्ट्यादिकरणात्पृथक् ॥ ७.२,३१.१२१<br>ब्रह्मणोपि शिरश्छेत्ता जनकस्तस्य तत्सुतः ॥ ७.२,३१.१२१<br>जनकस्तनयश्चापि विष्णोरपि नियामकः ॥ ७.२,३१.१२२<br>बोधकश्च तयोर्नित्यमनुग्रहकरः प्रभुः ॥ ७.२,३१.१२२<br>अंडस्यांतर्बहिर्वर्ती रुद्रो लोकद्वयाधिपः ॥ ७.२,३१.१२३<br>शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपादार्चने रतः ॥ ७.२,३१.१२३<br>शिवस्याज्ञां पुरस्कृत्य स मे दिशतु मंगलम् ॥ ७.२,३१.१२४<br>तस्य ब्रह्म षडंगानि विद्येशांतं तथाष्टकम् ॥ ७.२,३१.१२४<br>चत्वारो मूर्तिभेदाश्च शिवपूर्वाः शिवार्चकाः ॥ ७.२,३१.१२५<br>शिवो भवो हरश्चैव मृडश्चैव तथापरः ॥ ७.२,३१.१२५<br>शिवस्याज्ञां पुरस्कृत्य मंगलं प्रदिशंतु मे ॥ ७.२,३१.१२५<br>अथ विष्णुर्महेशस्य शिवस्यैव परा तनुः ॥ ७.२,३१.१२६<br>वारितत्त्वाधिपः साक्षादव्यक्तपदसंस्थितः ॥ ७.२,३१.१२६<br>निर्गुणस्सत्त्वबहुलस्तथैव गुणकेवलः ॥ ७.२,३१.१२७<br>अविकाराभिमानी च त्रिसाधारणविक्रियः ॥ ७.२,३१.१२७<br>असाधारणकर्मा च सृष्ट्यादिकरणात्पृथक् ॥ ७.२,३१.१२८<br>दक्षिणांगभवेनापि स्पर्धमानः स्वयंभुवा ॥ ७.२,३१.१२८<br>आद्येन ब्रह्मणा साक्षात्सृष्टः स्रष्टा च तस्य तु ॥ ७.२,३१.१२९<br>अंडस्यांतर्बहिर्वर्ती विष्णुर्लोकद्वयाधिपः ॥ ७.२,३१.१२९<br>असुरांतकरश्चक्री शक्रस्यापि तथानुजः ॥ ७.२,३१.१३०<br>प्रादुर्भूतश्च दशधा भृगुशापच्छलादिह ॥ ७.२,३१.१३०<br>भूभारनिग्रहार्थाय स्वेच्छयावातरक्षितौ ॥ ७.२,३१.१३१<br>अप्रमेयबलो मायी मायया मोहयञ्जगत् ॥ ७.२,३१.१३१<br>मूर्तिं कृत्वा महाविष्णुं सदाशिष्णुमथापि वा ॥ ७.२,३१.१३२<br>वैष्णवैः पूजितो नित्यं मूर्तित्रयमयासने ॥ ७.२,३१.१३२<br>शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपादार्चने रतः ॥ ७.२,३१.१३३<br>शिवस्याज्ञां पुरस्कृत्य स मे दिशतु मंगलम् ॥ ७.२,३१.१३३<br>वासुदेवो ऽनिरुद्धश्च प्रद्युम्नश्च ततः परः ॥ ७.२,३१.१३४<br>संकर्षणस्समाख्याताश्चतस्रो मूर्तयो हरेः ॥ ७.२,३१.१३४<br>मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नारसिंहो ऽथ वामनः ॥ ७.२,३१.१३५<br>रामत्रयं तथा कृष्णो विष्णुस्तुरगवक्त्रकः ॥ ७.२,३१.१३५<br>चक्रं नारायणस्यास्त्रं पांचजन्यं च शार्ङ्गकम् ॥ ७.२,३१.१३६<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां मंगलं प्रदिशंतु मे ॥ ७.२,३१.१३६<br>प्रभा सरस्वती गौरी लक्ष्मीश्च शिवभाविता ॥ ७.२,३१.१३७<br>शिवयोः शासनादेता मंगलं प्रदिशंतु मे ॥ ७.२,३१.१३७<br>इन्द्रो ऽग्निश्च यमश्चैव निरृतिर्वरुणस्तथा ॥ ७.२,३१.१३८<br>वायुः सोमः कुबेरश्च तथेशानस्त्रिशूलधृक् ॥ ७.२,३१.१३८<br>सर्वे शिवार्चनरताः शिवसद्भावभाविताः ॥ ७.२,३१.१३९<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां मंगलं प्रदिशंतु मे ॥ ७.२,३१.१३९<br>त्रिशूलमथ वज्रं च तथा परशुसायकौ ॥ ७.२,३१.१४०<br>खड्गपाशांकुशाश्चैव पिनाकश्चायुधोत्तमः ॥ ७.२,३१.१४०<br>दिव्यायुधानि देवस्य देव्याश्चैतानि नित्यशः ॥ ७.२,३१.१४१<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां रक्षां कुर्वंतु मे सदा ॥ ७.२,३१.१४१<br>वृषरूपधरो देवः सौरभेयो महाबलः ॥ ७.२,३१.१४२<br>वडवाख्यानलस्पर्धां पञ्चगोमातृभिर्वृतः ॥ ७.२,३१.१४२<br>वाहनत्वमनुप्राप्तस्तपसा परमेशयोः ॥ ७.२,३१.१४३<br>तयोराज्ञां पुरस्कृत्य स मे कामं प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.१४३<br>नंदा सुनंदा सुरभिः सुशीला सुमनास्तथा ॥ ७.२,३१.१४४<br>पञ्चगोमातरस्त्वेताश्शिवलोके व्यवस्थिताः ॥ ७.२,३१.१४४<br>शिवभक्तिपरा नित्यं शिवार्चनपरायणाः ॥ ७.२,३१.१४५<br>शिवयोः शासनादेव दिशंतु मम वांछितम् ॥ ७.२,३१.१४५<br>क्षेत्रपालो महातेजा नील जीमूतसन्निभः ॥ ७.२,३१.१४६<br>दंष्ट्राकरालवदनः स्फुरद्रक्ताधरोज्ज्वलः ॥ ७.२,३१.१४६<br>रक्तोर्ध्वमूर्धजः श्रीमान्भ्रुकुटीकुटिलेक्षणः ॥ ७.२,३१.१४७<br>रक्तवृत्तत्रिनयनः शशिपन्नगभूषणः ॥ ७.२,३१.१४७<br>नग्नस्त्रिशूलपाशासिकपालोद्यतपाणिकः ॥ ७.२,३१.१४८<br>भैरवो भैरवैः सिद्धैर्योगिनीभिश्च संवृतः ॥ ७.२,३१.१४८<br>क्षेत्रेक्षेत्रे समासीनः स्थितो यो रक्षकस्सताम् ॥ ७.२,३१.१४९<br>शिवप्रणामपरमः शिवसद्भावभावितः ॥ ७.२,३१.१४९<br>शिवश्रितान्विशेषेण रक्षन्पुत्रानिवौरसान् ॥ ७.२,३१.१५०<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु मङ्गलम् ॥ ७.२,३१.१५०<br>तालजङ्घादयस्तस्य प्रथमावरणेर्चिताः ॥ ७.२,३१.१५१<br>सत्कृत्य शिवयोराज्ञां चत्वारः समवन्तु माम् ॥ ७.२,३१.१५१<br>भैरवाद्याश्च ये चान्ये समंतात्तस्य वेष्टिताः ॥ ७.२,३१.१५२<br>ते ऽपि मामनुगृह्णंतु शिवशासनगौरवात् ॥ ७.२,३१.१५२<br>नारदाद्याश्च मुनयो दिव्या देवैश्च पूजिताः ॥ ७.२,३१.१५३<br>साध्या मागाश्च ये देवा जनलोकनिवासिनः ॥ ७.२,३१.१५३<br>विनिवृत्ताधिकाराश्च महर्लोकनिवासिनः ॥ ७.२,३१.१५४<br>सप्तर्षयस्तथान्ये वै वैमानिकगुणैस्सह ॥ ७.२,३१.१५४<br>सर्वे शिवार्चनरताः शिवाज्ञावशवर्तिनः ॥ ७.२,३१.१५५<br>शिवयोराज्ञया मह्यं दिशंतु मम कांक्षितम् १ ॥ ७.२,३१.१५५<br>गंधर्वाद्याः पिशाचांताश्चतस्रो देवयोनयः ॥ ७.२,३१.१५६<br>सिद्धा विद्याधराद्याश्च ये ऽपि चान्ये नभश्चराः ॥ ७.२,३१.१५६<br>असुरा राक्षसाश्चैव पातालतलवासिनः ॥ ७.२,३१.१५७<br>अनंताद्याश्च नागेन्द्रा वैनतेयादयो द्विजाः ॥ ७.२,३१.१५७<br>कूष्मांडाः प्रेतवेताला ग्रहा भूतगणाः परे ॥ ७.२,३१.१५८<br>डाकिन्यश्चापि योगिन्यः शाकिन्यश्चापि तादृशाः ॥ ७.२,३१.१५८<br>क्षेत्रारामगृहादीनि तीर्थान्यायतनानि च ॥ ७.२,३१.१५९<br>द्वीपाः समुद्रा नद्यश्च नदाश्चान्ये सरांसि च ॥ ७.२,३१.१५९<br>गिरयश्च सुमेर्वाद्याः कननानि समंततः ॥ ७.२,३१.१६०<br>पशवः पक्षिणो वृक्षाः कृमिकीटादयो मृगाः ॥ ७.२,३१.१६०<br>भुवनान्यपि सर्वाणि भुवनानामधीश्वरः ॥ ७.२,३१.१६१<br>अण्डान्यावरणैस्सार्धं मासाश्च दश दिग्गजाः ॥ ७.२,३१.१६१<br>वर्णाः पदानि मंत्राश्च तत्त्वान्यपि सहाधिपैः ॥ ७.२,३१.१६२<br>ब्रह्मांडधारका रुद्रा रुद्राश्चान्ये सशक्तिकाः ॥ ७.२,३१.१६२<br>यच्च किंचिज्जगत्यस्मिन्दृष्टं चानुमितं श्रुतम् ॥ ७.२,३१.१६३<br>सर्वे कामं प्रयच्छन्तु शिवयोरेव शासनात् ॥ ७.२,३१.१६३<br>अथ विद्या परा शैवी पशुपाशविमोचिनी ॥ ७.२,३१.१६४<br>पञ्चार्थसंज्ञिता दिव्या पशुविद्याबहिष्कृता ॥ ७.२,३१.१६४<br>शास्त्रं च शिवधर्माख्यं धर्माख्यं च तदुत्तरम् ॥ ७.२,३१.१६५<br>शैवाख्यं शिवधर्माख्यं पुराणं श्रुतिसंमितम् ॥ ७.२,३१.१६५<br>शैवागमाश्च ये चान्ये कामिकाद्याश्चतुर्विधाः ॥ ७.२,३१.१६६<br>शिवाभ्यामविशेषेण सत्कृत्येह समर्चिताः ॥ ७.२,३१.१६६<br>ताभ्यामेव समाज्ञाता ममाभिप्रेतसिद्धये ॥ ७.२,३१.१६७<br>कर्मेदमनुमन्यंतां सफलं साध्वनुष्ठितम् ॥ ७.२,३१.१६७<br>श्वेताद्या नकुलीशांताः सशिष्याश्चापि देशिकाः ॥ ७.२,३१.१६८<br>तत्संततीया गुरवो विशेषाद्गुरवो मम ॥ ७.२,३१.१६८<br>शैवा माहेश्वराश्चैव ज्ञानकर्मपरायणाः ॥ ७.२,३१.१६९<br>कर्मेदमनुमन्यंतां सफलं साध्वनुष्ठितम् ॥ ७.२,३१.१६९<br>लौकिका ब्राह्मणास्सर्वे क्षत्रियाश्च विशः क्रमात् ॥ ७.२,३१.१७०<br>वेदवेदांगतत्त्वज्ञाः सर्वशास्त्रविशारदाः ॥ ७.२,३१.१७०<br>सांख्या वैशेषिकाश्चैव यौगा नैयायिका नराः ॥ ७.२,३१.१७१<br>सौरा ब्रह्मास्तथा रौद्रा वैष्णवाश्चापरे नराः ॥ ७.२,३१.१७१<br>शिष्टाः सर्वे विशिष्टा च शिवशासनयंत्रिताः ॥ ७.२,३१.१७२<br>कर्मेदमनुमन्यंतां ममाभिप्रेतसाधकम् ॥ ७.२,३१.१७२<br>शैवाः सिद्धांतमार्गस्थाः शैवाः पाशुपतास्तथा ॥ ७.२,३१.१७३<br>शैवा महाव्रतधराः शैवाः कापालिकाः परे ॥ ७.२,३१.१७३<br>शिवाज्ञापालकाः पूज्या ममापि शिवशासनात् ॥ ७.२,३१.१७४<br>सर्वे ममानुगृह्णंतु शंसंतु सफलक्रियाम् ॥ ७.२,३१.१७४<br>दक्षिणज्ञाननिष्ठाश्च दक्षिणोत्तरमार्गगाः ॥ ७.२,३१.१७५<br>अविरोधेन वर्तंतां मंत्रश्रेयो ऽर्थिनो मम ॥ ७.२,३१.१७५<br>नास्तिकाश्च शठाश्चैव कृतघ्नाश्चैव तामसाः ॥ ७.२,३१.१७६<br>पाषंडाश्चातिपापाश्च वर्तंतां दूरतो मम ॥ ७.२,३१.१७६<br>बहुभिः किं स्तुतैरत्र ये ऽपि के ऽपिचिदास्तिकाः ॥ ७.२,३१.१७७<br>सर्वे मामनुगृह्णंतु संतः शंसंतु मंगलम् ॥ ७.२,३१.१७७<br>नमश्शिवाय सांबाय ससुतायादिहेतवे ॥ ७.२,३१.१७८<br>पञ्चावरणरूपेण प्रपञ्चेनावृताय ते ॥ ७.२,३१.१७८<br>इत्युक्त्वा दंडवद्भूमौ प्रणिपत्य शिवं शिवाम् ॥ ७.२,३१.१७९<br>जपेत्पञ्चाक्षरीं विद्यामष्टोत्तरशतावराम् ॥ ७.२,३१.१७९<br>तथैव शक्तिविद्यां च जपित्वा तत्समर्पणम् ॥ ७.२,३१.१८०<br>कृत्वा तं क्षमयित्वेशं पूजाशेषं समापयेत् ॥ ७.२,३१.१८०<br>एतत्पुण्यतमं स्तोत्रं शिवयोर्हृदयंगमम् ॥ ७.२,३१.१८१<br>सर्वाभीष्टप्रदं साक्षाद्भुक्तिमुक्त्यैकसाधनम् ॥ ७.२,३१.१८१<br>य इदं कीर्तयेन्नित्यं शृणुयाद्वा समाहितः ॥ ७.२,३१.१८२<br>स विधूयाशु पापानि शिवसायुज्यमाप्नुयात् ॥ ७.२,३१.१८२<br>गोघ्नश्चैव कृतघ्नश्च वीरहा भ्रूणहापि वा ॥ ७.२,३१.१८३<br>शरणागतघाती च मित्रविश्रंभघातकः ॥ ७.२,३१.१८३<br>दुष्टपापसमाचारो मातृहा पितृहापि वा ॥ ७.२,३१.१८४<br>स्तवेनानेन जप्तेन तत्तत्पापात्प्रमुच्यते ॥ ७.२,३१.१८४<br>दुःस्वप्नादिमहानर्थसूचकेषु भयेषु च ॥ ७.२,३१.१८५<br>यदि संकीर्तयेदेतन्न ततो नार्थभाग्भवेत् ॥ ७.२,३१.१८५<br>आयुरारोग्यमैश्वर्यं यच्चान्यदपि वाञ्छितम् ॥ ७.२,३१.१८६<br>स्तोत्रस्यास्य जपे तिष्ठंस्तत्सर्वं लभते नरः ॥ ७.२,३१.१८६<br>असंपूज्य शिवस्तोत्रं जपात्फलमुदाहृतम् ॥ ७.२,३१.१८७<br>संपूज्य च जपे तस्य फलं वक्तुं न शक्यते ॥ ७.२,३१.१८७<br>आस्तामियं फलावाप्तिरस्मिन्संकीर्तिते सति ॥ ७.२,३१.१८८<br>सार्धमंबिकया देवः श्रुत्यैवं दिवि तिष्ठति ॥ ७.२,३१.१८८<br>तस्मान्नभसि संपूज्य देवं देवं सहोमया ॥ ७.२,३१.१८९<br>कृतांजलिपुटस्तिष्ठंस्तोत्रमेतदुदीरयेत् ॥ ७.२,३१.१८९<br><br></p></div><p>इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायामुत्तरखण्डे शिवमहास्तोत्रवर्णनं नामैकत्रिंशो ऽध्यायः</p><p>(शिवपुराण - वायवीयसंहिता - अध्याय ३१)</p></section></div></div></div></main></div>Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-3045295723532913342019-10-14T02:30:00.004+05:302019-10-14T02:53:35.933+05:30शिवसहस्त्रनामस्तोत्र <span style="color: #b45f06;">ऋषि बोले:</span> सूतजी ! आप सब जानते हैं । इसलिए हम आपसे पूछते हैं । प्रभो ! हरीश्वर लिङ्ग की महिमा का वर्णन कीजिये । तात ! हमने पहले से सुन रखा है कि भगवान् विष्णु ने शिव की आराधना से सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था । अतः उस कथा पर विशेष रूप से प्रकाश डालिये ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">सूतजी बोले: </span>मुनिवरों ! भगवान् विष्णु ने पूर्वकाल में हरीश्वर शिव से ही सुदर्शन चक्र प्राप्त किया था । दैत्य अत्यन्त प्रबल होकर लोगों को पीड़ा देने और धर्म का लोप करने लगे । उन दैत्यों से पीड़ित हो देवताओं ने अपना दुःख भगवान् विष्णु से कहा । तब श्रीहरि कैलास जाकर आराधना करने लगे । वे हज़ार नामों से शिव की स्तुति करते तथा प्रत्येक नाम पर एक कमल चढ़ाते थे । तब भगवान् शङ्कर ने विष्णु के भक्तिभाव की परीक्षा लेने के लिए उनके लाये हुए एक हज़ार कमलों में से एक कमल छिपा दिया । भगवान् विष्णु ने एक फूल काम जानकार उसकी खोज आरम्भ की और सारी पृथ्वी का भ्रमण कर डाला परन्तु उन्हें वह फूल नहीं मिला । तब विशुद्धचेता विष्णु ने एक फूल की कमी पूर्ती के लिए अपने कमलसदृश एक नेत्र को ही निकालकर चढ़ा दिया । यह सब देख भगवान् शङ्कर बड़े प्रसन्न हुए और प्रकट होकर श्रीहरि से बोले - "हरे ! मैं तुम पर बहुत प्रसन्न हूँ । तुम इच्छानुसार वर मांगो । मैं तुम्हें मनोवांछित वस्तु दूंगा । तुम्हारे लिए मुझे कुछ भी अदेय नहीं है ।"<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">सूतजी बोले:</span> तदनन्तर देवाधिदेव महेश्वर ने तेजोराशिमय अपना सुदर्शन चक्र उन्हें दे दिया । उसको पाकर भगवान् विष्णु ने उन समस्त प्रबल दैत्यों का उस चक्र के द्वारा बिना परिश्रम के ही संहार कर डाला।<br />
<br />
ऋषियों ने पूछा: शिव के सहस्त्रनाम कौन कौन हैं, बताइये, जिनसे सन्तुष्ट होकर महेश्वर ने श्रीहरि को चक्र प्रदान किया था? उन नामों के माहात्म्य का भी वर्णन कीजिये । वैसी बात सुनकर सूतजी ने शिव के चरणारविन्दों का चिन्तन करके इस प्रकार कहना आरम्भ किया ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">सूत उवाच</span><br />
<b>श्रूयतां भो ऋषिश्रेष्ठा येन तुष्टो महेश्वरः।</b><br />
<b>तदहं कथयाम्यद्य शैवं नामसहस्त्रकम् ।। १ ।।</b><br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">सूतजी बोले:</span> मुनिवरों ! सुनो, जिससे महेश्वर सन्तुष्ट होते हैं, वह शिवसहस्रनामस्तोत्र आज तुम सबको सुना रहा हूँ ।<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #b45f06; font-size: large;">शिवसहस्त्रनामस्त्रोत </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #b45f06; font-size: large;">=================</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><br /></b></div>
<b>शिवो हरो मृडो रुद्रः पुष्करः पुष्पलोचनः।</b><br />
<b>अर्थिगम्यः सदाचारः शर्वः शम्भुर्महेश्वरः ।। २ ।। </b><br />
<br />
१। शिव - कल्याणरूप<br />
२। हरः - भक्तों के पाप-ताप हरने वाले<br />
३। मृडः - सुखदाता<br />
४। रुद्रः - दुःख दूर करनेवाले<br />
५। पुष्करः - आकाशस्वरुप<br />
६। पुष्पलोचनः - पुष्प के सामान खिले हुए नेत्र वाले<br />
७। अर्थिगम्यः - प्रार्थियों को प्राप्त होने वाले<br />
८। सदाचारः - श्रेष्ठ आचरण वाले<br />
९। शर्वः - संहारकारी<br />
१०। शम्भुः - कल्याणनिकेतन<br />
११। महेश्वरः - महान ईश्वर<br />
<br />
<b>चन्द्रापीडश्चन्द्रमौलीर्विश्वं विश्वम्भरेश्वरः ।</b><br />
<b>वेदान्तसारसन्दोहः कपाली नीललोहितः ।। ३ ।।</b><br />
<br />
१२। चन्द्रापीडः - चन्द्रमा को शिरोभूषण के रूप में धारण करनेवाले<br />
१३। चन्द्रमौलिः - सर पर चन्द्रमा का मुकुट धारण करनेवाले<br />
१४। विश्वम् - सर्वस्वरूप<br />
१५। विश्वम्भरेश्वरः - विश्व का भरण-पोषण करनेवाले श्रीविष्णु के भी ईश्वर<br />
१६। वेदान्तसारसन्दोहः - वेदान्त के सारतत्त्व सच्चिदानन्द ब्रह्म की साकार मूर्ति<br />
१७। कपाली - हाथ में कपाल धारण करनेवाले<br />
१८। नीललोहितः - (गले में) नील और (शेष अंगों में) लोहित वर्ण वाले<br />
<div>
<br /></div>
Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-25430465525054293052019-09-15T19:34:00.011+05:302020-10-01T10:16:55.071+05:30किरातार्जुनीय महाकाव्य<div style="text-align: center;">
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><font size="2">।। श्री गणेशाय नमः ।।</font></b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><font size="2"><br /></font></b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><font size="2">भारवि कृत </font></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><font size="2">किरातार्जुनीय महाकाव्य (पांचवें सर्ग तक)</font></span></div>
<font size="2"><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<br />
</font><div style="text-align: center;">
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><font size="2">---------------</font></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><font size="2">भूमिका </font></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><font size="2">---------------</font></span></div>
<font size="2"><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">किरातार्जुनीय संस्कृत के सुप्रसिद्ध महाकाव्यों में से अन्यतम है जो छठी शताब्दी या उसके पहले लिखा गया है । इसको महाकाव्यों की 'बृहत्त्रयी' में प्रथम स्थान प्राप्त है । महाकवि कालिदास की कृतियों के अनन्तर संस्कृत साहित्य में भारवि के किरातार्जुनीय का ही स्थान है । बृहत्त्रयी के दुसरे महाकाव्य 'शिशुपाल वध' तथा 'नैषध' हैं । किरातार्जुनीय राजनीति प्रधान महाकाव्य है । राजनीति वीररस से अछूती क्योंकर हो सकती है ? फलतः इसका प्रधान रस 'वीर' है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">इसके नायक माध्यम पाण्डव अर्जुन हैं । किरातार्जुनीय में किरात वेषधारी शङ्कर जी और अर्जुन के युद्ध का प्रमुख रूप से वर्णन है । यह कथा महाभारत के वन पर्व से ली गयी है । महाकाव्य का आरम्भ इस प्रकार से हुआ है, जैसे किसी नाटक का रंगमंच पर अभिनय आरम्भ हो रहा हो । करवों की कपड़ द्यूतक्रीड़ा से पराजित पाण्डव जब द्वैतवन में निवास कर रहे थे तब उन्हें यह चिंता हुई कि दुर्योधन का शासन किस प्रकार चल रहा है, इसका पता लगाना चाहिए । क्योंकि अवश्य ही वह अपने क्रूर और कपटी स्वभाव वाले सहयोगियों के कारण प्रजाजन का विद्वेषी सिद्ध हुआ होगा । प्रजा के आन्तरिक असन्तोष के कारण किसी भी राजा का शासन दीर्घ-कालव्यापी नहीं हो सकता । अतः किसी प्रकार से हस्तिनापुर के लिए एक गुप्तचर भेजकर वहां की स्थिति की जानकारी प्राप्त करनी ही चाहिए । इसी उद्देश्य से उन्होंने एक वनवासी किरात को चुना, जो ब्रह्चारी का वेश धारण कर हस्तिनापुर गया और वहां कुछ काल तक रहकर सब बातें अपनी आँखों से देखकर लौट आया ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">भारवि के विकट चित्रबन्धों में यद्यपि काव्य की आत्मा रस का पूर्ण परिपाक नहीं हुआ है, तथापि तात्कालिक संस्कृतज्ञ-समाज की अभिरुचि के आग्रह से उन्हें ऐसा करना पड़ा होगा । क्योंकि इन विकट चित्रबन्धों की रचना किसी सामान्य काव्य-कौशल की बात नहीं है । भारवि के अर्धभ्रमक, सर्वतोभद्र, एकाक्षर पाद, एकाक्षर श्लोक, द्वयक्षर श्लोक, निरौष्ठव, पादान्तादियमक, पदादि यमक, प्रतिलोमानुलोमपाद, प्रतिलोमानुलोमार्द्ध आदि विकट बन्धों को देखकर सामान्य बुद्धि को विषमित हो जाना पड़ता है । किरातार्जुनीय का समूचा पन्द्रहवाँ सर्ग मानो इसी अद्भुत पाण्डित्य-प्रदर्शन के ही लिए रचा गया हो । एक श्लोक ऐसा भी दिया है जिसके भिन्न भिन्न तीन अर्थ होते हैं तथा इसी प्रकार एक श्लोक ऐसा भी दिया है, जिसमें केवल एक अक्षर 'न' का प्रयोग हुआ है । दोनों के नमूने नीचे दिए जा रहे हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">अर्थत्रयवाची श्लोक -</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">जगती शरणे युक्तो हरिकान्त सुधासित ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">दानवर्षी कृताशसो नागराज इवाबभौ ।।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">सर्ग १५, ४५</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">एकाक्षर श्लोक -</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">न नोन नुन्नो नुन्नानो नाना नानानना ननु ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">नुन्नोऽनुन्नो ननुन्नेनो नानेना नुन्ननुन्ननुत् ।।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">सर्ग १५, २४</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">इसी प्रकार भारवि के काव्य शिल्प का उत्कृष्ट नमूना हम निम्न लिखित सर्वतोभद्र बन्ध में भी देखते हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">दे वा का नि नि का वा दे </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">वा हि का स्व स्व का हि वा </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">का का रे भ भ रे का का </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">नि स्व भ व्य व्य भ स्व नि </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">इस सर्वतोभद्र बन्ध की विशेषता यह है कि इसे जिस ओर से भी पढ़िए पूरा श्लोक बन जाता है । श्लोक का वास्तविक स्वरुप निम्नलिखित है जो आठों कोष्ठकों के चतुष्टय के क्रमश चारों ओर से बन जाता है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">देवकानि निकावादे वाहिकास्व स्वकाहिवा ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">काकारेभभरे काका निस्वभव्य व्यभस्वनि ।।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"></span></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">सर्ग १५, श्लोक २५</span><br />
<b>श्रियः कुरूणामधिपस्य पालनीं प्रजासु वृत्तिं यमयुङ्क्त वेदितुम् ।<br />स वर्णिलिङ्गी विदितः समाययौ युधिष्ठिरं द्वैतवने वनेचरः ।। १.१ ।।</b></font><div><font size="2"><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> कुरूपति दुर्योधन के राजयलक्ष्मी की रक्षा करने में समर्थ, प्रजावर्ग के साथ किये जाने वाले उसके व्यवहार को भली भाँति जानने के लिए जिस किरात को नियुक्त किया गया था, वह ब्रह्मचारी का (छद्म) वेश धारण कर, वहां की सम्पूर्ण परिस्थिति को समझ-बूझकर द्वैत वन में (निवास करने वाले ) राजा युधिष्ठिर के पास लौट आया ।</span></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="color: #b45f06;"><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी</span>:</span></b><span style="color: #222222;"> इस महाकाव्य की कथा का सन्दर्भ महाभारत से लिया गया है । जैसा कि सुप्रसिद्ध है, पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर, भीम एवं अर्जुन आदि से धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन कि तनिक भी नहीं पटती थी । एक बार फुसलाकर दुर्योधन ने युधिष्ठिर के साथ जुआ खेला और अपने मामा शकुनि कि धूर्तता से युधिष्ठिर को हरा दिया । युधिष्ठिर न केवल राजपाट के अपने हिस्से को ही गँवा बैठे, प्रत्युत यह दांव भी हार गए कि वे अपने सब भाइयों के साथ बारह वर्ष तक वनवास और एक वर्ष तक अज्ञातवास करेंगे । फल यह हुआ कि अपने चारों भाइयों तथा पत्नी द्रौपदी के साथ यह बारह वर्षों तक जगह-जगह ठोकर खाते हुए घूमते फिरते रहे । एक बार वह सरस्वती नदी के किनारे द्वैतवन में निवास कर रहे थे कि उनके मन में आया की किसी युक्ति से दुर्योधन का राज्य के प्रजावर्ग के साथ किस प्रकार का व्यवहार है, यह जाना जाय । इसी जानकारी को प्राप्त करने के लिए उन्होंने एक चतुर वनवासी किरात को नियुक्त किया, जिसने ब्रह्मचारी का वेश धारण कर हस्तिनापुर में रहकर दुर्योधन की प्रजानीति के सम्बन्ध में गहरी जानकारी प्राप्त की । प्रस्तुत कथा सन्दर्भ में उसी जाकारी को वह द्वैतवन में निवास करने वाले युधिष्ठिर को बताने के लिए वापस लौटा है ।</span></span></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">इस पूरे सर्ग में कवी ने वशस्थ वृत्त का प्रयोग किया है, जिसका लक्षण है - "जतौ तु वशस्थमुदीरित जरौ ।" अर्थात जगण, तगण, जगण और और रगण के संयोग से वशस्थ छन्द बनता है । श्लोक की प्रथम पंक्ति में वने वनेचर" शब्दों में 'वने' की दो बार आवृत्ति होने से '</span><span face="sans-serif" style="color: #b45f06;">वृत्यानुप्रास</span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">' अलङ्कार है, महाकवि ने मांगलिक 'श्री' शब्द से अपने ग्रन्थ का आरम्भ करके वस्तुनिर्देशात्मक मङ्गलाचरण किया है ।</span></span><br />
</font><div>
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><br />
<b>कृतप्रणामस्य महीं महीभुजे जितां सपत्नेन निवेदयिष्यतः ।<br />न विव्यथे तस्य मनो न हि प्रियं प्रवक्तुमिच्छन्ति मृषा हितैषिणः ।। १.२ ।।</b></font></div><div><font size="2"><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br style="background-color: white;" /></b></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> उस समय के लिए उचित प्रणाम करने के अनन्तर शत्रुओं (कौरवों) द्वारा अपहृत पृथ्वीमण्डल (राज्य) की यथातथ्य बातें राजा युधिष्ठिर से निवेदन करते हुए उस वनवासी किरात के मन को तनिक भी व्यथा नहीं हुई । (ऐसा क्यों न होता) क्योंकि किसी के कल्याण की अभिलाषा करने वाले लोग (सत्य बात को छिपा कर केवल उसे प्रसन्न करने के लिए) झूठ-मूठ की प्यारी बातें (बना कर) कहने की इच्छा नहीं करते ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;"><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी</span>:</span></b> क्योंकि यदि हितैषी भी ऐसा करने लगें तो निश्चय ही कार्य-हानि हो जाने पर स्वामी को द्रोह करने की सूचना तो मिल ही जायेगी । इस श्लोक में भी 'मही मही' शब्द की पुनरावृत्ति से <span style="color: #b45f06;">वृत्यनुप्रास </span>अलङ्कार है और वह <span style="color: #b45f06;">अर्थान्तरन्यास </span>से ससृष्ट है ।</span><br />
</font><div>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><font size="2"><br /></font></span></div>
<div>
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><b>द्विषां विघाताय विधातुमिच्छतो रहस्यनुज्ञामधिगम्य भूभृतः ।<br />स सौष्ठवौदार्यविशेषशालिनीं विनिश्चितार्थामिति वाचमाददे ।। १.३ ।।</b></font></div><div><font size="2"><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br style="background-color: white;" /></b></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> एकांत में उस वनवासी किरात ने शत्रुओं का विनाश करने के लिए प्रयत्नशील राजा युधिष्ठिर की आज्ञा प्राप्तकर सरस सुन्दर शब्दों में असन्दिग्ध अर्थ एवं निश्चित प्रमाणों से युक्त वाणी में इस प्रकार से निवेदन किया ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी</span>:</b> इस श्लोक से यह ध्वनित होता है कि उक्त वनवासी किरात केवल निपुण दूत ही नहीं था, एक अच्छा वक्ता भी था । उसने जो कहा, सुन्दर मनोहर शब्दों में सुस्पष्ट तथा निश्चयपूर्वक कहा । उसकी वाणी में अनिश्चयात्मकता अथवा सन्देह की कहीं गुञ्जाइश नहीं थी । उसके शब्द सुन्दर थे और अर्थ स्पष्ट तथा निश्चित ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">इसमें <span style="color: #b45f06;">सौष्ठव </span>और <span style="color: #b45f06;">औदार्य </span>- इन दो विशेषणों के साभिप्राय होने के कारण '<span style="color: #b45f06;">परिकर</span>' अलङ्कार है, जो '<span style="color: #b45f06;">पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग</span>' से अनुप्राणित है। यद्यपि '<span style="color: #b45f06;">आङ्</span>' उपसर्ग के साथ 'दा' धातु का प्रयोग लेने के अर्थ में ही होता है किन्तु यहाँ पर सन्दर्भानुरोध से कहने के अर्थ में ही समझना चाहिए ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">(किरात को भय है कि कहीं मेरी अप्रिय कटु बातों से राजा युधिष्ठिर अप्रसन्न न हो जाएँ अतः वह सर्वप्रथम क्षमा-याचना के रूप में निवेदन करता है ।)</span><br />
</font><div>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><font size="2"><br /></font></span></div>
<div>
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><b>क्रियासु युक्तैर्नृप चारचक्षुषो न वञ्चनीयाः प्रभवोऽनुजीविभिः ।<br />अतोऽर्हसि क्षन्तुमसाधु साधु वा हितं मनोहारि च दुर्लभं वचः ।। १.४ ।।</b></font></div><div><font size="2"><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> कोई कार्य पूरा करने के लिए नियुक्त किये गए (राज) सेवकों का यह परम कर्त्तव्य है कि वे दूतों की आँखों से ही देखने वाले अपने स्वामी को (झूठी तथा प्रिय बातें बता कर) न ठगें ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"> इसलिए मैं जो कुछ भी अप्रिय अथवा प्रिय बातें निवेदन करूँ उन्हें आप क्षमा करेंगे, क्योंकि सुनने में मधुर तथा परिणाम में कल्याण देने वाली वाणी दुर्लभ होती है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><span style="color: #b45f06;"><b>टिप्पणी:</b></span> दूत के कथन का तात्पर्य यह है कि मैं अपना कर्तव्य पालन करने के लिए ही आप से कुछ अप्रिय बातें करूँगा, वह चाहे आपको अच्छी लगें या बुरी। अतः कृपा कर उनके कहने के लिए मुझे क्षमा करेंगे क्योंकि मैं अपने कर्तव्य से विवश हूँ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">इस श्लोक में '<span style="color: #b45f06;">पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग</span>' अलङ्कार है, जो चतुर्थ चरण में आये हुए <span style="color: #b45f06;">अर्थान्तरन्यास </span>अलङ्कार से ससृष्ट है। यहाँ अर्थान्तरन्यास को सामान्य से विशेष के समर्थन रूप में जानना चाहिए।</span><br />
<br />
<br />
<b>स किंसखा साधु न शास्ति योऽधिपं हितान्न यः संशृणुते स किंप्रभुः ।<br />सदानुकूलेषु हि कुर्वते रतिं नृपेष्वमात्येषु च सर्वसम्पदः ।। १.५ ।।</b></font></div><div><font size="2"><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> जो मित्र अथवा मन्त्री राजा को उचित बातों की सलाह नहीं देता वह अधम मित्र अथवा अधम मन्त्री है तथा (इसी प्रकार) जो राजा अपने हितैषी मित्र अथवा मन्त्री की हित की बात नहीं सुनता वह राजा होने योग्य नहीं है । क्योंकि राजा और मन्त्री के परस्पर सर्वदा अनुकूल रहने पर ही उनमें सब प्रकार की समृद्धियाँ अनुरक्त होती हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> दूत के कहने का तात्पर्य यह है कि इस समय मैं जो कुछ निर्भय होकर कह रहा हूँ वह आपकी हित-चिन्ता ही से कह रहा हूँ । मेरी बातें ध्यान से सुनें ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">इस श्लोक में कार्य से कारण का समर्थन रूप <span style="color: #b45f06;">अर्थान्तरन्यास </span>अलङ्कार है ।</span><br />
<br />
<br />
<b>निसर्गदुर्बोधमबोधविक्लवाः क्व भूपतीनां चरितं क्व जन्तवः ।<br />तवानुभावोऽयमबोधि यन्मया निगूढतत्त्वं नयवर्त्म विद्विषाम् ।। १.६ ।।</b></font></div><div><font size="2"><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> स्वभाव से ही दुर्बोध(राजनीतिक रहस्यों से भरा) राजाओं का चरित कहाँ और अज्ञान से बोझिल मुझ जैसा जीव कहाँ ? (दोनों में आकाश पाताल का अन्तर है) । (अतः) शत्रुओं के अत्यन्त गूढ़ रहस्यों से भरी जो कूटनीति कि बातें मुझे (कुछ) ज्ञात हो सकीय हैं, यह तो (केवल) आपका अनुग्रह है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> दूत कि वक्तृत्व कला का यह सुन्दर नमूना है । अपनी नम्रता को वह कितनी सुन्दरता से प्रकट करता है । इस श्लोक में विषम अलङ्कार है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">विशङ्कमानो भवतः पराभवं नृपासनस्थोऽपि वनाधिवासिनः ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>दुरोदरच्छद्मजितां समीहते नयेन जेतुं जगतीं सुयोधनः ।। १.७ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br style="background-color: white;" /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> राज सिंहासन पर बैठा हुआ भी दुर्योधन (राज्याधिकार से च्युत) वन में निवास करनेवाले आप से अपनी पराजय कि आशङ्का रखता है । अतएव जुए द्वारा कपट से जीती हुई पृथ्वी को वह न्यायपूर्ण शासन द्वारा अपने वश में करने कि इच्छा करता है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य यह है कि यद्यपि दुर्योधन सर्व-साधन सम्पन्न है और आपके पास कोई साधन नहीं है, फिर भी आप से वह सदा डरा रहता है कि कहीं आपके न्याय-शासन से प्रसन्न जनता आपका साथ न दे दे और आप उसे राजगद्दी से न उतार दें । इसलिए वह यद्यपि जूआ में समूचे राजपाट को आपसे जीत चूका है, फिर भी प्रजा का ह्रदय जीतने के लिए न्यायपरायणता में तत्पर है । वह आपकी ओर से तनिक भी असावधान नहीं है, क्योंकि आप सब को वह वनवासी होने पर भी प्रजवल्लभ होने के कारण अपने से अधिक बलवान समझता है । अतः जनता को अपने प्रति आकृष्ट कर रहा है ।</span><br />
</font><div><font size="2">
पदार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार<br />
[किस प्रकार की न्याय बुद्धि से वह पृथ्वी को जीतना चाहता है - आगे इसे सुनिए]<br />
<br />
<b><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">तथाऽ</span><span style="background-color: white;"><span face=""trebuchet ms", sans-serif">पि जिह्मः स भवज्जिगीषया तनोति शुभ्रं गुणसम्पदा यशः ।</span></span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>समुन्नयन्भूतिमनार्यसंगमाद्वरं विरोधोऽपि समं महात्मभिः ।। १.८ ।।</b></span><br />
<b><br /></b>
<b>अर्थ:</b> आप से सशंकित होकर भी वह कुटिल प्रकृति दुर्योधन आप को पराजित करने की अभिलाषा से दान-दाक्षिण्यादि सद्गुणों से अपने निर्मल यश का(उत्तरोत्तर) विस्तार कर रहा है क्योंकि नीच लोगों के सम्पर्क से वैभव प्राप्त करने की अपेक्षा सज्जनो से विरोध प्राप्त करना भी अच्छा ही होता है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> सज्जनों का विरोध दुष्टों की सङ्गति से इसलिए अच्छा होता है कि सज्जनों के साथ विरोध करने से और कुछ नहीं तो उनकी देखा-देखी स्पर्धा में उनके गुणों की प्राप्ति के लिए चेष्टा करने की प्रेरणा तो होती ही है । जब कि दुष्टों की सङ्गति तात्कालिक लाभ के साथ ही दुर्गति का कारण बनती है । क्योंकि दुष्टों की सङ्गति से बुरे गुणों का अभ्यास बढ़ेगा, जो स्वयं दुर्गति के द्वार हैं ।<br />
<br />
इस श्लोक में सामान्य से विशेष का समर्थन रूप अर्थान्तरन्यास अलङ्कार है, जो पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग से अनुप्राणित है ।<br />
<br /></font></div>
<font size="2"><b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">कृतारिषड्वर्गजयेन मानवीमगम्यरूपां पदवीं प्रपित्सुना ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>विभज्य नक्तंदिवमस्ततन्द्रिणा वितन्यते तेन नयेन पौरुषम् ।। १.९ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ: </b>(वह दुर्योधन) काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं अहङ्कार रूप प्राणियों के छहों शत्रुओं को जीतकर, अत्यन्त दुर्गम मनु आदि नीतिज्ञों की बनाई हुई शासन-पद्धति पर कार्य करने की लालसा से आलस्य को दूर भागकर, रात-दिन के समय को प्रत्येक काम के लिए अलग-अलग करके, नैतिक शक्ति द्वारा अपने पुरुषार्थ को सबल बना रहा है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य यह है कि दुर्योधन अब वही जुआरी और आलसी दुर्योधन नहीं रह गया है। उसने छहों दुर्गुणों को दूर करके स्वयम्भुव मनु के दुर्गम आदर्शों के अनुरूप अपने को राजा बना लिया है । उसमें आलस्य तो तनिक भी नहीं रह गया है । दिन और रात - सब में उसके पृथक-पृथक कार्य नियत हैं। उसके पराक्रम को नैतिक शक्ति का बल मिल गया है और इस प्रकार वह दुर्जेय बन गया है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">परिकर अलङ्कार ।</span><br />
</font><div>
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">सखीनिव प्रीतियुजोऽनुजीविनः समानमानान्सुहृदश्च बन्धुभिः ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>स सन्ततं दर्शयते गतस्मयः कृताधिपत्यामिव साधु बन्धुताम् ।। १.१० ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> वह दुर्योधन अब निरहङ्कार होकर सर्वदा निष्कपट भाव से सेवा करने वाले सेवकों को प्रीतिपात्र मित्रों कि तरह मानता है। मित्रों को निजी कुटुम्बियों कि तरह सम्मानित करता है तथा अपने कुटुम्बियों को राज्याधिकारी कि भांति आदर देता है।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य यह है कि उसमें अब वह पूर्व अभिमान नहीं है। यह अत्यन्त उदार ह्रदय बन गया है। उसने पूरे राज्य में बन्धुता का विस्तार कर दिया है, उसका यह व्यवहार सदा-सर्वथा रहता है, दिखावट कि गुंजाइश नहीं है। और उसके इस व्यवहार से सब लोग सन्तुष्ट होते हैं। वह ऐसा करके यह दिखाना चाहता है कि मुझमें अहङ्कार का लेश नहीं है। </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>असक्तमाराधयतो यथायथं विभज्य भक्त्या समपक्षपातया ।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>गुणानुरागादिव सख्यमीयिवान्न बाधतेऽस्य त्रिगणः परस्परम् ।। १.११ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<b style="font-family: "trebuchet ms", sans-serif;">अर्थ: </b><span face=""trebuchet ms", sans-serif">यथोचित विभाग कर, किसी के साथ कोई विशेष पक्षपात न करके वह दुर्योधन अनासक्त भाव से धर्म, अर्थ और काम का सेवन करता है, जिससे ये तीनों भी उसके (स्पृहणीय) गुणों से अनुरक्त होकर उसके मित्र-से बन गए हैं और परस्पर उनका विरोध भाव नहीं रह गया है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span> तात्पर्य यह है कि दुर्योधन धर्म, अर्थ, काम का ठीक-ठीक विभाग कर प्रत्येक का इस प्रकार आचरण करता है कि किसी में आसक्त नहीं मालूम पड़ता। सब का समय नियत है, किसी से कोई पक्षपात नहीं है। उसके गुणों पर ये तीनो भी रीझ उठे हैं। यद्यपि ये परस्पर विरोधी हैं, तथापि उसके लिए इनमें मित्रता हो गयी है और प्रतिदिन इनकी वृद्धि हो रही है। </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">वाच्योतप्रेक्षा अलङ्कार </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">निरत्ययं साम न दानवर्जितं न भूरि दानं विरहय्य सत्क्रियां ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>प्रवर्तते तस्य विशेषशालिनी गुणानुरोधेन विना न सत्क्रिया ।। १.१२ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> उस दुर्योधन कि निष्कपट साम नीति दान के बिना नहीं प्रवर्तित होती तथा प्रचुर दान सत्कार के बिना नहीं होता और उसका अतिशय सत्कार भी बिना विशेष गन के नहीं होता। (अर्थात वह अतिशय सत्कार भी विशेष गुनी तथा योग्य व्यक्तियों का ही करता है। )</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span> राजनीति में चार नीति कही गयी हैं - साम, दाम, दण्ड और भेद । दुर्योधन इन चारों उपायों को बड़ी निपुणता से प्रयोग करता है। अपने से बड़े शत्रु को वह प्रचुर धन देकर मिला लेता है। उसका देना भी सम्मानपूर्वक होता है अर्थात धन और सम्मान दोनों के साथ साम-नीति का प्रयोग करता है किन्तु इसमें यह भी नहीं समझना चाहिए कि वह ऐरे-गैरे सभी लोगों को इस प्रकार धन-सम्मान देता है। नहीं, केवल गुणियों को ही, सब को नहीं। पूर्ववर्ती विशेषणों से परवर्ती वाक्यों की स्थापना के कारण एकावली अलङ्कार इस श्लोक में है।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">[आगे दुर्योधन की दण्ड-नीति का प्रकार कवि बतला रहा है। ]</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>वसूनि वाञ्छन्न वशी न मन्युना स्वधर्म इत्येव निवृत्तकारणः ।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>गुरूपदिष्टेन रिपौ सुतेऽपि वा निहन्ति दण्डेन स धर्मविप्लवं ।। १.१३ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> इन्द्रियों को वश में रखनेवाला वह दुर्योधन न तो धन के लोभ से और न क्रोध से (ही किसी को दण्ड देता है) अपितु लोभादि कारणों से रहित होकर, इसे अपना ( राजा का ) धर्म समझ कर ही वह अपने गुरु द्वारा उपदिष्ट ( शास्त्र सम्मत ) दण्ड का प्रयोग करके शत्रु हो या अपना निज का पुत्र हो, अधर्म का उपशमन करता है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य यह है कि वह दण्ड देने में भी पक्षपात नहीं करता । न तो किसी को धन-सम्पत्ति या राज्य पाने के लोभ से दण्ड देता है और न किसी को क्रोधित होने पर । बल्कि दण्ड देने में वह अपना एक धर्म समझता है । शास्त्रों के अनुसार जिसको जिस किसी अपराध का दण्ड उचित है वही वह देगा । दण्डनीय चाहे शत्रु हो या अपना ही पुत्र क्यों न हो । दुष्ट ही उनके शत्रु हैं और शिष्ट ही उसके मित्र हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">[ अब आगे दुर्योधन कि भेदनीति का वर्णन है । ] </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">विधाय रक्षान्परितः परेतरानशङ्किताकारमुपैति शङ्कितः ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>क्रियापवर्गेष्वनुजीविसात्कृताः कृतज्ञतामस्य वदन्ति सम्पदः ।। १.१४ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> सर्वदा अशुद्ध चित्त रहने वाला वह दुर्योधन सर्वत्र चारों ओर अपने आत्मीय जनों को रक्षक नियुक्त करके अपने को सब का विश्वास करने वाला प्रदर्शित करता है । कार्यों की सफल समाप्ति पर राज-सेवकों को पुरस्कार रूप में प्रदान की गयी धन-सम्पत्ति उसको कृतज्ञता की सूचना देती हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><span style="color: #b45f06;"><b>टिप्पणी:</b></span> तात्पर्य यह है कि दुर्योधन ने राज्य के सभी उच्च पदों पर अपने आत्मीय जनों को नियुक्त कर रखा है तथापि वह सर्वदा सशंक रहता है और प्रकट में ऐसा व्यवहार करता है मानो सब का विश्वास करता है । किसी भी कर्मचारी को वह यह ध्यान नहीं आने देता कि वह राजा का विश्वासपात्र नहीं है । यही नहीं, जब कभी उसका कोई कार्य सफल समाप्त होता है तब वह उसमें लगे हुए कर्मचारियों को प्रचुर धन-सम्पत्ति पुरस्कार रूप में देता है । वही धन-सम्पत्तियाँ ही उसकी कृतज्ञता का सुन्दर विज्ञापन करती हैं । इस प्रकार के कृतज्ञ एवं उपकारी राजा में सेवकों कि सच्ची भक्ति होना स्वाभाविक ही है । </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।</span><br />
</font><div>
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<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">अनारतं तेन पदेषु लम्भिता विभज्य सम्यग्विनियोगसत्क्रियाम् ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>फलन्त्युपायाः परिबृंहितायतीरुपेत्य संघर्षमिवार्थसम्पदः ।। १.१५ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<b style="font-family: "trebuchet ms", sans-serif;">अर्थ:</b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"> </span><span face=""trebuchet ms", sans-serif">उस दुर्योधन द्वारा भलीभांति, समझ-बूझकर यथायोग्य पात्र में प्रयोग किये जाने से सत्कृत साम, दाम, दण्ड और भेद - ये चारों उपाय, एक दुसरे से परस्पर स्पर्धा करते हुए - से उत्तरोत्तर बढ़ने वाली धन-सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य राशि को सर्वदा उत्पन्न किया करते हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य यह है कि दुर्योधन साम दामादि नीतियों का यथायोग्य पात्र में खूब समझ-बूझकर प्रयोग करता है और इससे उत्तरोत्तर उसकी अचल धन-सम्पत्ति एवं ऐश्वर्य की वृद्धि होती चली जा रही है ।</span><br />
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<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">अनेकराजन्यरथाश्वसंकुलं तदीयमास्थाननिकेतनाजिरं ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>नयत्ययुग्मच्छदगन्धिरार्द्रतां भृशं नृपोपायनदन्तिनां मदः ।। १.१६ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> छितवन (सप्तपर्ण) के पुष्प की सुगन्ध के समान गन्ध वाले राजाओं द्वारा भेंट में दिए गए हाथियों के मद जल, अनेक राजाओं के रथी और घोड़ों से भरे हुए उसके (दुर्योधन के) सभा-भवन के प्रांगण को अत्यन्त गीला बनाये रखते हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य यह है कि दुर्योधन की सभा में देश-देशान्तर के राजा सर्वदा जुटे रहते हैं और उनके रथों, घोड़ों और हाथियों की भीड़ से उसके सभाभवन का प्रांगण गीला बना रहता है । अर्थात उसका प्रभाव अब बहुत बढ़ गया है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">उदात्त अलङ्कार</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">सुखेन लभ्या दधतः कृषीवलैरकृष्टपच्या इव सस्यसम्पदः ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>वितन्वति क्षेममदेवमातृकाश्चिराय तस्मिन्कुरवश्चकासति ।। १.१७ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> चिरकाल से प्रजा के कल्याण के लिए यत्नशील उस राजा दुर्योधन के कारण नदी और नहरों आदि की सिंचाई की सुविधा से समन्वित कुरुप्रदेश की भूमि मानो वहां के किसानों के बिना अधिक परिश्रम उठाये ही बड़ी सुविधा के साथ स्वयं प्राप्त होने वाले अन्नों की समृद्धि से सुशोभित हो रही है । </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><span style="color: #b45f06;"><b>टिप्पणी:</b></span> तात्पर्य यह है कि दुर्योधन केवल राजनीती पर ही ध्यान नहीं दे रहा है, वह प्रजा की समृद्धि को भी बढ़ा रहा है । उसने समूचे कुरु-प्रदेश को अब वर्षा के जल पर ही नहीं निर्भर रहने दिया है, नहरों व कुओं से सिंचाई की सुविधा कर दी है । समूचा कुरु-प्रदेश धन-धान्य से भरा-पूरा हो गया है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">उत्प्रेक्षा अलङ्कार </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">महौजसो मानधना धनार्चिता धनुर्भृतः संयति लब्धकीर्तयः ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>न संहतास्तस्य न भेदवृत्तयः प्रियाणि वाञ्छन्त्यसुभिः समीहितुम् ।। १.१८ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> महाबलशाली, अपने कुल एवं शील का स्वाभिमान रखनेवाले, धन-सम्पत्ति द्वारा सत्कृत, युद्धभूमि में कीर्ति प्राप्त करनेवाले, परोपकार परायण तथा एक कार्य में सब के सब लगे रहने वाले धनुर्धारी शूरवीर उस दुर्योधन को अपने प्राणों से ( भी ) प्रिय करने की अभिलाषा रखते हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> धनुर्धारियों के सभी विशेषणों के साभिप्राय होने से परिकर तथा पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार की ससृष्टि इस श्लोक में है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>उदारकीर्तेरुदयं दयावतः प्रशान्तबाधं दिशतोऽभिरक्षया ।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>स्वयं प्रदुग्धेऽस्य गुणैरुपस्नुता वसूपमानस्य वसूनि मेदिनी ।। १.१९ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> महान यशस्वी, परदुःखकातर, समस्त उपद्रवों एवं बाधाओं को शान्त कर प्रजावर्ग की सुरक्षा की सुव्यवस्था का सम्पादन करनेवाले, कुबेर के समान उस दुर्योधन के गुणों से रीझी हुई धरती (नवप्रसूता दुधारू गौ की भांति) धन-धान्य (रुपी दूध स्वयं दे रही है।) को स्वयं उत्पन्न करती है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य यह है कि दुर्योधन के दया-दाक्षिण्य आदि गुणों ने पृथ्वी को द्रवीभूत सा कर दिया है । इसका परिणाम यह हुआ है कि समूचे कुरु प्रदेश कि धरती मानो द्रवित होकर स्वयमेव दुर्योधन को धन-धान्य रुपी दूध दे रही है । </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">समासोक्ति अलङ्कार । अतिशयोक्ति का भी पुट है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">महीभृतां सच्चरितैश्चरैः क्रियाः स वेद निःशेषमशेषितक्रियः ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>महोदयैस्तस्य हितानुबन्धिभिः प्रतीयते धातुरिवेहितं फलैः ।। १.२० ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> आरम्भ किये हुए कार्यों को समाप्त करके ही छोड़ने वाला वह दुर्योधन अपने प्रशंसनीय चरित्र वाले राजदूतों के द्वारा अन्य राजाओं कि सारी कार्यवाहियां जान लेता है । (किन्तु) ब्रह्मा के समान उसकी इच्छाओं की जानकारी, उनकी महान समाप्ति के फलों द्वारा ही होती है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य यह है कि दुर्योधन के गुप्तचर समग्र भूमण्डल में फैले हुए हैं । वह समस्त राजाओं कि गुप्त बातें तो मालूम कर लेता है किन्तु उसकी इच्छा तो तभी ज्ञात होती है जब कार्य पूरा हो जाता है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">काव्यलिङ्ग से अनुप्राणित उपमा अलङ्कार है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>न तेन सज्यं क्वचिदुद्यतं धनुर्न वा कृतं कोपविजिह्ममाननम् ।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>गुणानुरागेण शिरोभिरुह्यते नराधिपैर्माल्यमिवास्य शासनम् ।। १.२१ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> उस (दुर्योधन) ने कहीं भी अपने सुसज्जित धनुष को नहीं चढ़ाया तथा (उसने) अपने मुंह को भी (कहीं) कोढ़ से टेढ़ा नहीं किया । (केवल उसके) दया-दाक्षिण्य आदि उत्तम गुणों के प्रति अनुरक्त होने के कारण उसके शासन को सभी राजा लोग माला की भांति अपने शिर पर धारण किये रहते हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> दुर्योधन की नीतिमत्ता का यह फल है कि वह न तो कहीं धनुष का प्रयोग करता है और न कहीं मुंह से ही क्रोध प्रकट करने की उसे आवश्यकता होती है, किन्तु फिर भी सभी राजा उसके शासन को शिरसा स्वीकार करते हैं । यह केवल उसके दया-दाक्षिण्य आदि गुणों का प्रभाव है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">पूर्वार्द्ध में साभिप्राय विशेषणों से प्रकार अलङ्कार है तथा उत्तरार्द्ध में पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग से अनुप्राणित उपमा अलङ्कार है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">स यौवराज्ये नवयौवनोद्धतं निधाय दुःशासनमिद्धशासनः ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>मखेष्वखिन्नोऽनुमतः पुरोधसा धिनोति हव्येन हिरण्यरेतसम् ।। १.२२ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> अप्रतिहत आज्ञा वाला (जिसकी आज्ञा या आदेश का पालन सब करते हैं) वह दुर्योधन नवयौवन-सुलभ उद्दण्डता से पीड़ित दुःशासन को युवराज पद पर आसीन करके स्वयं पुरोहित की अनुमति से बड़ी तत्परता के साथ आलस्य छोड़कर यज्ञों में हवनीय सामग्रियों द्वारा अग्निदेवता को प्रसन्न करता है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात अब वह शासन के छोटे-मोटे कामों के सम्बन्ध से भी निश्चिन्त है और धर्म-कार्यों में अनुरक्त है । धर्म कार्य में अनुरक्त ऐसे राजा का अनिष्ट भला हो ही कैसे सकता है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।</span><br />
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<font size="2"><b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">प्रलीनभूपालमपि स्थिरायति प्रशासदावारिधि मण्डलं भुवः ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>स चिन्तयत्येव भियस्त्वदेष्यतीरहो दुरन्ता बलवद्विरोधिता ।। १.२३ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> वह दुर्योधन (शत्रु) राजाओं के विनष्ट हो जाने के कारण सुस्थिर भूमण्डल पर समुद्र पर्यन्त राज्य शासन करते हुए भी आप की ओर से आनेवाली विपदा के भय से चिन्तित ही रहता है । क्यों न ऐसा हो, बलवान के साथ का वैर-विरोध अमङ्गलकारी ही है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> समुद्रपर्यन्त भूमण्डल का शत्रुहीन राजा भी अनपे विरोधी से भयभीत है । </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।</span><br />
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<font size="2"><b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">कथाप्रसङ्गेन जनैरुदाहृतादनुस्मृताखण्डलसूनुविक्रमः ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>तवाभिधानाद्व्यथते नताननः स दुःसहान्मन्त्रपदादिवोरगः ।। १.२४ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> बातचीत के प्रसङ्ग में लोगों द्वारा लिए जानेवाले आप के नाम से इन्द्रपुत्र अर्जुन के भयङ्कर पराक्रम को स्मरण करता हुआ वह दुर्योधन (विष की औषधि करने वाले मन्त्रवेत्ता द्वारा गरुड़ और वासुकि के नामों से युक्त ) मन्त्रों के प्रचण्ड पराक्रम को न सह सकने वाले सर्प की भांति नीचे मुख करके व्यथा का अनुभव करता है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य यह है कि आप का नाम सुनते ही उसे गहरी पीड़ा होती है । अर्जुन के भयङ्कर पराक्रम का स्मरण करके वह मंत्रोच्चारण से सन्तप्त सर्प की भांति शिर नीचे कर लेता है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">उपमा अलङ्कार ।</span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>तदाशु कर्तुं त्वयि जिह्ममुद्यते विधीयतां तत्रविधेयमुत्तरम् ।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>परप्रणीतानि वचांसि चिन्वतां प्रवृत्तिसाराः खलु मादृशां धियः ।। १.२५ ।।</b></span><br />
<b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span></b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> अतएव आप के साथ कपट एवं कुटिलता का आचरण करने में उद्यत उस दुर्योधन के साथ उचित उत्तर देने वाली कार्यवाही आप शीघ्र करें । दूसरों की कही गयी बातों को भुगताने वाले सन्देशहारी मुझ जैसे लोगों की बातें तो केवल परिस्थिति की सूचना मात्र देती हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> दूत का तात्पर्य है कि अब आपको उस दुर्योधन के साथ क्या करना चाहिए, इसका शीघ्र निर्णय कर लें । इस सम्बन्ध में मेरे जैसे लोग तो यही कर सकते हैं कि जो कुछ वहां देखकर आये हैं, उसकी सूचना आप को दे दें । क्या करना चाहिए, इस सम्बन्ध में सम्मति देने के अधिकारी हम जैसे लोग नहीं हैं । </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>इतीरयित्वा गिरमात्तसत्क्रिये गतेऽथ पत्यौ वनसंनिवासिनाम् ।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>प्रविश्य कृष्णा सदनं महीभुजा तदाचचक्षेऽनुजसन्निधौ वचः ।। १.२६ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> उपर्युक्त बातें कहकर, पारितोषिक द्वारा सत्कृत उस वनवासी चर के (वहां से) चले जाने के अनन्तर राजा युधिष्ठिर द्रौपदी के भवन में प्रविष्ट हो गए और वहां उन्होंने अपने छोटे भाइयों की उपस्थिति में वे साड़ी बातें द्रौपदी को कह सुनाईं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> वह वनवासी चर दुर्योधन की गोपनीय बातों की सूचना देकर उचित पुरस्कार द्वारा सम्मानित होकर जब चला गया, तब राजा युधिष्ठिर ने वे साड़ी बातें अपने छोटे भाइयों से तथा द्रौपदी से भी जाकर बता दीं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">निशम्य सिद्धिं द्विषतामपाकृतीस्ततस्ततस्त्या विनियन्तुमक्षमा ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>नृपस्य मन्युव्यवसायदीपिनीरुदाजहार द्रुपदात्मजा गिरः ।। १.२७ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> द्रुपदसुता शत्रुओं की सफलता सुनकर, उनके द्वारा होने वाले अपकारों को दूर करने में अपने को असमर्थ समझ कर राजा युधिष्ठिर के क्रोध को प्रज्ज्वलित करने वाली वाणी में (इस प्रकार) बोली ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> स्त्रियों को पति के क्रोध को उद्दीप्त करने वाली कला खूब आती है । दुर्योधन के अभ्युदय की चर्चा सुन कर द्रौपदी को वह सब विपदाएं स्मरण हो आईं, जो अतीत में भोगनी पड़ी थीं । उसने अनुभव किया कि ये हमारे निकम्मे पति अभी तक उसका प्रतिकार भी नहीं कर सके । अतः उसने युधिष्ठिर के क्रोध को उत्तेजित करने वाली बातें कहना आरम्भ किया ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">भवादृशेषु प्रमदाजनोदितं भवत्यधिक्षेप इवानुशासनम् ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>तथापि वक्तुं व्यवसाययन्ति मां निरस्तनारीसमया दुराधयः ।। १.२८ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> (यद्यपि) आप जैसे राजाओं के लिए स्त्रियों द्वारा कही गयी अनुशासन सम्बन्धी बातें (आप के) तिरस्कार के समान हैं तथापि नारी जाति सुलभ शालीनता को छुडानेवाली (छोड़ने के लिए विवश करने वाली) ये मेरी दुष्ट मनोव्यथाएं मुझे बोलने के लिए विवश कर रही हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> द्रौपदी कितनी बुद्धिमती थी । उसकी भाषण-पटुता देखिये । कितनी विनम्रता से वह अपना अभिप्राय प्रकट करती है । उसके कथन का तात्पर्य यह है कि दुखी व्यक्ति के लिए अनुचित कर्म भी क्षम्य होता है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">काव्यलिङ्ग और उपमा की समृष्टि ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>अखण्डमाखण्डलतुल्यधामभिश्चिरं धृता भूपतिभिः स्ववंशजैः ।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>त्वया स्वहस्तेन मही मदच्युता मतङ्गजेन स्रगिवापवर्जिता ।। १.२९ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> इन्द्र के समान पराक्रमशाली अपने वंश में उत्पन्न होनेवाले भरत आदि राजाओं द्वारा चिरकाल तक सम्पूर्ण रूप से धारण की हुई इस धरती को तुमने मद चुवाने वाले (मदोन्मत्त) गजराज द्वारा माला की भांति अपने ही हाथों से (तोड़फोड़) कर त्याग दिया है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> भरत आदि पूर्ववंशजों के महान पराक्रम की याद दिलाकर द्रौपदी युधिष्ठिर को लज्जित करना चाहती है । कहाँ थे वह लोग और कहाँ हो तुम कि अपने ही साम्राज्य को अपने ही हाथों से नष्ट कर दिया । अपने ही अवगुणों से यह अनर्थ हुआ है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">उपमा अलङ्कार ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>व्रजन्ति ते मूढधियः पराभवं भवन्ति मायाविषु ये न मायिनः ।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>प्रविश्य हि घ्नन्ति शठास्तथाविधानसंवृताङ्गान्निशिता इवेषवः ।। १.३० ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> वे मूर्ख बुद्धि के लोग पराजित होते हैं जो (अपने) मायावी (शत्रु) लोगों के साथ मायावी नहीं बनते, क्योंकि दुष्ट लोग उस प्रकार के सीधे-सादे निष्कपट लोगो में, उघाड़े हुए अंगों में तीक्ष्ण बाणों की भांति प्रवेश करके उनका विनाश कर देते हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य यह है कि मायावी दुर्योधन को जीतने के लिए तुम को अपनी या धर्मात्मापने की नीति छोड़नी होगी । तुम्हें भी उसी तरह मायावी बनना होगा । जिस तरह उघडे शरीर में तीक्ष्ण बाण घुस कर अंगों का नाश कर देते हैं, उसी तरह से निष्कपट रहनेवालों के बीच में उसके कपटी शत्रु भी प्रवेश कर लेते हैं और उसका सत्यानाश कर देते हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">अर्थान्तरन्यास से अनुप्राणित उपमा अलङ्कार ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>गुणानुरक्तां अनुरक्तसाधनः कुलाभिमानी कुलजां नराधिपः ।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>परैस्त्वदन्यः क इवापहारयेन्मनोरमां आत्मवधूं इव श्रियं ।। १.३१ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> सब प्रकार के साधनों से युक्त एवं अपने उच्च कुल का अभिमान करनेवाला तुम्हारे शिव दूसरा कौन ऐसा राजा होगा, जो सन्धि आदि (सौन्दर्य आदि) राजोचित गुणों से (स्त्रियोचित गुणों से) अनुरक्त, वंश परम्परा द्वारा प्राप्त (उच्च कुलोत्पन्न) मन को लुभानेवाली अपनी पत्नी की भांति राज्यलक्ष्मी को दूसरों से अपहृत कराएगा ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> स्त्री के अपहरण के समान ही राज्यलक्ष्मी का अपहरण भी मानहानिकारक है । तुम्हारे समान निर्लज्ज ऐसा कोई दूसरा राजा मेरी दृष्टी में नहीं है, जो अपने देखते हुए अपनी पत्नी की भांति अपनी राज्यलक्ष्मी को अपहरण करने दे रहा है । </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">मालोपमा अलङ्कार</span><br />
<br />
<br />
<b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">भवन्तं एतर्हि मनस्विगर्हिते विवर्तमानं नरदेव वर्त्मनि ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>कथं न मन्युर्ज्वलयत्युदीरितः शमीतरुं शुष्कं इवाग्निरुच्छिखः ।। १.३२ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> हे राजन ! ऐसा विपत्ति का समय आ जाने पर भी, वीर पुरुषों के लिए निंदनीय मार्ग पर खड़े हुए आप को (मेरे द्वारा) बढ़ाया हुआ क्रोध, सूखे हुए शमी वृक्ष को अग्नि की भांति क्यों नहीं जला रहा है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात आप को तो ऐसी विपदावस्था में उद्दीप्त क्रोध से जल उठाना चाहिए था । शत्रु द्वारा उपस्थित की गयी ऐसी दूरदशाजनक परिस्थिति में भी आप कायरों की भांति शान्तचित्त हैं, इसका मुझे आश्चर्य हो रहा है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">उपमा अलङ्कार ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><br />
<b><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">अवन्ध्यकोपस्य निहन्तुरापदां भवन्ति वश्याः स्वयं एव देहिनः ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>अमर्षशून्येन जनस्य जन्तुना न जातहार्देन न विद्विषादरः ।। १.३३ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> जिसका क्रोध कभी निष्फल नहीं होता - ऐसे विपत्तियों को दूर करने वाले व्यक्ति के वश में लोग स्वयं ही हो जाते हैं (किन्तु) क्रोध से विहीन व्यक्ति के साथ प्रेम भाव पैदा होने से मनुष्य का आदर नहीं होता और न शत्रुता होने से भय ही होता है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य है कि जिस मनुष्य में अपने अपकार का बदला चुकाने कि क्षमता नहीं होती उसकी मित्रता से न कोई लाभ होता है और न शत्रुता से कोई भय होता है । क्रोध अथवा अमर्ष से विहीन प्राणी नगण्य होता है । मनुष्य को समय पर क्रोध करना चाहिए और समय पर क्षमा करनी चाहिए ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>परिभ्रमंल्लोहितचन्दनोचितः पदातिरन्तर्गिरि रेणुरूषितः ।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>महारथः सत्यधनस्य मानसं दुनोति ते कच्चिदयं वृकोदरः ।। १.३४ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> (पहले) लाल चन्दन लगाने के अभ्यस्त, रथ पर चलनेवाले (किन्तु सम्प्रति) धुल से भरे हुए पैदल - एक पर्वत से दुसरे पर्वत पर भ्रमण करनेवाले यह भीमसेन क्या सत्यपरायण (आप) के चित्त को खिन्न नहीं करते हैं ?</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> 'सत्यपरायण' यहाँ उलाहने के रूप में उत्तेजना देने के लिए कहा गया है । छोटे भाइयों कि दुर्दशा का चित्र खींच कर द्रौपदी युधिष्ठिर को अत्यन्त उत्तेजित करना चाहती है । उसके इस व्यंग्य का तात्पर्य यह है कि ऐसे पराक्रमी भाइयों कि ऐसी दुर्गति हो रही है और आप उन मायावियों के साथ ऐसी सत्यपरायणता का व्यवहार कर रहे हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">परिकर अलङ्कार </span><span face=""trebuchet ms", sans-serif">।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>विजित्य यः प्राज्यं अयच्छदुत्तरान्कुरूनकुप्यं वसु वासवोपमः ।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>स वल्कवासांसि तवाधुनाहरन्करोति मन्युं न कथं धनंजयः ।। १.३५ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> इन्द्र के समान पराक्रमी जिस (अर्जुन) ने सुमेरु के उत्तरवर्ती कुरुप्रदेशों को जीत कर प्रचुर सुवर्ण एवं राशि लाकर आपको दी थी वही अर्जुन अब वल्कलोन का वस्त्र धारण कर तुम्हारे ह्रदय में क्रोध को क्यों नहीं पैदा कर रहा है ?</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> जिसने जीवनपर्यन्त सुखभोग के लिए पर्याप्त धनराशि अपने पराक्रम से जीत कर आपको दी थी, वही आप के कारण आज वल्कलधारी है, यह देखकर भी आप में क्रोध क्यों नहीं होता - यह आश्चर्य है ।</span><br />
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<font size="2"><br /></font></div>
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<b style="font-family: "trebuchet ms", sans-serif;"><font size="2">वनान्तशय्याकठिनीकृताकृती कचाचितौ विष्वगिवागजौ गजौ ।</font></b></div>
<font size="2"><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>कथं त्वं एतौ धृतिसंयमौ यमौ विलोकयन्नुत्सहसे न बाधितुं ।। १.३६ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> वन की विषम भूमि में सोने से जिनका शरीर कठोर बन गया है, ऐसे चरों ओर बाल उलझाए हुए, जङ्गली हाथी की भान्ति, इन दोनों जुड़वें भाइयों (नकुल और सहदेव) को देखते हुए, (तुम्हारे) धैर्य और सन्तोष तुम्हें छोड़ने को क्या नहीं तैयार होते ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> भीम और अर्जुन की पराक्रम-चर्चा के साथ सौतेली माता के सुकुमार पुत्रों की दुर्दशा की चर्चा भी युधिष्ठिर को और अधिक उत्तेजित करने के लिए की गयी है । इसमें तो उनके धैर्य और सन्तोष की खुले शब्दों में निन्दा भी की गयी है कि ऐसा धैर्य और सन्तोष कहीं नहीं देखा गया ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">उपमा अलङ्कार</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">इमां अहं वेद न तावकीं धियं विचित्ररूपाः खलु चित्तवृत्तयः ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>विचिन्तयन्त्या भवदापदं परां रुजन्ति चेतः प्रसभं ममाधयः ।। १.३७ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> मैं (इतनी विपत्ति में भी आपको स्थिर रखनेवाली) आपकी बुद्धि को नहीं समझ पाती । मनुष्य-मनुष्य की चित्तवृत्ति अलग-अलग विचित्र होती है । आप की इन भयङ्कर विपत्तियों को (तो) सोचते हुए (भी) मेरे चित्त को मनोव्यथाएं अत्यन्त व्याकुल कर देती हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात आप जिस विपत्ति को झेल रहे हैं वह तो देखने वालों को भी परेशान कर देती है, किन्तु आप हैं जो बिलकुल निश्चिन्त और निष्क्रिय हैं । यह परम आश्चर्य है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">पुराधिरूढः शयनं महाधनं विबोध्यसे यः स्तुतिगीतिमङ्गलैः ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>अदभ्रदर्भां अधिशय्य स स्थलीं जहासि निद्रां अशिवैः शिवारुतैः ।। १.३८ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><br /></b></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> जो आप पहले अत्यन्त मूलयवान शय्या पर सोकर स्तुति पाठ करनेवाले बैतालिकों के मङ्गल गान से जगाये जाते थे, व्है आप अब कुशों से आकीर्ण वनस्थली में शयन करते हुए अमङ्गल की सूचना देनेवाली शृगालियों के रुदन शब्दों से निद्रा-त्याग करते हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य यह है की विपदा ही क्यों, आप की भी तो दुर्दशा हो रही है । </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">विषम अलङ्कार</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>पुरोपनीतं नृप रामणीयकं द्विजातिशेषेण यदेतदन्धसा ।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>तदद्य ते वन्यफलाशिनः परं परैति कार्श्यं यशसा समं वपुः ।। १.३९ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">वंशस्थ छन्द</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> हे राजन ! आपका जो यह शरीर पहले ब्राह्मणों के भोजनादि से शेष अन्न द्वारा परिपोषित होकर मनोहर दिखाई पड़ता था, वही आज जङ्गली फल-फूलों के भक्षण से, आपके यश की साथ, अत्यन्त दुर्बल हो गया है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात न केवल शरीर ही दुर्बल हो गया है, वरन आपकी कीर्ति भी धूमिल हो गयी है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">सहोक्ति अलङ्कार </span><br />
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<font size="2"><b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">अनारतं यौ मणिपीठशायिनावरञ्जयद्राजशिरःस्रजां रजः ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>निषीदतस्तौ चरणौ वनेषु ते मृगद्विजालूनशिखेषु बर्हिषां ।। १.४० ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">वंशस्थ छन्द</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> सर्वदा मणि के बने हुए सिंहासन पर विश्राम करनेवाले आप के जिन दोनों पैरों को (अभिवादन के लिए झुकने वाले) राजाओं के मस्तक की मालाओं की धूलि लगती थी, (अब) वही दोनों चरण हरिणो अथवा ब्राह्मणों के द्वारा छिन्न कुशों के वनों में विश्राम पाते हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> इससे बढ़कर विपत्ति अब और क्या आएगी ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">विषम अलङ्कार</span><br />
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<font size="2"><b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">द्विषन्निमित्ता यदियं दशा ततः समूलं उन्मूलयतीव मे मनः ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>परैरपर्यासितवीर्यसम्पदां पराभवोऽप्युत्सव एव मानिनाम् ।। १.४१ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">वंशस्थ छन्द</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> आप की यह दुर्दशा शत्रु के कारण हुई है, इसलिए मेरा मन अत्यन्त क्षुब्ध सा होता है । (वैसे) शत्रुओं द्वारा जिसके बल एवं पराक्रम का तिरस्कार नहीं हुआ है, ऐसे मनस्वियों का पराभव भी उत्साहवर्धक ही होता है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> मानियों की विपदा बुरी नहीं है, उनकी मानहानि बुरी है । वही सब से बढ़ कर असहनीय है । </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">उत्प्रेक्षा और अर्थान्तरन्यास अलङ्कारों की ससृष्टि </span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br style="background-color: white;" /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>विहाय शान्तिं नृप धाम तत्पुनः प्रसीद संधेहि वधाय विद्विषां ।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>व्रजन्ति शत्रूनवधूय निःस्पृहाः शमेन सिद्धिं मुनयो न भूभृतः ।। १.४२ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">वंशस्थ छन्द</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> (इसलिए) हे राजन ! शान्ति को त्याग कर आप (अपने) उस तेज को शत्रुओं के विनाशार्थ पुनः प्राप्त करें तथा प्रसन्न हों । निस्पृह मुनि लोग (ही) शत्रुओं (कामादि मनोविकारों) को तिरस्कृत कर के शान्ति के द्वारा सिद्धि की प्राप्ति करते हैं, राजा लोग नहीं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> शान्ति द्वारा प्राप्त होने वाले मोक्षादि पदार्थों की भांति राज्यलक्ष्मी शान्ति से प्राप्त नहीं होती, वह वीरभोग्या है । आपको तो अपने शत्रु का विनाश करने वाला तेज पुनः धारण करना होगा ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>पुरःसरा धामवतां यशोधनाः सुदुःसहं प्राप्य निकारं ईदृशं ।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>भवादृशाश्चेदधिकुर्वते परान्निराश्रया हन्त हता मनस्विता ।। १.४३ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">वंशस्थ छन्द</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> तेजस्वियों में अग्रगामी, यश को सर्वस्व माननेवाले आप जैसे शूरवीर अत्यन्त कठिनाई से सहने योग्य, इस प्रकार से शत्रु द्वारा होने वाले अपमान को प्राप्त करके यदि सन्तोष करते हैं तो हाय ! स्वभिमानिता बेचारी निराश्रय होकर नष्ट हो गयी ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात आप जैसे तेजस्वी तथा यश को ही जीवन का उद्देश्य माननेवाला भी यदि शत्रु द्वारा प्राप्त दुर्दशा को सहन करता है तो साधारण मनुष्य के लिए क्या कहा जाय ? अतः पराक्रम करना ही अब आपका धर्म है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">अर्थान्तरन्यास अलङ्कार</span><br />
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<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">अथ क्षमां एव निरस्तसाधनश्चिराय पर्येषि सुखस्य साधनं ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>विहाय लक्ष्मीपतिलक्ष्म कार्मुकं जटाधरः सञ्जुहुधीह पावकं ।। १.४४ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">वंशस्थ छन्द</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> अथवा (अपनी सूर्य तेजस्विता का नहीं धारण करना चाहते और) अपने पराक्रम का त्याग कर चिरकाल तक शान्ति को ही सुख का कारण मानते हो तो राजचिन्ह से चिन्हित धनुष को फेंककर जटा धारण कर लो और इस तपोवन में अग्नि में हवन करो ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात बलवानों के लिए भी यदि शान्ति ही सुखदायी हो तो विरक्तों की तरह बलवानों को भी धनुष धारण करने से क्या लाभ है ? उसे फेंक देना चाहिए ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>न समयपरिरक्षणं क्षमं ते निकृतिपरेषु परेषु भूरिधाम्नः ।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>अरिषु हि विजयार्थिनः क्षितीशा विदधति सोपधि संधिदूषणानि ।। १.४५ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">पुष्पिताग्रा छन्द</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> नीचता पर उतारू शत्रुओं के रहते हुए आप जैसे परम तेजस्वी के लिए तरह वर्ष की अवधि की रक्षा की बात सोचना अनुचित है, क्योंकि विजय के अभिलाषी राजा अपने शत्रुओं के साथ किसी न किसी बहाने से सन्धि आदि को भङ्ग कर ही देते हैं ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> जो शक्तिमान होते हैं, उनके लिए सर्वदा अपना कार्य करना ही कल्याणकारी है, समय अथवा प्रतिज्ञा की रक्षा कायरों के लिए उचित है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">काव्यलिङ्ग और अर्थान्तरन्यास अलङ्कार </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><b><span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">विधिसमयनियोगाद्दीप्तिसंहारजिह्मं शिथिलबलं अगाधे मग्नं आपत्पयोधौ ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b>रिपुतिमिरं उदस्योदीयमानं दिनादौ दिनकृतं इव लक्ष्मीस्त्वां समभ्येतु भूयः ।। १.४६ ।।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif">मालिनी </span><span face=""trebuchet ms", sans-serif">छन्द</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b>अर्थ:</b> देव और कालचक्र के कारण अगाध विपत्ति समुद्र में डूबे हुए, प्रताप के नष्ट हो जाने से अप्रसन्न, विनष्ट धन-सम्पत्ति, शत्रुरूपी अन्धकार को विनष्ट कर उदित होने वाले आप को प्रातः काल के (कालचक्र के कारण पश्चिम समुद्र में निमग्न, प्रकाश के नष्ट हो जाने से निस्तेज एवं अन्धकार को दूर कर उदित होने वाले) सूर्य की भान्ति राज्यलक्ष्मी (कान्ति) फिर से प्राप्त हो ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> रात्रि भर पश्चिम के समुद्र में डूबे हुए निस्तेज सूर्य को प्रातः काल उदित होने पर जिस प्रकार पुनः उसकी कान्ति प्राप्त हो जाती है उसी प्रकार इतने दिनों तक विपत्तियों के अगाध समुद्र में डूबे हुए, निस्तेज एवं निर्धन आप को भी आपकी राज्यलक्ष्मी जल्द ही प्राप्त हो - यह मेरी कामना है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif">सर्ग का आरंभ श्री शब्द से हुआ था और उसका अन्त भी लक्ष्मी शब्द से हुआ । मंगलाचरण के लिए ऐसा ही शास्त्रीय विधान है । यह मालिनी छन्द है, जिसका लक्षण है, "ननमयययुतेय मालिनी भोगिलोकौ ।" छन्द में पूर्णोपमा अलङ्कार है ।</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><br /></span>
<br />
</font><div style="text-align: center;">
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;"><font size="2"><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये प्रथमः सर्गः ।</span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;">।</span></font></span></b></span></div><div style="text-align: center;">
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="font-weight: 700;"><font size="2"><br /></font></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><font size="2">=================================================</font></span></div>
<font size="2"><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><br /></span><b><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><span face="sans-serif" style="color: #222222;">विहितां प्रियया मनःप्रियां अथ निश्चित्य गिरं गरीयसी</span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">म्</span><span face="sans-serif" style="background-color: white; color: #222222;"> ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपपत्तिमदूर्जिताश्रयं नृपं ऊचे वचनं वृकोदरः ।। २.१ ।।</span></b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><br /></b></span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ: </b>द्रौपदी के कथन के अनन्तर भीमसेन प्रियतमा द्रौपदी द्वारा कही गयी मन को प्रिय लगने वाली वाणी को अर्थ-गौरव से संयुक्त मानकर राजा युधिष्ठिर से युक्तियुक्त एवं गंभीर अर्थों से युक्त वचन (इस प्रकार) बोले ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> द्रौपदी की उत्तेजक बातों से भीम मन ही मन प्रसन्न हुए थे, और उनमें उन्हें अर्थ की गंभीरता भी मालूम पड़ी थी । अतः उसी का अनुमोदन करने के लिए वह तर्कसंगत एवं अर्थ-गौरव से युक्त वाणी में आगे स्वयं युधिष्ठिर को समझाने का प्रयत्न करते हैं । </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।</span><br />
</font><div>
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">यदवोचत वीक्ष्य मानिनी परितः स्नेहमयेन चक्षुषा ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अपि वागधिपस्य दुर्वचं वचनं तद्विदधीत विस्मयं ।। २.२ ।।</span></b></span></font></div><div><font size="2"><font color="#222222" face=""><b><br /></b></font>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> क्षत्रिय कुलोचित स्वाभिमान से भरी द्रौपदी ने स्नेह से पूर्ण नेत्रों से (ज्ञान नेत्रों से) चारों ओर देखकर जो बातें (अभी) कहीं हैं, बृहस्पति के लिए भी कठिनाई से कहने योग्य उन बातों से सब को विस्मय होगा । अथवा कठिनाई से भी न कहने योग्य उन बातों से बृहस्पति को भी आश्चर्य होगा ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b><span style="color: #222222;">भीमसेन के कथन का तात्पर्य यह है कि द्रौपदी ने जो कुछ कहा है वह यद्यपि स्त्रीजन सुलभ शालीनता के विरुद्ध होने के कारण विस्मयजनक है । तथापि उसमें बृहस्पति को भी आश्चर्यचकित करने वाली बुद्धि की बातें हैं, उन्हें आपको अङ्गीकार करना ही उचित है । </span></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif"></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वाक्यार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="background-color: white; color: #222222;"><b>विषमोऽपि विगाह्यते नयः कृततीर्थः पयसां इवाशयः ।</b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">स तु तत्र विशेषदुर्लभः सदुपन्यस्यति कृत्यवर्त्म यः ।। २.३ ।।</span></b></span></font></div><div><font size="2"><font color="#222222" face=""><b><br /></b></font>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> नीतिशास्त्र बड़ा ही दुरूह और गहन विषय है, फिर भी जलाशय की भान्ति अभ्यास आदि (सन्तरण आदि) करने से उसमें प्रवेश किया जा सकता है । किन्तु इस प्रसङ्ग से ऐसा व्यक्ति मिलना अत्यन्त दुर्लभ है, जो सन्धि विग्रह आदि कार्यों को (स्नानादि कार्यों को) देश काल की परिस्थिति के अनुसार (गड्ढा, पत्थर, ग्रह आदि की जानकारी) प्रस्तुत करता है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> तात्पर्य यह है की नीतिशास्त्र बड़ा गम्भीर है । यह उस जलाशय के समान है जिसमें बन्धे हुए घाट के बिना प्रवेश करना बड़ा दुष्कर है । पता नहीं कहाँ उसमें गहरा गड्ढा है, कहाँ शिलाखण्ड है, कहाँ ग्राह बैठा है ? राजनीति में भी इसी तरह की गुत्थियां रहती हैं, उसमें धीरे धीरे प्रवेश के अभ्यास द्वारा ही गति की जा सकती है । जैसे कोई विरला ही सरोवर की भीतरी बातों को जानता है और स्नानार्थी को सब सूचनाएं देकर स्नान के लिए प्रस्तुत करता है, उसी प्रकार सन्धि-विग्रह आदि कार्यों को जाननेवाला कोई विरला ही होता है, जो समय समय पर उनके उपयोग की आवश्यकता समझाकर राजनीति सिखानेवालों दक्ष बनाता है । सभी लोग ऐसा नहीं कर सकते । द्रौपदी में वह सब गुण हैं, जो विस्मयजनक है किन्तु वह जो कुछ इस समय कह रही है, उसका हमें पालन करना चाहिए </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">परिणामसुखे गरीयसि व्यथकेऽस्मिन्वचसि क्षतौजसां ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अतिवीर्यवतीव भेषजे बहुरल्पीयसि दृश्यते गुणः ।। २.४ ।।</span></b></span></font></div><div><font size="2"><font color="#222222" face=""><b><br /></b></font>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> परिणाम में लाभदायक और श्रेष्ठ किन्तु क्षीण शक्ति वालों (दुर्बल पाचनशक्ति वालों) के लिए भयङ्कर दुःखदायी, स्वल्प मात्रा में भी अत्यन्त पराक्रम देनेवाली औषधि की भान्ति द्रौपदी की (इस) वाणी में अत्यन्त गुण दिखाई पड़ रहे हैं ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> जिस प्रकार उत्तम औषधि की अल्प मात्रा में भी आरोग्य, बल, पोषण आदि अनेक गुण होते हैं, परिणाम लाभदायक होता है, किन्तु वही क्षीण पाचन शक्ति वालों के लिए भयङ्कर कष्टदायिनी होती है, उसी प्रकार द्रौपदी की यह वाणी भी यद्यपि संक्षिप्त है, किन्तु श्रेष्ठ है । इसका परिणाम उत्तम है और इसके अनुसार आचरण करने से निश्चय ही आपके ऐश्वर्य एवं पराक्रम की वृद्धि होगी । मुझे तो इसमें मानरक्षा, राज्यलक्ष्मी की पुनः प्राप्ति आदि अनेक गुण दिखाई पड़ रहे हैं ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपमा अलङ्कार।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<b style="font-family: "trebuchet ms", sans-serif;"><span face="sans-serif" style="color: #222222;">इयं इष्टगुणाय रोचतां रुचिरार्था भवतेऽपि भारती ।</span></b><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">ननु वक्तृविशेषनिःस्पृहा गुणगृह्या वचने विपश्चितः ।। २.५ ।।</span></b></span></font></div><div><font size="2"><font color="#222222" face=""><b><br /></b></font>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ: </b>सुन्दर अर्थों से युक्त द्रौपदी की यह वाणी गुणग्राही आप के लिए भी रुचिकर होनी चाहिए । क्योंकि गुणों को ग्रहण करनेवाले विद्वान् लोग (किसी) वाणी में वक्ता की स्पृहा नहीं रखते ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> अर्थात गुणग्राही लोग किसी भी बात की अच्छे को तुरन्त स्वीकार कर लेते हैं, वे यह नहीं देखते कि उसका वक्ता कोई पुरुष है या स्त्री है ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।</span><br />
</font><div>
<font size="2"><br /></font></div>
<div>
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">चतसृष्वपि ते विवेकिनी नृप विद्यासु निरूढिं आगता ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">कथं एत्य मतिर्विपर्ययं करिणी पङ्कं इवावसीदति ।। २.६ ।।</span></b></span></font></div><div><font size="2"><font color="#222222" face=""><b><br /></b></font>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ: </b>हे राजन ! आन्वीक्षिकी आदि चारोंह विद्याओं में प्रसिद्धि को प्राप्त करनेवाली आपकी विवेकशील बुद्धि, दलदल में फांसी हुई हथिनी की भान्ति विपरीत अवश्था को प्राप्त करके क्यों विनष्ट हो रही है ?</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span> </b><span style="color: #222222;">अर्थात जैसे हथिनी दलदल में फंसकर विनष्ट हो जाती है उसी प्रकार चारों विद्याओं में निपुण आपकी बुद्धि आज की विपरीत परिस्थिति में फंसकर क्यों नष्ट हो रही है ?</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपमा अलङ्कार।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">विधुरं किं अतः परं परैरवगीतां गमिते दशां इमां ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अवसीदति यत्सुरैरपि त्वयि सम्भावितवृत्ति पौरुषं ।। २.७ ।।</span></b></span></font></div><div><font size="2"><font color="#222222" face=""><b><br /></b></font>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> शत्रुओं द्वारा आपके इस दयनीय अवस्था में पहुंचाए जाने पर, देवताओं द्वारा भी प्रशंसित आपका जो पुरुषार्थ नष्ट हो रहा है उससे बढ़कर कष्ट देने वाली दूसरी बात (भला) क्या होगी ?</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> अर्थात आपके जिस ऐश्वर्य एवं पराक्रम की प्रशंसा देवता लोग भी करते थे, वह नष्ट हो गया है, अतः इससे बढ़कर कष्ट की क्या बात होगी । शत्रुओं ने आपको ऐसी दुर्दशाजनक स्थिति में पहुँचा दिया है, इसका आपको बोध नहीं हो रहा है ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">काव्यलिङ्ग अथवा अर्थापत्ति अलङ्कार ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">द्विषतां उदयः सुमेधसा गुरुरस्वन्ततरः सुमर्षणः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">न महानपि भूतिं इच्छता फलसम्पत्प्रवणः परिक्षयः ।। २.८ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="background-color: white; color: #222222;">वियोगिनी छन्द</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> ऐश्वर्य की कामना करनेवाले व्यक्ति, क्षय-पर्यवसायी शत्रु की उन्नति को सह लेते हैं किन्तु अभ्युदयकारी शत्रु की वर्तमान कालिक अवनति की भी उपेक्षा नहीं करते । </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अचिरेण परस्य भूयसीं विपरीतां विगणय्य चात्मनः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">क्षययुक्तिं उपेक्षते कृती कुरुते तत्प्रतिकारं अन्यथा ।। २.९ ।।</span></b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी छन्द</span></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> ऐश्वर्याभिलाषी चतुर व्यक्ति शत्रु के क्षीयमान अभ्युदय की तो उपेक्षा करते हैं किन्तु अभ्युदोन्मुख विपदग्रस्त शत्रु की वे कथमपि उपेक्षा नहीं करते ।</span><br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> महाकवि भारवि का राजनैतिक तलस्पर्शी ज्ञान यहाँ सुस्पष्ट प्रतीत होता है । शत्रु की उपेक्षा कब करनी चाहिए और कब उसका प्रतिकार करना चाहिए इसका विवेचन, मनन करने योग्य है ।<br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>राजनीति शास्त्र के विरुद्ध उपेक्षात्मक आचरण करने का फल अनिष्ट होता है यह बतलाते हुए महाकवि भारवि भीमसेन के द्वारा कहते हैं -<br />
<br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अनुपालयतां उदेष्यतीं प्रभुशक्तिं द्विषतां अनीहया ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अपयान्त्यचिरान्महीभुजां जननिर्वादभयादिव श्रियः ।। २.१० ।।</span></b><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी छन्द</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><b style="color: #222222; font-family: sans-serif;">अर्थ: </b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">जो पृथ्वीपति उत्साह के अभाव में शत्रुओं की बर्धिष्णु प्रभुशक्ति की उपेक्षा करते हैं, उनकी राज्यलक्ष्मी मानो जनापवाद (लोकनिन्दा) के भय से छोड़कर अन्यत्र अविलम्ब चली जाती है जैसे षण्ड की पत्नी षण्डपति को छोड़ कर चल देती है </span><br />
हेतुत्प्रेक्षालङ्कार<br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">क्षययुक्तं अपि स्वभावजं दधतं धाम शिवं समृद्धये ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">प्रणमन्त्यनपायं उत्थितं प्रतिपच्चन्द्रं इव प्रजा नृपं ।। २.११ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी छन्द </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ: </b>हे राजन ! जिस प्रकार परिक्षीण प्रतिपच्चन्द्र को बर्धिष्णु होने से लोग प्रणाम करते हैं उसी प्रकार परिस्थिति विशेष से जो राजा क्षीणबल हो गया हो किन्तु प्रजाकल्याणार्थ उत्साह-तेज से सम्पन्न हो उस राजा को भी लोग नतमस्तक होकर प्रणाम करते हैं, उसकी आज्ञा को शिरोधार्य करते हैं । उत्साह तेज-सम्पन्न राजा को जन-बल स्वतः ही प्राप्त रहता है अतः शत्रु का प्रतिकार करने में अपने को हीन बल न समझो !</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> बर्धिष्णु चन्द्र जिस प्रकार वंदनीय होता है उसी प्रकार उत्साह सम्पन्न राजा क्षीणवाल होने पर भी प्रजाजनों के द्वारा आदरणीय होता है । पूर्णचन्द्र क्षय-पर्यवसायी होने से सन्तोषजनक नहीं होता जितना बर्धिष्णु प्रतिपच्चन्द्र होता है । इस सुप्रसिद्ध उपमान के द्वारा राजा युधिष्ठिर को शत्रु का प्रतिकार करने हेतु उत्साह धारण करने के लिए भीमसेन प्रेरित करता है । प्रतिपच्चन्द्र क्षीणवत होने पर भी केवल बर्धिष्णु होने के कारण जैसे वंदनीय होता है उसी प्रकार राजा युधिष्ठिर सम्प्रति आप, क्षीणबल होने पर भी यदि लोक-कल्याणार्थ उत्साह धारण करोगे तो आप भी प्रजा के आदरणीय बन जाओगे । राजा दुर्योधन इस समय भले ही बल सम्पन्न हो किन्तु वह पूर्णचन्द्र कि तरह उत्साह सम्पन्न न होने से बर्धिष्णु नहीं है अतः प्रजा का समर्थन उसे प्राप्त नहीं है । </span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">उत्साह सम्पन्न राजा ही प्रजा को सर्वाधिक प्रिय होता है । यह गम्भीर भाव महाकवि भारवि ने बड़ी खूबी से यहाँ हृदयगम कराया है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">प्रभवः खलु कोशदण्डयोः कृतपञ्चाङ्गविनिर्णयो नयः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">स विधेयपदेषु दक्षतां नियतिं लोक इवानुरुध्यते ।। २.१२ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> सहायक, कार्य साधन के उपाय, देश और काल का विभाग तथा विपत्ति प्रतिकार, इन कार्य सिद्धि के पाँचों अंगों का सम्यक निर्णय करने वाली नीति, राजकोष और चतुरङ्गिणीसेना की उत्पादक होती है । यह नीति कर्त्तव्य-कर्म में नैपुण्य प्रदान करती है । जैसे कृषक वर्ग दैवानुसारी होता है उसी प्रकार प्रभु शक्ति भी उत्साह शक्ति का अनुसरण करती है । तात्पर्य यह है कि कार्य की सिद्धि में मुख्यतः उत्साह शक्ति ही कारण होती है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपमा अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #b45f06;"><b>टिप्पणी: </b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">-कामन्दकीय नीतिशास्त्र में कार्यसिद्धि के पांच अंग बताये गए हैं ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">-सभी कार्य प्रायः द्रव्य-साध्य होते हैं अथवा दण्डसाध्य होते हैं ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">-द्रव्य(कोश) और दण्डकी उत्पादक मन्त्रणा-नीति होती है । किन्तु नीति की सफलता उत्साह-मूलक है । उत्साह के साथ क्षिप्रकारिता (अदीर्घसूत्रता) का होना अत्यावश्यक है । अन्यथा 'कालः पिबति तद्रसम्'</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">-कृषक गण नियति (दैव)वादी हो सकते हैं क्षात्रधर्मावलम्बी राजा तो नीति वादी होता है । नीति के माध्यम से कार्य सिद्धि के पञ्चाङ्गों का निश्चय कर, कार्यसिद्धि प्राप्त करने में नैपुण्य प्राप्त किया जाता है । नीति ही राजकोश और दण्ड (चतुरङ्गिनी सेना) की जननी है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">- नीति का साफल्य उत्साह शक्ति पर ही सर्वथा निर्भर होता है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">- नियतिवादी परतन्त्र होता है और नीति वादी स्वतन्त्र । राजनीति के गूढ़तम रहस्यों को उद्घाटित करने में महाकवि भारवि सिद्ध-हस्त हैं ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अभिमानवतो मनस्विनः प्रियं उच्चैः पदं आरुरुक्षतः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">विनिपातनिवर्तनक्षमं मतं आलम्बनं आत्मपौरुषं ।। २.१३ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> स्वाभिमान धारण करने वाले मनुष्य को अपने अभीष्ट उन्नत स्थान पर प्रतिष्ठित होते समय उसे अपने स्वयं के पुरुषार्थ (पराक्रम) का ही सहारा लेना पड़ता है । अभीस्ट स्थान की प्राप्ति में आने वाली विघ्न-बाधाओं का निवारण करने में समर्थ, अपने स्वयं के पराक्रम का ही सहारा उसे लेना पड़ता है । क्योंकि मनस्वी पुरुषों का एकमात्र आलम्बन उनका स्वयं का ही एकमात्र पुरुषार्थ होता है । मनस्वी पुरुष सदा स्वावलम्बी होते हैं ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">विपदोऽभिभवन्त्यविक्रमं रहयत्यापदुपेतं आयतिः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">नियता लघुता निरायतेरगरीयान्न पदं नृपश्रियः ।। २.१४ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> विपत्तियां पराक्रम शून्य पुरुष पर ही आक्रमण करती हैं । विपदग्रस्त मनुष्य का भविष्य अन्धकारमय होता है । विपत्ति से घिरने पर उन्नति में बाधा उत्पन्न होती है । नष्ट गौरव पुरुष राज्यलक्ष्मी पाने का पात्र नहीं होता है । ये सभी दोष एकमात्र पौरुष का आश्रय करने से दूर हो जाते हैं ।</span><br />
<br />
<br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">तदलं प्रतिपक्षं उन्नतेरवलम्ब्य व्यवसायवन्ध्यतां ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">निवसन्ति पराक्रमाश्रया न विषादेन समं समृद्धयः ।। २.१५ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ: </b>इसलिए उन्नति में बाधक होने वाली उद्योग शून्यता का (अनुत्साह का) आश्रय करना अनुचित है, क्योंकि सर्वप्रकार की समृद्धियाँ पराक्रमी एवं सतत उद्योगशील व्यक्ति को ही संवरण करती हैं । उत्साहरहित(आलसी) मनुष्य का समृद्धियाँ परित्याग करती हैं ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> अभ्युदयाकांक्षी पुरुष को सतत उद्योग प्रवण रहना चाहिए, इस बात को कवी ने बहुत ही रोचक ढंग से कहा है । </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थान्तरन्यास तथा काव्यलिङ्ग अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अथ चेदवधिः प्रतीक्ष्यते कथं आविष्कृतजिह्मवृत्तिना ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">धृतराष्ट्रसुतेन सुत्यज्याश्चिरं आस्वाद्य नरेन्द्रसम्पदः ।। २.१६ ।।</span></b></span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span></b></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> अब यदि आप अवधि की प्रतीक्षा कर रहे हैं तो (यह सोचने की भूल है कि) जिसने अब तक अपने अनेक छाल-कपटपूर्ण कार्यों का पर्चे दिया है, वह धृतराष्ट्र का पुत्र दुर्योधन, चिरकाल तक राज्यश्री का सुख अनुभव करके उसे आसानी से कैसे छोड़ देगा ?</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> अर्थात जिस कुटिल दुर्योधन ने अधिकार होते हुए भी हमारे भाग को हड़प लिया है वह इतने दिनों तक उसका उपभोग करके हमारी वनवास कि अवधि बीतने के अनन्तर उसे सुख से लौटा देगा - ऐसा समझना भूल है । आप को इसी समय जो कुछ करना है, करना चाहिए । </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थापत्ति अलङ्कार।</span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">द्विषता विहितं त्वयाथवा यदि लब्धा पुनरात्मनः पदं ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">जननाथ तवानुजन्मनां कृतं आविष्कृतपौरुषैर्भुजैः ।। २.१७ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ: </b>अथवा हे राजन ! शत्रु दुर्योधन द्वारा लौटाए गए अपने राज्य सिंहासन को यदि आप पुनः प्राप्त कर लेंगे तब आपके छोटे भाइयों (अर्जुन आदि) की उन भुजाओं से फिर लाभ क्या होगा, जिनका पराक्रम अनेक बार प्रकट हो चूका है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> शत्रु की कृपा द्वारा यदि आपको सिंहासन मिल भी जाता है तब हमारी भुजाओं का पराक्रम व्यर्थ ही रह जाएगा । </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थापत्ति अथवा परिकर अलङ्कार</span><br />
<br />
<br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">मदसिक्तमुखैर्मृगाधिपः करिभिर्वर्तयति स्वयं हतैः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">लघयन्खलु तेजसा जगन्न महानिच्छति भूतिं अन्यतः ।। २.१८ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> सिंह अपने द्वारा मारे गए मुख भाग से मद चूने वाले हाथियों से ही अपनी जीविका निर्वाहित करता है । अपने तेज से संसार को पराजित करने वाला महान पुरुष किसी अन्य की सहायता से ऐश्वर्य की अभिलाषा नहीं किया करता ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> तेजस्वी पुरुष किसी दुसरे द्वारा की गई जीविका नहीं ग्रहण करते । </span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">'</span><b style="color: #222222; font-family: sans-serif;">मदसिक्तमुखैः</b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">' यह विशेषण मदोन्मत्त गजेन्द्र का विनाशक होने का सूचक है और '<b>मृगाधिप</b>' पद का ग्रहण करने से राजाओं में सिंह सदृश तू (युधिष्ठिर) मदोन्मत्त गजरावत भीष्म-द्रोणादिक का विनाशकर राज्य को पुनः पा सकता है । इसका सूचक है । </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थान्तरन्यास अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अभिमानधनस्य गत्वरैरसुभिः स्थास्नु यशश्चिचीषतः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अचिरांशुविलासचञ्चला ननु लक्ष्मीः फलं आनुषङ्गिकं ।। २.१९ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ: </b>अपनी जाति कुल और मर्यादा की रक्षा को ही अपना सर्वस्वा समझने वाले (पुरुष) अपने अस्थिर (नाशवान) प्राणो के द्वारा स्थिर यश की कामना करते हैं । इस प्रसङ्ग में (उन्हें) बिजली की चमक के सामान चञ्चला (क्षणिक) राज्यश्री (यदि प्राप्त हो जाती है तो वह) अनायास ही प्राप्त होने वाला फल है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> महाकवि भारवि ने वास्तु विनिमय करते हुए किस बात का महत्व है इसे बहुत ही प्रभावी ढंग से निरूपित किया है । महाकवि कालिदास ने भी रघुवंश में इस विषय पर विवेचन किया है <b>'एकान्त विध्वंसिषु मद्विधानां पिण्डेध्वनास्था खलु भौतिकेषु'</b> दोनों महाकवियों का वर्णन नैपुण्य प्रशंसनीय है । तात्पर्य यह कि मनस्वी पुरुष केवल यश के लिए अपने प्राण गँवाते हैं, धन के लिए नहीं । क्योंकि यश स्थिर है और लक्ष्मी बिजली की चमक के समान चञ्चला है । उन्हें लक्ष्मी की प्राप्ति भी होती है, किन्तु उनका उद्देश्य यह नहीं होता । उसकी प्राप्ति तो अनायास ही हो जाती है । </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">परिवृत्ति अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">ज्वलितं न हिरण्यरेतसं चयं आस्कन्दति भस्मनां जनः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अभिभूतिभयादसूनतः सुखं उज्झन्ति न धाम मानिनः ।। २.२० ।।</span></b><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="background-color: transparent; color: #222222;">वियोगिनी</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> मनुष्य राख की ढेर को तो अपने पैरो आदि से कुचल देते हैं किन्तु जलती हुई आग को नहीं कुचलते । इसी कारण से मनस्वी लोग अपने प्राणो को तो सुख के साथ छोड़ देते हैं किन्तु अपनी तेजस्विता अथवा मान-मर्यादा को नहीं छोड़ते ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> मानहानिपूर्ण जीवन से अपनी तेजस्विता के साथ मर जाना ही अच्छा है ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">*संस्कृत भाषा अखिल विश्व की भाषाओं में सर्वाधिक समृद्ध भाषा है । संस्कृत भाषा में अग्निवाचक ३४ शब्द हैं । '<b>हिरण्यरेता</b>' यह भी अग्नि के अनेक नामों में से एक है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">किमपेक्ष्य फलं पयोधरान्ध्वनतः प्रार्थयते मृगाधिपः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">प्रकृतिः खलु सा महीयसः सहते नान्यसमुन्नतिं यया ।। २.२१ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ: </b>(भला) सिंह किस फल की आशा से गरजते हुए बादलों पर आक्रमण करता है । मनस्वी लोगों का यह स्वभाव ही है कि जिसके कारण से वे दूसरों(शत्रु) की अभ्युन्नति को सहन नहीं करते । शत्रु को आतङ्कित करने में किसी प्रयोजन की आवश्यकता ही नहीं होती है अतः हे राजन! आप चुप न बैठो, अपने पराक्रम से शत्रु का शीघ्र विध्वंस करो ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> अपने उत्कर्ष के इच्छुक मनस्वी लोग दूसरों कि वृद्धि या अभ्युन्नति को सहन भी नहीं कर सकते । मनस्वियों का यही पुरुषार्थ है कि वे दूसरों को पीड़ा पहुंचकर अपनी कीर्ति बढ़ायें । </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">यहाँ '<b>पयोधर</b>' पद का प्रयोग मेघ का ही द्योतक मानना चाहिए । सजल मेघ का गर्जन गंभीर होता है और वही सिंह के कोप को उद्दीप्त करने में समर्थ होता है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थान्तरन्यास अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">कुरु तन्मतिं एव विक्रमे नृप निर्धूय तमः प्रमादजं ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">ध्रुवं एतदवेहि विद्विषां त्वदनुत्साहहता विपत्तयः ।। २.२२ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> हे राजन युधिष्ठिर! इसलिए आप अपनी असावधानी से उत्पन्न मोह को दूर कर पुरुषार्थ में ही अपनी बुद्धि लगाइये । (दूसरा कोई उपाय नहीं है। ) शत्रुओं की विपत्तियां केवल आपके अनुत्साह के कारण से रुकी हुई हैं - यह निश्चय जानिये ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> अर्थात यदि आप तनिक भी पुरुषार्थ और उत्साह धारण कर लेंगे तो शत्रु विपत्तियों में निमग्न हो जाएंगे ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">द्विरदानिव दिग्विभावितांश्चतुरस्तोयनिधीनिवायतः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">प्रसहेत रणे तवानुजान्द्विषतां कः शतमन्युतेजसः ।। २.२३ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> हे राजन ! आपके हम चारों भाई दिग्गजों की तरह हैं । चारों समुद्र जैसे सर्वत्र चारों दिशाओं में प्रसिद्ध हैं । शत्रुओं के द्वारा सर्वथा अजेय हैं । रणभूमि में आते हुए इन्द्र के समान पराक्रमशाली आप के कनिष्ठ (चारों) भाइयों को शत्रुओं में से कौन सहन कर सकता है ?</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> अर्थात ऐसे परम पराक्रमशील एवं तेजस्वी भाइयों के रहते हुए आप किस बात की चिन्ता कर रहे हैं । आप को निःशंक होकर दुर्योधन से भिड़ जाना चाहिए । </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपमा तथा अर्थापत्ति अलङ्कार </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">भीमसेन शुभाकांक्षा के बहाने परिणाम का कथन करते हुए कहता है कि -</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">ज्वलतस्तव जातवेदसः सततं वैरिकृतस्य चेतसि ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">विदधातु शमं शिवेतरा रिपुनारीनयनाम्बुसन्ततिः ।। २.२४ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> हे राजन युधिष्ठिर! आपके ह्रदय में शत्रु द्वारा निरन्तर प्रज्वलित क्रोधाग्नि की शान्ति शत्रुओं की विधवा स्त्रियों की आँखों से निरन्तर झरने वाली आंसुओं की झड़ी करें । </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">(भीमसेन की कामना इस वचनावली से सुस्पष्ट है । वनवास के असहनीय कष्टों ने भीमसेन के मुख से मुखरिता प्राप्त की है । भीमसेन भी धीरोदात्त एवं गम्भीर स्वभाव का है किन्तु शत्रु कृत अपमान और असंख्य कष्टों से विवश होकर उसे ऐसा निर्णय लेकर कहने के लिए विवश होना पड़ा है । बड़े भाई की आज्ञा शिरोधार्य कर वनवास स्वीकार करने वाला भीमसेन जब ऐसा कह रहा है तब उसका कारण भी वैसा ही अवश्य होना चाहिए । )</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> यहाँ जल सिञ्चन के साथ शत्रुवध का सादृश्य गम्य है ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपमा अलङ्कार </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">भीम को अत्यधिक क्रुद्ध जानकर धर्मराज युधिष्ठिर उसको सांत्वना देते हैं । </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">इति दर्शितविक्रियं सुतं मरुतः कोपपरीतमानसं ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपसान्त्वयितुं महीपतिर्द्विरदं दुष्टं इवोपचक्रमे ।। २.२५ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> जब राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन में बढ़ा हुआ क्रोध उसके कठोर भाषण से जाना तो भीमसेन उन्हें बिगड़े हुए क्रोधोन्मत्त हाथी की तरह जान पड़ा और युधिष्ठिर ने समझ लिया कि यदि युक्ति से तथा सामोपचार से इसे सांत्वना न देने पर यह काबू से बाहर होकर हाथ से निकल जावेगा क्योंकि क्रोधोन्मत्त व्यक्ति में विचार-शक्ति नष्ट हो जाती है । अतः समजस राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन के कठोर भाषण का उत्तर कठोर शब्दों से देना उचित न समझकर सौम्य शब्दों से ही समझाना आरम्भ किया । क्योंकि ठण्डा लोहा ही गरम लोहे को काट पाता है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> यहाँ भीमसेन का नाम ग्रहण टाल कर उसे मरुतसुत (वायुपुत्र) कहने का तात्पर्य यह है कि वायु जिस प्रकार वात्या(आंधी) आदि रूपों में क्षण-क्षण में अपने रूप बदलती है । 'पितुश्चरित्र पुत्र एवानुकुरुते' इस नियम के अनुसार वृकोदर होने से (वायु संसर्गजन्य गुण-दोषों से तत्काल प्रभावित होता है उसी प्रकार द्रौपदी सान्निध्य से) वह भी कुपित हो गया है । यह अभिव्यञ्जित करने हेतु 'मरुतसुतम्' कहा गया है ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">राजा को अपने अप्रसन्न बन्धु-बान्धवों को मृदु वचनों के द्वारा बिगड़े हुए हाथी कि तरह अपने वश में करने का प्रयत्न को करना ही चाहिए - यह नीति कि बात है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">पूर्णोपमा अलङ्कार </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">राजा युधिष्ठिर भीमसेन को प्रथम स्तुति के द्वारा प्रसन्न करने का प्रयास करते हुए कहते हैं -</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अपवर्जितविप्लवे शुचय्हृदयग्राहिणि मङ्गलास्पदे ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">विमला तव विस्तरे गिरां मतिरादर्श इवाभिदृश्यते ।। २.२६ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> भीमसेन से युधिष्ठिर कहते हैं कि - जिस प्रकार निर्मल लौह आदि से विनिर्मित सुन्दर और माङ्गलिक दर्पण में प्रतिबिम्ब सुस्पष्ट दिखाई देता है, तद्वत पवित्र और निर्मल तुम्हारी वाणी में तुम्हारी निर्मल बुद्धि सुस्पष्ट दिखाई पड़ती है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> वचन कि विशुद्धता में ही बुद्धि का वैशद्य भी दिखाई पड़ता है ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपमा अलङ्कार </span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">स्फुटता न पदैरपाकृता न च न स्वीकृतं अर्थगौरवं ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">रचिता पृथगर्थता गिरां न च सामर्थ्यं अपोहितं क्वचिथ् ।। २.२७ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> हे भीमसेन तुम्हारे ! भाषण के सभी वाक्य अत्यन्त सुस्पष्ट हैं । उनमें अर्थगाम्भीर्य भी प्रचुर मात्रा में है । कहीं पर भी पुनरुक्ति दोष श्रवणगोचर नहीं हुआ ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> वाक्य में एकाधिक निषेधार्थक 'न' होने पर उसका अर्थ निषेध न होकर स्वीकार होता है । । यहाँ 'पदै गिराम् अर्थ गौरव स्वीकृत न इति न' इस वाक्य में 'न' दो बार प्रयुक्त हुआ है, अतः उसका अर्थ पदों के द्वारा वाणी का गौरव स्वीकार नहीं किया गया, ऐसा नहीं अपितु, स्वीकार किया गया है । केवल एक 'न' का प्रयोग होने पर उसका निषेध-परक ही अर्थ होता है । जैसाकि मनुस्मृति में मांसभक्षण, मद्यपान आदि का निषेध करते हुए 'न मासभक्षणे दोष न च मद्ये, इस मनु वचन का अर्थ मास भक्षण और मद्यपान करने में दोष बताकर निषेध करने में ही है क्योंकि इसमें भी एकाधिक 'न' कार का प्रयोग हुआ है ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">मनुवचन का अर्थ मांसभक्षण में और मद्य पीने में दोष नहीं है ऐसा करना भूल है । अन्यथा अर्थ की संगती नहीं होगी ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">दीपक अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपपत्तिरुदाहृता बलादनुमानेन न चागमः क्षतः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">इदं ईदृगनीदृगाशयः प्रसभं वक्तुं उपक्रमेत कः ।। २.२८ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> (राजा युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं) हे भीमसेन ! तुमने अपनी शक्ति के अनुरूप ही सशक्त तर्क अपने भाषण में प्रस्तुत किये हैं । उपस्थित किये गए तर्कों के द्वारा शास्त्रमत का खण्डन भी नहीं हुआ । अतः वे तर्क शास्त्र के अविरोधी हैं । अतः तुम्हारा कथन शास्त्र सम्मत ही है । तुम्हारे भाषण को क्षत्रियोचित न कहने का सामर्थ्य कौन रखता है ? कोई भी इसे क्षात्रधर्म विरुद्ध नहीं कह सकता है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> यह श्लोक निन्दा-परक नहीं समझना चाहिए । युधिष्ठिर जैसे सरल ह्रदय एवं मातृवत्सल व्यक्ति का अभिप्राय अन्यथा नहीं हो सकता ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थापत्ति अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अवितृप्ततया तथापि मे हृदयं निर्णयं एव धावति ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अवसाययितुं क्षमाः सुखं न विधेयेषु विशेषसम्पदः ।। २.२९ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> (यद्यपि तुमने सभी बातों का अच्छी तरह निर्णय कर दिया है) तथापि संशयग्रस्त होने के कारण मेरा ह्रदय अभी तक निर्णय का विचार ही कर रहा है । सन्धि-विग्रह आदि कर्तव्यों के निर्णय में, उनके भीतर आनेवाली विशेष सम्पत्तिया अनायास ही अपना स्वरुप प्रकट करने में समर्थ नहीं होती ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> मुख्य कार्य करने का निश्चय करने के पहले उस कार्य के भीतर आनेवाली छोटी-मोटी बातों का भी गहराई से विचार कर लेना चाहिए, क्योंकि वे सब सरलतापूर्वक समझ में नहीं आती । </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">काव्यलिङ्ग अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">विचारोत्तर कार्य करने के लाभ तथा अविवेक से किये जाने वाले कार्यों से होने वाली हानि को धर्मराज युधिष्ठिर भीमसेन को बतलाते हुए कहते हैं कि -</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">सहसा विदधीत न क्रियां अविवेकः परं आपदां पदं ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयं एव सम्पदः ।। २.३० ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> बिना सोचे-समझे कोई कार्य नहीं करना चाहिए । अविवेक (कार्याकार्य विचार शून्यता) अनेक आपत्तियों का कारण होता है । निश्चित रूप से सर्वविध सम्पत्तियाँ गुणवान विवेकी पुरुष का स्वयं वरन करती हैं । अर्थात यदि कोई बलात राज्यादि सम्पत्ति अपने वश में कर लेता है तो सम्पत्ति स्वयं उसका परित्याग कर देती है । सोच-समझकर कार्य करनेवाले पुरुष को ही सम्पत्ति अपना स्वामी बनाना पसन्द करती है । अन्य (अ</span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">विमृष्य</span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">कारी) को नहीं चाहती है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> तर्कशास्त्र में अन्वय-व्यतिरेक के द्वारा पुष्ट तर्क की प्रतिष्ठा है । महाकवि भारवि युधिष्ठिर के मुख से अब भीमसेन के द्वारा प्रस्तुत तर्कों का खण्डन करते हुए </span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">तर्क</span><span face="sans-serif"><span style="color: #222222;">शास्त्रोक्त अन्वय व्यतिरेक की कसौटी पर अपने तर्कों को खरा सिद्ध करते हैं ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अन्वय और व्यतिरेक की सुबोध परिभाषा इस प्रकार है - '<b>तत् सत्वे तत् सत्ता</b> - अन्वयः।' '<b>तद् असत्वे तद् असत्ता</b> -व्यतिरेकः ।'</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">यहाँ विवेक के अभाव में परमापत् प्राप्ति है । वही सम्पत्ति की असत्ता (अभाव) है । यही व्यतिरेक का स्वरुप है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">इस पद्य में पूर्वार्ध में वर्णित अर्थ को ही उत्तरार्ध में अन्वय के माध्यम से कहा गया है जैसे -</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">विमृष्यकारित्वम् = विवेकः तत् सत्वे सम्पदः सत्ता इत्यन्वयः । विमृष्यकारित्वम् का अर्थ विवेक है अर्थात विवेक (आगा पीछा खूब सोच समझकर कार्य करने की प्रवृत्ति) के सत्ता (आस्तित्व) होने पर सम्पाती की सत्ता होती है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">तर्कशास्त्र में अन्वायव्याप्ति का उदाहरण -</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>"यत्र यत्र धूमः तत्र तत्र अग्निः अस्ति ।" </b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">व्यतिरेक व्याप्ति की उदारहण -</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>"यत्र यत्र धूमः नास्ति तत्र तत्र अग्निः अपि नास्ति ।"</b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">इसके अनुसार कह सकते हैं कि - <b>"यत्र यत्र विमृष्यकारिता अस्ति तत्र तत्र सम्पत्तिः अस्ति ।" </b> इत्यन्वयः ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>"यत्र यत्र च सम्पत्तिः नास्ति तत्र तत्र विवेकः (विमृष्यकारिता) आपि नास्ति ।"</b> इति व्यतिरेकः ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">*</span><span face="sans-serif" style="color: #b45f06; font-size: x-small;">इस पद्य के कारण भारवि को सवालाख सुवर्ण मुद्रा कि प्राप्ति हुई थी, ऐसी जनश्रुति है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">क्या साहसिक को फल सिद्धि प्राप्त होती हुई दिखाई नहीं देती ? तो विवेक की क्या आवश्यकता है ? इस आशंका का समाधान करते हुए धर्मराज युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं - </span> <span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अभिवर्षति योऽनुपालयन्विधिबीजानि विवेकवारिणा ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">स सदा फलशालिनीं क्रियां शरदं लोक इवाधितिष्ठति ।। २.३१ ।।</span></b><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="background-color: transparent; color: #222222;">वियोगिनी </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> हे भीमसेन ! जो नीतिमान पुरुष स्व-कर्त्तव्य रूप कार्य विषयों को बीजतुल्य संरक्षणीय समझकर उचित देश-काल का विचार करने के पश्चात उचित समय में और उचित स्थान में बोकर विवेक रूप जल से उनको सींचता रहता है वह पुरुष ही शरद्काल सम्प्राप्त होने पर फल से सुशोभित सस्य सम्पत्ति को प्राप्त करता है । अन्य जन नहीं ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">साहसिक को होने वाली कार्यसिद्धि "काकतालीयन्याय" से यदा-कदा ही होती है किन्तु विवेकी पुरुष को होने वाली कार्य सिद्धि सुनिश्चित ही होती है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> <b>काकतालीय न्याय</b> - किसी ताल वृक्ष पर बैठा हुआ कौआ उड़ा, उसके उड़ते ही वह तालवृक्ष किसी कारणान्तर से गिरने पर लोग कहते हैं कि कौवे ने ताल को गिरा दिया । यही काकतालीय न्याय है । वस्तुतः ताल के गिरने में कारण कौवा न होकर अन्य कोई कारण होता है । उसी प्रकार अविवेकी पुरुष कि कार्य सिद्धि भी काकतालीय न्याय जैसी ही होती है । उसे विश्वसनीय नहीं माननी चाहिए किन्तु विवेकी पुरुष की कार्य सिद्धि सुनिश्चित ही होती है ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">श्लेषमूलक अतिश्योक्ति, उपमा अलङ्कार </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">शुचि भूषयति श्रुतं वपुः प्रशमस्तस्य भवत्यलंक्रिया ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">प्रशमाभरणं पराक्रमः स नयापादितसिद्धिभूषणः ।। २.३२ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ: </b>हे भीमसेन ! गुरु परम्परा से सम्प्राप्त शास्त्र शुद्ध (शास्त्रानुमोदित) उपदेश के द्वारा शरीर की शोभा होती है । उस शास्त्रोपदेश की शोभा शांतिप्रियता है । शांतिप्रियता की शोभा यथा समय स्व-विक्रम प्रदर्शन है तथा नीति द्वारा उपार्जित विवेक से प्राप्त कार्य सिद्धि ही उस विक्रम(पराक्रम) की शोभा होती है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">एकावली अलङ्कार </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">मतिभेदतमस्तिरोहिते गहने कृत्यविधौ विवेकिनां ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">सुकृतः परिशुद्ध आगमः कुरुते दीप इवार्थदर्शनं ।। २.३३ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> युधिष्ठिर कहते हैं - हे भीमसेन ! जैसे हवा से सुरक्षित दीपक की रौशनी (प्रकाश) अन्धकार में पड़ी हुई वस्तु को प्रकाशित करने में समर्थ होती है, उसी प्रकार सोच-समझकर कार्य करने वाले विवेकी पुरुष की वृद्धि भ्रम रूप अन्धकार(अज्ञान) से आच्छन्न(ढके हुए) गहन कार्यों के मार्गों का अच्छा(भली प्रकार से) बाध कराती है । </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> जिस प्रकार अन्धेरे पथ को वायु आदि के विघ्नों से रहित दीपक आलोकित करता है उसी प्रकार से विवेकी पुरुष का शास्त्रज्ञान भी कर्तव्याकर्तव्य के मोह में पड़े व्यक्ति का पथ प्रदर्शन करता है । </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">पूर्णोपमा अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">स्पृहणीयगुणैर्महात्मभिश्चरिते वर्त्मनि यच्छतां मनः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">विधिहेतुरहेतुरागसां विनिपातोऽपि समः समुन्नतेः ।। २.३४ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ: </b>प्रशंसनीय गुण सम्पन्न महापुरुषों के द्वारा आचरित मार्ग में मन लगाने वालों की कदाचित दैववश अवनति भी हो जावे तो वह अवनति पाप अथवा अपराधों के कारण नहीं होती । सत्पथानुयायी जनों की अवनति भी समुन्नति के तुल्य होती है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">शिवं औपयिकं गरीयसीं फलनिष्पत्तिं अदूषितायतिं ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">विगणय्य नयन्ति पौरुषं विजितक्रोधरया जिगीषवः ।। २.३५ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> विजय की इच्छा करने वाले पुरुष अशुभ क्रोध के संवेग का दमन कर स्वप्रयोजन की सिद्धि और उसकी भावी स्थिरता का विचार आकरके वे अपने पुरुषार्थ(पराक्रम) को लोककल्याण के कार्य में प्रयुक्त करते हैं । ऐसा राजा युधिष्ठिर ने भीमसेन से कहा ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अपनेयं उदेतुं इच्छता तिमिरं रोषमयं धिया पुरः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अविभिद्य निशाकृतं तमः प्रभया नांशुमताप्युदीयते ।। २.३६ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> राजा युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं कि अभ्युदयेच्छु पुरुष को चाहिए कि वह सबसे पहले अपनी बुद्धि निर्मल करे, अज्ञान रूप तिमिर को अपनी बुद्धि से अलग करे । सूर्या भगवान् भी निशान्धकारका विनाश करके ही उदय को प्राप्त होते हैं । रात्रि जन्य तम का विनाश किये बिना सूर्य का भी उदय नहीं होता है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> जब परम तेजस्वी भास्कर भी ऐसा करते हैं तब साधारण मनुष्य को तो ऐसा करना ही चाहिए ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">विशेष के द्वारा सामान्य का समर्थन होने से "<b>अर्थान्तरन्यास</b>" नामक अलङ्कार है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #b45f06;">दुर्बल के लिए ऐसा हो सकता है लेकिन बलवान को तो क्रोध से ही कार्य सिद्धि होती है, इस आशंका का समाधान करते हुए कहते हैं कि -</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">बलवानपि कोपजन्मनस्तमसो नाभिभवं रुणद्धि यः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">क्षयपक्ष इवैन्दवीः कलाः सकला हन्ति स शक्तिसम्पदः ।। २.३७ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><b style="color: #222222; font-family: sans-serif;">अर्थ: </b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">राजा युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं कि - बलसम्पन्न पुरुष भी क्रोध से उत्पन्न मोह रूप तम को रोकने में जब असमर्थ होता है तब कृष्णपक्षीय चन्द्रमा की तरह वह क्रमशः उत्तरोत्तर समस्त कला सम्पत्ति(तीनो शक्तियों से समन्वित सम्पत्ति) </span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">को खो बैठता है । क्रोधान्ध व्यक्ति क्रोधजनित मोह के आक्रमण को रोकने में असमर्थ होता है अतः सर्वप्रथम क्रोध का ही त्याग करना चाहिए । प्रभु-मन्त्र और उत्साह रूप शक्ति से रहित राजा स्वयं अपना अस्तित्व खो देता है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> विशिस्ट समय पर ही सब कार्य होते हैं इसी हेतु से काल सबको कारण है । इसलिए कृष्णपक्ष(काल विशेष) कलाक्षय का कारण है । अन्धकार की वृद्धि कृष्णपक्ष में होती है इस कारण से ही कृष्णपक्ष का उल्लेख किया गया है । अन्धकार जो कृष्णपक्ष में वृद्धिमान होता है उसमें कारण है उसकी वृद्धि को न रोकना । अन्धकार को न रोकने से चन्द्रमा जैसे की भी शक्तिसम्पदा का विनाश हो जाता है, जैसे कृष्णपक्षीय चन्द्र तम की अभिवृद्धि को न रोकने के कारण कलाक्षय को प्राप्त होता है उसी प्रकार जो मनुष्य प्रभूत बल सम्पन्न होने पर भी क्रोधजन्य तम (अज्ञान) की वृद्धि को नहीं रोकता है वह भी अटूट शक्ति सम्पदा को गँवा बैठता है ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">*राज्यं नाम शक्तित्रयायत्तम् । - दशकुमारे </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">राज्य शक्ति के तीन तत्त्व - प्रभाव शक्ति, मन्त्र शक्ति तथा उत्साह शक्ति ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">त्रिसाधनाशक्तिरिवार्थ सञ्चयम् । - रघु. ३।१३</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">समवृत्तिरुपैति मार्दवं समये यश्च तनोति तिग्मतां ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अधितिष्ठति लोकं ओजसा स विवस्वानिव मेदिनीपतिः ।। २.३८ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> जो समचित्तवृत्ति को धारण करने वाला राजा है, आवश्यकतानुसार समय-समय पर कोमल और कठोर वृत्ति को प्रकट करता रहता है वह राजा सूर्य के सामान अपने तेज से सम्पूर्ण जगत को अभिभूत करता है । सूर्य कभी कोमल और कभी प्रचण्ड अपने तेज से सम्पूर्ण जगत को प्रभावित करने से आदरणीय होता है अतः हे भीमसेन ! केवल क्रोध को ही न अपनाओ । क्रोध भी उपादेय है किन्तु सर्वदा सर्वत्र नहीं ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> समय-समय पर मृदुता तथा तीक्ष्णता धारण करने वाला मनुष्य सूर्य की भांति अपने तेज से सब को वशवर्ती बनता है । </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपमा अलङ्कार </span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">क्व चिराय परिग्रहः श्रियां क्व च दुष्टेन्द्रियवाजिवश्यता ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">शरदभ्रचलाश्चलेन्द्रियैरसुरक्षा हि बहुच्छलाः श्रियः ।। २.३९ ।।</span></b><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="background-color: transparent; color: #222222;">वियोगिनी</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> धर्मराज युधिष्ठिर भीमसेन को कहते हैं कि कहाँ प्रदीर्घकाल तक लक्ष्मी को अपने आधिपत्य में रखना और कहाँ बेलगाम घोड़ों की भांति विषयासक्त निरंकुश बेकाबू इन्द्रियों को स्वाधीन रखना ?</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">लक्ष्मी (सम्पत्ति) शारदीय मेघों जैसी अत्यन्त चञ्चल तथा अनेक बहानो से छोड़ कर जाने वाली होती है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अतः अवशेन्द्रिय पुरुषों के द्वारा लम्बे समय तक लक्ष्मी को स्वाधीन रखना सम्भव नहीं है । दोनों का एकाधिकरण्य असम्भव है । दोनों एकत्र (एक स्थान में) एक साथ नहीं रह सकते हैं ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> किसी प्रकार से एक बार प्राप्त की गयी लक्ष्मी चञ्चल इन्द्रिय वालों के वश में चिरकाल तक नहीं ठहर सकती ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">इस पद्य में दो बार प्रयुक्त 'क्व' शब्द लक्ष्मी का चिरकालिक परिग्रह और दुष्टैन्द्रियवाजिवश्यता के महदन्तर का सूचन करता है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वाक्यार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">किं असामयिकं वितन्वता मनसः क्षोभं उपात्तरंहसः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">क्रियते पतिरुच्चकैरपां भवता धीरतयाधरीकृतः ।। २.४० ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> हे भीमसेन ! स्वभावतः ही अतिचञ्चल मन को असमय में ही क्षुभित होने का अवसर देते हुए आप अपने धीरज से पहले ही जिस समुद्र को तिरस्कृत कर चुके हो उसे ही पुनः क्यों श्रेष्ठ बनाते हो । गम्भीरता में समुद्र की महानता पहले से ही सर्वविदित है किन्तु आपने तो अपनी गम्भीरता में उसे पूर्व में ही तिरस्कृत बना दिया था अर्थात उस समुद्र से अधिक धीरज आप में है यह अनेक बार सिद्ध कर चुकने के पश्चात अब पुनः द्रुत गति प्राप्त मन को असामयिक क्षोभ का अवसर देकर गम्भीरता में समुद्र को ही आपसे अधिक गम्भीर होने का अवसर क्यों प्रदान करते हो । समुद्र अपनी मर्यादा का उल्लंघन कभी करता नहीं है किन्तु आज आप असामयिक घबड़ाहट को प्रश्रय देकर समुद्र को ही सर्वाधिक महान होना क्यों सिद्ध करना चाहते हो ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>टिप्पणी:</b> तात्पर्य यह है कि तुम तो समुद्र से भी बढ़कर धीर-गम्भीर थे, फिर क्यों आज वेगयुक्त मन की चञ्चलता को बढ़ा रहे हो । धैर्य में तुमसे पराजित समुद्र भी क्षोभ में अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता और तुम अपनी मर्यादा छोड़ कर उसे अपने से ऊंचा बना रहे हो । अपने से पराजित को कोई भी ऊंचा नहीं बनाना चाहता । </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">श्रुतं अप्यधिगम्य ये रिपून्विनयन्ते स्म न शरीरजन्मनः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">जनयन्त्यचिराय सम्पदां अयशस्ते खलु चापलाश्रयं ।। २.४१ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> हे भीमसेन ! नीति आदि शास्त्रों का ज्ञान उपार्जित कर लेने पर यदि जो लोग शरीरज काम-क्रोधादि षडरिपुओं को अपने अधीन नहीं करते हैं तो सचमुच वे शीघ्र ही अपनी मूर्खता के कारण सम्पत्ति विनाशजन्य अपयश के पात्र बन जाते हैं ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">काम-क्रोधादि शत्रुओं से परास्त पुरुषों को वे नीति आदि शास्त्र पढ़े हुए होने पर भी लक्ष्मी उनका परित्याग कर देती है । लक्ष्मी द्वारा परित्यक्त होने पर वे निन्दा के पात्र बन जाते हैं ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">नीति आदि शास्त्रों का ज्ञान उपार्जित करने का फल शरीरज षडरिपुओं को जीतकर स्वाधीन कर लेना है, यदि कोई पुरुष नीति आदि शास्त्रों में पारङ्गत होकर भी यदि अपने शरीरज षडरिपुओं को स्वाधीन नहीं करता है तो उसका शास्त्रीय ज्ञान व्यर्थ है । वह शास्त्रीय ज्ञान होने पर भी मूर्ख ही है । यही मूर्खता व्यवहार में चपलता(प्रमाद) उत्पन्न करती है । व्यवहार में प्रमाद उत्पन्न होने पर लक्ष्मी उस पुरुष को त्याग देती है । लक्ष्मी व्यावहारिक दक्षता में अनुरक्त होती है, कोरे शास्त्र ज्ञान में नहीं । लक्ष्मी द्वारा परित्यक्त होने पर वह पुरुष शास्त्रीय ज्ञान होने पर भी निन्दनीय बन जाता है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">वाक्यार्थ हेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">क्रोध से कार्यहानि की आशंका व्यक्त करते हुए - उससे बचते रहने के लिए राजा युधिष्ठिर भीमसेन से कहते हैं -</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अतिपातितकालसाधना स्वशरीरेन्द्रियवर्गतापनी ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">जनवन्न भवन्तं अक्षमा नयसिद्धेरपनेतुं अर्हति ।। २.४२ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> हे भीमसेन ! काल(समय) और सहायता की अतिक्रमण-कारिणी और अपनी ही इन्द्रियों को कष्ट प्रदायिनी असहिष्णुता (असहनशीलता) सामान्य मनुष्य की तरह आपको नीतिसाध्य फल की प्राप्ति (सिद्धि) से वञ्चित करने में समर्थ नहीं होगी ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">*अक्षमा = असहिष्णुता (क्रोध की चरमसीमा)</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपकारकं आयतेर्भृशं प्रसवः कर्मफलस्य भूरिणः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अनपायि निबर्हणं द्विषां न तितिक्षासमं अस्ति साधनं ।। २.४३ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> आने वाले समय में अत्यन्त उपकारक(हितकारी) तथा कर्म के फलों को बहुत बड़ी मात्रा में देने वाला और अपनी किसी भी प्रकार की हानि न करते हुए शत्रुओं का विनाशक,तितिक्षा(क्षमा) के बराबर अन्य कोई भी साधन नहीं है । क्षमा भी शत्रु का विनाश करने का अमोघ साधन है । शत्रु के विनाश के अन्यान्य साधन हैं किन्तु उनके प्रयोग से प्रयोक्ता की भी न्यूनाधिक हानि अवश्य होती ही है । किन्तु क्षमा एक ऐसा साधन है जिसके प्रयोग से प्रयोक्ता को किसी भी प्रकार की हानि नहीं होती । क्षमा के कारण कर्मफलों की पर्याप्त मात्रा में प्राप्ति होती है । क्षमावान का यश बढ़ता है और जिसे क्षमा की जाती उसकी हानि अनिवार्य रूप से होती है । शक्ति-सम्पन्न वीरों के लिए क्षमकारिता निश्चित रूप से भूषण है । क्षमा से ही शत्रु की एकांतिक और आत्यन्तिक हानि सम्भव है । अन्य किसी भी उपाय से नहीं, युद्ध से तो कदापि नहीं ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> क्षमा के अनेक गुण हैं किन्तु क्षमा सबलों के लिए भूषण है, निर्बलों के लिए कदापि नहीं । निर्बल व्यक्ति के द्वारा यदि क्षमा करने की बात भी की जाय तो उपहासास्पद होता है । परिग्रहवान ही जैसे त्याग कर सकता है उसी प्रकार सबल व्यक्ति ही क्षमा करने का पात्र होता है । अभावग्रस्त जैसे त्याग करने का अधिकारी नहीं होता उसी प्रकार निर्बल व्यक्ति भी क्षमा करने का अधिकारी नहीं है । </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">पाण्डव शक्ति सम्पन्न हैं अतः उनके द्वारा क्षमा करना भोषणास्पद है । सबके लिए नहीं और सर्वदा नहीं ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">कोप बलवान के लिए भी हानिकारक है निर्बलों का कोप ही उनका सम्पूर्ण विनाश कर देता है । सबलों का कोप भी (स्वयं के लिए भी) हानिकारक ही है । कोप अन्तः शत्रु है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">यहाँ उपमान से उपमेय का बढ़ा-चढ़ाकर वर्णन किया जाने के कारण व्यतिरेक अलङ्कार है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #b45f06;">क्या तितिक्षापूर्वक समय बिताने से दुर्योधन सभी अन्य राजाओं को अपने वश में कर लेगा ।' इस आशंका का समाधान करते हुए युधिष्ठिर कहते हैं कि -</span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">प्रणतिप्रवणान्विहाय नः सहजस्नेहनिबद्धचेतसः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">प्रणमन्ति सदा सुयोधनं प्रथमे मानभृतां न वृष्णयः ।। २.४४ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> हे भीमसेन ! मनस्वी जनों में अग्रगण्य वृष्णिकुल भूषण यादव लोग उनके प्रति विनम्र भाव से उन्हें सदा प्रणाम करने में तत्पर हम पाण्डवों को छोड़कर वे कौरवों का पक्ष कभी नहीं लेंगे क्योंकि उनका चित्त हम पाण्डवों में सदा ही स्वाभाविक प्रेम से आबद्ध है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">यादव लोग अपने वास्तविक बल से घमण्डी हैं और कौरव लोग मिथ्या अहङ्कारी हैं । यादवों के प्रति सहज स्नेहवश हम पाण्डव विनम्र भाव रखते हैं, और वे भी हमारे विनय के वशीभूत होकर हम से प्रेम करते हैं वे हमारे पक्ष को छोड़कर अहङ्कारी कौरवों का पक्ष कभी भी नहीं स्वीकार करेंगे । क्योंकि वे यादव भी हमीं से अकृत्रिम स्नेह रखते हैं ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">दुर्योधन मिथ्या अहङ्कारी होने से वह यादवों के समक्ष नत-मस्तक नहीं हो सकता और वे यादव लोग स्वभावतः ही मनस्वी होने के कारण कौरवो का औद्धित्य सह नहीं सकते । अतः निरन्तर यादव कौरवों के वश में रहना असम्भव है । सम्प्रति भले ही किसी कारण कौरवों के पक्षधर हों किन्तु अन्ततोगत्वा यादव हम पाण्डवों का ही पक्ष लेंगे क्योंकि उनका भी स्वाभाविक प्रेम हमारे विनय भाव के कारण हम पाण्डवों में ही है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #b45f06;"><span face="sans-serif">सुहृदः सहजास्तथेतरे मतं एषां न विलङ्घयन्ति ये ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif">विनयादिव यापयन्ति ते धृतराष्ट्रात्मजं आत्मसिद्धये ।। २.४५ ।।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अभियोग इमान्महीभुजो भवता तस्य ततः कृतावधेः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">प्रविघाटयिता समुत्पतन्हरिदश्वः कमलाकरानिव ।। २.४६ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b>दुर्योधन ने जो हमारे वनवास की अवधि बाँध दी है, उसके भीतर यदि आप उसके (दुर्योधन के) ऊपर अभियान करते हैं तो हमारा यह कार्य इन यदुवंशी तथा इनके मित्र राजाओं को, हरे रंगों के अश्वोंवाले सूर्य द्वारा कमलों की पंखुड़ियों की भांति, उदय होते ही छिन्न-भिन्न कर देगा।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b><span style="color: #222222;">अन्यायी का साथ कोई नहीं देगा और इस प्रकार आपका असमय का अभियान अपने ही पक्ष को छिन्न-भिन्न करने का कारण बन जाएगा ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपमा अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपजापसहान्विलङ्घयन्स विधाता नृपतीन्मदोद्धतः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">सहते न जनोऽप्यधःक्रियां किं उ लोकाधिकधाम राजकं ।। २.४७ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b>अभिमान के मद में मतवाला वह दुर्योधन अन्य राजाओं का अपमान कर उन्हें भेदयोग्य बना देगा और जब साधारण मनुष्य भी अपना अपमान नहीं सहन कर सकते तो साधारण लोगों की अपेक्षा अधिक तेजस्वी राजा लोग फिर क्यों सहन करेंगे ?</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> अपमानित लोग टूट जाते ही हैं और ऐसी स्थिति में समय आने पर सम्पूर्ण राजमण्डल हमारे पक्ष में हो जाएगा </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थान्तरन्यास अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">असमापितकृत्यसम्पदां हतवेगं विनयेन तावता ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">प्रभवन्त्यभिमानशालिनां मदं उत्तम्भयितुं विभूतयः ।। २.४८ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ:</b> कार्य को अधूरा छोड़ने वाले अभिमानी व्यक्तियों की सम्पत्तियाँ ऊपर से धारण किये गए स्वल्प विनय के द्वारा प्रतिहत वेग अभिमान को बढ़ने में समर्थ हो जाती हैं ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> अर्थात वह अपने स्वार्थों के कारण बगुला भगत बना रहता है, किन्तु किसी कार्य की समाप्ति के भीतर तो उसका अभिमान प्रकट होकर ही रहता है क्योंकि थोड़ी देर के लिए चिकनी-चुपड़ी, विनयभरी बातों से उसके न्यून वेग वाले अभिमान को बढ़ावा ही मिलता है । लोग समझ जाते हैं कि यह बनावटी विनयी है, सहज नहीं ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">काव्यलिङ्ग अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">*</span><span face="sans-serif" style="color: #b45f06;">अभिमान द्वारा होने वाले अनर्थ की चर्चा(अगले दो श्लोक)</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">मदमानसमुद्धतं नृपं न वियुङ्क्ते नियमेन मूढता ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अतिमूढ उदस्यते नयान्नयहीनादपरज्यते जनः ।। २.४९ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><br /></b></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ: </b>दर्प और अहँकार से उद्धत राजा को मूर्खता अवश्य ही नहीं छोड़ती । अत्यन्त मूर्ख राजा न्यायपथ से पृथक हो जाता है और अन्यायी राजा से जनता अलग हो जाती है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b><span style="color: #222222;">अर्थात कार्य का अवसर आने पर अभिमान के कारण देश के सभी राजा तथा जनता भी दुर्योधन से पृथक हो जायेगी । </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">कारणमाला अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अपरागसमीरणेरितः क्रमशीर्णाकुलमूलसन्ततिः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">सुकरस्तरुवत्सहिष्णुना रिपुरुन्मूलयितुं महानपि ।। २.५० ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ: </b>द्वेष की वायु से प्रेरित, धीरे-धीरे चञ्चल बुद्धि मन्त्रियों आदि अनुगामियों से विनष्ट शत्रु यदि महान भी है, तब भी (भयङ्कर तूफ़ान से प्रकम्पित तथा क्रमशः डालियों और जड़ समेत विनष्ट ) वृक्ष की भांति क्षमाशील पुरुष द्वारा विनष्ट करने में सुगम हो जाता है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> तात्पर्य यह है कि क्षमाशील पुरुष धीरे-धीरे बिना प्रयास के ही अपने शत्रुओं का समूल नाश कर डालता है ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">कारणमाला और उपमा अलङ्कार </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">*यदि कहिये की थोड़े से अन्तर्भेद के कारण वह सुसाध्य कैसे हो गया तो यह सुनिए - </span><br />
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अणुरप्युपहन्ति विग्रहः प्रभुं अन्तःप्रकृतिप्रकोपजः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अखिलं हि हिनस्ति भूधरं तरुशाखान्तनिघर्षजोऽनलः ।। २.५१ ।।</span></b></span><br />
<span style="background-color: white;"><span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span></span><br />
<span style="background-color: white;"><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b>अर्थ: </b>अणुमात्र भी अन्तरङ्ग सचिवादि का उदासीनता से उत्पन्न वैर राजा का विनाश कर देता है । क्योंकि वृक्षों की शाखाओं के परस्पर संघर्ष से उत्पन्न अग्नि समूचे पर्वत को जला देती है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> जैसे मामूली वृक्षों की डालियों की रगड़ से उत्पन्न दावाग्नि विशाल पर्वत को जला देती है, उसी प्रकार राजाओं के साधारण सेवकों में उत्पन्न पारस्परिक कटुता या विरोध राजा को नष्ट कर देता है ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">दृष्टान्त अलङ्कार </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">यद्यपि दुर्योधन का उत्कर्ष हो रहा है, तथापि इस समय तो उसकी उपेक्षा ही करना उचित है क्योंकि-</span> <span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">मतिमान्विनयप्रमाथिनः समुपेक्षेत समुन्नतिं द्विषः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">सुजयः खलु तादृगन्तरे विपदन्ता ह्यविनीतसम्पदः ।। २.५२ ।।</span></b>वियोगिनी</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: बुद्धिमान व्यक्ति अविनयी, उद्दण्ड, मदोन्मत्त अतएव प्रमादशील शत्रु की उपेक्षा करता रहे उसकी उन्नति की चिन्ता न करे क्योंकि ऐसे अविनयी शत्रु स्वभावतः ही प्रभावशील होते हैं, वे अपने किये हुए प्रमाद के द्वारा ही विपत्तियों को आमन्त्रित करते हैं । विपद प्राप्त शत्रु को जीतना सरल होता है क्योंकि अविनयी व्यक्ति को प्राप्त हुई सम्पत्ति, वह रक्षण करने में अपने ही स्वभावदोष के कारण असमर्थ होता है । अविनयी पुरुष की सम्पत्तियों का अन्त उसी के द्वारा बुलाई गयी विपत्तियों से हुआ करता है । अविनयी पुरुष के पास सम्पत्ति टिकती नहीं है । अतः वर्धमान अविनयी शत्रु की बुद्धिमान पुरुष उपेक्षा करते हैं । जो सहज साव्य है उसके लिए प्रयत्न करने में शक्ति का व्यय क्यों किया जाय ?</span><br />
<br />
<span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b><span style="color: #222222;">अविनयी शत्रु को उपेक्षा से ही जीता जा सकता है ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थान्तरन्यास अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अविनीत शत्रु को उपेक्षा से कैसे जीता जा सकता है - यह सुनिए </span><br />
<span style="background-color: white;"><b style="font-family: "trebuchet ms", sans-serif;"><span face="sans-serif" style="color: #222222;">लघुवृत्तितया भिदां गतं बहिरन्तश्च नृपस्य मण्डलं ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अभिभूय हरत्यनन्तरः शिथिलं कूलं इवापगारयः ।। २.५३ ।।</span></b><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">वियोगिनी</span></span><br />
<span style="background-color: white;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: हे भीमसेन ! मदोन्मत्त अभिमानी राजा अपने तुच्छ व्यवहार के कारण पडोसी राजाओं को तथा अपने राज्य के मन्त्री वर्ग और प्रजावर्ग को कुपित करता रहता है फलतः अपने और पराये, घर के और बाहर के सभी लोगों का प्रेम वह खो बैठता है और आपस में फूट (भेद) पैदा होती है । मित्र राजाओं में तथा अपने मन्त्रीवर्ग और प्रजावर्ग में क्रमशः भेद बुद्धि पनपने पर जिस तरह नदी के वेग से जर्जरित हुए दोनों किनारों को स्वयं नदी ही गिराकर नष्ट कर डालती है उसी प्रकार आन्तरिक भेद से जर्जरित मित्रराजमण्डल एवं अमात्यादिप्रकृति-मण्डल वाला दुर्वृत्ति राजा अपने ही तुच्छ व्यवहार के कारण विनाश को प्राप्त होता है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> परस्पर भेद के कारण अविनयी राजा का विनाश सुगम रहता है ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपमा अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अनुशासतं इत्यनाकुलं नयवर्त्माकुलं अर्जुनाग्रजं ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">स्वयं अर्थ इवाभिवाञ्छितस्तं अभीयाय पराशरात्मजः ।। २.५४ ।।</span></b></span><br />
<span style="background-color: white;"><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span face="sans-serif">वियोगिनी</span></span></span><br />
<span style="background-color: white;"><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span face="sans-serif"><br /></span></span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: इस प्रकार से (शत्रु द्वारा हुए अपमान का स्मरण करने के कारण) क्षुब्ध भीमसेन को सुन्दर न्याय-पथ का उपदेश करते हुए युधिष्ठिर के पास मानो अभिलषित मनोरथ की भांति वेदव्यास जी स्वयमेव आ पहुंचे ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">उत्प्रेक्षा अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">*धर्मराज युधिष्ठिर के पास आये हुए व्यासमुनि कैसे हैं इसका वर्णन महाकवि भारवि युग्मश्लोकों द्वारा करते हैं -</span> <span style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">मधुरैरवशानि लम्भयन्नपि तिर्यञ्चि शमं निरीक्षितैः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">परितः पटु बिभ्रदेनसां दहनं धाम विलोकनक्षमं ।। २.५५ ।।</span></b></span><br />
<span style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">सहसोपगतः सविस्मयं तपसां सूतिरसूतिरेनसां ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">ददृशे जगतीभुजा मुनिः स वपुष्मानिव पुण्यसंचयः ।। २.५६ ।।</span></b></span><br />
वियोगिनी<br />
<br />
अर्थ: अपने शान्तिपूर्ण दृष्टिनिक्षेप से प्रतिकूल स्वभाव वाले पशु-पक्षियों को भी शान्ति दिलाते हुए, चारों ओर से उज्जवल तथा देखने योग्य तेज को धारण करने वाले, अकस्मात् आये हुए तपस्या के मूल कारण तथा आपत्तियों के निवारणकर्ता उन भगवान् वेदव्यास को मानो शरीरधारी पुण्यपुञ्ज की भांति राजा युधिष्ठिर ने बड़े विस्मय के साथ देखा ।<br />
द्वितीय श्लोक में उत्प्रेक्षा अलङ्कार<br />
<br />
<span style="background-color: white;"><span face="sans-serif" style="color: #b45f06;">*युग्मश्लोक - जहाँ दो श्लोकों का एकत्र अन्वय कर अर्थ पूर्ण होता है ।</span></span><br />
<span style="background-color: white;"><span face="sans-serif" style="color: #b45f06;"><br /></span></span>
<span style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अथोच्चकैरासनतः परार्ध्यादुद्यन्स धूतारुणवल्कलाग्रः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">रराज कीर्णाकपिशांशुजालः शृङ्गात्सुमेरोरिव तिग्मरश्मिः ।। २.५७ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपजाति वृत्ति </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: इसके बाद (वेदव्यास जी के स्वागतार्थ) अपने श्रेष्ठ ऊंचे सिंहासन से उठते हुए राजा युधिष्ठिर के लाल रङ्ग की किरण-पुञ्जों को विस्तृत करने वाले सुमेरु पर्वत से ऊपर उठते हुए सूर्य की भांति सुशोभित हुए </span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> जिस प्रकार से सुमेरु के शिखर से ऊंचे उठते हुए सूर्य सुशोभित होते हैं, उसी प्रकार अपने ऊंचे सिंहासन से भगवान् वेदव्यास के स्वागतार्थ उठते हुए राजा युधिष्ठिर सुशोभित हुए ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपमा अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अवहितहृदयो विधाय स अर्हां ऋषिवदृषिप्रवरे गुरूपदिष्टां ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">तदनुमतं अलंचकार पश्चात्प्रशम इव श्रुतं आसनं नरेन्द्रः ।। २.५८ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">पुष्पिताग्रा </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: धर्मराज युधिष्ठिर ने स्वस्थचित्त होकर गुरुजन परम्परा से ज्ञात विधि से अनुसार ऋषिश्रेष्ठ की ऋषिजनोचित पूजा कर चुकने के पश्चात उनके द्वारा अनुमत आसन को अलङ्कृत किया जैसे शम(क्षमा) शास्त्राध्ययन (शास्त्रीय ज्ञान) को विभूषित करता है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b><span style="color: #222222;">जिस प्रकार से क्षमा शास्त्रज्ञान को सुशोभित करती है उसी प्रकार से युधिष्ठिर ने वेदव्यास जी की आज्ञा से अपने सिंहासन को सुशोभित किया ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span style="background-color: white;"><b><span face="sans-serif" style="color: #222222;">व्यक्तोदितस्मितमयूखविभासितोष्ठस्तिष्ठन्मुनेरभिमुखं स विकीर्णधाम्नः ।</span><br style="color: #222222; font-family: sans-serif;" /><span face="sans-serif" style="color: #222222;">तन्वन्तं इद्धं अभितो गुरुं अंशुजालं लक्ष्मीं उवाह सकलस्य शशाङ्कमूर्तेः ।। २.५९ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">वसन्ततिलका</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: मुस्कुराने के कारण छिटकी हुई दांत की किरणों से राजा युधिष्ठिर के दोनों ओंठ उद्भासित हो रहे थे । उस समय चतुर्दिक व्याप्त तेजवाले वेदव्यास जी के सम्मुख बैठे हुए यह प्रदीप्त तेज की किरण-पुञ्जों को फैलाते हुए बृहस्पति के सम्मुख बैठे पूर्ण चन्द्रमा की कान्ति को धारण कर रहे थे ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> देवगुरु बृहस्पति के सम्मुख बैठे हुए चन्द्रमा के समान राजा युधिष्ठिर सुशोभित हो रहे थे । </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">उपमा और निदर्शना अलङ्कार</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">महाकाव्य के काव्य शास्त्रीय लक्षणों के अनुसार सर्ग में प्रायः एक ही वृत्त हो किन्तु अन्त में छन्द भेद होना चाहिए । इस नियम का निर्वाह करते हुए कवि ने काव्य सर्जन नैपुण्य प्रदर्शन करते हुए इस द्वितीय सर्ग में आरम्भ से ५६वें श्लोक तक वियोगिनी छन्द का अप्रतिहत प्रयोग किया है । ५७ से उपजाति, पुष्पिताग्रा, वसन्ततिलका छन्द का क्रमशः प्रयोग कर भिन्न छन्द में सर्गान्त करने के नियम का निर्वाह किया है । महाकवि भारवि ने सम्पूर्ण काव्य में प्रति सर्ग के अन्तिम श्लोक में लक्ष्मी शब्द का प्रयोग किया है । श्री शब्द का प्रयोग इस काव्य के आरम्भ में किया है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span style="background-color: white;"><span face="sans-serif" style="color: #b45f06;"></span></span><br />
</font><div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #b45f06;"><font size="2"><span face="sans-serif" style="color: #222222;">।। </span><span face="sans-serif" style="background-color: white;">इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये द्वितीयः सर्गः</span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"> ।।</span></font></span></b></div>
<font size="2"><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"></span><br />
</font><div style="text-align: center;">
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><font size="2">=================================================</font></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><font size="2"><br /></font></span></div>
<div>
<span face=""trebuchet ms", sans-serif" style="background-color: white;"><font size="2"><br /></font></span></div>
<font size="2"><b>ततः शरच्चन्द्रकराभिरामैरुत्सर्पिभिः प्रांशुं इवांशुजालैः ।<br />बिभ्राणं आनीलरुचं पिशङ्गीर्जटास्तडित्वन्तं इवाम्बुवाहं ।। ३.१ ।।</b><br />
</font><div>
<b><font size="2"><br />प्रसादलक्ष्मीं दधतं समग्रां वपुःप्रकर्षेण जनातिगेन ।<br />प्रसह्य चेतःसु समासजन्तं असंस्तुतानां अपि भावं आर्द्रं ।। ३.२ ।।</font></b></div>
<div>
<b><font size="2"><br />अनुद्धताकारतया विविक्तां तन्वन्तं अन्तःकरणस्य वृत्तिं ।<br />माधुर्यविस्रम्भविशेषभाजा कृतोपसम्भाषं इवेक्षितेन ।। ३.३ ।।</font></b></div>
<font size="2"><span face="sans-serif" style="color: #222222;"></span><br />
</font><div>
<font size="2"><b><br />धर्मात्मजो धर्मनिबन्धिनीनां प्रसूतिं एनःप्रणुदां श्रुतीनां ।<br />हेतुं तदभ्यागमने परीप्सुः सुखोपविष्टं मुनिं आबभाषे ।। ३.४ ।।</b><br />
अर्थ: (मुनिवर वेदव्यास के आदेश से आसन पर बैठ जाने के) अनन्तर शरद ऋतु के चन्द्रमा के समान आनन्ददायी, ऊपर फैलते हुए प्रभापुञ्ज से मानो उन्नत से, श्यामल शरीर पर पीले वर्ण की जटा धारण करने के कारण मानो बिजली से युक्त मेघ की भांति, प्रसन्नता की सम्पूर्ण शोभा से समलङ्कृत, लोकोत्तर शरीर-सौन्दर्य के कारण अपरिचित लोगों के चित्त में भी अपने सम्बन्ध में उच्च भाव पैदा करनेवाले, अपनी शान्त आकृति से अन्तःकरण की (स्वच्छ पवित्र) भावनाओं को प्रकट करते हुए, अपनी अति स्वाभाविक सौम्यता तथा विश्वासदायकता से युक्त अवलोकन के कारण मानो (पहले ही से) सम्भाषण किये हुए की तरह एवं अग्निहोत्र आदि धर्मूं के प्रतिपादक तथा पापों के विनाशकारी वेदों के व्याख्याता व्यास जी से, जो सुखपूर्वक आसन पर विराजमान(हो चुके) थे, उनके आगमन का कारण जानने के लिए, धर्मराज युधिष्ठिर ने (यह) निवेदन किया ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तीनों श्लोकों के सब विशेषण व्यासजी के लोकोत्तर व्यक्तित्व से सम्बन्धित हैं । अलौकिक सौन्दर्य के कारण लोगों में उच्च भाव पैदा होना स्वाभाविक है । प्रथम श्लोक में दो उत्प्रेक्षाएँ हैं । द्वितीय में काव्यलिङ्ग तथा तृतीया में भी उत्प्रेक्षा अलंकार है । चतुर्थ में पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग है ।<br />
<br />
<b>अनाप्तपुण्योपचयैर्दुरापा फलस्य निर्धूतरजाः सवित्री ।<br />तुल्या भवद्दर्शनसम्पदेषा वृष्टेर्दिवो वीतबलाहकायाः ।। ३.५ ।।</b><br />
अर्थ: पुन्यपुञ्ज सञ्चित न करनेवाले लोगों के लिए दुलभ, अभिलाषाओं को सफल करनेवाली, रजोगुणरहित यह आपके (मङ्गलदायी) दर्शन की सम्पत्ति बादलों से विहीन आकाश की वर्षा के समान (आनन्ददायिनी) है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> बिना बादल की वृष्टि के समान यह आपका अप्रत्याशित शुभ दर्शन हमारे लिए सर्वथा किसी न किसी कल्याण का सूचक है ।<br />
उपमा अलङ्कार<br />
<br />
<b>अद्य क्रियाः कामदुघाः क्रतूनां सत्याशिषः सम्प्रति भूमिदेवाः ।<br />आ संसृतेरस्मि जगत्सु जातस्त्वय्यागते यद्बहुमानपात्रं ।। ३.६ ।।</b><br />
अर्थ: आज के दिन मेरे किये हुए यज्ञों के अनुष्ठान फल देने वाले बन गए । इस समय भूमि के देवता ब्राह्मणों के आशीर्वचन सत्य हुए । आपके इस आगमन से (आज मैं) जब से इस सृष्टि की रचना हुई है तब से आज तक संसार भर में सब से अधिक सम्मान का भाजन बन गया हूँ ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> सम्पूर्ण सत्कर्मों के पुण्य प्रभाव से ही आपका यह मंगलदायी दर्शन हुआ है । मुझसे बढ़कर इस सृष्टि में कोई दूसरा भाग्यशाली व्यक्ति आज तक नहीं हुआ ।<br />
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।<br />
<br />
<b>श्रियं विकर्षत्यपहन्त्यघानि श्रेयः परिस्नौति तनोति कीर्तिम् ।<br />संदर्शनं लोकगुरोरमोघं तवात्मयोनेरिव किं न धत्ते ।। ३.७ ।।</b><br />
अर्थ: ब्रह्मा के समान जगत्पूज्य आप का यह अमोघ (कभी व्यर्थ न होने वाला) पुण्यदर्शन लक्ष्मी की वृद्धि करनेवाला है, पापों का विनाशक है, कल्याण का जनक है तथा यश की विस्तारक है । वह क्या नहीं कर सकता है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात उससे संसार में मनुष्य के सभी मनोरथ पूरे होते हैं ।<br />
पूर्वार्द्धमें समुच्चय अलङ्कार है तथा उत्तरार्द्ध में उपमा एवं अर्थापत्ति अलङ्कार<br />
<br />
<b>च्योतन्मयूखेऽपि हिमद्युतौ मे ननिर्वृतं निर्वृतिमेति चक्षुः ।<br />समुज्झितज्ञातिवियोगखेदं त्वत्संनिधावुच्छ्वसतीव चेतः ।। ३.८ ।।</b><br />
अर्थ: अमृत परिस्रवण करनेवाली किरणों से युक्त हिमांशु चन्द्रमा में भी शान्ति न प्राप्त करनेवाले मेरे नेत्र आपके (इस) दर्शन से तृप्त हो रहे हैं तथा मेरा चित्त छूटे हुए बन्धु-बान्धवों के वियोग-जनित दुःख को भूल कर मानो पुनः जीवित सा हो रहा है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b>आपके इस पुण्यदर्शन से मेरे नेत्र सन्तुष्ट हो गए और मेरा मन नूतन उत्साह से भर गया ।<br />
पूर्वार्द्ध में विशेषोक्ति और उत्तरार्द्ध में उत्प्रेक्षा अलङ्कार<br />
<br />
<b>निरास्पदं प्रश्नकुतूहलित्वं अस्मास्वधीनं किमु निःस्पृहाणाम् ।<br />तथापि कल्याणकरीं गिरं ते मां श्रोतुमिच्छा मुखरीकरोति ।। ३.९ ।।</b><br />
अर्थ: (आप के आगमन के प्रयोजन का) प्रश्न पूछने का मेरा जो कौतुहल था वह शान्त हो गया, क्योंकि आप जैसे निस्पृह वीतराग महापुरुषों का हम लोगों के अधीन है ही क्या ? किन्तु फिर भी आपकी मंगलकारिणी वाणी को सुनने की इच्छा मुझे मुखर (बोलने को विवश) कर रही है ।<br />
<br />
<b>इत्युक्तवानुक्तिविशेषरम्यं मनः समाधाय जयोपपत्तौ ।<br />उदारचेता गिरं इत्युदारां द्वैपायनेनाभिदधे नरेन्द्रः ।। ३.१० ।।</b><br />
<span face="sans-serif" style="background-color: white; color: #222222; font-size: 14px;"><br /></span>अर्थ: उक्त प्रकार की सुन्दर विचित्र उक्तियों से मनोहर वाणी बोलने वाले उदारचेता महाराज युधिष्ठिर से, उनकी विजय की अभिलाषा में चित्त लगा कर महर्षि द्वैपायन इस प्रकार की उदार वाणी में बोले ।<br />
<br />
<br />
</font><div>
<font size="2"><b>चिचीषतां जन्मवतां अलघ्वीं यशोवतंसां उभयत्र भूतिं ।<br />अभ्यर्हिता बन्धुषु तुल्यरूपा वृत्तिर्विशेषेण तपोधनानां ।। ३.११ ।।</b><br />
अर्थ: गम्भीर, कीर्ति को विभूषित करनेवाले, इस लोक तथा परलोक में सुखदायी कल्याण की इच्छा रखनेवाले शरीरधारी को (भी) अपने कुटुम्बियों के प्रति समान व्यवहार करना उचित है और तपस्वियों के लिए तो यह समान व्यवहार विशेष रूप से उचित है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> संसार में समस्त शरीरधारी को अपने कुटुम्बी-जनों के लिए समान व्यवहार करना उचित है किन्तु तपस्वी को तो विशेष रूप से सम-व्यवहार करना ही चाहिए, उसे किसी के साथ पक्षपात नहीं करना चाहिए ।<br />
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।<br />
<br />
<br />
<b>तथाऽपि निघ्नं नृप तावकीनैः प्रह्वीकृतं मे हृदयं गुणौघैः ।</b><br />
<b>वीतस्पृहाणां अपि मुक्तिभाजां भवन्ति भव्येषु हि पक्षपाताः ।। ३.१२ ।।</b><br />
अर्थ: किन्तु ऐसा होते हुए भी हे राजन ! तुम्हारे उत्तम गुणों के समूहों से आकृष्ट मेरा ह्रदय तुम्हारे वश में हो गया है । (यदि यह कहो कि तपस्वी के ह्रदय में यह पक्षपात क्यों हो गया है तो) वीतराग मुमुक्षुओं के ह्रदय में भी सज्जनों के प्रति पक्षपात हो ही जाता है ।<br />
<br />
टिप्पणी: सज्जनों के प्रति पक्षपात करने से मुमुक्षु तपस्वियों का तप खण्डित नहीं होता, यह तो स्वाभाविक धर्म है ।<br />
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।<br />
<span face="helvetica, arial, sans-serif" style="background-color: white; color: #1c1e21; font-size: 14px;"><br /></span>
<b>सुता न यूयं किं उ तस्य राज्ञः सुयोधनं वा न गुणैरतीताः ।</b><br />
<b>यस्त्यक्तवान्वः स वृथा बलाद्वा मोहं विधत्ते विषयाभिलाषः ।। ३.१३ ।।</b><br />
अर्थ: आप लोग क्या उस राजा धृतराष्ट्र के पुत्र नहीं हैं? क्या अपने उत्तम गुणों से आप लोगों ने दुर्योधन को पीछे नहीं छोड़ दिया है ? जो उसने बिना किसी कारण के ही आप लोगों को छोड़ दिया है । अथवा (यह सच है कि) विषयों कि अभिलाषा (मनुष्य को) बलपूर्वक अविवेकी ही बना देती है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात धृतराष्ट्र कि विषयाभिलाषा ही उसके अविवेक का कारण है ।<br />
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।<br />
</font><div>
<font size="2"><br /></font></div>
<div>
<b><font size="2">जहातु नैनं कथं अर्थसिद्धिः संशय्य कर्णादिषु तिष्ठते यः ।</font></b></div>
<font size="2"><b>असाद्युयोगा हि जयान्तरायाः प्रमाथिनीनां विपदां पदानि ।। ३.१४ ।।</b><span face="sans-serif" style="background-color: white; color: #222222; font-size: 14px;"><br /></span>अर्थ: जो कर्ण प्रभृति दुष्ट मन्त्रियों पर सन्देहजनक कार्यों के निर्णयार्थ निर्भर रहता है, उस धृतराष्ट्र को प्रयोजनों की सिद्धियां क्यों न छोड़े । क्योंकि दुष्टों का सम्पर्क विजय का द्योतक (ही नहीं होता, प्रत्युत) ध्वंस करने वाली विपत्तियों का आधार (भी) होता है ।</font></div>
<div>
<font size="2"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> दुष्टों की सङ्गति न केवल विजय में ही बाधा डालती है, प्रत्युत वह अनर्थकारिणी भी होती है । ऐसे दुष्टों के सम्पर्क से धृतराष्ट्र का अवश्य विनाश हो जाएगा ।<br />
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार ।<br />
</font><div>
<font size="2"><br /></font></div>
<div>
<b><font size="2">पथश्च्युतायां समितौ रिपूणां धर्म्यां दधानेन धुरं चिराय ।</font></b></div>
<font size="2"><b>त्वया विपत्स्वप्यविपत्ति रम्यं आविष्कृतं प्रेम परं गुणेषु ।। ३.१५ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: शत्रुओं के पथ से भ्रष्ट शत्रुओं की सभा में चिरकाल तक धर्म के साथ अपना कर्त्तव्य पूरा करके आपने विपत्तियों में भी अविपत्ति अर्थात सुख-शान्ति के समय शोभा देनेवाले सात्विक गुणों के साथ ऊँचा प्रेम प्रदर्शित किया है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> असहनीय कष्टों को भी आपने सुख के साथ बिताकर अच्छा ही किया है ।<br />
विरोधाभास अलङ्कार ।<br />
</font><div>
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><b>विधाय विध्वंसनं आत्मनीनं शमैकवृत्तेर्भवतश्छलेन ।<br />प्रकाशितत्वन्मतिशीलसाराः कृतोपकारा इव विद्विषस्ते ।। ३.१६ ।।</b><br />
अर्थ: शान्ति के प्रमुख उपासक आप के साथ छाल करके उन शत्रुओं ने अपना ही विनाश किया है और ऐसा करके उन्होंने आपकी सद्बुद्धि एवं शील सदाचरण का परिचय देते हुए मानो आपका उपकार ही किया है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> ऐसा करके उन्होंने अपनी दुर्जनता तथा आपकी सज्जनता का अच्छा प्रचार किया है । चन्दन की भांति सज्जनों की विपत्ति भी उनके गुणों का प्रकाशन ही करती है ।<br />
उत्प्रेक्षा अलङ्कार ।<br />
<br />
<b><br />लभ्या धरित्री तव विक्रमेण ज्यायांश्च वीर्यास्त्रबलैर्विपक्षः ।<br />अतः प्रकर्षाय विधिर्विधेयः प्रकर्षतन्त्रा हि रणे जयश्रीः ।। ३.१७ ।।</b><br />
अर्थ: तुम पराक्रम के द्वारा (ही) पृथ्वी को प्राप्त कर सकते हो । तुम्हारा शत्रु पराक्रम और अस्त्रबल में तुमसे बढ़ा-चढ़ा है । इसलिए तुम्हें भी अपने उत्कर्ष के लिए उपाय करना होगा, क्योंकि युद्ध में विजयश्री उत्कर्ष के ही अधीन रहती है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> बलवान एवं पराक्रमी ही रण में विजयी होते हैं, बलहीन और आलसी नहीं ।<br />
काव्यलिंग और अर्थान्तरन्यास की ससृष्टि ।<br />
<br />
<b>त्रिःसप्तकृत्वो जगतीपतीनां हन्ता गुरुर्यस्य स जामदग्न्यः ।<br />वीर्यावधूतः स्म तदा विवेद प्रकर्षं आधारवशं गुणानां ।। ३.१८ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: इक्कीस बार धरती के राजाओं का जो संहार करनेवाला है, वह धनुर्वेद का शिक्षक सुप्रसिद्ध जमदग्नि का पुत्र परशुराम जिस(भीष्म) के पराक्रम से पराजित हो गया और यह जान सका कि गुणों का उत्कर्ष पात्र के अनुसार ही होता है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> जमदग्नि के पुत्र परशुराम ने अपने पिता के वैर का बदला चुकाने के लिए समस्त भूमण्डल के क्षत्रिय राजाओं का इक्कीस बार विनाश कर दिया था, यह सुप्रसिद्ध पौराणिक कथा है । वही परशुराम भीष्म के धनुर्विद्या के आचार्य थे, किन्तु अम्बिका-स्वयंवर के समय उन्हें अपने ही शिष्य भीष्म से पराजित हो जाने पर यह स्वीकार करना पड़ा कि गुणों का विकास पात्र के अनुसार होता है । किसी साधारण पात्र में पड़कर वही गुण अविकसित अथवा अधविकसित होता है और किसी विशेष पात्र में पड़कर वह पूर्व की अपेक्षा अत्यधिक मात्रा में विकसित होता है ।</font></div>
<div><font size="2">
पदार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार<br />
<br />
<b><br />यस्मिन्ननैश्वर्यकृतव्यलीकः पराभवं प्राप्त इवान्तकोऽपि ।<br />धुन्वन्धनुः कस्य रणे न कुर्यान्मनो भयैकप्रवणं स भीष्मः ।। ३.१९ ।।</b><br />
अर्थ: जिन महापराक्रमी(भीष्म) के सम्बन्ध में अपने ऐश्वर्य की विफलता के कारण दुःखी होकर मृत्यु का देवता यमराज भी मानो पराजित सा हो गया है, वही भीष्म रणभूमि में अपने धनुष को कँपाते हुए किस वीर के मन को नितान्त भयभीत नहीं बना देंगे ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> भीष्म स्वेच्छामृत्यु थे, यमराज का भी उन्हें भय नहीं था । तब फिर उनके धनुष को देखकर कौन ऐसा वीर था जो भयभीत न होता ?<br />
पदार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार<br />
<br />
<b>सृजन्तं आजाविषुसंहतीर्वः सहेत कोपज्वलितं गुरुं कः ।<br />परिस्फुरल्लोलशिखाग्रजिह्वं जगज्जिघत्सन्तं इवान्तवह्निं ।। ३.२० ।।</b><br />
अर्थ: अपने विकट बाणों के समूहों को बरसाते हुए, क्रोध से जाज्वल्यमान, जीभ की भांति भयङ्कर लपटें छोड़ते हुए मानो समूचे संसार को खा जाने के लिए उद्यत प्रलय काल की अग्नि की तरह रणभूमि में स्थित द्रोणाचार्य को, आप की ओर कौन ऐसा वीर है जो सहन कर सकेगा ?<br />
<br />
टिप्पणी: अर्थात आप के पक्ष में ऐसा कोई वीर नहीं है, जो रणभूमि में क्रुद्ध द्रोणाचार्य का सामना कर सके।<br />
उत्प्रेक्षा अलङ्कार<br />
<br />
<b>निरीक्ष्य संरम्भनिरस्तधैर्यं राधेयं आराधितजामदग्न्यं ।<br />असंस्तुतेषु प्रसभं भयेषु जायेत मृत्योरपि पक्षपातः ।। ३.२१ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: अपने क्रोध से दूसरों के धैर्य को दूर करने वाले परशुराम के शिष्य राधसुत कर्ण को देखकर मृत्यु को भी अपरिचित भय से हठात् परिचय हो जाता है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य यह है कि मृत्यु भी कर्ण से डरती है तो दूसरों की बात ही क्या ?<br />
अतिशयोक्ति अलङ्कार<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><b>यया समासादितसाधनेन सुदुश्चरां आचरता तपस्यां ।<br />एते दुरापं समवाप्य वीर्यं उन्मीलितारः कपिकेतनेन ।। ३.२२ ।।</b><br />
<b>महत्त्वयोगाय महामहिम्नां आराधनीं तां नृप देवतानां ।<br />दातुं प्रदानोचित भूरिधाम्नीं उपागतः सिद्धिं इवास्मि विद्यां ।। ३.२३ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: जिस विद्या के द्वारा अत्यन्त कठोर तपस्या करके पाशुपत-अस्त्र रुपी साधन प्राप्त करने वाले अर्जुन दूसरों के लिए दुर्लभ तेज प्राप्त कर इन सब (भीष्म आदि) का विनाश करेंगे । हे उचित दान के पात्र राजन ! उसी महनीय महिमा से समन्वित, देवताओं के लिए भी आराध्य तथा परम शक्तिशालिनी विद्या को सिद्धि की भांति उत्कर्ष प्राप्ति के निमित्त मैं(अर्जुन को) देने के लिए यहाँ आया हूँ ।<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><b style="background-color: white;"><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> इस विद्या से शिव की प्रसन्नता से प्राप्त पाशुपत अस्त्र के द्वारा अर्जुन उन भीष्म आदि का संहार करेंगे । पूर्व श्लोक में वाक्यार्थ हेतुक काव्यलिङ्ग तथा दुसरे में उपमा अलङ्कार<br />
<b>इत्युक्तवन्तं व्रज साधयेति प्रमाणयन्वाक्यं अजातशत्रोः ।<br />प्रसेदिवांसं तं उपाससाद वसन्निवान्ते विनयेन जिष्णुः ।। ३.२४ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: इस प्रकार के बातें करते हुए सुप्रसन्न वेदव्यास जी के समीप अर्जुन राजा युधिष्ठिर के इस वाक्य - "जाओ और (इस सिद्धि की) साधना करो।" को स्वीकार करते हुए छात्र की भांति सविनय उपस्थित हो गए ।<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> उपमा अलङ्कार<br />
<br />
<b>निर्याय विद्या+थ दिनादिरम्याद्बिम्बादिवार्कस्य मुखान्महर्षेः ।<br />पार्थाननं वह्निकणावदाता दीप्तिः स्फुरत्पद्मं इवाभिपेदे ।। ३.२५ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: तदनन्तर चिंगारी की भांति उज्जवल वह विद्या, प्रातः काल के मनोहर सूर्य मण्डल के समान महर्षि वेदव्यास के मुख से निकलकर (सूर्य की) किरणों से विक्सित होनेवाले कमल के समान अर्जुन के मुख में प्रविष्ट हो गयी ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> प्रातः काल में सूर्य-मण्डल से निकली हुई किरणें जैसे कमल में प्रवेश करती हैं वैसा ही वेदव्यास के मुख से निकली हुई वह विद्या अर्जुन के मुख में प्रविष्ट हुई ।<br />
उपमा अलङ्कार<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><br />
<br />
<b>योगं च तं योग्यतमाय तस्मै तपःप्रभावाद्विततार सद्यः ।<br />येनास्य तत्त्वेषु कृतेऽवभासे समुन्मिमीलेव चिराय चक्षुः ।। ३.२६ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: मुनिवर वेदव्यास ने परम योग्य अर्जुन को वह योग विद्या अपने तपबल के प्रभाव से शीघ्र ही प्रदान कर दी, जिसके द्वारा प्रकृति महदादि चौबीस पदार्थों का साक्षात्कार हो जाने का कारण अर्जुन के नेत्र चिरकाल के लिए माना खुले हुए से हो गए ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अंधे को द्रष्टिलाभ के समान अर्जुन को कोई नूतन ज्ञान प्राप्त हो गया, जिससे उन्हें ऐसा अनुभव हुआ मानों आँखें खुल गयी हों ।<br />
उत्प्रेक्षा अलङ्कार ।<br />
</font><div>
<b><font size="2"><br /></font></b></div>
<div>
<b><font size="2">आकारं आशंसितभूरिलाभं दधानं अन्तःकरणानुरूपं ।</font></b></div>
<font size="2"><b>नियोजयिष्यन्विजयोदये तं तपःसमाधौ मुनिरित्युवाच ।। ३.२७ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: मुनिवर वेदव्यास महाभाग्य के सूचक एवं अन्तः करण के अनुरूप आकार(आकृति) धारण करनेवाले अर्जुन को विजय लाभ दिलानेवाली तपस्या के नियमों में नियुक्त करने की इच्छा से इस प्रकार बोले ।<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> पदार्थहेतुक काव्यलिंग अलङ्कार ।<br />
<br />
<br />
<b>अनेन योगेन विवृद्धतेजा निजां परस्मै पदवीं अयच्छन् ।<br />समाचराचारं उपात्तशस्त्रो जपोपवासाभिषवैर्मुनीनां ।। ३.२८ ।।</b><br />
अर्थ: इस योगविद्या से तुम्हारा तेज बहुत बढ़ जायेगा और इस प्रकार अपनी साधना के पथ को दूसरों से छिपा कर, सदा शस्त्रास्त्र धारण कर, स्वाध्याय, उपवास, स्नानादि मुनियों के सदाचरणों का पालन करना।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात मुनियों की तरह तपस्या में रत रहना किन्तु हथियार तब भी धारण किये रहना, इससे तुम्हारी तेजस्विता बहुत बढ़ जायेगी ।<br />
</font><div>
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><b>करिष्यसे यत्र सुदुश्चराणि प्रसत्तये गोत्रभिदस्तपांसि ।<br />शिलोच्चयं चारुशिलोच्चयं तं एष क्षणान्नेष्यति गुह्यकस्त्वां ।। ३.२९ ।।</b><br />
अर्थ: जिस पर्वत पर इन्द्र की प्रसन्नता के लिए तुमको घोर तपस्या करनी है उस पर रमणीय शिखरों से युक्त पर्वत पर तुमको यह यक्ष क्षणभर में पहुंचा देगा ।<br />
</font><div>
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><b>इति ब्रुवाणेन महेन्द्रसूनुं महर्षिणा तेन तिरोबभूवे ।</b><br />
<b>तं राजराजानुचरोऽस्य साक्षात्प्रदेशं आदेशं इवाधितस्थौ ।। ३.३० ।।</b><br />
<br />
</font><div><font size="2">
अर्थ: इस प्रकार की बातें इन्द्रपुत्र अर्जुन से कहकर वे महर्षि वेदव्यास (वहीं) अन्तर्हित हो गए । तदनन्तर कुबेर का सेवक वह यक्ष मानो मुनिवर के प्रत्यक्ष आदेश की भांति, उस अर्जुन के निवास-स्थल पर पहुँच गया ।<br />
<br />
<br />
<b>कृतानतिर्व्याहृतसान्त्ववादे जातस्पृहः पुण्यजनः स जिष्णौ ।<br />इयाय सख्याविव सम्प्रसादं विश्वासयत्याशु सतां हि योगः ।। ३.३१ ।।</b><br />
<span face="sans-serif" style="background-color: white; color: #222222; font-size: 14px;"><br /></span>
अर्थ: उस यक्ष ने(आते ही) प्रणाम किया, तथा प्रिय वचन बोलनेवाले अर्जुन में अनुराग प्रकट करते हुए मित्र की भांति विश्वास प्राप्त किया ।<br />
(क्यों न ऐसा होता) क्योंकि सज्जनों की सङ्गति शीघ्र ही विश्वास पैदा करती है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य है कि यक्ष के आने के साथ ही अर्जुन को प्रणाम किया तथा उनसे अपनी मैत्री मान ली ।<br />
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif" style="background-color: white; color: #222222; font-size: 14px;"></span><span face="sans-serif" style="background-color: white; color: #222222; font-size: 14px;"><br /></span><br />
<br />
<b>अथोष्णभासेव सुमेरुकुञ्जान्विहीयमानानुदयाय तेन ।<br />बृहद्द्युतीन्दुःखकृतात्मलाभं तमः शनैः पाण्डुसुतान्प्रपेदे ।। ३.३२ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: (यक्ष के आने तथा प्रणामादि के) अनन्तर भगवान् भास्कर द्वारा उदय के लिए छोड़े गए परम प्रकाशमान सुमेरु के कुञ्जों कि भांति अर्जुन द्वारा अपने अभ्युदय के लिए छोड़े गए परम तेजस्वी पाण्डुपुत्र युधिष्ठिर आदि को, दुःख के साथ अपना प्रसार प्राप्त करनेवाले अन्धकार ने धीरे धीरे व्याप्त कर लिया ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> जिस प्रकार सूर्य उदय के लिए जब सुमेरु के कुञ्जोंको छोड़ देता है तो उन्हें अन्धकार घेर लेता है उसी प्रकार अपने अभ्युदय के लिए जब अर्जुन ने पाण्डवों को छोड़ दिया तो उन्हें शोकान्धकार ने घेर लिया ।<br />
श्लेषानुप्राणित उपमा अलङ्कार<br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span>
<br />
<b>असंशयालोचितकार्यनुन्नः प्रेम्णा समानीय विभज्यमानः ।<br />तुल्याद्विभागादिव तन्मनोभिर्दुःखातिभारोऽपि लघुः स मेने ।। ३.३३ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: बिना सन्देह के सम्यक विचार किये गए भविष्य के कार्यक्रमों के कारण दूर किये गए तथा पारस्परिक स्नेह से विभक्त दुःख का वह अत्यन्त भारी बोझा भी युधिष्ठिर आदि चारों भाइयों के चित्तों से मानो बराबर-बराबर बंटकर हल्का मान लिया गया ।<br />
<br />
टिप्पणी: अर्थात चारों भाइयों ने पारस्परिक स्नेह से अर्जुन के वियोगजनित शोक के भार को काम करके भविष्य के कार्यक्रमों पर विचार किया ।<br />
हेतूत्प्रेक्षा अलङ्कार<br />
</font><div>
<font size="2"><br /></font></div>
<div>
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><b>धैर्येण विश्वास्यतया महर्षेस्तीव्रादरातिप्रभवाच्च मन्योः ।<br />वीर्यं च विद्वत्सु सुते मघोनः स तेषु न स्थानं अवाप शोकः ।। ३.३४ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: अपने स्वाभाविक धैर्य से, इस कार्य के प्रवर्त्तक महर्षि वेदव्यास कि बातों में अडिग विश्वास करने के कारण तथा दुर्योधन आदि शत्रुओं द्वारा उत्पन्न होने वाले तीव्र क्रोध के कारण इन्द्रपुत्र अर्जुन के पराक्रम को जाननेवाले उन युधिष्ठिर आदि पाण्डवों को वह शोक आक्रान्त नहीं कर सका ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात युधिष्ठिर आदि चरों पंडाओं को अर्जुन के वियोग का दुःख इन उपर्युक्त कारणों से अधिक नहीं सता सका ।<br />
हेतु अलङ्कार<br />
<br />
<br />
<b>तान्भूरिधाम्नश्चतुरोऽपि दूरं विहाय यामानिव वासरस्य ।<br />एकौघभूतं तदशर्म कृष्णां विभावरीं ध्वान्तं इव प्रपेदे ।। ३.३५ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: उस अर्जुन वियोगजनित शोक ने उन चारों परम तेजस्वी युधिष्ठिर प्रभृति पाण्डवों को, परम प्रकाशमान दिन के चारों प्रहरों के तरह दूर से छोड़ कर, एकराशि होकर कृष्णपक्ष की रात्रि के अन्धकार की तरह द्रौपदी को घेर लिया ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> जिस प्रकार से अन्धकार दिन के चारों प्रहरों को छोड़कर कृष्णपक्ष की रात्रि को ही घेरता है उसी प्रकार से अर्जुन के वियोग का वह शोक चारों पाण्डवों को छोड़कर द्रौपदी पर छा गया ।<br />
उपमा अलङ्कार<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><b>तुषारलेखाकुलितोत्पलाभे पर्यश्रुणी मङ्गलभङ्गभीरुः ।<br />अगूढभावापि विलोकने सा न लोचने मीलयितुं विषेहे ।। ३.३६ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: द्रौपदी यद्यपि अर्जुन को देखने के लिए स्पष्ट रूप में इच्छुक थी तथापि अमङ्गल के भय से वह हिमकण से युक्त कमल के समान, आंसुओं से भरे हुए अपने नेत्रों को मूंदने में समर्थ न हो सकी ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्जुन के वियोग की गहरी व्यथा से द्रौपदी की आँखों में आंसू भरे हुए थे, जिससे वह ठीक तरह से अर्जुन को देख नहीं पाती थी । और चाहती थी ह्रदय भर कर देखना, किन्तु ऐसा तब तक नहीं हो सकता था जब तक नेत्र आंसुओं से स्वच्छ न हो । यदि वह आंसू गिराती तो अमङ्गल होता, क्योंकि यात्रा के समय स्त्री के आंसू अपशकुन के सूचक होते हैं, अतः वह जैसी की तैसी रही । उस समय उसके नेत्र हिमकण से युक्त कमल पात्र के समान सुशोभित हो रहे थे ।<br />
उपमा और काव्यलिङ्ग अलङ्कार<br />
<br />
<br />
<b>अकृत्रिमप्रेमरसाभिरामं रामार्पितं दृष्टिविलोभि दृष्टं ।<br />मनःप्रसादाञ्जलिना निकामं जग्राह पाथेयं इवेन्द्रसूनुः ।। ३.३७ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: इन्द्रपुत्र ने सहज प्रेमरस से मनोहर, पत्नी द्वारा समर्पित, दृष्टी को लुभानेवाले उसके अवलोकन को अपने प्रसन्न मनरूपी अञ्जलि से यथेष्ट रूप से ग्रहण किया ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> जिस प्रकार से कोई पथिक सहज प्रेम से अपनी प्रियतमा द्वारा दिए गए मधुर पाथेय को अञ्जलि में ग्रहण करता है, उसी प्रकार से सहज स्नेह से मनोहर नेत्रानन्ददायी द्रौपदी के दर्शन को अर्जुन ने अञ्जलि के समान अपने प्रसन्न मन से ग्रहण किया ।<br />
उपमा अलङ्कार<br />
<br />
</font><div>
<font size="2"><b>धैर्यावसादेन हृतप्रसादा वन्यद्विपेनेव निदाघसिन्धुः ।<br />निरुद्धबाष्पोदयसन्नकण्ठं उवाच कृच्छ्रादिति राजपुत्री ।। ३.३८ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: जङ्गली हाथी द्वारा गंदली की गयी ग्रीष्म की नदी की भांति, धैर्य के छूटने से उदास राजपुत्री, वाष्प के रुक जाने से गदगद कण्ठ द्वारा बड़ी कठिनाई से यह बोली ।<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<b>मग्नां द्विषच्छद्मनि पङ्कभूते सम्भवानां भूतिं इवोद्धरिष्यन् ।<br />आधिद्विषां आ तपसां प्रसिद्धेरस्मद्विना मा भृशं उन्मनीभूः ।। ३.३९ ।।</b></font></div>
<div>
<font size="2"><b><br /></b><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;">अर्थ: कीचड के समान शत्रुओं के कपट-व्यवहार में डूबी हम सब की सम्पत्ति के योग्यतम उद्धारकर्ता तुम ही हो, अतः मन की व्यथा को दूर करनेवाली साधना की सफलता-पर्यन्त तुम हम लोगों के बिना अत्यन्त व्यथित मत होना ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif"><span style="font-size: 14px;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> शत्रु के कपट से नष्ट हम सब की योग्यता को तुम ही पहले जैसी बना सकते हो । अतः जब तक तपस्या का फल न मिल जाय तब तक तुम्हें अत्यन्त उदास या व्यथित नहीं होना चाहिए ।</span></span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;">उपमा अलङ्कार</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span>
<br />
<b>यशोऽधिगन्तुं सुखलिप्सया वा मनुष्यसंख्यां अतिवर्तितुं वा ।<br />निरुत्सुकानां अभियोग्गभाजां समुत्सुकेवाङ्कं उपैति सिद्धिः ।। ३.४० ।।</b><br />
<br />
</font><div><font size="2">
अर्थ: उज्जवल कीर्ति पाने के लिए, सुख प्राप्ति के लिए अथवा साधारण मनुष्यों से ऊपर उठकर कोई असाधारण काम करने के लिए उद्यत होनेवाले एवं कभी अनुत्साहित न होनेवाले लोगों को अनुरक्ता स्त्री की भांति सफलता स्वयमेव प्राप्त होती है ।</font></div>
<div>
<font size="2"><br /></font></div>
<div>
<font size="2"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> जिस प्रकार प्रेमी में अनुरक्त रमणी उसके अंक में स्वयमेव आ बैठती है उसी प्रकार सफलता भी उस मनुष्य के समीप स्वयमेव आती है जो उपर्युक्त प्रकार से कठिन से कठिन कार्य करने के लिए सदैव उद्यत रहते हैं ।</font></div>
<div><font size="2">
उपमा अलङ्कार </font></div>
<font size="2"><br />
<span style="color: #b45f06; font-size: x-small;">*नीचे के चारों श्लोकों में द्रौपदी शत्रुओं द्वारा किये गए अपमान का स्मरण दिलाते हुए तपस्या की आवश्यकता दिखाकर अर्जुन के क्रोध को भड़काती है । इन चारों श्लोकों का कर्ता और क्रियापद एक ही में है ।</span><br />
<b>लोकं विधात्रा विहितस्य गोप्तुं क्षत्त्रस्य मुष्णन्वसु जैत्रं ओजः ।<br />तेजस्विताया विजयैकवृत्तेर्निघ्नन्प्रियं प्राणं इवाभिमानं ।। ३.४१ ।।</b><br />
<b><br />व्रीडानतैराप्तजनोपनीतः संशय्य कृच्छ्रेण नृपैः प्रपन्नः ।<br />वितानभूतं विततं पृथिव्यां यशः समूहन्निव दिग्विकीर्णं ।। ३.४२ ।।<br /><br />वीर्यावदानेषु कृतावमर्षस्तन्वन्नभूतां इव सम्प्रतीतिं ।<br />कुर्वन्प्रयामक्षयं आयतीनां अर्कत्विषां अह्न इवावशेषः ।। ३.४३ ।।<br /><br />प्रसह्य योऽस्मासु परैः प्रयुक्तः स्मर्तुं न शक्यः किं उताधिकर्तुं ।<br />नवीकरिष्यत्युपशुष्यदार्द्रः स त्वद्विना मे हृदयं निकारः ।। ३.४४ ।।</b><span face="sans-serif" style="background-color: white; color: #222222; font-size: 14px;"><br /></span><br />
अर्थ: ब्रह्मा द्वारा लोक-रक्षा के निमित्त बनाये गए क्षत्रियों के विजयशील तेजरूपी धन का अपहरण करता हुआ, एकमात्र विजय-प्राप्ति ही जिनकी वृत्ति है, ऐसे तेजस्वियों के प्रिय प्राणों की भांति अभिमान को खण्डित करता हुआ, परिचित लोगों द्वारा कहे जाने पर सन्देहयुक्त किन्तु लज्जा से नीचे मुख किये हुए राजाओं द्वारा बड़ी कठिनाई से कहे जाने पर किसी प्रकार विश्वास योग्य पृथ्वी पर सभी दिशाओं में फैले हुए हमारे यश को मानो संकुचित सा करता हुआ, पहले के पराक्रमपूर्ण कार्यों को करने के कारण प्राप्त प्रसिद्धि को मानो झूठा-सा सिद्ध करता हुआ, दिन के चौथे पहर द्वारा सूर्य की कान्ति के समान भविष्य की प्रतिष्ठा को नष्ट करता हुआ, शत्रुओं द्वारा हम पर हठपूर्वक किया गया, जो स्मरण करने योग्य भी नहीं हो, उसके अनुभव की बात क्या कही जाय, वही मेरा केशाकर्षण रूप अपमान तुम्हारे न रहने पर ताजा(गीला) होकर, तुम्हारी विरह-गाथा में सूखते हुए मेरे ह्रदय को फिर गीला कर देगा ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> चारों श्लोकों में दिए गए सभी विशेषण 'विकार' शब्द के लिए ही हैं । द्रौपदी अर्जुन के क्रोध को उद्दीप्त करने के लिए ही इस प्रकार की बातें कह रही है । प्रथम श्लोक का तात्पर्य यह है कि तेजस्वी पुरुष की मानहानि ही उनकी मृत्यु के समान है । इसमें उपमा अलङ्कार है । द्वितीय श्लोक का तात्पर्य है कि शत्रुओं से पराजित लोग कभी यश के भागी नहीं होते । इसमें काव्यलिङ्ग और उत्प्रेक्षा अलङ्कार है। तृतीय श्लोक का तात्पर्य यह है कि शत्रुओं द्वारा अपमानित व्यक्ति को चिरकाल तक कहीं प्रतिष्ठा नहीं प्राप्त होती । इसमें उत्प्रेक्षा और उपमा की ससृष्टि है । चतुर्थ श्लोक का तात्पर्य है कि मेरा वह अपमान अब तुम्हारे यहाँ न रहने पर मुझे और भी सताएगा । इसमें समासोक्ति अलङ्कार है ।<br />
<br />
<b>प्राप्तोऽभिमानव्यसनादसह्यं दन्तीव दन्तव्यसनाद्विकारं ।</b><br />
<b>द्विषत्प्रतापान्तरितोरुतेजाः शरद्घनाकीर्ण इवादिरह्नः ।। ३.४५ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: अभिमान अर्थात अपनी मान-मर्यादा के नष्ट हो जाने से (इस समय) आप दांतों के टूट जाने से कुरूप हाथी कि भांति असह्य कुरूपता को प्राप्त हो गए हैं । शत्रुओं के प्रताप से आप का तेज मलिन हो गया है अतः आप शरद ऋतु के मेघों से छिपे हुए प्रभात कि भांति दिखाई पड़ रहे हैं ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात शत्रुओं के प्रताप से आप का तेज बिलकुल नष्ट हो गया है । दन्तविहीन हाथी के समान मानमर्यादाविहीन आप का जीवन कृरूप हो गया है । उपमा अलङ्कार<br />
<br />
<br />
<b>सव्रीडमन्दैरिव निष्क्रियत्वान्नात्यर्थं अस्त्रैरवभासमानः ।<br />यशःक्षयक्षीणजलार्णवाभस्त्वं अन्यं आकारं इवाभिपन्नः ।। ३.४६ ।।</b><br />
<br />
<b>अर्थ:</b> उपयोग में न आने के कारण मानो सञ्चित एवं कुटिल अस्त्रों से (इस समय आप) अत्यन्त शोभायमान नहीं हो रहे हैं, प्रत्युत यश के नष्ट होने से जलहीन समुद्र के समान आप मानो किसी भिन्न ही आकृति को प्राप्त हो गए हैं ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> उपमा एवं उत्प्रेक्षा अलङ्कार<br />
<br />
<b>दुःशासनामर्षरजोविकीर्णैरेभिर्विनार्थैरिव भाग्यनाथैः ।<br />केशैः कदर्थीकृतवीर्यसारः कच्चित्स एवासि धनंजयस्त्वं ।। ३.४७ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: दुःशासन के आकर्षण रूप धूलि से धूसरित, मानो असहायों के समान भाग्य के भरोसे रहने वाले इन मेरे केशों से, जिनके बल और पराक्रम का तिरस्कार हो चुका है, तुम क्या वही अर्जुन हो ?<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात यदि तुम वही अर्जुन हो तो मुझे भरोसा है कि तुम अब हमारी वैसी उपेक्षा न करोगे और इन्हें फिर पूर्ववत ससम्माननीय कर दोगे ।<br />
उत्प्रेक्षा अलङ्कार <span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><br />
<br />
<b>स क्षत्त्रियस्त्राणसहः सतां यस्तत्कार्मुकं कर्मसु यस्य शक्तिः ।<br />वहन्द्वयीं यद्यफलेऽर्थजाते करोत्यसंस्कारहतां इवोक्तिं ।। ३.४८ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: जो सत्पुरुषों कि रक्षा करने में समर्थ है, वही क्षत्रिय है । जिसमें कर्म करने अर्थात रणक्षेत्र में शक्ति दिखने कि क्षमता है उसी को कार्मुक अर्थात धनुष कहते हैं । ऐसी स्थिति में इन दोनों शब्दों को (मण्डप और कुशल शब्दों के समान अवयवार्थ शून्य) केवल जातिमात्र में प्रवृत्ति करने वाला मनुष्य इन्हें मानो अव्युत्पत्ति दूषित अर्थात व्याकरण विरुद्ध वाणी के समान (प्रयोग) करता है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> व्याकरण प्रक्रिया कि रीति से प्रकृत्यर्थ और प्रत्ययार्थ मिलकर क्षत्रिय और कार्मुक शब्द से ऐसी ही अर्थ कि प्रतीति कराते हैं । यदि कोई क्षत्रिय सत्पुरुषों कि रक्षा करने में असमर्थ है तथा धनुष रणभूमि में पराक्रम दिखाने वाला नहीं है तो वे केवल जातिबोधक शब्द हैं जैसे 'मण्डप' और 'कुशल' शब्द हैं । तुम यदि यथार्थ में क्षत्रिय शब्द के अधिकारी हो और तुम्हारा धनुष शक्तिशाली है तो मेरे अपमान का बदला चुकाकर अपना कलङ्क दूर करो ।<br />
उत्प्रेक्षा अलङ्कार<br />
<br />
</font><div>
<b><font size="2">वीतौजसः सन्निधिमात्रशेषा भवत्कृतां भूतिं अपेक्षमाणाः ।<br />समानदुःखा इव नस्त्वदीयाः सरूपतां पार्थ गुणा भजन्ते ।। ३.४९ ।।</font></b></div>
<div>
<font size="2"><br />
</font><div><font size="2">
अर्थ: हे अर्जुन ! कान्तिविहीन, अस्तित्वमात्र शेष, आपके द्वारा संभव अभ्युदय की अपेक्षा रखने वाले आपके शौर्यादि गुण मानो समान दुःखभोगी के समान हमारी समानधर्मिता प्राप्त कर रहे हैं ।</font></div>
<div>
<font size="2"><br /></font></div>
<div>
<font size="2"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> जैसे हम लोग कान्तिविहीन हैं, प्राणमात्र धारण किये हैं और आपके अभ्युदयाकांक्षी हैं, वैसे ही आपके शौर्यादि गुण भी इस समय हो गए हैं ।</font></div>
<div><font size="2">
उत्प्रेक्षा से अनुप्राणित उपमा अलङ्कार</font></div>
<font size="2"><br />
<b>आक्षिप्यमाणं रिपुभिः प्रमादान्नागैरिवालूनसटं मृगेन्द्रं ।<br />त्वां धूरियं योग्यतयाधिरूढा दीप्त्या दिनश्रीरिव तिग्मरश्मिं ।। ३.५० ।।</b><br />
<br />
अर्थ: हाथियों द्वारा जिसके गर्दन के बाल नोच लिए गए हैं - ऐसे सिंह की भांति, अपनी असावधानी के कारण शत्रुओं द्वारा अपमानित आपके ऊपर, योग्य समझकर यह कार्यभार उसी प्रकार से आरूढ़ हो रहा है ।<br />
<br />
<b>करोति योऽशेषजनातिरिक्तां सम्भावनां अर्थवतीं क्रियाभिः ।<br />संसत्सु जाते पुरुषाधिकारे न पूरणी तं समुपैति संख्या ।। ३.५१ ।।</b><br />
अर्थ: जो मनुष्य सर्व-साधारण से ऊपर उठकर अधिक योग्यता वाले कार्य को अपने प्रयत्नों से सफल करता है, उसी को सभा में सर्वश्रेष्ठ अथवा सर्वश्रेष्ठ पुरुष माना जाता है ।<br />
<br />
<b>प्रियेषु यैः पार्थ विनोपपत्तेर्विचिन्त्यमानैः क्लमं एति चेतः ।<br />तव प्रयातस्य जयाय तेषां क्रियादघानां मघवा विघातं ।। ३.५२ ।।</b><br />
<br />
</font><div><font size="2">
अर्थ: हे अर्जुन ! प्रियजनों के विषय में जो दुःख बिना किसी कारन के ही, चिन्तन किये जाने मात्र से तुम्हारे चित्त को खिन्न कर देने वाले हैं, विजयार्थ प्रस्थित तुम्हारे उन (सब) दुखों को देवराज इन्द्र नष्ट करें ।</font></div>
<div>
<font size="2"><br /></font></div>
<div><font size="2">
टिप्पणी: द्रौपदी के कथन का तात्पर्य यह है कि हम लोगों के कल्याण के सम्बन्ध में आपके चित्त में जो आशंकाएं हों वह इन्द्र कि कृपा से दूर हो जाएँ, अर्थात आप वहां पहुंचकर हम सब कि चिन्ता न करें, अन्यथा आपकी विजयअभिलषा में बाधा पहुंचेगी ।<br />
<br />
<b>मा गाश्चिरायैकचरः प्रमादं वसन्नसम्बाधशिवेऽपि देशे ।<br />मात्सर्यरागोपहतात्मनां हि स्खलन्ति साधुष्वपि मानसानि ।। ३.५३ ।।</b><br />
<b><br /></b>अर्थ: (उस) निर्जन और विघ्नबाधा से रहित स्थान में भी चिरकाल तक अकेले निवास करते हुए तुम कोई असावधानी मत करना, क्योंकि रागद्वेष से दूषित स्वभाव वाले व्यक्तियों के चित्त महापुरुषों के सम्बन्ध में भी विकृत हो जाते हैं ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> रागद्वेष से दूषित लोग महापुरुषों के सम्बन्ध में भी जब विकृत धारणाएं बना लेते हैं तो उस निर्जन देश में यद्यपि कोई विघ्नबाधा नहीं आएगी तथापि असहाय होने के कारण कोई असावधानी मत करना, क्योंकि अकेले में चित्त विक्षुब्ध होना स्वाभाविक है ।<br />
<br />
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार<br />
</font><div>
<font size="2"><br /></font></div>
<div>
<b><font size="2">तदाशु कुर्वन्वचनं महर्षेर्मनोरथान्नः सफलीकुरुष्व ।</font></b></div>
<font size="2"><b>प्रत्यागतं त्वास्मि कृतार्थं एव स्तनोपपीडं परिरब्धुकामा ।। ३.५४ ।।</b><br />
<br />
</font><div><font size="2">
अर्थ: इसलिए शीघ्र ही महर्षि वेदव्यास जी के आदेश का पालन करते हुए तुम हम लोगों के मनोरथ को सफल बनाओ । कार्य पूरा करके वापस लौट कर आने पर ही तुम्हें गाढ़ा आलिङ्गन करने की मैं अभिलाषी हूँ ।</font></div>
<div>
<font size="2"><br /></font></div>
<div>
<font size="2"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> कार्यसिद्धि के पूर्व इस समय तुम्हें मेरा आलिङ्गन करना भी उचित नहीं है ।</font></div>
<div><font size="2">
अर्थापत्ति अलङ्कार </font></div>
<div>
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><b>उदीरितां तां इति याज्ञसेन्या नवीकृतोद्ग्राहितविप्रकारां ।<br />आसाद्य वाचं स भृशं दिदीपे काष्ठां उदीचीं इव तिग्मरश्मिः ।। ३.५५ ।।</b><br />
<br />
</font><div><font size="2">
अर्थ: राजा यज्ञसेन की कन्या द्रौपदी की इस प्रकार कही गयी उन बातों को सुनकर, जिसने शत्रुओं के अपकार को फिर से नूतन रूप देकर ह्रदय में जमा दिया, अर्जुन उत्तर दिशा में प्राप्त सूर्य की तरह अत्यन्त जल उठे ।</font></div>
<div>
<font size="2"><br /></font></div>
<div><font size="2">
टिप्पणी: उत्तर दिशा (उत्तरायण) में पहुँच कर सूर्य जिस प्रकार से अत्यन्त दीप्त हो जाते हैं, उसी प्रकार से द्रौपदी की बातें सुनकर अर्जुन अत्यन्त क्रोध से जल उठे । </font></div>
<div><font size="2">
पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग और उपमा अलङ्कार </font></div>
<div>
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><b>अथाभिपश्यन्निव विद्विषः पुरः पुरोधसारोपितहेतिसंहतिः ।<br />बभार रम्योऽपि वपुः स भीषणं गतः क्रियां मन्त्र इवाभिचारिकीं ।। ३.५६ ।।</b><br />
अर्थ: तदनन्तर शत्रुओं को सामने उपस्थित की तरह देखते हुए, पुरोहित (धौम्य) द्वारा मंत्रोच्चारण सहित उपस्थापित शस्त्रों से युक्त अर्जुन ने रम्याकृति होते हुए भी दूसरों के मारण अनुष्ठान में प्रयुक्त मन्त्र के समान, अति भयङ्कर स्वरुप धारण कर लिया ।<br />
<br />
<b>अविलङ्घ्यविकर्षणं परैः प्रथितज्यारवकर्म कार्मुकं ।<br />अगतावरिदृष्टिगोचरं शितनिस्त्रिंशयुजौ महेषुधी ।। ३.५७ ।।<br /><br />यशसेव तिरोदधन्मुहुर्महसा गोत्रभिदायुधक्षतीः ।<br />कवचं च सरत्नं उद्वहञ्ज्वलितज्योतिरिवान्तरं दिवः ।। ३.५८ ।।<br /><br />अकलाधिपभृत्यदर्शितं शिवं उर्वीधरवर्त्म सम्प्रयान् ।<br />हृदयानि समाविवेश स क्षणं उद्बाष्पदृशां तपोभृतां ।। ३.५९ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: शत्रुओं द्वारा जिसका खींचा जाना कभी व्यर्थ नहीं होता, जिसकी प्रत्यंचा को खींचने का कार्य प्रसिद्ध है । (ऐसे गाण्डीव धनुष तथा) जो शत्रु की दृष्टी में नहीं आते थे तथा तेज़ तलवार से युक्त थे (ऐसे दो तरकस धारण किये हुए) देवराज इन्द्र के वज्र-प्रहार के चिन्हों को मानो अपने तेज से मूर्तिमान यश की भांति बारम्बार आच्छादित करनेवाले तथा रक्तयुक्त होने के कारण मानो उज्जवल नक्षत्रों से युक्त आकाश के मध्य भाग की भांति सुशोभित कवच को धारण किये हुए, अर्जुन ने अल्कापति कुबेर के सेवक उस यक्ष द्वारा दिखाए गए निर्बाध हिमवान पर्वत के मार्ग पर जाते हुए क्षणभर के लिए, वियोग से दुखित होने के कारण अश्रु से भरे नेत्रों वाले उन (द्वैतवन निवासी) तपस्वियों के चित्त में प्रवेश कर लिया ।(अर्थात उनको अपने वियोग से खिन्न कर दिया)<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अपने उत्कृष्ट गाण्डीव धनुष, तेज़ तलवार से युक्त दो तरकस तथा रत्नजड़ित देदीप्यमान कवच को धारण कर अर्जुन हिमालय की ओर यक्ष के साथ चल पड़े। उस समय उन्हें इस प्रकार जाते देखकर द्वैतवानवासी तपस्वियों का मन खिन्न हो गया।<br />
द्वितीय श्लोक में उपमा और उत्प्रेक्षा अलङ्कार<br />
तृतीय श्लोक में पदार्थहेतुक काव्यलिङ्ग अलङ्कार<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><b>अनुजगुरथ दिव्यं दुन्दुभिध्वानं आशाः सुरकुसुमनिपातैर्व्य्ॐनि लक्ष्मीर्वितेने ।</b><br />
<b>प्रियं इव कथयिष्यन्नालिलिङ्ग स्फुरन्तीं भुवं अनिभृतवेलावीचिबाहुः पयोधिः ।। ३.६० ।।</b><br />
अर्थ: तदनन्तर (तपस्या के लिए अर्जुन के चले जाने के पश्चात) दिशाएं आकाश में दिव्या दुदुम्भियों की आवाज़ करने लगीं, पारिजात आदि देव-कुसुमों की वृष्टि से आकाश-मण्डल में विचित्र शोभा हो गयी और तट पर पहुंचनेवाली चञ्चल- तरङ्गरुपी भुजाओं से समुद्र भी मानो हर्षातिरेक से भरी पृथ्वी को प्रिय सन्देश सुनाते हुए की भांति आलिङ्गन करने लगा ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात सर्वत्र शुभ-शकुन होने लगे । दिशा, आकाश, समुद्र और पृथ्वी - सब आनन्द से भर गए । समुद्र पृथ्वी को वह शुभ सन्देश सुनाने लगा कि अब शीघ्र ही तुम्हारा असह्य भार उतरने वाला है क्योंकि अन्यायियों के विनाशार्थ ही अर्जुन तपस्या करने जा रहे हैं ।<br />
उत्प्रेक्षा और अतिशयोक्ति<br />
<br />
<b></b><br />
</font><div style="text-align: center;">
<font size="2"><span style="color: #b45f06;"><b>।</b><b>। </b><b><b>इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये तृतीयः सर्गः ।</b></b><b>।</b></span><br />
<b><span style="color: #b45f06;">==============================================</span></b><br />
<br />
<br />
<br />
</font><div style="text-align: start;">
<font size="2"><b></b><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><b><font size="2">ततः स कूजत्कलहंसमेखलां सपाकसस्याहितपाण्डुतागुणां ।</font></b></b></div>
<font size="2"><b>
</b>
<br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><b><font size="2">उपाससादोपजनं जनप्रियः प्रियां इवासादितयौवनां भुवं ।। ४.१ ।।</font></b></b></div>
<font size="2"><b>
</b>
<br />
</font><div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<div style="text-align: left;"><font size="2">
अर्थ: तदनन्तर सर्वजनप्रिय अर्जुन मधुर ध्वनि करती हुई मेखला के समान राजहंसों को धारण करनेवाली तथा पके हुए अन्नों से पीले वर्णों वाली पृथ्वी के पास, (मधुर ध्वनि करने वाले राजहंसों के समान मेखला धारण करने वाली) युवावस्था प्राप्त अपनी प्रियतमा की भांति जन समीप में (सखियों के समक्ष) पहुँच गए ।</font></div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> जिस प्रकार कोई नायक उसकी सखियों के समक्ष अपनी युवती प्रियतमा के पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार लोकप्रिय अर्जुन उस भूमि में पहुँच गए, जहाँ कृषकों का निवास था ।</font></div>
<div style="text-align: left;"><font size="2">
उपमा अलङ्कार<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span></font></div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><font size="2">विनम्रशालिप्रसवौघशालिनीरपेतपङ्काः ससरोरुहाम्भसः ।</font></b></div>
<font size="2"><b></b><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><b><font size="2">ननन्द पश्यन्नुपसीम स स्थलीरुपायनीभूतशरद्गुणश्रियः ।। ४.२ ।।</font></b></b></div>
<font size="2"><b>
</b>
<br />
</font><div style="text-align: left;"><font size="2">
अर्थ: अर्जुन नीचे की ओर झुकी हुई धान की बालों से सुशोभित, कमलों से युक्त जलोंवाली ऐसी सहज मनोहर ग्राम-सीमा की भूमि को देखते हुए बहुत हर्षित हुए, जिसमें शरद ऋतु की सम्पूर्ण समृद्धियाँ उन्हें भेंट रूप में अर्पित कर दी गयी थी ।</font></div>
</div>
<div style="text-align: start;">
<font size="2"><br />
</font><div style="text-align: left;">
<span style="color: #b45f06; font-weight: 700;"><font size="2"><br /></font></span></div>
<font size="2"><b></b><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><font size="2"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> परिणाम अलङ्कार</font></b></div>
<b><font size="2">
</font></b></div>
<div style="text-align: start;">
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<div style="text-align: left;">
<b><font size="2">निरीक्ष्यमाणा इव विस्मयाकुलैः पयोभिरुन्मीलितपद्मलोचनैः ।</font></b></div>
<div style="text-align: left;">
<b><font size="2">हृतप्रियादृष्टिविलासविभ्रमा मनोऽस्य जह्रुः शफरीविवृत्तयः ।। ४.३ ।।</font></b></div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<div style="text-align: left;"><font size="2">
अर्थ: आश्चर्य रास से भरे, खिले हुए कमल रुपी नेत्रों के द्वारा मानो जालों द्वारा देखि जाती हुई तथा प्रियतमा रमणियों के दृष्टी विलास की चञ्चलता को हरण करने वाली शफरी(सहरी) मछलियों की उछाल-कूद की चेष्टाओं ने अर्जुन के मन को हर लिया ।</font></div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><span style="color: #b45f06;"><b>टिप्पणी:</b></span> मार्ग के सरोवरों में कमल खिले थे और सहरी मछलियां उछल-कूद कर रही थीं, जिन्हें देखकर अर्जुन का मन मुग्ध हो गया ।</font></div>
<div style="text-align: left;"><font size="2">
रूपक अलङ्कार</font></div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><font size="2">तुतोष पश्यन्कलमस्य स अधिकं सवारिजे वारिणि रामणीयकं ।</font></b></div>
<font size="2"><b></b><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><b><font size="2">सुदुर्लभे नार्हति कोऽभिनन्दितुं प्रकर्षलक्ष्मीं अनुरूपसंगमे ।। ४.४ ।।</font></b></b></div>
<font size="2"><b>
</b>
<br />
</font><div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<div style="text-align: left;"><font size="2">
अर्थ: अर्जुन कमलों से सुशोभित जल में जड़हन धान की मनोहर शोभा को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुए । क्यों न होते ? अत्यन्त दुर्लभ और योग्य व्यक्तियों के समागम की उत्कृष्ट शोभा का अभिनन्दन कौन नहीं करना चाहता ?</font></div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात ऐसे सुन्दर समागम की शोभा का सभी अभिनन्दन करते हैं ।</font></div>
<div style="text-align: left;"><font size="2">
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार</font></div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span>
</font></div>
<font size="2"><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><font size="2">नुनोद तस्य स्थलपद्मिनीगतं वितर्कं आविष्कृतफेनसंतति ।</font></b></div>
<font size="2"><b></b><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><b><font size="2">अवाप्तकिञ्जल्कविभेदं उच्चकैर्विवृत्तपाठीनपराहतं पयः ।। ४.५ ।।</font></b></b></div>
<font size="2"><b>
</b>
<br />
</font><div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<div>
<div style="text-align: left;"><font size="2">
अर्थ: ऊंचाई तक उछलती हुई रोहू नामक मछलियों से ताड़ित होने के कारण फेन समूहों को प्रकट करनेवाले तथा सटे हुए पद्मों के केसर समूहों से सुशोभित जल ने अर्जुन के (कमलों में) गुलाब सम्बन्धी शंका को निवृत्त कर दिया ।</font></div>
</div>
<div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
</div>
<div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> रोहू मछलियां जब ऊंचाई तक कूदती थी, तब जल के ऊपर तैरनेवाली पद्म-केसर दूर हट जाती थी तथा निर्मल जल में फेनों के समूह भी दिखाई पड़ते लगते थे, इससे कमलों के पुष्पों में अर्जुन को गुलाब के पुष्प होने की जो शंका हो रही थी, वह निवृत्त हो गयी।</font></div>
</div>
<div>
<div style="text-align: left;"><font size="2">
निश्चयोत्तर सन्देह अलङ्कार</font></div>
</div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><font size="2">कृतोर्मिरेखं शिथिलत्वं आयता शनैः शनैः शान्तरयेण वारिणा ।</font></b></div>
<font size="2"><b></b><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><b><font size="2">निरीक्ष्य रेमे स समुद्रयोषितां तरङ्गितक्ष्ॐअविपाण्डु सैकतं ।। ४.६ ।।</font></b></b></div>
<font size="2"><b>
</b>
<br />
</font><div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<div>
<div style="text-align: left;"><font size="2">
अर्थ: अर्जुन धीरे धीरे क्षीणोन्मुख एवं शान्त-वेग जल से निर्मित लहरों के रेखाओं से सुशोभित समुद्रपत्नी नदियों के भगियुक्त (चुन्नटदार) रेशमी साड़ी की भांति शुभ्र बालुकामय तटों को देखकर बहुत प्रसन्न हुए ।</font></div>
</div>
<div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
</div>
<div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> नदियों के जल ज्यों ज्यों काम होने लगते हैं, त्यों त्यों उनके बालुकामय तट पर शान्त लहरों के निशान साड़ियों की चुन्नटों की भांति सुशोभित होते जाते हैं । कवी उसी की उपमा स्त्री की उस साड़ी से कर रहा है जो चुनियाई गयी है ।</font></div>
</div>
<div>
<div style="text-align: left;"><font size="2">
उपमा अलङ्कार </font></div>
<font size="2"><br />
</font><div style="text-align: start;">
<font size="2"><span style="color: #b45f06;">[नीचे के तीन श्लोकों में धान की रखवाली करनेवाली स्त्रियों का वर्णन है - ]</span><br />
<br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><font size="2">मनोरमं प्रापितं अन्तरं भ्रुवोरलंकृतं केसररेणुणाणुना ।</font></b></div>
</div>
<div style="text-align: start;">
<div style="text-align: left;">
<b><font size="2">अलक्तताम्राधरपल्लवश्रिया समानयन्तीं इव बन्धुजीवकं ।। ४.७ ।।</font></b></div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><font size="2">नवातपालोहितं आहितं मुहुर्महानिवेशौ परितः पयोधरौ ।</font></b></div>
<font size="2"><b></b><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><b><font size="2">चकासयन्तीं अरविन्दजं रजः परिश्रमाम्भःपुलकेन सर्पता ।। ४.८ ।।</font></b></b></div>
<font size="2"><b>
</b>
<br />
</font><div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><font size="2">कपोलसंश्लेषि विलोचनत्विषा विभूषयन्तीं अवतंसकोत्पलं ।</font></b></div>
<font size="2"><b></b><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><b><font size="2">सुतेन पाण्डोः कलमस्य गोपिकां निरीक्ष्य मेने शरदः कृतार्थता ।। ४.९ ।।</font></b></b></div>
<font size="2"><b>
</b>
<br />
</font><div style="text-align: left;"><font size="2">
अर्थ: महीन केसरों के पराग से अलङ्कृत होने के कारण मनोहर और दोनों भौहों के मध्य में स्थापित बन्धूक पुष्प की मानों जावक के रंग से रंगे हुए अधरपल्लवों की शोभा से तुलना करती हुयी सी, पीन(विशाल) स्तनों के चारों ओर फिर से लगाए गए प्रातः काल की धूप के समान लाल कमल-पराग को चूते हुए परिश्रमजनित पसीनों की बूंदों से अत्यन्त सुशोभित करती हुई तथा कपोलतट पर लगे हुए कान के आभूषण-कमल को अपने नेत्रों की कान्ति से विभूषित करती हुई, जड़हन धान को रखानेवाली रमणियों को देखकर, पाण्डुपुत्र अर्जुन ने शरद ऋतु की कृतार्थता को स्वीकार किया ।</font></div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><span style="color: #b45f06;"><b>टिप्पणी:</b></span> शरद ऋतु के प्राकृतिक उपकरणों से अलङ्कृत रमणियों की सुन्दरता ही उस की सफलता थी ।</font></div>
<div style="text-align: left;"><font size="2">
प्रथम छन्द में उत्प्रेक्षा अलङ्कार</font></div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><font size="2">उपारताः पश्चिमरात्रिगोचरादपारयन्तः पतितुं जवेन गां ।</font></b></div>
<font size="2"><b></b><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><b><font size="2">तं उत्सुकाश्चक्रुरवेक्षणोत्सुकं गवां गणाः प्रस्नुतपीवरौधरसः ।। ४.१० ।।</font></b></b></div>
<font size="2"><b>
</b>
<br />
</font><div>
<div style="text-align: left;"><font size="2">
अर्थ: पिछली रात्रि में चरने के स्थान से लौटी हुई, वेग से भूमि पर दौड़ने में असमर्थ, अत्यन्त मोटे स्तनों से क्षेत्र-क्षरण करनेवाली एवं अपने-अपने बच्चो के लिए उत्कण्ठित गौओं ने अर्जुन को अपने देखने के लिए समुत्सुक कर दिया ।</font></div>
</div>
<div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
</div>
<div>
<div style="text-align: left;"><font size="2">
टिप्पणी: स्वभावोक्ति अलङ्कार </font></div>
</div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><font size="2">परीतं उक्षावजये जयश्रिया नदन्तं उच्चैः क्षतसिन्धुरोधसं ।</font></b></div>
<font size="2"><b></b><br />
</font><div style="text-align: left;">
<b><b><font size="2">ददर्श पुष्टिं दधतं स शारदीं सविग्रहं दर्पं इवाधिपं गवां ।। ४.११ ।।</font></b></b></div>
<font size="2"><b>
</b>
<br />
</font><div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<div style="text-align: left;"><font size="2">
अर्थ: दुसरे (अपने प्रतिद्विन्द्वी) बलवान सांड को जीतकर विजय शोभा समलंकृत, उच्च स्वर में गरजते हुए, नदी तट को (अपने सींगों से) क्षत-विक्षत करते हुए, एवं शरद ऋतु की पुष्टि को धारण करनेवाले (शरद ऋतु की पौष्टिक घासों को चर कर खूब हृष्टपुष्ट) एक सांड को अर्जुन ने मानो मूर्तिमान अभिमान की भांति देखा ।</font></div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><br /></font></div>
<div style="text-align: left;">
<font size="2"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> उत्प्रेक्षा अलङ्कार<br />
<br />
<br />
<br />
<b>विमुच्यमानैरपि तस्य मन्थरं गवां हिमानीविशदैः कदम्बकैः ।<br />शरन्नदीनां पुलिनैः कुतूहलं गलद्दुकूलैर्जघनैरिवादधे ।। ४.१२ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: हिमराशि के समान श्वेत गौओं के समूहों द्वारा धीरे धीरे छोड़े जाते हुए भी शरद ऋतु की नदियों के तटों ने, रमणी के उस जघन प्रदेश के समान अर्जुन के कुतूहल का उत्पादन किया, जिस पर से साड़ी नीचे सरक गयी हो ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> शरद ऋतु के विशेषण का तात्पर्य यह है कि उसी ऋतु में नदियों के तट मनोहर दिखाई पड़ते हैं ।<br />
उपमा अलङ्कार ।<br />
</font><div>
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><b>गतान्पशूनां सहजन्मबन्धुतां गृहाश्रयं प्रेम वनेषु बिभ्रतः ।<br />ददर्श गोपानुपधेनु पाण्डवः कृतानुकारानिव गोभिरार्जवे ।। ४.१३ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: अर्जुन ने पशुओं के साथ सहोदर जैसी बन्धु भावना रखनेवाले, वनों में (भी) घर जैसा प्रेम रखनेवाले तथा सरलता में मानों गौओं का अनुकरण करते हुए गोपों को गौओं के समीप देखा ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> उत्प्रेक्षा से अनुप्राणित स्वभावोक्ति<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">[ नीचे के चार श्लोकों में गोपियों की तुलना नर्तकियों से की गयी है ]</span><br />
<br />
<b>परिभ्रमन्मूर्धजषट्पदाकुलैः स्मितोदयादर्शितदन्तकेसरैः ।<br />मुखैश्चलत्कुण्डलरश्मिरञ्जितैर्नवातपामृष्टसरोजचारुभिः ।। ४.१४ ।।</b><br />
<b><br /></b>
<b>निबद्धनिःश्वासविकम्पिताधरा लता इव प्रस्फुरितैकपल्लवाः ।<br />व्यपोढपार्श्वैरपवर्तितत्रिका विकर्षणैः पाणिविहारहारिभिः ।। ४.१५ ।।<br /><br />व्रजाजिरेष्वम्बुदनादशङ्किनीः शिखण्डिनां उन्मदयत्सु योषितः ।<br />मुहुः प्रणुन्नेषु मथां विवर्तनैर्नदत्सु कुम्भेषु मृदङ्गमन्थरं ।। ४.१६ ।।<br /><br />स मन्थरावल्गितपीवरस्तनीः परिश्रमक्लान्तविलोचनोत्पलाः ।<br />निरीक्षितुं नोपरराम बल्लवीरभिप्रनृत्ता इव वारयोषितः ।। ४.१७ ।।</b><br />
<br />
</font><div><font size="2">
अर्थ: चञ्चल भ्रमरों के समान घुंघराले बालों से सुशोभित, किञ्चित मुस्कुराने से प्रकाशित केसर के समान दांतों से विभूषित, चञ्चल कुण्डलों की कान्तियों से रञ्जित होने के कारण प्रातः कालीन सूर्य की किरणों से स्पर्श किये गए कमल समान सुन्दर मुखों से युक्त, परिश्रम के कारण रुकी हुई श्वासा से कम्पित अधरों के कारण एक एक पल्लव जिनके हिल रहे हों - ऐसी लताओं के समान मनोज्ञ, बगलों के बारम्बार परिवर्तनों तथा (दधिमन्थन के कारण) हाथों के सञ्चालन से मनोहर तथा (मथानी की रस्सियों के खींचने से) चञ्चल नितम्बोवाली, गोष्ठ प्रांगणों में मंथनदण्डों के घुमाने से बारम्बार कम्पित होकर दधि अथवा दुग्ध के कलशों के मृदंगों के समान गंभीर ध्वनि करने के कारण बादलों के गर्जन का भ्रम पैदा करके मयूरियों को उन्मत्त करती हुई, धीरे धीरे चलने वाले पीन (विशाल) स्तनों से युक्त और परिश्रम से मलिन नेत्र-कमलों वाली गोपियों को, नृत्य-कार्य में लगी हुई वेश्याओं की भांति देखते हुए अर्जुन नहीं थके ।</font></div>
<div>
<font size="2"><br /></font></div>
<div>
<font size="2"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> गोपियाँ गोष्ठों में दधि या दूध का मन्थन कर रहीं थी, उस समय उनकी जो शोभा थी वह नर्तकी वेश्याओं के समान ही थी । नृत्य के समय नर्तकियों के अङ्गों की जो जो क्रियाएं होती हैं, वही उस समय गोपियों की भी थी । </font></div>
<div><font size="2">
चारों श्लोकों में उपमा और स्वाभावोक्ति अलङ्कार की ससृष्टि है । तृतीय श्लोक में भ्रांतिमान अलङ्कार ।<br />
<br />
<b>पपात पूर्वां जहतो विजिह्मतां वृषोपभुक्तान्तिकसस्यसम्पदः ।</b><br />
<b>रथाङ्गसीमन्तितसान्द्रकर्दमान्प्रसक्तसम्पातपृथक्कृतान्पथः ।। ४.१८ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: पूर्वकालिक अर्थात वर्षा काल के टेढ़पन को त्याग कर शरद ऋतु में सीधे बने हुए, बैलों द्वारा खाई गयी दोनों ओर के सस्यों(फसलों) की सम्पत्तियों वाले तथा रथों के चक्को के आने-जाने से जिनके गीले कीचड घनीभूत हो गए थे एवं बहुतेरे लोगों के निरन्तर आने-जाने से जो स्पष्ट दिखाई दे रहे थे, ऐसे पथों पर से होते हुए अर्जुन(आगे) चलने लगे ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> वर्षा ऋतु में जगह पानी होने के कारण मार्ग टेढ़े-मेढ़े हो जाते हैं, किन्तु वही शरद ऋतु में पानी के सूख जाने से सीधे बन जाते हैं । मार्गों के दोनों ओर के खेतों के अन्न अथवा घास प्राय पशुओं द्वारा चार ली जाती हैं । गाडी अथवा रथ के चक्कर के आने-जाने से गीले कीचड घनीभूत हो जाते हैं । लोगों के निरन्तर आने-जाने से शरद ऋतु में मार्ग स्पष्ट हो ही जाते हैं ।<br />
स्वभावोक्ति अलङ्कार<br />
<br />
<br />
<b>जनैरुपग्रामं अनिन्द्यकर्मभिर्विविक्तभावेङ्गितभूषणैर्वृताः ।</b><br />
<b>भृशं ददर्शाश्रममण्डपोपमाः सपुष्पहासाः स निवेशवीरुधः ।। ४.१९ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: अर्जुन ने ग्रामों में अनिन्द्य अर्थात प्रशंसनीय कार्य करने वाले विशुद्ध अभिप्राय, चेष्टा तथा आभूषणों से अलङ्कृत ग्राम निवासियों द्वारा अधिष्ठित होने के कारण (द्वैत-वनवासी) मुनियों के आश्रमों के लता-मण्डपों के समान शोभा देने वाली एवं खिले हुए पुष्पों से मानो हास करनेवाली गृहलाताओं को आदरपूर्वक देखा ।<br />
<br />
टिप्पणी: गाँवों में किसानों के घरों के सामने लताएं लगी थी और उनके गुल्मों की छाया में बैठकर वे आनन्दपूर्वक गोष्ठी-मुख का अनुभव करते थे । वे लताएं मुनियों के आश्रमों में बने हुए लता-मण्डपों के समान थी, क्योंकि उनके नीचे बैठनेवाले ग्राम्य-कृषक भी मुनियों के समान ही सीधे-सादे आचार-विचार वाले थे ।<br />
उपमा अलङ्कार ।<br />
<br />
<b>ततः स सम्प्रेक्ष्य शरद्गुणश्रियं शरद्गुणालोकनलोलचक्षुषं ।</b><br />
<b>उवाच यक्षस्तं अचोदितोऽपि गां न हीङ्गितज्ञोऽवसरेऽवसीदति ।। ४.२० ।।</b><br />
<br />
अर्थ: तदनन्तर उस यक्ष ने शरद ऋतु की मनोहारिणी शोभा देखकर, शरद की शोभा को देखने में उत्सुक नेत्रों वाले अर्जुन से बिना उसके कुछ पूछे ही ये बातें कहीं । गूढ़ संकेतों को समझने वाला बोलने का अवसर आने पर चूकता नहीं ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थान्तरन्यास अलङ्कार<br />
<br />
<b>इयं शिवाया नियतेरिवायतिः कृतार्थयन्ती जगतः फलैः क्रियाः ।</b><br />
<b>जयश्रियं पार्थ पृथूकरोतु ते शरत्प्रसन्नाम्बुरनम्बुवारिदा ।। ४.२१ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: हे अर्जुन ! मङ्गलदायिनी भाग्य के फल देनेवाले शुभ अवसर के समान संसार की समस्त क्रियाओं को फलों द्वारा कृतार्थ करती हुई, निर्मल जालों तथा जलहीन बादलों से सुशोभित यह सरद ऋतु तुम्हारी विजयश्री का वर्द्धन करे ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> निर्मल जल तथा जलहीन बादल - ये दोनों विशेषण पृथ्वी और आकाश दोनों की प्रसन्नता के परिचयार्थ हैं ।<br />
उपमा अलङ्कार<br />
<br />
<b>उपैति सस्यं परिणामरम्यता नदीरनौद्धत्यं अपङ्कता महीं ।</b><br />
<b>नवैर्गुणैः सम्प्रति संस्तवस्थिरं तिरोहितं प्रेम घनागमश्रियः ।। ४.२२ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: (इस शरद ऋतु में) अन्न पकने के कारण मनोहर हो जाते हैं, नदियां निर्मल जल एवं स्थिर धारा होने के कारण रमणीय हो जाती हैं, पृथ्वी कीचड रहित हो जाती है । इस प्रकार अब अपने नूतन गुणों से इस शरद ऋतु ने अत्यंत परिचय हो जाने के कारण वर्षाऋतु के सुदृढ़ प्रेम को निरर्थक बना दिया है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात कई महीनों से चलने वाली वर्षा ऋतु के मनोहर गुणों से यद्यपि लोगों का उसके प्रति सुदृढ़ प्रेम हो गया था किन्तु इस शरद ने थोड़े ही दिनों में अपने इन नूतन गुणों से उसे निरर्थक बना दिया । क्योंकि प्रेम उत्कृष्ट गुणों के अधीन होते हैं, परिचय के अधीन नहीं ।<br />
<br />
<b>पतन्ति नास्मिन्विशदाः पतत्त्रिणो धृतेन्द्रचापा न पयोदपङ्क्तयः ।</b><br />
<b>तथापि पुष्णाति नभः श्रियं परां न रम्यं आहार्यं अपेक्षते गुणं ।। ४.२३ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: इस शरद ऋतु में यद्यपि श्वेत पक्षीगण (बगुलों की पंक्तियाँ) नहीं उड़ते और न ही इंद्रधनुष से सुशोभित मेघों की पंक्तियाँ ही उड़ती हैं, तथापि आकाश की शोभा ही निराली रहती है । क्यों न हो, स्वभाव से सुन्दर वस्तु सुन्दर बनने के लिए बाहरी उपकरणों की अपेक्षा नहीं रखती ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थान्तरन्यास अलङ्कार<br />
<br />
<br />
<b>विपाण्डुभिर्ग्लानतया पयोधरैश्च्युताचिराभागुणहेमदामभिः ।</b><br />
<b>इयं कदम्बानिलभर्तुरत्यये न दिग्वधूनां कृशता न राजते ।। ४.२४ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: वर्षाऋतु रुपी पति के विरह में विद्युत्-रुपी सुवर्ण हार से रहित तथा मलिनता (निर्जलता एवं दुर्बलता) के कारण पाण्डुवर्ण (पीले रंग) को धारण करने वाले पयोधरों (मेघों तथा स्तन-मण्डलों) से युक्त(इन ) इन दिशा रुपी सुंदरियों की यह दुर्बलता शोभा न दे रही हो - ऐसा नहीं है अपितु ये अत्यन्त शोभा दे रही हैं।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> पति के वियोग से पत्नी का मलिन, कृश तथा अलङ्कार विहीन होना शास्त्रीय विधान है । उस समय उनकी शोभा इसी में है । वर्षा ऋतु रुपी पति के वियोग व्यथा में दिगङ्गनाओं की यह दशा प्रोषित्पतिका की भांति कवि ने चित्रित की है । वर्षा ऋतु पति है, दिशाएं स्त्रियां हैं, मेघ स्तन-मण्डल हैं, बिजली सुवर्ण-हार है ।<br />
रूपक अलङ्कार<br />
<br />
<b>विहाय वाञ्छां उदिते मदात्ययादरक्तकण्ठस्य रुते शिखण्डिनः ।</b><br />
<b>श्रुतिः श्रयत्युन्मदहंसनिःस्वनं गुणाः प्रियत्वेऽधिकृता न संस्तवः ।। ४.२५ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: (इस शरद ऋतु में) मद के क्षय हो जाने से सुनने में अनाकर्षक अथवा कटु स्वर वाले मयूरों के उच्च स्वर के कूजन में अभिलाषा छोड़कर लोगों के कान अब मतवाले हंसों के कल-कूजन के इच्छुक हो गए हैं। क्यों न हों, प्रीति में गुण ही अधिकारी है, परिचय नहीं ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात किसी चीज पर प्रेम होने का कारण उसके गुण हैं, चिरकाल का परिचय नहीं ।<br />
अर्थान्तरन्यास अलङ्कार<br />
<br />
<br />
<b>अमी पृथुस्तम्बभृतः पिशङ्गतां गता विपाकेन फलस्य शालयः ।</b><br />
<b>विकासि वप्राम्भसि गन्धसूचितं नमन्ति निघ्रातुं इवासितोत्पलं ।। ४.२६ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: ये बालों के पक जाने से पीतिमा धारण करने वाले तथा मोटे-मोटे पुञ्जों वाले जड़हन धान के पौधे, जलयुक्त क्षेत्रों में विकसित होने वाले एवं मनोहर सुगंध से परिपूर्ण नीलकमलों को मानो सूंघने के लिए नीचे की ओर झुके हुए हैं ।<br />
<br />
टिप्पणी: उत्प्रेक्षा अलङ्कार<br />
<br />
मृणालिनीनां अनुरञ्जितं त्विषा विभिन्नं अम्भोजपलाशशोभया ।<br />
पयः स्फुरच्छालिशिखापिशङ्गितं द्रुतं धनुष्खण्डं इवाहिविद्विषः ।। ४.२७ ।।<br />
<br />
विपाण्डु संव्यानं इवानिलोद्धतं निरुन्धतीः सप्तपलाशजं रजः ।<br />
अनाविलोन्मीलितबाणचक्षुषः सपुष्पहासा वनराजियोषितः ।। ४.२८ ।।<br />
<br />
अदीपितं वैद्युतजातवेदसा सिताम्बुदच्छेदतिरोहितातपं ।<br />
ततान्तरं सान्तरवारिशीकरैः शिवं नभोवर्त्म सरोजवायुभिः ।। ४.२९ ।।<br />
<br />
सितच्छदानां अपदिश्य धावतां रुतैरमीषां ग्रथिताः पतत्रिणां ।<br />
प्रकुर्वते वारिदरोधनिर्गताः परस्परालापं इवामला दिशः ।। ४.३० ।।<br />
<br />
<br />
<b>विहारभूमेरभिघोषं उत्सुकाः शरीरजेभ्यश्च्युतयूथपङ्क्तयः ।</b><br />
<b>असक्तं ऊधांसि पयः क्षरन्त्यमूरुपायनानीव नयन्ति धेनवः ।। ४.३१ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: अपनी विहार भूमि से निवास-स्थल की ओर उत्कण्ठित, समूह से बिछुड़ी हुई ये गौएं निरन्तर दुग्ध बहाती हुई अपने स्तनों को मानो अपने बछड़ों के लिए उपहार में लिए जा रही हैं ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><b> </b>जैसे माताएं किसी मेले-ठेले से लौटते हुए अपने बच्चों के लिए उपहार लाती हैं, उसी प्रकार गौएं भी अपने विशाल स्तनों को मानो उपहार की गठरी के रूप में लिए जा रही हैं । उनके स्तन इतने बड़े हैं कि वे शरीर के अंग कि भांति नहीं प्रत्युत गठरी के समान मालूम पड़ते हैं ।<br />
उत्प्रेक्षा अलङ्कार<br />
<br />
<b>जगत्प्रसूतिर्जगदेकपावनी व्रजोपकण्ठं तनयैरुपेयुषी ।</b><br />
<b>द्युतिं समग्रां समितिर्गवां असावुपैति मन्त्रैरिव संहिताहुतिः ।। ४.३२ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: अपने घृत आदि हवनीय सामग्रियों के द्वारा संसार की स्थिति के कारण तथा संसार को पवित्र करने में एक मुख्य हेतुभूत ये गौओं के समूह गोष्ठ्भूमि के समीप अपने बछड़ों से मिलकर, वेद-मन्त्रों से पवित्र आहुति के समान सम्पूर्ण शोभा धारण कर रहे हैं ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> यज्ञ की आहुतियां भी संसार की स्थिति का कारण तथा संसार को पवित्र करने का एक मुख्य साधन हैं । क्योंकि कहा गया है -<br />
<b>अग्नि प्रोस्ताहुति: सम्यगादित्यमुपतिष्ठते ।</b><br />
<b>आदित्याज्जायते वृष्टि वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः ।।</b><br />
<br />
अर्थात अग्नि में वेदमंत्रों से पवित्र आहुतियां आदित्य को प्राप्त होती हैं और आदित्य से वृष्टि, वृष्टि से अन्न तथा अन्न से प्रजा की उत्पत्ति होती है ।<br />
उपमा अलङ्कार<br />
<br />
<br />
<b>कृतावधानं जितबर्हिणध्वनौ सुरक्तगोपीजनगीतनिःस्वने ।</b><br />
<b>इदं जिघत्सां अपहाय भूयसीं न सस्यं अभ्येति मृगीकदम्बकं ।। ४.३३ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: मयूरों की षड्ज ध्वनि को जीतने वाली मधुर-कण्ठ गोपियों के गीतों से दत्तचित्त यह हरिणियों का समूह खाने की प्रबल इच्छा को छोड़कर घासों की ओर नहीं जा रहा है ।<br />
<br />
टिप्पणी: मधुर स्वर में गाने वाली गोपियों के गीतों के आकर्षण में इनकी भूख ही बन्द हो गई है ।<br />
<br />
<br />
<b>असावनास्थापरयावधीरितः सरोरुहिण्या शिरसा नमन्नपि ।</b><br />
<b>उपैति शुष्यन्कलमः सहाम्भसा मनोभुवा तप्त इवाभिपाण्डुतां ।। ४.३४ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: (नायक की भांति) सर झुकाकर प्रणत होने पर भी अनादर करनेवाली (नायिका की भांति) कमलिनी से तिरस्कृत होकर सहचारी जल के साथ सूखता हुआ यह जड़हन धान मानो कामदेव से सताए हुए की भांति पीले वर्ण का हो रहा है ।<br />
<br />
टिप्पणी: जैसे कोई नायक, कुपिता नायिका द्वारा अपमानित होकर कामाग्नि से सूखकर काँटा हो जाता है, वैसे ही शरदऋतु में जड़हन धान भी पक कर पीले हो गए हैं । अतिशयोक्ति अलङ्कार से अनुप्राणित नमासोक्ति और उपमा का आगामी भाव से सङ्कर<br />
<br />
<br />
<b>अमी समुद्धूतसरोजरेणुना हृता हृतासारकणेन वायुना ।</b><br />
<b>उपागमे दुश्चरिता इवापदां गतिं न निश्चेतुं अलं शिलीमुखाः ।। ४.३५ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: उड़ते हुए कमल परागों से भरे हुए तथा वर्षा के जल-कणों से युक्त(शीतल, मन्द, सुगन्ध) वायु द्वारा आकृष्ट ये भ्रमरों के समूह राजा आदि का भय उपस्थित होने चोरों एवं लम्पटों की भांति अपने गन्तव्य का निश्चय नहीं कर पा रहे हैं ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात शीतल मन्द सुगन्ध वायु बह रही है तथा भ्रमरावली उड़ती हुई गुञ्जार कर रही है । उपमा अलङ्कार<br />
<br />
<br />
<b>मुखैरसौ विद्रुमभङ्गलोहितैः शिखाः पिशङ्गीः कलमस्य बिभ्रती ।</b><br />
<b>शुकावलिर्व्यक्तशिरीषक्ॐअला धनुःश्रियं गोत्रभिदोऽनुगच्छति ।। ४.३६ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: मूंगे के टुकड़ों की भांति अपने लाल रंग के मुखों (चोंच) में पीले रंग की जड़हन धान की बालों को धारण किये हुए एवं विकसित शिरीष के पुष्प की भांति हरे रंगवाले इन शुकों की पत्तियां इन्द्रधनुष की शोभा का अनुकरण कर रही है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तीन रंगों (लाल, पीले और हरे) के संयोग से इन्द्रधनुष की उपमा दी गयी है । उपमा अलङ्कार<br />
<br />
<br />
<b>इति कथयति तत्र नातिदूरादथ ददृशे पिहितोष्णरश्मिबिम्बः ।</b><br />
<b>विगलितजलभारशुक्लभासां निचय इवाम्बुमुचां नगाधिराजः ।। ४.३७ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: इस प्रकार अर्जुन से बातें करते हुए उस यक्ष ने समीप से, भगवान् भास्कर के मंडल को छिपानेवाले पर्वतराज हिमालय को, जलभार से युक्त होने के कारण श्वेत कान्तिवाले मेघों के समूह की भांति देखा ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;"><b>टिप्पणी:</b></span> अर्थात हिमालय समीप आ गया । पुष्पिताग्रा छन्द । उपमा अलङ्कार<br />
<br />
<b>तं अतनुवनराजिश्यामितोपत्यकान्तं नगं उपरि हिमानीगौरं आसद्य जिष्णुः ।</b><br />
<b>व्यपगतमदरागस्यानुसस्मार लक्ष्मीं असितं अधरवासो बिभ्रतः सीरपाणेः ।। ४.३८ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: विशाल वनों की पंक्तियों से नीले वर्ण वाली घाटियों से युक्त, बर्फ की चट्टानों से ढके हुए शुभ्र्वर्णों वाले हिमालय पर पहुंचकर अर्जुन ने, मदिरा के नशे से रहित कटि प्रदेश में नीलाम्बरधारी बलदेव जी की शोभा का स्मरण किया ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b>यहाँ मदिरा के नशे से रहित होने का तात्पर्य है प्रकृतिस्थ होना। मालिनी छन्द । स्मरणालङ्कार ।<br />
<br />
</font><div style="text-align: center;">
<span style="color: #b45f06;"><font size="2">इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये चतुर्थः सर्गः ।</font></span></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #b45f06;"><font size="2">==============================================</font></span></b></div>
<font size="2"><br />
[ अगले पन्द्रह श्लोकों द्वारा कवि हिमालय पर्वत का वर्णन कर रहा है । ]<br />
<br />
<b>अथ जयाय नु मेरुमहीभृतो रभसया नु दिगन्तदिदृक्षया ।<br />अभिययौ स हिमाचलं उच्छ्रितं समुदितं नु विलङ्घयितुं नभः ।। ५.१ ।।</b><br />
<br />
<b>अर्थ:</b> तदनन्तर अर्जुन उस हिमालय पर्वत के सम्मुख पहुँच गए, जो या तो सुमेरु पर्वत को जीतने के लिए, अथवा अत्यन्त उत्कण्ठा से दिशाओं का अवसान देखने के लिए अथवा आकाश मण्डल का उल्लंघन करने के लिए मानो उछालकर अत्यन्त ऊंचा उठ खड़ा हुआ है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> गम्योत्प्रेक्षा । द्रुतविलम्बित छन्द<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><b>तपनमण्डलदीतितं एकतः सततनैशतमोवृतं अन्यतः ।<br />हसितभिन्नतमिस्रचयं पुरः शिवं इवानुगतं गजचर्मणा ।। ५.२ ।।</b><br />
<br />
<b>अर्थ: </b>एक ओर सूर्यमण्डल से सुप्रकाशित तथा दूसरी ओर रात्रि के घोर अन्धकार को दूर करनेवाले तथा पिछले भाग को गजधर्म से विभूषित करनेवाले भगवान् शङ्कर के समान है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> हिमालय इतना ऊंचा है कि इसके एक ओर प्रकाश और दूसरी ओर अन्धकार रहता है । शिव जी भी ऐसे ही हैं । उनका मुखभाग तो उनके अट्टहास से प्रकाशमान रहता है और पृष्ठभाग गजचर्म से आवृत्त होने के कारण काले बर्फ का है । अतिश्योक्ति अलङ्कार ।<br />
<br />
<br />
<b>क्षितिनभःसुरलोकनिवासिभिः कृतनिकेतं अदृष्टपरस्परैः ।</b><br />
<b>प्रथयितुं विभुतां अभिनिर्मितं प्रतिनिधिं जगतां इव शम्भुना ।। ५.३ ।।</b><br />
<b><br /></b><b>अर्थ:</b> परस्पर एक दूसरे को न देखनेवाले पृथ्वी, आकाश तथा स्वर्गलोक के निवासियों द्वारा निवासस्थान बनाये जाने के कारण यह (हिमालय) ऐसा मालूम पड़ता है कि मानो शङ्कर भगवान् ने अपनी कीर्ति के प्रचार के लिए संसार के प्रतिनिधि के रूप में इस का निर्माण किया है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> यह शङ्कर भगवान् के निर्माण-कौशल का ही नमूना है कि तीनों लोकों के निवासी यहाँ रहते हैं और कोई किसी को देख नहीं पाते । जो बात किसी दूसरे से नहीं हो सकती थी उसे ही तो शङ्कर भगवान् करते आ रहे हैं । उत्प्रेक्षा अलङ्कार<br />
<br />
<b>भुजगराजसितेन नभःश्रिया कनकराजिविराजितसानुना ।</b><br />
<b>समुदितं निचयेन तडित्वतीं लघयता शरदम्बुदसंहतिं ।। ५.४ ।।</b><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><br />
<br />
<b>अर्थ:</b> शेषनाग के समान श्वेत-शुभ्र वर्ण कि गगनचुम्बी, सुवर्ण रेखाओं से सुशोभित चट्टानों से युक्त होने के कारण यह हिमालय विद्युत् रेखाओं से युक्त शरद ऋतु के बादलों कि पंक्तियों को तिरस्कृत करनेवाले शिखरों से अत्यन्त ऊंचा दिखाई पड़ रहा है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> इस श्लोक में यद्यपि 'शिखर' शब्द नहीं आया है किन्तु प्रसंगानुरोध से 'निचय' शब्द का ही 'पाषाण निचय' अर्थात शिखर अर्थ ले लिया गया है । उपमा अलङ्कार<br />
<br />
<b>मणिमयूखचयांशुकभासुराः सुरवधूपरिभुक्तलतागृहाः ।<br />दधतं उच्चशिलान्तरगोपुराः पुर इवोदितपुष्पवना भुवः ।। ५.५ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: वस्त्रों के समान मणियों के किरण समूहों से चमकते हुए देवांगनाओं द्वारा सेवित गृहों के समान लताओं से युक्त, ऊंचे-ऊंचे पुर-द्वारों की भांति शिलाखण्डों के मध्य भागों से युक्त एवं पुष्पों से समृद्ध वनों से सुशोभित नगरों के समान भूमि भागों को यह हिमालय धारण किये हुए है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> उपमा अलङ्कार<br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><b>अविरतोज्झितवारिविपाण्डुभिर्विरहितैरचिरद्युतितेजसा ।</b><br />
<b>उदितपक्षं इवारतनिःस्वनैः पृथुनितम्बविलम्बिभिरम्बुदैः ।। ५.६ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: निरन्तर वृष्टि करने से जलशून्य होने के कारण श्वेत वर्णों वाले, बिजली की चमक से विहीन, गर्जनरहित एवं विस्तृत नितम्ब अर्थात मध्य भाग में फैले हुए बादलों से यह हिमालय ऐसा मालूम पड़ रहा है मानो इसके पक्ष फिर से उग आये हों ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> पौराणिक कथाओं के अनुसार पूर्वकाल में सभी पर्वत पक्षधारी होते थे और जब जहाँ चाहते थे उड़ा करते थे ।<br />
<br />
उनके इस कार्य से लोगों को सदा बड़ा भय बना रहता था कि न जाने कब कहाँ गिर पड़ें । देवताओं की प्रार्थना पर देवराज इन्द्र ने अपने वज्र से सभी पर्वतों के पक्षों को काट डाला था । उत्प्रेक्षा अलङ्कार<br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><b>दधतं आकरिभिः करिभिः क्षतैः समवतारसमैरसमैस्तटैः ।<br />विविधकामहिता महिताम्भसः स्फुटसरोजवना जवना नदीः ।। ५.७ ।।</b><br />
<b><br /></b>अर्थ: (यह हिमालय) आकर अर्थात खानों से उत्पन्न हाथियों द्वारा क्षत-विक्षत, स्नानादि योग्य स्थलों पर सम एवं अनुपम तटों से युक्त, प्रशस्त जलयुक्त होने के कारण विविध कामों के लिए हितकारी एवं विकसित कमलों के समूहों से सुशोभित वेगवती नदियों को धारण करने वाला है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य यह है कि इस हिमालय के जिन भागों में रत्नों की खानें हैं उनमें हाथियों की भी अधिकता है । वे हाथी नदियों के तटों को तोडा-फोड़ा करते हैं । किन्तु फिर भी स्नान करने योग्य स्थलों पर वे तट बहुत सम हैं । नदियों में कमल खिले रहते हैं तथा उनकी धारा बहुत तीव्र है । शब्दालङ्कारों में यमक और वृत्यनुप्रास तथा अर्थालङ्कारों में अभ्युच्चय ।<br />
<br />
<b>नवविनिद्रजपाकुसुमत्विषां द्युतिमतां निकरेण महाश्मनां ।<br />विहितसांध्यमयूखं इव क्वचिन्निचितकाञ्चनभित्तिषु सानुषु ।। ५.८ ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: नूतन विकसित जपाकुसुम की कान्ति के समान कान्तिवाली चमकती हुई पद्मराग मणियों के समूहों से कहीं-कहीं पर (यह हिमालय) सुवर्ण खचित भित्तियों वाली चोटियों पर मानो सायंकाल के सूर्य की किरणों से प्रतिभासित-सा (दिखाई पड़ता) है।<br />
<br />
टिप्पणी: अर्थात इस हिमालय की सुवर्णयुक्त भित्तियों में पद्मराग मणि की कान्ति जब पड़ती है तो वह संध्या काल की सूर्य किरणों की भान्ति दिखाई पड़ता है । उत्प्रेक्षा अलङ्कार<br />
<br />
<br />
</font><div>
<font size="2"><b>पृथुकदम्बकदम्बकराजितं ग्रहितमालतमालवनाकुलं ।<br />लघुतुषारतुषारजलश्च्युतं धृतसदानसदाननदन्तिनं ।। ५.९ ।।</b><br />
<br />
<br />
अर्थ: विशाल कदम्बों के पुष्प समूहों से सुभोभित, पंक्तियों में लगे यूए तमालों के वनों से संकुलित, छोटे-छोटे हिमकणों की वृष्टि करता हुआ एवं सर्वदा मद बरसाने वाले सुन्दरमुख गजराजों से युक्त (यह हिमालय) है।<br />
</font><div>
<font size="2"><br /></font></div>
<div>
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><b>रहितरत्नचयान्न शिलोच्चयानफलताभवना न दरीभुवः ।<br />विपुलिनाम्बुरुहा न सरिद्वधूरकुसुमान्दधतं न महीरुहः ।। ५.१० ।।</b><br />
<br />
अर्थ: यह हिमालय रत्नराशिरहित कोई शिखर नहीं धारण करता, लता-गृहों से शून्य कोई गुफा नहीं धारण करता, मनोहर पुलिनों तथा कमलों से विहीन कोई सरिद्वधू (नव वधु की भांति नदियां) नहीं धारण करता तथा बिना पुष्पों का कोई वृक्ष नहीं धारण करता ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य यह है कि हिमालय कि चोटियां रत्नों से व्याप्त हैं, गुफाएं लतागृहों से सुशोभित हैं, नदियां मनोहर तटों तथा कमलों से समचित हैं तथा वृक्ष पुष्पों से लदे हैं । नदियों की वधू के साथ उपमा देकर पुलिनों की उनके जघन स्थल तथा कमलों की उनके मुख से उपमा गम्य होती है ।<br />
<br />
<b>व्यथितसिन्धुं अनीरशनैः शनैरमरलोकवधूजघनैर्घनैः ।<br />फणभृतां अभितो विततं ततं दयितरम्यलताबकुलैः कुलैः ।। ५.११ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: (यह हिमालय) सुन्दर मेखलाओं से सुशोभित, देवांगना-समूहों के जघन-स्थलों से धीरे-धीरे क्षुब्ध-धारावाली नदियों एवं मनोहर लताओं एवं केसर के प्रेमी सर्पों से चारों ओर व्याप्त एवं विस्तृत है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> यमक और वृत्यानुप्रास अलङ्कार<br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><b>ससुरचापं अनेकमणिप्रभैरपपयोविशदं हिमपाण्डुभिः ।<br />अविचलं शिखरैरुपबिभ्रतं ध्वनितसूचितं अम्बुमुचां चयं ।। ५.१२ ।।</b><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br style="background-color: white; font-size: 14px;" /></span><br />
<br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: अनेक प्रकार की विचित्र मणियों की प्रभा से सुशोभित हिमशुभ्र शिखरों वाला (यह हिमालय) इन्द्रधनुष से युक्त, जलरहित होने के कारण श्वेत एवं निश्चल (अतएव शिखर की शंका कराने वाले किन्तु) गर्जन से अपनी सूचना देने वाले मेघ-समूहों को धारण करता है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> जल न होने से मेघ श्वेत एवं निश्चल हो जाते हैं, हिमालय के शिखर भी ऐसे ही हैं । मेघों में इन्द्रधनुष की रंग-बिरंगी छटा होती है तो वह विचित्र मणियों की प्रभा के कारण हिमालय के शिखरों में भी है । केवल गर्जन ऐसा है, जो शिखरों में नहीं है और इसी से दोनों में अन्तर मालूम पड़ता है । सन्देह अलङ्कार</span></span><br />
<br />
<b><br />विकचवारिरुहं दधतं सरः सकलहंसगणं शुचि मानसं ।<br />शिवं अगात्मजया च कृतेर्ष्यया सकलहं सगणं शुचिमानसं ।। ५.१३ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: नित्य विकसित होने वाले कमलों से सुशोभित तथा राजहंसों से युक्त निर्मल मानस सरोवर को एवं किसी कारण से कदाचित कुपिता पार्वती के साथ कलह करने वाले अपने गणों समेत अविद्यादि दोषों से रहित भगवान् शंकर को (यह हिमालय) धारण किये हुए है।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> संसार के अन्य पर्वतों से हिमालय की यही विषमता है । यमक अलङ्कार<br />
<br />
<br />
<b>ग्रहविमानगणानभितो दिवं ज्वलयतौषधिजेन कृशानुना ।<br />मुहुरनुस्मरयन्तं अनुक्षपं त्रिपुरदाहं उपापतिसेविनः ।। ५.१४ ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: यह हिमालय आकाश स्थित चन्द्र सूर्यादि ग्रहों एवं देवयानों को सुप्रकाशित करते हुए अपनी औषधियों से उत्पन्न अग्नि द्वारा प्रत्येक रात्रि में भगवान् शङ्कर के सेवकों अर्थात गणों को त्रिपुरदाह का बारम्बार स्मरण दिलाता है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> तात्पर्य यह है कि इसमें अनेक प्रकार कि दिव्य औषधियां हैं जिनसे ग्रहगण एवं देवयान ही नहीं प्रकाशित होते वरन रात्रियों में त्रिपुरदाह जैसा दृश्य भी दिखाई पड़ता है । स्मरण अलङ्कार<br />
<br />
<br />
<b>विततशीकरराशिभिरुच्छ्रितैरुपलरोधविवर्तिभिरम्बुभिः ।<br />दधतं उन्नतसानुसमुद्धतां धृतसितव्यजनां इव जाह्नवीं ।। ५.१५ ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: यह हिमालय उन उन्नत शिखरों पर गङ्गा जी को धारण करता है, जो पत्थरों की विशाल चट्टानों से धारा के रुक जाने पर जब उनके ऊपर से बहाने लगती है तब ऊपर अनन्त जल-कणों के फव्वारे के तरह छूटने से ऐसा मालूम होता है मानो श्वेत चामर धारण किये हुए हैं ।<br />
<br />
<b>टिप्पणी:</b> उत्प्रेक्षा अलङ्कार<br />
<br />
<br />
<b>अनुचरेण धनाधिपतेरथो नगविलोकनविस्मितमानसः ।<br />स जगदे वचनं प्रियं आदरान्मुखरतावसरे हि विराजते ।। ५.१६ ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: तदनन्तर धनपति कुबेर के सेवक उस यक्ष ने हिमालय की अलौकिक छटा के अवलोकन से आश्चर्यचकित अर्जुन से आदरपूर्वक यह प्रिय वचन कहे । वाचालता (ऐसे ही) उचित अवसरों पर शोभा देती है ।</font></div>
<div>
<font size="2"><br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात मनुष्य उचित अवसर समझकर बिना पूछे भी कुछ कह देता है तो उसकी शोभा होती है । अर्थान्तरन्यास अलङ्कार<br />
<br /></font></div>
<font size="2"><b><br />अलं एष विलोकितः प्रजानां सहसा संहतिं अंहसां विहन्तुं ।<br />घनवर्त्म सहस्रधेव कुर्वन्हिमगौरैरचलाधिपः शिरोभिः ।। ५.१७ ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: हिम के कारण शुभ्र शिखरों से मेघ-पथों को मानो सहस्त्रों भागों में विभक्त करता हुआ यह पर्वतराज हिमालय देखने मात्र से ही लोगों के पाप-समूहों को नष्ट करने में समर्थ है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात इसे देखने मात्र से ही पाप नष्ट हो जाते हैं, चित्त प्रसन्न हो जाता है । औपछन्दसिक वृत्त ।<br />
</font><div>
<font size="2"><br />
<b>इह दुरधिगमैः किंचिदेवागमैः सततं असुतरं वर्णयन्त्यन्तरं ।<br />अमुं अतिविपिनं वेद दिग्व्यापिनं पुरुषं इव परं पद्मयोनिः परं ।। ५.१८ ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: इस हिमालय पर्वत के दुस्तर अन्तर्वर्ती अर्थात मध्य भाग को कठिनाई द्वारा चढ़ने योग्य वृक्षों से (उन पर चढ़कर पक्षान्तर में पुण्यादि का अध्ययन कर) कुछ-कुछ बताया जा सकता है, किन्तु इस अत्यन्त गहन एवं दिगन्तव्यापी पर्वतराज को परमात्मा के समान सम्पूर्ण रीति से केवल पद्मयोनि अर्थात ब्रह्मा जी ही जानते हैं ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b>अर्थात ब्रह्मा के सिवा कोई दूसरा इसके विशाल स्वरुप को नहीं जानते । उपमा और यमक अलङ्कारों के संसृष्टि ।<br />
<br />
<br />
<b>रुचिरपल्लवपुष्पलतागृहैरुपलसज्जलजैर्जलराशिभिः ।<br />नयति संततं उत्सुकतां अयं धृतिमतीरुपकान्तं अपि स्त्रियः ।। ५.१९ ।।</b><br />
<b><br /></b></font></div>
<div><font size="2">
अर्थ: यह हिमालय अपने मनोहर पल्लवों एवं पुष्पों से सुशोभित लता मण्डपों तथा विकसित कमलों से समचित सरोवरों से अपने प्रियतम के समीप में स्थित धैर्यशालिनी मानिनी रमणियों को भी निरन्तर उत्सुक बना देता है ।</font></div>
<div>
<font size="2"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b>अर्थात जो मानिनी रमणियाँ पहले अपने समीपस्थ भी प्रियतमों का अपमान करती थी, वे भी उत्कण्ठित हो उठी हैं, उनकी मानग्रंथि इस हिमालय में आने से छूट जाती है । अतिश्योक्ति अलङ्कार । द्रुतविलम्बित छन्द ।<br />
<br />
<br />
<b>सुलभैः सदा नयवतायवता निधिगुह्यकाधिपरमैः परमैः ।<br />अमुना धनैः क्षितिभृतातिभृता समतीत्य भाति जगती जगती ।। ५.२० ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: नीतिपरायण एवं भाग्यशाली पुरुषों के लिए सर्वदा सुलभ एवं महापद्म आदि नवनिधियां एवं वृक्षों के अधिपति कुबेर को भी प्रसन्न करनेवाले उत्कृष्ट वन-सम्पत्तियों के द्वारा इस पर्वतराज हिमालय से परिपूर्ण यह पृथ्वी स्वर्ग और पातळ - दोनों लोकों को जीतकर सुशोभित होती है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात जो सम्पत्तियाँ देवताओं एवं यक्षों को भी दुर्लभ हैं, वे यहाँ हैं । नव निधियां हैं -<br />
पद्म, महापद्म, शङ्ख, मकर, कच्छप, मुकुन्द, कुन्द, नील और खर्व(मिश्र)<br />
काव्यलिङ्ग और यमक की संसृष्टि ।<br />
<br />
<b><br />अखिलं इदं अमुष्य गैरीगुरोस्त्रिभुवनं अपि नैति मन्ये तुलां ।<br />अधिवसति सदा यदेनं जनैरविदितविभवो भवानीपतिः ।। ५.२१ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: मैं मानता हूँ कि यह सम्पूर्ण त्रैलोक्य भी इस पर्वतराज हिमालय की तुलना नहीं कर सकता क्योंकि जिनकी महिमा लोग नहीं जान पाते ऐसे भवानीपति भगवान शङ्कर सर्वदा इस पर्वत पर निवास करते हैं ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात यह धर्मक्षेत्र है ।<br />
<b><br />वीतजन्मजरसं परं शुचि ब्रह्मणः पदं उपैतुं इच्छतां ।<br />आगमादिव तमोपहादितः सम्भवन्ति मतयो भवच्छिदः ।। ५.२२ ।।</b><br />
<br />
अर्थ: जिसकी प्राप्ति से पुनर्जन्म और वृद्धता का भय बीत जाता है ऐसे परमोत्कृष्ट पद अर्थात मुक्ति को पाने के इच्छुक लोगों के लिए शास्त्रों की भान्ति अज्ञानान्धकार को दूर करनेवाले इस हिमालय से संसार के कष्टों को नष्ट करनेवाली बुद्धि अर्थात तत्वज्ञान की उत्पत्ति होती है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात वह केवल भोगभूमि नहीं है प्रत्युत मुक्ति प्राप्त करने का भी पुण्य-स्थल है । रथोद्धता छन्द ।<br />
<b><br />दिव्यस्त्रीणां सचरणलाक्षारागा रागायाते निपतितपुष्पापीडाः ।<br />पीडाभाजः कुसुमचिताः साशंसं शंसन्त्यस्मिन्सुरतविशेषं शय्याः ।। ५.२३ ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: इस हिमालय पर्वत में देवांगनाओं के लिए पुष्पों से रचित शैय्याएं उनके चरणों में लगाए हुए महावर के रङ्ग से चिन्हित गिरे हुए मुरझाये पुष्पों से युक्त एवं विमर्दित दशा में अत्यन्त कामोद्रेक की दशा में की गयी सतृष्ण सुरत क्रियाओं की सूचना देती हैं ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> धेनुकादि विपरीत बन्धों की सूचना मिलती है । जलधरमाला छन्द ।<br />
<br />
<b>गुणसम्पदा समधिगम्य परं महिमानं अत्र महिते जगतां ।<br />नयशालिनि श्रिय इवाधिपतौ विरमन्ति न ज्वलितुं औषधयः ।। ५.२४ ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: इस संसारपूज्य हिमालय में औषधियां नीतिमान राजा में राजयलक्ष्मी की भान्ति क्षेत्रीयगुणों की सम्पत्ति से (राजा के पक्ष में संध्या, पूजन, तर्पणादि गुणों से) अत्यन्त शक्ति प्राप्त कर अहर्निश प्रज्वलित रहने से विश्राम नहीं लेती ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात रात-दिन प्रज्वलित रहा करती है । तात्पर्य यह है कि जिस प्रकार संध्या-पूजनादि गुणों से नीतिमान राजा के प्रताप की अभिवृद्धि होती है उसी प्रकार से हिमालय के क्षेत्रीय गुणों से उस पर उगी औषधियां सदा प्रज्वलित रहती हैं । उपमा अलङ्कार प्रमिताक्षरा छन्द ।<br />
<br />
<br />
<b>कुररीगणः कृतरवस्तरवः कुसुमानताः सकमलं कमलं ।<br />इह सिन्धवश्च वरणावरणाः करिणां मुदे सनलदानलदाः ।। ५.२५ ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: इस हिमालय में कुररी पक्षी बोल रहे हैं, वृक्ष पुष्पभार से नीचे को झुक गए हैं, जलाशय कमलों से सुशोभित हैं, वृक्षों के आवरण एवं उशीरों से युक्त सन्ताप दूर करनेवाली नदियां हाथियों का आनन्द बढ़ाने वाली हैं ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> वृक्षों के आवरण का तात्पर्य, तटवर्ती सघन वृक्ष पंक्तियों से आकीर्ण। यमक अलङ्कार<br />
<br />
<b>सादृश्यं गतं अपनिद्रचूतगन्धैरामोदं मदजलसेकजं दधानः ।<br />एतस्मिन्मदयति कोकिलानकाले लीनालिः सुरकरिणां कपोलकाषः ।। ५.२६ ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: इस हिमालय पर शोभायुक्त लता मण्डप रुपी भवन, प्रकाशमान औषधि रूप के दीपक, नूतन कल्पवृक्ष के पल्लव रुपी शैय्याएं तथा सुरत के श्रम को दूर करने वाली कमल वन की वायु - ये सभी सामग्रियां देवांगनाओं को स्वर्ग का स्मरण नहीं करने देती ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात देवांगनाएँ यहाँ आकर स्वर्ग को भी भूल जाती हैं। उनके लिए यह स्वर्ग से बढ़कर सुखदायी है । बसन्ततिलका छन्द रूपक अलङ्कार ।<br />
<br />
<b>सनाकवनितं नितम्बरुचिरं चिरं सुनिनदैर्नदैर्वृतं अमुं ।<br />मता फलवतोऽवतो रसपरा परास्तवसुधा सुधाधिवसति ।। ५.२७ ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: भगवान शङ्कर को प्राप्त करने के लिए चिरकाल तक जल में तप साधना में लगी हुई, क्षुद्र जल-जन्तुओं के कूदने से चकित नेत्रों वाली पार्वती जी के पाणि को शङ्कर जी ने चूते हुए पसीने की बूंदों से युक्त अँगुलियों वाले अपने हाथ से इसी पर्वत पर ग्रहण किया था ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात इसी हिमालय पर पार्वती जी का पाणिग्रहण हुआ था । बसन्ततिलका छन्द ।<br />
<br />
<b>श्रीमल्लताभवनं ओषधयः प्रदीपाः शय्या नवानि हरिचन्दनपल्लवानि ।<br />अस्मिन्रतिश्रमनुदश्च सरोजवाताः स्मर्तुं दिशन्ति न दिवः सुरसुन्दरीभ्यः ।। ५.२८ ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: इस हिमालय पर्वत पर शोभायुक्त लता मण्डप रुपी भवन, प्रकाशमान औषधिरूप के दीपक, नूतन, कल्पवृक्ष के पल्लव रुपी शैय्याएं तथा सुरत के श्रम को दूर करनेवाला कमलवन का वायु - ये सभी सामग्रियां देवांगनाओं स्वर्ग का स्मरण नहीं करने देती ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात देवांगनाएँ यहाँ आकर स्वर्ग को भूल जाती हैं । उनके लिए यह स्वर्ग से बढ़कर सुखदायी है । वसन्ततिलका छन्द । रूपक अलङ्कार ।<br />
<br />
<b>ईशार्थं अम्भसि चिराय तपश्चरन्त्या यादोविलङ्घनविलोलविलोचनायाः ।<br />आलम्बताग्रकरं अत्र भवो भवान्याः श्च्योतन्निदाघसलिलाङ्गुलिना करेण ।। ५.२९ ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: भगवान शङ्कर को प्राप्त करने के लिए चिरकाल तक जल में तप साधना में लगी हुई, क्षुद्र जल-जन्तुओं के में कूदने से चकित नेत्रों वाली पार्वती जी के पाणि को शङ्कर जी ने चूते हुए पसीनों की बूंदों से युक्त अँगुलियों वाले अपने हाथ से इसी पर्वत पे ग्रहण किया था ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात इसी हिमालय पर पार्वती जी का पाणिग्रहण हुआ था । वसन्ततिलका छन्द ।<br />
<br />
<b>येनापविद्धसलिलः स्फुटनागसद्मा देवासुरैरमृतं अम्बुनिधिर्ममन्थे ।<br />व्यावर्तनैरहिपतेरयं आहिताङ्कः खं व्यालिखन्निव विभाति स मन्दराद्रिः ।। ५.३० ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: जिस (मन्दराचल) के द्वारा देवताओं और असुरों ने अमृत की प्राप्ति के लिए समुद्र मन्थन किया था और जिससे समुद्र का जल अत्यन्त क्षुब्द हो गया था और पाताल लोक स्पष्टतया दृष्टिगोचर हो रहा था । मथानी की रस्सी भांति सर्पराज वासुकि के लपेटने से चिन्हित यह वही मन्दराचल है जो आकाश-मण्डल का मानो भेदन से करता हुआ सुशोभित हो रहा है ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> उत्प्रेक्षा अलङ्कार<br />
<br />
<b>नीतोच्छ्रायं मुहुरशिशिररश्मेरुस्रैरानीलाभैर्विरचितपरभागा रत्नैः ।<br />ज्योत्स्नाशङ्कां इव वितरति हंसश्येनी मध्येऽप्यह्नः स्फटिकरजतभित्तिच्छाया ।। ५.३१ ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: इस हिमालय पर सूर्य की कारणों द्वारा विस्तारित तथा इन्द्रनील मणि की समीपता के कारण अत्यधिक उत्कर्ष अर्थात स्वछता को प्राप्त हंस के समान श्वेतवर्ण की स्फटिक एवं चांदी की भित्तियां मध्याह्न काल में भी बारम्बार चान्दनी की शङ्का उत्पन्न करती हैं ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> भ्रांतिमान अलङ्कार ।<br />
</font><div>
<font size="2"><br />
<b>दधत इव विलासशालि नृत्यं मृदु पतता पवनेन कम्पितानि ।<br />इह ललितविलासिनीजनभ्रू- गतिकुटिलेषु पयःसु पङ्कजानि ।। ५.३२ ।।</b><br />
<b><br /></b>
अर्थ: इस हिमालय पर मन्द-मन्द बहनेवाली वायु द्वारा कम्पित कमालवृन्द विलासिनी रमणियों की कुटिल भौहों के समान तरंगयुक्त जलराशि में मानो मनोहर नृत्य सा करते दिखाई पड़ते हैं ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> उत्प्रेक्षा अलङ्कार । पुष्पिताग्रा छन्द ।<br />
<br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;">अस्मिन्नगृह्यत पिनाकभृता सलीलं आबद्धवेपथुरधीरविलोचनायाः ।</span><br style="background-color: white;" /><span style="background-color: white;">विन्यस्तमङ्गलमहौषधिरीश्वरायाः स्रस्तोरगप्रतिसरेण करेण पाणिः ।। ५.३३ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="background-color: white; font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: इसी हिमालय पर्वत पर पिनाकपाणि भगवान् शङ्कर (सर्पदर्शन से भयभीत होने के कारण) चकितलोचना पार्वती जी के यवाकुर आदि माङ्गलिक उपकरणों से अलङ्कृत कम्पित हाथ को लीलापूर्वक ग्रहण किया था और उस ामय उनके हाथ से सर्वरूप कौतुक-सूत्र नीचे की ओर खिसक पड़ा था ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> पार्वती जी के पाणिग्रहण के समय सर्प शङ्कर ji की कलाई में कौतुक-सूत्र की भांति विराजमान था । जिस समय शङ्कर जी पार्वती जी का पाणिग्रहण करने लगे उस समय उनके हाथ का वह सर्प नीचे की ओर सरकने लगा । उस सर्प को देखकर पार्वती जी भयत्रस्त हो गयी और उनका हाथ कांपने लगा । वसन्ततिलका छन्द । भाविक अलङ्कार ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;">क्रामद्भिर्घनपदवीं अनेकसंख्यैस्तेजोभिः शुचिमणिजन्मभिर्विभिन्नः ।</span><br style="background-color: white;" /><span style="background-color: white;">उस्राणां व्यभिचरतीव सप्तसप्तेः पर्यस्यन्निह निचयः सहस्रसंख्यां ।। ५.३४ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="background-color: white;"><br /></span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: इस हिमालय पर्वत पर आकाशमण्डल में व्याप्त बहुसंख्यक स्फटिक मणियों से उत्पन्न किरण-जालों से मिश्रित होने के कारण फैलता हुआ सूर्य की किरणों का समूह मानो अपनी नियत सहस्त्र की संख्या का अतिक्रमण सा करता है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> हिमालय पर्वत पर स्फटिक की सहस्त्रों किरणे नीचे की ओर से आकाश में चमकती रहती हैं ऊपर से सूर्य की किरणे चमकती हैं । दोनों का अब मेल हो जाता है तो ऐसा मालूम होता है मानों सूर्य की किरणों की संख्या अपनी नियत सहस्त्र संख्या से ऊपर बढ़ गयी है । उत्प्रेक्षा अलङ्कार ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;">व्यधत्त यस्मिन्पुरं उच्चगोपुरं पुरां विजेतुर्धृतये धनाधिपः ।</span><br style="background-color: white;" /><span style="background-color: white;">स एष कैलास उपान्तसर्पिणः करोत्यकालास्तमयं विवस्वतः ।। ५.३५ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="background-color: white;"><br /></span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: जिस कैलास पर्वत पर कुबेर ने त्रिपुरविजयी भगवान् शङ्कर के संतोष के लिए उन्नत गोपुरों(फाटकों) से समलङ्कृत अलकापुरी का निर्माण किया था यह वही कैलास है जो अपनी सीमा के संचरण करनेवाले सूर्य नारायण को समय के पहले ही मानो अस्त सा बना देता है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> अतिशयोक्ति से उत्थापित गम्योत्प्रेक्षा अलङ्कार । वंशस्थ वृत्त ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;">नानारत्नज्योतिषां संनिपातैश्छन्नेष्वन्तःसानु वप्रान्तरेषु ।</span><br style="background-color: white;" /><span style="background-color: white;">बद्धां बद्धां भित्तिशङ्कां अमुष्मिन्नावानावान्मातरिश्वा निहन्ति ।। ५.३६ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="background-color: white;"><br /></span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: इस कैलास पर्वत के शिखरों पर विविध प्रकार के रत्नों के प्रभापुञ्जों से आच्छादित होने उनके वप्रान्तर अर्थात कगारों के बीच के स्थल भाग सुदृढ़ दीवाल की शङ्का उत्पन्न करते हैं । </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> रत्नों के प्रभापुञ्जों से व्याप्त होने के कारण शिखरों के गहरे खड्ड भी सुदृढ़ दीवाल की शङ्का उत्पन्न करते हैं किन्तु जब हवा का झोंका बारम्बार चलता है और उनका अवरोध नहीं होता तो शङ्का दूर हो जाती है क्योंकि यदि दीवाल रहती तो हवा रुक जाती । निश्चयांत सन्देह अलङ्कार । शालिनी छन्द ।</span></span><br />
</font><div>
<font size="2"><br /></font></div>
<div>
<font size="2"><b><br /></b><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;">रम्या नवद्युतिरपैति न शाद्वलेभ्यः श्यामीभवन्त्यनुदिनं नलिनीवनानि ।</span><br style="background-color: white;" /><span style="background-color: white;">अस्मिन्विचित्रकुसुमस्तबकाचितानां शाखाभृतां परिणमन्ति न पल्लवानि ।। ५.३७ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;"><br /></span></b></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: इस कैलास पर्वत पर नूतन घासों से व्याप्त प्रदेशों की मनोहर नूतन शोभा कभी दूर नहीं होती, नील कमलों के वन प्रतिदिन नूतन श्यामलता धारण करते हैं और रंग बिरंगे गुच्छों से सुशोभित वृक्षों के पल्लव कभी पुराने नहीं होते ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> अर्थात यहाँ सभी वस्तुएं सदा नूतन बनी रहती हैं, किसी में पुरानापन नहीं आता । परययोक्ति अलङ्कार । वसन्ततिलका छन्द।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;">परिसरविषयेषु लीढमुक्ता हरिततृणोद्गमशङ्कया मृगीभिः ।</span><br style="background-color: white;" /><span style="background-color: white;">इह नवशुकक्ॐअला मणीनां रविकरसंवलिताः फलन्ति भासः ।। ५.३८ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;"><br /></span></b></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: इस कैलास पर्वत के इर्द-गिर्द के प्रदेशों में हरिणियों द्वारा नीले तृणों के अङ्कुर की आशंका से पहले चाट कर पीछे छोड़ दी गयी, नूतन शुक के पंखों के समान हरे रङ्ग की मरकतमणियों की कान्तियाँ सूर्य-किरणों से मिश्रित होकर अधिकाधिक प्रकाशयुक्त हो जाती हैं ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> भ्रांतिमान अलङ्कार ।</span></span><br />
</font><div>
<font size="2"><br /></font></div>
<div>
<font size="2"><br /></font></div>
<font size="2"><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;">उत्फुल्लस्थलनलिनीवनादमुष्मादुद्धूतः सरसिजसम्भवः परागः ।</span><br style="background-color: white;" /><span style="background-color: white;">वात्याभिर्वियति विवर्तितः समन्तादाधत्ते कनकमयातपत्रलक्ष्मीं ।। ५.३९ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;"><br /></span></b></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: इस पर्वत के बवंडरों द्वारा उड़ाए जाने पर इस दिखाई पड़ने वाले विकसित स्थलकमलिनीवन से उड़ता हुआ चारों ओर आकाश में मण्डलाकार रूप में फैला हुआ कमलपराग सुवर्णमय छत्र की शोभा धारण कर रहा है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><span style="color: #b45f06;"><b>टिप्पणी:</b></span><span style="color: #222222;"> निदर्शना अलङ्कार ।</span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;">इह सनियमयोः सुरापगायां उषसि सयावकसव्यपादरेखा ।</span><br style="background-color: white;" /><span style="background-color: white;">कथयति शिवयोः शरीरयोगं विषमपदा पदवी विवर्तनेषु ।। ५.४० ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;"><br /></span></b></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: इस पर्वत में उषाकाल के समान सुरनदी गङ्गा के तट पर लाक्षा अथवा महावर के रङ्ग से रङ्गे हुए बांये चरण की रेखा से चिन्हित तथा छोटी बड़ी विषम पद-पंक्तियों से युक्त परिक्रमा मार्ग संध्यावन्दनादि नियमों में लगे हुए उमाशङ्कर के अर्धनारीश्वर रूप का परिचय देता है ।</span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> तात्पर्य यह है कि इस कैलास पर्वत पर अत्यन्त प्रातः काल में भगवान अर्धनारीश्वर उमाशङ्कर गङ्गा तट पर संध्यावदनादि करते हैं, जिससे उनके बाएं पैर तथा दाहिने पैर की छोटी बड़ी पद-पंक्तियाँ यहाँ सुशोभित होती हैं । अर्धनारीश्वर रूप में पार्वती का पैर बांया होता है, जिसमें महावर लगे रहते हैं और वह दाहिने पैर की अपेक्षा छोटा भी होता है । अर्थात यह शिव-पार्वती का विहारस्थल है । संध्यावदनादि के क्षणों में भी वे परस्पर विरह नहीं सहन कर सकते । काव्यलिङ्ग अलङ्कार ।</span></span><br />
<span face="sans-serif"><span style="color: #222222;"><br /></span></span>
<span face="sans-serif"><span style="color: #222222;"><br /></span></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;">संमूर्छतां रजतभित्तिमयूखजालैरालोकपादपलतान्तरनिर्गतानां ।</span><br style="background-color: white;" /><span style="background-color: white;">घर्मद्युतेरिह मुहुः पटलानि धाम्नां आदर्शमण्डलनिभानि समुल्लसन्ति ।। ५.४१ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;"><br /></span></b></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: इस पर्वत पर चाँदी की भित्तियों की किरण समूहों से बहुल प्राप्त एवं चञ्चल वृक्षों एवं लताओं के मध्यभागों से निकली हुई सूर्य की किरणों के दर्पण-बिम्ब के समान मण्डल बारम्बार प्रस्फुटित होते हैं। </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> उपमा अलङ्का। </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;">शुक्लैर्मयूखनिचयैः परिवीतमूर्तिर्वप्राभिघातपरिमण्डलितोरुदेहः ।</span><br style="background-color: white;" /><span style="background-color: white;">शृङ्गाण्यमुष्य भजते गणभर्तुरुक्षा कुर्वन्वधूजनमनःसु शशाङ्कशङ्कां ।। ५.४२ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;"><br /></span></b></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: श्वेत किरण-समूहों से व्याप्त शरीर, सींगों से मिटटी कुरेदने की क्रीड़ा में मस्त होने के कारण अपने विशाल शरीर को समेटे हुए, प्रमथाधिपति शङ्कर का वाहनभूत नन्दिकेश्वर युवतियों के मन में चन्द्रमा की भ्रान्ति उत्पन्न करते हुए उस पर्वत के शिखरों का आश्रय लेता है। </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> सन्देह, भ्रांतिमान तथा काव्यलिङ्ग अलङ्कार। </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;">सम्प्रति लब्धजन्म शनकैः कथं अपि लघुनि क्षीणपयस्युपेयुषि भिदां जलधरपटले ।</span><br style="background-color: white;" /><span style="background-color: white;">खण्डितविग्रहं बलभिदो धनुरिह विविधाः पूरयितुं भवन्ति विभवः शिखरमणिरुचः ।। ५.४३ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;"><br /></span></b></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: इस पर्वत में शिखरों की मणिकांतियाँ इस शरद ऋतु में क्षीण जलवाले एवं छोटे छोटे टुकड़ों में विभक्त मेघमण्डलों में किसी प्रकार से उत्पन्न होने के कारण छिन्न अथवा अस्पष्ट स्वरुप वाले इन्द्रधनुष की पूर्ति करने में समर्थ होती है। </span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> अर्थात छोटे छोटे श्वेत बादलों में मणियों की प्रभायें चमक कर इन्द्रधनुष की पूर्ति कर देती हैं। अतिशयोक्ति अलङ्कार। </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;">स्नपितनवलतातरुप्रवालैरमृतलवस्रुतिशालिभिर्मयूखैः ।</span><br style="background-color: white;" /><span style="background-color: white;">सततं असितयामिनीषु शम्भो अमलयतीह वनान्तं इन्दुलेखा ।। ५.४४ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white;"><br /></span></b></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;">अर्थ: इस पर्वत में भगवान् शङ्कर के भाल में स्थित चन्द्रमा की की कान्ति नूतन लताओं और वृक्षों के पल्लवों को सींचनेवाली एवं अमृत-बिन्दु बरसाने वाली अपनी किरणों से सर्वदा कृष्णपक्ष की रात्रियों में भी वन प्रदेशों को धवल बनती रहती है। </span><br />
<span face="sans-serif"><span style="color: #222222;"></span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><br /></span><span face="sans-serif"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> अन्य पर्वतों में यह नहीं है, यह तो इसकी ही विशेषता है। व्यतिरेक अलङ्कार की व्यंजना। </span></span><br />
<span face="sans-serif"><span style="color: #222222;"><br /></span></span>
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white; font-size: 14px;">क्षिपति योऽनुवनं विततां बृहद्बृहतिकां इव रौचनिकीं रुचं ।</span><br style="background-color: white; font-size: 14px;" /><span style="background-color: white; font-size: 14px;">अयं अनेकहिरण्मयकंदरस्तव पितुर्दयितो जगतीधरः ।। ५.४५ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;">अर्थ: जो पर्वत विस्तृत चादर की भांति प्रत्येक वन में अपनी सुवर्ण कान्ति प्रसारित कर रहे हैं, अनेक सुवर्णमयी कन्दराओं से युक्त वही यह सामने दिखाई पड़ने वाला तुम्हारे पिता इन्द्र का सबसे प्रिय पर्वत है। </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif"><span style="font-size: 14px;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> अर्थात तुम्हारी तपस्या की पुण्य-स्थल इन्द्रनील पर्वत अब वही यह सामने दिखाई पड़ रहा है जिसकी सुवर्णमयी छाया चारों ओर के वन्य प्रदेशों पर सुनहली चादर की भांति पड़ रही है। उपमा अलङ्कार। </span></span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white; font-size: 14px;">सक्तिं लवादपनयत्यनिले लतानां वैरोचनैर्द्विगुणिताः सहसा मयूखैः ।</span><br style="background-color: white; font-size: 14px;" /><span style="background-color: white; font-size: 14px;">रोधोभुवां मुहुरमुत्र हिरण्मयीनां भासस्तडिद्विलसितानि विडम्बयन्ति ।। ५.४६ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;">अर्थ: इस इन्द्रनील पर्वत पर वायु द्वारा वेगपूर्वक लताओं के परस्पर संयोग को छुड़ा देने पर उसी क्षण सूर्य की किरणों से द्विगुणित कान्ति प्राप्त करने वाली सुवर्णमयी तटवर्ती भूमि की प्रभायें बारम्बार बिजली चमकने की शोभा का अनुकरण करने लगती हैं। </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif"><span style="font-size: 14px;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b><span style="color: #222222;">उपमा अलङ्कार। </span></span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white; font-size: 14px;">कषणकम्पनिरस्तमहाहिभिः क्षणविमत्तमतङ्गजवर्जितैः ।</span><br style="background-color: white; font-size: 14px;" /><span style="background-color: white; font-size: 14px;">इह मदस्नपितैरनुमीयते सुरगजस्य गतं हरिचन्दनैः ।। ५.४७ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;">अर्थ: इस पर्वत पर ऐरावत के मद से सिञ्चित उन हरिचन्दनों के द्वारा ऐरावत का आना-जाना मालूम हो जाता है, जो ऐरावत के गण्डस्थल के खुजलाने के कारण होनेवाले कम्पन से बड़े-बड़े भीषण सर्पों से रहित हो जाते हैं, तथा क्षणभर के लिए बड़े-बड़े मतवाले गजराज भी जिन्हें छोड़कर भाग जाते हैं। </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif"><span style="font-size: 14px;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> अर्थात इसी पर्वत पर हरिचन्दनों के वे वृक्ष हैं, जिनपर बड़े-बड़े सर्प लिपटे रहते हैं तथा जिनके बीच देवराज इन्द्र का वाहन क्रीड़ा करता है। किन्तु जब कभी ऐरावत अपने गण्डस्थल को खुजलाने के लिए किसी हरिचन्दन वृक्ष पर धक्का लगता है तो वे भीषण सर्प भाग जाते हैं तथा ऐरावत के मद की विचित्र सुगन्ध से अन्यान्य मतवाले गजराज भी भाग जाते हैं। काव्यलिङ्ग अलङ्कार। </span></span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white; font-size: 14px;">जलदजालघनैरसिताश्मनां उपहतप्रचयेह मरीचिभिः ।</span><br style="background-color: white; font-size: 14px;" /><span style="background-color: white; font-size: 14px;">भवति दीप्तिरदीपितकंदरा तिमिरसंवलितेव विवस्वतः ।। ५.४८ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;">अर्थ: इस पर्वत पर काले मेघसमूहों की भांति सघन इन्द्रनील मणियों की किरणों से सामना होनेपर सूर्य की किरणों का तेज-पुञ्ज मलिन हो जाता है और कन्दराएँ प्रकाश से विहीन हो जाती हैं, उस समय ऐसा मालूम पड़ता है मानो सूर्य की कान्ति अन्धकार से मिश्रित हो गयी है। </span></span><br />
<span face="sans-serif"><span style="color: #222222;"></span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif"><span style="font-size: 14px;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> उत्प्रेक्षा अलङ्कार </span></span></span><br />
<span face="sans-serif"><span style="font-size: 14px;"><span style="color: #222222;"><br /></span></span></span>
<br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white; font-size: 14px;">भव्यो भवन्नपि मुनेरिह शासनेन क्षात्रे स्थितः पथि तपस्य हतप्रमादः ।</span><br style="background-color: white; font-size: 14px;" /><span style="background-color: white; font-size: 14px;">प्रायेण सत्यपि हितार्थकरे विधौ हि श्रेयांसि लब्धुं असुखानि विनान्तरायैः ।। ५.४९ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;">अर्थ: इस </span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222; font-size: 14px;">इन्द्रकील </span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;">पर्वत पर शांतस्वभाव होते पर भी असावधानी से रहित और क्षत्रिय धर्म में स्थित अर्थात शास्त्र ग्रहण कर महर्षि वेद-व्यास के बताये हुए नियमों के अनुसार आप तपस्या करें। क्योंकि प्रायः हितकारी उपायों के होते हुए भी बिना विघ्न-बाधा के कल्याण की प्राप्ति असंभव होती है। </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif"><span style="font-size: 14px;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b><span style="color: #222222;">अर्थात अकाट्य वैर रखने वाले सर्वत्र होते हैं। अर्थान्तरन्यास अलङ्कार। </span></span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white; font-size: 14px;">मा भूवन्नपथहृतस्तवेन्द्रियाश्वाः संतापे दिशतु शिवः शिवां प्रसक्तिं ।</span><br style="background-color: white; font-size: 14px;" /><span style="background-color: white; font-size: 14px;">रक्षन्तस्तपसि बलं च लोकपालाः कल्याणीं अधिकफलां क्रियां क्रियायुः ।। ५.५० ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;">अर्थ: तुम्हारे इन्द्रिय-रुपी अश्वगण तुम्हें कुमार्ग में न ले जाएँ, तपस्या में कोई क्लेश उपस्थित होने पर भगवान् शङ्कर आप को पर्याप्त उत्साह शक्ति प्रदान करें। लोकपालगण तप साधना में तुम्हारे बल की रक्षा करते हुए इस कल्याणदायी अनुष्ठान को अधिकाधिक फल देनेवाला बनाएं। </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif"><span style="font-size: 14px;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #222222;"> प्रथम चरण में रूपक अलङ्कार। </span></span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white; font-size: 14px;">इत्युक्त्वा सपदि हितं प्रियं प्रियार्हे धाम स्वं गतवति राजराजभृत्ये ।</span><br style="background-color: white; font-size: 14px;" /><span style="background-color: white; font-size: 14px;">सोत्कण्ठं किं अपि पृथासुतः प्रदध्यौ संधत्ते भृशं अरतिं हि सद्वियोगः ।। ५.५१ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;">अर्थ: प्रेमपात्र कुबेर सेवक यक्ष के इस प्रकार कल्याणयुक्त एवं प्रिय वचन कहकर शीघ्र ही अपने निवास-स्थान को चले जाने के अनन्तर कुन्ती-पुत्र अर्जुन कुछ उत्कण्ठित से होकर सोचने लगे। क्यों न हो, सज्जनों का वियोग अत्यन्त दुखदायी होता ही है। </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif"><span style="font-size: 14px;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b><span style="color: #222222;">अर्थान्तरन्यास अलङ्कार। </span></span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><b><span style="background-color: white; font-size: 14px;">तं अनतिशयनीयं सर्वतः सारयोगादविरहितं अनेकेनाङ्कभाजा फलेन ।</span><br style="background-color: white; font-size: 14px;" /><span style="background-color: white; font-size: 14px;">अकृशं अकृशलक्ष्मीश्चेतसाशंसितं स स्वं इव पुरुषकारं शैलं अभ्याससाद ।। ५.५२ ।।</span></b></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;">अर्थ: परिपूर्ण शोभा से समलङ्कृत उस अर्जुन ने सर्व प्रकार से बल प्रयोग करने पर भी अनतिक्रमणीय अर्थात दुर्जेय एवं शीघ्र पूर्ण होने वाले अनेक प्रकार के सत्फलों से युक्त, तथा चिरकाल से पाने के लिए मन में अभिलषित एवं विशाल उस इन्द्रकील पर्वत पर अपने पुरुषार्थ की भांति आश्रय प्राप्त किया। </span></span><br />
<span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br /></span></span><span face="sans-serif"><span style="font-size: 14px;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b><span style="color: #222222;">जो जो विशेषण पर्वत के लिए हैं, वही सब अर्जुन के पुरुषार्थ के लिए भी हैं। उपमा अलङ्कार। मालिनी छन्द। </span></span></span><br />
</font><div style="text-align: center;">
<font size="2"><br />
</font><div style="text-align: center;">
<span style="color: #b45f06;"><font size="2">इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये <span face="sans-serif"><span style="background-color: white;">पञ्चमः<b style="color: black; font-size: 14px;"> </b></span></span> सर्गः ।</font></span></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="color: #b45f06;"><font size="2">==============================================</font></span></b></div>
</div>
<font size="2"><span face="sans-serif"><span style="font-size: 14px;"><span style="color: #222222;"></span></span></span><br />
</font><div style="text-align: center;">
<font size="2"><br />
</font></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div></div><font size="2"><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; text-align: center;"><span style="color: #202122;">रुचिराकृतिः कनकसानुं अथो परमः पुमानिव पतिं पततां ।</span></b><br /><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; text-align: center;"><span style="color: #202122;">धृतसत्पथस्त्रिपथगां अभितः स तं आरुरोह पुरुहूतसुतः ।। ६.१ ।।</span></b><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><span face="sans-serif" style="color: #202122; text-align: center;">अर्थ: इन्द्रकील पर्वत पर पहुँचने के अनन्तर मनोहर शरीरधारी तथा सन्मार्गगामी इन्द्रपुत्र अर्जुन ने सुवर्णमय शिखरों से युक्त उस इन्द्रकील पर्वत पर त्रिपथगा गङ्गा के सामने की ओर से होकर इस प्रकार आरोहण किया जिस प्रकार से भगवान् विष्णु अपने वाहन पक्षीराज गरुड़ पर आरूढ़ होते हैं। </span><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><b style="color: #202122; font-family: sans-serif; text-align: center;"><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span face="sans-serif" style="color: #202122; text-align: center;"> उपमा अलङ्कार। प्रमिताक्षरा वृत्त। </span><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; text-align: center;"><span style="color: #202122;">तं अनिन्द्यबन्दिन इवेन्द्रसुतं विहितालिनिक्वणजयध्वनयः ।</span></b><br /><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; text-align: center;"><span style="color: #202122;">पवनेरिताकुलविजिह्मशिखा जगतीरुहोऽवचकरुः कुसुमैः ।। ६.२ ।।</span></b><br /><font color="#202122" face=""><b><br /></b></font><span face="sans-serif" style="color: #202122; text-align: center;">अर्थ: जय-जयकार की तरह भ्रमरों के गुञ्जन से युक्त, वायु द्वारा प्रकम्पित होने के कारण डालियों के टेढ़े-मेढ़े अग्रभागों वाले वृक्षों ने अच्छे स्तुतिपाठकों की भांति उस इन्द्रपुत्र अर्जुन के ऊपर पुष्पों की वर्षा की। </span><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><b style="color: #202122; font-family: sans-serif; text-align: center;"><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b><span face="sans-serif" style="color: #202122; text-align: center;">उपमा अलङ्कार। </span><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; text-align: center;"><span style="color: #202122;">अवधूतपङ्कजपरागकणास्तनुजाह्नवीसलिलवीचिभिदः ।</span></b><br /><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; text-align: center;"><span style="color: #202122;">परिरेभिरेऽभिमुखं एत्य सुखाः सुहृदः सखायं इव तं मरुतः ।। ६.३ ।।</span></b><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><span face="sans-serif" style="color: #202122; text-align: center;">अर्थ: कमलों के परागकणों को बिखेरते हुए, छोटी-छोटी गङ्गाजल की लहरियों का संपर्क करते हुए शीतल सुखदायी वायु ने अर्जुन को अपने सन्मित्र की भांति सम्मुख आकर परिरम्भण(अंक मिलन) किय। </span><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><b style="color: #202122; font-family: sans-serif; text-align: center;">टिप्पणी:</b><span face="sans-serif" style="color: #202122; text-align: center;"> उपमा अलङ्कार। </span><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; text-align: center;"><span style="color: #202122;">उदितोपलस्खलनसंवलिताः स्फुटहंससारसविरावयुजः ।</span></b><br /><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; text-align: center;"><span style="color: #202122;">मुदं अस्य माङ्गलिकतूर्यकृतां ध्वनयः प्रतेनुरनुवप्रं अपां ।। ६.४ ।।</span></b><br /><span face="sans-serif" style="color: #202122; text-align: center;">अर्थ: ऊंचे-ऊंचे पत्थरों की शिलाओं से टकराकर चूर-चूर होने वाली, हंस और सारस के गुञ्जन से युक्त नीचे गिरती हुई जल की कल-कल ध्वनियों ने अर्जुन के लिए मङ्गलसूचक तुरुही आदि के शब्दों से होने वाली प्रसन्नता का विस्तार किया। </span><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><span face="sans-serif" style="color: #b45f06; text-align: center;">टिप्पणी: </span><span face="sans-serif" style="color: #202122; text-align: center;">निदर्शना अलङ्कार। </span><br /><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif;"><span style="color: #202122;">अवरुग्णतुङ्गसुरदारुतरौ निचये पुरः सुरसरित्पयसां ।</span></b><br /><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif;"><span style="color: #202122;">स ददर्श वेतसवनाचरितां प्रणतिं बलीयसि समृद्धिकरीं ।। ६.५ ।।</span></b><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><span face="sans-serif" style="color: #202122;">अर्थ: अर्जुन ने ऊंचे ऊंचे देवदार के वृक्षों को उखाड़ फेंकने वाले प्रखर वेगयुक्त सुरनदी गङ्गा के जल प्रवाह में बेंत के वनों की कल्याणदायी विनम्रता को देखा। </span><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><b style="color: #202122; font-family: sans-serif;"><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span face="sans-serif" style="color: #202122;"> अर्थात एक ओर तो ऊंचे ऊंचे देवदार के वृक्षों को गङ्गा की प्रखर धारा उखाड़ फेंकती थी किन्तु विनम्रतायुक्त बेंत के वन उसी में आनन्दपूर्वक झूम रहे थे। जो लोग गर्वोन्मत्त होकर अपना शिर व्यर्थ ही ऊंचा उठाकर अकड़ते फिरते हैं उनका गर्व चूर्ण हुए बिना नहीं रहता है, किन्तु विनम्रता से व्यवहार करनेवाले सर्वत्र कल्याण प्राप्त करते हैं, आपत्तियां उन्हें नहीं सता सकतीं। विनम्रता कितनी हितकारिणी है, यह बात बेतों के उदहारण से अर्जुन के ध्यान में आयी। </span><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif;"><span style="color: #202122;">प्रबभूव नालं अवलोकयितुं परितः सरोजरजसारुणितं ।</span></b><br /><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif;"><span style="color: #202122;">सरिदुत्तरीयं इव संहतिमत्स तरङ्गरङ्गि कलहंसकुलं ।। ६.६ ।।</span></b><br /><font color="#202122" face=""><b><br /></b></font><span face="sans-serif" style="color: #202122;">अर्थ: अर्जुन चारों ओर से कमल-पराग से लाल रङ्ग में रङ्गे हुए , बिलकुल एक दुसरे से सटे हुए, जलतरङ्गों के समान शोभायमान, गङ्गा के स्तनों को ढंकने वाली ओढ़नी की भांति दिखाई पड़ने वाले राजहंसों की पंक्तियों को बड़ी देर तक देखने में समर्थ नहीं हुए। </span><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><b style="font-family: sans-serif;"><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span face="sans-serif" style="color: #202122;"> अर्थात उनका सौंदर्य अत्यधिक उत्तेजक था। अर्जुन विचलित होने लगे। </span><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif;"><span style="color: #202122;">दधति क्षतीः परिणतद्विरदे मुदितालियोषिति मदस्रुतिभिः ।</span></b><br /><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif;"><span style="color: #202122;">अधिकां स रोधसि बबन्ध धृतिं महते रुजन्नपि गुणाय महान् ।। ६.७ ।।</span></b><br /><br /><span face="sans-serif" style="color: #202122;">अर्थ: अर्जुन ने मतवाले हाथियों के तिरछे दन्त-प्रहारों की चोटों को धारण करने वाले, मद के चूने के कारण उसकी सुगन्ध से लुब्ध प्रमुदित एवं भ्रमरियों से युक्त गङ्गातट में अत्यधिक प्रीति प्रकट की। क्यों न हो, महान लोग पीड़ा पहुंचा कर भी पीड़ित को उत्कर्ष की प्राप्ति करा ही देते हैं। </span><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><b style="font-family: sans-serif;"><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span face="sans-serif" style="color: #202122;"> मतवाले हाथियों के दन्त-प्रहारों से गङ्गातट क्षत-विक्षत हो गया था, उसकी शोभा नष्ट हो गयी थी, किन्तु हाथियों के मद की धरा उनमें बही थी, अतः वहां मद-सुगन्ध लोभी भ्रमरियन गुञ्जार कर रही थीं, जिससे अर्जुन को बड़ी प्रसन्नता हुई। क्यों न होती, महान लोगों का विरोध भी उत्कर्ष का कारण होता है। अर्थान्तरन्यास अलङ्कार। </span><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif;"><span style="color: #202122;">अनुहेमवप्रं अरुणैः समतां गतं ऊर्मिभिः सहचरं पृथुभिः ।</span></b><br /><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif;"><span style="color: #202122;">स रथाङ्गनामवनितां करुणैरनुबध्नतीं अभिननन्द रुतैः ।। ६.८ ।।</span></b><br /><font color="#202122" face=""><br /></font><span face="sans-serif" style="color: #202122;">अर्थ: अर्जुन ने (इन्द्रकील गिरि के) सुवर्णमय शिखर के समीप, (शिखर के स्वर्णिम कान्ति से युक्त होने के कारण) लाल रङ्ग की विशाल तरङ्गों की समानता को प्राप्त अपने प्रिय सहचर को अपने करुण स्वरों में खोजती हुई चक्रवाकी का अभिनन्दन किया। </span></font><div><div><div><div><div><div><div style="text-align: center;"><div style="text-align: start;"><div><div style="text-align: start;"><div style="text-align: left;"><div><div><div><div><div style="text-align: center;"><span style="text-align: left;"></span></div>
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</div><div><font size="2"><span face="sans-serif" style="color: #202122;"><br /></span></font></div><div><font face="" size="2"><b><font color="#f57c00">टिप्पणी:</font></b><font color="#202122"> सुवर्णमय शिखर की समीपता के कारण गङ्गा की बड़ी-बड़ी लहरें लाल रङ्ग के चक्रवाकों के समान दिखाई पड़ रही थी। उनमें से अपने प्यारे चक्रवाक को अपने करुण स्वर से कोई चक्रवाकी ढूंढना चाहती थी। वह अर्जुन को बहुत पसन्द आयी, उन्होंने उसके इस अत्यधिक प्रेम की मन में प्रशन्सा की। तद्गुण और भ्रान्ति अलङ्कार का अङ्गागी भाव से सङ्कर। </font></font></div><div><font face="" size="2"><font color="#202122"><br /></font></font></div><div><font face="" size="2"><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">सितवाजिने निजगदू रुचयश्चलवीचिरागरचनापटवः ।</span><br style="color: #202122;" /><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">मणिजालं अम्भसि निमग्नं अपि स्फुरितं मनोगतं इवाकृतयः ।। ६.९ ।।</span></b><br style="background-color: white; color: #202122; font-family: sans-serif; font-size: 14px;" /><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;" /><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122" face=""><span style="font-size: 14px;">अर्थ: चञ्चल तरङ्गों को अपने रङ्ग में रङ्ग देने की रचना में निपुण मणिकान्तियों ने जल की तह में डूबे हुए मणियों के समूहों के होने की सूचना भ्रूभङ्ग आदि बाह्य विकारों द्वारा मन के क्रोधादि विकारों की भान्ति अर्जुन को दे दी। </span></font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122" face=""><span style="font-size: 14px;"><br /></span></font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font face=""><span style="font-size: 14px;"><b><font color="#f57c00">टिप्पणी:</font></b><font color="#202122"> गङ्गा की निर्मल शुभ्र जल-धारा की तह में मणियाँ पड़ी थीं, उनकी कान्तियाँ ऊपर चञ्चल जल तरङ्गों में भी सक्रान्त हो रही थी और इस प्रकार अर्जुन को ऊपर की लहरों को देखकर ही उनकी सूचना मिल गयी थी। बाह्य आकृति से मनोगत विकारों की सूचना चतुर लोग पा ही जाते हैं । उपमा अलङ्कार</font></span></font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122" face=""><span style="font-size: 14px;"><br /></span></font></div><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">उपलाहतोद्धततरङ्गधृतं जविना विधूतविततं मरुता ।</span><br style="color: #202122;" /><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">स ददर्श केतकशिखाविशदं सरितः प्रहासं इव फेनं अपां ।। ६.१० ।।</span></b><br style="background-color: white; color: #202122; font-family: sans-serif; font-size: 14px;" /><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;" /><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122">अर्थ: अर्जुन ने बड़े-बड़े पत्थरों के कारण चञ्चल तरङ्गो से युक्त, तीव्र वायु के झोंकों से प्रकम्पित एवं खण्ड-खण्ड में विशीर्ण केतकी के शिखाग्र की भान्ति श्वेत जल के फेनों को मानो गङ्गा के हास्य के समान देखा। </font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122"><br /></font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122">टिप्पणी: हास्य भी श्वेत ही वर्णित होता है। उत्प्रेक्षा अलङ्कार। </font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122"><br /></font></div><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">बहु बर्हिचन्द्रिकनिभं विदधे धृतिं अस्य दानपयसां पटलं ।</span><br style="color: #202122;" /><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">अवगाढं ईक्षितुं इवैभपतिं विकसद्विलोचनशतं सरितः ।। ६.११ ।।</span></b><br style="background-color: white; color: #202122; font-family: sans-serif; font-size: 14px;" /><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;" /><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122">अर्थ: मयूरों की पुच्छों के चन्द्रक के समान दिखाई पड़नेवाले अनेक मदजल के बिन्दुओं ने जल के भीतर डूबे हुए गजराज को देखने के लिए मानो नदी के खुले हुए सैकड़ों नेत्रों के समान अर्जुन में प्रीति उत्पन्न की। </font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122"><br /></font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><b><font color="#f57c00">टिप्पणी: </font></b><font color="#202122">गजराज तो पानी में डूब कर आनन्द ले रहा था और उसके मदजल के बिन्दु धारा के ऊपर तेल की तरह तैर रहे थे, जो रङ्ग-बिरङ्गे होकर मयूरों के पुच्छों में रहने वाले चन्द्रकों की भान्ति दिखाई पड़ रहे थे। कवी उसी की उत्प्रेक्षा कर रहा है, मानो नदी अपने सैकड़ो नेत्रों को खोलकर उस गजराज को ढूंढना चाहती है कि वह क्या हो गया ? अर्जुन को यह दृश्य परम प्रीतिकर लगा। उत्प्रेक्षा अलङ्कार। </font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122"><br /></font></div><b style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">प्रतिबोधजृम्भणविभीनमुखी पुलिने सरोरुहदृशा ददृशे ।</span><br style="color: #202122;" /><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">पतदच्छमौक्तिकमणिप्रकरा गलदश्रुबिन्दुरिव शुक्तिवधूः ।। ६.१२ ।।</span></b><br style="background-color: white; color: #202122; font-family: sans-serif; font-size: 14px;" /><br style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;" /><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122">अर्थ: कमलनयन अर्जुन ने स्फुटित होने के कारण (नीन्द से जागने के कारण जम्भाई लेने से) खुले मुखवाली, अतएव स्वच्छमुक्ता की कान्तियों का प्रसार करती हुई, एवं मानो जलबिंदु गिरती हुई सीपी रूपिणी वधु को तटवर्ती प्रदेश पर देखा। </font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122"><br /></font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><b><font color="#f57c00">टिप्पणी:</font></b><font color="#202122"> जैसे कोई नववधू निद्रा से जागकर अपनी शैय्या पर जम्भाई लेती हुई मुंह बाती है, अपने शुभ्र दांतों की किरणों का प्रसार करती है तथा आनन्दाश्रु बहाती है उसी प्रकार नदी के तटवर्ती प्रदेश पर वह सीपी पड़ी हुई थी। उसका मुंह चटक गया था और उसमें से मोती की कान्ति बहार झलक रही थी तथा जलबिन्दु चू रहे थे। उत्प्रेक्षा अलङ्कार। </font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122"><br /></font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><span style="background-color: white;"><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><b><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">शुचिरप्सु विद्रुमलताविटपस्तनुसान्द्रफेनलवसंवलितः ।</span><br style="color: #202122;" /><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">स्मरदायिनः स्मरयति स्म भृशं दयिताधरस्य दशनांशुभृतः ।। ६.१३ ।।</span></b><br style="color: #202122;" /><br /><div><font color="#202122" face="">अर्थ: (नदी की) जलराशि में स्वच्छ, छोटे-छोटे एवं सघन फेन के टुकड़ों के साथ मिले हुए प्रवलता के पल्लव, कामोत्तेजना देनेवाले, स्वच्छ दांतों की किरणों से मनोहर प्रियतम के अधरों का अत्यधिक स्मरण करा रहे थे। </font></div><div><font color="#202122" face=""><br /></font></div><div><font face=""><span style="font-size: 14px;"><b><font color="#f57c00">टिप्पणी:</font></b><font color="#202122"> स्मरण अलङ्कार</font></span></font></div><div><font face=""><span style="font-size: 14px;"><font color="#202122"><br /></font></span></font></div><b><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">उपलभ्य चञ्चलतरङ्गहृतं मदगन्धं उत्थितवतां पयसः ।</span><br style="color: #202122;" /><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">प्रतिदन्तिनां इव स सम्बुबुधे करियादसां अभिमुखान्करिणः ।। ६.१४ ।।</span></b></span></span></span></div><div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><span style="background-color: white;"><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><font face=""><span style="font-size: 14px;"><b><br style="color: #202122;" /></b></span></font>अर्थ: अर्जुन ने चञ्चल लहरों पर तैरते हुए मदगन्ध को सूंघकर जल की सतह से ऊपर निकले हुए गजाकृति जलजन्तुओं (जलहस्ती) को अपने प्रतिपक्षी हाथी समझ कर उन पर आक्रमण करने के लिए तत्पर हाथियों को देखा। </span></span></span></div><div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><span style="background-color: white;"><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><br style="color: #202122;" /><b><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">स जगाम विस्मयं उद्वीक्ष्य पुरः सहसा समुत्पिपतिषोः फणिनः ।</span><br style="color: #202122;" /><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">प्रहितं दिवि प्रजविभिः श्वसितैः शरदभ्रविभ्रमं अपां पटलं ।। ६.१५ ।।</span></b></span></span></span></div><div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><span style="background-color: white;"><span face="sans-serif" style="color: #222222;"><span style="font-size: 14px;"><font face=""><span style="font-size: 14px;"><br style="color: #202122;" /></span></font><div><font color="#202122">अर्थ: अर्जुन ने आगे की ओर अकस्मात् ऊपर आने के इच्छुक एक सर्प के अत्यन्त वेगयुक्त फुफकार से आकाश में फेंके हुए, शरद ऋतु के बादल की भांति दिखाई पड़नेवाले जल के मण्डलाकार समूह के देखकर बड़ा आश्चर्य माना। </font></div><div><font color="#202122"><br /></font></div><div><b><font color="#f57c00">टिप्पणी:</font></b><font color="#202122"> उपमा से अनुप्राणित स्वभावोक्ति अलङ्कार। </font></div><div><font color="#202122"><br /></font></div><b><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">स ततार सैकतवतीरभितः शफरीपरिस्फुरितचारुदृशः ।</span><br style="color: #202122;" /><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">ललिताः सखीरिव बृहज्जघनाः सुरनिम्नगां उपयतीः सरितः ।। ६.१६ ।।</span></b><br style="color: #202122;" /><br /><div><font color="#202122">अर्थ: अर्जुन ने बालुकामय तटवर्ती प्रदेशों से युक्त, चारों ओर मछलियों के फुदकने रुपी सुन्दर नेत्रों से सुशोभित सुरनदी गङ्गा में मिलनेवाली उसकी सहायक नदियों को मोटी जंघाओं वाली मनोहर सखियों की भांति पार किया। </font></div><div><font color="#202122"><br /></font></div><div><b><font color="#f57c00">टिप्पणी:</font></b><font color="#202122"> रूपक और उपमा अलङ्कार। </font></div></span></span></span></div></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122"><br /></font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122"><br /></font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122"><br /></font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><b><span style="color: #202122;">अधिरुह्य पुष्पभरनम्रशिखैः परितः परिष्कृततलां तरुभिः ।</span><br style="color: #202122;" /><span style="color: #202122;">मनसः प्रसत्तिं इव मूर्ध्नि गिरेः शुचिं आससाद स वनान्तभुवं ।। ६.१७ ।।</span></b><br style="color: #202122;" /><br /><div><font color="#202122" face="">अर्थ: अर्जुन ने इन्द्रकील पर्वत पर चढ़ कर उसके शिखर पर पुष्पों के भार से अवनत शिखा वाले वृक्षों के चारों ओर झाड़-बुहारकर परिष्कृत एवं पवित्र वन्यभूमि को मानो मन की मूर्तिमती प्रसन्नता की भांति प्राप्त किया। </font></div><div><font color="#202122" face=""><br /></font></div><div><font face=""><span><b><font color="#f57c00">टिप्पणी:</font></b><font color="#202122"> उत्प्रेक्षा अलङ्कार</font></span></font></div><div><font color="#202122" face=""><br /></font></div><b><span style="color: #202122;">अनुसानु पुष्पितलताविततिः फलितोरुभूरुहविविक्तवनः ।</span><br style="color: #202122;" /><span style="color: #202122;">धृतिं आततान तनयस्य हरेस्तपसेऽधिवस्तुं अचलां अचलः ।। ६.१८ ।।</span></b><br style="color: #202122;" /><br /><div><font color="#202122">अर्थ: प्रत्येक शिखर पर फूली हुयी लताओं के वितानों से युक्त एवं फले हुए वृक्षों से सुशोभित पवित्र अथवा निर्जन वनों से विभूषित इन्द्रकील पर्वत ने इन्द्रपुत्र अर्जुन को तपश्चर्या के अनुष्ठान में अविचल उत्साह प्रदान किया। </font></div><div><font color="#202122"><br /></font></div><div><b><font color="#f57c00">टिप्पणी:</font></b><font color="#202122"> काव्यलिङ्ग अलङ्कार। </font></div><div><font color="#202122"><br /></font></div><b><span style="color: #202122;">प्रणिधाय तत्र विधिनाथ धियं दधतः पुरातनमुनेर्मुनितां ।</span><br style="color: #202122;" /><span style="color: #202122;">श्रमं आदधावसुकरं न तपः किं इवावसादकरं आत्मवतां ।। ६.१९ ।।</span></b><br style="color: #202122;" /><br /><div><font color="#202122" face="">अर्थ: तदनन्तर उस इन्द्रकील पर्वत पर योग शास्त्र के अनुसार अपनी चित्तवृत्तियों का नियमन कर मुनियों जैसी वृत्ति धारण करनेवाले उस पुराने मुनि (नर के अवतार) अर्जुन को दुष्कर तपस्या के क्लेशों ने नहीं सताया। मनस्वियों को क्लेश पहुँचाने वाली भला कौन सी वस्तु है ? (कोई नहीं)</font></div><div><font color="#202122" face=""><br /></font></div><div><font face=""><span><b><font color="#f57c00">टिप्पणी:</font></b><font color="#202122"> अर्थान्तरन्यास अलङ्कार</font></span></font></div><div><font color="#202122" face=""><br /></font></div><b><span style="color: #202122;">शमयन्धृतेन्द्रियशमैकसुखः शुचिभिर्गुणैरघमयं स तमः ।</span><br style="color: #202122;" /><span style="color: #202122;">प्रतिवासरं सुकृतिभिर्ववृधे विमलः कलाभिरिव शीतरुचिः ।। ६.२० ।।</span></b><br style="color: #202122;" /><br /><div><font color="#202122">अर्थ: इन्द्रियदमन को ही मुख्य-मुख्य सुख के रूप में स्वीकार कर पवित्र गुणों से अपने पापमय अन्धकार का शमन करते हुए पापरहित अर्जुन प्रतिदिन अपनी उस विधिविहित तपस्या से (दूसरों के सन्ताप को दूर करने को ही मुख्य कार्य समझनेवाले अपनी कान्ति से अन्धकार को दूर करने वाले एवं अपनी कमनीय कलाओं से शुक्लपक्ष में प्रतिदिन बढ़्नेवाले) चन्द्रमा की भांति बढ़ने लगे। </font></div><div><font color="#202122"><br /></font></div><div><b><font color="#f57c00">टिप्पणी:</font></b><font color="#202122"> उपमा अलङ्कार। </font></div><div><font color="#202122"><br /></font></div><b><span style="color: #202122;">अधरीचकार च विवेकगुणादगुणेषु तस्य धियं अस्तवतः ।</span><br style="color: #202122;" /><span style="color: #202122;">प्रतिघातिनीं विषयसङ्गरतिं निरुपप्लवः शमसुखानुभवः ।। ६.२१ ।।</span></b><br style="color: #202122;" /><br /><div><font color="#202122" face="">अर्थ: और भी विवेक के उदय से तत्वों के विनिश्चय रूप-गुण के द्वारा काम-क्रोधादि विकारों में प्रवृत्तियों को रोकने वाले निष्कण्टक शान्ति एवं सुखोपभोग ने उस अर्जुन की तपश्चर्या में अनेक प्रकार का विघ्न पहुँचाने वाली विषय-वासनाओं की अभिरुचि को दबा दिया। </font></div><div><font color="#202122" face=""><br /></font></div><div><font face=""><span><b><font color="#f57c00">टिप्पणी:</font></b><font color="#202122"> अर्थात अर्जुन विषय-वासनाओं से निर्मुक्त होकर तपश्चर्या में रत हो गया। </font></span></font></div><div><font color="#202122" face=""><br /></font></div><b><span style="color: #202122;">मनसा जपैः प्रणतिभिः प्रयतः समुपेयिवानधिपतिं स दिवः ।</span><br style="color: #202122;" /><span style="color: #202122;">सहजेतरे जयशमौ दधती बिभरांबभूव युगपन्महसी ।। ६.२२ ।।</span></b><br style="color: #202122;" /><br /><div><font color="#202122">अर्थ: अहिंसा आदि में निरत रहकर ध्यान, जप एवं नमस्कारादि के द्वारा स्वर्ग के अधिपति इन्द्र को प्राप्त करने की चेष्टा में लगे हुए अर्जुन ने अपने स्वाभाविक एवं अभ्यास से प्राप्त वीररस एवं शान्त रसों को पुष्ट करनेवाले तेजों को एक साथ धारण किया। </font></div><div><font color="#202122"><br /></font></div><div><b><font color="#f57c00">टिप्पणी:</font></b><font color="#202122"> अर्थात वीरों के समान शस्त्रास्त्र से सुसज्जित होकर भी वह जप, तप, अहिंसा आदि शान्त कर्मों के उपासक बन गए। एक साथ ही इन दो परस्पर विरोधी तेजों को धारण करना अद्भुत महिमा का कार्य है। </font></div><div><font color="#202122"><br /></font></div><b><span style="color: #202122;">शिरसा हरिन्मणिनिभः स वहन्कृतजन्मनोऽभिषवणेन जटाः ।</span><br style="color: #202122;" /><span style="color: #202122;">उपमां ययावरुणदीधितिभिः परिमृष्टमूर्धनि तमालतरौ ।। ६.२३ ।।</span></b><br style="color: #202122;" /><br /><div><font color="#202122">अर्थ: मरकत मणि के समान हरे वर्ण वाले एवं नियमानुष्ठित स्नान करने के कारण पिङ्गल वर्ण की जटाओं को धारण किये हुए अर्जुन बाल सूर्य की किरणों से सुशोभित शिखर वाले तमाल के वृक्ष के समान सुशोभित हो रहे थे। </font></div><div><font color="#202122"><br /></font></div><div><b><font color="#f57c00">टिप्पणी:</font></b><font color="#202122"> उपमा अलङ्कार</font></div><div><font color="#202122"><br /></font></div><b><span style="color: #202122;">धृतहेतिरप्यधृतजिह्ममतिश्चरितैर्मुनीनधरयञ्शुचिभिः ।</span><br style="color: #202122;" /><span style="color: #202122;">रजयांचकार विरजाः स मृगान्कं इवेशते रमयितुं न गुणाः ।। ६.२४ ।।</span></b><br style="color: #202122;" /><br /><div><font color="#202122">अर्थ: हथियार धारण करने पर भी सरल बुद्धि वाले एवं पवित्र आचरणों में मुनियों को नीचे दिखाने वाले रजोगुणविहीन अर्जुन ने वन्य पशुओं को प्रसन्न कर दिया। भला गुण किसे नहीं वश में कर सकते। </font></div><div><font color="#202122"><br /></font></div><div><b><font color="#f57c00">टिप्पणी:</font></b><font color="#202122"> चरित्र की शुद्धता ही विश्वास का कारण होती है, वेश अथवा परिचय नहीं। अर्थान्तरन्यास अलङ्कार। </font></div><div><font color="#202122"><br /></font></div><div><b><span style="color: #202122;">अनुकूलपातिनं अचण्डगतिं किरता सुगन्धिं अभितः पवनं ।</span><br style="color: #202122;" /><span style="color: #202122;">अवधीरितार्तवगुणं सुखतां नयता रुचां निचयं अंशुमतः ।। ६.२५ ।।</span><br style="color: #202122;" /><br style="color: #202122;" /><span style="color: #202122;">नवपल्लवाञ्जलिभृतः प्रचये बृहतस्तरून्गमयतावनतिं ।</span><br style="color: #202122;" /><span style="color: #202122;">स्तृणता तृणैः प्रतिनिशं मृदुभिः शयनीयतां उपयतीं वसुधां ।। ६.२६ ।।</span><br style="color: #202122;" /><br style="color: #202122;" /><span style="color: #202122;">पतितैरपेतजलदान्नभसः पृषतैरपां शमयता च रजः ।</span><br style="color: #202122;" /><span style="color: #202122;">स दयालुनेव परिगाढकृशः परिचर्ययानुजगृहे तपसा ।। ६.२७ ।।</span></b><br style="color: #202122; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><font color="#222222" face=""><span style="font-size: 14px;">अर्थ: अर्जुन की उस तपश्चर्या के अनुकूल मन्द मन्द सुगन्धित वायु को उसके (अर्जुन के) चारों और विकीर्ण कर दिया तथा सूर्य की किरणों की ग्रीष्मकालीन तेजस्विता को दबाकर उसे सुखस्पर्शी बना दिया। पुष्प चुनने के अवसर पर नूतन पल्लव रुपी अञ्जलियों को धारण करने वाले विशाल वृक्षों को नम्र बना दिया तथा प्रत्येक रात्रि में शयन-स्थान अर्थात शैय्या बनने वाली पृथ्वी को कोमल तृणों से आच्छादित कर दिया । एवं जलरहित बादलों से बरसते हुए जल बिंदुओं द्वारा धरती की धुल को शान्त कर दिया। इस प्रकार की उस दयालु तपश्चर्या की शुश्रूषा से मानो अन्यन्त क्षीणशरीर अर्जुन परम अनुग्रहीत हुए। </span></font></div><div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><font color="#222222" face=""><span style="font-size: 14px;"><br /></span></font></div><div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><font face=""><span style="font-size: 14px;"><b><font color="#f57c00">टिप्पणी:</font></b><font color="#222222"> तात्पर्य यह है कि उस कठोर साधना में निरत अर्जुन को प्रकृति कि सारी सुविधाएं प्राप्त हुईं। यद्यपि वह खुली धुप में रहते थे, पृथ्वी पर शयन करते थे, स्वयं वृक्षों से पुष्प चुनते थे और वह तपोभूमि धूल धक्कड़ से भरी थी किन्तु उनके तपोलीन होने पर वह सब असुविधाएं स्वतः दूर हो गयी। तीनों श्लोकों में उत्प्रेक्षा ही प्रधान अलङ्कार है। जैसे किसी दुर्बल दीन-हीन व्यक्ति को देखकर कोई दयालु व्यक्ति उसकी सेवा सुश्रूषा में लीन हो जाता है, उसी प्रकार उनकी तपस्या भी मानो उस पर दयालु हो गयी। </font></span></font></div><br style="color: #202122; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><b style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">महते फलाय तदवेक्ष्य शिवं विकसन्निमित्तकुसुमं स पुरः ।</span><br style="color: #202122;" /><span face="sans-serif" style="color: #202122; font-size: 14px;">न जगाम विस्मयवशं वशिनां न निहन्ति धैर्यं अनुभावगुणः ।। ६.२८ ।।</span></b><br style="color: #202122; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><font color="#202122">अर्थ: महान सिद्धि रूप कल्याण(फल) की प्राप्ति के लिए विक्सित होने वाले उन कल्याणकारी शकुन रुपी पुष्पों को सामने देखकर विस्मित नहीं हुए। जितेन्द्रिय लोग फल प्राप्ति के सूचक अनुभवों के होने पर भी अपना धैर्य नहीं छोड़ते। </font></div><div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><font color="#202122"><br /></font></div><div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><b><font color="#f57c00">टिप्पणी:</font></b><font color="#202122"> क्योंकि यदि विस्मय करते तो तप सिद्धि क्षीण हो जाती, जैसा कि शास्त्रीय विधान है। "तप क्षरति विस्मयात्। " अर्थान्तरन्यास अलङ्कार। </font></div></div></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><font color="#202122"><br /></font></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><b style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;">तदभूरिवासरकृतं सुकृतैरुपलभ्य वैभवं अनन्यभवं ।<br />उपतस्थुरास्थितविषादधियः शतयज्वनो वनचरा वसतिं ।। ६.२९ ।।</b><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><span style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;">अर्थ: इस प्रकार की तपश्चर्या द्वारा थोड़े ही दिनों में अर्जुन के, दूसरों द्वारा असम्भव अर्थात अलौकिक प्रभाव को देखकर खेद से भरे हुए किरातवृन्द इन्द्र की पूरी अमरावती पहुँच गए। </span><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><font color="#b45f06" style="font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><b>टिप्पणी:</b></font><span style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"> किरातों को भ्रम हुआ कि कहीं अपनी कठोर तपस्या से यह इन्द्रपद प्राप्त तो नहीं करना चाहता। </span><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><b style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;">विदिताः प्रविश्य विहितानतयः शिथिलीकृतेऽधिकृतकृत्यविधौ ।<br />अनपेतकालं अभिरामकथाः कथयांबभूवुरिति गोत्रभिदे ।। ६.३० ।।</b><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><span style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;">अर्थ: उन वनचरों ने अनुमति लेकर इन्द्र के समीप प्रवेश किया और हाथ जोड़कर नमस्कार किया। पर्वत की रक्षा का गुरु कार्य छोड़कर वे आये थे अतः व्यर्थ में अधिक समय न लगाकर इन्द्र से इस प्रकार का श्रवणसुखद संवाद कह सुनाया। </span><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><b style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;">शुचिवल्कवीततनुरन्यतमस्तिमिरच्छिदां इव गिरौ भवतः ।<br />महते जयाय मघवन्ननघः पुरुषस्तपस्यति तपज्जगतीं ।। ६.३१ ।।</b><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><span style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;">अर्थ: हे महाराज इन्द्र ! पवित्र वल्कल से शरीर को आच्छादित कर अन्धकार को दूर करनेवाले सूर्य आदि तेजस्वियों में से मानो अन्यतम कोई एक निष्पाप पुरुष आपके इन्द्रकील नमक पर्वत पर, संसार को उत्तप्त करता हुआ, किसी महान विजय लाभ के लिए तपस्या कर रहा है। </span><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><b style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><font color="#b45f06">टिप्पणी:</font></b><span style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"> उत्प्रेक्षा अलङ्कार</span><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><b style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;">स बिभर्ति भीषणभुजंगभुजः पृथि विद्विषां भयविधायि धनुः ।<br />अमलेन तस्य धृतसच्चरिताश्चरितेन चातिशयिता मुनयः ।। ६.३२ ।।</b><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><span style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;">अर्थ: भयङ्कर सर्पों के समान भुआजों वाला वह पुरुष शत्रुओं को भयभीत करनेवाला विशाल धनुष धारण किये हुए है। उसके निर्मल आचरणों ने सच्चरित ऋषि मुनियों को भी जीत लिया है। </span><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><br style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;" /><b style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><font color="#b45f06">टिप्पणी:</font></b><span style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"> उपमा अलङ्कार </span></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><span style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><br /></span></div><div style="background-color: white; color: #222222; font-family: sans-serif; font-size: 14px;"><span style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><b style="font-family: "times new roman";">मरुतः शिवा नवतृणा जगती विमलं नभो रजसि वृष्टिरपां ।<br />गुणसम्पदानुगुणतां गमितः कुरुतेऽस्य भक्तिं इव भूतगणः ।। ६.३३ ।।</b><br style="font-family: "times new roman";" /><br style="font-family: "times new roman";" /><br style="font-family: "times new roman";" /><span style="font-family: "Times New Roman";">अर्थ: उस तपस्वी पुरुष के सद्गुणों के प्रभाव से अनुकूलता को प्राप्त होने वाले पृथ्वी, जल आदि पाँचों महाभूत भी मानो उसके प्रति भक्ति करते हैं, क्योंकि हवाएं सुखदायिनी हो गयी हैं, धरती नूतन कोमल घासों से आच्छादित हो गयी है, आकाश निर्मल हो गया है, धुल उठने पर जल की वृष्टि होती है। </span><br style="font-family: "times new roman";" /><br style="font-family: "times new roman";" /><b style="font-family: "times new roman";"><font color="#b45f06">टिप्पणी:</font></b><span style="font-family: "Times New Roman";"> उत्प्रेक्षा अलङ्कार </span><br style="font-family: "times new roman";" /><br style="font-family: "times new roman";" /><b style="font-family: "times new roman";">इतरेतरानभिभवेन मृगास्तं उपासते गुरुं इवान्तसदः ।<br />विनमन्ति चास्य तरवः प्रचये परवान्स तेन भवतेव नगः ।। ६.३४ ।।</b><br style="font-family: "times new roman";" /><br style="font-family: "times new roman";" /><br style="font-family: "times new roman";" /><span style="font-family: "Times New Roman";">अर्थ: वन्य पुरुष उस तपस्वी पुरुष की सेवा विद्यार्थियों द्वारा गुरु के समान परस्पर वैर-विरोध भूलकर करते हैं। पुष्प चुनने के समय वृक्ष उसके सामने स्वयं झुक जाते हैं। (इस प्रकार) वह इन्द्रकील आप की भांति ही अब उस तपस्वी के अधीन सा हो गया है। </span><br style="font-family: "times new roman";" /><br style="font-family: "times new roman";" /><b style="font-family: "times new roman";">उरु सत्त्वं आह विपरिश्रमता परमं वपु प्रथयतीव जयं ।<br />शमिनोऽपि तस्य नवसंगमने विभुतानुषङ्गि भयं एति जनः ।। ६.३५ ।।</b><br style="font-family: "times new roman";" /><br style="font-family: "times new roman";" /><span style="font-family: "Times New Roman";">अर्थ: कठिन परिश्रम करने पर भी उसका श्रान्त न होना उसके महान आन्तरिक बल की सूचना देता है, उसका सुन्दर एवं विशाल शरीर उसकी विजय की सूचना देता है, यद्यपि वह शांत रहता है तथापि जब कभी किसी से उसका प्रथम समागम होता है उस समय आगन्तुक व्यक्ति में उसकी विभुता से भय उत्पन्न हो जाता है। </span><br style="font-family: "times new roman";" /><br style="font-family: "times new roman";" /><b style="font-family: "times new roman";">ऋषिवंशजः स यदि दैत्यकुले यदि वान्वये महति भूमिभृतां ।<br />चरतस्तपस्तव वनेषु सदा न वयं निरूपयितुं अस्य गतिं ।। ६.३६ ।।</b><br style="font-family: "times new roman";" /><br style="font-family: "times new roman";" /><span style="font-family: "Times New Roman";">अर्थ: वह तपस्वी ऋषियों का वंशज है अथवा दैत्यों के वंश का है अथवा राजाओं के महान कुल में उत्पन्न हुआ है ? आपके वन में तपस्या करनेवाले उस पुरुष के भेद को जानने में हम असमर्थ हैं।</span></span></div><div><span style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><span style="font-family: "Times New Roman";"><br /></span></span></div></font><div><font face="" size="2"><span style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><span style="font-family: "Times New Roman";"><div style="font-size: medium;"><b>विगणय्य कारणं अनेकगुणं निजयाथवा कथितं अल्पतया ।<br />असदप्यदः सहितुं अर्हति नः क्व वनेचराः क्व निपुणा मतयः ।। ६.३७ ।।<br /></b><br />अर्थ: (उसकी इस तपस्या का क्या प्रयोजन है, इसका) अनेक प्रकार से अनुमान करके अथवा अपनी स्वल्पबुद्धि से जो यह बात हमने आप से निवेदन की है, वह अनुचित भी हो तो आप उसे क्षमा करें। क्योंकि कहाँ हम जङ्गली लोग और कहाँ वह कुशलमति तपस्वी। </div></span></span></font><div><font face="" size="2"><span style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><span style="font-family: "Times New Roman";"><br /><b style="font-size: medium;"><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी</span></b><span style="font-size: small;">: अर्थान्तरन्यास अलङ्कार </span><br /><br /><br /><b style="font-size: medium;">अधिगम्य गुह्यकगणादिति तन्मनसः प्रियं प्रियसुतस्य तपः ।<br />निजुगोप हर्षं उदितं मघवा नयवर्त्मगाः प्रभवतां हि धियः ।। ६.३८ ।।<br /></b><br /><div style="font-size: medium;">अर्थ: देवराज इन्द्र ने इस प्रकार यक्षों के मुख से मन को आनन्दित करने वाली अपने प्यारे पुत्र की तपस्या का वृत्तान्त सुनकर अपनी प्रकट होने वाली प्रसन्नता को छिपा लिया। क्यों न हो, प्रभुओं अर्थात बड़े लोगों की बुद्धि नीतिमार्गानुसारिणी होती है। </div><div style="font-size: medium;"><br /></div><div style="font-size: medium;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> बड़े लोग किसी इष्ट कार्य के सिद्ध होने से उत्पन्न अपने मन की प्रसन्नता छिपा कर रखते हैं क्योंकि उसके प्रकट होने से कार्यहानि की सम्भावना रहती है। अर्थान्तरन्यास अलङ्कार। </div><div style="font-size: medium;"><br /></div><b style="font-size: medium;">प्रणिधाय चित्तं अथ भक्ततया विदितेऽप्यपूर्व इव तत्र हरिः ।<br />उपलब्धुं अस्य नियमस्थिरतां सुरसुन्दरीरिति वचोऽभिदधे ।। ६.३९ ।।<br /></b><br /><div style="font-size: medium;">अर्थ: तदनन्तर इन्द्र ने समाधिस्थ होकर अर्जुन को अपना अनन्य भक्त जान लेने पर भी, अनजान की भांति उसकी नियम निष्ठा की परीक्षा लेने के लिए देवांगनाओं से इस प्रकार की बातें की। </div><div style="font-size: medium;"><br /></div><div style="font-size: medium;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> इन्द्र यद्यपि यह जान गए थे कि अर्जुन अनन्य भाव से तपस्या में लीन है तथापि लोक प्रतीति के लिए अप्सराओं द्वारा इसकी दृढ़ नियमानुवर्तिता की परीक्षा लेना उन्होंने उचित समझा। क्योंकि अर्जुन उनका पुत्र था। पुत्र के प्रति अनायास कृपा भाव का होना उनके पक्षपाती कहे जाने का कारण बनता। अतः लोगों को दिखने के लिए उन्होंने यह नाटक रचा। </div><div style="font-size: medium;"><br /></div><b style="font-size: medium;">सुकुमारं एकं अणु मर्मभिदां अतिदूरगं युतं अमोघतया ।<br />अविपक्षं अस्त्रं अपरं कतमद्विजयाय यूयं इव चित्तभुवः ।। ६.४० ।।<br /></b><br /><div style="font-size: medium;">अर्थ: मर्म पर आघात करनेवाले शस्त्रास्त्रों में भला दूसरा कौन सा ऐसा अस्त्र हमारे पास है जो तुम लोगों की तरह सुकुमार, एकमात्र, सूक्ष्म, अत्यन्त दूरगामी, कभी निष्फल न होनेवाला एवं प्रतिकार रहित है। कामदेव के ऐसे अस्त्रों को छोड़कर (आप लोगों की) विजय प्राप्ति के लिए कोई दूसरा अस्त्र नहीं है। </div><div style="font-size: medium;"><br /></div><div style="font-size: medium;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात दूसरे अस्त्र तो कठोर होते हैं, बहुत से धारण करने पड़ते हैं क्योंकि एक से कभी काम चलने वाला नहीं होता, भारी और बड़े होते हैं, बहुत कम अथवा निर्दिष्ट दूरी तक जा सकते हैं, कभी कभी निष्फल हो जाते हैं और उनके प्रतिकार भी हैं, किन्तु तुम लोगों के सम्बन्ध में ऐसी कोई बात नहीं है। उपमा और परिकर अलङ्कार। </div><div style="font-size: medium;"><br /></div></span></span></font><div><font face="" size="2"><span style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><span style="font-family: "Times New Roman";"><div style="font-size: medium;"><b>भववीतये हतबृहत्तमसां अवबोधवारि रजसः शमनं ।</b><span><b><br />परिपीयमाणं इव वोऽसकलैरवसादं एति नयनाञ्जलिभिः ।। ६.४१ ।।</b><br /><br />अर्थ: सांसारिक दुःखों से सदा के लिए छूट जाने की इच्छा से माया-मोह को दूर हटाने वाले महान योगियों के , रजोगुण को शान्त करनेवाले तत्वबोध रूप जल को, आप लोग अपने नेत्रों के कटाक्ष रुपी अंजलियों से मानो क्षण भर में पान करके उसे विनष्ट कर देती है। <br /><br /><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> जब मुमुक्षुओं की यह दशा केवल आपके कटाक्षों से हो जाती है तो साधारण व्यक्ति की बात ही क्या है। उत्प्रेक्षा और रूपक का सङ्कर। <br /><br /><b>बहुधा गतां जगति भूतसृजा कमनीयतां समभिहृत्य पुरा ।<br />उपपादिता विदधता भवतीः सुरसद्मयानसुमुखी जनता ।। ६.४२ ।।</b><br /><br />अर्थ: प्राचीनकाल में अनेक स्थलों में बिखरी हुई सुन्दरता को एकत्र कर आप लोगों की रचना कर्णवाले विधाता ने साधारण जनता को स्वर्गलोक की यात्रा के लिए लालायित बना दिया है। <br /><br /><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात चन्द्रमा आदि अनेक पदार्थों में जो भी सुन्दरता बिखरी हुई थी उसी को एकत्र कर विधाता ने तुम लोगों की रचना की है और लोग जो स्वर्ग की प्राप्ति के लिए लालायित रहते हैं, उसमें केवल तुम लोगों की प्राप्ति की लालसा ही मूल कारण है। अतिश्योक्ति अलङ्कार। <br /><br /><b>तदुपेत्य विघ्नयत तस्य तपः कृतिभिः कलासु सहिताः सचिवैः ।<br />हृतवीतरागमनसां ननु वः सुखसङ्गिनं प्रति सुखावजितिः ।। ६.४३ ।।</b><br /><br /><div>अर्थ: अतएव आप लोग गायन-वादनादि कलाओं में निपुण अपने सहचर गन्धर्वों के साथ जाकर उस तपस्वी पुरुष की तपस्या में विघ्न प्रस्तुत करें। आप लोग जब वीतराग तपस्वियों के मन को भी अपनी ओर खींच लेतीं हैं तो सुखभिलाषी पुरुष तो सुगमता से वश में हो सकता है। </div><div><br /></div><div><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात वह तपस्वी तो बड़ी सुगमता से आप लोगों के वश में हो जाएगा। उसे वश में करना कठिन नहीं है। अर्थान्तरन्यास अलङ्कार। </div><div><br /></div><b>अविमृष्यं एतदभिलष्यति स द्विषतां वधेन विषयाभिरतिं ।<br />भववीतये न हि तथा स विधिः क्व शरासनं क्व च विमुक्तिपथः ।। ६.४४ ।।</b></span><br /><span><br /><div><span style="color: #202122;">अर्थ: वह तपस्वी अपने शत्रुओं का संहार कर विषय-सुख भोगने का अभिलाषी है, यह बात तो असंदिग्ध ही है। उसकी यह तपस्या संसार से मुक्ति पाने के लिए नहीं है। क्योंकि कहाँ धनुष और कहाँ मुक्ति का मार्ग?</span></div><div><span style="color: #202122;"><br /></span></div><div><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b><span style="color: #202122;"> वह धनुष लेकर तपस्या कर रहा है, यही इस बात का प्रमाण है कि मुमुक्षु नहीं है, क्योंकि मुक्ति हिंसा द्वारा प्राप्त नहीं होती, दोनों विरोधी चीज़ें हैं अतः निश्चय ही वह विषयसुखाभिलाषी है। अर्थान्तरन्यास अलङ्कार। </span></div><div><span style="color: #202122;"><b><br /></b></span></div></span></div><div style="font-size: medium;"><b>पृथुदाम्नि तत्र परिबोधि च मा भवतीभिरन्यमुनिवद्विकृतिः ।<br />स्वयशांसि विक्रमवतां अवतां न वधूष्वघानि विमृष्यन्ति धियः ।। ६.४५ ।।</b><br /><br />अर्थ: महान तेजस्वी उस तपस्वी पुरुष के सम्बन्ध में दुसरे मुनियों की तरह क्रुद्ध होकर शाप देने की शङ्का तुम लोग मत करो। क्योंकि अपने यश की रक्षा करनेवाले पराक्रमी लोगों की बुद्धि नारी जाति के प्रति प्रतिहिंसा की भावना नहीं रखती। <br /><br /></div></span></span></font><div><font face="" size="2"><span style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium;"><span style="font-family: "Times New Roman";"><b style="font-size: medium;"><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b><span style="font-size: small;">पराक्रमी एवं वीर लोग अपने यश की हानि की चिन्ता से नारी जाति के प्रति प्रतिहिंसा की भावना नहीं रखते। अर्थान्तरन्यास अलङ्कार</span><br /><br /><b style="font-size: medium;">आशंसितापचितिचारु पुरः सुराणां आदेशं इत्यभिमुखं समवाप्य भर्तुः ।<br />लेभे परां द्युतिं अमर्त्यवधूसमूहः सम्भावना ह्यधिकृतस्य तनोति तेजः ।। ६.४६ ।।<br /></b><br /><div style="font-size: medium;">अर्थ: अप्सराओं का समूह देवताओं के समक्ष इस प्रकार की प्रशंसा से युक्त अपने स्वामी इन्द्र का उपर्युक्त आदेश प्राप्त कर और अधिक सुन्दर हो गया, वह खिल उठा। क्यों नहीं स्वामी द्वारा प्राप्त समादर किसी कर्त्तव्य पर नियुक्त सेवक की तेजोवृद्धि तो करता ही है। </div><div style="font-size: medium;"><br /></div><div style="font-size: medium;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b>अर्थान्तरन्यास अलङ्कार </div><div style="font-size: medium;"><br /></div><b style="font-size: medium;">प्रणतिं अथ विधाय प्रस्थिताः सद्मनस्ताः स्तनभरनमिताङ्गीरङ्गनाः प्रीतिभाजः ।<br />अचलनलिनलक्ष्मीहारि नालं बभूव स्तिमितं अमरभर्तुर्द्रष्टुं अक्ष्णां सहस्रं ।। ६.४७ ।।<br /></b><br /><div style="font-size: medium;">अर्थ: तदनन्तर इन्द्र को प्रणाम कर अमरावती से प्रस्थित, स्तनों के भार से अवनत अङ्गों वाली एवं स्वामी के समादर से संतुष्ट उन अप्सराओं को निश्चल कमल की शोभा को हरनेवाली अर्थात कमलों के समान मनोहर एवं विस्मय से निर्निमेष देवराज इन्द्र की सहस्त्र आँखें भी देखने में असमर्थ रह गयी। </div><div style="font-size: medium;"><br /></div><div style="font-size: medium;"><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b>अर्थात एक तो वे वैसे ही सुन्दरी थी, दुसरे इन्द्र ने देवताओं के समक्ष उनका जो अभिनन्दन किया, उससे वे और खिल उठी तथा उनका सौंदर्य सागर हिलोरे लेने लगा। उपमा अलङ्कार। </div><div style="font-size: medium;"><br /></div></span></span></font><div style="text-align: center;"><span style="color: #b45f06;">इति भारविकृतौ महाकाव्ये किरातार्जुनीये षष्ठः सर्गः</span></div><div style="text-align: center;"><div><div><b><span style="color: #b45f06;"><font size="2">==============================================</font></span></b></div></div></div><div><br /></div><div style="text-align: center;"><span style="color: #38761d;"><b><br /></b></span></div><div><br /></div><b>श्रीमद्भिः सरथगजैः सुराङ्गनानां गुप्तानां अथ सचिवैस्त्रिलोकभर्तुः ।<br />संमूर्छन्नलघुविमानरन्ध्रभिन्नः प्रस्थानं समभिदधे मृदङ्गनादः ।। ७.१ ।।<br /></b><div><div><br /></div><div>अर्थ: तदनन्तर सुशोभित रथों और हाथियों के साथ त्रिलोकपति इन्द्र सहचर गन्धर्वों से सुरक्षित देवांगनाओं के प्रस्थान की सूचना विशाल विमानों झरोखों से प्रतिध्वनित होने के कारण अनेक रूपों में फैलते हुए मृदङ्गों की ध्वनियों ने ( पुरवासियों को ) दी। </div><div><br /></div><div><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात देव-विमानों पर गन्धर्वों के साथ अप्सराओं ने इन्द्रकूट के लिए प्रस्थान किया और उस समय मृदङ्ग आदि माङ्गलिक वाद्य बजने लगे। इस सर्ग में प्रहर्षिणी छन्द है। </div></div><div><br /></div><div><br /></div><b>सोत्कण्ठैरमरगणैरनुप्रकीर्णान्निर्याय ज्वलितरुचः पुरान्मघोनः ।<br />रामाणां उपरि विवस्वतः स्थितानां नासेदे चरितगुणत्वं आतपत्रैः ।। ७.२ ।।</b><br /><br /><div>अर्थ: देखने के लिए उत्सुक देवगणों द्वारा भरी हुई एवं अपनी अनुपम छटा से जाज्वल्यमान इन्द्रपुरी अमरावती से निकलकर सूर्य के ऊपर अवस्थित उन अप्सराओं के आतपत्र अर्थात छतरियों ने सच्चे अर्थ में अपनी चरितार्थता नहीं प्रकट की। </div><div><br /></div><div><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> देवांगनाएँ आकाश में सूर्या मण्डल से ऊपर थीं, अतः नीचे की ओर पड़नेवाली सूर्य की किरणे वहां नहीं पहुँच रही थीं, जिससे वह आतप अर्थात धुप का अभाव था। जब आतप (धूप) थी ही नहीं तो आतपत्र(छतरियों) की चरितार्थता होती कैसे ? </div><div><br /></div><b>धूतानां अभिमुखपातिभिः समीरैरायासादविशदलोचनोत्पलानां ।<br />आनिन्ये मदजनितां श्रियं वधूनां उष्णांशुद्युतिजनितः कपोलरागः ।। ७.३ ।।</b><br /><br /><div>अर्थ: प्रतिकूल बहने वाली वायु द्वारा थकी हुई एवं चलने-फिरने के परिश्रम से मलिन नेत्र-कमलों वाली उन देवगणों के सूर्य की प्रचण्ड धूप से उत्पन्न कपोलों की लालिमा ने मद से लालिमा की शोभा को प्राप्त किया। </div><div><br /></div><div><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी: </span></b>अर्थात प्रचण्ड धूप, सामने की हवा तथा चलने-फिरने की थकावट से देवगणों के कपोल ऐसे लाल हो गए थे जैसे मद पान करने पर होते थे। यहाँ प्रतिकूल हवा अपशकुन की सूचना भी दे रही थी। निदर्शना अलङ्कार</div><div><br /></div><b>तिष्ठद्भिः कथं अपि देवतानुभावादाकृष्टैः प्रजविभिरायतं तुरङ्गैः ।<br />नेमीनां असति विवर्तनई रथौघैरासेदे वियति विमानवत्प्रवृत्तिः ।। ७.४ ।।<br /></b><br /><div>अर्थ: किसी प्रकार देवताओं की कृपा से (आकाश मण्डल में) टिके हुए, अत्यन्त वेग से चलने वाले अश्वों द्वारा दूर से खींचे जाते हुए वे रथों के समूह, आकाश मण्डल में निराधार होने से चक्कों की गति न होने के कारण विमानों की स्थिति प्राप्त कर रहे थे। </div><div><br /></div><div><b><span style="color: #b45f06;">टिप्पणी:</span></b> अर्थात आकाश में देवांगनाओं के वे रथ विमाओं की शोभा धारण कर रहे थे। विमानों में अश्व नहीं होते, उनका चक्का घूमता नहीं रहता तथा वे आकाश में चलते हैं। देवांगनाओं के इन रथों की भी ऐसी ही स्थिति थी। इनमें यद्यपि अश्व थे, किन्तु वे अत्यन्त वेगशाली थे अतः बहुत दूर से रथ को खींच रहे थे, निराधार होने से इनके भी चक्के घूमते नहीं थे और रथ देवताओं की कृपा से आकाश में टिके हुए थे। उपमा अलङ्कार </div><br /></div></div></div></div></div>Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-72413940545036466892019-08-25T21:21:00.004+05:302019-09-12T19:58:11.859+05:30सिद्धान्तबिन्दुसिद्धान्तबिन्दु प्रथम श्लोक<br />
<br />
<b>न भूमिर्न तोयं न तेजो न वायुर्न खं नेन्द्रियं वा न तेषां समूहः ।</b><br />
<b>अनैकान्तिकत्वात्सुषुप्त्येकसिद्धस्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। १ ।।</b><br />
<br />
'अहं' अहमर्थ का अवलम्बन, न भूमि है, न जल है, न तेज है, न वायु है, न आकाश है, न प्रत्येक इन्द्रिय है, न भूमि आदि का समूह है; क्योंकि ये सब व्यभिचारी(विनाशी) हैं । सुषुप्ति में एक साक्षीरूप से सिद्ध, अद्वितीय, अविनाशी, निर्धर्मक, शिव जो है, वही मैं हूँ।<br />
<br />
<br />
<b>न वर्णा न वर्णाश्रमाचारधर्मा</b><br />
<b>न मे धारणाध्यान योगादयोऽपि।</b><br />
<b>अनात्माश्रयाहंममाध्यासहानात् </b><br />
<b>तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। २ ।।</b><br />
<br />
न वर्ण हैं, न वर्णो के आचार-धर्म हैं, न आश्रमों के आचार-धर्म हैं, न मेरी धारणा है, न ध्यान है, न योगादि ही है; क्योंकि अविद्या से उत्पन्न अहङ्कार और ममकार अध्यास का तत्वज्ञान से नाश हो जाता है, इसलिए तत्प्रयुक्त वर्णाश्रम आदि व्यवहार भी नहीं रहते। सब प्रमाणों के बाढ़ होने पर भी अबाधित, अद्वितीय, निर्धर्मक, शिव मैं हूँ ।<br />
<br />
<b>न माता न पिता वा न लोका न देवा </b><br />
<b>न वेदा न यज्ञा न तीर्थं ब्रुवन्ति ।</b><br />
<b>सुषुप्तौ निरस्ताति शून्यात्मकत्वात्</b><br />
<b>तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ३ ।।</b><br />
<br />
न माता है, न पिता है, न लोक हैं, न वेद हैं, न यज्ञ हैं, न तीर्थ हैं । सुषुप्ति में निरस्त अति शून्यात्मक होने से एक, अविशेष, केवल, शिव, मैं हूँ ।<br />
<br />
<b>न सांख्यं न शैवं न तत्पाञ्चचरारात्रं </b><br />
<b>न जैनं न मीमांसकादेर्मतं वा ।</b><br />
<b>विशिष्टानुभूत्या विशुद्धात्मकत्वात्</b><br />
<b>तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ४ ।।</b><br />
<br />
न सांख्य का मत श्रेष्ठ है, न शैव, न पाञ्चरात्र, न जैन, न मीमांसकों का ही मत उचित है, विशिष्टानुभूति से विशुद्धात्मक होने से एक, अवशिष्ट, अद्वितीय, शिव मैं हूँ ।<br />
<br />
<b>न चोर्ध्वं न चाधो न चान्तर्न बाह्यं </b><br />
<b>न मध्यं न तिर्यङ् न पूर्वापरा दिक् । </b><br />
<b>वियद्वयापकत्वादखण्डैकरूप -</b><br />
<b>स्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ५ ।।</b><br />
<br />
न उर्ध्व है, न अधः है, न अन्दर है, न बाह्य है, न मध्य है न तिर्य्यक है, न पूर्व दिशा है, न पश्चिम दिशा । आकाश के समान व्यापक होने से अखण्डैकरूप, एक, अवशिष्ट, शिव मैं हूँ ।<br />
<br />
<b>न शुक्लं न कृष्णं न रक्तं न पीतं </b><br />
<b>न कुब्जं न पीनं न ह्रस्वं न दीर्घम् ।</b><br />
<b>अरूपं तथा ज्योतिराकारकत्वात् </b><br />
<b>तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ६ ।।</b><br />
<br />
न शुक्ल है, न कृष्ण है, न लाल है, न पीला है, न कुब्ज है, न पीन है, न ह्रस्व है और न दीर्घ है, स्वप्रकाश ज्योतिस्वरूप होने से अप्रमेय एक अवशिष्ट अद्वितीय शिव मैं हूँ ।<br />
<br />
<b>न शास्ता न शास्त्रं न शिष्यो न शिक्षा</b><br />
<b>न च त्वं न चाहं न वाऽयं प्रपञ्चः।</b><br />
<b>स्वरूपावबोधो विकल्पासहिष्णु- </b><br />
<b>स्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम्।। ७ ।।</b><br />
<br />
न शास्ता है, न शास्त्र है, न शिष्य है, न शिक्षा है, न तुम हो, न मैं हूँ, न यह प्रपञ्च है, स्वरूपज्ञान विकल्प का सहन नहीं करता इसलिए एक अवशिष्ट अद्वितीय शिव मैं हूँ ।<br />
<br />
<b>शास्ता</b>- उपदेश करनेवाला गुरु<br />
<b>शास्त्र </b>- जिसके द्वारा उपदेश किया जाता है<br />
<b>शिष्य </b>- उपदेश-भाजन<br />
<b>शिक्षा </b>- उपदेश-क्रिया<br />
<b>तुम </b>- श्रोता<br />
<b>मैं </b>- वक्ता<br />
<br />
सब प्रमाणों के सन्निधापित देह, इन्द्रिय आदि रूप, यह प्रपञ्च परमार्थतः नहीं हैं ।<br />
<br />
<b>न जागन्न मे स्वप्नको वा सुषुप्तिः </b><br />
<b>न विश्वो न वा तैजसः प्राज्ञको वा। </b><br />
<b>अविद्यात्मकत्वात्त्रयाणां तुरीय-</b><br />
<b>स्तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ८ ।।</b><br />
<br />
न मेरा जागरण है, न स्वप्न है, न सुषुप्ति है, न मैं विश्व हूँ, न तैजस हूँ, न प्राज्ञ । ये तीनों अविद्या के कार्य हैं, अतः इनमें चतुर्थ, एक, अवशिष्ट, अद्वितीय, शिव मैं हूँ ।<br />
<br />
<b>अपि व्यापकत्वाद्धितत्वप्रयोगात्</b><br />
<b>स्वतःसिद्धभावादनन्याश्रयत्वात् ।</b><br />
<b>जगत्तुच्छमेतत्समस्तं तदन्यत्</b><br />
<b>तदेकोऽवशिष्टः शिवः केवलोऽहम् ।। ९ ।।</b><br />
<br />
साक्षी से अन्य समस्त जगत तुच्छ है । साक्षी तुच्छ नहीं है, क्योंकि वह व्यापक है, पुरुषार्थरूप है, स्वतःसिद्ध भाव पदार्थ है, स्वतंत्र है । एक अवशिष्ट, अद्वितीय, शिव मैं हूँ ।<br />
<br />
<b>न चैकं तदन्यद् द्वितीयं कुतः स्याद्</b><br />
<b>न वा केवलत्वं न चाऽकेवलत्वम् ।</b><br />
<b>न शून्यं न चाशून्यमद्वैतकत्वात् </b><br />
<b>कथं सर्ववेदान्तसिद्धं ब्रवीमि ।। १० ।।</b><br />
<br />
एक भी नहीं है, उससे अन्य द्वितीय कहाँ से होगा ? आत्मा में केवलत्व (एकत्व) भी नहीं है । अकेवलत्व (अनेकत्व) भी नहीं है । न शून्य है, न अशून्य है । अद्वैत होने से सब वेदान्तों से सिद्ध को मैं कैसे कहूं ?<br />
<br />
<b>इति सिद्धान्तकौमुदी</b>Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-13145255204625778242019-08-19T18:18:00.000+05:302019-08-20T00:14:19.307+05:30वात, पित्त और कफ<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ दोष क्या है?</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ दोष, ‘पृथ्वी’ और ‘जल’ इन दो तत्वों से मिलकर बना है। ‘पृथ्वी’ के कारण कफ दोष में स्थिरता और भारीपन और ‘जल’ के कारण तैलीय और चिकनाई वाले गुण होते हैं। यह दोष शरीर की मजबूती और इम्युनिटी क्षमता बढ़ाने में सहायक है। कफ दोष का शरीर में मुख्य स्थान पेट और छाती हैं।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ शरीर को पोषण देने के अलावा बाकी दोनों दोषों (वात और पित्त) को भी नियंत्रित करता है। इसकी कमी होने पर ये दोनों दोष अपने आप ही बढ़ जाते हैं। इसलिए शरीर में कफ का संतुलित अवस्था में रहना बहुत ज़रूरी है।</span></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-2" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ दोष के प्रकार :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">शरीर में अलग स्थानों और कार्यों के आधार पर आयुर्वेद में कफ को पांच भागों में बांटा गया है।</span></div>
<ol style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">
<li style="margin: 0px; padding: 0px;"><span style="margin: 0px; padding: 0px;">क्लेदक</span></li>
<li style="margin: 0px; padding: 0px;"><span style="margin: 0px; padding: 0px;">अवलम्बक</span></li>
<li style="margin: 0px; padding: 0px;"><span style="margin: 0px; padding: 0px;">बोधक</span></li>
<li style="margin: 0px; padding: 0px;"><span style="margin: 0px; padding: 0px;">तर्पक</span></li>
<li style="margin: 0px; padding: 0px;"><span style="margin: 0px; padding: 0px;">श्लेषक</span></li>
</ol>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">आयुर्वेद में कफ दोष से होने वाले रोगों की संख्या करीब 20 मानी गयी है। </span></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-3" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ के गुण :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ भारी, ठंडा, चिकना, मीठा, स्थिर और चिपचिपा होता है। यही इसके स्वाभाविक गुण हैं। इसके अलावा कफ धीमा और गीला होता है। रंगों की बात करें तो कफ का रंग सफ़ेद और स्वाद मीठा होता है। किसी भी दोष में जो गुण पाए जाते हैं उनका शरीर पर अलग अलग प्रभाव पड़ता है और उसी से प्रकृति का पता चलता है।</span></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-4" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ प्रकृति की विशेषताएं :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ दोष के गुणों के आधार पर ही कफ प्रकृति के लक्षण नजर आते हैं। हर एक दोष का अपना एक विशिष्ट प्रभाव है। जैसे कि भारीपन के कारण ही कफ प्रकृति वाले लोगों की चाल धीमी होती है। शीतलता गुण के कारण उन्हें भूख, प्यास, गर्मी कम लगती है और पसीना कम निकलता है। कोमलता और चिकनाई के कारण पित्त प्रकृति वाले लोग गोरे और सुन्दर होते हैं। किसी भी काम को शुरू करने में देरी या आलस आना, स्थिरता वाले गुण के कारण होता है।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ प्रकृति वाले लोगों का शरीर मांसल और सुडौल होता है। इसके अलावा वीर्य की अधिकता भी कफ प्रकृति वाले लोगों का लक्षण है।</span></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-5" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ बढ़ने के कारण :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">मार्च-अप्रैल के महीने में, सुबह के समय, खाना खाने के बाद और छोटे बच्चों में कफ स्वाभाविक रुप से ही बढ़ा हुआ रहता है। इसलिए इन समयों में विशेष ख्याल रखना चाहिए। इसके अलावा खानपान, आदतों और स्वभाव की वजह से भी कफ असंतुलित हो जाता है। आइये जानते हैं कि शरीर में कफ दोष बढ़ने के मुख्य कारण क्या हैं।</span></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">मीठे, खट्टे और चिकनाई युक्त खाद्य पदार्थों का सेवन</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">मांस-मछली का अधिक सेवन</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">तिल से बनी चीजें, गन्ना, दूध, नमक का अधिक सेवन</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">फ्रिज का ठंडा पानी पीना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">आलसी स्वभाव और रोजाना व्यायाम ना करना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">दूध-दही, घी, तिल-उड़द की खिचड़ी, सिंघाड़ा, नारियल, कद्दू आदि का सेवन</span></li>
</ul>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-6" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ बढ़ जाने के लक्षण :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">शरीर में कफ दोष बढ़ जाने पर कुछ ख़ास तरह के लक्षण नजर आने लगते हैं। आइये कुछ प्रमुख लक्षणों के बारे में जानते हैं।</span></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">हमेशा सुस्ती रहना, ज्यादा नींद आना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">शरीर में भारीपन</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">मल-मूत्र और पसीने में चिपचिपापन</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">शरीर में गीलापन महसूस होना </span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">शरीर में लेप लगा हुआ महसूस होना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">आंखों और नाक से अधिक गंदगी का स्राव</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">अंगों में ढीलापन</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">सांस की तकलीफ और खांसी</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">डिप्रेशन</span></li>
</ul>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-7" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ को संतुलित करने के उपाय :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">इसके लिए सबसे पहले उन कारणों को दूर करना होगा जिनकी वजह से शरीर में कफ बढ़ गया है। कफ को संतुलित करने के लिए आपको अपने खानपान और जीवनशैली में ज़रूरी बदलाव करने होंगे। आइये सबसे पहले खानपान से जुड़े बदलावों के बारे में बात करते हैं।</span></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-8" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ को संतुलित करने के लिए क्या खाएं :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ प्रकृति वाले लोगों को इन चीजों का सेवन करना ज्यादा फायदेमंद रहता है।</span></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">बाजरा, मक्का, गेंहूं, किनोवा ब्राउन राइस ,राई आदि अनाजों का सेवन करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">सब्जियों में पालक, पत्तागोभी, ब्रोकली, हरी सेम, शिमला मिर्च, मटर, आलू, मूली, चुकंदर आदि का सेवन करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">जैतून के तेल और सरसों के तेल का उपयोग करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">छाछ और पनीर का सेवन करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">तीखे और गर्म खाद्य पदार्थों का सेवन करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">सभी तरह की दालों को अच्छे से पकाकर खाएं।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">नमक का सेवन कम करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पुराने शहद का उचित मात्रा में सेवन करें।</span></li>
</ul>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-9" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ प्रकृति वाले लोगों को क्या नहीं खाना चाहिए :</span></h2>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">मैदे और इससे बनी चीजों का सेवन ना करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">एवोकैड़ो, खीरा, टमाटर, शकरकंद के सेवन से परहेज करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">केला, खजूर, अंजीर, आम, तरबूज के सेवन से परहेज करें।</span></li>
</ul>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-10" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">जीवनशैली में बदलाव :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">खानपान में बदलाव के साथ साथ कफ को कम करने के लिए अपनी जीवनशैली में बदलाव लाना भी जरूरी है। आइये जाने हैं बढे हुए कफ दोष को कम करने के लिए क्या करना चाहिए। </span></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पाउडर से सूखी मालिश या तेल से शरीर की मसाज करें</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">गुनगुने पानी से नहायें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">रोजाना कुछ देर धूप में टहलें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">रोजाना व्यायाम करें जैसे कि : दौड़ना, ऊँची व लम्बी कूद, कुश्ती, तेजी से टहलना, तैरना आदि। </span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">गर्म कपड़ों का अधिक प्रयोग करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">बहुत अधिक चिंता ना करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">देर रात तक जागें</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">रोजाना की दिनचर्या में बदलाव लायें</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">ज्यादा आराम पसंद जिंदगी ना बिताएं बल्कि कुछ ना कुछ करते रहें।</span></li>
</ul>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ बहुत ज्यादा बढ़ जाने पर उल्टी करवाना सबसे ज्यादा फायदेमंद होता है। इसके लिए आयुर्वेदिक चिकित्सक द्वारा तीखे और गर्म प्रभाव वाले औषधियों की मदद से उल्टी कराई जाती है। असल में हमारे शरीर में कफ आमाशय और छाती में सबसे ज्यादा होता है, उल्टी (वमन क्रिया) करवाने से इन अंगों से कफ पूरी तरह बाहर निकल जाता है।</span></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-11" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ की कमी के लक्षण :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ बढ़ जाने से तो समस्याएं होना आम बात है लेकिन क्या आपको पता है कि कफ की कमी से भी कुछ समस्याएं हो सकती हैं। जी हाँ, यदि शरीर में कफ की मात्रा कम हो जाए तो निम्नलिखित लक्षण नजर आते हैं।</span></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">शरीर में रूखापन :</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">शरीर में अंदर से जलन महसूस होना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">फेफड़ों, हड्डियों, ह्रदय और सिर में खालीपन महसूस होना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">बहुत प्यास लगना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कमजोरी महसूस होना और नींद की कमी</span></li>
</ul>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-12" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ की कमी का उपचार :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कफ की कमी होने पर उन चीजों का सेवन करें जो कफ को बढ़ाते हो जैसे कि दूध, चावल। गर्मियों के मौसम में दिन में सोने से भी कफ बढ़ता है इसलिए कफ की कमी होने पर आप दिन में कुछ देर ज़रूर सोएं। </span></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-13" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">साम और निराम कफ :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पाचक अग्नि कमजोर होने पर हम जो भी खाना खाते हैं उसका कुछ भाग ठीक से पच नहीं पाता है और वह हिस्सा मल के रुप में बाहर निकलने की बजाय शरीर में ही पड़ा रहता है। भोजन के इस अधपके अंश को आयुर्वेद में “आम रस’ या ‘आम दोष’ कहा गया है। यह दोषों के साथ मिलकर कई रोग उत्पन्न करता है।</span></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">जब कफ ‘आम’ से मिला होता है तो यह अस्वच्छ, तार की तरह आपस में मुड़ा हुआ गले में चिपकने वाला गाढ़ा और बदबूदार होता है। ऐसा कफ डकार को रोकता है और भूख को कम करता है।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">जबकि निराम कफ झाग वाला जमा हुआ, हल्का और दुर्गंध रहित होता है। निराम कफ गले में नहीं चिपकता है और मुंह को साफ़ रखता है।</span></li>
</ul>
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular;">अगर आप कफ प्रकृति के हैं और अक्सर कफ के असंतुलित होने से परेशान रहते हैं तो ऊपर बताए गए नियमों का पालन करें। यदि समस्या ठीक ना हो रही हो या गंभीर हो तो किसी आयुर्वेदिक चिकित्सक से संपर्क करें। </span><br />
<span style="font-family: Mukta-Regular;"><br /></span>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-2" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात दोष क्या है </span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात दोष “वायु” और “आकाश” इन दो तत्वों से मिलकर बना है। वात या वायु दोष को तीनों दोषों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण माना गया है। हमारे शरीर में गति से जुड़ी कोई भी प्रक्रिया वात के कारण ही संभव है। चरक संहिता में वायु को ही पाचक अग्नि बढ़ाने वाला, सभी इन्द्रियों का प्रेरक और उत्साह का केंद्र माना गया है। वात का मुख्य स्थान पेट और आंत में है।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात में योगवाहिता या जोड़ने का एक ख़ास गुण होता है। इसका मतलब है कि यह अन्य दोषों के साथ मिलकर उनके गुणों को भी धारण कर लेता है। जैसे कि जब यह पित्त दोष के साथ मिलता है तो इसमें दाह, गर्मी वाले गुण आ जाते हैं और जब कफ के साथ मिलता है तो इसमें शीतलता और गीलेपन जैसे गुण आ जाते हैं।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-3" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात के प्रकार </span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">शरीर में इनके निवास स्थानों और अलग कामों के आधार पर वात को पांच भांगों में बांटा गया है।</span></div>
<ol style="font-family: Mukta-Regular; font-size: medium; margin: 0px; padding: 0px;">
<li style="margin: 0px; padding: 0px;"><span style="margin: 0px; padding: 0px;">प्राण</span></li>
<li style="margin: 0px; padding: 0px;"><span style="margin: 0px; padding: 0px;">उदान</span></li>
<li style="margin: 0px; padding: 0px;"><span style="margin: 0px; padding: 0px;">समान</span></li>
<li style="margin: 0px; padding: 0px;"><span style="margin: 0px; padding: 0px;">व्यान</span></li>
<li style="margin: 0px; padding: 0px;"><span style="margin: 0px; padding: 0px;">अपान</span></li>
</ol>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">आयुर्वेद के अनुसार सिर्फ वात के प्रकोप से होने वाले रोगों की संख्या ही 80 के करीब है।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-4" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात के गुण </span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">रूखापन, शीतलता, लघु, सूक्ष्म, चंचलता, चिपचिपाहट से रहित और खुरदुरापन वात के गुण हैं। रूखापन वात का स्वाभाविक गुण है। जब वात संतुलित अवस्था में रहता है तो आप इसके गुणों को महसूस नहीं कर सकते हैं। लेकिन वात के बढ़ने या असंतुलित होते ही आपको इन गुणों के लक्षण नजर आने लगेंगे।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-5" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात प्रकृति की विशेषताएं </span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">आयुर्वेद की दृष्टि से किसी भी व्यक्ति के स्वास्थ्य और रोगों के इलाज में उसकी प्रकृति का विशेष योगदान रहता है। इसी प्रकृति के आधार पर ही रोगी को उसके अनुकूल खानपान और औषधि की सलाह दी जाती है।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात दोष के गुणों के आधार पर ही वात प्रकृति के लक्षण नजर आते हैं. जैस कि रूखापन गुण होने के कारण भारी आवाज, नींद में कमी, दुबलापन और त्वचा में रूखापन जैसे लक्षण होते हैं. शीतलता गुण के कारण ठंडी चीजों को सहन ना कर पाना, जाड़ों में होने वाले रोगों की चपेट में जल्दी आना, शरीर कांपना जैसे लक्षण होते हैं. शरीर में हल्कापन, तेज चलने में लड़खड़ाने जैसे लक्षण लघुता गुण के कारण होते हैं.</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">इसी तरह सिर के बालों, नाखूनों, दांत, मुंह और हाथों पैरों में रूखापन भी वात प्रकृति वाले लोगों के लक्षण हैं. स्वभाव की बात की जाए तो वात प्रकृति वाले लोग बहुत जल्दी कोई निर्णय लेते हैं. बहुत जल्दी गुस्सा होना या चिढ़ जाना और बातों को जल्दी समझकर फिर भूल जाना भी पित्त प्रकृति वाले लोगों के स्वभाव में होता है. </span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-6" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात बढ़ने के कारण </span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">जब आयुर्वेदिक चिकित्सक आपको बताते हैं कि आपका वात बढ़ा हुआ है तो आप समझ नहीं पाते कि आखिर ऐसा क्यों हुआ है? दरअसल हमारे खानपान, स्वभाव और आदतों की वजह से वात बिगड़ जाता है। वात के बढ़ने के प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; font-size: medium; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">मल-मूत्र या छींक को रोककर रखना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">खाए हुए भोजन के पचने से पहले ही कुछ और खा लेना और अधिक मात्रा में खाना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">रात को देर तक जागना, तेज बोलना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">अपनी क्षमता से ज्यादा मेहनत करना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">सफ़र के दौरान गाड़ी में तेज झटके लगना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">तीखी और कडवी चीजों का अधिक सेवन</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">बहुत ज्यादा ड्राई फ्रूट्स खाना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">हमेशा चिंता में या मानसिक परेशानी में रहना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">ज्यादा सेक्स करना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">ज्यादा ठंडी चीजें खाना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">व्रत रखना</span></li>
</ul>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">ऊपर बताए गये इन सभी कारणों की वजह से वात दोष बढ़ जाता है। बरसात के मौसम में और बूढ़े लोगों में तो इन कारणों के बिना भी वात बढ़ जाता है।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-7" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात बढ़ जाने के लक्षण </span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात बढ़ जाने पर शरीर में तमाम तरह के लक्षण नजर आते हैं। आइये उनमें से कुछ प्रमुख लक्षणों पर एक नजर डालते हैं।</span></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; font-size: medium; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">अंगों में रूखापन और जकड़न</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">सुई के चुभने जैसा दर्द</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">हड्डियों के जोड़ों में ढीलापन</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">हड्डियों का खिसकना और टूटना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">अंगों में कमजोरी महसूस होना एवं अंगों में कंपकपी</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">अंगों का ठंडा और सुन्न होना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कब्ज़</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">नाख़ून, दांतों और त्वचा का फीका पड़ना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">मुंह का स्वाद कडवा होना</span></li>
</ul>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">अगर आपमें ऊपर बताए गये लक्षणों में से 2-3 या उससे ज्यादा लक्षण नजर आते हैं तो यह दर्शाता है कि आपके शरीर में वात दोष बढ़ गया है। ऐसे में नजदीकी चिकित्सक के पास जाएं और अपना इलाज करवाएं।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-8" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात को संतुलित करने के उपाय </span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात को शांत या संतुलित करने के लिए आपको अपने खानपान और जीवनशैली में बदलाव लाने होंगे। आपको उन कारणों को दूर करना होगा जिनकी वजह से वात बढ़ रहा है। वात प्रकृति वाले लोगों को खानपान का विशेष ध्यान रखना चाहिए क्योंकि गलत खानपान से तुरंत वात बढ़ जाता है. खानपान में किये गए बदलाव जल्दी असर दिखाते हैं।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-9" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात को संतुलित करने के लिए क्या खाएं </span></h2>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; font-size: medium; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">घी, तेल और फैट वाली चीजों का सेवन करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">गेंहूं, तिल, अदरक, लहसुन और गुड़ से बनी चीजों का सेवन करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">नमकीन छाछ, मक्खन, ताजा पनीर, उबला हुआ गाय के दूध का सेवन करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">घी में तले हुए सूखे मेवे खाएं या फिर बादाम,कद्दू के बीज, तिल के बीज, सूरजमुखी के बीजों को पानी में भिगोकर खाएं।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">खीरा, गाजर, चुकंदर, पालक, शकरकंद आदि सब्जियों का नियमित सेवन करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">मूंग दाल, राजमा, सोया दूध का सेवन करें।</span></li>
</ul>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-10" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात प्रकृति वाले लोगों को क्या नहीं खाना चाहिए </span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">अगर आप वात प्रकृति के हैं तो निम्नलिखित चीजों के सेवन से परहेज करें।</span></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; font-size: medium; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">साबुत अनाज जैसे कि बाजरा, जौ, मक्का, ब्राउन राइस आदि के सेवन से परहेज करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">किसी भी तरह की गोभी जैसे कि पत्तागोभी, फूलगोभी, ब्रोकली आदि से परहेज करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">जाड़ों के दिनों में ठंडे पेय पदार्थों जैसे कि कोल्ड कॉफ़ी, ब्लैक टी, ग्रीन टी, फलों के जूस आदि ना पियें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">नाशपाती, कच्चे केले आदि का सेवन ना करें।</span></li>
</ul>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-11" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">जीवनशैली में बदलाव </span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">जिन लोगों का वात अक्सर असंतुलित रहता है उन्हें अपने जीवनशैली में ये बदलाव लाने चाहिए।</span></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; font-size: medium; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">एक निश्चित दिनचर्या बनाएं और उसका पालन करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">रोजाना कुछ देर धूप में टहलें और आराम भी करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">किसी शांत जगह पर जाकर रोजाना ध्यान करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">गर्म पानी से और वात को कम करने वाली औषधियों के काढ़े से नहायें। औषधियों से तैयार काढ़े को टब में डालें और उसमें कुछ देर तक बैठे रहें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">गुनगुने तेल से नियमित मसाज करें, मसाज के लिए तिल का तेल, बादाम का तेल और जैतून के तेल का इस्तेमाल करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">मजबूती प्रदान करने वाले व्यायामों को रोजाना की दिनचर्या में ज़रूर शामिल करें।</span></li>
</ul>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-12" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात में कमी के लक्षण और उपचार </span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात में बढ़ोतरी होने की ही तरह वात में कमी होना भी एक समस्या है और इसकी वजह से भी कई तरह की समस्याएं होने लगती हैं। आइये पहले वात में कमी के प्रमुख लक्षणों के बारे में जानते हैं।</span></div>
<h3 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 21px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-13" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात में कमी के लक्षण :</span></h3>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; font-size: medium; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">बोलने में दिक्कत</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">अंगों में ढीलापन</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">सोचने समझने की क्षमता और याददाश्त में कमी</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात के स्वाभाविक कार्यों में कमी</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पाचन में कमजोरी</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">जी मिचलाना</span></li>
</ul>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h3 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 21px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-14" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">उपचार :</span></h3>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">वात की कमी होने पर वात को बढ़ाने वाले आहार का सेवन करना चाहिए। कडवे, तीखे, हल्के एवं ठंडे पेय पदार्थों का सेवन करें। इनके सेवन से वात जल्दी बढ़ता है। इसके अलावा वात बढ़ने पर जिन चीजों के सेवन की मनाही होती है उन्हें खाने से वात की कमी को दूर किया जा सकता है।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-15" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">साम और निराम वात </span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">हम जो भी खाना खाते हैं उसका कुछ भाग ठीक से पाच नहीं पता है और वह हिस्सा मल के रुप में बाहर निकलने की बजाय शरीर में ही पड़ा रहता है। भोजन के इस अधपके अंश को आयुर्वेद में “आम रस’ या ‘आम दोष’ कहा गया है।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">जब वात शरीर में आम रस के साथ मिल जाता है तो उसे साम वात कहते हैं। साम वात होने पर निम्नलिखित लक्षण नजर आते हैं।</span></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; font-size: medium; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">मल-मूत्र और गैस बाहर निकालने में दिक्कत</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पाचन शक्ति में कमी</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">हमेशा सुस्ती या आलस महसूस होना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">आंत में गुडगुडाहट की आवाज</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">कमर दर्द</span></li>
</ul>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">यदि साम वात का इलाज ठीक समय पर नहीं किया गया तो आगे चलकर यह पूरे शरीर में फ़ैल जाता है और कई बीमारियों होने लगती हैं।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">जब वात, आम रस युक्त नहीं होता है तो यह निराम वात कहलाता है। निराम वात के प्रमुख लक्षण त्वचा में रूखापन, मुंह जीभ का सूखना आदि है. इसके लिए तैलीय खाद्य पदार्थों का अधिक सेवन करें।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<span style="font-family: Mukta-Regular;"></span><br />
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">अगर आप वात प्रकृति के हैं और अक्सर वात के असंतुलित होने से परेशान रहते हैं तो ऊपर बताए गए नियमों का पालन करें। यदि समस्या ठीक ना हो रही हो या गंभीर हो तो किसी आयुर्वेदिक चिकित्सक से संपर्क करें।</span></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पित्त दोष क्या है?</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पित्त दोष ‘अग्नि’ और ‘जल’ इन दो तत्वों से मिलकर बना है। यह हमारे शरीर में बनने वाले हार्मोन और एंजाइम को नियंत्रित करता है। शरीर की गर्मी जैसे कि शरीर का तापमान, पाचक अग्नि जैसी चीजें पित्त द्वारा ही नियंत्रित होती हैं। पित्त का संतुलित अवस्था में होना अच्छी सेहत के लिए बहुत ज़रूरी है। शरीर में पेट और छोटी आंत में पित्त प्रमुखता से पाया जाता है।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">ऐसे लोग पेट से जुड़ी समस्याओं जैसे कि कब्ज़, अपच, एसिडिटी आदि से पीड़ित रहते हैं। पित्त दोष के असंतुलित होते ही पाचक अग्नि कमजोर पड़ने लगती है और खाया हुआ भोजन ठीक से पच नहीं पाता है। पित्त दोष के कारण उत्साह में कमी होने लगती है साथ ही ह्रदय और फेफड़ों में कफ इकठ्ठा होने लगता है। इस लेख में हम आपको पित्त दोष के लक्षण, प्रकृति, गुण और इसे संतुलित रखने के उपाय बता रहे हैं।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-2" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पित्त के प्रकार : </span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">शरीर में इनके निवास स्थानों और अलग कामों के आधार पर पित्त को पांच भांगों में बांटा गया है.</span></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; font-size: medium; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पाचक पित्त</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">रज्जक पित्त</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">साधक पित्त</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">आलोचक पित्त</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">भ्राजक पित्त</span></li>
</ul>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">केवल पित्त के प्रकोप से होने वाले रोगों की संख्या 40 मानी गई है।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-3" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पित्त के गुण :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">चिकनाई, गर्मी, तरल, अम्ल और कड़वा पित्त के लक्षण हैं। पित्त पाचन और गर्मी पैदा करने वाला व कच्चे मांस जैसी बदबू वाला होता है। निराम दशा में पित्त रस कडवे स्वाद वाला पीले रंग का होता है। जबकि साम दशा में यह स्वाद में खट्टा और रंग में नीला होता है। किसी भी दोष में जो गुण पाए जाते हैं उनका शरीर पर अलग अलग प्रभाव पड़ता है और उसी से प्रकृति के लक्षणों और विशेषताओं का पता चलता है. </span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-4" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पित्त प्रकृति की विशेषताएं :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पित्त प्रकृति वाले लोगों में कुछ ख़ास तरह की विशेषताओं पाई जाती हैं जिनके आधार पर आसानी से उन्हें पहचाना जा सकता है। अगर शारीरिक विशेषताओं की बात करें तो मध्यम कद का शरीर, मांसपेशियों व हड्डियों में कोमलता, त्वचा का साफ़ रंग और उस पर तिल, मस्से होना पित्त प्रकृति के लक्षण हैं। इसके अलावा बालों का सफ़ेद होना, शरीर के अंगों जैसे कि नाख़ून, आंखें, पैर के तलवे हथेलियों का काला होना भी पित्त प्रकृति की विशेषताएं हैं।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पित्त प्रकृति वाले लोगों के स्वभाव में भी कई विशेषताए होती हैं। बहुत जल्दी गुस्सा हो जाना, याददाश्त कमजोर होना, कठिनाइयों से मुकाबला ना कर पाना व सेक्स की इच्छा में कमी इनके प्रमुख लक्षण हैं। ऐसे लोग बहुत नकारात्मक होते हैं और इनमें मानसिक रोग होने की संभावना ज्यादा रहती है।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-5" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पित्त बढ़ने के कारण:</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">जाड़ों के शुरूआती मौसम में और युवावस्था में पित्त के बढ़ने की संभावना ज्यादा रहती है। अगर आप पित्त प्रकृति के हैं तो आपके लिए यह जानना बहुत ज़रूरी है कि आखिर किन वजहों से पित्त बढ़ रहा है। आइये कुछ प्रमुख कारणों पर एक नजर डालते हैं।</span></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; font-size: medium; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">चटपटे, नमकीन, मसालेदार और तीखे खाद्य पदार्थों का अधिक सेवन</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">ज्यादा मेहनत करना, हमेशा मानसिक तनाव और गुस्से में रहना </span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">अधिक मात्रा में शराब का सेवन</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">सही समय पर खाना ना खाने से या बिना भूख के ही भोजन करना </span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">ज्यादा सेक्स करना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">तिल का तेल,सरसों, दही, छाछ खट्टा सिरका आदि का अधिक सेवन</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">गोह, मछली, भेड़ व बकरी के मांस का अधिक सेवन</span></li>
</ul>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">ऊपर बताए गए इन सभी कारणों की वजह से पित्त दोष बढ़ जाता है। पित्त प्रकृति वाले युवाओं को खासतौर पर अपना विशेष ध्यान रखना चाहिए और इन चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए। </span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-6" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पित्त बढ़ जाने के लक्षण :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">जब किसी व्यक्ति के शरीर में पित्त दोष बढ़ जाता है तो कई तरह के शारीरिक और मानसिक लक्षण नजर आने लगते हैं। पित्त दोष बढ़ने के कुछ प्रमुख लक्षण निम्न हैं।</span></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; font-size: medium; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">बहुत अधिक थकावट, नींद में कमी</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">शरीर में तेज जलन, गर्मी लगना और ज्यादा पसीना आना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">त्वचा का रंग पहले की तुलना में गाढ़ा हो जाना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">अंगों से दुर्गंध आना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">मुंह, गला आदि का पकना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">ज्यादा गुस्सा आना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">बेहोशी और चक्कर आना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">मुंह का कड़वा और खट्टा स्वाद</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">ठंडी चीजें ज्यादा खाने का मन करना</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">त्वचा, मल-मूत्र, नाखूनों और आंखों का रंग पीला पड़ना</span></li>
</ul>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">अगर आपमें ऊपर बताए गये लक्षणों में से दो या तीन लक्षण भी नजर आते हैं तो इसका मतलब है कि पित्त दोष बढ़ गया है। ऐसे में नजदीकी चिकित्सक के पास जाएं और अपना इलाज करवाएं।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-7" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पित्त को शांत करने के उपाय :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">बढे हुए पित्त को संतुलित करने के लिए सबसे पहले तो उन कारणों से दूर रहिये जिनकी वजह से पित्त दोष बढ़ा हुआ है। खानपान और जीवनशैली में बदलाव के अलावा कुछ चिकित्सकीय प्रक्रियाओं की मदद से भी पित्त को दूर किया जाता है।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h3 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 21px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-8" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;"><b style="margin: 0px; padding: 0px;">विरेचन </b><span style="font-weight: 400; margin: 0px; padding: 0px;">:</span></span></h3>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">बढे हुए पित्त को शांत करने के लिए विरेचन (पेट साफ़ करने वाली औषधि) सबसे अच्छा उपाय है। वास्तव में शुरुआत में पित्त आमाशय और ग्रहणी (Duodenum) में ही इकठ्ठा रहता है। ये पेट साफ़ करने वाली औषधियां इन अंगों में पहुंचकर वहां जमा पित्त को पूरी तरह से बाहर निकाल देती हैं।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-9" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पित्त को संतुलित करने के लिए क्या खाएं :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">अपनी डाइट में बदलाव लाकर आसानी से बढे हुए पित्त को शांत किया जा सकता है. आइये जानते हैं कि पित्त के प्रकोप से बचने के लिए किन चीजों का सेवन अधिक करना चाहिए. </span></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; font-size: medium; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">घी का सेवन सबसे ज्यादा ज़रुरी है।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">गोभी, खीरा, गाजर, आलू, शिमला मिर्च और हरी पत्तेदार सब्जियों का सेवन करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">सभी तरह की दालों का सेवन करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">एलोवेरा जूस, अंकुरित अनाज, सलाद और दलिया का सेवन करें।</span></li>
</ul>
<blockquote style="font-family: Mukta-Regular; font-size: medium; margin: 0px; padding: 0px;">
<div style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<strong style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 22px; margin: 0px; padding: 0px;">और पढ़े: <a href="https://www.1mg.com/hi/patanjali/sapota-chikoo-benefits-in-hindi/#__Chikoo_Help_to_FightWeakness_in_Hindi" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px; text-decoration-line: none;">पित्त मे चीकू के फायदे</a></strong></div>
</blockquote>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-10" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पित्त प्रकृति वाले लोगों को क्या नहीं खाना चाहिए :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">खाने-पीने की कुछ चीजें ऐसी होती हैं जिनके सेवन से पित्त दोष और बढ़ता है। इसलिए पित्त प्रकृति वाले लोगों को इन चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए।</span></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; font-size: medium; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">मूली, काली मिर्च और कच्चे टमाटर खाने से परहेज करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">तिल के तेल, सरसों के तेल से परहेज करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">काजू, मूंगफली, पिस्ता, अखरोट और बिना छिले हुए बादाम से परहेज करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">संतरे के जूस, टमाटर के जूस, कॉफ़ी और शराब से परहेज करें।</span></li>
</ul>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-11" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">जीवनशैली में बदलाव :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">सिर्फ खानपान ही नहीं बल्कि पित्त दोष को कम करने के लिए जीवनशैली में भी कुछ बदलाव लाने ज़रूरी हैं। जैसे कि</span></div>
<ul style="font-family: Mukta-Regular; font-size: medium; margin: 0px 0px 15px; padding: 0px 0px 0px 35px;">
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">ठंडे तेलों से शरीर की मसाज करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">तैराकी करें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">रोजाना कुछ देर छायें में टहलें, धूप में टहलने से बचें।</span></li>
<li style="font-family: Mukta-Medium; font-size: 18px; line-height: 30px; margin: 0px; padding: 0px;"><span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">ठंडे पानी से नियमित स्नान करें।</span></li>
</ul>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-12" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पित्त की कमी के लक्षण और उपचार :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">पित्त में बढ़ोतरी होने पर समस्याएँ होना आम बात है लेकिन क्या आपको पता है कि पित्त की कमी से भी कई शारीरिक समस्याएं हो सकती हैं? शरीर में पित्त की कमी होने से शरीर के तापमान में कमी, मुंह की चमक में कमी और ठंड लगने जैसी समस्याएं होती हैं। कमी होने पर पित्त के जो स्वाभाविक गुण हैं वे भी अपना काम ठीक से नहीं करते हैं। ऐसी अवस्था में पित्त बढ़ाने वाले आहारों का सेवन करना चाहिए। इसके अलावा ऐसे खाद्य पदार्थों और औषधियों का सेवन करना चाहिए जिनमें अग्नि तत्व अधिक हो।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<br /></div>
<h2 style="font-family: Mukta-Bold; font-size: 24px; margin: 0px; padding: 0px;">
<span id="i-13" style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">साम और निराम पित्त :</span></h2>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">हम जो भी खाना खाते हैं उसका कुछ भाग ठीक से पच नहीं पता है और वह हिस्सा मल के रुप में बाहर निकलने की बजाय शरीर में ही पड़ा रहता है। भोजन के इस अधपके अंश को आयुर्वेद में “आम रस’ या ‘आम दोष’ कहा गया है।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">जब पित्त, आम दोष से मिल जाता है तो उसे साम पित्त कहते हैं। साम पित्त दुर्गन्धयुक्त खट्टा, स्थिर, भारी और हरे या काले रंग का होता है। साम पित्त होने पर खट्टी डकारें आती हैं और इससे छाती व गले में जलन होती है। इससे आराम पाने के लिए कड़वे स्वाद वाले खाद्य पदार्थों का सेवन करें।</span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;"></span></div>
<div style="font-family: Mukta-Medium; line-height: 30px; margin-bottom: 15px; padding: 0px;">
<span style="font-family: Mukta-Regular; margin: 0px; padding: 0px;">जब पित्त, आम दोष से नहीं मिलता है तो उसे निराम पित्त कहते हैं। निराम पित्त बहुत ही गर्म, तीखा, कडवे स्वाद वाला, लाल पीले रंग का होता है। यह पाचन शक्ति को बढ़ाता है। इससे आराम पाने के लिए मीठे और कसैले पदार्थों का सेवन करें।</span></div>
</div>
Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-41188698194078182182019-07-24T19:08:00.002+05:302019-08-05T23:22:21.475+05:30वैराग्य शतकम् - Part 2<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div>
<b><span style="font-size: large;">यदेतत्स्वछन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">सहार्यैः संवासः श्रुतमुपशमैकव्रतफलम्।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">मनो मन्दस्पन्दं बहिरपि चिरस्यापि विमृशन्</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">न जाने कस्यैष परिणतिरुदारस्य तपसः।। ५१ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">स्वधीनतापूर्वक जीवन अतिवाहित करना, बिना मांगे खाना, विपद में साहस रखनेवाले मित्रों की सांगत करना, मन को वश में करने की तरकीबें बताने वाले शास्त्रों का पढ़ना-सुनना और चंचल चित्त को स्थिर करना - हम नहीं जानते, ये किस पूर्व-तपस्या के फल से प्राप्त होते हैं ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">पराधीन मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता, उसे पग-पग पर अपमानित, लाञ्छित और दुखित होना पड़ता है । जो स्वाधीन हैं, किसी के अधीन नहीं है, वे ही सच्चे सुखिया हैं । जिनको अपने पेट के लिए किसी के सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ता - किसी के सामने दीन वचन नहीं कहने पड़ते, जिनके दुःख में सहायता देने वाले, बिना कहे कष्ट निवारण करनेवाले मित्र हैं; जो मन को शांत करनेवाले और उसकी चञ्चलता दूर करने वाले शास्त्रों को पढ़ते हैं - वे भाग्यवान हैं । कह नहीं सकते, उन्होंने ये उत्तम फल पूर्वजन्म के किस कठोर तप से पाए हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सत्संगति स्वछन्दता, बिना कृपणता भक्ष।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जान्यो नहिं किहि तप किये, यह फल होत प्रत्यक्ष।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं भैक्ष्यमक्षय्यमन्नं </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">विस्तीर्णं वस्त्रमाशासुदशकममलं तल्पमस्वल्पमुर्वी।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">येषां निःसङ्गताङ्गीकरणपरिणत: स्वात्मसन्तोषिणस्ते</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">धन्याः संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्मनिर्मूलयन्ति।। ५२ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">वे ही प्रशंसाभाजन हैं, वे ही धन्य हैं, उन्होंने ही धर्म की जड़ काट दी है - जो अपने हाथों के सिवा और किसी बासन की जरुरत नहीं समझते, जो घूम घूम कर भिक्षा का अन्न कहते हैं, जो देशो दिशाओं को ही अपना विस्तृत वस्त्र समझते हैं, जो अकेले रहना पसन्द करते हैं, जो दीनता से घृणा करते हैं और जिन्होंने आत्मा में ही सन्तोष कर लिया है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिन्होंने सबसे मन हटाकर, सब तरह के विषयों को त्याग कर, संसारी माया जाल काटकर अपने आत्म में ही सन्तोष कर लिया है; जो किसी भी वास्तु की आकांक्षा नहीं रखते, यहाँ तक की जल पीने को भी कोई बर्तन पास नहीं रखते; अपने हाथों से ही बर्तन का काम लेते हैं; खाने के लिए घर में सामान नहीं रखते, कल के भोजन की फ़िक्र नहीं करते, आज इस गांव में मांगकर पेट भर लेते हैं तो कल दुसरे गांव में जा मांगते हैं, एक गांव में दो रात नहीं बिताते; जो शरीर ढकने के लिए कपड़ों की भी जरुरत नहीं रखते, दशों दिशाओं को ही अपना वस्त्र समझते हैं; जो पलंग-तोशक, गद्दे-तकियों की आवश्यकता नहीं समझते, ज़रा सी जमीन को ही निर्मल पलंग समझते हैं; जब नींद आती है तो अपने हाथ का तकिया लगाकर सो जाते हैं; जो किसी का संग नहीं करते, अकेले रहते हैं, वैराग्य में ही परमानन्द समझते हैं; जो किसी के सामने दीनता नहीं करते अथवा दैत्यरूपी व्यसनों से घृणा करते और अपने स्वरुप में ही मगन रहते हैं, वे पुरुष सचमुच ही महापुरुष हैं । ऐसे पुरुष रत्न धन्य हैं ! उन्होंने सचमुच ही कर्मबन्धन काट दिया है । वे ही सच्चे त्यागी और सन्यासी हैं । ऐसे ही महापुरुषों के सम्बन्ध में <b>महात्मा सुन्दरदास</b> जी ने कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">काम ही क्रोध न जाके, लोभ ही न मोह ताके।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मद ही न मत्सर, न कोउ न विकारो है।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दुःख ही न सुख माने, पाप ही न पुण्य जाने।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हरष ही न शोक आनै, देह ही तें न्यारौ है।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">निंदा न प्रशंसा करै, राग ही न द्वेष धरै।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">लेन ही न दें जाके, कुछ न पसारो है।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुन्दर कहत, ताकी अगम अगाध गति।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ऐसो कोउ साधु, सों तो राम जी कू प्यारो है।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिसमें काम, क्रोध, लोभ, मद और मत्सर प्रभृति विकार नहीं हैं; जो दुःख सुख और पाप पुण्य को नहीं जानता; जिसे न ख़ुशी होती है न रंज; जो अपने शरीर से अलग है; जो न किसी की तारीफ करता है और न किसी की बुराई करता है; जिसे न किसी से प्रेम है न किसी से वैर, जिसका न किसी से लेना है और न किसी को देना, न और ही किसी तरह का व्यवहार है। सुन्दरदास कहते हैं, ऐसे मनुष्य की गति अगम्य और अगाध है । उसकी गहराई का पता नहीं । ऐसा ही मनुष्य भगवान् को प्यारा लगता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>छप्पय</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भोजन को कर पट्ट, दशों दिशि बसन बनाये।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भखै भीख को अन्न, पलंग पृथ्वी पर छाये।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">छाँड़ि सबन को संग, अकेले रहत रैन दिन।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नित आतस सों लीन, पौन सन्तोष छिनहिं छिन।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मन को विकार, इन्द्रीन को डारै तोर मरोर जिन।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वे धन्य संन्यास धन, कर्म किये निर्मूल तिन।।</span></div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दुराराध्यः स्वामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">वयं तु स्थूलेच्छा महति च पदे बद्धमनसः।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">जरा देहं मृत्युर्हरति सकलं जीवितमिदं </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषोऽन्यत्र तपसः।। ५३ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">मालिक को राज़ी करना कठिन है। राजाओं के दिल घोड़ों के समान चंचल होते हैं। इधर हमारी इच्छाएं बड़ी भारी हैं; उधर हम बड़े भारी पद - मोक्ष के अभिलाषी हैं । बुढ़ापा शरीर को निकम्मा करता है और मृत्यु जीवन को नाश करती है । इसलिए हे मित्र ! बुद्धिमान के लिए, इस जगत में, तप से बढ़कर और कल्याण का मार्ग नहीं है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सेवा-धर्म बड़ा कठिन है । हज़ारों प्रकार की सेवाएं करने, अनेक प्रकार की हाँ में हाँ मिलाने, दिन को रात और रात को दिन कहने, तरह तरह की खुशामदें करने से भी मालिक कभी संतुष्ट नहीं होता । राजाओं के दिल अशिक्षित घोड़ों की तरह चंचल होते हैं । उनके चित्त स्थिर नहीं रहते; ज़रा सी देर में वे प्रसन्न होते हैं और ज़रा सी देर में अप्रसन्न हो जाते हैं; क्षणभर में गांव के गांव बक्शते और क्षणभर में सूली पर चढ़वाते हैं; इसलिए राजसेवा में बड़ा खतरा है । उसमें ज़रा भी सुख नहीं, यहाँ तक की जान की भी खैर नहीं है । एक तरफ तो हमारी इच्छाओं और हमारे मनोरथों की सीमा नहीं है दूसरी ओर हम परमपद के अभिलाषी हैं; इसलिए यहाँ भी मेल नहीं खाता । बुढ़ापा हमारे शरीर को निर्बल और रूप को कुरूप करता एवं सामर्थ्य और बल का नाश करता है तथा मृत्यु सिर पर मंडराती है । ऐसी दशा में मित्रवर ! कहीं सुख नहीं है । अगर सुख - सच्चा सुख चाहते हो, तो परमात्मा का भजन करो । उससे आपके परलोक और इहलोक दोनों सुधरेंगे, आप जन्म-मरण के कष्ट से छुटकारा पाकर मोक्ष-पद पाएंगे । सारांश यह है कि सच्चा और नित्य सुख केवल वैराग्य और ईश्वर भक्ति में है । गोस्वामी <b>तुलसीदास जी</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"तुलसी" मिटै न कल्पना, गए कल्पतरु-छाँह।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जब लगि द्रवै न करि कृपा, जनक-सुता को नाह।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हित सन हित-रति राम सन, रिपु सन वैर विहाय।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">उदासीन संसार सन, "तुलसी" सहज सुभाय।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य चाहे कल्पवृक्ष के नीचे क्यों न चला जाय, जब तक सीतापति की कृपा न होगी तब तक उसके दुखों का नाश नहीं हो सकता; इसलिए शत्रुता-मित्रता छोड़, संसार से उदासीन हो, भगवान् से प्रीति करो ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">खुलासा - कहते हैं, इंद्रा के बगीचे में एक ऐसा वृक्ष है, जिसकी छाया में जाकर मनुष्य या देवता जो चीज़ चाहते हैं, वही उनके पास, आप से आप आ जाती है । उसी वृक्ष को "कल्पवृक्ष" कहते हैं । तुलसीदास जी कहते हैं, जब तक जानकीनाथ रामचन्द्र जी दया करके प्रसन्न न हों तब तक, मनुष्य की कल्पना कल्पवृक्ष की छाया में जाने से भी नहीं मिट सकती ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>जप</b>, <b>तप</b>, <b>तीर्थ</b>, <b>व्रत</b>, <b>शम</b>, <b>दम</b>, <b>दया</b>, <b>सत्य</b>, <b>शौच </b>और <b>दान </b>बगैर काम अगर मन में वासना रखकर किये जाते हैं; यानी करनेवाला यदि उनका फल या परस्कार चाहता है, तो उसे स्वर्गादि मिलते हैं । स्वर्ग में जाने से मनुष्य का आवागमन - इस दुनिया में आना और यहाँ से फिर जाना - पैदा होना और मरना - नहीं बन्द हो सकता । क्योंकि कहते हैं - "पुण्य क्षीणे मृत्युलोके", पुण्यों के क्षीण होते ही फिर स्वर्ग से मृत्युलोक में आना पड़ता है, पर मनुष्य का असल मकसद पूरा नहीं होता; यानि उसे परमपद या मोक्ष नहीं मिलता । इसलिए मनुष्य को निष्काम कर्म करने चाहिए । "गीता" में भी यही बात भगवान् कृष्ण ने कही है । बहुत लिखने से क्या - भगवान् की भक्ति सर्वोपरि है । भगवान् की भक्ति से जो काम हो सकता है, वह घोर-से-घोर तपस्याओं से भी नहीं हो सकता ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>किसी ने कहा</b> है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पठित सकल वेदश्शास्त्रपारंगतो वा</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">यम नियम पारो वा धर्म्मशास्त्रार्थकृद्वा।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अटित सकल तीर्थव्राजको वाहिताग्निर्नहि</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हृदि यदि रामः सर्वमेतत्वृथा स्यात्।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">चाहे सारे वेद-शास्त्रों को पढ़लो, चाहे यम नियम आदि कर लो, चाहे धर्मशास्त्र को मनन कर लो और चाहे सारे तीर्थ कर लो, अगर आपके दिल में राम नहीं हैं तो सब वृथा है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">इसीलिए तुलसीदास जी कहते हैं, कि दोस्तों से दोस्ती और दुश्मनो से दुश्मनी छोड़कर एवं संसार से उदासीन होकर भगवान् से प्रीति करो । मतलब यह है, कि न किसी से राग करो और न किसी से द्वेष; सबको उदासीन होकर देखो । जब आपका दिल राज-द्वेषादि से शुद्ध होगा - इस दुनिया में न कोई आपका प्यारा होगा और न कोई कुप्यारा; तभी आपका दिल एक भगवान् में लगेगा ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>सुंदरदास जी</b> कहते हैं -</span><br />
<b><span style="font-size: large;">१)</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">काहे कूँ फिरत नर! दीन भयो घर-घर।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">देखियत, तेरो तो आहार इक सेर है।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जाको देह सागर में, सुन्यो शत योजन को।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ताहू कूँ तो देत प्रभु, या में नहिं फेर है।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भूको कोउ रहत न, जानिये जगत मांहि।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कीरी अरु कुञ्जर, सबन ही कूँ देत है।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"सुन्दर" कहत, विश्वास क्यों न राखे शठ?</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बेर-बेर समझाय, कह्यौ केती बेर है।। २ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">२)</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">काहे कूँ दौरत है दशहुं दिशि?</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तू नर ! देख कियो हरिजू को।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बैठी रहै दूरिके मुख मुंदी,</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">उघारत दांत खवाइहि टूको।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">गर्भ थके प्रतिपाल करी जिन,</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">होइ रह्यो तबहिं जड़ मूको।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"सुन्दर" क्यूँ बिल्लात फिरे अब? </span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">राख ह्रदय विश्वास प्रभु को।। २ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">१)</span><br />
<span style="font-size: large;">हे पुरुष ! तू दीन होकर क्यों घर-घर मारा-मारा फिरता है ? हैख, तेरा पेट तो एक सेर आते में भर जाता है। सुनते हैं, समुद्र में जिसका शरीर चार सौ कोस लम्बा चौड़ा है, उसको भी प्रभु भोजन पहुंचाते हैं, इसमें ज़रा भी शक नहीं । संसार में कोई भी भूखा नहीं रहता । वह जगदीश चींटी और हाथी सबका पेट भरते हैं । अरे शठ ! विश्वास क्यों नहीं रखता ? सुन्दरदास कहते हैं, मैंने तुझे यह बात बारम्बार कितनी बार नहिं समझाई है ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">२)</span><br />
<span style="font-size: large;">अरे ! तू दशों दिशाओं में क्यों भागता फिरता है ? तू भगवान् के किये कामों का ख्याल कर। देख, जब तू मुंह बन्द किये हुए छिपा बैठा था, तब भी तुझे खाने को पहुँचाया और जब तेरे दांत आ गए तब भी तेरे मुंह खोलते ही खाने को टुकड़ा दिया । जिस प्रभु ने तेरी गर्भावस्था से ही - जबकि तू जड़ और मूक था - पालना की है, वही क्या अब तेरी खबर न लेगा? सुन्दरदास जी कहते हैं, तू क्यों चीखता फिरता है ? भगवान् का भरोसा रख; वही प्रभु अब भी तेरी पालना करेंगे।</span><br />
<span style="font-size: large;">सारांश यह कि बुद्धिमान को दुनिया के घमण्डी लोगों की खुशामद छोड़, केवल उसकी खुशामद और नौकरी करनी चाहिए, जिसके दिल में न घमण्ड है और न क्रूरता । जो उसकी शरण में जाता है, उसी की वह अवश्य प्रतिपालना करता और उसके दुःख दूर करने को हाज़रा हुज़ूर खड़ा रहता है । मनुष्य ! तेरी ज़िन्दगी अढ़ाई मिनट की है । इस अढ़ाई मिनट की ज़िन्दगी को वृथा बरबाद न कर । इसे ख़तम होते देर न लगेगी । राजाओं और अमीरों की सेवा-टहल और लल्लो-चप्पो में यह शीघ्र ही पूरी हो जाएगी और उनसे तेरी कामना भी सिद्ध न होगी । यदि तू सबका आसरा छोड़, जगदीश की ही चाकरी करेगा; तो निश्चय ही तेरा भला होगा - तेरे दुखों का अवसान हो जायेगा; तुझे फिर जन्म लेकर घोर कष्ट न सहने होंगे; तुझे नित्य और चिरस्थायी शान्ति मिलेगी । अरे ! तू साड़ी चतुराई और चालाकियों को छोड़कर, एक इस चतुराई को कर; क्योंकि यह चातुरी सच्ची चातुरी है । जो जगदीश को प्रसन्न कर लेता है, वही सच्चा चतुर है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">कहा है -</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">या राका शशि-शोभना गतघना सा यामिनी यामिनी।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">या सौन्दर्य्य-गुणान्विता पतिरता सा कामिनी कामिनी।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">या गोविन्द-रस-प्रमोद मधुरा सा माधुरी माधुरी।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">या लोकद्वय साधनी तनुभृतां सा चातुरी चातुरी।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मेघावरण शून्य पूर्ण-चन्द्रमा से शोभायमान जो रात्रि है, वही रात्रि है । जो सुंदरी है, गुणवती है और पति में भक्ति रखनेवाली है, वही कामिनी है । कृष्ण के प्रेम के आनन्द से मनोहर मधुरता ही मधुरता है । शरीरधारियों का दोनों लोक में उपकार करनेवाली जो चतुराई है, वही चतुराई है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नृप-सेवा में तुच्छ फल, बुरी काल की व्याधि।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अपनों हित चाहत कियो, तौ तू तप आराधि।।</span></div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div>
<b><span style="font-size: large;">भोगा मेघवितानमध्यविलसत्सौदामिनीचञ्चला </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">आयुर्वायुविघट्टिताभ्रपटलीलीनाम्बुवद्भङ्गुरम्।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">लोला यौवनलालसा तनुभृतामित्याकलय्य द्रुतं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">योगे धैर्यसमाधिसिद्धिसुलभे बुद्धिं विधध्वं बुधाः।। ५४ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">देहधारियों के भोग - विषय सुख - सघन बादलों में चमकनेवाली बिजली की तरह चञ्चल हैं; मनुष्यों की आयु या उम्र हवा से छिन्न भिन्न हुए बादलों के जल के समान क्षणस्थायी या नाशमान है और जवानी की उमंग भी स्थिर नहीं है । इसलिए बुद्धिमानो ! धैर्य से चित्त को एकाग्र करके उसे योगसाधन में लगाओ ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">संसार और संसार के सारे पदार्थ आसार और नाशमान हैं । यहाँ जो दिखाई देता है वह स्थिर न रहेगा। यह जो अथाह जल से भरा हुआ समन्दर दिखाई देता है, किसी दिन मरुस्थल में परिणत हो जाएगा; पानी की एक बूँद भी नहीं मिलेगी । यह बगीचा जो आज इंद्रा के बगीचे की बराबरी कर रहा है, जिसमें हज़ारों तरह के फलों के वृक्ष लगे रहते हैं, हौज़ बने हुए हैं, छोटी छोटी नहरे कटी हुई हैं, संगमरमर और संगे-मूसा के चबूतरे बने हुए हैं, बीच में इन्द्रभवन के जैसा महल खड़ा है, किसी दिन उजाड़ हो जाएगा; इसमें स्यार, लोमड़ी और जरख प्रभृति पशु बसेरा लेंगे । यह जो सामने महलों की नगरी दीखती है, जिसमें हज़ारों दुमंजिले, तिमंज़िले, चौमंज़िले और सतमंज़िले आलिशान मकान खड़े हुए आकाश को चूम रहे हैं, जहाँ लाखों मनुष्यों के आने जाने और काम धंधा करने के कारण पीठ-से-पीठ छिलती है, किसी दिन यहाँ घोर भयानक वन हो जाएगा । मनुष्यों के स्थान में सिंह, बाघ, हाथी, गैंडे, हिरन और स्यार प्रभृति पशु आ बसेंगे । और तो क्या - यह सूर्य, जो अपने तेज से तीनो लोकों प्रकाश फैलता है, अंधकार रूप हो जाएगा । यह अमृत से पूर्ण सुधाकर - चन्द्रमा भी शून्य हो जायेगा । इसकी शीतल चांदनी न जाने कहाँ विलीन हो जाएगी ? हिमालय और सुमेरु जैसे पर्वत एक दिन मिटटी में मिल जायेंगे। यह ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र भी शून्य हो जाएगने । सारा जगत नाश हो जायेगा । ये स्त्री, पुत्र, नाते-रिश्तेदार न जाने कहाँ छिप जायेंगे ? युगों की सहस्त्र चौकड़ियों का ब्राह्मण का एक दिन होता है । उस दिन के पूरे होते ही प्रलय होती है । तब इस जगत की रचना करने वाला ब्रह्मा भी नष्ट हो जाता है । आज तक अनगिनती ब्रह्मा हुए । उन्होंने जगत की रचना की और अंत में स्वयं नष्ट हो गए । जब हमारे पैदा करनेवाले का यह हाल है, तब हमारी क्या गिनती ?</span><br />
<span style="font-size: large;">या काया - जिसे मनुष्य अपना सर्वस्व समझता है, जिसे मल-मल कर धोता है, इत्र फुलेलों से सुवासित करता, नाना प्रकार के रत्नजड़ित मनोहर गहने पहनता, कष्ट से बचने और सुखी होने के लिए नरम-नरम मखमली गद्दों पर सोता, पैरों को तकलीफ से बचाने के लिए जोड़ी-गाडी या मोटर में चढ़ता है - एक दिन नाश हो जाएगी; पांच तत्वों से बानी हुई काया, पांच तत्वों में ही विलीन हो जाएगी । जिस तरह पत्ते पर पड़ी हुई जल की बूँद क्षणस्थायी होती है; उसी तरह यह काया क्षणभंगुर है । दीपक और बिजली का प्रकाश आता जाता दीखता है, पर इस काया का आदि-अन्त नहीं दीखता । यह काया कहाँ से आती है और कहाँ जाती है । जिस तरह समुद्र में बुद्बुदे उठते और मिट जाते हैं; उसी तरह शरीर बनते और क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं । सच तो यह है कि यह शरीर बिजली की चमक और बादल की छाया की तरह चञ्चल और अस्थिर है । जिस दिन जन्म लिया, उसी दिन मौत पीछे पद गयी; अब वह अपना समय देखती है और समय पूर्ण होते ही प्राणी को नष्ट कर देती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिस तरह जल की तरंगे उठ उठ कर नष्ट हो जाती है; उसी तरह लक्ष्मी आकर क्षणभर में विलीन हो जाती है । जिस तरह बिजली चमक कर गायब हो जाती है; उसी तरह लक्ष्मी दर्शन देकर गायब हो जाती है । हवा और चपला को रोकना अत्यन्त कठिन है, पर शायद कोई उन्हें रोक सके; आकाश का चूर्ण करना अतीव कठिन है, पर शायद कोई आकाश को भी चूर्ण करने में समर्थ हो जाये; समुद्र को भुजाओं से तैरना बाउट कठिन है, पर शायद कोई तैरकर उसे भी पार कर सके; इतने असम्भव काम शायद को सामर्थ्यवान कर सके, पर चञ्चला लक्ष्मी को कोई भी स्थिर नहीं कर सकता। जिस तरह अंजलि में जल नहीं ठहरता; उसी तरह लक्ष्मी भी किसी के पास नहीं ठहरती । जिस तरह वेश्या एक पुरुष से राज़ी नहीं रहती, नित नए पुरुषों को चाहती है; उसी तरह लक्ष्मी भी किसी एक के पास नहीं रहती, नित नए पुरुषों को भजती है । इसी से वेश्या और लक्ष्मी दोनों को ही चपला कहते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">जिस तरह सांसारिक पदार्थ लक्ष्मी और विषय-भोग तथा आयु चञ्चल और क्षणस्थायी है; उसी तरह यौवन या जवानी भी क्षणस्थायी है । जवानी आते दीखती है, पर जाते मालूम नहीं होती । हवा की अपेक्षा भी तेज़ चाल से दिन-रात होते है और उसी तेज़ी से जवानी झट ख़त्म हो जाती और बुढ़ापा आ जाता है । उस समय विस्मय होने लगता है । यह शरीर तभी तक सुन्दर और मनोहर लगता है, जब तक बुढ़ापा नहीं आता । बुढ़ापा आते ही वह उछल-कूद, वह अकड़-तकड़, वह चमक-दमक, वह सुर्खी, वह छातियों का उभार, वह नयनों का रसीलापन न जाने कहाँ गायब हो जाता है । असल में यौवन के लिए बुढ़ापा, राहु है । जिस तरह चन्द्रमा को जब तक राहु नहीं ग्रसता, तभी तक प्रकाश रहता है; उसी तरह जब तक बुढ़ापा नहीं आता, तभी तक शरीर का सौंदर्य और रूप-लावण्य बना रहता है । प्राणियों को बाल्यावस्था के बाद युवावस्था और युवावस्था के बाद वृद्धावस्था अवश्य आती है । युवावस्था सदा नहीं रहती; अच्छी तरह गहरा विचार करने से जवानी क्षणभर की मालूम होती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">संसार में जो नाना प्रकार के मनभावन पदार्थ दिखाई देते है, ये सभी नाशमान है । ये सब वास्तव में कुछ भी नहीं; केवल मन की कल्पना से इनकी सृष्टि की गयी है । मूर्ख ही इनमें आस्था रखते हैं, ज्ञानी नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">इस जगत में ज्ञानी का जीवन सार्थक और अज्ञानी का निरर्थक है । अज्ञानी के जीने से कोई लाभ नहीं। उसके जीने से अर्थ-सिद्धि नहीं होती । वह वृथा सुअवसर गंवाता है । मूर्ख मोह के मारे नहीं समझता, कि ऐसा मौका बड़ी मुश्किल से मिला है । इस बारे चुके तो खैर नहीं । अज्ञानी अपनी अज्ञानता या मोह के कारन ही नाशमान और दुखों के मूल विषयों की ओर दौड़ता है, पर आयु, यौवन और विषयों की क्षणभंगुरता पर ध्यान नहीं देता । यह मायामोह नहीं तो क्या है ?</span><br />
<span style="font-size: large;">"<b>सुभाषितावली</b>" में लिखा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चला विभूतिः क्षणभंगी यौवनं कृतान्तदन्तान्तर्वर्त्ति जीवितं।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तथाप्यवज्ञा परलोकसाधने नृणामहो विस्मयकारि चेष्टितं।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">विभूति चञ्चल है, यौवन क्षणभंगुर है, जीवन काल के दांतो में है; तो भी लोग परलोक साधन की परवाह नहीं करते। मनुष्यों की यह चेष्टा विस्मयकारक है !</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">फिरदौसी ने "<b>शाहना</b>" में कहा है - "मनुष्य इस नापायेदार दुनिया से क्यों दिल लगाते हैं; जबकि मौत का नक्कारा दरवाजे पर बज रहा है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">मनुष्यों ! होश करो, गफलत की नींद छोडो। वह देखो ! मौत आपका द्वार खटखटा रही है । अब तो मिथ्या संसार का मोह त्यागो । ये जो स्त्री, पुत्र, भाई, बहन, माता-पिता आदि प्यारे और समबन्धी दिखाई देते है, ये उसी वक्त तक हैं, जब तक की शरीर नाश नहीं हुआ है। शरीर के नाश होते ही ये नज़र भी न आएंगे । यह भी समझ में न आवेगा कि कहाँ से आये थे और कहाँ गए। यह बन्धु-बान्धवों का मिलना उन यात्रियों या मुसाफिरों की तरह है, जो भिन्न-भिन्न स्थानों से सफर करते हुए एक वृक्ष के नीचे आकर ठहर जाते हैं और क्षणभर विश्राम लेकर फिर अपनी अपनी राह पर चल देते हैं या उन मुसाफिरों की तरह है, जो अनेक स्थानों से आकर एक सराय या धर्मशाला में ठहरते हैं; और फिर कोई दो दिन, कोई चार दिन ठहर कर अपनी अपनी जगह को चल देते हैं । वृक्षों के नीचे चन्द मिनट ठहरने वालों अथवा सराय के मुसाफिरों का आपस में प्रीती करना क्या अक्लमन्दी है ? जिनका क्षणभर का साथ है, उनमें दिल फंसना, दुःख मोल लेना है । उनके अलग होते ही मन में भयानक वेदना होगी, अतः उनके साथ कोई सरोकार न रखना चाहिए । यह संसार दो स्थानों के बीच का स्थान है । यात्री यहाँ आकर क्षणभर के लिए आराम करते और फिर आगे चले जाते हैं । ऐसे यात्रियों का आपस में मेल बढ़ाना, एक-दुसरे की मुहब्बत के फन्दे में फंसना, सचमुच ही दुःखोत्पादक है । समझदार लोग, मुसाफिरों से दिल नहीं लगाते - उनसे प्रेम नहीं करते - उन्हें अपना-पराया नहीं समझते । न उन्हें किसी से राग है न द्वेष। वे सबको समदृष्टि या एक नज़र से देखते हुए सहाय्य करते और उनका कष्ट निवारण करते हैं, पर उनसे प्रीती नहीं करते; लेकिन मूर्ख लोग स्त्री-पुत्र और माता-पिता प्रभृति को अपना प्यारा समझते और दूसरों को पराया समझते हैं । इस जगत में न कोई अपना है न कोई पराया । यह जगत एक वृक्ष है । इस पर हज़ारों लाखों पक्षी भिन्न भिन्न स्थानों से आकर रात को बसेरा लेते और सवेरे ही अपने अपने स्थानों को उड़ जाते हैं भिन्न भिन्न स्थानों से आये हुए पक्षियों को क्या रातभर के साथ के लिए आपस में नाता जोड़ना चाहिए? हरगिज़ नहीं। दूसरों से समबन्ध जोड़ना, किसी को अपना पुत्र और किसी को अपनी स्त्री एवं किसी को माँ या बहन समझकर स्नेह करना तो मूर्खता ही है । स्नेह तो अपनी काया से भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह भी क्षणभंगुर है - सदा साथ न रहेगी ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा सुन्दरदास</b> जी कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बालू के मन्दिर मांहि, बैठी रह्यो स्थिर होइ ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">राखत है जीवन की आश, केउ दिन की।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पल-पल छीजत, घटत जाट घरी-घरी।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विनाशत बेर कहाँ? खबर न छिन की।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">करत उपाय, झूठे लेन-देन खान-पान।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मूसा इत-उत फायर, ताकि रही मिनकी।। १ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;">देह सनेह न छाँडत है नर।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जानत है थिर है ये देहा।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">छीजत जात घटै दिन ही दिन।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दीसत है घट को नित छेहा।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">काल अचानक आय गहे कर।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ठाँह गिराई करे तन खेहा।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"सुन्दर" जानि यह निहचै धर।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">एक निरंजन सूँ कर नेहा।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अरे मूर्ख ! तू इस शरीर की मुहब्बत नहीं छोड़ता, यह तेरी बड़ी भूल है । तू इस बालू के घर को स्थिर या चिरस्थायी समझता है; पर यह दिन-पर-दिन छीजता और घटता जाता है । हमें तो इस घट का नित्य क्षय ही दीखता है । देख, किसी दिन काल अचानक आकर तेरे हाथ पकड़ लेगा और तुझे गिराकर तेरे शरीर को ख़ाक कर देगा । सुन्दरदास जी कहते हैं - अरे मूर्ख ! तू मेरी बात को - मेरी सलाह को ठीक समझ, इसमें मीन मेख न लगा । यह अटल बात है और बातों में चाहे फर्क पड़ जाय पर इसमें फर्क नहीं पड़ने का । इसलिए तू अपने इस शरीर से, अपने स्त्री-पुत्रों से और अपनी दौलत से मुहब्बत छोड़कर, एकमात्र जगदीश से प्रेम कर । उनसे स्नेह करेगा तो सदा सुख पायेगा और इनसे मुहब्बत रखेगा तो घोरातिघोर दुःख भोगेगा ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं - अरे अज्ञानी मनुष्य ! मुझे तेरी इस बात पर बड़ा ही अचम्भा आता है कि तू इस बालू के मकान में निःशंक और मस्त होकर बैठा हुआ है और कितने ही दिनों तक जीने की उम्मीद रखता है । यह तेरा बालू का घर, हर क्षण छीजता और घटता जाता है। इसको नाश होते कितनी देर लगेगी ? मुझे तो एक पल का भी भरोसा नहीं है । तू इस बालू के क्षणभंगुर घर में बेखटके बैठा हुआ अनेक तरह के झूठे उपाय-उद्योग, लेन-देन और खान-पान करता है । तू चूहे की तरह इधर-उधर उछलता कूदता फिरता है । क्या तुझे खबर नहीं कि जिस तरह बिल्ली, चूहे की ताक में बैठी रहती है; उसी तरह तेरी घात में मौत बैठी है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>खुलासा </b>- ज़रा भी समझ रखनेवाले समझ सकते हैं कि प्राणियों के शरीर के भीतर कोई ऐसी चीज़ है, जिसके रहने से प्राणी चलते-फिरते, काम-धंधा करते और ज़िंदा समझे जाते हैं । जिस वक्त वह चीज़ शरीर से निकल जाती है, उस वक्त मनुष्य मुर्दा हो जाता है, उस समय वह न तो चल-फिर सकता है, न देख-सुन या कोई और काम कर सकता है । जिस चीज़ के प्रकाश से शरीर में प्रकाश रहता है, जिसके बल से यह काम-धंधे करता और बोलता चालता है, उसे जीव या आत्मा कहते हैं । हमारा शरीर हमारे आत्मा के रहने का घर है । जिस तरह मकान में मोरी, परनाले, खिड़की और जंगले होते हैं; उसी तरह आत्मा के रहने के इस शरीर रुपी घर में भी मोरी और परनाले वगैरह हैं । आँख, कान, नाक और मुंह प्रभृति इस शरीर रुपी घर के द्वार और गुदा-लिङ्ग या योनि वगैरह मोरी-परनाले हैं । शरीर के करोड़ों छेद इस मकान के जंगले और खिड़कियां हैं । मतलब यह कि, यह शरीर आत्मा या जीव के बसने का घर है । यह घर मिटटी और जल प्रभृति पञ्च-तत्वों से बना हुआ है इस घर के बनाने वाला कारीगर परमात्मा है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिस तरह परमात्मा ने आत्मा के रहने के लिए पांच तत्वों से बने यह शरीर रुपी घर बना दिया है; उसी तरह हमने भी अपने इस आत्मा के शरीर की रक्षा के लिए - मेह पानी और धूप आदि से बचने के लिए - मिटटी या ईंट पत्थर प्रभृति के मकान बना लिए है । हमारे बनाये हुए ईंट पत्थरों के मकान सौ-सौ, दो-दो सौ और पांच-पांच सौ बरसों तक रह सकते हैं । हज़ार हज़ार बरस से ज्यादा मुद्दत के बने हुए मकान आज तक खड़े हुए हैं । पर हमारे आत्मा के रहने का पञ्च तत्वों से बना हुआ मकान इतना मजबूत नहीं - वह क्षणभर में ढह जाता है । इसलिए इस आत्मा के मकान - शरीर - को महात्मा सुन्दरदास जी बालू का मकान कहते हैं । क्योंकि बालू का मकान इधर बनता और उधर गिर पड़ता है । उसकी उम्र पल भर की भी नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य अज्ञान और मोह से अँधा रहने के कारण, इस बालू के मकान की क्षणभंगुरता का कभी ख्याल भी नहीं करता । वह इस बालू के मकान में ही सैकड़ों बरसों तक रहने की आशा करता है ! मनुष्य की इस गफलत और बेहोशीपर पूर्णज्ञानी महात्मा सुन्दरदास जी को दुःख और आश्चर्य होता है । महापुरुष सदा पराया भला चाहा करते हैं; वे दूसरों को दुःख और क्लेशों से बचाना अपना कर्तव्य और फ़र्ज़ समझते हैं, इसलिए वे अज्ञानान्धकार में डूबे हुए मनुष्यों को सावधान करने के लिए कहते हैं - अरे मूर्ख ! तू इस बालू के घर में रहकर भी बरसों जीने की - इस घर में रहने की - आशा करता है ? अरे नादान ! होश कर ! जाग ! तेरा यह बालू का घर पलक मारते गिर जायेगा ! जबसे तू इस बालू के घर में आया है, तभी से इसकी नींव हिलने लग गयी है । एक मिनट या एक सेकंड में ये गिर सकता है । ऐसे क्षणभंगुर घर में रहकर तू मकान बनवाता है; बाग़-बगीचे लगवाता है; किसी को अपनी स्त्री, किसी को अपना पुत्र और किसी को अपना बाप, भाई या मित्र समझता है; इनके मोह-जाल में फंसता है; बेहोशी में, लोग पर अत्याचार और जुल्म करता एवं पराया धन हडपता है ! मुझे तेरी इन करतूतों को देखकर बिहायत आश्चर्य भी होता और दुःख भी होता है ! सच तो यह है कि, मुझे तेरी नादानी पर तरस आता है । खैर, जो हुआ सो हुआ, अब भी चेत जा !! धन-दौलत, स्त्री-पुत्र, राज-पाट और ज़मींदारी का मोह त्यागकर अपने बनानेवाले कि शरण में जा । वही तेरे इस बालू के घर में बारम्बार आने और क्षणभर में इसे छोड़ भागने के घोर कष्ट को दूर कर सकता है । अगर तू इस जञ्जाल में फंसा रहेगा, मेरी बात पर ध्यान न देगा, तो पीछे बहुत पछतावेगा । जिस समय तेरा यह घर गिरने पर आवेगा, तू इसे छोड़ने के लिए मजबूर होगा; उस समय तू हज़ार चाहने और हज़ार रोने-कलपनेपर भी इसमें क्षणभर भी न रह सकेगा । जब तक तू इस बालू के घर में है, तभी तक तेरी स्त्री और तभी तक तेरा पुत्र और धन-दौलत आदि हैं । जहाँ तैने यह घर छोड़ा या तेरा यह घर गिरा; फिर न तुझे स्त्री दीखेगी, न पुत्र दीखेगा और न धन-दौलत ही । यह बालू का घर तुझे क्षणभर के लिए, इस गरज़ से मिला है कि, तू इसमें जितनी देर रहे उतनी देर जगदीश की भक्ति करके, अपने कर्मबन्धन काटले और जन्म-मरण के झंझटों से बचकर, अपने मालिक में मिल जावे; ताकि फिर तुझे कभी दुःख न भोगने पड़े - तू सदा-सर्वदा - अनन्त काल तक नित्य और अविनाशी सुख भोगता रहे ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">लक्ष्मी क्षणभंगुर है । समुद्र में जिस तरह तरंगे उठती और विलीन हो जाती हैं; उसी तरह लक्ष्मी से विषय-भोग उपजते और नष्ट हो जाते हैं । जिस तरह चपला की चमक स्थिर नहीं रहती; उसी तरह भोग भी स्थिर नहीं रहते । विषयों के भोगने से तृष्णा घटती नहीं, बल्कि बढ़ती है । तृष्णा के उदय होने से पुरुष के सब गन नष्ट हो जाते हैं । दूध में मधुरता उसी समय तक रहती है, जब तक की उसे सर्प नहीं छूता; पुरुष में गन भी उसी समय तक रहते हैं, जब तक कि तृष्णा का स्पर्श नहीं होता । अतः बुद्धिमानो ! अनित्य, नाशमान एवं दुखों कि खान, विष-समान विषयों से दूर रखो; क्योंकि इनमें ज़रा भी सुख नहीं । जब तक विषय-भोग रहेंगे तभी तक आप सुखी रहेंगे; पर एक-न-एक दिन उनसे आप का वियोग अवश्य होगा; उस समय आप तृष्णा कि आग में जलोगे, बारम्बार जन्म लोगे और मरोगे; अतः इन्द्रियों को वश में करो और एकाग्र चित्त से परमात्मा का भजन करो; क्योंकि विषयों को भोगने से नरकाग्नि में जलोगे और जन्म-मरण के घोर संकट सहोगे; पर परमात्मा के भजन या योगसाधन से नित्य सुख भोगते हुए परमानन्द में लीन हो जाओगे ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">बहुत से मनुष्य मन को एकाग्र नहीं करते, पर दिखावटी माला जपते हैं, गोमुखी में सड़ा-सड़ हाथ चलते हैं, "<b>गीता</b>" और "<b>विष्णु सहस्त्रनाम</b>" प्रभृति का पाठ करते हैं और बीच बीच में कारोबार की बातें भी करते रहते हैं अथवा स्त्री बच्चो के झगडे निपटाया करते हैं । ऐसे भजन करने और माला फेरने से कोई लाभ नहीं । इस तरह समय वृथा नष्ट होता है । मन के एक ठौर हुए बिना, शांत और स्थिर हुए बिना सब वृथा है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा कबीर</b> ने ठीक ही कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जेती लहर समुद्र की, तेति मन की दौरि।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सहजै हीरा उपजै, जो मन आवै ठौरि।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">माला फेरत युग गया, पाया न मनका फेर।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कर का मनका छाँड़ि के, मन का मनका फेर।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मूँड़ मुड़ावत दिन गए, अजहुँ न मिलिया राम।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">राम नाम कहो क्या करै, मन के औरे काम।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तन को योगी सब करें, मन को विरला कोय।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सहजै सब विधि पाइये, जो मन योगी होय।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span>जितनी समुद्र की लहरें है; उतनी ही मन की दौड़ है। अगर मन ठिकाने आ जाय, उसमें समुद्र की सी तरंगे न उठें, तो सहज हीरा पैदा हो जाय; यानी परमात्मा मिल जाय ।</span><br />
<span style="font-size: large;">माला फेरते-फेरते युग बीत गया, पर मनका फेर न मिला; अतः हाथ का मनिया छोड़कर, मनका मनिया फेर। हाथ की माला फेरने से कोई लाभ नहीं; लाभ है मन की माला फेरने से । मन लगाकर एक बार भी ईश्वर को याद करने से बड़ा फल मिलता है; पर चञ्चल चित्त से दिन-रात माला फेरने से भी कुछ नहीं मिलता ।</span><br />
<span style="font-size: large;">मूँड़ मुड़ाते अनेक दिन हो गए, पर आज तक भगवान् न मिले । मिले कैसे ? मन राम में लगे तब तो राम मिले ? जिस तरह रवि और रजनी - दिन और रात - एकत्र नहीं होते, उसी तरह राम और काम एकत्र नहीं मिलते । जहाँ काम है, वह राम नहीं और जहाँ राम है, वह काम नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">तन को योगी सब करते हैं, पर मन को कोई ही योगी करता है । अगर मन होगी हो जाय, तो सहज में सिद्धि मिल जाय । लोग गेरुए कपडे पहन लेते हैं, जटा रखा लेते हैं, हाथ में कमण्डल और बगल में मृगछाला ले लेते हैं - इस तरह योगी बन जाते हैं, पर मन उनका संसारी भोगो में ही लगा रहता है; इसलिए उन्हें सिद्धि नहीं मिलती - ईश्वर दर्शन नहीं होता । अगर वे लोग कपडे चाहें गृहस्थों के ही पहनें, गृशस्थों की तरह ही खाएं-पीएं; पर मन को एक परमात्मा में रक्खें, तो निश्चय ही उन्हें भगवान् मिल जाएं । जो मनुष्य गृशस्थ आश्रम में रहता है, पर उसमें आसक्ति नहीं रखता, यानी जल में कमल की तरह रहता है, उसकी मुक्ति निश्चय ही हो जाती है; पर जो सन्यासी होकर विषयों में आसक्ति रखता है उसकी मोक्ष नहीं होती । राजा जनक गृहस्थी में रहते थे; सब तरह के राजभोग भोगते थे; पर भोगों में उनकी आसक्ति नहीं थी, इसी से उनकी मुक्ति हो गयी ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>सारांश </b>- विषय-भोग, आयु और यौवन को अनित्य और क्षणभंगुर समझकर इनमें आसक्ति न रखो और मन को एकाग्र करके हर क्षण परमात्मा का भजन करो - तो जन्म-मरण से छुटकारा मिल जाय और परमानन्द की प्राप्ति हो जाय ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>कबीरदास जी</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कहा भरोसो देह को, विनसि जाय छीन मांहि।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">श्वास श्वास सुमिरन करो, और जतन कछु नांहि।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इस शरीर का क्या भरोसा ? यह क्षणभर में नष्ट हो जाय । इस दशा में सर्वोत्तम उपाय यही है कि, हर सांस पर परमात्मा का नाम लो । बिना उसके नाम के कोई सांस न जाने पावे । बस, इससे बढ़कर उद्धार का और उपाय नहीं है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">कुण्डलिया</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जैसे चञ्चल चञ्चला, त्योंही चञ्चल भोग।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तैसेही यह आयु है, ज्यों घट पवन प्रयोग।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ज्यों घट पवन प्रयोग, तरल त्योंही यौवन तन।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विनस न लगत न वार, गहत ह्वै जात ओसकन।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">देख्यौ दुःसह दुःख, देहधारिन को ऐसे।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">साधत सन्त समाधि, व्याधि सों छूटत जैसे।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">विनस - विनाश; वार - समय; गहत - पकड़ते हो; ओसकन - ओंस के कण</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">पुण्ये ग्रामे वने वा महति सितपटच्छन्नपालिं कपाली-</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">मादाय न्यायगर्भद्विजहुतहुतभुग्धूमधूम्रोपकण्ठं।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">द्वारंद्वारं प्रवृत्तो वरमुदरदरीपूरणाय क्षुधार्तो</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">मानी प्राणी स धन्यो न पुनरनुदिनं तुल्यकुल्येषुदीनः।। ५५ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">वह क्षुधार्त किन्तु मानी पुरुष, जो अपने पेट-रुपी खड्डे के भरने के लिए हाथ में पवित्र साफ़ कपडे से ढका हुआ ठीकरा लेकर वन-वन और गांव-गांव घूमता है और उनके दरवाज़े पर जाता है, जिनकी चौखट न्यायतः विद्वान ब्राह्मणो द्वारा कराये हुए हवन के धुएं से मलिन हो रही है, अच्छा है; किन्तु वह अच्छा नहीं, जो समान कुलवालों के यहाँ जाकर मांगता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>तुलसीदास जी</b> ने भी कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">घर में भूखा पड़ रहे, दस फाके हो जाएँ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तुलसी भैय्या बन्धु के, कबहुँ न माँगन जाय।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तुलसीदास जी कहते है, अगर मनुष्य के पास खाने को न हो, उसको उपवास करते करते दस दिन बीत जाएं, अन्न बिना प्राण नाश होने की सम्भावना हो; तो भी उसे अपनी या अपने परिवार की जीवन रक्षा के लिए, कुछ मिलने की आशा से, भाई बन्धुओं के पास हरगिज़ न जाना चाहिए । क्योंकि ऐसे मौके पर वे लोग उसका अपमान करते हैं । उस अपमान का दुःख भोजन बिना प्राण नाश होने के दुःख से अधिक दुःखदायी होता है । मृत्यु की यंत्रणाओं का सहना आसान है, पर उस अपमान को सहना कठिन है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और भी <b>किसी </b>ने कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्र सेवितं।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">द्रमालयः पक्कफलाम्बु भोजनं।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तृणानि शय्या परिधान वल्कलं।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">न बन्धुमध्ये धनहीन जीवनं।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">व्याघ्र और हाथियों से भरे हुए जंगल में रहना भला, वृक्षों के नीचे बसना भला, पके-पके फल खाना और जल पीना भला, घास पर सो रहना और छालों के कपडे पहन लेना भला; पर भाइयों के बीच में धनहीन होकर रहना भला नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">सोरठा </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विप्रन के घर जाय, भीख माँगिबो है भलो।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बन्धुन को सिरनाय, भोजनहु करिबो बुरो।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">चाण्डाल किमयं द्विजातिरथवा शूद्रोऽथ किं तापसः</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">किं वा तत्त्वविवेकपेशलमतिर्योगीश्वरः कोऽपि किम्।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">इत्युत्पन्नविकल्पजल्पमुखरैः सम्भाष्यमाणा जनैः</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">न क्रुद्धाः पथि नैव तुष्टमनसो यान्ति स्वयं योगिनः।। ५६ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">यह चाण्डाल है या ब्राह्मण है? यह शूद्र है या तपस्वी है? क्या यह तत्वविद योगीश्वर है ? लोगों द्वारा ऐसी अनेक प्रकार की संशय और तर्कयुक्त बातें सुनकर भी योगी लोग न नाराज़ होते हैं न खुश; वे तो सावधान चित्त से अपनी राह चले जाते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">योगीजन लोगों की बुरी भली बातों का ख्याल नहीं करते; कोई कुछ भी क्यों न कहा करे । चाहे उन्हें कोई शूद्र कहे, चाहे ब्राह्मण, चाहे भंगी और चाहे तपस्वी; चाहे कोई निंदा करे, चाहे स्तुति; वे अच्छी बात से प्रसन्न और बुरी बात से अप्रसन्न नहीं होते सच्चे महात्मा हर्ष शोक, दुःख-सुख और मान-अपमान सबको समान समझते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>योगेश्वर कृष्ण</b> ने "<b>गीता</b>" के दुसरे अध्याय में कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जो दुःख के समय दुखी नहीं होता; जो राग, भय और क्रोध से रहित है, वह "स्थितप्रज्ञ" मुनि है।</span><br />
<span style="font-size: large;">बुद्धिमान को किसी बात की परवाह न करनी चाहिए । हाथी की तरह रहना चाहिए । हाथी के पीछे हज़ारों कुत्ते भौंकते हैं, पर वह उनकी तरफ देखता भी नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा कबीरदास जी</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हस्ती चढ़िये ज्ञान के, सहज हुलीचा डारि।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">श्वान-रूप संसार है, भूसनदे झकमारि।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;">"कबिरा" काहे को डरै, सिर पर सिरजनहार?</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हस्ती चढ़ दुरिये नहीं, कूकर भूसे हज़ार।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महाकवि रहीम</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जो बड़ेन को लघु कहौ, नहिं "रहीम" घट जाहिं।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;">सज्जन चित्त कबहुँ न धरत, दुर्जन जान के बोल।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पाहन मारे आम को, तउ फल देत अमोल।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">आप ज्ञान रुपी हाथी पर चढ़कर मस्त हो जाओ; किसी की परवा मत करो; बकनेवालों को बकने दो । यह संसार कुत्ते की तरह है । इसे भौंकने दो । झकमार कर आप ही रह जायेगा । देखते हो, जब हाथी निकलता है, सैकड़ों कुत्ते उसके पीछे पीछे भौंकते हैं; पर वह अपनी स्वाभाविक चाल से, मस्त हुआ, शान से चला जाता है - कुत्तों की तरफ नज़र उठाकर भी नहीं देखता । वह तो चला ही जाता है और कुत्ते भी झकमार के चुप हो जाते हैं । मतलब यह है कि तुम अच्छी राह पर चलो, संसार की बुरी भली बातों पर ध्यान मत दो । हाथी का अनुकरण करो ।</span><br />
<span style="font-size: large;">कबीरदास कहते हैं - अरे मनुष्य ! तू क्यों डरता है, जबकि तेरे पास तेरा बनानेवाला मौजूद है ? हाथी पर चढ़कर भागना उचित नहीं, चाहे हज़ारों कुत्ते क्यों न भौंके । मतलब यह कि तुमने जो उत्तम पथ अख्तियार किया है, लोगो के बुरा भला कहने से उसे मत त्यागो । संसारी कुत्तों से न डरो, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करेगा ।</span><br />
<span style="font-size: large;">रहीम कवी कहते हैं, बड़ो को छोटा कहने से बड़े छोटे नहीं हो जाते - वे तो बड़े ही रहते हैं । गिरिराज या गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी ऊँगली पर उठानेवाले - अतुल पराक्रम दिखनेवाले कृष्ण को लोग गिरिधर की जगह मुरली या बांस की बांसुरी धारण करनेवाले मुरलीधर कहते हैं, लेकिन वे बुरा नहीं मानते ।</span><br />
<span style="font-size: large;">सज्जन लोग दुष्टों की कड़वी बातों या बोली-ठोलियों का ख्याल ही नहीं करते । लोग आम के वृक्ष के पत्थर मारते हैं, तो भी वह अनमोल फल ही देता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विप्र शूद्र योगी तपी, सुपच कहत कर ठोक।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सबकी बातें सुनत हों, मोको हर्ष न शोक।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><b>सखे धन्याः केचित्त्रुटितभवबन्धव्यतिकरा</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">वनान्ते चिन्तान्तर्विषमविषयाशीविषगताः।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">शरच्चन्द्रज्योत्स्नाधवलगगना भोगसुभगां </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">नयन्ते ये रात्रिं सुकृतचयचित्तैकशरणाः।। ५७ ।। </span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">हे मित्र ! वे पुरुष धन्य हैं, जो शरद के चन्द्रमा की चांदनी से सफ़ेद हुए आकाशमण्डल से सुन्दर और मनोहर रात को वन में बिताते हैं, जिन्होंने संसार बन्धन को काट दिया है, जिनके अन्तः-करण से भयानक सर्प-रुपी विषय निकल गए हैं और जो सुकर्मों को ही अपना रक्षक समझते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">वही लोग सुखी हैं, वे ही लोग धन्य हैं, जो शरद की चांदनी की मनोहर रात में वन में बैठे हुए परमात्मा का भजन करते हैं, जिन्होंने संसार के जञ्जालों को काट दिया है, जिन्होंने आशा, तृष्णा और राग-द्वेष प्रभृति क्या त्याग दिया है, जिनके भीतरी दिल से विषय रुपी विषैले सर्प भाग गए हैं; यानी जिन्होंने विषयों को विष की तरह दूर कर दिया है, जिनका चित्त केवल पुण्य और परोपकार में ही लगा रहता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">हमें संसार की प्रत्येक चीज़ से परोपकार की शिक्षा मिलती है । वृक्ष स्वयं फल नहीं खाते, नदियां आप जल नहीं पीती, सूरज और चाँद अपने लिए नहीं घुमते, बादल अपने लिए मेह नहीं बरसाते - ये सब पराये लिए कष्ट करते हैं । हातिम और विक्रम ने पराये लिए नाना कष्ट उठाये, दधीचि और शिवि ने परोपकार के लिए अपने अपने शरीर भी दे दिए , हरिश्चन्द्र ने पराये लिए घोर दुःसह विपत्ति भोगी । जिनका जीवन परोपकार में बीतता है, उन्ही का जीवन धन्य है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>शेख सादी</b> ने "<b>गुलिस्तां</b>" में कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चूं इन्सारा न बाशद फ़ज़लो एहसाँ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चे फ़र्क़ज़ आदमी ता नक़श दीवार।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यदि मनुष्य में परोपकार करने की इच्छा ही नहीं है, तो उसमें और दीवार पर खींचे हुए चित्र में क्या फर्क है ?</span><br />
<span style="font-size: large;">जिससे प्राणी मात्रा का भला हो, वही मनुष्य धन्य है । उसी की माँ का पुत्र जानना सार्थक है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">"<b>रहीम</b>" कवी कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बड़े दीन को दुख सुने, देत दया उर आनि।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हरि हाथी सों कब हती, कहु "रहीम" पहिचानि ?</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">धनि "रहीम" जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाय? ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">बड़े लोग दीन और दरिद्रों, निरन्न और दुखियों एवं म्लान और भीतों यानि ख़ौफ़ज़दों की बातें सुनते हैं, उनकी दुख-गाथाओं पर कान देते हैं; फिर ह्रदय में तरस खाकर - दया करके उन्हें कुछ देते और उनका दुख दूर करते हैं । वे इस बात को नहीं देखते कि यह हमारी पहचान का है कि नहीं; यह हमारा अपना आदमी है या गैर है । देखिये, हाथी और भगवान् की पहचान नहीं थी । फिर भी ज्योंही भगवान् को खबर मिली कि गजराज का पैर मगर ने पकड़ लिया है, अब गज का जीवन शेष होना चाहता है, उसने खूब ज़ोर मार लिया है, उसे अपने बचने की ज़रा भी आशा नहीं, इसलिए अब वह तुझे पुकार रहा है; त्योंही, जान-पहचान न होने पर भी भगवान् जल्दी के मारे नंगे पैरों भागे और हाथी की जान बचायी । गज और ग्राह की बात मशहूर है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मतलब यह है कि जिससे दूसरों की भलाई हो, दूसरों का दुःख दूर हो वही बड़ा है । वह बड़ा - बड़ा नहीं जिससे दूसरों का उपकार न हो । जो दीनों पर दया करते हैं, दीनों की पालना और रक्षा करते हैं, दीनों के दुःख दूर करते हैं, वे ही बड़े कहलाने योग्य हैं । भगवान् में ये गुण पूर्ण रूप से हैं; इसी से उन्हें दीनदयालु, दीनबन्धु, दीननाथ, दीनवत्सल, दीनपालक और दीनरक्षक आदि कहते हैं । मनुष्य को भगवान् ने अपने जैसा ही बनाया है, वे चाहते हैं कि मनुष्य मेरा अनुकरण करे; दीन दुखियों के दुःख दूर करे, संकट में उनकी सहायता करे, मुसीबत में उन्हें मदद दे । जो मनुष्य ऐसा करते हैं, उन्हें भी संसार दीनबन्धु आदि पदवियाँ देता है और सबसे बड़े दीनबन्धु उससे प्रसन्न होकर, उसकी साड़ी कल्पनाओं को मिटा देते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">रहीम कवी कहते हैं - कीचड का पानी धन्य है, जिसे छोटे छोटे जीव - कीड़े-मकोड़े धापकर पीते हैं । समुद्र चाहे जितना बड़ा है, पर उसमें तारीफ की कोई बात नहीं, क्योंकि उसके पास जाकर किसी की प्यास नहीं बुझती; जो भी जाता है उसके पास से प्यासा ही लौटता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ते नर जग में धन्य हैं, शरदर्शुभ्र निशि मांहि।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तोड़े बन्धन जगत के, मनते विषयन काहि।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">सोरठा </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विषय-सर्प को मारि, चित्त लगाय शुभ कर्म में।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पुण्यकर्म शुभधारि, त्यागे सब मन-वासना।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><b>तस्माद्विरमेन्द्रियार्थ गहनादायासदादाशु च</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">श्रेयोमार्गमशेषदुःखशमनव्यापारदक्षं क्षणाम्।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">शान्तिं भावमुपैहि संत्यज निजां कल्लोललोलां मतिं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">मा भूयो भज भङ्गुरां भवरतिं चेतः प्रसीदाधुना।। ५८ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">हे चित्त ! अब विश्राम ले, इन्द्रियों के सुख सम्पादन के लिए विषयों की खोज में कठोर परिश्रम न कर; आन्तरिक शान्ति की चेष्टा कर, जिससे कल्याण हो और दुःखों का नाश हो; तरंग के समान चञ्चल चाल को छोड़ दे; संसारी पदार्थों में और सुख न मान; क्योंकि ये असार और नाशमान हैं । बहुत कहना व्यर्थ है, अब तू अपने आत्मा में ही सुख मान ।</span><br />
<span style="font-size: large;">अरे दिल ! अब तू इन्द्रियों के लिए विषय-सुखों की खोज में मत भरम, उनके लिए तकलीफ न उठा, शान्त हो जा; उनमें कुछ भी सुख नहीं है, वे तो विष से भी बुरे और काले नाग से भी भयङ्कर हैं । अरे ! अब तो मेरा कहना मान और अपनी चालों को छोड़ । देख तेरे सर पर काल मण्डरा रहा है । वह एक ही बार में तुझे निगल जायेगा । अरे भैय्या, ये इन्द्रियां बड़ी ख़राब हैं, इनमें दया-मया नहीं, यह शैतान की तरह कुराह पर ले जाती हैं । तू इनसे सावधान रह और इनके भुलावे में न आ । अब शान्त हो और कष्ट सहना सीख । अपनी चञ्चल चाल छोड़, जगत को असार और स्वप्नवत समझ । इस जञ्जाल से अलग हो । बारम्बार इसी की इच्छा न कर । अपनी आत्मा में ही मग्न हो । इस तरह अवश्य तेरा कल्याण होगा ।</span><br />
<span style="font-size: large;">कल्याण कैसा? जब तू ज्योति-स्वरुप आत्मा को देख लेगा, तब तू उसी में संतुष्ट रहेगा, उससे कभी न डिगेगा, उसके आगे सब लाभ तुझे हेय जंचेंगे । योगेश्वर कृष्ण ने ऐसी ही बात गीता के छठे अध्याय में कही है । उस सुख को सब नहीं जान सकते, जो अनुभव करता है वही जानता है । उसे कोई कह कर बता नहीं सकता ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>कबीरदास </b>कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ज्यों नर नारी के स्वाद को, खसी नहीं पहचान ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">त्यों ज्ञानी के सुख को, अज्ञानी नहीं जान ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">स्त्री-पुरुष के सुख को जैसे हिजड़ा नहीं जान सकता, वैसे ही ज्ञानी के सुख को अज्ञानी नहीं जान सकता ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">------------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अरे चित्त ! कर कृपा, त्याग तू अपनी चालहि।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">शिर पर नाचत खड़्यौ, जान तू ऐसे कालहि ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये इन्द्रियगण निठुर, मान मत इनको कहिबौ ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">शांतभाव कर ग्रहण, सीख कठिनाई सहिबौ ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">निजमति तरंग-सम चपल तजि, नाशवान जग जानिये ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जनि करहु तासु इच्छा कछु, शिव-स्वरुप उर आनिये ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"></span><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">पुण्यैर्मूलफलैः प्रिये प्रणयिनि प्रीतिं कुरुष्वाधुना</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">भूशय्या नववल्कलैरकर्णैरुत्तिष्ठ यामो वनं।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">क्षुद्राणांविवेकमूढमनसां यत्रेश्वराणाम् सदा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">चित्तव्याध्यविवेकविल्हलगिरां नामापि न श्रूयते।। ५९ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">ऐ प्यारी बुद्धि ! अब तू पवित्र फल-मूलों से अपनी गुज़र कर; बानी बनाई भूमि-शय्या और वृक्षों की छाल के वस्त्रों से अपना निर्वाह कर । उठ, हम तो वन को जाते हैं । वहां उन मूर्ख और तंगदिल अमीरों का नाम भी नहीं सुनाई देता, जिन की ज़बान, धन की बीमारी के कारण उनके वश में नहीं है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">जिन धनवानों की ज़बान में लगाम नहीं है, जो अपनी धन की बीमारी के कारण मुंह से चाहे जो निकाल बैठते हैं, ऐसे मदान्ध और नीच धनी जंगलों में नहीं रहते, इसलिए बुद्धिमानो को वह चला जाना चाहिए । वहां कहे का अभाव है ? खाने को फलमूल हैं, पीने को शीतल जल है, रहने को वृक्षों की शीतल छाया है और सोने को पृथ्वी है । वह दुःख नहीं है, अशान्ति नहीं है; किन्तु और सभी जीवनधारणोपयोगी पदार्थ हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">जो आशा को त्याग देंगे, वह तो धनियों के दास होंगे ही क्यों ? पर धनियों को भी इतराना न चाहिए । यह धन सदा उनके पास न रहेगा । इसे वे अपने साथ न ले जायेंगे । सम्भव है, यह उनके सामने ही विलाय जाय । फिर ऐसे चञ्चल धन पर अभिमान किसलिए ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>किसी ने कहा है</b> -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कितने मुफ़लिस हो गए, कितने तवंगर हो गए।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ख़ाक में जब मिल गए, दोनों बराबर हो गए।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">धनी और निर्धन का भेद तभी तक है, जब तक कि मनुष्य ज़िंदा है; मरने पर सभी बराबर हो जाते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>गिरिधर कवी</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">कुण्डलिया</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दौलत पाय न कीजिये, सपने में अभिमान।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चञ्चल जल दिन चारिकौ, ठाउँ न रहत निदान।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ठाउँ न रहत निदान, जियत जग यश लीजै।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मीठे वचन सुनाय, विनय सब ही की कीजै।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कह गिरधर कविराय, अरे यह सब घट तौलत।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पाहुन निशिदिन चारि, रहत सब हीके दौलत।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">धनवान होकर सपने में भी घमंड न करना चाहिए । जिस तरह चञ्चल जल चार दिन ठहरता है, फिर अपने स्थान से चला जाता है; उसी तरह धन भी चार दिन का मेहमान होता है, सदा किसी के पास नहीं रहता । ऐसे चञ्चल, ऐसे अस्थिर और चन्दरोजा धन के नशे से मतवाले होकर ज़बान को बेलगाम न रखना चाहिए और सभी के साथ शिष्टाचार दिखाना और नम्रता का बर्ताव करना चाहिए । जब तक देह में प्राण रहे, जब तक ज़िन्दगी रहे, यश कमाना चाहिए; बदनामी से बचना चाहिए । अपनी ज़ुबान से किसी को कड़वी और बुरी लगनेवाली बात न कहनी चाहिए । ज़बान का ज़ख्म तीर के ज़ख्म से भी भारी होता है । तीर का ज़ख्म मिट जाता है, पर ज़बान का ज़ख्म नहीं मिटता । इस जगत में जो जैसा करता है, वह वैसा ही पाता है । जो जौ बोता है वह जौ काटता है; और जो गेंहू बोता है वो गेंहू काटता है; जो दूसरों का दिल दुखाता है, उसका दिल भी दुखाया जायेगा; जो जैसी कहेगा, वह वैसी सुनेगा ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> ने कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बद न बोले ज़ेर गर्दू, गर कोई मेरी सुने।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">है यह गुम्बद की सदा, जैसी कहे वैसी सुने।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">आसमान के नीचे किसी को बुरी बात ज़बान से न निकालनी चाहिए । यह तो मठ के अन्दर की आवाज़ है, जैसी कहोगे उसको प्रतिध्वनि रूप में वैसी सुनोगे ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और भी <b>एक कवी</b> ने कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ऐसी बानी बोलिये मन का आपा खोये।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अभिमान त्यागकर ऐसी बात कहनी चाहिए, जिससे औरों के दिल ठण्डे हों और अपने दिल में भी ठण्डक हो ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>तुलसीदास जी</b> ने कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ज्ञान गरीबी गुण धरम, नरम बचन निरमोष।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तुलसी कबहुँ न छाँड़िये, शील सत्य सन्तोष।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">नित्य-अनित्य के विचार का ज्ञान, यौवन और धनादि के घमण्ड का त्याग, सतोगुण, प्रभु में निश्छल प्रीती का धर्म, मीठे और नर्म वचन, निराभिमानता, शील, सत्य और सन्तोष, इनको कभी न छोड़ना चाहिए । अज्ञानता, घमण्ड, रजोगुण, तमोगुण, अधर्म, कड़वे वचन, मान, कुशीलता, झूठ और असन्तोष - इनको छोड़ देना चाहिए ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बकल बसन फल असन कर, करिहौं बन विश्राम। </span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जित अविवेकी नरन को, सुनियत नाहीं नाम।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">मोहं मार्जयतामुपार्जय रतिं चन्द्रार्धचूडामणौ</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">चेतः स्वर्गतरङ्गिणीतटभुवामासङ्गमङ्गीकुरु ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">को वा वीचिषु बुद्बुदेषु च तडिल्लेखासु च स्त्रीषु च</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">ज्वालाग्रेषु च पन्नगेषु च सरिद्वेगेषु च प्रत्ययः।। ६० ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">ऐ चित्त ! तू मोह छोड़कर शिर पर अर्धचन्द्र धारण करनेवाले भगवान् शिव से प्रीति कर और गंगा किनारे के वृक्षों के नीचे विश्राम ले । देख ! पानी की लहार, पानी के बबूले, बिजली की चमक, आग की लौ, स्त्री, सर्प और नदी के प्रवाह की स्थिरता का कोई विश्वास नहीं; क्योंकि ये सातों चञ्चल हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्यों ! आप लोग मोह निद्रा में पड़े हुए क्यों अपनी दुर्लभ मनुष्य-देह को वृथा गँवा रहे हैं ? आपको यह देह इसलिए नहीं मिली है कि, आप इस झूठे संसार से मोह कर, स्त्री पुरुष और धन-दौलत में भूले रहे; बल्कि इसलिए मिली है कि आप इस देह से दुर्लभ मोक्ष पद की प्राप्ति करें । पर संसार की गति ही ऐसी है कि वह अच्छे कामों को त्याग कर बुरे काम करता है । वजह यह है कि मोहान्ध अज्ञानी पुरुष को अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">जो नारी, नरक-कूप के समान गन्दगी से भरी है, जो सब तरह से अपवित्र और घृणयोग्य है, जिसमें प्रीति का नामोनिशान भी नहीं है, जो केवल अपने स्वार्थ से पुरुष को प्यार करती है, पति के निर्धन या कर्जदार होते ही उससे प्रीति कम कर देती या त्याग देती है, जो क्षण भर में परायी हो जाती है, उसी नारी को पुरुष अपनी प्राण-वल्लभा कहता और उसके लिए अपनी सारी सुख-शान्ति को तिलाञ्जलि देकर मरने तक को तैयार हो जाता है । क्या यह अज्ञानता नहीं है ?</span><br />
<span style="font-size: large;">कवियों ने मोहवश स्त्री के अंगों की बड़ी लम्बी चौड़ी तारीफ की है । उसके दोनों स्तनों को किसी ने अनारों, किसी ने संतरों अथवा दो सोने के कलशों की उपमा दी है; पर वास्तव में वे मांस के लौंदे हैं । उनकी जांघो की केले के खम्भों से उपमा दी है, पर वे महागंदी हैं; उन पर हर समय मूत्र या सफेदा बहता रहता है । उसकी आँखों की उपमा हिरणी के बच्चे की आँखों से दी है, पर वे सर्प से भी भयानक हैं; क्योंकि सर्प के काटने से मनुष्य बेहोश होता और मरता है, पर स्त्री के तो देखने मात्र से ही वह पागल सा होकर मर-मिटता है । वास्तव में स्त्री सर्प से भी बुरी है । सर्प का काटा एक बार ही मरता है, पर स्त्री का काटा बार बार मरता और जन्म लेता है । जिस तरह कदली वन का हाथी कागज़ की हथिनी को देख उसकी इच्छा करता और शिकारियोजन के जाल में फंस कर, बन्धन में बंध नाना प्रकार के दुःख झेलता है; उसी तरह जो पुरुष स्त्री की इच्छा करता है, वह बन्धन में बँधता और नाश होता है । स्त्री संसार वृक्ष का बीज है, अतः स्त्री कामी पुरुष का इस संसार से पीछा नहीं छोटा । वह इस दुनिया में आकर, स्त्री के कारण, नाना प्रकार के दुःख भोगता, चिंताग्नि में दिन-रात जलता और अंत में मरकर ममता और वासना के कारण फिर जन्म लेता और दुःख भोगता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">स्त्री, कामी पुरुष को ज़रा से लालच से अपना दास बना लेती है । कामी पुरुष स्त्री के इशारे पर उसी तरह नाचता है, जिस तरह बन्दर मदारी के इशारे पर नाचता है । वह रात-दिन उसे खुश करने की कोशिशों में लगा रहता है, घर-बाहर, सोते-जागते उसी की चिन्ता करता है, उसी के लिए धन-गर्वित धनियों की खुशामदें करता, उनकी टेढ़ी-सूधी सुनता और आत्मप्रतिष्ठा खोता है । इतने पर भी स्त्री की फरमाइशें पूरी नहीं होती । आज वह गहना मांगती है, तो कल कपडे मांगती है और परसों पुत्र या कन्या के विवाह की बात करती है । कभी कहती है, आज आटा नहीं है, कभी कहती है , आज घर में तेल-नोन नहीं है, इसी तरह उसकी फरमाइशों का अन्त नहीं आता, पर बेचारे पुरुष का अन्त आ जाता है । स्त्री की सेवा चाकरी से उसे इतनी भी फुर्सत नहीं मिलती कि वह क्षणभर भी अपने बनाने वाले स्वामी को पदवन्दना कर सके ।</span><br />
<span style="font-size: large;">अनेक प्रकार से सेवा-टहल करने पर भी यदि पुरुष से कोई फरमाइश पूरी नहीं होती, तो वह बाघिन की तरह घुर्राती है । दैवात् यदि पुरुष निर्धन हो जाता है या उसके सिर पर ऋणभार हो जाता है, तो वही सात फेरों की ब्याही स्त्री उसका अनादर और उसकी मरण-कामना करती है । क्योंकि इस जगत में धन की ही कीमत है, मनुष्य की कीमत नहीं । कहते हैं, निर्धन मनुष्य को वेश्या तज देती है । वेश्या का तो नाम प्रसिद्ध है ही; पर वेद विधि से ब्याही हुई स्त्री भी अपने पति को तज देती है । धनहीन को माता-पिता, भाई-बहन, भौजाई, नौकर-चाकर एवं अन्य रिश्तेदार सभी बुरी नज़र से देखते और त्याग देते हैं । संसार का अर्थ - धन के वश में है । जिसके पास धन नहीं, उसका कोई नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>कहा है</b> -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">माता निन्दति नाभिनन्दति पिता भ्राता न सम्भाषते</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भृत्यः कुप्यति नानुगच्छति सुतः कान्ता च नालगते।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अर्थप्रार्थनशंकया न कुरुतेऽप्यालापमात्रं सुहृत </span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तस्मादर्थमुपार्जयस्व च सखे ! ह्यर्थस्यसर्वेवशाः।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">माता निर्धन पुत्र की निन्दा करती है, बाप आदर नहीं करता, भाई बात नहीं करता, चाकर क्रोध करता है, पुत्र आज्ञा नहीं मानता, स्त्री आलिंगन नहीं करती और धन मांगने के डर से कोई मित्र बात नहीं करता; इसलिए मित्र धन कमाओ, क्योंकि सभी धन के वश में हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">"<b>आत्मपुराण</b>" में कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दरिद्रं पुरुषं दृष्ट्वा नार्यः कामातुरा अपि।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">स्प्रष्टुं नेच्छन्ति कुणपं यद्वच्चकृमिदूषितं।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">स्त्रियां काम से आतुर होने पर भी, दरिद्री पति को छूना पसन्द नहीं करती; जिस तरह कीड़ों से दूषित मुर्दे को कोई छूना नहीं चाहता ।</span><br />
<span style="font-size: large;">स्पष्ट हो गया कि स्त्री ऊपर से ही सुन्दर है, भीतर से वह महागंदी और पाषाणवत् कठोरहृदय है; जिस समय इसमें निर्दयता आती है, उस समय यह अपने क्रीतदास की तरह सेवा करनेवाले पति और अपने उदर से निकले हुए पुत्र के ऊपर भी दया नहीं करती । अपने स्वार्थ के लिए यह उनकी भी हत्या कर डालती और नरक की राह दिखाती है; अतः स्त्री के मोह में फंसना, अपने नाश का सामान करना है । जिस तरह पतंग दीपक के रूप पर मोहित होकर अपना नाश करता है; उसी तरह कामी भी स्त्री के रूप पर मुग्ध होकर अपने लोक-परलोक गंवाता है - इस जन्म में घोर चिंताग्नि में जलता और मरने पर नरकाग्नि में भस्म होता और तड़पता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">वास्तव में स्त्री-पुत्रादि शत्रु हैं, पर पुरुष अज्ञानता से इन्हे अपना मित्र समझता है । महात्मा शंकराचार्य ने अपनी प्रश्नोत्तर माला में लिखा है - "स्त्री-पुत्र देखने में मित्र मालूम होते हैं, पर असल में वे शत्रु हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">एक वैश्य और उसके पुत्र</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">-------------------------------</span></b></div>
<span style="font-size: large;">एक वैश्य ने लाखों-करोड़ों रुपये कमाए और अपने धन में से चार-चार लाख रुपये अपने पुत्रों को देकर, उनकी अलग-अलग दुकाने करवा दीं । शेष धन उसने दीवारों में चुनवा दिया । चंद रोज़ के बाद वह सख्त बीमार हो गया । उसे सन्निपात हो गया और वह आन-तान बकने लगा । लोगों ने उसका अन्त समय समझ उससे कहा -"सेठ जी ! बहुत धन कमाया है, इस समय कुछ पुण्य कीजिये, क्योंकि इस समय धर्म ही साथ जायेगा; स्त्री पुत्र, धन प्रभृति साथ न जाएंगे।" वैश्य का गला बन्द हो गया था, अतः वो बोल न सकता था । उसने बारम्बार दीवारों की तरफ हाथ किये । इशारों से बताया कि इन दीवारों में धन गड़ा है, उसे निकालकर पुण्य कर दो । पुत्र, पिता का मतलब समझकर बोले - " पिताजी कहते हैं, जो धन था, सो तो इन दीवारों में लगा दिया, अब और धन कहाँ है ? " लोगों ने लड़कों की बात मान ली । वैश्य अपने पुत्रों की बेईमानी देखकर बहुत रोया, पर बोल न सकता था, इसलिए छटपटा छटपटा कर मर गया । लड़कों ने उसे शमशान ले जाकर जला दिया । वैश्य के मन की मन में ही रह गयी । इससे बढ़कर पुत्रों की शत्रुता क्या होगी ?</span><br />
<span style="font-size: large;">जो लोग सैकड़ों प्रकार के अनर्थ और बेईमानी से पराया धन हड़प कर अथवा और तरह से दुनिया का गला काटकर लाखों-करोड़ों अपने पुत्र-पौत्रों को छोड़ जाते हैं, वे इस कहानी से शिक्षा ग्रहण करें और पुत्रों का झूठा मोह त्यागें । इस जगत में न कोई किसी का पुत्र है न पिता । माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-पुत्र सभी एक लम्बी यात्रा के यात्री हैं । यह मृत्युलोक उस यात्रा के बीच का मुकाम है । इस मुकाम पर आकर सब इकट्ठे हो गए हैं । कोई किसी से सच्ची प्रीति नहीं रखता । सभी स्वार्थ की रस्सी से एक-दुसरे से बंधे हुए हैं । जब जिसके चलने का समय आ जाता है, तब वही निर्मोही की तरह सब को छोड़ के चल देता है । जो लोग उस चले जाने वाले या मर जाने वाले के लिए प्राण न्यौछावर करते थे, उसके लिए मरने तक को तैयार रहते थे, उनमें से कोई उसके साथ पौली तक जाता है और कोई उसे श्मशान भूमि तक पहुंचकर और जला-बलाकर ख़ाक कर आता है । ऐसे नातेदारों से अनुराग करना - उनमें ममता रखना बड़ी ही गलती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">कहा है -</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"परलोक की राह में जीव अकेला जाता है; केवल धर्म उसके साथ जाता है । धन, धरती, पशु और स्त्री घर में रह जाते हैं । लोग श्मशान तक जाते हैं और देह चिता तक साथ रहती है ।"</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">बहुत लोग यह समझते हैं कि पुत्र बिना गति नहीं होती; पुत्रहीन पुरुष नरक में जाता है और पुत्रवान स्वर्ग में जाता है । जो लोग ऐसा समझते हैं; वह बड़ी भूल करते हैं । पुत्रों से किसी की भी गति न हुई है और न होगी; सब की गति अपने ही पुरुषार्थ से होती है । अगर पुत्रों से स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति होती, तो कोई विरला ही नरक में जाता । जो जैसा करता है, उसे वैसा ही फल भोगना होता है । ब्रह्मह्त्या, स्त्रीहत्या, भ्रूणहत्या, परस्त्रीगमन और परधन हरण प्रभृति पापों का फल कर्ता को भोगना ही होता है । जो ऐसा समझते हैं कि ऐसे पाप करने पर भी पुत्र-पौत्रों के होने से, हम दण्ड से बच जाएंगे, वे बड़े ही मूर्ख हैं । ज्ञानी लोग तो संसार बन्धन से छूटने के लिए अपने पुत्रों का भी त्याग कर देते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">एक ब्राह्मण और उसका अन्धा पुत्र</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">-----------------------------------------</span></b></div>
<span style="font-size: large;">किसी नगर में एक ब्राह्मण रहता था । उसके पुत्र नहीं हुआ था, इसलिए उसने गंगाजी की उपासना की । अन्त में बूढी अवस्था में, उसके एक अन्धा पुत्र हुआ । ब्राह्मण उस अन्धे पुत्र को पाकर बड़ा ही प्रसन्न हुआ । उसने खूब उत्सव और भोज प्रभृति किये । इसके बाद जब वह पुत्र पांच</span><br />
<span style="font-size: large;"> बरस का हुआ, ब्राह्मण ने उसका यज्ञोपवीत संस्कार कराकर, उसे विद्या पढ़ना आरम्भ किया । चन्दरोज में वह अन्धा पूर्ण पण्डित हो गया ।</span><br />
<span style="font-size: large;">एक दिन पिता-पुत्र बैठे थे । पुत्र ने पिता से पूछा - "पिताजी ! मनुष्य अन्धा किस पाप से होता है ?" पिता ने उत्तर दिया - "पुत्र ! जो पूर्व जन्म में रत्नो की चोरी करता है, वह अन्धा होता है।" पुत्र ने कहा - "पिताजी ! यह बात नहीं है । कारण के गुण कार्य में भी आ जाते हैं । आप अन्धे हैं, इसी से मैं भी अन्धा हुआ हूँ । पिता ने क्रोध में भरकर कहा, " नालायक, मैं अन्धा कैसे ?" पुत्र ने कहा - "पिताजी ! गंगा माता साक्षात् मुक्ति देने वाली हैं । आपने उनकी उपासना पुत्र की कामना से की; इसी से मैं आपको अन्धा समझता हूँ । जो वेद-शास्त्र पढ़कर भी पेशाब के कीड़े की इच्छा करता है, वह अन्धा नहीं तो क्या सूझता है ? पेशाब से जैसे अनेक अनेक प्रकार के कीड़े पैदा होते हैं, वैसे ही पुत्र भी उसका एक कीड़ा ही है । आपने जिस पुत्र के लिए गंगाजी की इतनी तपस्या की, वह पुत्र तो कुत्ते-बिल्ली और सूअर प्रभृति पशुओं के अनायास ही हो जाते हैं । पुत्र जैसे मूत्र के कीड़े से किसी को भी स्वर्ग या मोक्ष लाभ नहीं हो सकता; पिताजी ! न कोई किसी का पुत्र है न स्त्री प्रभृति; सब एक ही हैं क्यंकि सब में एक ही आत्मा है । वही आत्मा पिता में है, वही पुत्र में और स्त्री में । जिस तरह मरुभूमि में भ्रम से जल दीखता है, पर वास्तव में वहां जल का नाम-निशान भी नहीं है; उसी तरह भ्रम से यह जगत सच्चा दीखता है, पर वास्तव में कुछ भी नहीं । यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा धन है, यह मेरा मकान है - ऐसा वासना से दीखता है । वासना से ही जीव संसार बन्धन में बँधता है; यानी वासना से ही शरीर धारण करता है । वासना से ही मनुष्य अज्ञानी बना रहता है । वासना का त्याग करते ही मनुष्य, ज्ञान-लाभ करके, परमानन्द की प्राप्ति करता है । ज्ञानी सच्चिदानंद रूप ब्रह्म को ज्ञान की आँखों से देखता है, पर अज्ञानी उसे नहीं देख सकता । जैसे अन्धे को सूर्य नहीं दीखता, उसी तरह अज्ञानी को ब्रह्म नहीं दीखता; इसी से अज्ञानी को बाहर की आँखें होने पर भी अन्धा कहते हैं । आप भेद-बुद्धि को त्यागकर, सबमें एक आत्मा को देखो । आत्मज्ञानी होने से ही आपको नित्य सुख मिलेगा।"</span><br />
<span style="font-size: large;">पिता, पुत्र के अगाध ज्ञान और पाण्डित्य को देख एकदम चकित हो गया और कहने लगा - "पुत्र ! मैंने चार वेद, छहों शास्त्र, उपनिषद, स्मृति और पुराण प्रभृति पढ़कर कुछ भी लाभ न किया; तेरी बातों से मेरी आँखें खुल गयी।"</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">संसार को मिथ्या समझकर ही <b>कोई ज्ञानी कहता</b> है -</span><br />
<span style="font-size: large;">"हे मन ! तू स्त्री के प्रेम में मत भूल; यह बिजली की चमक, नदी के प्रवाह और नदी की तरंग प्रभृति की तरह चञ्चल है । स्त्री के प्रेम का कोई ठिकाना नहीं; आज यह तेरी है, कल पराई है । एक करवट बदलने में स्त्री पराई हो जाती है । इसकी झूठी प्रीति में कोई लाभ नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>गोस्वामी तुलसीदास जी</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">उरग तुरग नारी नृपति, नर नीचे हथियार।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तुलसी परखत रहब नित, इनहिं न पलटत बार।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सर्प, घोडा, स्त्री, राजा, नीच पुरुष और हथियार - इनको सदा परखते रहना चाहिए, इनसे कभी गाफिल न रहना चाहिए, क्योंकि इन्हें पलटते देर नहीं लगती ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">हे मन ! यदि तुझे प्रीति ही करनी है, तो उठ गंगा के किनारे वृक्षों के नीचे चल बैठ और आशुतोष भगवान् चन्द्रशेखर - शिवजी से प्रीति कर । उनकी प्रीति सच्ची और कल्याणकारी है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>गोस्वामी जी</b> ने और भी कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कै ममता करु रामपद, कै ममता करु हेल।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"तुलसी" दो मँह एक अब, खेल छाँड़ि छल खेल।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सम्मुख ह्वै रघुनाथ के, देइ सकल जग पीठि।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तजै केंचुरी उरग कहँ, होत अधिक अति दीठि।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">या तो भगवान् के चरणों में ममता कर अथवा देह के सब नातों को त्यागकर उदासीन हो जा और कर्म ज्ञानादि साधन करके मन को शुद्ध कर ले । जब तेरा मन शुद्ध हो जाएगा, तब भगवान् के चरणों में आप ही स्नेह हो जाएगा । इन दोनों बातों में से जो एक बात तुझे पसन्द हो, उसे छल छोड़ कर दिल से कर; एक खेल खेल । सारांश यह, कि भगवान् में सहज स्नेह कर । अगर तेरा मन प्रभु की भक्ति में नहीं जमता तो स्त्री-पुत्र आदि संसारी भोगों से मन हटाकर प्रभु की भक्ति की चेष्टा कर ।</span><br />
<span style="font-size: large;">जब भगवान् में तेरा मन लग जाए, तब संसार की तरफ से मुंह फेर ले - संसार को पीठ दे दे, जिससे तेरे मन में लोक-वासना न आने पावे; क्योंकि वासना से ह्रदय की दृष्टी मैली हो जाती है । सांप का भीतरी चमड़ा जब मोटा हो जाता है, तब उसे आँखों से साफ़ नहीं दीखता, लेकिन जब वह कांचली छोड़ देता है, तब उसकी आँखों का पटल उतर जाता है; आँखों के साफ़ हो जाने से सांप को खूब साफ़ दिखने लगता है । जिस तरह कांचली त्यागने से सर्प की दृष्टी साफ़ हो जाती है; उसी तरह वासना त्याग देने से ईश्वर के भक्तो की ह्रदय-दृष्टी साफ़ रहती और उन्हें भगवान् के दर्शन होते रहते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मोह छाँड़ मन-मीत ! प्रीति सों चन्द्रचूड़ भज !</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुर-सरिता के तीर, धीर धार दृढ़ आसन सज !!</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">शम दम भोग-विराग, त्याग-तप को - तू अनुसरि।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वृथा विषय-बकवाद, स्वाद सबहि - तू परिहरि।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">थिर नहि तरंग, बुदबुद, तड़ित, अगिन-शिखा , पन्नग, सरित।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">त्योंही तन जोवन धन अथिर, चल दलदल कैसे चरित ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>शम</b> - इन्द्रिय-निग्रह</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>दम </b>- बाहरी इन्द्रियों का निग्रह</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>परिहरि </b>- त्याग</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>पन्नग </b>- सर्प</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">अग्रे गीतं सरसकवयः पार्श्वतो दाक्षिणात्याः</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">पृष्ठे लीलावलयरणितं चामरग्राहिणीनाम् ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">यद्यस्त्येवं कुरु भवरसास्वादने लम्पटस्त्वं नो </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">चेच्चेतः प्रविश सहसा निर्विकल्पे समाधौ।। ६१ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">हे मन ! तेरे सामने चतुर गवैये गाते हों, दाहिने-बाएं दक्खन देश के उत्तम कवी सरस काव्य सुनाते हों, तेरे पीछे चंवर ढोलने वाली सुंदरी स्त्रियों के कंकणों की मधुर झनकार होती हो, यदि ऐसे सामान तुझे मयस्सर हों, तो तू संसार रसास्वादन में मग्न हो; नहीं तो सबका ध्यान छोड़, निर्विकल्प समाधि में लीन हो ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">विरमत बुधा योषित्सङ्गात्सुखात्क्षणभंगुरा-</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">त्कुरुत करुणामैत्रीप्रज्ञा वधूजनसंगमम्।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">न खलु नर के हाराक्रान्तं घनस्तनमण्डलम्</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">शरणमथवा श्रोणीबिम्बम् रणन्मणिमेखलम्।। ६२ ।।</span></b><br />
<div>
<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b></div>
<div>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<span style="font-size: large;">हे बुद्धिमानो ! स्त्री के संग से बचो, क्योंकि उनके संग से जो सुख मिलता है, वह क्षणिक है । आप मैत्री, करुणा और बुद्धिरूपी वधू के साथ संगम करो । जिस समय नरक में सजा मिलेगी, उस समय युवतियों के हारों से शोभित स्तनद्वय और घुंघरूदार कर्धनियों से सुशोभित कमर तुम्हारी सहायता न करेंगी ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्यों, स्त्रियों में मन मत लगाओ । उनके साथ रहने, उनके साथ संगम करने से सुख होता है; पर वह सुख नश्वर और क्षणस्थायी है । वह ऐसा सुख नहीं जो सदा रहे । परिणाम में उससे अनेक प्रकार के दुःख होते हैं । जो सुख अनित्य है, शेष में दुखों का मूल और रोगों की खान है, उस सुख को सुख समझना, बुद्धिमानो का काम नहीं । अगर आपको सङ्गंम ही करना है, तो आप सुहानुभूति, परोपकारवृत्ति एवं प्रज्ञारूपी बहू के साथ सङ्गंम कीजिये । इनके साथ सङ्गंम और प्रीति करने से आप को नित्य सुख मिलेगा; ऐसा सुख मिलेगा, जो इस लोक और परलोक में सदा स्थिर रहेगा ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिन लोगों ने पहले दूसरों के दुःख दूर किये हैं, जिन्होंने परोपकार के लिए जानें दी हैं, जिन्होंने ज्ञान से काम लिया है, उनका भला ही हुआ है । अगर आप स्त्री-सुख में भूले रहोगे, तो जब आपको नरक की भयंकर यातनाएं भोगनी पड़ेंगी, जब आप पर यमदूतों के डण्डे पड़ेंगे, उस समय क्या स्त्रियों के हारों से सुशोभित स्तन-मण्डल और कर्धनियों से शोभायमान पतली कमर आपकी रक्षा कर सकेंगी ? नहीं, इनसे कोई लाभ न होगा; उस समय ये आड़े न आएंगे । उस मौके पर, परोपकार करके जो पुण्य संचय किया होगा, वही आपकी रक्षा करेगा । बुद्धि से काम लोगे तो भला होगा; क्योंकि बुद्धि ही आपको नरक से बचने की राह बतावेगी; किन्तु स्त्री तो आपको सीधी नरक की राह दिखावेगी । आश्चर्य है, अज्ञानी लोग अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा समझते हैं । वे अपने सच्चे मित्रों से प्रीति नहीं करते, किन्तु झूठे और कुराह में ले जानेवालों से प्रीति करते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा सुन्दरदास जी</b> ने कहा है -</span><br />
<b><span style="font-size: large;">(१)</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विषही की भूमि मांहि, विष के अङ्कुर भये।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नारी-विषवेली बढ़ी, नखशिख देखिये।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विषही के जर मूल, विषही के डार पात।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विषही के फूल फल, लागे जु विशेखिये।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विष के तन्तु पसार, उरझायी आंटी मार।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सब नर-वृक्ष पर, लपटेहि लेखिये।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"सुन्दर" कहत, कोऊ सन्त-तरु बची गए।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तिनके तौ कहूं, लता लागि नहीं पेखिये।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">(२)</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कामिनी को अंग, अति मलिन महा अशुद्ध।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">रोम-रोम-मलिन, मलिन सब द्वार हैं।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हाड मांस मज्जा मेद, चामसूँ लपेट राखै।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ठौर-ठौर रकत के, भरेई भण्डार हैं।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मूत्रहु-पुरीष-आंत, एकमेक मिल रहीं।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">औरहु उदर मांहि, विविध विकार हैं।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"सुन्दर" कहत, नारी नखशिख निन्द्यरूप।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ताहि जो सराहै, सो तौ बड़ोई गंवार है।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">(३)</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">रसिकप्रिया रसमंजरी और श्रृंगारहि जान।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चतुराई करि बहुत विधि, विषय बनाई आन।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विषय बनाई आन, लगत विषयिनकूँ प्यारी।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जागे मदन प्रचण्ड, सराहै नखशिख नारी।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ज्यूँ रोगी मिष्टान्न खाई, रोगहि बिस्तारै।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"सुन्दर" ये गति होइ, जोई रसिकप्रिया धारै।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;">(१)</span></div>
<span style="font-size: large;">विष की ज़मीन में विष के अङ्कुर जमे। फिर नारी रूप विषलता बढ़ी । उस लता में विष की जड़ें लगीं और विष की डालियाँ और पत्तियां आयीं । फिर उस लता में विष के ही फल और फूल लगे । उस विषलता में विष के तन्तु निकले । फिर उस विषलता ने अपने विष तन्तु फैला-फैलाकर नर-वृक्षों को उलझा लिया और खुद उनसे लिपट गयी । सुन्दरदास जी कहते हैं, उस विषलता के फन्दे में अधिकाँश नर-रुपी वृक्ष फंस गए - कोई विरले ही सन्त रुपी वृक्ष उससे अछूते बच सके । उनके ही शरीरों में यह विष लता लगी हुई न दिखाई दी ।</span><br />
<span style="font-size: large;">मतलब यह की स्त्री विष की बेल है । उसकी जड़, उसकी डालियाँ, उसकी पत्तियां, उसके फल फूल सभी विषपूर्ण हैं । सारांश यह कि स्त्री का सर्वाङ्ग विष से भरा है स्त्री का कोई भी अंग ऐसा नहीं जिसमें विष न हो । यह स्त्रीरूपी विषबेल अज्ञानी विषयी लोगों को अपने फन्दे में फंसाकर नाश कर देती है; क्योंकि विष स्वभाव से ही प्राणघाती होता है । सिर्फ वे लोग इस स्त्रीरूपी विषबेल से बचते हैं, जो ज्ञानी हैं, जो इसकी असलियत को जानते हैं, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है, जिनकी इन्द्रियां विषयों की तरफ नहीं झुकतीं । और भी खुलासा यह है, कि स्त्री विष-लता के समान है, विष लता जिस वृक्ष से लिपट जाती है, उसे सुखा-सुखाकर नष्ट कर देती है। इसी तरह स्त्री जिस विषयी पुरुष के पीछे लग जाती है अथवा जो पुरुष स्त्री के फन्दे में फंस जाता है, वह भी सब तरह से नष्ट हो जाता है । इसके सभी अंगों में विष भरा है । जिस तरह विष खाने से ज़हर चढ़ता है, उसी तरह इसकी आँख, इनके गाल, इसकी भौं, छातियां, जांघें प्रभृति किसी भी अंग के देखने और छूने से विष चढ़ जाता है । विष के चढ़ जाने से पुरुष मतवाला हो जाता है; उसके होश-हवास खता हो जाते हैं और बुद्धि मारी जाती है । बुद्धि के मारे जाने से पुरुष बिना पतवार की नाव की तरह नष्ट हो जाता है । इस लोक में नाना प्रकार के रोग और दुःख भोगकर मर जाता और परलोक में भी दुःख ही पाता है । संखिया प्रभृति विष का मारा हुआ इस लोक में दुःख पाता है, पर स्त्री-विष का मारा हुआ अनेक जन्मों में दुःख पाता है । और ज़हर खाने वाला एक ही बार मरता है; पर स्त्री-विष सेवन करने वाला बारम्बार मरता है । अतः बुद्धिमानों को इस स्त्रीरूपी विषलता से सदा दूर रहना चाहिए, ताकि इसका विष शरीर में पैवस्त न होने पावे।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;">(२)</span></div>
<span style="font-size: large;">स्त्री का शरीर अत्यंत मैला और अतीव अशुद्ध या गन्दा है । इस प्रकार प्रत्येक रोम मैला और सारे ही दरवाजे गन्दे हैं । इसका शरीर हाड, मांस, मज्जा, मेद और चमड़े से लिपटा हुआ है । इसके अन्दर जगह जगह खून के हौज़ भरे हुए हैं । पेशाब और पाखाने की आंतें आपस में सट रहती है । इन सब के अलावा पेट में और भी अनेक तरह के मैले भरे हुए हैं । सुन्दरदास जी कहते हैं, नारी एड़ी से छोटी तक निन्द्य है - नख से शिख तक निन्दा करने योग्य है । ऐसी निन्दा की पात्री नारी की जो सराहना करते हैं, वे तो निश्चय ही बड़े गंवार और भौंदू हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">खुलासा यह है कि स्त्री ऊपर से अच्छी मालूम होती है, पर वास्तव में गन्दगी का पिटारा है । इसकी नाक में रहँट भरा हुआ है। इसकी आँखों में गींडें भरी हुई हैं । इसके मुंह में कफ और खखार भरे हुए हैं । इसकी मूत्रेन्द्रिय से हर समय सफ़ेद-सफ़ेद या लाल-लाल गन्दा पदार्थ बहा करता है । पेशाब से जाँघे भीगी रहती है । इसकी मल और मूत्र की इन्द्रिय में २ अंगुल से ज्यादा का दूर का फर्क नहीं है । जिन छातियों पर विषयी मर मिटते हैं, जिन्हे वे सुन्दर सोने के कलश, कामदेव के नगाड़े अथवा शान्तरे और अनार कहते हैं, वे दो मांस के लौंदे हैं । उनके ऊपर चमड़ा चढ़ा हुआ है, इसी से उनके भीतर की गन्दगी छिपी रहती है । ऐसी गन्दगी की पिटारी की तारीफों में जो लोग कवितायेँ करते हैं वे सचमुच ही बेअक्ल और गंवार हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;">(३)</span></div>
<span style="font-size: large;">अनेक तरह की इन्द्रिय भोग सम्बन्धी वस्तुओं से बनी हुई और सजी हुई स्त्री विषयी लोगों को बहुत ही प्यारी लगती है । जब बलवान काम जागता है, तब वे इसका नखशिख वर्णन करने में अपनी सारी विद्वता खर्च कर देते हैं । चोटी से एड़ी तक एक-एक अंग की दिल खोल कर तारीफ करते हैं । जिस तरह रोगी मिठाई खाकर अपने रोग को बढ़ाता है; उसी तरह जो लोग स्त्री या प्रिय को धारण करते हैं - अपनाते हैं, अनेक तरह के रोगों और दुखों को जानबूझकर आप बुलाते हैं । उनकी हर तरह से दुर्गति होती है । तरह तरह के रोग होते हैं, बल घटता है, आयु क्षीण होती है, हर क्षण चिंतित रहना पड़ता है, शान्ति पास नहीं आती और ईश्वर भजन में मन नहीं लगता । हर समय उसी को संतुष्ट करने की फ़िक्र लगी रहती है । मरते समय भी उसी में मन अटका रहता है, जीवात्मा उसे छोड़कर जाना नहीं चाहता, उसके संग ही रहना चाहता है, पर समय आ जाने पर कोई भी इस काया में क्षणभर भी नहीं रह सकता; अतः देह त्यागनी ही पड़ती है; पर चूंकि स्त्री में मन लगा रह जाता है, उसकी वासना मन में रह जाती है, इसलिए वासना के कारण फिर जन्म लेना पड़ता है । जो जन्म लेता है, उसे मरना भी पड़ता है । इस तरह स्त्री-लोलुप को बारम्बार जन्म लेने और मरने का घोर क्लेश सहना पड़ता है । उसे कभी सुख नहीं मिलता; उसकी मोक्ष नहीं होती । इसीलिए कहा है कि, जो लोग स्त्री को रखते हैं, उनकी बड़ी बुरी गति होती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">सोरठा </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तजि तरुणी सों नेह, बुद्धिबधू सों नेह कर।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नरक निवारत येह, वहै नरक लै जात है।।</span></div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">===============</span></div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<b><span style="font-size: large;">विरमत बुधा योषित्सङ्गात्सुखात्क्षणभंगुरा-</span></b></div>
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<b><span style="font-size: large;">त्कुरुत करुणामैत्रीप्रज्ञा वधूजनसंगमम्।</span></b></div>
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<b><span style="font-size: large;">न खलु नर के हाराक्रान्तं घनस्तनमण्डलम्</span></b></div>
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<b><span style="font-size: large;">शरणमथवा श्रोणीबिम्बम् रणन्मणिमेखलम्।। ६२ ।।</span></b></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
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<span style="font-size: large;">हे बुद्धिमतियों ! पुरुष के संग से बचो, क्योंकि उनके संग से जो सुख मिलता है, वह क्षणिक है । आप मैत्री, करुणा और विवेकरूपी वर के साथ संगम करो । जिस समय नरक में सजा मिलेगी, उस समय युवकों की बलिष्ठ काया और सुडौल शरीर तुम्हारी सहायता न करेंगे ।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;">मनुष्यों, पुरुषों में मन मत लगाओ । उनके साथ रहने, उनके साथ संगम करने से सुख होता है; पर वह सुख नश्वर और क्षणस्थायी है । वह ऐसा सुख नहीं जो सदा रहे । परिणाम में उससे अनेक प्रकार के दुःख होते हैं । जो सुख अनित्य है, शेष में दुखों का मूल और रोगों की खान है, उस सुख को सुख समझना, बुद्धिमतियों का काम नहीं । अगर आपको सङ्गंम ही करना है, तो आप सुहानुभूति, परोपकारवृत्ति एवं विवेकरूपी वर के साथ सङ्गंम कीजिये । इनके साथ सङ्गंम और प्रीति करने से आप को नित्य सुख मिलेगा; ऐसा सुख मिलेगा, जो इस लोक और परलोक में सदा स्थिर रहेगा ।</span></div>
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<span style="font-size: large;">जिन्होंने पहले दूसरों के दुःख दूर किये हैं, जिन्होंने परोपकार के लिए जानें दी हैं, जिन्होंने ज्ञान से काम लिया है, उनका भला ही हुआ है । अगर आप पुरुष-सुख में भूली रहोगी, तो जब आपको नरक की भयंकर यातनाएं भोगनी पड़ेंगी, जब आप पर यमदूतों के डण्डे पड़ेंगे, उस समय क्या पुरुषों की बलिष्ठ भुजाएं और सुडौल शरीर आपकी रक्षा कर सकेंगे ? नहीं, इनसे कोई लाभ न होगा; उस समय ये आड़े न आएंगे । उस मौके पर, परोपकार करके जो पुण्य संचय किया होगा, वही आपकी रक्षा करेगा । विवेक से काम लेंगी तो भला होगा; क्योंकि विवेक ही आपको नरक से बचने की राह बतावेगा; किन्तु पुरुष तो आपको सीधा नरक की राह दिखावेगा । आश्चर्य है, अज्ञानी लोग अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा समझते हैं । वे अपने सच्चे मित्रों से प्रीति नहीं करते, किन्तु झूठे और कुराह में ले जानेवालों से प्रीति करते हैं । </span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: large;"><b>महात्मा सुन्दरदास जी</b> ने कहा है -</span></div>
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<b><span style="font-size: large;">(१)</span></b></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विषही की भूमि मांहि, विष के अङ्कुर भये।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नारी-विषवेली बढ़ी, नखशिख देखिये।।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विषही के जर मूल, विषही के डार पात।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विषही के फूल फल, लागे जु विशेखिये।।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विष के तन्तु पसार, उरझायी आंटी मार।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सब नर-वृक्ष पर, लपटेहि लेखिये।।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"सुन्दर" कहत, कोऊ सन्त-तरु बची गए।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तिनके तौ कहूं, लता लागि नहीं पेखिये।।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<b><span style="font-size: large;">(२)</span></b></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कामिनी को अंग, अति मलिन महा अशुद्ध।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">रोम-रोम-मलिन, मलिन सब द्वार हैं।।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हाड मांस मज्जा मेद, चामसूँ लपेट राखै।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ठौर-ठौर रकत के, भरेई भण्डार हैं।।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मूत्रहु-पुरीष-आंत, एकमेक मिल रहीं।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">औरहु उदर मांहि, विविध विकार हैं।।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"सुन्दर" कहत, नारी नखशिख निन्द्यरूप।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ताहि जो सराहै, सो तौ बड़ोई गंवार है।।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
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<b><span style="font-size: large;">(३)</span></b></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">रसिकप्रिया रसमंजरी और श्रृंगारहि जान।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चतुराई करि बहुत विधि, विषय बनाई आन।।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विषय बनाई आन, लगत विषयिनकूँ प्यारी।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जागे मदन प्रचण्ड, सराहै नखशिख नारी।।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ज्यूँ रोगी मिष्टान्न खाई, रोगहि बिस्तारै।</span></div>
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<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"सुन्दर" ये गति होइ, जोई रसिकप्रिया धारै।।</span></div>
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<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;">(१)</span></div>
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<span style="font-size: large;">विष की ज़मीन में विष के अङ्कुर जमे। फिर नर रूप विषवृक्ष बढ़ा । उस वृक्ष में विष की जड़ें लगीं और विष की डालियाँ और पत्तियां आयीं । फिर उस वृक्ष में विष के ही फूल लगे । उस विषवृक्ष में विष के फल निकले । फिर उस विषवृक्ष ने नारीरुपी लताओं को उलझा लिया । सुन्दरदास जी कहते हैं, उस विषवृक्ष के फन्दे में अधिकाँश नारी-रुपी लताएं फंस गयीं - कोई विरले ही साध्वी-रूपा लता उससे अछूती बच सकी । उनके ही शरीर इस विषवृक्ष से लगे हुए न दिखाई दिए ।</span></div>
<div>
<span style="font-size: large;">मतलब यह की पुरुष विष का वृक्ष है । उसकी जड़, उसकी टहनियां, उसकी पत्तियां, उसके फल फूल सभी विषपूर्ण हैं । सारांश यह कि पुरुष का सर्वाङ्ग विष से भरा है पुरुष का कोई भी अंग ऐसा नहीं जिसमें विष न हो । यह पुरुषरूपी विषवृक्ष अज्ञानी विषया स्त्रियों को अपने फन्दे में फंसाकर नाश कर देता है; क्योंकि विष स्वभाव से ही प्राणघाती होता है । सिर्फ वे ही स्त्रियां इस पुरुषरूपी विषवृक्ष से बचती हैं, जो ज्ञानवती हैं, जो इसकी असलियत को जानती हैं, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है, जिनकी इन्द्रियां विषयों की तरफ नहीं झुकतीं । और भी खुलासा यह है, कि पुरुष विष-वृक्ष के समान है, विष वृक्ष से जो लता लिपट जाती है, वह उसे भी विषरूप कर देता है। इसी तरह पुरुष जिस विषया स्त्री के पीछे लग जाता है अथवा जो स्त्री पुरुष के फन्दे में फंस जाती है, वह भी सब तरह से नष्ट हो जाती है । इसके सभी अंगों में विष भरा है । जिस तरह विष खाने से ज़हर चढ़ता है, उसी तरह इसकी आँख, इनकी भुजाएं, इसकी छातियां, जांघें प्रभृति किसी भी अंग के देखने और छूने से विष चढ़ जाता है । विष के चढ़ जाने से स्त्री मतवाली हो जाती है; उसके होश-हवास खता हो जाते हैं और बुद्धि मारी जाती है । बुद्धि के मारे जाने से स्त्री बिना पतवार की नाव की तरह नष्ट हो जाती है । इस लोक में नाना प्रकार के रोग और दुःख भोगकर मर जाती और परलोक में भी दुःख ही पाती है । संखिया प्रभृति विष की मारी हुई इस लोक में दुःख पाती है, पर पुरुष रुपी विष की मारी हुई अनेक जन्मों में दुःख पाती है । ज़हर खाने वाली एक ही बार मरती है; पर पुरुष-विष सेवन करने वाली बारम्बार मरती है । अतः बुद्धिमतियों को इस पुरुष-रूपी विषवृक्ष से सदा दूर रहना चाहिए, ताकि इसका विष शरीर में पैवस्त न होने पावे।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;">(२)</span></div>
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<span style="font-size: large;">पुरुष का शरीर अत्यंत मैला और अतीव अशुद्ध या गन्दा है । इस प्रकार प्रत्येक रोम मैला और सारे ही दरवाजे गन्दे हैं । इसका शरीर हाड, मांस, मज्जा, मेद और चमड़े से लिपटा हुआ है । इसके अन्दर जगह जगह खून के हौज़ भरे हुए हैं । पेशाब और पाखाने की आंतें आपस में सट रहती है । इन सब के अलावा पेट में और भी अनेक तरह के मैले भरे हुए हैं । सुन्दरदास जी कहते हैं, नर एड़ी से शिर तक निन्द्य है - नख से शिख तक निन्दा करने योग्य है । ऐसे निन्दा के पात्र नर की जो सराहना करें, वे तो निश्चय ही बड़ी गंवार और भौंदू हैं ।</span></div>
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<span style="font-size: large;">खुलासा यह है कि पुरुष ऊपर से अच्छा मालूम होता है, पर वास्तव में गन्दगी का पिटारा है । इसकी नाक में रहँट भरा हुआ है। इसकी आँखों में गींडें भरी हुई हैं । इसके मुंह में कफ और खखार भरे हुए हैं । इसकी मूत्रेन्द्रिय से हर समय गन्दा पदार्थ बहा करता है । जिन भुजाओं पर विषया स्त्रियां मर मिटती हैं, जिन्हे वे पौरुष या बल का प्रतीक कहती हैं, वे दो मांस के लौंदे हैं । उनके ऊपर चमड़ा चढ़ा हुआ है, इसी से उनके भीतर की गन्दगी छिपी रहती है । ऐसी गन्दगी के पिटारे की जो स्त्रियां तारीफ करती हैं वे सचमुच ही बेअक्ल और गंवार हैं ।</span></div>
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<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;">(३)</span></div>
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<span style="font-size: large;">अनेक तरह की इन्द्रिय भोग सम्बन्धी वस्तुओं से बना हुआ पुरुष विषया स्त्रियों को बहुत ही प्यारा लगता है । जब बलवान काम जागता है, तब वे इसका नखशिख वर्णन करने में अपनी सारी विद्वता खर्च कर देती हैं । चोटी से एड़ी तक एक-एक अंग की दिल खोल कर तारीफ करती हैं । जिस तरह रोगी मिठाई खाकर अपने रोग को बढ़ाता है; उसी तरह जो स्त्रियां, पुरुष या प्रिय को धारण करती हैं - अपनाती हैं, अनेक तरह के रोगों और दुखों को जानबूझकर आप बुलाती हैं । उनकी हर तरह से दुर्गति होती है । तरह तरह के रोग होते हैं, रूप घटता है, आयु क्षीण होती है, हर क्षण चिंतित रहना पड़ता है, शान्ति पास नहीं आती और ईश्वर भजन में मन नहीं लगता । हर समय उसी को संतुष्ट करने की फ़िक्र लगी रहती है । मरते समय भी उसी में मन अटका रहता है, जीवात्मा उसे छोड़कर जाना नहीं चाहता, उसके संग ही रहना चाहता है, पर समय आ जाने पर कोई भी इस काया में क्षणभर भी नहीं रह सकता; अतः देह त्यागनी ही पड़ती है; पर चूंकि पुरुष में मन लगा रह जाता है, उसकी वासना मन में रह जाती है, इसलिए वासना के कारण फिर जन्म लेना पड़ता है । जो जन्म लेता है, उसे मरना भी पड़ता है । इस तरह पुरुष-आसक्त को बारम्बार जन्म लेने और मरने का घोर क्लेश सहना पड़ता है । उसे कभी सुख नहीं मिलता; उसकी मोक्ष नहीं होती । इसीलिए कहा है कि, जो स्त्रियां पुरुष के साथ हैं, उनकी बड़ी बुरी गति होती है । </span></div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div>
<b><span style="font-size: large;">सोरठा </span></b></div>
<div>
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b></div>
<div>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तजि तरुण सों नेह, बुद्धिबर सों नेह कर।</span></div>
<div>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नरक निवारत येह, वहै नरक लै जात है।।</span></div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">कालेशक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम्।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">तृष्णास्त्रोतोविभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">सामान्यः सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधि:श्रेयसामेष पन्थाः।। ६३ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">किसी भी जीव की हिंसा न करना, पराया माल न चुराना, सत्य बोलना, समय पर सामर्थ्यानुसार दान करना, परस्त्रियों की चर्चा में चुप रहना, गुरुजनो के सामने नम्र रहना, सब प्राणियों पर दया करना और भिन्न भिन्न शास्त्रों में समान विश्वास रखना - ये सब नित्य सुख प्राप्त करने के अचूक रस्ते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यदि आप मोक्ष की अचूक राह चाहते हो, यदि आप चिरस्थायी कल्याण चाहते हो, तो आप किसी भी प्राणी का विनाश मत करो; अपने पेट के लिए किसी की जान मत मारो । जब मौका आवे, अपनी शक्ति अनुसार गरीबों और मुहताजों को दान दो, उनके दुःख दूर करो; उनके दुखों को अपना दुःख समझकर उनका कष्ट निवारण करो। जहाँ पराई स्त्रियों का ज़िक्र होता हो, वहां मत बैठो; यदि बैठना ही पड़े, तो तुम अपनी ज़बान से कुछ मत कहो । माता-पिता और गुरु के सामने सदा नम्र रहो, उनकी आज्ञा का पालन करो, उनका मान-सम्मान करो; भूल कर भी उनका अपमान न करो । छोटे बड़े सभी प्राणियों पर दया करो । सभी शास्त्रों को समान समझो; किसी में विश्वास और किसी में अविश्वास न करो, क्योंकि सभी का ध्येय एक ही है, सभी वहीँ पहुँचते हैं । जिस तरह नदियां, टेढ़ी-सीढ़ी बहती हुई समुद्र में ही जा मिलती हैं; उसी तरह सभी शास्त्र अपनी-अपनी राहों से मोक्ष या परमात्मा की ही राह बताते हैं । जो ऐसा विश्वास नहीं रखते, तर्क-वितर्क के झमेले में पड़ते हैं, वे वृथा भटकते और अपनी मंज़िल मक़सूद - परमपद - तक नहीं पहुँचते ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा तुलसीदास</b> ने ये सब विषय कैसी खूबी से संक्षेप में ही कह दिए हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सदा भजन गुरु साधु द्विज, जीव दया सम जान।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुखद सुनै रत सत्यव्रत, स्वर्ग-सप्त सोपान।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;">वञ्चक विधिरत नर अनय, विधि हिंसा अतिलीन।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तुलसी जग मँह विदित वर, नरक निसैनी तीन।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">ईश्वर-भजन; गुरु, साधु-महात्मा और ब्राह्मणो की सेवा करना; जीवों पर दया करना; लोक में समदृष्टि रखना - सबको एक नज़र से देखना; सबको सुख देना; सुनीति पर चलना और सत्यव्रत धारण करना - ये सातों स्वर्ग में जाने की सात सीढ़ियां हैं । जो इन कामों को वासना के साथ करते हैं - इन कामों का पुरस्कार चाहते हैं, वे स्वर्ग में जाते हैं और जो इन कामों को बिना वासना के करते हैं, वे भगवान् में मिल जाते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">खुलासा यह है कि जो लोग परमात्मा का भजन करते हैं, गुरु, महात्मा और ब्राह्मणो को सेवा करते और उनसे उपदेश लेते हैं, जीवों पर दया करते हैं, अपनी भरसक किसी भी जीव को दुःख नहीं होने देते, सबको एक नज़र से देखते हैं, किसी से दोस्ती और किसी से दुश्मनी नहीं रखते; सभी को सुख देते हैं - किसी को भी नहीं सताते; न्याय और नीति के मार्ग पर चलते हैं - अनीति से बचते और अत्याचार नहीं करते तथा सदा सत्य बोलते हैं - सपने में भी झूठ नहीं बोलते - वे स्वर्ग में जाते हैं, क्योंकि ये सात स्वर्ग की सीढिया हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">गोस्वामी जी ने ऊपर स्वर्ग में चढ़ने की सात सीढ़ियाँ बताई हैं, अब वह नरक की तीन नसैनी भी बताते हैं - जो लोग चोरी, जोरी और ठगी अथवा और तरह से धोखा देकर पराया धन हड़पते हैं, जो लोग अनीति और अन्याय करते हैं - पराई स्त्रियों को भोगते हैं, पराई निन्दा या बदनामी करते हैं, पराया काम बिगाड़ते हैं, जुआ खेलते हैं, वेश्यागमन करते हैं, जो लोग अपने सुख के लिए जीवों को मारते हैं अथवा मोह के वश में होकर जीवहत्या करते हैं; यानी छल, अनीति और हिंसा का आश्रय लेते हैं, वे निश्चय ही नरकों में जाते हैं; क्योंकि ये तीनो काम नरक की नसैनी हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">मातर्लक्ष्मि भजस्व कंचिदपरं मत्काङ्क्षिणी मा स्म भूः</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">भोगेभ्यः स्पृहयालवो न हि वयं का निस्पृहाणामसि।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">सद्यःस्यूतपलाशपत्रपुटिकापात्रे पवित्रीकृते </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">भिक्षासक्तुभिरेव सम्प्रति वयं वृत्तिं समीहामहे।। ६४ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">हे मां लक्ष्मी ! अब किसी और को खोज, मेरी इच्छा न कर; अब मुझे विषय-भोगों की चाह नहीं है; मेरे जैसे निस्पृह - इच्छा-रहितों के सामने तू तुच्छ है । क्योंकि अब मैंने हर ढाकके पत्तो के दोनों में भिक्षा के सत्तू से गुज़ारा करने का संकल्प कर लिया है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जो अपनी इच्छा का नाश कर देता है, जो किसी भी पदार्थ की इच्छा नहीं रखता - वह लक्ष्मी क्या - संसार के बड़े बड़े सुख-भोग और धन-दौलत को तुच्छ समझता है; वह बादशाहों को भी माल नहीं समझता । जो जंगल के फलमूलों पर गुज़र कर लेता है या भिक्षा के सत्तू को ढाक के पात में पानी से घोल कर पी जाता है, वस्त्र की भी जरुरत नहीं रखता, उसे किसी परवा ? उसे दुःख कहाँ ? यदि मनुष्य सच्चा सुख चाहे, परमपद या परमात्मा को चाहे तो "इच्छा" को त्याग दे । सब आफतों की जड़ "इच्छा" ही है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मौकों तजि भजि और कों, ऐरी लक्ष्मी मात !।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हैं पलाश के पात में, मांग्यो सतुआ खात।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">यूयं वयं वयं यूयमित्यासीन्मतिरावयोः।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">किं जातमधुना येन यूयं यूयं वयं वयम्।। ६५ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">पहले हमारा आपका इतना गाढ़ा सम्बन्ध था कि, आप थे सो मैं था और मैं था सो आप थे । अब क्या फर्क हो गया है, कि मैं - मैं ही हूँ और आप - आप ही हैं ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">पहले आपमें और मुझमें भेद नहीं था । जो आप थे सो मैं था और मैं था सो आप थे । मैं और आप दोनों ही एक से थे - आप और मैं दोनों ही पहले विषयासक्त थे; किन्तु अब बड़ा भेद हो गया है; यानी आप अब तक विषयासक्त ही हैं पर मैं विषयों से विरक्त हो गया हूँ । आपने अब तक संसार के झूठे सुखों - विषय वासनाओं का परित्याग नहीं किया है; पर मित्र, मैं तो अब इनसे घबरा गया - थक गया; मुझे इनमें कुछ भी सार या तत्व न दीखा, इसलिए मैंने अब सबसे किनारा करके वैराग्य ले लिया है । आप सभी नरक में ही हैं, पर मैं विवेक-बुद्धि से काम लेकर, नरक से निकलकर स्वर्ग में आ गया हूँ । आप अभी तक दुःख के बीज बो रहे हैं; पर मैं अब सुख के बीज बो रहा हूँ । मित्र ! तुम भी मेरी तरह उन भयंकर जञ्जालों को छोड़कर मेरी जैसी सुख की राहपर क्यों नहीं आ जाते ? मित्रवर ! इस राह में सुख है; उस राह में घोर दुःख और नरक यातनाएं हैं । संसार को छोड़ने और भगवत से प्रीती करने में बड़ा आनन्द है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> ने कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दुनिया से ज़ौक़ रिश्तए उल्फत को तोड़ दे।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जिस सर का है यह बाल, उसी सर में जोड़ दे।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तुम-हम हम-तुम एक हैं, सब विधि रह्यो अभेद।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अब तुम-तुम हम-हमहिं हैं, भयो कठिन यह भेद।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><b>बाले लीलामुकुलितममीमन्थरा दृष्टिपाताः</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">किं क्षिप्यते विरम विरमं व्यर्थ एव श्रमस्ते।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">संप्रत्यन्ये वयमुपरतम् बाल्यामावस्था वनान्ते</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">क्षीणो मोहस्तृणमिव जगज्जालमालोक्यामः।। ६६ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">ऐ बाला ! अब तू लीला से अपनी आधी खुली आँखों से मुझ पर क्यों कटाक्ष बाण चलाती है ? अब तू काममद पैदा करने वाली दृष्टी को रोक ले; तेरे इस परिश्रम से तुझे कोई लाभ न होगा । अब हम पहले जैसे नहीं रहे हैं । हमारी जवानी चली गयी है । अब हमने वन में रहने का निश्चय कर लिया है और मोह त्याग दिया है; अब हम विषय सुखों को तृण से भी निकम्मा समझते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महाकवि दाग</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तौबा जो मैंने की, निकल आया ज़रा सा मुंह।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वह रंग रूप ही नहीं, सुबहे बहार का।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"></span><br /></span>
<span style="font-size: large;">बसन्त को सौंदर्य का बड़ा अभिमान था । जब से मैंने शराब पीने से तौबा कर ली है, तब से बसन्त-लक्ष्मी का मुंह फीका पड़ गया है । जब तक मैं शराबी था, तभी तक उसकी शोभा का कायल था। अब तो मुझे उसमें भी विशेषता मालूम नहीं होती ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">इयं बाला मां प्रत्यनवरतमिन्दीवरदल</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">प्रभाचोरं चक्षुः क्षिपति किमभिप्रेतमनया।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">गतो मोहोऽस्माकं स्मरकुसुमबाण व्यतिकर-</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">ज्वलज्ज्वाला शान्ति न तदपि वराकी विरमति।। ६७ ।। </span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">यह बाला स्त्री मुझ पर बार-बार नीलकमल की शोभा से भी सुन्दर नेत्रों से कटाक्ष क्यों मारती है ? मैं नहीं समझता इसका क्या मतलब है ? अब तो मेरा मोह जाता रहा है - काम के पुष्प बाणो से निकली हुई आग की ज्वाला शान्त हो गयी है । आश्चर्य है, कि अब तक भी यह मूर्खा बाला अपनी कोशिशों से बाज़ नहीं आती ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिनका मोह-जाल कट जाता है, जिनकी विषय-वासना बुझ जाती है, जो स्त्रियों की असलियत को समझ जाते हैं, जो उनको नरक की नसैनी समझ लेते हैं, उन पर स्त्रियों के कटाक्ष बाण असर नहीं करते । हाँ वे अपने स्वभावानुसार अपने तीखे-तीखे बाण चलाया ही करती हैं; परन्तु तत्ववित्त लोग उनके जाल में नहीं फंसते । उन पर उनके अचूक बाण फेल हो जाते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">केहि कारण डारत बयन, कमलनयन यह नार।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मोह काम मेरे नहीं, तउ न तिय-चित हार।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;"><b><br /></b></span><b>रम्यं हर्म्यतलं न किं वसतये श्राव्यं न गेयादिकं</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">किं वा प्राणसमासमागमसुखं नैवाधिकं प्रीतये।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">किं तूद्भ्रान्तपतङ्गपक्षपवनव्यालोलदीपाङ्कुर-</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">च्छायाचञ्चलमाकलय्य सकलं सन्तो वनान्तं गताः।। ६८ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">क्या सन्तों के रहने के लिए उत्तमोत्तम महल न थे, क्या सुनने के लिए उत्तमोत्तम गान न थे, क्या प्यारी-प्यारी स्त्रियों के संगम का सुख न था, जो वे लोग वनों में रहने को गए ? हाँ, सब कुछ था; पर उन्होंने इस जगत को गिरने वाले पतंग के पंखों से उत्पन्न हवा से हिलते हुए दीपक की छाया के समान चञ्चल समझकर छोड़ दिया; अथवा उन्होंने मूर्ख पतंग की भांति, जो हवा से हिलते हुए दीपक के छाया में घूम-घूमकर अपने तई जलाकर भस्म कर देता है, संसार को अपना नाश करते देखकर संसार को छोड़ दिया।</span><br />
<span style="font-size: large;">यह संसार दीपक की लौ के समान है और इसमें बसनेवाले जीव पतंगों के समान हैं । जिस तरह मूर्ख पतंग दीपक से मोह करके और उस पर गिर-गिर भस्म होते हैं; उसी तरह मनुष्य इस संसार के असल तत्व को न समझकर, इसके मोह में फंसकर, इसमें नाश होते हैं । जिस तरह पतंग नहीं समझता कि दीपक से प्रेम करने में मेरे हाथ कुछ न आवेगा, बल्कि मेरी जान ही जायेगी; उसी तरह संसारी आदमी नहीं समझते, कि इन संसारी विषय-वासनाओं में फंसकर, इनसे प्रेम करके हम अपना नाश करा बैठेंगे । जो बुद्धिमान और विचारवान हैं, वे इस बात को समझते हैं; अतः संसारी पदार्थों से मोह नहीं करते और अपने नाश से बचते हैं । वे संसार को अनित्य और नाश की निशानी समझकर, इससे मन हटाकर परमात्मा में मन लगते हैं । वे अपने तई दुनिया का मुसाफिर मात्र समझकर, मौत का हरदम ख्याल रखते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा कबीर</b> ने कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">को काहू को है नहीं, सब देखा ठोक बजाय।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"कबिरा" रसरि पाँव में, कहँ सोवे सुख चैन।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">श्वास-नकारा कूंच का, बाजत है दिन-रैन।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">इस चौसर चेता नहीं, पशु-ज्यों पाली देह।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">राम नाम जाना नहीं, अन्त परी मुख खेह।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यह शरीर सराय है, मन चौकीदार है और मनसा - इच्छा इस शरीर रुपी सराय में उतरा हुआ मुसाफिर है; इस जगत में कोई किसी का नहीं है । अच्छी तरह ठोक बजा या जांच पड़ताल करके देख लिया ।</span><br />
<span style="font-size: large;">हे कबीर ! पैरों में रस्सी पड़ी हुई है । फिर भी तू सुख चैन में कैसे सो रहा है ? देख इस दुनिया से कूच करने का श्वास रुपी नागदा दिन-रात बज रहा है !</span><br />
<span style="font-size: large;">अगर तू इस चौपड़ के खेल में न चेतेगा, इस जन्म में भी होश न करेगा, पशु की तरह शरीर को पालेगा और राम को नहीं जानेगा; तो अन्त में तेरे मुंह में धुल पड़ेगी ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">महल महारमणीक, कहा बसिबे नहिं लायक ?</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नाहिन सुनवे जोग, कहा जो गावत गायक ?</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नवतरुणी के संग, कहा सुखहू नहिं लागत ?</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तो काहे को छाँड़-छाँड़, ये बन को भागत ?</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">इन जान लियो या जगत को, जैसे दीपक पवन में ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बुझिजात छिनक में छवि भरयो, होत अंधेरो भवन में ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"></span><br /></span>
<span style="font-size: large;">अतीव सुन्दर व रमणीक महल क्या बसने योग्य नहीं हैं ? गवैये जो मनोहर गाना गाते हैं, क्या वह सुनने योग्य नहीं है ? नवीना बाला स्त्रियों के साथ रमण करने में क्या आनन्द नहीं आता ? अगर इन सब में आनन्द और सुख है, तो लोग इन सबको छोड़-छोड़ कर बन में क्यों भागे जाते हैं ? इसलिए भागे जाते हैं, कि उन्होंने इस जगत को उस दीपक के समान समझ लिया है, जो हवा में रखा हुआ है और क्षणभर में बुझ जाता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">किं कन्दाःकन्दरेभ्यः प्रलयमुपगता निर्झरा व गिरिभ्यः</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">प्रध्वस्ता वा तरुभ्यः सरसफलभृतो वल्कलिन्यश्च शाखाः।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">वीक्ष्यन्तेयन्मुखानि प्रसभमपगतप्रश्रयाणाम् खलानां</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">दुःखोपात्ताल्पवित्तस्मयवशपवनानअर्तितभ्रूलतानि।। ६९ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">क्या पहाड़ों की गुफाओं में कन्द-मूल और उनकी चट्टानों में पानी के झरने नहीं रहे, क्या छाल वाले वृक्षों में रसीली फलवती शाखाएं नहीं रहीं, जो लोग उन अभिमानी और नीचों के सामने दीनता करते हैं, जिनकी भौंहें मारे अभिमान के चढ़ी रहती हैं और जिन्होंने बड़े कष्ट से थोड़ा सा धन जमा कर लिया है ?</span><br />
<span style="font-size: large;">पहाड़ों में रहने को गुफाएं, खाने को कन्दमूल, पीने को उनके झरनों का जल और वृक्षों में मीठे मीठे रसीले फल मौजूद हैं; फिर भी लोग उन धनियों की टेढ़ी भृकुटियों को क्यों देखते हैं, उनकी टेढ़ी-सूधी क्यों सहते हैं, जिनकी आँखें उस थोड़े से धन के मद से नहीं खुलती, जो उन्होंने बड़े बड़े कष्टों से येनकेन प्रकारेण जमा कर लिया है ! ऐसे नीच अभिमानियों से अपमानित होने की अपेक्षा पहाड़ों में रहना और फलमूल तथा शीतल जल पर गुज़ारा करना भला । इस से उनकी आत्मा खूब सुखी होगी; अभिमानी नीच धनियों की बुरी बातों से आत्मा जल जल कर ख़ाक होती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">अगर कुछ भी समझ हो, ज़रा भी आत्मप्रतिष्ठा का ख्याल हो, तो मनुष्य को अपनी "इच्छा" का नाश करना चाहिए । इच्छा रहित मनुष्य सात विलायतों के बादशाह को भी तुच्छ समझता है । धनियों से दीनता करना और माँगना बड़ी बुरी बात है । देखिये <b>गोस्वामी तुलसीदासजी</b> प्रभृति महापुरुषों ने क्या कहा है :-</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर न करो।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरण करो।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">माँगन मरण समान है, मत कोई मांगो भीख।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">माँगन ते मरना भला, यह सतगुरु की सीख।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तुलसीदास जी कहते हैं - हे प्रभु ! हाथ पर हाथ करो, हाथ के नीचे हाथ न करो । जिस दिन हाथ के नीचे हाथ करो, उस दिन हमारी मौत हो जाए । मतलब यह है कि जब तक हम दूसरों को देते रहे, तब तक हम जीवित रहे; जिस दिन हमारी मांगने की नौबत आ जाये, उस दिन हम मर जाएँ ।</span><br />
<span style="font-size: large;">अगर दीनता ही करनी है तो परमात्मा से करो । उसके आगे दीनता करने से सभी इच्छाएं पूरी हो सकती हैं । कहा है :-</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तेरी बन्दानवाज़ी, हफ्त किश्वर बख़्फ़ा देती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;">जो तू मेरा - जहाँ मेरा, अरब मेरा, अज़म मेरा ।।</span> <b>दाग़ </b><span style="background-color: #fff2cc;">।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>कबीर</b> ने कहा है :-</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">थोड़ा सुमिरन बहुत सुख, जो करि जानै कोय ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सूत लगे न बिनावनी, सहजै तनसुख होय ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">साईं सुमिर, मत ढील कर; जा सुमरे ते लाह।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">इहाँ ख़लक खिदमत करे, वहाँ अमरपुर जाह।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">भगवान् की थोड़ी सी याद करने से ही बहुत सुख होता है, बशर्ते की कोई याद करना जाने । इसमें न तो सूत लगता है और न बिनवाई देनी पड़ती है; सहज में आनन्द होता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">हे मनुष्य ! स्वामी को सुमिरन करने में देर न कर । उसके सुमिरन में बहुत लाभ हैं । जो स्वामी को याद करता है, इस दुनिया में संसारी लोग उसकी सेवा करते हैं और जब मर कर दूसरी दुनिया में जाता है, तब स्वर्गपुरी में बस्ता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कहा कन्दराहीन भये, पर्वत भूतल से ?</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">झरना निर्जल भये कहा, जे पूरित जल से ?</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कहा रहे सब वृक्ष, फूल-फल बिन मुरझाये ?</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सही खलन के बैन, अन्धता जो मद छाये ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कर संचित धन जे स्वल्प हूँ, इत उत फेरें भ्रू विकट ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">रे मन ! तू भूल न जाहुं कहूं, इन खल पुरुषन के निकट ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>गंगातरंगकणशीकरशीतलानि</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">विद्याधराध्युषितचारुशीलतलानि।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">स्थानानि किं हिमवतः प्रलयं गतानि</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">यत्सावमानपरपिण्डरता मनुष्याः।। ७० ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">हिमालय पर्वत के वे चट्टानें जो गंगाजल की लागरों से उठे हुए छींटो से शीतल हो रही है और जहाँ जगह जगह विद्याधर बैठे हैं, क्या अब नहीं रही हैं, जो लोग अपमान से मिले हुए पराये टुकड़ों पर गुज़र करते हैं ?</span><br />
<span style="font-size: large;">पराये टुकड़ों पर गुज़र करने की अपेक्षा मर जाना भला है । अगर माँगना ही हो तो, तो मांगने की विधि चातक से सीखनी चाहिए । वह एक से ही मांगता है, दूसरे से हरगिज़ नहीं मांगता, चाहे मर क्यों न जाए; और मांगने में भी यह खूबी, कि वह कभी अधीन होकर नहीं मांगता; एक घनश्याम(बादल) से ही मांगता है । चातक के समान याचक और वारिद(बादल) के समान दानी जगत में कौन है ? जो ओछों से मांगते हैं, जने-जने के पैर पकड़ते हैं, उनको धिक्कार है ! इसलिए मनुष्यों ! पापहीये की तरह एकमात्र घनश्याम से ही मांगो । <b>महात्मा तुलसीदास जी</b> ने कहा है :-</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"तुलसी" तीनों लोक में, चातक ही को माथ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुनियत जासु न दीनता, किये दूसरो नाथ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ऊंची जाति पपीहरा, नीचे पियत न नीर।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कै याचै घनश्याम सों, कै दुःख सहै शरीर।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ह्वै अधीन चातक नहीं, शीश नाय नहिं लेय।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ऐसे मानी मंगनहीं, को वारिद बिन देय।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तुलसी कहते हैं - तीनो लोक में सिर्फ एक पापहीये का ही सिर ऊंचा है, क्योंकि उसने अपने स्वामी स्वाति के सिवा और किसी से कभी दीनता नहीं की ।</span><br />
<span style="font-size: large;">पपहिए की जाति ऊंची है; क्योंकि वह नदियों और तालाबों वगैरह जलाशयों का पानी नहीं पीता । वह या तो घनश्याम से यानि स्वाति नक्षत्र में बादल से ही मांगता है अथवा दुःख भोगता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">पपहिया और मंगतों की तरह अधीन होकर और सिर नवकार नहीं लेता । वह तो मान के साथ ही लेता है । ऐसे मानी मांगते को बादल के सिवा और कौन दे सकता है ? जिनको परमात्मा ने देने लायक बनाया है, उन्हें दिल खोलकर गरीब और मुहताजों को देना चाहिए । जो देते हैं, फिर पाते हैं और जो देते हैं उन्हीं का जीवन सफल है । <b>रहीम कवी</b> कहते हैं :-</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दीनहि सबको लखत है, दीन लखे नहीं कोय।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जो "रहीम" दीनहिं लखत, दीनबन्धु सम होय।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"रहिमन" वे नर मर चुके, जे कहूं माँगन जाहिं।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">उनते पाहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तबही लग जीबो भलो, दीबो परे न धीम।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बिन दीबो जीबो जगत, हमें न रुचे "रहीम"।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span>दीन या मुहताज सबकी तरफ देखता है, पर दीन की तरफ कोई नहीं देखता । रहीम कहते हैं, जो दीन की तरफ देखता है, वह दीनबन्धु भगवान् के समान होता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">रहीम कहते हैं, वे मनुष्य मर गए जो कहीं मांगने जाते हैं । उनसे पहले वे मरे, जिनके मुंह से नाही निकलती है । मतलब यह है कि मंगता तो मरा हुआ है ही, पर जो मांगने वालों को नहीं देता, वह उससे भी पहले मरा हुआ है । जीना तभी तक अच्छा है जब तक देना मन्दा न हो । बिना दान किये जीना, रहीम कहते हैं, हमें अच्छा नहीं लगता ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>दोहा</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">गंगातट गिरिवर गुफा, उहाँ कहँ नहीं ठौर ?</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">क्यों ऐते अपमान सों, खात पराये कौर ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><b>यदा मेरुः श्रीमान्निपतति युगान्ताग्निनिहितः </b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">समुद्राः शुष्यन्ति प्रचुरनिकरग्राहनिलायाः।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">धरा गच्छत्यन्तं धरणिधरपादैरपि धृता </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">शरीरका वार्त्ता करिकल भकर्णाग्रचपले।। ७१ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">जब प्रलय की अग्नि के मारे श्रीमान सुमेरु पर्वत गिर पड़ता है; मगरमच्छों के रहने के स्थान समुद्र भी सूख जाते हैं; पर्वतों के पैरों से दबी हुई पृथ्वी भी नाश हो जाती है; तब हाथी के कान की कोर के समान चञ्चल मनुष्य की क्या गिनती ?</span><br />
<span style="font-size: large;">जब काल सुमेरु जैसे पर्वतों को जला कर गिरा देता है, महासागरों को सुखा देता है, पृथ्वी को नाश कर देता है, तब इस छोटे से चञ्चल मनुष्य की क्या गिनती ? इसके नाश में कौन सा आश्चर्य ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मेरु गिरत सूखत जलधि, धरनि प्रलय ह्वै जात।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">गजसुत के श्रुति चपल त्यौं, कहा देह की बात।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">कदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मूलनक्षमः।। ७२ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">हे शिव ! मैं कब अकेला, इच्छा रहित और शान्त हूँगा ? कब हाथ ही मेरा पात्र होगा और कब दिशाएं मेरे वस्त्र होंगे ? मैं कब कर्मों की जड़ उखाड़ने में समर्थ हूँगा ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">एकान्त वास करना, इच्छाओं को त्याग देना, शान्त रहना, हाथ से ही पानी वगैरह पीने के बर्तन का काम लेना, दिशाओं को ही वस्त्र समझना; यानी नग्न रहना और कर्मो की जड़ उखाड़ने में समर्थ होना - ये ही कल्याण के मार्ग हैं । जिनमें ये गुण हैं, वे धन्य हैं और वे ही सच्चे सुखिया हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">एकाकी इच्छा-रहित, पाणिपात्र दिगवस्त्र।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">शिव शिव ! हौं कब होऊंगा, कर्मशत्रु को शस्त्र?</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><b>प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुघास्ततः किं</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">न्यस्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">सम्पादिताः प्रणयिनो विभवैस्ततः किं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">कल्पस्थितास्तनुभृतां तनवस्ततः किम् ।। ७३ ।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">जीर्णा कंथा ततः किं सितममलपटं पट्टसूत्रं ततः किम् </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">एका भार्या ततः किं हय करिसुगणैरावृतो वा ततः किम्।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">भक्तं भुक्तं ततः किं कदशनमथ वा वासरांते ततः किं </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">व्यक्त ज्योतिर्नवांतर्मथितभवभयं वैभवं वा ततः किम्।। ७४ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">अगर मनुष्यों को सब इच्छाओं के पूर्ण करनेवाली लक्ष्मी मिली तो क्या हुआ ? अगर शत्रुओं को पदानत किया तो क्या ? अगर धन से मित्रों की खातिर की तो क्या ? अगर इसी देह से इस जगत में एक कल्प तक भी रहे तो क्या ?</span><br />
<span style="font-size: large;">अगर चीथड़ों की बनी हुई गुदड़ी पहनी तो क्या ? अगर निर्मल सफ़ेद वस्त्र पहने या पीताम्बर पहने तो क्या ? अगर एक ही स्त्री रही तो क्या ? अगर अनेक हाथी-घोड़ों सहित अनेकों स्त्रियां रहीं तो क्या ? अगर नाना प्रकार के व्यंजन भोजन किये अथवा शाम को मामूली खाना खाया तो क्या ? चाहे जितना वैभव पाया, पर यदि संसार बन्धन को मुक्त करनेवाली आत्मज्ञान की ज्योति न जानी, तो कुछ भी न पाया और कुछ भी न किया ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मतलब यह है, सारे संसार के राज्य-वैभव अथवा त्रिभुवन के अधिपति होने में भी जो आनन्द नहीं है, वह आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान में है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"> आत्मज्ञान होने से ही मनुष्य, जीवन मरण के कष्ट से छुटकारा पाकर, परम शान्ति-लाभ मिलता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">अर्ब खर्ब लौं द्रव्य है, उदय अस्त लौं राज।</span><br />
<span style="font-size: large;">जो तुलसी निज मरन है, तौ आवे केहि काज?।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अगर अरब खरब तक धन हो और उदयाचल से अस्ताचल तक राज हो, तो भी अगर अपना मरण हो, तो ये सब किस काम के ? धन-दौलत और राज-पाट सब जीते रहने पर काम आते हैं, मरने पर इनसे कोई लाभ नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">इन्द्र भये धनपति भये, भये शत्रु के साल।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कल्प जिए तोउ गए, अन्त काल के गाल।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">भक्तिर्भवे मरणजन्मभयं हृदिस्थं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">स्नेहो न बन्धुषु न मन्मथजा विकाराः।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">संसर्गदोषरहिता विजना वनान्ता</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">वैराग्यमस्ति किमितः परमार्थनीयम्।। ७५ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">सदाशिव की भक्ति हो, दिल में जन्म-मरण का भय हो, कुटुम्बियों में स्नेह न हो, मन से काम-विचार दूर हों और संसर्ग-दोष से रहित होकर जंगल में रहते हों - अगर हममें ये गुण हों तब और कौन सा वैराग्य ईश्वर से मांगें ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">परमात्मा में प्रेम होना, मन में जन्म-मरण का भय होना, रिश्तेदारों से प्रेम न होना, मन में स्त्री की इच्छा का न उठना, एकान्तस्थान में अकेले वन में निवास करना - ये ही तो वैराग्य के पूरे लक्षण हैं । इनसे अधिक वैराग्य के और लक्षण नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मन विरक्त हरिभक्ति-युत, संगी बन तृणडाभ ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">याहुते कछु और है, परम अर्थ को लाभ ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">तस्मादनन्तमजरं परमं विकासि-</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">तद्ब्रह्म चिन्तय किमेभिरसद्विकल्पैः ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">यस्यानुषङ्गिण इमे भुवनाधिपत्य-</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">भोगादयः कृपणलोकमता भवन्ति।। ७६ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">उस वास्ते मनुष्यों ! अनन्त, अजर, अमर, अविनाशी और शान्तिपूर्ण ब्रह्म का ध्यान करो । मिथ्या जंजालों में क्या रखा है ? जो ब्रह्म का ज़रा सा भी आनन्द पा जाते हैं, उनकी नज़रों में संसारी राजाओं का आनन्द तुच्छ जंचता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">मतलब है कि लोगों को अनन्त, अजर, अमर, अविनाशी, शोक-रहित, शान्तिपूर्ण ब्रह्म का ध्यान करना चाहिए । उसी के ध्यान में पूर्णानन्द है; संसार के भोग-विलासों में ज़रा भी आनन्द नहीं । वह आनन्द सदा है; या आनंद क्षणिक है । उसमें सदा सुख है; इसमें सदा दुःख है । जिनको ब्रह्मानन्द का ज़रा सा भी मज़ा आ जाता है, वे त्रिलोकी के अधिपति के आनन्द को भी तुच्छ समझते हैं । राज, धन-दौलत और स्त्री-पुत्र प्रभृति सब उस परमात्मा के पीछे हैं; इसलिए इनको छोड़कर उससे ही प्रीति करने में चतुराई है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ब्रह्म अखण्डानन्द पद, सुमिरत क्यों न निशङ्क । </span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जाके छिन-संसर्ग सों, लगत लोकपति रंक ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">पातालमाविशशि यासि नभो विलङ्घ्य</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">दिङ्मण्डलं भ्रमसि मानस चापलेन ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">भ्रान्त्यापि जातु विमलं कथमात्मनीतं </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">तद्ब्रह्म न स्मरसि निर्वृतिमेषि येन ।। ७७ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">हे चित्त ! तू अपनी चञ्चलता के कारण पाताल में प्रवेश करता है, आकाश से भी परे जाता है, दशों दिशाओं में घूमता है; पर भूल से भी तू उस विमल परमब्रह्म की याद नहीं करता, जो तेरे ह्रदय में ही मौजूद है, जिसके याद करने से ही तुझे परमानन्द - मोक्ष - मिल सकती है !</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इस चञ्चल मन की अद्भुत लीला है । यह कभी आकाश में जाता है, कभी पाताल में जाता है और कभी दशों दिशाओं में फिरता है । इधर-उधर तो इतना भटकता है; पर, भूलकर भी, जहाँ जाना चाहिए वहां नहीं जाता । उसके पास ही अमृत का सरोवर है, उसे छोड़कर सदी-गली नालियों में फिरता है । उसे सब जगह छोड़ कर अपने ह्रदय में ही बैठे हुए ब्रह्म के पास जाना चाहिए और हर समय उसकी ही चिन्तना करनी चाहिए; इस से उसके पापों का नाश हो जाएगा, आवागमन से छुटकारा मिल जाएगा एवं परम शान्ति की प्राप्ति होगी । और चिन्ताओं से कोई लाभ नहीं; उन से तो जञ्जालों में ही फंसना होता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">मूर्ख लोग अव्वल तो परमत्मा में दिल ही नहीं लगते । यदि भूल से लगते भी हैं, तो परमात्मा की खोज में जहाँ-तहँ मारे मारे फिरते हैं; पर अपने ह्रदय में ही उसे नहीं खोजते ! यह उनका महा अज्ञान है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> ने कहा है :-</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वह पहलु में बैठे हैं और बदगुमानी ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">लिए फिरती मुझको, कहीं का कहीं है ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">वह(ईश्वर) बगल में ही बैठा है, पर मैं भ्रम में फंसकर उसे ढूंढने के लिए कहाँ कहाँ मारा फिरता हूँ ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा कबीर</b> कहते हैं :-</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ज्यों नयनन में पूतली, त्यों खालिक घट मांहि ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मूरख नर जाने नहीं, बाहर ढूंढन जाहि ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूंढें बन मांहि ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ऐसे घट-घट ब्रह्म है, दुनिया जाने नाहिं ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">समझा तो घर में रहे, परदा पलक लगाय ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तेरा साहिब तुझहि में, अंत कहूँ मत जाय ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा सुन्दरदास जी</b> कहते हैं :-</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कोउक जात प्रयाग बनारस।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कोउ गया जगन्नाथहि धावै ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कोउ मथुरा बदरी हरिद्वार सु ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कोउ गंगा कुरुक्षेत्र नहावै ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कोउक पुष्कर ह्वै पञ्च तीरथ ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दौरिहि दौरि जु द्वारिका आवै ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुन्दर चित्त गह्यौ घरमांहि सु ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बाहिर ढूँढत क्यूंकरि पावै ? ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिस तरह आँखों में पुतली है, उसी तरह घट में (ह्रदय कमल में) पैदा करने वाला है; पर मूर्ख इस बात को नहीं जानता और उसे बहार खोजने जाता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">कस्तूरी हिरन की अपनी नाभि में है, पर मृग उसे बन में खोजता है; उसी तरह ब्रह्म घट-घट में है, पर दुनिया इस भेद को नहीं जानती ।</span><br />
<span style="font-size: large;">अगर समझता है तो घर में रह और पलकों का पर्दा लगा कर देख, तेरा मालिक तेरे ही अंदर है; अन्यत्र जाने की ज़रुरत नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">कोई परमेश्वर की खोज में प्रयाग, काशी, गया, पुरी, मथुरा, कुरुक्षेत्र और पुष्कर जाता है और कोई द्वारका जाता है । सुन्दरदास जी कहते हैं, जो धन घर में गड़ा है, वह बाहर कैसे मिलेगा ?</span><br />
<span style="font-size: large;">सारांश यह है, कि संसार अज्ञानान्धकार के कारण "छोरा बगल में ढिंढोरा शहर में" वाली कहावत चरितार्थ करता है । ईश्वर इसी शरीर के भीतर ह्रदय-कमल में मौजूद है, पर अज्ञानी लोग उसे पाने के लिए तीर्थों में भटकते फिरते हैं । इस तरह वह मिलता भी नहीं और वृथा हैरानी होती है । जो उसके दर्शन करना चाहें, नेत्र बन्द करके अपने ह्रदय में ही उसे देखें ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">कुण्डलिया </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">फांद्यौ ते आकाश को, पठयौ ते पाताल ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दशों दिशाओं में तू फिरयो, ऐसी चञ्चल चाल ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ऐसी चञ्चल चाल, इतै कबहूँ नहीं आयौ ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बुद्धि सदन कों पाय, पाय छिनहूँ न छुवायौ ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">देख्यौ नहीं निज रूप, कूप अमृत को छाँद्यौ ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ऐरे मन मतिमूढ़ ! क्यों न भव-वारिधि फांद्यौ ? ।।</span></div>
</div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">रात्रिः सैव पुनः स एव दिवसो मत्वा बुधा जन्तवो</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">धावन्त्युद्यमिनस्तथैव निभृतप्रारब्धतत्तत्क्रियाः ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">व्यापारैः पुनरुक्तभुक्त विषयैरित्थंविधेनामुना</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">संसारेण कदर्थिता कथमहो मोहान्न लज्जामहे।। ७८ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">प्राणियों में बुद्धिमान यदि जानते हैं कि दिन और रात ठीक पहले की तरह ही होते हैं; तो भी वे उन्हीं काम-धंधों के पीछे दौड़ते हैं, जिनके पीछे वे पहले दौड़ते थे । वे लोग उन्हीं-उन्हीं कामों में लगे रहते हैं, जिनसे क्षणिक और बारम्बार वही लाभ होते हैं, जिनको वे बारम्बार कह और भोग चुके हैं । आश्चर्य का विषय है, कि मनुष्यों को लज्जा नहीं आती !</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">देखते हैं कि पहले की तरह ही दिन, रात, तिथि, वार, नक्षत्र और मॉस तथा वर्ष आते हैं और जाते हैं ; उसी तरह हम कहते-पीते, सोते-जाते और काम-धंधे करते हैं; कोई नई बात नहीं देखते । जिन कामों को पहले करते थे, उन्हें ही बारम्बार करते हैं । उनमें कितना सा लाभ और सुख है, इसे भी देखते-सुनते और समझते हैं । फिर भी; आश्चर्य है कि, हम इस मिथ्या संसार से मोह नहीं तोड़ते !</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">कुण्डलिया </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वेही निशि वेही दिवस; वेही तिथि वेही बार ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वे उद्यम वेही क्रिया, वेही विषय-विकार ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वेही विषय-विकार, सुनत देखत अरु सूंघत ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वेही भोजन भोग, जागि सोवत अरु ऊंघत ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">महा निलज यह जीव; भोग में भयो विदेही ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अजहूँ पलटत नाहिं, कढत गन वे के वेही ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><b>मही रम्या शय्या विपुलमुपधानं भुजलता</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">वितानं चाकाशं व्यजनमनुकूलोऽयमनिलः।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">स्फुरद्दीपश्चन्द्रो विरतिवनितासंगमुदितः </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">सुखं शान्तः शेते मुनिरतनुभूतिर्नृप इव।। ७९ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">मुनि लोग राजा महाराजाओं की तरह सुख से ज़मीन को ही अपनी सुखदायिनी शय्या मान कर सोते हैं । उनकी भुजा ही उनका गुदगुदा तकिया है, आकाश ही उनकी चादर है, अनुकूल वह ही उनका पंखा है, चन्द्रमा ही उनका चिराग है, विरक्ति ही उनकी स्त्री है; अर्थात विरक्ति रुपी स्त्री को लेकर वे उपरोक्त सामानों के साथ राजाओं की तरह सुख से आराम करते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मुनि लोगों के पास न राजाओं की तरह महल हैं, न बढ़िया-बढ़िया पलंग और मखमली गद्दे-तकिये हैं, न ओढ़ने के लिए शाल-दुशाले हैं, बिजली के पंखे हैं, न झाड़-फानूस या बिजली की रौशनी है और न मृगनयनी, मोहिनी कामिनी ही हैं; तो भी वे ज़मीन को ही अपना पलंग, हाथ को ही तकिया, शीतल वह को ही पंखा, चन्द्रमा को ही दीपक और संसारी विषय-भोगों से विरक्ति को ही अपनी स्त्री मान कर सुख से सोते हैं । राजा-महाराजा और अमीर-उमरा बढ़िया-बढ़िया पलंग, कन्दहारी कालीन, मखमली गद्दे-तकिये, बिजली के पंखे और रौशनी तथा सुंदरी स्त्रियों के साथ जो मिथ्या सुख उपभोग करते हैं, उससे लाख दर्जे उत्तम और सच्चा सुख मुनि लोग ज़मीर और अपनी भुजा, अनुकूल वह, चन्द्रमा तथा अपनी विरक्ति रूपिणी स्त्री के साथ उपभोग करते हैं । अब बुद्धिमानो को विचार करना चाहिए, कि उन दोनों में बुद्धिमान कौन है और वास्तविक सुख किसे मिलता है । अमीरों के सुख के लिए कितने झंझट करने पड़ते हैं और कितनी आफतें उठानी पड़ती हैं; तथापि उन्हें सच्चा सुख नहीं मिलता और मुनि लोग बिना झंझट, बिना आफत और बिना प्रयास के सच्चा सुख भोगते और शान्ति की नींद सोते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पृथ्वी परम पुनीत, पलंग ताकौ मन मान्यौ ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तकिया अपनो हाथ, गगन को तम्बू तान्यौ ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सोहत चन्द चिराग, बीजना करात दशोंदिशि ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बनिता अपनी वृत्ति, संगहि रहत दिवस-निशि ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अतुल अपार सम्पति सहित, सोहत है सुख में मगन ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मुनिराज महानृपराज ज्यों, पौढ़े देखे हम दृगन ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">त्रैलोक्याधिपतित्वमेव विरसं यस्मिन्महाशासने</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">तल्लब्ध्वासनवस्त्रमानघटने भोगे रतिं मा कृथाः।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">भोगः कोऽपि स एक एव परमो नित्योदितो जृम्भते</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">यत्स्वादाद्विरसा भवन्ति विषयास्त्रैलोक्यराज्यादयः।। ८० ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">हे आत्मा ! अगर तुझे उस ब्रह्म का ज्ञान हो गया है, जिसके सामने तीनो लोक का राज्य तुच्छ मालूम होता है; तो तू भोजन, वस्त्र और मान के लिए भोगों की चाहना मत कर; क्योंकि वह भोग सर्वश्रेष्ठ और नित्य है; उसके मुकाबले में त्रिलोकी के राज्य प्रभृति सुख कुछ भी नहीं हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जब तक मनुष्य को ब्रह्म ज्ञान नहीं होता, जब तक उसे आत्मज्ञान नहीं होता, जब तक उसे सुख का स्वाद नहीं मिलता, तभी तक मनुष्य संसारी-विषय-भोगों में सुख समझता है । जब मनुष्य को उस सर्वोत्तम - सदा स्थिर रहनेवाले सुख का स्वाद मिल जाता है, तब वह संसारी आनन्द या दुनियावी मज़े तो क्या - त्रिभुवन के राजसुख को भी कोई चीज़ नहीं समझता । मतलब यह है कि सच्चा और वास्तविक सुख ब्रह्मज्ञान या आत्मज्ञान में है । उसके बराबर आनन्द त्रिलोकी के और किसी पदार्थ में नहीं है । जो संसारी पदार्थों में सुख मानते हैं वे अज्ञानी और नासमझ हैं । उनमें अच्छे और बुरे, असल और नक़ल के पहचानने की तमीज नहीं । वे रस्सी को सांप और मृगमरीचिका को जल समझने वालों की तरह भ्रम में डूबे या बहके हुए हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">सोरठा </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कहा विषय को भोग, परम भोग इक और है ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जाके होत संयोग, नीरस लागत इन्द्रपद ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रैर्महाविस्तरैः</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">स्वर्गग्रामकुटिनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">मुक्तवैकं भवबन्धदुःखरचनाविध्वंसकालानलं </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषा वणिग्वृत्तयः।। ८१ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">वेद, स्मृति, पुराण और बड़े बड़े शास्त्रों के पढ़ने तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड करने से स्वर्ग में एक कुटिया की जगह प्राप्त करने के सिवा और क्या लाभ है ? ब्रह्मानन्द रुपी गढ़ी में प्रवेश करने की चेष्टा के सिवा, जो संसार बन्धनों के काटने में प्रलयाग्नि के समान है, और सब काम व्यापारियों के से काम हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">वेद, स्मृति, पुराण और बड़े-बड़े शास्त्रों के पढ़ने-सुनने और उनके अनुसार कर्म करने से मनुष्य को कोई बड़ा लाभ नहीं है । अगर ये कर्मकाण्ड ठीक तरह से पार पड़ जाते हैं, तो इनसे इतना ही होता है, कि स्वर्ग में एक कुटी के लायक स्थान मिल जाता है, पर वह स्थान भी सदा कब्ज़े में नहीं रहता; जिस दिन पुण्यकर्मों का ओर आ जाता है, उस दिन वह स्वर्गीय स्थान फिर छिन जाता है; इससे प्राणी को फिर दुःख होता है । मतलब यह हुआ कि कर्मकाण्डों से जो सुख मिलता है, वह सुख नित्य या सदा-सर्वदा रहनेवाला नहीं । उस सुख के अन्त में फिर दुःख होता है - फिर स्वर्ग छोड़ कर मृत्युलोक में जन्म लेना पड़ता है - वही जन्म-मरण के दुःख झेलने पड़ते हैं । इसलिए मनुष्यों को ब्रह्मज्ञानी होने कि चेष्टा करनी चाहिए; क्योंकि ब्रह्मज्ञान रुपी अग्नि प्रलयाग्नि के समान है । वह अग्नि संसार बन्धनों को जड़ से जला देती है; अतः फिर सदा सुख रहता है - दुःख का नाम भी सुनने को नहीं मिलता । इसलिए ज्ञानियों ने ब्रह्मज्ञान - आत्मज्ञान को सर्वोपरि सुख दिलानेवाला माना है । मतलब यह है कि बिना ब्रह्मज्ञान या रामभक्ति के सब जप-तप आती वृथा हैं । सारे वेद-शास्त्रों और पुराणों का यही निचोड़ है कि ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्मरूप है । जो इस तत्व को जानता है वही सच्चा पण्डित है । जो ब्रह्म या आत्मा को नहीं जानता, वह अज्ञानी और मूर्ख है । उसका पड़ना लिखना वृथा समय नष्ट करना है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>तुलसीदास जी</b> ने कहा है :-</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चतुराई चूल्हे परौ, यम गहि ज्ञानहि खाय ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तुलसी प्रेम न रामपद, सब जरमूल नशाय ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महादेवजी पार्वती</b> से कहते हैं :-</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये नराधम लोकेषु, रामभक्ति पराङ्गमुखाः।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जपं तपं दयाशौचं, शास्त्राणां अवगाहनं।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सर्व वृथा विना येन, श्रुणुत्वं पार्वति प्रिये ! ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">हे प्रिये ! जो नराधम इस लोक में राम की भक्ति से विमुख हैं, उनके जप, तप, दया, शौच, शास्त्रों का पठन-पाठन - ये सब वृथा हैं । असल तत्व भगवान् की निष्काम भक्ति या ब्रह्म में लीन होना है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">श्रुति अरु स्मृति, पुरान पढ़े बिस्तार सहित जिन ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">साधे सब शुभकर्म, स्वर्ग को बात लह्यौ तिन ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">करत तहाँ हूँ चाल, काल को ख्याल भयंकर ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ब्रह्मा और सुरेश, सबन को जन्म मरण डर ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये वणिकवृत्ति देखी सकल, अन्त नहीं कछु काम की ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अद्वैत ब्रह्म को ज्ञान, यह एक ठौर आराम की ।।</span></div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">आयुः कल्लोललोलम् कतिपयदिवसस्थायिनी यौवन श्री-</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">रर्थाः संकल्पकल्पा घनसमयतडिद्विभ्रमा भोगपूराः।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">कण्ठाश्लेषोपगूढं तदपि च न चिरं यत्प्रियाभिः प्रणीतं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">ब्रह्मण्यासक्तचित्ता भवत भवभयाम्भोधिपारं तरीतुम्।। ८२ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">आयु - उम्र पानी की लहरों के समान चञ्चल है, जवानी थोड़े दिनों की है, धन मन के संकल्पों से भी कम देर ठहरनेवाला है, भोग वर्षाकाल में चमकनेवाली बिजली की चमक से भी अधिक चञ्चल हैं, प्यारी स्त्री का गले से लगाना भी चिरस्थायी नहीं है। इसलिए मनुष्यों ! भवसागर से पार होने के लिए ब्रह्म में लीन होओ ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">आयु की चंचलता</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-----------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">प्राणी की आयु का कोई ठिकाना नहीं । यह जल की तरंगों के समान चञ्चल और पानी के बुलबुले के समान क्षणस्थायी है । यह अभी है और अगले क्षण न रहे । जो सांस बाहर जाता है, वह वापस आवे और न आवे । इधर प्राणी जन्म लेता है और उधर मौत उसके पीछे लग जाती है । ऐसे क्षणभंगुर जीवन पर क्या ख़ुशी मनाई जाए ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">"<b>मोहमुद्गर</b>" में कहा है :</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नलिनीदलगतजलमतितरलं, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम् ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विद्धि व्याधिव्यालग्रस्तं, लोकं शोकहतञ्च समस्तम् ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">पद्मपत्र पर पड़ा हुआ जल अतीव चञ्चल होता है, मनुष्य का जीवन भी उसी तरह अतीव चञ्चल है। यह सारा संसार रोग-रुपी सर्पों से ग्रसित हो रहा है । इसमें दुःख ही दुःख है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">जवानी</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">जिस तरह मनुष्य की आयु पानी के लहरों के समान चञ्चल और सदा सर्वदा रहने वाली नहीं है; उसी तरह जवानी भी अल्परोज़ा या अल्पकालस्थायी है । सदा कोई जवान नहीं रहा । अवस्थाएं बदलती ही रहती हैं । बचपन के बाद जवानी और जवानी के बाद बुढ़ापा आता है और अवश्य आता है । चार दिन की चांदनी फिर अँधेरी रात वाली बात है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">किसी ने कहा है :</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सदा न फूलै तोरई, सदा न सावन होय ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सदा न जीवन थिर रहे, सदा न जीवे कोय ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">और भी कहा है :</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">रहती है कब, बहारे जवानी तमाम उम्र ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मानिन्द बूये गुल, इधर आयी उधर गयी ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यौवन अवस्था की बहार उम्र भर थोड़े ही रहती है । यह तो फूल की सुगंध की तरह इधर आयी, उधर गयी ।</span><br />
<span style="font-size: large;">जो आज जवानी के नशे में मतवाले हो रहे हैं, जो मल-मल कर और साबुन लगा-लगा कर अपनी मिटटी की काया को धोते और उसे चन्दन-कपूर एवं इत्र-फुलेलों से सुगन्धित करते एवं भाँति-भाँति के गहने पहने रहते हैं, स्त्रियां जो अपनी दोनों छातियों को ऊँची उठा कर चलती हैं और पुरुष जो मूंछो पर बल और ताव देते हैं, वे होश करें और मन में निश्चय समझ लें, कि उनका यह शरीर सदा उनके साथ न रहेगा, एक दिन यहाँ का यहाँ ही पड़ा रह जाएगा और मिटटी में मिल जाएगा । काय के नाश होने से पहले ही वृद्धावस्था, युवावस्था को निगल जाएगी । जो दांत आज मोतियों कि तरह चमकते हैं वे कल हिल-हिल कर अपना दम नाक में कर देंगे और एक-एक करके आपका साथ छोड़ देंगे । उस समय आपका मुख पोपला और भद्दा हो जाएगा । जिन बालों को आप रोज़ धोते और साफ़ रखते हैं तथा जिनकी सजावट आप तरह-तरह से करते हैं, वे एक दिन सफ़ेद या सन की तरह हो जाएंगे । ये फूले हुए गाल पिचक जाएंगे । आँखों में यह रसीलापन न रहेगा । इनमें पीलापन और धुन्ध छा जायेगा । आज की सी अकड़-तकड़ न रहगे, लाठी के सहारे चलेंगे और वह भी कांपने लगेगी । जो लोग आज आपको देखकर खुश होते हैं, आपका आदर करते हैं, वे ही आपका अनादर करेंगे, आपकी बात भी न पूछेंगे, यह तो आपकी काया और जवानी का हाल है, अब अपनी धन-दौलत की चञ्चलता की बातें भी सुनिए ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">लक्ष्मी चञ्चल है</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">लक्ष्मी को चञ्चला और चपला भी कहते हैं । लक्ष्मी ठीक उस चपला की तरह है, क्षण में चमकती और क्षणभर में ही बादलों में बिलाय जाती है । अनेकों ने इस धन को मन के विचारों की तरह क्षणस्थायी और बेजड़ कहा है । यह धन किसी के पास सदा नहीं रहा । तीन पीढ़ी से अधिक तो एक परिवार में धन रहते किसी ने देखा ही नहीं । आज जो धनी है, कल वही निर्धन हो जाता है । आज जो हज़ारों को भोजन देता है, कल वही अपने भोजन के लिए औरों के द्वार पर भटकता फिरता है । आज जो राजा है, कल वही रंक हो जाता है । आज जो बिना मोटर और जोड़ी के एक कदम नहीं चल सकता, कल वही पैदल दौड़ता फिरता है । आज जिसकी आज्ञा के पालन के लिए हज़ारों दास-दासी खड़े रहते हैं, कल वही दूसरों की आज्ञा के पालन के लिए खड़ा देखा जाता है । सारांश यह कि, धन-वैभव सदा न तो किसी के पास रहा है और न रहेगा । इसलिए धन को भी चञ्चल कहा है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">निति में लिखा है :</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">यौवनं जीवितं चित्तं छायालक्ष्मीश्च स्वामिता ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चञ्चलानि षडेतानि ज्ञात्वा धर्मरतो भवेत् ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यौवन, जीवन, मन, शरीर कि छाया, धन और स्वामिता - ये छहों चञ्चल हैं, यानी स्थिर होकर नहीं रहते । मूर्ख हैं वे जो इस झूठे और सदा न रहने वाले धन पर फूलते और घमण्ड करते हैं । वह समझते हैं कि यह हमारे पास सदा रहेगा; पर यह उनकी भारी भूल है फ। धन को सदा बिजली की चमक और बादल की छाया की तरह क्षणस्थायी और चञ्चल समझकर अभिमान न करना चाहिए ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">"<b>मोहमुद्गर</b>" में कहा है :</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मा कुरु धनजन यौवन गर्वं, हरति निमेषात् कालः सर्वं ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मायामयमिदमखिलं हित्वा, ब्रह्मपद प्रविशाशु विदित्वा।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इस धन-यौवन का गर्व न कर, काल इसको पालक मारते हर लेता है । इस मायामय संसार को त्यागकर, शीघ्र ही ब्रह्मपद में प्रविष्ट हो ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">स्त्री का आलिङ्गन भी चिरस्थायी नहीं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">------------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">जिस तरह आयु, धन और यौवन चञ्चल है; उसी तरह नारी भी चञ्चल है । आज जो अपनी है, कल उसे परायी होते देर नहीं लगती । आज जो रमणीयों के आनन्द करते हैं कल वे ही उनके वियोग में तड़पते देखे जाते हैं । कहते हैं की स्त्री करवट बदलते परायी हो जाती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">कहा है :</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">शास्त्रं सुचिन्तितमथो परिचिन्तनीयं।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">आराधितोऽपि नृपतिः परिशंकनीयः।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अंकेस्थितापि युवतिः परिरक्षणीयः।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">शास्त्री नृपे च युवतौ च कुतो वशित्वं ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">खूब याद किये हुए शास्त्रों की भी बार-बार फेरना चाहिए, खूब सेवा किये हुए राजा से भी डरना चाहिए, गोद में पड़ी स्त्री की भी सावधानी से रक्षा करनी चाहिए; क्योंकि शास्त्र, राजा और युवती इनका विश्वास नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">"स्त्रीणां विश्वासो नैव कर्तव्यः"</span><br />
<span style="font-size: large;">स्त्रियों का विश्वास नहीं करना चाहिए, ऐसे-ऐसे वाक्य जगह जगह मिलते हैं । महाराजा भर्तृहरि को ही लीजिये । महाराज में क्या त्रुटि थी ? क्या उनमें बलवीर्य, रूप, विद्या, चातुरी प्रभृति किसी भी गन की कमी थी ? क्या उनके यहाँ सुख-भोगों के सामानों की कमी थी ? नहीं, कुछ भी नहीं । सब कुछ था; पर पिंगला ने महाराजा को छोड़, घोड़ों के दरोगा से दिल लगाया । फिर,। स्त्रियों की प्रीती को सदा दिल लगाने वाली कैसे कह सकते हैं ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">एक स्त्री की दग़ाबाज़ी</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">----------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">एक साहूकार ने अपने लड़के को नाराज़ होकर घर से निकाल दिया । चलते समय उसने अपनी स्त्री से कहा - "तुझे मैं तेरे पीहर पहुंचाता जाऊँ, क्योंकि वन में बड़े कष्ट हैं और अभी रोज़गार का ठिकाना नहीं। ईश्वर जाने क्या क्या कष्ट उठाने होंगे ।" स्त्री ने कहा - "स्वामिन मैं आपके बिना क्षणभर भी नहीं रह सकती । आपके वियोग के मुकाबले में राह-बाट और वन के कष्ट तुच्छ हैं । मैं आपके साथ चलूंगी और आपकी पदसेवा कर अपने तई धन्य समझूंगी ।" साहूकार के लड़के के बहुत समझाने पर भी जब स्त्री न मानी, तो उसने उसे अपने साथ ले लिया ।</span><br />
<span style="font-size: large;">वे दोनों स्त्री पुरुष घर से कुछ द्रव्य लेकर चल पड़े । रोज़ मंज़िलों पर मंज़िलें तय करते हुए एक दिन दोनों दोपहर के समय एक फकीर के तकिये पर पहुंचे । वहाँ वृक्षों की सघन छाया थी, सामने ही थोड़े फ़ासिले पर एक कुंआ था । साहूकार का लड़का लोटा-डोर ले जल लाने गया और स्त्री वहीँ बैठी रही । फ़क़ीर ने देखा कि स्त्री तो परमा सुन्दरी और नवयौवना है; अतः उससे कहा - "तू मेरे साथ रहे, तो दुनिया के मज़े देखे । जा उसे कुँए में धकेल कर आ फिर हम दोनों पास के शहर में चल रहेंगे ।" साहूकार की स्त्री जो पति के लिए प्राण देती थी, जो पति के कहने पर भी पीहर न गयी थी, क्षण भर में पराई हो गयी । फकीर की बातों में आकर वह कुँए पर गयी । ज्यों ही उसका पति लोटा खींचने को झुका, उसने धक्का देकर उसे कुँए में गिरा दिया । उसे ज़रा सी दया भी न आयी । पीछे आकर वह फ़क़ीर के साथ होली । फ़क़ीर उसे नगर में ले आया और उसके धन से मौज करने लगा । साथ ही गाने बजाने वाले उस्तादों को बुलाकर, उसे गाने-बजाने की तालीम दिलाने लगा । उसकी चढ़ती जवानी थी, रूप-लावण्य था; अतः गाने में भी वह पक्की हो गयी । सारे शहर में उसके नाचने गाने की शोहरत हो गयी ।</span><br />
<span style="font-size: large;">उधर वह लड़का कुँए में पड़ा हुआ अपनी किस्मत पर रोता था । कहीं से एक बंजारा आया । उसके साथ सौ दो सौ आदमी और बालध थे । वहीँ पड़ाव पड़ा । लोग रोटी बनाने का उद्योग करने लगे । कोई कुँए पर पानी भरने गया । ज्योंही उसने डोल फांसा, कि साहूकार के लड़के ने डोल पकड़ लिया । लोगों ने पूछा - "तू कौन है ?" उत्तर दिया - "मैं आफत का मारा मनुष्य हूँ । कृपा कर मुझे निकाल लो ।" लोगों ने मिलकर उसे बाहर खींच लिया । देखा तो वह पीला पड़ गया था । बंजारे ने उसकी चिकित्सा कराकर उसे गरम कपड़ों में सुला दिया । चन्दरोज में वह बंजारा भी उसी नगर में पहुंचा । साहूकार का लड़का रोज़गार की तलाश में घूमता रहा । ईश्वर की कृपा से एक बड़े सेठ ने उसे अपने यहाँ रख लिया । लड़का बड़ा ही चलता पुर्ज़ा निकला, इसलिए सेठ ने उसे अपना प्रधान मुनीम बना लिया ।</span><br />
<span style="font-size: large;">उन्ही दिनों उस वेश्या की बड़ी तारीफ सुन, राजा ने अपने यहाँ उसे नाच का हुक्म दिया । महफ़िल सजाई गयी, चारों ओर नगर के सेठ-साहूकार, रईस-अमीर बैठे । राजा सिंहासन पर बैठा । वेश्या नाचने लगी, उसे नाच-गान पर महफ़िल की महफ़िल मुग्ध हो गयी । इतने में उस वेश्या की नज़र उस साहूकार के लड़के या अपने पति पर पड़ गयी । राजा ने प्रसन्न होकर कहा, " बीबी ! तुम मांगो, वही इनाम मिलेगा ।" वेश्या ने कहा - "महाराज ! यदि आप मुझे इनाम देने का वचन देते हैं, तो यह वचन दीजिये की जो मांगू वही मिले।" राजा वचनबद्ध हो गया था, तब वेश्या ने कहा - "राजन ! वह सामने बैठा हुआ पुरुष मेरा चोर है, उसे मरवा दीजिये ।" जब राजा ने उसके मारे जाने की आज्ञा दे दी, तब साहूकार के लड़के ने कहा - "इसके पास मेरी कुछ धरोहर है, इससे कहिये कि हाथ जल में ले मुझे उसे संकल्प कर के दे दे ।" वेश्या ने कहा - "मुए ! तेरा मुझे क्या देना है ? खैर ले; मैं जल लेकर संकल्प करके कहती हूँ, कि जो कुछ तेरा मेरे पास हो तू ले ।" वेश्या के संकल्प छोड़ते ही वह ज़मीन पर गिर पड़ी और मर गयी । राजा को बड़ा विस्मय हुआ । उसने उस लड़के से इस घटना का असली तत्व पूछा । लड़के ने कहा - "राजन ! यह मेरी ब्याहता स्त्री है । मैं और यह घर से निकल आये । राह में इसे सांप ने काट और यह मर गयी, मैं भी इसी के साथ जलने को तैयार हुआ । इतने में महादेव-पार्वती उधर आ निकले । पहले तो उन्होंने कहा - "अरे पागल ! स्त्री के लिए जान देता है ! तू है तो और बहुत स्त्रियां मिल जाएंगी । पर मैं उनकी बात पर राज़ी न हुआ, तब उन्होंने कहा - "तू हाथ में जल लेकर अपनी आधी आयु इसे दे तो यह जी सकती है । फिर भी, जब कभी तू अपनी शेष बची आयु इससे मांगेगा और यह संकल्प छोड़ देगी, तब यह मर जायेगी । महाराज मुझे यह प्राणो से भी प्यारी थी; अतः मैंने अपनी आधी आयु इसे दे दी । इसके बाद मुझे यह कुँए में धकेल फ़क़ीर के साथ चली आयी और वेश्या हो गयी । आज यह मुझे जान से मरवाने पर ही तुल गयी । स्त्री जाति कि प्रीती का ज़रा भी विश्वास नहीं ।" राजा उससे बहुत प्रसन्न हुआ और उसे अपना प्रधान मंत्री बना लिया ।</span><br />
<span style="font-size: large;">इस कहानी से हमने स्त्रियों की प्रीति का नमूना दिखाया है । निश्चय ही, सभी स्त्रियां ऐसी नहीं होती; पर इसमें शक नहीं कि अधिकाँश ऐसी ही होती हैं; अतः स्त्री की प्रीति का आनन्द सदा नहीं मिल सकता । मान लो, स्त्री पतिव्रता भी हो, तो सम्भव है कि वह पहले ही मर जाए । इस तरह भी वियोग हो सकता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">सारांश यह कि आयु, यौवन, धन और नारी - ये सभी चञ्चल, अनित्य और क्षणभंगुर हैं । इसीलिए परिणाम में दुखों के भण्डार हैं । अतएव, बुद्धिमानों को चाहिए कि ब्रह्म में चित्त लगाएं, रात-दिन उसी का ध्यान - उसी का चिन्तन करें । उससे वे भवसागर के पार हो जाएंगे । उन्हें बारम्बार जन्म-मरण का कष्ट न होगा - नित्य-स्थायी सुख मिलेगा । स्त्री, पुत्र, धन प्रभृति में मन लगाने से सदा दुःख-सागर में गोते लगाने पड़ते हैं । मर कर फिर जन्म लेना पड़ता है और फिर मरना पड़ता है । अब बुद्धिमान ही विचार करें, कि दोनों में कौन सा मार्ग सुखदायी है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-----------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जल की तरल तरंग जात, ज्यों जात आयु यह।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">यौवन हूँ दिन चार, चटक की चोंप चाह चह।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ज्यों दामिनी प्रकाश, भोग सब जानहु तैसे ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तैसे ही यह देह अथिर, थिर ह्वै है कैसे ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुनि ऐरे मेरे चित्त तू, होही ब्रह्म में लीन गति ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">संसार अपार समुद्र तर, करि नौका निज ज्ञान रति ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><b>ब्रह्माण्डमण्डलीमात्रं किं लोभाय मनस्विनः ।</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">शफरीस्फुरितेनाब्धेः क्षुब्धता जातु जायते ।। ८३ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">जो विचारवान है, जो ब्रह्मज्ञानी है, उसे संसार लुभा नहीं सकता । मछली के उछालने से समुद्र उड़ नहीं उमड़ता ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिस तरह सफरी मछली के उछाल-कूद मचाने से समुद्र अपनी गंभीरता को नहीं छोड़ता, ज़रा भी नहीं उमगता, जैसा का तैसा बना रहता है; उसी तरह विचारवान ब्रह्मज्ञानी संसारी-पदार्थों पर लट्टू नहीं होता वह समुद्र की तरह गंभीर ही बना रहता है; अपनी गंभीरता नहीं छोड़ता । समुद्र जिस तरह मछली की उछल-कूद को कुछ नहीं समझता उसी तरह वह त्रिलोकी की सुख-संपत्ति को तुच्छ समझता है । मतलब यह है कि संसारी विषय-भोग उन्ही को लुभाते हैं, जो विचारवान नहीं हैं, जिनमें विचार शक्ति नहीं है, जिन्हे ब्रह्मज्ञान का आनन्द नहीं मालूम है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दुनिया है वह सय्यद कि सब दाम में इसके।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">आ जाते हैं लेकिन कोई दाना नहीं आता ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">दुनिया एक ऐसा जाल है, जिसमें प्रायः सभी फंसे हुए हैं । कोई दाना अर्थात विचारशील पुरुष ही इस जाल से बचा हुआ है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">संसार अन्तः सार-शून्य है, इसमें कुछ नहीं है । यह ठीक आंवले के समान है, जो ऊपर से खूब सुन्दर और चिकना-चुपड़ा दीखता है; मगर भीतर कुछ नहीं । किसी ने संसार को स्वप्नवत और किसी ने इसे कोरा ख्याल ही कहा है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महाकवि ग़ालिब</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हस्ती के मत फरेब में आ जाइयो असद ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">आलम तमाम हलक़ ये दाम ख़्याल है ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">ग़ालिब सृष्टि के चक्कर में मत आ जाना । यह सब प्रपंच तुम्हारे ख़्याल के सिवा और कोई चीज़ नहीं है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">इसके जाल में समझदार नहीं फंसते किन्तु नासमझ लोग, जाल के किनारों पर लगी सीपियों की चमक-दमक देखकर जाल में आ फंसने वाली मछलियों की तरह इसके माया-मोह में फंसकर अनेक प्रकार के कष्ट उठाते हैं; किन्तु ज्ञानी इसकी अनित्यता, इसकी असारता को देखकर इससे किनारा कर लेते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ज्यों सफरी को फिरत लख, सागर करत न क्षोभ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अण्डा से ब्रह्माण्ड को, त्यों सन्तन को लोभ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">यदासीदज्ञानं स्मरितिमिरसंस्कारजनितं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">तदा दृष्टं नारिमयभिदमशेषं जगदपि ।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">इदानीमस्माकं पटुतर विवेकाञ्जनजुषां</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">समीभूता दृष्टीस्त्रिभुवनमपि ब्रह्म तनुते ।। ८४ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">जब तक हमें कामदेव से पैदा हुआ अज्ञान-अन्धकार था, तब तक हमें सारा जगत स्त्रीरूप ही दीखता था । अब हमने विवेकरूपी अञ्जन आँज लिया है, इससे हमारी दृष्टी समान हो गयी है । अब हमें तीनो भुवन ब्रह्मरूप दिखाई देते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जब हम काम-मद से अन्धे हो रहे थे, जब हमें अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं था, तब हमें स्त्री ही स्त्री दिखाई देती थी, बिना स्त्री हमें क्षणभर भी कल नहीं थी; किन्तु अब हममें विवेक-बुद्धि आ गयी है, अब हम अच्छे-बुरे को समझने लगे हैं, इसलिए अब हमें सारा संसार एक सा मालूम होता है । अब हमें कहीं स्त्री नहीं दीखती, सभी तो एक से दीखते हैं । जहाँ नज़र दौड़ाते हैं, वहीँ ब्रह्म ही ब्रह्म नज़र आता है । मतलब यह कि न कोई स्त्री है न कोई पुरुष, सभी तो एकही हैं; केवल छोले का भेद है । आत्मा न स्त्री है न पुरुष; वह सबमें समान है । मगर अज्ञानियों को यह बात नहीं दीखती । उन्हें और का और दीखता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>श्वेताश्वतरोपनिषद </b>में लिखा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">यद्यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स युज्यते ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यह आत्मा न स्त्री है न पुरुष और न नपुंसक । यह जिस शरीर को धारण करता है, उसी-उसी के साथ जुड़ जाता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">जब मनुष्य को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं, जो मैं हूँ वही स्त्री है - स्त्री ने और तरह का कपडा पहन रखा है और मैंने और तरह का - तब उसका मन स्त्री पर नहीं भूलता । अपने ही स्वरुप को और समझकर उससे मैथुन करने की इच्छा नहीं होती । ज्ञानी को संसार में शत्रु, मित्र, स्त्री-पुत्र, स्वामी-सेवक नहीं दीखते । वह स्त्री-पुत्र और शत्रु-मित्र सबको समान समझता है; किसी से राग और किसी से द्वेष नहीं रखता । उसे कुत्ते में, आदमी में तथा प्राणी मात्र में ही एक विष्णु दीखता है । यह अवस्था परमपद की अवस्था है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>स्वामी शंकराचार्य जी</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ </span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भव समचित्तः सर्वत्र त्वम् </span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वाञ्छस्यचिराद् यदि विष्णुत्वम् ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">शत्रु, मित्र और पुत्र-बांधवों में, विरोध या मेल के लिए चेष्टा न कर । यदि शीघ्र ही मोक्ष पद चाहता है तो शत्रु-मित्र और पुत्र-कलत्र प्रभृति को एक नज़र से देख । सबको अपना समझ, किसी को गैर न समझ; समान चित्त हो जाय । जैसा ही पुरुष वैसी ही स्त्री, जैसा बेटा वैसा दुश्मन और जैसा धन वैसी मिटटी ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">कहानी - एक सच्चा महात्मा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">एक साधु सदा ज्ञानोन्मत्त अवस्था में रहता था । वह कभी किसी से फालतू बातचीत नहीं करता था । एक रोज़ एक गाँव में भिक्षा मांगने गया । एक घर से उसे जो रोटी मिली, वह उसे आप खाने लगा और साथ में कुत्ते को भी खिलने लगा । यह देख वहां अनेक लोग इकट्ठे हो गए और उनमें से कोई-कोई उसे पगला कह कर उसकी हंसी करने लगे । यह देख महात्मा ने उनसे कहा - "तुम क्यों हँसते हो?"</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विष्णुः परिस्थितो विष्णुः </span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विष्णुः खादति विष्णवे ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कथं हससि रे विष्णो ?</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सर्वं विष्णुमयं जगत् ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">विष्णु के पास विष्णु है । विष्णु, विष्णु को खिलता है । अरे विष्णु, तू क्यों हँसता है ? सारा जगत विष्णुमय है; यानी सारा संसार उस पूर्णतम विष्णु से व्याप्त है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">सच्चे और पहुंचे हुए साधू-फ़क़ीर सारे संसार में एक परमात्मा को देखते हैं । उन्हें दूसरा कोई नज़र नहीं आता । अज्ञानी लोग, जिनके ज्ञान-चक्षु बन्द हैं, जगत में किसी को अपना और किसी को पराया समझते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">किसी ने क्या अच्छा उपदेश दिया है ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयताम् ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्व्यापितं दृश्यतां ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">प्राक्कर्म प्रविलोप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरे श्लिष्यतां ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम् ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">एकान्त-निर्जन स्थान में सुख से बैठना चाहिए । परब्रह्म परमात्मा में मन लगाना चाहिए । पूर्णात्मा पूर्णब्रह्म से साक्षात् करना चाहिए और इस जगत को पूर्णब्रह्म से व्याप्त समझना चाहिए । पूर्वजन्म के कर्मो का लोप करना चाहिए और ज्ञान के प्रभाव से अब के किये कर्मों के फल त्याग देने चाहिए; यानी निष्काम कर्म करने चाहिए; जिससे कर्मबन्धन में बंधकर फिर जन्म न लेना पड़े । इस संसार में प्रारब्ध या पूर्व जन्म के कर्मो को भोगना चाहिए और इसके बाद परमेश्वररूप से इस जगत में ठहरना चाहिए; यानि अपने में और परमात्मा में भेद न समझना चाहिए ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">काम-अन्ध जबही भयौ, तिय देखी सब ठौर ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अब विवेक-अञ्जन किये, लख्यौ अलख सिरमौर ।।</span></div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">रम्याश्चन्द्रमरिचयस्तृणवती रम्या वनान्तस्थळी</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">रम्यः साधुसमागमः शमसुखं काव्येषु रम्याः कथाः ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">कोपोपहितवाष्पबिन्दुतरलं रम्यं प्रियाया मुखं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">सर्वंरम्यमनित्यतामुपगते चित्तेनकिञ्चित्पुनः ।। ८५ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ: </b></span><br />
<span style="font-size: large;">चन्द्रमा की किरणे, हरी-हरी घास के तख्ते, मित्रों का समागम, शृङ्गार रस की कवितायेँ, क्रोधाश्रुओं से चञ्चल प्यारी का मुख - पहले ये सब हमारे मन को मोहित करते थे; किन्तु जब से संसार की अनित्यता हमारी समझ में आयी, तब से ये सब हमें अच्छे नहीं लगते ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जब तक मनुष्य को संसार की असारता, उसकी अनित्यता, उसका थोथापन, उसकी पोल नहीं मालूम होती, तभी तक मनुष्य संसार और संसार के झगड़ों में फंसा रहता है और विषय भोगों को अच्छा समझता है; किन्तु संसार की असलियत मालूम होते ही, उसे विषय सुखों से घृणा हो जाती है । उस समय न उसे चन्द्रमा की शीतल चांदनी प्यारी लगती है, न मित्रमण्डली अच्छी मालूम होती है, न शृङ्गार रस की कवितायेँ अच्छी मालूम होती हैं और न उसका चित्त, चंद्रवदनि कामिनियों को ही देखकर मचलता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चन्द चाँदनी रम्य, रम्य बनभूमि पहुपयुत ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">योंही अति रमणीक, मित्र मिळवो है अद्भुत ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बनिता के मृदु बोल, महारमणीक विराजत ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मानिनमुख रमणीक, दृगन अँसुअन जल साजत ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ए हे परमरमणीक सब, सब कोउ चित्त में चहत ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">इनको विनाश जब देखिये, तब इनमें कछुहु न रहत ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><b>भिक्षाशी जनमध्यसंगरहितः स्वायत्तचेष्टः सदा</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">दानादानविरक्तमार्गनिरतः कश्चित्तपस्वी स्थितः।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">रथ्याक्षीणविशीर्णजीर्णवसनैः सम्प्राप्तकंथासखि-</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">र्निमानो निरहंकृतिः शमसुखाभोगैकबद्धस्पृहः।। ८६ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">ऐसा तपस्वी को विरला ही होता है, जो भीख मांगकर खाता है, जो अपने लोगों में रहकर भी उनमें मोह नहीं रखता, जो स्वाधीनतापूर्वक अपना जीवन निर्वाह करता है, जिसने लेने और देने का व्यवहार छोड़ दिया है, जो राह में पड़े हुए चीथड़ों की गुदड़ी ओढ़ता है, जिसे मान का ख्याल नहीं है, जिसमें अभिमान नहीं है और जो ब्रह्मज्ञान के सुख को ही सुख मानता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">ज्ञानी के लक्षण <b>सुन्दरदास </b>जी ने इस भांति कहे हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कर्म न विकर्म करे, भाव न अभाव धरे।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">शुभ न अशुभ परे, यातें निधरक है।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वस तीन शून्य जाके, पापहु न पुण्य ताके।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अधिक न न्यून वाके, स्वर्ग न नरक है।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुख दुःख सम दोउ, नीचहूँ न उंच कोउ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ऐसी विधि रहै सोउ, मिल्यो न फरक है।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">एकही न दोय जाने, बंद मोक्ष भ्रम मानै।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुन्दर कहत, ज्ञानी ज्ञान में गरक है।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जो भीख मांगकर पेट की अग्नि को शांत कर लेता है, पर किसी की खुशामद नहीं करता, किसी के अधीन नहीं होता, स्वाधीन रहता है; राह में पड़े हुए चीथड़े उठाकर उनकी ही गुदड़ी बनाकर ओढ़ लेता है; मान-अपमान और सुख-दुःख को समान समझता है; न किसी से कुछ लेता है न किसी को कुछ देता है; गृहस्थी में या अपने बन्धु-बान्धवों में रहकर भी उनमें ममता नहीं रखता; शुभाशुभ, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक को कोई चीज़ नहीं समझता; किसी को नीच और किसी को उंच नहीं समझता, सभी में एक आत्मा देखता है; बन्धन और मोक्ष को भी मन का संकल्प या भ्रम समझता है तथा ब्रह्मज्ञान में गर्क रहता है और उसमें ही पूर्ण सुख समझता है - उससे बढ़कर ज्ञानी और कौन है ? ऐसे ज्ञानी के जीवन्मुक्त होने में संशय नहीं । उसे जन्म-मरण का कष्ट नहीं उठाना पड़ता । वह सदा परमानन्द में मग्न रहता है, पर ऐसे पुरुष कोई-कोई ही होते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">सोरठा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">उञ्छवृत्ति गति मान, समदृष्टि इच्छारहित।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">करत तपस्वी ध्यान, कंथा को आसन किये।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">मातर्मेदिनि तात मारुत सखे तेजः सुबन्धो जलं ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">भ्रातर्व्योम निबद्ध एव भवतामेष प्रणामाञ्जलिः ।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">युष्मतसंगवशोपजातसुकृतोद्रेकस्फुरन्निर्म्मल-</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लिये परे ब्रह्मणि ।। ८७ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">हे माता पृथ्वी ! पिता वायु ! मित्र तेज ! बन्धु जल ! भाई आकाश ! अब मैं आपको अन्तिम विदाई का प्रणाम करता हूँ । आपकी संगती से मैंने पुण्य कर्म किये और पुण्यों के फल स्वरुप मुझे आत्मज्ञान हुआ, जिसने मेरे संसारी मोह का नाश कर दिया । अब मैं परब्रह्म में लीन होता हूँ ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य शरीर पृथ्वी, वायु, तेज, जल और आकाश - पांच तत्वों से बनता है । जिसे आत्मज्ञान हो गया है, जिसने ब्रह्म को पहचान लिया है, वह इन पांच तत्वों से विदा लेता है और प्रणाम करके कहता है, कि मैं आप पाँचों के संग रहने से - यह शरीर धारण करने से - इस योग्य हुआ कि, ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सका; अब मेरा आपका साथ न होगा, अब मैं छोले में न आऊंगा, अब मुझे जन्म न लेना पड़ेगा । मैं आप लोगों का कृतज्ञ हूँ ; क्योंकि आपकी सुसंगति से ही मुझे या फल मिला है । अब मैं आपसे सदा को विदा होता हूँ । अब मैं ब्रह्म के आनन्द में मग्न हूँ । अब मुझे यहाँ आने की, आप लोगों की संगती करने की; यानि शरीर धारण करने की जरुरत नहीं । मतलब यह है कि मनुष्य का चोला ब्रह्मज्ञान के लिए मिलता है; और चोलों में, यह ज्ञान नहीं हो सकता । जो मनुष्य चोले में आकर ब्रह्मज्ञान लाभ करते हैं और उसकी बदौलत परम पद या मोक्ष प्राप्त करते हैं - वे ही धन्य हैं, उन्हीं का मनुष्य-देह पाना सार्थक है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अरी मेदिनी-मात, तात-मारुत सुन ऐरे।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तेज-सखा जल-भ्रात, व्योम-बन्धु सुन मेरे।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तुमको करत प्रणाम, हाथ तुम आगे जोरत।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तुम्हारे ही सत्संग, सुकृत कौ सिन्धु झकोरत।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अज्ञान जनित यह मोहहू, मिट्यो तुम्हारे संगसों।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">आनन्द अखण्डानन्द को, छाय रह्यो रसरंग सों।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><b>यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महा-</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">न्प्रोदीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ।। ८८ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">जब तक शरीर ठीक हालत में है, बुढ़ापा दूर है, इन्द्रियों की शक्ति बनी हुई है, आयु के दिन बाकी हैं, तभी तक बुद्धिमान को अपने कल्याण की चेष्टा अच्छी तरह से कर लेनी चाहिए । घर जलने पर कुआँ खोदने से क्या फायदा ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जब तक आपका शरीर निरोग और तन्दरुस्त रहे, बुढ़ापा न आवे, आपकी इन्द्रियों की शक्ति ठीक बनी रहे, आपका अन्त दूर हो, उम्र बाकी दिखे, तभी तक आप अपनी भलाई की चेष्टा कर लीजिये; यानि ऐसी हालत में ही भगवान् का भजन कर लीजिये । जब आप रोगों से जर्जरित हो जाएंगे, कफ,खांसी और दम घेर लेंगे, आँखों से न दिखेगा, कानो से न सुनाई देगा, गले में घर-घर कफ बोलने लगेगा, मौत अपना पंजा जमा देगी, तब आप क्या करेंगे ? अर्थात कुछ नहीं । उस समय आप कुछ करने की चेष्टा करेंगे भी, तो आपकी दशा उसकी सी होगी, जो घर में आग लगने पर कुआ खोदता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>किसी ने कहा है</b> -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">प्रथम नार्जिता विद्या, द्वितीय नार्जितं धनं ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तृतीये नार्जितं पुण्यं, चतुर्थे किं करिष्यति ?।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">बचपन में यदि विद्या नहीं सीखी, जवानी में यदि धन सञ्चय नहीं किया, बुढ़ापे में यदि पुण्य नहीं किया; तो चौथेपन में क्या करोगे ?</span><br />
<span style="font-size: large;">सबसे अच्छी बात तो बचपन में ही परमात्मा की भक्ति करना है । ध्रुव और प्रह्लाद ने बचपन में ही भक्ति करके परमात्मा के दर्शन किये थे अगर इस उम्र में न हो सके, तो जवानी में, जवानी में न हो सके तो बुढ़ापे में तो चूकना ही न चाहिए । स्त्री-पुत्र, धन-दौलत का मोह छोड़ परमात्मा में मन लगाओ; आजकल पर मत टालो; क्योंकि मौत हर समय घात में है, न जाने कब तुम्हे ले जाय । जब वह आ जाएगी तो तुमसे कुछ करते-धरते न बनेगा, तुम घबरा जाओगे, मुंह से परमात्मा का नाम न निकलेगा और हाथों से दान या पराया उपकार न कर सकोगे । उस समय तुम्हारा परलोक बनाने की चेष्टा करना, आग लग जाने पर कुंआ खोदने वाले के समान मूर्खतापूर्ण काम होगा । अतः जो करना है, मरने के समय से पहले ही करो ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">किसी ने परलोक-साधन के लिए क्या अच्छी सलाह दी है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वेदो नित्यंधीयतां तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तेनेशस्यपिधीयतामपचितिः कामे मतिसत्यज्यतां।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पापौघः परिधूयतां भवसुखे दोषोऽनुसन्धीयताम्</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">आत्मेच्छा व्यवसीयतां निजगृहात् तूर्णं विनिर्गम्यताम् ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">नित्य वेद पढ़ो और वेदोक्त कर्मो का अनुष्ठान करो । वेद विधि से परमेश्वर की पूजा करो । विषय भोगों को बुद्धि से हटाओ ; यानि विषयों को त्यागो । पाप समूह का निवारण करो । संसारी सुख इत्र-फुलेल चन्दनादि के लगाने, स्त्री-भोगने और नाच-गाना देखने सुनने प्रभृति परिणाम विचारो ; यानि इनके दोषों की भावना करो । परमेश्वर या आत्मा में अनुराग करो और गृहस्थी के अनेक दोषों को समझ कर, शीघ्र ही घर को त्यागकर वन को चले जाओ ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बेनिशाँ पहले फ़नासे हो, जो हो तुझको बका ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वर्ना है किसका निशाँ, ज़ौके फनाने रक्खा ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मरने से पहले सांसारिक बन्धनों से अपने चित्त को हटा ले - अमर होने की यही एक तरकीब है; वर्ना मौत किसी का निशान नहीं छोड़ती ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जौ लौं देह निरोग, और जौ लौं जरा तन ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अरु जौ लौं बलवान आयु, अरु इन्द्रिन के गन ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तौं लौं निज कल्याण करन को, यत्न विचारत ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वह पण्डित वह धीर-वीर, जो प्रथम सम्हारत ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">फिर होत कहा जर्जर भये, जप तप संयम नहिं बनत ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भव काम उठ्यौ निज भवन जब, तब क्योंकर कूपहि खनत ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"></span><br /></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">नाभ्यस्ता भुविवादिवृन्ददमनी विद्या विनीतोचिता</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">खड्गाग्रैः करिकुम्भपीठदलनैर्नाकं न नीतं यशः ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">कान्ताकोमलपल्लवाधररसः पीतो न चन्द्रोदये</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">तारुण्यं गतमेव निष्फलमहो शून्यालये दीपवत् ।। ८९ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">हमनें इस जगत में नम्रों को संतुष्ट करनेवाली और वादियों की मान भञ्जन करनेवाली विद्या नहीं पढ़ी, तलवार की धार से हाथी के मस्तक का पिछला भाग काटकर अपना यश स्वर्ग तक नहीं पहुँचाया; चांदनी रात में सुन्दरी के कोमल अधर-पल्लव (निचले होठ) का रस भी नहीं पिया । हाय ! हमारी जवानी सूने घर में जलनेवाले और आपही बुझ जाने वाले दीपक की तरह योंही गयी !</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विद्या पढ़ी न रिपु दले, रह्यौ न नारि समीप।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">यौवन यह योंही गयो, ज्यों सूने गृह दीप।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">ज्ञानं सतां मानमदादिनाशनं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">केषांचिदेतन्मदमानकारणं ।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">स्थानं विविक्तं यामिनां विमुक्तये </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">कामातुराणामतिकामकारणाम् ।। ९० ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">अच्छे मनुष्यों में तो ज्ञान उनके मान-मद आदि का नाश करता है; किन्तु दुष्टों में वही ज्ञान मान-मद प्रभृति औगुणों की वृद्धि करता है । एकांत स्थान योगियों के लिए तो मुक्ति दिलानेवाला होता है; किन्तु वही कामियों की कामज्वाला बढ़ानेवाला होता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिस तरह स्वाति-बूँद सीप में पड़ने से मोती और केले में कपूर हो जाती है, किन्तु सर्पमुख में पड़ने से विष का रूपधारण करती है; उसी तरह एक चीज़ पुरुष-भेद से अलग अलग गुण दिखाती है । ज्ञान से अच्छे लोगों का अभिमान नाश हो जाता है, वे सब किसी को अपने बराबर समझते हैं, सबके साथ सुहानुभूति रखते हैं, किसी का दिल नहीं दुखाते; किन्तु उसी ज्ञान से दुष्ट लोगों की दुष्टता और भी बढ़ जाती है, वे अपने सामने जगत को तुच्छ समझते हैं; विद्याभिमान के मारे किसी की ओर नज़र उठा कर भी नहीं देखते, अपने सिवा सबको पशु समझते हैं । एक ही ज्ञान दो स्थानों में, स्थान भेद से अपना अलग-अलग प्रभाव दिखाता है । जैसे एकान्त स्थान योगियों के चित्त को ब्रह्मविचार में लीन करता है और इससे उनको परमपद - मुक्ति - मिल जाती है ; किन्तु वही एकान्त स्थान कामियों के दिलों में मस्ती पैदा करता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ज्ञान घटावै मान-मद, ज्ञानहि देय बढ़ाय।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"></span><br /></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">रहसि मुक्ति पावे यती, कामी रत लपटाय।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">जीर्णा एव मनोरथाः स्वहृदये यातं च जरां यौवनं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">हन्ताङ्गेषु गुणाश्च वन्ध्यफलतां याता गुणज्ञैर्विना ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">किं युक्तं सहसाऽभ्युपैति बलवान्कालः कृतान्तोऽक्षमी</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">ह्याज्ञातंस्मरशासनाङ्घ्रियुगलं मुक्त्वाऽस्तिनान्यागतिः ।। ९१ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">हमारी इच्छाएं हमारे ह्रदय में ही जीर्ण हो गईं, जवानी भी चली गयी, हमारे अच्छे-अच्छे गुण भी कदरदानों के न होने से बेकार हो गए, सर्वशक्तिमान, सर्वनाशक काल (मृत्यु) शीघ्र-शीघ्र हमारे पास आ रहा है; इसलिए अब हमारी समझ में कामारि शिव के चरणों के सिवा और जगह हमारी रक्षा नहीं है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य दुखित होकर कहता है - हमारे मन की मन में ही रह गयी, हमारे अरमान न निकले और जवानी कूच कर गयी; अब उसके आने की भी उम्मीद नहीं, क्योंकि जवानी किसी की भी लौटकर आती सुनी नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">मनुष्य की तृष्णा कभी नहीं बुझती, एक पर एक इच्छा उठा ही करती है । इच्छाएं पूरी नहीं होती और मौत आ जाती है । <b>महाकवि ग़ालिब</b> भी पछता कर कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी, कि हर ख्वाहिश पै दम निकले।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महाकवि दाग </b>भी घबरा कर कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भरे हुए हैं हज़ारों अरमान </span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">फिर उस पै है हसरतों की हसरत।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कहाँ निकल जाऊं या इलाही</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मैं दिल की वसअत से तंग होकर।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मेरे मन में हज़ारों वासनाएं हैं, पर वासनाओं के पूर्ण न होने का दुःख भी कुछ कम नहीं है । हे ईश्वर ! मैं अपने मन की विशालता से तंग हो गया । अब मेरा जी यही चाहता है, कि इस विराट दिल से तंग होकर कहीं चला जाऊं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">इसी तरह <b>महात्मा सुन्दरदास जी</b> भी कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तीनहिं लोक आहार कियो सब।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सात समुद्र पियो पुनि पानी।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">और जहाँ तहाँ ताकत डोलत।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">काढत आँख दरवात प्रानी।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दांत दिखावत जीभ हिलावत।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">या हित मैं यह डाकिनि जानी।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुन्दर खात भये कितने दिन।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हे तृष्णा ! अजहुँ न अघानी।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इस तृष्णा से सभी समझदार अन्त में दुखी ही हुए हैं और उन्होंने पछता पछता कर ऐसी ही बातें कही हैं । इस तृष्णा के फेर में मनुष्य का बुढ़ापा आ जाता है, पर तृष्णा बूढी नहीं होती । बुढ़ापे में उसका ज़ोर और भी बढ़ जाता है । यह तीनो लोको को खाकर और सातों सागरों को पीकर भी नहीं धापति । इसलिए मनुष्य को आशा-तृष्णा त्यागकर, परमात्मा में लौ लगनी चाहिए । जो नहीं चेतते, उनका परिणाम बुरा होता है । जब एकदम से बुढ़ापा छा जाता है, शरीर अशक्त हो जाता है, तब कुछ भी नहीं होता । उम्र ख़त्म होने या मृत्यु आ जाने पर मनुष्य पछताता हुआ सबको छोड़ चला जाता है । कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये मम देश विलायत हैं गज ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये मम मन्दिर ये मम थाती ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये मम मात पिता पुनि बान्धव ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये मम पूत सु ये मम नाती ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये मम कामिनि केलि करै नित ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये मम सेवक हैं दिन राती ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुन्दर ऐसेही छाँड़ि गयो सब ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तेल जरयो सु बुझी जब बाती ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यह मेरा देश है, ये मेरे हाथी-घोड़े महल-मकान हैं, ये मेरे माँ-बाप और बन्धु-बान्धव तथा नाती-पोते हैं, यह मेरी स्त्री और यह मेरे सेवक हैं; ऐसे करता करता ही मनुष्य सबको छोड़कर चला जाता है । जिस तरह तेल के जल जाने पर दीपक बुझ जाता है; उसी तरह उम्र पूरी होने पर मनुष्य मर जाता है । अतः जवानी में ही स्त्री-पुत्र प्रभृति सबका मोह छोड़, एकान्त में जा, परमात्मा का भजन करना चाहिए; क्योंकि बुढ़ापे में कुछ नहीं हो सकता ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>शेख सादी</b> ने कहा है और ठीक कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जवान गोशानशीं, शेर मर्दे राहे खुदास्त ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कि पीर खुद न तवानद, ज़े गोशये बरखास्त ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जवानी में जिन्होंने एकान्त में ईश्वर भजन किया है, सच्चे भक्त वही हैं, बूढा आदमी अगर एकान्तवास पर गर्व करे तो झूठा है, क्योंकि वह तो जहाँ पड़ा है, वह से सरक ही नहीं सकता ।</span><br />
<span style="font-size: large;">जो लोग साड़ी उम्र संसारी जंजालों में बिता देते हैं और परमात्मा का भजन नहीं करते, उनका नक्शा स्वामी <b>सुन्दरदास जी</b> ने खूब ही खींचा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ग्रीव त्वचा कटि है लटकी ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कचहुँ पलटे अजहुँ रतीबामी ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दन्त गए मुख के उखरे ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नखरे न गए सु खरो खर कामी ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कम्पत देह सनेह सु दम्पति ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सम्पति जपत है निशि जामी ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुन्दर अन्तहु भौन तज्यो ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">न भज्यो भगवन्त सु लौनहरामी ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य की गर्दन हिलने लगती है, खाल लटकने लगती है, कमर झुक जाती है, बाल सफ़ेद हो जाते हैं, तो भी स्त्री के साथ भोग करता है । मुंह के दांत उखड जाते हैं, फिर भी कामी गधे के नखरे नहीं जाते, देह कांपती है; पर स्त्री से प्रीति रखता है और रात-दिन धन का जाप करता है । अन्त में घर छोड़ता है, पर नमकहराम मालिक का भजन नहीं करता ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मन के मनही मांहि, मनोरथ वृद्ध भये सब ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">निज अंगन में नाश भयो, वह यौवनहु अब ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विद्या है गयी बाँझ, बूझवारे नहीं दीसत ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दौरयो आवत काल, कोपकर दशनन पीसत ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कबहुँ नहिं पूजे प्रीति सों, चक्रपाणि प्रभु के चरण ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भवबन्धन काटे कौन अब, अजहुँ गहरे हरि शरण ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभि </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">क्षुधार्तः सञ्शालीन्कवलयति शाकादिवाळितां ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">प्रदीप्ते कामाग्नौ सुदृढतरमाश्लिष्यति वधूं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ।। ९२ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">जब मनुष्य का कण्ठ प्यास से सूखने लगता है, तब वह शीतल जल पीता है; जब उसे भूख लगती है, तब वह साग और कढ़ी प्रभृति के संग चावल खाता है; जब उसकी कामाग्नि तेज़ होती है तब वह स्त्री को ज़ोर से गले लगाता है; विचार कर देखने से मालूम होता है, कि ये सब बिमारियों की एक-एक दवा है; परन्तु लोग इन्हे भूल से सुख समान मानते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">प्यास रोग की दवा शीतल जल है; यानि शीतल जल से तृष्णा नाश होती है । क्षुधारोग की दवा रोटी-भात और साग-दाल प्रभृति हैं; यानी भात-दाल प्रभृति से भूख रोग नाश होता है । कामाग्नि भी एक रोग है, उसके शान्त करने का उपाय स्त्री को छाती से लगाना है, यानी स्त्री का आलिङ्गन करने से या चिपटाने से काम की आग ठण्डी हो जाती है । ( दाह ज्वर में षोडशी कामिनी के शरीर में चन्दन लगाकर चिपटने से बहुत लाभ होता है ) इन बातों पर विचार करने से साफ़ मालूम होता है, कि शीतल जल-पान, भिन्न-भिन्न प्रकार के भोजन और स्त्रियों का आलिङ्गन प्रभृति तृषा, क्षुधा और कामाग्नि प्रभृति रोगों की औषधियां हैं । इनको सुख समझना भूल नहीं तो क्या है ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">प्यास लगे जब पान करत, शीतल सुमिष्ट जल।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भूख लगे तब खात, भात-घृत दूध और फल।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बढ़त काम की आगि, तबहिं नववधू संग रति।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ऐसे करत विलास, होत विपरीत दैव गति।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सब जीव जगत के दिन भरत, खात पियत भोगहु करत।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये महारोग तीनो प्रबल, बिना मिटाये नहिं मिटत।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">स्नात्वा गाङ्गैः पयोभिः शुचिकुसुमफलैरर्चयित्वा विभो </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">त्वां ध्येये ध्यानं नियोज्य क्षितिधरकुहरग्रावपर्येकमूले ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">आत्मारामः फलाशी गुरुवचनरतस्त्वत्प्रसादात्स्मरारे</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">दुःखं मोक्ष्ये कदाहं तब चरणरतो ध्यानमार्गैकनिष्ठ ।। ९३ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">हे शिव ! हे कामारि ! गंगा स्नान करके तुझ पर पवित्र फल-फूल चढ़ाता हुआ, तेरी पूजा करता हुआ, पर्वत की गुफा में शिला पर बैठा हुआ, अपने ही आत्मा में मग्न होता हुआ, वन-फल खाता हुआ, गुरु की आज्ञानुसार तेरे ही चरणों का ध्यान करता हुआ कब मैं इन संसारी दुखों से छुटकारा पाउँगा ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">न रसेवा तजि, ब्रह्म भजि, गुरुचरणन चित लाय।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कब गंगातट ध्यान धर, पूजोंगो शिव पाय?।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">शय्या शैलशिला गृहं गिरिगुहा वस्त्रं तरुणं त्वचः</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">सारंगाः सुहृदो ननु क्षितिरुहां वृत्तिः फलैः कमलैः ।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">येषां निर्झरम्बुपानमुचितं रत्येव विद्याङ्गना</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">मन्ये ते परमेश्वराः शिरसि यैर्बद्धो न सेवांजलिः।। ९३ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">मैं उनको परमेश्वर समझता हूँ, जो किसी के सामने मस्तक नहीं नवाते, जो पर्वत की शिला को ही अपनी शय्या समझते हैं, जो गुफा को ही अपना घर मानते हैं, जो वृक्षों की छालों को ही अपने वस्त्र और जंगली हिरणो को ही अपने मित्र समझते हैं, वृक्षों के कोमल फलों से ही उदार की अग्नि को शान्त करते हैं, जो कुदरती झरनो का जल पीते हैं और जो विद्या को ही अपनी प्राण प्यारी समझते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जो किसी चीज़ की चाह नहीं रखते, वे किसी की परवा नहीं करते, वे किसी के सामने मस्तक नहीं नवाते; जिनकी वासनाओं का अन्त नहीं होता, वे ही जने-जने के सामने सर झुकाते हैं । जो संसार के दास नहीं, वे सचमुच ही देवता हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> ने कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जिस इन्सां को सगे दुनिया न पाया। </span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">फरिश्ता उसका हमपाया न पाया ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जो मनुष्य संसार का दास नहीं - संसार का कुत्ता नहीं - वह देवताओं से कहीं ऊंचा है । देवता उसकी बराबरी नहीं कर सकते । जिसमें सांसारिक वासनाओं का लेश न हो, उस मनुष्य और देवताओं में कोई भेद नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">सच्चे महात्मा वन और पर्वतों को छोड़कर दुनिया में कभी नहीं आते; वे मांगकर नहीं खाते; उन्हें वन में ही जो कुछ मिल जाता है, वही खा लेते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>महाकवि ग़ालिब</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वे तलब दें, तो मज़ा उसमें सिवा मिलता है ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वह गदा, जिसका न हो खुए सवाल अच्छा है ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">बिना मांगे मिल जाने में बड़ा आनन्द है । फ़क़ीर वही अच्छा जिसमें मांगने की आदत न हो ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और भी कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दस्ते सवाल, सैकड़ों ऐबों का ऐब है ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जिस दस्त में ये ऐब नहीं, वह दस्ते गैब है ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>कबीर </b>साहब ने भी कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अनमाँग्या उत्तम कह्यो, माध्यम माँगि जो लेय ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कहे कबीर निकृष्ट सो, पर घर धरना देय ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">उत्तम भीख जो अजगरी, सुनि लीजौ निज बैन ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कहै कबीर ताके गहे, महा परम सुख चैन ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">महापुरुष भगवान् के भरोसे रहते हैं, इसलिए उन्हें उनकी जरुरत की चीज़ उनके स्थान पर ही मिल जाती है । वे संसार रुपी काजल की कोठरी में आकर कालिख लगाना पसन्द नहीं करते । संसारी लोगों के साथ मिलने जुलने में भलाई नहीं । संसार से दूर रहना ही भला । क्योंकि मनुष्य जैसे आदमियों को देखता और जैसों की सङ्गति करता है, वैसा ही हो जाता है । रागियों की सङ्गति से वैरागी भी रागी या विषय-भोगी हो जाता है । जल और वृक्षों के पत्ते खाने वाले ऋषि स्त्रियों के देखने मात्र से अपने तप से हीन हो गए । इसीलिए शास्त्रों में लिखा है कि सन्यासी संसारियों से दूर रहे । वास्तविक महापुरुष जो सच्चे ब्रह्मज्ञानी और रासायनिक हैं; किसी के भी द्वार पर नहीं जाते । जिसे कुछ कामना होती है, वही किसी के द्वार पर जाता है । कामनाहीन पुरुष कभी किसी के पास नहीं जाता । सच्चे महात्मा संसारियों से अपनी जान छुपाते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दो महात्मा जो राजा से मिलना नहीं चाहते थे</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------------------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">एक नगर के बाहर वन में दो बड़े ही त्यागी महात्मा रहते थे । राजा ने चाहा कि मैं उनसे मिलूं । राजा अपने परिवार सहित उनसे मिलने गया । महात्माओं ने सोचा - यह तो बुरी बला लगी । इसे सदा को टालना चाहिए । आज यह आया है, कल नगर भर आवेगा । फिर हम तो भजन ही न कर सकेंगे । जब राजा पास पहुंचा, तो वे आपस में लड़ने लगे । एक बोला - "तूने मेरी रोटी खाली" । दुसरे ने कहा - "तूने भी तो कल मेरी खा ली थी"। यह देखकर राजा को घृणा हो गयी और वह लौट आया । इस तरह महात्माओं के एकान्तवास में विघ्न नहीं पड़ा ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">संसारियों की सङ्गति बुरी</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">एक महात्मा कहीं से आकर काशी में रह गए । दस पांच वर्ष बाद अनेक लोग उन्हें जान गए और उन्हें अपने-अपने घर भोजन के लिए ले जाने लगे । महात्मा ने देखा कि, घरों में जाने से विक्षेप होता है, इसलिए उन्होंने अपनी लंगोटी ही उतारकर फेंक दी, कि नंगे रहने से लोग घरों पर न ले जाएंगे । पर फल उल्टा हुआ, उनकी महिमा और भी बढ़ गयी । अब तो बड़े-बड़े राजा, रईस और जमींदार उनके दर्शन को आने लगे । उनका सारा समय अमीरों से मिलने में ही बीतने लगा । इतने में एक और महात्मा आये और उनसे एकान्त में पुछा - "क्या हाल है ?" महात्मा ने कहा - "बवासीर से मरते हैं ।" आगन्तुक महात्मा ने कहा - "लोग तो आपको सिद्ध कहते हैं ?" महात्मा ने कहा - "कहा करें, लोग मूर्ख हैं । हमारे चित्त में तो वासनाएं भरी हैं, न जाने हमें किस योनि में जन्म लेना होगा ? हमारा तो सारा वैराग्य इन धनियों की सङ्गति में ही नष्ट हो गया । सच है, निवृत्ति मार्ग वालों को प्रवृत्ति मार्गवालों की सङ्गति करना अच्छा नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बसैं गुहागिरि, शुचित शिला शय्या मनमानी।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वृक्षवकल के वसन, स्वच्छ सुरसरिको पानी।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बाणमृग जिनके मित्र, वृक्षफल भोजन जिसके।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विद्या जिनकी नारि, नहीं सुरपति सभ तिनके।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ते लगत ईश सम मनुज मोहि, तनशुचि ऐसे जग भये।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जे पर सेवा के काज को, हाथ नहीं जोरत नए ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span>वैराग्य शतकं - 97</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">नायते समयो रहस्यमधुना निद्राति नाथो यदि</span><br />
<span style="font-size: large;">स्थित्वा द्रक्ष्यति कुप्यति प्रभुरिति द्वारेषु येषां वचः</span><br />
<span style="font-size: large;">चेतस्तानपहाय याहि भवनं देवस्य विश्वेशितु-</span><br />
<span style="font-size: large;">निर्दौवारिकनिर्दयोकत्यपुरुषं नि:सीमशर्मप्रदम् ।। ९७ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अर्थ:</span><br />
<span style="font-size: large;">हे मन ! जिनके द्वार पर - "मालिक मकान से मिलने का समय नहीं है, वे इस समय एकान्त में बैठे हैं, वे इस वक्त सो रहे हैं, अगर तुम्हे यहाँ खड़ा देखेंगे तो नाराज़ होंगे" - ऐसी बातें सुनाई देती हैं, उनको त्याग कर विश्वेश की शरण में जा, जिनके द्वार पर रोकने वाला दरबान नहीं, जहाँ निर्दय और कठोर वचन कभी सुनने में नहीं आते, जो अनन्त और नित्य सुख के देने वाले हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मूर्ख मनुषु, नासमझी के कारण, वृथा अमीरों के दरवाजे पर जाता है और अपमानसूचक बातें सुनता है, जिनके यहाँ जाता है उनसे मिलने के लिए बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करता है, दरबानो की तरह तरह की बेढ़ंगी बातें सुनता है । अगर वह कुछ भी अक्ल से काम ले, तो उसके द्वार पर जाना चाहिए, जहाँ कोई रोकनेवाला नहीं, जहाँ दिल दुखानेवाली बातों का नाम भी नहीं, जो सारे संसार का स्वामी और नित्य सुख देनेवाला है । वह क्या उसकी इच्छा पूरी न करेगा ? अवश्य पूरी करेगा । जो बिना जड़ की अमरबेल को पोषता है, उसे छोड़कर और को खोजना भूल की बात है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">रहीम कवी कहते हैं -</span><br />
<span style="font-size: large;">*अमरबेलि बिन मूल की, प्रतिपालत है ताहि।*</span><br />
<span style="font-size: large;">*"रहिमन" ऐसे प्रभुहि तजि, खोजत फिरिये काहि? ।।*</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">रहीम कवी कहते हैं, जो प्रभु बिना मूल के अमरबेल की प्रतिपालना करता है, ऐसे प्रभु को छोड़कर किसे खोजते फिरे ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और भी -</span><br />
<span style="font-size: large;">(१)</span><br />
<span style="font-size: large;">जा दिन तें गर्भवास तज्यो नर ।</span><br />
<span style="font-size: large;">आई आहार लियो तबही को ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">खातहि खात भये इतने दिन ।</span><br />
<span style="font-size: large;">जानत नाहिं न भूख कहीं को ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">दौरत धावत पेट दिखावत ।</span><br />
<span style="font-size: large;">तू शठ कीट सदा अनही को ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">सुन्दर क्यों विश्वास न राखत ?।</span><br />
<span style="font-size: large;">सो प्रभु विश्व भरै सबही को ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">(२)</span><br />
<span style="font-size: large;">खेचर भूचर जे जल के चर ।</span><br />
<span style="font-size: large;">देत आहार चराचर पोषे ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">वे हरि जो सबकूँ प्रतिपालत ।</span><br />
<span style="font-size: large;">ज्यूं जिहि भांति तिसी विधि तोषे ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">तू अब क्यों विश्वास न राखत ?।</span><br />
<span style="font-size: large;">भूलत है कित धोखहि धोखै ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">तोहि तहाँ पहुंचाय रहै प्रभु ।</span><br />
<span style="font-size: large;">सुन्दर बैठि रहै किन ओखै ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">------</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">*ईश्वर की शरण में जाने से अभाव नहीं रहता*</span><br />
<span style="font-size: large;">============================</span><br />
<span style="font-size: large;">एक राजा बड़ा आलसी और विषयी था । वह राज-काज को ज़रा भी न देखता था । सारा भार वज़ीर के सिर पर था । वज़ीर यदि किसी ज़रूरी कार्य की आज्ञा लेने को आता, तो राजा उसे घण्टो द्वार पर बिठाये रखता, पर अन्दर न बुलाता; इससे मन्त्री को घृणा हो गयी; उसने घर आकर पुत्रों से कहा, कि चार घण्टो में जितना धन और सामान ले जा सकते हो, दुसरे राजा के राज्य में ले जाओ । मैं अब इस संसार को त्यागकर परमात्मा से लौ लगाऊंगा । लड़के जितना धन ले जा सके ले गए । शेष धन वज़ीर ने गरीबों को लुटा दिया और आप किसी और राजा के राज में झोंपड़ी बना कर तप करने लगा ।</span><br />
<span style="font-size: large;">दो तीन दिन बाद जब उस विषयी राजा के राज्य में गड़बड़ फैली, उसे अपने प्रधानमन्त्री की याद आयी । बुलाने को आदमी भेजे तो मालूम हुआ, कि वह तो सन्यासी हो गया है । राजा स्वयं उसके पास गया और बोलै - "हे मंत्रिवर ! तुम इतने बड़े राज्य के प्रधानमंत्री और कर्ता धर्ता थे, तुमने वह सब सुखैश्वर्य छोड़ क्यों वन में डेरा लगाया है ? तुम्हें इसमें क्या मिला ?" मन्त्री ने कहा - "महाराज ! ईश्वर की शरण में आने से इतना तो दो-चार दिन में ही मिल गया कि घण्टो आपके द्वार पर आपकी प्रतीक्षा में पाँव पीटा करता था; पर आप दर्शन तक न देते थे; पर आज श्रीमान सपरिवार मेरे स्थान पर मुझे आदरणीय समझकर इस सघन वन में पधारे हैं । यह तो दो-तीन दिन की कमाई है । आगे की बात फिर पूछ सकते हैं ।" इसमें शक नहीं, जो सबकी आशा तजकर एक परमात्मा की शरण में जाता है, उसे कोई अभाव नहीं रहता; पर पक्के और दृढ़ विश्वास की जरुरत है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">ईश्वर को जिस कामना से भजता है, उसकी वह कामना अवश्य पूरी होती है । पर जो कोई उसे निष्काम भक्ति से भजता है, उसे स्वयं ईश्वर मिलता है और जब वह मिल जाता है, तब कुछ भी घाटा नहीं रहता; त्रिलोकी की सम्पदा उसके चरणों में ज़बरदस्ती आना चाहती है । अतः बुद्धिमानों को परमात्मा को छोड़ और किसी के आगे दीनता न करनी चाहिए । मनुष्य के पास है ही क्या ? कोई छोटा भिखारी है, कोई बड़ा । जिसे किसी भी चीज़ की चाह नहीं, वही सच्चा धनी है । ऐसा धनी करोड़ों में एक भी नहीं; तब मँगते को मँगते से माँगना क्या उचित है ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">*ईश्वर ही कामना पूरी कर सकता है*</span><br />
<span style="font-size: large;">=========================</span><br />
<span style="font-size: large;">एक राजा ने किसी राजा का राज्य छीन लिया । वह राजा तप करने लगा । कुछ दिन बाद उसकी प्रशंसा सुन कर राजा उस तपस्वी राजा के पास गया और बोला - "आप अपना राज्य वापस लीजिये, इसके सिवा आप जो और मांगो सो दूँ ।" तपस्वी राजा ने कहा - "राजन ! आपको धन्यवाद है; पर यदि आप मृत्युरहित जीवन, नित्यधन, वृद्धावस्था रहित जवानी, बिना दुःख का सुख और बिना रंज की ख़ुशी दे सकें तो दीजिये ।" राजा ने कहा - "इन्हें तो मैं नहीं दे सकता । ये सब तो ईश्वर से ही मिल सकते हैं ।" यह जवाब सुन तपस्वी राजा ने कहा - "इसी से मैं सब को छोड़ ईश्वर की शरण में आया हूँ कि मेरी इच्छा पूरी हो; क्योंकि मनुष्यों से यह न हो सकेगा ।"</span><br />
<span style="font-size: large;">अनेक अज्ञानी जिन्हे ईश्वर पर विश्वास नहीं, मन में समझते हैं कि, ईश्वर हमें खाने को देने थोड़े ही आवेगा । यह उनकी गलती है । ईश्वर उनको भी खाना पहुंचाता है, जो उसे कभी याद भी नहीं करते । फिर जो उसे याद करते हैं, उन्हें वह क्यों न खाना पहुँचावेगा ? अवश्य पहुँचावेगा, बशर्ते कि उसमें दृढ़ विश्वास हो । अपने भक्तों के लिए ईश्वर हरदम तैयार रहता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">*नापित-भक्त के लिए ईश्वर नापति बना*</span><br />
<span style="font-size: large;">===========================</span><br />
<span style="font-size: large;">एक नाई दुर्योधन के पैर चापा करता था । एक दिन उसके चलने के समय दो महात्मा उसे उसके द्वार पर मिल गए । वह उन्हें ईश्वर भक्त समझ, उनकी सेवा में लग गया और राजा के यहाँ जाने की बात भूल गया । समय पर राजा ने नाई की याद की । भगवान् नाई का रूप धार कर दुर्योधन के पास पहुंचे और उसके पैर दाबने लगे । अन्त में अपने भक्त की नौकरी पूरी करके वह वहां से चले गए । इतने में नाई डरता काँपता हुआ पहुंचा और क्षमा-प्रार्थना करने लगा । दुर्योधन ने कहा - "अरे पागल हो गया है क्या ! अभी तो तू मेरे पैर दाब ही रहा था ।" इस बात को सुनकर नाई समझ गया कि भगवान् ने स्वयं मेरे लिए नाई का काम किया । इतनी सी भक्ति उपासना का यह फल ! अब मैं उनको छोड़ दुसरे की खुशामद क्यों करूँ ? ऐसा विचार कर वह घर छोड़ वन में चला गया ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">भगवान् का दूसरा नाम विश्वम्भर है । जो विश्व - संसार - का पालन करता है, उसे ही विश्वम्भर कहते हैं । भगवान् त्रिलोकी के जीवमात्र को उनका आहार पहुंचते हैं, इसमें शक नहीं । एक सच्ची घटना है, पाठक पढ़े -</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">*ईश्वर ही सबका पालन करता है*</span><br />
<span style="font-size: large;">=====================</span><br />
<span style="font-size: large;">एक बार महाराज शिवाजी एक बहुत बड़ा महल बनवा रहे थे । उसमें हज़ारों मज़दूर और कारीगर लग रहे थे । उन्हें देखकर शिवाजी के मन में अहंकार हुआ कि, मैं ऐसा हूँ, जो इतने मनुष्यों को रोज़ रोटी देता हूँ । इतने में समर्थ स्वामी रामदास आ गए । वे महाराज के मन की ताड़ गए बोले - "राजन ! सामने जो पत्थर पड़ा है उसके दो टुकड़े कराइये ।" राजा के हुक्म से पत्थर के दो टुकड़े किये गए । उस शिला के भीतर एक मोटा-ताज़ा मेंढक निकला । उसे देखते ही शिवाजी विषमय में डूब गए । स्वामी जी ने कहा - "राजन ! इस पत्थर के भीतर मेंढक को खाना कौन पहुंचाता था ? मनुष्य कोई चीज़ नहीं, उसे स्वयं तृष्णा है, अतः वह दरिद्री है । सबकी पालना करने वाले और प्रेम के साथ पालना करने वाले वही भगवान् हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">नरसी मेहता की हुण्डी का भुगतान साहूकार का रूप धरकर स्वयं भगवान् ने किया । द्रौपदी और दुर्वासा के मामले में भगवान् वन में दौड़े आये और द्रौपदी की लाज रक्खी तथा राजा अम्बरीष की दुर्वासा से रक्षा की । ऐसे बहुत से दृष्टान्त हैं । मनुष्य को सदा परमात्मा से माँगना चाहिए । उसका भण्डार अक्षय है और वह परम दयालु है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">*पिता पुत्र की इच्छा अवश्य पूरी करता है*</span><br />
<span style="font-size: large;">==========================</span><br />
<span style="font-size: large;">एक वैश्य निर्धनता से तंग आकर काशी चला गया और वह रोज़गार करने लगा । कुछ समय बाद उसके पास लाखों-करोड़ों का धन हो गया । वह एक मन्दिर बनवाने लगा । घर से चलते समय वह एक छोटा सा लड़का छोड़ गया था । लड़का जब सोलह-सत्रह वर्ष का हो गया, तो उसने माँ से पिता का पता पूछा । माँ ने कहा - "मुझे तो पता नहीं ।" यह सुनते ही पुत्र अपने पिता की तलाश में चल निकला । माँ को भी उसने अपने साथ ले लिया । कुछ दिनों बाद, बड़ी-बड़ी तकलीफें उठा कर वह काशी पहुंचा और पेट पालने के लिए उसी मन्दिर में मज़दूरी करने लगा । सेठ ने उसे नया मज़दूर समझ, उससे उसका निवास स्थान और पिता का नाम पूछा । उसने सब बता दिया और कहा, माँ भी आयी है । सेठ ने अपनी स्त्री को पहचान, पुत्र को छाती से लगा लिया और सारा धन दे दिया । इस दृष्टान्त से यह समझना चाहिए, इसी तरह जो पुरुष तकलीफें उठा कर परमेश्वर की खोज करता है, परमेश्वर उसे अवश्य मिल जाता है और अपने पुत्र की इच्छा पूरी करता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">अहंकार को त्याग कर, विशुद्ध मन से परमात्मा की खोज करो । वह दूर नहीं, तुम्हारे भीतर ही मौजूद है । खोज करने से तुम्हें अवश्य मिल जाएगा ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">किसी ने बिलकुल ठीक कहा है -</span><br />
<span style="font-size: large;">है तजस्सुस शर्त्त याँ, मिलने को क्या मिलता नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">है खुदी जब तक इन्सां में, खुदा मिलता नहीं ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तलाश शर्त है; तलाश करनेवालों को क्या नहीं मिलता ? जब तक मनुष्य में खुदी या अहंकार है, तब तक उसे ईश्वर नहीं मिलता । अहंकार से ह्रदय शुद्ध हुआ और ईश्वर-दर्शन हुए । यदि ईश्वर मिल गया तो जगत का राज्य मिल गया । अतः मनुष्यों ! मनुष्यों की खुशामद छोड़, केवल दयासिन्धु जगदीश की शरण में जाओ । वह बिना अपमान किये, प्रेम के साथ आपके अभावों को सुने और दूर करेगा तथा आपको नित्य-स्थायी सुख-शान्ति बख्शेगा ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">छप्पय</span><br />
<span style="font-size: large;">---------</span><br />
<span style="font-size: large;">बैठ पौरिया द्वार, छड़ी कर पहरौ राखत ।</span><br />
<span style="font-size: large;">सोवत स्वामी हमार, जाहु तुम ऐसे भाषत ।</span><br />
<span style="font-size: large;">करि हैं क्रोध अपार, लखैं जो तुमको द्वारे ।</span><br />
<span style="font-size: large;">जाहु विश्वपति द्वार, तहाँ नहिं रोकनहारे ।</span><br />
<span style="font-size: large;">जहँ निर्दय कटुवादी नहीं, अवशि तहाँ चलि जाइये ।</span><br />
<span style="font-size: large;">वहं निर्भय ब्रह्मानंद सुख, ब्रह्मानंद तहँ पाइये ।।</span><br />
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">प्रिय सखि विपद्दण्डव्रतप्रताप परम्परा-</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">तिपरिचपले चिन्ताचक्रे निधाय विधिः खलः ।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">मृदमिव बलात्पिण्डीकृत्य प्रगल्भकुलालवद्-</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">भ्रमयति मनो नो जानीमः किमत्र विधास्यति ।। ९८ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">हे प्यारी सखी बुद्धि ! कुम्हार जिस तरह गीली मिटटी के लौंदे को चाक पर चढ़कर डंडे से चाक को बारम्बार घुमाता है और उससे इच्छानुसार बर्तन तैयार करता है; उसी तरह संसार को गढ़नेवाला ब्रह्मा हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर चढ़ा कर, विपत्तियों के डंडे से चाक को लगातार घुमाता हुआ, हमारा क्या करना चाहता है, यह हमारी समझ में नहीं आता ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य के पीछे भगवान् ने चिन्ता बुरी लगा दी है । बात यह है, कि मनुष्य के पूर्व जन्म के कर्मो के कारण या इस जन्म की भूलों के कारण, उसे विपत्तियां भोगनी ही पड़ती है । विपत्तियों से पार होने के लिए, मनुष्य रात-दिन चिन्तित रहता है । चिन्ता या फ़िक्र से मनुष्य का रूप-रंग सब नष्ट होकर शीघ्र ही बुढ़ापा आ जाता है । आजकल चालीस बरस की उम्र में ही लोग बूढ़े हो जाते हैं, इसका कारण चिन्ता ही है । अगर चिन्ता न होती, तो मनुष्य को कुछ दुःख न होता । जहाँ तक हो, मनुष्य को चिन्ता को अपने पास न आने देना चाहिए; क्योंकि चिन्ता, चिता से भी बुरी है । चिता मरे हुए को भस्म करती है, पर चिन्ता जीते हुए को ही जलाकर ख़ाक कर देती है; अतः चिन्ता से दूर रहो । स्त्री, पुत्र और धन की चिन्ता में अपनी अमूल्य दुर्लभ काया को नाश न करो; क्योंकि ये स्त्री-पुत्र प्रभृति तुम्हारे कोई नहीं । अगर चिन्ता और विचार ही करना है, तो इस बात का करो कि तुम कौन हो और कहाँ से आये हो ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>स्वामी शंकराचार्य</b> ने <b>मोहमुद्गर </b>में कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">का तव कान्ताः कस्ते पुत्रः संसारोऽयमतीव विचित्रः ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कस्य त्वम् वा कुत आयातः तत्त्वं चिन्तय तदिदं भ्रातः ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">कौन तेरी स्त्री है ? कौन तेरा पुत्र है ? यह संसार अतीव विचित्र है । तू कौन है ? कहाँ से आया है ? हे भाई ! इस तत्व की चिन्ता कर; अर्थात न कोई तेरी स्त्री है और न कोई तेरा पुत्र है, वृथा चिन्ता क्यों करता है ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तू कौन है ? कहाँ से आया है ? क्यों आया है ? तूने अपना कर्तव्य पालन किया है या नहीं ? तेरा अन्तिम परिणाम क्या है ? इत्यादि विचारों द्वारा अपने स्वरुप को पहचान जाने अथवा ईश्वर की शरण में चले जाने से ही चिन्ता से पीछा छूटेगा और शान्ति मिलेगी । निश्चय ही चिन्ता और विपत्तियों से बचने के लिए भगवान् का आश्रय लेना सर्वोपरि उपाय है । विपत्ति रुपी समुद्र में डूबते हुए के लिए भगवान् का नाम ही सच्चा सहारा है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>गोस्वामी तुलसीदास जी</b> ने कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तुलसी साथी विपति के, विद्या विनय विवेक ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">साहस सुकृत सत्यव्रत, राम भरोसो एक ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तुलसी असमय के सखा, साहस धर्म विचार ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुकृत शील स्वाभाव ऋजु, रामशरण आधार ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">खेलत बालक व्याल संग, पावक मेलत हाथ ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तुलसी शिशु पितु मातु इव, राखत सिय रघुनाथ ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तुलसी केवल रामपद, लागे सरल सनेह ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तौ घर घट बन बाट मँह, कतहुँ रहै किन देह ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सारांश यह कि जो हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर चढ़ा कर विपत्तियों के डंडे से घुमाता है, यदि हम उसकी ही शरण में चले जाएँ, उसी से प्रेम करें, तो वह हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर न रक्खे; अर्थात हमें चिंताग्नि में न जलना पड़े; सुख-शान्ति सदा हमारे सामने हाथ बांधे खड़े रहे । यह बाला उन्हीं को खाती है, जो भगवान् से विमुख रहते हैं । इसलिए यदि इस चिन्ता-डायन से बचना चाहो तो परमात्मा को भजो ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मन को चिंताचक्र धर, खल विधि रह्यौ घुमाय ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">रचि है कहा कुलालसम, जान्यौ कछु न जाय ?।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">महेश्वरे वा जगतामधीश्वरे जनार्दने वा जगदन्तरात्मनि।</span><br />
<span style="font-size: large;">तयोर्न भेदप्रतिपत्तिरस्ति मे तथापि भक्तिस्तरुणेन्दुशेखरे।। ९९ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अर्थ:</span><br />
<span style="font-size: large;">यद्यपि मुझे विश्वेश्वर शिव और सर्वात्मन विष्णु में कोई भेद नहीं दीखता; तथापि मेरा मन उन्ही की ओर झुकता है, जिनके मस्तक में तरुण चन्द्रमा विराजमान है; अर्थात मैं शिव को ही चाहता हूँ ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">विष्णु और शिव में कोई भेद नहीं, एक ही परमात्मा के अलग अलग नाम हैं, वही कृष्ण हैं, वही रघुनाथ हैं, वही राम हैं और वही शिव हैं । पर फिर भी; जिस नाम का आश्रय ले लिया उसी का भरोसा करना ठीक है । मन भटकाना अच्छा नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी वृन्दावन गए । वहां उन्हें भगवान् कृष्ण के दर्शन हुए । भगवान् की बांकी झांकी देखकर गोस्वामी जी मुग्ध हो गए, पर उन्होंने उनको सिर न नवाया; क्योंकि उनके इष्टदेव रामचन्द्र जी थे । <b>उन्होंने उस समय कहा</b> -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कहा कहूँ छवि आज की, भले बने हो नाथ ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तुलसी मस्तक जब नवै, धनुषबाण लेयो हाथ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">आपकी छवि आज भी बहुत मनोमुग्धकर है, पर मैं तो आपको तभी प्रणाम करूँगा, जब आप धनुष-बाण हाथ में लेकर रामचन्द्र बनोगे । भगवान् को तत्काल रामरूप धर धनुष-बाण हाथ में लेना पड़ा । यह काम भगवान् को भक्त की दृढ़ता देखकर करना पड़ा ।</span><br />
<span style="font-size: large;">प्रीति पपहिये की सच्ची और आदर्श है । वह चाहे प्यासा मर जाए, पर मेघ के सिवा किसी भी जलाशय का जल नहीं पीता । "<b>उत्तर चातकाष्टक</b>" में लिखा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पयोद हे ! वारि ददासि वा न वा ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तवडेकचित्तः पुनरेष चातकः ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वरं महत्या म्रियते पिपासया</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तथापि नान्यस्य करोत्युपासनाम् ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">हे मेघ ! तू जल दे चाहे न दे, चातक तो तेरा ही आश्रय रखता है । घोर प्यास से भले ही मर जाए, पर वह दुसरे की उपासना नहीं करता ।<b> गोस्वामी तुलसीदास जी</b> ने भी कहा है -</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चातक घन तजि दूसरे, जियत न नाई नारि।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मरत न मांगे अर्घजल, सुरसरिहु को वारि ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">व्याधा बधो पपीहरा, परो गंगजल जाय ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चोंच मूँदि पीवे नहीं, धिक् पीवन प्रण जाय ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">चातक ने मेघ को छोड़ और किसी को अपनी ज़िन्दगी में सर न नवाया । मरते समय गंगा का जल भी ग्रहण न किया । किसी शिकारी ने किसी चातक को मारा, वह गंगाजी में गिर पड़ा, प्यास के मारे घबरा रहा था, पर गंगाजल नहीं पीता था । उसने उलटी चोंच बन्द कर ली; कि कहीं जल मुख में न चला जाय और मेरा प्रण टूट जाय । वाह वाह ! प्रीति और भक्ति हो तो ऐसी ही हो ।</span><br />
<span style="font-size: large;">सारांश यह है, कि भगवान् के भी जिस नाम से प्रेम हो, उसे छोड़ कर दूसरे से प्रेम न करना चाहिए । एक ही पति की स्त्री होने में भलाई है । जिसके अनेक पति होते हैं, उसका भला नहीं होता । अनेक देवी-देवताओं के उपासक चातक से शिक्षा ग्रहण करें । <b>कहा है -</b></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पतिव्रता को सुख घना, जाके पति है एक।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मन मैली व्यभिचारिणी, जाके खसम अनेक।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पतिव्रता पति को भजै, और न अन्य सुहाय।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सिंह बचा जो लंघना, तो भी घास न खाय।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"कबिरा" सीप समुद्र की, रटे पियास पियास।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सकल बूँद को न गिनै, स्वाति बूँद की आस।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">प्रीति रीति तुझ सों मेरे, बहु गुनियाला कन्त।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जो हँसि बोलूं और सूँ, तो नील रंगाऊं दन्त।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">पतिव्रता, जिसके एक पति होता है, सदा सुखी रहती है; किन्तु अनेक खसमवाली व्यभिचारिणी सदा दुखी रहती है । पतिव्रता सदा अपने पति को ही चाहती है; उसे दूसरा अच्छा नहीं लगता । सिंह का बच्चा लंघन पर लंघन करने पर भी घास नहीं खाता । कबीरदास कहते हैं, समुद्र की सीप प्यास ही प्यास रटा करती है; कितनी ही बूंदे क्यों न गिरें, उसे तो स्वाति की बूँद ही प्यारी लगती है । मेरे गुणनिधान कन्त ! मेरी प्रीती तुझसे है । जो मैं दुसरे से हंसकर बोलूं तो मेरा काला मुंह हो ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नाहिन शिव अरु विष्णु में, सूझै अन्तर मोय ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तदपि चन्द्रशेखर लखत, प्रीति अधिक कछु होय ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><b>रे कंदर्प करं कदर्थयसि किं कोदण्डटंकारितैः। </b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">रे रे कोकिल कोमलैः किं त्वं वृथाजल्पसि ।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">मुग्धे स्निग्धविदग्धमुग्धमधुरैर्लोलैः कटाक्षैरलं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">चेतश्चुम्बितचन्द्रचूड़चरणध्यानमृतं वर्त्तते ।। १०० ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">हे कामदेव ! तू धनुष्टङ्कार सुनाने के लिए क्यों बारबार हाथ उठाता है ? हे कोकिला ! तू मीठी-मीठी सुहावनी आवाज़ में क्यों कुहू-कुहू करती है ? ए मूर्ख स्त्री ! तू अपने मनोमोहक मधुर कटाक्ष मुझ पर क्यों चलाती है ? अब तुम मेरा कुछ नहीं कर सकते; क्योंकि अब मेरे चित्त ने शिव के चरण चूमकर अमृत पी लिया है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जब तक मनुष्य का मन ब्रह्मानन्द का मज़ा नहीं जानता, जब तक वह परमात्मा के चरणों में ध्यान लगा कर अमृत नहीं पीटा, तभी तक कामदेव का ज़ोर चलता है, तभी तक कोकिला का पञ्चम स्वर उसके दिल में खलबली पैदा करता है, तभी तक स्त्री के कटाक्ष-बाण उस पर असर करते हैं; कामारि शिव से प्रीति होने पर ये सब कुछ नहीं कर सकते । भगवान् शिव और कामदेव में वैर है; अतः शिवभक्तों पर कामदेव अपने अस्त्र अपने अस्त्र नहीं चला सकता ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अरे काम वेकाम, धनुष टंकारत तर्जत।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तू हू कोकिल व्यर्थ बोल, काहे को गरजत।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तैसे ही तू नारि वृथा ही करत कटाक्षै।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मोहि न उपजै मोह, छोह सब रहिगे पाछै।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चित चन्द्रचूड़चरण को, ध्यान अमृत बरषत हिते।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">आनन्द अखण्डानन्द को, ताहि अमृत सुख क्यों हिते।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">कौपीनं शतखण्डजर्ज्जरतरं कन्था पुनस्तादृशी</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">निश्चिन्तम् सुखसाध्यभैक्ष्यमशनं शय्या श्मशाने वने ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">मित्रामित्र समानताऽतिविमला चिन्ताऽथशून्यालये </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">ध्वस्ता शेषमदप्रमाद मुदितो योगी सुखं तिष्ठति ।। १०१ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">वही योगी सुखी है, जो एकदम से फटी-पुरानी सैकड़ो चीथड़ों से बनी कोपीन पहनता है और वैसी ही गुदड़ी ओढ़ता है, जिसके पास चिन्ता नहीं फटकती, जो सुख से मिला हुआ भिक्षान्न खाता है, जो श्मशान भूमि या वन में सो रहता है, जो मित्र और शत्रुओं को समान समझता है, जो सूनी झोंपड़ी में ध्यान करता है और जिसके मद और प्रमाद सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो गए हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">फटी-पुरानी कोपीन पहनने, चीथड़ों की गुदड़ी ओढ़ने, निश्चिन्त रहने, सुख से मिले भिक्षान्न के खाने, मरघट या जंगल में सो रहने, दोस्त और दुश्मन को बराबर समझने और नितान्त सूने घर में पवित्र ध्यान करने से जिसके मद और प्रमाद नाश हो गए हैं, वही योगी संसार में सुखी है । ऐसी महापुरुषों को किसी की इच्छा नहीं होती । जिसे किसी चीज़ की इच्छा नहीं, उसके किसकी गरज़ ? जो मित्र और शत्रु को एक नज़र से देखते हैं, जहाँ जगह पाते हैं वही पद रहते हैं, वहीँ खा लेते हैं, उन्हें न चिन्ता राक्षसी सताती है, न उन्हें घमण्ड होता है और न उन्हें मस्ती आती है । वे तो ब्रह्म के ध्यान में मग्न रहते हैं, इसलिए दुःख उनके पास नहीं आता; वे सदा सुख में दिन बिताते हैं । जो लोग बढ़िया बढ़िया कपडे पहनते हैं, शाल-दुशाले ओढ़ते है, अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट भोजन करते हैं, मखमली गद्दे-तकियों पर सोते हैं, किसी को दोस्त और किसी को दुश्मन समझते हैं, ब्रह्म का ध्यान नहीं करते, उनको चिन्ता लगी ही रहती है । देखने में वे सुखी मालूम होते हैं, पर भीतर ही भीतर उनकी आत्मा जला करती है । चिन्ता उनको खोखला कर डालती है । क्योंकि बढ़िया बढ़िया भोजन और वस्त्रों के लिए उन्हें सदा उपाय करने पड़ते हैं और उनकी रक्षा की चिन्ता करनी पड़ती है । ऐसो के ही मित्र और शत्रु होते हैं । जिनका वे भला करते हैं, जिन्हे कुछ सहायता देते हैं अथवा जिन्हे उनसे कुछ मिलने की आशा रहती है, वे मित्र बन जाते हैं; पर जिनका स्वार्थ साधन नहीं होता, जो उनके ठाठ-बाठ और वैभव को फूटी आँख नहीं देख सकते, वे उनके नाश की चेष्टा करते हैं और उनके दुश्मन हो जाते हैं । इसलिए उन्हें रात-दिन शत्रुओं से बदला लेने और उन्हें पराजित करने की फ़िक्र के मारे क्षणभर भी सुख की नींद नहीं आती । अपने वैभव और ऐश्वर्य को देखकर उन्हें स्वतः ही अभिमान हो आता है । अभिमान के नशे में वो अनर्थ करने लगते हैं; इससे उन्हें सदा भयभीत रहना पड़ता है । बहुत क्या कहें; जिनको आप अमीर देखते हैं, जिनको आप स्त्री-पुरुष, धन-रत्न, गाडी-घोड़े, मोटर प्रभृति से सुखी देखते हैं, वे वास्तव में ज़रा भी सुखी नहीं । सुखी वही है जिसे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं, जिसे किसी से वैर या प्रीति नहीं, जिसे ज़रा भी अभिमान नहीं, जिसकी इन्द्रियां वश में हैं, जो कभी चिन्ता को पास नहीं आने देता और जो ब्रह्मानन्द में ही मग्न रहता है । भला राजा महाराजा और धनी लोग इस सुख को कैसे पा सकते हैं ? अगर सुखी होना चाहो, तो संसार को त्याग कर, एकदम से निश्चिन्त होकर, परमात्मा के सिवा किसी चीज़ की चिन्ता न करो ।</span><br />
<span style="font-size: large;">जो लोग संसार त्यागें, वह सच्चे मन से त्यागें; ढोंग करने से कोई लाभ नहीं । आजकल ऐसे बनावटी महात्मा बहुत देखने में आते हैं, जो जाता-जूट बढ़ा लेते हैं, ख़ाक रमा लेते हैं आँखें लाल कर लेते हैं, गंगा में पहरों खड़े रहते हैं, शूलों की शय्या पर सोते हैं, पर उनकी आशा और तृष्णा नहीं जाती । वे ज़ाहिरा कष्ट उठाते हैं, कर्मेन्द्रियों से उनका काम नहीं लेते; पर मन और ज्ञानेन्द्रियों को अपने वश में नहीं करते, वासनाओं का त्याग नहीं करते, इससे उनका जीवन वृथा जाता है । ऐसे लोगों के सम्बन्ध में <b>महात्मा कबीर</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">निर्बन्धन बंधा रहे, बंध्या निरबन्ध होय ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कर्म करे करता नहीं, दास कहावे सोय ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>कृष्ण भगवान् गीता</b> के तीसरे अध्याय के छठे श्लोक में कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । </span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जो मनुष्य कर्मेन्द्रियों को वश में करके कुछ काम तो नहीं करता; किन्तु मन में इन्द्रियों के विषयों का ध्यान किया करता है, वह मनुष्य झूठा और पाखण्डी है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मतलब यह है, कि मनुष्यों को हाथ, पाँव, मुंह, गुदा और लिङ्ग को वश में कर लेने और इनसे कोई काम न लेने से कोई लाभ नहीं; इनसे तो इनका कोई काम लेना ही चाहिए; किन्तु आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा को वश में करना चाहिए । आँख, कान आदि पांच इन्द्रियों को वश में करना या अपने अपने विषयों से रोकना जरूरी है । बहुत से लोग, ज़ाहिर में सिद्ध बनने के लिए, हाथ-पाँव प्रभृति कर्मेन्द्रियों से काम नहीं लेते, किन्तु मन में भाँती भाँती के इन्द्रिय विषयों की इच्छा किया करते हैं । भगवान् कृष्ण ऐसों को पाखण्डी कहते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">सबसे अच्छा और सिद्ध पुरुष वही है जो ज़ाहिरा तो काम करता है, किन्तु अन्दर से मन और ज्ञानेन्द्रियों को विषय वासना से रोकता है । <b>गीता </b>में कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">हे अर्जुन ! जो मन से आँख कान नाक आदि इन्द्रियों को वश में करके और इन्द्रियों को विषयों में न लगा कर "कर्मयोग" करता है, वही श्रेष्ठ है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>रहीम </b>ने यही बात कैसी अच्छी तरह कही है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जो "रहीम" मन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जल में छाया जो परी, काया भीजत नाहिं ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तन को योगी सब करें, मन को विरला कोय ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सहजे सब विधि पाइये, जो मन योगी होय ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मतलब यह है कि ढोंग करने से कोई लाभ नहीं । जिनका दिल साफ़ है, जिनके दिल से वासनाएं निकल गयी है, उन्हें नहाने धोने प्रभृति दिखाऊ कामों या दुकानदारी की जरुरत नहीं है । रहीम कहते हैं, मन यदि हाथ में है तो मनसा कहीं क्यों न जाय, हानि नहीं; क्योंकि जल में शरीर की परछाईं पड़ने से शरीर नहीं भीजता । लोग शरीर को जोगी करते हैं - तिलक छापे लगाते हैं, जटाजूट बढ़ाते हैं, नेत्रों को सुर्ख करते हैं, भभूत मलते हैं, कोपीन बांधते हैं; पर मन को कोई विरला ही जोगी करता है । लोग ऊपर से योगी बन जाते हैं, पर मन उनका विषय-भोगों में लगा रहता है । शरीर से चाहे जो काम क्यों न किये जाएँ, पर मन में विषयों की कामना न रहे; यानि शरीर जोगी न हो, मन जोगी हो जाये; तो सिद्धि या मोक्ष मिलने में संदेह नहीं । सारांश यह कि, मन के योगी होने से ही ईश्वर मिलता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महाकवि ज़ौक़</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सरापा पाक हैं धोये जिन्होंने हाथ दुनिया से ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नहीं हाजत कि वह पानी बहाएं सर से पाऊं तक ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिन्होंने दुनिया से हाथ धो लिए हैं, वे सिरसे पाँव तक शुद्ध हो गए हैं । उन्हें सिर से पाँव तक पानी बहाकर स्नान करने की जरुरत नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;">मन जब वासना-हीन हो जाता है, तब वह सूखी दिया-सलाई के समान हो जाता है । सूखी दिया-सलाई जिस तरह झट जल उठती है, पर गीली नहीं जलती; उसी तरह वासनाहीन मन पर परमात्मा का रंग जल्दी चढ़ता है ; किन्तु वासनायुक्त मन पर हरगिज़ नहीं । इसलिए मन को वासनाहीन करना चाहिए । साथ ही भक्ति भी निष्काम करनी चाहिए । ईश्वर से मुराद न मांगनी चाहिए । कामना रखकर भक्ति करने से कामना निश्चय ही पूर्ण होती है - ईश्वर भक्त की इच्छा अवश्य पूरी करता है; पर वैसी भक्ति से परिणाम में भय है ; क्योंकि फलों के भोगने के लिए जन्मना और मरना पड़ता है । किन्तु जो लोग बिना किसी इच्छा के परमात्मा की भक्ति करते हैं, वे मुक्ति लाभ करते हैं - उन्हें जन्म लेना और मरना नहीं पड़ता ।</span><br />
<span style="font-size: large;">जब साधक के मन में कामना नहीं रहती, तब उसके मन से ईर्ष्या-द्वेष और मित्रता-शत्रुता सब दूर हो जाती है । वह सब जगत को एक नज़र से देखता है । वह मनुष्यों की आशा नहीं रखता, केवल परमात्मा की शरण ले लेता है; इसलिए उसे सहज में मुक्ति मिल जाती है । गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है -</span><br />
<span style="font-size: large;">तब लगि हमते सब बड़े, जब लगि है कुछ चाह ।</span><br />
<span style="font-size: large;">चाह-रहित कह को अधिक, पाय परमपद थाह ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">जब तक मन में ज़रा भी आशा रहती है, तभी तक मनुष्य किसी को बड़ा मानता है और किसी का दास बनता है; जब आशा नहीं रहती तब वह सबको समान समझता है और सबका आसरा छोड़ एकमात्र परमात्मा का आसरा पकड़ता है; इससे उसको भवबन्धन से छुटकारा मिलकर परमपद की प्राप्ति हो जाती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>छप्पय</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कन्था अरु कोपीन, फटी पुनि महा पुरानी ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बिना याचना भीख, नींद मरघट मनमानी ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">रह जग सों निश्चिन्त, फिरै जितहि मन आवै ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">राखे चित कू शान्त, अनुचित नहीं भाषै ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जो रहे लीन अस ब्रह्म में, सोवत अरु जागत यदा ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">है राज तुच्छ तिहुँ भुवन को, ऐसे पुरुषन को सदा ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">भोगा भंगुरवृत्तयो बहुविधास्तैरेव चायं भवः</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">तत्कस्यैव कृते परिभ्रमतरे लोका कृतं चेष्टितैः ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">आशापाशशतोपशान्तिविशदं चेतः समाधीयतां</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">कामोच्छित्तिवशे स्वधामनि यदि श्रद्धेयमस्मद्वचः ।। १०२ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अर्थ:</span><br />
<span style="font-size: large;">नाना प्रकार के विषय भोग नाशमान और संसार-बन्धन के कारण हैं, इस बात को जानकार भी मनुष्यों ! उनके चक्कर में क्यों पड़ते हो ? इस चेष्टा से क्या लाभ होगा ? अगर आपको हमारी बात का विश्वास हो, तो आप अनेक प्रकार के आशा-जाल के टूटने से शुद्ध हुए चित्त को सदा कामनाशक स्वयंप्रकाश शिवजी के चरण में लगाओ । (अथवा अपनी इच्छाओं के समूल नाश के लिए, अपने ही आत्मा के ध्यान में मग्न हो जाओ ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">आप आज जिन विषय-सुखों को देखकर फूले नहीं समाते, वे विषय-सुख सदा आपके साथ नहीं रहेंगे । वे आज हैं तो कल नहीं रहेंगे । वे बिजली की चमक के समान चञ्चल हैं; अभी बिजली चमकी और फिर नहीं । आप ऐसे नश्वर, असार और क्षणस्थायी सुखों पर मत भूलो । होश करो ! अपनी काया नाशमान है । आप सदा इस संसार में नहीं रहेंगे । आपकी ज़िन्दगी का कोई भरोसा नहीं । आपका जो दम आता है, उसे ही गनीमत समझिये । आप एक कदम रखकर, दूसरा कदम रखने की भी दृढ़ आशा न कीजिये । आपका जीवन हवा के झोंको से छिन्न-भिन्न मेघों के समान है । अभी घटा छा रहीं थी; देखते देखते हवा उन्हें कहाँ का कहाँ उड़ा ले गयी; आकाश साफ़ हो गया। यह सारा संसार, संसार के सुख-भोग, स्त्री-पुत्र, धन-रत्नादि सभी स्वप्न की सी माया हैं । यह दुनिया मुसाफिरखाना है । रोज़ अनेक आदमी मुसाफिरखाने, सराय या धर्मशालाओं में आते और जाते रहते हैं; सदा उनमें कोई नहीं रहता । वे जिस तरह एक दिन या दो-तीन दिन रहकर चले जाते हैं; उसी तरह आपको भी, इस दुनिया रुपी सराय में चन्द रोज़ क़याम करके, आगे जाना होगा । ये सारे सामान यहाँ के यहीं रह जायेंगे । ये सब ऐसे ही रहेंगे, पर आप न रहेंगे । इसलिए आप होशियार रहिये, भूलिए मत । जिस जवानी पर आप इतना इतराते और इतने श्रृंगार-बनाव करते हैं, यह भी चन्दरोज़ा है । यह चार दिन की चाँदनी है । इसके बाद अन्धेरी रात निश्चय ही आवेगी । उस समय आपको यह अकड़, यह उछाल कूद, यह एन्ठना, यह मूंछे मरोड़ना - सब हवा हो जाएगा । आप शीघ्र ही लाठी तक कर चलने लगेंगे । आपका रूप-लावण्य नाश हो जाएगा । जो लोग आपको खूबसूरत समझकर आज प्यार करते हैं, वे ही कल आपको देखकर नाक-भौं सिकोड़ेंगे । फिर भला, आप ऐसी नश्वर निकम्मी काया क्यों इतना अभिमान करते हैं ? आप अहङ्कार को त्यागिये और अपने को उस खिलाडी का एक मिटटी का पुतला मात्र समझिये । सबकी शुभकामना और परोपकार कीजिये और एकमात्र अपने बनानेवाले से ही दिल लगाइये । इसी में आपका कल्याण है । यह जगत कुछ भी नहीं, कोरा भ्रम है । यह मृगमरीचिका या स्वप्न की सी माया है । इस पर ज्ञानी नहीं भूलते ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा सुन्दरदास जी</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कोउ नृप फूलन की सेज पर सूतो आई ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जब लग जाग्यो तौ लों, अति सुख मान्यो है ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नींद जब आयी, तब वाही कूँ स्वप्न भयो ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जब परयो नरक के कुण्ड में, यूं जान्यो है ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अति दुःख पावे, पर निकस्यो न क्यूँ ही जाहि ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जागि जब परयो, तब स्वप्न बखान्यो है ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">यह झूठ वह झूठ, जाग्रत स्वप्न दोउ ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"सुन्दर" कहत, ज्ञानी सब भ्रम मान्यो है ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">छप्पय</span><br />
<span style="font-size: large;">--------</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अति चञ्चल ये भोग, जगत हूँ चञ्चल तैसो ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तू क्यों भटकत मूढ़ जीव, संसारी जैसो ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">आशाफांसी काट, चित्त तू निर्मल ह्वैरे ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">करि रे प्रतीति मेरे वचन, ढुरिरे तू इह ओर को ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">छिन यहै यहै दिनहुँ भल्यौ, निज राखै कुछ भोर को ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">धन्यानां गिरिकन्दरे निवसतां ज्योतिः परं ध्यायतां-</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">आनन्दाश्रुजलं पिबन्ति शकुना निःशङ्कमङ्केशयाः ।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">अस्माकं तु मनोरथोपरचितप्रासादवापीतट-</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">क्रीडाकाननकेलिकौतुकजुषामायुः परिक्षीयते ।। १०३ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">वे धन्य हैं, जो पर्वतों की गुफाओं में रहते हैं और परब्रह्म की ज्योति का ध्यान करते हैं, जिनके आनन्दाश्रुओं को उनकी गोद में बैठे हुए पक्षी निर्भयता से पीते हैं । हमारी ज़िन्दगी तो मनोरथों के महल की बावड़ी के किनारे के क्रीड़ा-स्थान में लीलाएं करते हुए ही वृथा बीतती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मतलब यह कि वे लोग सफल काम हैं, जो पहाड़ों की गुफाओं में बैठे हुए परमात्मा ज्योति का ध्यान करते रहते हैं और ध्यान में इतने मग्न हो जाते हैं कि उन्हें अपने तनबदन की भी सुध नहीं रहती । उनको भीतर ही भीतर उस ब्रह्म के ध्यान से जो आनन्द-बोध होता है, उससे उनकी आँखों से आनन्द के आंसू बहने लगते हैं । पक्षी उनकी गोद में निडर बैठे हुए उन आंसुओं को पीते हैं । उन्हें कुछ खबर नहीं, कि पक्षी गोद में बैठे हैं या क्या कर रहे हैं । वे तो आनन्द में बेसुध रहते हैं । यही आनन्द परमानन्द है । इससे परे और आनन्द नहीं । जिनको यह सच्चा आनन्द मिलता है, वही सच्चे भाग्यवान हैं । एक वह हैं और एक हम अभागे हैं, जो रात-दिन मनोरथों के महल गढ़ा करते हैं - रात-दिन मिथ्या कल्पनाएं किया करते हैं । इन शेखचिल्ली के से गढन्तों से हमें कोई लाभ नहीं - इन झूठे ख्याली पुलावों के पकने में हमारा दुष्प्राप्य जीवन वृथा नष्ट हो रहा है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जो मनुष्य मानव-चोला पाकर परमात्मा का भजन नहीं करते, परमात्मा के दर्शनों की चेष्टा नहीं करते - उनका जीवन वृथा है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इसलिए <b>उस्ताद ज़ौक़</b> ने कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दिल वह क्या, जिसको नहीं तेरी तमनाये विसाल ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चश्म वह क्या, जिसको तेरे दीद की हसरत नहीं ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">वह दिल ही नहीं, जिसे तुझे पाने की इच्छा न हो और वह आँख ही नहीं, जिसे तेरे दर्शन की लालसा न हो ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">बीती सो बीती, अब तो होश करो !</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">------------------------------------------</span></b></div>
<span style="font-size: large;">भाइयों ! बीती सो बीती, अब तो चेत करो और प्रभु से लौ लगाओ । आजकल मत करो, नहीं तो पछताओगे । अन्त समय पछताने से कोई लाभ न होगा । जो लोग विचार ही विचार करते रहते हैं, वे धोखे में रह जाते हैं और काल एक दिन अचानक आकर उनकी छोटी पकड़ लेता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>गोस्वामी तुलसीदास जी</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">गए पलट आवें नहीं, सो करु मन पहचान ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">आजु जोई सोई कालहि है, तलसी मर्म न मान ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">रामनाम रटिबो भलो, तुलसी खता न खाय ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">लरिकाई ते पैरिबो, धोखे बूड़ि न जाय ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">नदी की जो धार चली गयी है, लौटकर नहीं आएगी, जो दिन चले गए हैं, वापस नहीं आएंगे । जो दिन आज है, वही कल है । कल कोई नई बात नहीं हो जायेगी । अतः जो कल करना है उसे आजही करो; और जो आज करना है, उसे अभी करो; क्योंकि यदि पल भर में प्रलय हो गयी - आप चल बसे - तो फिर कब करोगे ? बचपन से ही राम नाम रटना अच्छा है । जो लोग बचपन से ही तैरना सीख लेते हैं, धोखे से नहीं डूबते । जो लोग यही विचार किया करते हैं, कि अमुक काम हो जायेगा, तो उसके बाद हम सब गृहस्थी के झगड़े छोड़ भगवत भजन करेंगे, वे इस तरह के विचार किया ही करते हैं कि इतने में समय पूरा हो जाता है और काल उनका चोटा पकड़ कर उन्हें ले जाता है । उस वक्त वह बहुत पछताते और सिर धुनते हैं; लेकिन उस समय क्या हो सकता है ? उस समय उनकी गति उस भौंरे सी होती है, जो कमल के मुख में बन्द हो कर कहता है -</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजालं ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">बड़े बड़े शाल के लट्ठों को छेद डालने की शक्ति रखने वाला भौंरा, प्रेम के मारे, कोमल कमल में बन्द हो जाता है । रात हो जाती है और भौंरा कमल के अन्दर बैठा विचार करता है - "अब रात का अवसान होगा, सवेरा होगा, सूरज उदय होगा और यह कमल खिल जायेगा; तब मैं निकल जाऊंगा । अब रात भर यहीं आनन्द करूँ ।" वह तो ऐसे विचार करता ही रहता है, कि जंगली हाथी कमल को उखाड़ कर मुंह में रख लेता है और भौंरो के मन की मन में ही रह जाती है । यही दशा संसारी विषय-लोलुपों की है । वह विचार बाँधा ही करते हैं और काल उन्हें मुंह में धर लेता है, अतः हो सके तो बचपन में ही ईश्वर भजन करो । बचपन में यदि ऐसा सौभाग्य न हो, तो जवानी में तो न चूको । जवानी इसके लिए अच्छा समय है । उस अवस्था में शक्ति रहती है । जाने में ईश्वरभक्ति करनेवाला निश्चय ही मोक्ष या स्वर्ग पाता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>कहा है</b> -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दानं दरिद्रस्य प्रबोशच शान्तिः </span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">यूनां तपो ज्ञानवताञ्च मौनं ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">इच्छा निवृत्तिश्च सुखासितानां</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दया च भूतेषु दिवं नयन्ति ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">दरिद्रता का किया दान, निग्रह अनुग्रह की शक्ति होने पर क्षमा, जवानी का किया तप, विद्वान् होकर चुप रहना, सुख-भोग की सामर्थ्य होने पर इच्छाओं को रोक लेना और प्राणियों पर दया करना - ये स्वर्ग की प्राप्ति करते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">ईश्वर भजन में आजकल मत करो </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">-------------------------------------------</span></b></div>
<span style="font-size: large;">एक धनवान सदा घर-धंधों में लीन रहता था । उसकी स्त्री उससे बहुत कुछ कहती थी कि हे स्वामी ! यह शरीर विषय-भोगों के लिए नहीं, बल्कि परमात्मा की भक्ति के लिए मिला है । पारसमणि समझकर, इससे मोक्ष रुपी सोना बना लीजिये । ऐसा न हो कि आप सोना न बनावें और यह पारसमणि पहले ही आपसे छीन ली जाय । इस शरीर का बारम्बार मिलना कठिन है । ८४ लाख योनियां भोगने के बाद यह मनुष्य चोला मिला है । इस बार यदि इससे काम न लिया जायेगा, तो फिर चौरासी लाख योनियों में जन्म-मरण होने पर यह मनुष्य-चोला मिलेगा; इसलिए दो चार घडी तो सब तरफ से मन हटाकर परमात्मा की याद किया करो । स्त्री उससे बार बार कहती, पर वह सेठ उसकी बात टाल देता ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">एक दिन सेठ बीमार हो गया । उसने सेठानी से वैद्य को बुलाने को कहा । सेठानी ने वैद्य को बुलाया । वैद्य ने नाड़ी-नब्ज़ देख, रोग का हाल पूछ, दवा का नुस्खा लिख दिया और सेवन-विधि बताकर चला गया । सेठानी ने पंसारी के यहाँ से दवा मंगा, आले में रख दी । दिन भर हो गया पर सेठ को दवा न दी । संध्या समय सेठ ने कहा - "क्या दवा नहीं मंगाई गयी ?" सेठानी ने कहा - "जी, दवा तो मंगा ली है, पर वह रक्खी है उस ताक में ।" सेठ ने पूछा - "अब तक दी क्यों नहीं ?" सेठानी ने कहा - "जल्दी क्या है ? आज नहीं तो कल, नहीं तो परसों दे दूंगी । कभी न कभी दे ही दूंगी ।" सेठ ने कहा - "अगर मैं मर गया तो दवा कौन काम आवेगी ?" सेठानी ने कहा - "मरने को तो आप मानते ही नहीं । मैं जब जब भगवत भजन करने को कहती हूँ, तब-तब आप कह देते हैं कि देखा जायेगा; जल्दी थोड़े ही है । यदि आपको मरने की ही याद होती तो ऐसा न कहते । आज दवा के लिए आपको मरने की याद आयी है । जिस तरह दवा की रोगनाश के लिए जरुरत है; उसी तरह भजन-पूजन की जन्म-मरण का फन्दा काटने के लिए जरुरत है । ऐसा न हो कि पशु योनि मिल जाय और सारा गुड़-गोबर हो जाय ।" आज स्त्री का उपदेश लग गया । सेठ को वैराग्य हो गया । सेठानी ने उसे दवा पिला दी और वह अच्छा भी हो गया । उसी दिन से उसने ईश्वर भजन में लौ लगा दी । वह और सब भूला पर ज़िन्दगी भर, मौत और ईश्वर को न भूला ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">मौत को हरदम याद रक्खो </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">---------------------------------</span></b></div>
<span style="font-size: large;">एक बादशाह ने अपने दरबार और बैठने के स्थानों में कब्रें बनवा रक्खी थीं । वह चाहता था कि मैं हरदम कब्रों को देखकर मौत को न भूलूँ । मौत की याद रहने से पापों से बचा रहूँगा और ईश्वर को न भूलूंगा । हमारे यहाँ के अनेक सच्चे सिद्ध अक्सर शमशान भूमि में ही डेरा रखते हैं । सारांश यह कि मनुष्य को अपनी मौत सदा याद रखनी चाहिए, ताकि संसार से वैराग्य होकर ज्ञान हो और ज्ञान से मोक्ष मिले ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा कबीर</b> ने खूब जबरदस्त चेतावनी दी है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"कबिरा" जो दिन आज है, सो दिन नाहिं काल।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चेत सके तो चेतियो, मीच परी है ख्याल।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">हे कबीर ! जो दिन आज है, वह कल नहीं होगा; यानी आज का सा मौका कल फिर न मिलेगा । चेतना है तो चेत जा ! देख, मृत्यु तेरे घात में है । चूहे पर बिल्ली की तरह झपट्टा मारना ही चाहती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>गोस्वामी जी</b> ने भी खूब कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"तुलसी" विलम्ब न कीजिये, भेज लीजै रघुबीर।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तन तरकस ते जात है, श्वास सार सो तीर।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पल में परलय होएगी, बहुरि करोगे कब?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">तुलसीदास जी कहते हैं, देर न करो, भगवान् को भेज लो; क्योंकि तनरूपी तरकस से श्वास रुपी तीर, जो सार है, निकला जाता है । जो काम कल करना है, उसे आज ही कर डालो और जो आज करना है, उसे अभी कर डालो; क्योंकि यदि पल में प्रलय हो गयी, तो फिर कब करोगे ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जो मनुष्य दिन-रात घर-धन्धों में ही लगे रहते हैं, कभी खुश होते हैं कभी रंज करते हैं, कभी कन्या के वैधव्य दुःख को देखकर जलते रहते हैं, तो कभी पुत्र के मरण से औंधा मुंह किये पड़े रहते हैं अथवा कान्ता-वियोग या स्त्री के मरण से तड़फते हैं अथवा धनवृद्धि के लिए दौड़ते फिरते हैं । लेकिन परमात्मा का नाम कभी नहीं लेते; यदि लेते हैं तो हाथ को तो गोमुखी में रखते हैं, पर मन को विषयों में लगाए रहते हैं, लोगों से बातें करते रहते और सड़ासड़ माला फेरा करते हैं, ऐसों के पास एक दिन भी चतुर पृष्ठों को न रहना चाहिए ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>कहा है</b> -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">राजा धर्मविना, द्विजः शुचिविना, ज्ञानं विना योगिनः ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कान्ता सत्यविना, हयो गति विना, भूषा च ज्योतिर्विना ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">योद्धा शूरविना, तपो व्रत विना, छन्दो विना गीयते ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भ्राता स्नेह विना, नरो हरि विना, मुञ्चन्ति शीघ्रं बुधाः ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">धर्महीन राजा को, शौचहीन ब्राह्मण को, ज्ञानहीन योगी को, असत्यवादिनी स्त्री को, गतिहीन घोड़े को, चमक-दमक रहित गहने को, शूरताहीन योद्धा को, नियम रहित तप को, छन्द बिना कविता को, स्नेह-हीन भाई को और हरिभक्ति रहित पुरुष को बुद्धिमान लोग शीघ्र ही छोड़ देते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">हरिभक्ति रहित पुरुष को चतुर लोग इसलिए त्याग देते हैं, कि उसकी सङ्गति में उनका मन भी कहीं वैसा न हो जाय । मनुष्य जैसी सङ्गति करता है, वैसा ही हो जाता है । जो विषयी पुरुषों की सङ्गति करता है, वह विषयी हो जाता है; पर जो ज्ञानी और वैरागियों की सङ्गति करता है, वह ज्ञानी और वैरागी हो जाता है । महापुरुषों की एक शुभ दृष्टी से मनुष्य निहाल हो जाता है; यानी भाव-बन्धन से उसका पीछा छूट जाता है । हम आगे दोनों तरह के दृष्टान्त देते हैं -</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">एक राजा और महात्मा </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">-----------------------------</span></b></div>
<span style="font-size: large;">किसी जंगल में एक महात्मा रहते थे । वह पेड़-पत्ते और हवा खाकर ज़िन्दगी बसर करते थे । उनकी शोहरत सारे देश में फ़ैल गयी । उस देश के राजा ने भी उनसे मिलना चाहा । वज़ीर ने यह खबर महात्मा को दी । महात्मा उस जंगल को छोड़ भागने को तैयार हुए; लेकिन मंत्री के बहुत समझने बुझाने से वह वहां रह गए और राजा को दर्शन देने पर भी राज़ी हो गए ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">एक दिन राजा अपने परिवार और दरबारियों समेत महात्मा के दर्शन को गया । महात्मा के दर्शन कर वह बहुत ही खुश हुआ और उनसे नगर में चलकर बाग़ में तप करने की प्रार्थना की । महात्मा बहुत ज़ोर देने से इस बात पर राज़ी हो गया । राजा ने अपने बाग़ में उसके लिए एक एकान्त कमरा खूब सजवा दिया । मखमली गद्दे, तकिये, कौच, पलंग और कुर्सियां रखवा दीं और चौदह-चौदह बरस की सुन्दरी मनमोहिनी कामिनियाँ महात्मा जी की सेवा को नियुक्त कर दीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">महात्मा जी खूब आनन्द से दिनी गुज़ारने और विधुवदिनी कामिनियों को भोगने लगे । चन्दरोज में ही वह विषयों के वशीभूत हो गए । एक दीं राजा फिर उनसे मिलने गया । उसने देखा कि महात्मा जी का रंग रूप गुलाब के फूल जैसा हो गया है । वह मसनद के सहारे लेते हुए हैं और चन्द्रानना स्त्रियां उन पर मोरछल कर रही हैं । यह तमाशा देख राजा को बड़ा दुःख हुआ । उसने अपने मंत्री से यह हाल कहा । मंत्री ने कहा - "महाराज ! निवृत्ति मार्ग वालों को प्रवृत्ति मार्ग वालों की सङ्गति भूलकर भी न करनी चाहिए ।"</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>कहा है</b> -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कामीनाम् कामिनीनां च संगात् कामी भवेत् पुमान्। </span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">देहान्तरे ततः क्रोधी लोभी मोहि च जायते।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">काम क्रोधादि संसर्गाद शुद्धं जायते मनः।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अशुद्धे मनसि ब्रह्मज्ञानं तच्च विनश्यति।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">कामी पुरुषों और स्त्रियों की सङ्गति से पुरुष कामी और जन्मान्तर में मोहि और क्रोधी हो जाता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">काम क्रोधादि के सम्बन्ध से मन भी अशुद्ध हो जाता है । अशुद्ध मन से उपदेश किया हुआ ब्रह्मज्ञान भी नष्ट हो जाता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">एक महात्मा और वेश्या </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">---------------------------------</span></b></div>
<span style="font-size: large;">एक महात्मा एक दिन वर्षा में भीगते हुए और कीच में लिपटे हुए एक मकान के छज्जे के नीचे जा खड़े हुए । वह मकान राजा की वेश्या का था । महात्मा सर्दी के मारे थर-थर काँप रहे थे । वेश्या की दासी ने महात्मा को देखा और अपनी स्वामिनी से सारा हाल जा कहा । वेश्या ने कहा - "जाओ, महात्मा की लिवा लाओ ।" दासी उन्हें ले आई । वेश्या ने उनको स्नान कराकर नए कपडे पहनाये और भोजन कराया । इसके बाद आप भोजन करके उनके पास गयी और उन्हें पलंग पर लिटा कर उनके पैर दबाने लगी । महात्मा ने एक नज़र भर के वेश्या की तरफ देखा और उसके ह्रदय में अमृत की धारा बहा दी । वह सो गए और वेश्या रात भर उनके चरण चापती रही । सवेरे के समय वह सो गयी और महात्मा उठ कर चल दिए । भोर में उठते ही वेश्या ने दासी से पूछा कि महात्मा कहाँ गए ? उसने कहा कि वो तो चले गए । वेश्या उसी समय नंगी होकर घर से निकल गयी और एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गयी । राजा ने यह समाचार सुनते ही अपने आदमी उसको लिवा लाने को भेजे । वेश्या ने कहा - "राजा से कह दो, कि मैं आपका वह मैला उठाने वाली पहले की भंगन नहीं हूँ ।" राजा ने यह बात सुन, हुक्म दे दिया कि उसे कोई न छेड़े । अगले दिन वह कहीं चली गयी । सच है, महापुरुषों की क्षणभर की सङ्गति से महापापी भी निहाल हो जाता है । निस्संदेह सत्संग बड़ी चीज़ है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>कहा है</b> -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">महानुभावसंसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पद्मपत्रस्थितम् वारिधत्ते मुक्ताफलश्रियम ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">महापुरुषों की सङ्गति से किसकी उन्नति नहीं होती ? कमल के पत्ते पर पड़ी जल की बून्द मोती की शोभा को धारण करती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">और भी -</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जेहि जैसी सङ्गति करी, सो तैसो फल लीन ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कदली सीप भुजंग मुख, एक बून्द गुण तीन ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जो जैसी सङ्गति करता है, वह वैसा ही फल पाता है । मेह की एक बून्द केले में कपूर, सीप में मोती और सर्प मुख में विष हो जाती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">सवैय्या </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ज्ञान बढै गुनवान की संगत,</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ध्यान बढै तपसी-संग कीने ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मोह बढै परिवार की संगत,</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">लोभ बढै धन में चित दीने ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">क्रोध बढै नर मूढ़ की संगत,</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">काम बढै तिय के संग कीने ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बुद्धि विवेक विचार बढै,</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कवि "दीन" सुसज्जन संगत कीने ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सत्संग की महिमा का पार नहीं । सत्संग से ही दस्यु भील वाल्मीकि ऋषि हो गए । पद्मयोनि से पैदा हुए ब्रह्मा कैवर्त्ति से पैदा हुए व्यासजी, उर्वशी से पैदा हुए वशिष्ठ जी और हिरनी से पैदा हुए ऋषि श्रृंगी सत्संग से ब्रह्मतत्व को प्राप्त हुए; अतः महापुरुष्णो का संग करना चाहिए । "सत्संग" भाव-सागर से पर करने के लिए नौका-स्वरुप है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>कहा है</b> -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तत्त्वं चिन्तय सततं चित्ते,</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">परिहर चिन्तां नश्वरवित्ते ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">क्षणमिह सज्जनसङ्गतिरेका,</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भवति भवार्णवतरणे नौका ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">हमेशा तत्व की चिन्तना कर, चञ्चल धन की चिन्ता छोड़ । यह जगत अल्पकालीन है; केवल सज्जनों की सङ्गति ही भवसागर के पार जाने के लिए नाव के समान है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इस संसार वृक्ष के जितने फल हैं, सभी प्राणी के नाश करनेवाले और उसे सदा दुखों के गर्त में पटक रखनेवाले हैं; केवल दो फल अमृत समान हैं;</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">कहा है -</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">संसारविषवृक्षस्य द्वे फैले अमृतोपमे ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">काव्यामृत रसास्वाद आलापः सज्जनैः सह ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इस संसार रुपी विष-वृक्ष के दो फल अमृत के समान हैं</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>१) </b>काव्यरुपी अमृत का रसास्वादन करना, <b>२) </b>साधु पुरुषों की सङ्गति करना ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>शंकराचार्य जी</b> ने कैसा अच्छा उपदेश दिया है । इसमें संसार-सागर से पार होने का सारा मसाला है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">संगः सत्सु विधीयतां, भगवतोभक्तिर्दृढ़ा धीयतां,</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">शान्त्यादिः परिचीयतां, दृढतरं कर्माशु संत्यज्यताम्।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सद्विद्या ह्युपसर्प्यतां, प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां,</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ब्रह्मैकाक्षरमर्थ्यतां श्रतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम्।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">साधु पुरुषों का संग करना चाहिए । भगवान् में दृढ़ भक्ति करनी चाहिए । क्षमा और दम प्रभृति का अभ्यास करना चाहिए । संसार-बन्धन के कारण "कर्म - सकाम कर्मों को" शीघ्र त्यागना चाहिए । सच्चे विद्वानों की सेवा करनी चाहिए और उनकी पादुकाएं उठानी चाहिए । ब्रह्म बोधक एकाक्षर प्रणव "ॐ" का जाप करना चाहिए और वेद के शिरोवाक्य "वेदान्त" को सुनना चाहिए ।</span><br />
<span style="font-size: large;">वाह ! क्या खूब कहा है ! जो इस वचन पर अमल करेगा, उसे परमानन्द की प्राप्ति क्यों न होगी ? अवश्य होगी ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">योगी जग विसराय, जाय गिरिगुहा बसत हैं ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">करत ज्योति को ध्यान, मगन आंसू वरसत हैं ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">खगकुल बैठत अंक, पियत निःशंक नयनजल ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">धनि-धनि हैं वे धीर, धरयो जिन यह समाधिबल ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हम सेवत बारी बाग सर, सरिता बापी कूपतट ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">खोवत है योंही आयु को, भये निपटही नीरघट ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">आघ्रातं मरणेन जन्म जरया विद्युच्चलं यौवनं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">सन्तोषो धनलिप्सया शमसुखं प्रौढाङ्गनाविभ्रमैः ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">लोकैर्मत्सरिभिर्गुणा वनभुवो व्यालैर्नृपा दुर्जनैः</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">अस्थैर्येण विभूतिरप्यपहृता ग्रस्तं न किं केन वा ।। १०४ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">मृत्यु ने जन्म को ग्रस रक्खा है, बुढ़ापे ने बिजली के समान चञ्चल युवावस्था को ग्रस रक्खा है, धन की इच्छा ने सन्तोष को ग्रस रक्खा है, जलनेवालों ने गुणों को ग्रस रक्खा है, सर्प और जंगली जानवरों ने वन को ग्रस रक्खा है, दुष्टों ने राजाओं को ग्रस रक्खा है, अस्थिरता या चञ्चलता ने धनैश्वर्य को ग्रस रक्खा है; तब ऐसी कौन सी चीज़ है, जो किसी दूसरी नाशक चीज़ के चंगुल में नहीं है ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">खुलासा यह है, कि जन्म को मृत्यु का भय है, जवानी को बुढ़ापे का भय है, सन्तोष को लोभ का भय है, शान्ति को स्त्रियों के हावभाव और विलासों का भय है, गुणों को उनसे जलने या कुढ़नेवालों का भय है, वन में सर्प और हिंसक पशुओं का भय है, राजाओं में दुष्ट दरबारियों का भय है, धन और ऐश्वर्य में क्षणभंगुरता का भय है । संसार में ऐसी कोई अच्छी वास्तु नहीं है, जिसे किसी का भय न हो । मतलब यह है कि, संसार और संसार के सभी पदार्थ नाशमान हैं । ऐसी कोई चीज़ नहीं है, जिसका काल नाश नहीं कर देता अथवा जिसे किसी तरह का भय नहीं है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">संसार की यह दशा है, तब भी तो मनुष्य चेत नहीं करता, यही तो आश्चर्य की बात है ! अज्ञानी मनुष्य, मोहवश, अपना हानि-लाभ नहीं देखता; संसार की झूठी माया में फंसा रहता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>तुलसीदास जी</b> ने ठीक ही कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">करत चातुरी मोहवश, लखत न निज हित हान ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">शूक मर्कट इव गहत हठ, तुलसी परम सुजान ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दुखिया सकल प्रकार शठ, समुझि परत तोई नाहिं ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">लखत न कण्टक मीन जिमि, अशन भखत भ्रम नाहिं ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">विषयों के संसर्ग से मनुष्य के मन में कामना - इच्छा पैदा होती है । जब इच्छा पूरी नहीं होती, तब क्रोध होता है और क्रोध से मोह की उत्पत्ति होती है । मोह होने से प्राणी को अपना हित या परलोक की हानि नहीं दीखती । राग-द्वेष प्रभृति के कारण उसमें ज्ञानदृष्टी नहीं रहती; पर पढ़ने-लिखने के कारण वह अपने तई परम चतुर समझता है और जिस तरह हठ करके तोता बहेलिये के फन्दे में आप ही फंस जाता है और पिंजरे में कैद हो जाता है तथा बन्दर छोटे मुंह की ठिलिया में रोटी के लिए हाथ डालकर बंदरवाले के कब्जे में हो जाता है; उसी तरह विषयी पुरुष, विषयों के लालच में आकर, अपने तई संसार-बन्धन में फंसा लेता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य भूख, प्यास, रोग, शोक, दरिद्रता, प्रिय-वियोग, बुढ़ापा, जन्म-मरण, चौरासी लाख योनियों में दुःख-भोग तथा नरक प्रभृति से हर तरह दुखी है, उसे ज़रा भी सुख नहीं है, पर वह मोह के मारे ऐसा अन्धा हो रहा है कि उसे कांटे में लगे चारे के लिए फंसने वाली मछली कि तरह कुछ भी नहीं सूझता । जिस तरह मछली को रोटी का टुकड़ा प्यारा है; उसी तरह मनुष्य को विषय-भोग प्यारा है । जिस तरह मछली को काँटा है, उसी तरह मनुष्य को ममता का काँटा है । मतलब यह है, अज्ञानी मनुष्य विषय रुपी चारे के लोभ से ममता के कांटे में फंसकर अपना नाश कराता है; पर मज़ा यह कि वह दुःख को दुःख नहीं समझता; तरह-तरह के भयों से घिरा हुआ नाना प्रकार के संकट झेलता है; मछली, तोते और बन्दर की तरह बन्धन में फंसता है, पर निकलना नहीं चाहता । इन दुःखों का उसे ज़रा भी ख्याल नहीं आता । रोज़ लोगों को मरते हुए देखता है, रोज़ बूढ़ों को असह्य कष्ट उठाते देखता है; पर आप नहीं समझता कि मेरी भी यही गति होनेवाली है ! उल्टा हर साल जन्मतिथि को वर्षगाँठ का उत्सव करता है । मित्रों और रिश्तेदारों को निमंत्रण देता है । गाना बजाना और नाच रंग कराता है । कैसी बात है, जहाँ रंज करना चाहिए, वहां नादान मनुष्य ख़ुशी मनाता है ! उसे समझना चाहिए कि हर सालगिरह को उसकी उम्र का एक साल काम होता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा सुन्दरदास जी </b>ने क्या खूब कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जबतें जनम लेत, तबही तें आयु घटे ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">माई तो कहत, मेरो बड़ो होत जात है ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">आज और काल और दिन-दिन होत और ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दौरयो दौरयो फिरत, खेलत और खात है ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बालपन बीत्यो, जब यौवन लाग्यो है ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">यौवनहु बीते बूढ़ो डोकरो दिखात है ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"सुन्दर" कहत, ऐसे देखत ही बूझिगयो ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तेल घटी गए, जैसे दीपक बुझात है ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">प्राणी जब से जन्म लेता है, तभी से उसकी उम्र घटने लगती है । माँ समझती है कि मेरा लाल बड़ा होता जाता है । दिन-दिन उसके रंग बदलते हैं । बचपन में खाता खेलता और भागा फिरता है । बचपन के बीतते ही जवानी आ जाती है और जवानी के बीतते ही बुढ़ापा आ जाता है और वह बूढा डोकरा सा दिखने लगता है । सुन्दरदास कहते हैं कि देखते-देखते जिस तरह तेल घट जाने से चिराग बुझ जाता है; उसी तरह वह बुझ जाता है; यानी मर जाता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ग्रस्यो जन्म को मृत्यु, जरा यौवन को ग्रास्यौ ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ग्रसिवे को सन्तोष, लोभ यह प्रगट प्रकास्यो ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तैसहि समदृष्टि ग्रसित, बनिता बिलास वर ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मत्सर गुण ग्रसिलेत, ग्रसत वन को भुजङ्गवर ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नृप ग्रसित किये इन दुर्जनन, कियौ चपलता धन ग्रसित ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कछुहु न देख्यौ बिन ग्रसित जग, याही तें चित अति त्रसित ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">आधिव्याधिशतैर्जनस्य विविधैरारोग्यमुन्मूल्यते</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">लक्ष्मीर्यत्र पतन्ति तत्र विवृतद्वारा इव व्यापदः ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">जातं जातमवश्यमाशु विवशं मृत्युः करोत्यात्मसात्तत्किं </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">नाम निरङ्कुशेन विधिना यन्निर्मितं सुस्थितम् ।। १०५ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">सैकड़ों मानसिक और शारीरिक रोग स्वास्थ्य का नाश कर डालते हैं । जहाँ संपत्ति और प्रभुता है, वहां विपत्ति दरवाज़ा तोड़कर चोर की तरह चढ़ाई करती है । जो जन्म लेता है उसे मृत्यु शीघ्र ही अपनी जबड़ों में फंसा लेती है; तब निरंकुश विधाता ने सदा स्थायी रहनेवाली कौन सी चीज़ बनायीं है ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य शरीर रोगों का घर है । मानसिक और कायिक रोग सदैव उसके भीतर डेरा डाले रहते और स्वास्थ्य का नाश करते रहते हैं । संपत्ति पर विपत्ति सदा ताक लगाए खड़ी रहती है और ज़रा सा भी मौका पाते ही दरवाज़ा तोड़ कर उसका विनाश कर देती है । जन्म लेनेवाले के सिर पर मौत सदा मंडराया करती है एवं दांव-घात देखती रहती है और जब मौका पाती है, उसे अपने पंजो में फंसा लेती है । सारांश यह कि शरीर के साथ रोग, संपत्ति के साथ विपत्ति, जन्म के साथ मृत्यु, संयोग के साथ वियोग, सुख के साथ दुःख और जवानी के साथ बुढ़ापा प्रभृति एक दुसरे के नाशक विधाता ने लगा रखे हैं । विधाता ने कोई भी चीज़ सदा स्थायी नहीं बनाई; जो कुछ बनाया है वह चंदरोज़ा और नाशमान बनाया है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">संसार की असारता देखकर, मनुष्य को अपने तई इस संसार में पाहुने की तरह समझना चाहिए । जिस तरह पाहुना जहाँ कहीं जाता है और जहाँ ठहरता है, वहां के लोगों से दिल नहीं लगाता; उसी तरह समझदारों को इस दुनिया से दिल न लगाना चाहिए ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जिसको रहना उत घर, सो क्यों मोड़े मित्त ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जैसे पर-घर पाहुना, रहै उठाय चित्त ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">इत पर-घर उत है घरा, बनिजन आये हाट ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कर्म करीना बेचि के, उठि करि चाले बाट ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुन परतीति न उपजे, जीव विश्वास न होय ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"कबिरा" ऐसा संसार है, जैसा सैमल-फूल ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दिन दशके व्यौहार में, झूठे रंग न भूल ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य का अपना घर वह है जहाँ से वह आया है, यह नहीं ; अतः उसे अपने उस घर से दिल न हटाना चाहिए । इस घर में आकर मेहमान की तरह रहना चाहिए और मेहमान की तरह ही अपना दिल उठाये रखना चाहिए ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यह पराया घर है और वह अपना घर है । यहाँ हाट में अपना व्यवसाय करने आये हैं । हाट में सौदा बेचकर अपनी राह लगेंगे; यानि इस दुनिया में अपने कर्मों का फल भोगकर यहाँ से चले जाएंगे ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इस दुनिया में अपना कोई साथी नहीं है । सभी मतलबी यार है और मतलब के लिए ही हमारे बन रहे हैं । सुनकर प्रतीत नहीं होता और जे में विश्वास नहीं आता; पर बात सच्ची है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">कबीरदास जी कहते हैं - यह संसार सेमल के फूल की तरह है । दस दिन के व्यवहार और मेल-जोल से झूठे रंग पर न भूलना चाहिए ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सारांश यह है कि दुनिया पराया घर है और प्राणीमात्र यहाँ मेहमान है; अथवा यह संसार सराय है और हमलोग मुसाफिर हैं । यदि हम पाहुने हैं तो, और यदि हम मुसाफिर हैं तो - दोनों ही हालातों में - हमें इस दुनिया से दिल नहीं लगाना चाहिए । हम जहाँ से आये हैं अथवा जहाँ हमारा घर है, हमें अपना दिल वहां के लिए ही उठाये रहना चाहिए ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दुनिया गोरख धन्धा है</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">यह संसार बिलकुल मिथ्या और असार है; इसमें कुछ भी तत्व नहीं है । केले के खम्भे और प्याज को ज्यों ज्यों छीलते जाइये, त्यों त्यों उसके भीतर से सिवा छिलकों के कुछ नहीं निकलता । यह जगत भी उनकी तरह ही सारहीन है । इसमें कुछ भी नहीं है । यह कोरा मायाजाल या धोखा है । इस गोरखधन्धे में जो फंस जाते हैं, वे बुरी तरह नष्ट होते और अन्त में पछताते हैं । इसलिए भाइयों ! इस मायाजाल से निकलने कि चेष्टा करो । खूब खबरदार रहो ! इस जगत के सभी सुख भोग झूठे और प्राणी के पक्ष में अहितकर हैं । आगा हश्र ने थियेटर के गाने के तर्ज़ में क्या खूब कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">इस जाल में सब उलझाए, दुनिया है गोरखधन्धा।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">डाल रखा है सबने गले में, लोभ-मोह का फन्दा।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये दुनिया है बूर का लड्डू, देख के जी ललचाये।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">न खाये तो भी पछताए, खाये तो पछताए।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">फिर भी सकल जगत है अन्धा।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">इस दुनिया के सुख भी झूठे, इसका प्यार भी झूठा।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सावधान हो ! इस ठगनी ने बड़ों बड़ों को लूटा।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मूरख ! मत बन इसका बन्दा ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">यह चोला परोपकार और ईश्वर भजन के लिए है </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------------------------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">आप जब इस दुनिया में आने के लिए माँ के गर्भ में थे, तब अपने परमात्मा से प्रार्थना की थी कि हे नाथ ! मुझे इस नरक कुण्ड से निकालिये; मई दुनिया में जाकर माया-मोह में न फंसकर, केवल आपकी ही परिस्तिश और उपासना तथा जगत के दुसरे प्राणियों का उपकार करूँगा; पर यहाँ आकर बचपन अपने खेल-कूद में और जवानी स्त्री के साथ ऐश-आराम में बिता दी !! क्या आपको ऐसा ही करना चाहिए था ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यह मनुष्य चोला इसलिए मिला है कि मनुष्य इस जगत में दुसरे प्राणियों की शुभचिन्तना करे और अपने कर्म-बन्धन काट कर परमपद की प्राप्ति करे; पर लोग तो इसकी चमक-दमक पर ऐसे भूल जाते हैं, कि उन्हें अपने आगे के सफर का ख्याल ही नहीं रहता । ऐसा समझने लगते हैं मानो वह सदा यहीं रहेंगे । यहाँ के लिए, जहाँ उन्हें बहुत ही थोड़े दिन रहना होता है, हज़ारों तरह के सामान करते हैं; पर आगे के लम्बे सफर के लिए कुछ नहीं करते ! यहाँ के लिए इतना आडम्बर और वहां के लिए कुछ नहीं । यह चतुराई तो अच्छी नहीं मालूम होती ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> ने कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">क्या यह दुनिया, जिसमें कोशिश न हो दीं के वास्ते।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वास्ते वां के बी कुछ - या सब यहीं के वास्ते ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इस दुनिया में आकर कुछ परलोक के लिए भी करना चाहिए । यह नहीं कि उधर की फ़िक्र बिलकुल न की जाय ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">हमें सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ और प्रकृति के प्रत्येक काम से परोपकार की शिक्षा मिलती है । सूर्य परोपकार के लिए ही भ्रमण करता है । चन्द्रमा परोपकार के लिए ही कष्ट सहकर जगत में शीतल चांदनी छिटकाता है । सितारे अँधेरी रात में मुसाफिरों को राह दिखने के लिए ही रात-भर टिमटिमाते हैं । ध्रुव उत्तर दिशा का ज्ञान कराने और समुद्र के अगाध और अनन्त जल में जहाज़ों को राह दिखने के लिए ही चमकता है । नदियां परोपकार के लिए ही बहती हैं । वृक्ष परोपकार के लिए ही फलते हैं । परोपकार के लिए ही शेष जी ने इस लम्बी-चौड़ी पृथ्वी का बार अपने सहस्त्र फणों पर धारण कर रखा है । । कच्छप ने परोपकार के लिए ही शेष समेत पृथ्वी का भार अपनी पीठ पर वहन कर रखा है । भगवान् ने परोपकार के लिए ही बारम्बार अवतार लेकर जन्म-मरण का कष्ट उठाया है । शिवि और दधीचि ने परोपकार के लिए ही अपनी जाने दे दी । किसी कवी ने कहा है -</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बिरछा फलै न आपको, नदी न अचवे नीर ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">परोपकार के कारणे, सन्तन धरो शरीर ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">शेष शीश धारे धरा, कछु न अपनो काज ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">परहित पर सारथी रथी, वाइक बने न लाज ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">किसी जंगल में चूहों की एक कतार चली जाती थी । उनमें एक चूहा अन्धा था । उसके मुख में एक तिनका पकड़ाकर दुसरे चूहे ने उसे अपने मुंह में पकड़ रखा था । उसके सहारे अन्धा चूहा भी चला जाता था । यह जानवरों का हाल है । पशुओं में भी परोपकार-बुद्धि होती है । जो मनुष्य होकर परोपकार शून्य है, वह पशुओं से भी गया-बीता है । खासकर मनुष्य-देह तो परोपकार के लिए ही दी गयी है; अतः मनुष्य को परोपकार करना ही चाहिए ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>कहा है</b> -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">परोपकारः कर्तव्यः प्राणैरपि धनैरपि ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">परोपकारजं पुण्यं न स्यात् क्रतुशतैरपि ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">परोपकारशून्यस्य धिङ्मनुष्यस्य जीवितम् ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">यावन्तः पशवस्तेषां चर्माप्युपकरिष्यति ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन को न जीवति मानवः ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">धन और प्राणो से परोपकार करना चाहिए ; क्योंकि परोपकार के पुण्य के बराबर है सौ यज्ञों का भी पुण्य नहीं है । परोपकार शून्य मनुष्यों के जीने को भी धिक्कार है ! पशुओं का चमड़ा भी पराये काम आता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">अपने लिए इस लोक में कौन नहीं जीता ? पराये के लिए जो जीता है वही जीता है और तो मृतकवत हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">सौ यज्ञों का पुण्य भी परोपकार-जन्य पुण्य की बराबरी नहीं कर सकता </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-----------------------------------------------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">एक वैश्य ने अपने करोड़ों रुपये यज्ञों में खर्च कर दिए । शेष में वह निर्धन हो गया । उसकी स्त्री ने उसे सलाह दी कि राजा को अपने दो चार यज्ञों का फल देकर धन ले आओ, तो शेष जीवन सुख से कट जाय । वैश्य राज़ी हो गया । सेठानी ने उसे राह में खाने के लिए नौ रोटियां रख दिन । वह वन में पहुँच कर एक वृक्ष के नीचे ठहर गया । वह पानी ज़ोर से बरसने के कारण राह न थी । उसी पेड़ के खोंतरे में एक कुतिया ब्यायी थी । वह वर्षा के मारे नौ दिन से खुराक की तलाश में कहीं न जा सकी थी; इसलिए भूखी मरणासन्न हो रही थी । वैश्य ने उसे अपनी सब रोटियां खिला दीं और आप भूखा रह गया । वह भूखा-प्यासा राजा के पास पहुंचा और उसे अपनी राम कहानी कह सुनाई । राजा ने राज-ज्योतिषी से पूछा - "इस सेठ के कौन से यज्ञ का फल उत्तम है ?" ज्योतिषी ने कहा -"महाराज ! इसने राह में कुतिया को अपनी रोटियां खिलाकर जो उपकार किया है, उसी का फल उत्तम है; आप उसे ही खरीद लीजिये ।" वैश्य उस परोपकार के फल को देने पर राज़ी न हुआ; तब राजा ने उसे कई लक्ष मुद्रा देकर विदा किया । सारांश यह, कि संसार में परोपकार और दया के समान और पुण्य नहीं है । अतः मनुष्य को निस्वार्थ भाव से परोपकार करना चाहिए । जो मनुष्य होकर परोपकार नहीं करता उसका जन्म वृथा है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>किसी ने कहा है</b> -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जातः कूर्मः स एकः पृथुभुवनभरायार्पितं येन पृष्ठं ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">श्लाघ्यं जन्म ध्रुवस्य भ्रमति मियमितं यत्र तेजस्विचक्रम् ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">संजातव्यर्थपक्षाः परहितकरणे नोपरिष्टान्न चाधो ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ब्रह्माण्डोदुम्बरान्तर्मशकवदपरे प्राणिनोजातनष्टाः ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">संसार में उस प्रसिद्ध कछुए का जन्म ही सफल है, जिसने इस विशाल पृथ्वी का भार उठाने के लिए अपनी पीठ दे रक्खी है; और इसी तरह ध्रुव का जन्म प्रशंसनीय है, जिसको बीच में लेकर सप्तर्षियों का ज्योतिमण्डल घूमता है । परोपकार करने में अशक्य मनुष्यों का जन्म इस ब्रह्माण्ड में गूलर के बीच में रहने वाले उन मच्छरों के समान वृथा है जो पंख सहित होने पर भी कुछ नहीं कर सकते ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अतः भाइयों ! स्त्री-पुत्र प्रभृति के लिए अमूल्य जीवन वृथा नाश मत करो । ये आपके कोई नहीं । ये यहीं के साथी और बड़े स्वार्थी हैं; परलोक में आपके साथ न जाएंगे; वह केवल धर्म ही आपके साथ जाएगा । मौत आपके ले जाने के लिए आना ही चाहती है । इसलिए चेत करो, आँखें खोलो, अब न सोओ । सांस सांस पर जगदीश का सुमिरन करो और निष्काम भाव से प्राणियों पर दया और परोपकार करो; क्योंकि मरने पर ये ही आपके काम आएंगे ।</span><br />
<span style="font-size: large;">कविता या गाने की चीज़ों का प्रभाव मनुष्य पर बड़ी जल्दी पड़ता है; इसी से हम चार-पांच चित्ताकर्षक और मोहभञ्जन करनेवाले गाने नीचे देते हैं -</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">भजन (राजबिहाग)</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">----------------------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हे मन गुमानी ! चेत कर; हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बीती यह जाती है उमर; हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नारी नरक की खान है; जिस पर जगत गलतान है।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">इसका मज़ा इस आन है; हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुत बन्धु माता और पिता; कुनबा कबीला आशनां।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सब सुख के साथी हैं तेरे; हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दुनिया कहौ क्या माल है; माया का फैला जाल है।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">इसपर तू क्या खुशहाल है; हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कहना मेरा मान ले तू, हरगिज़ न कर अभिमान तू।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">एक प्रभु को साँचा जान तू, हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">भजन</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">क्या देख दीवाना हुआ रे ।। टेक ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">माया बनी सार की सूली, नारी नरक का कुआँ रे ।। १ ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हाड़ चाम का बना पींजरा, तामें मनुआं सूआ रे ।। २ ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भाई बन्धु और कुटुम्ब घनेरा, तिन में पच पच मूआ रे ।। ३ ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कहत कबीर सुनो भई साधो, हार चला जग जूआ रे ।। ४ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">भजन (राग काफी)</span></b><br />
<span style="font-size: large;">----------------------</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नर समझत नाहिं अनारी ।। टेक ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">गर्भवास में उलटो लटक्यो, पायो दुःख अति भारी ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जो प्रभु ! अबके मैं बाहर निकसो, तेरो भजन करूँ हरबारी ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पलक नहिं देउँ बिसारी ।। १ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;">जन्म होत माया लिपटायो, भूल गया सुध सारी ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भक्ति भाव में चित्त न राख्यो, ऐसी कुमत बिचारी ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जन्म की कर दई ख्वारी ।। २ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;">आया था कुछ लाभ करन को, गाँठ की पूँजी हारी ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सौदा कर ले राम नाम का, आओ शरण गिरधारी ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भरोसा जिनका है भारी ।। ३ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;">श्री सतगुरु तोहिं नित समझावें, वे हैं सबके हितकारी ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">आप तरें औरन को तारें, कहै "हरिदास" पुकारी ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">उमर योंही मुफ्त गुज़ारी ।। ४ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">ग़ज़ल</span></b><br />
<span style="font-size: large;">---------</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">उठ जागरे मुसाफिर ! किस नींद सो रहा है ?।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जीवन अमूल्य प्यारे, क्यों मुफ्त खो रहा है ? ।।१।!</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">रहना न यहाँ पे होगा, दुनिया सराय फानी ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">फंसकर बदी में प्यारे, क्यों मस्त हो रहा है ? ।।२।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ले ले धरम का तोषा, मत भूल ए दिवाने !।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नेकी की खेती कर ले, क्यों पाप बो रहा है ?।।३।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">माता पिता व भाई, होंगे न कोई साथी।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">क्यों मोहरूपी बोझा, नाहक का ढो रहा है ?।।४।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">किश्ती तेरी पुरानी, हिकमत से पार कर ले ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ए दिल ! अथाह जल में, तू क्यों डुबो रहा है ?।।५।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">भजन(लावनी)</span></b><br />
<span style="font-size: large;">-----------------</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पड़ लोभ मोह के जाल में, नर आयु क्यों खोता है ।। टेक ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">यह जग जान रैन का सुपना, जिसको कहता अपना अपना।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भूल गया ईश्वर का जपना, फंसा हुआ धन माल में ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">क्या सुख की नींद सोता है ?।। १ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;">चलै अकड़ बन छैल-छबीला, अन्त समय सब हो जाय ढीला ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">काम न आये कुटुम्ब-कबीला, भूला जिनके ख्याल में ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कोई साथी नहिं होता है ।। २ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;">अब क्यों सिर धुनि-धुनि पछतावे, रुदन करै और रौल मचावे ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कुछ नहिं तेरी पार बसावे, चूका पहिली चाल में ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">क्या खड़ा-खड़ा रोटा है ?।। ३ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;">समझ-सोचकर कदम उठाना, मुश्किल मनुष जन्म है पाना ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कहै "मुरारी" जो हो दाना, भेज हर को हर हाल में ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">क्यों पाप-बीज बोता है ?।। ४ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा सुन्दरदास जी</b> की भी सुनिए -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बैरी घर मांहि तेरे, जानत सनेही मेरे।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दारा सुत वित्त तेरे, खोंसी-खोंसी खाएंगे।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">औरहु कुटुम्बी लोग, लूटें चहुँ ओरही ते।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मीठी मीठी बात कहि, तोसूं लपटायेंगे।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">संकट परेगो जब, कोई नहिं तेरो तब।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अन्तहि कठिन, बाकि बेर उठि जायेगे।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"सुन्दर" कहत, तातें झूठो ही प्रपञ्च सब।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">स्वप्न की नाइ, यह देखत बिलायेंगे।।१।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br /></span><span style="background-color: #fff2cc;">घरी घरी घटत, छीजत जात छिन छिन।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भीजतही गरिजात, माटी को सो ढेल है।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मुकुति के द्वार आई, सावधान क्यूँ न होइ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बेर-बेर चढ़त न, तिया को सो तेल है।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">करि ले सुकृत, हरि भेज ले अखण्ड नर।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">याहि में अन्तर पड़े, यामे ब्रह्म मेल है।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मनुष्य जनम यह, जीत भावै हार अब।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"सुन्दर" कहत यामे जूआ को सो खेल है।।२।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिनको तू अपने स्नेही मित्र और स्त्री-पुत्र, माता-पिता, भाई-बहन आदि समझता है, वे तेरे घर में तेरे ही दुश्मन हैं । वास्तव में वे सब तेरे शत्रु हैं पर मोह के कारण वे तुझे वे मित्र से मालूम होते हैं । स्त्री पुत्र आदि तुझसे तेरा धन छीन छीन कर खाएंगे । और कुटुम्बी लोग भी तुझे चारों और से लूटेंगे और मीठी मीठी बातें बनाकर तेरे लिपटेंगे । तेरे लिए वे धन-दौलत, जीव-जान और सर्वस्व तक स्वाहा कर देने को डींगें मारेंगे ।, लेकिन जब तुझ पर संकट पड़ेगा, काल तुझ पर आक्रमण करेगा, तब तेरा कोई न होगा । अन्तकाल ही कठिन है और उस समय सब तुझे छोड़ छोड़ कर दूर हो जाएंगे । "सुन्दरदास" कहते हैं, इसलिए यह सब प्रपञ्च झूठा है; कोई किसी का साथी नहीं है । मरने पर सब स्वप्न की माया की तरह बिलाय जाएंगे ।</span><br />
<span style="font-size: large;">घड़ी घड़ी उम्र घटती है और क्षण क्षण काया छीजती है । जिस तरह मिटटी का ढेला भीजते ही गल जाता है; उसी तरह यह काया गल जाती है । अरे मूढ़ ! मुक्ति के द्वार पर आकर, होशियार क्यूँ नहीं होता ? मनुष्य चोला पाकर, आवागमन से पीछा क्यूँ नहीं छुड़ाता ? यह चोला तुझे उसी तरह बारम्बार नहीं मिलेगा; जिस तरह त्रिया का तेल बार बार नहीं चढ़ता । तू पुण्य कर ले और अखण्ड अविनाशी ब्रह्म को भज ले। इसमें अन्तर पड़ने से अन्तर पड़ता है और इसमें लग जाने से जीव ब्रह्म में मिल जाता है । इस मनुष्य जन्म का मिलना जुए का सा खेल है । अब चाहे जीत या हार; अब बाज़ी मार ले चाहे खो दे ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">रोग विरोग विपत्ति बहु, देह आयु आधीन।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">निडर विधाता जग रच्यो, महा अथिरता लीन।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">कृच्छ्रेणामेध्यमध्ये नियमिततनुभिः स्थीयते गर्भमध्ये </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">कान्ताविश्लेषदुःखव्यतिकरविषमे यौवने विप्रयोगः ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">वामाक्षीणामवज्ञाविहसितवसतिर्वृद्धभावोऽप्यसाधुः</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">संसारे रे मनुष्या वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किंचित् ।। १०६ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">प्रथमावस्था में प्राणी गर्भावस्था में पड़ा रहता है । वहां वह मल-मूत्र राध लोहू प्रभृति गन्दी चीज़ों के बीच में पड़ा हुआ, बड़े बड़े कष्ट भोगता और हिल भी नहीं सकता । दूसरी अवस्था - जवानी में, वह अपनी प्यारी स्त्री की जुदाई के दुःख सहन करता है । तीसरी अवस्था - बुढ़ापे में, वह स्त्रियों से अनादृत होकर दुःख में पड़ा रहता है । हे मनुष्यों ! इस संसार में ज़रा सा भी सुख हो तो बताओ ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">गर्भावस्था</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">---------------</span></b></div>
<span style="font-size: large;">माता के खून और पिता के वीर्य से, गर्भाशय में, प्राणी की देह बनती है । चार मास बाद, उस देह में जीव आ जाता है । उस समय वह घोर अन्धकारपूर्ण कैदखाने में हाँथ-पाँव बंधा हुआ, उल्टा लटका रहता है । मुंह पर झिल्ली होने के कारण, न बोल सकता है और न रो सकता है,</span><br />
<span style="font-size: large;">जिस स्थान में वह नौ मास तक रहता है, वह स्थान - गर्भाशय, मल, मूत्र राध, खून, पीव और कफ प्रभृति महागंदे पदार्थों से भरा रहता है । वह जगह गन्दगी होने के सिवा इतनी तंग भी है कि वहां वह अच्छी तरह फैल-पसर कर रह भी नहीं सकता । उसी मैली और तंग जगह में जो साक्षात् नर्क है, वह बड़े ही कष्ट से नौ महीने काटता है । नर्क-कुण्ड के कष्टों से दुखी होकर, वह परमात्मा को याद करता है और उससे वादा करता है कि इस बार मैं जन्म लूँगा तो और कुछ न करके, केवल आपकी उपासना ही करूँगा । खैर, भगवान् दया करके उसे बाहर निकलते हैं; पर बाहर आते ही वह, माया-मोह में फंसकर, ईश्वर को भूल जाता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">बालावस्था</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">----------------</span></b></div>
<span style="font-size: large;">बालावस्था भी परमदुख की मूल है । इस अवस्था में प्राणी पराधीन और अतीव दीन रहता है । अशक्तता, मूर्खता, चपलता, दीनता और दुःख-सन्ताप - ये विकार इस अवस्था में आ जाते हैं । बालक एक पदार्थ की ओर दौड़ता, दुसरे को पकड़ता और तीसरे की इच्छा करता है । वह बड़ी बड़ी इच्छाएं करता है, पर उसकी इच्छाएं पूरी नहीं होती । वह सदा तृष्णा के फेर में पड़ा रहता और क्षण-क्षण में भयभीत होता है । उसे कभी शान्ति प्राप्त नहीं होती । जिस तरह कदलीवन का हाथी, सांकलों में बंधा हुआ, दीन हो जाता है; उसी तरह यह चैतन्य पुरुष, बालावस्था रुपी सांकलों में, महादीन हो जाता है । जिस तरह क्षण क्षण में द्वार की ओर दौड़ने वाले कुत्ते का अपमान होता है; उसी तरह बालक का अनादर होता है । उसे सदा माता-पिता और बांधवों का भय रहता है । यहाँ तक की अपने से बड़े बालकों और पशु-पक्षियों से भी उसे भीत रहना पड़ता है । स्त्री के नयन और नदी के प्रवाह से भी बालक और मन की चञ्चलता अधिक है । सच तो यह है कि बालक और मन कि चञ्चलता समान है; और सब की चञ्चलता, इन दोनों की चञ्चलता से नीचे है । जिस तरह वेश्या का मन एक पुरुष में नहीं ठहरता; उसी तरह बालक का मन भी एक पदार्थ में नहीं ठहरता ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इस काम या पदार्थ से मेरा अनिष्ट होगा या कल्याण, इतना भी ज्ञान बालक को नहीं होता । जिस तरह ज्येष्ठ आषाढ़ में पृथ्वी तपती रहती है; उसी तरह सुख-दुःख और इच्छा प्रभृति दोषों से बालक जलता रहता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">बालक में अशक्तता और पराधीनता इतनी होती है कि, वह आप न उठ सकता है, न बैठ सकता है, न चल सकता है और न खा सकता है । कोई उठा लेता है तो गोद में आ जाता है; नहीं तो अपने मल-मूत्र में ही पड़ा रोया करता है । कोई दूध पीला देता है तो पी लेता है; नहीं तो रोता रहता है । यह शिशु अवस्था है । इस अवस्था को पार कर वह बालकावस्था में आता है; तब पढ़ने-लिखने का भार उसके सिर पर आता है । उस समय बालक गुरु से इस तरह डरता है; जिस तरह कोई यमदूत से डरता है । ज़रा भी दंगा करने या न पढ़ने से माता-पिता और गुरु प्रभृति की ताड़नाएँ सहनी पड़ती हैं । अगर उसे कुछ रोग हो जाता है, तो वह साफ़ साफ़ कह नहीं सकता और उसे सह भी नहीं सकता; भीतर ही भीतर सहता और दुःख पाता है । यह अवस्था महामूर्खतापूर्ण है । बालक कभी कहता है कि मुझे बर्फ का टुकड़ा भून दो; कभी कहता है कि आकाश का चाँद उतार दो । भोला इतना होता है कि, थाली में जल भर कर चाँद दिखाने और दूध की जगह आटा घोल कर दे देने से भी राज़ी हो जाता है । इस अवस्था में दुःख ही दुःख हैं, सुख और स्वाधीनता का नाम ही नहीं । परमात्मा यह अवस्था किसी को न दे ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">युवावस्था</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">--------------</span></b></div>
<span style="font-size: large;">बालकावस्था के बाद युवावस्था आती है । यद्यपि ये अवस्था नीचे से ऊपर चढ़ती है; पर यह और भी बुरी है । १५।१६ साल की अवस्था में शादी कर दी जाती है । इसे 'शादी खाने आबादी' कहते हैं, पर यह है बर्बादी । बेचारे के पैरों में ऐसी बेड़ियाँ डाल दी जाती हैं, कि उसे जन्म भर आज़ादी नहीं मिलती । लोहे और काठ की बेड़ियों से चाहे मनुष्य को छुटकारा मिल जाये; पर स्त्री रुपी बेड़ियों से जीवन-भर छुटकारा नहीं मिलता । अब तक पढ़ने लिखने की चिन्ता और गुरु प्रभृति के भय से ही दुखी रहना पड़ता था; पर अब और फ़िक्र - चिंताएं सिर पर सवार होती हैं । वही माता-पिता, जिन्होंने शादी शादी कहकर पैरों में स्त्रीरुपी बेड़ियाँ पहना दी थीं, उठती जवानी के पट्ठे को को भून-भूनकर खाते हैं । कहते हैं - "हमने तुझे पढ़ा लिखा दिया, तेरा शादी-ब्याह कर दिया; हमारा कर्तव्य पूरा हुआ; अब तू कमा । अगर नहीं कमाता है तो अपनी स्त्री को लेकर अलग हो जा ।" इस समय बेचारे की जान पर बन आती है । नौकरी या रोज़गार मिलना कोई खेल नहीं; इसलिए बेचारा भीतर ही भीतर जल-जलकर ख़ाक होने लगता है । अगर धनी घर में जन्म होता है, तो ये कष्ट भोगने नहीं पड़ते । उस अवस्था में और ही नाश के सामान आ इकट्ठे होते हैं । धन, यौवन और प्रभुता इनमें से प्रत्येक अनर्थ की जड़ है । जहाँ ये सब इकट्ठे हो जाएँ, वहां का तो कहना ही क्या ? जिस तरह धन पाने की आशा से, निर्धन लोग धनी को घेरे रहते हैं; उसी तरह इस अवस्था में, सब दोष आकर युवक को घेर लेते हैं । युवावस्था रुपी रात्रि को देखकर काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार, "आत्मज्ञान रुपी धन" को लूटते हैं; इसलिए चित्त शांत नहीं रहता और विषयों की ओर दौड़ता है । विषयों का संयोग होने से तृष्णा बढ़ती है । इस तृष्णा राक्षसी के मारे प्राणी जन्म-जन्मांतर में दुःख भोगता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इस अवस्था में विषय भोगों की ओर मन ज़ियादा रहता है । स्त्री अत्यधिक प्यारी लगती है । नित नई स्त्रियों पर मन चला करता है । अगर कोई मित्र आता है, तो नवयुवक उससे कहता है - "अरे यार ! वह नाज़नी कैसी खूबसूरत है ! उसने तो मेरा दिल ही ले लिया । उसके दीदार बिना मुझे क्षण भर चैन नहीं । वह कैसे मिले ?" बस; ऐसी ही बातें अच्छी लगती हैं । अगर इच्छित स्त्री नहीं मिलती, तो मन में क्रोध होता है; क्रोध से मोह होता है और मोह से बुद्धि नष्ट हो जाती है । बुद्धि के नष्ट होने से, मनुष्य बिना पतवार की नाव की तरह से नष्ट हो जाता है । समुद्र में अगाध जल भरा है । उसमें अनन्त तरंगे उठती हैं । इतना विशाल महासागर, ईश्वर आज्ञा के विरुद्ध, मर्यादा को नहीं मेटता; पर युवावस्था शास्त्र और ईश्वर दोनों की आज्ञाओं को मेट देती है । जिस तरह अँधेरे में पदार्थों का ज्ञान नहीं रहता; उसी तरह युवावस्था में शुभ-अशुभ या भले-बुरे का ज्ञान नहीं रहता । जवानी दीवानी में लोक-लाज और हया-शर्म सब हवा हो जाती हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">लिख चुके हैं, युवा अवस्था में स्त्री सबसे अधिक प्यारी लगती है । अगर किसी तरह स्त्री से वियोग हो जाता है, तो पुरुष उसकी वियोगग्नि में इस तरह जलता है, जिस तरह दावाग्नि से वन के वृक्ष जलते हैं । युवावस्था में बड़े से बड़े बुद्धिमानों की बुद्धि उसी तरह मलिन हो जाती है; जिस तरह वर्षाकाल में निर्मल नदी मलिन हो जाती है । इस अवस्था में "वैराग्य और संतोष" प्रभृति गुणों का अभाव हो जाता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी ने मुनि वसिष्ठ से कहा - "हे मुनिवर ! जिस महासागर में अनन्त और अगाध जलराशि है तथा लाखों करोड़ों बड़े बड़े मगरमच्छ और घड़ियाल हैं, उसका पार करना महाकठिन है; पर मैं उसका पार करना उतना मुश्किल नहीं समझता, जितना की मैं इस युवावस्था का पार करना कठिन समझता हूँ । युवावस्था विषयों की ओर ले जाने वाली, महा अनर्थकारी और लोक-परलोक नशानेवाली है । जिस तरह आकाश में वन का होना आश्चचर्य की बात है; उसी तरह युवावस्था में सब सुखों के मूल वैराग्य, विचार, सन्तोष और शान्ति का होना आश्चर्य है ।"</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">महाराजा रामचन्द्र एक और जगह कहते हैं - "युवावस्था ! मुझ पर दया करके तू न आना ! मुझे तेरी जरुरत नहीं, क्योंकि मेरी समझ में तेरा आना दुखों का कारण है । जिस तरह पुत्र के मरने का सङ्कट पिता के सुख के लिए नहीं होता; उसी तरह तेरा आना भी सुख के लिए नहीं होता ।"</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">वृद्धावस्था </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">---------------</span></b></div>
<span style="font-size: large;">यह अवस्था, पहली दो अवस्थाओं से भी बुरी है । बाल्यावस्था महाजड़ और अशक्त है; युवावस्था अनर्थ और पापों का मूल है तथा वृद्धावस्था में शरीर जर्जर और बुद्धि क्षीण हो जाती है, खूब निकल आता है, दांत गिर पड़ते हैं, बाल सफ़ेद हो जाते हैं, बल काम हो जाता है, आँखों से काम सूझता है या सूझता ही नहीं, कानो से सुनाई नहीं देता, पैरों से चला नहीं जाता, लकड़ी तक-तक कर चलना होता है, कफ और खांसी अपना दौरा-दौरा जमा लेते हैं, हर समय सांस फूलने लगता है । बहुत क्या - सारे रोग, शत्रुओं की तरह मौका पाकर, इस अवस्था में चढ़ाई कर देते हैं । स्त्री-पुत्रादि सभी नाते-रिश्तेदार बूढ़े को उसी तरह त्याग देते हैं; जिस तरह पके फल को वृक्ष और निकम्मे बूढ़े बैल को बैलवाले त्याग देता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">ज़रा अवस्था या बुढ़ापा मृत्यु का पेशखीमा है । जिस तरह सांझ होने से रात निकट आती है; उसी तरह बुढ़ापे के आने से मौत निकट आ जाती है । संध्या के आने पर जो दिन की इच्छा करते हैं और बुढ़ापे के आने पर जो जीने की अभिलाषा रखते हैं, वे दोनों ही मूर्ख हैं । जिस तरह बिल्ली, चूहे को खा जाने की घात में रहती है और चाहती है कि चूहा आवे तो खाऊं; उसी तरह मौत देखती रहती है कि बुढ़ापा आवे तो मैं इसे ग्रहण करूँ । ऐसा जान पड़ता है मानो वृद्धावस्था काल की सखी है । वह आकर रोगरूपी आग से शरीर के मांस को जलाती या पकाती और उसका स्वामी - काल आकर प्राणी को भक्षण कर जाता है । अशक्तता, अङ्गपीड़ा और खांसी - ये तीनो काल की पटरानियां हैं । जिस तरह वन में बाघिन आकर पहले शब्द करती या गरजती और मृग का नाश करती है; उसी तरह शरीर रुपी वन में खांसी रुपी बाघिन आकर बल-रुपी मृग का नाश करती है । जिस तरह चन्द्रमा के उदय होने से कमलिनी खिल उठती है; उसी तरह बुढ़ापे के आने से मृत्यु प्रसन्न होती है । जरा बड़ी जबरदस्त है । इसने बड़े बड़े शत्रुहन्ताओं के मान-मर्दन कर दिए हैं । यह शरीर को आग की तरह जलाती है । जिस तरह वृक्ष में आग लगती है, तब धुंआ निकलता है; उसी तरह शरीर वृक्ष में जरा-रुपी अग्नि के लगने से तृष्णा-रुपी धुंआ निकलता है । जरा-रुपी जञ्जीर में बंधने से मनुष्य दीन हो जाता है, अंग शिथिल हो जाते हैं, बल क्षीण हो जाता है, इन्द्रियां निर्बल हो जाती हैं और शरीर जर्जर हो जाता है, पर तृष्णा उलटी बलवती हो जाती है । इस अवस्था में घोर दुःख हैं, सुख का तो लेश भी नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिस समय पुरुष बूढा हो जाता है, उसमें कमाने की शक्ति नहीं रहती; तब सभी उसे पागल समझकर उसकी हंसी करते और उसके पुत्र-पौत्रादि बुरी नज़र से देखते हैं । यहाँ तक की ख़ास उसकी अर्द्धांगी उससे घृणा करने लगती है । पुत्र उसे कोई चीज़ नहीं समझते और लोग भी उसे वृथा की बला समझते हैं । पुत्र और पुत्र-वधुएं उसे एक टूटी सी खाट पर, पौली में डाल देते हैं और उसके थूकने को एक ठीकरा रख देते हैं । आप समय पर अच्छे से अच्छा खाना खाते हैं; पर समय-बे-समय, जब याद आ जाती है, बचा खुचा बासी कूसी खाना, एक पुरानी और फूटी सी थाली या ठीकरे में रख कर दे आते हैं । जब उसका थूक-खखार या मल-मूत्र उठाते हैं - "अब मर क्यों नहीं जाते? जवान-जवान मरे जाते हैं, पर तुमको मौत नहीं आती !" प्रभृति । यह दुर्गति बुढ़ापे में होती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अगर घर गृहस्थी में सौभाग्य से कोई दुःख नहीं होता, घरवाले स्त्री-पुत्र आदि अच्छे मिल जाते हैं, घर में परमात्मा की दया से सुखैश्वर्य के सभी सामान मौजूद होते हैं; तो दूसरों का भला न चेतने वाले, दूसरों को अच्छी अवस्था में देखकर कुढ़ने वाले ही वाले तंग करते हैं । वह अपनी ओर से उसका सर्वनाश करने में कोई बात न उठा रखते हैं । यद्यपि ऐसी बातों से उन्हें कोई लाभ नहीं होता; तो भी वो बिल्ली की सी करतूतों से बाज़ नहीं आते; हरदम नाक में दम किये रहते हैं । मतलब यह कि, संसार में दुखों की ही अधिकता है । यहाँ सुख है ही नहीं । अगर है तो उसके परिणाम में कोई लाभ नहीं; वरन हानि है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">राहतो रंज ज़माने में हैं दोनों, लेकिन।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">याँ अगर एक को राहत है, तो है चार को रंज ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">निस्संदेह संसार में सुख और दुःख दोनों ही हैं - पर बहुलता दुःख की ही है, क्योंकि चार दुखियों में मुश्किल से एक सुखी मिलता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> ही एक जगह और कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हलावते शरमो पासदारी, जहाँ में है ज़ौक़ रंजोख्वारी ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मज़े से गुज़री, अगर गुज़ारी किसी ने बे नामोनंग होकर ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">संसार से दूर रहना अच्छा; यहाँ के संबंधों की जड़ में दुःख और क्लेश भरा हुआ है । जिसने अपनी ज़िन्दगी चुपचाप गुज़ार दी; सच तो ये है, उसने अच्छी गुज़ार दी ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सारांश यह कि सभी महात्माओं ने संसार के दुखों का अनुभव करके औरों को चेतावनी दी है, कि इस मिथ्या जगत की माया में न भूलो; इससे दिल मत लगाओ, किन्तु इसके बनानेवाले के साथ दिल लगाओ । इसके साथ दिल लगाने से तुम्हारा बुरा और उसके साथ दिल लगाने से भला है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>गोस्वामी तुलसीदास </b>ने कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सलिल युक्त शोणित समुझ, पल अरु अस्थि समेत ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बाल कुमार युवा जरा, है सु समुझ करु चेत ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ऐसेही गति अवसान की, तुलसी जानत हेत ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ताते यह गति जानि जिय, अविरल हरि चित चेत ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">स्त्री की रज और पुरुष के वीर्य से तुम्हारे शरीर के खून, मांस और हड्डियां बनी । फिर तुम गर्भाशय से बाहर आये । फिर बालक अवस्था में रहे; उसके बाद युवावस्था आयी; फिर बुढ़ापा आया । फिर तुम मरे और कर्मफल भोगने को फिर जन्म लिया । इस तरह लोक-वासना के कारण तुम्हें बारम्बार जन्मना और मरना पड़ता है । इसमें कैसे कैसे कष्ट उठाने पड़ते हैं, इन बातों को याद करते रहो और कष्टों से बचने के लिए सावधान होकर परमात्मा से प्रीति करो; तभी तुम्हारा भला होगा । तुम्हारे सारे नातेदार मतलबी हैं; केवल एक वह सच्चा सहायक और रक्षक है । यही सब विषय नीचे के भजनो में कैसी खूबी से दिखाए हैं -</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">भजन (राग धनाश्री)</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-----------------------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हरि बिन और न कोई अपना, हरि बिन और न कोई रे।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मात पिता सुत बन्धु कुटुम सब, स्वारथ के ही होई रे ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">या काय को भोग बहुत दे, मरदन कर कर सोई रे ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सो भी छूटत नैक न खसकी, संग न चाली धोई रे ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">घर की नारि बहुत ही प्यारी, तन में नाहीं दोई रे ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जीवट कहती संग चलूंगी, डरपन लागी सोई रे ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जो कहिये यह द्रव्य आपनो, जिन उज्जल मति खोई रे ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">आवत कष्ट राखत रखवारी, चालत प्राण ले जोई रे ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">इस जग में कोई हितू न दीखे, मैं समझों तोई रे ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चरणदास-सुखदेव कहैं, ये सुन लीजो सब कोई रे ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">भजन (राग सोरठ)</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------------------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुध राखो वा दिन की कछु तुम, सुध राखो वा दिन की रे ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जादिन तेरी यह देह छूटैगी, ठौर बसौगे बन की रे ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जिनके संग बहुत सुख कीने, तेरो मुख ढँक होएंगे न्यारे रे ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जम के त्रास होएं बहु भाँती, कौन छुटावनहारे रे ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">देहल लों तेरी नारि चलेगी, बड़ी पौल लो माई रे ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मरघट लों सब बीर भतीजे, हंस अकेला जाए रे ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">द्रव्य पड़ें और महल खड़े रहे, पूत रहैं घर माहीं रे ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जिनके काज पचैं दिन राती, सो संग चालत नाहीं रे ।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">देव पितर तेरे काम न आवें, जिनकी सेवा लावे रे । </span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चरणदास-सुखदेव कहत हैं, हरि बिन मुक्ति न पावे रे ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">परमात्मा की भक्ति करो तो ऐसी करो कि परमात्मा के सिवा अन्य किसी भी देवी-देवता या संसारी पदार्थ को कुछ समझो ही नहीं; यानि उस जगदीश के सिवा सबको झूठे, निकम्मे और नाशमान समझो । केवल उसके प्रेम में गर्क हो जाओ और उससे प्रेम के बदले में कुछ मांगो नहीं; तब देखो, क्या आनन्द आता है !</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>कबीर साहब</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुमिरन से मन लाइए, जैसे दीप पतंग।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">प्रान तजै छीन एक में, जरत न मोरे अंग।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इसी बात को <b>उस्ताद ज़ौक़</b> ने किस तरह कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कहा पतंग ने यह, दारे शमा पर चढ़ कर ।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अजब मज़ा है, जो मर ले किसी के सर चढ़ कर ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">ऐसी प्रीति को ही प्रीति कहते हैं । दीपक और पतंग, मछली और जल, नाद और कुरङ्ग, चातक और मेघ - इनकी प्रीति आदर्श प्रीति है । ऐसी प्रीति से ही सच्ची सिद्धि मिलती है - ऐसी प्रीति वालों को ही परमात्मा के दर्शन होते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br /></span>
<b><span style="font-size: medium;">दोहा</span></b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सह्यो गर्भदुख जन्मदुःख, जौवन त्रिया वियोग।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वृद्ध भये सबहिन तज्यो, जगत किधौं यह रोग।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br /></span>
</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div>
<b><span style="font-size: large;">आयुर्वर्षशतं नृणां परिमितं रात्रौ तदर्धं गतं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">तस्यार्धस्य परस्य चार्धमपरं बालत्ववृद्धत्वयोः ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">शेषं व्याधिवियोगदुःखसहितं सेवादिभिर्नीयते</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">जीवे वारितरङ्गचञ्चलतरे सौख्यं कुतः प्राणिनाम् ।। १०७ ।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br />
<span style="font-size: large;">मनुष्य की उम्र औसत सौ बरस की मानी गयी है । उसमें से आधी तो रात में सोने में गुज़र जाती है; बाकी में एक भाग बचपन में और एक भाग बुढ़ापे में चला जाता है । शेष में जो एक भाग बचता है - वह रोग, वियोग, पराई चाकरी, शोक और हानि प्रभृति नाना प्रकार के क्लेशों में बीत जाता है । जल तरंगवत चञ्चल जीवन में प्राणियों के लिए सुख कहाँ है ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>खुलासा</b>: शास्त्रों में मनुष्य की आयु सौ बरस की मानी गयी है । उसमें से पचास बरस; यानि आधी आयु तो रात के समय सोने में बीत जाती है । अब रहे पचास बरस; उनके तीन भाग कीजिये । पहले १७ साल बचपन की अज्ञानावस्था और पराधीनता में बीत जाते हैं । दुसरे १७ साल वृद्धावस्था में चले जाते हैं और शेष १६ साल नाना प्रकार के रोग, शोक, वियोग, हानि-लाभ की चिन्ता और दूसरों से लड़ने-झगड़ने प्रभृतुय में बीत जाते हैं ।</span><br />
<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b>
<b><span style="font-size: large;">दुःखपूर्ण जीवन में कहीं सुख नहीं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">----------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">यद्यपि इस जीवन में ज़रा भी सुख नहीं है, क्षण-भर भी शान्ति नहीं है; तो भी मनुष्य का ऐसा मोह है कि वह मरना नहीं चाहता; मौत का नाम सुनते ही काँप उठता है । अगर इस जीवन में सुख होता, तो न जाने क्या होता ? घोर कष्ट और दुखों में भी यदि मनुष्य मरता है तो कहता है -" हम कुछ न जिए, अगर और कुछ दिन जीते तो ................."</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">किसी कवी ने कहा है -</span><br />
<span style="font-size: large;">हो उम्र खिज्र भी, तो कहेंगे बवक्ते मर्ग।</span><br />
<span style="font-size: large;">हम क्या रहे यहाँ, अभी आये अभी चले।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">चाहे हज़ारों बरस की उम्र हो जाए, मरते समय यही कहेंगे, इस संसार में कुछ भी न रहे, अभी आये अभी जाते हैं । जीने की अभिलाषा बनी ही रहती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">घृणित जीवन से भी क्यों घृणा नहीं होती?</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------------------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">मनुष्य जीवन में दुःख ही दुःख हैं; फिर भी मनुष्य इस घृणित जीवन से सन्तुष्ट क्यों रहता है ? इससे उसे घृणा क्यों नहीं होती ? जिस तरह मैले से भंगी को घृणा नहीं होती; उसी तरह जिनके स्वाभाव में मनुष्य जीवन के दुःख समा गए हैं, उन्हें इस मलिन और घृणित जीवन - दु:खपूर्ण जीवन से घृणा नहीं होती । मैले का कीड़ा मैले में ही सुखी रहता है; मैले से निकलने में उसे दुःख होता है । यही हाल उनका भी है, जिनके अन्तः कारन मलिन हैं । वे मलिन गृहस्थाश्रम में ही सही हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">मनुष्य का कर्तव्य क्या है ?</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है । यह ८४ लाख योनियां भोगने के बाद मिलता है । अगर मनुष्य इस मानव जीवन में भी चूक जाता है - आवागमन - जन्म-मरण के फन्दे से छूटने का उपाय नहीं करता, तो पछताता और रोता है; पर यह सुअवसर उसे फिर जल्दी नहीं मिलता । इस पर एक दृष्टान्त है -</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">अवसर चुके पछताना होता है</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">किसी राजा के ३६० रानियां थीं । राजा विदेश गया था । जिस दिन वह लौटकर आया उस दिन ३६०वे नम्बर की रानी के यहाँ उसके जाने की बारी थी । रानी ने दासियों से कह दिया कि मैं सोती हूँ; जब राजाजी आवें, मुझे जगा देना । रात को राजा आया; किन्तु दासियों ने भय के मारे रानी को न जगाया । सवेरे राजा चला गया । रानी ने उठकर पुछा - "क्या राजाजी आये थे ?" दसियों ने कहा -"हाँ, आये थे । हम लोग उनके भय के मारे आपको जगा न सकीं ।" रानी बहुत रोई, पछताई । उसे ३६० दिन तक फिर राह देखनी पड़ी । बस, यही हाल उनका है, जो इस मनुष्य जन्म को वृथा गवां देते हैं । इसमें भगवत्भक्ति या उपासना नहीं करते । मर जाने पर, ८४ लाख योनियों को भोगकर, फिर कहीं ऐसा अवसर हाथ आता है । अतः मनुष्य को सब जञ्जाल छोड़कर, एकमात्र भगवत्भक्ति में लग्न चाहिए; एक क्षण भी व्यर्थ न गवाना चाहिए । दम निकले तो जगदीश्वर की याद करता हुआ ही निकले । इसी में कल्याण है । सांस का भरोसा क्या ? आया आया, न आया न आया । </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">"<b>गुरु-कौमुदी</b>" में कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अरे भेज हरेर्नाम, क्षेमधाम क्षणे क्षणे ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बहिस्सरति निःश्वासे विश्वासः कः प्रवर्त्तते ।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अरे जीव ! प्रत्येक क्षण हरि का नाम भज । हरि का नाम कल्याण धाम है । जो सांस बाहर निकल जाता है, उसका क्या भरोसा ? आवे, न आवे ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महाभारत में आयु की क्षणभंगुरता पर एक इतिहास लिखा है</b> -</span><br />
<span style="font-size: large;">एक ब्राह्मण राह भूलकर किसी भयानक वन में जा निकला । वहां हाथी और सर्प प्रभृति भयानक हिंसक पशु घूम रहे थे । एक पिशाचिनी हाथ में फांसी लिए सामने आ रही थी । उन्हें देखकर वह डर के मारे रक्षा का स्थान खोजने लगा । उसने एक अन्धा कुआँ देखा, जिसमें घास छा रही थी तथा अनेक प्रकार की बेलें लगी थी । वह एक बेल को पकड़ कर औंधा सिर किये, कुँए में लटक गया । थोड़ी देर बाद उसने नीचे की ओर देखा तो एक बड़ा भारी सर्प मुंह फाड़े नज़र आया; ऊपर की ओर देखा तो एक मस्त हाथी खड़ा दीखा । उस हाथी के छः मुख थे । उसका शरीर आधा सफ़ेद और आधा काला था । जिस बेल को वह ब्राह्मण पकडे हुए था, उसको वह हाथी खा रहा था और सफ़ेद और काले दो चूहे चूहे उस बेल की जड़ को काट रहे थे ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इसका मतलब यों है - वह ब्राह्मण जीव है । सघन वन यह संसार है । काम क्रोध आदि भयानक जीव, इस जीव को नष्ट करने को घूम रहे हैं । स्त्री रुपी पिशाचिनी, भोग-रुपी पाश लेकर, इस जीव के फंसने के लिए फिरती है । कुँए में जो बेल लटक रही है, वही आयु है । उसी को पकड़ कर यह जीव लटक रहा है । कुँए में जो कालसर्प है, वह इस जीव का काल है, वह अपनी घात देख रहा है; उधर रात-दिन रुपी चूहे इस आयु रुपी बेल की जड़ काट रहे हैं । वह हाथी वर्ष है । उसके छः मुख, छः ऋतुएं हैं । कृष्ण और शुक्ल दो पक्ष उस हाथी के दो वर्ण या रंग हैं । मनुष्य इस तरह मौत के मुंह में है । हर क्षण मौत उसे निगलती जा रही है; पर आश्चर्य है कि इस आफत में भी - मृत्यु-मुख में पड़ा हुआ भी - वह अपने को सुखी समझता है और इस नितान्त भयपूर्ण जीवन से सन्तुष्ट है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बीत गयी सो बात गयी, आगे की सुधि लो</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">--------------------------------------------------</span></span><br />
<span style="font-size: large;">बहुत से लोग कहा करते हैं कि हमने सारी उम्र परपीड़न या पापकर्मों में खोयी; भगवान् को कभी भूल से भी याद न किया; अब हम क्या कर सकते हैं ? यह कहना हमारी भूल है । जो समय बीत गया, वह तो लौट कर आवेगा नहीं; पर जो समय हाथ में है, उसे तो सुकर्म और ईश्वर कि याद में लगाना चाहिए । यदि बाकी उम्र भी व्यर्थ के झंझटों में गवाईं जाएगी, तो अन्तकाल में भारी पछतावा होगा ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>किसी कवी</b> ने ठीक कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पुत्र कलत्र सुमित्र चरित्र,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">धरा धन धाम है बन्धन जीको।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बारहिं बार विषय फल खात,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अघात न जात सुधारस फीको।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आन औसान तजो अभिमान,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कही सुन, नाम भजो सिय-पीको।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पाय परमपद हाथ सों जात,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">गई सो गई अब राख रही को।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">एक नट की उपदेशप्रद कहानी</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">एक राजा बड़ा ही कञ्जूस था । उसने प्रचुर धन-सञ्चय किया था; पर उससे न तो वह अपने पुत्र को सुख भोगने देता था और न खर्च के डर से अपनी कन्या की शादी ही करता था । एक दिन एक नट-नटी उसके दरबार में आये और राजा से तमाशा देखने की प्रार्थना की । राजा ने कहा -"अच्छा अमुक दिन देखा जाएगा ।" नटनी बार बार याद दिलाती रही और राजा बार बार टालता रहा । अन्त में नटनी ने वज़ीर से कहा - "अगर राजा साहब तमाशा न देखें, तो हम चले जाएँ; हमें खर्च खाते बहुत दिन हो गए ।" यह सुन वज़ीर ने राजा से कहा - "महाराज ! आप तमाशा देख लीजिये । हम लोग चन्दा करके कुछ नट को दे देंगे । अगर आप तमाशा न देखेंगे तो बड़ी बदनामी होगी ।" राजा इस बात पर राज़ी हो गया । तमाशा हुआ । तमाशा होते होते जब दो घडी रात रह गयी और राजा ने कुछ भी इनाम न दिया, तब नटनी ने नट से कहा -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रात घडी भर रह गयी, थाके पिंजर आये ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कह नटनी सुन मालदेव, मधुरा ताल बजाय ।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">नटनी की बात सुकर नट ने कहा -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बहुत गयी थोड़ी रही, थोड़ी भी अब जाय।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कहे नाट सुन नायिका, ताल में भंग न पाय।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">एक तपस्वी भी वहां तमाशा देख रहा था । उसने ये सवाल जवाब सुनते ही नट को अपना कम्बल दे दिया, राजा के लड़के ने अपनी हीरों की जडाऊँ कड़ों की जोड़ी दे दी और राजकन्या ने अपने गले के हीरों का हार दे दिया ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">राजा यह सब देखकर चकित हो गया । उसने सबसे पहले तपस्वी से पूछा - "तुम्हारे पास यही एक कम्बल था । तुमने क्या समझकर उसे दे दिया ?" तपस्वी ने कहा - "आपके ऐश्वर्य को देखकर मेरे मन में भोगों की वासना उठ खड़ी हुई थी; पर नट के दोहे से मेरा विचार बदल गया । मैंने उससे यह उपदेश ग्रहण किया, कि बहुत सी आयु तो तप में बीत गयी; अब जो थोड़ी सी रह गयी है, उसे भोगों की वासना में क्यों ख़राब करूँ ? मुझे नट से उपदेश मिला, इससे मैंने अपना एकमात्र कम्बल - अपना सर्वस्व उसे दे दिया ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इसके बाद राजा ने पुत्र से पूछा - "तुमने क्या समझकर अपने कड़ों की बेशकीमती जोड़ी उसे दे दी ?" राजपुत्र ने कहा - "मैं बड़ा दुखी रहता हूँ, क्योंकि आप मुझे कुछ भी खर्च करने नहीं देते । दुखी होकर मैंने यह विचार कर रखा था कि किसी दिन राजा को विष देकर मरवा दूंगा; पर इस नट के दोहे से मुझे यह उपदेश हुआ है कि राजा कि बहुत सी आयु तो बीत गयी, अब वह बूढा हो गया है; दो-चार बरस की बात और है; इस अर्से में वह आप ही मर जाएगा, अतः पितृहत्या क्यों की जाय ? इसी उपदेश के बदले में मैंने नट को कड़ों की जोड़ी दे दी ।"</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">फिर राजा ने राजकन्या से पूछा - "तुमने अपना कीमती हार नट को क्यों दिया ?" कन्या ने कहा - मेरी जवानी आ गयी है; आप खर्च के भय से मेरी शादी नहीं करते । कामदेव बड़ा बलवान है । काम की प्रबलता के मारे, मेरा विचार वज़ीर के लड़के के साथ निकल भागने का था; पर नट के दोहे से मुझे यह उपदेश मिला कि राजा कि बहुत सी आयु तो चली गयी; अब जो शेष रह गयी है वह भी बीतने ही वाली है । थोड़े दिनों के लिए पिता के नाम में क्यों बट्टा लगाऊं ? यह अनमोल उपदेश मुझे नट के दोहे से मिला, इसी से मैंने अपना बहुमूल्य हार उसे दे दिया । हे पिता ! नट के दोहे ने आपकी जान और इज़्ज़त बचाई है; अतः आपको भी उसे कुछ इनाम देना चाहिए ।" राजा ने यह सब बातें सोच-समझकर नट को इनाम दे विदा किया और वज़ीर के लड़के के साथ कन्या की शादी कर दी । राजपुत्र को गद्दी देकर आप वैरागी हो गया और अपनी शेष रही आयु आत्मविचार में लगा दी । इसी तरह सभी संसारियों को अपनी शेष आयु सुकर्म और ब्रह्मविचार में लगा, जन्म-मरण से पीछा छुड़ा, नित्य सुख-शान्ति लाभ करनी चाहिए ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">बाल-बच्चो का क्या किया जाय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">प्रथम तो स्त्री-पुत्र प्रभृति आपके कोई नहीं; एक सराय के मुसाफिर के समान हैं । यहाँ आकर नाता जुड़ गया है । अपने अपने समय पर सब अपनी अपनी राह लगेंगे । इसके सिवा, ये आपसे सच्ची मुहब्बत भी नहीं करते । आपसे इनका काम निकलता है, पाप-पुण्य की गठरी आप बांधते हैं और सुख ये भोगते हैं; इसीसे आपको कोई "बाबूजी", कोई "चाचाजी" और कोई "नानाजी" कहता है । अगर आप इनकी जरूरतों और फरमाइशों को पूरी न करें, तो ये आपका नाम भी न लें । ऐसे स्वार्थी लोगों को मिथ्या प्रीति के फेर में पड़कर, आप अपने अमूल्य और दुष्प्राप्य जीवन को क्यों नष्ट करते हैं ? जब आप इस देह को छोड़कर परलोक में चले जाएंगे, तब क्या ये आपके साथ जाएंगे ? हरगिज़ नहीं । कोई पौली तक और कोई श्मशान तक आपकी लाश के साथ जाएंगे । वहां पहुँच, आपको जला-बला ख़ाक कर सब भूल जायेंगे ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">आप भी मुसाफिर हैं और आपके स्त्री-पुत्र भी मुसाफिर हैं । आपकी अगली सफर बड़ी लम्बी है । यह तो बीच का एक मुकाम है । कर्म-भोग भोगने को आप यहाँ ठहर गए और कर्मवश ही आप से इन सबका मेल हो गया । ये अपने सफर का प्रबन्ध करें चाहे न करें, पर आप तो अवश्य करें । इनके झूठे मोह में आप न भूलें । अगर आप बाल-बच्चों की रोटी और कपड़ों की फ़िक्र में लगे रहेंगे तो यह फ़िक्र तो अन्त तक लगी ही रहेगी और आपको ले जाने वाली गाड़ी या मौत आ जाएगी । उस समय बड़ी कठिनाई होगी । जो लोग उम्र भर गृहस्थी के झंझटों में लगे रहे, अन्त में उनका बुरा ही हुआ । ये घर-झगडे ही तो ईश्वर-दर्शन या स्वर्ग अथवा मोक्ष की प्राप्ति में बाधक हैं । </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">महात्मा <b>शेख सादी</b> ने कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऐ गिरफ़्तारे पाये बन्दे अयाल।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दिगर आज़ादगी मबन्द ख़याल।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ग़मे फ़रज़न्दों नानो जामओ कूत।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बाज़द आरद ज़े सेर दर मलकूत।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">ऐ औलाद की मुहब्बत में गिरफ्तार रहने वाले, तू किसी तरह भी बन्धन मुक्त नहीं हो सकता । सन्तान, रोटी, कपडा तथा जीविका की फ़िक्र तुझे स्वर्ग की चिन्ता से रोकती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">इसलिए "सब तज और हर भज"।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">क्या घर में रहकर ईश्वर-उपासना नहीं की जा सकती ?</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">------------------------------------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">घर गृहस्थी में रहकर ईश्वर-उपासना की जा सकती है; पर घर में रहकर भक्ति करना है टेढ़ी खीर । जैसी सङ्गति होती है, वैसा ही मनुष्य हो जाता है । ज्ञानियों की सङ्गति में ज्ञान की और स्त्रियों की सुहबत में काम की उत्पत्ति होती है । घर में रहकर वैराग की उत्पत्ति होना कठिन है । </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>किसी कवी</b> ने कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जाइयो ही तहाँ ही जहां संग न कुसंग होय,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कायर के संग शूर भागे पर भागे है ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">फूलन की वासना सुहाग भरे वासन पै,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कामिनी के संग काम जागे पर जागे है ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">घर बेस घर पै बसो, घर वैराग कहाँ,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">काम क्रोध लोभ मोह, पागे पर पागे है ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">काजर की कोठरी में लाखु ही सयानो जाय,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">काजर की ऐक रेख लागे पर लागे है ।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">संसार की संगतियों में मनुष्य संसारी हो जाता है; विषय भोगों की ओर उसका मन चलायमान होता है और स्त्री-पुत्र आदि में उसका राग बना ही रहता है; पर जो वेदान्त ग्रंथों को विचारते और महापुरुषों की सङ्गति करते हैं, उनका अन्तःकरण शुद्ध होते रहने की वजह से, उन्हें गृहस्थाश्रम में ही, वैराग्य उत्पन्न होने लगता है । गृहस्थी में एक न एक दुःख बना ही रहता है । उस दुःख के कारण मनुष्य के मन में वैराग्य भी पैदा होता रहता है । विषयों में दुःख समझना ही वैराग्य का और सुख समझना ही राग का हेतु है । महामूढ़ों को भी कुछ न कुछ वैराग्य बना ही रहता है । जिस समय कोई कष्ट आता है, स्त्री-पुत्र आदि मर जाते हैं, धन नाश हो जाता है, तब मूढ़ भी अपने तई और संसार को धिक्कारता है; लेकिन ज्योंही वह कष्ट दूर हो जाता है, उसका वैराग्य भी काफूर हो जाता है । पर वास्तव में वैराग्य का कारण है - गृहस्थाश्रम ही; क्योंकि बिना गृहस्थाश्रम तो किसी की उत्पत्ति होती ही नहीं । रामचन्द्र और वशिष्ठ प्रभृति को गृहस्थाश्रम में ही वैराग्य हुआ था । और भी बड़े-बड़े सन्यासियों को गृहस्थाश्रम में ही वैराग्य हुआ था । वैराग्य उत्पन्न होते ही, उन्होंने घर गृहस्थी त्याग, वन की राह ली थी ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यह बात भी नहीं है कि गृहस्थाश्रम में ज्ञान होता ही न हो । जनकादि महात्मा गृहस्थाश्रम में ही ज्ञानी हुए थे । ज्ञान का कारण "वैराग्य" है । जो गृहस्थ होकर सदैव वैराग्य और विचार में मग्न रहता है, उसके ज्ञानी होने में सन्देह नहीं; पर जो सन्यासी होकर भी भोगों में राग रखता है, उसके अज्ञानी होने में संशय नहीं । "वैराग्य" ही आत्मज्ञान का साधन है । मनुष्य - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास - किसी आश्रम में क्यों न हो, बिना वैराग्य के ज्ञान नहीं और ज्ञान बिना मोक्ष नहीं । जो पुरुष गृहस्थाश्रम में रहकर भी उसमें आसक्त नहीं होता, जल में कमल की तरह रहता है, उसकी मुक्ति में ज़रा भी सन्देह नहीं । एक दृष्टान्त इस मौके का हमें याद आया है, उससे पाठकों को अवश्य लाभ होगा -</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">राजा जनक और शुकदेव जी</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">एक बार व्यास जी ने शुकदेव जी से कहा कि तुम राजा जनक के पास जाकर उपदेश लो । शुकदेव जी जनक के द्वार पर गए । भीतर खबर कराई तो राजा ने कहला भेजा, कि द्वार पर ठहरो । शुकदेव जी तीन दिन तक द्वार पर खड़े रहे पर उन्हें क्रोध न आया । राजा ने क्रोध की परीक्षा करने के लिए ही उन्हें तीन दिन तक द्वार पर खड़ा रखा और चौथे दिन अपने पास बुलाया । वहाँ जाकर शुकदेव जी क्या देखते हैं कि राजा जनक सोने के जडाऊ सिंहासन पर बैठे हैं, सुन्दरी नवयौवना स्त्रियां उनके चरण दाब रही हैं और कुछ मोरछल और पंखे कर रही हैं । जगह-जगह विषय भोग या ऐशो आराम के सामान धरे हैं । सामने ही सुन्दर नर्तकियां नाच रही हैं । यह हाल देखकर शुकदेव जी के मन में राजा की ओर से घृणा हुई । उन्होंने मन में कहा - "नाम बड़े और दर्शन छोटे वाली बात है । यह तो भोगों में आसक्त हैं; पिताजी ने इन्हें परम ज्ञानी क्यों कहा ?" राजा जनक शुकदेव जी के मन की बात ताड़ गए । दैवात उसी समय मिथिलापुरी में भीषण आग लग गयी । बाहर से दूत दौड़े आये और कहने लगे - "महाराज ! पुरी में आग लग गयी और और राजद्वार तक आ पहुंची है ।" शुकदेव जी मन में सोचने लगे कि मेरा दण्ड-कमण्डल बाहर रखा है, कहीं वह जल न जाय । उस समय राजा ने कहा -</span><br />
<span style="font-size: large;">अनन्तवत्तु मे वित्तं यन्मे नास्ति हि किञ्चन।</span><br />
<span style="font-size: large;">मिथिलायां प्रदग्धायां न मे दह्यति किञ्चन।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मेरा आत्मरूप-धन अनन्त है । उसका अन्त कदापि नहीं हो सकता । इस मिथिला के जलने से मेरा तो कुछ भी नहीं जल सकता ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">राजा जनक के इस वाक्य से पदार्थों में उनकी आसक्ति नहीं - अनासक्ति ही साबित होती है । अगर कोई मनुष्य गृहस्थी में रहकर, स्त्री-पुत्र-धन प्रभृति में अनासक्त रहे, उनमें ममता न रक्खे, चाहे व्यवहार सब तरह करे, वह सच्चा ज्ञानी है, उसकी मोक्ष अवश्य होगी ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">ममता ही दुखों का कारण है । जिसकी किसी भी पदार्थ में ममता नहीं, उसे दुःख क्यों होने लगा ? उसकी ओर से, वह पदार्थ मिले तो अच्छा और न मिले तो अच्छा । बचा रहे तो भला और नष्ट हो जाय तो भला । जिसकी जिस चीज़ में ममता होती है, उसे उस चीज़ के नाश होने या उसके न मिलने से अवश्य दुःख होता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">कहा है -</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यस्मिन वस्तूनि ममता नायस्तत्र तत्रेव।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यत्नेवाहमुदासे मुदा स्वभाव संतुष्टः।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिस जिस चीज़ में मनुष्य की ममता है, वही-वही दुखी है और जिस जिससे उदासीनता है, वही सन्तुष्टता है । मतलब यह कि "ममता" ही दुखों का मूल है । घर-गृहस्थी में रहो और गृहस्थी के सारे कार्य-व्यवहार करो; पर किसी भी पदार्थ में ममता मत रक्खो । तुम्हारी ओर से कोई मर जाय तो शोक नहीं; धन-दौलत नष्ट हो जाय तो रंज नहीं, आ जाय तो ख़ुशी नहीं; इस तरह उदासीन भाव रक्खो । अगर इस तरह गृहस्थी में रहो, तो तुमसे बढ़कर ज्ञानी कौन है ? तुम्हें अवश्य मोक्षपद मिलेगा ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">निर्मोही पुरुष </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">----------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">एक मनुष्य के एक ही लड़का था । लड़का जवान हो गया था । उसकी शादी भी हो गयी थी । एक दिन पिता ने किसी उद्देश्य से शाम को एक सभा बुलाने का निमंत्रण दिया । दैवयोग से दोपहर में उसका पुत्र अचानक मर गया । उसने, उसकी लाश को बैठक में लिटाकर ऊपर से कपड़ा उढ़ा दिया और आप शान्त भाव से द्वार पर बैठकर हुक्का पीने लगा । इतने में सभा का समय हो गया; मित्र लोग आने लगे । उनमें से एक मित्र उसी बैठक में किसी ज़रूरी काम से गया । वहां एक लाश पड़ी देख उसने बाहर आकर पूछा - "यह क्या !" </span><br />
<span style="font-size: large;">उसने कहा - "भाई ! लड़का मर गया है पहले सभा का काम कर लें; तब सब मिलकर इसे शमशान घाट पर ले चलेंगे ।" मित्र लोग उस निर्मोही पिता की बात सुनकर चकित हो गए । उन्होंने कहा - "तुम तो अजब आदमी हो ! तुम्हें अपने इकलौते जवान पुत्र का भी रंज नहीं !" उसने कहा - "भाई ! मेरा इसका क्या नाता ? हम सब सराय के मुसाफिर हैं । पूर्वजन्म के कर्मवश एक दुसरे से मिल गए हैं । अपना-अपना समय होने से, अपनी-अपनी राह चले जा रहे हैं; इसमें रंज या शोक की बात ही क्या है ?" ऐसे ही मनुष्य, गृहस्थी में रहकर भी, जन्म-मरण के फन्दे से छूटकर, मोक्षलाभ करते और जीवन्मुक्त कहलाते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">काम करो, पर मन को ईश्वर में रक्खो </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">अगर भगवान् कृष्ण के कथनानुसार संसार के काम-धंधे किये जाएँ, तो भी हर्ज नहीं; पर मन को संसारी पदार्थों या विषय-भोगों से हटाकर एकमात्र भगवान् में लगाना चाहिए । दुनियावी काम करते रहने और मन को भगवान् में लगाए रहने से सिद्धि मिल सकती है । </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महाकवि रहीम</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जो "रहीम" मन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहि ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जल में जो छाया परी, काया भीजत नाहिं ।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सारा दारोमदार मन पर है । व्यभिचारिणी स्त्री घर के धन्धे किया करती है, पर मन को हर क्षण अपने यार में रखती है । गाय जहाँ-तहाँ घास चरती फिरती है, पर मन को अपने बच्चे में रखती है । स्त्रियां जब धान कूटती हैं, तब एक हाथ से मूसल चलाती हैं और दुसरे से ओखल के धान को ठीक करती जाती हैं । इसी बीच में यदि उनका बच्चा आ जाता है, तो उसे दूध भी पिलाती रहती हैं; किन्तु उनका ध्यान बराबर मूसल में ही रहता है । अगर ज़रा भी ध्यान टूटे तो हाथ के पलस्तर उड़ जाएँ । इसी तरह मनुष्य, यदि संसार के काम-धन्धे करता हुआ भी, ईश्वर में मन लगाकर उसकी भक्ति करता रहे, तो कोई हर्ज नहीं; उसे भगवत-दर्शन अवश्य होंगे । यद्यपि इस संसार में रहकर सिद्धि लाभ करना - है बड़े शूरवीरों का काम; तो भी इस तरह अनेक लोग, गृहस्थी में रहते हुए भी मोक्षपद पा गए हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">ईश्वर प्राप्ति की सहज राह कौन सी है </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">गृहस्थी में रहने की अपेक्षा, गृहस्थी त्यागकर, वन के एकान्त भाग में रहकर, भगवत में मन लगाना अवश्य आसान है ।" गृहस्थी में रहने से मन विषय-भोगों की ओर दौड़ता ही है । स्त्री को देखने से काम जागता ही है; पर न देखने से मन नहीं चलता । पराशर ऋषि ने मत्स्यगन्धा देखी, तो उनका मन चलायमान हुआ । विश्वामित्र ने मेनका देखी तो उनका मन बिगड़ा । शिव ने मोहिनी देखी तो उनका मन चञ्चल हुआ । इसीलिए पहले के अनेक महापुरुष अपने-अपने घर त्यागकर वन में चले गए और वहाँ उन्हें सिद्धि प्राप्त हो गयी । पर वन में जाकर भी जो मन को विषयों में लगाए रहते हैं, ममता को नहीं त्यागते; कामना को नहीं छोड़ते, वे गृहस्थी में भी बुरे हैं । वे धोबी के कुत्ते की तरह, न घर के न घाट के ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">त्याग में ही सुख है </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">----------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">जो धन-दौलत, राजपाट, स्त्री-पुत्र प्रभृति को त्यागकर वन में रहते हैं; किसी भी चीज़ की इच्छा नहीं रखते, यहाँ तक की खाने के लिए पाव भर आटे की भी जरुरत नहीं रखते; जहाँ जगह पाते हैं, वही पड़े रहते हैं; जो मिल जाता है, उसी से पेट भर लेते हैं - वे सचमुच ही सुखी हैं । </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">शंकराचार्य महाराज ने "<b>मोहमुद्गर</b>" में कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सुरमन्दिरतरुमूलनिवासः शय्याभूतलमजिनंवासः ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सर्वपरिग्रहभोगत्यागः कस्य सुखम न करोति वैराग्यः ।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जो देवमन्दिर या पेड़ के नीचे पड़े रहते हैं, भूमि ही जिनकी चारपाई है, मृगछाला ही जिनका वस्त्र है, सारे विषय-भोग के सामान जिन्होंने त्याग दिए हैं; यानी वासना रहित हो गए हैं - ऐसे किन मनुष्यों को सुख नहीं है ? अर्थात ऐसे त्यागी सदा सुखी हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">देह नहीं मन के वैराग्य से लाभ है </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">अनेक लोग गेरुए कपडे पहन लेते हैं, तिलक-छापे या राख लगा लेते हैं; पर उनका मन सदा भोगों में लगा रहता है । वे शरीर को वैरागियों सा बना लेते हैं; पर उनका मन भोगियों सा रहता है; इसलिए उनका जन्म वृथा जाता है । आजकल साधु-सन्यासी बनना एक प्रकार का रोज़गार हो गया है । जिनसे किसी तरह की मेहनत मज़दूरी नहीं होती, वे साधु वेश बनाकर लोगों को ठगते और घर मनीआर्डर भेजते हैं । बहुत से ढोंगी नगरों में आकर बड़े आदमियों के यहाँ डेरा लगा देते हैं, चेले-चेलियों से भेंट लेते हैं, नवयौवना सुन्दरियों को पास बिठाकर उपदेश देते हैं, अपने कदमों में रुपयों और अशर्फियों के ढेर लगवाते हैं, भला ऐसों का मन परमात्मा में लग सकता है ? जब विश्वामित्र और पराशर जैसे, हवा और पानी पर गुज़ारा करने वाले, मुनियों का मन स्त्रियों के देखते ही चञ्चल हो गया; तब रबड़ी-मलाई, मावा-मोहनभोग उड़ाने वालों का मन कैसे स्त्रियों पर न चलेगा ? ऐसा कौन है जिसका मन स्त्रियों ने खण्डित नहीं किया ? </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">कहा है -</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कोऽर्थान् प्राप्य न गर्वितो ?</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विषयिणः कस्यापदो नागताः ?</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">स्त्रीभिः कस्य न खण्डितं भुवि मनः ?</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">को नामा राज्ञां प्रियः ?</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कः कालस्य न गोचरान्तरगतः ?</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कोऽर्थी गतो गौरवं ?</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">को वा दुर्जनवागुरा निपतितः </span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">क्षेमेण यातः पुमान् ?</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">किसको धन पाकर गर्व नहीं हुआ ? किस विषयी पर आफत नहीं आयी ? पृथ्वी पर किसका मन नारी ने आकृष्ट नहीं किया ? कौन राजाओं का प्यारा हुआ ? कौन काल की नज़र से बचा ? किस मँगते का गौरव हुआ ? कौन सज्जन दुष्टों के जाल में फंसकर कुशल से रहा ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">सन्यासियों को स्त्री-दर्शन भी मना है </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">------------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b>धर्मशास्त्र </b>में लिखा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सम्भाषायेत् स्त्रियं नैव, पूर्वदृष्टां च न स्मरेत । </span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कथाम् च वर्जयेत्तासां, नो पश्येल्लिखितामपि ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यस्तु प्रव्रजितो भूत्वा पुनः सेवेत्तु मैथुनम् ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">षष्ठिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यति को स्त्री से बात न करनी चाहिए, पहले की देखी हुई स्त्री की याद न करनी चाहिए तथा स्त्रियों की चर्चा भी न करनी चाहिए और स्त्री का चित्र भी न देखना चाहिए ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जो सन्यासी होकर स्त्री के साथ मैथुन करता है, वह साठ हज़ार वर्ष तक विष्ठा का कीड़ा होता है । और विषयों से मन को रोकना उतना कठिन नहीं, जितना कि स्त्री से रोकना कठिन है; इसी से स्त्री का चित्र तक देखने की मनाही की है । जो ढोंगी, साधु-सन्यासी दुनियादारों के घर आते और स्त्रियों में बैठे रहते हैं, उनको उपदेश ग्रहण करना चाहिए ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">ढोंगी साधुओं के लिए अमूल्य उपदेश</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">बनावटी या ढोंगी साधुओं के सम्बन्ध में महात्मा तुलसीदास जी ने कहा है -</span><br />
<span style="font-size: large;">तन को योगी सब करें, मन को विरला कोय।</span><br />
<span style="font-size: large;">सहजे सब सिधि पाइये, जो मन योगी होय।।</span><br />
<span style="font-size: large;">जाके उर बर वासना, भई भास कछु आन।</span><br />
<span style="font-size: large;">तुलसी ताहि विडम्बना, केहि बिधि कथहि प्रमान।।</span><br />
<span style="font-size: large;">काह भयो बन बन फिरे, जो बनि आयो नाहिं।</span><br />
<span style="font-size: large;">बनते बनते बनि गयो, तुलसी घर ही माहिं।।</span><br />
<span style="font-size: large;">रामचरण परचे नहीं, बिन साधन पद-नेह।</span><br />
<span style="font-size: large;">मूँड़ मुड़ायो बादिहीं, भाँड़ भये तजि गेह।।</span><br />
<span style="font-size: large;">कीर सरस बाणी पढ़त, चाखत चाहें खाँड़।</span><br />
<span style="font-size: large;">मन राखत वैराग मँह, घर में राखत राँड़।।</span><br />
<span style="font-size: large;">जहाँ काम तहँ राह नहीं, जहाँ राम नहिं काम।</span><br />
<span style="font-size: large;">तुलसी दोनों नहिं मिलें, रवि रजनी इक ठाम।।</span><br />
<span style="font-size: large;">तब लगि योगी जगतगुरु, जब लगि रहे निरास।</span><br />
<span style="font-size: large;">जब आशा मन में जगी, जग गुरु योगी दास।।</span><br />
<span style="font-size: large;">(*व्याख्या ज्यादा होने के कारण यहाँ नहीं दी गयी है)</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">कोरा सन्यासी भेष धारना, नरक के सामान करना है </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-----------------------------------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">आजकल अनेक वेद विरुद्ध काम करने वाले, मनगढंत मत चलानेवाले, झूठ बोलनेवाले, बगुला और बिलाव की सी वृत्ति रखनेवाले फिरते हैं । गृहस्थों को चाहिए कि उनका बातों से भी सत्कार न करें । ठगों का सत्कार होने से ही ठग-साधू बढ़ रहे हैं । उनमें से कोई मूर्ती बनाकर पूजता और पुजवाता है । कोई अपने को कबीरपन्थी, कोई नानकपन्थी, कोई रामानुजी और कोई दादूपन्थी कहता है । इन पन्थों से कोई लाभ नहीं । जब तक "आत्मज्ञान" नहीं होता, तब तक सिद्धि या मोक्ष नहीं मिलती; अतः मन को सब तरफ से हटाकर, आत्मचिंतन में लगाना चाहिए । ढोंग करने से मनुष्य-जन्म वृथा जाता है । काम तो सब यतियों के से किये जाते हैं, कष्ट भी उन्ही की तरह उठाये जाते हैं; पर परिणाम में मिलता कुछ भी नहीं । बिना आत्मज्ञान या ब्रह्मविचार के कल्याण नहीं होता । गृहस्थों को भी चाहिए कि ऐसे ठगों का आदर-सम्मान न करें । ऐसे बनावटी साधु-सन्यासी आप नरक में जाते हैं और अपने शिष्यों को भी नरक में घसीट ले जाते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">किसी ने ठीक यही बात कविता में बड़ी खूबी से कही है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आत्मभेद बिन फिरें भटकते, सब धोखे की टाटी में।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कोई धातु में ईश्वर मानत, कोई पत्थर कोई माटी में।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वृक्ष कोई जल में कोई, कोई जंगल कोई घाटी में।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कोई तुलसी रुद्राक्ष कोई, कोई मुद्रा कोई लाठी में।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भगत कबीर कोई कहे नानक, कोई शंकर परिपाटी में।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कोई नीमार्क रामानुज है, कोई बल्लभ परिपाटी में।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कोई दादू कोई गरीब दासी, कोई गेरू रंग की हाटी में।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कहै "आज़ाद" भेष जो धारे, चले नरक की भाटी में।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">सन्यासी एक जगह न रहे</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">सन्यासी का मन किसी प्रीती में न फंस जाय अथवा किसी से उसकी मुहब्बत न हो जाय; इसलिए धर्मशास्त्र में सन्यासियों को एक दिन से ज्यादा एक गाँव में रहना तक मन लिखा है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">कहा है -</span></b><br />
<span style="font-size: large;">आबे दरिया बहे तो बेहतर, </span><br />
<span style="font-size: large;">इन्सां रवाँ रहे तो बेहतर।</span><br />
<span style="font-size: large;">पानी न बहे तो उसमें दुर्गन्ध आये,</span><br />
<span style="font-size: large;">खञ्जर न चले तो मोर्चा खाये।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">गिरिधर कवी कहते हैं -</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">कुण्डलिया </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">(१) </span><br />
<span style="font-size: large;">बहता पानी निर्मला, पड़ा गन्ध सो होय ।</span><br />
<span style="font-size: large;">त्यों साधू रमता भला, दाग लागे न कोय ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">दाग लागे न कोय, जगत से रहे अलहदा ।</span><br />
<span style="font-size: large;">राग-द्वेष युग प्रेत, न चित को करें बिच्छेदा ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">कहा "गिरिधर" कविराय, शीट उष्णादिक सहता ।</span><br />
<span style="font-size: large;">होय न कहुँ आसक्त, यथा गंगाजल बहता ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">(२) </span><br />
<span style="font-size: large;">रहने सदा इकन्त को, पुनि भजनो भगवन्त ।</span><br />
<span style="font-size: large;">कथन श्रवण अद्वैत को, यही मतो है सन्त ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">यही मतो है सन्त, तत्व को चितवन करनो ।</span><br />
<span style="font-size: large;">प्रत्येक ब्रह्म अभिन्न, सदा उर अन्तर धरनो ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">कहा "गिरिधर" कविराय, बचन दुर्जन को सहनो ।</span><br />
<span style="font-size: large;">तज के जन-समुदाय, देश निर्जन में रहनो ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">सन्यासियों के कर्तव्य कर्म</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------------------------------</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">(यति पञ्चक से)</span></b><br />
<span style="font-size: large;">वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तो,</span><br />
<span style="font-size: large;">भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्तः।</span><br />
<span style="font-size: large;">विशोकमन्तः करणे रमन्तः,</span><br />
<span style="font-size: large;">कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">(२)</span><br />
<span style="font-size: large;">मूलं तरो: केवलमाश्रयन्तः,</span><br />
<span style="font-size: large;">पाणिद्वयं भोक्तुममन्त्रयन्तः।</span><br />
<span style="font-size: large;">कत्थामिव श्रीमपि कुत्सयेतः,</span><br />
<span style="font-size: large;">कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">(३)</span><br />
<span style="font-size: large;">देहादिभावं परिवर्त्तयन्तः,</span><br />
<span style="font-size: large;">आत्मानमात्मन्यवलोकयन्तः।</span><br />
<span style="font-size: large;">नान्तं न मध्यं न वहिः स्मरन्तः,</span><br />
<span style="font-size: large;">कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">(४)</span><br />
<span style="font-size: large;">स्वानन्दभावे परितुष्टिमन्तः,</span><br />
<span style="font-size: large;">सुशान्त सर्वेन्द्रियतुष्टिमन्तः।</span><br />
<span style="font-size: large;">अहर्निशं ब्रह्मसुखे रमन्तः,</span><br />
<span style="font-size: large;">कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">(५)</span><br />
<span style="font-size: large;">पञ्चाक्षरं पावन मुच्चरन्तः,</span><br />
<span style="font-size: large;">पतिं पशूनां हृदि भावयन्तः।</span><br />
<span style="font-size: large;">भिक्षाशिनो दिक्षु परिभ्रमन्तः,</span><br />
<span style="font-size: large;">कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">भावार्थ</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">(१)</span></b><br />
<span style="font-size: large;">वेदान्त वाक्य या उपनिषदों में अथवा ब्रह्मविद्या में मन लगाए रहनेवाला, केवल भिक्षा के अन्न से सन्तुष्ट रहनेवाला, मन को शोक-ताप शून्य करके सन्तुष्ट रहेवाला और कोपीन पहनने वाला योगी भाग्यवान है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">(२)</span></b><br />
<span style="font-size: large;">केवल वृक्ष के मूल में आश्रय लेने वाला, दोनों हाथों को भोजन के लिए न लगाने वाला, आत्मश्लाघा की तरह लक्ष्मी की निन्दा करनेवाला अर्थात अपनी तारीफ और धन से दूर रहनेवाला एवं कोपीन धारण करनेवाला योगी सुखी है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">(३)</span></b><br />
<span style="font-size: large;">सुखासक्ति, वासना को त्यागनेवाला, अपने स्वरुप में औरों को देखनेवाला, अन्त, मध्य और पुत्र कलत्र आदि को न याद करनेवाला एवं कोपीन बाँधनेवाला यति भाग्यवान है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">(४)</span></b><br />
<span style="font-size: large;">अपने आत्मा में ही आनन्दमग्न रहनेवाला, आँख कान नाक जीभ प्रभृति इन्द्रियों के विषय-सुखों के त्यागने से सन्तुष्ट और आत्मसाक्षात्कार से खुश रहनेवाला और दिन-रात ब्रह्म के दर्शनों से पैदा हुए आनन्द में रहनेवाला तथा कोपीन पहनने वाला योगी सुखी है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">(५) </span></b><br />
<span style="font-size: large;">"शिवाय नमः" इस पांच अक्षर के, आत्मा को शुद्ध करनेवाले, मन्त्र का उच्चारण करनेवाला, ह्रदय में पशुपति शङ्कर की भावना करता हुआ, भिक्षान्न पर गुज़ारा करके, दिशाओं में घूमनेवाला और कोपीन धारण करनेवाला योगी भाग्यवान है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">यतिपञ्चक का फल</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">वास्तविक महापुरुष होने की इच्छा रखनेवालों को उपरोक्त "यति पञ्चक" कण्ठाग्र कर लेना और इस पर अमल करना चाहिए; तब उन्हें निश्चय ही शान्ति और सिद्धि मिलेगी ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">शतहि वर्ष की आयु में, रात में बीतत आधे।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ताके आधे आध, वृद्ध बालकपन साधे।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रहे यहै दिन, आधि व्याधि गृहकाज समोये।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नाना विधि बकवाद करत, सबहिन को खोये।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जल की तरंग बुदबुद सदृश, देह खेह ह्वै जात है।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सुख कहो कहाँ इन नरन कौ, जासों फूल गात है।।</span></span></div>
<br />
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">ब्रह्मज्ञानविवेकिनोऽमलधियः कुर्वन्त्यहो दुष्करं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">यन्मुञ्चन्त्युपभोगकांचनधनान्येकान्ततो निःस्पृहाः ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">न प्राप्तानि पुरा न सम्प्रति न च प्राप्तौ दृढप्रत्ययो</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">वाञ्छामात्रपरिग्रहाण्यपि परं त्यक्तुं न शक्त वयम् ।। १०८ ।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br />
<span style="font-size: large;">उन बुद्धिमान, निर्मल ज्ञान वाले, ब्रह्मज्ञानियों का कठिन व्रत देखकर हमें बड़ा विस्मय होता है, जो विषय-भोग, धन-दौलत, सोना-चाँदी और स्त्री-पुत्र प्रभृति को एकदम से त्याग देते हैं और फिर उनकी इच्छा नहीं रखते ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सत् और असत् का विचार करनेवाले देह और आत्मा को अलग अलग समझनेवाले इस संसार को स्वप्न मानने वाले, इस जगत की झूठी चमक-दमक पर मोहित न होनेवाले पुरुह "ज्ञानी" कहलाते हैं । जिनके सामने माया का पर्दा हट जाता है, जिन्हे देह के नाशमान और आत्मा के नित्य और अविनाशी होने का ज्ञान हो जाता है, उन्हें परमात्मा दीखने लगता है । उन्हें परमात्मा के ध्यान में जो आनन्द आता है, उसकी बराबरी त्रिभुवन के सारे सुखैश्वर्य भी नहीं कर सकते । ऐसे ज्ञानी इस जगत से नाता क्यों जोड़ने लगे ? जब तक उन्हें ज्ञान नहीं होता; माया का पर्दा उनकी आँखों के सामने से नहीं हटता, शरीर और आत्मा का भेद मालूम नहीं होता, तभी तक वे इस संसारी जाल में फंसे रहते हैं; जहाँ उन्हें ज्ञान हुआ और उन्होंने संसार की असलियत समझी, तहाँ फ़ौरन ही इसे छोड़ा । एकबार छोड़कर, फिर इसकी इच्छा वे इसलिए नहीं करते, कि वे समझबूझकर इसे छोड़ते हैं; जबरदस्ती या किसी के बहकाने से अथवा दुकानदारी के लिए तो वे इसे छोड़ते ही नहीं, जो उनकी लालसा इनमें बनी रहे ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जो लोग रूपया पैदा करने या पुजने के लिए घर-गृहस्थी को छोड़ते हैं, उनका मन संसार के विषय-भोगों में लगा रहता है । वे न इधर के रहते हैं न उधर के ही । वे "धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का" अथवा "खुदही मिला न विसाले सनम" या "दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम " वाली कहावत चरितार्थ करते हैं । ऐसे कच्चे त्यागियों के सम्बन्ध में <b>गोस्वामी तुलसीदास जी</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">इत कुल की करनी तजे, उत न भजे भगवान्।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुलसी अधवर के भये, ज्यों बघूर को पान।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अर्थात इधर तो वे अपना घरबार और स्त्री-पुत्र तथा अपने कुल के कामों को छोड़ बैठते हैं और उधर भगवान् को भी नहीं भजते । वे हवा के बवण्डर या भभूले में चक्कर खानेवाले पत्ते की तरह अधर में ही चक्कर खाते रहते हैं </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अगर वे अपने घर में ही रहते, तो अपने कुल-वर्ण के अनुसार कर्म करते और और महात्माओं की सङ्गति और सेवा-टहल से संसार की असारता, अपने नातेदारों की स्वार्थपरता एवं ईश्वर की महिमा का ज्ञान लाभ करके, ईश्वर की भक्ति करते हुए, प्रह्लाद, जनक और अम्बरीष प्रभृति की तरह, घर में रहकर ही सिद्धि लाभ करते । नादान लोग बिना पूर्ण वैराग्य और ज्ञान के, घर गृहस्थी को छोड़कर वन में चले तो जाते हैं; पर उनकी वासना - ममता अपने घरवालों अथवा पराई स्त्रियों या धन-दौलत में बनी रहती है; इसलिए वे संसारियों की निन्दा के भय से लुक-छिपकर विषयों को भोगते हैं और परमात्मा में मन नहीं लगाते । इस तरह उनके लोक-परलोक दोनों बिगड़ते हैं - वे न तो संसारी सुख ही भोग सकते हैं और न स्वर्ग या मोक्ष ही लाभ कर सकते हैं । सारांश यह, मनुष्य को संसार से पूरी विरक्ति होने पर ही संन्यास लेना चाहिए और एक बार त्यागी बनकर फिर अत्यागी न बनाना चाहिए । त्यागी होकर विषयों में लालसा रखनेवाले महानीच हैं । उनकी दोनों जहाँ में महान दुर्गति होती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">प्रत्येक मनुष्य को समझना चाहिए कि यह संसार वास्तव में ही मायाजाल है । कोई किसी का नहीं है । सब अपना अपना मतलब गांठते हैं । मतलब नहीं, तो कोई किसी का नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>तुलसीदास जी</b> कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुलसी स्वारथ के सगे, बिन स्वारथ कोई नाहिं।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सरस वृक्ष पंछी बसें, नीरस भये उड़ जाहिं।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सभी स्वार्थ के सगे हैं; बिना स्वार्थ कोई किसी का नहीं । जब तक वृक्ष में फल रहते हैं, तभी तक पंछी उस पर रहते हैं; जहाँ वृक्ष फलहीन हुआ कि वे उसे छोड़कर और जगह उड़ जाते हैं । यही हाल संसार का है । सब खड़े दम का मेला है । सभी जीते जी के साथी हैं; मरते ही साड़ी मुहब्बत उड़ जाती है । जो स्त्री अर्द्धाङ्गी कहलाती है, जो पुरुष को अपना प्राण प्यारा कहती है, उसे गले से लगाती है और उसके लिए जान देने तक को तैयार रहती है, दम निकलते ही उससे डरने या भय खाने लगती है । अगर वह रोटी भी है, तो अपने सुखों के लिए रोती है; उसके लिए नहीं रोती । और कुटुम्बी - माता पिता भाई बहिन इत्यादि भी दम निकलते ही कहने लगते हैं - "जल्दी उठाओ, अब घर में रखना ठीक नहीं।"</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इस मौके की एक कहानी हमें याद आयी है, उसे हम पाठकों के उपकारार्थ नीचे लिखते हैं -</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">सब जीते जी के साथी हैं</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">एक सेठ का लड़का किसी महात्मा के पास जाया करता था । सेठ को भय हुआ कि कहिं पुत्र वैराग्य न ले ले; इसलिए उसने पुत्र वधु से कला दिया कि वह पुत्र को हर तरह से अपने वश में कर ले; जिससे महात्मा की सङ्गति छूट जाय । लड़के की स्त्री उस दिन से उसकी सेवा-टहल और भी ज्यादा करने लगी; हाथों में उसका मन रखने लगी । लड़का जब घर से बाहर जाता, तभी वह कहती - "आपका वियोग मुझसे सहा नहीं जाता । क्षणभर में ही मेरे प्राण अकुलाने लगते हैं; अतः आप मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाया करें । लड़के ने महात्मा के पास जाना काम जरूर कर दिया; पर कभी कभी वह चला ही जाता था । एक दिन वह बहुत दिन बीच में देकर पहुंचा । महात्मा ने कहा - "भाई ! आजकल तुम आते क्यों नहीं ?" उसने कहा - "मेरी स्त्री मुझे बहुत ही प्यार करती है । उसे मेरे बिना क्षणभर भी कल नहीं पड़ती; इसी से आना नहीं होता; महात्मा ने कहा - "भाई ! ये सब झूठी बातें हैं । संसार में कोई किसी को नहीं चाहता । अगर तुमको विश्वास न हो तो परीक्षा कर लो ।"</span><br />
<span style="font-size: large;">सेठ के पुत्र ने परीक्षा करना ही उचित समझा । महात्मा ने उसे प्राणायाम या सांस चढाने की क्रिया सिखा दी । जब वह प्राणायाम क्रिया में पक्का हो गया, तब महात्मा ने कहा - "आज तू घर जाकर कहना, मेरे पेट में बड़ा दर्द है । इसके बाद सांस चढ़कर पड़ जाना; पर पहले यह कह देना कि यदि मेरी मृत्यु हो जाय, तो अमुक महात्मा को बुलाये बिना मुझे मत जलाना ।" लड़का घर पहुंचा और पेट के दर्द के मारे चिल्लाने लगा । कुछ देर बाद ज़मीन पर गिर पड़ा और माता पिता से कहने लगा - "यदि मैं मर जाऊं; तो बिना अमुक महात्मा को बुलाये और दिखाए मुझे मत जलाना ।" इसके बाद उसने सांस चढ़ा लिया । घरवालों ने उसे देखा तो बोले -" अब इसमें दम नहीं, काठी-कफ़न लाओ और शमशान की तयारी करो ।" इतने में उसकी माँ बोली -"पुत्र ने अमुक महात्मा को बुलाने को कहा था, इसलिए पहले उन्हें बुलवाओ ।" सेठ ने महात्मा के पास आदमी भेजा । वह तत्काल चले आये । उन्हें देखते ही सेठ बोला - "मैं मर जाऊं तो हानि नहीं; पर मेरा पुत्र जी उठे यही मेरी इच्छा है ।" यही बात सेठानी और लड़के की स्त्री ने भी कही । महात्मा ने कहा - "मैं एक पुड़िया देता हूँ । तुममे से जो कोई इसे खा लेगा, वह मर जाएगा और लड़का जी उठेगा ।" इस बात के सुनते ही, सब लगे बगलें झाकने और बहाना करने । तब महात्मा ने कहा - "खैर तुम सब नहीं खाते तो मैं ही खा लेता हूँ ।" यह कहकर महात्मा ने पुड़िया खा ली और क्रिया द्वारा सांस उतार उसे होश में कर दिया । लड़के ने सारा हाल सुना । सुनते ही उसे संसारी मुहब्बत का सच्चा हाल मालूम हो गया और उसने घर छोड़ वैराग्य ले लिया । देखिये ! कुटुम्बियों की प्रीती का चित्र महात्मा सुन्दरदास जी कैसी उम्दगी के साथ खींचते हैं -</span><br />
<b><span style="font-size: large;">(१)</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">माता पिता युवती सुत बान्धव।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">लागत है सब कूँ अति प्यारो।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">लोक कुटुम्ब खरो हित राखत।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">होइ नहीं हमते कहुँ न्यारो।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">देह-सनेह तहाँ लग जानहु।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बोलत है मुख शब्द उचारो।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" चेतन शक्ति गयी जब।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बेगि कहें घर बार निकारो।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">(२)</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रूप भलो तबही लग दीसत।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जौं लग बोलत-चालत आगे।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पीवत खात सुनै और देखत।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सोइ रहे उठि के पुनि जागै।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मात पिता भइया मिली बैठत।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">प्यार करे युवती गल लागे।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" चेतन शक्ति गयी जब।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">देखत ताहि सबै डरि भागे।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">माँ, बाप, स्त्री, पुत्र और नातेदार सबको पुरुष बहुत ही प्यारा लगता है । सब लोग उससे खूब मुहब्बत करते और चाहते हैं कि यह हमसे अलग न हो । लेकिन यह देह की मुहब्बत उसी समय तक है, जब तक की प्राणी अच्छी तरह बोलता चालता है । "सुन्दरदास जी" कहते हैं - जहाँ शरीर में से चेतन शक्ति - आत्मा निकल गयी कि वही सब कहने लगते हैं - "इसे जल्दी घर से बाहर निकालो।" जब तक प्राणी बोलता, चालता, खाता, पीता, सुनता और देखता है एवं सोकर फिर जाग उठता है; तभी तक माँ-बाप और भाई पास बैठते हैं और युवती गले से लगकर प्यार करती है । "सुन्दरदास जी" कहते हैं - ज्योंही चेतन शक्ति शरीर से निकल कर बाहर गयी कि लोग उसे देखते ही डर कर भागने लगते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जिस संसार की ऐसी गति है जो नीरा माया-जाल या गोरखधन्धा है, जिसमें कुछ भी सार-तत्व नहीं है, जिसमें स्वार्थपरता या खुदगर्ज़ी कूट-कूट कर भरी है, उस पर मूर्ख ही लट्टू होते हैं । जो समझदार हैं वे उसके जाल में नहीं फंसते, अगर फंस भी जाते हैं, तो सबको छोड़-छोड़कर अलग हो जाते हैं । जितने विद्वान और महात्मा हुए हैं सभी ने कहा - "इस संसार के साथ दिल मत लगाओ; इसके बनाने वाले के साथ दिल लगाओ । इसी में आपकी भलाई और आपका कल्याण है । उसकी शरण में जाने वाले के पास दुःख और क्लेश नहीं फटकते । वह अपने शरणार्थी की सदैव रक्षा करता है । कौरव-सभा में उसी ने द्रौपदी की लाज रखी थी । जो उसे याद करता है, उसकी खबर वह अवश्य लेता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">कहा है-</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जो तुमको सुमिरत जगदीशा, ताहि आपनो जानत ईशा ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अभिमानी से हो तुम दूरा, सतवादी के जीवनमूरा</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सुखी मीन जहँ नीर अगाधा, जिमि हरशरण न एकौ बाधा।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बड़े विवेकी तजत हैं, सम्पत्ति सुत पितु मात।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कंथा और कोपीन हूँ, हमसे तजो न जात।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br /></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br /></span></span>
<br />
<div>
<b><span style="font-size: large;">व्याघ्रीव तिष्ठति जरा परितर्जयन्ती</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">रोगाश्च शत्रव इव प्रहरन्ति देहम् ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">आयुः परिस्रवति भिन्नघटादिवाम्भो</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम्।। १०९ ।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br />
<span style="font-size: large;">वृद्धावस्था भयङ्कर बाघिनी की तरह सामने खड़ी है । रोग शत्रुओं की तरह आक्रमण कर रहे हैं, आयु फूटे हुए घड़े के पानी की तरह निकली चली जा रही है । आश्चर्य की बात है, फिर भी लोग वही काम करते हैं, जिससे अनिष्ट हो ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">बुढ़ापा मौत का पेशखीमा है</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">बुढ़ापा मौत का पेशखीमा या बकौल "सिसरो" ज़िन्दगी के नाटक का आखिरी सीन है । इसी से चतुर पुरुष बुढ़ापे को देखते ही समझ लेते हैं कि मौत अब आने ही वाली है - हमारे जीवन नाटक का अन्तिम पर्दा गिरने ही वाला है - हमारी ज़िन्दगी का अभिनय अब समाप्त होने ही वाला है । इसी से उन्होंने अगर जवानी और बचपन के दिन वृथा जञ्जालों में भी खोये हैं; तो बुढ़ापे में चेत जाते हैं और सब तजकर हर भजने लगते हैं; पर ऐसे समझदारों की संख्या बहुत थोड़ी है । ज़ियादा तादाद उन अज्ञानियों की है, जो बुढ़ापे को सामने देखकर भी, दम और खांसी के आक्रमण होने पर भी, घरवालों से तिरस्कृत होनेपर भी, संसार की ममता नहीं छोड़ते । अनेक बूढ़े ठीक चला-चली के समय शादी-विवाह करते हैं ; अनेक बेटे-पोतों की पालना में लगे रहते हैं और अनेक धन बढ़ने की चिन्ता में ही मशगूल रहते हैं । इन सब कामों से मनुष्यों का अनिष्ट साधन होता है । न तो उन्हें इस जन्म में ही क्षण-भर को शान्ति मिलती है और न मरने पर अगले जन्म में ही । ममता और कामना के कारण उनका संसार-बन्धन दृढ़ हो जाता है और वे बारबार मरते और जन्म लेते हैं तथा इस घोर दुःख को सुख समझते हैं । भगवान् जाने उन्हें इन घोर दुखों को देखकर भी कैसे सन्तोष होता है ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>भगवान शंकराचार्य </b>कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यावज्जनं तावन्मरणं, तावज्जननि जठरे शयनं।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">इति संसारे स्फुटतर दोषः, कथमिह मानव ! तव सन्तोषः?।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जब तक जन्म ग्रहण करना है, तब तक मरना और माता के पेट में सोना है । संसार में यह दोष स्पष्ट है । हे मनुष्य ! फिर भी तुझे इस जगत में कैसे सन्तोष है ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">रोज़ आँखों से देखते हैं कि इस संसार में ज़रा भी सुख नहीं है । माता के पेट में प्राणी नौ महीने तक घोर नरक-कुण्ड में पड़ा पड़ा सड़ता है । वहां परमात्मा से बारम्बार विनय करता है कि मुझे इस नरक से बाहर कीजिये । मैं बाहर जाते ही केवल आपका भजन करूँगा; पर बाहर आते ही वह सब भूल जाता है । उसे अपने वादे का ध्यान भी नहीं रहता । बाल्यावस्था वह खेल-कूद या पढ़ने-लिखने में गवां देता है; तरुणावस्था में वह तरुणी के फन्दे में फंसा रहता है और बुढ़ापे में नाती-पोतों और दोहितों का सुख देखना चाहता है । इसी तरह उसकी सारी उम्र बीत जाती है और जिस काम के लिए वह यहाँ आया था, वह काम अधूरा या बिना हुआ रह जाता है और समय पूरा होने पर, काल छोटी पकड़ कर ले जाता है । इसके बाद, वह फिर जन्म लेता और मरता है । इस तरह उसे ८४ लक्ष योनियों में जन्म लेना पड़ता है; तब कहीं फिर ऐसा अवसर उसे मिलता है; यानी जन्म-मरण की फांसी काटने वाली मनुष्य-देह मिलती है । अतः ज्ञानी को चाहिए कि अपने मन को अपने अधीन करे और एकाग्र चित्त से परमत्मा की उपासना में लवलीन हो जाय । इस दुर्लभ मनुष्य-देह को वृथा न गवाएं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">महात्मा चरणदास ने यही सब मोह-मदिरा का नशा उतरनेवाली और गफलत को दूर करनेवाली बातें नीचे के भजन में बड़ी ही खूबी से अदा की हैं - </span><br />
<b><span style="font-size: large;">भजन (राग जंगला)</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">पीले रे प्याला हो जा मतवाला, प्याला प्रेम हरिरस का रे ।।टेक।।</span><br />
<span style="font-size: large;">पाप-पुण्य दोउ भुगतन आये, कौन तेरा और तू किसका रे?।</span><br />
<span style="font-size: large;">जो दम जीवे प्रभु के गुण गाले, धन यौवन सुपना निश का रे।।</span><br />
<span style="font-size: large;">बाल अवस्था खेल गवाँई, तरुण भय नारी-बश का रे।</span><br />
<span style="font-size: large;">वृद्ध भय कफ बाय ने घेरा, खाट परा नहिं जाय मसका रे।।</span><br />
<span style="font-size: large;">नाभ-कमल बिच है कस्तूरी, कैसे भरम मिटे पशु का रे।</span><br />
<span style="font-size: large;">मन सतगुरु यों भरमत डोले, जैसे मिरग फिरै बन का रे।।</span><br />
<span style="font-size: large;">लाख चौरासी से उबरा चाहे, छोड़ कामिनी का चसका रे।</span><br />
<span style="font-size: large;">प्रेम लगन "चरणदास" कहत है, नखसिख स्वास भरा विष का रे।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">बुढ़ापे में तो मोक्ष रुपी सोना बना लो</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">मनुष्य की आयु फूटे घड़े के जल की तरह नित्य निकली जा रही है । प्राणी हर क्षण काल के गाल में है । जब तक वह काल के गाल के नीचे नहीं उतरता, तभी तक खैर है । पर मज़ा यह कि मनुष्य आप काल के गाल में है; तोभी विषयों का पीछा नहीं छोड़ता । इसकी दशा उस मेंढक के समान है, जो सांप के मुंह में फंसा हुआ मछरों को मारने की चेष्टा करता था । मनुष्य नित्य देखता है कि करोड़पति, अरबपति और राजा महाराजा अपनी धन-दौलत को यहीं छोड़-छोड़ कर चले जा रहे हैं; फिर भी उसे होश नहीं होता ! भला इस बेहोशी और गफलत का भी कोई ठिकाना है ! बचपन और जवानी में ही परमात्मा से प्रीति करनी चाहिए । अगर उन अवस्थाओं में भूल हो गयी हो; तो बुढ़ापे में तो अवश्य ही सम्भल जाना चाहिए । यह काया पारसमणि है । यह इसलिए मिली है कि इससे मोक्षरूपी सोना बना लिया जाय । जो लोग देर करते हैं, अवधि बीतने पर, यह पारसमणि उनसे छीन ली जाती है और वे मोक्षरूपी सोना नहीं बना पाते; यानी मोक्षलाभ के उपाय करने के पहले ही काल उन्हें ले जाता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">पारस पत्थर की बटिया</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">एक महापुरुष के पास पारस पत्थर की बटिया थी । उन्होंने एक दरिद्र गृहस्थ पर दया कर उसे वह बटिया दे दी और कह दिया कि हम तीर्थ करने जा रहे हैं; १८ महीने बाद लौटेंगे; तब तक तुम इस बटिया से इच्छानुसार सोना बनाकर अपना दारिद्र दूर कर लेना । महात्मा चले गए । गृहस्थ ने बाजार में जाकर लोहे का भाव पूछा । भाव महंगा था, इसलिए सोचा कि जब लोहा सस्ता होगा, लाकर झट सोना बना लूँगा । इस तरह १८ महीनों में जब दो चार दिन रह गए, तब वह लोहा गाड़ियों पर लादकर लाया । विचार किया - "अब क्या देर है, झट सोना बना लेंगे।" उसे तो ख्याल रहा नहीं और १८ मास का आखिरी दिन आ गया । महात्मा भी आ गए । उन्होंने आते ही अपनी पारसमणि मांगी । गृहस्थ ने कहा - "मैं आज शाम को ही आप की बटिया दे दूंगा।" महात्मा ने कहा - "अब समय हो गया; एक क्षण भी बटिया तुम्हारे पास नहीं रह सकती ।" महात्मा ने बटिया ले ली । गृहस्थ रोटा और हाथ मलता रह गया । यह दृष्टान्त है । दृष्टान्त यह है कि समय पूरा हो जाने पर काल इस बात की प्रतीक्षा नहीं करता कि किसी का समय हुआ है कि नहीं; वह तो प्राणी को लेकर चलता बनता है; अतः समय रहते मोक्ष का उपाय करना चाहिए । आग लगने पर कुआँ खोदने से कोई लाभ नहीं । बुढ़ापा या मौत का पेशखीमा आया देखकर भी होश न करना भारी नादानी है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्यों ! विषयों को छोड़ो और परलोक बनाने की फ़िक्र करो; क्योंकि काल तुम्हारे सिरों पर उसी तरह मण्डरा रहा है; जिस तरह बाज़ चिड़िया की घात में मण्डराता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा सुन्दरदास जी</b> ने खूब कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तू अति गाफिल होय रह्यो शठ,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कुञ्जर ज्यूं कछु शंक न आनै।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">माय नहीं तनमें अपनो बल,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मत्त भयो विषय-सुख ठानै।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">खोंसत-खात सबै दिन बीतत,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नीत अनीत कछु नहीं जानै।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" के हरि काल महारिपु,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दन्त उखारी कुम्भस्थल भानै।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;">*<span style="background-color: white;"><span style="color: #b45f06;">इस कविता में मनुष्य को हाथी और मौत को सिंह माना है । सिंह जिस तरह हाथी के दाँत उखाड़ कर उसके कुम्भस्थल को चीर डालता है; उसी तरह काल-सिंह मनुष्य को मार डालता है । (हाथी की पेशानी के ऊपरी भाग में, सामने ही, जो दो गोले होते हैं । उन्हें "कुम्भस्थल" कहते हैं ।</span></span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अरे शठ ! तू बहुत ही गाफिल और असावधान हो रहा है । हाथी की तरह मन में भय नहीं करता । तेरे शरीर में तेरा बल नहीं समाता । मतवाला होकर विषय-भोगों का आनन्द लूट रहा है । छीनते और खाते तेरे दिन बीते जा रहे हैं । तू न्याय-अन्याय, कुछ नहीं समझता । "सुन्दरदास" कहते हैं, घोर शत्रु कालरुपी सिंह तेरे दांतों को उखाड़ कर तेरा कुम्भस्थल फाड़ देगा ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">(२)</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सन्त सदा उपदेश बतावत,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">केश सबै सर श्वेत भये हैं ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तू ममता अजहुँ नहीं छाँड़त,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मौतहु आयी सन्देश दये हैं ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आजु कि कल चलै उठी मूरख,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तेरे हि देखत केते गए हैं ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" क्यूँ नहीं राम सँभारत ?</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">या जगहू में कौन रहे हैं?।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">सन्त लोग सदा उपदेश देते हैं । तेरे सर के बाल सफ़ेद हो गए हैं; मौत ने अपना सन्देश भेज दिया है । अरे मूर्ख ! आज या कल तू उठ जाएगा । पर अफ़सोस ! इतनी खबर पाने पर भी तू होश नहीं करता और अब तक भी ममता नहीं छोड़ता ! अरे शठ ! तेरी आँखों के सामने, देखते देखते कितने ही चले गए; क्या तू यहीं रहेगा ? इस जगत में कौन रहा है ? अब भी तू भगवन को क्यों नहीं याद करता ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">(३)</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">करत करत धन्ध, कछु न जाने अन्ध।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आवत निकट दिन, अगले चपाकदे।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जैसे बाज़ तीतर कुं, दावत है अचानक।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जैसे बक मछरी कुं, लीलट लपाकदे।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जैसे मक्षिका की घात, मकरी करत आय।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जैसे सांप मूसक कुं, ग्रस्त गपाकदे।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चेत रे अचेत नर, "सुन्दर" सँभार राम।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऐसे तांहि काल आय, लेइगो टपाकदे।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">अरे अन्धे ! धन्धों में लगकर तुझे होश नहीं, तेरे अन्तिम दिन शीघ्र शीघ्र नज़दीक आ रहे हैं । जिस तरह बाज़ अचानक आकर तीतर को दबा लेता है, जिस तरह बगुला मछली को चट से निगल जाता है, जिस तरह मकड़ी, मक्खी की घात में लगी रहती है, जिस तरह सांप चूहे को गप से गपक लेता है; उसी तरह काल तुझ पर झपट्टा मारना ही चाहता है । अरे गाफिल मनुष्य ! होशकर और भगवान् को याद कर ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">(४)</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मेरो देह, मेरो गेह, मेरो परिवार सब।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मेरो धन-माल, मैं तो बहु विधि भारो हूँ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मेरे सब सेवक, हुकम कोउ मेटे नाहिं।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मेरी युवती को मैं तो अधिक पियारो हूँ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मेरो वंश ऊंचो, मेरे बाप-दादा ऐसे भये।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">करत बड़ाई, मैं तो जगत उजारो हूँ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" कहत, मेरो मेरो करि जानै शठ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऐसे नहिं जाने, मैं तो काल ही को चारो हूँ।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यह मेरी देह है, यह मेरा घर है, यह सब मेरा कुटुम्ब है, या मेरा धन-माल है, मैं हर तरह से बड़ा आदमी हूँ । मेरे सब नौकर हैं, जो मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते । मैं अपनी युवती का बहुत ही प्यारा हूँ; मेरा कुल और वंश ऊंचा है; मेरे बाप-दादा ऐसे नामी हुए; मैं जगत का उजियारा हूँ; इस तरह मनुष्य अपनी बड़ाई करता और शेखी बघारता है । "सुन्दरदास" कहते हैं, शठ मेरा ही मेरा करता है पर यह नहीं जानता कि मैं स्वयं मौत का चारा हूँ ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">(५)</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">माया जोरि जोरि, नर राखत जतन करि।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कहत है एक दिन, मेरे काम आइ है।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तोहि तौ मरत, कछु बेर नहीं लागे शठ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">देखत ही देखत, बबूला सो बिलाई है।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">धन तो धरयो ही रहे, चालत न कौड़ी गहै।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रीते हाथन से जैसो आयो, तैसो ही जाइ है।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">करिले सुकृत, यह बेरिया न आवै फेरि।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" कहत नर पुनि पछताई है।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य धन जोड़-जोड़ कर रखता है और कहता है कि यह एक दिन मेरे काम आएगा । अरे मूर्ख ! तुझे तो मरते देर न लगेगी; देखते देखते पानी के बबूले की तरह, बिलाय जाएगा । तेरा धन, यहाँ का यहीं रक्खा रह जायेगा; चलते समय कौड़ी भी तू साथ न ले जाएगा; जिस तरह रीते हाथों आया था, उसी तरह खाली हाथों चला जाएगा । अरे मूर्ख ! परोपकार या धर्म-पुण्य कर ले, यह मौका फिर न मिलेगा । "सुन्दरदास जी" कहते हैं, अगर हमारी चेतावनी पर ध्यान न देगा, तो अन्त समय पछ्तावेगा ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">किसी कवी ने मोह-निद्रा में सोनेवाले गाफिल को जगाने और उसे अपने कर्तव्य पर आरूढ़ करने के लिए कैसा अच्छा भजन कहा है -</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">भजन</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मूरख छाँड़ वृथा अभिमान ।। टेक ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">औसर बीत चल्यो है तेरो, तू दो दिन को मेहमान ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भूप अनेक भये पृथ्वी पर, रूप तेज बलवान ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कौन बच्यो या काल बली से, मिट गए नामनिशान ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">धवल धाम धार रथ गज सेना, नारी चन्द्र समान ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अन्त समाही सबहिं को तज के, जाय बसै समसान ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तज सतसङ्ग भ्रमत विषयन में, जा विधि मर्घट-स्वान ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">क्षण भर बैठ सुमिरन न कीनो, जासों होत कल्याण ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रे मन मूढ़ ! अन्त मत भटके, मेरो कह्यो अब मान ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"नारायण" ब्रजराज कुंवर से, बेगि करो पहचान ।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कुपित सिंहनी ज्यों जरा, कुपित शत्रु ज्यों रोग।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">फूटे घट जल ज्यों वयस, तउ अहितयुत लोग ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br /></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br /></span></span>
<b><span style="font-size: large;">सृजति तावदशेषगुणाकरं पुरुष रत्नमलंकरणं भुवः।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">तदपि तत्क्षणभङ्गि करोति चेदहह कष्टमपंडितंताविधेः।। ११० ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br />
<span style="font-size: large;">ब्रह्मा की यह अज्ञानता खटकती है कि वह मनुष्य को गुणों की खान, पृथ्वी का भूषण और प्राणियों में रत्नरूप बनता है; किन्तु उसे क्षणभंगुर कर देता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;">मनुष्य, समस्त जीवधारियों में श्रेष्ठ, अशरफुल, मख़लूक़ात, गुणों का सागर और सृष्टि की शोभा है । यह सब होने पर भी, उसकी उम्र कुछ नहीं; वह पानी के बुलबुले की तरह क्षणभर में नाश हो जाता है ! ब्रह्मा गुणों की खान - पृथ्वी के शोभारूप पुरुष को बनता है, यह तो अच्छी बात है; किन्तु उसे क्षणभर में ही नाश कर देता है, यह दुःख की बात है ! यह विधाता की मूर्खता है ! यदि वह पुरुष को सदा रहनेवाला - अमर और अजर बनता, तो अच्छा होता । इसमें उसकी बुद्दिमत्ता दीखती । क्योंकि अपने बाग़ में आप ही वृक्ष लगा कर, आप ही जल से सींच कर और बढाकर, अपने ही हाथों से अपने लगाए हुए वृक्ष को कोई नहीं काटता । जो ऐसा करता है; वह मूर्ख ही समझा जाता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">विधाता की और भी गलतियां</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">-------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">इस सृष्टि की रचना में, विधाता ने अपनी अनुपम कारीगरी और चातुरी के जो काम किये हैं; उन्हें देखकर मनुष्य की अक्ल दंग रह जाती है । तरह-तरह के फल-फूल और वृक्ष लता पत्रादि; नाना प्रकार के जल, थल और आकाश में विचरने वाले प्राणी; अनगिनत तारे और सूरज-चन्द्रमा तथा नीलगगन प्रभृति को देखकर रचयिता की रचनाचातुरी की हज़ार दिल से तारीफ करनी पड़ती है । निस्सन्देह, विधाता की क्षमता और बुद्धिमत्ता, चतुरी और कारीगरी का पार पाना असंभव है; तथापि यह कहना पड़ता है कि, उस चतुर कारीगर ने भूलें भी बहुत कि हैं । जिस तरह उसने मनुष्य को, सृष्टि का सरदार बनाकर, क्षणभंगुर करने की भूल की है; उसी तरह उसने सोने में सुगन्ध और ईख में फूल न लगाने तथा चन्द्रमा को कलंकी बनाने की भूलें की हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>किसी ने कहा है</b> -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">शशिनि खलु कलङ्कः, कण्टक पद्मनाले,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">युवतिकुचनिपात, पक्वता केशजाले।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जलधिजलमपेयं, पण्डिते निर्धनत्वं,</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वयसि धनविवेको, निर्विवेको विधाता।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">चन्द्रमा में कलङ्क, कमल की डण्डी में काँटे, युवतियों की छातियों का गिर जाना, बालों का सफ़ेद हो जाना, समुद्र के जल का पीने योग्य न होना, विद्वानों का धनहीन रहना और बुढ़ापे में धनागम की चिन्ता रहना - ये सब विधाता की मूर्खता का परिचय देते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"></span></span><br />
<span style="font-size: large;">कहाँ तक कहें, विधाता ने ऐसी-ऐसी अनेक भूलें की हैं । हमने उसकी भूलों के चन्द नमूने यहाँ दिखा दिए हैं । ये सब भूलें मन में काँटे की तरह खटकती हैं; पर इन सब में भी, मनुष्य जैसे प्राणी का, क्षणभर में ही, बबूले की तरह बिलाय जाना सब से अधिक खटकता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div>
<b><span style="font-size: large;">गात्रं संकुचितं गतिर्विगलिता भ्रष्टा च दन्तावलिः-</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">दृष्टिर्नश्यति वर्धते बधिरता वक्त्रं च लालायते ।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">वाक्यं नाद्रियते च बान्धवजनो भार्या न शुश्रूषते</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">हा कष्टं पुरुषस्य जीर्णवयसः पुत्रोप्यमित्रायते ।। १११ ।।</span></b><br />
<span style="font-size: large;"><b><br /></b><b>अर्थ:</b></span><br />
<span style="font-size: large;">मनुष्य की वृद्धावस्था बड़ी खेदजनक है । इस अवस्था में शरीर सुकड़ जाता है, चाल मन्दी पद जाती है, दन्त-पंक्ति टूटकर गिर जाती है, दृष्टी नाश हो जाती है, बहरापन बढ़ जाता है, मुंह से लार टपकती है, बन्धुवर्ग बातों से भी सम्मान नहीं करते, स्त्री भी सेवा नहीं करती और पुत्र भी शत्रु हो जाते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /><b>बुढ़ापे का चित्र</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">--------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">मनुष्य का बुढ़ापा सचमुच ही दुखों की खान है । जिस तरह शत्रु घात लगाए रहते हैं और मौका पाते ही हमला करते हैं; वैसे ही रोग जवानी में तो दबे-छिपे पड़े रहते हैं, पर बुढ़ापे की अवायी देखते ही प्रणिपार चढ़ बैठते हैं । बुढ़ापे में शरीर निकम्मा हो जाता है, खाल झूलने लगती है, इन्द्रियां बेकाम हो जाती हैं, आँखों से दिखाई नहीं देता, कानो से सुनाई नहीं देता, पैरों से चला नहीं जाता और दम चढ़ा करता है । हर समय खों-खों लगी रहती है; दांत अलग ही कष्ट देते और हिल हिल कर प्राण लेते हैं । कोई कड़ी चीज़ खाई नहीं जाती । ज़रा भी कड़ी चीज़ दांतों-टेल आने से दम निकलने लगता है । जिस समय दन्त-पीड़ा के मारे माथा और कनपटी भन्नाने लगते हैं, तब मनुष्य मृत्यु को याद करने लगता है । </span><br />
<span style="font-size: large;"><br />दांतो पर <b>उस्ताद ज़ौक़</b> ने खूब कहा है :-</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जिन दांतों से हँसते थे हमेशा, खिल-खिल।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अब दर्द से हैं वही रुलाते, हिल-हिल।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पीरी में कहाँ, अब वह जवानी के मज़े।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ए ज़ौक़, बुढ़ापे से हैं दांता किल-किल।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br />जिन दांतो से जवानी में खिल खिलाकर हंसा करते थे, अब बुढ़ापे में वही हिल हिल कर हमें रुलाते हैं । ए ज़ौक़ ! बुढ़ापे में अब वह जवानी के मज़े कहाँ हैं ? अब तो इस बुढ़ापे से दांता किल-किल है !</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />महाकवि <b>नज़ीर अकबराबादी</b> "बुढ़ापे" का क्या ही अच्छा चित्र खींचते हैं -</span><br />
<b><span style="font-size: large;">बुढ़ापा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">क्या कहर है यारों, जिसे आ जाय बुढ़ापा।</span><br />
<span style="font-size: large;">और ऐश जवानी के तई, खाय बुढ़ापा।।</span><br />
<span style="font-size: large;">इशरत को मिला ख़ाक में, गम लाय बुढ़ापा।</span><br />
<span style="font-size: large;">हर काम को हर बात को, तरसाय बुढ़ापा।।</span><br />
<span style="font-size: large;">सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।</span><br />
<span style="font-size: large;">आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />आगे तो परीजाद ये, रखते थे हमें घेर।</span><br />
<span style="font-size: large;">आते थे चले आप, जो लगती थी ज़रा देर।।</span><br />
<span style="font-size: large;">सो आके बुढ़ापे ने किया, है ये अन्धेर।</span><br />
<span style="font-size: large;">जो दौड़ के मिलते थे, वो अब लेते हैं मुंह फेर।।</span><br />
<span style="font-size: large;">सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।</span><br />
<span style="font-size: large;">आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाये बुढ़ापा।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />क्या यारो, उलट है गया हमसे ज़माना।</span><br />
<span style="font-size: large;">जो शोख कि थे, अपनी निगाहों के निशाना।।</span><br />
<span style="font-size: large;">छेड़े है कोई डाल के, दादा का बहाना।</span><br />
<span style="font-size: large;">हंस कर कोई कहता है, कहाँ जाते हो नाना।।</span><br />
<span style="font-size: large;">सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।</span><br />
<span style="font-size: large;">आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />पूछैं जिसे कहता है, वो क्या पूंछे है बुड्ढे।</span><br />
<span style="font-size: large;">आवें तो ये गुल-शोर; कहाँ आवे है बुड्ढे।।</span><br />
<span style="font-size: large;">बैठे तो ये है धूम, कहाँ बैठे है बुड्ढे।</span><br />
<span style="font-size: large;">देखें जिसे वह कहता है, क्या देखे है बुड्ढे।।</span><br />
<span style="font-size: large;">सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।</span><br />
<span style="font-size: large;">आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />वह जोश नहीं, जिसके कोई खौफ से दहले।</span><br />
<span style="font-size: large;">वह ज़ोम नहीं, जिससे कोई बात को सहले।।</span><br />
<span style="font-size: large;">जब फस हुए हाथ, थके पाँव भी पहिले।</span><br />
<span style="font-size: large;">फिर जिसके जो कुछ शौक में आवे, सोइ कहले।।</span><br />
<span style="font-size: large;">सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।</span><br />
<span style="font-size: large;">आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />करते थे जवानी में, तो सब आपसे आ चाह।</span><br />
<span style="font-size: large;">और हुस्न दिखाते थे, वह सब आन के दिलख़्वाह।।</span><br />
<span style="font-size: large;">यह कहर बुढ़ापे ने किया, आह नज़ीर आह ! </span><br />
<span style="font-size: large;">अब कोई नहीं पूछता, अल्लाह ही अल्लाह।।</span><br />
<span style="font-size: large;">सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।</span><br />
<span style="font-size: large;">आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /><b>बुढ़ापे में निर्धनता मरण है</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">---------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">यदि मनुष्य जवानी में प्रचुर धन कमाकर रख देता है, तब तो बुढ़ापा सुख से पार हो जाता है; घरवाले हलवा और मोहन-भोग खिलाते, गरमागरम दूध पिलाते अथवा कोई और सुख से खाये जाने योग्य पदार्थ बना देते हैं; यदि पास पैसा नहीं होता, तो सभी घरवाले हर तरह से अनादर करते और सूखे टुकड़े सामने रखते हैं; इच्छा हो बूढ़ा खाय, इच्छा हो न खाय । अगर बूढ़े के पास धन होता है, तो स्त्री, पुत्र, पौत्र और पुत्री तथा पुत्र-वाद्यें हर समय बूढ़े की हाज़िरी में खड़े रहते हैं; मुंह से बात निकलती नहीं और काम हो जाता है । अगर बूढ़े के पास धन नहीं होता, तो सब उसे त्याग देते हैं; क्योंकि यह संसार मतलब का है; बिना स्वार्थ, बिना मतलब और बिना पैसे कोई बात नहीं करता । मतलब से ही लोग एक दुसरे के नातेदार और सम्बन्धी बने हुए हैं; वास्तव में कोई किसी का नहीं है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /><b>कहा है</b> -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वृक्षं क्षीणफलं त्यज्यन्ति विहगाः, शुष्कसरः सारसाः।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पुष्पं पर्य्युषितं त्यज्यन्ति मधुपा, दग्धं वनान्तं मृगाः।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">निर्द्रव्यं पुरुषं त्यज्यन्ति गणिकाः, भृष्टश्रियं मन्त्रिणः।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सर्व्वः कार्यवशाद् जनोऽभिरमते, कस्यास्तिको वल्लभः ?।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br />फलहीन वृक्ष को पक्षी त्याग देते हैं, सूखे तालाब को सारस छोड़ देते हैं, मधुहीन फूलों को भौंरे त्याग देते हैं, जले हुए वन को हिरन छोड़ देते हैं, धनहीन पुरुष को वेश्या त्याग देती है और श्रीहीन राजा को मन्त्री त्याग देते हैं । सब मतलब से एक दुसरे को चाहते हैं; नहीं तो कौन किसका प्यारा है ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />"<b>मोहमुद्गर</b>" में लिखा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यावद् वित्तोपार्जनशक्तः, तावन्निजपरिवारो रक्तः।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तदनु च जरया जर्जर देहे, वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br />जब तक धन कमाने की सामर्थ्य रहती है, तब तक कुटुम्ब के लोग राज़ी रहते हैं; इसके बाद, बुढ़ापे से शरीर जर्जर होते ही कोई बात तक नहीं पूछता।</span><br />
<span style="font-size: large;">संसार की यही धरा है । जिस पुत्र के लिए बचपन में कहीं से धन लाते और उसे अच्छा पिलाते-खिलाते और पहनाते थे, हर तरह लाड-प्यार करते थे; पास पैसा न होने पर भी, पढ़ाने-लिखाने में अपनी शक्ति से अधिक खर्च करते थे; आप तंगी भोगते थे, पर पुत्र को तंगदस्त न होने देते थे; आप फाटे कपडे पहने फिरते थे; पर उसे अच्छे से अच्छा पहनाते थे; अब वही पुत्र मुंह से नहीं बोलता, मौका पड़ने से वह या उसके पुत्र गालियां देते और कभी कभी बूढ़े को मार तक बैठते हैं; पुत्र-वधुएं दिन-भर टनटनाया करती और कहती हैं - "ससुरजी मारें तो संकट कटे; दिन-भर पड़े पड़े खाते और थूक-थूक कर घर ख़राब करते हैं; हमसे तो रोज़ रोज़ मैला साफ़ नहीं होता।" बेटों की बहुएं तो बहुएं, ख़ास अपनी अर्धाङ्गी देखते ही आँखें चढ़ा लेती और खाऊँ-खाऊँ करती रहती है; बूढ़े पति को आलिङ्गन करना, उसकी सेवा करना तो दूर की बात है, उसे पास बैठना भी बुरा समझती है । बीमारी में सेवा-सुश्रुषा करती-करती कहने लगती है - "अब तो तुम मर जाओ तो अच्छा हो । मुझसे यह सब अब नहीं होता ।" कहाँ तक गिनाव, बुढ़ापे में ऐसे-ऐसे अनगिन्तो दुःख आ घेरते हैं; पर आश्चर्य तो यह है कि, इतने पर भी, अज्ञानियों का मोह नहीं छूटता । हमें एक मोहान्ध बूढ़े की की कहानी याद आयी है, उससे पाठकों को बहुत कुछ ज्ञान होता - उनकी आँखें खुल जाएंगी -</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /><b>एक बूढ़े सेठ की दुर्दशा</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">-------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">किसी नगर में एक बूढ़ा सेठ रहता था । उसने जवानी में बहुत सा धन सञ्चय किया था । बुढ़ापे में पुत्रों ने सारा धन उससे अपने हाथोने में ले लिया । बूढ़े को पौली में एक टूटी सी चारपाई पर, एक फटी-पुरानी गुदडी बिछाकर पटक दिया । एक लाठी उसके हाथ में दे दी और कह दिया कि घर में चोर-चकोर या कुत्ता-बिल्ली न आने पावे। सब घर के भोजन कर लेने पर बचा खुचा खाना एक फूटी सी थाली में रखकर बाह्यें बूढ़े को दे जातीं । कुछ दिन इस तरह गुज़रे । पुत्र-वधुओं को यह भी अच्छा न लगा । उन्होंने कहा - "ससुरजी के कारण निकलने-बैठने में बार-बार घूंघट करना होता है, इससे बड़ा कष्ट होता है । अच्छा हो अगर ऊपर के चौबारे में रख दिए जाएँ और एक घण्टी इन्हें दे दी जाय । जब इन्हें किसी चीज़ की जरुरत होगी, यह घण्टी बजा देंगे ।" कलियुग में जोरू का हुक्म खुदा के हुक्म के बराबर समझा जाता है । बेटों ने अपनी घरवालियों की बात मंजूर कर ली और कह-सुन कर बूढ़े को ऊपर पहुंचा दिया और एक घण्टी उसे दे दी । बूढ़े को जब खाना या पानी वगैरह की जरुरत होती, घण्टी बजा देता । कुछ दिनों बाद एक दिन, बूढ़े का नाती ऊपर चला गया । बूढ़ा उसे खिलता रहा । शेष में, वह खेलता-खेलता घण्टी ले आया । अब तो मुश्किल हो गयी; बूढ़ा खाये-पिए बिना मर गया । २४ घण्टे बीतने पर किसी को उसकी याद आयी । देख, तो बुधिराम कूच कर गए थे । पुत्रों ने उसे श्मशान पर ले जाकर जला दिया । बुढ़ापे में ऐसी ही दुर्गति होती है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /><b>बुढ़ापे में ममता और भी बढ़ जाती है</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">-------------------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">एक बूढ़ा अपने मकान की पौली में पड़ा रहता था । कोई उसकी बात न पूछता था । बेचारा ज्यों त्यों करके दिन काटता था । एक दिन उसका पोता उसे मारने और गाली देने लगा । बूढ़ा भी उसे गाली देने लगा । इतने में नारदजी उधर से आ निकले । उन्होंने बूढ़े से सारा हाल पूछा । उसकी दुर्दशा का हाल सुनकर, नारद जी ने उससे कहा - "तुम्हारा जीवन वृथा है । तुम या तो वन में जाकर तप करो या हमारे साथ स्वर्ग को चलो ।" सुनते ही बूढ़ा लाल हो गया और बोलै - "महाराज ! अपनी राह लीजिये । मेरे नाती-बेटे मुझे मारें चाहें गाली दें, आप काज़ी या मुल्ला ? मैं इन्हीं में खुश हूँ ।" नारदजी संसार की मोह-ममता देखकर दंग रह गए । बात यह है कि, अज्ञानी लोगों कि तृष्णा और ममता बुढ़ापे में और भी बढ़ जाती है । वे हज़ारों तरह के कष्ट सहते और अपमानित होते हैं; पर गृहस्थाश्रम को नहीं त्यागते । इसी मिथ्या और स्वार्थपर संसार कि हाय-हाय में एक दिन मर जाते और ममता के कारण बार-बार जन्म लेते और मरते हैं । इस तरह उनके जन्म-मरण का चक्र घूमा ही करता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /><b>मोह त्यागने में ही भलाई है</b></span><br />
<span style="font-size: large;">---------------------------------</span><br />
<span style="font-size: large;">मोह-ममता ही संसार-बन्धन का कारण है । ज्ञानी समझते हैं कि यहाँ कोई किसी का नहीं है । सभी सराय के मुसाफिर हैं । राह चलते-चलते एक जगह एकत्र हो गए हैं । अपना-सपना समय होने पर, अपनी-अपनी राह लगते हैं । न कोई किसी कि स्त्री है और न कोई किसी का पति है; न कोई किसी का पुत्र है और न पिता; न कोई किसी का भतीजा है और न चाचा प्रभृति । स्वार्थ की जञ्जीर में सब बन्धे हुए हैं । फिर इन स्वार्थियों का साथ भी सदा-सर्वदा को नहीं । आज साथ हैं, तो कल अलग हो जाएंगे । जन्म के साथ मृत्यु निश्चित है और संयोग के साथ वियोग अटल है । जब पुरुष का स्त्री से वियोग होता है, तब उसको बड़ा कष्ट और शोक होता है । इसी तरह पुत्र के मरने पर भी महा शोक होता है । पर जो ज्ञानी हैं , तत्त्ववेत्ता हैं, वे इस जगत के नातों की असलियत को जानते हैं; अतः या तो वे गृहस्थी को तज देते हैं या कुटुम्बियों में रहते हुए भी उनमें मोह-ममता नहीं रकते । जो परिवार में रहते हुए भी, परिवार में मोह-ममता नहीं रखते, वे जीवन्मुक्त हैं । धन्य हैं ऐसे नररत्न ! </span><br />
<span style="font-size: large;"><br />एक निर्मोही राजा की कहानी सुनने और ध्यान देने योग्य है -</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /><b>निर्मोही राजा</b></span><br />
<span style="font-size: large;">------------------</span><br />
<span style="font-size: large;">किसी नगर में एक ज्ञानी राजा था । उसे सब निर्मोही कहते थे । एक दिन उसका राजकुमार बन में शिकार खेलने गया । उसे प्यास ज़ोर से लगी । पानी की खोज में, वह एक मुनि के आश्रम में जा पहुंचा । मुनि ने उसे जल पिलाया और पूछा - "आप किसके पुत्र हैं ?" लड़के ने कहा - "मैं निर्मोही राजा का पुत्र हूँ ।" महात्मा ने कहा - "राजकुमार ! एक ही मनुष्य निर्मोही भी हो और साथ ही राजा भी हो, यह नितान्त असंभव है । जो राजा होगा, वह निर्मोही न होगा और जो निर्मोही होगा, वह राजा न होगा ।" राजकुमार ने कहा - "यदि आपको विश्वास नहीं आता; तो आप जाकर परीक्षा कर लीजिये ।" मुनि ने कहा - "अच्छा, हम नगर में जाते हैं । जब तक हम न लौटें, तब तक आप यहीं ठहरें ।" यह कहकर मुनि महाराज नगर को चले गए और राजभवन के द्वार पर जा पहुंचे । द्वार पर उन्हें एक दासी कड़ी मिली ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>मुनि ने दासी से कहा</b>:</span><br />
<span style="font-size: large;">तू सुन चेरी श्याम की, बात सुनावौं तोहि ।</span><br />
<span style="font-size: large;">कुंवर विनास्यौ सिंह ने, आसान परयौ मोहि ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /><b>दासी ने जवाब दिया</b>:</span><br />
<span style="font-size: large;">ना मैं चेरी श्याम की, नहि कोई मेरो श्याम ।</span><br />
<span style="font-size: large;">प्रारब्धवश मेल यह, सुनो ऋषि अभिराम ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />इसके बाद ऋषि आगे चले, तो उन्हें राजकुमार की स्त्री मिली । उससे <b>उन्होंने कहा</b> -</span><br />
<span style="font-size: large;">।। दोहा ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">तू सुन चातुर सुन्दरी, अबला यौवनवान ।</span><br />
<span style="font-size: large;">देवीवाहन दलमल्यौ, तुम्हरो श्रीभगवान ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /><b>स्त्री ने जवाब दिया</b>:</span><br />
<span style="font-size: large;">।। दोहा ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">तपिया पूरब जनम की, क्या जानत हैं लोक ।</span><br />
<span style="font-size: large;">मिले कर्मवश आन हम, अब विधि कीन वियोग ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />इसके बाद ऋषि ने राजकुमार की माता से मिलना चाहा । वे रानी के पास जा पहुंचे और उससे मिलकर <b>उन्होंने कहा</b> -</span><br />
<span style="font-size: large;">।। दोहा ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">रानी तुमको विपत्ति अति, सूत खायो मृगराज ।</span><br />
<span style="font-size: large;">हमने भोजन न कियो, तिसी मृतक के काज ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /><b>रानी ने जवाब दिया</b>:</span><br />
<span style="font-size: large;">।। दोहा ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">एक वृक्ष डालें घनी, पंछी बैठे आय ।</span><br />
<span style="font-size: large;">यह पाटी पीरी भई, उड़ उड़ चहुँ दिशि जाएँ ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />इसके बाद ऋषि राज-दरबार में गए और राजा से मिले । कुशल-प्रश्न होने के बाद <b>ऋषि ने कहा</b> -</span><br />
<span style="font-size: large;">।। दोहा ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">राजा मुखत में राम कहु, पल-पल जात घडी ।</span><br />
<span style="font-size: large;">सुत खायो मृगराज ने, मेरे पास खड़ी ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /><b>राजा ने जवाब दिया</b>:</span><br />
<span style="font-size: large;">।। दोहा ।।</span><br />
<span style="font-size: large;">तपिया तप क्यों छांडियो, इहाँ पालक नहि सोग ।</span><br />
<span style="font-size: large;">वासा जगत सराय का, सभी मुसाफिर लोग ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />राजा का जवाब सुनते ही ऋषि को विश्वास हो गया कि, राजा ही नहीं, राजा और राजा का सारा कुटुम्ब निर्मोही है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />मनुष्य को प्रथम तो गृहस्थाश्रम में रहना ही नहीं चाहिए और यदि रहे भी, तो निर्मोही राजा कि तरह मोह त्याग कर रहे । ममता त्याग कर गृहस्थी में रहने से, मनुष्य भवबंधन में नहीं बांधता और संसार के दुःख-क्लेश उसे संतप्त नहीं कर सकते । ऐसे ज्ञानी को जीवन्मुक्त कहते हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />पर हम देखते हैं कि बुढ़ापे में मनुष्य कि आशा-तृष्णा और भी बढ़ जाती है । बूढ़ा रात-दिन अपने बेटे-पोतों और दोहितों की चिन्ता में ही मग्न रहता है । आप मरने के किनारे बैठा रहता है; तोभी पुत्र-पौत्रों के लिए धन की चिन्ता किया करता है । उसे काम से काम इस चला चली की अवस्था में तो परमात्मा का भजन करना चाहिए; पर बूढ़े से यह नहीं होता । </span><br />
<span style="font-size: large;"><br />शंकराचार्य कृत "<b>मोहमुद्गर</b>" में लिखा है -</span><br />
<span style="font-size: large;">बालस्तावत् क्रीड़ासक्तः, तरुणस्तावत् तरूणीरक्तः।</span><br />
<span style="font-size: large;">वृद्धस्तावत् चिंतामग्नः, परमे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br />बचपन में मनुष्य खेल-कूद में लगा रहता है, जवानी में युवती स्त्री में आसक्त रहता है और बुढ़ापे में चिन्ता फ़िक्रों में डूबा रहता है; लेकिन परम ब्रह्म की चिन्तना में कोई नहीं लगा रहता ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /><b>शोक चिन्ता करना वृथा है</b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">--------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">शोक चिन्ता करना वृथा और नाशमान है । यहाँ कोई किसी का नहीं फिर वृथा शोच-फ़िक्र में अपनी दुर्लभ मनुष्य-देह को नाश करना और जिस काम के लिए जगत में आये हैं, उस काम की ओर ध्यान न देना, सचमुच ही भारी नादानी है । पुत्र मर गया तो क्या ? स्त्री मर गयी तो क्या ? धन चला गया तो क्या ? जिस तरह स्त्री-पुत्र, मित्र-यार प्रभृति चले गए; मर गए; उसी तरह हम भी एक दिन मर जाएंगे; फिर शोच किसका ? यदि वे चले जाते और हम सदा बने रहते; तो भी शोच सकते थे; पर जब सभी को जाना है तो कौन किसका शोच करे ? </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>कहा है</b> -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अष्टकुलाचलसप्तसमुद्राः ब्रह्म-पुरन्दर-दिनकर-रुद्राः।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">न त्वं नाहं नायं लोकः, तदपि किमर्थं क्रियते शोकः ।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">हिमाचल और विंध्याचल प्रभृति आठ पर्वत, सातों समुद्र, ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य और रूद्र सभी अनित्य और नाशमान हैं । न तू, न मैं और न यह लोक स्थायी है; तो फिर शोक किस लिए किया जाता है ?</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">मृत्यु से डरने और घबराने की जरुरत नहीं</span></b><br />
<span style="font-size: large;">---------------------------------------------------</span><br />
<span style="font-size: large;">जब तक मनुष्य को शरीर और शरीरी अथवा देह और आत्मा के अलग-अलग होने का ज्ञान नहीं होता, तब तक वह इस बात को नहीं समझता कि आत्मा, अमर,अविनाशी, नित्य और शाश्वत है; वह कभी नहीं मरता, उसे जल डूबा नहीं सकता, आग जला नहीं सकती, हवा सोख नहीं सकती, तलवार-बन्दूक प्रभृति मार नहीं सकती, तभी तक वह डरता और घबराता है । यह शरीर नाश होता है, आत्मा नहीं; मरना, एक कपडा उतारकर दूसरा पहनना है; शरीर आत्मा के ठहरने की धर्मशाला मात्र है; अगर यह धर्मशाला टूट जायेगी तो आत्मा दूसरी में जा रहेगा - ऐसा ज्ञान होते ही, मनुष्य के मन में भय और भावना नहीं रहती । दुःख सुख का सम्बन्ध शरीर से है, आत्मा से नहीं; आत्मा को दुःख सुख नहीं व्यापते, क्योंकि वह निराकार है - ऐसा ज्ञान होते ही, दुःख आप से आप भाग जाते हैं - हाँ मौत की याद हरदम रखनी चाहिए, क्योंकि मौत को याद रखने से पाप नहीं होते और परमात्मा की शरण में शांति लाभ करना ही अच्छा मालूम होता है; पर मौत से डरना कभी न चाहिए । जो शरीर और आत्मा में भेद नहीं समझते, वे ही मौत के नाम से काँप उठते हैं; किन्तु जो शरीर और आत्मा को जुदा-जुदा समझते हैं, जीवन में कभी पाप नहीं करते, सदा पराया भला करते और परमात्मा को हर क्षण याद करते हैं, वे हँसते-हँसते चोला छोड़ देते हैं । भीष्म-पितामह कई दिनों तक शरशय्या पर लेटे रहे उन्हें ज़रा भी कष्ट न मालूम हुआ । अन्तिम दिन उन्होंने जगदीश को याद करते करते, नश्वर चोला हँसते-हँसते त्याग दिया । </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">भीष्म-पितामह आत्मतत्त्व को पूर्वतया जानने वाले थे । वे जानते थे कि मैं पहले भी था अब वर्त्तमान में भी हूँ और आगे भविष्य में भी इसी तरह रहूँगा । शत्रु मेरा बाल भी बांका नहीं कर सकते । हाँ, वे मेरी इस देह का नाश कर सकते हैं; पर देह का नाश होने से मेरी क्या हानि ? इस देह के नाश होने पर, दूसरी देह, इससे ताज़ा और नई, मुझे मिलेगी । मेरा आत्मा नित्य और अविनाशी है, उसे नाश करनेवाला जगत में कोई भी नहीं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>गीता में कहा है</b> - </span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ।। 23 ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br /></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अविनाशी तू तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । </span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।। १७ ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br /></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मुझको काटे कहाँ है वह तलवार ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दाग दे मुझको कहाँ है वह नार ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">गरम मुझको करे, कहाँ है वह पानी ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वह में कब ताब, सूखने की ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मौत को मौत न आएगी ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">क़सद मेरा जो करके जायेगी ।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">मौत का शोक दूर करने का नुस्खा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">---------------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">महात्मा बुद्ध के ज़माने में किसी स्त्री का इकलौता पुत्र मर गया । पुत्र-शोक, सब शोकों से भारी होता है; इसलिए वह स्त्री शोकाभिभूत होकर, महात्मा बुद्ध के पास गयी और उनसे लड़के के जिला देने की प्रार्थना की । महात्मा ने कहा - "जिस घर में कोई न मारा हो, उस घर से थोड़े राय के दाने ले आओ । अगर तुम वो दाने ले आई तो हम तुम्हारे पुत्र को ज़िन्दा कर देंगे ।" वह स्त्री घर-घर पूछती फिरी; पर उसे एक भी घर ऐसा न मिला,जिसमें मौत न हुई थी । अतः वह बैरंग वापस आयी और महात्मा से सारा हाल निवेदन कर दिया । सुनते ही महात्मा ने कहा - "मौत प्राणिमात्र के पीछे लगी हुई है; जो जन्मा है वह अवश्य मरेगा । यह संसार नाशमान है । आगे पीछे सब को इस जगत से चल देना है। कोई सदा सर्वदा के लिए यहाँ नहीं आया । इसलिए इसमें शोक की कोई बात नहीं । मूर्ख ही मरे हुए का शोच किया करते हैं, ज्ञानी नहीं । ज्ञानी जानते हैं, कि आत्मा अजर, अमर, नित्य और अविनाशी है; इसी से वे शोच नहीं करते; किन्तु मूर्ख देह को आत्मा समझते हैं; इसी से शोक करते हैं ।" महात्मा का यह उपदेश सुनते ही, स्त्री का शोक दूर हो गया और उसे परम शांति लाभ हुई । </span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">भगवान् की शरण में ही सुख है</span></b><br />
<span style="font-size: large;">-------------------------------------</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">इस जगत में मनुष्य को किसी भी अवस्था में सुख नहीं है । फिर बुढ़ापा तो हर तरह दुखों की खान ही है । अतः मनुष्य को जवानी में ही, आगे आनेवाले बुढ़ापे का ख्याल करके, विषयों से मन हटा लेना और परिवार वालों के नाम को भी न रखा चाहिए । सामझदार को कम से कम जवानी के उतार में तो घर जञ्जाल त्याग, वन में जा, परमात्मा की भक्ति और उपासना करनी चाहिए । मन बारम्बार दबाने और समझने से से शान्त हो जाता है और धीरे-धीरे रही सही ममता भी छूट जाती है । अभ्यास के कारण, अन्तकाल में भगवत ही मन में रहने से, मनुष्य की मुक्ति भी हो जाती है; यानि आवागमन से पीछा छूट जाता है । परब्रह्म की शरण में चले जाने से जो आनन्द आता है, उसे लिखकर बता नहीं सकते ।</span><br />
<span style="font-size: large;">बुढ़ापे का चित्र देखकर, मौत को सिर पर मँडराती समझकर, कुटुम्बियों का नाता झूठा समझकर, विषय-वासनाओं को त्यागकर, पुत्र-कलत्र और धन-दौलत की ममता छोड़कर वैराग्य में मन लगाओ । अच्छा हो यदि शरीर में शक्ति सामर्थ्य होते हुए घर से निकल कर वन में जा बसों और सबसे नाता तोड़ एकमात्र परमात्मा से नाता जोड़ लो । उसका नाता ही सच्चा नाता है; और सब नाते झूठे हैं । उसकी शरण में चले जाने से शोक-ताप सता नहीं सकते । भगवान् को भूलने से ही मनुष्य दुःख भोगता और संसारी शत्रुओं से तंग रहता है; किन्तु जो भगवान् के चरण-कमलों में चला जाता है, उसका कोई अनिष्ट नहीं कर सकता और शोक-ताप तो उससे हज़ार कोस दूर भागते हैं । याद रक्खो, परमात्मा की शरण में चले जाने वाले से काल और यमराज तक भय खाते हैं ऋद्धि सिद्धि तो उसके सामने हाथ बांधे खड़ी रहती हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>भगवान् ने कहा है</b> -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जो समीप आवै शरणाई ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">राखौं ताहि प्राण की नाई ।।</span></span><br />
<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b>
<span style="font-size: large;"><b>गोस्वामी तुलसीदास </b>कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कोटि विघ्न संकट विकट, कोटि शत्रु जो साथ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुलसी बल नहीं कर सकें, जो सुदृष्टि रघुनाथ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">राखन हारा साइयाँ, मारि न सकहे कोय ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बाल न बांका कर सकै, जो जग बैरी होय ।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">बुढ़ापे में जगदीश को याद करो</span></b><br />
<span style="font-size: large;">----------------------------------------</span><br />
<span style="font-size: large;">बुढ़ापा आ जाने पर भी, जो परलोक बनाने की सुध नहीं करते, स्त्री-पुरुषों की ममता में पड़कर, घर-गृहस्थी के जञ्जाल में फंसकर, उम्र पूरी कर देते हैं, उनकी भयङ्कर हानि और निन्दा होती है । </span><br />
<span style="font-size: large;"><b>कहा है</b> -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मूर्खो द्विजातिः स्थविरो गृहस्थः ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कामी दरिद्रो, धनवान तपस्वी ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वेश्या कुरूपा, नृपतिः कदर्य्यः ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">लोके षडेतानि विडम्बितानि ।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मूर्ख ब्राह्मण, बूढा गृहस्थ, दरिद्री कामी, धनवान तपस्वी, कुरूपा वेश्या और स्वेच्छाचारी राजा - ये ६ अपना फजीता और लोकनिन्दा करनेवाले हैं ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जो बुढ़ापे तक भी गर्भावस्था का किया इकरार पूरा नहीं करते, उनको विद्वान् और तत्त्ववेत्ता लोग पुरुष नहीं "नपुंसक" कहते हैं । उनको बारम्बार जन्म लेना और मरना होता है । अतः बुढ़ापे में तो मनुष्य को सब तज कर हर भजन और अपना परलोक सुधारना चाहिए ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<span style="font-size: large;">-----------</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भयो संकुचित गात, दन्तु उखरि परे महि।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आँखिन दीखत नाहिं, बदन ते लार परत बहि।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भई चाल बेचाल, हाल बेहाल भयो अति ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बचन न मानत बन्धु, नारिहु तजि प्रीति गति ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यह कष्ट महा दिए वृद्धपन, कछु मुख सों नहिं कहि सकत।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">निज पुत्र अनादर कर कहत, यह बूढ़ो यों ही बकत ।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br /></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br /></span></span>
<br />
<div>
<b><span style="font-size: large;">क्षणं बालो भूत्वा क्षणमपि युवा कामरसिकः</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">क्षणं वित्तैहीनं क्षणमपि च सम्पूर्णविभवः।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">जराजीर्णैरङ्गैर्नट इव क्लीमंडिततनुर्नरः</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">संसारान्ते विशति यमधानीजवनिकाम्।। ११२ ।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br />
<span style="font-size: large;">मनुष्य नाटक के एक्टर के समान है; जो क्षणभर में बालक, क्षणभर में युवा और कामी रसिया बन जाता है तथा क्षण में दरिद्र और क्षण में धनैश्वर्य-पूर्ण हो जाता है । फिर; अन्त में बुढ़ापे से जीर्ण और सुकड़ी हुई खाल का रूप दिखाकर, यमराज के नगर की ओट में छिप जाता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">महाराज भर्तृहरि जी ने मनुष्य का नाटक के स्टेज-एंकर से खूब ही अच्छा मिलान किया है । सचमुच ही मनुष्य नाटक के किरदार सा ही काम करता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">मंच पर जिस तरह एक ही कलाकार कभी बालक, कभी जवान, कभी बूढ़ा, कभी धनि, कभी निर्धन, कभी राजा, कभी फ़कीर, कभी साधू, कभी असाधु तथा कभी रोगी और निरोगी, त्यागी और अत्यागी, भोगी और योगी, गृहस्थ और सन्यासी बनकर, तरह-तरह के तमाशे दिखता और शेष में नाटक के परदे के पीछे छिप जाता है; उसी तरह मनुष्य बालक और जवान, धनी और निर्धन प्रभृति के स्वांग भर और दिखाकर, अन्त में जीवन-नाटक का आखिरी सीन - बुढ़ापे का रूप - दिखा कर, यमपुरी-रुपी परदे की ओट में जाकर छिप जाता है; यानि इस दुनिया से कूच कर जाता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br /></span>
<b><span style="font-size: medium;">छप्पय</span></b></span><br />
<b><span style="font-size: large;">-------------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">छिन में बालक होत, होत छिनहि में यौवन।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">छिन ही में धनवन्त, होत छिन ही में निर्धन।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">होत छिनक में वृद्ध, देह जर्जरता पावत।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नट ज्यों पलटत अंग, स्वांग नित नए दिखावत।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यह जीव नाच नाना रचत, निचल्यो रहत न एकदम।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">करके कनात संसार की, कौतुक निरखत रहत यम।।</span></span></div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br /></span></div>
<br /></div>
<b><span style="font-size: large;">अहौ वा हारे वा बलवति रिपौ वा सुहृदि वा</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">मणौ वा लोष्ठे वा कुसुमशयनेवा दृषदि वा।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">तृणे वा स्त्रैणे वा मम समदृशो यान्तु दिवसाः</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">क्वचितपुण्यारण्ये शिवशिवशिवेति प्रलपतः।। ११३ ।।</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;"><br /></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br />
<span style="font-size: large;">हे परमात्मा ! मेरे शेष दिन, किसी पवित्र वन में, "शिव शिव" रटते हुए बीतें; सर्प और पुश-हार, बलवान शत्रु और मित्र, कोमल पुष्प-शय्या और पत्थर की शिला, मणि और पत्थर, तिनका और सुन्दरी कामिनियों के समूह में मेरी समदृष्टि हो जाय, मेरी यही इच्छा है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>खुलासा </b>- कोई विरक्त पुरुष परमात्मा से प्रार्थना करता है कि मेरी मति ऐसी कर दे कि, मुझे सर्प और हार, शत्रु और मित्र, पुष्प-शय्या और शिला, रत्न और पत्थर, तिनका और सुन्दरी स्त्री सब एक से दीखने लगें; इनमें मुझे कुछ भेद न मालूम हो; मैं समदर्शी हो जाऊं और मेरा शेष जीवन किसी पवित्र वन में "शिव शिव शिव" जपते बीते।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जब सभी शरीरों में एक ही व्यापक ब्रह्म दीखने लगे; शत्रु-मित्र में भेद न मालूम हो; हर्ष-शोक और दुःख-सुख सब में चित्त एकसा रहे; तब योगसिद्धि हुई समझनी चाहिए ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><b>कबीरदास </b>कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सदृष्टि सतगुरु करौ, मेरा भरम निकार।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जहाँ देखों तहाँ एक ही, साहब का दीदार।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">समदृष्टि तब जानिये, शीतल समता होय।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सब जीवन कि आत्मा, लखै एकसी सोय।।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">समदृष्टि सतगुरु किया, भरम किया सब दूर।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दूजा कोई दिखे नहीं, राम रहा भरपूर।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">यही अवस्था सर्वोत्तम अवस्था है । इसी में परमानन्द है । इस अवशता में शोक और दुःख का नाम भी नहीं है; पर यह अवस्था उन्ही को प्राप्त होती है, जिन पर जगदीश कि कृपा होती है या जिनके पूर्व जन्म के सञ्चित पुण्यों का उदय होता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">समदर्शी होने के उपाय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">====================</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">समदर्शिता ही परमानन्द की सीढ़ी है </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">----------------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">चित्त की समता ही योग है । जब समान दृष्टी हो गयी, तब योगसिद्धि में बाकी ही क्या रहा ? जब मनुष्य को इस बात का ज्ञान हो जाता है, कि समस्त जगत और जगत के प्राणियों में एक ही चेतन आत्मा है; छोटे बड़े, नीच-उंच सभी शरीरों में एक ही ब्रह्म का प्रकाश है; तब उसकी नज़र में सभी समान हो जाते हैं । जब वह राजा-महराजा, अमीर और गरीब, मनुष्य और पशु-पक्षी, हाथी और चींटी, सर्प और मगर - सब में एक ही चेतन आत्मा को व्यापक देखता है; तब उसके दिल में किसी से राग और किसी से विराग, किसी से विरोध और किसी से प्रणय-भाव रह नहीं जाता; उस समय उसे न कोई शत्रु दीखता है और न कोई मित्र । इस अवस्था में पहुँचने पर, वह न किसी को अपना समझता है, न पराया । इस समय ही उसे स्त्री और पुरुष, दोस्त और दुष्काण, सर्प और पुष्प-हार, सोना और मिट्टी प्रभृति में कोई फर्क नहीं मालूम होता । इस अवस्था में, उसके अन्तःकरण से दुखों का घटाटोप दूर होकर, परमानन्द कि प्राप्ति होती है । उस समय जो आनन्द होता है, उसको कलम से लिखकर बताना कठिन ही नहीं; असंभव है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">समस्त जगत में एक ही आत्मा व्यापक है ?</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">--------------------------------------------------</span></span><br />
<span style="font-size: large;">बेशक, सारे जगत में एक ही चेतन आत्मा है । जिस तरह गुलाब-जल से भरे घड़े में, गङ्गाजल से भरे घड़े में, मूत्र से भरे घड़े में और शराब से भरे घड़े में एक ही सूर्य का प्रतिबिम्ब - अक्स पड़ता है, सबमें एक ही सूर्य दीखता है; उसी तरह मनुष्य, पशु-पक्षी और मागत-मैच प्रभृति जगत के सभी प्राणियों में एक ही चेतन ब्रह्म का प्रतिबिम्ब या प्रकाश है । अलग-अलग प्रकार के शरीरों या उपाधियों के कारण, सबमें एक ही आत्मा होने पर भी अलग-अलग दीखते हैं । लेकिन भिन्न-भिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न आत्मायों का होना, अज्ञानियों को ही मालूम होता है; जो सच्चे तत्ववेत्ता और पपूर्ण ज्ञानी हैं अथवा जो आत्मतत्त्व कि तह तक पहुँच गए हैं, उन्हें सभी शरीरों में एक ही आत्मा दीखता है । वे समझते हैं कि, जो आत्मा हम में है, वही समस्त जगत और जगत के प्राणियों में है । बकरी के शरीर में जो आत्मा है, वह बकरी; हाथी के शरीर में जो आत्मा है, वह हाथी और मनुष्य के शरीर में जो आत्मा है, वह मनुष्य कहलाता है । जिन जिन शरीरों में आत्मा प्रवेश कर गया है, उन्ही उन्हीं शरीरों के नाम से वह पुकारा जाता है; शरीरों या उपाधियों का भेद है; आत्मा में कोई भेद नहीं । नदी, तालाब, झील, बावड़ी, झरना, सोता और कुंआ - इन सब में एक ही जल है, पर नाम अलग-अलग है । नाम अलग अलग हैं । एक लोहे के डण्डे पर कपडा लपेट कर जो अग्नि जलाई जाती है, उसे मशाल कहते हैं और एक मिट्टी के दीवले में जो अग्नि जलती है, उसे दीपक कहते हैं । पृथ्वी एक ही है, पर उसके नाम अलग-अलग हैं । किसी को नगर, किसी को गाँव, किसी को ढानी और किसी को घर कहते हैं; पर है तो सब धरती ही । ताना और बाना एक ही सूत के दो नाम हैं; पर है दोनों में ही सूत । वन एक ही है; उस में अनेक वृक्ष हैं और उनके नाम तथा जातियां अलग-अलग हैं । बीज से वृक्ष होता है और वृक्ष से बीज होता है; अतः बीज वृक्ष है और वृक्ष बीज है । दोनों एक ही हैं, पर नाम अलग-अलग हैं । बाप से बीटा पैदा होता है; अतः बाप में और बेटे में एक ही आत्मा है, अतएव बाप बेटा है और बेटा बाप है । बहुत कहना-समझाना वृथा है । निश्चय ही सबमें एक ही चेतन आत्मा है, पर भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीरों के कारण नाम अलग-अलग हैं । भ्रम के कारण मनुष्य को असल बात समझ नहीं पड़ती । मृगमरीचिका में जल नहीं है; पर भ्रमवश मनुष्य को जल दीख पड़ता है और वह कपडे उतार कर तैरने को तैयार हो जाता है । रस्सी-रस्सी है, सांप नहीं; पर अँधेरे में वही रस्सी सांप सी दीखती है और मनुष्य डर कर उछालता और भागता है । इसी तरह जब तक मनुष्य के ह्रदय में अज्ञान रुपी अंधकार रहता है, उसे और का और दीखता है । देख और आत्मा अलग़-अलग हैं । देह नाशमान और आत्मा अविनाशी हैं; पर अज्ञानी को, जिसके दिल में अँधेरा है, देह और आत्मा एक मालूम होते हैं तथा शरीर और आत्मा दोनों ही नाशमान जान पड़ते हैं । इसी तरह सब जगत में एक ब्रह्म व्यापक है - शरीर-शरीर में एक ही चेतन आत्मा है; पर अज्ञानी सब प्राणियों में एक ही आत्मा नहीं मानता है । अज्ञान-अंधकार के मारे, वह इस बात को नहीं समझता कि मुझमें, उधो में, माधव में, रामा में, मेरी स्त्री में, मेरे पुत्र में, माधव के पुत्र में, घोड़े में, हाथी में, सर्प में और सिंह में एक ही आत्मा है; यानी जो आत्मा मुझमें है वही समस्त जगत में है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>बिहारीलाल कवी</b> ने कहा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मोहन मूरति श्याम की, अति अद्भुत गति जोइ।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वसत सुचित अन्तर तऊ, प्रतिबिम्बित जग होइ।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">श्याम की मोहिनी मूरत की गति अति अद्भुत है । वह सुन्दर ह्रदय में रहती है, तोभी उसका प्रतिबिम्ब - अक्स - सारे जगत में पड़ता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>महाकवि नज़ी</b>र कहते हैं -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ये एकताई ये यकरंगी, तिस ऊपर यह क़यामत है।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">न कम होना न बढ़ना और हज़ारों घट में बंट जाना।।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">ईश्वर एक है और एक रंग है - निर्विकार और अक्षय है; उसमें रूपान्तर नहीं होता और वह घटता-बढ़ता भी नहीं; लेकिन अचम्भे की बात है कि, वह घट-घट में इस तरह प्रकट होता है, जिस तरह एक सूर्य का प्रतिबिम्ब सैकड़ों जलाशयों में दिखाई देता है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">क्या जीवात्मा और परमात्मा में भी कुछ भेद नहीं है ?</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">---------------------------------------------------------------</span></span><br />
<span style="font-size: large;">निस्संदेह; जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है । दोनों में एक ही आत्मा है । जीव की उपाधि अन्तःकरण है और परमेश्वर की उपाधि माया है । जीव की उपाधि छोटी है और परमात्मा की बढ़ी है; इसी से ईश्वर में जो सर्वज्ञता प्रभृति धर्म हैं; जीव में नहीं । गंगा की बढ़ी धरा में नाव और जहाज़ चलते है, हज़ारों मगरमच्छ और करोड़ों मछलियां तैरती हैं तथा किनारे पर लोग स्नान करते हैं । पर वही गङ्गाजल अगर एक गोलास में भर लिया जाय, तो उसमें न तो नाव और जहाज़ होंगे, न मगरमच्छ और मछलियां होंगी और न किनारे पर लोग स्नान करते होंगे । दरअसल, गंगा की बड़ी धरा में जो जल है, व्है जल गिलास में है । वह गंगा का बड़ा प्रवाह है और गिलास में थोड़ा सा जल है । जिस तरह दोनों जलों के एक होने में सन्देह नहीं; उसी तरह जीवात्मा और परमात्मा के एक होने में सन्देह नहीं । सारांश यह कि, जीवात्मा, परमात्मा और समस्त जगत में एक ही ब्रह्म है । जो इस बात कि तह तक पहुँच जाएगा, वह किस से बैर करेगा और किससे प्रीती ? जब तक मनुष्य इस बात को अच्छी तरह नहीं समझ लेता और यही बात उसके दिल पर नक्श हुई नहीं रहती कि, जो आत्मा मेरे शरीर में है वही जगत के और प्राणियों के शरीर में है, तभी तक वह किसी को अपना और किसी को पराया, किसी को अपनी स्त्री और किसी को अपना पुत्र, किसी को शत्रु और किसी को मित्र, किसी को सर्प और किसी को फूलों का हार समझता है; किसी से खुश होता है और किसी से नाराज़, किसी से विरोध करता और किसी से प्रणय । पहले के पहुंचे हुए महात्मा जो सिंहो को अपने आश्रमों में भेद बकरी कि तरह पालते और सर्पों को गले का हार बनाये रहते थे, वह क्या बात है ? और कुछ नहीं, यही बात है, कि वे भीतरी दिल से सिंह में भी और अपने में एक ही आत्मा समझते थे; इसी से वे उनसे डरते नहीं थे और सिंह तथा सर्प प्रभृति हिंसक जीव भी उन्हें कष्ट न पहुंचते थे ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>कैवल्यौपनिषद </b>में लिखा है -</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यत्परं ब्रह्म सर्वात्मा, विश्वस्यायतन महत्। </span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं नित्यं स त्वमेव त्वमेव तत्। ।</span></span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">जो ब्रह्म सब प्राणियों का आत्मा, सम्पूर्ण विश्व का आधार, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और नित्य है, वही तुहि है और तू वही है ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">ज्ञानकाण्ड उपनिषत् ही तो वेद का निष्कर्ष और सार है । उसमें सर्वत्र आत्मा को ही ईश्वर कहा है । हमारे वेद ही नहीं, संसार के समस्त धर्मशास्त्र - कुरान और बाइबिल आदि में भी यही बात कही है । कुरान में "<b>ला इलाहा इल्ला अन्ना</b>" यही निचोड़ कहा है, यानी आत्मा के सिवा दूसरा और ईश्वर नहीं है । बाइबिल में भी ईसा मसीह ने कहा है - "<b>Ye are the living temples of God</b> अर्थात चमक ईश्वर के जीवित मंदिर हो; अर्थात "<b>तत्वमसि</b>" । वह तुम हो ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">समदर्शी होने से मोक्ष मिलती है </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------------------------------------</span></b><br />
<span style="font-size: large;">"समस्त जगत में एक ही ब्रह्म या चेतन आत्मा व्यापक है - इस बात को जाने-समझे बिना, समदर्शी हो नहीं सकता इसी से हमने यह बात विस्तार स समझायी है । अब रही यह बात कि, समदर्शी होने कि क्या जरुरत है ? समदृष्टि होने से क्या लाभ है ? इन प्रश्नों का उत्तर हम संक्षेप में ही दिए देते हैं - समदृष्टि हो जाने से मनुष्य का दुःख और क्लेशों से पीछा छूट जाता है; वर्णनातीत परमानन्द कि प्राप्ति होती है; संसार-बन्धन काट जाता है; आवागमन का झगड़ा मिट जाता है; प्राणी को बारम्बार जन्म लेना और मरना नहीं पड़ता; उस कि मोक्ष हो जाती है और वह परमपद या विष्णुत्व को प्राप्त हो जाता है । स्वामी शंकराचार्य जी महाराज कहते हैं -</span><br />
<span style="font-size: large;">शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ ।</span><br />
<span style="font-size: large;">भव समचित्तः सर्वत्र त्वं, वाञ्छस्यचिराद् यदि विष्णुत्वम् ।।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;">हे मनुष्य ! यदि तू शीघ्र ही मोक्ष या विष्णुत्व चाहता है, तो शत्रु और मित्र, पुत्र और बंधुओं से विरोध और प्रणय मत कर; यानी सब को एक नज़र से देख, किसी में भेद न समझ ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><b>सार</b>- यदि मोक्ष, मुक्ति या परमानन्द चाहते हो, तो सब जगत में अपने ही आत्मा को देखो, किसी को अपना और किसी को पराया, किसी को शत्रु और किसी को मित्र मत समझो ।</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सर्प सुमन को हार, उग्र बैरी अरु सज्जन।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कंचन मणि अरु लोह, कुसुम शय्या अरु पाहन।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तृण अरु तरुणी नारि, सबन पर एक दृष्टी चित।</span></span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कहूँ राग नहि रोष, द्वेष कितहुँ न कहुँ हित।।</span></span></div>
</div>
</div>
<div>
<br />
<br />
<span style="font-size: x-large;"><b><span style="background-color: white;">-------------------------</span><span style="color: #bf9000;">इति वैराग्य शतकम्</span>-------------------------</b></span></div>
Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-76254330192319574932019-06-11T01:46:00.003+05:302020-03-30T11:56:16.011+05:30शिव पुराण<span style="text-align: center;">===================== </span><b style="text-align: center;">विद्येश्वर संहिता </b><span style="text-align: center;"><b>आरम्भ</b>=====================</span><br />
<b><br /></b>
<b>भगवान् शिव के लिङ्ग एवं साकार विग्रह पूजा के रहस्य तथा महत्व का वर्णन</b><br />
<b>---------------------------------------------------------------------------------------------</b><br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">ऋषियों ने पूछा:</span> मूर्ती में ही सर्वत्र देवताओं की पूजा होती है(लिङ्ग में नहीं), परन्तु भगवान् शिव की पूजा सब जगह मूर्ती में और लिङ्ग में भी क्यों की जाती है ?<br />
<span style="color: #b45f06;">सूत जी ने कहा:</span> मुनिश्वरों ! तुम्हारा यह प्रश्न तो बड़ा ही पवित्र और अत्यंत अद्भुत है । इस विषय में महादेव ही वक्त हो सकते हैं । दूसरा कोई पुरुष कभी और कहीं भी इसका प्रतिपादन नहीं कर सकता । इस प्रश्न के समाधान के लिए भगवान् शिव ने जो कुछ कहा है और उसे मैंने गुरूजी के मुख से जिस प्रकार सुना है, उसी तरह क्रमशः वर्णन करूँगा । एकमात्र भगवान् शिव ही ब्रह्मरूप होने के कारण 'निष्कल' (निराकार) कहे गए हैं । रूपवान होने के कारण उन्हें 'सकल' भी कहा गया है । इसलिए वे 'सकल' और 'निष्कल' दोनों हैं । शिव के निष्कल - निराकार होने के कारण ही उनकी पूजा का आधारभूत लिङ्ग भी निराकार ही प्राप्त हुआ है । अर्थात शिवलिङ्ग, शिव के निराकार स्वरुप का प्रतीक है । इसी तरह शिव के सकल या साकार होने के कारण उनकी पूजा का आधारभूत विग्रह साकार प्राप्त होता है अर्थात शिव का साकार विग्रह उनके साकार स्वरुप का प्रतीक होता है । सकल और अकल(समस्त अंग-आकार सहित साकार और अंग-आकार से सर्वथा रहित निराकार) रूप होने से ही वे 'ब्रह्म' शब्द से कहे जाने वाले परमात्मा हैं । यही कारण है कि सब लोग लिङ्ग (निराकार ) और मूर्ती(साकार) दोनों में ही सदा भगवान् शिव की पूजा करते हैं । शिव से भिन्न जो दूसरे-दूसरे देवता हैं, वे साक्षात् ब्रह्म नहीं हैं । इसलिए कहीं भी उनके लिए निराकार लिङ्ग नहीं उपलब्ध होता ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">पुरुष-वस्तु</span> : दीर्घकाल तक अविकृतभाव से सुस्थिर रहने वाली वस्तु ।<br />
<span style="color: #b45f06;">प्रकृत-वस्तु</span> : अल्पकाल तक ही टिकने वाली क्षणभंगुर वस्तुएं ।<br />
<br />
<b>पांच कृत्यों का प्रतिपादन प्रणव एवं पञ्चाक्षर मन्त्र की महत्ता </b><br />
<b>------------------------------------------------------------------------</b><br />
ब्रह्मा और विष्णु ने पूछा: प्रभो ! सृष्टि आदि पांच कृत्यों के क्या लक्षण हैं, वह हम दोनों को बताइये ।<br />
भगवान् शिव बोले : मेरे कर्तव्यों को समझना अत्यंत कठिन है । तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें उनके विषय में बता रहा हूँ । ब्रह्मा और अच्युत ! <span style="color: #b45f06;">सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह</span> - ये पांच ही मेरे जगत-सम्बन्धी कार्य हैं । संसार की रचना जो आरम्भ ?????? 'सृष्टि' कहते हैं । मुझसे पालित होकर सृष्टि का सुस्थिर रूप से रहना ही उसकी स्थिति है । उसका विनाश ही 'संहार' है । प्राणो के उत्क्रमण को 'तिरोभाव' कहते हैं । इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा 'अनुग्रह' है । इस प्रकार मेरे पांच कृत्य हैं । सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसार का विस्तार करनेवाले हैं । पांचवां कृत्य, अनुग्रह, मोक्ष का हेतु है । वह सदा मुझमें ही अचल भाव से स्थिर रहता है । मेरे भक्तजन इन पाँचों कृत्यों को पाँचों भूतों में देखते हैं । सृष्टि भूतल में, स्थिति जल में, संहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है । इन पांच कृत्यों का भार वहन करने के लिए ही मेरे पांच मुख हैं । चार दिशाओं में चार मुख हैं और इनके बीच में पांचवां मुख है । पुत्रों ! तुम दोनों ने तपस्या करके प्रसन्न हुए मुझ परमेश्वर से सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त किये हैं । ये दोनों तुम्हें बहुत प्रिय हैं । इसी प्रकार मेरी विभूतिस्वरूप 'रुद्र' और 'महेश्वर' ने दो अन्य उत्तम कृत्य - संहार और तिरोभाव मुझसे प्राप्त किये हैं परन्तु अनुग्रह नामक कृत्य कोई दूसरा नहीं पा सकता । रुद्र और महेश्वर अपने कर्म को भूले नहीं है इसलिए मैंने उनके लिए अपनी समानता प्रदान की है । वे रूप, वेश, कृत्य, वाहन, आसन और आयुध आदि में मेरे समान ही हैं । मैंने पूर्वकाल में अपनी स्वरूपभूत का उपदेश किया है, जो ओंकार रूप में प्रसिद्ध है । वह महामंगलकारी मंत्र है । सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार (ॐ) प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरुप का बोध करनेवाला है । ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ । यह मंत्र मेरा ही स्वरुप है । प्रतिदिन ओंकार का निरंतर स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है ।<br />
मेरे उत्तरवर्ती मुख से अकार का, पश्चिम मुख से उकार का, दक्षिण मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से बिन्दु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ । इस प्रकार पांच अवयवों से युक्त ओंकार का विस्तार हुआ । इन सभी अवयवों से एकीभूत होकर वह प्रणव 'ॐ' नामक एक अक्षर हो गया । या नामरूपात्मक सारा जगत तथा वेद उत्पन्न स्त्री-पुरुषवर्गरूप दोनों कुल इस प्रणव मन्त्र से व्याप्त हैं । यह मन्त्र शिव और शक्ति दोनों का बोधक है । इसी से पंचाक्षर मंत्र की उत्पत्ति हुई है, जो मेरे सकल रूप का बोधक है । वह अकारादि क्रम से और मकारादि क्रम से क्रमशः प्रकाश में आया है ("<span style="color: #b45f06;"><b>ॐ नमः शिवाय</b>" यह पञ्चाक्षर मंत्र है</span>) । इस पञ्चाक्षर मंत्र से मातृका वर्ण प्रकट हुए हैं, जो पांच भेद वाले हैं (<span style="color: #b45f06;">ञ्, इ, उ, ऋ, लृ - ये पांच मूलभूत स्वर हैं तथा व्यंजन भी पांच-पांच वर्णों से युक्त पांच वर्गवाले हैं</span>)। उसी से शिरोमन्त्र सहित त्रिपदा गायत्री का प्राकट्य हुआ । उस गायत्री से सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और उन वेदों से करोड़ों मन्त्र निकले हैं । उन उन मन्त्रों से भिन्न-भिन्न कार्यों की सिद्धि होती है । इन मन्त्रसमुदाय से भोग और मोक्ष दोनों सिद्ध होते हैं । मेरे सकल स्वरुप से सम्बन्ध रखनेवाले सभी मंत्रराज साक्षात् भोग प्रदान करनेवाले और शुभ हैं ।<br />
<b><br /></b>
<b>भगवान् शिव द्वारा सात वारों का निर्माण </b><br />
<b>---------------------------------------------</b><br />
सृष्टि के आरम्भ में सर्वज्ञ, दयालु और सर्वसमर्थ महादेव जी ने समस्त लोकों के उपकार के लिए वारों की कल्पना की । वे भगवान् शिव संसाररूपी रोग को दूर करने के लिए वैद्य हैं । सबके ज्ञाता तथा समस्त औषधों के भी औषध हैं । उन भगवान् ने पहले अपने वार की कल्पना की जो आरोग्य प्रदान करनेवाला है । तत्पश्चात अपनी मायाशक्ति का वार बनाया, जो संपत्ति प्रदान करनेवाला है । जन्मकाल में दुर्गतिग्रस्त बालक की रक्षा के लिए उन्होंने कुमार के वार की कल्पना की । तत्पश्चात सर्वसमर्थ महादेवजी ने आलस्य और पाप की निवृत्ति तथा समस्त लोकों के हित करने की इच्छा से लोकरक्षक भगवान् विष्णु का वार बनाया । इसके बाद सबके स्वामी भगवान् शिव ने पुष्टि और रक्षा के लिए आयुःकर्ता और त्रिलोकस्त्रष्टा परमेष्ठी ब्रह्मा का आयुष्कारक वार बनाया, जिससे सम्पूर्ण जगत के आयुष्य की सिद्धि हो सके । इसके बाद तीनों लोकों की वृद्धि के लिए पहले पुण्य और पाप की रचना हो जाने पर उनके करनेवाले लोगों को शुभाशुभ फल देने के लिए भगवान् शिव ने इन्द्र और यम के वारों का निर्माण किया । ये दोनों वार क्रमशः भोग देने वाले तथा लोगों के मृत्युभय को दूर करनेवाले हैं । इसके बाद सूर्य आदि सात ग्रहों को, जो अपने ही स्वरूपभूत तथा प्राणियों के लिए सुख-दुःख के सूचक हैं, भगवान् शिव ने उपर्युक्त सात वारों का स्वामी निश्चित किया । वे सब के सब ग्रह-नक्षत्रों के ज्योतिर्मय मण्डल में प्रतिष्ठित हैं ।<br />
<br />
<table border="0" cellpadding="0" cellspacing="0" style="border-collapse: collapse; width: 281px;">
<colgroup><col style="mso-width-alt: 4754; mso-width-source: userset; width: 98pt;" width="130"></col>
<col style="mso-width-alt: 2121; mso-width-source: userset; width: 44pt;" width="58"></col>
<col style="mso-width-alt: 3401; mso-width-source: userset; width: 70pt;" width="93"></col>
</colgroup><tbody>
<tr height="21" style="height: 15.75pt;">
<td class="xl66" height="21" style="height: 15.75pt; width: 98pt;" width="130"></td>
<td class="xl67" style="border-left: none; width: 44pt;" width="58"><b>अधिपति </b></td>
<td class="xl67" style="border-left: none; width: 70pt;" width="93"><b>फल</b></td>
</tr>
<tr height="21" style="height: 15.75pt;">
<td class="xl68" height="21" style="border-top: none; height: 15.75pt; width: 98pt;" width="130">शिव का वार</td>
<td class="xl66" style="border-left: none; border-top: none;">सूर्य</td>
<td class="xl66" style="border-left: none; border-top: none;">आरोग्य </td>
</tr>
<tr height="21" style="height: 15.75pt;">
<td class="xl68" height="21" style="border-top: none; height: 15.75pt; width: 98pt;" width="130">शक्तिसम्बन्धी वार</td>
<td class="xl66" style="border-left: none; border-top: none;">सोम</td>
<td class="xl66" style="border-left: none; border-top: none;">सम्पत्ति</td>
</tr>
<tr height="21" style="height: 15.75pt;">
<td class="xl68" height="21" style="border-top: none; height: 15.75pt; width: 98pt;" width="130">कुमारसम्बन्धी दिन </td>
<td class="xl66" style="border-left: none; border-top: none;">मंगल</td>
<td class="xl66" style="border-left: none; border-top: none;">व्याधि निवारण</td>
</tr>
<tr height="21" style="height: 15.75pt;">
<td class="xl68" height="21" style="border-top: none; height: 15.75pt; width: 98pt;" width="130">विष्णुवार</td>
<td class="xl66" style="border-left: none; border-top: none;">बुध</td>
<td class="xl66" style="border-left: none; border-top: none;">पुष्टि </td>
</tr>
<tr height="21" style="height: 15.75pt;">
<td class="xl68" height="21" style="border-top: none; height: 15.75pt; width: 98pt;" width="130">ब्रह्माजी का वार</td>
<td class="xl66" style="border-left: none; border-top: none;">बृहस्पति</td>
<td class="xl66" style="border-left: none; border-top: none;">आयुवृद्धि </td>
</tr>
<tr height="21" style="height: 15.75pt;">
<td class="xl68" height="21" style="border-top: none; height: 15.75pt; width: 98pt;" width="130">इन्द्रवार</td>
<td class="xl66" style="border-left: none; border-top: none;">शुक्र</td>
<td class="xl66" style="border-left: none; border-top: none;">भोग </td>
</tr>
<tr height="21" style="height: 15.75pt;">
<td class="xl68" height="21" style="border-top: none; height: 15.75pt; width: 98pt;" width="130">यमवार</td>
<td class="xl66" style="border-left: none; border-top: none;">शनैश्चर</td>
<td class="xl66" style="border-left: none; border-top: none;">मृत्यु निवारण </td>
</tr>
</tbody></table>
<br />
देवताओं की प्रसन्नता के लिए पांच प्रकार की पूजा पद्धति :<br />
१- देवता के मन्त्रों का जप ।<br />
२- उनके लिए होम करना ।<br />
३- उनके लिए दान करना ।<br />
४- उनके लिए तप करना ।<br />
५- किसी वेदी पर, प्रतिमा में, अग्नि में अथवा ब्राह्मण के शरीर में आराध्य देवता की भावना करके सोलह उपचारों से उनकी पूजा करना ।<br />
<br />
इनमें पूजा के उत्तरोत्तर आधार श्रेष्ठ हैं । पूर्व-पूर्व के आभाव में उत्तरोत्तर आधार का अवलम्बन करना चाहिए ।<br />
<br />
<b>देश, काल, पात्र और दान आदि का विचार </b><br />
<b>--------------------------------------------------</b><br />
<span style="color: #b45f06;"><b>देश</b></span><br />
<span style="color: #b45f06;"><b>====</b></span><br />
<span style="color: #b45f06;">ऋषियों ने कहा :</span> समस्त पदार्थों के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ सूतजी ! अब आप क्रमशः देश, काल आदि का वर्णन करें ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">सूतजी बोले :</span> महर्षियो ! देवयज्ञ आदि कर्मों में अपना शुद्ध गृह समान फल देने वाला होता है अर्थात अपने घर में किये हुए देवयज्ञ आदि शास्त्रोक्त फल को सममात्रा में देनेवाले होते हैं ।<br />
- गोशाला का स्थान घर की अपेक्षा दस गुना फल देता है ।<br />
- जलाशय का तट उससे भी दस गुना महत्त्व रखता है ।<br />
- जहाँ बेल, तुलसी एवं पीपलवृक्ष का मूल निकट हो, वह स्थान जलाशय के तट से भी दसगुना फल वाला होता है ।<br />
- देवालय को उससे भी दस गुना महत्त्व वाला जानना चाहिए ।<br />
- तीर्थभूमि का तट देवालय से दस गुना महत्त्व वाला होता है ।<br />
- उससे दस गुना श्रेष्ठ है नदी का किनारा ।<br />
- उससे दस गुना उत्कृष्ट है तीर्थ नदी का तट ।<br />
- उससे भी दस गुना महत्त्व रखता है सप्तगंगा नामक नदियों का तीर्थ (गंगा, गोदावरी, कावेरी, ताम्रपर्णी, सिन्धु, सरयू और नर्मदा)।<br />
- समुद्र के तट का स्थान इनसे भी दसगुना पवित्र मन गया है ।<br />
- पर्वत के शिखर का प्रदेश समुद्रतट से भी दस गुना पावन है ।<br />
- सबसे अधिक महत्व का वह स्थान जानना चाहिए जहाँ मन लग जाय ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">काल</span></b><br />
<b><span style="color: #b45f06;">====</span></b><br />
सत्ययुग में यज्ञ, दान आदि कर्म पूर्णफल देनेवाले होते हैं । त्रेतायुग में उसका तीन-चौथाई फल मिलता है । द्वापर में सदा आधे ही फल की प्राप्ति कही गयी है । कलियुग में एक चौथाई ही फल की प्राप्ति समझनी चाहिए और आधा कलियुग बीतने पर उस चौथाई फल में से भी चतुर्थांश काम हो जाता है ।<br />
<br />
- शुद्ध अन्तः करण वाले पुरुष को शुद्ध एवं पवित्र दिन सम फल देने वाला होता है ।<br />
- सूर्या-संक्रान्ति के दिन किया हुआ सत्कर्म पूर्वोक्त शुद्ध दिन की अपेक्षा दस गुना फल देने वाला होता है ।<br />
- इससे दस गुना फल उस कर्म का है जो विषुव नामक योग में किया जाता है ।<br />
- दक्षिणायन/कर्क-संक्रान्ति में किये पुण्यकर्म का महत्त्व विषुव से भी दस गुना माना गया है ।<br />
- उससे दस गुना महत्त्व मकर-संक्रान्ति का है ।<br />
- मकर-संक्रान्ति से दस गुना महत्व चन्द्रग्रहण में किये पुण्य का है ।<br />
- सूर्यग्रहण का समय सबसे उत्तम है, इसमें किये गए पुण्यकर्म का फल चन्द्रग्रहण से भी अधिक और पूर्णमात्र में होता है ।<br />
<br />
जन्म-नक्षत्र के दिन तथा व्रत की पूर्ती के दिन का समय सूर्यग्रहण के समान ही समझा जाता है । परन्तु महापुरुषों के संग का काल करोड़ों सूर्यग्रहण के समान पावन है, ऐसा ज्ञानी पुरुष जानते-मानते हैं ।<br />
<br />
<b><span style="color: #b45f06;">पात्र </span></b><br />
<b><span style="color: #b45f06;">====</span></b><br />
जो पतन से त्राण करता है अर्थात नरक में गिरने से बचाता है, उसके लिए इसी गुण के कारण शास्त्र में 'पात्र' शब्द का प्रयोग होता है । वह दाता का पातक से त्राण करने के कारण 'पात्र' कहलाता है ।<br />
<br />
<b>पतनात्त्रायत इति पात्रं शास्त्री प्रयुज्यते ।</b><br />
<b>दातुश्च पातकात्त्राणात्पात्रमित्यभिधीयते ।।</b><br />
शि। पु। वि। १५।१५<br />
<br />
गायत्री अपनी गायक का पतन से त्राण करती है; इसलिए वह गायत्री कहलाती है ।<br />
जैसे इस लोक में जो धनहीन है वह दुसरे को धन नहीं देता - जो यहाँ धनवान है वही दुसरे को धन दे सकता है, उसी तरह जो स्वयं शुद्ध और पवित्रात्मा है, वही दुसरे मनुष्यों का त्राण या उद्धार कर सकता है । जो गायत्री का जप करके शुद्ध हो गया है, वही शुद्ध ब्राह्मण कहलाता है । इसलिए दान, जप, होम और पूजा सभी कर्मों के लिए वही शुद्ध पात्र है । ऐसा ब्राह्मण ही दान तथा रक्षा करने की पात्रता रखता है ।<br />
स्त्री या पुरुष - जो भी भूखा हो, वही अन्नदान का पात्र है । जिसको जिस वास्तु की इच्छा हो, उसे वह वस्तु बिना मांगे ही दे दी जाय तो डाटा को उस दान का पूरा-पूरा फल प्राप्त होता है, ऐसी महर्षियों की मान्यता है । जो सवाल या याचना करने के बाद दिया गया हो, वह दाना आधा ही फल देनेवाला बताया गया है । अपने सेवक को दिया हुआ दान एक चौथाई फल देनेवाला होता है ।<br />
जो जातिमात्रा से ब्राह्मण है और दीनतापूर्ण वृत्ति से जीवन बिताता है, उसे दिया हुआ धन का दान डाटा को इस भूतल पर दस वर्षों तक भोग प्रदान करनेवाला होता है । वही दान यदि वेदवेत्ता ब्राह्मण को दिया जाय तो वह स्वर्गलोक में देवताओं के वर्ष से दस वर्षों तक दिव्य भोग देनेवाला होता है ।<br />
शिल और उञ्छवृत्ति से लाया हुआ और गुरुदक्षिणा में प्राप्त हुआ अन्न-धन शुद्ध द्रव्य कहलाता है । उसका दान दाता को पूर्णफल देनेवाला बताया गया है । क्षत्रियों का शौर्य से कमाया हुआ, वैश्यों का व्यापर से आया हुआ और शूद्रों का सेवावृत्ति से प्राप्त किया हुआ धन भी उत्तम द्रव्य कहलाता है । धर्म की इच्छा रखनेवाली स्त्रियों को जो धन पिता और पति से मिला हुआ हो, उनके लिए वह उत्तम द्रव्य है ।<br />
<br />
==============================<br />
<b>क्षेत्र पापस्य करणं दृढं भवति भूसुराः ।</b><br />
<b>पुण्यक्षेत्रे निवासे हि पापमण्वपि नाचरेत् ।।</b><br />
शि। पु। वि। १२।७<br />
<br />
पुण्यक्षेत्र में पापकर्म किया जाय तो वह और भी दृढ़ हो जाता है । अतः पुण्यक्षेत्र में निवास करते समय सूक्ष्म से सूक्ष्म अथवा थोड़ा सा भी पाप न करें ।<br />
<br />
======================================<br />
<br />
उपांशु जप - मंत्राक्षरों का इतने धीमे स्वर में उच्चारण करें कि उसे दूसरा कोई सुन न सके ।<br />
समानप्रणव - नाद और बिन्दुयुक्त ओंकार का उच्चारण ।<br />
निशीथकाल - रात्रि के चार प्रहरों में से बीच के दो प्रहर ।<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b>भस्म</b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>-------</b></div>
<span style="color: #b45f06;"><b>महाभस्म</b></span><br />
<span style="color: #b45f06;">श्रौत</span> - यह केवल द्विजो के उपयोग में आने योग्य कहा गया है । द्विजो को वैदिक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक भस्म धारण करना चाहिए ।<br />
<span style="color: #b45f06;">स्मार्त</span> - यह केवल द्विजो के उपयोग में आने योग्य कहा गया है । द्विजो को वैदिक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक भस्म धारण करना चाहिए ।<br />
<span style="color: #b45f06;">लौकिक</span> - यह अन्य सभी लोगों के भी उपयोग में आ सकता है<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;"><b>स्वल्पभस्म</b></span> -<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">आग्नेय</span> - गोबर से प्रकट होनेवाला भस्म, यह भी त्रिपुण्ड्र का द्रव्य है ऐसा कहा गया है ।<br />
अग्निहोत्र से उत्पन्न हुए भस्म की भी मनीषी पुरुषों को संग्रह करना चाहिए । अन्य यज्ञ से उत्पन्न हुआ भस्म भी त्रिपुण्ड्र धारण के काम में आ सकता है ।<br />
<br />
भौंहों के मध्यभाग से लेकर जहाँ तक भौंहों का अन्त है, उतना बड़ा त्रिपुण्ड्र ललाट पर धारण करना चाहिए । मध्यमा और अनामिका से दो रेखाएं करके बीच में अंगुष्ठ द्वारा प्रतिलोमभाव से की गयी रेखा त्रिपुण्ड्र कहलाती है अथवा बीच की तीन अँगुलियों से भस्म लेकर यत्नपूर्वक भक्तिभाव से ललाट में त्रिपुण्ड्र धारण करें ।<br />
<br />
त्रिपुण्ड्र की तीन रेखाओं में से प्रत्येक के नौ-नौ देवता हैं जो सभी अंगों में स्थित हैं: मैं उनका परिचय देता हूँ । सावधान होकर सुनो ।<br />
<br />
प्रणव का प्रथम अक्षर अकार, गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, धर्म, रजोगुण, ऋग्वेद, क्रियाशक्ति, प्रातःसवन तथा महादेव - ये त्रिपुण्ड्र की प्रथम रेखा के देवता हैं ।<br />
प्रणव का दूसरा अक्षर उकार, दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्वगुण, यजुर्वेद, मध्यदिनसवन, इच्छाशक्ति, अन्तरात्मा तथा महेश्वर - ये दूसरी रेखा के नौ देवता हैं ।<br />
प्रणव का तीसरा अक्षर मकार, आहवनीय अग्नि, परमत्मा, तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद, तृतीयसवन तथा शिव - ये तीसरी रेखा के नौ देवता हैं ।<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b>रुद्राक्ष</b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>-----------</b></div>
शिवजी कहते हैं कि उत्तम रुद्राक्ष असह्य पापसमूहों का भेदन करनेवाले और श्रुतियों के भी प्रेरक हैं । मेरी आज्ञा से वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति के भेद से इस भूतल पर प्रकट हुए हैं । रुद्राक्षों की ही जाति के शुभाक्ष भी हैं । उन ब्राह्मणादि वर्ण के रुद्राक्षों के वर्ण श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण जानने चाहिए । मनुष्यों को चाहिए की क्रमशः वर्ण अनुसार अपने वर्ण का ही रुद्राक्ष धारण करें । श्वेत रुद्राक्ष केवल ब्राह्मणों को ही धारण करना चाहिए । गहरे लाल रंग का रुद्राक्ष क्षत्रियों के लिए हितकर बताया गया है । वैश्यों के लिए प्रतिदिन बारम्बार पीले रुद्राक्ष को धारण करना आवश्यक है और शूद्रों को काले रंग का रुद्राक्ष धारण करना चाहिए - यह वेदोक्त मार्ग है ।<br />
आंवले के फल के बराबर जो रुद्राक्ष हो, वह श्रेष्ठ बताया गया है । जो बेर के फल के बराबर हो, उसे माध्यम श्रेणी का कहा गया है और जो चने के बराबर हो उसकी गणना निम्नकोटि में की गयी है । अब इसकी उत्तमता को परखने की दूसरी उत्तम क्रिया बताई जाती है ।<br />
<br />
जो रुद्राक्ष बेर के फल के बराबर होता है, वह उतना छोटा होने पर भी लोक में उत्तम फल देनेवाला तथा सुखसौभाग्य की वृद्धि करनेवाला होता है । जो रुद्राक्ष आंवले के फल के बराबर होता है, समस्त अरिष्टों का विनाश करनेवाला होता है तथा जो गुंजाफल के समान बहुत छोटा होता है, वह सम्पूर्ण मनोरथों और फलों की सिद्धि करनेवाला है । रुद्राक्ष जैसे जैसे छोटा होता है, वैसे ही वैसे अधिक फल देनेवाला होता है । एक-एक बड़े रुद्राक्ष से एक-एक छोटे रुद्राक्ष को विद्वानों ने दस गुना अधिक फल देनेवाला बताया है ।<br />
<br />
समान आकर-प्रकारवाले, चिकने, मजबूत, स्थूल, कण्टकयुक्त(उभरे हुए छोटे दानों वाले) और सुन्दर रुद्राक्ष पदार्थों के दाता तथा सदैव भोग और मोक्ष देनेवाले हैं ।<br />
जिसे कीड़ों ने दूषित कर दिया हो, जो टूटा-फूटा हो, जिसमें उभरे हुए दाने न हों तथा जो पूरा-पूरा गोल न हो, इन प्रकार के रुद्राक्षों को त्याग देना चाहिए ।<br />
<br />
जिस रुद्राक्ष में अपने आप ही डोरा पिरोने के योग्य छिद्र हो गया हो, वही यहाँ उत्तम माना गया है ।<br />
जिसमें मनुष्य के प्रयत्न से छेद किया गया हो, वह माध्यम श्रेणी का होता है ।<br />
<br />
रुद्राक्ष धारण, सर पर ईशान मन्त्र से, कान में तत्पुरुष मन्त्र से तथा गले और ह्रदय में अघोर मन्त्र से करना चाहिए । पुरुष दोनों हाथों में अघोर बीजमन्त्र से रुद्राक्ष धारण करें । उदार पर वामदेव मन्त्र से पंद्रह रुद्राक्षों द्वारा गुंथी हुई माला धारण करें । अथवा अंगो सहित प्रणव का पांच बार जप करके रुद्राक्ष की तीन, पांच या सात मालाएं धारण करें । अथवा मूलमन्त्र('नमः शिवाय') से ही समस्त रुद्राक्षों को धारण करें ।<br />
<br />
रुद्राक्षधारी पुरुष अपने खान-पान में मदिरा, मांस, लहसुन, प्याज, सहिजन, लिसोड़ा आदि को त्याग दें ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">रुद्राक्ष के भेद</span> -<br />
<span style="color: #b45f06;">एकमुखी</span> - साक्षात् शिव का रूप । वह भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करता है ।<br />
मन्त्र - ॐ ह्रीं नमः<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">दो मुखी</span> - यह देवदेवेश्वर कहा जाता है । सभी मनोकामनाओं और फलों को देने वाला है ।<br />
मन्त्र - ॐ नमः<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">तीन मुखी</span> - सदा साक्षात् साधन का फल देने वाला, उसके प्रभाव से सभी विद्याएं प्रतिष्ठित होती हैं ।<br />
मन्त्र - क्लीं नमः<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">चतुर्मुखी</span> - साक्षात् ब्रह्मा का रूप, स्पर्श से शीघ्र ही चरों पुरुषार्थ सिद्ध करता है ।<br />
मन्त्र - ॐ ह्रीं नमः<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">पंचमुखी</span> - साक्षात् कालाग्निरुद्र रूप, सब कुछ करने में समर्थ तथा समस्त कामनाओं को पूरा और पापों का नाश करने वाला ।<br />
मन्त्र - ॐ ह्रीं नमः<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">छ मुखी</span> - इसे दाहिनी बांह में धारण करने से मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्त हो जाता है, यह कार्तिकेय का स्वरुप है ।<br />
मन्त्र - ॐ ह्रीं हुं नमः<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">सात मुखी</span> - यह अनंगस्वरूप है और अनङ्ग नाम से ही प्रसिद्ध है । इसके धारण से दरिद्र भी वैभवशाली हो जाता है ।<br />
मन्त्र - ॐ हुं नमः<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">आठ मुखी</span> - यह अष्टमूर्ति भैरवरूप है । इसके धारण से मनुष्य पूर्णायु होता है ।<br />
मन्त्र - ॐ हुं नमः<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">नौ मुखी</span> - इसे भैरव व् कपिल मुनि का प्रतीक माना गया है अथवा नौ रूप धारण करनेवाली दुर्गा उसकी अधिष्ठात्री देवी मानी गयी हैं । बाएं हाथ में इसे धारण करने से वह निश्चय ही सर्वेश्वर हो जाता है ।<br />
मन्त्र - ॐ ह्रीं हुं नमः<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">दस मुखी</span> - साक्षात् भगवान् विष्णु का रूप, सभी कामनाएं पूर्ण करने वाला ।<br />
मन्त्र - ॐ ह्रीं नमः<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">ग्यारह मुखी</span> - रूद्र रूप, धारक सर्वत्र विजयी होता है ।<br />
मन्त्र - ॐ ह्रीं हुं नमः<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">बारह मुखी</span> - यह केश प्रदेश में धारण किया जाता है, इसे धारण करने से मानो बारहों आदित्य विराजमान हो जाते हैं ।<br />
मन्त्र - ॐ क्रौं क्षौं रौं नमः<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">तरह मुखी</span> - यह विश्वेदेवों का स्वरुप है । इनको धारण करने से मनुष्य सौभाग्य पाटा तथा मंगल लाभ करता है ।<br />
मन्त्र - ॐ ह्रीं नमः<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">चौदह मुखी</span> - यह परम शिव रूप है, इसे भक्तिपूर्वक मस्तक पर धारण करें। इससे पापों का नाश हो जाता है ।<br />
मन्त्र - ॐ नमः<br />
<br />
रुद्राक्ष की माला धारण करने वाले पुरुष को देखकर भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी तथा जो अन्य द्रोहकारी राक्षस हैं, वे सब के सब दूर भाग जाते हैं ।<br />
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<br /></div>
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===================== <b>विद्येश्वर संहिता समाप्त</b> =====================<br />
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===================== <b>रुद्र संहिता आरम्भ</b> =====================<br />
<br />
<b>ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि रचना</b><br />
<b>----------------------------------</b><br />
ब्रह्मा जी नारद मुनि से कहते हैं: तात ! महादेव जी की आज्ञा से ही मुझमें सृष्टि करने की इच्छा उत्पन्न हुई है । बेटा ! जब मैं सृष्टि की इच्छा से चिन्तन करने लगा, उस समय पहले मुझमें अनजाने में ही पापपूर्ण तमोगुणी सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे अविद्या-पंचक (या पंचपर्वा) कहते हैं । तदनन्तर प्रसन्नचित्त होकर शम्भु की आज्ञा से मैं पुनः अनासक्त भाव से सृष्टि का चिन्तन करने लगा । उस समय मेरे द्वारा स्थावर-संज्ञक वृक्ष आदि की सृष्टि हुई, जिसे मुख्य सर्ग कहते हैं । उसे देखकर तथा वह पुरुषार्थ का साधक नहीं है, यह जानकर सृष्टि की इच्छा वाले मुझ ब्रह्मा से दूसरा सर्ग प्रकट हुआ, जो दुःख से भरा हुआ है; उसका नाम है - तिर्यक्स्रोता । वह सर्ग भी पुरुषार्थ का साधक नहीं था । उसे भी पुरुषार्थ साधन की शक्ति से रहित जान जब मैं पुनः सृष्टि का चिन्तन करने लगा, तब मुझसे शीघ्र ही तीसरे सात्विक सर्ग का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे ऊर्ध्वस्रोता कहते हैं । यह देवसर्ग के नाम से विख्यात हुआ । देवसर्ग सत्यवादी तथा अत्यन्त सुखदायक है । उसे भी पुरुषार्थसाधन की रूचि एवं अधिकार से रहित मानकर मैंने अन्य सर्ग के लिए अपने स्वामी श्री शिव का आरम्भ किया । तब भगवान् शंकर की आज्ञा से एक रजोगुणी सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे अर्वाक्स्रोता कहा गया है । इस सर्ग के प्राणी मनुष्य हैं, जो पुरुषार्थ-साधन के उच्च अधिकारी हैं । तदनन्तर महादेव जी की आज्ञा से भूत आदि की सृष्टि हुई । इस प्रकार मैंने पांच तरह की विकृत सृष्टि का वर्णन किया है । इनके सिवा तीन प्राकृत सर्ग भी कहे गए हैं, जो मुझ ब्रह्मा के सान्निध्य से प्रकृति से ही प्रकट हुए हैं । इनमें पहला महत्तत्व का सर्ग है, दूसरा सूक्ष्म भूतों का अर्थात तन्मात्राओं का सर्ग<br />
<br /></div>
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<b>नवधा भक्ति </b></div>
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<div style="text-align: left;">
<span style="color: #b45f06;">ब्रह्मा जी नारद मुनि से कहते हैं:</span> मुने ! एक दिन की बात है देवी सती एकान्त में भगवान् शंकर से मिलीं उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम करके उस परम तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा की, जो निरतिशय सुख प्रदान करनेवाला है तथा जिसके द्वारा जीव संसार-दुःख से अनायास ही उद्धार पा सकता है । </div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #b45f06;">शिव बोले:</span> देवी ! दक्षनन्दिनी ! महेश्वरि ! सुनो; मैं उस परमतत्त्व का वर्णन करता हूँ, जिससे वासनबद्ध जीव तत्काल मुक्त हो सकता है । परमेश्वरि ! तुम विज्ञान को परमतत्त्व जानो । विज्ञान वह है जिसके उदय होने पर "मैं ब्रह्म हूँ" ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाता है, ब्रह्म के सिवा दूसरी वास्तु का स्मरण नहीं रहता तथा उस विज्ञानी पुरुष की बुद्धि सर्वथा शुद्ध हो जाती है । प्रिये ! वह विज्ञान दुर्लभ है । इस त्रिलोकी में उसका ज्ञाता कोई विरला ही होता है । वह जो और जैसा भी है, सदा मेरा स्वरुप ही है, साक्षात्परात्पर ब्रह्म है । उस विज्ञान की माता है मेरी भक्ति, जो भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाली है । वह मेरी कृपा से सुलभ होती है । भक्ति नौ प्रकार की बताई गयी है । सती ! भक्ति और ज्ञान में कोई भेद नहीं है । भक्त और ज्ञानी, दोनों को ही सदा सुख प्राप्त होता है । जो भक्ति का विरोधी है, उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती । देवि ! मैं सदा भक्त के अधीन रहता हूँ और भक्ति के प्रभाव से जातिहीन नीच मनुष्यों के घरों में भी चला जाता हूँ, इसमें संशय नहीं है । सती ! वह भक्ति दो प्रकार की है - सगुणा और निर्गुण । जो विधि (शास्त्रविधि से प्रेरित) और स्वाभाविकी (ह्रदय के सहज अनुराग से प्रेरित) भक्ति होती है, वह श्रेष्ठ है तथा इससे भिन्न जो कामनामूलक भक्ति होती है, वह निम्नकोटि की मानी गयी है । पूर्वोक्त सगुणा और निर्गुणा - ये दोनों प्रकार की भक्तियाँ नैष्ठिकी और अनैष्ठिकी के भेद से दो भेदवाली हो जाती हैं । नैष्ठिकी भक्ति छः प्रकार की जाननी चाहिए और अनैष्टिकी एक प्रकार की कही गयी है । विद्वान् पुरुष विहिता और अविहिता आदि भेद से उसे अनेक प्रकार की मानते हैं । इन द्विविध भक्तियों के बहुत से भेद-प्रभेद होने के कारण इनके तत्त्व का अन्यत्र वर्णन किया गया है । प्रिये ! मुनियों ने सगुणा और निर्गुणा दोनों भक्तियों के नौ अंग बताये हैं । दक्षनन्दिनी ! मैं उन नवों अंगों का वर्णन करता हूँ, तुम प्रेम से सुनो । देवि ! श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवन, दास्य, अर्चन, सदा मेरा वन्दन, सख्य और आत्मसमर्पण - ये विद्वानों ने भक्ति के नौ अंग माने हैं। शिवे ! भक्ति के उपांग भी बहुत से बताये गए हैं ।</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
देवि ! अब तुम मन लगाकर मेरी भक्ति के पूर्वोक्त नवों अंगों के पृथक-पृथक लक्षण सुनो; वे लक्षण भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं । </div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
- जो स्थिर आसन से बैठकर तन-मन आदि से मेरी कथा-कीर्तन आदि का नित्य सम्मान करता हुआ प्रसन्नता पूर्वक अपने श्रवणपुटों से उसके अमृतोपम रास का पान करता है, उसके इस साधन को "<span style="color: #b45f06;">श्रवण</span>" कहते हैं । </div>
<div style="text-align: left;">
- जो हृदयाकाश के द्वारा मेरे दिव्य जन्म-कर्मों का चिन्तन करता हुआ प्रेम से वाणी द्वारा उनका उच्चस्वर से उच्चारण करता है, उसके इस भजन-साधन को '<span style="color: #b45f06;">कीर्तन</span>' कहते हैं ।</div>
<div style="text-align: left;">
- देवि ! मुझ नित्य महेश्वर को सदा और सर्वत्र व्यापक जानकार जो संसार में निरन्तर निर्भय रहता है, उसी को '<span style="color: #b45f06;">स्मरण</span>' कहा गया है ।</div>
<div style="text-align: left;">
- अरुणोदय से लेकर हर समय सेव्य की अनुकूलता का ध्यान रखते हुए ह्रदय और इन्द्रयों से जो निरन्तर सेवा की जाती है, वही '<span style="color: #b45f06;">सेवन</span>' नामक भक्ति है ।</div>
<div style="text-align: left;">
- अपने को प्रभु का किंकर समझकर हृदयामृत के भोग से स्वामी का सदा प्रिय संपादन करना '<span style="color: #b45f06;">दास्य</span>' कहा गया है । </div>
<div style="text-align: left;">
- अपने धन-वैभव के अनुसार शास्त्रीय विधि से मुझ परमात्मा को सदा पाद्य आदि सोलह उपचारों का जो समर्पण करना है, उसे '<span style="color: #b45f06;">अर्चन</span>' कहते हैं । मन से ध्यान और वाणी से वन्दनात्मक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक आठों अंगों से भूतल का स्पर्श करते हुए जो इष्टदेव को नमस्कार किया जाता है, उसे '<span style="color: #b45f06;">वन्दन</span>' कहते हैं ।</div>
<div style="text-align: left;">
- ईश्वर मङ्गल या अमङ्गल जो कुछ भी करता है, वह सब मेरे मङ्गल के लिए ही है । ऐसा दृढ़ विश्वास रखना '<span style="color: #b45f06;">सख्य</span>' भक्ति का लक्षण है ।</div>
<div style="text-align: left;">
- देह आदि जो कुछ भी अपनी कही जानेवाली वास्तु है, वह सब भगवान् की प्रसन्नता के लिए उन्हीं को समर्पित करके अपने निर्वाह के लिए भी कुछ बचाकर न रखना अथवा निर्वाह की चिन्ता से भी रहित हो जाना '<span style="color: #b45f06;">आत्मसमर्पण</span>' कहलाता है ।</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
ये मेरी भक्ति के नौ अंग हैं, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं । इनसे ज्ञान का प्राकट्य होता है तथा ये सब साधन मुझे अत्यन्त प्रिटी हैं । मेरी भक्ति के बहुत से उपांग भी कहे गए हैं, जैसे बिल्व आदि का सेवन आदि । इनको विचार से समझ लेना चाहिए ।</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
प्रिये ! इस प्रकार मेरी सांगोपांग भक्ति सबसे उत्तम है । यह ज्ञान-वैराग्य की जननी है और मुक्ति इसकी कदासी है । यह सदा सब साधनों से ऊपर विराजमान है । इसके द्वारा सम्पूर्ण कर्मों के फल की प्राप्ति होती है । यह भक्ति मुझे सदा तुम्हारे समान ही प्रिय है । जिसके चित्त में नित्य-निरन्तर यह भक्ति निवास करती है, वह साधक मुझे अत्यन्त प्यारा है । देवेश्वरी ! तीरों लोकों और चारों युगों में भक्ति के समान दूसरा कोई सुखदायक मार्ग नहीं है । कलियुग में तो यह विशेष सुखद एवं सुविधाजनक है । देवि ! कलियुग में प्रायः ज्ञान और वैराग्य के कोई ग्रहण नहीं हैं । इसलिए वे दोनों वृद्ध, उत्साहशून्य और जर्जर हो गए हैं, परन्तु भक्ति कलियुग में तथा अन्य सब युगों में भी प्रत्यक्ष फल देनेवाली है । भक्ति के प्रभाव से मैं सदा उसके वश में रहता हूँ, इसमें संशय नहीं है । संसार में जो भक्तिमान पुरुष हैं, उसकी मैं सदा सहायता करता हूँ, उसके सारे विघ्नो को दूर हटाता हूँ । उस भक्त का जो शत्रु होता है, वह मेरे लिए दण्डनीय है - इसमें संशय नहीं है । देवि ! मैं अपने भक्तों का रक्षक हूँ । भक्त की रक्षा के लिए ही मैंने कुपित हो अपने नेत्रजनित अग्नि से काल को भी दग्ध कर डाला था । प्रिये ! भक्त के लिए मैं पूर्वकाल में सूर्य पर भी अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा था और शूल लेकर मैंने उन्हें मार भगाया था । देवि ! भक्ति के लिए मैंने सैनीसहित रावण को भी क्रोधपूर्वक त्याग दिया और उसके प्रति कोई पक्षपात नहीं किया । सती ! देवेश्वरि ! बहुत कहने से क्या लाभ, मैं सदा ही भक्त के अधीन रहता हूँ और भक्ति करनेवाले पुरुष के अत्यन्त वश में हो जाता हूँ ।<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b>पतिव्रता </b><span style="text-align: left;"><b>नारी धर्म</b></span></div>
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<b>--------------------------</b></div>
</div>
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शिव-पार्वती के विवाह पश्चात जब पार्वती जी विदा होने लगीं, तब मेना(पार्वती की माँ) के मनोभाव को जानकार एक सती-साध्वी ब्राह्मणपत्नी ने गिरिजा को उत्तम पातिव्रत्य की शिक्षा दी ।<br />
<br />
ब्राह्मणपत्नी बोली: गिरिराजकिशोरी ! तुम प्रेमपूर्वक मेरा यह वचन सुनो । यह धर्म को बढ़ानेवाला, इहलोक और परलोक में भी आनन्द देनेवाला और श्रोताओं को भी सुख की प्राप्ति करानेवाला है । संसार में पतिव्रता नारी ही धन्य है, दूसरी नहीं । वही विशेष रूप से पूजनीय है । पतिव्रता सब लोगों को पवित्र करनेवाली और समस्त पापराशि को नष्ट कर देनेवाली है । शिवे ! जो पति को परमेश्वर के समान मानकर प्रेम से उसकी सेवा करती है, वह इस लोक में सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करके अन्त में कल्याणमयी गति को पाती है । सावित्री, लोपामुद्रा, अरुन्धती, शाण्डिली, शतरूपा, अनसूया, लक्ष्मी, स्वधा, सती, संज्ञा, सुमति, श्रद्धा, मेना और स्वाहा - ये तथा और भी बहुत सी स्त्रियां साध्वी कही गयी हैं । यहाँ विस्तार भय से उनका नाम नहीं लिया गया । वे अपने पातिव्रत्य के बल से ही सब लोगों की पूजनीया तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं मुनिश्वरों की भी माननीया हो गयी हैं । इसलिए तुम्हें अपने पति भगवान् शंकर की सदा सेवा करनी चाहिए । वे दीनदयालु, सबके सेवनीय और सत्पुरुषों के आश्रय हैं । श्रुतियों और स्मृतियों में पातिव्रत्य धर्म को महान बताया गया है । इसको जैसा श्रेष्ठ बताया जाता है, वैसा दूसरा धर्म नहीं है - यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है ।<br />
<br />
पातिव्रत्य धर्म में तत्पर रहनेवाली स्त्री अपने प्रिय पति के भोजन करलेने पर ही भोजन करे । शिवे ! जब पति खड़ा हो, तब साध्वी स्त्री को भी खड़ी ही रहनी चाहिए । शुद्धबुद्धि वाली साध्वी स्त्री प्रतिदिन अपने पति के सो जाने पर सोये और उसके जागने से पहले ही जाग जाय । वह छाल-कपट छोड़कर सदा उसके लिए हितकर कार्य ही करे । शिवे ! साध्वी स्त्री को चाहिए कि जब तक वस्त्राभूषणों से विभूषित न हो ले तब तक वह अपने को पति की दृष्टी के सम्मुख न लाए । यदि पति किसी कार्य से परदेश गया हो तो उन दिनों उसे कदापि श्रृंगार नहीं करना चाहिए । पतिव्रता स्त्री कभी पति का नाम न ले । पति के कटुवचन कहने पर भी वह बदले में कड़ी बात न कहे । पति के बुलानेपर वह घर के सारे कार्य छोड़कर तुरन्त उसके पास चली जाय और हाथ जोड़, प्रेम से मस्तक झुककर पूछे - "नाथ ! किसलिए इस दासी को बुलाया है ? मुझे सेवा के लिए आदेश देकर अनुग्रहीत कीजिये ।" फिर पति जो आदेश दे, उसका वह प्रसन्न ह्रदय से पालन करे । वह घर के दरवाजे पर देर तक न खड़ी रहे । दुसरे के घर न जाय । कोई गोपनीय बात जानकर हर एक के सामने उसे प्रकाशित न करे । पति के बिना कहे ही उनके लिए पूजन-सामग्री स्वयं जुटा दे तथा उनके हितसाधन के यथोचित अवसर की प्रतीक्षा करती रहे । पति की आज्ञा के लिए बिना कहीं तीर्थयात्रा के लिए कभी न जाय । लोगों की भीड़ से भरी हुई सभा या मेले आदि के उत्सवों का देखना वह दूर से ही त्याग दे । जिस नारी को तीर्थयात्रा का फल पाने की इच्छा हो, उसे अपने पति का चरणोदक पीना चाहिए । उसके लिए उसी में सारे तीर्थ और क्षेत्र हैं, इसमें संशय नहीं है ।<br />
<br />
पतिव्रता नारी पति के उच्छिष्ट अन्न आदि को परम प्रिय भोजन मानकर ग्रहण करे और पति जो कुछ दे, उसे महाप्रसाद मानकर शिरोधार्य करे । देवता, पितर, अतिथि, सेवकवर्ग, गौ तथा भिक्षुसमुदाय के लिए अन्न का भाग दिए बिना कदापि भोजन न करे । पातिव्रत-धर्म में तत्पर रहनेवाली गृहदेवी को चाहिए कि वह घर की सामग्री को संयत और सुरक्षित रखे । गृहकार्य में कुशल हो, सदा प्रसन्न रहे और खर्च की ओर से हाथ खींचे रहे । पति की आज्ञा लिए बिना उपवासव्रत आदि न करे, अन्यथा उसे कोई फल नहीं मिलता और वह परलोक में नरकगामिनी होती है । पति सुखपूर्वक बैठा हो या इच्छानुसार क्रीड़ाविनोद अथवा मनोरंजन में लगा हो, उस अवस्था में कोई आतंरिक कार्य आ पड़े तो भी पतिव्रता स्त्री अपने पति को कदापि न उठाये । पति नपुंसक हो गया हो, दुर्गति में पड़ा हो, रोगी हो, बूढा हो, सुखी हो या दुखी हो, किसी भी दशा में नारी अपने उस एकमात्र पति का उल्लंघन न करे । रजस्वला होने पर वह तीन रात्रि तक पति को अपना मुख न दिखाए अर्थात उससे अलग रहे । जब तक स्नान करके शुद्ध न हो जाय, तब तक अपनी कोई बात भी वह पति के कानों में न पड़ने दे । अच्छी तरह स्नान करने के पश्चात सबसे पहले वह अपने पति के मुख का दर्शन करे अथवा पति का मन-ही-मन चिन्तन करके सूर्य का दर्शन करे ......<br />
<br />
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<b>चार प्रकार की पतिव्रता नारियां</b></div>
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पतिव्रता नारियां उत्तमा भेद से चार प्रकार की बताई गयी हैं , जो अपना स्मरण करनेवाले पुरुषों का सारा पाप हर लेती हैं ।<br />
उत्तमा, मध्यमा, निकृष्टा और अतिनिकृष्टा - ये पतिव्रता के चार भेद हैं । अब में इनके लक्षण बताती हूँ । ध्यान देकर सुनो । भद्रे ! जिसका मन सदा स्वप्न में भी अपने पति को ही देखता है, दुसरे किसी पुरुष को नहीं, वह स्त्री उत्तमा या उत्तम श्रेणी की पतिव्रता कही गयी है । शैलजे ! जो दुसरे पुरुष को उत्तम बुद्धि से पिता, भाई एवं पुत्र के समान देखती है, उसे माध्यम श्रेणी की पतिव्रता कहा गया है । पार्वती ! जो मन से अपने धर्म का विचार करके व्यभिचार नहीं करती, सदाचार में ही स्थित रहती है, उसे निकृष्टा अथवा निम्न श्रेणी की पतिव्रता कहा गया है । जो पति के भय से तथा कुल में कलङ्क लगने के दर से व्यभिचार से बचने का प्रयत्न करती है, उसे पूर्वकाल के विद्वानों ने अतिनिकृष्टा अथवा निम्नतम कोटि की पतिव्रता कहा गया है । शिवे ! ये चारों प्रकार की पतिव्रताएँ समस्त लोकों का पापनाश करनेवाली और उन्हें पवित्र बनानेवाली हैं ।<br />
<br />
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<b>त्रिपुरासुरों के तीन पुर और उनका वध </b></div>
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<b>------------------------------------------------</b></div>
<span style="color: #b45f06;">नारद जी ने पूछा:</span> महान वीरशाली भगवान् शंकर ने देवद्रोहियों के तीनो नगरों को एक ही साथ एक ही बाण से की कारण एवं कैसे भस्म कर डाला था ? भगवान् शंकर का चरित तो देवर्षियों को आनन्द प्रदान करने वाला है । आप वह सारा चरित विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">ब्रह्माजी बोले:</span> ऋषिश्रेष्ठ ! पहले किसी समय व्यास ने सनत्कुमार से ऐसा ही प्रश्न किया था । उस समय सनत्कुमार ने जो कुछ उत्तर दिया था, वही मैं वर्णन करता हूँ ।<br />
सनत्कुमार ने कहा: महाबुद्धिमान व्यास जी ! विश्व का संहार करनेवाले चन्द्रमौलि शिव ने जिस प्रकार एक ही बाण से त्रिपुर को भस्म किया था, वह चरित्र कहता हूँ; सुनो । मुनीश्वर ! जब शिवकुमार स्कन्द ने तारकासुर को मार डाला, तब उसके तीनो पुत्रों को महान सन्ताप हुआ । उनमें तारकाक्ष सबसे ज्येष्ठ था, विद्युन्माली मंझला था और छोटे का नाम कमलाक्ष था । उन तीनो में समान बल था । वे जितेन्द्रिय, सदा कार्य के लिए उद्यत, संयमी, सत्यवादी, दृढ़चित्त, महान वीर और देवों से द्रोह करनेवाले थे । उन तीनो ने सभी उत्तमोत्तम एवं मनोहर भोगों का परित्याग करके मेरुपर्वत की एक कन्दरा में जाकर परम अद्भुत तपस्या आरम्भ की । वहां उन्होंने हज़ारों वर्ष तक ब्रह्मा जी की प्रसन्नता के लिए अत्यन्त उग्र तप किया । तब सुर और असुरों के गुरु ब्रह्मा जी उनकी तपस्या से अत्यन्त सन्तुष्ट होकर उन्हें वर देने के लिए प्रकट हुए ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">ब्रह्मा जी ने कहा:</span> महादैत्यों ! मैं तुम लोगों के तप से प्रसन्न हो गया हूँ, अतः तुम्हारी कामना के अनुसार तुम्हें सभी वर प्रदान करूँगा । देवद्रोहियों ! मैं सबकी तपस्या के फलदाता और सर्वदा सब कुछ करने में समर्थ हूँ; अतः बताओ, तुम लोगों ने इतना घोर ताप किसलिए किया है ?<br />
<br />
सनत्कुमार जी कहते हैं: मुने ! ब्रह्मा जी की वह बात सुनकर उन सबने अंजलि बांधकर पितामह के चरणों में प्रणिपात किया और फिर धीरे धीरे अपने मन की बात कहना आरम्भ किया ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">दैत्य बोले:</span> देवेश ! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं और हमें वर देना चाहते हैं तो यह वर दीजिये कि समस्त प्राणियों में हम सबके लिए अवध्य हो जाएँ । जगन्नाथ ! आप हमें स्थिर कर दें और हमारे जरा, रोग आदि सभी शत्रु नष्ट हो जाएँ तथा मृत्यु कभी भी हमारे समीप न फटके । हम लोगो का ऐसा विचार है कि हम लोग अजर-अमर हो जाएँ और त्रिलोकी में अन्य सभी प्राणियों को मौत के घात उतारते रहे; क्योंकि ब्रह्मन ! यदि पांच ही दिनों में काल के गाल में चला जाना निश्चित ही है तो अतुल लक्ष्मी, उत्तमोत्तम नगर, अन्यान्य भोग सामग्री, उत्कृष्ट पद और ऐश्वर्य से क्या प्रयोजन है । मेरे विचार से तो उस प्राणी के लिए ये सभी व्यर्थ हैं ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">ब्रह्मा जी ने कहा:</span> असुरो ! अमरत्व सभी को नहीं मिल सकता, अतः तुमलोग अपना यह विचार छोड़ दो । इसके अतिरिक्त अन्य कोई वर जो तुम्हें रुचता हो, मांग लो । क्योंकि दैत्यों ! इस भूतल पर जहाँ कहीं भी जो प्राणी जन्मा है अथवा जन्म लेगा, वह जगत में अजर-अमर नहं हो सकता । इसलिए पापरहित असुरों ! तुमलोग स्वयं अपनी बुद्धि से विचार कर मृत्यु की वंचना करते हुए कोई ऐसा दुर्लभ या दुस्साध्य वर मांग लो, जो देवता और असुरों के लिए अशक्य हो । उस प्रसंग में तुमलोग अपने बल का आश्रय लेकर पृथक-पृथक अपने मरण में किसी हेतु को मांग लो, जिससे तुम्हारी रक्षा हो जाय और मृत्यु तुम्हें वरण न कर सके ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">दैत्यों ने कहा:</span> भगवन ! यद्यपि हम लोग प्रबल पराक्रमी हैं तथापि हमारे पास कोई ऐसा घर नहीं है जहाँ हम शत्रुओं से सुरक्षित रहकर सुखपूर्वक निवास कर सकें; अतः आप हमारे लिए ऐसे तीन नगरों का निर्माण करा दीजिये जो अत्यन्त अद्भुत और सम्पूर्ण सम्पत्तियों से संपन्न हों तथा देवता जिसका प्रधर्षण न कर सकें । लोकेश ! आप तो जगद्गुरु हैं । हम लोग आपकी कृपा से ऐसे तीन पूर्व में अधिष्ठित होकर इस पृथ्वी पर विचरण करेंगे । इसी बीच तारकाक्ष ने कहा कि विश्वकर्मा मेरे लिए जिस नगर का निर्माण करें, वह स्वर्णमय हो और देवता भी उसका भेदन न कर सकें । तत्पश्चात कमलाक्ष ने चांदी के बने हुए अत्यन्त विशाल नगर की याचना की और विद्युन्माली ने प्रसन्न होकर वज्र के समान कठोर लोहे का बना हुआ बड़ा नगर माँगा । ब्रह्मन ! ये तीनो पुर मध्याह्न के समय अभिजीत मुहूर्त में चन्द्रमा के पुष्य नक्षत्र पर स्थित होने पर एक स्थान पर मिला करें और आकाश में नीले बादलों पर स्थित होकर ये क्रमशः एक के ऊपर एक रहते हुए लोगों की दृष्टी से ओझल रहें । फिर पुष्करावर्त नामक कालमेघों के वर्षा करते समय एक सहस्त्र वर्ष के बाद ये तीनो नगर परस्पर मिलें और एकीभाव को प्राप्त हों, अन्यथा नहीं । उस समय कृत्तिवास भगवान् शंकर, जो वैरभाव से रहित, सर्वदेवमय और सबके देव हैं, लीलापूर्वक सम्पूर्ण सामग्रियों से युक्त एक असंभव रथ पर बैठकर एक अनोखे बाण से हमारे पूर्व का भेदन करें । किन्तु भगवान् शंकर सदा हम लोगों के वन्दनीय, पूज्य और अभिवादन के पात्र हैं; अतः वे हमलोगों को कैसे भस्म करेंगे - मन में ऐसी धारणा करके हम ऐसे दुर्लभ वर को मांग रहे हैं ।<br />
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<b><span style="text-align: left;">विश्वानर</span><span style="text-align: left;"> </span>की तपस्या तथा जठराग्नि का वर </b></div>
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विश्वानर की तपस्या तथा जठराग्नि का वर<br />
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पूर्वकाल की बात है, नर्मदा के रमणीय तट पर नर्मपुर नाम का एक नगर था । उसी नगर में विश्वानर नाम के एक मुनि निवास करते थे । उनका जन्म शाण्डिल्य गोत्र में हुआ था । वे परम पावन, पुण्यात्मा, शिवभक्त, ब्रह्मतेज के निधि और जितेन्द्रिय थे । वे सदा ब्रह्मयज्ञ में तत्पर रहते थे । फिर उन्होंने शुचिष्मति नाम की एक सद्गुणवती कन्या से विवाह कर लिया और वे ब्राह्मणोचित कर्म करते हुए देवता तथा पितरों को प्रिय लगनेवाला जीवन बिताने लगे । एक दिन वह अपने पति से बोली - "प्राणनाथ ! स्त्रियों के योग्य जितने आनन्दप्रद भोग हैं, उन सबको मैंने आपकी कृपा से आपके साथ रहकर भोग लिया; परन्तु नाथ ! मेरे ह्रदय में एक लालसा चिरकाल से वर्तमान है और वह गृहस्थों के लिए उचित भी है, उसे आप पूर्ण करने की कृपा करें ! स्वामिन ! यदि मैं वर पाने के योग्य हूँ और आप मुझे वर देना चाहते हैं तो मुझे महेश्वर सरीखा पुत्र प्रदान करें । इसके अतिरिक्त मैं दूसरा वर नहीं चाहती ।<br />
<br />
नंदीश्वर जी कहते हैं : मुने ! पत्नी की बात सुनकर पवित्र व्रतपरायण व्राह्मण विश्वनार क्षणभर के लिए समाधिस्थ हो गए और ह्रदय में यों विचार करने लगे - "अहो! मेरी इस सूक्ष्मांगी पत्नी ने कैसा अत्यंत दुर्लभ वर माँगा है । ऐसा प्रतीत होता है, मानो उन शम्भू ने ही इसके मुख में बैठकर वाणीरूप से ऐसी बात कही है, अन्यथा दूसरा कौन ऐसा करने में समर्थ हो सकता है । तदनन्तर वे मुनि विश्वानर पत्नी को आश्वासन देकर वाराणसी में गए और घोर तप के द्वारा वीरेश लिंग की आराधना करने लगे । बारह मास की आराधनापूर्व एक दिन वे द्विजवर प्रातःकाल त्रिपथगामिनी गंगा के जल में स्नान करके ज्योंही वीरेश के निकट पहुंचे, त्यों ही उन तपधान को उस लिंग के मध्य एक अष्टवर्षीय विभूतिभूषित बालक दिखाई दिया उस बालक को देखकर विश्वनार मुनि कृतार्थ हो गए और आनंद के कारण उनका शरीर रोमाञ्चित हो उठा तथा बारम्बार "नमस्कार है, नमस्कार है" यों उनका हृदयोद्गार फुट पड़ा । फिर वे अभिलाषा पूर्ण करनेवाले आठ पद्यों द्वारा बालरूपधारी परमानन्दरूप शम्भू का स्तवन करने लगे।<br />
<br />
नन्दीश्वर कहते हैं: मुने ! यों स्तुति करके विप्रवर विश्वानर हाथ जोड़कर भूमिपर गिरना ही चाहते थे, तब तक सम्पूर्ण वृद्धों के भी वृद्ध बालरूपधारी शिव परम हर्षित होकर उन भूदेव से बोले ।<br />
<br />
बालरूपी शिव ने कहा: मुनिश्रेष्ठ विश्वानर ! तुमने आज मुझे सन्तुष्ट कर दिया है । भूदेव ! मेरा मन परम प्रसन्न हो गया है, अतः अब तुम उत्तम वर मांग लो । यह सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वानर कृतकृत्य हो गए और उनका मन हर्षमग्न हो गया । तब वे उठकर बालरूपधारी शंकरजी से बोले ।<br />
<br />
विश्वानर ने कहा: प्रभावशाली महेश्वर ! आप तो सर्वान्तर्यामी, ऐश्वर्यसम्पन्न, शर्व तथा भक्तों को सब कुछ दे डालनेवाले हैं । भला, आप सर्वज्ञ से कौन सी बात छिपी है । फिर भी आप मुझे दीनता प्रकट करनेवाली यांचा के प्रति आकृष्ट होने के लिए क्यों कह रहे हैं । महेशान ! ऐसा जानकार आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा कीजिये ।<br />
<br />
नन्दीश्वर कहते हैं: शिशुरूपधारी महादेव हंसकर शुचि(विश्वानर) से बोले - "शुचि ! तुमने अपने ह्रदय में अपनी पत्नी शुचिष्मति के प्रति जो अभिलषा कर रखी है, वह निस्संदेह थोड़े ही समय में पूर्ण हो जायेगी । महामते ! मैं शुचिष्मति के गर्भ से तुम्हारा पुत्र होकर प्रकट होऊंगा। मेरा नाम गृहपति होगा ।<br />
<br />
नन्दीश्वर कहते हैं : मुने ! इतना कहकर बालरूपधारी शम्भु, अन्तर्धान हो गए । तब विप्रवर विश्वानर भी प्रसन्न मन से अपने घर को लौट गए । मुने ! घर आकर उस ब्राह्मण ने बड़े हर्ष के साथ अपनी पत्नी से वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया । उसे सुनकर विप्रपत्नी शुचिष्मति को महान आनन्द प्राप्त हुआ । तदनन्तर समय आने पर ब्राह्मण विधिपूर्वक गर्भाधान कर्म सम्पन्न किये जानेपर वह नारी गर्भवती हुई । तदुपरान्त ताराओं के अनुकूल होने पर जब बृहस्पति केन्द्रवर्ती हुए और शुभ ग्रहों का योग आया, तब शुभ लग्न में भगवान् शंकर उस शुचिष्मति के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए । उस समय सम्पूर्ण प्रसिद्ध ऋषि-मुनि तथा देवता, यक्ष, किन्नर, विद्याधर आदि मंगल द्रव्य ले-लेकर पधारे । स्वयं ब्रह्माजी ने नम्रतापूर्वक उसका जातकर्म-संस्कार किया और उस बालक के रूप तथा वेद का विचार करके यह निश्चय किया की इसका नाम गृहपति होना चाहिए । तत्पश्चात सबके पितामह ब्रह्मा चारों वेदों में कथित आशीर्वादात्मक मन्त्रों द्वारा उसका अभिनन्दन करके हंसपर आरूढ़ हो अपने लोक को चले गए । तदनन्तर ब्राह्मण देवता ने यथासमय सब संस्कार करते हुए बालक को वेदाध्ययन कराया । तत्पश्चात नवां वर्ष आने पर माता-पिता की सेवा में तत्पर रहने वाले विश्वानर-नन्दन गृहपति को देखने के लिए वहां पर नारदजी पधारे । बालक ने माता-पिता सहित नारदजी को प्रणाम किया । फिर नारदजी जे बालक की हस्तरेखा, जिह्वा, तालु आदि देखकर कहा - "मुनि विश्वानर ! मैं तुम्हारे पुत्र के लक्षणों का वर्णन करता हूँ, तुम आदरपूर्वक उसे श्रवण करो । तुम्हारा यह पुत्र परम भाग्यवान है परन्तु मुझे शंका है कि इसके बारहवें वर्ष में इस पर बिजली अथवा अग्निद्वारा विघ्न आएगा ।" यों कहकर नारदजी जैसे आये थे, वैसे ही देवलोक को चले गए ।<br />
<br />
सनत्कुमार जी ! नारदजी का कथन सुनकर पत्नीसहित विश्वानर ने समझ लिया कि यह तो बड़ा भयङ्कर वज्रपात हुआ । फिर वे "हाय ! मैं मारा गया " यों कहकर छाती पीटने लगे और पुत्रशोक से व्याकुल होकर गहरी मूर्च्छा के वशीभूत हो गए । तब माता-पिता को इस प्रकार अत्यन्त शोकग्रस्त देखकर गृहपति मुस्कुराकर बोलै ।<br />
<br />
गृहपति ने कहा: माताजी और पिताजी ! बताइये इस समय आप लोगों के रोने का कारण क्या है? किसलिए आपलोग फुट फूटकर रो रहे हैं? कहाँ से ऐसा भय आपलोगों को प्राप्त हुआ है ? माता-पिताजी ! अब आपलोग मेरी प्रतिज्ञा सुनिए - "यदि मैं आप लोगों का पुत्र हूँ तो ऐसा प्रयत्न करूँगा जिससे मृत्यु भी भयभीत हो जायेगी । मैं सत्पुरुषों को सब कुछ दे डालनेवाले सर्वज्ञ मृत्युंजय की भलीभांति आराधना करके महाकाल को भी जीत लूँगा - यह मैं आप लोगों से बिलकुल सत्य कह रहा हूँ ।"<br />
<br />
नन्दीश्वर कहते हैं: मुने ! माता-पिता की आज्ञा पाकर गृहपति ने उनके चरणों में प्रणाम किया । फिर उनकी प्रदक्षिणा करके और उन्हें बहुत तरह से आश्वासन दे वे वहां से चल पड़े और उस काशीपुरी में जा पहुंचे, जो ब्रह्मा और नारायण आदि देवों के लिए दुष्प्राप्य, महाप्रलय के सन्ताप का विनाश करनेवाली और विश्वनाथ द्वारा सुरक्षित थी तथा जो कण्ठप्रदेश में हार की तरह पड़ी हुई गंगा से सुशोभित तथा विचित्र गुणशालिनी हरपत्नी गिरिजा से विभूषित थी । वहां पहुंचकर वे विप्रवर पहले मणिकर्णिका पर गए । वहां उन्होंने विधिपूर्वक स्नान करके भगवान् विश्वनाथ का दर्शन किया । फिर बुद्धिमान गृहपति ने परमानन्दमग्न हो त्रिलोकी के प्राणो की प्राणरक्षा करनेवाले शिव को प्रणाम किया वे बारम्बार शिवलिङ्ग को देखकर ह्रदय में हर्षित हो रहे थे और सोच रहे थे कि यह लिङ्ग निस्संदेह स्पष्टरूप से आनन्ददायक ही </div>
<div>
<br />
<b>शिव के हनुमदवतार का वर्णन</b><br />
<br />
नन्दीश्वर कहते हैं : मुने ! अब तुम हनुमान जी का चरित्र वर्णन सुनो । हनुमद्रूप से शिवजी ने बड़ी उत्तम लीलाएं की हैं । विप्रवर ! इसी रूप से महेश्वर ने भगवान् राम का हित किया था । जब अत्यन्त अद्भुत लीला करनेवाले गुणशाली भगवान् शम्भु को विष्णु के मोहिनी रूप का दर्शन प्राप्त हुआ, तब वे कामदेव के बाणो से आहत हुए की तरह क्षुब्ध हो उठे । उस समय उन परमेश्वर ने रामकार्य की सिद्धि के लिए अपना वीर्यपात किया । तब सप्तर्षियों ने उस वीर्य को पत्रपुटक में स्थापित कर लिया; क्योंकि शिवजी ने ही रामकार्य के लिए आदरपूर्वक उनके मन में प्रेरणा की थी । तत्पश्चात उन महर्षियों ने शम्भु के उस वीर्य को रामकार्य की सिद्धि के लिए गौतमकनया अञ्जनी के कान के रास्ते स्थापित कर दिया । तब समय आने पर उस गर्भ से शम्भु महान बल-पराक्रम सम्पन्न, वानर-शरीर धारण करके उत्पन्न हुए, उनका नाम हनुमान रखा गया । महाबली कपीश्वर हनुमान जब शिशु ही थे, उसी समय उदय होते हुए सूर्यबिम्ब को छोटा सा फल समझकर तुरन्त ही निगल गए । जब देवताओं ने उनकी प्रार्थना की, तब उन्होंने उसे महाबली सूर्य जानकार उगल दिया । तब देवर्षियों ने उन्हें शिव का अवतार माना और बहुत सा वरदान दिया । तदनन्तर हनुमान अत्यन्त हर्षित होकर अपनी माता के पास गए और उन्होंने यह सारा वृत्तान्त आदरपूर्वक कह सुनाया । फिर माता की आज्ञा से धीर-वीर कपि हनुमान ने नित्य सूर्य के निकट जाकर उनसे अनायास ही सारी विद्याएं सीख लीं । तदनन्तर रूद्र के अंशभूत कपिश्रेष्ठ हनुमान सूर्य की आज्ञा से सूर्यान्श से उप्तन्न हुए सुग्रीव के पास चले गए । इसके लिए उन्हें अपनी माता से भी अनुज्ञा मिल चुकी थी ।<br />
<br />
तदनन्तर नन्दीश्वर ने भगवान् राम का सम्पूर्ण चरित्र सक्षेप से वर्णन करके कहा - 'मुने ! इस प्रकार कपिश्रेष्ठ हनुमान ने सब तरह से श्रीराम का कार्य पूरा किया, नाना प्रकार की लीलाएं कीं, असुरों का मानमर्दन किया, भूतल पर रामभक्ति की स्थापना की और स्वयं भक्ताग्रगण्य होकर सीता-राम को सुख प्रदान किया । वे रुद्रावतार ऐश्वर्यशाली हनुमान लक्ष्मण के प्राणदाता, सम्पूर्ण देवताओं के गर्वहारी और भक्तों का उद्धार करनेवाले हैं । महावीर हनुमान सदा रामकार्य में तत्पर रहनेवाले, लोक में 'रामदूत' नाम से विख्यात, दैत्यों के संहारक और भक्तवत्सल हैं ।<br />
<br />
<span style="text-align: center;">===================== </span><span style="text-align: center;"><b>उमा संहिता आरम्भ</b></span><span style="text-align: center;"> =====================</span><br />
<span style="text-align: center;"><br /></span>
<br />
<div style="text-align: center;">
<b>काल को जीतने का उपाय, नवधा शब्दब्रह्म एवं तुंकार के अनुसंधान और उससे प्राप्त होनेवाली सिद्धियों का वर्णन</b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>-------------------------------------------------------------</b></div>
देवी पार्वती ने कहा: प्रभो ! काल से आकाश का भी नाश होता है । वह भयङ्कर काल बड़ा विकराल है । वह स्वर्ग का भी एकमात्र स्वामी है । आपने उसे दग्ध कर दिया था, परन्तु अनेक प्रकार के स्तोत्रों द्वारा जब उसने आपकी स्तुति की, तब आप फिर सन्तुष्ट हो गए और वह काल पुनः अपनी प्रकृति को प्राप्त हुआ - पूर्णतः स्वस्थ हो गया । आपने उससे बातचीत में कहा - 'काल! तुम सर्वत्र विचारोगे, किन्तु लोग तुम्हें देख नहीं सकेंगे ।' आप प्रभु की कृपादृष्टि होने और वर मिलने से वह काल जी उठा तथा उसका प्रभाव बहुत बढ़ गया । अतः महेश्वर ! क्या यहाँ ऐसा कोई साधन है, जिससे उस काल को नष्ट किया जा सके ? यदि हो तो मुझे बताइये; क्योंकि आप योगियों में शिरोमणि और स्वतन्त्र प्रभु हैं । आप परोपकार के लिए ही शरीर धारण करते हैं ।<br />
शिव बोले: देवि! श्रेष्ठ देवता, दैत्य, यक्ष, राक्षस, नाग और मनुष्य - किसी के द्वारा भी काल का नाश नहीं किया जा सकता; परन्तु जो ध्यानपारायण योगी हैं, वे शरीरधारी होने पर भी सुखपूर्वक काल को नष्ट कर देते हैं । वरारोहे ! यह पाञ्चभौतिक शरीर सदा उन भूतों के गुणों से युक्त ही उत्पन्न होता है और उन्हीं में इसका ले होता है । मिटटी की देह मिटटी में ही मिल जाती है । आकाश से वायु उत्पन्न होती है, वायु से तेजस्तत्त्व प्रकट होता है, तेज से जल का प्राकट्य बताया गया है और जल से पृथ्वी का आविर्भाव होता है । पृथ्वी आदि भूत क्रमशः अपने कारण में लीन होते हैं । पृथ्वी के पांच, जल के चार, तेज के तीन और वायु के दो गुण होते हैं । आकाश का एकमात्र शब्द ही गुण है । पृथ्वी आदि में जो गुण बताये गए हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं - शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध । जब भूत अपने गुण को त्याग देता है, तब नष्ट हो जाता है और जब गुण को ग्रहण करता है, तब उसका प्रादुर्भाव हगा बताया जाता है । देवेश्वरि ! इस प्रकार तुम पाँचों भूतों के यथार्थ स्वरुप को समझो । देवि ! इस कारण काल को जीतने की इच्छावाले योगी को चाहिए कि वह प्रतिदीन प्रयत्नपूर्वक अपने-अपने काल में उसके अंशभूत गुणों का चिन्तन करे ।<br />
<br />
योगवेत्ता पुरुष को चाहिए कि सुखद आसन पर बैठकर विशुद्ध श्वास(प्राणायाम) द्वारा योगाभ्यास करे । रात में जब सब लोग सो जाएँ, उस समय दीपक बुझाकर अन्धकार में योग करे । तर्जनी अंगुली से दोनों कानों को बंद करके दो घडी तक दबाये रखे । उस अवस्था में अग्निप्रेरित शब्द सुनाई देता है । इससे संध्या के बाद का खाया हुआ अन्न क्षणभर में पच जाता है और सम्पूर्ण रोगों तथा ज्वर आदि बहुत से उपद्रवों का शीघ्र नाश कर देता है । जो साधक प्रतिदिन इसी प्रकार दो घड़ी तक शब्दब्रह्म का साक्षात्कार करता है, वह मृत्यु तथा काम को जीतकर इस जगत में स्वछन्द विचरता है और सर्वज्ञ एवं समदर्शी होकर सम्पूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है । जैसे आकाश में वर्षा से युक्त बादल गरजता है, उसी प्रकार उस शब्द को सुनकर योगी तत्काल संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है । तदनन्तर योगियों द्वारा प्रतिदिन चिन्तन किया जाता हुआ वह शब्द क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हो जाता है । देवि ! इस प्रकार में तुम्हें शब्दब्रह्म के चिन्तन का क्रम बताया है । जैसे धान चाहनेवाला पुरुष पुआल को छोड़ देता है, उसी तरह मोक्ष कि इच्छावाला योगी सारे बन्धनों को त्याग देता है ।<br />
<br />
इस शब्दब्रह्म को पाकर भी जो दूसरी वास्तु कि अभिलाषा करते है, वे मुक्के से आकाश को मारते और भूख-प्यास की कामना करते हैं । यह शब्दब्रह्म ही सुखद, मोक्ष का कारण, बाहर-भीतर के भेद से रहित, अविनाशी और समस्त उपाधियों से रहित परब्रह्म है । इसे जानकार मनुष्य मुक्त हो जाते हैं । जो लोग कालपाश से मोहित हो शब्दब्रह्म को नहीं जानते, वे पापी और कुबुद्धि मनुष्य मौत के फन्दे में फंसे रहते हैं । मनुष्य तभी तक संसार में जन्म लेते हैं, जब तक सब के आश्रयभूत परमतत्व (परब्रह्म परमात्मा) की प्राप्ति नहीं होती । परमतत्त्व का ज्ञान हो जानेपर मनुष्य जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाता है । निद्रा और आलस्य साधना का बहुत बड़ा विघ्न है । इस शत्रु को यत्नपूर्वक जीतकर सुखद आसनपर आसीन हो प्रतिदिन शब्दब्रह्म का अभ्यास करना चाहिए । सौ वर्ष की अवस्थावाला वृद्ध पुरुष आजीवन इसका अभ्यास करे तो उसका शरीररूपी स्तम्भ मृत्यु को जीतनेवाला हो जाता है और उसे प्राणवायु की शक्ति को बढ़ानेवाला आरोग्य प्राप्त होता है । वृद्ध पुरुष में भी ब्रह्म के अभ्यास से होनेवाले लाभ का विश्वास देखा जाता है, फिर तरुण मनुष्य को इस साधना से पूर्ण लाभ हो इसके लिए तो कहना ही क्या है । यह शब्दब्रह्म न ओंकार है, न मन्त्र है, न बीज है, न अक्षर है । यह अनाहत नाद (बिना आघात के अथवा बिना बजाये ही प्रकट होनेवाला शब्द) है । इसका उच्चारण किये बिना ही चिन्तन होता है । यह शब्दब्रह्म परम कल्याणमय है । प्रिये ! शुद्ध बुद्धिवाले पुरुष यत्नपूर्वक निरन्तर इसक अनुसंधान करते हैं । अतः नौ प्रकार के शब्द बताये गए हैं, जिन्हें प्राणवत्ता पुरुषों ने लक्षित किया है । मैं उन्हें प्रयत्न करके बता रहा हूँ । उन शब्दों को नादसिद्धि भी कहते हैं । वे शब्द क्रमशः इस प्रकार हैं -<br />
<br />
घोष, कांस्य (झांझ आदि ), श्रृंग (सिंगा आदि), घण्टा, वीणा आदि, बांसुरी, दुन्दुभि, शंख और नवां मेघगर्जन - इन नौ प्रकार के शब्दों को त्यागकर तुंकार का अभ्यास करें ।<br />
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<br />
<br />
पृथिव्यादिपञ्चक - पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश<br />
शब्दादिपञ्चक - शब्द, स्पर्श, रूप, रास और गन्ध<br />
वागादिपञ्चक - वाक्, पाणि, पाद, पायु तथा उपस्थ<br />
श्रोत्रादिपञ्चक - श्रोत्र, नेत्र, नासिका, रसना और त्वक्<br />
शिरादिपञ्चक - शिर, पाश्र्व, पृष्ठ, उदार और जंघा<br />
त्वागादिपञ्चक -<br />
प्राणादिपञ्चक - प्राण, अपान, उदान, व्यान,<br />
अन्नमयादिकोशपञ्चक - अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय<br />
इनके शिव मन, चित्त, बुद्धि, अहङ्कार, ख्याति, संकल्प, गुण, प्रकृति और पुरुष हैं<br />
तत्त्वपञ्चक(पञ्चकंचुक) - नियति, काल, राग, विद्या और कला (ये पांचों माया से उत्पन्नहैं - 'मायां तु प्रकृति विद्यात्')<br />
<br />
नियति, प्रकृति के नीचे है और यह पुरुष प्रकृति से ऊपर है । जैसे कौव्वे की एक ही आँख उसके दोनों गोलकों में घूमती रहती है, उसी प्रकार पुरुष प्रकृति और नियति दोनों के पास रहता है । यह विद्यातत्त्व कहा गया है ।<br />
<br />
शिवतत्त्व - विद्या, महेश्वर, सदाशिव, शक्ति और शिव<br />
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<div style="text-align: center;">
========================= <span style="color: #b45f06;"><b>वायवीय संहिता</b></span> =========================== </div>
<br />
<div style="text-align: center;">
पशु, पाश और पशुपति का तात्विक विवेचन </div>
<div style="text-align: center;">
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मुनि वायु देवता ने जो ज्ञान ब्रह्मा जी के मुख से प्राप्त किया था उसके बारे में प्रश्न करते हुए कहते हैं -<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">मुनियों ने पूछा:</span> आपने वह कौन सा ज्ञान प्राप्त किया, जो सत्य से भी परम सत्य एवं शुभ है तथा जिसमें उत्तम निष्ठा रखकर रखकर पुरुष परमानन्द को प्राप्त करता है ?<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">वायुदेव बोले:</span> महर्षियों ! मैंने पूर्वकाल में पशु-पाश और पशुपति का जो ज्ञान प्राप्त किया था, सुख चाहनेवाले पुरुष को उसी में ऊंची निष्ठा रखनी चाहिए । अज्ञान से उत्पन्न होनेवाला दुःख ज्ञान से ही दूर होता है । वस्तु के विवेक का नाम ज्ञान है । वस्तु के तीन भेद माने गए हैं - जड़(प्रकृति), चेतन(जीव) और उन दोनों का नियन्ता(परमेश्वर) । इन्ही तीनों को क्रम से पाश, पशु और पशुपति कहते हैं । तत्वज्ञ पुरुष प्रायः इन्हीं तीन तत्वों को क्षर, अक्षर तथा उन दोनों से अतीत कहते हैं । अक्षर ही पशु कहा गया है । क्षर तत्त्व का ही नाम पाश है तथा क्षर और अक्षर दोनों से परे जो परमतत्व है, उसी को पति या पशुपति कहते हैं । प्रकृति को ही क्षर कहा गया है । पुरुष (जीव) को ही क्षर कहते हैं और जो इन दोनों को प्रेरित करता है, वह क्षर और अक्षर दोनों से भिन्न तत्त्व परमेश्वर कहा गया है। माया का नाम ही प्रकृति है । पुरुष उस माया से आवृत है । मल और कर्म के द्वारा प्रकृति का पुरुष के साथ सम्बन्ध होता है । शिव ही इन दोनों के प्रेरक ईश्वर हैं । माया महेश्वर की शक्ति है । चित्स्वरूप जीव उस माया से आवृत है । चेतन जीव को आच्छादित करनेवाला अज्ञानमय पाश ही मल कहलाता है । उससे शुद्ध हो जाने पर जीव स्वतः ही शिव हो जाता है । वह विशुद्ध ही शिवतत्व है ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">मुनियों ने पूछा :</span> सर्वव्यापी चेतन को माया किस हेतु से आवृत करती है ? किसलिए पुरुष को आवरण प्राप्त होता है ? और किस उपाय से उसका निवारण होता है ?<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">वायुदेवता बोले:</span> व्यापक तत्त्व को भी आंशिक आवरण प्राप्त होता है; क्योंकि कला आदि भी व्यापक हैं । भोग के लिए किया गया कर्म ही उस आवरण में कारण है । मल का नाश होने से वह आवरण दूर हो जाता है । कला, विद्या, राग, काल और नियति - इन्हीं को कला आदि कहते हैं । कर्मफल का जो उपभोग करता है, उसी का नाम पुरुष(जीव) है । कर्म दो प्रकार के हैं - पुण्य कर्म और पाप कर्म । पुण्य कर्म का फल सुख और पापकर्म का फल दुःख है । कर्म अनादि है और फल का उपभोग कर लेने पर उसका अन्त हो जाता है । यद्यपि जड़ कर्म का चेतन आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है, तथापि अज्ञानवश जीव ने उसे अपने आप में मान रखा है । भोग कर्म का विनाश करनेवाला है, प्रकृति को भोग्य कहते हैं और भोग का साधन है शरीर । बाह्य इन्द्रियां और अन्तः करण उसके द्वार हैं । अतिशय भक्तिभाव से उपलब्ध हुए महेश्वर के कृपाप्रसाद से मल का नाश होता है और मल का नाश हो जाने पर पुरुष निर्मल - शिव के समान हो जाता है । विद्या पुरुष की ज्ञान शक्ति को और कला उसकी क्रिया शक्ति को अभिव्यक्त करने वाली है । राग, भोग्य वस्तु के लिए क्रिया में प्रवृत करनेवाला होता है । काल उसमें अवच्छेदक होता है और नियति उसे नियंत्रण में रखनेवाली है । अव्यक्तरूप जो कारण है, वह त्रिगुणमय है; उसी से जड़ जगत की उत्पत्ति होती है और उसी में उसका लय होता है । तत्त्व चिन्तक पुरुष उस अव्यक्त को ही प्रधान और प्रकृति कहते हैं । सत्व, रज और तम - ये तीनों गुण प्रकृति से प्रकट होते हैं; तिल में तेल की भांति वे प्रकृति में सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहते हैं । सुख और उसके हेतु को संक्षेप से सात्विक कहा जाता है, दुःख और उसके हेतु राजस कार्य हैं तथा जड़ता और मोह - वे तमोगुण के कार्य हैं । सात्विकी वृत्ति उर्ध्व को ले जाने वाली है, तामसी वृत्ति अधोगति में डालनेवाली है तथा राजसी वृत्ति मध्यम स्थिति में रखनेवाली है । पांच तन्मात्राएं, पांच भूत, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ तथा प्रधान (प्रकृति), महत्तत्व(बुद्धि), अहंकार और मन - ये चार अन्तः करण - सब मिलकर चौबीस तत्त्व होते हैं । इस प्रकार संक्षेप से ही विकारसहित अव्यक्त (प्रकृति) का वर्णन किया गया । कारणावस्था में रहने पर ही इसे अव्यक्त कहते हैं और शरीर आदि के रूप में जब वह कार्यावस्था को प्राप्त होता है, तब उसकी 'व्यक्त' संज्ञा होती है - ठीक उसी तरह, जैसे कारणावस्था में स्थित होने पर जिसे हम 'मिट्टी' कहते हैं वही कार्यावस्था में 'घट' आदि नाम धारण कर लेती है । जैसे घट आदि कार्य मृत्तिका आदि कारण से अधिक भिन्न नहीं है, उसी प्रकार शरीर आदि व्यक्त पदार्थ अव्यक्त से अधिक भिन्न नहीं है । इसलिए एकमात्र अव्यक्त ही कारण, करण, उनका आधारभूत शरीर तथा भोग्य वस्तु है, दूसरा कोई नहीं ।<br />
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<span style="color: #b45f06;">मुनियों ने पूछा :</span> प्रभो ! बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर से व्यतिरिक्त किसी आत्मा नामक वस्तु की वास्तविक स्थिति कहाँ है ?<br />
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<span style="color: #b45f06;">वायुदेवता बोले :</span> महर्षियों ! सर्वव्यापी चेतन का बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर से पार्थक्य अवश्य है । आत्मा नामक कोई पदार्थ अवश्य ही विद्यमान है; परन्तु उसकी सत्ता में किसी हेतु की उपलब्धि बहुत ही कठिन है । सत्पुरुष बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर को आत्मा नहीं मानते; क्योंकि स्मृति (बुद्धि का ज्ञान) अनियत है तथा उसे सम्पूर्ण शरीर का एकसाथ ज्ञान नहीं होता । इसीलिए वेदों और वेदान्तों में आत्मा को पूर्वानुभूत विषयों का स्मरणकर्ता, सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों में व्यापक तथा अंतर्यामी कहा जाता है । यह न स्त्री है, न पुरुष और न नपुंसक ही है । न ऊपर है, न अगल-बगल में है, न नीचे है और किसी स्थान-विशेष में है । यह सम्पूर्ण चल शरीरों में अविचल, निराकार और अविनाशी रूप से स्थित है । ज्ञानी पुरुष निरंतर विचार करने से उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार कर पाते हैं ।<br />
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पुरुष जो वह शरीर कहा गया है, इससे बढ़कर अशुद्ध, पराधीन, दुखमय और अस्थिर दूसरी कोई वस्तु नहीं है । शरीर ही सब विपत्तियों का मूल कारण है । उससे युक्त हुआ पुरुष अपने कर्म के अनुसार दुखी, सुखी और मूढ़ होता है । जैसे पानी से सींचा हुआ खेत अंकुर उत्पन्न करता है, उसी प्रकार अज्ञान से आप्लावित हुआ कर्म नूतन शरीर को जन्म देता है । ये शरीर अत्यन्त दुखों के आलय माने जाते हैं । इनकी मृत्यु अनिवार्य होती है । भूतकाल में कितने ही शरीर नष्ट हो गए और भविष्य में सहस्त्रों शरीर आनेवाले हैं वे सब आ-आकर जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, तब पुरुष उन्हें छोड़ देता है । कोई भी जीवात्मा किसी भी शरीर में अनन्त काल तक रहने का अवसर नहीं पाता । यहाँ स्त्रियों, पुत्रों और बन्धु-बान्धवों से जो मिलन होता है, वह पथिक को मार्ग में मिले हुए दुसरे पथिको के समागम के ही समान है । जैसे महासागर में एक काष्ठ कहीं से और दूसरा काष्ठ कहीं से बहकर आता है, वे दोनों काष्ठ कहीं थोड़ी देर के लिए मिल जाते हैं और मिलकर फिर बिछुड़ जाते हैं । उसी प्रकार प्राणियों का यह समागम भी संयोग-वियोग से युक्त है । ब्रह्मा जी से लेकर स्थावर प्राणियों तक सभी जीव पशु कहे गए हैं । उन सभी पशुओं के लिए ही यह दृष्टान्त या दर्शन-शास्त्र कहा गया है । यह जीव पाशों में बंधता और सुख-दुःख भोगता है, इसीलिए पशु कहलाता है । यह ईश्वर के लीला का साधन भूत है, ऐसा ज्ञानी महात्मा कहते हैं ।<br />
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उपमन्यु द्वारा श्रीकृष्ण को पाशुपत ज्ञान का उपदेश*</div>
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<span style="font-size: 16px;">[ वायवीय संहिता(उत्तरखण्ड), अध्याय १ ]</span></div>
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<span style="font-size: 16px;">*ऋषियों ने पूछा:* पाशुपत ज्ञान क्या है? भगवान् शिव पशुपति कैसे हैं ? और अनायास ही महान कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण ने उपमन्यु से किस प्रकार प्रश्न किया था? वायु देव! आप साक्षात् शङ्कर के स्वरुप हैं, इसलिए ये सब बातें बताइये। तीनों लोकों में आपके समान दूसरा कोई वक्त इन बातों को बताने में समर्थ नहीं है ।</span></div>
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<span style="font-size: 16px;">*सूतजी कहते हैं* - उन महर्षियों की यह बात सुनकर बायुदेव ने भगवान् शङ्कर का स्मरण करके इस प्रकार उत्तर देना आरम्भ किया ।</span></div>
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<span style="font-size: 16px;">*वायुदेव बोले:* महर्षियों ! पूर्वकाल में श्रीकृष्णरूपधारी भगवान् विष्णु ने अपने आसन पर बैठे हुए महर्षि उपमन्यु से उन्हें प्रणाम करके न्यायपूर्वक यों प्रश्न किया ।</span></div>
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<span style="font-size: 16px;">*श्रीकृष्ण ने कहा:* भगवन ! महादेवजी ने देवी पारवती को जिस दिव्य पाशुपत ज्ञान तथा अपनी सम्पूर्ण विभूति का उपदेश दिया था, मैं उसी को सुनना चाहता हूँ । महादेव जी पशुपति कैसे हुए ? पशु कौन कहलाते हैं ? वे पशु किन पाशों से बांधे जाते हैं और फिर किस प्रकार उनसे मुक्त होते हैं ?</span></div>
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<span style="font-size: 16px;"><br /></span></div>
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<span style="font-size: 16px;">महात्मा श्रीकृष्ण के इस प्रकार पूछनेपर श्रीमान उपमन्यु ने महादेव जी तथा देवी पार्वती को प्रणाम करके उनके प्रश्न के अनुसार उत्तर देना आरम्भ किया ।</span></div>
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<span style="font-size: 16px;">*उपमन्यु बोले:* देवकीनन्दन ! ब्रह्माजी से लेकर स्थावरपर्यन्त जो भी संसार के वशवर्ती चराचर प्राणी हैं, वे सब के सब भगवान् शिव के पशु कहलाते हैं और उनके पति होने के कारण देवेश्वर शिव को पशुपति कहा गया है । वे पशुपति अपने पशुओ को मल और माया आदि पाशों से बांधते हैं और भक्तिपूर्वक उनके द्वारा आराधित होनेपर वे स्वयं ही उन्हें उन पाशों से मुक्त करते हैं । जो चौबीस तत्त्व हैं, वे माया के कार्य एवं गुण हैं । वे ही विषय कहलाते हैं, जीवों(पशुओं) को बांधनेवाले पाश वे ही हैं । इन पाशोंद्वारा ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त समस्त पशुओं को बांधकर महेश्वर पशुपतिदेव उनसे अपना कार्य करते हैं । उन महेश्वर की ही आज्ञा से प्रकृति पुरुषोचित बुद्धि को जन्म देती है । बुद्धि अहङ्कार को प्रकट करती है तथा अहङ्कार कल्याणदायी देवाधिदेव शिव की आज्ञा से ग्यारह इन्द्रियों और पांच तन्मात्राओं को उत्पन्न करता है । तन्मात्रयें भी उन्हीं महेश्वर के महान शासन से प्रेरित हो क्रमशः पांच महाभूतों को उत्पन्न करती हैं । वे सब महाभूत शिव की आज्ञा से ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त देहधारियों के लिए देह की सृष्टि करते हैं, बुद्धि कर्तव्य का निश्चय करती है और अहङ्कार अभिमान करता है । चित्त चेतता है और मन संकल्प करता है, श्रवण आदि ज्ञानेन्द्रियाँ पृथक-पृथक शब्द आदि विषयों को ग्रहण करती हैं । वे महादेवजी के आज्ञाबल से केवल अपने ही विषयों को ग्रहण करती हैं । वाक् आदि कर्मेन्द्रियाँ कहलाती हैं और शिव की इच्छा से अपने लिए नियत कर्म ही करती हैं, दूसरा कुछ नहीं । शब्द आदि जाने जाते हैं और बोलना आदि कर्म किये जाते हैं । इन सबके लिए भगवान् शङ्कर की गुरुतर आज्ञा का उल्लंघन करना असंभव है । परमेश्वर शिव के शासन से ही आकाश सर्वव्यापी होकर समस्त प्राणियों को अवकाश प्रदान करता है, वायुत्व प्राण आदि नामभेदों द्वारा बाहर-भीतर के सम्पूर्ण जगत को धारण करता है । अग्नितत्व देवताओं के लिए हव्य और कव्यभोजी पितरों के लिए कव्य पहुंचाता है । साथ ही मनुष्यों के लिए पाक आदि का भी कार्य करता है । जल सबको जीवन देता है और पृथ्वी सम्पूर्ण जगत को सदा धारण किये रहती है ।</span></div>
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<span style="font-size: 16px;">शिव की आज्ञा सम्पूर्ण देवताओं के लिए अलंघनीय है । उसी से प्रेरित होकर देवराज इन्द्र देवताओं का पालन, दैत्यों का दमन और तीनों लोकों का संरक्षण करते हैं । वरुणदेव सदा जलतत्व के पालन और संरक्षण का कार्य सँभालते हैं, साथ ही दण्डनीय प्राणियों को अपने पाशोंद्वारा बाँध लेते हैं । धन के स्वामी यक्षराज कुबेर प्राणियों को उनके पुण्य के अनुरूप सदा धन देते हैं और उत्तम बुद्धिवाले पुरुषों को सम्पत्ति के साथ ज्ञान भी प्रदान करते हैं । ईश्वर असाधु पुरुषों का निग्रह करते हैं तथा शेष शिव की ही आज्ञा से अपने मस्तक पर पृथ्वी को धारण करते हैं । उन शेष को श्रीहरि की तामसी रौद्रमूर्ति कहा गया है, जो जगत का प्रलय करनेवाली है । ब्रह्माजी शिव की ही आज्ञा से सम्पूर्ण जगत की सृष्टि करते हैं तथा अपनी अन्य मूर्तितयों द्वारा पालन और संहार का कार्य भी करते हैं । भगवान् विष्णु अपनी त्रिविध मूर्तितयों द्वारा पालन, सर्जन और संहार भी करते हैं । विश्वात्मा भगवान् हर भी तीन रूपों में विभक्त हो सम्पूर्ण जगत का संहार, सृष्टि और रक्षा करते हैं । काल सबको उत्पन्न करता है । वही प्रजा की सृष्टि करता है तथा वही विश्व का पालन करता है । यह सब वह महाकाल की आज्ञा से प्रेरित होकर करता है । भगवान् सूर्य उन्ही की आज्ञा से अपने तीन अंशों द्वारा जगत का पालन करते, अपनी कारणों द्वारा वृष्टि के लिए आदेश देते और स्वयं ही आकाश में मेघ बनकर बरसते हैं । चंद्रभूषण शिव का शासन मानकर ही चन्द्रमा औषधियों का पोषण और प्राणियों को आह्लादित करते हैं । साथ ही देवताओं को अपनी अमृतमयी कलाओं का पान करने देते हैं । आदित्य, रूद्र, अश्विनीकुमार, मरुद्गण, आकाशचारी ऋषि, सिद्ध, नागगण, मनुष्य, मृग, पशु, पक्षी, कीट आदि स्थावर प्राणी, नदियों, समुद्र, पर्वत, वन, सरोवर, अङ्गोंसहित वेद, शास्त्र, मन्त्र, वैदिकस्तोत्र और यज्ञ आदि, कालाग्नि से लेकर शिवपर्यन्त भुवन, उनके अधिपति, असंख्य ब्रह्माण्ड, उनके आवरण, वर्तमान, भूत और भविष्य, दिशा-विदिशाएं, कला आदि काल के भिन्न-भिन्न भेद तथा जो कुछ भी इस जगत में देखा और सुना जाता है, वह सब भगवान् शङ्कर आज्ञा के बल से ही टिका हुआ है । उनकी आज्ञा के ही बल से यहाँ पृथ्वी, पर्वत, मेघ, समुद्र, नक्षत्रगण, इन्द्रादि देवता, स्थावर, जंगम अथवा जड़ और चेतन - सबकी स्थिति है ।</span></div>
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<span style="color: #b45f06;">ॐ नमः शिवाय शुभं शुभं कुरु कुरु शिवाय नमः ॐ</span></div>
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<b>पांच प्रकार के जप (वाचिक, उपांशु, मानस, अगर्भ, सगर्भ) </b></div>
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मानस जप उत्तम है, उपांशु जप मध्यम है तथा वाचिक जप उससे निम्नकोटि का माना गया है - ऐसा आगमार्थविशारद विद्वानों का कथन है । जो ऊंचे-नीचे स्वर से युक्त तथा स्पष्ट और अस्पष्ट पदों एवं अक्षरों के साथ मन्त्र का वाणी द्वारा उच्चारण करता है, उसका यह जप 'वाचिक' कहलाता है । जिस जप में केवल जिह्वा मात्र हिलती है अथवा बहुत धीमे स्वर से अक्षरों का उच्चारण होता है तथा जो दूसरों के कान में पड़ने पर भी उन्हें कुछ सुनाई नहीं देता, ऐसे जप को 'उपांशु' कहते हैं । जिस जप में अक्षर पङ्क्ति का एक वर्ण से दूसरे वर्ण का, एक पद से दूसरे पद का तथा शब्द और अर्थ का मन के द्वारा बारम्बार चिन्तनमात्र होता है, वह 'मानस' जप कहलाता है । वाचिक जप एकगुणा ही फल देता है, उपांशु जप सौ गुना फल देने वाला बताया गया है, मानस जप का फल सहस्त्र गुना कहा गया है तथा सगर्भ जप उससे सौगुना अधिक फल देनेवाला है । प्राणायामपूर्वक जो जप होता है उसे 'सगर्भजप' कहते हैं । अगर्भजप में भी आदि और अन्त में प्राणायाम कर लेना श्रेष्ठ बताया गया है । मन्त्रार्थवेत्ता बुद्धिमान साधक प्राणायाम करते समय चालीस बार मन्त्र का स्मरण कर ले । जो ऐसा करने में असमर्थ हो, वह अपनी शक्ति के अनुसार जितना हो सके, उतने ही मन्त्रों का मानसिक जप कर ले । पांच, तीन अथवा एक बार अगर्भ या सगर्भ प्राणायाम करे । इन दोनों में सगर्भ प्राणायाम श्रेष्ठ माना गया है । सगर्भ के अपेक्षा भी ध्यानसहित जप सहस्त्रगुना फल देनेवाला कहा जाता है । इन पांच प्रकार के जपों में कोई एक जप अपनी शक्ति के अनुसार करना चाहिए ।<br />
अंगुली से जप की गणना करना एक गुना बताया गया है । रेखा से गणना करना आठगुना उत्तम समझना चाहिए । पुत्रजीव(जियापोता) के बीजों की माला से गणना करनेपर जप का दसगुना अधिक फल होता है । शङ्ख के मनकों से सौ गुना, मूंगों से हजारगुना, स्फटिक मणि की माला से दस हज़ार गुना, मोतियों की माला से लाख गुना, पद्माक्ष से दस लाख गुना और सुवर्ण के बने हुए मनको से गणना करनेपर कोटिगुना अधिक फल बताया गया है । कुश की गाँठ से तथा रुद्राक्ष से गणना करनेपर अनन्तगुणे फल की प्राप्ति होती है । तीस रुद्राक्ष के दानों से बनायीं गयी माला जप-कर्म में धन देनेवाली होती है । सत्ताईस दानों की माला पुष्टिदायिनी और पच्चीस दानों की माला मुक्तिदायिनी होती है, पंद्रह रुद्राक्षों की बनी माला अभिचार कर्म में फलदायक होती है । जपकर्म में अंगूठे को मोक्षदायक समझना चाहिए और तर्जनी को शत्रुनाशक ! मध्यमा धन देती है और अनामिका शांति प्रदान करती है । एक सौ आठ दानों की माला उत्तमोत्तम मानी गयी है । सौ दानों की माला उत्तम और पचास दानों की माला मध्यम होती है । चौवन दानों की माला मनोहारिणी एवं श्रेष्ठ कही गयी है । इस तरह की माला से जप करे । वह जप किसी को दिखाए नहीं । कनिष्ठिका ऊँगली अक्षरिणी(जप के फल को क्षरित - नष्ट न करनेवाली) मानी गयी है; इसलिए जपकर्म में शुभ है । दूसरी अँगुलियों के साथ अंगुष्ठ द्वारा जप करना चाहिए; क्योंकि अंगुष्ठ के बिना किया हुआ जप निष्फल होता है ।<br />
घर में किये हुए जप को समान या एकगुणा समझना चाहिए । गोशाला में उसका फल सौगुना हो जाता है, पवित्र वन या उद्यान में किये हुए जप का फल सहस्त्रगुना बताया जाता है । पवित्र पर्वत पर दस हज़ार गुना, नदी के तट पर लाख गुना, देवालय में कोटि गुना और मेरे निकट किये हुए जप को अनन्तगुना कहा गया है । सूर्य, अग्नि, गुरु, चन्द्रमा, दीपक, जल, ब्राह्मण और गौओं के समीप किया हुआ जप श्रेष्ठ होता है । पूर्वाभिमुख किया हुआ जप वशीकरण में और दक्षिणाभिमुख किया हुआ जप अभिचारकर्म में सफलता देने वाला है । पश्चिमाभिमुख जप को धनदायक जानना चाहिए और उत्तराभिमुख जप शांतिदायक होता है । सूर्य, अग्नि, ब्रह्मा, देवता तथा अन्य श्रेष्ठ पुरुषों के समीप उनकी ओर पीठ करके जप नहीं करना चाहिए, सिर पर पगड़ी रखकर, कुर्ता पहनकर, नंगा होकर, बाल खोलकर, गले में कपड़ा लपेटकर, अशुद्ध हाथ लेकर, सम्पूर्ण शरीर से अशुद्ध रहकर तथा विलापपूर्वक कभी जप नहीं करना चाहिए । जप करते समय क्रोध, मद, छींकना, थूकना, जम्भाई लेना तथा कुत्तों और नीच पुरुषों की ओर देखना वर्जित है । यदि कभी वैसा सम्भव हो जाय तो आचमन करके अथवा तुम्हारे साथ मेरा (पार्वतीसहित शिव का) स्मरण करे या ग्रह-नक्षत्रों का दर्शन करे अथवा प्राणायाम कर ले ।<br />
बिना आसान के बैठकर, सोकर, चलते-चलते अथवा खड़ा होकर जप न करे । गली में या सड़क पर, अपवित्र स्थान में तथा अँधेरे में भी जप न करे । दोनों पाँव फैलाकर, कुक्कुट आसन से बैठकर, सवारी या खाटपर चढ़कर अथवा चिन्ता से व्याकुल होकर जप न करे । यदि शक्ति हो तो इन सब नियमों का पालन करते हुए जप करे और अशक्त पुरुष यथाशक्ति जप करे । इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ ? संक्षेप से मेरी यह बात सुनो । सदाचारी मनुष्य शुद्धभाव से जप और ध्यान करके कल्याण का भागी होता है । आचार परम धर्म है, आचार उत्तम धन है, आचार श्रेष्ठ विद्या है और आचार ही परम गति है । आचारहीन पुरुष संसार में निन्दित होता है और परलोक में भी सुख नहीं पाटा । इसलिए सबको आचारवान होना चाहिए । वेदज्ञ विद्वानों ने वेद-शास्त्र के कथनानुसार जिस वर्ण के लिए जो कर्म विहित बताया है, उस वर्ण के पुरुष को उसी कर्म का सम्यक आचरण करना चाहिए । वही उसका सदाचार है, दूसरा नहीं । सत्पुरुषों ने उसका आचरण किया है; इसीलिए वह सदाचार कहलाता है । उस सदाचार का भी मूल कारण आस्तिकता है । यदि मनुष्य आस्तिक हो तो प्रमाद आदि के कारण सदाचार से कभी भ्रष्ट हो जानेपर भी दूषित नहीं होता । अतः सदा आस्तिकता का आश्रय लेना चाहिए । जैसे इहलोक में सत्कर्म करने से सुख और दुष्कर्म करने से दुःख होता है, उसी तरह परलोक में भी होता है - इस विश्वास को आस्तिकता कहते हैं ।<br />
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रेचक आदि नाड़ीशोधनपूर्वक जो प्राणायाम का अभ्यास किया जाता है, उसे स्वेच्छा से उत्क्रमणपर्यन्त करते रहना चाहिए - यह बात योगशास्त्र में बताई गयी है । कनिष्ठ आदि के क्रम से प्राणायाम चार प्रकार का कहा गया है । मात्रा और गुणों के विभाग - तारतम्य से ये भेद बनते हैं । चार भेदों में से जो कन्याक या कनिष्ठ प्राणायाम है, यह प्रथम उद्घात कहा गया है; इसमें बारह मात्राएं होती हैं । उत्तम श्रेणी का प्राणायाम तृतीय उद्घात है, उसमें छत्तीस मात्राएं होती हैं । उससे भी श्रेष्ठ जो सर्वोत्कृष्ट चतुर्थ प्राणायाम है, वह शरीर में स्वेद और कम्प आदि का जनक होता है ।<br />
<br />
योगी के अन्दर आनन्दजनित रोमाञ्च, नेत्रों से अश्रुपात, जल्प, भ्रान्ति और मूर्च्छा आदि भाव प्रकट होते हैं । घुटने के चारों ओर प्रदक्षिण-क्रम से न बहुत जल्दी और न बहुत धीरे-धीरे चुटकी बजाये । घुटने की एक परिक्रमा में जितनी देर तक चुटकी बजती है, उस समय का मान एक मात्रा है । मात्राओं को क्रमशः जानना चाहिए । उद्घात क्रम-योग से नाड़ीशोधनपूर्वक प्राणायाम करना चाहिए । प्राणायाम के दो भेद बताये गए हैं - अगर्भ और सगर्भ । जप और ध्यान के बिना किया गया प्राणायाम 'अगर्भ' कहलाता है और जप तथा ध्यान के सहयोगपूर्वक किये जानेवाले प्राणायाम को 'सगर्भ' कहते हैं । अगर्भ से सगर्भ प्राणायाम सौ गुना अधिक उत्तम है । इसलिए योगीजन प्रायः सगर्भ प्राणायाम किया करते हैं । प्राणविजय से ही शरीर की वायुओं पर विजय पायी जाती है । प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जय - ये दस प्राणवायु हैं । प्राण प्रयाण करता है, इसीलिए इसे 'प्राण' कहते हैं । जो कुछ भोजन किया जाता है, उसे जो वायु नीचे ले जाती है, उसको 'अपान' कहते हैं । जो वायु सम्पूर्ण अंगो को बढाती हुई उनमें व्याप्त रहती है, उसका नाम 'व्यान' है । जो वायु मर्मस्थानों को उद्वेजित करती है, उसकी 'उदान' संज्ञा है । जो वायु सब अंगों को समभाव से ले चलती है, वह अपने उस समनयनरूप कर्म से 'समान' कहलाती है । मुख से कुछ उगलने में कारणभूत वायु को 'नाग' कहा गया है । आँख खोलने के व्यापर में 'कूर्म' नामक वायु की स्थिति है । छींक में कृकल और जम्भाई में 'देवदत्त' नामक वायु की स्थिति है । 'धनञ्जय' नामक वायु सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहती है । वह मृतक शरीर को भी नहीं छोड़ती । क्रम से अभ्यास में लाया हुआ यह प्राणायाम जब उचित प्रमाण या मात्रा से युक्त हो जाता है, तब वह करता के सारे दोषों को दग्ध कर देता है और उसके शरीर की रक्षा करता है ।<br />
<br />
प्राण पर विजय प्राप्त जो जाय तो उससे प्रकट होनेवाले चिह्नों को अच्छी तरह देखे । पहली बात यह होती है कि विष्ठा, मूत्र और कफ कि मात्रा घटने लगती है, अधिक भोजन करने कि शक्ति हो जाती है और विलम्ब से सांस चलती है । शरीर में हल्कापन आता है । शीघ्र चलने कि शक्ति प्रकट होती है । ह्रदय में उत्साह बढ़ता है । स्वर में मिठास आती है । समस्त रोगों का नाश हो जाता है । बल, तेज और सौन्दर्य कि वृद्धि होती है । धृति, मेधा, युवापन, स्थिरता और प्रसन्नता आती है । तप, प्रायश्चित्त, यज्ञ, दान और व्रत आदि जितने भी साधन हैं - ये प्राणायाम के सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हैं । अपने-अपने विषय में आसक्त हुई इन्द्रियों को वहां से हटाकर जो अपने भीतर निगृहीत करता है, उस साधन को 'प्रत्याहार' कहते हैं । मन और इन्द्रियां ही मनुष्य को स्वर्ग तथा नर्क में ले जाने वाली हैं । यदि उन्हें वश में रखा जाय तो वे स्वर्ग की प्राप्ति कराती हैं और विषयों की ओर खुली छोड़ दिया जाय तो वे नर्क में डालनेवाली होती हैं । इसलिए सुख की इच्छा रखनेवाले बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि वह ज्ञान-वैराग्य का आश्रय ले इन्द्रियरूपी अश्वों को शीघ्र ही काबू में करके स्वयं ही आत्मा का उद्धार करे ।<br />
<br />
<b>*<span style="color: #b45f06;">उद्घात </span></b>अर्थ नाभिमूल से प्रेरणा की हुई वायु का सर में टक्कर खाना है । यह प्राणायाम में देश, काल और संख्या परिमाण है ।<br />
<b>*</b>योगसूत्र में चतुर्थ प्राणायाम का पर्चे इस प्रकार दिया गया है - '<span style="color: #b45f06;">बाह्यान्तरविषयाक्षेपि चतुर्थः</span>' अर्थात बाह्य और आभ्यन्तर विषयों को फेंकनेवाला प्राणायाम चौथा है ।<br />
<br />
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<b>योग के अनेक भेद, उसके आठ और छः अंगों का विवेचन </b></div>
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<span style="color: #b45f06;">श्रीकृष्ण ने कहा: </span>भगवन्! आपने ज्ञान, क्रिया और चर्या का सक्षिप्त सार उद्धृत करके मुझे सुनाया है । यह सब श्रुति के समान आदरणीय है और इसे मैंने ध्यानपूर्वक सुना है । अब मैं अधिकार, अंग, विधि और प्रयोजनसहित परम दुर्लभ योग का वर्णन सुनना चाहता हूँ । यदि योग आदि का अभ्यास करने से पहले ही मृत्यु हो जाय तो मनुष्य आत्मघाती होता है; अतः आप योग का कोई ऐसा साधन बताइये जिसे शीघ्र सिद्ध किया जा सके, जिससे कि मनुष्य को आत्मघाती न होना पड़े । योग का वह अनुष्ठान, उसका कारण, उसके लिए उपयुक्त समय, साधन तथा उसके भेदों का तारतम्य क्या है ?<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">उपमन्यु बोले: </span>श्रीकृष्ण ! तुम सब प्रश्नो के तारतम्य के ज्ञाता हो । तुम्हारा यह प्रश्न बहुत ही उचित है, इसलिए मैं इन सब बातों पर क्रमशः प्रकाश डालूंगा । तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो । जिसकी दूसरी वृत्तियों का निरोध हो गया है, ऐसे चित्त कि भगवान् शिव में जो निश्चल वृत्ति है, उसी को संक्षेप से 'योग' कहा गया है । यह योग पांच प्रकार का है - मन्त्र योग, स्पर्शयोग, भावयोग, अभावयोग और महायोग । मंत्रजप के अभ्यासवश मन्त्र के वाच्यार्थ में स्थित हुई विक्षेपरहित जो मन की वृत्ति है, उसका नाम मंत्रयोग है। मन की वही वृत्ति जब प्राणायाम को प्रधानता दे तो उसका नाम 'स्पर्शयोग' होता है । वही स्पर्शयोग जब मन्त्र के स्पर्श से रहित हो तो 'भावयोग' कहलाता है । जिससे सम्पूर्ण विश्व के रूपमात्र का अवयव विलीन (तिरोहित) हो जाता है, उसे 'अभावयोग' कहा जाता है; क्योंकि उस समय सद्वस्तु का भी मान नहीं होता । जिससे एकमात्र उपाधिशून्य शिवस्वभाव का चिन्तन किया जाता है और मन की वृत्ति शिवमयी हो जाती है, उसे 'महायोग' कहते हैं ।<br />
देखे और सुने गए लौकिक और पारलौकिक विषयों की ओर से जिसका मन विरक्त हो गया हो, उसी का योग में अधिकार है, दुसरे किसी का नहीं है । लौकिक और पारलौकिक, दोनों विषयों के दोषों का और ईश्वर के गुणों का सदा ही दर्शन करने से मन विरक्त होता है । प्रायः सभी योग आठ या छः अंगों से युक्त होते हैं । यम, नियम, स्वस्तिक आदि आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि - ये विद्वानों ने योग के आठ अंग बताये हैं । आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि - ये थोड़े में योग के छः लक्षण हैं । शिव शास्त्र में इनके पृथक-पृथक लक्षण बताये गए हैं । अन्य शिवागमों में, विशेषतः कामिक आदि में, योग-शास्त्रों में और किन्ही-किन्ही पुराणों में भी इनके लक्षणों का वर्णन है । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन्हें सत्पुरुषों ने यम कहा है । इस प्रकार यम पांच अवयवों के योग से युक्त है । शौच, संतोष, तप, जप(स्वाध्याय) और प्रणिधान - इन पांच भेदों से युक्त दुसरे योगांग को नियम कहा गया है । तात्पर्य यह कि नियम अपने अंशों के भेद से पांच प्रकार का है । आसन के आठ भेद कहे गए हैं - स्वस्तिक आसन, पद्मासन, अर्धचंद्रासन, वीरासन, योगासन, प्रसाधितासन, पर्यङ्कासन और अपनी रूचि के अनुसार आसन । अपने शरीर में प्रकट हुई जो वायु है, उसको प्राण कहते हैं । उसे रोकना ही उसका आयाम है । उस प्राणायाम के तीन भेद कहे गए हैं - रेचक, पूरक और कुम्भक । नासिका के एक छिद्र को दबाकर या बंद करके दूसरे से उदरस्थित वायु को निकाले। इस क्रिया को रेचक कहा गया है । फिर दूसरे नासिका छिद्र के द्वारा बाह्य वायु से शरीर को धौंकनी की तरह भर लें । इसमें वायु के पूर्ण की क्रिया होने के कारण इसे 'पूरक' कहा गया है । जब साधक भीतर की वायु को न तो छोड़ता है न बाहर की वायु को ग्रहण करता है, केवल भरे हुए घड़े की भान्ति अविचल भाव से स्थित रहता है, तब उस प्राणायाम को 'कुम्भक' नाम दिया जाता है । योग के साधक को चाहिए कि वह रेचक आदि तीनों प्राणायामों को न तो बहुत जल्दी जल्दी करे और न बहुत देर से करे । साधना के लिए उद्यत हो क्रमयोग से उसका अभ्यास करे ।<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b>भगवान् शङ्कर के भजन-पूजन के लिए अग्निकार्य के वर्णन से अग्नि की व्याख्या</b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>--------------------------------------------------------------------------------------------------</b></div>
<br />
अग्निकुण्ड तैयार करके ब्रह्मवृक्ष(पलास या गूलर) आदि के छिद्ररहित बिछले दो पत्ते लेकर उन्हें कुश से पोंछे और अग्नि में तपकर उनका प्रोक्षण करें । उन्हीं पत्तों को स्रुक और स्त्रुवा का रूप दे उनमें घी उठाये और अपने गृह्यसूत्र में बताये हुए क्रम से शिवबीज (ॐ) सहित आठ बीजाक्षरों द्वारा अग्नि में आहुति दे । इससे अग्नि का संसार संपन्न होता है । वे बीज इस प्रकार हैं - <b>भ्रुं, स्तुं, ब्रुं, श्रुं, पुं, ड्रुं, द्रुं</b> । ये साथ हैं, इनमें शिवबीज (ॐ) को सम्मिलित कर लेनेपर <span style="color: #b45f06;">आठ बीजाक्षर</span> होते हैं । उपर्युक्त साथ बीज क्रमशः अग्नि की साथ जिह्वाओं के हैं । उनकी मध्यमा जिह्वा का नाम बहुरूपा है । उसकी तीन शिखाएं हैं । उनमें से एक शिखा दक्षिण में और दूसरी वाम दिशा (उत्तर) में प्रज्वलित होती है और बीचवाली शिखा बीच में ही प्रकाशित होती है । ईशानकोण में जो जिह्वा है, उसका नाम हिरण्या है । पुर्वदिशा में विद्यमान जिह्वा कनका नाम से प्रसिद्ध है । अग्निकोण में रक्ता, नैऋत्यकोण में कृष्णा और वायव्यकोण में सुप्रभा नाम की जिह्वा प्रकाशित होती है । इनके अतिरिक्त पश्चिम में जो जिह्वा प्रज्वलित होती है, उसका नाम मरुत यही । इन सबकी प्रभा अपने-अपने नाम के अनुरूप है । अपने-अपने बीज के अनन्तर क्रमशः इनका नाम लेना चाहिए और नाम के अंत में स्वाहा का प्रयोग करना चाहिए । इस तरह जो जिह्वामन्त्र बनते हैं, उनके द्वारा क्रमशः प्रत्येक जिह्वा के लिए एक एक घी की आहुति दे, परन्तु मध्यमा की तीन जिह्वाओं के लिए तीन आहुतियां दे ।<br />
<br />
<b>जिह्वामन्त्र - </b><br />
ओं भ्रुं त्रिशिखायै बहुरूपायै स्वाहा(दक्षिण मध्ये उत्तर च) ३ ।<br />
ओं स्तुं हिरण्यायै स्वाहा(ऐशान्यै) १ ।<br />
ओं ब्रुं कनकायै स्वाहा(पूर्वस्याम्) १ ।<br />
ओं श्रुं रक्तायै स्वाहा(आग्नेय्याम्) १ ।<br />
ओं पुं कृष्णायै स्वाहा(नैऋत्याम्) १ ।<br />
ओं ड्रुं सुप्रभायै स्वाहा(पश्चिमायाम्) १ ।<br />
ओं द्रुं मरुज्जिह्वायै स्वाहा(वायव्ये) १ ।<br />
<span style="text-align: center;"><span style="color: #b45f06;">(शिव पुराण, वायव्य संहिता, उत्तर खण्ड, अध्याय २३)</span></span><br />
<span style="text-align: center;"><span style="color: #b45f06;"><br /></span></span></div>
<div style="text-align: left;">
<b>विधेर्विष्णोर्हराद्वापि पतिरेकोऽधिको मतः।</b></div>
<div style="text-align: left;">
<b>पतिव्रताया देवेशि स्वपतिः शिव एव च।।</b></div>
<div style="text-align: left;">
(शि. पु. रु. सं. पा. खं. ५४। ४३ )<br />
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
पतिव्रता नारि के लिए एकमात्र पति ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव से भी अधिक माना गया है, उसके लिए अपना पति शिवरूप ही है ।</div>
<div style="text-align: left;">
<br />
<br />
<b>भर्ता देवो गुरुर्भर्ता धर्मतीर्थव्रतानि च ।</b><br />
<b>तस्मात्सर्वं परित्यज्य पतिमेकं समर्चयेत् ।।</b><br />
(शि. पु. रु. सं. पा. खं. ५४। ५१ )<br />
<br />
पति हे देवता है, पति ही गुरु है और पति ही धर्म, तीर्थ एवं व्रत है; इसलिए सबको छोड़कर एकमात्र पति की ही आराधना करनी चाहिए ।<br />
<br />
<b><br /></b>
<br />
<div class="" data-block="true" data-editor="9p0dg" data-offset-key="94bi9-0-0" style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">
<div class="_1mf _1mj" data-offset-key="94bi9-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;">
<span data-offset-key="94bi9-0-0" style="font-family: inherit;"><b>आचारः परमो धर्मः आचारः परमं धनम् । आचारः परमा विद्या आचारः परमा गतिः ।।</b></span></div>
</div>
<div class="" data-block="true" data-editor="9p0dg" data-offset-key="2v6l8-0-0" style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">
<div class="_1mf _1mj" data-offset-key="2v6l8-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;">
<span data-offset-key="2v6l8-0-0" style="font-family: inherit;"><b>आचारहीनः पुरुषो लोके भवति निन्दितः । परत्र च न सुखी न स्यात्तस्मादाचारवान् भवेत् ।।</b></span></div>
</div>
<div class="" data-block="true" data-editor="9p0dg" data-offset-key="ahc7-0-0" style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">
<div class="_1mf _1mj" data-offset-key="ahc7-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;">
<span data-offset-key="ahc7-0-0" style="font-family: inherit;">(शि. पु. वा. सं. उ. ख. १४। ५५-५६)</span></div>
</div>
<div class="" data-block="true" data-editor="9p0dg" data-offset-key="94vqj-0-0" style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">
<div class="_1mf _1mj" data-offset-key="94vqj-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;">
<span data-offset-key="94vqj-0-0" style="font-family: inherit;"><br data-text="true" /></span></div>
</div>
<div class="" data-block="true" data-editor="9p0dg" data-offset-key="cn1ia-0-0" style="background-color: white; color: #1d2129; font-family: Helvetica, Arial, sans-serif; font-size: 14px; white-space: pre-wrap;">
<div class="_1mf _1mj" data-offset-key="cn1ia-0-0" style="direction: ltr; font-family: inherit; position: relative;">
<span data-offset-key="cn1ia-0-0" style="font-family: inherit;">आचार परम धर्म है, आचार उत्तम धन है, आचार श्रेष्ठ विद्या है, आचार ही परम गति है । अचारहीन पुरुष संसार में निन्दित होता है और परलोक में भी सुख नहीं पाता। इसलिए सबको आचारवान् होना चाहिए । </span></div>
</div>
<br /></div>
</div>
<div style="text-align: center;">
<pre style="overflow-wrap: break-word; text-align: start; white-space: pre-wrap;"></pre>
</div>
Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-69130287730701222982019-05-30T02:12:00.000+05:302020-05-20T11:27:31.947+05:30आदिशंङ्कराचार्यकृत प्रश्नोत्तरमाला<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></b>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपारसंसार समुद्रमध्ये सम्मज्जतो मे शरणं किमस्ति। </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गुरो कृपालो कृपया वदैतद्विश्वेशपादाम्बुजदीर्घनौका। १ । </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></b>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: हे दयामय गुरुदेव ! कृपा करके यह बताइये कि अपार संसार रुपी समुद्र में मुझ डूबते हुए का आश्रय क्या है?</span><br />
<br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: विश्वपति परमात्मा के चरणकमलरूपी जहाज। </span><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></b>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बद्धो हि को यो विषयानुरागी</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का वा विमुक्तिर्विषये विरक्तिः।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को वास्ति घोरो नरकः स्वदेह-</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">स्तृष्णाक्षयः स्वर्गपदं किमस्ति। 2 ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: वास्तव में बंधा कौन है? -</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो विषयों में आसक्त है।</span><br />
<div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: विमुक्ति क्या है?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: विषयों से वैराग्य।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: घोर नरक क्या है?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: अपना शरीर।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: स्वर्ग का पद क्या है?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: तृष्णा का नाश होना।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संसारहृत्कः श्रुतिजात्मबोधः को मोक्षहेतुः कथितः स एव।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">द्वारं किमेकं नरकस्य नारी का स्वर्गदा प्राणभृतामहिंसा। ३ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: संसार को हरनेवाला कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: वेद से उत्पन्न आत्मज्ञान ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: मोक्ष का कारण क्या कहा गया है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: वही आत्मज्ञान ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: नरक का प्रधान द्वार क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: नारी ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: स्वर्ग को देनेवाली क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जीवमात्र की अहिंसा ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शेते सुखं कस्तु समाधिनिष्ठो जागर्ति को व सदसद्विवेकी।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के शत्रवः सन्ति निजेन्द्रियाणि तान्येव मित्राणि जितानि यानि। ४ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: (वास्तव में) सुख से कौन सोता है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो परमत्मा के स्वरुप में स्थित है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: और कौन जागता है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: सत और असत के तत्व का जानने वाला ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: शत्रु कौन हैं ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: अपनी इन्द्रियां; परन्तु जो जीती हुई हों तो वही मित्र हैं ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को वा दरिद्रो हि विशालतृष्णः श्रीमांश्च को यस्य समस्ततोषः।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जीवन्मृतः कस्तु निरुद्यमो यः किं वामृतं स्यात्सुखदा निराशा। ५ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: दरिद्र कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: भारी तृष्णा वाला ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: धनवान कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जिसे सब तरह से संतोष है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: (वास्तव में) जीते जी मरा कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो पुरुषार्थहीन है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: अमृत क्या हो सकता है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: सुख देने वाली निराशा (आशा से रहित होना) ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पाशो हि को यो ममताभिमानः सम्मोहयत्येव सुरेव का स्त्री।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को वा महान्धो मदनातुरो यो मृत्युश्च को वापयशः स्वकीयम् । ६ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: वास्तव में फांसी क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो 'मैं' और 'मेरा' पन है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: मदिरा की तरह क्या चीज़ निश्चय ही मोहित कर देती है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: नारी ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: बड़ा भारी अन्धा कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो कामवश व्याकुल है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: मृत्यु क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: अपनी अपकीर्ति ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को व गुरुर्यो हि हितोपदेष्टा </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शिष्यस्तु को यो गुरुभक्त एव।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को दीर्घरोगो भव एव साधो</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किमौषधं तस्य विचार एव। ७ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: गुरु कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो केवल हित का ही उपदेश करनेवाला है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: शिष्य कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो गुरु का भक्त है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: बड़ा भरी रोग क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: हे साधो ! बार बार जन्म लेना ही ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: उसकी दवा क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: परमात्मा के स्वरुप का मनन ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किं भूषणाद्भूषणमस्ति शीलं</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तीर्थं परं किं स्वमानो विशुद्धं।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किमत्र हेयं कनकं च कान्ता</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">श्राव्यं सदा किं गुरुवेदवाक्यं । ८ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: भूषणो में उत्तम भूषण क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: उत्तम चरित्र ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: सबसे उत्तम तीर्थ क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: अपना मन जो विशेष रूप से शुद्ध किया हुआ हो ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: इस संसार में त्यागने योग्य क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: काञ्चन और कामिनी ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: सदा(मन लगाकर) सुनने योग्य क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: वेद और गुरु का वचन ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के हेतवो ब्रह्मगतेस्तु सन्ति </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सत्संङ्गतिर्दानविचारतोषाः</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के सन्ति सन्तोऽखिलवीतरागा </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अपास्तमोहाः शिवतत्त्वनिष्ठाः । ९ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: परमात्मा की प्राप्ति के लिए क्या क्या साधन हैं ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: सत्संग, सात्विक दान, परमेश्वर के स्वरुप का मनन और संतोष ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: महात्मा कौन हैं ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: सम्पूर्ण संसार से जिनकी आसक्ति नष्ट हो गयी है, जिनका अज्ञान नाश हो चुका है और जो कल्याण रूप परमात्मतत्त्व में स्थित हैं ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को वा ज्वरः प्राणभृतां हि चिन्ता</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मूर्खोस्ति को यस्तु विवेकहीनः।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कार्या प्रिया का शिवविष्णुभक्तिः </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किं जीवनं दोषविवर्जितं यत् । १० ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: प्राणियों के लिए वास्तव में ज्वर क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: चिन्ता ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: मूर्ख कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो विचारहीन है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: करनेयोग्य प्यारी क्रिया क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: शिव और विष्णु की भक्ति ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: वास्तव में जीवन कौन सा है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो सर्वथा निर्दोष है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विद्या हि का या ब्रह्मगतिप्रदा या </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बोधो हि को यस्तु विमुक्तिहेतुः ।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को लाभ आत्मावगमो हि यो वै</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जितं जगत्केन मनो हि येन । ११ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: वास्तव में विद्या कौन सी है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो परमात्मा को प्राप्त करा देने वाली है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: वास्तविक ज्ञान क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो (यथार्थ) मुक्ति का कारण है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: यथार्थ लाभ क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो परमात्मा कि प्राप्ति है, वही ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: जगत को किसने जीता ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जिसने मन को जीता ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शूरान्महाशूरतमोऽस्ति को वा </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मनोजबाणैर्व्यथितो न यस्तु।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राज्ञोऽथ धीरश्च समस्तु को वा </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राप्तो न मोहं ललनाकटाक्षैः। १२ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: वीरों में सबसे बड़ा वीर कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो कामबाणों से पीड़ित नहीं होता ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: बुद्धिमान, समदर्शी और धीरपुरुष कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो स्त्रियों के कटाक्षों से मोह को प्राप्त न हो ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विषाद्विषम् किं विषयाः समस्ता </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दुःखी सदा को विषयानुरागी। </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">धन्योस्ति को यो परोपकारी </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कः पूजनीयः शिवतत्वनिष्ठः। १३ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: विष से भी भारी विष कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: सारे विषयभोग ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: सदा दुःखी कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो संसार के भोगों में आसक्त है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: धन्य कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो परोपकारी है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: पूजनीय कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: कल्याणरूप परमात्मतत्व में स्थित महात्मा ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विज्ञान्महाविज्ञतमोऽस्ति को वा</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">नार्या पिशाच्या न च वञ्चितो यः।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का शृंखला प्राणभृतां हि नारी </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">दिव्यं व्रतं किं च समस्तदैन्यम् । १५ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: समझदारों में सबसे अच्छा समझदार कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो स्त्रीरूप पिशाचिनी से नहीं ठगा गया है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: प्राणियों के लिए सांकल क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: नारी ही ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: श्रेष्ठ व्रत क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: पूर्ण रूप से विनयभाव ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्ञातुं न शक्यं च किमस्ति सर्वै-</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">र्योषिन्मनो यच्चरितं तदीयम् ।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">का दुस्त्यजा सर्वजनैर्दुराशा </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विद्याविहीनः पशुरस्ती को वा । १६ । </span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: सब किसी के लिए क्या जानना सम्भव नहीं है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: स्त्री का मन और उसका चरित्र ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: सब लोगों के लिए क्या त्यागना कठिन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: बुरी वासना (विषयभोग और पाप की इच्छाएं)</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: पशु कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो सद्विद्या से रहित(मूर्ख) है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वासो न सङ्गः सह कैर्विधेयो</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मूर्खैश्च नीचैश्च खलैश्च पापैः ।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मुमुक्षुणा किं त्वरितं विधेयं </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सतसङ्गतिर्निममतेशभक्तिः । १७ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: किन-किन के साथ निवास और संग नहीं करना चाहिए ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: मूर्ख, नीच, दुष्ट और पापियों के साथ ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: मुक्ति चाहनेवालों को तुरन्त क्या करना चाहिए ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: सत्संग, ममता का त्याग और परमेश्वर की भक्ति ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लघुत्वमूलं च किमर्थितैव</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">गुरुत्वमूलं यदयाचनं च ।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">जातो हि को यस्य पुनर्न जन्म</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को वा मृतो यस्य पुनर्न मृत्युः । १८ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: छोटेपन की जड़ क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: याचना हि ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: बड़प्पन की जड़ क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: कुछ भी न माँगना ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: किसका जन्म सराहनीय है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जिसका फिर जन्म न हो ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: किसकी मृत्यु सराहनीय है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जिसकी फिर मृत्यु नहीं होती ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><b><br /></b>
<b>मूकोऽस्ति को वा बधिरश्च को वा</b></span><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वक्तुं न युक्तं समाये समर्थः।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तथ्यं सुपथ्यं न शृणोति वाक्यं </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विश्वासपात्रं न किमस्ति नारि । १९ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: गूंगा कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो समयपर उचित वचन कहने में समर्थ नहीं है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: और बहिरा कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो यथार्थ और हितकर वचन नहीं सुनता ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: विश्वास के योग्य कौन नहीं है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: नारी ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तत्त्वं किमेकं शिवमद्वितीयं</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किमुत्तमं सच्चरितं यदस्ति ।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">त्याज्यं सुखं किं स्त्रियमेव सम्यग </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">देयं परं किं त्वभयं सदैव । २० ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: एक तत्त्व क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: अद्वितीय कल्याण तत्व (परमात्मा) ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: सबसे उत्तम क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो उत्तम आचरण है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: कौन सा सुख तज देना चाहिए ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: सब प्रकार से स्त्री का सुख ही ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: देने योग्य उत्तम दान क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: सदा अभय ही ।</span><br />
<div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शत्रोर्महाशत्रुतमोऽस्ति को वा</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कामः सकोपानृतलोभतृष्णः।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">न पूर्यते को विषयैः स एव</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किं दुःखमूलं ममताभिधानम् । २१ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: शत्रुओं में सबसे बड़ा भारी शत्रु कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: क्रोध, झूठ, लोभ और तृष्णासाहित काम ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: विषयभोगों से कौन तृप्त नहीं होता ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: वही काम ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: दुःख की जड़ क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: ममता नामक दोष ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किं मण्डनं साक्षरता मुखस्य </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सत्यं च किं भूतहितं सदैव ।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किं कर्म कृत्वा न हि शोचनीयं </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कामारिकंसारिसमर्चनाख्यम् । २२ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: मुख का भूषन क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: विद्वता</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: सच्चा कर्म क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: सदा ही प्राणियों का हित करना ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: कौन सा कर्म करके पछताना नहीं पड़ता ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: भगवान शिव और श्रीकृष्ण का पूजनरूप कर्म ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कस्यास्ति नाशे मनसो हि मोक्षः </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्व सर्वथा नास्ति भयं विमुक्तौ।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शल्यं परं किं निजमूर्खतैव </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के के ह्युपास्या गुरुदेव वृद्धाः। २३ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: किसके नाश में मोक्ष है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: मन के ही ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: किस्में सर्वथा भय नहीं है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: मोक्ष में ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: सबसे अधिक चुभने वाली चीज़ कौन सी है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: अपनी मूर्खता ही ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: उपासना के योग्य कौन कौन हैं ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: देवता, गुरु और वृद्ध ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उपस्थिति प्राणहरे कृतान्ते</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किमाशु कार्यं सुधिया प्रयत्नात् ।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">वाक्कायचित्तैः सुखदं यमघ्नं </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मुरारिपादाम्बुजचिन्तनं च। २४ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: प्राण हरनेवाले काल के उपस्थित होने पर अच्छी बुद्धिवालों को बड़े जतन से तुरन्त क्या करना उचित है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: सुख देनेवाले और मृत्यु का नाश करनेवाले भगवान् मुरारि के चरणकमलों का तन, मन, वचन से चिन्तन करना ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के दस्यवः सन्ति कुवासनाख्याः</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कः शोभते यः सदसि प्रविद्यः।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">मातेव का या सुखदा सुविद्या </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किमेधते दानवशात्सुविद्या। २५ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: डाकू कौन हैं ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: बुरी वासनाएं ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: सभा में शोभा कौन पाटा है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो अच्छा विद्वान है ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: माता के समान सुख देनेवाली कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: उत्तम विद्या ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: देने से क्या बढ़ती है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: अच्छी विद्या ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कुतो हि भीतिः सततं विधेया</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">लोकापवादाद्भवकाननाच्च ।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को वातिबन्धुः पितरश्च के वा</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विपत्साहयः परिपालका ये । २६ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: निरन्तर किससे डरना चाहिए ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: लोक-निन्दा से और संसार रुपी वन से ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: अत्यन्त प्यारा बन्धु कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो विपत्ति में सहायता करे ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: और पिता कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो सब प्रकार से पालन-पोषण करे ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">बुद्ध्वा न बोध्यं परिशिष्यते किं </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">शिवप्रसादं सुखबोधरूपम् ।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">ज्ञाते तु कस्मिन्विदितं जगत्स्या-</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">त्सर्वात्मके ब्रह्मणि पूर्णरूपे । २७ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: क्या समझने के बाद कुछ भी समझना बाकी नहीं रहता ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: शुद्ध विज्ञान, आनन्दघन कल्याणरूप परमात्मा को ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: किसको जान लेने पर (वास्तव) में जगत जाना जाता है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: सर्वात्मरूप परिपूर्ण ब्रह्म के स्वरुप को ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किं दुर्लभं सद्गुरुरस्ति लोके</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">सत्संगतिर्ब्रह्मविचारणा च ।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">त्यागो हि सर्वस्व शिवात्मबोधः </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">को दुर्जयः सर्वजनैर्मनोजः । २८ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: संसार में दुर्लभ क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: सद्गुरु, सत्संग, ब्रह्मविचार, सर्वस्व का त्याग और कल्याणरूप परमात्मा का ज्ञान ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: सबके लिए क्या जीतना कठिन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: कामदेव ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">पशोः पशुः को न करोति धर्मं </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्राधीतशास्त्रोऽपि न चात्मबोधः।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किन्तद्विषं भाति सुधोपमं स्त्री</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">के शत्रवो मित्रवदात्मजाद्याः। २९ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: पशुओं से भी बढ़कर पशु कौन है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: शास्त्र का खूब अध्ययन करके जो धर्म का पालन नहीं करता और जिसे आत्मज्ञान नहीं हुआ ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: वह कौन सा विष है जो अमृत सा जान पड़ता है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: नारी ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: शत्रु कौन है जो मित्र सा लगता है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: पुत्र आदि ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">विद्युच्चलं किं धनयौवनायु-</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">र्दानं परं किञ्च सुपात्रदत्तम् ।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कण्ठङ्गतैरप्यसुभिर्न कार्यं</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किं किं विधेयं मलिनं शिवार्चा । ३० ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: बिजली की तरह क्षणिक क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: धन, यौवन और आयु ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: सबसे उत्तम दान कौन सा है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो सुपात्र को दिया जाय ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: कण्ठगत प्राण होने पर भी क्या नहीं करना चाहिए और क्या करना चाहिए ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: पाप नहीं करना चाहिए और कल्याणरूप परमात्मा की पूजा करनी चाहिए ।</span></div>
</div>
<div>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span></div>
<div>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">अहर्निशं किं परिचिन्तनीयं</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">संसारमिथ्या त्वशिवात्मतत्त्वम् ।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">किं कर्म यत्प्रीतिकरं मुरारेः </span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">क्वास्था न कार्या सततं भवाब्धौ । ३१ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: रात-दिन विशेषरूप से क्या चिन्तन करना चाहिए ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: संसार का मिथ्यापन और कल्याणरूप परमात्मा का तत्त्व ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र: वास्तव में कर्म क्या है ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: जो भगवान् श्रीकृष्ण को प्रिय हो ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्र:सदैव किसमें विश्वास नहीं करना चाहिए ?</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">उ: संसार-समुद्र में ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">कण्ठङ्गता वा श्रवणङ्गता वा</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">प्रश्नोत्तराख्या मणिरत्नमाला ।</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">तनोतु मोदं विदुषां सुरम्यं</span></b><br />
<b><span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">रमेशगौरीशकथेव सद्यः । ३२ ।</span></b><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">यह प्रश्नोत्तर नाम की मणिरत्नमाला कण्ठ में या कानो में जाते ही लक्ष्मीपति भगवान् विष्णु और उमापति भगवान् शंकर की कथा की तरह विद्वानों के सुन्दर आनन्द को बढ़ावे ।</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;"><br /></span>
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">हरि ॐ</span><br />
<span style="font-family: "arial" , "helvetica" , sans-serif;">------------------इति स्वामी शंकराचार्यकृत प्रश्नोत्तरी------------------</span></div>
<div>
<br /></div>
Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-53749588136735744922019-05-13T02:52:00.003+05:302019-08-21T19:47:41.157+05:30वाचस्पतिमिश्रकृत सांख्यतत्त्व कौमुदी व्याख्याकार - पं श्री ज्वालाप्रसाद गौड़<br />
<div style="text-align: center;">
<b><br /></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>श्रीगणेशाय नमः</b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>----------------------</b></div>
<br />
<b>अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजाः सृजमानां नमामः।</b><br />
<b>अजा ये तां जुषमाणां भजन्ते जहात्येनां भुक्तभोगां नुमस्तान्।। १ ।।</b><br />
<br />
अर्थ:<br />
हम इस चराचर विश्वरूप बहुत सी प्रजाओं की सृष्टि करनेवाली, नित्य, एक रजोगुण, सत्वगुण, तमोगुणात्मिका अर्थात त्रिगुणात्मिका प्रकृति को नमस्कार करते हैं और उन पुरुषों को भी हम नमस्कार करते हैं, जो पुरुष भी नित्य तथा अनादि हैं; एवं शब्दादि विषय सम्बन्धी उपभोगों को प्रदान करनेवाली उस प्रकृति को भजते हैं तथा अन्त में भुक्तभोग इस प्रकृति को अनात्म वास्तु समझकर छोड़ देते हैं ।<br />
<br />
*यहाँ लोहित शुक्ल कृष्ण वर्ण क्रमश: रजस, सत्त्व तथा तमस-त्रिगुण के लिए प्रयुक्त है। इन तीन गुणों से युक्त एक अजा (अजन्मा) तत्त्व है। इसका भोग करता हुआ एक अज तत्त्व है तथा भोग रहित एक और अज तत्त्व (परमात्मा) है। इस प्रकार यह वाक्य त्रिगुणात्मक प्रसवधर्मि (सृजन करने वाली) प्रकृति का उल्लेख भी करती है। परमात्मा को मायावी कहकर प्रकृति को ही माया कहा गया है।<br />
* इस प्रसंग में पुन: मायावी और माया से बन्धे हुए अन्य तत्त्व जीवात्मा का उल्लेख भी है।*<br />
<br />
<b>कपिलाय महामुनये मुनये शिष्याय तस्य चासुराये ।</b><br />
<b>पञ्चशिखाय तथेश्वरकृष्णायैते नमस्येमाः ।। २ ।।</b><br />
<br />
<b>अर्थ:</b><br />
इसके पश्चात हम महामुनि कपिल एवं उनके शिष्य मुनि आसुरि तथा आसुरि के शिष्य पञ्चशिख और ईश्वरकृष्ण, इनको भी हम नमस्कार करते हैं ।<br />
<br />
<b>दुःखत्रयाभिघाताज्जिज्ञासा तदभिघातके हेतौ ।</b><br />
<b>दृष्टे सापार्था चेन्नैकान्तात्यन्ततोऽभावात् ॥ १ ॥</b><br />
<br />
अन्तःकरण वर्ती त्रिविध दुःखों से चैतन्य शक्ति को भी अपाय होता है, ऐसी भावना उत्पन्न होने पर इनका प्रतिकार किन उपायों से होगा, यह जानने की अभिलाषा होना सहज सिद्ध बात है, यदि कोई कहे कि लोक सिद्ध दृष्ट उपाय सुकर होते हैं, तो शास्त्रीय उपाय का क्या काम? परन्तु यह कहना ठीक नहीं होगा क्योंकि लौकिक उपायों से दुःख अवश्य ही निवृत्त हो जाएगा, ऐसा नहीं कह सकते, अतएव दुःखत्रयों के निवृत्ति होने के लिए शास्त्रीय उपायों को काम में अवश्य लाना चाहिए ।<br />
<br />
इस शास्त्र के विषय में विद्वानों की जिज्ञासा नहीं होवेगी, ऐसा हम प्रतिपादन करते परन्तु कब ?<br />
यदि संसार में दुःख - इस पदार्थ का अभाव होता ? अथवा दुःख होकर भी उसका नाश किसी को अभीष्ट नहीं होता ।<br />
अथवा दुःख नाश करने की इच्छा होते हुए भी दुःख नाश करना अशक्य होता (क्योंकि शास्त्रों में दुःख पदार्थ नित्य बताया गया है अर्थात नित्य होने से नाश होना अशक्य ही है )<br />
तीसरा विकल्प कहते हैं,<br />
अथवा दुःख नाश जब भी शक्य है तो शास्त्र विषय का ज्ञान होना यह सच्चा उपाय न होता ।<br />
चौथा, अथवा कोई दूसरा सुलभ उपाय होता, तब हम प्रतिपादन करते, परन्तु उपरोक्त प्रकार में से यहाँ पर एक भी नहीं है, यदि कहें कि कैसे ? तो नीचे लिखा जाता है, संसार में दुःख है ही नहीं अथवा होकर भी उसका नाश किसी को अभीष्ट नहीं, ऐसा तो कह ही नहीं सकते, क्योंकि इस संसार में आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक; तीन प्रकार का दुःख अनुभव से जाना जाता है ।<br />
<br />
उपरोक्त दुःखत्रयों में पहिला जो आध्यात्मिक दुःख है उसके दो भेद हैं, शारीर और मानस, <span style="color: #b45f06;">शरीरान्तर्गत वात, पित्त और कफ</span> इन तीनो दोषों के विषमता से होने वाला दुःख शारीरिक दुःख कहलाता है तथा <span style="color: #b45f06;">काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, ईर्ष्या, विषाद इष्ट वस्तु का अदर्शन</span> इत्यादि के योग से होने वाला दुःख मानस कहलाता है । यह सब शरीर के आन्तरिक उपाय से साध्य होने के कारण <b>आध्यात्मिक </b>कहलाते हैं ।<br />
<br />
शरीर को छोड़कर उसके बाहरी उपाय द्वारा साध्य-दुःख के <b>आधिभौतिक </b>और <b>आधिदैविक</b>, ऐसे दो प्रकार हैं ।<br />
<br />
उक्त प्रकार में -<span style="color: #b45f06;"> मनुष्य, पशु, मृग, पक्षी, सर्प, वृक्षादि स्थावर पदार्थ</span>; इनके योग से होनेवाला दुःख आधिभौतिक दुःख है तथा <span style="color: #b45f06;">यज्ञ, राक्षस, विनायक ग्रह</span>, इनके योग से होने वाला जो दुःख है, वह आधिदैविक दुःख है ।<br />
<br />
उपरोक्त त्रिविध दुःख प्रत्येक प्राणी के अनुभव में आने योग्य हैं तथा वे दुःखत्रय, रजोगुण का ही एक प्रकार का परिणाम है, इस कारण वे दुःखत्रय नहीं हैं, ऐसा किसी काल में नहीं कह सकते तथा अन्तः करण के ऊपर धर्मरूप से रहने वाले इन त्रिविध दुःखों से चैतन्य शक्ति का "यह वस्तु हमको अनिष्टप्रद है" इस भावना से सम्बन्ध होने के कारण इस अनिष्ट दुःख का नाश हो, ऐसी जिज्ञासा होना योग्य ही है, दुःख, यह रजोगुण का कार्य है, और रजोगुण नित्य है अतः नित्य होने के कार्य का नाश होना, यह बात अशक्य है । अर्थात कारण का अस्तित्व रहने से कार्य का भी आस्तित्व रहता ही है क्योंकि कारण रहते हुए कार्य का सर्वथैव नाश नहीं होता । यह सत्य है, परन्तु उसका अभिभव अर्थात - प्रतिकार होना शक्य है, उस दुःख का प्रतिकार कैसे कर सकते हैं, इसका विवेचन आगे बतलाया गया है ।<br />
<br />
यदि यहाँ पर कोई ऐसी शंका करे कि दुःख है तथा यह नाशवान भी है और इसका प्रतिकार भी शक्य है तथा दुःखप्रतिकारार्थ शास्त्रीय उपाय भी है, तब लोक-प्रसिद्ध सुलभ उपायों को छोड़कर अनेक जन्मों में वह भी महत्कष्ट से साध्य होनेवाले शास्त्रीय उपायों के झंझट में कौन पड़ेगा ? क्योंकि आज समाज में भी कहावत है कि गृहाङ्गण में जो शहत मिल जावे, तो फिर उसके लिए पर्वत पर कौन जावेगा ? वैसे ही अभीष्टार्थ यदि सहज में ही सिद्ध हो, तो उसके लिए ऐसा कौन विद्वान् है जो यत्न करेगा ? "अब दुःख प्रतिकारार्थ सुलभ दृष्ट उपाय बतलाते हैं" शारीरिक दुःख के प्रेतकारार्थ उत्तम वैद्यों के बतलाये हुए सैकड़ों उपाय हैं और मानसिक दुःख निवारणार्थ भी उत्तम स्त्री, अन्न, पान, अभ्यंग, वस्त्र, अलंकार इत्यादि उपाय हैं तथा इनके प्राप्त होने से दुःख का प्रतिकार होना शक्य है । ऐसे ही - आधिभौतिक दुःख के प्रीकारार्थ निति शास्त्राभ्यास निपुणता, शान्त स्थान में वास्तव्य इत्यादि सहज उपाय हैं और आधिदैविक दुःख के लिए मन्त्र, मणि, औषध इत्यादि उपाय अति सुलभ हैं और प्रतिकार भी तुरन्त हो सकता है इस कारण से शास्त्रीय उपायों की जिज्ञासा होना अयुक्त है "परन्तु इन लौकिक उपायों से अभिलषित दुःख निवृत्त होना हिमजल तुल्य है, किन्तु यह स्थूल दृष्टी वालों को क्या मालूम ।<br />
<br />
पूर्वोक्त शंकाओं का निराकरण करते हैं कि यह पूर्वोक्त स्थूल दृक मनुष्य कृतविधान ठीक नहीं है, क्योंकि दृष्ट उपाय हैं परन्तु उन उपायों से दुःख निवृत्त अवश्यमेव होगा ही, ऐसा नहीं कह सकते यदा कदाचित हो भी जावे तो भी उस दुःख कि तथात्सदृश अन्य दुःखों की उत्पत्ति नहीं होवेगी ऐसा अवाधित सिद्धान्त नहीं कह सकते, अस्तु, प्रकृति शास्त्र को दुःख निवृत्ति ही मात्र अभीष्ट नहीं है किन्तु एकान्तिकात्यन्तिक दुःख निवृत्ति अभीष्ट है । 'एकान्त' कहते हैं अवश्यमेव दुःख निवृत्त होने को और 'अत्यन्त' कहते हैं, एक बार निवृत्त दुःख के पुनः न उत्पन्न होने को तो इन दोनों बातों को दृष्ट उपायों में अभाव है अतः मूल में "एकान्तात्यन्ततो भावाद् " कहा है।<br />
<br />
यथाविधि रसायन, कामिनी निति शस्त्राभ्यास, मणि, मंत्रादि यद्यपि लौकिक उपाय सुकर हैं तथापि आध्यात्मिक दुःख निवृत्त्यर्थ उनकी कुछ भी उपयोगिता नहीं देखी जाती इसी कारण इनका वे 'अनैकान्तकत्व' कोटि में समझना चाहिए । क्वचित स्थल में उनकी उपयोगिता भी देखी जाती है परन्तु दुःख की अत्यन्त निवृत्ति नहीं होती अतैव इनको 'अनात्यन्तिकत्व' कहते हैं अर्थात पूर्वोक्त प्रकार के दोषों द्वारा ग्रस्त होने से (मृगजलवत) नोरूप योगी दृष्ट उपायों के झगडे में न पढ़कर विद्वानों को शास्त्रीय(आध्यात्मिक) उपाय आवश्यकीय है ।<br />
<br />
======================<br />
यहाँ यह निश्चित है कि अभिलषित अर्थ(विषय) का प्रतिपादन करनेवाले उपदेष्टा व्यक्ति का वचन (वाक्य) प्रेक्षावानों(बुद्धिमानों) के लिए श्रद्धेय और आदरणीय होता है । और अप्रतिपित्सित(अजिज्ञासित) विषय का प्रतिपादन करने वाले व्यक्ति की प्रेक्षावान लोग - यह न तो लोकव्यवहार का अभिज्ञ(जानने वाला) है और न परीक्षक(प्रमाण द्वारा विषय का विवेचन करनेवाला) ही है - इस प्रकार से उन्मत्त (पागल = बेवक़ूफ़) की तरह उपेक्षा कर देते हैं और इन प्रेक्षावान लोगों का जो जिज्ञास्य विषय है, जिसका परम ज्ञान पुरुषार्थ(मोक्ष) की प्राप्ति का साधन है और आरम्भ किये जाने वाले सांख्यशास्त्र में प्रतिपाद्य पच्चीस तत्त्वात्मक विषयों का यथार्थ ज्ञान ही मोक्ष का साधन है और वह ज्ञान सांख्यशास्त्र से होता है; अतः कारिकाकार ईश्वरकृष्ण उसी सांख्यशास्त्र विषय सम्बन्धी जिज्ञासा का अवतरण देते हैं - 'दुःखत्रयाभिघातात्' इत्यादि कारिका से -<br />
करिकार्य - आध्यात्मिक, आधिभौतिक, आधिदैविक - इन तीन प्रकार के दुखों का आत्मा के साथ अभिघात(सम्बन्ध) होने से विनाशकारणीभूत हेतु को जानने की इच्छा होती है कि दुःख सामान्य के विनाश का कारन कौन है ? यदि लौकिक दृष्ट उपाय से ही वह जिज्ञासा निवृत्त हो जाती है तो फिर क्या आवश्यकता है इतने गहन शास्त्राध्ययन की ?<br />
<br />
इसका उत्तर दिया कि दृष्ट लौकिक उपाय औषधि सेवन आदि से दुःख-निवृत्ति होती है, किन्तु एकान्त-एकान्तिक रूप से तथा अत्यन्त-आत्यन्तिक रूप से नहीं होती है । ( एकान्तम् = दुःखनिवृत्तेर्वश्यं भावः, अत्यन्तम् = निवृत्तस्य दुःखस्य पुनरनुत्पत्तिः, तयोरभावात्) अर्थात दृष्टोपाय से दुःख की निवृत्ति एकान्तिक तथा आत्यन्तिक रूप से कदापि नहीं होती है, इसीलिए दुःख की एकान्तिक तथा आत्यन्तिक रूप से निवृत्ति के लिए सांख्यशास्त्रोक्त उपाय ही ठीक है ।<br />
<br />
है; इस प्रकार से सांख्यशास्त्र के विषय को जानने की इच्छा नहीं हो सकती है, यदि 'दुःख' नाम की वस्तु ही जगत में न हो ? होने पर भी उसे छोड़ने की इच्छा न होती हो, छोड़ने की इच्छा न होते हुए भी दुःख का समुच्छेद(निवृत्ति) अशक्य हो अर्थात शक्तिसाध्य न हो और वह दुःख की समुच्छेदता दो प्रकार से हो सकती है, या तो दुःख नित्य हो अथवा दुःख के उच्छेद(निवृत्ति) के उपाय का ज्ञान न हो अथवा दुःख की निवृत्ति सम्भव होने पर भी सांख्यशास्त्त के विषय का ज्ञान दुःख निवृत्ति(दुःखोच्छेद) का उपाय न हो अथवा उपाय होने पर भी सांख्यशास्त्र प्रतिपाद्य तत्त्वज्ञान की अपेक्षा कोई और दूसरा सरल उपाय हो तब भी सांख्यशास्त्र-प्रतिपाद्य तत्वज्ञान की जिज्ञासा करना व्यर्थ है ।<br />
<br />
परन्तु संसार में दुःख नहीं है, ऐसा भी सम्भव नहीं है; दुःख अनुभव सिद्ध है, अतः अवश्य है अथवा दुःख अजिहासित है अर्थात छोड़ने की इच्छा का विषय नहीं है, यह भी नहीं कहते; इसी अभिप्राय से कारिकाकार कहते हैं - 'दुःखत्रयाभिघातादिति' । तीन प्रकार के दुःख हैं - (१) आध्यात्मिक (२) आधिभौतिक (३) आधिदैविक । इनमें आध्यात्मिक दुःख दो प्रकार का है - शारीरिक और मानसिक । वात, पित्त, कफ (श्लेष्मा) - इनकी विषमता से उत्पन्न दुःख शारीरिक दुःख कहलाता है; और काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, ईर्ष्या तथा विषाद - इन सात कारणों से उत्पन्न एवं स्वाभीष्ट विषय(गुलाबजामुन) आदि की प्राप्ति न होने पर जो दुःख होता है वह मानस दुःख है । यह सब दुःख आन्तरोपायसाध्य होने के नाते आध्यात्मिक दुःख कहलाते हैं ।<br />
<br />
और बाह्योपाय दुःख दो प्रकार का होता है - आधिभौतिक तथा आधिदैविक । उनमें आधिभौतिक दुःख - मनुष्य, पशु, पक्षी, सरीसृप तथा स्थावर (स्थितिशील भूमि वृक्षादि ) के आधार पर उत्पन्न होने वाला दुःख आधिभौतिक दुःख कहलाता है तथा यक्ष, राक्षस, विनायक(विघ्नोत्पादक देवजातिविशेष) एवं शनि ग्रहों आदि के आवेश(नाराज़गी) से होने वाला दुःख आधिदैविक दुःख कहलाता है । अतः प्रत्येक आत्मा को वेदनीय अर्थात अनुभूत होने वाले तथा रजोगुण के परिणामभूत इस दुःख का कदापि प्रत्याख्यान = निराकरण नहीं किया जा सकता है कि दुःख नाम की कोई वस्तु-पदार्थ संसार में है ही नहीं, अत्यादि रूप से । इसलिए अंतःकरणवर्ती इन तीन दुखों के साथ चेतनाशक्ति(पुरुष) का प्रतिकूलवेदनीय होने वाले अभिसम्बन्ध को ही अभिघात कहा है ।<br />
<br />
दुःख के प्रतिकूलवेदनीय होने से ही उसके प्रतिकूलवेदनीयत्व को दुःख के परिहार की इच्छा का कारण बतलाया है । यद्यपि सांख्य के सत्कार्यवाद को स्वीकार करने के नाते दुःख भी सत् है, अतः उसका निरोध=विनाश नहीं हो सकता है । तथापि उसका अभिभव=अनुभूति न होना, किया जा सकता है । यह आगे स्पष्ट हो जाएगा ।<br />
<br />
<br />
<b>दृष्टवादानुश्रविकः स ह्यविशुद्धि क्षयातिशययुक्तः ।</b><br />
<b>तद्विपरीतः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तज्ञ विज्ञानात् ।। २ ।।</b><br />
<br />
अर्थ:<br />
जब कि वह वैदिक उपाय अविशुद्धि(मलिन), क्षय(नाशवान) तथा अतिशय आदि दोषयुक्त है, तब वैदिक कर्म कलाप भी लौकिक उपाय के सदृश ही है और ऐसा होने के कारण उस दोषयुक्त वैदिक उपाय से विपरीत अर्थात अशुद्धता रहित हमारा वैदिक उपाय ही अति उत्तम है क्योंकि इसकी (हमारे शास्त्रीय उपाय की ) उत्पत्ति व्यक्त(व्यक्त्कार्य) और अव्यक्त(कारण) तथाज्ञ(चैतन्य पुरुष) इनके विवेक ज्ञान से होती है ।<br />
<br />
व्याख्या - गुरु पाठ के अनन्तर जो श्रवण किया जाता है अर्थात जिसका केवल गुरु परंपरा से श्रवण होता है तथा कोई व्यक्ति विशेष से ग्रथित नहीं किया जाता, वही अनुभव अर्थात वेद है (तत्रेति) उसमें रहनेवाला या उससे मिला हुआ या उससे प्राप्त किया गया जो कर्म समूह है, वह 'आनुश्रविक' है । परन्तु वह आनुश्रविक कर्मसमूह भी लोकसिद्ध उपाय सदृश ही है,(एकान्तिकेति) क्योंकि त्रिविध दुःखों का नियम से तथा समूल नाश करने में (उपयोगिता) कारिणीभूत न होना यह दोष उभयत्र सदृश ही है ।<br />
<br />
यद्यपि इस कारिका में आनुश्रविक अर्थात वैदिक, ऐसा यद्यपि सामान्यतः निर्देश किया है, तथापि उस शब्द का 'कर्मकलाप' मात्र अभिप्राय समझना अर्थात वैदिक कर्मसमूह मात्र दुःखोच्छेद के लिए निरुपयोगी है, अन्य भाग नहीं, क्योंकि विवेक ज्ञान, यह भी तो आनुश्रविक ही है, जैसे वेद ही ने विवेक ज्ञान विषय में "अये मैत्रेयी आत्मा को जानना चाहिए" ऐसा विधान किया है, आत्मा को जानना, इसका अर्थ आत्मा को प्रकृति से भिन्न समझना ऐसा है (न स ) तद्वत "जो आत्मा को जानता है, वह पुनः जन्म मरण की परम्परा में नहीं गिरता" ऐसी श्रुति आत्म ज्ञान का परम फल बतलाती है ।<br />
<br />
<b>दृष्टवादानुश्रविकः स ह्यविशुद्धि क्षयातिशययुक्तः ।</b><br />
<b>तद्विपरीतः श्रेयान् व्यक्ताव्यक्तज्ञ विज्ञानात् ।। २ ।।</b><br />
<b><br /></b>
<b>अर्थ:</b><br />
जब कि वह वैदिक उपाय अविशुद्धि(मलिन), क्षय(नाशवान) तथा अतिशय आदि दोषयुक्त है, तब वैदिक कर्म कलाप भी लौकिक उपाय के सदृश ही है और ऐसा होने के कारण उस दोषयुक्त वैदिक उपाय से विपरीत अर्थात अशुद्धता रहित हमारा वैदिक उपाय ही अति उत्तम है क्योंकि इसकी (हमारे शास्त्रीय उपाय की ) उत्पत्ति व्यक्त(व्यक्त्कार्य) और अव्यक्त(कारण) तथाज्ञ(चैतन्य पुरुष) इनके विवेक ज्ञान से होती है ।<br />
<br />
व्याख्या - गुरु पाठ के अनन्तर जो श्रवण किया जाता है अर्थात जिसका केवल गुरु परंपरा से श्रवण होता है तथा कोई व्यक्ति विशेष से ग्रथित नहीं किया जाता, वही अनुभव अर्थात वेद है (तत्रेति) उसमें रहनेवाला या उससे मिला हुआ या उससे प्राप्त किया गया जो कर्म समूह है, वह 'आनुश्रविक' है । परन्तु वह आनुश्रविक कर्मसमूह भी लोकसिद्ध उपाय सदृश ही है,(एकान्तिकेति) क्योंकि त्रिविध दुःखों का नियम से तथा समूल नाश करने में (उपयोगिता) कारिणीभूत न होना यह दोष उभयत्र सदृश ही है ।<br />
<br />
यद्यपि इस कारिका में आनुश्रविक अर्थात वैदिक, ऐसा यद्यपि सामान्यतः निर्देश किया है, तथापि उस शब्द का 'कर्मकलाप' मात्र अभिप्राय समझना अर्थात वैदिक कर्मसमूह मात्र दुःखोच्छेद के लिए निरुपयोगी है, अन्य भाग नहीं, क्योंकि विवेक ज्ञान, यह भी तो आनुश्रविक ही है, जैसे वेद ही ने विवेक ज्ञान विषय में "अये मैत्रेयी आत्मा को जानना चाहिए" ऐसा विधान किया है, आत्मा को जानना, इसका अर्थ आत्मा को प्रकृति से भिन्न समझना ऐसा है (न स ) तद्वत "जो आत्मा को जानता है, वह पुनः जन्म मरण की परम्परा में नहीं गिरता" ऐसी श्रुति आत्म ज्ञान का परम फल बतलाती है ।<br />
<br />
कर्मसमूह दुःखोच्छेद के लिए निरुपयोगी है, इसका कारण बतलाते हैं -<br />
(सह्य) वह वैदिक उपाय अविशुद्ध, क्षय, अतिशय इन तीनो दोषों से युक्त है, (अविशुद्धि:) सोम यागादि सत्र, पशुओं की हिंसा, बीजों का नाश इत्यादि दोषयुक्त कर्मों के सहाय से साध्य होता है, बस यही उसकी (अविशुद्धि) अपवित्रपना है, जैसे भगवान् पञ्चशिखाचार्य जी ने वैदकीक कर्म समूह को स्वल्प सङ्कर, सपरिहार तथा साप्रत्यव मर्ष, ऐसा बतलाया है, अब प्रत्येक शद्बों का अर्थ बतलाता हूँ -<br />
<br />
स्वल्प सङ्कर - इसका अर्थ यह है कि ज्योतिष्टोम आदि यज्ञों से उत्पन्न होने वाले प्रधान अपूर्व का तथा पशु हिंसादिकों से उत्पन्न हुआ अनर्थकारक स्वल्प अपूर्व से संसर्ग होना अर्थात मेल होना स्वल्प सङ्कर कहलाता है अर्थात ज्योतिष्टोम आदि यज्ञों से उत्पन्न होने वाला प्रधानीभूत धर्म का पशु हिंसादि अनर्थकारक अप्रधानीभूत अधर्म का एक समानाधिकरण में रहना ही सङ्कर कहलाता है, पुण्य की अपेक्षा अलप होने से स्वल्प कहा है ।<br />
<br />
सपरिहारः - बहुत से प्रायश्चितों द्वारा उसका परिहार (निष्कृति) हो सकता है, परन्तु प्रमाद से या स्मृति विभ्रम से भूल कर, प्रायश्चित न किया गया तो प्रधान कर्म के विपाक समय में अर्थात मुख्य कर्म का स्वर्गादिक फल जिस समय प्राप्त होता है, उसी समय अप्रधान हिंसाजन्य अधर्म भी दुःख रूप से अनुभव करने में आता है, परन्तु यद्यपि ऐसा प्रकार है, तथापि यावत्काल पर्यन्त वह अनर्थ उत्पन्न करते रहे, तावत् काल पर्यन्त वह सप्रत्यव मर्ष रहता है अर्थात सहिष्णुता के साथ रहता है सारांश फल भोगने वाला पुरुष उसको सहता है । <br />
<br />
चिरकालिक पुण्य संचय से प्राप्त स्वर्ग रुपी अमृत सरोवर में स्नान करने वाले कुशल कर्म ही अल्प पाप से प्राप्त दुखाग्नि की चिंगारी को सहन करते हैं अर्थात बहुत सी सुख राशि के सामने दुःख कणिका कुछ भी मालूम नहीं पड़ती, यहाँ तक पूर्वोक्त पञ्च शिखाचार्य का मत बतलाया गया तथा उससे वैदिक कर्मसमूह अविशुद्ध है यह निश्चित हुआ, परन्तु इस पर मीमांसकों की कोटि नहीं है ऐसा नहीं, जो कोटि है वह आगे बतलाई जाती है, यदि मीमांसक कहें कि -<br />
<br />
किसी भी प्राणी की हिंसा मत करो, यह सामान्य शास्त्र (अग्नि शोमीयं पशुमालभेत) अग्निष्टोम सम्बन्धी पशुओं की हिंसा करें, इस विशेष शास्त्र से बाधित होता है, परन्तु यह मीमांसकों का कथन हमको युक्त नहीं मालूम पड़ता क्योंकि उपरोक्त सामान्य और विशेष वाक्य में हमको किञ्चित भी विरोध नहीं देख पड़ता, अतः वे जैसा कहते हैं, वैसा यहाँ नहीं है, कारण जिन दोनों में विरोध हुआ करता है, उनमें से जो बली होता है, वह दुर्बल को बाधा किया करता है, ऐसा नियम तथा अनुभव भी है, परन्तु उपरोक्त वाक्यों में विरोध न होकर उनका भिन्न-२ विषय है; यदि कहो कि कैसे? तो बताता हूँ - "किसी प्राणी की हिंसा मत करो" यह निषेध हिंसा को अनर्थ हेतुत्व सूचित कराता है - अर्थात हिंसा का अर्थोत्पादक है, परन्तु यज्ञ के उपयोगी नहीं है, ऐसा सूचित नहीं कराता तथा 'अग्निष्टोम में हिंसा करें' यह जो दूसरा वाक्य है, वह यह सूचित करता है कि पशुओं की हिंसा यज्ञ के उपयोगी है, बस इतना ही कहना है परन्तु उससे अनर्थ नहीं होता ऐसा कुछ वह नहीं कहता ।<br />
हिंसा अनर्थ का हेतु होना तथा यज्ञ के उपयोगी होना, इन दोनों में किसी तरह का विरोध नहीं है, इस उपरोक्त शास्त्रार्थ से - हिंसा, पुरुष को दोषी भी करेगी तथा यज्ञ के उपयोगी भी होवेगी यह सिद्ध हो चुका, अस्तु, मूल कारिका में जो "क्षयातिशय" कहा, अब वह वैदिक उपाय क्षय तथा अतिशय दोष युक्त कैसे हैं, यह बतलाते हैं ।<br />
<br />
क्षय (नाश) तथा अतिशय ये दोष वस्तुतः स्वर्गादि फलों में विद्यमान रहते हैं, न कि यज्ञों में, परन्तु उन्हीं दोषों का यज्ञ में उपचार किया जाता है ।<br />
<br />
अब स्वर्गादिकों में अतिशय दोष कैसे है, यह बतलाया जाता है । ज्योतिष्टोम यज्ञ केवल स्वर्ग के साधक हैं तथा वाजपेयादि यज्ञ स्वराज्य के भी साधक हैं अर्थात उससे इन्द्र बना जा सकता है; तो इन दोनों में अतिशय दोष आ गया, क्योंकि दुसरे की संपत्ति का उत्कर्ष हुआ देख, जिसकी संपत्ति हीन है, ऐसे पुरुष को दुःख होना प्रकृति सिद्ध बात है । एक की अपेक्षा दुसरे को उत्तम स्थिति में रहना, यही अतिशय कहाता है ।<br />
<br />
अब मीमांसकों का अमरत्व के विषय में क्या कहना है, वो बताते हैं । हमनें सोमपान किया और अमर हुए, प्रकृत वाक्य में 'अमर' का अर्थ है चिरकाल तक स्थिर रहने वाला । उपरोक्त अर्थ करने के विषय में प्रमाण भी है । प्रलय पर्यन्त स्थिर रहनेवाले स्थान को अमृतत्व, ऐसा कहा जाता है ।<br />
यागादिकों से अमृतत्व की प्राप्ति नहीं होती, यह जो पूर्व में प्रतिज्ञा की गयी है, उसी के दृढीकरणार्थ श्रुति की साक्षी देते हैं । यथा - कर्म से, प्रजा से तथा धन से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, वह तो केवल त्याग साध्य विवेक ज्ञान से ही लाभ होता है, तद्वत 'हृदयान्तर्गत स्थित सुखरूप एवं स्वयंप्रकाश ब्रह्म ज्ञान से प्राप्त करके महात्मा यति उसी में लीन हो जाते हैं ।<br />
तथा कर्म करनेवाले, द्रव्य की इच्छा करनेवाले, संतति उत्पन्न करनेवाले ऋषि मृत्यु को प्राप्त हुए (मृत्यु अर्थात स्वर्गादि क्षयी फल) दुसरे ज्ञानी ऋषिकर्म के योग से अप्राप्य अमृतत्व (मोक्ष) को ज्ञान से प्राप्त हुए इत्यादि अनेक श्रुतियाँ, कर्म से मोक्ष प्राप्त नहीं होती, ऐसा स्पष्ट प्रतिपादन करती हैं ।<br />
<br />
इन सब बातों का विचार करके ग्रन्थकार कहते हैं, वह सोमयागादि यज्ञ अविशुद्ध, अनित्य व सातिशय फल देने वाले दुःखनाशक वैदिक उपाय से विपरीत (भिन्न) हिंसादि दोषरहित नित्य व निरतिशय फल देनेवाला उपाय अतिश्रेष्ठ है, क्योंकि वह पुरुष पुनः जन्म मरण की परम्परा में नहीं प्राप्त होता, इस अर्थ की श्रुति साक्षी है ।<br />
<br />
परन्तु हमारे उपरोक्त कथन में एक शंका उत्पन्न हो सकती है, कि विवेक ज्ञान से प्राप्त होने वाला मोक्ष, यह भी अनित्यत्व मोक्षग्रस्त है क्योंकि "जो जो कार्य हैं, वे वे अनित्य हैं", इस व्याप्ति से मोक्ष को भी अनित्यता प्राप्त होती है, परन्तु यह शंका मिथ्या है क्योंकि जो जो भाव कार्य में हैं वे वे अनित्य हैं अर्थात कार्यत्वेन अनित्यता सिद्ध करना ठीक नहीं है, कार्यत्वेन भाव कार्य को ही अनित्यता प्राप्त होती है, दुःखध्वंस अर्थात दुःख का नाश वह कार्य है परन्तु भावरूप नहीं है, अतएव दुःखाभावरूप मोक्ष अनित्य नहीं है ।<br />
<br />
इस उपरोक्त विवेचन का यह सार है कि उस दुःखनाशक वैदिक उपाय से, सत्वपुरुषान्यता प्रत्यय (प्रधान व पुरुष, ये दोनों भिन्न हैं ऐसा साक्षात्कार होना हिन् सत्वपुरुषान्यता प्रत्यय कहलाता है ) यह दुःखनाशक उपाय विपरीत है तथा इसी कारण से वह अधिक कल्याणकारक है । वैदिक उपाय, वेदविहित होने के कारण तथा उन उपायों से दुःख का भी किञ्चित नाश होने के कारण प्रशस्त है, तद्वत प्रकृति और पुरुष भिन्न हैं, यह प्रत्यय भी प्रशस्त है, परन्तु इन दोनों प्रशस्त उपायों में से दूसरा अधिक श्रेयस्कर है, क्योंकि इसमें हिंसा दोष बिलकुल न होकर इसके द्वारा मिला हुआ फल, नित्य और निरतिशय होता है ।<br />
<br />
इस विवेक ज्ञान की उत्पत्ति कैसे होती है, यह बताते हैं । व्यक्त, अव्यक्त तथा 'ज्ञ', इन तीनों के ज्ञान द्वारा इसकी उत्पत्ति होती है । विज्ञान-विवेक द्वारा होनेवाला ज्ञान, यह पृथक-पृथक हैं, ऐसा ज्ञान(व्यक्त ज्ञान) व्यक्त अर्थात कार्य, इसी का प्रथम ज्ञान होता है, पश्चात् उसके कारण का, अर्थात अव्यक्त का ज्ञान होता है तथा ये दोनों (व्यक्ताव्यक्त) कोई और ही के लिए हैं, ऐसा मालूम होकर इनसे पृथक (किसी तरह से सम्बन्ध न रखनेवाला) आत्मा का ज्ञान होता है, सारांश ज्ञान प्राप्त होने का क्रम ऐसा ही होने के कारण यहाँ भी व्यक्त, अव्यक्त, ज्ञ ऐसा क्रम से ही कहा गया है ।<br />
<br />Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-80061055286547357152019-04-24T17:35:00.001+05:302019-04-24T21:56:53.411+05:30श्रीकृष्णाष्टकम्<div align="left">
<div dir="ltr">
श्री शंकराचार्यकृत</div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
<b>भजे व्रजैकमण्डनं समस्तपापखण्डनं,</b><br />
<b>स्वभक्तचित्तरंजनं सदैव नन्दनन्दनम् ।</b><br />
<b>सुपिच्छगुच्छमस्तकं सुनादवेणुहस्तकं,</b><br />
<b>अनंगरंगसागरं नमामि कृष्णनागरम् ॥१॥</b><br />
</div>
</div>
<div dir="ltr">
<br />व्रजभूमि के एकमात्र आभूषण, समस्त पापों को नष्ट करने वाले तथा अपने भक्तों के चित्त को आनन्द देने वाले नन्दनन्दन को सदैव भजता हूँ, जिनके मस्तक पर मोरमुकुट है, हाथों में सुरीली बांसुरी है तथा जो प्रेम-तरंगों के सागर हैं, उन नटनागर श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार करता हूँ ।</div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
<b>मनोजगर्वमोचनं विशाललोललोचनं,</b><br />
<b>विधूतगोपशोचनं नमामि पद्मलोचनम् ।</b><br />
<b>करारविन्दभूधरं स्मितावलोकसुन्दरं,</b><br />
<b>महेन्द्रमानदारणं नमामि कृष्ण वारणम् ॥२॥</b> </div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
कामदेव का मान मर्दन करने वाले, बड़े-बड़े सुन्दर चंचल नेत्रों वाले तथा व्रजगोपों का शोक हरने वाले कमलनयन भगवान को मेरा नमस्कार है, जिन्होंने अपने करकमलों पर गिरिराज को धारण किया था तथा जिनकी मुसकान और चितवन अति मनोहर है, देवराज इन्द्र का मान-मर्दन करने वाले, गजराज के सदृश मत्त श्रीकृष्ण भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ।</div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
<b>कदम्बसूनकुण्डलं सुचारुगण्डमण्डलं,</b><br />
<b>व्रजांगनैकवल्लभं नमामि कृष्णदुर्लभम् ।</b><br />
<b>यशोदया समोदया सगोपया सनन्दया,</b><br />
<b>युतं सुखैकदायकं नमामि गोपनायकम् ॥३॥</b> </div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
जिनके कानों में कदम्बपुष्पों के कुंडल हैं, जिनके अत्यन्त सुन्दर कपोल हैं तथा व्रजबालाओं के जो एकमात्र प्राणाधार हैं, उन दुर्लभ भगवान कृष्ण को नमस्कार करता हूँ; जो गोपगण और नन्दजी के सहित अति प्रसन्न यशोदाजी से युक्त हैं और एकमात्र आनन्ददायक हैं, उन गोपनायक गोपाल को नमस्कार करता हूँ ।</div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
<b>सदैव पादपंकजं मदीय मानसे निजं,</b><br />
<b>दधानमुक्तमालकं नमामि नन्दबालकम् ।</b><br />
<b>समस्तदोषशोषणं समस्तलोकपोषणं,</b><br />
<b>समस्तगोपमानसं नमामि नन्दलालसम् ॥४॥ </b></div>
<div dir="ltr">
<b><br /></b></div>
<div dir="ltr">
जिन्होंने मेरे मनरूपी सरोवर में अपने चरणकमलों को स्थापित कर रखा है, उन अति सुन्दर अलकों वाले नन्दकुमार को नमस्कार करता हूँ तथा समस्त दोषों को दूर करने वाले, समस्त लोकों का पालन करने वाले और समस्त व्रजगोपों के हृदय तथा नन्दजी की वात्सल्य लालसा के आधार श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार करता हूँ ।</div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
<b>भुवो भरावतारकं भवाब्धिकर्णधारकं,</b><br />
<b>यशोमतीकिशोरकं नमामि चित्तचोरकम् ।</b><br />
<b>दृगन्तकान्तभंगिनं सदा सदालिसंगिनं,</b><br />
<b>दिने-दिने नवं-नवं नमामि नन्दसम्भवम् ॥५॥</b> </div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
भूमि का भार उतारने वाले, भवसागर से तारने वाले कर्णधार श्रीयशोदाकिशोर चित्तचोर को मेरा नमस्कार है। कमनीय कटाक्ष चलाने की कला में प्रवीण सर्वदा दिव्य सखियों से सेवित, नित्य नए-नए प्रतीत होने वाले नन्दलाल को मेरा नमस्कार है ।</div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
<b>गुणाकरं सुखाकरं कृपाकरं कृपापरं,</b><br />
<b>सुरद्विषन्निकन्दनं नमामि गोपनन्दनं ।</b><br />
<b>नवीन गोपनागरं नवीनकेलि-लम्पटं,</b><br /><b>तडित्प्रभालसत्पटम् </b><b>नमामि मेघसुन्दर</b><b>म्</b><b> </b><b>॥</b><b>६</b><b>॥</b></div>
<div dir="ltr">
<b><br /></b></div>
<div dir="ltr">
गुणों की खान और आनन्द के निधान कृपा करने वाले तथा कृपा पर कृपा करने के लिए तत्पर देवताओं के शत्रु दैत्यों का नाश करने वाले गोपनन्दन को मेरा नमस्कार है। नवीन-गोप सखा नटवर नवीन खेल खेलने के लिए लालायित, घनश्याम अंग वाले, बिजली सदृश सुन्दर पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण भगवान को मेरा नमस्कार है।</div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
<b>समस्त गोप </b><b>नन्द</b><b>नं, हृदम्बुजैक मोदनं,</b><br />
<b>नमामिकुंजमध्यगं प्रसन्न भानुशोभनम् ।</b><br />
<b>निकामकामदायकं दृगन्तचारुसायकं,</b><br />
<b>रसालवेणुगायकं नमामिकुंजनायकम् </b><b>॥</b><b>७।</b><b>॥</b></div>
<div dir="ltr">
<b><br /></b></div>
<div dir="ltr">
समस्त गोपों को आनन्दित करने वाले, हृदयकमल को प्रफुल्लित करने वाले, निकुंज के बीच में विराजमान, प्रसन्नमन सूर्य के समान प्रकाशमान श्रीकृष्ण भगवान को मेरा नमस्कार है। सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले, वाणों के समान चोट करने वाली चितवन वाले, मधुर मुरली में गीत गाने वाले, निकुंजनायक को मेरा नमस्कार है।</div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
<b>विदग्ध गोपिकामनो मनोज्ञतल्पशायिनं,</b><br />
<b>नमामि कुंजकानने प्रवृद्धवह्निपायिनम् ।</b><br />
<b>किशोरकान्ति रंजितं दृगंजनं सुशोभितं,</b><br />
<b>गजेन्द्रमोक्षकारिणं नमामि श्रीविहारिणम् </b><b>॥</b><b>८</b><b>॥</b></div>
<div dir="ltr">
<b><br /></b></div>
<div dir="ltr">
चतुर गोपिकाओं की मनोज्ञ तल्प (मनरूपी शय्या) पर शयन करने वाले, कुंजवन में बढ़ी हुई विरह अग्नि को पान करने वाले, किशोरावस्था की कान्ति से सुशोभित अंग वाले, अंजन लगे सुन्दर नेत्रों वाले, गजेन्द्र को ग्राह से मुक्त करने वाले, श्रीजी के साथ विहार करने वाले श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार करता हूँ।</div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
<b><b>स्तोत्र पाठ का फल</b></b></div>
<div dir="ltr">
<b>यदा तदा यथा तथा तथैव कृष्णसत्कथा,</b><br />
<b>मया सदैव गीयतां तथा कृपा विधीयताम् ।</b><br />
<b>प्रमाणिकाष्टकद्वयं जपत्यधीत्य यः पुमान्,</b><br />
<b>भवेत्स नन्दनन्दने भवे भवे सुभक्तिमान ॥९॥</b></div>
<div dir="ltr">
<b><br /></b></div>
<div dir="ltr">
प्रभो! मेरे ऊपर ऐसी कृपा हो कि जहां-कहीं जैसी भी परिस्थिति में रहूँ, सदा आपकी सत्कथाओं का गान करूँ। जो पुरुष इन दोनों--<b>श्रीराधा कृपाकटाक्ष</b> व श्रीकृष्ण कृपाकटाक्ष अष्टकों का पाठ या जप करेगा, <b>वह जन्म-जन्म में नन्दनन्दन श्यामसुन्दर की भक्ति से युक्त होगा और उसको साक्षात् श्रीकृष्ण मिलते हैं ।</b></div>
<div dir="ltr">
<b><br /></b></div>
<div dir="ltr">
<b><b>नंदनन्दन से प्रार्थना</b></b></div>
<div dir="ltr">
<b>लिख दे सांवरे किस्मत कुछ ऐसी कि,</b><br />
<b>बची हुई जिन्दगी तेरी सेवा में गुजर जाए ।</b><br />
<b>आने वाली पीढ़ी जब करेगी चर्चा तेरे दीवानों की,</b><br />
<b>तब एक नाम हमारा भी आ जाए ।।</b><br />
</div>
Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-43488890810426079242019-04-16T20:49:00.003+05:302019-04-16T20:49:33.332+05:30शिव का स्तवन <div style="text-align: center;">
शिव का स्तवन </div>
<div style="text-align: center;">
----------------</div>
जैसे तुम उदार परमेस्वर, तैसी सिवा भवानी।<br />
तुम घट-घटवासी अविनासी व्यापक अंतरजामी,<br />
सुद्ध सच्चिदानन्द अनामय अमल अकाम अनामी।<br />
अविदितगति अनवद्य अगोचर अगुन अनीह अमानी।।<br />
अगम प्रमानि तुमहि निगमागम नेति नेति कहि हारे,<br />
सोइ तुम हित कारन रूप अनेकन धारे ।<br />
किये अनुग्रह भाजन प्रभु ने सकल चराचर प्रानी।।<br />
परखि प्रीति परबत-तनया कों आधे अंग बिठायो,<br />
आधो पुरुष अरध नारी को अद्भुत रूप बनायो।<br />
दंपति की यह एकरूपता तुम ते जग ने जानी।।<br />
आक, धतूर, पात, श्रीफल पै तुम रीझत त्रिपुरारी,<br />
चाउर चारि चढ़ाई पदारथ चारि लहत नर-नारी।<br />
आसुतोष ! तुम बिन त्रिभुवन में को अति कृपानिधानी।।<br />
जाके पदरज के प्रसाद ते सुर सुरपति सुखभोगी,<br />
सोइ सरबस्व अरपि औरन कों फिरै, अकिंचन जोगी।<br />
परहित जाचत कर कपाल लै, डारत भीख भवानी।।<br />
तुम बिन प्रेत पिसचनहू कों को मानत निज प्यारे,<br />
बैर बिहाई मोर अहि मूषक निवसत सदन तिहारे।<br />
वृषभ सिंघ संग संग रह पीअत एक घाट पै पानी।।<br />
विष विषधर दोषाकर दूषन भूषन कौन बनावै,<br />
कौन आप हलाहल पीकै औरहि सुधा पियावै।<br />
तुम बिन काके कंठ कृपा की लखियत नील निसानी।।<br />
कासी बीच मुक्ति-मुक्तमनि कौन लुटावत डोलै,<br />
को पसुपति बिनु बंधे पसुन को पास कृपा करि खोलै।<br />
स्रवन सुनाई कौन तारक मनु तारत अगनित प्रानी।।<br />
जेहि मारत जग जेहि अहि गन कों प्यार करत तुम स्वामी,<br />
लीजै सरन महेस ! कृपा करि, चरन नमामि नमामी।<br />
तुम बिन को अपनावत मो सम कुटिल अधम अभिमानी।।Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-11081276145423433772019-04-16T01:40:00.002+05:302019-04-16T02:09:19.387+05:30महत्तत्वमहातेजस्वी भगवान् अपनी शक्ति से <span style="color: blue;">महत्तत्व</span> की सृष्टि करके फिर अहंकार और उसके अभिमानी देवता प्रजापति को उत्पन्न करते हैं ।(४१६)<br />
------<br />
यह सम्पूर्ण जगत व्यक्त कहलाता है। प्रतिदिन इसका क्षरण(क्षय) होता है, इसलिए इसको क्षर कहते हैं ।क्षरतत्वों में सबसे पहले <span style="color: blue;">महत्तत्व</span> की सृष्टि हुई है । (४१७)<br />
------<br />
प्रकृतिवादी विद्वान्, मूल प्रकृति को अव्यक्त कहते हैं। उससे दूसरा तत्व प्रकट हुआ जो '<span style="color: blue;">महत्तत्व</span>' कहलाता है। महत्तत्व से अहंकार नामक तीसरे तत्व की उत्पत्ति सुनी गयी है । सांख्य-दर्शन के ज्ञाता विद्वान् अहंकार से सूक्ष्म भूतों का - पञ्च तन्मात्राओं का प्रादुर्भाव बतलाते हैं । इन आठों को <b>प्रकृति </b>कहते हैं; इनसे सोलह तत्वों की उत्पत्ति होती है, जो विकृति कहलाते हैं ।<br />
<b>विकार</b> - पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, ग्यारहवां मन और पांच स्थूलभूत<br />
ये प्रकृति और विकृति मिलकर चौबीस तत्व होते हैं<br />
<br />Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-23604736167359137682019-04-14T01:46:00.002+05:302019-08-06T22:32:27.365+05:30गर्भाशय की पीड़ा - कर्म या कर्म का त्याग - त्रिविध ताप<div>
<b>गर्भाशय की पीड़ा - </b><span style="color: blue; font-size: x-small;">ब्रह्म पुराण - विविध तापों का वर्णन (पृष्ठ - ४०२) </span></div>
<div>
अत्यन्त मल से भरे हुए गर्भाशय में सुकुमार शरीरवाला जीव झिल्ली से लिप्त हुआ रहता है । उसकी पीठ और ग्रीवा की हड्डियां मुड़ी होती हैं । माता के खाये हुए अत्यन्त तापदायक और अधिक खट्टे, कड़वे, चरपरे, गर्म और खारे पदार्थों से कष्ट पाकर उसकी पीड़ा बहुत बढ़ जाती है । वह अपने अंगो को फ़ैलाने या सिकोड़ने में समर्थ नहीं होता । मल और मूत्र के महान पंक में उसे सोना पड़ता है, जिससे उसके सभी अंगों में पीड़ा होती है । चेतनायुक्त होने पर भी वह खुलकर सांस नहीं ले सकता । अपने कर्मो के बन्धन में बंधा हुआ वह जीव सैकड़ो जन्मों का स्मरण करता हुआ बड़े दुःख से गर्भ में रहता है । जन्म के समय उसका मुख मल-मूत्र, रक्त और वीर्य आदि में लिप्त रहता है । प्राजापत्य नामक वायु से उसकी हड्डियों के प्रत्येक जोड़ में बड़ी पीड़ा होती है । प्रबल प्रसूति वायु उसके मुंह को नीचे की ओर कर देती है और वह गर्भस्थ जीव अत्यन्त आतुर होकर बड़े क्लेश के साथ माता के उदर से बाहर निकल पाता है । मुनिवरों ! जन्म लेने के पश्चात बाह्य वायु का स्पर्श होने से अत्यन्त मूर्छा को प्राप्त होकर वह बालक अपनी सुध-बुध खो बैठता है । दुर्गन्धयुक्त फोड़े से पृथ्वी पर गिरे हुए कीड़े की भांति वह छटपटाता है । उस समय उसे ऐसी पीड़ा होती है, मानो उसके सारे अंगों में कांटे चुभो दिए गए हों अथवा वह आरे से चीरा जा रहा हो । उसे अपने अंगो को खुजलाने की भी शक्ति नहीं रहती । वह करवट बदलने में असमर्थ होता है । स्तन-पान आदि आहार भी उसे दूसरों की इच्छा से ही प्राप्त होता है । वह अपवित्र बिछौने पर पड़ा रहता है । उस समय उसे खटमल और डांस आदि काटते हैं तो भी वह उन्हें हटाने में समर्थ नहीं होता । </div>
<div>
<br />
<div style="text-align: center;">
----------------------------------X----------------------------------</div>
</div>
<div>
<br /></div>
<div>
<b>कर्म करो या कर्म का त्याग करो? - </b><span style="color: blue; font-size: x-small;">ब्रह्म पुराण - कर्म तथा ज्ञान का अन्तर (पृष्ठ - ४०</span><span style="color: blue; font-size: x-small;">९</span><span style="color: blue; font-size: x-small;">)</span></div>
<div>
<span style="color: #b45f06;">मुनि बोले:</span> महर्षि ! अगर वेद की ऐसी आज्ञा है कि 'कर्म करो' तथा यह भी आदेश है कि 'कर्म का त्याग करो' तो यह बताइये कि मनुष्य ज्ञान के द्वारा कर्म त्याग देने पर किस गति को प्राप्त होते हैं तथा कर्म करने से उन्हें किस फल की प्राप्ति होती है ? इस बात को हम सुनना चाहते हैं, क्योंकि उक्त दोनों आज्ञाएं परस्पर विरुद्ध प्रतीत होती हैं ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">व्यासजी ने कहा:</span> ब्राह्मणो ! ज्ञान से मनुष्य जिस गति को पाते हैं और कर्म से उन्हें जैसी गति मिलती है, उसका वर्णन सुनाता हूँ; सुनो । तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर गहन है । शास्त्र में दो मार्गों का वर्णन है - प्रवृत्ति धर्म और निवृत्ति धर्म । प्रवृत्ति मार्ग को 'कर्म' और निवृत्ति मार्ग को ज्ञान भी कहते हैं । कर्म(अविद्या)- से मनुष्य बन्धन में पड़ता है और ज्ञान से मुक्त हो जाता है; इसलिए पारदर्शी यति कर्म नहीं करते। कर्म से मरने के बाद जन्म लेना पड़ता है, सोलह तत्वों के बने हुए शरीर की प्राप्ति होती है । किन्तु ज्ञान से नित्य, अव्यक्त एवं अविनाशी परमात्मा प्राप्त होते हैं । कुछ मन्दबुद्धि मानव कर्म की प्रशंसा करते हैं, अतः वे भोगासक्त होकर बारम्बार देह के बन्धन में पड़ते हैं । परन्तु जो धर्म के तत्व को भलीभांति समझते हैं तथा जिन्हे उत्तम बुद्धि प्राप्त है, वे कर्म की उसी तरह प्रशंसा नहीं करते, जैसे नदी का पानी पीनेवाला मनुष्य कुएं का आदर नहीं करता । कर्म के फल मिलते हैं - सुख और दुःख, जन्म और मृत्यु । किन्तु ज्ञान से उस पद की प्राप्ति होती है, जहाँ जाकर मनुष्य सदा के लिए शोक से मुक्त हो जाता है । जहाँ जन्म, मृत्यु, जरा और वृद्धि स्पर्श नहीं करते, वह केवल अव्यक्त, अचल, ध्रुव, अव्याकृत एवं अमृतस्वरूप परब्रह्म की ही स्थिति है ।<br />
<br />
<b>त्रिविध ताप </b><span style="color: blue; font-size: x-small;">विविध तापों का वर्णन</span><span style="color: blue; font-size: x-small;">(पृष्ठ ४०९)</span><br />
आध्यात्मिक ताप के भेद -<br />
१) शारीरिक - शिरोरोग, प्रतिश्याय(पीनस), ज्वर, शूल, भगन्दर, गुल्म(पेट की गाँठ), अर्श(बवासीर), श्वयथु(सूजन), श्वास(दमा), छदि(वमन) आदि ।<br />
२) मानसिक - काम, क्रोध, भय, द्वेष, लोभ, मोह, विषाद(चिन्ता), शोक, असूया(दोषदृष्टि), अपमान, ईर्ष्या, मात्सर्य तथा पराभव ।<br />
<br />
आधिभौतिक ताप -<br />
मृग, पक्षी, मनुष्य आदि तथा पिशाच, सर्प, राक्षस और बिच्छू आदि से मनुष्यों को जो पीड़ा होती है ।<br />
<br />
आधिदैविक ताप -<br />
शीत, उष्ण, वायु, वर्षा, जल और विद्युत् आदि से होने वाले संताप ।<br />
--------<br />
<b>सत्व, रज और तम</b> - ये तीनो गुण आपने कारणभूत प्रकृति से प्रकट हैं । वे सम्पूर्ण प्राणियों में समान भाव से स्थित हैं। उनके कार्यों द्वारा उनकी पहचान करनी चाहिए। जब अन्तः करण कुछ प्रीतियुक्त सा जान पड़े, अत्यन्त शांति का सा अनुभव हो, तब उसे सत्वगुण जानना चाहिए। जब शरीर और मन में कुछ सन्ताप का सा अनुभव हो, तब उसे रजोगुण की प्रवृत्ति मानना चाहिए । जब अन्तः करण में अव्यक्त, अतर्क्य और अज्ञेय मोह का संयोग होने लगे, तब उसे तमोगुण समझना चाहिए । जब अकस्मात् किसी कारणवश अत्यन्त हर्ष, प्रेम, आनन्द, समता और स्वस्थचित्त का विकास हो, तब उसे सात्विक गुण कहते हैं । अभिमान, असत्यभाषण, लोभ और असहनशीलता - ये रजोगुण के चिन्ह हैं । मोह, प्रमाद, निद्रा, आलस्य और अज्ञान आदि दुर्गुण जब किसी तरह प्रवृत्त हों तब उन्हें तमोगुण का कार्य जानना चाहिए।<br />
जैसे जलचर पक्षी जल में विचरता हुआ भी उससे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार मुक्तात्मा योगी संसार में रहकर भी उसके गुण-दोषों से लिप्त नहीं होता। इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष विषयों में आसक्त न होने के कारण उनका उपभोग करते हुए भी उनके दोषों से लिप्त नहीं होता । जो सदा परमात्मा के चिन्तन में ही लगा रहता है, वह पूर्वकृत कर्मों के बन्धन से रहित हो सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मा हो जाता है और विषयों में कभी आसक्त नहीं होता । गुण आत्मा को नहीं जानते, किन्तु आत्मा उन्हें सदा जानता रहता है; क्योंकि वह गुणों का दृष्टा है। प्रकृति और आत्मा में यही अन्तर है । एक(प्रकृति) तो गुणों की सृष्टि करती है किन्तु दूसरा(आत्मा) ऐसा नहीं करता । वे दोनों स्वभावतः पृथक होते हुए भी एक दुसरे से संयुक्त हैं । जैसे पत्थर में सुवर्ण जड़ा होता है, जैसे गूलर और उसके कीड़े साथ साथ रहते हैं, जिस प्रकार मूँज में सींक होती है और ये सभी वस्तुएं पृथक होती हुई भी परस्पर संयुक्त रहती हैं, उसी प्रकार प्रकृति और पुरुष भी एक दुसरे से संयुक्त रहते हैं ।<br />
प्रकृति गुणों की सृष्टि करती है और क्षेत्रज्ञ आत्मा उदासीन की भांति अलग रहकर समस्त विकारशील गुणों को देखा करता है । प्रकृति जो इन गुणों की सृष्टि करती है, वह सब उसका स्वाभाविक कर्म है । जैसे मकड़ी अपने शरीर से तन्तुओं की सृष्टि करती है, वैसे ही प्रकृति भी समस्त त्रिगुणात्मक पदार्थों को जन्म देती है । किन्ही का मत है कि जब तत्वज्ञान से गुणों को नाश कर दिया जाता है, तब वे फिर उत्पन्न नहीं होते , उनका सर्वथा बाध हो जाता है । क्योंकि फिर उनका कोई चिन्ह उपलब्ध नहीं होता । इस प्रकार वे भ्रम या अविद्या के निवारण को ही मुक्ति मानते हैं । दूसरों के मत में त्रिविध दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति ही मोक्ष है । इन दोनों मतों पर अपनी बुद्धि के अनुसार विचार करके सिद्धान्त का निश्चय करें ।<br />
आत्मा आदि और अन्त से रहित है । उसे जानकर मनुष्य हर्ष और क्रोध को त्याग दे और मात्सर्यरहित होकर विचरण करे । जैसे तैरने की कला न जाननेवाले मनुष्य यदि भरी हुई नदी में कूद पड़ते हैं तो वे डूब जाते हैं, किन्तु जो तैरना जानते हैं, वे कष्ट में नहीं पड़ते, वे तो जल में भी स्थल की ही भाँति विचरते हैं, उसी प्रकार ज्ञान स्वरुप आत्मा को प्राप्त हुआ तत्व-वेत्ता पुरुष संसार-सागर से पार हो जाता है । जो सम्पूर्ण प्राणियों के आवागमन को जानकर सबके प्रति संभव रखते हुए बर्ताव करता है, वह उत्तम शांति को प्राप्त होता है । ब्राह्मण में इस ज्ञान को प्राप्त करने की सहज शक्ति होती है । मन और इन्द्रियों का संयम तथा आत्मा का ज्ञान - ये मोक्षप्राप्ति के लिए पर्याप्त साधन हैं । तत्व का ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य बुद्ध(ज्ञानी) हो जाता है । बुद्ध का इसके सिवा और क्या लक्षण हो सकता है । बुद्धिमान मनुष्य इस आत्मतत्व को जानकर कृतकृत्य हो संसार-बन्धन से मुक्त हो जाते हैं । अज्ञानी पुरुषों को परलोक में जो महान भय प्राप्त होता है, वह ज्ञानी को नहीं होता। ज्ञानी पुरुषों को जो सनातन गति प्राप्त होती है, उससे बढ़कर दूसरी कोई गति नहीं है।<br />
<div>
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<br /></div>
<b>मृत्युकाल के क्लेश - </b><span style="color: blue; font-size: x-small;">ब्रह्म पुराण - (पृष्ठ - ४०3) </span></div>
Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-30721461233550724272019-04-09T21:47:00.002+05:302019-09-19T14:23:00.510+05:30श्राद्ध कल्प<div style="text-align: center;">
<div style="text-align: center;">
<span style="color: #b45f06;"><span style="color: #b45f06;"> </span><span style="background-color: #f1c232;"><span style="font-size: large;"><b><span style="text-align: center;">संक्षिप्त </span>स्कन्द <span style="text-align: center;">पुराण, गीताप्रेस, पृष्ठ </span></b></span><span style="font-size: large;"><b>११८७</b></span></span></span></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;"><b><span style="background-color: #f1c232; color: #b45f06; text-align: center;">-----------------------------------------------------</span></b></span></div>
<span style="color: #b45f06;"><br /></span>
<br />
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">महाकाल द्वारा करन्धम के प्रश्नानुसार श्राद्ध का वर्णन </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">-----------------------------------------------------------------</span></b></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #b45f06;">नारदजी, अर्जुन</span> को सम्बोधित करते हुए कहते हैं:</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #b45f06;">राजा करन्धम ने महाकाल से प्रश्न पूछा:</span> भगवन ! मेरे मन में सदा यह संशय बना रहता है कि मनुष्यों द्वारा पितरों का जो तर्पण किया जाता है, उसमें जल तो जल में ही चला जाता है; फिर हमारे पूर्वज उससे तृप्त कैसे होते हैं ? इसी प्रकार पिण्ड आदि सब दान भी यहीं देखा जाता है । अतः हम यह कैसे मान लें कि यह पितर आदि के उपभोग में आता है ?</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #b45f06;">महाकाल ने कहा:</span> राजन ! पितरों और देवताओं की योनि ही ऐसी होती है कि ये दूर की कही हुई बातें सुन लेते, दूर की पूजा भी ग्रहण कर लेते और दूर की स्तुति से भी संतुष्ट होते हैं । इसके सिवा वे भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ जानते और सर्वत्र पहुँचते हैं । पांचो तन्मात्रयें, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति - इन नौ तत्वों का बना हुआ उनका शरीर होता है । इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान् पुरुषोत्तम निवास करते हैं । इसलिए देवता और पितर गन्ध तथा रस-तत्व से तृप्त होते हैं । शब्द-तत्व से रहते हैं तथा स्पर्श-तत्व को ग्रहण करते हैं और किसी को पवित्र देखकर उनके मन में बड़ा संतोष होता है । जैसे पशुओं का भोजन तरुण और मनुष्यों का भोजन अन्न का सार-तत्व है । सम्पूर्ण देवताओं की शक्तिया अचिन्त्य और ज्ञानगम्य हैं । अतः वे अन्न और जल का सार-तत्व ही ग्रहण करते हैं, शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं स्थित देखी जाती है ।</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #b45f06;">करन्धम ने पूछा:</span> श्राद्ध का अन्न तो पितरों को दिया जाता है, परन्तु वे अपने कर्म के अधीन होते हैं । यदि वे स्वर्ग अथवा नरक में हों, तो श्राद्ध का उपभोग कैसे कर सकते हैं ? और वैसी दशा में वे वरदान देने में भी कैसे समर्थ हो सकते हैं ?</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #b45f06;">महाकाल ने कहा:</span> नृपश्रेष्ठ ! यह सत्य है कि पितर अपने-अपने कर्मों के अधीन होते हैं, परन्तु देवता, असुर और यक्ष आदि के तीन अमूर्त तहत चारों वर्णों के चार मूर्त - ये सात प्रकार के पितर माने गए हैं । ये नित्य पितर हैं, ये कर्मों के अधीन नहीं, वे सबको सब कुछ देने में समर्थ हैं । वे सातों पितर भी सब वरदान आदि देते हैं । उनके अधीन अत्यंत प्रबल इकतीस गण होते हैं । राजन ! इस लोक में किया हुआ श्राद्ध उन्ही मानव पितरों को तृप्त करता है । वे तृप्त होकर श्राद्धकर्ता के पूर्वजों को, जहाँ कहीं भी उनकी स्थिति हो, जाकर तृप्त करते हैं । इस प्रकार अपने पितरों के पास श्राद्ध में दी हुई वस्तु पहुँचती है और वे श्राद्ध ग्रहण करनेवाले नित्य पितर ही श्राद्धकर्ताओं को श्रेष्ठ वरदान देते हैं ।</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #b45f06;">राजा ने पूछा:</span> विप्रवर ! जैसे भूत आदि को उन्ही के नाम से 'इदं भूतादिभ्यः' कहकर कोई वस्तु दी जाती है, उसी प्रकार देवता आदि को संक्षेप में क्यों नहीं दिया जाता ? मन्त्र आदि के प्रयोग द्वारा विस्तार क्यों किया जाता है ?</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #b45f06;">महाकाल ने कहा:</span> राजन ! सदा सबके लिए उचित प्रतिष्ठा करनी चाहिए । उचित प्रतिष्ठा के बिना दी हुई कोई वस्तु वे देवता आदि ग्रहण नहीं करते । घर के दरवाजे पर बैठा हुआ कुत्ता जिस प्रकार ग्रास(फेंका हुआ टुकड़ा) ग्रहण करता है, क्या कोई श्रेष्ठ पुरुष भी उसी प्रकार ग्रहण करता है ? इसी प्रकार भूत आदि की भांति देवता कभी अपना भाग ग्रहण नहीं करते । वे पवित्र भोगों का सेवन करने वाले तथा निर्मल हैं । अतः अश्रद्धालु पुरुष के द्वारा बिना मन्त्र के दिया हुआ जो कोई भी हव्य भाग होता है, उसे वे स्वीकार नहीं करते । यहाँ मन्त्रों के विषय में श्रुति भी इस प्रकार कहती है -</div>
<div style="text-align: left;">
मन्त्रा दैवता यद्यद्विद्वान्मन्त्रवत्करोति देवताभिरेव तत्करोति यद्ददाति देवताभिरेव तद्ददाति यत्प्रतिगृह्णाती देवताभिरेव तत्प्रतिगृह्णाती तस्मान्नामन्त्रवत्प्रतिगृह्णीयात् नामन्त्रवत्प्रतिपद्यते । </div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<div style="text-align: left;">
'सब मन्त्र ही देवता हैं, विद्वान पुरुष जो-जो कार्य मन्त्र के साथ करता है, उसे वह देवताओं के द्वारा ही सम्पन्न करता है । मन्त्रोचारणपूर्वक जो कुछ देता है, वह देवताओं द्वारा ही देता है । मन्त्रपूर्वक जो कुछ ग्रहण करता है, वह देवताओं द्वारा ही ग्रहण करता है । इसलिए मन्त्रोचारण किये बिना मिला हुआ प्रतिग्रह न स्वीकार करे । बिना मन्त्र के जो कुछ किया जाता है, वह प्रतिष्ठित नहीं होता'</div>
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #b45f06;"></span></div>
<div style="text-align: left;">
इस कारण पौराणिक और वैदिक मन्त्रोद्वारा ही सदा दान करना चाहिए ।</div>
<div style="text-align: left;">
<br /></div>
<b><span style="font-size: large;">श्राद्ध कल्प </span></b><br />
<b><span style="font-size: large;">--------------</span></b><br />
<div style="text-align: left;">
<span style="color: #b45f06;"><br /></span></div>
<span style="color: #b45f06;">सूतजी कहते हैं:</span> एक समय महामुनि मार्कण्डेय जी राजा रोहिताश्व के यहाँ पधारे और यथायोग्य सत्कार के बाद उन्हें कथा सुनाने लगे । कथा के अन्त में राजा रोहिताश्व ने कहा - "भगवन ! मैं श्राद्धकल्प का यथार्थरूप से श्रवण करना चाहता हूँ ।</div>
<br />
<span style="color: #b45f06;">मार्कण्डेय जी बोले:</span> राजन ! यही बात आनर्तनरेश ने भर्तृयज्ञ से पूछी थी । वही प्रसंग सुनाता हूँ ।<br />
आनर्त नरेश ने पूछा: ब्रह्मन ! श्राद्ध के लिए कौन सा समय विहित है? श्रद्धोपयोगी द्रव्य कौन से हैं ? श्राद्ध के लिए कौन कौन सी वस्तुएं पवित्र मानी गयी हैं ? कैसे ब्राह्मण श्राद्धकर्म में सम्मिलित करने योग्य है और कैसे ब्राह्मण त्याज्य माने गए हैं ?<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">भर्तृयज्ञ ने कहा:</span> राजन ! विद्वान पुरुष को अमावस्या के दिन अवश्य श्राद्ध करना चाहिए । क्षुधा से क्षीण हुए पितर श्राद्धान्न की आशा से अमावस्या तिथि आने की आशा करते रहते हैं । जो अमावस्या तिथि को जल या शाक से भी श्राद्ध करता है, उसके पितर तृप्त होते हैं और उसके समस्त पातकों का नाश हो जाता है ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">आनर्त ने पूछा:</span> विशेषतः अमावस्या को श्राद्ध करने का विधान क्यों है ? मरे हुए जीव तो अपने कर्मानुसार शुभाशुभ गति को प्राप्त होते हैं; फिर श्राद्धकाल में वे अपने पुत्र के घर कैसे पहुँच पाते हैं ?<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">भर्तृयज्ञ ने कहा:</span> महाराज ! जो लोग यहाँ मरते हैं, उनमें से कितने ही लोग जन्म ग्रहण करते हैं, कितने ही पुण्यात्मा स्वर्गलोक में स्थित होते हैं और कितने ही पापात्मा जीव यमलोक के निवासी हो जाते हैं । कुछ जीव भोगानुकूल शरीर धारण करके अपने किये हुए शुभाशुभ कर्म का उपभोग करते हैं । राजन ! <span style="color: blue;">यमलोक या स्वर्गलोक में रहनेवाले पितरों को भी तब तक भूख प्यास अधिक होती है, जब तक कि वे माता या पिता से तीन पीढ़ी के अंतर्गत रहते हैं</span>, उनमें भूख-प्यास की अधिकता रहती है । पितृलोक या देवलोक के पितर तो श्राद्धकाल में सूक्ष्म शरीर से आकर श्राद्धीय ब्राह्मणो के शरीर में स्थित होकर श्रद्धभाग ग्रहण करते हैं; परन्तु जो पितर कहीं शुभाशुभ भोग में स्थित हैं या जन्म ले चुके हैं, उनका भाग दिव्य पितर आकर ग्रहण करते हैं और जीव जहाँ जिस शरीर में होता है - वहां तदनुकूल भोग की प्राप्ति कराकर उसे तृप्ति पहुंचाते हैं । ये दिव्य पितर नित्य और सर्वज्ञ होते हैं । पितरों के उद्देश्य से सदा ही अन्न और जल का दान करते रहना चाहिए । जो नीच मानव पितरों के लिए अन्न और जल न देकर आप ही भोजन किया करता या जल पीता है, वह पितरों का द्रोही है । उसके पितर स्वर्ग में अन्न और जल नहीं पाते हैं । इसलिए शक्ति के अनुसार अन्न और जल उनके लिए अवश्य देने चाहिए । श्राद्ध द्वारा तृप्त किये हुए पितर मनुष्य को मनोवांछित भोग प्रदान करते हैं ।<br />
<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;"><b>श्राद्ध की आवश्यकता तथा समय </b></span><br />
<span style="font-size: large;"><b>-------------------------------------------</b></span></div>
<span style="color: #b45f06;"><br /></span><span style="color: #b45f06;">आनर्तनरेश ने कहा:</span> ब्रह्मन ! श्राद्ध के लिए और भी तो नाना प्रकार के पवित्रतम काल हैं; फिर अमावस्या को ही विशेष रूप से श्राद्ध करने की बात क्यों कही गयी है ?<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">भर्तृयज्ञ ने कहा:</span> महाराज ! यह सत्य है कि श्राद्ध के योग्य और भी बहुत से समय हैं । <span style="color: blue;">मन्वादि तिथि, युगादि तिथि, संक्रांति काल, व्यतिपात, गजच्छाया, चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण - इन सभी समयो में पितरों कि तृप्ति के लिए श्राद्ध करना चाहिए</span> । पुण्यतीर्थ, पुण्यमन्दिर, श्रद्धयोग्य ब्राह्मण तथा श्राद्ध के योग्य उत्तम पदार्थ प्राप्त होने पर बुद्धिमान पुरुषों को बिना पर्व के भी श्राद्ध करना चाहिए । अमावस्या को जो विशेष रूप से श्राद्ध करने का उपदेश किया गया है, इसका कारण बताता हूँ, एकाग्रचित होकर सुनो । <span style="color: #990000;">सूर्य की सहस्त्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है, उसी का नाम 'अमा' है; उस 'अमा' नामक प्रधान किरण के ही तेज से सूर्यदेव तीनो लोकों को प्रकाशित करते हैं । उसी अमा में तिथि विशेष को चन्द्रदेव निवास करते हैं, इसलिए उसका नाम 'अमावस्या' है ।</span> यही कारण है कि अमावस्या प्रत्येक धर्मकार्य के लिए अक्षय फल देनेवाली बताई गयी है । श्राद्धकर्म में तो इसका विशेष महत्त्व है ही ।<br />
अग्निष्वात्त, बर्हिषद, आज्यप, सोमप, रश्मिप, उपहूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक तथा नान्दीमुख - ये नौ दिव्य पितर बताये गए हैं । आदित्य, वसु, रूद्र और दोनों अश्विनीकुमार भी केवल नान्दीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं । ये पितृगण ब्रह्मा जी के समान बताये गए हैं; अतः पद्मयोनि ब्रह्मा जी उन्हें तृप्त करने के पश्चात सृष्टिकार्य आरम्भ करते हैं ।<br />
इनके सिवा दुसरे भी ऐसे मर्त्य-पितर होते हैं, जो स्वर्गलोक में निवास करते हैं । वे दो प्रकार के देखे जाते हैं; एक तो सुखी हैं और दुसरे दुखी । मर्त्यलोक में रहने वाले वंशज जिनके लिए श्राद्ध करते हैं और दान देते हैं, वे सभी वहां हर्ष में भरकर वहां देवताओं के समान प्रसन्न होते हैं । जिनके लिए उनके वंशज कुछ भी दान नहीं करते, वे भूख प्यास से व्याकुल और दुखी देखे जाते हैं । एक समय कि बात है, अग्निष्वात आदि सभी पितर देवराज इन्द्र के पास गए । महाराज इन्द्र उन्हें आया देख सम्पूर्ण देवताओं के साथ भक्तिपूर्वक उनका पूजन किया । इसके बाद जब वे देवदुर्लभ पितृलोक जाने लगे, तब क्षुधा पिपासा से पीड़ित रहने वाले मर्त्यपितरों ने दिव्य स्तोत्रों से, पितृसूक्त के मन्त्रों तथा पितरों को संतुष्ट करनेवाले अन्यान्य वैदिक स्तोत्रों से उन सबकी स्तुति करके दीनतापूर्ण वचनों द्वारा उन्हें प्रसन्न किया । तब वे दिव्य पितर प्रसन्न होकर उनसे बोले - 'सुव्रतों ! हम सब तुम लोगों पर प्रसन्न हैं, बोलो तुम क्या चाहते हो ?<br />
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<span style="color: #b45f06;">मर्त्यपितर बोले -</span> दिव्य पितृगण ! हम मनुष्यों के पितर हैं । अपने कर्मो द्वारा मर्त्यलोक से स्वर्ग में आकर देवताओं के साथ निवास करते हैं परन्तु यहाँ हमें अत्यंत भयंकर भूख और प्यास का कष्ट होता है । जान पड़ता है हम आग में जल रहे हैं । यहाँ के नन्दन आदि वनों में बड़े सुन्दर सुन्दर वृक्ष हैं । सबमें फल लगे हुए हैं, परन्तु उन फलों को जब हम हाथ में लेते हैं और यत्नपूर्वक जोर जोर से खींचते हैं, तो भी वे डाली से टूटकर अलग नहीं होते । प्यास से पीड़ित होकर यदि हम देवनदी गंगा का जल हाथ में उठाते और पीते हैं, तब हमारे हाथ में उस जल का स्पर्श ही नहीं होता । इस स्वर्गलोक में कोई खाता पीता नहीं दिखाई देता । अतः यहाँ का निवास हमारे लिए भयंकर हो गया है । यहाँ जो देवता या गुह्यक आदि हैं, वे सब विमान में बैठे हुए प्रसन्नचित्त दिखाई देते हैं, इन्हें भूख प्यास का कष्ट नहीं है । ये अनेक प्रकार के भोगों से संपन्न हैं । क्या हम सब लोग भी कभी ऐसे हो सकेंगे ? भूख प्यास के कष्ट से रहित हो परम संतोष पा सकेंगे ।<br />
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<span style="color: #b45f06;">दिव्यपितरों ने कहा:</span> इन्द्र आदि केवल दुसरे दुसरे कार्यों में व्यग्र होकर जब हमारे लिए श्राद्ध नहीं करते, दान नहीं देते, तब हम लोगों कि ऐसी ही कष्टपूर्ण दशा हो जाती है । उस समय हम वहां से आकर देवताओं से कहते हैं, प्रार्थना करते हैं । उसके बाद जब ये लोग श्राद्ध-तर्पण द्वारा हमें तृप्त करते हैं, तब हमें तृप्ति प्राप्त होती है । इसी प्रकार तुम लोगों के जो वंशज एकाग्रचित्त हो तुम्हारे लिए श्राद्ध का दान देते हैं, उससे तुम लोग भी क्यों नहीं तृप्त होओगे ? अब प्रमादी वंशज, पितरों का तर्पण नहीं करते, तब उनके पितर स्वर्ग में रहने पर भी भूख-प्यास से व्याकुल हो जाते हैं; फिर जो यमलोक में पड़े हैं, उसके कष्ट का तो कहना ही क्या है ?<br />
इतना कहकर दिव्य पितरों ने मर्त्यपितरों को साथ ले ब्रह्मा जी के समीप गमन किया और उनकी तथा अपनी शाश्वत तृप्ति के लिए उपाय पूछा । तब<span style="color: #b45f06;"> ब्रह्मा जी ने कहा -</span> 'पितरों ! यदि मनुष्य, पिता, पितामह और प्रपितामह के उद्देश्य से तथा मातामह, प्रमातामह और वृद्धमातामह के उद्देश्य से श्राद्ध-तर्पण करेंगे तो उतने से ही उनके पिता और मातामह से लेकर मुझतक सभी पितर तृप्त हो जाएंगे । जिस अन्न से मनुष्य अपने पितरों की तुष्टि के लिए श्रेष्ठ ब्राह्मणों को तृप्त करेगा और उसी से भक्तिपूर्वक पितरों के निमित्त पिण्डदान भी देगा, उससे तुम्हें सनातन तृप्ति प्राप्त होगी । अमावस्या के दिन वंशजों द्वारा श्राद्ध और पिण्ड पाकर पितरों को एक मास तक तृप्ति बनी रहेगी । सूर्यदेव के कन्या राशि पर स्थित रहते समय आश्विन कृष्णपक्ष (पितृपक्ष/महालय) में जो मनुष्य तिथि पर पितरों के लिए श्राद्ध करेंगे, उनके उस श्राद्ध से पितरों को एकवर्ष तक तृप्ति बनी रहेगी । यदि मनुष्य गयाशीर्ष में जाकर एक बार भी श्राद्ध कर देंगे तो उसके प्रभाव से तुम सभी पितर सदा के लिए तृप्त हो जाओगे ।<br />
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<span style="color: #b45f06;">भर्तृयज्ञ कहते हैं:</span> राजन ! ऐसा जानकर विज्ञ पुरुष को चाहिए कि पितरों को तृप्त करने की इच्छा रखकर वह उक्त समयों में श्राद्ध अवश्य करे । इहलोक और परलोक में उसकी उन्नति चाहने वाले पुरुष को विशेषतः गयाशीर्ष में जाकर श्राद्ध करना चाहिए । जो मनुष्य श्राद्ध नहीं करता, उसके पितर भूख-प्यास से पीड़ित हो बहुत दुखी होते हैं । मन ही मन तृप्ति की अभिलाषा रखकर वे पितृपक्ष की प्रतीक्षा करते हैं, ठीक उसी तरह जैसे किसान लोग रात-दिन वर्षा की राह देखते हैं । पितृपक्ष बीत जाने पर भी जब उन्हें श्राद्ध का अन्न नहीं मिलता, तब वे जब तक सूर्य कन्याराशि पर रहते हैं, तब तक अपनी संतानों द्वारा किये हुए श्राद्ध की प्रतीक्षा करते हैं । उसके भी बीत जाने पर पितर तुलाराशि के सूर्य तक पूरे कार्तिकमास में अपने वंशजो द्वारा किये जानेवाले श्राद्ध की राह देखते हैं । जब सूर्यदेव वृश्चिक राशि पर चले जाते हैं, तब वे पितर दीन और निराश होकर अपने स्थान पर लौट जाते हैं । राजन ! इस प्रकार <span style="color: blue;">पूरे दो मास तक भूख प्यास से व्याकुल पितर वायुरूप में आकर घर के दरवाजों पर खड़े रहते हैं । अतः जब तक कन्या और तुला पर सूर्य रहते हैं तब तक तथा अमावस्या के दिन सदा पितरों के लिए श्राद्ध करना चाहिए । विशेषतः तिल और जल की अंजलि देनी चाहिए । कन्या और तुला में श्राद्ध न हो तो अमावस्या में अवश्य करें । वह भी न हो तो एक बार गयाजी में आकर श्राद्ध कर दें जिससे नित्य श्राद्ध का फल प्राप्त होता है ।</span><br />
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<div style="text-align: center;">
<b>श्राद्ध की विधि, विहित और निषिद्ध ब्राह्मण तथा मन्वादि एवं युगादी पुण्यतिथियों का वर्णन </b></div>
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<span style="color: #b45f06;">आनर्त ने पूछा:</span> मुनीश्वर ! सब मनुष्यों को किस विधि से श्राद्ध करना चाहिए ?<br />
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<span style="color: #b45f06;">भर्तृयज्ञ ने कहा:</span> उत्तम कर्मो द्वारा उपार्जित धन से पितरों का श्राद्ध करना उचित है । छल-कपट, चोरी और ठगी से कमाए हुए धन से कदापि श्राद्ध न करें । अपने वर्णोचित वृत्ति के द्वारा उपार्जित धन से श्राद्ध के लिए सामग्री एकत्र करें । पहले संध्याकाल आने पर काम-क्रोध से रहित एवं पवित्र हो श्राद्धकर्म के योग्य श्रेष्ठ ब्रह्मचर्यपरायण ब्राह्मणो को निमंत्रित करें । उनके अभाव में ब्रह्मज्ञानपरायण, अग्निहोत्री, वेदविद्या में निपुण गृहस्थ ब्राह्मणो को निमंत्रण दें । जिनका कोई अंग विकल न हो, जो निरोग, आहार पर संयम रखनेवाले तथा पवित्र हों, ऐसे ब्राह्मण श्राद्ध के योग्य बताये गए हैं ।<br />
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जो किसी अंग से हीन हो या जिनका कोई अंग अधिक हो, जो सर्वभक्षी हों, निकले गए हो, जिनके दांत काले हों या जिनके दांत गिर गए हों, जो वेद बेचनेवाले और यञवेदी को नष्ट करनेवाले हों, जिनमें वेद-शास्त्रों का ज्ञान न हो, जिनके नख ख़राब हो गए हों, जो रोगी, निर्धन, दूसरों की हिंसा करनेवाले, दुसरे लोगों पर लांछन लगनेवाले, नास्तिक, नाचनेवाले, सूदखोर, बुरे कर्मो में संलग्न, शौचाचार से शून्य, अत्यंत लम्बे, अति दुर्बल, बहुत मोठे, अधिक रोमवाले तथा रोमरहित हों ऐसे ब्राह्मणो को श्राद्ध में त्याग दे । जो पितरों का गौरव रखना चाहे, उसे ऐसा अवश्य करना चाहिए । जो परायी स्त्री में आसक्त, शूद्रजातीय स्त्री से संपर्क रखनेवाले, नपुंसक, मलिन, चोर, क्षत्रिय तथा वैश्य की वृत्ति वाले, माता-पिता का त्याग करनेवाले, गुरुस्त्रीगामी, निर्दोष पत्नी को छोड़नेवाले, कृतघ्न, खेती करनेवाले, शिल्प से जीविका चलनेवाले, भाला बेचकर या भाला चलकर जीववाले, चमड़े के व्यापार से जीवन-निर्वाह करनेवाले तथा अज्ञात कुलवाले हों ऐसे ब्राह्मणो को भी श्राद्ध में त्याग देना चाहिए ।<br />
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अब उन ब्राह्मणो का परिचय देता हूँ, जो श्राद्धकार्य में प्रशस्त माने गए हैं । त्रिणाचिकेत( नाचिकेत नामक विविध अग्नि का सेवन करनेवाले), 'मधुवाता' आदि तीन ऋचाओं का जप करनेवाले, छहों अंगो के ज्ञाता, त्रिसुपर्ण नामक ऋचाओं का पाठ करनेवाले, विद्या एवं व्रत को पूर्ण करके जो स्नातक हो चुके हों, धर्मद्रोण(धर्मशास्त्र) के पाठक, पुराणवेत्ता, ग्यानी, ज्येष्ठमास के ज्ञाता, अथर्वशीर्ष के विद्वान्, ऋतुकाल में अपनी पत्नी के साथ सहवास करनेवाले, उत्तम कर्मपरायण, सद्यःप्रक्षालक(तत्काल पात्र धो डालने वाले अर्थात एक ही समय के लिए अन्न संग्रह करने वाले ), शुक्ल, पुत्री के पुत्र, दामाद, भांजे, परोपकारी, मिष्ठान्न खाने वाले और पचने में समर्थ, मीठे वचन बोलनेवाले एवं सदा जप में तत्पर रहनेवाले - ये सभी ब्राह्मण पंक्तिपावन जानने चाहिए । ये पितरों के तृप्ति करते हैं । इसलिए थोड़ी विद्यावाले होने पर भी कुल और अचार में जो श्रेष्ठ हों, उन्ही को श्राद्ध में नियुक्त करना चाहिए ।<br />
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इस प्रकार ब्राह्मणो का ज्ञान करके सवयभाव से उनके चरणों का स्पर्श करते हुए प्रणाम करें और विश्वेदेव श्राद्ध के लिए दो ब्राह्मणो को निमंत्रण दें । दाहिना घुटना पृथ्वी पर टेककर इस मन्त्र का उच्चारण करें -<br />
<b>आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबलाः।</b><br />
<b>भक्त्याहूता मया चैव त्वम् चापि व्रतभाग्भव।।</b><br />
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मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक बुलाये हुए परम सौभाग्यशाली महाबली विश्वदेवगण इस श्राद्धकर्म में पधारें और हे ब्राह्मणदेव ! आप भी व्रत के भागी, क्रोधरहित, शौचपरायण तथा ब्रह्मचर्यपालक हों ।<br />
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निमंत्रित ब्राह्मणो को उस दिन विशेष संयम से रहना चाहिए । यजमान भी शांतचित्त और ब्रह्मचर्य युक्त रहे । वह रात बीत जाने पर प्रातः काल शयन से उठकर मनुष्य दिनभर किसी पर क्रोध न करे। उस दिन स्वाध्याय बंद रखे और आने द्वारा कोई कुत्सित कर्म न होने दे। तेल लगाना, परिश्रम करना, सवारी या वाहन आदि को दूर से ही त्याग दे।<br />
जिन तिथियों में श्रद्धापूर्ण ह्रदय से स्नान करके पितरों के लिए दिया हुआ तिलमिश्रित जल भी उनके लिए अक्षय तृप्ति का साधक होता है, उनका वर्णन करता हूँ - आश्विन शुक्ला नवमी, कार्तिक की द्वादशी, माघ तथा भादों की तृतीया, फाल्गुन की अमावस्या, पौष की एकादशी, आषाढ़ की दशमी, माघ की सप्तमी, श्रवण कृष्ण अष्टमी, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन, चैत्र और ज्येष्ठ मास की पूर्णिमाएं - ये मन्वादि तिथियां कही गयी हैं ।<br />
इनमें स्नान करने से जो मनुष्य पितरों के उद्देश्य से तिल और कुशमिश्रित जल भी देता है, वह परम गति को प्राप्त होता है । कार्तिक शुक्ल नवमी तथा वैशाख शुक्ला तृतीया, माघ की अमावस्या और श्रवण की तृतीया - ये क्रमशः सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग की आदि तिथियां हैं । ये स्नान, दान, जप, होम और पितृतर्पण आदि करने पर अक्षयपुण्य उत्पन्न करने वाली महान फल देनेवाली होती हैं । जब सूर्य मेषराशि अथवा तुलाराशि पर जाते हैं, उस समय अक्षय पुण्यदायक 'विषुव' नामक योग होता है । जिस समय सूर्य मकर और कर्क राशि पर जाते हैं, उस समय 'अयन' नामक काल होता है । सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि पर जाना 'संक्रान्ति' कहलाता है । ये सब स्नान, दान, जप,होम आदि का महान फल देने वाले हैं । इस प्रकार संक्रान्ति और युगादि तिथियों का वर्णन किया गया । इनमें दी गयी वस्तु का पुण्य अक्षय होता है ।<br />
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<div style="text-align: center;">
<span style="color: #783f04; font-size: large;"><b style="background-color: #ffd966;">संक्षिप्त ब्रह्म पुराण, गीताप्रेस, पृष्ठ ३६० </b></span></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="background-color: #ffd966; color: #783f04; font-size: large;">----------------------------------------------------------------</span></b></div>
<span style="color: #b45f06;">मुनियों ने </span><span style="color: #b45f06;">पूछा</span><span style="color: #b45f06;">: </span>भगवन ! अब श्राद्ध कल्प का विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिये । तपोधन ! कब, कहाँ, किन देशों में और किन लोगों को किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए - यह बताने की कृपा करें ।<br />
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<span style="color: #b45f06;">व्यास जी बोले:</span> मुनिवरों ! सुनो, मैं श्राद्ध कल्प का विस्तार से वर्णन करता हूँ। जब जहाँ, जिन प्रदेशों में और जिन लोगों द्वारा जिस प्रकार श्राद्ध किया जाना चाहिए, वह सब बतलाता हूँ । अपने कुलोचित धर्म का पालन करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को उचित है कि वे अपने अपने वर्ण के अनुरूप वेदोक्त विधि से मंत्रोच्चारणपूर्वक श्राद्ध का अनुष्ठान करें । स्त्रियों और शूद्रों को ब्राह्मण की आज्ञा के अनुसार मंत्रोच्चारण के बिना ही विधिवत श्राद्ध करना चाहिए । उनके लिए अग्नि में होम आदि वर्जित है । पुष्कर आदि तीर्थ, पवित्र मन्दिर, पर्वत शिखर, पावन प्रदेश, पुण्य सलिला नदी, नद, सरोवर, संगम, सात समुद्रों के तट, लिपे-पुते अपने घर, दिव्य वृक्षों के मूल और यज्ञ कुण्ड - ये सभी उत्तम स्थान हैं । इन सबमें श्राद्ध करना चाहिए ।<br />
<br />
अब श्राद्ध के लिए वर्जित स्थान बतलाता हूँ । किरात(किलात), कलिङ्ग(उड़ीसा), कोंकण, कृमि, दशार्ण, कुमार्य, तंगण, क्रथ, सिन्धु नदी का उत्तर तट, नर्मदा का दक्षिण तट और करतोया का पूर्व तट - इन प्रदेशों में श्राद्ध नहीं करना चाहिए ।<br />
प्रत्येक मास की पूर्णिमा तथा अमावस्या को श्राद्ध के लिए योग्य काल बताया गया है । नित्य श्राद्ध में विश्वेदेवों का पूजन नहीं होता । नैमित्तिक श्राद्ध विश्वेदेवों के पूजनपूर्वक होता है । नित्य, नैमित्तिक, काम्य - ये तीन प्रकार के श्राद्ध माने गए हैं । इन तीरों का प्रतिवर्ष अनुष्ठान करना चाहिए । जातकर्म आदि संस्कारों के अवसर पर आभ्युदयिक श्राद्ध भी करना उचित है। उसमें युग्म ब्राह्मणो को निमंत्रित करने का विधान है । आभ्युदयिक श्राद्ध माता से आरम्भ होता है । जब सूर्य कन्या राशि पर जाते हैं, तब कृष्ण पक्ष के पंद्रह दिनों तक परवान की विधि से श्राद्ध करना चाहिए । प्रतिपदा को श्राद्ध करने से धन की प्राप्ति होती है । द्वितीय संतान देनेवाली है । तृतीया, पुत्रप्राप्ति की अभिलाषा पूर्ण करती है । चतुर्थी, शत्रु का नाश करने वाली है । पंचमी को श्राद्ध करने से मनुष्य लक्ष्मी को प्राप्त करता है । षष्ठी को श्राद्ध करने से वह पूज्य होता है । सप्तमी को गणो का आधिपत्य, अष्टमी को उत्तम बुद्धि, नौमी को स्त्री, दशमी को मनोरथ की पूर्णता और एकादशी को श्राद्ध करने से सम्पूर्ण वेदों को प्राप्त करता है । द्वादशी को पितरों की पूजा करने वाला मानव विजय-लाभ करता है । त्रयोदशी को श्राद्ध करनेवालाल संतान-वृद्धि, पशु, मेधा, स्वतंत्रता, उत्तम पुष्टि, दीर्घायु अथवा ऐश्वर्य का भागी होता है - इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । जिसके पितर युवावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हुए अथवा शस्त्र द्वारा मारे गए हों, वह उन पितरों को तृप्त करने की इच्छा से चतुर्दशी तिथि को श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करें । जो परुष पवित्र होकर अमावस्या को यत्नपूर्वक श्राद्ध करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं तथा अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होता है ।<br />
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मुनिवरों ! अब पितरों की प्रसन्नता के लिए जो जो वास्तु देनी चाहिए, उसका वर्णन सुनो । जो श्राद्धकर्म में गुड़मिश्रित अन्न, तिल, मधु अथवा मधुमिश्रित अन्न देता है, उसका वह सम्पूर्ण दान अक्षय होता है । पितर कहते हैं - 'क्या हमारे कुल में कोई ऐसा पुरुष होगा, जो हमें जलाञ्जलि देगा, वर्षा और मघा नक्षत्र में हमको मधुमिश्रित खीर अर्पण करेगा ? मनुष्यों को बहुत से पुत्रों की अभिलाषा करनी चाहिए । यदि उनमें से एक भी गया चला जाए अथवा कन्या विवाह करे या नील वृष का उत्सर्ग करे तो पित्रों को पूर्ण तृप्ति और उत्तम गति प्राप्त हो।' कृत्तिका नक्षत्र में पितरों की पूजा करने वाला मानव स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। संतान की इच्छा रखनेवाला पुरुष रोहिणी में श्राद्ध करे । मृगशिरा में श्राद्ध करने से मनुष्य तेजस्वी होता है । आर्द्रा में शौर्य और पुनर्वसु में स्त्री की प्राप्ति होती है; पुष्य में अक्षय धन, आश्लेषा में उत्तम आयु, मघा में संतान और पुष्टि तथा पूर्वफाल्गुनि में सौभाग्य की प्राप्ति होती है । अतः अक्षय फल की इच्छा रखने वाले पुरुष को कन्याराशि पर सूर्य के रहते उक्त तथा अन्य विभिन्न नक्षत्रों में काम्य श्राद्ध का अनुष्ठान करना चाहिए । सूर्या के कन्या राशि पर स्थित रहते मनुष्य जिन-जिन कामनाओं का चिंतन करते हुए श्राद्ध करते हैं, उन सबको प्राप्त कर लेते हैं । जब सूर्य कन्या राशि पर हों, तब नान्दीमुख पितरों का भी श्राद्ध करना चाहिए; क्योंकि उस समय सभी पितर पिण्ड पाने की इच्छा रखते हैं । जो राजसूय और अश्वमेध यज्ञों का दुर्लभ फल प्राप्त करना चाहता हो, उसे कन्याराशि पर सूर्य के रहते जल, शाक और मूल आदि से भी पितरों की पूजा अवश्य करनी चाहिए । उत्तरफाल्गुनी और हस्त नक्षत्रों पर सूर्यदेव के स्थित रहते जो भक्तिपूर्वक पितरों का पूजन करता है, उसका स्वर्गलोक में निवास होता है । उस समय यमराज की आज्ञा से पितरों की पुरी तब तक खाली रहती है जब तक कि सूर्य वृश्चिक राशि पर उपस्थित रहते हैं । वृश्चिक बीत जाने पर भी जब कोई श्राद्ध नहीं करता, तब देवताओं सहित पितर मनुष्य को दुःसह शाप देकर खेदपूर्वक लम्बी सांसे लेते हुए अपनी पुरी को लौट जाते हैं । अष्टका, मन्वन्तरा और अन्वष्टका तिथियों को भी श्राद्ध करना चाहिए । वह मात्रवर्ग से आरम्भ होता है ।<br />
ग्रहण, व्यतिपात, एक राशि पर सूर्य और चन्द्रमा के संगम, जन्म नक्षत्र तथा ग्रहपीड़ा के अवसर पर पार्वण श्राद्ध करने का विधान है । दोनों अयनो के आरम्भ के दिन, दोनों विषुव, योगो के आने पर तथा प्रत्येक संक्रांति के दिन विधिपूर्वक उत्तम श्राद्ध करना चाहिए । इन दिनों पिण्डदान को छोड़कर शेष सभी श्राद्धसंबन्धी कार्य करने चाहिए । माता और पिता की मृत्यु के दिन प्रतिवर्ष एकोदृष्ट श्राद्ध करना चाहिए । यदि पिता के भाई अथवा अपने बड़े भाई की मृत्यु हो गयी हो और उनके कोई पुत्र नहीं हो तो उनके लिए भी निधन तिथि को प्रतिवर्ष एकोदृष्ट श्राद्ध करना उचित है । पार्वण श्राद्ध में पहले विश्वेदेवों का आह्वान और पूजन होता है । किन्तु एकोदृष्ट में ऐसा नहीं होता । देवकार्य में दो और पितृकार्य में तीन ब्राह्मणो को निमंत्रित करना चाहिए अथवा दोनों में एक-एक ब्राह्मण ही निमंत्रित करें । इसी प्रकार मातामहों के श्राद्धकार्य भी समझने चाहिए ।</div>
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जो हाल का मरा हो, उसके लिए सदा बाहर जल के समीप पृथ्वी पर तिल और कुशसहित पिण्ड और जल देना चाहिए । मृत्यु के तीसरे दिन प्रेत का अस्थि-चयन करना उचित है । घर में किसी की मृत्यु होने पर ब्राह्मण दस दिनों में, क्षत्रिय बारह दिनों में, वैश्य पंद्रह दिनों में और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है । सूतक निवृत्त हो जाने पर घर में एकोदृष्ट श्राद्ध करना बताया गया है । बारहवें दिन, एक मास पर, डेढ़ मास पर तथा उसके बाद प्रतिमास एक वर्ष तक श्राद्ध करना चाहिए । वर्ष बीतने पर सपिण्डीकरण श्राद्ध करना उचित है । सपिण्डीकरण हो जाने पर उसके लिए पार्वण श्राद्ध का विधान है । सपिण्डीकरण के बाद मृत व्यक्ति प्रेतभाव से मुक्त होकर पितरों के स्वरुप को प्राप्त होते हैं । पितर दो प्रकार के हैं - मूर्त और अमूर्त । नान्दीमुख नामवाले पितर मूर्तिमान बताये गए हैं । एकोदृष्ट श्राद्ध ग्रहण करने वाले पितरों की 'प्रेत' संज्ञा है । इस प्रकार पितरों के तीन भेद स्वीकार किये गए हैं ।<br />
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<span style="color: #b45f06;">मुनियों ने पूछा: </span>द्विजश्रेष्ठ ! मरे हुए पिता आदि का सपिण्डीकरण श्राद्ध कैसे करना चाहिए ? यह हमें विधिपूर्वक बताइये ।<br />
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<span style="color: #b45f06;">व्यास जी बोले: </span>ब्राह्मणो ! मैं सपिण्डीकरण श्राद्ध की विधि बतलाता हूँ, सुनो । सपिण्डीकरण श्राद्ध विश्वेदेवों की पूजा से रहित होता है । इसमें एक ही अर्घ्य और एक ही पवित्रक का विधान है । अग्निकरण और आह्वान की क्रिया भी इसमें नहीं होती । सपिण्डीकरण में अपसव्य होकर अयुग्म ब्राह्मणो को भोजन कराना चाहिए । इसमें जो विशेष क्रिया है, उसका वर्णन करता हूँ; एकाग्रचित्त होकर सुनो। सपिण्डीकरण में तिल, चन्दन और जल से युक्त चार पात्र होते हैं । उनमें से तीन तो पितरों के लिए रखें और एक प्रेत के लिए । प्रेत के पात्र से अर्घ्य-जल लेकर '<b>ये समानाः समनसः</b>' इत्यादि मंत्र का जप करते हुए पितरों के तीनो पात्रों में छोड़ना चाहिए । शेष कार्य अन्य श्राद्धों की भांति करने चाहिए । स्त्रियों के लिए भी इसी प्रकार एकोदृष्ट का विधान है । यदि पुत्र न हो तो स्त्रियों का सपिण्डीकरण नहीं होता । पुरुषों को उचित है कि वे स्त्रियों के लिए भी प्रतिवर्ष उनकी मृत्युतिथि को एकोदृष्ट श्राद्ध करें । पुत्र के अभाव में सपिण्ड और सपिण्ड के अभाव में सहोदक, इस विधि को पूर्ण करें । जिसके कोई पुत्र न हो, उसका श्राद्ध उसके दौहित्र(नाती) कर सकते हैं । पुत्रिका-विधि से ब्याही कन्या के पुत्र तो अपने नाना आदि का श्राद्ध करने के अधिकारी हैं ही । जिनकी द्वयामुष्यायण संज्ञा है, ऐसी पुत्र नाना और बाबा दोनों का नैमित्तिक श्राद्धों में भी विधिपूर्वक पूजन कर सकते हैं । कोई भी न हो तो स्त्रियां ही अपनी पतियों का मंत्रोच्चारण किये बिना श्राद्ध कर सकती हैं । वे भी न हो तो राजा मृतक के सजातीय मनुष्यों द्वारा दाह आदि समस्त क्रियाएं पूर्ण कराये; क्योंकि राजा सब वर्णो का बन्धु होता है ।<br />
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ब्राह्मणो ! सपिण्डीकरण के बाद पिता के जो प्रपितामह हैं, वे लेपभागभोजी पितरों की श्रेणी में चले जाते हैं । उन्हें पितृपिण्ड पाने का अधिकार नहं रहता । उनसे आरम्भ करके चार पीढ़ी ऊपर के पितर, जो पुत्र के लेपभाग का अन्न ग्रहण करते थे, उसके सम्बन्ध से रहित हो जाते हैं । अब उनको लेपभाग पाने का अधिकार नहीं रहता । वे सम्बन्धहीन अन्न का उपभोग करते हैं । पिता, पितामह, प्रपितामह - इन तीन पुरुषों को पिण्ड का अधिकारी समझना चाहिए । इनसे भिन्न अर्थात पितामह के पितामह से लेकर ऊपर के जो तीन पीढ़ी के पुरुष हैं, वे लेपभाग के अधिकारी हैं । इस प्रकार छः ये और सातवां यजमान - सब मिलकर सात पुरुषों का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है - ऐसा मुनियों का कथन है । यह सम्बन्ध यजमान से लेकर ऊपर के लेपभागभोजी पितरों तक माना जाता है । इनसे ऊपर के सभी पितर पूर्वज कहलाते हैं । पूर्वजों में से जो नरक में निवास करते हैं, जो पशु-पक्षी की योनि में पड़े हैं तथा जो भूत आदि के रूप में स्थित हैं, उन सबको विधिपूर्वक श्राद्ध करनेवाला यजमान तृप्त करता है । जिसके जिसकी तृप्ति होती है, वह बतलाता हूँ ; सुनो । मनुष्य पृथ्वी पर जो अन्न बिखेरते हैं, उससे पिशाचयोनि में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । स्नान के वस्त्र से जो जल पृथ्वी पर टपकता है, उससे वृक्षयोनि में पड़े हुए पितर तृप्त होते हैं । नहाने पर अपने शरीर से जो जल के कण पृथ्वी पर गिरते हैं, उनसे उन पितरों की तृप्ति होती है जो देवभाव को प्राप्त हुए हैं । पिण्डो के उठाने पर जो जल के कण पृथ्वी पर गिरते हैं, उनसे पशु-पक्षी की योनि में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । कुल में जो बालक दांत निकलने से पहले दाह आदि कर्म के अनधिकारी रहकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे सम्मार्जन के जल का आहार करते हैं । ब्राह्मण लोग भोजन करके जो हाथ-मुंह धोते हैं और चरणों का प्रक्षालन करते हैं, उस जल से अन्यान्य पितरों की तृप्ति होती है । ब्राह्मणो ! इस प्रकार विधिपूर्वक श्राद्ध करनेवाले पुरुषों के पितर जो दूसरी-दूसरी योनियों में चले गए हैं, वे भी यजमान और ब्राह्मणो के हाथ से बिखरे हुए अन्न और जल के द्वारा पूर्ण तृप्त होते हैं । मनुष्य अन्यायोपार्जित धन से जो श्राद्ध करते हैं, उससे चाण्डाल आदि योनियों में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । इस प्रकार यहाँ श्राद्ध करनेवाले भाई-बंधुओं के द्वारा जो अन्न और जल पृथ्वी पर डाले जाते हैं, उनके द्वारा बहुत से पितर तृप्त होते हैं । अतः मनुष्य को उचित है कि वह पितरों के प्रति भक्ति रखते हुए शाकमात्र के द्वारा भी विधिपूर्वक श्राद्ध करे । श्राद्ध करनेवाले लोगों के कुल में कोई दुःख नहीं भोगता ।<br />
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श्रेष्ठ द्विजों को देवयज्ञ अथवा श्राद्ध में एक दिन पहले ही निमंत्रण देना चाहिए । उसी समय से ब्राह्मणो तथा श्राद्धकर्ता को भी संयम से रहना चाहिए । जो श्राद्ध में दान देकर अथवा भोजन करके मैथुन करता है, उसके पितर एक मास तक वीर्य में शयन करते हैं । जो स्त्री सहवास करके श्राद्ध करता अथवा श्राद्ध में भोजन करता है, उसके पितर उसके वीर्य और मूत्र का एक मास तक आहार करते हैं । इसलिए विद्वान् पुरुष को एक दिन पहले ही ब्राह्मणों के पास निमंत्रण भेजना चाहिए । यदि पहले दिन ब्राह्मण न मिल सकें तो श्राद्ध के दिन भी निमंत्रण किया जा सकता है । परन्तु स्त्री-प्रसङ्गी ब्राह्मणो को कदापि निमंत्रित न करें । यदि समय पर भिक्षा के लिए संयमी यति स्वयं पधारे हों तो उन्हें भी नमस्कार आदि के द्वारा प्रसन्न करके संयतचित्त से अवश्य भोजन कराएं । विद्वान् पुरुष श्राद्ध में योगियों को भी भोजन कराएं । क्योंकि पितरों का आधार योग है, अतः योगियों का सदा पूजन करना चाहिए । यदि हज़ारों ब्राह्मणों में एक भी योगी हो तो वह जल से नौका की भांति यजमान और श्राद्धभोजी ब्राह्मणो को भी तार देता है । इस विषय में ब्रह्मवादी विद्वान् पितरों की गायी हुई एक गाथा का गान करते हैं । पूर्वकाल में राजा पुरुरवा के पितरों ने उसका गान किया था । वह गाथा इस प्रकार है - 'हमारी वंश परम्परा में कब किसी को ऐसा श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त होगा, जो योगियों को भोजन कराने से बचे हुए अन्न को लेकर पृथ्वी पर हमारे लिए पिण्ड देगा? अथवा गया में जाकर पिण्डदान करेगा । या हमारी तृप्ति के लिए सामयिक शाक,तिल , घी, और खिचड़ी देगा ? अथवा त्रयोदशी तिथि और मघा नक्षत्र में विधिपूर्वक श्राद्ध करेगा और दक्षिणायन में हमारे लिए मधु और घी से मिली हुई खीर देगा ?<br />
श्राद्ध में तृप्त हुए पितर मनुष्यों के लिए वसु, रूद्र, आदित्य, नक्षत्र, ग्रह और तारों की प्रसन्नता का सम्पादन करते हैं । इतना ही नहीं वे आयु, प्रजा, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सुख तथा राज्य भी देते हैं । पितरों को पूर्वाह्न की अपेक्षा अपराह्न अधिक प्रिय है । घर पर आये हुए ब्राह्मणो का स्वागतपूर्वक पूजन करके उन्हें पवित्रयुक्त हाथ से आचमन कराने के पश्चात आसनों पर बिठाये; फिर विधिपूर्वक श्राद्ध करके उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने के पश्चात भक्तिपूर्वक प्रणाम करें और प्रिय वचन कहकर विदा करें । दरवाजे तक उन्हें पहुंचने के लिए पीछे पीछे जाएँ और उनकी आज्ञा लेकर लौटे । तदनन्तर नित्यक्रिया करें और और अतिथियों को भोजन कराये । किन्ही किन्ही श्रेष्ठ पुरुषों का विचार है कि यह नित्यकर्म भी पितरों के ही उद्देश्य से होता है<br />
तदनन्तर श्राद्धकर्ता अपने भृत्य आदि के साथ अवशिष्ट अन्न भोजन करें । धर्मज्ञ पुरुष को इसी प्रकार एकाग्रचित्त होकर पितरों का श्राद्ध करना चाहिए और जिस प्रकार ब्राह्मणों को संतोष हो, वैसी चेष्टा करनी चाहिए । अब मैं श्राद्ध में त्याग देने योग्य अधम ब्राह्मणो का वर्णन करता हौं । मित्रद्रोही, ख़राब नखों वाला, नपुंसक, क्षय का रोगी, कोढ़ी, व्यापारी, काले दांतों वाला, गांजा, काना, अँधा, बेहरा, जड़, गूंगा, पंगु, हिजड़ा। ख़राब चमड़े वाला, हीनांग, लाल आँखों वाला, कुबड़ा, बौना, विकराल, आलसी, मित्र के प्रति शत्रुभाव रखनेवाला, कलंकित कुल में उत्पन्न, पशुपालन करने वाला, अच्छी आकृति से हीन, परिवित्ति(छोटे भाई के विवाहित होने पर भी स्वयं अविवाहित रहने वाला), परिवेत्ता(बड़े भाई के ब्याह से पहले ही विवाह कर लेने वाला), परिवेदनिका(बड़ी बहन के विवाह से पहले ही विवाह करनेवाली स्त्री)- का पुत्र, शूद्रजातीय स्त्री का स्वामी और उसका पुत्र - ऐसे ब्राह्मण श्राद्ध-भोजन के अधिकारी नहीं हैं । जहाँ दुष्ट पुरुषों का आदर और साधु पुरुषों की अवहेलना होती है, वहां देवताओं का दिया हुआ भयंकर दण्ड तत्काल ऊपर पड़ता है । जो शास्त्र-विधि की अवहेलना करके मूर्ख को भोजन कराता है, वह दाता प्राचीन धर्म का त्याग करने के कारण नष्ट हो जाता है । जो अपने आश्रय में रहनेवाले ब्राह्मण का परित्याग करके दुसरे को बुलाकर भोजन कराता है, वह दाता उस ब्राह्मण के शोकोच्छवास की आग में दग्ध होकर नष्ट हो जाता है ।<br />
वस्त्र के बिना कोई क्रिया, यज्ञ, वेदाध्ययन तपस्या नहीं होती। अतः श्राद्धकाल में वस्त्र का दान विशेष रूप से करना चाहिए । जो रेशमी, सूती और बिना कटा हुआ वस्त्र श्राद्ध में देता है, वह उत्तम भोगों को प्राप्त करता है । जैसे बहुत सी गौओं में बछड़ा अपनी माता के पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार श्राद्ध में भोजन किया हुआ अन्न जीव के पास, वह जहाँ भी रहता है, पहुँच जाता है । नाम, गोत्र और मंत्र - ये अन्न को वहां ढोकर नहीं ले जाते अपितु मृत्यु को प्राप्त हुए जीवों तक को तृप्ति पहुँचती है - वे श्राद्ध से तृप्ति लाभ करते है ।<br />
<br />
'<b>देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः।।</b>' इस मन्त्र का श्राद्ध के आरम्भ और अन्त में तीन बार जप करे । पिण्डदान करते समय भी एकाग्रचित्त होकर इसका जप करना चाहिए । इससे पितर शीघ्र ही आ जाते हैं और राक्षस भाग खड़े होते हैं तथा तीनो लोकों के पितर तृप्त होते हैं । श्राद्ध में रेशम, सन अथवा कपास का सूत देना चाहिए । ऊन अथवा पाटका सूत्र वर्जित है । विद्वान पुरुष, जिसमें कोर न हो, ऐसा वस्त्र फटा न होने पर भी श्राद्ध में न दें; क्योंकि उससे पितरों को तृप्ति नहीं होती और दाता के लिए भी अन्याय का फल प्राप्त होता है । पिता आदि में से जो जीवित हो, उसको पिण्ड नहीं देना चाहिए, अपितु उसे विधिपूर्वक उत्तम भोजन कराना चाहिए । भोग की इच्छा रखने वाला पुरुष श्राद्ध के पश्चात पिण्ड को अग्नि में दाल दे और जिसे पुत्र की अभिलाषा हो, वह माध्यम अर्थात पितामह के पिण्ड को मंत्रोच्चारणपूर्वक अपनी पत्नी को हाथ में दे दे और पत्नी उसे खा ले । जो उत्तम कान्ति की इच्छा रखने वाला हो, वह श्राद्ध के अनन्तर सब पिण्ड गौवों को खिला दे। बुद्धि, यश और कीर्ति चाहने वाला पुरुष पिण्डों को जल में दाल दे । दीर्घायु की अभिलाषा वाला पुरुष उसे कौवो को दे दे । कुमारशाला की इच्छा रखनेवाला पुरुष वह पिण्ड मूगों को दे दे । कुछ ब्राह्मण ऐसा कहते हैं कि पहले ब्राह्मणो से "पिण्ड उठाओ" ऐसी आज्ञा लेले; उसके बाद पिण्डों को उठाये । अतः ऋषियों की बताई हुई विधि के अनुसार श्राद्ध का अनुष्ठान करें; अन्यथा दोष लगता है और पितरों को भी नहीं मिलता ।<br />
अपनी शक्ति के अनुसार श्राद्ध की सामग्री एकत्रित करके विधिपूर्वक श्राद्ध करना सबका कर्तव्य है । जो अपने वैभव के अनुसार इस प्रकार विधिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह मानव ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त, सम्पूर्ण जगत को तृप्त कर देता है ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">मुनियों ने पूछा:</span> ब्रह्मन ! जिसके पिता तो जीवित हों, किन्तु पितामह और प्रपितामह की मृत्यु हो गयी हो, उसे किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए यह विस्तारपूर्वक बताइये ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">व्यास जी बोले:</span> पिता जिनके लिए श्राद्ध करते हैं, उनके लिए स्वयं पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है । ऐसा करने से लौकिक और वैदिक धर्म की हानि नहीं होती ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">मुनियों ने पूछा:</span> विप्रवर ! जिसके पिता की मृत्यु हो गयी हो और पितामह जीवित हों, उसे किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए? यह बताने की कृपा करें ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">व्यास जी बोले:</span> पिता को पिण्ड दे, पितामह को प्रत्यक्ष भोजन कराये और प्रपितामह को भी पिण्ड दे दे । यही शास्त्रों का निर्णय है । मरे हुए को पिण्ड देने और जीवित को भोजन कराने का विधान है । उस अवस्था में सपिण्डीकरण और पार्वणश्राद्ध नहीं हो सकता ।<br />
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<br />
लेपभागभोजी<br />
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<br /></div>
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नैमित्तिक श्राद्ध</div>
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देवकार्य</div>
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पितृकार्य </div>
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Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-81583689577189666842019-04-07T02:12:00.000+05:302019-04-07T02:50:37.246+05:30शास्त्र ज्ञान सत्र के श्लोक<b>Day - ७</b><br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">सर्व मङ्गल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।</span><br />
<br />
आप सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करने वाली हैं । आप ही शिव हैं, सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, शरणागत वत्सल, तीन नेत्रों वाली गौरी, आप को नमस्कार ।<br />
<br />
<b>Day - ९</b><br />
<b><br /></b><span style="background-color: #fff2cc;">
या कुन्देन्दु तुषार हार धवला या शुभ्र वस्त्रावृता</span><span style="background-color: #fff2cc;">।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">या वीणा वरदण्डमण्डितकरा या श्वेत पद्मासना</span><span style="background-color: #fff2cc;">।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">या ब्रह्माच्युत शङ्कर प्रभृति भिर्देवै सदा वन्दिता</span><span style="background-color: #fff2cc;">।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">सा माम् पातु सरस्वती भगवती निः शेष ज्याड्याऽपहा</span><span style="background-color: #fff2cc;">।।</span><br />
<br />
जो कुन्द के फूल और इन्दु(चन्द्रमा) और बर्फ की तरह धवल(गौरवर्ण) हैं, जिनके हाथ में वीणा है, वर मुद्रा में हैं और हाथ में दण्ड है। जो कमल के फूल के आसन पर हैं। जो ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी द्वारा सदा वन्दित/पूजित हैं। वे संसार की जड़ता, अज्ञानता से मेरी रक्षा करें ।<br />
*पद्मासन - ध्यान के लिए, इससे स्मरण शक्ति बढ़ती है। ज्यादा वजन, घुटनो के दर्द वालों के लिए वर्जित ।<br />
<br />
<b>Day - १०</b><br />
<br />
नमो काशीवासी अजित अविनाशी प्रभु नमो<br />
<br />
<b>Day - ११</b> - भोजन मन्त्र<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">ॐ यन्तु नद्यौ वर्षन्तु पर्जन्या सुपिप्पला औषधयो भवन्तु।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">अन्नवताम् मोदान्न्वताम् मामिक्षवताम्, एषाम् राजाभूयासम्</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">ओदनमुद्ब्रुवते परमेष्ठी वा एषः यदोदनः</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">परमावैनम् श्रियं गमयति ।।</span><br />
<br />
हे ईश्वर वर्षा होती रहे, नदियां बहती रहे, वृक्षों पर औषधि, फल-फूल, फले फूलें, मुझे अन्न और दूध उत्पादन करने वालों से लाभ ह, ऐसी धरती का मैं राजा बनूँ। हे ईश्वर इस थाली में रखा भोजन आपके द्वारा प्रदत्त प्रसाद है, इस प्रसाद का सेवन मुझे स्वास्थ्य और समृद्धि की ऊंचाइयों पर ले जाए ।<br />
<br />
मा भ्राता भ्रातरं दिक्षण, मा स्वसारमुतस्वसा सम्यन्च सव्रता भूत्वा, वाचं वदत भद्रया<br />
<br />
भाई-भाई से न लाडे, बहनें दयालु हों, सभी एक दुसरे से सम्भाषण करें और आपस में सत्य, सेवा एवं सहयोग की भावना पैदा करें ।<br />
<div>
<br />
<b>Day - </b>१२<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">शुक्लाम्बर धरं देवम शशिवर्णं चतुर्भुजं।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">प्रसन्नवदनं ध्यायेत सर्वविघ्नपशान्तये ।।</span><br />
<br />
वो देव जिन्होंने गौर वस्त्र धारण किये हैं, जिनकी कान्ति चन्द्र के समान है, चार भुजाओं वाले, मुख पे प्रसन्नता छायी रहती है ।<br />
<br />
<b>Day - </b>१३<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमां आधां जगाद्वापिनी </span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">वीणा पुस्तक धारिणी अभयदां जाड्यान्धकारपहां।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">हस्ते स्फाटिक मालिकां विदधति पद्मासने संस्थिता</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">वनडे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदां।।</span><br />
<br />
परब्रह्म के स्वरोप्प के विचार और सार स्वरुप जगत को व्याप्त करने वाली, वीणा और पुस्तक धारण करने वाली, अभयदान देने वाली, अज्ञान का अन्धकार हटाने वाली हैं । हाथों में स्फटिक की माला लिए कमल पर स्थित हैं । आप मुझे बुद्धि प्रदान कीजिये, इसके लिए मैं आपकी वंदना करता हूँ ।<br />
<br />
<b>Day - </b>१८<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">आवाहनं न जानामि नैव जानामि विसर्जनं।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">पूजनम न चैव जानामि क्षम्यतां परमेश्वरी।।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">यत पूजनम मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे।।</span><br />
<br />
<b>Day - </b>२० - द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग<br />
<br />
शान्ताकारं भुजंगशयनम पद्मनाभं सुरेशं।<br />
विश्वाधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभांगम।।<br />
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्।<br />
वन्दे विष्णुं ! भव भय हरं सर्वलोकैकनाथं।।<br />
<br />
सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्।<br />
उज्जयिन्यां महाकालमोंकारं ममलेश्वरम् ॥1॥<br />
<br />
परल्यां वैजनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम्।<br />
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने ॥2॥<br />
<br />
वारणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमी तटे।<br />
हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये ॥3॥<br />
<br />
एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रातः पठेन्नरः।<br />
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरेण विनश्यति ॥4॥<br />
<br />
<b>Day - </b>२५ - श्री सूक्त<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं, सुवर्णरजतस्त्रजाम्।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आ वह।।१।।</span><br />
<br />
हे जातवेदा (सर्वज्ञ) अग्निदेव! सुवर्ण के समान पीले रंगवाली, किंचित हरितवर्ण वाली, सोने और चांदी के हार पहनने वाली, चांदी के समान धवल पुष्पों की माला धारण करने वाली, चन्द्र के समान प्रसन्नकान्ति, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी को मेरे लिए आवाहन करो (बुलाइए)।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">तां म आ वह जातवेदो, लक्ष्मीमनपगामिनीम्।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।।२।।</span><br />
<br />
हे अग्निदेव! आप उन जगत प्रसिद्ध लक्ष्मीजी को, जिनका कभी विनाश नहीं होता तथा जिनके आगमन से मैं सोना, गौ, घोड़े तथा पुत्रादि को प्राप्त करुंगा, मेरे लिए आवाहन करो।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">अश्वपूर्वां रथमध्यां, हस्तिनादप्रमोदिनीम्।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">श्रियं देवीमुप ह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।।३।।</span><br />
<br />
जिन देवी के आगे घोड़े तथा उनके पीछे रथ रहते हैं अथवा जिनके सम्मुख घोड़े रथ में जुते हुए हैं, ऐसे रथ में बैठी हुई, हाथियों के निनाद से प्रमुदित होने वाली, देदीप्यमान एवं समस्तजनों को आश्रय देने वाली लक्ष्मीजी को मैं अपने सम्मुख बुलाता हूँ। दीप्यमान व सबकी आश्रयदाता वह लक्ष्मी मेरे घर में सर्वदा निवास करें।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">पद्मेस्थितां पद्मवर्णां तामिहोप ह्वये श्रियम्।।४।।</span><br />
<br />
जो साक्षात् ब्रह्मरूपा, मन्द-मन्द मुसकराने वाली, जो चारों ओर सुवर्ण से ओत-प्रोत हैं, दया से आर्द्र हृदय वाली या समुद्र से प्रादुर्भूत (प्रकट) होने के कारण आर्द्र शरीर होती हुई भी तेजोमयी हैं, स्वयं पूर्णकामा होने के कारण भक्तों के नाना प्रकार के मनोरथों को पूर्ण करने वाली, भक्तानुग्रहकारिणी, कमल के आसन पर विराजमान तथा पद्मवर्णा हैं, उन लक्ष्मीदेवी का मैं यहां आवाहन करता हूँ।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">तां पद्मिनीमीं शरणं प्र पद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे।।५।।</span><br />
<br />
मैं चन्द्र के समान शुभ्र कान्तिवाली, सुन्दर, द्युतिशालिनी, यश से दीप्तिमती, स्वर्गलोक में देवगणों के द्वारा पूजिता, उदारशीला, पद्महस्ता, सभी की रक्षा करने वाली एवं आश्रयदात्री लक्ष्मीदेवी की शरण ग्रहण करता हूँ। मेरा दारिद्रय दूर हो जाय। मैं आपको शरण्य के रूप में वरण करता हूँ अर्थात् आपका आश्रय लेता हूँ।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">आदित्यवर्णे तपसोऽधि जातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">तस्य फलानि तपसा नुदन्तु या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।६।।</span><br />
<br />
हे सूर्य के समान कान्ति वाली! तुम्हारे ही तप से वृक्षों में श्रेष्ठ मंगलमय बिना फूल के फल देने वाला बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआ। उस बिल्व वृक्ष के फल हमारे बाहरी और भीतरी (मन व संसार के) दारिद्रय को दूर करें।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">उपैतु मां दैवसखः, कीर्तिश्च मणिना सह।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिमृद्धिं ददातु मे।।७।।</span><br />
<br />
हे लक्ष्मी! देवसखा (महादेव के सखा) कुबेर और उनके मित्र मणिभद्र अर्थात् चिन्तामणि तथा दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति मुझे प्राप्त हों। अर्थात् मुझे धन और यश की प्राप्ति हो। मैं इस राष्ट्र में–देश में उत्पन्न हुआ हूँ, मुझे कीर्ति और ऋद्धि प्रदान करें।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वां निर्णुद मे गृहात्।।८।।</span><br />
<br />
लक्ष्मी की ज्येष्ठ बहिन अलक्ष्मी (दरिद्रता की अधिष्ठात्री देवी) का, जो क्षुधा और पिपासा से मलिन–क्षीणकाय रहती हैं, मैं नाश चाहता हूँ। देवि! मेरे घर से सब प्रकार के दारिद्रय और अमंगल को दूर करो।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">गन्धद्वारां दुराधर्षां, नित्यपुष्टां करीषिणीम्।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">ईश्वरीं सर्वभूतानां, तामिहोप ह्वये श्रियम्।।९।।</span><br />
<br />
सुगन्धित पुष्प के समर्पण करने से प्राप्त करने योग्य, किसी से भी दबने योग्य नहीं, धन-धान्य से सर्वदा पूर्ण, गौ-अश्वादि पशुओं की समृद्धि देने वाली, समस्त प्राणियों की स्वामिनी तथा संसार प्रसिद्ध लक्ष्मीदेवी का मैं यहां–अपने घर में आवाहन करता हूँ।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः।।१०।।</span><br />
<br />
हे लक्ष्मी देवी! आपके प्रभाव से मन की कामनाएं और संकल्प की सिद्धि एवं वाणी की सत्यता मुझे प्राप्त हों; मैं गौ आदि पशुओं के दूध, दही, यव आदि एवं विभिन्न अन्नों के रूप (भक्ष्य, भोज्य, चोष्य, लेह्य, चतुर्विध भोज्य पदार्थों) को प्राप्त करुँ। सम्पत्ति और यश मुझमें आश्रय लें अर्थात् मैं लक्ष्मीवान एवं कीर्तिमान बनूँ।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्।।११।।</span><br />
<br />
लक्ष्मी के पुत्र कर्दम की हम संतान हैं। कर्दम ऋषि! आप हमारे यहां उत्पन्न हों (अर्थात् कर्दम ऋषि की कृपा होने पर लक्ष्मी को मेरे यहां रहना ही होगा) मेरे घर में लक्ष्मी निवास करें। पद्मों की माला धारण करने वाली सम्पूर्ण संसार की माता लक्ष्मीदेवी को हमारे कुल में स्थापित कराओ।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले।।१२।।</span><br />
<br />
समुद्र-मन्थन द्वारा चौदह रत्नों के साथ लक्ष्मी का भी आविर्भाव हुआ है। इसी अभिप्राय में कहा गया है कि वरुण देवता स्निग्ध पदार्थों की सृष्टि करें। पदार्थों में सुन्दरता ही लक्ष्मी है। लक्ष्मी के आनन्द, कर्दम, चिक्लीत और श्रीत–ये चार पुत्र हैं। इनमें चिक्लीत से प्रार्थना की गयी है। हे लक्ष्मीपुत्र चिक्लीत! आप भी मेरे घर में वास करें और दिव्यगुणयुक्ता तथा सर्वाश्रयभूता अपनी माता लक्ष्मी को भी मेरे कुल में निवास करायें।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिंगलां पद्ममालिनीम्।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आ वह।।१३।।</span><br />
<br />
हे अग्निदेव! हाथियों के शुण्डाग्र से अभिषिक्त अतएव आर्द्र शरीर वाली, पुष्टि को देने वाली अर्थात् पुष्टिरूपा, पीतवर्णा, पद्मों (कमल) की माला धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान शुभ्र कान्ति से युक्त, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी का मेरे घर में आवाहन करें।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">आर्द्रां य करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह।।१४।।</span><br />
<br />
हे अग्निदेव! जो दुष्टों का निग्रह करने वाली होने पर भी कोमल स्वभाव की हैं, जो मंगलदायिनी, अवलम्बन प्रदान करने वाली यष्टिरूपा हैं (जिस प्रकार लकड़ी के बिना असमर्थ पुरुष चल नहीं सकता, उसी प्रकार लक्ष्मी के बिना संसार का कोई भी कार्य ठीक प्रकार नहीं हो पाता), सुन्दर वर्णवाली, सुवर्णमालाधारिणी, सूर्यस्वरूपा तथा हिरण्यमयी हैं (जिस प्रकार सूर्य प्रकाश और वृष्टि द्वारा जगत का पालन-पोषण करता है, उसी प्रकार लक्ष्मी ज्ञान और धन के द्वारा संसार का पालन-पोषण करती है), उन प्रकाशस्वरूपा लक्ष्मी का मेरे लिए आवाहन करें।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम्।।१५।।</span><br />
<br />
हे अग्निदेव! कभी नष्ट न होने वाली उन स्थिर लक्ष्मी का मेरे लिए आवाहन करें जो मुझे छोड़कर अन्यत्र नहीं जाने वाली हों, जिनके आगमन से बहुत-सा धन, उत्तम ऐश्वर्य, गौएं, दासियां, अश्व और पुत्रादि को हम प्राप्त करें।<br />
<br />
<span style="background-color: #fff2cc;">य: शुचि: प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।</span><br />
<span style="background-color: #fff2cc;">सूक्तं पंचदशर्चं च श्रीकाम: सततं जपेत्।।१६।।</span><br />
<br />
जिसे लक्ष्मी की कामना हो, वह प्रतिदिन पवित्र और संयमशील होकर अग्नि में घी की आहुतियां दे तथा इन पंद्रह ऋचाओं वाले–’श्री-सूक्त’ का निरन्तर पाठ करे।<br />
<br /></div>
Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-82665723100760366252019-03-15T13:30:00.001+05:302019-12-11T02:10:14.832+05:30संक्षिप्त ब्रह्म पुराणपाताल वर्णन<br />
==========<br />
पृथ्वी के भीतर सात तल हैं<br />
<br />
अतल<span style="white-space: pre;"> </span>काली<br />
वितल<span style="white-space: pre;"> </span>सफ़ेद<br />
नितल<span style="white-space: pre;"> </span>लाल<br />
सुतल<span style="white-space: pre;"> </span> पीली<br />
तलातल<span style="white-space: pre;"> </span>कंकरीली<br />
रसातल<span style="white-space: pre;"> </span>पथरीली<br />
पाताल <span style="white-space: pre;"> </span>सुवर्णमयी<br />
<br />
सब पातालों के नीचे भगवान् विष्णु का तमोमय विग्रह, शेषनाग है । उन्ही नागश्रेष्ठ ने इस पृथ्वी को धारण कर रखा है<br />
----------<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b>अदिति के गर्भ से सूर्य(मार्तण्ड) अवतार का वर्णन </b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>----------------------------------------------------------</b></div>
<span style="color: #b45f06;">मुनियों ने पूछा:</span> भगवन ! आपने भगवान् सूर्य को निर्गुण और सनातन देवता बतलाया है; फिर आपके ही मुंह से हमने यह भी सुना है कि वे बारह स्वरूपों में प्रकट हुए । वे तेज की राशि और महान तेजस्वी होकर किसी स्त्री के गर्भ में कैसे प्रकट हुए, इस विषय में हमें बड़ा संदेह है ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">ब्रह्माजी बोले:</span> प्रजापति दक्ष के साथ कन्याएं हुई जो श्रेष्ठ और सुंदरी थीं । उनमें से, अदिति से देवता, दिति से दैत्य और दनु से बलाभिमानी दानव हुए । देवता सात्विक हैं और उनके अतिरिक्त दैत्य आदि राजस और तामस हैं । देवताओं को यज्ञ का भागी बनाया गया है परन्तु दैत्य और दानव उनसे शत्रुता रखते थे सो मिलकर देवताओं को कष्ट पहुंचाने लगे । जब अदिति ने देखा की दैत्यों और दानवों ने मेरे पुत्रों को अपने स्थान से हटा दिया है और साड़ी त्रिलोकी नष्टप्राय कर दी । तब उन्हीने सूर्य की आराधना करने का महान प्रयत्न किया । वे नियमित आहार करके कठोर नियम का पालन करती हुई, एकाग्रचित्त हो आकाश में स्थित तेजोराशि भगवान् भास्कर का स्तवन करने लगीं और इस प्रकार बहुत दिनों तक आराधना करने पर भगवान् सूर्य ने दक्षकन्या को अपने दर्शन दिए ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">अदिति बोली:</span> देव ! आप प्रसन्न हों । अधिक बलवान दैत्यों और दानवों ने मेरे पुत्रों के हाथ से त्रिलोकी राज्य और यञभाग छीन लिए हैं । गोपते ! अपने अंश से मेरे पुत्रों के भाई होकर आप उनके शत्रुओं का नाश करें ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">भगवान् सूर्य ने कहा:</span> देवी ! मैं अपने हज़ारवें अंश से तुम्हारे गर्भ का बालक होकर प्रकट होऊंगा और तुम्हारे पुत्र के शत्रुओं का नाश करूँगा<br />
<br />
तत्पश्चात भगवान् सूर्य ने वर्ष के अन्त में अदिति के गर्भ में निवास किया । उस समय देवी अदिति ने, यह सोचकर कि मैं पवित्रतापूर्वक ही इस दिव्य गर्भ को धारण करूंगी, एकाग्रचित्त हो कृच्छ्र और चांद्रायण आदि व्रतों का पालन करने लगीं । उनका यह कठोर नियम देखकर कश्यप जी ने कुपित होकर कहा - "तू नित्य उपवास करके गर्भ के बच्चे को क्यों मारे डालती है।" तब वे भी रुष्ट होकर बोलीं - "देखिये, यह रहा गर्भ का बच्चा । मैंने इसे नहीं मारा है, यही अपने शत्रुओं को मारने वाला होगा ।" यों कहकर देवमाता ने उस गर्भ का प्रसव किया । वह उदयकालीन सूर्य के समान तेजस्वी अण्डाकार गर्भ सहसा प्रकाशित हो उठा । इसी समय अंतरिक्ष से कश्यप मुनि को सम्बोधित करके सजल मेघ के समान गंभीर स्वर में आकाशवाणी हुई । - "मुने ! तुमने अदिति से कहा था - '<b>त्वया मारितम् अण्डम्</b>'(तूने गर्भ के बच्चे को मार डाला), इसलिए तुम्हारा यह पुत्र <b>मार्तण्ड </b>के नाम से विख्यात होगा और यञभाग का अपहरण करनेवाले अपने शत्रुभूत असुरों का संहार करेगा ।"<br />
<br />
तत्पश्चात देवताओं सहित इन्द्र ने दैत्यों को युद्ध के लिए ललकारा । उस समय देवताओं और असुरों में बड़ा भयानक युद्ध हुआ । उस युद्ध में मार्तण्ड ने दैत्यों की ओर देखा, अतः वे सभी महान असुर उनके तेज से जलकर भस्म हो गए । तदनन्तर देवताओं को पूर्ववत अपने अपने अधिकार और यज्ञभाग प्राप्त हो गए । भगवान् मार्तण्ड भी अपने अधिकार का पालन करने लगे । ऊपर और नीचे सब ओर किरणे फैली होने से भगवान् सूर्य कदम्बपुष्प की भान्ति शोभा पाते थे । वे आग में तपाये हुए गोले के सदृश दिखाई देते थे । उनका विग्रह अधिक स्पष्ट नहीं जान पड़ता था ।<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b>पैशाचतीर्थ माहात्म्य(हनुमान और अद्रि का जन्म)</b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>---------------------------------------------------------</b></div>
<span style="color: #b45f06;">ब्रह्मा जी कहते हैं:</span> मुनिश्रेष्ठ नारद ! ब्रह्मगिरि के पार्श्वभाग में अञ्जन नाम से प्रसिद्ध एक पर्वत है। वहां एक सुंदरी अप्सरा शापभ्रष्ट होकर उत्पन्न हुई । उसका नाम अञ्जना था। उसके सब अंग बहुत सुन्दर थे, किन्तु मुंह वानरी का था । केसरी नामक श्रेष्ठ वानर अञ्जना के पति थे। केसरी के एक दूसरी भी स्त्री थी, जिसका नाम अद्रिका था । वह भी शापभ्रष्ट अप्सरा ही थी । उसके भी सब अंग सुन्दर थे । किन्तु मुंह बिल्ली के समान था । अद्रिका भी अञ्जन पर्वत पर ही रहती थी । एक समय केसरी दक्षिणसमुद्र के तट पर गए थे । इसी बीच में महर्षि अगस्त्य अञ्जन पर्वत पर आये। अञ्जना और अद्रिका दोनों ने महर्षि का यथोचित पूजन किया । इससे प्रसन्न होकर महर्षि ने कहा - 'तुम दोनों वर मांगो।' वे बोलीं - 'मुनीश्वर ! हमें ऐसे पुत्र दीजिये, जो बलवान, श्रेष्ठ और सबका उपकार करने वाले हों।' 'तथास्तु' कहकर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य दक्षिण दिशा में चले गए । कुछ काल के बाद अञ्जना ने <b>वायु के अंश से हनुमानजी</b> को जन्म दिया और अद्रिका के गर्भ से <b>निऋति के अंश से पिशाचो का राजा अद्री</b> उत्पन्न हुआ । इसके बाद उन दोनों स्त्रियों ने उक्त देवताओं से कहा - 'हमें मुनि के वरदान से पुत्र तो प्राप्त हुए, किन्तु इन्द्र के शाप से हमारा मुख कुरुप होने के कारण सारा शरीर ही विकृत हो गया है। इसे दूर करने के लिए हम क्या उपाय करें - इसे आप दोनों बायतें।' तब भगवान् वायु और निऋति ने कहा - 'गोदावरी में स्नान और दान करने से तुम्हें शाप से छुटकारा मिल जायेगा।' यों कहकर वे दोनों वहीँ अन्तर्धान हो गए। तब पिशाचरूपधारी अद्री ने अपने भाई हनुमानजी को प्रसन्न करने के लिए माता अञ्जना को लाकर गोदावरी में नहलाया । इसी प्रकार हनुमानजी भी अद्रिका को लेकर बड़ी उतावली के साथ गौतमी गंगा के तट पर आये। तबसे वह पैशाच और आञ्जनतीर्थ के नाम से विख्यात हुआ।<br />
<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b>कर्म और अकर्म से मुक्ति साधन </b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>----------------------------------------</b></div>
<span style="color: #b45f06;">जनक कहते हैं:</span> 'द्विजश्रेष्ठ ! (याज्ञवल्क्य, उनके पुरोहित) बड़े बड़े मुनियों ने यह निर्जन किया है कि भोग और मोक्ष दोनों श्रेष्ठ हैं; अंतर इतना ही है कि भोग अन्त में विरस हो जाता है और मुक्ति नित्य और निर्विकार है ।<br />
अतः भोग से भी मुक्ति को ही श्रेष्ठ माना गया है। आप बताएं, भोग से भी मुक्ति कि प्राप्ति कैसे होती है? सब प्रकार कि आसक्तियों का त्याग करने से जो मुक्ति प्राप्त होती है, वह तो अत्यन्त दुःखसाध्य है; अतः जिस उपाय से अत्यन्त सुखपूर्वक मुक्ति हो सके, वह बताइये।'<br />
<span style="color: #b45f06;">याज्ञवल्क्य बोले:</span> राजन ! साक्षात् भगवान् वरुण तुम्हारे गुरुजन, श्वसुर और हितकारी हैं । उन्ही के पास चलकर पूछो । वे तुम्हें हित का उपदेश देंगे ।<br />
तदनन्तर याज्ञवल्क्य और जनक दोनों राजा वरुण के पास गए और वहां उन्होंने मुक्ति का मार्ग पूछा।<br />
<span style="color: #b45f06;">वरुण ने कहा: </span>दो प्रकार से मुक्ति प्राप्त होती है - एक तो कर्म करने से और एक कर्म न करने से । वेद में यह मार्ग निश्चित किया गया है कि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - ये चारों पुरुषार्थ कर्म से बंधे हुए हैं । नृपश्रेष्ठ ! कर्मद्वारा सब प्रकार के साध्यों की सिद्धि होती है, इसलिए मनुष्यों को सब तरह से वैदिक कर्म का अनुष्ठान करना चाहिए । इससे वे इस लोक में भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त करते हैं ।<br />
<br />
<b>अकर्मणः कर्म पुण्यं कर्म चाप्याश्रमेषु च। जात्याश्रितं च राजेन्द्र तत्रापि श्रुणु धर्मवित् ।।</b><br />
<b>आश्रमाणि च चत्वारि कर्मद्वाराणि मानदः। चतुर्णामाश्रमाणाम् च गार्हस्थ्यं पुण्यदम् स्मृतम्।।</b><br />
ब्र पु ८८।१३-१५<br />
<br />
अकर्म से कर्म पवित्र है । कर्म भिन्न-भिन्न आश्रमों और वर्णो के अनुसार अनेक प्रकार के होते हैं। वर्णो और आश्रमों में भी चार आश्रम कर्म के द्वारा माने गए हैं । उनमें भी गृहस्थाश्रम अधिक पुण्यदायक है । उससे भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त हो सकते हैं यही मेरा मत है ।<br />
<span style="color: blue; font-size: x-small;">*गृहस्थ आश्रम में भोग की प्राप्ति तो स्वाभाविक है और मोक्ष की प्राप्ति निष्काम धर्म का अनुष्ठान करने से होती है।</span><br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b>शुक्राचार्य का मृतसंजीवनी शिक्षा ग्रहण करना (शुक्रतीर्थ)</b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>--------------------------------------------------------------------</b></div>
<br />
अङ्गिरा और भृगु - ये दो परम धर्मात्मा ऋषि हुए हैं । इन दोनों के दो पुत्र हुए, जो बड़े ही विद्वान् और रूप तथा बुद्धि से सुशोभित थे । अङ्गिरा के पुत्र का नाम था जीव और भृगु के पुत्र का नाम था कवि(शुक्र)। ये दोनों अपने माता पिता के अधीन रहते थे । जब दोनों का यज्ञोपवीत संस्कार हो गया, तब उनके पिता परस्पर कहने लगे - 'हम दोनों में से एक ही इन दोंनो पुत्रों का शिक्षक हो । इससे एक ही शासन करेगा और दूसरा सुख से बैठा रहेगा।' यह सुनकर अङ्गिरा ने कहा - 'मैं कवि को भी अपने पुत्र के समान ही पढ़ाऊंगा । वह सुख पूर्वक मेरे यहाँ रहे।<br />
अङ्गिरा की बात सुनकर भृगु ने कहा - 'ठीक है' और उन्होंने अपने पुत्र शुक्र को अङ्गिरा की सेवा में सौंप दिया । परन्तु अङ्गिरा उन दोनों बालकों में विषम बुद्धि रखते थे । इसलिए दोनों को पृथक-पृथक पढ़ाते थे । बहुत दिनों तक किसी प्रकार चलता रहा, तब एक दिन शुक्र ने कहा - 'गुरुदेव ! आप मुझे प्रतिदिन विषमभाव से पढ़ाते हैं । गुरुओं के लिए यह उचित नहीं कि वे पुत्र और शिष्य में भेदभाव समझें । जो लोग विषम बुद्धि रखते हैं, उनके पाप की कोई गणना नहीं है । आचार्य ! अब मैंने आपको अच्छी तरह समझ लिया । आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ । अब दुसरे किसी गुरु के यहाँ जाऊँगा । मुझे जाने की आज्ञा दीजिये ।<br />
इस प्रकार गुरु और बृहस्पति से पूछकर उनकी आज्ञा ले शुक्र चले गए । उन्होंने सोचा अब पूर्ण विद्या प्राप्त करके ही पिता के पास चलूँ। किन्तु किससे पूछूं, कौन सबसे श्रेष्ठ गुरु हो सकता है ? इन्हीं सब बातों का विचार करते हुए शुक्र ने महाप्राज्ञ गौतम के पास जाकर पूछा - 'मुनिश्रेष्ठ ! बताइये, कौन मेरा गुरु हो सकता है ? जो तीनो लोकों का गुरु हो, उसी के पास मैं जाऊंगा ।'<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">गौतम ने कहा:</span> जगद्गुरु भगवान शङ्कर ही गुरु होने योग्य हैं ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">शुक्र ने पूछा:</span> मैं कहाँ रहकर शङ्कर जी की आराधना करूँ ?<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">गौतम बोले:</span> गौतमी गंगा में स्नान करके पवित्र हो स्तोत्रों द्वारा भगवान् शङ्कर को संतुष्ट करो ।<br />
<br />
शुक्र के स्तुति करने पर भगवान् शङ्कर ने प्रसन्न होकर बोले - 'वत्स ! तुम्हारा कल्याण हो । तुम इच्छानुसार वर मांगो, भले ही वह देवताओं के लिए भी दुरलभ क्यों न हो।' उदारबुद्धि कवि ने भी हाथ जोड़कर कहा - 'नाथ ! ब्रह्मा आदि देवताओं और ऋषिओं को भी जो विद्या नहीं प्राप्त हुई हो, उसके लिए मैं याचना करता हूँ । आप ही मेरे गुरु और देवता हैं ।'<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">ब्रह्मा जी कहते हैं:</span> शुक्र ने जब इस प्रकार प्रार्थना की, तब देवश्रेष्ठ भगवान् शिव ने उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान की, जिसका ज्ञान देवताओं को भी नहीं था । साथ ही उन्हनोने लौकिक, वैदिकी तथा अन्यान्य विद्याएं भी दीं। वह महाविद्या पाकर शुक्र अपने पिता और गुरु के पास गए ।<br />
अपनी विद्या से पूजित होकर वे दैत्यों के गुरु हुए। किसी समय बृहस्पति के पुत्र कच ने शुक्राचार्य से मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की । कच से बृहस्पति ने और बृहस्पति से पृथक पृथक देवताओं ने उस विद्या को ग्रहण किया । गौतमी के उस तट पर, जहाँ भगवान् महेश्वर की आराधना करके शुक्र ने विद्या पायी थी, वह स्थान शुक्रतीर्थ कहलाता है।<br />
<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b>अपरब्रह्म तथा परब्रह्म </b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>---------------------------</b></div>
<span style="background-color: white;"><span style="color: #b45f06;">आपस्तम्ब ने पूछा:</span></span> मुनिवर ! तीनो देवताओं में कौन पूज्य हैं? अनादि और अनन्त कौन हैं तथा वेदों में किसका यशोगान किया गया है? महामुने ! मेरा संशय दूर करने के लिए उपदेश करें।<br />
<span style="color: #b45f06;">अगस्त्यजी बोले:</span> धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि में शब्द प्रमाण बताया जाता है उसमें भी वैदिक शब्द सबसे श्रेष्ट प्रमाण है वेद के द्वारा जिनका यशोगान होता है, वे परात्पर पुरुष परमात्मा हैं । जो मृत्यु के अधीन होता है, उसे अपर (क्षर पुरुष) जानना चाहिए और जो अमृत है, उसे पर (अक्षर पुरुष) कहते हैं। अमृत के भी दो रूप हैं - मूर्त और अमूर्त। जो अमूर्त(निराकार) है, उसे परब्रह्म जानना चाहिए और मूर्त को अपर ब्रह्म कहते हैं । गुणों की व्यापकता के अनुसार मूर्त के भी तीन भेद हैं - ब्रह्मा, विष्णु और शिव । ये एक होते हुए भी तीन कहलाते हैं । इन तीन देवताओं का भी वेद्यतत्व एक ही है । उसे ही परब्रह्म कहते हैं । गुण और कर्म के भेद से एक की ही अनेक रूपों से अभिव्यक्ति होती है । लोकों का उपकार करने के लिए एक ही ब्रह्म के तीन रूप हो जाते हैं । जो इस परमतत्व को जानता है, वही विद्वान् है, दूसरा नहीं । जो इन तीनो में भेद बतलाता है, उसे लिंगभेदी कहते हैं । उसके लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है ।<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<b>क्षर-अक्षर तथा योग और सांख्य का वर्णन </b></div>
<div style="text-align: center;">
<b>----------------------------------------------------</b></div>
<span style="color: #b45f06;">करालजनक ने कहा:</span> मुनिश्रेष्ठ ! क्षर और अक्षर(प्रकृति और पुरुष) दोनों का सम्बन्ध तो पति और पत्नी के सम्बन्ध की भांति स्थिर जान पड़ता है । जैसे पुरुष के बिना स्त्री और स्त्री के बिना पुरुष संतान उत्पन्न नहीं कर सकते, उसी तरह प्रकृति और पुरुष भी सदा एक-दुसरे से संयुक्त होकर ही सृष्टि करते हैं । ऐसी दशा में पुरुष का मोक्ष असम्भव जान पड़ता है । यदि मोक्ष के निकट पहुँचनेवाला(उसके स्पष्टरूप का बोध करानेवाला) कोई दृष्टान्त हो तो बताइये; क्योंकि आपको सबकुछ प्रत्यक्ष है ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">वशिष्ठ जी बोले:</span> राजन ! तुम्हारा कहना ठीक है, तुमने वेद और शास्त्रों की दृष्टान्त देकर अपना प्रश्न उपस्थित किया है तथापि अभी ग्रन्थ का यथार्थ तत्व तुम्हारे समझ में नहीं आया है । जो वेद और शास्त्रों के ग्रन्थ को रट लेता है किन्तु उसके तत्व को नहीं समझता, उसका वह रटना व्यर्थ है । जो याद किये हुए ग्रन्थ का अर्थ नहीं जानता, वह तो केवल उसका बोझ ढोता है ।<br />
इसलिए महाराज ! <b>सांख्य और योग</b> के ज्ञाता महात्मा पुरुषों के मत में मोक्ष का जैसा स्वरुप देखा जाता है, उसे मैं यथार्थरूप से बतलाता हूँ; सुनो । योगी जिस तत्व का साक्षात्कार करते हैं, सांख्य विद्वान् भी उसी का ज्ञान प्राप्त करते हैं । जो सांख्य और योग को एक समझता है, वही बुद्धिमान है । जैसे बीज से बीज की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार द्रव्य से द्रव्य, इन्द्रिय से इन्द्रिय और देह से देह की प्राप्ति होती है । परन्तु परमात्मा तो इन्द्रिय, बीज, द्रव्य और देह से रहित और निर्गुण है; अतः उसमें गुण कैसे हो सकते हैं । जैसे आकाश आदि गुण, सत्वादि गुणों से उत्पन्न होते हैं और उन्ही में लीन हो जाते हैं, उसी प्रकार सत्वादि गुण भी प्रकृति से उत्पन्न होकर उसी में लीन हो जाते हैं । आत्मा जो जन्म-मृत्यु से रहित, अनन्त, सबका दृष्टा एवं अद्वितीय है । वह सत्वादि गुणों में केवल आत्माभिमान करने के कारण ही गुणस्वरूप कहलाता है । गुण तो गुणवान में ही रहते हैं, निर्गुण आत्मा में गुण कैसे रह सकते हैं । अतः गुणों के स्वरुप को जाननेवाले विद्वान् पुरुष ऐसा मानते हैं कि जब जीवात्मा इन प्राकृत गुणों में अपनेपन का अभिमान करता है, उस समय वह गुणवान सा ही होकर भिन्न-भिन्न गुणों को देखता है । किन्तु जब उस अभिमान को छोड़ देता है, उस समय देहादि में आत्मबुद्धि का परित्याग करके अपने विशुद्ध परमात्मस्वरूप का साक्षात्कार करता है । उस परमात्मा को बुद्धि आदि से परे सांख्ययोगस्वरुप बताया गया है । वह सत्वादि गुणों से रहित, अव्यक्त, ईश्वर(नियामक), निर्गुण, नित्य तथा प्रकृति और उसके गुणों को अधिष्ठाता पच्चीसवां तत्व है । यह सांख्य और योग में कुशल एवं परम तत्व की खोज करनेवाले विद्वानों का कथन है । इस प्रकार परस्पर सम्बन्ध रखनेवाले क्षर-अक्षर(प्रकृति-पुरुष) का स्वरुप बताया गया । सदा एक रूप में रहनेवाला परमात्मा, अक्षर है और नाना रूपों में प्रतीत होनेवाला प्राकृत जगत, क्षर कहलाता है । <span style="color: blue;">सारांश यह कि एकत्व ही अक्षर है और नानात्व को ही क्षर कहते हैं ।</span> जब जीवात्मा पच्चीसवें तत्व, परमात्मा में स्थित हो जाता है, उस समय उसकी सम्यक स्थिति बताई जाती है । एकत्व और नानात्व, दोनों रूपों में उस परमात्मा का ही दर्शन होता है । तत्ववेत्ता पुरुष एकत्व और नानात्व, दोनों के पार्थक्य को भलीभांति जानता है । मनीषी पुरुष तत्वों कि संख्या पच्चीस बतलाते हैं; परन्तु उसमें पच्चीसवां तत्व परमात्मा है, जो तत्वों से विलक्षण है ।<br />
<br />
राजन ! योगी का प्रधान कर्तव्य है ध्यान; ध्यान ही योगियों का सबसे बड़ा बल है। योगविद्या के ज्ञाता विद्वान पुरुष मन की एकाग्रता और प्राणायाम - ये ध्यान के दो भेद बतलाते हैं । योगी को सब प्रकार की आसक्तियों का त्याग करके मिताहारी और जितेन्द्रिय होना चाहिए । वह रात्रि के पहले और पिछले भाग में मन को परमात्मा में लगाकर अन्तः करण में उनका ध्यान करे । मिथिलेश्वर ! सम्पूर्ण इन्द्रियों को मन के द्वारा स्थिर करके मन को भी बुद्धि में स्थापित कर दे और पत्थर की भांति अविचल हो जाये, तभी उसे योगयुक्त कहते हैं । जिस समय उसे सुनने, सूंघने, स्वाद लेने, देखने और स्पर्श करने का भी भान नहीं रहता, जब मन में किसी प्रकार का संकल्प नहीं उठता तथा वह काठ की भांति स्थिर होकर किसी भी वस्तु का अभिमान या सुध-बुध नहीं रखता, उस समय मनीषी पुरुष उसे अपने स्वरुप को प्राप्त 'योगयुक्त' कहते हैं । ध्याननिष्ठ योगी को अपने ह्रदय में धूम्रहित अग्नि, किरणमलाओं से मण्डित सूर्य तथा विद्युत् के प्रकाश की भांति तेजस्वी आत्मा का साक्षात्कार होता है । धैर्यवान, मनीषी, वेदवेत्ता और महात्मा ब्राह्मण ही उस अजन्मा और अमृतस्वरुप ब्रह्म का दर्शन कर पाते हैं। वह ब्रह्म अणु से भी अणु और महान से भी महान कहा गया है । सर्वत्र सम्पूर्ण भूतों में स्थित होते हुए भी वह किसी को दिखाई नहीं देता । वेदों के पारगामी तत्वज्ञ विद्वानो ने उसे तम से दूर - अज्ञानान्धकार से परे बताया है । वह निर्मल एवं लिङ्गरहित है । यही योगियों का योग है । इसके सिवा योग का और क्या लक्षण हो सकता है । इस प्रकार साधना करनेवाला योगी सबके सृष्टा, अजर-अमर परमात्मा का दर्शन करता है । यहाँ तक मैंने तुम्हें <b>योग-दर्शन</b> का यथार्थस्वरूप बतलाया ।<br />
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अब <b>सांख्य का वर्णन</b> करता हूँ, यह विचार-प्रधान दर्शन है । राजन ! प्रकृतिवादी विद्वान मूल प्रकृति को अव्यक्त कहते हैं । उससे दूसरा तत्व प्रकट हुआ जो 'महत्तत्व' कहलाता है । महत्तत्व से अहंकार नामक तीसरे तत्व की उत्पत्ति सुनी गयी है । सांख्य-दर्शन के ज्ञाता विद्वान अहंकार से सूक्ष्म भूतों का - पञ्च-तन्मात्रों का प्रादुर्भाव बताते हैं । इन आठों को प्रकृति कहते हैं; इनसे सोलह तत्वों की उत्पत्ति होती है, जो 'विकृति' कहलाते हैं । पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेन्द्रिय, ग्यारहवां मन तथा पांच स्थूलभूत - ये ही सोलह विकार हैं । ये प्रकृति और विकृति मिलकर चौबीस तत्व होते हैं । सांख्य-दर्शन में तत्वों की इतनी ही संख्या मानी गयी है । सांख्यमार्ग पर स्थित और सांख्यविधि के ज्ञाता मनीषी पुरुष ऐसा ही कहते हैं । जो तत्व जिससे उत्पन्न होता है, उसका उसी में लय भी होता है । प्रकृति, परमात्मा के संनिधान से अनुलोम क्रम के अनुसार तत्वों की रचना करती है अर्थात प्रकृति से महत्तत्व, महत्तत्व से अहंकार तथा अहंकार से सूक्ष्म भूत आदि के क्रम से सृष्टि होती है; किन्तु उसका संहार विलोम क्रम से होता है। पृथ्वी का जलमें, जल का तेज में और तेज का वायु में लय होता है; इसी प्रकार सभी तत्व अपने-अपने कारण में लीन होते हैं । जैसे समुद्र से उठी हुई लहरें फिर उसी में शांत हो जाती हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण तत्व अनुलोम क्रम से उत्पन्न होकर विलोमक्रम से लीन होते हैं । नृपश्रेष्ठ इस प्रकृति से ही जगत की उत्पत्ति और उसी में उसका लय होता है । प्रलयकाल में तो वह एक रूप में रहती है और सृष्टि के समय नाना रूप धारण करती है । ज्ञान-निपुण पुरुषों को इसी प्रकार प्रकृति के एकत्व और नानात्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए ।<br />
प्रकृति का अधिष्ठाता जो अव्यक्त आत्मा है, उसके विषय में भी यही बात है । वह भी प्रकृति से सम्बन्ध रखने पर एकत्व और नानात्व को प्राप्त होता है । प्रलयकाल में तो वह भी एक रूप में ही रहता है, किन्तु सृष्टि के समय प्रकृति को प्रेरित करने के कारण उसकी ही अनेकता से वह स्वयं भी अनेक सा प्रतीत होता है । परमात्मा ही प्रकृति को प्रसव के लिए उन्मुख करके उसे अनेक रूपों में परिणत करता है । <span style="color: #b45f06;">प्रकृति और उसके विकारों को क्षेत्र कहते हैं</span> । चौबीस तत्वों से भिन्न जो पच्चीसवां तत्व महान आत्मा है, वही उस क्षेत्र में अधिष्ठाता रूप में निवास करता है । वह क्षेत्र को जानता है, इसलिए क्षेत्रज्ञ कहलाता है । क्षेत्रज्ञ, प्रकृतिजनित पुर(शरीर) में शयन करता है, इसलिए उसे पुरुष कहते हैं । वास्तव में क्षेत्र अन्य वस्तु है और क्षेत्रज्ञ अन्य। क्षेत्र अव्यक्त(प्रकृति) है और क्षेत्रज्ञ उसका ज्ञाता पच्चीसवां तत्व परमात्मा है । जब पुरुष अपने को प्रकृति से भिन्न जान लेता है, उस समय वह अद्वितीय परमात्मरूप से स्थित होता है । इस प्रकार मैंने तुम्हें सम्यग दर्शन(सांख्य) का यथार्थ वर्णन किया ।<br />
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<b>कन्यापुत्रमहीबाजिगवां विक्रयकारिणः। </b><br />
<b>नरकांत निवर्तन्ते यावदाभूतसंप्लवम।।</b><br />
ब्र पु १५०।9<br />
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<span style="color: #b45f06;">ब्रह्मा नारदजी से कहते हैं:</span> नारद ! सुयज्ञ के पुत्र अजीगर्ति एक विख्यात ब्राह्मण थे। एक समय अकाल पड़ने पर कुटुम्ब-पालन के भार से दुखित एवं पीड़ित होकर उन्होंने अपने मंझले पुत्र, शुनःशेप को वध के लिए क्षत्रिय के हाथ बेच दिया । उसके बदले में अजीगर्ति को बहुत धन मिला । शुनःशेप ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ था । ऐसे पुत्र को भी अजीगर्ति ने धन के लोभ से बेच डाला । आपत्ति पड़ने पर विद्वान् पुरुष कौन सा पाप नहीं कर डालता । समय आने पर अजीगर्ति की मृत्यु हुई और वे नरक में डाले गए । क्योंकि इस लोक में पूर्वजन्म के किये हुए पापों का भोग किये बिना क्षय नहीं होता । अनेक पाप-योनियों में पड़ने के पश्चात अजीगर्ति भयंकर आकार वाले पिशाच हुए । उन्हें निर्जल और निर्जन वन में सूखे काठ पर रहना पड़ता था । गर्मी में जहाँ दावानल फैल जाता, वहीँ यमराज के दूत उस प्रेत को डाल देते । कन्या, पुत्र, पृथ्वी, अश्व तथा गौवों का विक्रय करने वाले मनुष्य महाप्रलय काल तक नरक से छुटकारा नहीं पाते ।<br />
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<b>धर्म की हानि </b></div>
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<span style="color: #b45f06;">नारद जी ने कहा:</span> भगवन ! आप धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के ज्ञाता और उपदेशक हैं । अतः आप बताइये - तीर्थ, दान, यज्ञ, तप, देव पूजन, मन्त्र जप और सेवा में श्रेष्ठ क्या है?<br />
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<span style="color: #b45f06;">ब्रह्मा जी बोले:</span> नारद ! सुनो, मैं रहस्यमय उत्तम धर्म का वर्णन करता हूँ । चार प्रकार के तीर्थ हैं, चार ही युग हैं। तीन गुण, तीन पुरुष और तीन ही सनातन देवता हैं। स्मृतियों सहित वेद चार बताये गए हैं । पुरुषार्थ भी चार ही है और वाणी के भी चार ही भेद हैं । ये सब समान हैं, धर्म सर्वत्र एक ही है । क्योंकि वह सनातन है । साध्य और साधन के भेद से उसके अनेक रूप माने गए हैं । धर्म के दो आश्रय हैं, देश और काल । काल के आश्रित जो धर्म है, वह सदा घटता-बढ़ता रहता है । युगों के अनुसार उसमें एक एक चरण की न्यूनता होती जाती है । कालाश्रित धर्म भी देश में सदा प्रतिष्ठित रहता है । युगों का क्षय होने परे भी दशाश्रित धर्म की हानि नहीं होती । जो धर्म दोनों आश्रयों से हीन है, उसका अभाव हो जाता है । अतः देश के आश्रित रहने वाला धर्म अपने चारों चरण के साथ प्रतिष्ठित होता है । दशाश्रित धर्म भिन्न भिन्न देशों में तीर्थरूप से स्थित रहता है । सत्ययुग में धर्म, देश और काल दोनों के आश्रित होता है । त्रेता में उसके एक चरण की, द्वापर में दो चरणों की और कलि में तीन चरणों की हानि होती है । द्वापर और कलि में क्रमशः आधे और चौथाई रूप में शेष रहकर धर्म चालु रहता है । कलि में उसकी संकटमयी स्थिति होती है । जो इस प्रकार धर्म को जानता है, उसके धर्म की हानि नहीं होती ।<br />
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<div style="text-align: center;">
<b>श्राद्ध कल्प <span style="color: blue; font-size: x-small;">(संक्षिप्त ब्रह्म पुराण, गीताप्रेस, पृष्ठ ३६० )</span></b></div>
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<span style="color: #b45f06;">मुनियों ने </span><span style="color: #b45f06;">पूछा</span><span style="color: #b45f06;">: </span>भगवन ! अब श्राद्ध कल्प का विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिये । तपोधन ! कब, कहाँ, किन देशों में और किन लोगों को किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए - यह बताने की कृपा करें ।<br />
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<span style="color: #b45f06;">व्यास जी बोले:</span> मुनिवरों ! सुनो, मैं श्राद्ध कल्प का विस्तार से वर्णन करता हूँ। जब जहाँ, जिन प्रदेशों में और जिन लोगों द्वारा जिस प्रकार श्राद्ध किया जाना चाहिए, वह सब बतलाता हूँ । अपने कुलोचित धर्म का पालन करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को उचित है कि वे अपने अपने वर्ण के अनुरूप वेदोक्त विधि से मंत्रोच्चारणपूर्वक श्राद्ध का अनुष्ठान करें । स्त्रियों और शूद्रों को ब्राह्मण की आज्ञा के अनुसार मंत्रोच्चारण के बिना ही विधिवत श्राद्ध करना चाहिए । उनके लिए अग्नि में होम आदि वर्जित है । पुष्कर आदि तीर्थ, पवित्र मन्दिर, पर्वत शिखर, पावन प्रदेश, पुण्य सलिला नदी, नद, सरोवर, संगम, सात समुद्रों के तट, लिपे-पुते अपने घर, दिव्य वृक्षों के मूल और यज्ञ कुण्ड - ये सभी उत्तम स्थान हैं । इन सबमें श्राद्ध करना चाहिए ।<br />
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अब श्राद्ध के लिए वर्जित स्थान बतलाता हूँ । किरात(किलात), कलिङ्ग(उड़ीसा), कोंकण, कृमि, दशार्ण, कुमार्य, तंगण, क्रथ, सिन्धु नदी का उत्तर तट, नर्मदा का दक्षिण तट और करतोया का पूर्व तट - इन प्रदेशों में श्राद्ध नहीं करना चाहिए ।<br />
प्रत्येक मास की पूर्णिमा तथा अमावस्या को श्राद्ध के लिए योग्य काल बताया गया है । नित्य श्राद्ध में विश्वेदेवों का पूजन नहीं होता । नैमित्तिक श्राद्ध विश्वेदेवों के पूजनपूर्वक होता है । नित्य, नैमित्तिक, काम्य - ये तीन प्रकार के श्राद्ध माने गए हैं । इन तीरों का प्रतिवर्ष अनुष्ठान करना चाहिए । जातकर्म आदि संस्कारों के अवसर पर आभ्युदयिक श्राद्ध भी करना उचित है। उसमें युग्म ब्राह्मणो को निमंत्रित करने का विधान है । आभ्युदयिक श्राद्ध माता से आरम्भ होता है । जब सूर्य कन्या राशि पर जाते हैं, तब कृष्ण पक्ष के पंद्रह दिनों तक परवान की विधि से श्राद्ध करना चाहिए । प्रतिपदा को श्राद्ध करने से धन की प्राप्ति होती है । द्वितीय संतान देनेवाली है । तृतीया, पुत्रप्राप्ति की अभिलाषा पूर्ण करती है । चतुर्थी, शत्रु का नाश करने वाली है । पंचमी को श्राद्ध करने से मनुष्य लक्ष्मी को प्राप्त करता है । षष्ठी को श्राद्ध करने से वह पूज्य होता है । सप्तमी को गणो का आधिपत्य, अष्टमी को उत्तम बुद्धि, नौमी को स्त्री, दशमी को मनोरथ की पूर्णता और एकादशी को श्राद्ध करने से सम्पूर्ण वेदों को प्राप्त करता है । द्वादशी को पितरों की पूजा करने वाला मानव विजय-लाभ करता है । त्रयोदशी को श्राद्ध करनेवालाल संतान-वृद्धि, पशु, मेधा, स्वतंत्रता, उत्तम पुष्टि, दीर्घायु अथवा ऐश्वर्य का भागी होता है - इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । जिसके पितर युवावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हुए अथवा शस्त्र द्वारा मारे गए हों, वह उन पितरों को तृप्त करने की इच्छा से चतुर्दशी तिथि को श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करें । जो परुष पवित्र होकर अमावस्या को यत्नपूर्वक श्राद्ध करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं तथा अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होता है ।<br />
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मुनिवरों ! अब पितरों की प्रसन्नता के लिए जो जो वास्तु देनी चाहिए, उसका वर्णन सुनो । जो श्राद्धकर्म में गुड़मिश्रित अन्न, तिल, मधु अथवा मधुमिश्रित अन्न देता है, उसका वह सम्पूर्ण दान अक्षय होता है । पितर कहते हैं - 'क्या हमारे कुल में कोई ऐसा पुरुष होगा, जो हमें जलाञ्जलि देगा, वर्षा और मघा नक्षत्र में हमको मधुमिश्रित खीर अर्पण करेगा ? मनुष्यों को बहुत से पुत्रों की अभिलाषा करनी चाहिए । यदि उनमें से एक भी गया चला जाए अथवा कन्या विवाह करे या नील वृष का उत्सर्ग करे तो पित्रों को पूर्ण तृप्ति और उत्तम गति प्राप्त हो।' कृत्तिका नक्षत्र में पितरों की पूजा करने वाला मानव स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। संतान की इच्छा रखनेवाला पुरुष रोहिणी में श्राद्ध करे । मृगशिरा में श्राद्ध करने से मनुष्य तेजस्वी होता है । आर्द्रा में शौर्य और पुनर्वसु में स्त्री की प्राप्ति होती है; पुष्य में अक्षय धन, आश्लेषा में उत्तम आयु, मघा में संतान और पुष्टि तथा पूर्वफाल्गुनि में सौभाग्य की प्राप्ति होती है । अतः अक्षय फल की इच्छा रखने वाले पुरुष को कन्याराशि पर सूर्य के रहते उक्त तथा अन्य विभिन्न नक्षत्रों में काम्य श्राद्ध का अनुष्ठान करना चाहिए । सूर्या के कन्या राशि पर स्थित रहते मनुष्य जिन-जिन कामनाओं का चिंतन करते हुए श्राद्ध करते हैं, उन सबको प्राप्त कर लेते हैं । जब सूर्य कन्या राशि पर हों, तब नान्दीमुख पितरों का भी श्राद्ध करना चाहिए; क्योंकि उस समय सभी पितर पिण्ड पाने की इच्छा रखते हैं । जो राजसूय और अश्वमेध यज्ञों का दुर्लभ फल प्राप्त करना चाहता हो, उसे कन्याराशि पर सूर्य के रहते जल, शाक और मूल आदि से भी पितरों की पूजा अवश्य करनी चाहिए । उत्तरफाल्गुनी और हस्त नक्षत्रों पर सूर्यदेव के स्थित रहते जो भक्तिपूर्वक पितरों का पूजन करता है, उसका स्वर्गलोक में निवास होता है । उस समय यमराज की आज्ञा से पितरों की पुरी तब तक खाली रहती है जब तक कि सूर्य वृश्चिक राशि पर उपस्थित रहते हैं । वृश्चिक बीत जाने पर भी जब कोई श्राद्ध नहीं करता, तब देवताओं सहित पितर मनुष्य को दुःसह शाप देकर खेदपूर्वक लम्बी सांसे लेते हुए अपनी पुरी को लौट जाते हैं । अष्टका, मन्वन्तरा और अन्वष्टका तिथियों को भी श्राद्ध करना चाहिए । वह मात्रवर्ग से आरम्भ होता है ।<br />
ग्रहण, व्यतिपात, एक राशि पर सूर्य और चन्द्रमा के संगम, जन्म नक्षत्र तथा ग्रहपीड़ा के अवसर पर पार्वण श्राद्ध करने का विधान है । दोनों अयनो के आरम्भ के दिन, दोनों विषुव, योगो के आने पर तथा प्रत्येक संक्रांति के दिन विधिपूर्वक उत्तम श्राद्ध करना चाहिए । इन दिनों पिण्डदान को छोड़कर शेष सभी श्राद्धसंबन्धी कार्य करने चाहिए । माता और पिता की मृत्यु के दिन प्रतिवर्ष एकोदृष्ट श्राद्ध करना चाहिए । यदि पिता के भाई अथवा अपने बड़े भाई की मृत्यु हो गयी हो और उनके कोई पुत्र नहीं हो तो उनके लिए भी निधन तिथि को प्रतिवर्ष एकोदृष्ट श्राद्ध करना उचित है । पार्वण श्राद्ध में पहले विश्वेदेवों का आह्वान और पूजन होता है । किन्तु एकोदृष्ट में ऐसा नहीं होता । देवकार्य में दो और पितृकार्य में तीन ब्राह्मणो को निमंत्रित करना चाहिए अथवा दोनों में एक-एक ब्राह्मण ही निमंत्रित करें । इसी प्रकार मातामहों के श्राद्धकार्य भी समझने चाहिए ।</div>
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जो हाल का मरा हो, उसके लिए सदा बाहर जल के समीप पृथ्वी पर तिल और कुशसहित पिण्ड और जल देना चाहिए । मृत्यु के तीसरे दिन प्रेत का अस्थि-चयन करना उचित है । घर में किसी की मृत्यु होने पर ब्राह्मण दस दिनों में, क्षत्रिय बारह दिनों में, वैश्य पंद्रह दिनों में और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है । सूतक निवृत्त हो जाने पर घर में एकोदृष्ट श्राद्ध करना बताया गया है । बारहवें दिन, एक मास पर, डेढ़ मास पर तथा उसके बाद प्रतिमास एक वर्ष तक श्राद्ध करना चाहिए । वर्ष बीतने पर सपिण्डीकरण श्राद्ध करना उचित है । सपिण्डीकरण हो जाने पर उसके लिए पार्वण श्राद्ध का विधान है । सपिण्डीकरण के बाद मृत व्यक्ति प्रेतभाव से मुक्त होकर पितरों के स्वरुप को प्राप्त होते हैं । पितर दो प्रकार के हैं - मूर्त और अमूर्त । नान्दीमुख नामवाले पितर मूर्तिमान बताये गए हैं । एकोदृष्ट श्राद्ध ग्रहण करने वाले पितरों की 'प्रेत' संज्ञा है । इस प्रकार पितरों के तीन भेद स्वीकार किये गए हैं ।<br />
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<span style="color: #b45f06;">मुनियों ने पूछा: </span>द्विजश्रेष्ठ ! मरे हुए पिता आदि का सपिण्डीकरण श्राद्ध कैसे करना चाहिए ? यह हमें विधिपूर्वक बताइये ।<br />
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<span style="color: #b45f06;">व्यास जी बोले: </span>ब्राह्मणो ! मैं सपिण्डीकरण श्राद्ध की विधि बतलाता हूँ, सुनो । सपिण्डीकरण श्राद्ध विश्वेदेवों की पूजा से रहित होता है । इसमें एक ही अर्घ्य और एक ही पवित्रक का विधान है । अग्निकरण और आह्वान की क्रिया भी इसमें नहीं होती । सपिण्डीकरण में अपसव्य होकर अयुग्म ब्राह्मणो को भोजन कराना चाहिए । इसमें जो विशेष क्रिया है, उसका वर्णन करता हूँ; एकाग्रचित्त होकर सुनो। सपिण्डीकरण में तिल, चन्दन और जल से युक्त चार पात्र होते हैं । उनमें से तीन तो पितरों के लिए रखें और एक प्रेत के लिए । प्रेत के पात्र से अर्घ्य-जल लेकर '<b>ये समानाः समनसः</b>' इत्यादि मंत्र का जप करते हुए पितरों के तीनो पात्रों में छोड़ना चाहिए । शेष कार्य अन्य श्राद्धों की भांति करने चाहिए । स्त्रियों के लिए भी इसी प्रकार एकोदृष्ट का विधान है । यदि पुत्र न हो तो स्त्रियों का सपिण्डीकरण नहीं होता । पुरुषों को उचित है कि वे स्त्रियों के लिए भी प्रतिवर्ष उनकी मृत्युतिथि को एकोदृष्ट श्राद्ध करें । पुत्र के अभाव में सपिण्ड और सपिण्ड के अभाव में सहोदक, इस विधि को पूर्ण करें । जिसके कोई पुत्र न हो, उसका श्राद्ध उसके दौहित्र(नाती) कर सकते हैं । पुत्रिका-विधि से ब्याही कन्या के पुत्र तो अपने नाना आदि का श्राद्ध करने के अधिकारी हैं ही । जिनकी द्वयामुष्यायण संज्ञा है, ऐसी पुत्र नाना और बाबा दोनों का नैमित्तिक श्राद्धों में भी विधिपूर्वक पूजन कर सकते हैं । कोई भी न हो तो स्त्रियां ही अपनी पतियों का मंत्रोच्चारण किये बिना श्राद्ध कर सकती हैं । वे भी न हो तो राजा मृतक के सजातीय मनुष्यों द्वारा दाह आदि समस्त क्रियाएं पूर्ण कराये; क्योंकि राजा सब वर्णो का बन्धु होता है ।<br />
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ब्राह्मणो ! सपिण्डीकरण के बाद पिता के जो प्रपितामह हैं, वे लेपभागभोजी पितरों की श्रेणी में चले जाते हैं । उन्हें पितृपिण्ड पाने का अधिकार नहं रहता । उनसे आरम्भ करके चार पीढ़ी ऊपर के पितर, जो पुत्र के लेपभाग का अन्न ग्रहण करते थे, उसके सम्बन्ध से रहित हो जाते हैं । अब उनको लेपभाग पाने का अधिकार नहीं रहता । वे सम्बन्धहीन अन्न का उपभोग करते हैं । पिता, पितामह, प्रपितामह - इन तीन पुरुषों को पिण्ड का अधिकारी समझना चाहिए । इनसे भिन्न अर्थात पितामह के पितामह से लेकर ऊपर के जो तीन पीढ़ी के पुरुष हैं, वे लेपभाग के अधिकारी हैं । इस प्रकार छः ये और सातवां यजमान - सब मिलकर सात पुरुषों का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है - ऐसा मुनियों का कथन है । यह सम्बन्ध यजमान से लेकर ऊपर के लेपभागभोजी पितरों तक माना जाता है । इनसे ऊपर के सभी पितर पूर्वज कहलाते हैं । पूर्वजों में से जो नरक में निवास करते हैं, जो पशु-पक्षी की योनि में पड़े हैं तथा जो भूत आदि के रूप में स्थित हैं, उन सबको विधिपूर्वक श्राद्ध करनेवाला यजमान तृप्त करता है । जिसके जिसकी तृप्ति होती है, वह बतलाता हूँ ; सुनो । मनुष्य पृथ्वी पर जो अन्न बिखेरते हैं, उससे पिशाचयोनि में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । स्नान के वस्त्र से जो जल पृथ्वी पर टपकता है, उससे वृक्षयोनि में पड़े हुए पितर तृप्त होते हैं । नहाने पर अपने शरीर से जो जल के कण पृथ्वी पर गिरते हैं, उनसे उन पितरों की तृप्ति होती है जो देवभाव को प्राप्त हुए हैं । पिण्डो के उठाने पर जो जल के कण पृथ्वी पर गिरते हैं, उनसे पशु-पक्षी की योनि में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । कुल में जो बालक दांत निकलने से पहले दाह आदि कर्म के अनधिकारी रहकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे सम्मार्जन के जल का आहार करते हैं । ब्राह्मण लोग भोजन करके जो हाथ-मुंह धोते हैं और चरणों का प्रक्षालन करते हैं, उस जल से अन्यान्य पितरों की तृप्ति होती है । ब्राह्मणो ! इस प्रकार विधिपूर्वक श्राद्ध करनेवाले पुरुषों के पितर जो दूसरी-दूसरी योनियों में चले गए हैं, वे भी यजमान और ब्राह्मणो के हाथ से बिखरे हुए अन्न और जल के द्वारा पूर्ण तृप्त होते हैं । मनुष्य अन्यायोपार्जित धन से जो श्राद्ध करते हैं, उससे चाण्डाल आदि योनियों में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । इस प्रकार यहाँ श्राद्ध करनेवाले भाई-बंधुओं के द्वारा जो अन्न और जल पृथ्वी पर डाले जाते हैं, उनके द्वारा बहुत से पितर तृप्त होते हैं । अतः मनुष्य को उचित है कि वह पितरों के प्रति भक्ति रखते हुए शाकमात्र के द्वारा भी विधिपूर्वक श्राद्ध करे । श्राद्ध करनेवाले लोगों के कुल में कोई दुःख नहीं भोगता ।<br />
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<br />
श्रेष्ठ द्विजों को देवयज्ञ अथवा श्राद्ध में एक दिन पहले ही निमंत्रण देना चाहिए । उसी समय से ब्राह्मणो तथा श्राद्धकर्ता को भी संयम से रहना चाहिए । जो श्राद्ध में दान देकर अथवा भोजन करके मैथुन करता है, उसके पितर एक मास तक वीर्य में शयन करते हैं । जो स्त्री सहवास करके श्राद्ध करता अथवा श्राद्ध में भोजन करता है, उसके पितर उसके वीर्य और मूत्र का एक मास तक आहार करते हैं । इसलिए विद्वान् पुरुष को एक दिन पहले ही ब्राह्मणों के पास निमंत्रण भेजना चाहिए । यदि पहले दिन ब्राह्मण न मिल सकें तो श्राद्ध के दिन भी निमंत्रण किया जा सकता है । परन्तु स्त्री-प्रसङ्गी ब्राह्मणो को कदापि निमंत्रित न करें । यदि समय पर भिक्षा के लिए संयमी यति स्वयं पधारे हों तो उन्हें भी नमस्कार आदि के द्वारा प्रसन्न करके संयतचित्त से अवश्य भोजन कराएं । विद्वान् पुरुष श्राद्ध में योगियों को भी भोजन कराएं । क्योंकि पितरों का आधार योग है, अतः योगियों का सदा पूजन करना चाहिए । यदि हज़ारों ब्राह्मणों में एक भी योगी हो तो वह जल से नौका की भांति यजमान और श्राद्धभोजी ब्राह्मणो को भी तार देता है । इस विषय में ब्रह्मवादी विद्वान् पितरों की गायी हुई एक गाथा का गान करते हैं । पूर्वकाल में राजा पुरुरवा के पितरों ने उसका गान किया था । वह गाथा इस प्रकार है - 'हमारी वंश परम्परा में कब किसी को ऐसा श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त होगा, जो योगियों को भोजन कराने से बचे हुए अन्न को लेकर पृथ्वी पर हमारे लिए पिण्ड देगा? अथवा गया में जाकर पिण्डदान करेगा । या हमारी तृप्ति के लिए सामयिक शाक,तिल , घी, और खिचड़ी देगा ? अथवा त्रयोदशी तिथि और मघा नक्षत्र में विधिपूर्वक श्राद्ध करेगा और दक्षिणायन में हमारे लिए मधु और घी से मिली हुई खीर देगा ?<br />
श्राद्ध में तृप्त हुए पितर मनुष्यों के लिए वसु, रूद्र, आदित्य, नक्षत्र, ग्रह और तारों की प्रसन्नता का सम्पादन करते हैं । इतना ही नहीं वे आयु, प्रजा, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सुख तथा राज्य भी देते हैं । पितरों को पूर्वाह्न की अपेक्षा अपराह्न अधिक प्रिय है । घर पर आये हुए ब्राह्मणो का स्वागतपूर्वक पूजन करके उन्हें पवित्रयुक्त हाथ से आचमन कराने के पश्चात आसनों पर बिठाये; फिर विधिपूर्वक श्राद्ध करके उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने के पश्चात भक्तिपूर्वक प्रणाम करें और प्रिय वचन कहकर विदा करें । दरवाजे तक उन्हें पहुंचने के लिए पीछे पीछे जाएँ और उनकी आज्ञा लेकर लौटे । तदनन्तर नित्यक्रिया करें और और अतिथियों को भोजन कराये । किन्ही किन्ही श्रेष्ठ पुरुषों का विचार है कि यह नित्यकर्म भी पितरों के ही उद्देश्य से होता है<br />
तदनन्तर श्राद्धकर्ता अपने भृत्य आदि के साथ अवशिष्ट अन्न भोजन करें । धर्मज्ञ पुरुष को इसी प्रकार एकाग्रचित्त होकर पितरों का श्राद्ध करना चाहिए और जिस प्रकार ब्राह्मणों को संतोष हो, वैसी चेष्टा करनी चाहिए । अब मैं श्राद्ध में त्याग देने योग्य अधम ब्राह्मणो का वर्णन करता हौं । मित्रद्रोही, ख़राब नखों वाला, नपुंसक, क्षय का रोगी, कोढ़ी, व्यापारी, काले दांतों वाला, गांजा, काना, अँधा, बेहरा, जड़, गूंगा, पंगु, हिजड़ा। ख़राब चमड़े वाला, हीनांग, लाल आँखों वाला, कुबड़ा, बौना, विकराल, आलसी, मित्र के प्रति शत्रुभाव रखनेवाला, कलंकित कुल में उत्पन्न, पशुपालन करने वाला, अच्छी आकृति से हीन, परिवित्ति(छोटे भाई के विवाहित होने पर भी स्वयं अविवाहित रहने वाला), परिवेत्ता(बड़े भाई के ब्याह से पहले ही विवाह कर लेने वाला), परिवेदनिका(बड़ी बहन के विवाह से पहले ही विवाह करनेवाली स्त्री)- का पुत्र, शूद्रजातीय स्त्री का स्वामी और उसका पुत्र - ऐसे ब्राह्मण श्राद्ध-भोजन के अधिकारी नहीं हैं । जहाँ दुष्ट पुरुषों का आदर और साधु पुरुषों की अवहेलना होती है, वहां देवताओं का दिया हुआ भयंकर दण्ड तत्काल ऊपर पड़ता है । जो शास्त्र-विधि की अवहेलना करके मूर्ख को भोजन कराता है, वह दाता प्राचीन धर्म का त्याग करने के कारण नष्ट हो जाता है । जो अपने आश्रय में रहनेवाले ब्राह्मण का परित्याग करके दुसरे को बुलाकर भोजन कराता है, वह दाता उस ब्राह्मण के शोकोच्छवास की आग में दग्ध होकर नष्ट हो जाता है ।<br />
वस्त्र के बिना कोई क्रिया, यज्ञ, वेदाध्ययन तपस्या नहीं होती। अतः श्राद्धकाल में वस्त्र का दान विशेष रूप से करना चाहिए । जो रेशमी, सूती और बिना कटा हुआ वस्त्र श्राद्ध में देता है, वह उत्तम भोगों को प्राप्त करता है । जैसे बहुत सी गौओं में बछड़ा अपनी माता के पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार श्राद्ध में भोजन किया हुआ अन्न जीव के पास, वह जहाँ भी रहता है, पहुँच जाता है । नाम, गोत्र और मंत्र - ये अन्न को वहां ढोकर नहीं ले जाते अपितु मृत्यु को प्राप्त हुए जीवों तक को तृप्ति पहुँचती है - वे श्राद्ध से तृप्ति लाभ करते है ।<br />
<br />
'<b>देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः।।</b>' इस मन्त्र का श्राद्ध के आरम्भ और अन्त में तीन बार जप करे । पिण्डदान करते समय भी एकाग्रचित्त होकर इसका जप करना चाहिए । इससे पितर शीघ्र ही आ जाते हैं और राक्षस भाग खड़े होते हैं तथा तीनो लोकों के पितर तृप्त होते हैं । श्राद्ध में रेशम, सन अथवा कपास का सूत देना चाहिए । ऊन अथवा पाटका सूत्र वर्जित है । विद्वान पुरुष, जिसमें कोर न हो, ऐसा वस्त्र फटा न होने पर भी श्राद्ध में न दें; क्योंकि उससे पितरों को तृप्ति नहीं होती और दाता के लिए भी अन्याय का फल प्राप्त होता है । पिता आदि में से जो जीवित हो, उसको पिण्ड नहीं देना चाहिए, अपितु उसे विधिपूर्वक उत्तम भोजन कराना चाहिए । भोग की इच्छा रखने वाला पुरुष श्राद्ध के पश्चात पिण्ड को अग्नि में दाल दे और जिसे पुत्र की अभिलाषा हो, वह माध्यम अर्थात पितामह के पिण्ड को मंत्रोच्चारणपूर्वक अपनी पत्नी को हाथ में दे दे और पत्नी उसे खा ले । जो उत्तम कान्ति की इच्छा रखने वाला हो, वह श्राद्ध के अनन्तर सब पिण्ड गौवों को खिला दे। बुद्धि, यश और कीर्ति चाहने वाला पुरुष पिण्डों को जल में दाल दे । दीर्घायु की अभिलाषा वाला पुरुष उसे कौवो को दे दे । कुमारशाला की इच्छा रखनेवाला पुरुष वह पिण्ड मूगों को दे दे । कुछ ब्राह्मण ऐसा कहते हैं कि पहले ब्राह्मणो से "पिण्ड उठाओ" ऐसी आज्ञा लेले; उसके बाद पिण्डों को उठाये । अतः ऋषियों की बताई हुई विधि के अनुसार श्राद्ध का अनुष्ठान करें; अन्यथा दोष लगता है और पितरों को भी नहीं मिलता ।<br />
अपनी शक्ति के अनुसार श्राद्ध की सामग्री एकत्रित करके विधिपूर्वक श्राद्ध करना सबका कर्तव्य है । जो अपने वैभव के अनुसार इस प्रकार विधिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह मानव ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त, सम्पूर्ण जगत को तृप्त कर देता है ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">मुनियों ने पूछा:</span> ब्रह्मन ! जिसके पिता तो जीवित हों, किन्तु पितामह और प्रपितामह की मृत्यु हो गयी हो, उसे किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए यह विस्तारपूर्वक बताइये ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">व्यास जी बोले:</span> पिता जिनके लिए श्राद्ध करते हैं, उनके लिए स्वयं पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है । ऐसा करने से लौकिक और वैदिक धर्म की हानि नहीं होती ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">मुनियों ने पूछा:</span> विप्रवर ! जिसके पिता की मृत्यु हो गयी हो और पितामह जीवित हों, उसे किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए? यह बताने की कृपा करें ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">व्यास जी बोले:</span> पिता को पिण्ड दे, पितामह को प्रत्यक्ष भोजन कराये और प्रपितामह को भी पिण्ड दे दे । यही शास्त्रों का निर्णय है । मरे हुए को पिण्ड देने और जीवित को भोजन कराने का विधान है । उस अवस्था में सपिण्डीकरण और पार्वणश्राद्ध नहीं हो सकता ।<br />
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<b><br /></b></div>
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<b>कलियुग, शूद्र और स्त्री का धन्य होना</b><b><span style="color: blue; font-size: x-small;">(</span></b><b><span style="color: blue; font-size: x-small;">संक्षिप्त ब्रह्म पुराण, गीताप्रेस, पृष्ठ ३९४)</span></b></div>
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ब्राह्मणो ! कलियुग धन्य है, जहाँ थोड़े ही क्लेश से महान फल की प्राप्ति होती है तथा स्त्री और शूद्र भी धन्य हैं । इसके सिवा और भी सुनो । सत्ययुग में दस वर्ष की तपस्या, ब्रह्मचर्य और जप आदि का अनुष्ठान करने से जो फल मिलता है, वह त्रेता में एक वर्ष, द्वापर में एक मास तथा कलियुग में एक दिन-रात के ही अनुष्ठान से मिल जाता है । इसीलिए मैंने कलियुग को श्रेष्ठ बताया । सत्ययुग में ध्यान, त्रेता में यज्ञों द्वारा यजन और द्वापर में पूजन करने से मनुष्य जिस फल को पाता है, वही कलियुग में केशव का नाम-कीर्तन करने मात्र से मिल जाता है । धर्मज्ञ ब्राह्मणो ! इस कलियुग में थोड़े से परिश्रम से ही मनुष्य को महान धर्म की प्राप्ति हो जाती है । इसीलिए मैं कलियुग से अधिक संतुष्ट हूँ ।<br />
अब शूद्रों की विशेषता का वर्णन सुनो । द्विजों को पहले ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हुए वेदाध्ययन करना पड़ता है । फिर धर्मतः प्राप्त हुए धन दे द्वारा विधिपूर्वक यज्ञ करना पड़ता है । इसमें भी व्यर्थ वार्तालाप, व्यर्थ भोजन और व्यर्थ धन द्विजों के पतन के कारण होते हैं; इसलिए उन्हें सदा संयमी रहना आवश्यक है । यदि वे सभी वस्तुओं में विधि का पालन न करें तो उन्हें दोष लगता है । यहाँ तक कि भोजन और पान आदि भी उनकी इच्छा के अनुसार नहीं प्राप्त होते । वे समस्त कार्यों में परतंत्र होते हैं । इस प्रकार विनीत भाव से महान क्लेश उठाकर वे उत्तम लोकों पर अधिकार प्राप्त करते हैं; परन्तु मन्त्र-हीन पाक-यज्ञ का अधिकारी शूद्र केवल द्विजो की सेवा करने मात्र से अपने लिए अभीष्ट पुण्य-लोकों को प्राप्त कर लेता है । इसलिए शूद्र अन्य वर्णो की अपेक्षा अधिक धन्यवाद का पात्र है । स्त्रियां क्यों धन्य हैं, इसका कारन बतलाया जाता है । पुरुषों को अपने धर्म के विपरीत न चलकर सदा ही धनोपार्जन करना, उसे सुपात्रों को देना और विधिपूर्वक यज्ञ करना आवश्यक है । धन के उपार्जन और सरक्षण में महान क्लेश उठाना पड़ता है तथा उसे उत्तम कार्य में लगाने के लिए मनुष्यों को जो गहरी चिन्ता करनी पड़ती है, वह सबको विदित है । ये तथा और भी बहुत से क्लेश सहन करके पुरुष क्रमशः प्राजापत्य आदि शुभ लोक प्राप्त करते हैं; परन्तु स्त्री मन, वाणी और क्रिया द्वारा केवल पति के सेवा करने मात्र से उसके समान लोको पर अधिकार प्राप्त कर लेती है । वे महान क्लेश के बिना ही उन लोकों में जाती है, जिनमें क्लेश-साध्य उपाय करके पुरुष जाता है; इसलिए तीसरी बार मैंने स्त्रियों को साधुवाद दिया है ।<br />
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<br />
देह, इन्द्रिय और मन आदि जो प्रकृति के विकार हैं, वे क्षेत्रज्ञ के आधार पर ही स्थित हैं । वे जड़ होने के कारण क्षेत्रज्ञ को नहीं जानते, किन्तु क्षेत्रज्ञ उन सबको जानता है । जैसे चतुर सारथी अपने वश में किये बलवान एवं उत्तम घोड़ों से अच्छी तरह काम लेता है, उसी तरह क्षेत्रज्ञ भी अपने अधीन किये हुए मन और इन्द्रियों द्वारा सम्पूर्ण कार्य सिद्ध करता है । इन्द्रियों की अपेक्षा उनके विषय (शब्दादि तन्मात्रा) पर - सूक्ष्म, श्रेष्ठ हैं । विषयों से मन पर है । मन से बुद्धि पर है । बुद्धि से महत्तत्व पर है । महत्तत्व से अव्यक्त(मूल प्रकृति) पर है और अव्यक्त से अविनाशी परमात्मा पर है । अविनाशी परमात्मा से पर कुछ भी नहीं । वही परता की सीमा है तथा वही परम गति है और इस प्रकार सभी प्राणियों के भीतर छिपा हुआ वह परमात्मा सबके जानने में नहीं आता । उसे तो सूक्ष्मदर्शी ज्ञानी महात्मा ही अपनी सूक्ष्म एवं श्रेष्ठ बुद्धि से देखते हैं ।</div>
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<b>स्थावर -> कीट -> जलचर -> पक्षी -> पशु -> मनुष्य -> धर्मात्मा -> मोक्षप्राप्त महात्मा</b> - ये क्रमशः एक दुसरे से सहस्त्रगुना श्रेष्ठ हैं।<br />
<br />
<br />
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<b><br /></b>
<b>वस्त्वेकमेव दुःखाय सुखायेदर्प्योदयाय च ।</b><br />
<b>कोपाय च यतस्तस्माद् वास्तु दुःखात्मकं कुतः।।</b><br />
<b>तदेव प्रीतये भूत्वा पुनर्दु:खाय जायते।</b><br />
<b>तदेव कोपाय यतः प्रसादाय च जायते।।</b><br />
<b>तस्माद्दुःखात्मकं नास्ति न च किञ्चित्सुखात्मकं।</b><br />
<b>मनसः परिणामोऽयं सुखदुःखादिलक्षणः।।</b><br />
ब्र पु २२।४५-४७<br />
<br />
एक ही वस्तु समय समय पर दुःख-सुख, ईर्ष्या और क्रोध का कारण बनती है । अतः केवल दुःखरूप वस्तु कहाँ से आयी ? वही वस्तु पहले प्रसन्नता का कारण होकर फिर दुःख देनेवाली बन जाती है । फिर वही क्रोध और प्रसन्नता का भी हेतु बनती है । इसलिए कोई भी वस्तु न तो दुःखरूप है न सुखरूप है । यह सुख और दुःख आदि तो मन का विकारमात्र है ।<br />
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<b>गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः।।</b></div>
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<b>पतिरेव गुरुः स्त्रीणाम् सर्वस्याभ्यागतो गुरुः। अभ्यागतमनुप्राप्तम् वचनैस्तोषयन्ति ये।।</b></div>
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<b>तेषां वागीश्वरी देवी तृप्ता भवति निश्चितं। तस्यान्नस्य प्रदानेन शक्रस्तृप्तिमवाप्नुयात्।।</b></div>
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<b>पितरः पादशौचेन अन्नाद्येन प्रजापतिः। तस्योपचाराद्वै लक्ष्मीर्विष्णुना प्रीतिमाप्नुयात्।।</b></div>
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<b>शयने सर्वदेवास्तु तस्मात्पूज्यतमो</b><b>ऽ</b><b>तिथि:।</b></div>
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<b>अभ्यागतमनु श्रान्तम् सूर्योढं गृहमागतं। तं विद्याद्देवरूपेण सर्वक्रतुफलो ह्यसो।।</b></div>
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<b>अभ्यागतं श्रान्तमनुव्रजन्ति देवाश्च सर्वे पितरोsग्नयश्च। तस्मिन् हि तृप्ते मुदवाप्नुवन्ति गते निराशे</b><b>ऽ</b><b>अपि च ते निराशा:।।</b></div>
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ब्र. पु. ८०|४७-५२</div>
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ब्राह्मणों के गुरु अग्नि हैं। सब वर्णो का गुरु ब्राह्मण है। स्त्रियों का गुरु उसका पति है और सब लोगों का गुरु अभ्यागत(अतिथि) है। जो लोग अपने घर पर आये हुए अतिथि को वचनों द्वारा संतुष्ट करते हैं, उनके उन वचनों से वाणी की अधीश्वरी सरस्वती देवी तृप्त होती हैं। अतिथि को अन्न देने से इन्द्र तृप्त होते हैं। उसके पैर धोने से पितर, उसके भोजन करने से प्रजापति, उसकी सेवा पूजा से लक्ष्मीसहित श्रीविष्णु तथा उसके सुखपूर्वक शयन करने पर सम्पूर्ण देवता तृप्त होते हैं। अतः अतिथि सबके लिए परम पूजनीय है। यदि सूर्यास्त के बाद थका-माँदा अतिथि घर पर आ जाये तो उसे देवता समझें; क्योंकि वह सब यज्ञों का फलरूप है। थके हुए अतिथि के साथ गृहस्थ के घर पर सम्पूर्ण देवता, पितर और अग्नि भी पधारते हैं। यदि अतिथि तृप्त हुआ तो उन्हें भी बड़ी प्रसन्नता होती है और यदि वह निराश होकर चला गया तो वे भी निराश होकर ही लौटते हैं।<br />
<br />
<br />
<b>ये बालकं मातृपितृप्रहीणं सनिर्विशेषं स्वतनुप्ररूढैः ।</b><br />
<b>पश्यन्ति रक्षन्ति त एव नूनं, ब्रह्मादिकानामपि वन्दनीयाः।।</b><br />
ब्र पु ११०।७०<br />
<br />
जो लोग माता-पिता से हीन बालक को अपने औरस पुत्रों के समान देखते और उसी भाव से रक्षा करते हैं, वे निश्चय ही ब्रह्मा आदि देवताओं के भी वन्दनीय हैं।<br />
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<b>मृतास्त एवात्र यशो न येषामन्धास्त एव श्रुतवर्जिता ये। </b><br />
<b>ये दानशीला न नपुंसकास्ते ये धर्मशीला न त एव शोच्याः।।</b><br />
ब्र पु ११०।१५६<br />
<br />
इस जगत में वे ही मुर्दे हैं, जिन्होंने यश का उपार्जन नहीं किया;<br />
वे ही अन्धे हैं, जिन्होंने शास्त्र नहीं पढ़े।<br />
वे ही नपुंसक हैं, जो सदा दान नहीं देते तथा<br />
वे ही शोक के योग्य हैं, जो सदा धर्मपालन में संलग्न नहीं रहते ।<br />
<br />
<b>महतां दर्शनं ब्रह्मन जायते न हि निष्फलं ।</b><br />
<b>द्वेषादज्ञानतो वापि प्रसङ्गाद्वा प्रमादतः ।।</b><br />
<b>अयसःस्पर्शसंस्पर्शो रुक्मत्वायैव जायते ।</b><br />
ब्र पु, १६३ । ३८-३९<br />
<br />
महापुरुषों का दर्शन निष्फल नहीं होता, भले ही वह द्वेष अथवा अज्ञान से ही क्यों न हुआ हो । लोहे का पारसमणि से प्रसङ्ग या प्रमाद से भी स्पर्श हो जाये तो भी वह उसको सोना ही बनता है ।<br />
<br />
<b>एतदेव सुजातनाम् लक्षणम् भुवि देहिनां ।</b><br />
<b>कृपार्द्र यन्मनो नित्यं तेषामप्यहितेषु हि।।</b><br />
ब्र पु, - १७० । ८३<br />
<br />
इस पृथ्वी पर उत्तम कुल में उत्पन्न हुए साधू पुरुषों का यही लक्षण है कि अहित करने वालों के प्रति भी उनके मन में सदा कारुण्य ही भरी रहती है ।<br />
<br />
<b>त्वया यदभयं दत्तं तद्दत्तमभयं मया। </b><br />
<b>मत्तोऽविभिन्नमात्मानं द्रष्टुमर्हसि शंकर।।</b><br />
<b>योऽहं स त्वं जगच्चेदं सदेवासुरमानुषम्। </b><br />
<b>अविद्यामोहितात्मानः पुरुषा भिन्नदर्शिनः।।</b><br />
ब्र पु, २०६ । ४७ - ४८<br />
<br />
शंकर ! आपने जो अभयदान दिया है, वह मैंने भी दिया । आप अपने को मुझसे पृथक न देखें । जो मैं हूँ, वही आप हैं और वही यह देवता, असुर तथा मनुष्योंसहित सम्पूर्ण जगत भी है । जिनका चित्त अविद्या से मोहित है, वे ही पुरुष भेददृष्टी रखनेवाले होते हैं ।<br />
<br />
<span style="color: blue; font-size: x-small;">*भगवान शंकर द्वारा बाणासुर को अभय वरदान देने तथा शंकर और कृष्ण के युद्ध पश्चात् का कथन ।</span><br />
<br />
<b>न योनिर्नापि संस्कारो न श्रुतिर्न च संततिः ॥ </b><br />
<b>कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमेव तु कारणम् ।</b><br />
<b>सर्वोऽयं ब्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते ॥</b><br />
<b>वृत्ते स्थितश्च शूद्रोऽपि ब्राह्मणत्वं च गच्छति ।</b><br />
ब्र पु, २२३ । ५६ - ५८<br />
<br />
जन्म, संस्कार, वेदाध्ययन या संतति - ये सब द्विजत्व के कारण नहीं हैं; द्विजत्व का मुख्य कारण तो सदाचार ही है । संसार में ये सब लोग आचरण से ही ब्राह्मण माने जाते हैं । उत्तम आचरण में स्थित होने पर शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो सकता है ।</div>
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<br /></div>
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<b>गोस्त्रीद्विजानां परिरक्षणार्थ विवाहकाले सुरतप्रसंगे।</b></div>
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<b>प्राणात्यये सर्वधनापहारे पञ्चानृतान्याहुरपातकानि।।</b></div>
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ब्र पु, २२७ | ५०</div>
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<br /></div>
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गौ, स्त्री और ब्राह्मण की रक्षा के लिए, विवाह के समय, रति के प्रसङ्ग में, प्राण - सङ्कटकाल में, सर्वस्व का अपहरण होते समय - इन पांच अवसरों पर असत्य भाषण से पाप नहीं लगता।<br />
<br />
<b>यदा यदा हि पाखण्डवृत्तिरत्रोपलक्ष्यते। तदा तदा कलेर्वृद्धिरनुमेया विचक्षणैः।।</b><br />
<b>यदा यदा सतां हानिर्वेदमार्गानुसारिणाम्। तदा तदा कलेर्वृद्धिरनुमेया विचक्षणैः।।</b><br />
<b>प्रारम्भाश्चावसीदन्ति यदा धर्मकृतां नृणाम्। तदनुमेयं प्राधान्यं कलेर्विप्रा विचक्षणैः।।</b><br />
ब्र पु, २२९ । ४४ - ४६<br />
<br />
जब-जब इस जगत में पाखण्डवृत्ति दृष्टिगोचर होने लगे, तब-तब विद्वान् पुरुषों को कलियुग की वृद्धि का अनुमान करना चाहिए । जब-जब वैदिक मार्ग का अनुसरण करनेवाले साधु पुरुषों की हानि हो, तब-तब बुद्धिमान पुरुषों को कलियुग की वृद्धि का अनुमान करना चाहिए । जब धर्मात्मा मनुष्यों के किये हुए कार्य शिथिल हो जाएं, तब उसमें विद्वानों को कलियुग की प्रधानता का अनुमान करना चाहिए ।</div>
<div>
<b><br /></b>
<b><br /></b>
<b>क्रोधं शमेन जयति कामं संकल्पवर्जनात्।।</b><br />
<b>सत्त्वसंसेवनाद्धीरो निद्रामुच्छेत्तुमर्हति। धृत्या शिश्नोदरं रक्षेत्पाणिपादं च चक्षुषा।। </b><br />
<b>चक्षुः श्रोत्रं च मनसा मनो वाचं च कर्मणा। अप्रमादाद्भयं जह्यद्दम्भं प्राज्ञोपसेवनात्।।</b><br />
ब्र पु, २३५ । ४० - ४२<br />
<b><br /></b>
<br />
धीर पुरुष मन को वश में रखने से क्रोध पर और संकल्प का त्याग करने से कामपर विजय पाता है । सत्वगुण का सेवन करने से वह निद्रा का नाश कर सकता है । धैर्य के द्वारा योगी शिश्न और उदर की रक्षा करे । नेत्रों की सहायता से हाथ और पैरों की रक्षा करे । मन के द्वारा नेत्र और कानो की रक्षा करे । प्रमाद के त्याग से भय का और विद्वान् पुरुषों के सेवन से दम्भ का त्याग करे ।<br />
<b><br /></b>
<br />
<b>रजस्तमश्च सत्त्वं च त्रय एते स्वयोनिजाः।</b><br />
<b>समाः सर्वेषु भूतेषु तान् गुणान् उपलक्षयेत्।।</b><br />
<b>तत्र यत् प्रीतिसंयुक्तं किंचिद् आत्मनि लक्षयेत्।</b><br />
<b>प्रशान्तमिव संयुक्तं सत्त्वं तद् उपधारयेत्।।</b><br />
<b>यत् तु संतापसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत् ।</b><br />
<b>प्रवृत्तं रज इत्येवं तत्र चाप्युपलक्षयेत्।।</b><br />
<b>यत् तु सम्मोहसंयुक्तमव्यक्तं विषमं भवेत् ।</b><br />
<b>अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तद् उपधारयेत्।।</b><br />
<b>प्रहर्षः प्रीतिरानन्दं स्वाम्यं स्वस्थात्मचित्तता ।</b><br />
<b>अकस्माद् यदि वा कस्माद् वदन्ति सात्त्विकान् गुणान्।।</b><br />
<b>अभिमानो मृषावादो लोभो मोहस्तथाक्षमा ।</b><br />
<b>लिङ्गानि रजसस्तानि वर्तन्ते हेतुतत्त्वतः।।</b><br />
<b>तथा मोहः प्रमादश्च तन्द्री निद्राप्रबोधिता ।</b><br />
<b>कथंचिद् अभिवर्तन्ते विज्ञेयास्तामसा गुणाः।।</b><br />
ब्र पु, २३६/२३७<br />
<b><br /></b>
<br />
सत्व, रज और तम - ये तीनो गुण आपने कारणभूत प्रकृति से प्रकट हैं । वे सम्पूर्ण प्राणियों में समान भाव से स्थित हैं। उनके कार्यों द्वारा उनकी पहचान करनी चाहिए। जब अन्तः करण कुछ प्रीतियुक्त सा जान पड़े, अत्यन्त शांति का सा अनुभव हो, तब उसे सत्वगुण जानना चाहिए। जब शरीर और मन में कुछ सन्ताप का सा अनुभव हो, तब उसे रजोगुण की प्रवृत्ति मानना चाहिए । जब अन्तः करण में अव्यक्त, अतर्क्य और अज्ञेय मोह का संयोग होने लगे, तब उसे तमोगुण समझना चाहिए । जब अकस्मात् किसी कारणवश अत्यन्त हर्ष, प्रेम, आनन्द, समता और स्वस्थचित्त का विकास हो, तब उसे सात्विक गुण कहते हैं । अभिमान, असत्यभाषण, लोभ और असहनशीलता - ये रजोगुण के चिन्ह हैं । मोह, प्रमाद, निद्रा, आलस्य और अज्ञान आदि दुर्गुण जब किसी तरह प्रवृत्त हों तब उन्हें तमोगुण का कार्य जानना चाहिए।<br />
<b><br /></b></div>
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<b>ये घातयन्ति विप्रान् गा बालं वृद्धं तथातुरम् । शरणागतं विश्वस्तं स्त्रियं मित्रं निरायुधम् ।।</b></div>
<div>
<b>येऽगम्यागामिनो मूढाः परद्रव्यापहारिणः । निक्षेपस्यापहर्तारो विषवह्निप्रदाश्च ये ।।</b><br />
<b>परभूमिं गृहं शय्यां वस्त्रालंकारहारिणः । पररन्ध्रेषु ये क्रूरा ये सदानृतवादिनः ।।</b><br />
<b>ग्रामराष्ट्रपुरस्थाने महादुःखप्रदा हि ये । कूटसाक्षिप्रदातारः कन्याविक्रयकारकाः ।।</b><br />
<b>अभक्ष्यभक्षणरता ये गच्छन्ति सुतां स्नुषाम् । मातरं पितरं चैव ये वदन्ति च पौरुषम् ।।</b><br />
<b>अन्ये ये चैव निर्दिष्टा महापातककारिणः । दक्षिणेन तु ते सर्वे द्वारेण प्रविशन्ति वै ।।</b><br />
ब्र पु, २१४ । १२३- १२८<br />
<br />
जो ब्राह्मण, गौ, बालक, वृद्ध, रोगी, शरणागत, विश्वासी, स्त्री, मित्र और निहत्थे मनुष्य की हत्या करते हैं, अगम्य स्त्री के साथ सम्भोग करते हैं, दूसरों के धन का अपहरण करते हैं, धरोहर हड़प लेते हैं, दूसरों को ज़हर देते हैं, दूसरों के घरों में आग लगाते है, परायी भूमि, गृह, शय्या, वस्त्र और आभूषण की चोरी करते हैं, दूसरों के छिद्र देखकर उनके प्रति क्रूरता का बर्ताव करते हैं, सदा झूठ बोलते हैं, ग्राम, नगर तथा राष्ट्र को महँ दुःख देते हैं, झूठी गवाही देते, कन्या बेचते, अभक्ष्य भक्षण करते, पुत्री और पुत्रवधु के साथ समागम करते, माता-पिता को कटुवचन सुनते तथा अन्यान्य प्रकार के महापातकों में संलग्न रहते हैं, वे सब दक्षिण द्वार से यमपुरी में प्रवेश करते हैं ।<br />
<br />
<b>यमपुरी के द्वारों का वर्णन</b><br />
<b>------------------------------</b><br />
वह पुरी बहुत ही विशाल है, उसका विस्तार लाख योजन का है । वह चौकोर बताई जाती है, उसके चार सुन्दर दरवाजे हैं । उसकी चारदीवारी सोने की बनी है, जो दस हज़ार योजन ऊँची है ।<br />
यमपुरी का पूर्व द्वार बहुत ही सुन्दर है । वहां फहरती हुई सैकड़ो पताकाएं उसकी शोभा बढाती हैं । हीरे, नीलम, पुखराज और मोतियों से वह वह द्वार सजाया जाता है। वहां गंधर्वों और अप्सराओं के गीत नृत्य होते रहते हैं । उस द्वार से देवताओं, ऋषियों, योगियों, गंधर्वों, सिद्धों, यक्षों और विद्याधरों का प्रवेश होता है।<br />
<br />
नगर का उत्तर द्वार घण्टा, छात्र, चंवर और नाना प्रकार के रत्नो से अलंकृत है । वह वीणा और वेणु की मनोहर ध्वनि गूंजती रहती है । वह महर्षियों का समुदाय शोभा पाता है उस द्वार से उन्हीं पुण्यात्माओं का प्रवेश होता है, जो धर्मज्ञ और सत्यवादी हैं। जिन्होंने गर्मियों में दूसरों को जल पिलाया है और सर्दी में अग्नि का सेवन कराया है, जो थके मांदे मनुष्यों की सेवा करते और सदा प्रिय वचन बोलते हैं, जो दाता, शूर और माता-पिता के भक्त हैं तथा जिन्होंने ब्राह्मणो की सेवा और अतिथियों का पूजन किया है, वे भी उत्तर द्वार से ही पुरी में प्रवेश करते हैं ।<br />
<br />
पश्चिम द्वार भांति-भांति के रत्नों से विभूषित है । विचित्र विचित्र मणियों की वहां सीढ़ियां बनी हैं । वहां भेरी, मृदंग और शंख आदि वाद्यों की ध्वनि हुआ करती है । जो मनुष्य, भगवान् शिव की भक्ति में संलग्न रहते हैं, जो सब तीर्थों में गोते लगा चुके हैं, जिन्होंने पञ्चाग्नि का सेवन किया है, जो किसी उत्तम तीर्थ स्थान में अथवा कलिंजर पर्वत पर प्राण त्याग करते हैं और जो स्वामी, मित्र अथवा जगत का कल्याण करने के लिए एवं गौओं की रक्षा के लिए मारे गए हैं, वे शूरवीर और तपस्वी पुरुष पश्चिम द्वार से यमपुरी में प्रवेश करते हैं ।<br />
<br />
पूरी का दक्षिण द्वार अत्यंत भयानक है । वह सम्पूर्ण जीवों के मन में भय उपजानेवाला है । वहां निरन्तर हाहाकार मचा रहता है । सदा अँधेरा छाया रहता है । उसके द्वार पर तीखे सींग, कांटे, बिच्छू, सांप, वज्रमुख कीट, भेड़िये, व्याघ्र, रीछ, सिंह, गीदड़, कुत्ते, बिलाव और गीध उपस्थित रहते हैं । उनके मुखों से आग की लपटें निकला करती हैं । जो सदा सबका अपकार करने वाले पापात्मा हैं, उन्ही का उस मार्ग से पूरी में प्रवेश होता है ।<br />
<br /></div>
Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-33197713451890802902019-03-11T18:20:00.003+05:302019-03-12T10:39:21.625+05:30ब्रह्मा की सन्तानब्रह्मा जी से दक्ष हुआ जिसे ब्रह्मा जी ने सृष्टि करने की आज्ञा दी । तब दक्ष ने अपनी पत्नी वीरिणी के गर्भ से ६० कन्याएं उत्पन्न कीं। उनमें से दस को धर्म से, तेरह कश्यप जी से, सत्ताईस चन्द्रमा से ब्याह दीं । चार कन्याएं अरिष्टनेमि को, दो भृगुपुत्र को, दो कृशाश्व को, दो अंगिरा मुनि को ब्याह दी ।<br />
<br />
<u>कश्यप की स्त्रियां </u><br />
<ul>
<li><b>अदिति </b></li>
<ul>
<li><span style="color: blue;">अंश</span></li>
<li><span style="color: blue;">धाता</span></li>
<li><span style="color: blue;">भव</span></li>
<li><span style="color: blue;">त्वष्टा</span></li>
<li><span style="color: blue;">मित्र</span></li>
<li><span style="color: blue;">वरुण</span></li>
<li><span style="color: blue;">अर्यमा</span></li>
<li><span style="color: blue;">विवस्वान</span></li>
<li><span style="color: blue;">सविता</span></li>
<li><span style="color: blue;">पूषा</span></li>
<li><span style="color: blue;">अंशुमान</span></li>
<li><span style="color: blue;">विष्णु</span> - ये सहस्त्र किरणों वाले बारह आदित्य हैं </li>
</ul>
<li><b>सुरभि </b></li>
<ul>
<li><span style="color: blue;">अजैकपाद</span></li>
<li><span style="color: blue;">अहिर्बुधन्य</span></li>
<li><span style="color: blue;">विरुपाक्ष</span></li>
<li><span style="color: blue;">रेवत</span></li>
<li><span style="color: blue;">हर</span></li>
<li><span style="color: blue;">बहुरूप</span></li>
<li><span style="color: blue;">त्र्यम्बक</span></li>
<li><span style="color: blue;">सवित्र</span></li>
<li><span style="color: blue;">जयन्त</span></li>
<li><span style="color: blue;">पिनाकी</span></li>
<li><span style="color: blue;">अपराजित</span> - ये ग्यारह रुद्रगण हैं, जो असंख्य रुद्रगणों के स्वामी हैं </li>
</ul>
<li><b>दिति </b></li>
<ul>
<li><span style="color: blue;">हिरण्यकश्यिपु</span></li>
<ul>
<li><span style="color: #741b47;">प्रह्लाद </span></li>
<ul>
<li><span style="color: red;">गवेष्ठि</span></li>
<li><span style="color: red;">कालनेमि</span></li>
<li><span style="color: red;">जम्भ</span></li>
<li><span style="color: red;">बल्वल</span></li>
<li><span style="color: red;">शम्भु</span> </li>
<ul>
<li><span style="background-color: #bf9000;">धेनुक</span>, <span style="background-color: #bf9000;">शोमलोमा </span></li>
</ul>
<li><span style="color: red;">विरोचन</span> </li>
<ul>
<li><span style="background-color: #bf9000;">बलि </span></li>
</ul>
</ul>
<li><span style="color: #741b47;">अनुह्लाद</span> </li>
<ul>
<li><span style="color: red;">निवातकवच </span>नामक दैत्य(लगभग ३ करोड़, सभी अर्जुन द्वारा मारे गए)</li>
</ul>
<li><span style="color: #741b47;">ह्लाद</span></li>
<ul>
<li> <span style="color: red;">मूक </span>(अर्जुन द्वारा किरात प्रदेश में मारा गया)</li>
</ul>
</ul>
<ul>
<li><span style="color: #741b47;">ह्लद </span> </li>
<ul>
<li><span style="color: red;">सुन्द </span> </li>
<ul>
<li><span style="background-color: #bf9000;">मारीच </span>(ताड़का से, दण्डकारण्य में श्रीराम द्वारा मारा गया)</li>
</ul>
<li><span style="color: red;">उपसुन्द</span></li>
</ul>
<ul><ul>
</ul>
</ul>
</ul>
<li><span style="color: blue;">हिरण्याक्ष</span></li>
<ul>
<li><span style="color: #741b47;">अन्धक</span></li>
<li><span style="color: #741b47;">शकुनि</span></li>
<li><span style="color: #741b47;">कालनाभ</span></li>
<li><span style="color: #741b47;">महानाभ</span></li>
<li><span style="color: #741b47;">भूतसन्तापन</span> (सभी तारकामय संग्राम में मारे गए)</li>
</ul>
</ul>
</ul>
<div>
<div>
<u>धर्म की स्त्रियां </u></div>
<div>
<ul>
<li><b>मरुत्वती </b></li>
<ul>
<li><span style="color: blue;">मरुत्वान</span></li>
</ul>
</ul>
</div>
<div>
<ul>
<li><b>जामी </b></li>
<ul>
<li><span style="color: blue;">नागवीथी </span>(कन्या)</li>
</ul>
<li><b>वसु</b></li>
<ul>
<li><span style="color: blue;">आप </span></li>
<ul>
<li><span style="color: #741b47;">देव</span></li>
<li><span style="color: #741b47;">भ्रम</span></li>
<li><span style="color: #741b47;">शांत</span></li>
<li><span style="color: #741b47;">ध्वनि </span></li>
</ul>
<li><span style="color: blue;">ध्रुव</span></li>
<ul>
<li><span style="color: #741b47;">काल </span></li>
</ul>
<li><span style="color: blue;">सोम</span></li>
<ul>
<li><span style="color: #741b47;">वर्चा</span></li>
<li><span style="color: #741b47;">बुध</span> </li>
</ul>
<li><span style="color: blue;">वर</span> </li>
<ul>
<li><span style="color: #741b47;">हुत</span></li>
<li><span style="color: #741b47;">हव्यवह</span></li>
<li><span style="color: #741b47;">द्रविण </span></li>
</ul>
<li><span style="color: blue;">अनल </span></li>
<ul>
<li><span style="color: #741b47;">अग्नि के समान गुण वाले कई पुत्र </span></li>
</ul>
<li><span style="color: blue;">अनिल </span></li>
<ul>
<li><span style="color: #741b47;">मनोजव</span></li>
<li><span style="color: #741b47;">अविज्ञातगति</span> </li>
</ul>
<li><span style="color: blue;">प्रत्युष </span></li>
<ul>
<li><span style="color: #741b47;">देवल </span></li>
</ul>
<li><span style="color: blue;">प्रभास </span>- ब्रह्मवादिनी (बृहस्पति की बहन और प्रभास की पत्नी हुई) </li>
<ul>
<li><span style="color: #741b47;">विश्वकर्मा (शिल्पकार)</span></li>
</ul>
</ul>
</ul>
<ul>
<li><b>लंबा </b></li>
<ul>
<li><span style="color: blue;">घोष</span></li>
</ul>
<li><b>भानु </b></li>
<ul>
<li><span style="color: blue;">भानु</span></li>
</ul>
<li><b>अरुंधति </b></li>
<ul>
<li>पृ<span style="color: blue;">थ्वी पर होने वाले समस्त प्राणी </span></li>
</ul>
<li><b>संकल्पा </b></li>
<ul>
<li><span style="color: blue;">संकल्प </span></li>
</ul>
<li><b>मुहूर्ता </b></li>
<ul>
<li><span style="color: blue;">मुहूर्त </span></li>
</ul>
<li><b>साध्य </b>(साध्य/तुषित देवता)</li>
<ul>
<li><span style="color: blue;">मन </span></li>
<li><span style="color: blue;">अनुमन्ता </span></li>
<li><span style="color: blue;">प्राण </span></li>
<li><span style="color: blue;">नर </span></li>
<li><span style="color: blue;">पान </span></li>
<li><span style="color: blue;">नेमि </span></li>
<li><span style="color: blue;">यम </span></li>
<li><span style="color: blue;">नृप </span></li>
<li><span style="color: blue;">हंस </span></li>
<li><span style="color: blue;">नारायण </span></li>
<li><span style="color: blue;">विभु </span></li>
<li><span style="color: blue;">प्रभु </span></li>
</ul>
<li><b>विश्वा </b></li>
<ul>
<li><span style="color: blue;">विश्वेदेव </span></li>
</ul>
</ul>
</div>
</div>
<div>
<br /></div>
<div>
<span style="color: blue;">*as described in संक्षिप्त स्कन्द पुराण, गीता प्रेस, गोरखपुर </span></div>
Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-57144483579486037742019-02-27T11:19:00.003+05:302020-07-09T01:48:32.637+05:30वैराग्य शतकम् - Part 1<h2 style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;">॥ वैराग्य शतकम् भर्तृहरिविरचितम् ॥</span></h2>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: large;"><br></span><span style="font-size: large;"><span style="color: blue;">मंगलाचरणम् </span></span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: large;"><span style="color: blue;"><br></span></span></span>
<b><span style="font-size: large;">दिक्कालाद्यनवच्छिन्नाऽनन्तचिन्मात्रमूर्त्तये ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे ।। १ ।।</span></b><br>
<span style="font-size: large;"><b><br></b>
<b>अर्थ:</b></span><br>
<span style="font-size: large;">जो दशों दिशाओं और तीनो कालों में परिपूर्ण है, जो अनन्त है, जो चैतन्य स्वरुप है, जो अपने ही अनुभव से जाना जा सकता है, जो शान्त और तेजोमय है, ऐसे ब्रह्मरूप परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदूषिताः। </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">अबोधोपहताश्चान्ये जीर्णमंगे सुभाषितम्।। २ ।।</span></b><br>
<span style="font-size: large;"><b><br></b><b>अर्थ:</b></span><br>
<span style="font-size: large;">जो विद्वान् हैं, वे इर्षा से भरे हुए हैं; जो धनवान हैं, उनको उनके धन का गर्व है; इनके सिवा जो और लोग हैं, वे अज्ञानी हैं; इसलिए विद्वत्तापूर्ण विचार, सुन्दर सुन्दर सारगर्भित निबन्ध या उत्तम काव्य शरीर में ही नाश हो जाते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जो विद्वान् हैं, पण्डित हैं, जिन्हें अच्छे बुरे का ज्ञान या तमीज है, वे तो अपनी विद्वता के अभिमान से मतवाले हो रहे हैं, वे दूसरों के उत्तम से उत्तम कामों में छिद्रान्वेषण करने या नुक्ताचीनी करने में ही अपना पांडित्य समझते हैं; अतः ऐसो में कुछ कहने में लाभ की जरा भी सम्भावना नहीं ।</span><br>
<span style="font-size: large;">दुसरे प्रकार के लोग जो धनी हैं, वे अपने धन के गर्व से भूले हुए हैं । उन्हें धन-मद के कारण कुछ सूझता ही नहीं, उन्हें किसी से बातें करना या किसी की सुनना ही पसन्द नहीं; अतः उनसे भी कुछ लाभ नहीं ।</span><br>
<span style="font-size: large;">अब रहे तीसरे प्रकार के लोग; वे नितान्त मूर्ख या अज्ञानी हैं; उन गँवारों में अच्छे बुरे की तमीज नहीं, अतः उनसे कुछ कहने या अपनी कृति दिखाने सुनाने को दिल नहीं चाहता; इसलिए हमारे मुंह से निकल सकने वाले उत्तमोत्तम विचार, निबन्ध, काव्य या सुभाषित, संसार के सामने न आकर, हमारे शरीर में ही नष्ट हुए जाते हैं । हमारा परिश्रम व्यर्थ जाता है और संसार हमारे कामों के देखने और लाभान्वित होने से वञ्चित रहता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>शिक्षा:</b> जो तुम्हारी तरफ मुखातिब हों, तुम्हारी बातों पर कान दे, तुम्हारी बातों को ध्यान से सुने, उन्ही को अपनी बातें सुनाओ । जो तुम्हारी बातें सुनना न चाहें, उनके गले मत पड़ो । ऐसा करने से आपकी आत्म-प्रतिष्ठा में बट्टा लगेगा - आपका अपमान होगा ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पण्डित मत्सरता भरे, भूप भरे अभिमान ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">और जीव या जगत के, मूरख महाअजान ।।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मूरख महाअजान, देख के संकट सहिये ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">छन्द प्रबन्ध कवित्त, काव्यरस कासों कहिये ।।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">वृद्धा भई मनमांहि, मधुर बाणी मुखमण्डित ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">अपने मन को मार, मौन घर बैठत पण्डित ।।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br></span>
</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">न संसारोत्पन्नं चरितमनुपश्यामि कुशलं विपाकः पुण्यानां जनयति भयं मे विमृशतः । </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">महद्भिः पुण्यौघैश्चिरपरिगृहीताश्च विषया महान्तो जायन्ते व्यसनमिव दातुं विषयिणाम् ।। ३ ।।</span></b><br>
<span style="font-size: large;"><b><br></b><b>अर्थ:</b></span><br>
<span style="font-size: large;">मुझे संसारी कामों में जरा सुख नहीं दीखता । मेरी राय में तो पुण्यफल भी भयदायक ही हैं । इसके सिवा, बहुत से अच्छे अच्छे पुण्यकर्म करने से जो विषय-सुख के सामान प्राप्त किये और चिरकाल तक भोगे गए हैं, वे भी विषय सुख चाहनेवालो का, अन्त समय में दुखों के ही कारण होते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">इस जीवन में सुख का लेश भी नहीं है । जिनके पास अक्षय लक्ष्मी, धन-दौलत, गाडी-घोड़े, मोटर, नौकर-चाकर, रथ-पालकी प्रभृति सभी सुख के सामान मौजूद हैं, राजा भी जिनकी बात को टाल नहीं सकता, जिनके इशारों से ही लोगों का भला बुरा हो सकता है, ऐसे सर्वसुख संपन्न लोग भी, चाहे ऊपर से सुखी दीखते हों, पर वास्तव में सुखी नहीं हैं; भीतर ही भीतर उन्हें घुन खाये जाता है; किसी न किसी दुःख से वे जरजरित हुए जाते हैं । दो कहानियां सुनते हैं -</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">एक महात्मा अपने शिष्य के साथ किसी नगर में गए । वहां उन्होंने देखा कि, एक साहूकार इन्द्रभवन जैसे मकान में बैठा है, सैकड़ों सेवक आज्ञापालन को तैयार खड़े हैं, जोड़ी-गाडी द्वार पर खड़ी है, हाथी झूम रहे हैं, सामने सोने-चंडी और हीरे-पन्नो के ढेर लग रहे हैं । महात्मा को देखकर सेठ ने अपने एक कर्मचारी को उनको भोजन कराने की आज्ञा दी । जब गुरु-चेले भोजन करने बैठे, तब चेला बोलै - "गुरु जी ! आप कहते थे, संसार में कोई भी सुखी नहीं है । देखिये यह सेठ कैसा सुखी है ! इसे किस बात का अभाव है ? लक्ष्मी इसकी दासी हो रही है ।" गुरु ने कहा - "जरा सब्र करो । हम पता लगाकर कुछ कह सकेंगे ।" महात्मा ने जब भोजन कर लिया, तब सेठ से कहा - "सेठ जी ! परमात्मा ने आपको सभी सुख दिए हैं ।" सेठ ने रोककर कहा - "महाराज ! मेरे समान इस जगत में कोई दुखी नहीं है । मुझे परमात्मा ने धनैश्वर्य सब कुछ दिया है, पर पुत्र एक भी नहीं । पुत्र बिना, ये सुख बिना नमक के पदार्थ की तरह बेस्वाद हैं । मेरा दिल रात दिन जला करता है, कभी मुझे सुख की नींद नहीं आती । मैं इसी सोच में जला जाता हूँ कि पुत्र बिना इस संपत्ति को कौन भोगेगा ?" सेठ की बातें सुनकर चेले ने कहा - "हाँ गुरूजी, आपकी बात राई-रत्ती सच है । संसार में कोई सुखी नहीं । कोई किसी बात से दुखी है तो कोई किसी दुःख से ।"</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">संसारी सुख अनित्य हैं </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">----------------------------</span></b><br>
<span style="font-size: large;">सांसारिक सुख-भोग असार, अनित्य और नाशवान हैं । ये सदा स्थिर रहनेवाले नहीं; आज जो लक्ष्मी का लाल है, वह कल दर दर का भिखारी देखा जाता है; जो आज जवान पट्ठा है, मिर्जा अकड़बेग की तरह अकड़ता हुआ चलता है, वही कल बुढ़ापे के मारे लकड़ी टेक टेक कर चलता है । जिसे पहले सब लोग खूबसूरत कहते थे और मुहब्बत से पास बिठाते थे, अब उसके पास खड़ा होना भी नहीं चाहते । मतलब यह कि यौवन, जीवन, मन-धन, शरीर-छाया और प्रभुता, यह सब अनित्य और चञ्चल हैं; अतः दुःख के कारण हैं । काया में मरण, लाभ में हानि , जीत में हार, सुन्दरता में असुन्दरता, भोग में रोग, संयोग में वियोग और सुख में दुःख - ये सब दुःख के कारण हैं । अगर बिना मृत्यु का जीवन, बिना रंज की ख़ुशी, बिना बुढ़ापे की जवानी, बिना दुःख का सुख, बिना वियोग का संयोग और सदा-सर्वदा रहने वाला धन होता, तो मनुष्य को इस जीवन में अवश्य सुख होता ।</span><br>
<span style="font-size: large;">विषय भोगों में सुख नहीं है । ये असार हैं; केले के पत्ते या प्याज के छिलको की तरह सारहीन हैं । फिर भी, मोहवश मनुष्य विषयों में फंसा रहता है । पर एक न एक दिन मनुष्य को इन विषय-भोगों से अलग होना ही पड़ता है । अलग होने के समय विषय भोगी को बड़ा दुःख होता है इससे विषय परिणाम में दुःखदायी ही हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;">इसके सिवा, तरह तरह के पुण्य सञ्चय करने, यज्ञ-याग आदि करने अथवा दान करने से मनुष्य को स्वर्ग मिलता है । वहां वह अमृत पीता और अप्सराओं को भोगता है, कल्पवृक्ष से मनवांछित पदार्थ पाता है, पर पुण्य कर्मो के नाश हो जाने या उनके फल भोग चुकने पर वह स्वर्ग से नीचे गिरा दिया जाता है, उसे फिर इसी मृत्युलोक में आना होता है । उस समय वह स्वर्ग सुखों की याद कर करके मन ही मन रोता और दुखी होता है । इसी से मुझे पुण्यफल भी भयावह मालूम होते हैं । परिणाम में वे भी दुखो के ही कारण होते हैं । तात्पर्य यह कि, संसार मिथ्या और सारहीन है । इसके सुखभोग अनित्य, चञ्चल और सदा न रहने वाले हैं, इसी से दुःख के कारण हैं । मृत्युलोक और स्वर्गलोक में कहीं भी प्राणी को सुख नहीं है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>शिक्षा:</b> अगर मनुष्य दुखों से दूर रहना चाहे, सदा सुख भोगना चाहे, तो उसे अनित्य और नाशमान पदार्थों से अलग रहना चाहिए । उनमें मोह न रखना चाहिए । बुद्धिमान को लोक-परलोक की असारता और संयोग-वियोग का विचार करके अनित्य पदार्थो से प्रेम न करना चाहिए उसे सदा नित्य अविनाशी परमात्मा से प्रेम करना चाहिए ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"></span>
<b><span style="font-size: large;">उत्खातं निधिशंकया क्षितितलं ध्माता गिरेर्धातवो </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">निस्तीर्णः सरितां पतिर्नृपतयो यत्नेन संतोषिताः ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">मन्त्राराधनतत्परेण मनसा नीताः श्मशाने निशाः </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">प्राप्तः काणवराटकोऽपि न मया तृष्णेऽधुना मुञ्चमाम् ।। ४ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">धन मिलने की उम्मीद से मैंने जमीन के पैंदे तक खोद डाले; अनेक प्रकार की पर्वतीय धातुएं फूंक डाली; मोतियों के लिए समुद्र की भी थाह ले आया; राजाओं को भी राजी रखने में कोई बात उठा न राखी; मन्त्रसिद्धि के लिए रात रात भर श्मसान एकाग्रचित्त से बैठा हुआ जप करता रहा; पर अफ़सोस की बात है, कि इतनी आफ़ते उठाने पर भी एक कानि कौड़ी न मिली । इसलिए हे तृष्णे ! अब तो तू मेरा पीछा छोड़ ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">इसका यही मतलब है कि, भाग्य के विरुद्ध चेष्टा करना व्यर्थ है । जितना धन भाग्य में लिखा है, उतना तो बिना कोशिश किये, बिना किसी कि खुशामद किये, बिना देश-विदेश डोले, घर बैठे ही मिल जाएगा । भाग्य के लिखे से अधिक हजारों चेष्टाएं करने पर भी न मिलेगा । सिकंदर अमृत के लिए अँधेरी दुनिया में गया; पर अमूर्त के कुण्ड के पास पहुँच जाने पर भी, वह अमृत को चख न सका; क्योंकि उसके भाग्य में अमृत न था । मूर्ख मनुष्य भाग्य पर सन्तोष नहीं करता; धन के लिए मारा मारा फिरता है । जब कुछ भी हाथ नहीं लगता, तब रोता और कलपता है । </span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">भ्रान्तं देशमनेकदुर्गविषम् प्राप्तं न किञ्चित्फलम् </span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">त्यक्त्वा जातिकुलाभिमानमुचितं सेवा कृता निष्फला ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">भुक्तं मानविवर्जितम परगृहेष्वाशङ्कया काकव- </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">त्तृष्णे दुर्मतिपापकर्मनिरते नाद्यापि संतुष्यसि ।। ५ ।।</span></b><br>
<span style="font-size: large;"><b><span style="font-size: medium;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: medium;">अर्थ:</span></b></span><br>
<span style="font-size: large;">मैं अनेक कठिन और दुर्गम स्थानों में डोलता फिरा, पर कुछ भी नतीजा न निकला । मैंने अपनी जाति और कुल का अभिमान त्यागकर, पराई चाकरी भी की; पर उससे भी कुछ न मिला । शेष में, मैं कव्वे की तरह डरता हुआ और अपमान सहता हुआ पराये घरों के टुकड़े भी खाता फिरा । हे पाप-कर्म करने वाली और कुमतिदायिनी तृष्णे ! क्या तुझे इतने पर भी सन्तोष नहीं हुआ ?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">खलोल्लापाः सोढाः कथमपि तदाराधनपरै:</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">निगृह्यान्तर्वास्यं हसितमपिशून्येन मनसा ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">कृतश्चित्तस्तम्भः प्रहसितधियामञ्जलिरपि</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">त्वमाशे मोघाशे किमपरमतो नर्त्तयसि माम् ।। ६ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">मैंने दुष्टों की सेवा करते हुए उनकी तानेजानि और ठट्ठेबाज़ी सही, भीतर से, दुःख से आये हुए आंसू रोके और उद्विग्न चित्त से उनके सामने हँसता रहा । उन हंसने वालों के सामने, चित्त को स्थिर करके, हाथ भी जोड़े । हे झूठी आशा ! क्या अभी और भी नाच नचाएगी ?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">आदित्यस्य गतागतैरहरहः संक्षीयते जीवितम् </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">व्यापारैर्बहुकार्यभारगुरुभिः कालो न विज्ञायते । </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">दृष्ट्वा जन्मजराविपत्तिमरणं त्रासश्च नोत्पद्यते </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत् ।। ७ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">सूर्य के उदय और अस्त के साथ मनुष्यों की ज़िन्दगी रोज़ घटती जाती है । समय भागा जाता है, पर कारोबार में मशगूल रहने के कारण वह भागता हुआ नहीं दीखता । लोगों को पैदा होते, बूढ़े होते, विपत्ति ग्रसित होते और मरते देखकर भी उनमें भय नहीं होता । इससे मालूम होता है कि मोहमाया, प्रमादरूपी मदिरा के नशे में संसार मतवाला हो रहा है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">किसी ने खूब कहा है :</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सुबह होती है शाम होती है ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">योंही उम्र तमाम होती है ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">विचारकर देखने से बड़ा विस्मय होता है कि दिन और रात कैसे तेजी से चले जाते हैं । जिनको कोई काम नहीं है अथवा दुखिया है, उन्हें तो ये बड़े भारी मालूम होते हैं, काटे नहीं कटते, एक एक क्षण, एक एक वर्ष की तरह बीतता है; पर जो कारोबार या नौकरी में लगे हुए हैं, उनका समय हवा से भी अधिक तेजी से उड़ा चला जा रहा है, यानी कारोबार या धंधे में लगे रहने के कारण उन्हें मालूम नहीं होता । वे अपने कामों में भूले रहते हैं और मृत्युकाल तेजी से नजदीक आता जाता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">शंकराचार्य जी ने '<b>मोहमुद्गर</b>' में कहा है :</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दिन यामिन्यौ सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः। </span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कालः क्रीडति गच्छत्यायु तदपि न मुञ्चत्याशावायुः।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">दिन-रात, सवेरे-सांझ, शीत और वसंत आते और जाते हैं, काल क्रीड़ा करता है, जीवनकाल चला जाता है, तो भी संसार आशा को नहीं छोड़ता ।</span><br>
<span style="font-size: large;">शिक्षा: मनुष्यों ! मिथ्या आशा के फेर में दुर्लभ मनुष्य देह को योंही नष्ट न करो । देखो ! सर पर काल नाच रहा है: एक सांस का भी भरोसा न करो । जो सांस बाहर निकल गया है, वह वापस आवे या न आवे इसलिए गफलत और बेहोशी छोड़कर, अपनी काया को क्षणभंगुर समझकर, दूसरो की भलाई करो और अपने सिरजनहार में मन लगाओ; क्योंकि नाता उसी का सच्चा है; और सब नाते झूठे हैं ।<b> </b></span><br>
<span style="font-size: large;"><b><br></b></span>
<span style="font-size: large;"><b>कहा है -</b></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">माया सगी न मन सगा, सगा न यह संसार।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">परशुराम या जीव को, सगा सो सिरजनहार।।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">दीना दीनमुखैः सदैव शिशुकैराकृष्टजीर्णाम्बरा </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">क्रोशद्भिः क्षुधितैर्नरैर्न विधुरा दृश्या न चेद्गेहिनी । </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">याच्ञाभङ्गभयेन गद्गदगलत्रुट्यद्विलीनाक्षरं </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">को देहीति वदेत् स्वदग्धजठरस्यार्थे मनस्वी जनाः ।। ८ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;"><span style="color: #b45f06;">अन्वयः</span> </span></b><br>
<span style="font-size: large;">शिशुकैः + आकृष्ट </span><br>
<span style="font-size: large;">क्षुधितैः + निरन्न </span><br>
<span style="font-size: large;">चेत् + गेहिनी </span><br>
<span style="font-size: large;">याचना + भङ्ग + भयेन -> मांग पूरी न होने का भय, जबान खली जाने का भय </span><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">स्त्री के फटे हुए कपड़ों को दीनातिदीन बालक खींचते हैं, घर के और मनुष्य भूख के मारे उसके सामने रोते हैं - इससे स्त्री अतीव दुखित है । ऐसी दुखिनी स्त्री अगर घर में न होती तो कौन धीर पुरुष, जिसका गला मांगने के अपमान और इन्कारी के भय से रुका आता है, अस्पष्ट भाषा या टूटे-फूटे शब्दों में, गिड़गिड़ा कर "कुछ दीजिये" इन शब्दों को, अपने पेट की ज्वाला शान्त करने के लिए, कहता?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">भूख से बिल्लाते बच्चे जिस मां की फटी पुरानी साडी को पकड़ कर खींचते हुए रो रहे हों और मां भी खुद भूख से बेताब हो, ऐसी स्त्री को यदि घर में देखना न पड़े, तो कोई ऐसा व्यक्ति न होगा जो अपना निजी पेट भरने के लिए किसी के सामने सवाल करने जाय और वह भी जबकि सवाल करने से पहले ही मन में यह दुविधा हो कि कहीं जबान खाली न जाय और इस डर से मुंह से शब्द भी न निकलें अर्थात घर में बच्चो और स्त्री कि यह दशा देख नहीं सकता इसलिए अपने अपमान का ध्यान न कर औरो से मांगने पर मजबूर हो जाता है । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">याचना करने से त्रिलोकी भगवान् को भी छोटा होना पड़ा, तब औरो कि कौन बात है ? इसीलिए <b>तुलसीदास जी ने कहा है -</b></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर न करो ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरण करो ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">हाथ के ऊपर हाथ करो, पर हाथ के नीचे हाथ न करो, जिस दिन हाथ के नीचे हाथ करो, उस दिन मरण करो; यानी दूसरों को दो, पर दूसरों के आगे हाथ न फैलाओ । जिस दिन दूसरों के आगे हाथ फ़ैलाने की नौबत आये, उस दिन मरण हो जाए तो भला ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">स्त्री पुरुषों के पालन पोषण की चिन्ता में सारी आयु बीत जाती है; पर परमात्मा के भजन में उसका मन नहीं लगता ! मन तो तब लगे जबकि वह शुद्ध हो । उसे तो हरदम, नून-तेल, आटे-दाल की चिन्ता लगी रहती है । ईश्वर में मन न लगने से और शेष दिन आ जाने से, उसे फिर जन्म-मरण के झंझटों में फंसना होता है । यह स्त्री माया ही संसार वृक्ष का बीज है । शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध उसके पत्ते; काम, क्रोधादि उसकी डालियाँ और पुत्र-कन्या प्रभृति उसके फल हैं । तृष्णा रुपी जल से यह संसार-वृक्ष बढ़ता है । संसारबंधन से मुक्त होने में "कनक और कामिनी" ये दो ही बाधक हैं । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>कहा है :</b> </span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;">चलूँ </span><span style="background-color: #fff2cc;">चलूँ</span><span style="background-color: #fff2cc;"> सब कोई कहै, पहुंचे विरला कोय ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">एक कनक और कामिनी, दुर्लभ घाटी दोय ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">एक कनक और कामिनी, ये लम्बी तलवारि ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चाले थे हरिमिलन को, बीचहि लीने मारि ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नारि नसावै तीन सुख, जेहि नर पास होये ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भक्ति-मुक्ति अरु ज्ञान में, पैठ सके न कोय ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">एक बार व्यास जी ने शुकदेव जी को शादी करने को कहा । व्यास जी ने समझाने में घटा न रखा, पर शुकदेव जी ने एक न मानी । उन्होंने कहा "पिताजी ! लोह और काठ की बेड़ियों से चाहे छुटकारा हो जाय; पर स्त्री पुत्र प्रभृति की मोहरूपी बेड़ियों से पुरुष का पीछा नहीं छूट सकता हे पिता ! गृहस्थाश्रम जेलखाना है; इसमें जरा भी सुख नहीं । स्त्री के लिए पुरुष को संसार में नीच से नीच काम करने पड़ते हैं । जिनके मुंह देखने से पाप लगता है उसकी खुशामदें करनी पड़ती हैं, इसके वास्ते मैं स्त्री बंधन में नहीं पड़ना चाहता ।"</span><br>
<br>
<span style="font-size: large;"></span><br>
<span style="color: blue;">*व्यास-शुकदेव संवाद स्कंदपुराण से है।</span><div>
<span style="color: blue; font-size: large;"><br></span></div>
<div>
<b><span style="font-size: large;">निवृता भोगेच्छा पुरुषबहुमानो विगलितः</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">समानाः स्वर्याताः सपदि सुहृदो जीवितसमाः । </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">शनैर्यष्टयोत्थानम घनतिमिररुद्धे च नयने</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">अहो धृष्टः कायस्तदपि मरणापायचकितः ।। ९ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">बुढ़ापे के मारे भोगने की इच्छा नहीं रही; मान भी घट गया; हमारी बराबर वाले चल बसे; जो घनिष्ट मित्र रह गए हैं, वे भी निकम्मे या हम जैसे हो गए हैं । अब हम बिना लकड़ी के उठ भी नहीं सकते और आँखों में अँधेरी छा गयी है । इतना सब होने पर भी, हमारी काया कैसी बेहया है, जो अपने मरने की बात सुनकर चौंक उठती है ?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जगत की विचित्र गति है ! इस जीवन में जरा भी सुख नहीं है । मनुष्य के मित्र और नातेदार मर जाते हैं, आप निकम्मा हो जाता है, आँख कान प्रभृति इन्द्रियां बेकाम हो जाती हैं, आँखों से सूझता नहीं और कानो से सुनाई नहीं देता, घर-बाहर के लोग अनादर करते हैं, बुढ़ापे के मारे चला फिरा नहीं जाता, खाने को भी कठिनाई से मिलता है; तो भी मनुष्य मरना नहीं चाहता, बल्कि मरने की बात सुनकर चौंक उठता है। इसे मोह न कहें तो क्या कहें ?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">लकड़हारा और मौत</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">---------------------------</span></b><br>
<span style="font-size: large;">एक वृद्ध अतीव निर्धन था । बेटे पोते सभी मर गए थे । एक मात्र बुढ़िया रह गयी थी । बूढ़े के हाथ पैरों ने जवाब दे दिया था । आँखों से दीखता न था । फिर भी, अपने और बूढी के पेट के लिए, वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और बेचकर गुज़ारा करता था । एक दिन उसने जीवन से निहायत दुखी होकर मृत्यु को पुकारा । उसके पुकारते ही मृत्यु मनुष्य के रूप में उसके प्रत्यक्ष आ खड़ी हुई । बूढ़े ने पुछा - "तुम कौन हो ?" उसने कहा - "मैं मृत्यु हूँ, तुम्हें लेने आयी हूँ ।" मृत्यु का नाम सुनते ही लकड़हारा चौंक उठा और कहने लगा - "मैंने आपको ये भार उठवाने को बुलवाया था ।" मृत्यु उसका भार उठवा कर चली गयी ।</span><br>
<span style="font-size: large;">देखिये ! बूढा लकड़हारा हर तरह दुखी था, उसे जीवन में जरा भी सुख नहीं था, फिर भी वह मरना न चाहता था; अपितु मृत्यु को देखते ही चौंक पड़ा था । यही गति संसार की है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">एक दुखित बूढ़ा सेठ</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">--------------------------</span></b><br>
<span style="font-size: large;">एक वैश्य ने उम्र भर मर-पचकर खूब धन जमा किया । बुढ़ापे में पुत्रों ने सारे धन पर अधिकार कर बूढ़े को पौली में एक टूटी सी खाट और फटी सी गुदड़ी पर डाल दिया और कुत्ता मारने के लिए हाथ में लकड़ी दे दी । सुबह शाम घर का कोई आदमी बचा-खुचा, बासी-कूसी उसे खाने को दे जाता । सेठ बड़े दुःख से अपना जीवन जीता था । पुत्र-वधुएं दिन भर कहा करती थी - "यह मर नहीं जाते, सबको मौत आती है पर इनको नहीं आती। दिन भर पौली में थूक-थूक कर मैला करते हैं ।" एक दिन एक पोता उन्हें पीट रहा था । इतने में नारद जी आ निकले उन्होंने सारा हाल देखकर कहा - "सेठजी ! आप बड़े दुखी हैं । स्वर्ग में कुछ आदमियों की आवश्यकता है । अगर तुम चलो तो हम ले चलें ।" सुनते ही सेठ ने कहा - "जा रे वैरागीड़ा ! मेरे बेटे पोते मुझे मारते हैं चाहे गाली देते हैं, तुझे क्या ? तू क्या हमारा पञ्च है ? मैं इन्हीं में सुखी हूँ । मुझे स्वर्ग की आवश्यकता नहीं ।" सेठ की बातें सुनकर नारद जी को बड़ा आश्चर्य हुआ । कहने लगे - "ओह ! संसार सचमुच ही मोह-पाश में फंसा है । मोह की मदिरा के मारे इसे होश नहीं । मनुष्य ने कब्र में पैर लटका रखे हैं; फिर भी विषयों में ही उसका मन लगा है ।" <b>किसी ने ठीक ही कहा है :</b></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">गतं तत्तारुण्यं तरुणिहृदयानन्दजनकं </span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विशीर्णा दन्तालिर्निजगतिरहो यैष्टिशरणां । </span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जड़ी भूता दृष्टिः श्रवणरहितं कर्णयुगलं </span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मनोमे निर्लज्जं तदपि विषयेभ्यः स्पृहयति ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">तरुणियों के ह्रदय में आनन्द पैदा करने वाली जवानी चली गयी है, दन्तपंक्ति गिर गयी है, लकड़ी का सहारा लेकर चलता हूँ, नेत्र ज्योति मारी गयी है, दोनों कानों से सुनाई नहीं देता, तो भी मेरा निर्लज्ज मन विषयों को चाहता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;">शंकराचार्यकृत <b>चर्पटपञ्जरिका स्तोत्र</b> से:</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वृध्दो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">हिंसाशून्यमयत्नलभ्यमशनं धात्रामरुत्कल्पितं </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">व्यालानां पशवः तृणांकुरभुजः सृष्टाः स्थलीशायिनः ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">संसारार्णवलंघनक्षमधियां वृत्तिः कृता सा नृणां </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">यामन्वेषयतां प्रयांति संततं सर्वे समाप्ति गुणाः ।। १० ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">विधाता ने हिंसारहित, बिना उद्योग के मिलने वाली हवा का भोजन साँपों की जीविका बनाई, पशुओं को घास खाना और जमीन पर सोना बताया; किन्तु जो मनुष्य अपनी बुद्धि के बल से भवसागर के पार हो सकते हैं, उनकी जीविका ऐसी बनाई कि जिसकी खोज में उनके सारे गुणों की समाप्ति हो जाये, पर वह न मिले ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">विधाता ने सांपो के लिए तो हवा का भोजन बता दिया, जिसके हासिल करने में किसी प्रकार की हिंसा भी नहीं करनी पड़ती और वह बिना किसी प्रकार की चेष्टा के उन्हें अपने वासस्थानों में ही मिल सकता है । जानवरों के लिए घास चरने को और जमीन सोने को बता दी, इससे उनको भी अपने खाने के लिए विशेष चेष्टा नहीं करनी पड़ती, वे जंगल में उगी उगाई घास तैयार पाते हैं और इच्छा करते ही पेट भर लेते हैं । उन्हें सोने के लिए पलँगो और गद्दे-तकियों की फ़िक्र नहीं करनी पड़ती, जमीन पर ही जहाँ जी चाहता है पड़ रहते हैं । सर्प और पशुओं के साथ भगवान् ने पक्षपात किया, उन्हें बेफिक्री की ज़िन्दगी भोगने के उपाय बता दिए, किन्तु मनुष्यों के साथ ऐसा नहीं किया ! उन बेचारों को बुद्धि तो ऐसी दे दी कि जिससे वे संसार सागर के पार हो सकें अथवा दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त हो सकें; पर उन्हें जीविका ऐसी बताई कि जिसकी खोज में उनकी सारी कोशिशें बेकार हो जाएं, पर जीविका का ठिकाना न हो । यह क्या कुछ कम दुःख की बात है ? यदि विधाता मनुष्यों को भी साँपों और पशुओं की सी ही जीविका बताता, तो कैसा अच्छा होता ? मनुष्य जीविका की फ़िक्र न होने से, सहज में ही अपनी बुद्धि के जोर से मोक्ष पा जाते ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> भी कुछ इस तरह शिकायत करते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बनाया ज़ौक़ जो इंसां को उसने जुजव ज़ईफ़ ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तो उस ज़ईफ़ से कुल काम दो जहाँ के लिए ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">ए ज़ौक़ ! ईश्वर को देखो, कि उसने मनुष्य को कितना कमज़ोर बनाया, पर काम उससे दोनों लोकों के लिए । उसे इस लोक और परलोक, दोनों कि फ़िक्र लगा दी । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">किसी ने ठीक कहा है -</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">घृतलवणतैलतण्डुल शोकन्धन चिन्तयाऽअनुदिनम् ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विपुल मतेरपि पुंसो नश्यति धीरमन्दविभावत्वात् ।।</span></span><br>
<br>
<span style="font-size: large;">घी, नोन, तेल, चावल, साग और ईंधन की चिंता में बड़े बड़े मतिमानों की उम्र भी पूरी हो जाती है; पर इस चिंता का ओर छोर नहीं आता । इसी से मनुष्य को ईश्वर भजन या परमात्मा की भक्ति-उपासना को समय नहीं मिलता । अगर मनुष्य इतनी आपदाओं के होते हुए भी परलोक बनाना चाहे, तो उसे चाहिए कि अपनी ज़िन्दगी की जरूरतों को कम करे, क्योंकि जिसकी आवश्यकताएं जितनी ही कम हैं, वह उतना ही सुखी है । इसलिए महात्मा लोग महलों में न रहकर वृक्षों के नीचे उम्र काट देते हैं । वन में जो फल-फूल मिलते हैं, उन्हें खाकर और झरनो का शीतल जल पीकर पेट भर लेते हैं । आवश्यकताओं को कम करना ही सुख-शांति का सच्चा उपाय है ।</span></div>
<div>
<br></div>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"></span><br>
<br>
<span style="font-size: large;">वैराग्य शतकं - कालमहिमानुवर्णनम् - 11 </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुर्धर्मोऽपि नोपार्जितः ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नालिङ्गितं</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ।। ११ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">हमने संसार बन्धन के काटने के लिए, यथाविधि, ईश्वर के चरणों का ध्यान नहीं किया; हमने स्वर्ग के दरवाजे खुलवाने वाले धर्म का सञ्चय भी नहीं किया और हमने स्वप्न में भी कठोर कूचों का आलिङ्गन नहीं किया । हम तो अपनी माँ के यौवन रुपी वन के काटने के लिए कुल्हाड़े ही हुए ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">हमने लोक-परलोक साधन के लिए, जन्म मरण का फंदा काटने के लिए अथवा परमपद की प्राप्ति के लिए, शास्त्रों में लिखी विधि से परमात्मा के कमल चरणों का ध्यान नहीं किया; उसकी पूजा उपासना नहीं की; सारी उम्र पेट की चिंता में बिता दी । हमने पूर्वजन्म या वर्तमान जन्म के पापों के समूल नाश करने के लिए प्रायश्चित्त नहीं किये, न जीवों को अभय किया, न दानपुण्य किया; फिर हमारे लिए स्वर्ग का द्वार कैसे खुल सकता है ? क्योंकि धर्म का सञ्चय करने से ही स्वर्ग का द्वार खुलता है । न हमने परमात्मा के पद-पंकजों का ध्यान किया, न धर्म सञ्चय किया और न स्त्री के पीनपयोधरों का स्वप्न में भी आलिङ्गन किया । मतलब यह है, न हमने संसार के मिथ्या विषय-सुख ही भोगे और न हमने मोक्ष या स्वर्ग प्राप्ति के उपाय ही किये । "दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम" अथवा "इधर के रहे न उधर के रहे, खुदा मिला न विसाले </span><span style="font-size: large;">सनम" । हमने यों ही संसार में जन्म लेकर अपनी माता की जवानी और नाश की ! अगर हम जैसे निकम्मे न पैदा होते तो बेचारी की जवानी की रेढ़ तो न होती ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">वैराग्य शतकं - तृष्णादूषणं - 12 </span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;"><b>भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।</b></span></span><br>
<span style="font-size: large;"><b>कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।। १२ ।।</b></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><b><br></b></span>
<span style="font-size: medium;"><b>अर्थ:</b></span></span><br>
<span style="font-size: large;">विषयों को हमने नहीं भोगा, किन्तु विषयों ने हमारा ही भुगतान कर दिया; हमने तप को नहीं तपा किन्तु तप ने हमें ही तपा डाला; काल का खात्मा न हुआ, किन्तु हमारा ही खात्मा हो चला । तृष्णा का बुढ़ापा न आया, किन्तु हमारा ही बुढ़ापा आ गया ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;">हमने बहुत कुछ भोग भोगे, पर भोगों का अन्त न आया, हाँ हमारा अन्त आ गया । काल या समय का अन्त न आया किन्तु हमारा अन्त आ गया - हमारी उम्र पूरी हो चली । हमें जो धर्म-कार्य करने थे, वह हम न कर सके । हमने तप तो नहीं तपा, किन्तु संसारी तापों ने हमारे तई तपा डाला - संसार के जालों में फंसकर हम ही शोक-तापों से तप गए । हमारा अन्त आ पहुंचा, हम निर्बल और वृद्ध हो गए; पर तृष्णा बूढी और कमज़ोर न हुई - हमें संसार से विरक्ति न हुई ।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;"><b>ऐसी ही बात उस्ताद ज़ौक़ ने कही है -</b></span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दुनिया से ज़ौक़ ! रिश्तए उल्फत को तोड़ दे ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जिस सर का है यह बाल, उसी सर में जोड़ दे।।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पर ज़ौक़ न छोड़ेगा इस पीरा जाल को।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">यह पीरा जाल, गर तुझे चाहे तो छोड़ दे।।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;"></span></span><br>
<span style="font-size: large;">मतलब या कि लोग दुनिया को नहीं छोड़ते, दुनिया ही उन्हें निकम्मा करके छोड़ देती है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"></span><br>
<div>
<b><span style="font-size: large;">वैराग्य शतकं - तृष्णादूषणं - 13 </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">क्षान्तम् न क्षमया ग्रहोचितसुखं त्यक्तं न सन्तोषतः</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">सोढा दुःसहशीतवाततपनक्लेशा न तप्तम् तपः। </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">ध्यातं वित्तमहर्निशं नियमितप्राणैर्न शम्भोः पदम्</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">तत्तत्कर्म कृतम्य यदेव मुनिभिस्तैस्तैः फलैर्वचितम् ।। १३ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">क्षमा तो हमने की, परन्तु धर्म के ख्याल से नहीं की । हमने घर के सुख चैन तो छोड़े पर सन्तोष से नहीं छोड़े । हमने सर्दी-गर्मी और हवा के न सह सकने योग्य दुःख तो सही; किन्तु ये सब दुःख हमने तप की गरज से नहीं, किन्तु दरिद्रता के कारन सही । हम दिन रात ध्यान में लगे तो रहे, पर धन के ध्यान में लगे रहे - हमने प्राणायाम क्रिया द्वारा शम्भू के चरणों का ध्यान नहीं किया । हमने काम तो सब मुनियों के से किये, परन्तु उनकी तरह फल हमें नहीं मिले ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">हमनें क्षमा तो की परन्तु दया-धर्मवश नहीं की, हमारी क्षमा असमर्थता के कारण हुई; हममे सामर्थ्य नहीं थी इसलिए शांत हो गए । हमने अच्छा खाना पीना ऐश-आराम छोड़े, मजबूरी से छोड़े; अपनी भीतरी इच्छा से नहीं छोड़े । हमने उन्हें रोग प्रभृति के कारण त्यागा, पर सन्तोष से नहीं त्यागा । हमने गर्म-सर्द हवा के झोंके सही; हमने सर्दी-गर्मी सही जरूर, पर तप की गरज से नहीं, किन्तु घर में पैसा न होने की वजह से । हम सोते जागते आठ पहर, चौंसठ घडी ध्यान तो करते रहे, पर पैसे या स्त्री-पुत्रों का अथवा संसार के और झगड़ों का । हमने भोलानाथ के कमल चरणों का ध्यान नहीं किया । सारांश यह ! हमने मुनियों की तरह विषय-सुख त्यागे, उनकी तरह सर्दी-गर्मी के दुस्सह कष्ट भी उठाये, उनकी तरह हम ध्यान मग्न भी रहे - पर वे जिस तरह सामर्थ्य होते भी शांत होते हैं - सन्तोष के साथ विषय-सुखों से मुंह मोड़ लेते हैं - शिव का ही ध्यान करते हैं, उस तरह हमने नहीं किया; इसी से हम उन फलों से वञ्चित रहे, जिनको वे लोग प्राप्त करते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">दरिद्रावस्था में वैराग्य</span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">--------------------------</span></b><br>
<span style="font-size: large;">आपके घर में कंगाली और मुहताजी का राज है । आप स्त्री और बच्चों का पालन नहीं कर सकते । इसलिए स्त्री आपको नफरत की नजर से देखती है । यह सब देखकर आपके दिल में वैराग्य पैदा हुआ है । यह नीचे दर्जे का वैराग्य है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">सुखैश्वर्य में वैराग्य </span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">--------------------</span></b><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"></span><br></span>
<span style="font-size: large;">आपका अन्तः करण शुद्ध हो गया है; अतः आप धनैश्वर्य और पुत्रकलत्रादि को त्यागकर वन को जा रहे हैं । आप कहते हैं, "अब मुझे विषय सुख अच्छे नहीं लगते । मैं वन जाकर जगदीश का भजन करूँगा ।" यही वैराग्य उत्तम वैराग्य है और ऐसे नररत्न प्रशंसा के पात्र हैं । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<br>
<div>
<span style="font-size: large;">वैराग्य शतकं - तृष्णादूषणं - 14 </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">वलीभिर्मुखमाक्रान्तं पलितैरङ्कितं शिरः।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णैका तरुणायते।। १४ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">चेहरे पर झुर्रियां पड़ गयी, सर के बाल पककर सफ़ेद हो गए, सारे अंग ढीले हो गए - पर तृष्णा तो तरुण होती जाती है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं -</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नैननकी पलही में पल के, क्षण आधि घरी घरी घटिका जो गई है ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जाम गयो जुग जाम गयो, पुनि सांझ गयी तब रात भई है ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आज गयी अरु काल गई, परसों तरसों कुछ और ठई है ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सुन्दर ऐसे ही आयु गई, तृष्णा दिन ही दिन होत नई है ।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">आज सारा संसार तृष्णा के फेरे में पड़ा हुआ है । अमीर और गरीब, सभी इसके बन्धन में बन्धे हैं । गरीब </span><span style="font-size: large;">की</span><span style="font-size: large;"> अपेक्षा धनियों को तृष्णा बहुत है । धनी हमेशा निन्यानवे के फेरे में लगे रहते हैं । ९९ होने पर १०० करने की फ़िक्र लगी रहती है । १००० होने पर १०,००० की, १० हज़ार होने पर लाख की, लाख होने पर करोड़ की और करोड़ होने पर अरब-ख़रब की तृष्णा लगी रहती है । इसी फेर में मनुष्य रोगी और बूढा हो जाता है पर तृष्णा न रोगिणी होती है और न बूढी ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>सुभाषितावली </b>में लिखा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यौवनं जरया ग्रस्तमारोग्यं व्याधिभिर्हतं।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जीवितं मृत्युरभ्येति तृष्णैका निरुपद्रवा।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जवानी बुढ़ापे से, आरोग्यता व्याधियों से और जीवन मृत्यु से ग्रसित है; पर तृष्णा को किसी उपद्रव का डर नहीं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">शंकराचार्य कृत <b>प्रश्नोत्तरमाला </b>में लिखा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बद्धो हि को यो विषयानुरागी ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">का वा विमुक्तिर्विषयेनुरक्तिः ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">को वास्ति घोरो नरकस्स्वदेहस्तृष्णाक्षयस्स्वर्गपदं किमस्ति ?</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">बन्धन में कौन है? विषयानुरागी।</span><br>
<span style="font-size: large;">विमुक्ति क्या है? विषयों का त्याग।</span><br>
<span style="font-size: large;">घोर नरक क्या है? अपना शरीर।</span><br>
<span style="font-size: large;">स्वर्ग क्या है? तृष्णा का नाश।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">और भी किसी ने कहा है -</span></b></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कामानां हृदये वासः संसार इति कीर्तितः ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तेषां सर्वात्मना नाशो मोक्ष उक्तो मनीषिभिः ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: small;"><br></span>
<span style="font-size: small;">हृदय में कामनाओं का निवास है, उसी को 'संसार' कहते हैं और उनके सब तरह से नाश हो जाने को 'मोक्ष' कहते हैं ।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: small;"><br></span>
<span style="font-size: small;"><b>चर्पटपञ्जरिका स्तोत्रं</b> से -</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अङ्गम् गलितं पलितं मुण्डम दशनविहीनं जातं तुण्डं </span><span style="font-size: large;">।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम </span><span style="font-size: large;">।</span><span style="font-size: large;">।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: small;"><br></span>
<span style="font-size: small;">अंग शिथिल हो रहे हैं, सर गंजा हो गया है, मुँह से दांत गिर चुके हैं, चलने के लिए लाठी का सहारा लेना पड़ता है, फिर भी आशाएं पीछा नहीं छोड़ रहीं </span><span style="background-color: white;">।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: white;"><br></span>
<b><span style="font-size: small;">दोहा</span></b></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सेत चिकुर तन दशन बिन, बदन भयो ज्यों कूप ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">गात सबै शिथिलित भये, तृष्णा तरुण स्वरुप ।।</span></span></div>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><span style="font-size: small;"></span><br></span>
</span><br>
<div>
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
</div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div>
<b><span style="font-size: large;">येनैवाम्बरखण्डेन संवीतो निशि चन्द्रमाः।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">तेनैव च दिवा भानु्रहो दौर्गत्यमेतयो:।। १५ ।।</span></b><br>
<span style="font-size: large;"><b><span style="font-size: medium;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: medium;">अर्थ:</span></b></span><br>
<span style="font-size: large;">आकाश के जिस टुकड़े को ओढ़कर चन्द्रमा रात बिताता है, उसी को ओढ़कर सूर्य दिन बिताता है । इन दोनों की कैसी दुर्गति होती है !</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;">आकाश के जिस हिस्से को, रात के समय चन्द्रमा तय करता है, उसी को दिन में सूर्य तय करता है । सूरज और चाँद, ज्योतिष में सबसे बड़े हैं । जब ऐसे ऐसों की ऐसी दुर्गति होती है, कि बेचारों को रात दिन इधर से उधर और उधर से इधर चक्कर लगाने पड़ते हैं और परिणाम में कोई फल भी नहीं मिलता; तब हमारी आपकी कौन गिनती है ? जब ये पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं, इन्हें ज़रा सी भी आज़ादी नहीं है, एक दिन क्या - एक क्षण भी ये अपनी इच्छानुसार आराम नहीं कर सकते, तब इतर छोटे प्राणियों की क्या बात हैं ?</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;"><b>शिक्षा:</b> बड़ों की दुर्दशा देखकर छोटो को अपनी विपत्ति पर रोना-कलपना नहीं, बल्कि सन्तोष करना चाहिए । संसार में कोई भी सुखी नहीं है ।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">दोहा:</span></b></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">इक अम्बर के टूक कों, निशि में ओढ़त चन्द।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दिन में ओढ़त ताहि रवि, तू कत करात छछन्द।।</span></span></div>
<div>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वाऽपि विषया</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून् ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">व्रजन्तः स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय मनसः</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">स्वयं त्यक्त्वा ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति ।। १६ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">विषयों को हम चाहें कितने दिन तक क्यों न भोगें, एक दिन वे निश्चय ही हम से अलग हो जायेंगे; तब मनुष्य उन्हें स्वयं अपनी इच्छा से ही क्यों न छोड़ दे? इस जुदाई में क्या फर्क है ? अगर वह न छोड़ेगा तो, वे छोड़ देंगे । जब वे स्वयं मनुष्य को छोड़ेंगे, तब उसे बड़ा दुःख और मनःक्लेश होगा । अगर मनुष्य उन्हें स्वयं छोड़ देगा, तो उसे अनन्त सुख और शान्ति प्राप्त होगी ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;">जो लोग विषयों को पहले ही त्याग देते हैं, उन्हें उनके न होने पर दुःख नहीं होता; किन्तु जो उन्हें नहीं </span><span style="font-size: small;">छोड़ते, उन्हें उनके न होने पर महाकष्ट होता है । जो बुद्धिमान पहले से ही धन दौलत स्त्री-पुरुष आदि से मोह हटा लेते हैं, उन्हें मरते समय कष्ट नहीं होता । जो उनमें अपना मन लगाए रहते हैं, वे मरते समय रोते हैं, पर ज़बान बंद हो जाने से अपने मन की बात बता नहीं सकते । इसलिए जो सुख से मरना चाहें, उन्हें पहले से ही विषयों से मुख मोड़ लेना चाहिए । इसी तरह, जो आज नाना प्रकार के सुख भोग रहा है, यदि कल उसे वे सुख न मिलें, तो वह बड़ा दुखी होता है; किन्तु जो विषयों को भोगते तो हैं, किन्तु उनमें आसक्ति नहीं रखते, उन्हें विषय सुखों के न मिलने या उनसे बिछुड़ने पर ज़रा भी कष्ट नहीं होता ।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">विवेकव्याकोशे विदधति शमे शाम्यति तृषा-</span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">परिष्वङ्गे तुङ्गे प्रसरतितरां सा परिणतिः।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">जराजीर्णैश्वर्यग्रसनगहनाक्षेपकृपणस्तृषापात्रं</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">यस्यां भवति मरुतामप्यधिपतिः ।। १७ ।।</span></b><br>
<span style="font-size: large;"><b><span style="font-size: medium;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: medium;">अर्थ:</span></b></span><br>
<span style="font-size: large;">जब ज्ञान का उदय होता है, तब शान्ति की प्राप्ति होती है । शान्ति की प्राप्ति से तृष्णा शान्त होती जाती है, किन्तु वही तृष्णा विषयों के संसर्ग से बेहद बढ़ जाती है । मतलब यह है, कि विषयों से तृष्णा कभी शान्त नहीं हो सकती । सुन्दरी के कठोर कूचों पर हाथ लगाने से काम-मद बढ़ता है, घटता नहीं । जराजीर्ण ऐश्वर्य को देवराज इन्द्र भी नहीं त्याग सकते ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;">ज्ञान से ही तृष्णा का नाश और शान्ति की प्राप्ति होती है । विषयों के भोगने से तृष्णा घटती नहीं, उलटी बढ़ती है । जो तृष्णा को त्यागते हैं, तृष्णा से नफरत करते हैं, उसे पास नहीं आने देते, उनसे तृष्णा भी दूर भागती है । देखिये, यद्यपि स्वर्ग के राज को भोगते लाखों-करोडो वर्ष बीत गए, तो भी इन्द्र स्वर्ग-राज्य को छोड़ नहीं सकता । जब इन्द्र की भी तृष्णा लाखों-करोड़ों वर्ष राज्य भोगने से शान्त नहीं होती, तब मनुष्य बेचारे किस खेत की मूली हैं ? तृष्णा पुराणी होने से बढ़ती है, घटती नहीं । हम ज्यों ज्यों विषय भोगते हैं, त्यों त्यों वे पुराने होते हैं और हमारी तृष्णा बढ़ती है । पुराने होने पर, उन्हें छोड़ने में हमें बड़ा कष्ट होता है ।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;">शिक्षा: तृष्णा को शीघ्र छोड़ो । पुराणी होने से वह पापीयसी और भी बलवती हो जाएगी; फिर उसे त्यागना आपकी शक्ति से बाहर हो जायेगा । उसके नाश के लिए 'ज्ञान' का पैदा होना जरुरी है; क्योंकि उसका सच्चा मार 'ज्ञान' ही है ।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: medium;">तृष्णा-मूल नसाय होये जब ज्ञान उदय मन।</span></span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भये विषय में लीं बढे दिन-पर-दिन चौगुन।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जैसे मुग्धा-नार कठिन कुच हाथ लगावत।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बढ़त काममद अधिक अधिक तब में सरसावत।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जराजीर्ण ऐश्वर्य को त्यागत लागत दुःख अति।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तोहि तजिबे को असमर्थ यह वासव जो है वायुपति।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"></span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">कृशः काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकलो</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">ब्रणी पूयल्किन्नः कृमिकुलशतैरावृततनुः ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरजककपालार्पितगलः</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">शुनीमन्वेति श्वा हतमपि च हन्त्येव मदनः।। १८ ।।</span></b><br>
<span style="font-size: large;"><b><span style="font-size: medium;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: medium;">अर्थ:</span></b></span><br>
<span style="font-size: large;">दुबला काना और लंगड़ा कुत्ता, जिसके कान और पूँछ नहीं हैं, जिसके जख्मों में राध बह रही है, जिसके शरीर मेंकीड़े बिलबिला रहे हैं, जो भूखा और बूढा है, जिसके गले में हांडी का घेरा पड़ा है - कुतिया के पीछे पीछे दौड़ता है । कामदेव मरे हुए को भी मारता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"></span></span><br>
<span style="font-size: large;">जिस कुत्ते की ऐसी बुरी हालत है, वह कुत्ता भी मैथुन करने के लिए कुतिया के पीछे पीछे दौड़ता है; तब मोटे-ताजे, मावा-मलाई और मिष्टान्न खाने वाले अपनी कामवासना को कैसे रोक सकते हैं ? इसी से बचने के लिए, ज्ञानी लोग अपनी देह को एकदम गला देते हैं, तरह तरह के व्रत और उपवास करते हैं, धूनी तपते हैं और शीत लहर सहते हैं । कामदेव बड़ा बलवान है । जो उसके काबू में नहीं आते, वे सबसे बलवान और सच्चे योद्धा हैं । वे भीष्म और अर्जुन हैं ।</span></div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div>
<b><span style="font-size: large;">भिक्षासनं तदपि नीरसमेकवारं</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">शय्या च भूः परिजनो निजदेहमात्रं।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">वस्त्रं च जीर्णशतखण्डसलीनकन्था</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">हा हा तथाऽपि विषया न परित्यजन्ति।। १९ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">वह मनुष्य जो भीख मांगकर दिन में एक समय ही नीरस अलौना अन्न खाता है, धरती पर सो रहता है, जिसका शरीर ही उसका कुटुम्बी है जो सौ थेगलियों(चीथड़ों) की गुदड़ी ओढ़ता है, आश्चर्य है कि, ऐसे मनुष्य को विषय नहीं छोड़ते !</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जो दिन भर में एक अलौना - फीका अन्न खाते हैं और वह भी मांग-मांग कर; जिनके पास सोने के लिए पलंग और गद्दे-तकिये नहीं, बेचारे पेड़ों के नीचे या खुले मैदान में घास-पात पर सो रहते हैं; जिनके नाते-रिश्तेदार कोई नहीं, उनका अपना शरीर ही उनका नातेदार है; जिनके पास पहनने को कपडे नहीं; बेचारे ऐसी गुदड़ी ओढ़ते हैं, जिसमें सैकड़ों चीथड़े लटकते हैं - ऐसे लोगों का भी विषय पीछा नहीं छोड़ते, तब धनियों का पीछा तो वे कैसे छोड़ने लगे, जहाँ उन्हें सब तरह के ऐशो-आराम मिलते हैं ? कहा है :-</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशना-</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">स्तेऽपि स्त्रीमुखपड़्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहंगताः?</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं ये भुञ्जते मानवा-</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">स्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यस्तरेत्सागरे।। </span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">विश्वामित्र और पराशर प्रभृति ऋषि भी - जो हवा, जल और पत्ते खाते थे - स्त्री का कमल मुख देखकर मोहित हो गए; फिर शालिचांवल, दही और घी मिला भोजन जो खाते हैं, उनकी इन्द्रियां यदि उनके वश में हो जाएँ, तो विंध्याचल पर्वत भी समुद्र में तैरने लगे । मतलब यह है कि पत्तों और जल पर गुज़र करने वाले ऋषि भी जब स्त्रियों पर मोहित हो गए, तब घी दूध खानेवालों की क्या बात है ? कामदेव का वश करना बड़ा कठिन है । पराशर ने दिन की रात कर दी और नदी को रेत में परिणत कर दिया, पर वे भी काम को वश में न कर सके। इतना ही नहीं; बड़े बड़े देवता भी काम को वश में न कर सके । स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और महेश तक को काम ने जीत लिया । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">"<b>आत्मपुराण</b>" में लिखा है :</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कामेन विजितो ब्रह्मा, कामेन विजितो हरिः ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कामेन विजितः शम्भुः, शक्रः कामेन निर्जितः।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">कामदेव ने ब्रह्मा, विष्णु, शिव और इन्द्र को जीत लिया ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">"<b>पद्मपुराण</b>" में लिखा है - शान्तनु नामक ऋषि की स्त्री का नाम अमोघ था । वह परमा सुन्दरी और पतिव्रता थी । एक दिन ब्रह्मा जी ऋषि से मिलने गए । ऋषि उस समय कहीं बाहर गए हुए थे । उस पतिव्रता ने ब्रह्मा जी को आसन बिछा कर बिठाया । ब्रह्मा जी उसका रूप देखकर मुग्ध हो गए । उनका वीर्य निकल गया; अतः वे लज्जित हो गए। इतने में ऋषि आ गए । उन्होंने वीर्य पड़ा देख स्त्री से पूछा - "यह क्या !" स्त्री ने कहा - "स्वामिन ! ब्रह्मा जी आये थे ।" सुनकर ऋषि ने कहा - "स्त्री का दर्शन ऐसा ही है कि जिससे देवता भी धैर्य त्याग देते हैं ।"</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">एक बार महादेव जी समाधिस्थ थे । वहीँ वन में मनुष्यों की सुन्दरी और युवती स्त्रियां क्रीड़ा कर रही थीं । शिवजी का मन चल गया । उन्होंने अपने तपोबल से उन्हें आकाश में ले जाकर उनसे भोग किया । अन्त में पारवती जी ने स्त्रियों को नीचे गिरा दिया और शिवजी को समाधी में लगाया ।</span><br>
<span style="font-size: large;">विष्णु भगवान् ने जलन्धर नामक राक्षस की वृन्दा नामक पतिव्रता स्त्री से छलकर भोग किया । उसने उन्हें श्राप दिया । </span><br>
<span style="font-size: large;">इन्द्र ने गौतम ऋषि की स्त्री अहिल्या से छल से भोग किया और इतने में ऋषि आ गए । उन्होंने इन्द्र को देखते ही श्राप दिया । ऋषि के श्राप से इन्द्र के शरीर में भग ही भग हो गयी ।</span><br>
<span style="font-size: large;">एक बूढा तपस्वी किसी मन्दिर में अकेला रहता था । वह पूरा जितेन्द्रिय था । दैवात एक युवती उस मन्दिर के सामने से निकली । तपस्वी मुग्ध हो गया और उसके पीछे हो लिया । जब वह अपने घर पहुंची, तब ऋषि भी द्वार पर जाकर उससे प्रार्थना करने लगा । उसने द्वार बन्द करना चाहा और ऋषि ने सिर अड़ा कर घुसना चाहा । उसने ज़ोर से द्वार बन्द करने की चेष्टा की । इससे ऋषि का सिर कट गया और वह वहीँ मर गया । ऐसे ऐसे बूढ़े और अभ्यासी जितेन्द्रिय पुरुष जब स्त्रियों को देखते ही पागल हो जाते हैं, तब औरों का क्या कहना ?</span><br>
<br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">यद्यपि कामदेव को काबू में करना महाकठिन है ; </span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तथापि कामदेव को वश में करो; </span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">क्योंकि स्त्री संसार बन्धन की मूल और जन्म-मरण की कारण है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">स्त्री भक्ति-मुक्ति और सुख-शान्ति की नाशक है । जिनके स्त्री है, वे परमेश्वर की भक्ति नहीं कर सकते, क्योंकि उन्हें जञ्जालों से फुर्सत ही नहीं मिल सकती । यों तो सभी विषय विष के समान घातक हैं, पर स्त्री सबसे ऊपर है । जहाँ स्त्री है, वहां सभी विषय हैं । विषय दुःख और ताप के कारण हैं, अतः बुद्धिमान व्यक्ति को विषयों से बचना चाहिए । मोक्ष चाहने वालों को तो स्त्री के दर्शन भी न करने चाहिए ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;"></span>
<span style="font-size: medium;"><b>शिक्षा:</b> विषय विष हैं। इनका त्याग ही सुख की जड़ है । जो विषयी हैं उन्हें कहीं सुख नहीं । अतः काम को जीतो । जिसने काम को जीत लिया, उसने सबको जीत लिया ।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">स्तनौ मांसग्रन्थि कनकलशावित्युपमितौ</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशाङ्केन तुलितम ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">स्रबन्मूत्रक्लिन्नम् करिवरकरस्पर्द्धि जघन-</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">महो निन्द्यम रूपं कविजन विशेषैर्गुरु कृतं ।। २० ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">स्त्रियों के स्तन, मांस के लौंदे हैं, पर कवियों ने उन्हें सोने के कलशों की उपमा दी है । स्त्रियों का मुंह कफ का घर है, पर कवी उसे चन्द्रमा के समान बताते हैं और उनकी जांघो को, जिनमे पेशाब प्रभृति बहते रहते हैं, श्रेष्ठ हाथी की सूंड के समान कहते हैं । स्त्रियों का रूप घृणा योग्य है, पर कवियों ने उसकी कैसी तारीफ की है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">राग सोरठ</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">-------------</span></b><br>
<span style="font-size: large;">अनाड़ी मन ! नारी नरक का मूल ।</span><br>
<span style="font-size: large;">रंग रूप पर भय लुभाना, क्यों भूल गया हरि नाम दिवाना?</span><br>
<span style="font-size: large;">इस धन यौवन का नाहिं ठिकाना, दो दिन में हो जाये धूल ।।</span><br>
<span style="font-size: large;">कंचन भरे दो कलश बतावे, ताहि पकड़ आनंद मनावे।</span><br>
<span style="font-size: large;">यह तो चमड़े की थैली है मूरख, जिन पै रह्यो तू भूल।।</span><br>
<span style="font-size: large;">जा मुख को तू चन्दा कर माने, थूक राल वामे लिपटाने।</span><br>
<span style="font-size: large;">धिक् धिक् धिक् ! तेरे या मुख पै, मिष्टा में रह्यो तू भूल।।</span><br>
<span style="font-size: large;">कैसा भारी धोका खाया, तन पर कामिन के ललचाया।</span><br>
<span style="font-size: large;">कहें कबीर आँख से देखा, यह तो माटी का स्थूल।।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">स्त्री आफतों की जड़ है</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">----------------------------</span></b><br>
<span style="font-size: large;">स्त्री अनेक आपदाओं का मूल है । अनेक रूपवती स्त्रियों के कारण उनके पतियों के प्राण नष्ट हुए हैं । नूरजहां के कारण शेर अफ़ग़ान के जान मारी गयी । स्त्री के पीछे सुन्द-उपसुन्द आपस में लड़कर मर गए । स्त्री के पीछे राजा नहुष को स्वर्ग से गिरना पड़ा । स्त्री के कारण बाली मारा गया और रावण का सर्वनाश हुआ एवं शिशुपाल का सर काटा गया । स्त्री के पीछे ही भारत को ग़ारत करने वाला महाभारत हुआ । स्त्री सांप से भी भयंकर है । सांप के तो काटने से मनुष्य मरता है, स्त्री विष के सम्बन्ध से मनुष्य को बार बार जन्म लेना और मरना पड़ता है; क्योंकि मरते समय पुरुष का मन अपनी स्त्री में जरूर जाता है । मरण समय जिसकी वासना जिसमें रहती है, वह उसे अवश्य मिलता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">कहा है:</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वासना यत्र यस्य स्यात्सतं स्वप्नशु पश्यति ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">स्वप्नवन्मरणे ज्ञेयं वासनातो वपुर्नृणां ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जिस मनुष्यकी जहाँ वासना होती है, उसी वासनाके अनुरूप वह स्वप्न देखता है । स्वप्नके समान ही मरण होता है अर्थात् वासनाके अनुरूप ही अन्तसमयमें चिन्तन होता है और उस चिन्तनके अनुसार ही मनुष्यकी गति होती है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b><br>
<span style="font-size: large;">नारी कहूं कि नाहरी(सिंहनी), नख-सिख सों यह खाये। </span><br>
<span style="font-size: large;">जल बूड़ा तो ऊबरे, भग बूड़ा बहि जाये।।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">एक कनक अरु कामिनी, तजिये भगिए दूर। </span><br>
<span style="font-size: large;">हरि विच पारें अन्तरा, यम देसी मुख धूर।।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जहाँ काम तहाँ राम नहीं, राम तहाँ नहीं काम।</span><br>
<span style="font-size: large;">दोउ कबहुँ न रहें, काम राम इक ठाम।।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">अविनाशी विच धार तिन, कुल कंचन अरु नार।</span><br>
<span style="font-size: large;">जो कोई इन ते बचे, सोइ उतरे पार।।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">स्त्री त्यागी ही पण्डित है</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">------------------------</span></b><br>
<span style="font-size: large;">मनुष्यों और पशुओं में क्या भेद है ? मनुष्य खाते, सोते, डरते और स्त्री भोग करते हैं और पशु भी यही चारों काम करते हैं । पर इन दोनों में अंतर यही है कि मनुष्य को धम्मज्ञान है, पशु को नहीं । यदि मनुष्य पशुओं की तरह अज्ञानी हो, तो वह भी पशु ही है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">कहा है:</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अधीत्य वेदशास्त्राणि, संसारे रागिणश्च ये।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तेभ्यः परो न मूर्खोऽस्ति सधर्मा श्वाश्वसूकरैः।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जो पुरुष वेद-शास्त्रों को पढ़कर भी संसार से या स्त्री-पुरुष आदि से प्रीति रखते हैं, उनसे बढ़कर मूर्ख कौन है? क्योंकि स्त्री-पुरुष प्रभृति में तो कुत्ते, घोड़े और सूअर भी प्रेम रखते हैं । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>शुकदेव </b>जी ने भागवत में कहा है :</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य, वेदशास्त्राणय धीत्य च ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वध्यते यदि संसारे, को विमुच्येत मानवः ?</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">दुर्लभ मनुष्य चोला पाकर और वेद-शास्त्र पढ़कर भी यदि मनुष्य संसार में फंसा रहे, तो फिर संसार बन्धन से छूटेगा कौन ?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>कबीरदास </b>जी कहते हैं:</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खानि।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कहा मूर्ख कहा पण्डिता, दोनों एक समानि।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जब तक मन में, काम, क्रोध, मद और लोभ है, तब तक पण्डित और मूर्ख दोनों समान हैं । जिसमें ये सब नहीं, वही पण्डित है और जिसमें ये सब हैं, वह मूर्ख और अज्ञानी है।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">शंकराचार्य कृत "<b>प्रश्नोत्तरमाला</b>" में लिखा है :</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">शूरान्महाशूर तमोऽस्ति को वा?</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मनोजवाणैर्व्यथितो न यस्तु।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">प्राज्ञोऽति धीरश्च शमोऽस्ति को वा?</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">प्राप्तो न मोहं ललनाकाटाक्षैः।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">संसार में सबसे बड़ा शूरवीर कौन है? जो काम-बाणो से पीड़ित नहीं है।</span><br>
<span style="font-size: large;">प्राज्ञ, धीर और समदर्शी कौन है? जिसे स्त्री के कटाक्षों से मोह नहीं होता।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;"></span></span><br>
<b><span style="font-size: large;">क्रमशः </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">महात्मा तुलसीदास जी को स्त्री से विरक्ति</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">------------------------------------------------</span></b><br>
<span style="font-size: large;">एक बार महात्मा तुलसीदास जी की स्त्री अपने पीहर चली गयी; महात्मा जी को आधी रात के समय स्त्री-प्रसंग की इच्छा हुई । आपकी ससुराल और आपके गाँव के बीच में नदी पड़ती थी । आप फ़ौरन ही घर छोड़ ससुराल को चल दिए । भयंकर रात में प्रबल वेग से बहती हुई नदी को पार कर आप ससुराल पहुँच गए । लेकिन जब घर के द्वार पर पहुंचे तो पौली का द्वार बन्द था । अब आप मकान में चढ़ने की तरकीब सोचने लगे । इतने में आपको एक रस्सी सी नज़र आयी, आप उसे पकड़ कर चढ़ गए और अणि स्त्री के कमरे में जा पहुंचे । स्त्री आपको देखते ही चौकन्नी सी हो गयी । आपने कहा - "प्यारी ! मैं तेरे लिए इस समय महाकष्ट भोग कर आया हूँ । मेरी अभिलाषा पूर्ण कर।"</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">स्त्री आपको देखते ही पलंग से नीचे बैठ गयी और बोली - "हे मेरे पतिदेव ! रात कैसी भयावनी हो रही है । बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की कड़क से मनुष्य का ह्रदय काँप उठता है । उधर नदी चढ़ रही है । आपने अपने शरीर की परवा न कर मुझे दर्शन दिए; इसलिए मैं आपकी अनुग्रहीत हूँ । परन्तु स्वामिन ! यह तो बताइये, आप मकान में आये कैसे, क्योंकि द्वार बन्द है?" आपने कहा - "एक रस्सी लटक रही थी, उसी के सहारे मैं चढ़ आया।" स्त्री ने जाकर देखा, तो वह रस्सी नहीं, वरन एक लम्बा चौड़ा काल सर्प था । देखते ही स्त्री के सिर में चक्कर आ गया उसके मुंह से इतना ही निकला - "स्वामिन ! जितना प्रेम आपका मुझमें है, यदि इतना ही हरि में होता, तो आपका निश्चय ही बड़ा उपकार होता ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जितना प्रेम हराम से, उतना हरि से होय।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चला जाय बैकुंठ को, पला न पकडे कोय।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">कहते हैं, तुलसीदास तत्क्षण उसे गुरु कहकर वन को चले गए । </span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<br>
<div>
<b><span style="font-size: large;">आजानन्माहात्म्यं पततु शलभो दीपदहने</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">स मीनोऽप्यज्ञानाद्वडिशयुतमश्नातु पिशितम् ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">विजानन्तोऽप्येतान्वयमिह विपज्जालजटिलान्</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">न मुञ्चामः कामानहह गहनो मोहमहिमा ॥ २१॥</span></b><br>
<br>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">अज्ञानवश, पतङ्ग दीप की लौ पर गिरकर अपने तई भस्म कर लेता है; क्योंकि वह उसके परिणाम को नहीं जानता; इसी तरह मछली भी कांटे के मांस पर मुंह चलकर अपने प्राण खोती है, क्योंकि वह उससे अपने प्राण-नाश की बात नहीं जानती । परन्तु हम लोग तो अच्छी तरह जानबूझकर भी विपद मूलक विषयों की अभिलाषा नहीं त्यागते । मोह की महिमा कैसी विस्मयकर है । </span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;">आश्चर्य है कि मनुष्य - जिसे भगवान् ने समझ दी है, जो जानता है कि विषयों की कामना आफत की जड़ है, विषयों में सुख नहीं, घोर विपद है; विषय विष से भी अधिक दुखदायी हैं - विषयों की इच्छा करता है । इससे कहना पड़ता है कि, मोह की माया बड़ी कठिन है । महात्मा कबीरदास कहते हैं:</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">शङ्कर हूँ ते सबल है, माया या संसार।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अपने बल छूटे नहीं, छुडावे सिरजनहार।।</span></span></div>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"></span><br></span>
<br>
<div>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">फलमलमशनाये स्वादुपानाय तोयं </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">शयनमवनिपृष्ठे वल्कले वाससी च।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">नवधनमधुपानभ्रान्तसर्वेन्द्रियाणा-</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">मविनयमनुमन्तुं नोत्सहे दुर्जनानाम् ।। २२ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">खाने के लिए फलों की इफरात है, पीने के लिए मीठा जल है, पहनने के लिए वृक्षों की छाल है; फिर हम धनमद से मतवाले दुष्टों की बातें क्यों सहें ?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य को सन्तोष नहीं, उसे तृष्णा नहीं छोड़ती; इसी से वह विषयों को भोगने की लालसा से ढाणियों की खुशामदें करता है, उनकी टेढ़ी-सूधी सुनता है, अपनी प्रतिष्ठा खोता है, निरादर और अपमान सेहत है । अगर वह सन्तोष कर ले, तो उसे ऐसे दुष्टों और धनमद से मतवाले शैतानो की खुशामद क्यों करवानी पड़े? अपनी मानहानि क्यों करनी पड़े ? परमात्मा इन शैतानो से बचावे ! एक तो तंगदिल लोग वैसे ही शैतान होते हैं, पर जब उन पर दौलत का नशा चढ़ जाता है, तब तो उनकी शैतानी का ठिकाना ही क्या ? </span><br>
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> कहते हैं और खूब कहते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नशा दौलत का बद अवतार को, जिस आन चढ़ा ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सर पै शैतान के, एक और भी शैतान चढ़ा ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">अनुभवहीन और तंगदिल मनुष्य पर जिस समय दौलत का नशा चढ़ गया, तब मानो शैतान के सर पर एक और शैतान चढ़ गया । जिसे किसी चीज़ की जरुरत नहीं वो किसी की खुशामद क्यों करेगा ? वह अपना मान क्यों खोयेगा ? निष्पृह के लिए तो जगत तिनके के समान है । इसलिए सुख चाहो तो इच्छाओं को त्यागो।</span><br>
<b><span style="font-size: large;">किसी ने ठीक ही कहा है:</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भागती फिरती थी दुनिया, तब तलब करते थे हम।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अब जो नफरत हमने की, तो बेक़रार आने को है।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">दोहा:</span></b></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भूमि शयन, बल्कल वसन, फल भोजन जलपान।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">धनमदमाते नरन को, कौन सहत अहमान? </span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">विपुलहृदयैर्धन्यैः कैश्चिज्जगज्जनितं पुरा</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">विधृतमपरैर्दत्तं चान्यैर्विजित्य तृणं यथा ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">इह हि भुवनान्यन्ये धीराश्चतुर्दश भुञ्जते</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">कतिपयपुरस्वाम्ये पुंसां क एष मदज्वरः ।। २३ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">कोई तो ऐसे बड़े दिलवाले लोग हुए, जिन्होंने इस प्राचीनकाल में इस जगत की रचना की; कुछ ऐसे हुए जिन्होंने इस जगत को अपनी भुजाओं पर धारण किया; कुछ ऐसे हुए जिन्होंने समग्र पृथ्वी जीती और फिर तुच्छ समझकर दूसरों को दान कर दी; और कुछ ऐसे भी हैं जो चौदह भुवन का पालन करते हैं । जो लोग थोड़े से गावों के मालिक होकर, अभिमान के ज्वर से मतवाले हो जाते हैं, उनके समबन्ध में हम क्या कहें?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">सज्जन लोग धनैश्वर्य और प्रभुता पाकर कभी अहङ्कार नहीं करते; ओछे या नीच ही थोड़ी सी विषय सम्पत्ति पाकर अभिमान किया करते हैं । <b>निति रत्न</b> में लिखा है:</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दिव्यं चूतरसं पीत्वा गर्वं नो याति कोकिलः। </span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पीत्वा कर्दमपानीयं भेको मकमकायते। ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अगाधजलसञ्चारी न गर्वं याति रोहितः। </span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अङ्गष्ठोदकमात्रेण सफरी फर्फरायते।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">उत्तम रसाल के रस को पीकर कोकिल गर्व नहीं करता, किन्तु कीचड मिला पानी पीकर ही मेंढक टरटराया करता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;">अगाध जल में रहने वाली रोहित मछली गर्व नहीं करती किन्तु अंगूठे जितने जल में सफरी मछली ख़ुशी से नाचती फिरती है ।</span><br>
<span style="font-size: large;">बस, छोटे और बड़े, पूरे और ओछे लोगों में यही अन्तर होता है । जो जितना छोटा है, वह उतना ही घमण्डी और उछलकर चलनेवाला है और जो जितना ही बड़ा और पूरा है, वह उतना ही गम्भीर और निरभिमानी है । नदी नाले थोड़े से जल से इतरा उठते हैं; किन्तु सागर, जिसमें अनंत जल भरा है गम्भीर रहता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;">अभिमान या अहङ्कार महा अनर्थों का मूल है । यह नाश की निशानी है । अहंकारी से परमात्मा दूर रहता है । जिससे परमात्मा दूर रहता है, उसके दुःखों का अंत कहाँ है ? अतः मनुष्यों ! अभिमान को त्यागो । जो आज टुकड़ो का मुहताज है, वह कल राजगद्दी का स्वामी दिखाई देता है और आज जिसके सर पर राजमुकुट है, सम्भव है कि कल वह गली-गली मारा-मारा फिरे । संसार की यही गति है, इसलिए अभिमान वृथा है । परमात्मा ने एक से बढ़कर एक बना दिया है । <b>कहा है:</b></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">एक-एक से एक-एक को, बढ़कर बना दिया।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दारा किसी को, किसी को सिकन्दर बना दिया।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">*दारा ईरान का बादशाह था । वह अपने समय में मध्याह्न के मार्तण्ड की तरह तपता था । उसने बहुत से देश जीत लिए । किसी को उम्मीद न थी कि, दारा भी किसी से पराजित होगा ; पर ईश्वर ने तो एक से बढ़कर एक बनाये हैं । उसने दारा को भी परास्त करने वाला सिकन्दर पैदा कर दिया । सिकन्दर आज़म ने दारा को शिकस्त दी और भारत पर भी चढ़ाई की।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">आपको किस बात का गर्व है? यह राज्य और धन दौलत क्या सदा आपके कुल में रहेंगे या आपके साथ जायेंगे ? जो रावण लंकेश्वर था, जिसने यक्ष, किन्नर, गन्धर्व और देवताओं तक को अपने अधीन कर लिया था, आज वह कहाँ है? उसका धन वैभव क्या उसके साथ गया? जिस राम ने समुद्र का पल बांधकर वानर सेना से रावण का नाश किया वही राम आज कहाँ है? जिस बलि ने रावण जैसे त्रिलोक विजयी को अपने पुत्र के पालने से बाँध रखा था आज वह बलि कहाँ है ? जिस सहस्त्रबाहु ने रावण के सर पर चिराग रख कर जलाया था, वह सहस्त्रबाहु ही आज कहाँ है ? चारों दिशाओं को अपने भुजबल से जीतनेवाले भीमार्जुन कहाँ हैं ? इस पृथ्वी पर अनेक, एक से एक बली राजा और शूरवीर हो गए, पर यह पृथ्वी किसी के साथ न गयी । क्या आपकी धन-दौलत, जमींदारी या राजलक्ष्मी अटल और स्थिर है ? क्या यह आपके साथ जाएगी ? हरगिज़ नहीं । आप जिस तरह खाली हाथ आये थे, उसी तरह खाली हाथ जायेंगे । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">अभिमानियों का नशा उतरने के लिए <b>उस्ताद ज़ौक</b> ने भी खूब कहा है:</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दिखा न जोशो खरोश इतना, ज़ोर पर चढ़कर।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">गए जहां में दरिया, बहुत उतर-चढ़कर।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">हे मनुष्य ! ज़ोर में आकर इतना जोश-खरोश न दिखा इस दुनिया में बहुत से दरिया चढ़-चढ़ कर उतर गए - कितने ही बाग़ लगे और सूख गए ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा कबीरदास</b> जी कहते हैं:</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">धरती करते एक पग, करते समन्दर फाल ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हाथों परवत तोलते, ते भी खाये काल।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हाथों परवत फाड़ते, समुन्दर घूँट भराय।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ते मुनिवर धरती गले, कहा कोई गर्व कराय?</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">त्वं राजा वयमप्युपासितगुरुप्रज्ञाभिमानोन्नताः</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">ख्यातस्त्वं विभवैर्यशांसि कवयो दिक्षु प्रतन्वन्ति नः ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">इत्थं मानद नातिदूरमुभयोरप्यावयोरन्तरं यद्यस्मासु </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">पराङ्मुखोऽसिवयमप्येकान्ततो निःस्पृहाः।। २४ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">अगर तू राजा है, तो हम भी गुरु की सेवा से सीखी हुई विद्या के अभिमान से बड़े हैं। अगर तू अपने धन और वैभव के लिए प्रसिद्ध है, तो कवियों ने हमारी विद्या की कीर्ति भी चारों और फैला रखी हैं । हे मानभञ्जन करने वाले, तुझमें और हममें ज्यादा फर्क नहीं है । अगर तू हमारी ओर नहीं देखता, तो हमें भी तेरी परवा नहीं है । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">अभुक्तयां यस्यां क्षणमपि न यातं नृपशतै-</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">र्भुवस्तस्या लाभे क इव बहुमानः क्षितिभुजाम्।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">तदंशस्याप्यंशे तदवयवलेशेऽपि पतयो </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">विषादे कर्तव्ये विदधति जडाः प्रत्युत मुदम।। २५ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">सैकड़ों हज़ारों राजा इस पृथ्वी को अपनी अपनी कहकर चले गए, पर यह किसी की भी न हुई; तब राजा लोग इसके स्वामी होने का घमंड क्यों करते हैं ? दुःख की बात है, कि छोटे छोटे राजा छोटे से छोटे टुकड़े के मालिक होकर अभिमान के मारे फूले नहीं समाते ! जिस बात से दुःख होना चाहिए, मूर्ख उससे उलटे खुश होते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">इस पृथ्वी पर रावण और सहस्त्रबाहु प्रभृति एक से एक बढ़कर राजा हो गए, जिन्होंने त्रिलोकी अपनी ऊँगली पर नचा डाली । वे कहते थे कि हमारे बराबर जगत में दूसरा कोई नहीं है। यह पृथ्वी सदा हमारे पास ही रहेगी । पर वे सब एक दिन इसे छोड़कर चल बसे। यह उनकी न हुई; वे इसे सदा न भोग सके। तब आजकल के छोटे छोटे राजा, जो अपने तई पृथ्वीपति समझ कर अभिमान के नशे में चूर रहते हैं, इसके लिए लड़ते हैं, खून खराबा करते हैं, क्या यह उनकी अज्ञानता नहीं है ? उनकी यह छोटी सी प्रभुता - मालिकाई, सदा-सर्वदा नहीं रहेगी; यह विजली की सी चमक और बदल की सी छाया है । इस पर घमण्ड करना बड़ी भूल की बात है । </span><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा कबीर</b> कहते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चहुँदिशि पाका कोट था, मंदिर नगर मंझार ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">खिरकी खिरकी पाहरू, गज बंधा दरबार ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चहुँदिशि तो योद्धा खड़े, हाथ लिए हथियार ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सब ही यह तन देखता, काल ले गया मार ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आस पास योद्धा खड़े, सबै बजावें गाल ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मंझ महल ते ले चला, ऐसा परबल काल ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"></span></span><br>
<span style="font-size: large;">हे मनुष्य ! मौत से डर, अभिमान त्याग । किसी राजा की नगरी के चारों तरफ पक्की शहरपनाह थी, उसका महल शहर के बीचोंबीच था, हरेक फाटक की खिड़की पर पहरेदार थे, दरबार में हाथी बंधा था, चारों तरफ सिपाही हथियार बांधे हुए खड़े थे । आस पास खड़े योद्धा गाल बजाते ही रह गए और वह बलवान काल, ऐसा बंदोबस्त होने पर भी राजा को अपने साथ ले गया ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">न नटा न विटा न गायना न परद्रोहनिबद्धबुद्धयः।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">नृपसद्मनि नाम के वयं स्तनभारानमिता न योषितः।। २७ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">न तो हम नट या बाज़ीगर हैं, न हम नचैये-गवैये हैं, न हमको चुगलखोरी आती है, न हमें दूसरों की बर्बादी की बन्दिशें बांधनी आती हैं और न हम स्तनभारावनत स्त्रियां ही हैं; फिर हमारी पूछ राजाओं के यहाँ क्यों होने लगी? हममें इनमें से एक भी बात नहीं, फिर हमारा प्रवेश राजसभा में कैसे हो सकता है ? वहां तो उनकी पूछ है - उन्ही का आदर है - जो उनकी विषय-वासनाएं पूरी करते हैं।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा:</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नट भट विट गायन नहीं, नहिं बादिन के माहिं।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कौन भांति भूपति मिलन, तरुणी भी हम नाहिं?।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">पुरा विद्वत्तासीऽदुपशमवतां क्लेशहतये</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">गता कालेनासौ विषयसुखसिद्धयै विषयिणाम् ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">इदानीं तु प्रेक्ष्य क्षितितलभुजः शास्त्रविमुखा</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">नहो कष्टं साऽपि प्रतिदिनमधोऽधः प्रविशति ।। २८ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">पहले समयों में, विद्या केवल उन लोगों के लिए थी, जो मानसिक क्लेशों से छुटकारा पाकर चित्त की शान्ति चाहते थे । इसके बाद विषय सुख चाहने वालों के काम की हुई । अब तो राजा लोग शास्त्रों को सुनना ही नहीं चाहते; वे उससे पराङ्गमुख हो गए हैं; इसलिए वह दिन-ब-दिन रसातल को चली जाती है । यह बड़े ही दुःख की बात है।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">पहले ज़माने में जो विद्या शान्तिकामी लोगों के अशान्त चित्तों को शान्त करने, उनकी मनोवेदनाओं को दूर करने और उनके शोक ताप की आग में जलने से बचने के काम आती थी, होते होते वही विद्या, विषय-सुख भोगने का जरिया हो गयी । लोग भाँति भाँति की विद्याएं सीख कर राजाओं और ढाणियों को खुश करते और उनसे धन पाकर स्वयं विषय सुख भोगते थे । यहाँ तक तो खैर थी; किन्तु अब राजा लोग ऐसे हो गए हैं, कि वह विद्या और विद्वानों कि ओर नज़र उठा कर भी नहीं देखते, पण्डितों से धर्मशास्त्र नहीं सुनते; इसलिए अब कोई विद्या नहीं पढता । कदर न होने से, विद्या अब अधोगति को प्राप्त होती जा रही है। क्या यह दुःख का विषय नहीं है?</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">दोहा:</span></b></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विद्या दुःखनाशक हती, फेरि विषय सुख दीन।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जात रसातल को चली, देखि नृपन्ह मतिहीन।।</span></span></div>
</div>
<div>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span></div>
<div>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">स जातः कोऽप्यासीन्मदनरिपुणा मूर्ध्नि धवलं</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">कपालं यस्योच्चैर्विनिहितमलंकारविधये ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">नृभिः प्राणत्राणप्रवणमतिभिः कैश्चिदधुना</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">नमद्भिः कः पुंसामयमतुलदर्पज्वरभरः ।। २९ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">प्राचीन काल में ऐसे पुरुष हुए हैं, जिनकी खोपड़ियों कि माला बनाकर स्वयं शिव ने श्रृंगार के लिए अपने गले में पहनी । अब ऐसे लोग हैं, जो अपनी जीविका-निर्वाह के लिए सलाम करने वालों से ही प्रतिष्ठा पाकर, अभिमान के ज्वर (मद) से गरम हो रहे हैं । </span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">दोहा:</span></b></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऐसेहू जग में भये, मुण्डमाल शिव कीन।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"></span><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">धनलोभी नर नावट लखि, तुमको मदज्वर दीन।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">अर्थानामीशिषे त्वं वयमपि च गिरामीश्महे यावदित्थं</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">शूरस्त्वं वादिदर्पज्वरशमनविधावक्षयं पाटवं नः।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">सेवन्ते त्वां धनान्धा मतिमलहतये मामपि श्रोतुकामा</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">मय्यप्यास्था न ते चेत्त्वयि मम सुतरामेष राजन्गतोऽस्मि ।। ३० ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"></span></span><br>
<span style="font-size: large;">यदि तुम धन के स्वामी हो तो हम वाणी के स्वामी हैं। यदि तुम युद्ध करने में वीर हो तो हम अपने प्रतिपक्षियों से शास्त्रार्थ करके उनका मद-ज्वर तोड़ने में कुशल हैं । यदि तुम्हारी सेवा धन-कामी या धनान्ध करते हैं, तो हमारी सेवा अज्ञान-अंधकार का नाश चाहनेवाले, शास्त्र सुनने के लिए करते हैं । यदि तुम्हें हमारी ज़रा भी गरज़ नहीं है, तो हमें भी तुम्हारी बिलकुल गरज़ नहीं है । लो, हम भी चलते हैं ।</span></div>
<div>
<br></div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">यदा किञ्चिज्झोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">यदा किंचित्किञ्चिद्बुधजनसकाशादवगतं </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः।। ३१ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">जब मैं थोड़ा जानता था, तब हाथी के समान मद से अन्धा हो रहा था; मैं समझता था कि मैं सर्वज्ञ हूँ । जब मुझे बुद्धिमानो की सुहबत से कुछ मालूम हुआ; तब मैंने समझा, कि मैं तो कुछ भी नहीं जानता । मेरा झूठा मद, ज्वर की तरह उतर गया।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़ </b>ने भी ठीक ऐसी ही बात कही है:</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हम जानते थे, इल्म से कुछ जानेंगे ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जाना तो यह जाना, कि न जाना कुछ भी।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">किसी ने ठीक ही कहा है:</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"अल्प विद्यो महागर्वी "।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">अतिक्रान्तः कालो लटभललनाभोगसुभगो </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">भ्रमन्तः श्रान्ताः स्मः सुचिरमिह संसारसरणौ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">इदानीं स्वः सिन्धोस्तटभुवि समाक्रन्दनगिरः </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">सुतारैः फुत्कारैः शिवशिवशिवेति प्रतनुमः।। ३२ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">ज़ेवरों से लदी हुई स्त्रियों के भोगने-योग्य जवानी चली गयी; और हम चिरकाल तक विषयों के पीछे दौड़ते-दौड़ते थक भी गए । अब हम पवित्र जाह्नवी तट पर, (ललचाने वाली स्त्रियों) की निन्दा करते हुए, शिव-शिव जपेंगे।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">किसी ने ठीक ही कहा है:</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">इश्क़ का जोश है जब तक, कि जवानी के हैं दिन।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यह मर्ज़ करता है शिद्दत, इन्ही अय्याम में ख़ास।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">अब तो बुढ़ापे का दौरदौरा है, इस उम्र में हम नाज़नीनों के साथ ऐश कर भी नहीं सकते । इसके सिवा हम सावधान भी हो गए हैं । हमने बेवकूफी छोड़ दी है । हम बहुत दिनों तक विषयों में लीं रहे, हमने बहुत कुछ विषय भोग, भोगे; अब हम थक गए, उनसे हमारा जी ऊब गया । उनसे हमें कुछ भी सुख नहीं मिला । इसलिए हम गंगा जी के किनारे बैठ कर, संसार बन्धन की मूल और नरक की नसैनी सुंदरियों की ममता छोड़, शिव से प्रीती करेंगे और दिन-रात उन्ही का पवित्र एवं कल्याणकारी नाम जपेंगे, जिससे हमारा अंतकाल तो सुधर जाए ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा:</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रमणकाल यौवन गयो, थक्यो भ्रमत संसार।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">देहुँ गंगतट शेष वय, शिव-शिव जपत विस्तार।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">माने म्लायिनि खण्डिते च वसुनि व्यर्थे प्रयातेऽर्थिनि</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">क्षीणे बन्धुजने गते परिजने नष्टे शनैर्यौवने ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">युक्तं केवलमेतदेव सुधियां यज्जह्नुकन्यापयः-</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">पूतग्रावगिरीन्द्रकन्दरतटीकुञ्जे निवासः क्वचित् ।। ३३ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">जब लोगों में इज़्ज़त आबरू न रहे; धन नाश हो जाये; याचक लौट लौट कर जाने लगें; भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र और नाते-रिश्तेदार मर जाएं; तब बुद्धिमान को चाहिए कि किसी ऐसे पर्वत की गुहा के कोने में जा बसे, जिसके पत्थर गंगा जी के जल से पवित्र हो रहे हों ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जब लोगों में अपना मान न रहे, लोग नफरत की नज़र से देखने लगें; अपनी धन-दौलत जाती रहे; जो याचक पहले कुछ पाते थे, वे निर्धनता के कारण विमुख होकर लौट जाते हैं; भाई-बन्धु और स्त्री-पुत्र प्रभृति नातेदार दूसरी दुनिया को चले गए हों, तब तो बुद्धिमान को चाहिए कि संसार को त्याग दें; इसमें मोह न रखें और किसी ऐसे पहाड़ की गुफा में जा रहे, जिसके पत्थरों को पवित्र गंगाजल पखार पखारकर पवित्र करता हो। ऐसी हालत में संसार में रहना - वृथा समय खोना है । कम से कम उस समय तो बुद्धिमान एकान्त में बैठकर, सब तरह की आशा तृष्णा छोड़कर, भगवान् के चरणकमलों के मन लगावे ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">दोहा:</span></b></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">गयो मान यौवन सुधन, भिक्षुक जात निराश।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अब तो मौको उचित यह, श्रीगंगा तट बास।।</span></span></div>
<div>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<br>
<div>
<b><span style="font-size: large;">परेषां चेतांसि प्रतिदिवसमाराध्य बहुधा</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">प्रसादं किं नेतुं विशसि हृदयक्लेशकलितम् ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">प्रसन्ने त्वय्यन्तः स्वयमुदितचिन्तामणि गुणे</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">विमुक्तः संकल्पः किमभिलषितं पुष्यति न ते ।। ३४ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">हे मलिन मन ! तू पराये दिलों को प्रसन्न करने में किसलिए लगा रहता है ? यदि तू तृष्णा को छोड़कर संतोष कर ले, अपने में ही संतुष्ट रहे, तो तू स्वयं चिंतामणि स्वरुप हो जाये। फिर तेरी कौन सी इच्छा पूरी न हो?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">मन ही सब कामों का करता है । सभी इन्द्रियां मन के ही अधीन और मन की ही अनुगामिनी हैं। मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है । मनुष्य मन से ही पाप-पुण्य और सुख-दुःख प्रभृति का भागी होता है । मन ही मनुष्य को बुरा-भला, साधु-असाधु सब कुछ बना देता है । मन की वृत्ति सुधरने से ही, मन के वासना-हीन होने से ही, सब कुछ त्यागने से ही, वह आत्मसाक्षात्कार के योग्य हो जाता है ; इसीलिए कोई ज्ञानी पुरुष मन को सम्बोधित करके कहता है -</span><br>
<span style="font-size: large;">"अरे मन ! तू स्वयं तो मलिन और दुःख के भार से दबा हुआ है; फिर तू औरो के दिल खुश करने की इतनी कोशिशें क्यों करता है, क्यों आफतें उठता है, क्यों मान खोता है और क्यों अपमान सहता है ? इससे तुझे क्या लाभ होगा ? मेरी बात माने तो तू इच्छा को त्याग दे, किसी भी चीज़ की इच्छा मत रख; तब तुझे शान्ति मिलेगी - परमानन्द की प्राप्ति होगी । जब तू चिंतामणि की भाँती स्वच्छ हो जायेगा, जब तू अपने स्वरुप को पहचान जायेगा, तब तुझे आत्मसाक्षात्कार हो जायेगा, तुझे ब्रह्मज्ञान हो जायेगा, तू ब्रह्म के प्रेम में लीन हो जायेगा, हर्ष-विषाद और शोक-मोह तेरे पास न आएंगे, अष्ट सिद्धि और नव निधि तेरे सामने हाथ बांधे खड़ी रहेंगी । उस समय तेरी कोई अभिलाषा पूरी हुए बिना बाकी न रहेगी । इसीलिए कहता हूँ, कि तू दूसरों को राज़ी करने की अपेक्षा अपने तई ही राज़ी कर, इससे तुझे निश्चय ही उसकी प्राप्ति होगी, जिसके समान त्रिलोकी में और कोई नहीं है । जिस समय उसकी अनुपम छवि तेरी आँखों में समा जाएगी, उस समय तुझे और कुछ अच्छा न लगेगा;केवल वही अच्छा लगेगा । <b>महाकवि रहीम</b> ने कहा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">प्रीतम-छवि नैनन बसी, पर-छवि कहाँ समाये।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भरी सराय "रहीम" लखि, आप पथिक फिर जाए।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जब आँखों में प्यारे कृष्ण की सुन्दर मनमोहिनी छवि समा जाती है, तब उसमें और किसी की छवि नहीं समा सकती । जब तक नयनों में मुरली मनोहर की छवि नहीं समाती, नयन उसकी छवि से खाली रहते हैं, तभी तक मामूली छवि उनमें समाती रहती है । जिस तरह सराय को भरी हुई देखकर, उसमें कोठरियां खाली न पाकर, मुसाफिर लौट जाते हैं; उसी तरह नयनों में मनमोहन की बांकी छवि देखकर और संसारी मिथ्या खूबसूरतियाँ नयनों के पास भी नहीं फटकती । जब दिल में परम प्यारे कृष्ण का डेरा लग जाता है, तब उसमें सुन्दर कामिनियों और लक्ष्मी प्रभृति किसी को भी स्थान नहीं मिलता; अर्थात दिल को उसके मुकाबले में संसार के अच्छे से अच्छे पदार्थ - स्त्री-पुरुष और धन-दौलत प्रभृति- तुच्छातितुच्छ जंचते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">दोहा:</span></b></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तू ही रीझत क्यों नहीं, कहा रिझावत और?</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तेरे ही आनन्द से, चिंतामणि सब ठौर ।।</span></span></div>
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"></span><br></span>
<br>
<div>
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
</div>
<div>
<br>
<div style="-webkit-text-stroke-width: 0px; color: black; font-family: "Times New Roman"; font-style: normal; font-variant-caps: normal; font-variant-ligatures: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; orphans: 2; text-align: start; text-decoration-color: initial; text-decoration-style: initial; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; widows: 2; word-spacing: 0px;">
</div>
<br>
<div style="text-indent: 0px;">
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया: भयम् ।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।। ३५ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">विषयों के भोगने में रोगों का डर है, कुल में दोष होने का डर है, धन में राज का भय है, चुप रहने में दीनता का भय है, बल में शत्रुओं का भय है, सौंदर्य में बुढ़ापे का भय है, शास्त्रों में विपक्षियों के वाद का भय है, गुणों में दुष्टों का भय है, शरीर में मौत का भय है; संसार की सभी चीज़ों में मनुष्यों को भय है। केवल "वैराग्य" में किसी प्रकार का भय नहीं है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">यों तो संसार में ज़रा भी सुख नहीं - सर्वत्र भय ही भय है; पर दुष्ट और नीचों का भय सबसे भारी है । दुष्टों से तंग होकर ही महाकवि <b>ग़ालिब </b>आदमियों की बस्ती में बसना भी पसंद नहीं करते और कहते हैं -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रहिये अब ऐसी जगह चलकर, जहाँ कोई न हो।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हमसखुन कोई न हो और हमज़बाँ कोई न हो।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बे दरो-दीवार सा, इक घर बनाना चाहिए।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कोई हंसाया न हो और पासबाँ कोई न हो।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पड़िये गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">और अगर मर जाइये, तो नोहाखां कोई न हो।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">संसार में ज़रा भी सुख नहीं है, सर्वत्र भय ही भय है । एक को एक खाने को दौड़ता है । जिसे देखो वही जला मरता है । यहाँ ईर्ष्या द्वेष का बाजार जोरों से गर्म रहता है, इस वास्ते ऐसी जगह चलकर रहना चाहिए, जहाँ कोई न हो; हमारी बात कोई न समझे और हम किसी की न समझें । मकान भी ऐसा ही हो, जिसमें दरवाजे और दीवार न हो; अर्थात साफ़, जंगल हो। न हमारा कोई साथी हो, न पडोसी; अगर बीमार हो जाएं, तो कोई खबर लेनेवाला तीमारदारी और सेवा-शुश्रूषा करनेवाला न हो। अगर सौभाग्य से मर जाएं, तो कोई शोक करनेवाला भी न हो ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">हमसखुन= हम जैसा कलाम कहने वाला</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">पासबाँ = साथ रहनेवाला </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">नोहाखां = शोक करने वाला, रोने वाला</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा सुन्दरदास </b>ने भी कहा है-</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सर्प डसै, सु नहिं कछु तालक;</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बीछु लगै, सु भलो करि मानौ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सिंह हु खाय, तु नाहिं कछु डर ;</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जो गज मारत, तौ नहिं हानौ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आगि जरौ, जल बूढ़ि मरौ, गिरि</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जाइ गिरौ; कछु भै मत मानो।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" और भले सब ही यह;</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दुर्जन संग भले जिन जानौ।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">सुन्दरदास जी कहते हैं, अगर आपको सांप डसे, बिच्छू काटे और हाथी मारे तो कुछ हज मत समझो । आग में जलने और जल में डूबने और पहाड़ से गिरने में भी कोई हानि न समझो, ये सब भले हैं - इनसे हानि नहीं; हानि और खतरा है दुष्ट की सङ्गति में, इसलिए दुर्जन की सुहबत मत करो । उसकी सङ्गति अच्छी नहीं; पर आजकल दुष्टों की बहुतायत है; कदम कदम पर दुर्जनो के दर्शन होते हैं । इसलिए संसार से दुखित और उदासीन मनुष्य के लिए वन में जाकर रहने में ही शान्ति है । इन पंक्तियों के लेखक को भी, जो अनेक बार ऐसा ही चाहने लगता है, इस संसार से दिल लगाना - इसमें रहना अच्छा नहीं मालूम होता; पर बकौल <b>उस्ताद ज़ौक़</b>, कुछ मजबूरी ऐसी आ पड़ती है, कि सरता नहीं । आपने फ़रमाया है -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बेहतर तो है यही, कि न दुनिया से दिल लगे।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पर क्या करें, जो काम न बे-दिल्लगी चले।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">संसार से दिल लगाना अच्छा नहीं; पर क्या करें, बिना दिल लगाए चलता भी तो नहीं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="margin: 0px;">
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">सारांश यह है कि, यदि सच्ची सुख शान्ति चाहते हो; तो स्त्री-पुत्र, धन-दौलत और ज़मीन जायदाद की ममता छोड़कर वैराग्य लेलो; यानी इन सबको छोड़कर वन में जा बसो और एकमात्र परमात्मा में मन लगाओ । संसार को त्यागने के सिवा, सुख की और राह नहीं । हमने अनेक बार संसार त्यागने का इरादा किया, पर हमारे अज्ञानी मन ने हमें बारम्बार ऐसा करने से रोका । हम मन की बातों को विचार के कांटे पर तोलते रहे । अब हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि मन की सलाह ठीक नहीं । हमारा गन्दा मन हमें शैतान की तरह गुमराह कर रहा है । जिस सुख की खोज में ५१ वर्ष यों ही गवां दिए, उस सुख का लेश भी हमें न मिला । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अमीषां प्राणानां तुलितबिसिनीपत्रपयसां</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">कृते किं नास्माभिर्विगलितविवेकैर्व्यवसितम्।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">यदाढ्यानामग्रे द्रविणमदनिःसंज्ञमनसां</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">कृतं वीतव्रीडैर्निजगुणकथापातकमपि।। ३६ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">कमल-पत्र पर जल की बूंदों के समान चञ्चल प्राणो के लिए; हमने बुरे और भले का विचार न करके, क्या क्या काम नहीं किये? हम धन-मद से मतवाले लोगों के सामने निर्लज्ज होकर अपने गुणों के कीर्तन करने का पाप तक किया है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">कहने वाला कहता है कि इस जीवन के लिए, जो नितान्त क्षणभंगुर है, जिसकी स्थिरता कुछ भी नहीं है, मैंने कोई उपाय, कोई उद्यम उठा न रखा । और तो और, इस क्षुद्र जीवन के लिए, अपनी तारीफ करने का महापातक भी मैंने किया; और वह भी ऐसे लोगों के सामने, जो धन के मद से मतवाले हो रहे थे और किसी की ओर आँख उठा कर भी न देखते थे । हाय ! ये सब अकर्म करने पर भी मेरा मनोरथ सिद्ध न हुआ ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">संसार में अपने गुणों का आप बखान करना - बड़ा भारी पाप समझा जाता है । आत्मश्लाघा या आत्मप्रशंसा वास्तव में बहुत ही बुरी है । जिसने आत्मश्लाघा की, उसने कौन सा पाप नहीं किया ? इसी से कोई भी बुद्धिमान ऐसा नहीं करता; परन्तु जरूरत इस पाप को भी करा लेती है । जब किसी तरह कोई काम नहीं होता, कोई और तारीफ करने वाला नहीं मिलता; तब मनुष्य, क्षणस्थायी जीवन के लिए, इस निंद्य-कर्म को भी करता है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">जीवन क्षणभंगुर है </span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">----------------------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">यह प्राण उसी तरह चञ्चल हैं, जिस तरह कमल के पत्ते पर पानी की बूँद । यह जीवन बादल की छाया, बिजली की चमक और पानी के बुलबुले की तरह है । जीवन की चञ्चलता पर <b>महात्मा कबीर</b> कहते हैं -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">देखता ही छिप जायेगा, ज्यों तारा परभात।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"कबिरा" पानी हौज़ का, देखत गया बिलाय।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऐसे जियरा जाएगा, दिन दश ढीली लाय।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">मनुष्य पानी के बुलबुले की तरह है । जिस तरह पानी का बुलबुला उठता और क्षणभर में नष्ट हो जाता है । यह मनुष्य उसी तरह अदृश्य हो जाएगा, जिस तरह सवेरे का तारा देखते देखते गायब हो जाता है।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">कबीरदास कहते हैं; जिस तरह देखते देखते हौज़ का पानी, मोरी की राह से निकल कर, बिलाय जाता है; उसी तरह यह जीवात्मा देह से निकल जाएगा; दस पांच दिन की देर समझिये ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा शंकराचार्य जी</b> ने भी कहा है -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नलिनीदलगत जलमतितरलम् ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तद्वज्जीवनमतिशय चपलम् ।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">यह जीवन कमल-पत्र पर पड़े हुए जल की तरह चञ्चल है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">ऐसे चञ्चल जीवन के लिए अज्ञानी मनुष्य नीच से नीच कर्म करने से संकोच नहीं करता - यह बड़ी ही लज्जा की बात है । अगर मनुष्य को हज़ारों-लाखों वर्ष की उम्र मिलती या सभी काकभुशुण्ड होते; तो मनुष्य न जाने क्या क्या पाप कर्म न करता? बड़े ही नीच हैं, जो इस चंदरूज़ा ज़िन्दगी के लिए, तरह-तरह के पापों की गठरी बाँध कर, अपना लोक-परलोक बिगाड़ते हैं। मनुष्यों ! आँखें खोल कर देखो और कान देकर सुनो ! मिटटी और पत्थर अथवा लकड़ी वगैरह की बनी चीजों की कुछ उम्र है; पर तुम्हारी उम्र कुछ भी नहीं । अतः इस क्षणस्थायी जीवन में पाप-कर्म न करो।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">कुण्डलिया</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">--------------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जैसे पंकजपत्र पर, जल चञ्चल ढरि जात ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">त्योंही चञ्चल प्राणहू, तजि जैहें निज गात ।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तजि जैहें निज गात, बात यह नीके जानत ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तोहू छाँड़ि विवेक, नृपन की सेवा ठानत ।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">निज गुन करत बखान, निलजता उघरी ऐसे ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भूल गयो सतज्ञान, मूढ़ अज्ञानी ऐसे ।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<br>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">भ्रातः कष्टमहो महान्स नृपतिः सामन्तचक्रं च </span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">तत्पाश्र्वे तस्य च साऽपि राजपरिषत्ताश्चन्द्रबिम्बाननाः। </span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">उद्रिक्तः स च राजपुत्रनिवहस्ते बन्दिनस्ताः कथाः </span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">सर्वं यस्य वशादगात्स्मृतिपदं कालाय तस्मै नमः।। ३७ ।।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">ऐ भाई ! कैसे कष्ट की बात है ! पहले यहाँ कैसा राजा राज करता था, उसकी सेना कैसी थी, उसके राजपुत्रों का समूह कैसा था, उसकी राजसभा कैसी थी, उसके यहाँ कैसी कैसी चन्द्रानना स्त्रियां थीं, कैसे अच्छे अच्छे चारण-भाट और कहानी कहने वाले उसके यहाँ थे ! वे सब जिस काल के वश हो गए, जो काल ऐसा बली है, जिसने उन सब को स्वप्नवत कर दिया, मैं उस बली काल को ही नमस्कार करता हूँ । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा कबीरदास</b> कहते हैं -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सातों शब्दज बाजते, घर-घर होते राग।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ते मन्दिर खाली परे, बैठन लागे काग।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">परदा रहती पदमिनी, करती कुल की कान।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">छड़ी जु पहुंची काल की, डेरा हुआ मैदान।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">जिन मकानों में पहले तरह-तरह के बाजे बजते और गाने गाये जाते थे, वे आज खाली पड़े हैं । अब उन पर कव्वे बैठते हैं । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">जो पद्मिनी पहले परदे में रहती थी, उसी का आज, काल के आने से मैदान में डेरा हो गया है; यानी सबके सामने मरघट में पड़ी है । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">निश्चय ही संसार अनित्य और नाशमान है । इस जगत की कोई भी चीज़ सदा न रहेगी । एक दिन अपनी अपनी बारी आने से सभी का नाश होगा । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">इसी विषय में <b>महाकवि दाग़</b> कहते हैं -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">है ज़वाल आमदा अजज़ा, आफ़रीनश के तमाम।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">महार गर्दू है, चिरागे रेहगुज़ारे बाद यां।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">संसार के सभी पदार्थ अनित्य हैं, सभी नाशमान हैं । जिसे सूर्य कहते हैं, वह भी एक ऐसा चिराग - दीपक है, जो हवा के सामने रक्खा हुआ है और "अब बुझा-अब बुझा" हो रहा है; तब औरो की तो बात ही क्या? इस संसार की यही दशा है।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">ये अनन्त जलराशिपूर्ण महासागर और सुमेरु तथा हिमालय प्रभृति पर्वत भी एक दिन काल के कराल-गाल में समां जायेंगे । देवता, सिद्ध , गन्धर्व, पृथ्वी, जल और पवन, इन सबको भी काल खा जायेगा । याम, कुबेर, वरुण और इन्द्रादिक महातेजस्वी देव भी एक दिन गिर पड़ेंगे । स्थिर ध्रुव भी अस्थिर हो जायेगा । अमृतमय चन्द्रमा और महाप्रकाशमान सूर्य, ये दोनों भी नष्ट हो जाएंगे । जगत के अधिष्ठाता ईश्वर, परमेष्टि ब्रह्मा और महाभैरव रूप इन्द्र का भी अभाव हो जाएगा; तब संसार के साधारण प्राणियों की कौन गिनती है ? एक दिन इस जगत का ही अस्तित्व नहीं रहेगा, तब और किस की आस्था की जाए ? यह जगत ही भ्रममात्र है । इसमें अज्ञानी को ही आस्था होती है । वही भोगों को सुखरूप समझकर उनकी तृष्णा करता और अपने तई बन्धन में फंसाता है । ज्ञानी पुरुष इस संसार को मिथ्या और सार-हीन तथा नाशमान समझता है । वह तो केवल ब्रह्म को नित्य और अविनाशी समझकर उसमें मग्न रहता है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">------</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नृपति सैन जम्मति सचिव, सुत कलत्र परिवार।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">करात सबन को स्वप्न सम, नमो काल करतार।।</span></span></div>
</div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">वयं येभ्यो जाताश्चिरपरिगता एव खलुते</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">समं यैः संवृद्धाः स्मृतिविषयतां तेऽपि गमिताः।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">इदानीमेते स्मः प्रतिदिवसमासन्नपतना-</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">ग्दतास्तुल्यावस्थां सिकतिलनदीतीरतरुभिः।। ३८ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जिनसे हमने जन्म लिया था, उन्हें इस दुनिया से गए बहुत दिन हो गए; जिनके साथ हम बड़े हुए थे, वे भी इस दुनिया को छोड़कर चले गए । अब हमारी दशा भी रेतीले नदी-किनारे के वृक्षों की सी हो रही है, जो दिन दिन जड़ छोड़ते हुए गिराऊ होते चले जाते हैं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जिनसे हम पैदा हुए थे, उन्हें इस दुनिया से गए ज़माना गुज़र गया और जिन लोगों के साथ हम जन्मे थे अथवा जो लोग हमारे समवयस्क थे, वे भी चल बसे; जिन लोगों के साथ हम पले, जिनके साथ हम खेले-कूदे, जिनके साथ हमने कारोबार किया, वे सब भी काल के गाल में समा गए । अब हमारा नम्बर भी आया ही समझिये - अब हम भी चलने ही वाले हैं । दिन-दिन हमारा शरीर क्षीण हुआ जाता है । हमारी दशा अब नदी तट के बालू में लगे हुए वृक्षों की सी है, जिनके गिरने की सम्भावना हर घडी रहती है । हमारी ऐसी हालत है, फिर भी आश्चर्य है, कि हमारा माय-मोह नहीं छूटता ! अब भी हमारा मन नहीं समझता और वह संसारी जञ्जालों से अलग नहीं होना चाहता ! <b>महात्मा कबीर</b> भी यही कहते हैं । उनकी भी सुन लीजिये -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बारी बारी आपनी, चले पियारे मिंत।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तेरी बारी जीवरा, नियरे आवे निंत।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">माली आवत देखिकै, कलियाँ करि पुकार।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">फूली फूली चुनि लईं, कल्ह हमारी बार।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">साथी हमरे चलि गए, हम भी चालनहार।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कागद में बाकी रही, तातें लागी बार।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">बारी बारी से सभी प्यारे और मित्र चल बसे। अरे जीव ! अब तेरा नम्बर भी नित्य निकट आता जाता है । माली को आते देख कर, कलियों ने कहा - फूली फूली तो आज चुन ली गयी, कल हमारी भी बारी है । हमारे साथी चले गए अब हम भी चलने वाले हैं । कागज़ में, यानी खाते में कुछ साँस बाकी रह गयी हैं, इससे देर हो रही है; यानी अपनी शेष साँसों को पूरा करने के लिए हम ठहरे हुए हैं । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">संसार का यही हाल है, रोज़ ही यह तमाशा देखते हैं; पर फिर भी हमें होश नहीं होता ! </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जो जन्में हम संग, उतौ सब स्वर्ग सिधारे ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जो खेले हम संग, काल तिनहुँ कहँ मारे ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हमहूँ जरजर देह, निकट ही दीसत मरिबो ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जैसे सरिता-तीर-वृक्ष को, तुच्छ उखरिबो ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अजहुँ नहिं छाँड़त मोह मन, उमग उमग उरझो रहत ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऐसे अचेत के संग सों, न्याय जगत को दुख सहत ।।</span></span></div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">यत्रानेके क्वचिदपि गृहे तत्र तिष्ठत्यथैको</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">यत्राप्येकस्तदनु बहवस्तत्र चान्ते न चैकः।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">इत्थं चेमौ रजनिदिवसौ दोलयन्द्वाविवाक्षौ</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">कालः काल्या सह बहुकलः क्रीडति प्राणिशारैः।। ३९ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जिस घर में पहले अनेक लोग थे, उसमें अब एक ही रह गया है। जिस घर में एक था, उसमें अनेक हो गए, पर अन्त में एक भी न रहा । इससे मालूम होता है कि काल देवता, अपनी पत्नी काली के साथ, संसार रुपी चौपड़ में, दिन-रात रुपी पासों को लुढ़का लुढ़का कर और इस जगत के प्राणियों की गोटी बना बनाकर, खेल रहा है।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जिस घर में पहले पुत्र, पौत्र, पुत्र-वधु, पौत्र-वधु, पुत्री, दोहिते और दोहिती प्रभृति अनेक लोग थे, आज वह सूना सा हो गया है, उसमें आज एक ही आदमी नज़र आता है। जिस घर में पहले एक आदमी था, उसका कुटुम्ब इतना बढ़ा कि सैकड़ों हो गए; पर आज देखते हैं कि उसमें एक भी नहीं है । घर का ताला लगा है, भीतर लम्बी लम्बी घास उग आयी है, दीवारे गिर रही हैं, छतें चू रही हैं और ईंटे दांत दिखा रही हैं । अब स घर में चमगीदड, उल्लू, सांप और बिच्छू प्रभृति रहते हैं । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा कबीर</b> कहते हैं -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऊँचा महल चिनाईया, सुबरन कली बुलाय ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ते मन्दिर खाली परे, रहे मसाना जाय।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मलमल खासा पहरते, खाते नागर पान।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">टेढ़े होकर चालते, करते बहुत गुमान।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">महलन मांहि पौढ़ते, परिमल अंग लगाय।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ते सपने दीसे नहीं, देखत गए बिलाय।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जिन्होंने ऊँचे ऊँचे महल चिनवाए थे और उनमें सुनहरी काम करवाए थे, वे आज शमशान में चले गए हैं और उनके बनवाये हुए महल सूने पड़े हैं । जो मलमल और खासा पहनते थे, नागर-पान चबाते थे, अकड़-अकड़ कर टेढ़े-टेढ़े चलते थे, अभिमान के नशे में चूर हुए जाते थे और बदन में इत्र, फुलेल और सेन्ट(scent )प्रभृति लगाकर महलों में सोते थे, वे स्वप्न में भी नहीं दीखते । देखते-देखते न जाने कहाँ गायब हो गए ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">छप्पय </span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">------------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बहुत रहत जिहिं धाम, तहँ एकहि को राखत।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">एक रहत जिहिं ठौर, तहँ बहुतहि अभिलाषत।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">फेर एकहू नाहि, करी तहँ राज दुराजी।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">काली के संग काल, रची चौपड़ कि बाजी।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दिनरात उभय पास लिए, इहि विधिसौँ क्रीड़ा करत।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सब प्राणी सोबत सार ज्यों, मिलत चलत बिछुरत मरत।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<br>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">तपस्यन्तः सन्तः किमधिनिवसामः सुरनदीं</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">गुणोदारान्दारानुत परिचयामः सविनयम्।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">पिबामः शास्त्रौघानुतविविधकाव्यामृतरसा </span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">न्न विद्मः किं कुर्मः कतिपयनिमेषायुषि जने।। ४० ।।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">हमारी समझ में नहीं आता, कि हम इस अल्प जीवन - इस छोटी सी ज़िन्दगी में क्या क्या करें अर्थात हम गंगा तट पर बस कर तप करें अथवा गुणवती स्त्रियों की प्रेम-सहित यथायोग्य सेवा करें अथवा वेदान्त शास्त्र का अमृत पिएं या काव्यरस-पान करें ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">कहने वाला कहता है और ठीक कहता है - यह जीवन क्षण भर का है । इस चन्दरोजा ज़िन्दगी में हम क्या क्या करें ? काम तो अनेक हैं, पर समय थोड़ा है । गंगा तट पर जाकर शिव-शिव की रट लगाना भी अच्छा है; गुणवती सुंदरियों के साथ मीठी-मीठी बातें बनाना, उनके संग रहना और उनके साथ रमण करना भी भला है । वेदान्त शास्त्र के मर्म को समझना और उसका अमृत रस पीना या काव्य-रस पीना भी अच्छा है । अच्छे सब हैं और सभी करने योग्य हैं; पर हमारी समझ में नहीं आता, कि क्षणभर कि ज़िन्दगी में हम क्या-क्या करें ? मतलब यह है, कि मनुष्य जीवन बहुत ही थोड़ा है । इसलिए मनुष्य को जब तक दम रहे, सब तज कर एकमात्र परमात्मा का भजन करना चाहिए । <b>कबीरदास </b><b>जी </b>कहते हैं -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यह तन कांचा कुम्भ है, मांहि किया रहबास।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"कबिरा" नैन निहारिया, नहीं पलक की आस।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"कबिरा" जो दिन आज है, सो दिन नाहिं काल।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चेत सके तो चेतिये, मीच परी है ख्याल।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"कबिरा" सुपने रैन के, उघरि आये नैन।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जीव परा बहु लूट में, जागूँ तो लेन न देन।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आजकाल की पांच दिन, जंगल होयेगा बास।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऊपर-ऊपर हिल फिरे, ढोर चरेंगे घास।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>तुलसीदास जी </b>कहते हैं -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"तुलसी" जग में आईके, कर लीजे दो काम।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">देवेको टुकड़ा भलो, लेवेको हरिनाम।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"तुलसी" राम-सनेह करु, त्यागु सकल उपचार।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जैसे घटत न अंक नौ, नौ के लिखत पहार।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जग ते रहु छत्तीस ह्वै, राम-चरन छत्तीन।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"तुलसी" देखु विचारि हिय, है यह मतौ प्रवीन।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">यह शरीर मिटटी के कच्चे घड़े जैसा है। इसी के अंदर जीवात्मा रहता है । कबीरदास जी कहते हैं, आखों से देखा है, एक क्षण की भी आशा नहीं । खुलासा यह, कि जिस शरीर में जीवात्मा रहता है, वह कच्चे घड़े के समान क्षण-भंगुर है । जिस तरह कच्चे घड़े को फूटते देर नहीं; उसी तरह इस कच्चे घड़े जैसे शरीर को नाश होते देर नहीं । कौन जाने किस क्षण यह शरीर रुपी कच्चा घड़ा फुट जाय और इसमें से जीवात्मा निकल जाय ? इसकी आशा उतनी देर की भी नहीं, जितनी देर पलक झपकने में लगती है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">कबीरदास जी कहते हैं, जो दिन आज है, वह कल न होगा। जीव ! चेत सके तो चेत । मौत सर पर सवार है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">जो अज्ञानी बरसों का प्रबन्ध करते हैं, बरसों जीने की आशा करते हैं, वे इस वचन से शिक्षा ग्रहण करें । कबीरदास बरसों छोड़ - दो-चार दिन भी जीवन रहने की आशा नहीं करते । वे कहते हैं, आज हो, कल रहो या न रहो । आज तुम हंस-खेल रहे हो, आज तुम्हारा शरीर आरोग्य है; आश्चर्य नहीं, कल तुम बीमार हो कर मरण-शय्या पड़े हो अथवा मर ही जाओ । इसलिए चेत करो, होश सम्भालो और आगे की सफर का बदोबस्त करो । अगर संसार के जंजाल में फंसे हुए, जीवन की लम्बी आशा रखे हुए, शीघ्र ही, आज ही, अभी, इसी क्षण से अगली यात्रा का प्रबन्ध न करोगे; वहां मिलने के लिए - यहाँ के ईश्वरीय बैंक द्वारा - रूपए-पैसे, धन-दौलत, गाडी-घोड़े, महल-मकान और बाग़-बगीचों का बंदोबस्त न करोगे - इस दुनिया में पराया दुःख दूर न करोगे और मालिक का नाम न जपोगे; तो तुम्हें उस लम्बे सफर में बड़ी-बड़ी तकलीफो का सामना करना पड़ेगा। यहाँ बोओगे, तो वहां काटोगे । यहाँ अच्छा करोगे, तो वहां अच्छा पाओगे। यहाँ गरीब और मुहताजों को दोगे, तो वहां आपको मिलेगा ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">कबीरदास कहते हैं, यह जीवन सुपने के समान है । रात को सुपने में देखा कि जीव लूट में पड़ा है, तरह तरह के ऐश आराम कर रहा है, सुख भोग रहा है; लेकिन ज्योंही आँख खुली तो क्या देखता हूँ, कि कुछ भी नहीं है । जिस तरह सुपने में आदमी दिल को फरहत देने वाले बाग़-बगीचों की सैर करता है, माशूका के गले में हाथ डाले घूमता है, उससे सम्भोग करता है; अथवा राजा होता है, हुकूमत करता है, चन्द्रबदनियों का नाच-गान देखता है और मन ही मन बड़ा खुश होता है; पर ज्योंही आँख खुलती है, तो न बाग़-बगीचे दीखते है और न माशूका और राज-पाट। बस, ठीक यही हाल जाग्रत अवस्था का है । जिस तरह रात के सुपने को मिथ्या समझते हो, उसी तरह दिन के दृश्यों को भी मिथ्या समझो । वह सपना सोई हुई हालत में दीखता है और यह जागते हुए । देखते हैं, आज एक आदमी राजा है, हज़ारों तरह के भोग, भोग रहा है; पर कल ही वह राह का भिखारी बन जाता है । आज किसी के घर में सुन्दर पतिव्रता नारी है, आज्ञाकारी पुत्र-पौत्र, सुशीला पुत्र-वधुएं और कन्याएं हैं, सैकड़ों दास-दासी हैं, द्वार पर हाथी झूमता है, मोटर हर समय दरवाजे पर खड़ी रहती है; चंद रोज़ बार देखते हैं, कि वह आदमी गुदड़ी ओढ़े हुए सड़क पर भीख मांग रहा है । पूछते हैं, क्यों जी, तुम्हारा यह क्या हाल ? तुम्हारे कुटुम्बी और धन-दौलत का क्या हुआ? जवाब देता है - भाई ! प्लेग में सारे घर के लोग मर गए । कोई पानी देने वाला और नाम लेने वाला भी न रहा । धन-दौलत में से कुछ को चोर और शेष को डाकू, डाका डाल कर ले गए । जब खाने का भी ठिकाना न रहा, तब प्राणरक्षार्थ भीख माँगना आरम्भ किया है । कहिये, ऐसे जीवन और सुख भोगों को सुपने की माया न कहें तो क्या कहें ?</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">अभी कल की ही बात है, हमारी एक आँखों की पुतली के समान प्यारी पुत्री हमें छोड़कर चली गयी । वह ऐसी रूपवती थी, कि हम उसे देखकर कहा करते थे - विधाता ने खूब फुर्सत में गढ़ी है । उसके देखने से हमारी शोक सन्तप्तआत्मा को शांति मिलती थी । घोर शोक में गर्क होने पर भी उसे देखकर हम खिल पड़ते थे । हमारे दिनभर के रंजो-गम काफूर हो जाते थे । उसके दर्शनों से हमारे ह्रदय में सुख होता था, इसी से हम उसे 'दिलाराम' भी कहा करते थे । नाम उसका दिलाराम नहीं 'सूर्यकान्ता' था । जब हम घर में बैठे प्रूफ देखा करते थे, वह भोली सूरत घुटुअन चलकर हमारे पास आ जाती । कभी हमारी दवात उलट देती, कभी कलम उठा लेती और कभी प्रूफ के कागज़ों को मुँह में भर लेती । जब हम आनंद में मग्न हो जाते, कलम पटक कर उसे उठा लेते । उसको चूमते, प्यार करते और ह्रदय को शीतल करते थे । आज तीन दिन से वह नहीं है । कहीं नज़र नहीं आती । ऐसा जान पड़ता है, गोया उसे हमने सुपने में देखा था । सुपने में ही वह हमारे पास आयी थी । सुपने में ही अपने बचपन के खेलों से उसने हमें खुश किया था और सुपने में ही हमने उसे प्यार-दुलार किया था । पाठक ! आप ही विचारिये । क्या यह सब सुपना नहीं था ? क्या अब जो हमारे प्यारे हमारे साथ हैं, हमारे सामने फिरते-डोलते और काम-धंधा करते हैं, उनको भी हम सुपने की माया न समझें ? उस डेढ़ साल की बच्ची की तरह ही, हम भी सबको छोड़कर यमसदन के रही न होंगे ? हमारे पीछे जो रह जाएंगे, उन्हें हम सुपने में मिले हुए के समान न दिखेंगे? यद्यपि हमने अभी तक घर-गृहस्थी नहीं त्यागी है । अभी हम संसारी जंजालों में फंसे हुए हैं; तो भी हम अपने प्यारे से प्यारे के मरनेपर भी आँखों से आंसू नहीं डालते । बहुत लोग हमारे इस हाल को देखकर अचम्भा करते हैं । कोई कुछ और कोई कुछ कहता है । पर हमारे न रोने-कूकने का कारण यह है, कि हमने इस संसार में ऐसे ऐसे बहुत से दुःख देखे हैं । हम कई प्राण प्यारों की वियोगग्नि में जले हैं । इसी से अब हम समझ गए हैं कि यह सब सुपना है । एक न एक दिन हम भी सबको छोड़कर चल देंगे अथवा और सब जो हमारी आँखों के सामने मौजूद है - हमारे देखते देखते, सुपने में देखे हुओं की तरह, गायब हो जाएंगे।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">कबीरदास कहते हैं - अरे भाई ! आज अथवा कल अथवा पांच दिन बाद तुम्हारा बसेरा जंगल में होगा । तुम्हारे ऊपर हल चलेंगे अथवा तुम्हारे ऊपर उगी हुई घास को गाय-भैंस आदि पशु चरेंगे । खुलासा यह है, कि तुम कदाचित आज ही मर जाओ; आज बच गए तो कल खैर नहीं । अगर सांस पूरे न हुए होंगे - चित्रगुप्त के खाते में तुम्हारे कुछ सांस बाकी होंगे, तो उनके पूरे होने पर पांच या दस दिन बाद तुम अवश्य मरोगे । तुम इस शरीर में सदा न रहोगे । तुम्हारे देह छोड़ते ही, लोग तुमसे घृणा करेंगे । ख़ास तुम्हारी हृदयेश्वरी ही तुम्हारी सूरत देखकर डरेगी । तुम्हारे बदन पर अगर एक चांदी का छल्ला भी होगा, तो उसे उतार लेगी । लोग तुम्हें लेजाकर जला या गाड़ आवेंगे । जिस जगह तुम जलाये या दफनाए जाओगे - जहाँ तुम्हारे शरीर की ख़ाक पड़ी होगी, उसी जगह किसान हल चलावेंगे । यदि तुम्हारी मिटटी पर घास उग आएगी, तो ढोर चौपे उसे चरेंगे । अतः होशियार हो जाओ ! गफलत की नींद त्यागो और अपनी अवश्यम्भावी यात्रा का प्रबन्ध करो, जिससे राह में तुम्हें किसी वास्तु का अभाव और किसी तरह की तकलीफ न हो ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">इस दुनिया में काम बहुत है और उम्र का यह हाल है, कि पलक मारने भर का भरोसा नहीं । इस क्षण-भर की ज़िन्दगी में कौन सा काम करना चाहिए, जिससे की आगे की यात्रा में सुख ही सुख मिले ? यही सवाल ऊपर उठाया गया है । इस सवाल को ईश्वर तक पहुंचे हुए, इसवहार के सच्चे और प्रथम श्रेणी के भक्तवर गोस्वामी तुलसीदास जी ने बहुत ही खूबसूरती से हल कर दिया है । उन्होंने मनुष्य के लिए दो ही काम चुन दिए हैं - "देवे को टुकड़ा भला, लेवे को हरनाम"। उनकी इन दो बातों पर जो अमल करेंगे, निश्चय ही उनको सुख ही सुख है । उन्हें नारको की भीषण यातनाएं न सहनी होंगी। वे स्वर्ग में नाना प्रकार के सुख भोगेंगे और अमृतपान करेंगे, कल्पतरु उनकी इच्छाओं को पूरी करेगा । अगर वे पराया भला करके, दुखियों के दुःख दूर करके, बदला या मुआवजा पाने की इच्छा न करेंगे; निष्काम कर्म करेंगे और और कृष्ण के प्रेम में गर्क हो जाएंगे, उसके सिवा किसी भी संसारी पदार्थ को न चाहेंगे; तो उन्हें वह चीज़ मिलेगी, जो हज़ारों लाखों स्वर्गों से भी बढ़-चढ़कर होगी; फिर उन्हें दुःख का नाम भी न सुनना पड़ेगा । यही बात महात्मा तुलसीदास जी ने अपने दोहों में कही है; उन्हें खाली पढ़िए ही नहीं, उन पर गौर भी कीजिये। बिचारने से उनकी बातें आपके दुःख और क्लेश नाश करने वाली महाऔषधियां जान पड़ेंगी । अगर आप उनकी बताई हुई दवा पिएंगे, तो आप अजर-अमर हो जाएंगे ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">तुलसीदास जी कहते हैं - <b>संसार में आकर दो काम कर लो १) भूखों को भोजन दो और २) भगवान् का नाम लो ।</b></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">तुलसीदास जी कहते हैं - <b>कर्म, ज्ञान और उपासना प्रभृति उपचारों को त्याग कर भगवान् की भक्ति करो</b>; क्योंकि भक्ति से विषयी लोगों को भी मुक्ति मिल सकती है; किन्तु कर्म, ज्ञान और उपासना से नहीं । जैसे नौ(९) का पहाड़ा लिखने से नौ का अंक नहीं मिटता, वैसे ही कर्म, ज्ञान आदि से वासना नहीं मिटती और जब तक वासना बनी रहती है तब तक मुक्ति नहीं हो सकती । वासना ही तो जन्म मरण की जड़ है, वासना से ही जन्म लेना पड़ता है; वासना मिटी और मुक्ति हुई; पर विषयी लोगों की वासना नहीं मिटती । जी तरह नौ का पहाड़ा लिखने से नौ का अंक बना ही रहता है; उसी तरह उनके कर्म, ज्ञान और उपासना आदि उपचार करने पर भी वासना बनी ही रहती है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">इस दोहे कर अर्थ हमने साधारणतया समझा दिया है । अगर हम और भी खुलासा समझावे तो ३।४ पेज खर्च होंगे । मतलब यह, मुक्ति-लाभ करने के लिए "भक्ति" सीधा और सरल उपाय है । नारद, वाल्मीकि और शबरी प्रभृति, भक्ति के प्रभाव से ही ऊँचे चढ़े हैं - कर्म, ज्ञान और उपासना आदि से नहीं ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>जगत से ३६ की तरह और भगवान् के चरणों में - छह, तीन या तिरसठ की तरह रहो ।</b> तुलसीदास जी कहते हैं, मन में विचार करके देख लो, यह मत अत्युत्तम है । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">६ जगत है और ३ मनुष्य है । ३६ के अंक में ३ ने ६ को पीठ दे रखी है । बस, इसी तरह तुम इस जगत को पीठ देकर रहो; यानी संसार की ओर मत देखो, संसार में ममता मत रखो । दूसरी ओर भगवान् के पक्ष में ६३ की तरह रहो । इसमें ६ भगवान् की शरण है और ३ मनुष्य है । जिस तरह ३ का अंक ६ की ओर टकटकी लगाए देखता रहा है उसी तरह मनुष्य को हरदम जगदीश की शरण में टकटकी लगाए हुए रहना चाहिए । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तप तीरथ तरुणी-रमण, विद्या बहुत प्रसंग ।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कहा-कहा मन रूचि करै, पायौ तन क्षणभंग ।।</span></span></div>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<br>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">गंगातीरे हिमगिरिशिलाबद्धपद्मासनस्य </span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">ब्रह्मध्यानाभ्यसनविधिना योगनिद्रां गतस्य।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">किं तैर्भाव्यम् मम सुदिवसैर्यत्र ते निर्विशंकाः </span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">सम्प्राप्स्यन्ते जरठहरिणाः श्रृगकण्डूविनोदम्।। ४१ ।।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">अहा ! वे सुख के दिन कब आएंगे, जब हम गंगा किनारे, हिमालय की शालिओं पर, पद्मासन लगाकर, विधान-अनुसार आँख मूंदकर, ब्रह्म का ध्यान करते हुए, योग निद्रा में मग्न होंगे और बूढ़े बूढ़े हिरन निर्भय हो, हमारे शरीर की रगड़ से, अपने शरीर की खुजली मिटाते होंगे ? </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">जिन पुरुषों को यह सुख प्राप्त है, वही सच्चे सुखिया हैं - उन्ही का जीवन धन्य है । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">प्रेमिक के प्रेम में तन्मय हो जाने में ही मजा है । जब पूरी तरह से ध्यान लग जाता है, तब शरीर पर पक्षी बैठे या जानवर, खुजली मिटावे या चाहे जो करे, कोई खबर नहीं रहती । ऐसे ध्यानियों को ही सिद्धि मिलती है । महाकवि <b>दाग </b>कहते हैं - </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कमाल इश्क़ है ए दाग, महब हो जाना।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मुझे खबर नहीं, नफा क्या ज़रर कैसा?</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">प्रेम में जो लोग तन्मय हो जाते हैं, उन्ही के प्रेम - प्रेम है । बिना प्रेम के प्रेम थोथा है । मैं तन्मय हूँ, इसलिए मुझे घाटे-लाभ की फ़िक्र तो क्या, खबर ही नहीं ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>कबीर </b>कहते हैं -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">प्रेम-प्रेम सब कोई कहै, प्रेम न चीन्हे कोए।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आठ पहर भीना रहे, प्रेम कहावे सोये।। </span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">लौ लागी जब जानिये, छूटि न कबहुँ जाए।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जीवन लौ लागी रहे, मूआ माहिं समाये।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">कबीर साहब कहते हैं - प्रेम-प्रेम सब कहते हैं, पर प्रेम को कोई नहीं जानता। जिसमें आठ पहर डूबा रहे वही प्रेम है। लौ लगी तभी समझो, जबकि लौ छूट न जाए। ज़िन्दगी भर लौ लगी रहे और मरने पर प्यार में समा जाये।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">चित्त का स्वभाव है, कि वह अगली-पिछली बातों को याद करता है। इन्द्रियों का स्वभाव है, कि वे अपने अपने विषयों की ओर झुकती हैं। कान आवाज़ सुनना चाहता है। नेत्र नयी वस्तु देखना चाहते हैं; पर इस तरह ईश्वर-उपासना करने से कोई लाभ नहीं। वृथा अमूल्य समय नष्ट करना है। ईश्वर-उपासना करने वाले को, सबसे पहले अपने चित्त और इन्द्रियों को, उनके कामों से हटा कर अपने अधीन कर लेना चाहिए । बिना चित्त के एक तरफ हुए और बिना इन्द्रियों को उनके काम से रोके - ध्यान नहीं लग सकता ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">ध्यान करनेवाला न शरीर को हिलावे और न किसी तरफ देखे। अगर किसी तरफ भयानक शब्द हो या कोई जीव काटे, तोभी ध्यानी का ध्यान न टूटना चाहिए । आजकल अधिकाँश कर्मकाण्डी गोमुखी में हाथ चलाते जाते हैं और मन में अनेक गढ़न्त गढ़ते जाते हैं । कोई कुछ कहता है, तो उसकी भी सुन लेते हैं। ऐसी ईश्वरोपासना से क्या लाभ?</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">एक गोपी का कृष्ण में आदर्श प्रेम</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">--------------------------------------------</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">एक बार एक गोपी यशोदा के घर दीपक जलने आई। वहां कृष्ण खेल रहे थे । वह कृष्ण के प्रेम में ऐसी पगी कि उसने बत्ती के बजाय अपनी ऊँगली दीपक पर लगा दी। यहाँ तक कि उसकी साड़ी ऊँगली जल गयी, पर उसे खबर न हुई; किसी दुसरे ने उसे चेत कराया तो उसे चेत हुआ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">एक नमाज़ी मियां को कुलटा का उपदेश</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">------------------------------------------------</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">इसी तरह एक मियां जी भी जांनमाज़ बिछा कर नमाज़ पढ़ने लगे। उधर से एक व्यभिचारिणी स्त्री अपने यार के प्रेम में डूबी हुई उससे मिलने चली। वह प्रेम में ऐसी डूबी हुई थी कि वह मियां जी कि जांनमाज़ पर होकर निकल गयी। मियां जी को क्रोध आ गया; आपने उसे दो-चार गालियां सुनाई। स्त्री ने कहा - "लानत है आपके ईश्वर-प्रेम पर, जो आपने मुझे देख लिया ! प्रेम तो मेरे जैसा होना चाहिए, जो अपने यार के प्रेम में मुझे न आप दिखे और न आपकी जांनमाज़ ही ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">सच है, दिखाऊ प्रेम से कोई लाभ नहीं; प्रेम हो तो ऐसा हो कि अष्ट पहर चौंसठ घडी अपने प्रेमी का ही ध्यान रहे और उसमें मनुष्य ऐसा डूबा रहे कि तनबदन की भी सुध न रहे । वैसे प्रेम से ही जगदीश मिलते हैं ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">------------</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ब्रह्मध्यान धर गंगतट, बैठूँगो तज संग।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कबधौं वह दिन होयगो, हिरन खुजावत अंग।।</span></span></div>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span></div>
<div>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;">स्फुरत्स्फारज्योत्स्नाधवलिततले क्वापि पुलिने </span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;">सुखासीनाः शान्तध्वनिषु द्युसरितः ।।</span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;">भवाभोगोद्विग्नाः शिवशिवशिवेत्यार्तवचसः</span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;">कदा स्यामानन्दोद्गमबहुलबाष्पाकुलदृशः।। ४२ ।।</span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"><br></span>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;">अर्थ:</span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;">वह समय कब आवेगा, जब हम पवित्र गंगा के ऐसे स्थान पर जो चन्द्रमा की चांदनी से चमक रहा होगा , सुख से बैठे होंगे और रात के समय, जब सब तरह का शोरगुल बन्द होगा, आनन्दाश्रुपूर्ण नेत्रों से, संसार के विषय दुखों से थक कर, सर्वशक्तिमान शिव की रटना लगा रहे होंगे ?</span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-family: "times new roman"; font-size: large;"></span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;">धन्य हैं वे लोग जिन्हे संसारी झूठे विषय-सुखों से नफरत हो गयी है, जो यहाँ के जंजालों से थक गए हैं जिन्होंने मोह जाल तोड़कर गङ्गा के पवित्र किनारे पर वास कर लिया है और निस्तब्ध चांदनी रात में, गदगद होकर, शिव शिव रटते हैं !! और लोग जो संसार के मोहपाश में फंसे हुए हैं, अपना जीवन वृथा खोते हैं।</span></div>
</div>
</div>
</div>
<div style="margin: 0px;">
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">महादेवो देवः सरिदपि च सैषा सुरसरिद्गुहा एवागारं वसनमपि ता एव हरितः।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">सुहृदा कालोऽयं व्रतमिदमदैन्यव्रतमिदं कियद्वा वक्ष्यामो वटविटप एवास्तु दयिता।। ४३ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">महादेव ही एक हमारा देव हो, जाह्नवी ही हमारी नदी हो, एक गुफा ही हमारा घर हो, दिशा ही हमारे वस्त्र हों, समय ही हमारा मित्र हो, किसी के सामने दीन न होना ही हमारा मित्र हो, अधिक क्यों कहें, वटवृक्ष ही हमारी अर्धांगिनी हो ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जो हज़ारों लाखों देवताओं को छोड़कर एक परमात्मा को ही अपना देव समझता है, रात-दिन उसी के ध्यान में मग्न रहता है; जो गंगा तट पर बस्ता है; गंगा में स्नान करता है; गंगा जल ही पीता है; जो कपड़ों की भी जरुरत नहीं रखता; दिशों को ही अपने वस्त्र समझता है; काल को ही अपना मित्र मानता है; किसी के सामने दीनता नहीं करता, किसी से कुछ नहीं मांगता; वटवृक्ष के आश्रय में रहकर भगवान् का भजन करता और वटवृक्ष को ही अपने दुःख-सुख की संगिनी प्राणवल्लभा समझता है, वही पुरुष धन्य है ! उसका ही जगत में आना सफल है । परमात्मा की दया या पूर्वजन्म के पुण्यों से ही ऐसी बुद्धि होती है । ऐसी बुद्धि के प्रभाव से ही वह दुखों से छूटकर नित्यानन्द में मग्न रहता है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">दोहा:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">देव, ईश, सुरसरि सरित, दिशा वसन गिरी गेह।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सुहृत्काल वट कामिनी, व्रत अदैन्य सुख एह।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<br>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">शिरः शार्व स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम्।।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">अधो गङ्गा सेयं पदमुपगता स्तोकमथवा</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः।। ४४ ।।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">देखिये, गङ्गा जी स्वर्ग से शिवजी के मस्तक पर गिरी; उनके सर से हिमालय पर्वत पर; हिमालय से पृथ्वी पर; और पृथ्वी से समुद्र में गिरी । इससे मालूम होता है, कि विवेक-हीनो का पद पद पर सैकड़ो प्रकार से पतन होता है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">जो विचारपूर्वक काम नहीं करते, जो अक्ल से काम नहीं लेते, उनको तरह तरह से नीचे देखना पड़ता है । कवी ने यहाँ गङ्गा का दृष्टान्त दिया है और खूब दिया है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">शिक्षा: जो विवेकहीन हैं, जो अहंकारी हैं, वे सदा नीचे देखते और बार बार नीचे गिरते हैं ; अतः मनुष्य को भूलकर भी घमण्ड न करना चाहिए और खूब विचार कर काम करना चाहिए । गङ्गा को बड़ा घमण्ड हुआ, तब उसका गर्व ख़त्म करने के लिए ब्रह्मा ने उसे अपने कमण्डल में भर लिया । गङ्गा का मस्तक नीचे हो गया । फिर भी, उसने घमण्ड न छोड़ा, तब शिवजी ने उसे अपनी जटाओं में रोक लिया । फिर महाराज भगीरथ ने घोर तप किया, तो शिवजी ने उसे छोड़ा । शिवजी के सिर से वह हिमालय पर गिरी और वहां से बहती बहती समंदर में जा गिरी । जो गर्व करते हैं, जगदीश उनके दुश्मन हो जाते हैं । जगदीश उन्ही को मिलते हैं, जो गर्व से दूर भागते हैं और विवेकभ्रष्ट नहीं होते । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>शेख सादी</b> ने कहा है -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हर्के बेहूदा गर्दन अफ़राज़द।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">खेशतन रा बगर्दन अन्दाज़द।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">जो कोई अपनी गर्दन ऊँची करता है, मुंह के बल गिरता है । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">आशा नाम नदी मनोरथजला तृष्णातरंगाकुला </span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी।।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">मोहावर्त्तसुदुस्तराऽतिगहना प्रोत्तुड्गचिन्तातटी </span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">तस्याः पारगता विशुद्धमनसोनन्दन्ति योगीश्वराः।। ४५ ।।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">आशा एक नदी है, उसमें इच्छा रुपी जल है; तृष्णा उस नदी की तरंगे हैं, प्रीति उसके मगर हैं, तर्क-वितर्क या दलीलें उसके पक्षी हैं, मोह उसके भंवर हैं; चिंता ही उसके किनारे हैं; वह आशा नदी धैर्यरूपी वृक्ष को गिरानेवाली है; इस कारण उसके पार होना बड़ा कठिन है । जो शुद्धचित्त योगीश्वर उसके पार चले जाते हैं; वे बड़ा आनन्द उपभोग करते हैं ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>सारांश:</b> यदि आनन्द चाहो; तो आशा, इच्छा, प्रीति, तर्क-वितर्क, मोह और चिन्ता प्रभृति को एकदम छोड़कर शुद्धचित्त हो जाओ और अपने आत्मा या ब्रह्म के ध्यान में तन्मय हो जाओ । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नदीरूप यह आश, मनोरथ पुअर रह्यो जल।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तृष्णा तरल तरंग, राग है यह ग्रह महाबल।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नाना तर्क विहंग, संग धीरज तरु तोरत।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भ्रमर भयानक मोह, सबद को गहि गहि बोरत।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नित बहत रहत चित-भूमि में, चिन्तातट अति विकट।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कढ़ि गए पार योगी पुरुष, उन पायौ सुख तेहि निकट।।</span></span></div>
<div>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<br>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">आसंसारं त्रिभुवनमिदं चिन्वतां तात तादृङ्</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">नैवास्माकं नयनपदवीं श्रोत्रवर्त्मागतो वा। </span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">योऽयं धत्ते विषयकरिणीगाढगूढाभिमान</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">क्षीवस्यान्तः करणकरिण: संयमालानलीलाम्।। ४६ ।।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">ओ भाई ! मैं सारे संसार में घूमा और तीनो भुवनों में मैंने खोज की; पर ऐसा मनुष्य मैंने न देखा न सुना, जो अपनी कामेच्छा पूर्ण करने के लिए हथिनी के पीछे दौड़ते हुए मदोन्मत्त हाथी के समान मन को वश में रख सकता हो ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">भाई ! मैंने त्रिलोक की खोज कर डाली, पर मुझे एक भी आदमी ऐसा न दिखा, जो विषय रुपी हथिनी के पीछे लगे हुए मनरूपी गज को रोक सकता हो । इसका खुलासा यह है - विषयों में फंसे हुए मन को काबू में रखना अथवा उसे विषयों से हटाना असंभव है । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">मन बड़ा जबरदस्त है । इसके पङ्ख नहीं, पर पक्षी की तरह उड़ने वाला है; कभी यह आकाश में जाता है और कभी पातळ में जाता है । मन शरीर को जिधर घूमता है, शरीर उधर ही घूमता है । मन ही मनुष्य को परमात्मा से अलग रखता और मन ही उसे उससे मिला देता है । मन की चंचलता अच्छी नहीं । उसकी चंचलता ही साधना में बाधक है । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा कबीर</b> कहते हैं -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मन-पक्षी तब लगि उड़े, विषय-वासना मांहि ।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ज्ञान-बाज़ की झपट में, जब लगि आया नाहिं ।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मन के बहुतै रंग हैं, छिन-छिन मध्ये होय ।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">एक रंग में जो रहे, ऐसा बिरला कोय ।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जेती लहार समुद्र की, तेती मन की दौर ।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सहजै हीरा उपजे, जो मन आवे ठौर ।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मन के मते न चालिये, मन के मते अनेक ।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जो मन पर असवार हैं, ते साधू कोई एक ।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> कहते हैं -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दुनिया से मैं अगर, दिल मुज़तर को तोड़ दूँ ।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सारे तिलिस्म, बहम मुकद्दर को तोड़ दूँ ।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">संसार में लगे हुए मन को यदि मैं तोड़ दूँ, तो धोखे और बुराई में डालनेवाले इस प्रपंच को ही तोड़ डालूं। संसार पाश में बन्धे हुए मन को तोडना मुश्किल है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">मन-पक्षी विषय-वासनाओं में उस वक्त तक उड़ता है, जब तक वह ज्ञान बाज़ की झपट में नहीं आता । मतलब यह है, कि मन विषयों में उसी वक्त तक फंसा रहता है, जब तक कि उसे ज्ञान नहीं होता । ज्ञान होते ही मन विषयों के फंदे से निकल जाता है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">मन के अनेक रंग हैं, जो छिन-छिन में बदलते रहते हैं । जो एक ही रंग में रंगा रहता है, वह कोई विरला ही होता है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">समुद्र की जितनी लहर हैं, मन की उतनी ही दौड़ हैं । अगर मन एक ही ठिकाने ठहर जावे, तो सहज में हीरा पैदा हो जावे । मतलब यह है कि मन के एक जगह ठहरने या स्थिर हो जाने से सिद्धि मिल जा सकती है, जगदीश के दर्शन हो सकते हैं । चंचल मन से सिद्धि दूर भागती है । जगदीश-मिलान के लिए स्थिर चित्त की दरकार है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">मन के मते न चालिये क्योंकि मन के मते अनेक हैं । मन पर सवार रहने वाले, मन को अपने वश में रखनेवाले महात्मा कोई विरले ही होते हैं । सारांश यह कि, मन की चाल पर न चलना चाहिए, उसकी सलाह के माफिक काम न करना चाहिए । मन को काबू में रखना चाहिए और उसे अपनी इच्छानुसार चलाना चाहिए । जो मन की राह पर नहीं चलते, मन के अधीन नहीं होते, मन को स्थिर रखते हैं, उसे चंचल नहीं होने देते, उसकी लगाम अपने हाथों में रखते और अपने माफिक चलते हैं - स्वयं उसकी मर्जी पर नहीं चलते, वे जगत को विजय कर सकते हैं । वे नाना प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त कर सकते हैं और जगदीश से मिलकर अक्षय सुख के अधिकारी हो सकते हैं । जिन्हें संसारी जालों से छूटना हो, जन्म-मरण के कष्ट न भोगने हों, नित्य और अविनाशी सुख भोगना हो, परमपद प्राप्त करना हो; वे मन को अपने वश में करें, उसे इधर-उधर जाने से रोकें और उसे करतार के ध्यान में लगावें ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> एक जगह फिर कहते हैं -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बड़े मूज़ी को मारा, नफ़ से अम्मारे को गर मारा ।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नहंगो अज़दहाओ, शेर नर मारा तो क्या मारा ।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">अपने दिल को मार, अभिमान को मार; इसमें तेरी बड़ाई है। बड़े बड़े खूंखार जानवरों के मारने में कोई बड़ाई नहीं है । पर अभिमान-शून्य होना है बड़ा कठिन । जिस बासन में लहसन या प्याज रखे जाते हैं, उसमें से उनकी गन्ध बड़ी कठिनाई से जाती है; इसी तरह अभिमान भी बड़ी कठिनाई से जाता है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">इसके नाश का उपाय, विवेक या ज्ञान है । जब ज्ञान का उदय हो जाता है, तब जिस तरह पका हुआ आम आप-से-आप गिर पड़ता है; उसी तरह अभिमान भी आप-से-आप दूर हो जाता है । अभिमान के नाश होते ही चित्त शुद्ध हो जाता है । चित्त के शुद्ध होने से परमात्मा के दर्शन होने की राह साफ़ हो जाती है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">मनुष्यों ! अभ्यास करो; अभ्यास से सब कठिनाइयां हल हो जाती है । जैसे भी हो, मन को वासनाहीन बनाओ । वासनाहीन, निर्मल चित्त वाले व्यक्ति पर उपदेश जल्दी असर करता है और उसमें ईश्वरानुराग शीघ्र ही उत्पन्न हो जाता है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऐसो मैं संसार में, सुन्यो न देख्यो धीर।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विषय-हथिनी संग लग्यो, मनगज बांधे बीर।।</span></span></div>
</div>
<div>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span></div>
<div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">ये वर्धन्ते धनपतिपुरः प्रार्थनादुःखभोज</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">ये चालपत्वं दधति विषयक्षेपपर्यस्तबुद्धेः।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">तेषामन्तः स्फुरितहसितं वासराणां स्मारेयं </span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">ध्यानच्छेदे शिखरिकुहरग्रावशय्या निषण्णः।। ४७ ।।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">वे दिन जो धन के लिए धनवानों की खुशामद करने के दुःख से बड़े मालूम होते थे और वे दिन जो विषयासक्ति में छोटे लगते थे; उन दोनों प्रकार दे दिनों को हम पर्वत की एकान्त गुहा में, पत्थर की शिला पर बैठे हुए आत्मध्यान में मग्न होकर अन्तःकरण में हँसते हुए याद करेंगे।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">जिन लोगों को अनेकों प्रकार के एशोइशरत और भोग-विलास के सामान मयस्सर हैं, जिनके यहाँ किसी भी संसारी भोग-विलास की सामग्री का अभाव नहीं है, जिनके सुंदरी मृगनयनी कामिनी सेवा करने को है, जिनके दास-दासी हैं, जिनके बाग़-बगीचे हैं, जिनके गाडी-घोड़े और मोटर हैं, जिनके पीछे अनेक तरह के खुशामदी लगे रहते हैं, जिनके हाथ में द्रव्य है अथवा राजकृपा है - ऐसे लोगों के दिन बड़ी ही जल्दी काटते हैं । उन्हें दिन रात बीतते हुए मालूम ही नहीं होते, लम्बे लम्बे दिन भी छोटे प्रतीत होते हैं; किन्तु जिन लोगों को सब तरह का अभाव है, जो हर बात के लिए तंग हैं, जो अपनी इच्छा पूरी करने के लिए धनियों से धन मांगते हैं, उनकी खुशामद करते हैं, उनकी दुत्कार, फटकार सहते हैं, अपमानित होते हैं, उनके लिए वे ही दिन बड़े भारी मालूम होते हैं - काटे भी नहीं कटते । किन्तु जो लोग विषयों का सामान होते हुए भी विषय सुख नहीं भोगते और अभाव होने पर भी इच्छा नहीं रखते, इसलिए धनियों के देहरे नहीं ढोकते, उनकी खुशामद नहीं करते, अपने आत्माराम में ही मस्त रहते हैं - वे सुखी हैं; उन्हें दिन बड़े और छोटे नहीं लगते । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">जिसने दोनों प्रकार के दिन देखे हैं, पर शेष में उसे ऐसे झगड़ो से विरक्ति हो गयी है, वह कहता है - मैं एकान्त गुफा में पवित्र शिला पर बैठा हुआ, आत्मा का ध्यान करूँगा और उन दिनों की याद करके उन पर घृणा से हसूंगा ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">कुण्डलिया </span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">---------------</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">छोटे दिन लागत तिन्हें, जिनके बहुविधि भोग।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बीत जात विलसत हँसत, करत सुयत संयोग।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">करत सुयत संयोग, तनक से लागत तिन को।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जे हैं सेवक दीन, निपट दीरघ हैं विनको।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हम बैठे गिरि- शृङ्ग, अंग याहि ते मोटे।</span></span></div>
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"></span><br></span>
<br>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सदा एक रस द्योष, लगत हैं बड़े न छोटे।।</span></span></div>
</div>
<div>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span></div>
<div>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span></div>
</div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">विद्या नाधिगता कलंकरहिता वित्तं च नोपार्जितम </span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">शुश्रूषापि समाहितेन मनसा पित्रोर्न सम्पादिता।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">आलोलायतलोचना युवतयः स्वप्नेऽपि नालिंगिताः</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">कालोऽयं परपिण्डलोलुपतया ककैरिव प्रेरितः।। ४८ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">न तो हमने निष्कलंक विद्या पढ़ी और न धन कमाया; न हमने शांत-चित्त से माता-पिता की सेवा ही की और न स्वप्न में भी दीर्घनायनी कामिनियों को गले से ही लगाया । हमने इस जगत में आकर, कव्वे की तरह पराये टुकड़ों की ओर ताक लगाने के सिवा क्या किया?</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जो संसार में आकर न हरिभजन करते हैं, न विद्या-अध्ययन करते हैं, न धनोपार्जन करके सुख भोगते हैं और न संसार के दुखियों के दुःख ही दूर करते हैं, उनका इस दुनिया में आना वृथा है । <b>किसी ने कहा</b> है -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">न इधर के रहे, न उधर के रहे।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">न खुदा ही मिला न विसाले सनम।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">और भी <b>किसी ने कहा</b> है -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कहा कियो हम आय के, कहा करेंगे जाय?</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">इतके भये न उतके, चाले मूल गवाँय।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">मतलब यह है, कि विद्या पढ़ना, विद्या-बुद्धि से धन उपार्जन करना, सुख भोगना और माँ-बाप की सेवा करना अच्छा; पर खाली पेट भरने के लिए, कव्वे की तरह पराया मुंह ताकना अच्छा नहीं । मुंह ही ताकना है तो उस परमात्मा का ताको, जो अभावशून्य है और सबका दाता है ।उससे ही आपकी इच्छा पूरी होगी। अगर आप उसी का भरोसा करेंगे, तो वह आपके सब आभाव दूर करेगा, आपके दुखों में दुखी और आपके सुखों में सुखी होगा । उसके बिना आपकी भूख न मिटेगी । रहीम कहते हैं और सच कहते हैं -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">रामचरण पहिचान बिन, मिटी न मनकी दौर ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जनम गंवाए बादिही, रटत पराये पौर।।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">भगवान् के चरण कमलों से परिचय हुए बिना, उनके पदपंकजों से प्रेम हुए बिना, मनुष्य के मन की दौड़ नहीं मिटती - मन की चंचलता नहीं जाती और स्थिरता नहीं होती । मन के स्थिर हुए बिना भगवान् के भजन में मन नहीं लग सकता । जो लोग गेरुआ बाना धारण करके साधू हो जाते हैं और भगवान् में मन नहीं लगाते - वे लोग पेट के लिए दर-दर चीख चिल्ला कर अपना दुर्लभ मनुष्य जन वृथा ही गंवाते हैं । वे मूर्ख इस बात को नहीं समझते, कि यह मनुष्य जन्म बड़ी कठिनाई से मिला है । ऐसा मौका जल्दी नहीं मिलने का । अगर यह जन्म पेट की चिंता में गंवाया जायेगा, तो फिर चौरासी लाख योनियों में जन्म लेने के बाद कहीं मनुष्य जन्म मिलेगा । इससे तो यही अच्छा होता, कि वे संसार त्यागी बनने का ढोंग न रचकर, संसारी या गृहस्थ ही बने रहते । संसारी बने रहने से वे इस दुनिया के मिथ्या सुख-भोग तो भोग लेते । ऐसे ढोंगी दोनों तरफ से जाते हैं । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>गोस्वामी तुलसीदास</b> जी कहते हैं -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">काम क्रोध मद लोभ की, जब लगि मन में खान।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">का पण्डित का मूरखै, दोनों एक समान।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">इत कुल की करनी तजे, उत न भजे भगवान्।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"तुलसी" अघवर के भये, ज्यों बघूर के पान।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"तुलसी" पति दरबार में, कमी बस्तु कुछ नाहिं।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कर्महीन कलपत फिरत, चूक चाकरी मांहि।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">राम गरीबनिवाज हैं, राम देत जन जानि।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"तुलसी" मन परिहरत नहिं, घुरुबिनिया की बानि।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">काम, क्रोध, मद और लोभ - जब तक मन में रहते हैं, तब तक पण्डित और मूर्ख में कोई फर्क नह्नि - दोनों ही समान हैं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जो लोग केवल पुजने के लिए घर गृहस्थी को त्यागकर साधू बन जाते हैं, वे अगर घर में रहे तो माता-पिता की सेवा, आतिथ्य सत्कार, पिण्डदान, ब्राह्मण-भोजन, संतानोत्पत्ति और कन्यादान आदि गृहस्थकर्म कर सकते हैं; पर साधुवेश धारण करने से इन कामो को नहीं कर सकते । दूसरी ओर साधू होकर ईश्वर भजन करना चाहिए, पर चूंकि वे सच्चे साधू नहीं - काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ उनसे अलग नहीं - इसलिए उनका चित्त स्थिर नहीं होता । चित्त के स्थिर न होने से, ईश्वर में भी उनका मन नहीं लगता । पेट भरने के लिए वे घर-घर मारे-मारे फिरते हैं । इस तरह वे न तो घर के रहते हैं न घाट के। तुलसीदास जी कहते हैं, उनकी गति बवण्डरया बगूले के पत्ते की सी होती है, जो न तो आकाश में ही जाता है, न ज़मीन पर ही रहता है - अधपर में उड़ता फिरता है । इस तरह जन्म गंवाना - मूर्खता नहीं तो क्या है ? जो लोग मेहनत मज़दूरी करके कमा नहीं सकते और बैठे-बैठे मिलता नहीं; वे कुटुम्ब का पालन न कर सकने की वजह से साधू बन जाते हैं । फिर वे दर-दर टुकड़े मांगते हैं और ठोकरें खाते हैं । ईश्वर पर भी उनका भरोसा नहीं । अगर परमात्मा पर भरोसा होता, तो वे ध्यानस्थ होकर उसी का जप करते और वह भी उनकी फ़िक्र करता । जो उसके भरोसे निर्जन और बियाबान जंगलों में भी जाकर बैठ जाते हैं, उनको वह वहीँ पहुंचाता है, इसमें संदेह नहीं । वह उसका नाम न जपने वालों को ही पहुंचाता है; तब उसके ही भरोसे रहनेवालों और उसकी माला जपने वालों को वह कैसे भूल सकता है ? वह सवेरे से शाम तक विश्व के प्राणियों को खाना पहुंचाता है, विश्व का पालन करता है, इसी से उसे विश्वम्भर कहते हैं । वह हाथी को मन और कीड़ों को कन पहुंचाता है, इसमें संदेह नहीं। एक बार शहंशाह अकबरे आज़म को उसके विश्वम्भर होने में सन्देह हुआ । उन्होंने एक कांच के बक्स में एक चींटी बन्द करवा दी । चींटी के उसमें बन्द किये जाने से पहले, उन्होंने स्वयं बक्स का कोना कोना देख लिया । फिर उसमें चींटी बंद कराकर ताला लगा दिया और चाभी अपने पास रख ली । बक्स भी दिन रात अपने सामने ही रखा । २४ घण्टे बाद जब बक्स खोला गया, तो चींटी के मुंह में एक चावल का दाना पाया गया । बादशाह का शक रफा हो गया । उन्होंने भी उसे विश्वम्भर मान लिया ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">तुलसीदास जी कहते हैं, स्वामी के दरबार में किसी चीज़ का अभाव नहीं है । उनके दरबार में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चरों पदार्थ मौजूद हैं । उनके भक्त जो चाहते हैं, उन्हें वही मिल जाता है । उनके भक्तो की इच्छा होते ही ऋद्धि सिद्धि उनके क़दमों में हाज़िर हो जाती है, पर शर्त यह है की उनके भक्तों का मन चलायमान न हो, उनका मन किसी दूसरी ओर न जाये । जो लोग ईश्वर की चाकरी में चूकते हैं, स्थिर-चित्त होकर उसकी पूजा उपासना नहीं करते, मन को जगह जगह भटकाते हैं, वे कर्महीन दुःख पाते हैं, उनको मनवांछित पदार्थ नहीं मिलते । सुखदाता को भूलने से सुख कैसे हो सकता है ? </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">भगवान् दीनबंधु, दीन-दयाल और गरीब परवर हैं । वे दीनों के दुःख दूर करनेवाले और गरीबों की गरीबी या मुहताजी मिटाने वाले हैं । वे अपनों को अपना समझ कर, इस लोक और परलोक में पूर्ण सुखैश्वर्य देते हैं । इस दुनिया में अर्थ, धर्म और काम देते हैं और मरने पर, उस दुनिया में, स्वर्ग या मोक्ष देते हैं । मतलब यह है, जो ईश्वर की शरण में चले जाते हैं, ईश्वर अपने उन शरणागतों की इच्छाओं को उनके मन में इच्छा होते ही पूरी कर देता है । पर अफ़सोस तो यही है कि मन अपनी घुरुबिनिया की आदत नहीं छोड़ता अर्थात मन संसारी पदार्थों में जाए बिना नहीं रहता । अगर मन संसारी पदार्थों में जाना छोड़ दे, तो दरिद्रता रहे ही क्यों? सारे अभाव दूर हो जाएं।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विद्या रहित कलंक, ताहि चित्त में नहिं धारी।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">धन उपजायो नाहिं, सदा-संगी सुखकारी।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मात-पिता की सेवा सुश्रुषा, नेक न कीन्हि</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मृगनयनी नवनारि, अंक भर कबहुँ न लीन्हि।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">योंही व्यतीत कीन्हों समय, ताकत डोल्यो काक ज्यों।</span></span></div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ले भाज्यों टूक पर हाथ तें, चंचल चोर चलाक ज्यों।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">वितीर्णे सर्वस्वे तरुणकरुणापूर्णहृदयाः</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">स्मरन्तः संसारे विगुणपरिणाम विधिगतिः।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">वयं पुण्यारण्ये परिणतशरच्चन्द्रकिरणै-</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">स्त्रियामां नेष्यामो हरचरणचित्तैकशरणाः।। ४९ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">सर्वस्व त्यागकर (अथवा सर्वस्वा नष्ट हो जाने पर) करुणापूर्ण ह्रदय से, संसार और संसार के पदार्थों को सारहीन समझकर, केवल शिवचरणो को अपना रक्षक समझते हुए, हम शरद की चांदनी में, किसी पवित्र वन में बैठे हुए कब रातें बिताएंगे?</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">वह दिन कब आवेंगे जब हम सर्वस्वा त्यागकर, संसार को आसार समझकर, संसार के सुखो को अनित्य समझकर, संसार के भोग-विलासों को दुःख-मूल समझकर, विषयों को विष समझकर, किसी पवित्र वन में बैठे हुए शरद ऋतू की चांदनी रात को शिव-शिव की रटना लगाते हुए व्यतीत करेंगे? अर्थात हमारे ये दिन जो संसारी जंजालों में बीते जा रहे हैं, वृथा नष्ट हो रहे हैं । जब हम सबको त्यागकर भगवान् का भजन करेंगे, तभी हमारे दिन ठीक तरह से काटेंगे। हम उन्ही दिनों को सार्थक हुआ समझेंगे । संसारी सुखों से तो हम अघा गए।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">तुलसीदास कहते है -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दुखदायक जाने भले, सुखदायक भेज राम।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अब हमको संसारको, सब विधि पूरन काम।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"></span></span><br></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">हे मन ! अब परमात्मा में लग; संसारी सुखों में अब हमारी इच्छा नहीं: इनकी पोल अब हमने देख ली।</span></div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<br></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं च लक्ष्म्या </span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">सम इह परितोषो निर्विशेषावशेषः।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">स तु भवति दरिद्री यस्य तृष्णा विशाला </span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान्को दरिद्रः ? ।। ५० ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">हम वृक्षों की छाल पहनकर सन्तुष्ट हैं; आप लक्ष्मी से सन्तुष्ट हो । हमारा तुम्हारा दोनों का सन्तोष समान है, कोई भेद नहीं । वह दरिद्र है, जिसके दिल में तृष्णा है । मन में सन्तोष आने पर कौन धनी और कौन निर्धन है ? अर्थात संतोषी के लिए धनी और निर्धन दोनों बराबर हैं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जिसमें सन्तोष है, वह सदा सुखी है । उसे कोई सुख नहीं जिसकी इच्छाएं बड़ी बड़ी हैं । जिसे सन्तोष नहीं है; वह सदा दुखी है । सन्तोष बड़ी से बड़ी दौलत से भी अच्छा है । जो सुखी होना चाहे, वह तृष्णा को त्यागे और परमात्मा जो दे उसी में सन्तोष करे । सन्तोषी के लिए कोई व्याधि नहीं है । सन्तोषी के चित्त, मन और काया सदा सुखी रहते हैं । सन्तोषी किसी की खुशामद नहीं करता ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़ </b>कहते हैं -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जो कुंजे कनाअत में हैं, तक़दीर पर शाकिर।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">है ज़ौक़ बराबर, उन्हें कम और ज़ियादा।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जो सन्तोषी हैं और तकदीर पर भरोसा रखते हैं, उन्हें कम और ज्यादा सभी बराबर हैं । उन्हें जो मिल जाये उसी पर सब्र है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>शेख सादी </b>ने 'गुलिस्तां' में लिखा है -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ए कनाअत तबन्गरम गरदां।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">के वराये तो हेच नेमत नेस्त।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">हे सन्तोष ! मुझे धनी बना दे - क्योंकि संसार की कोई दौलत तुझसे बढ़कर नहीं है।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">मनुष्य को चाहिए कि सूखी रोटी और चीथड़ों से बानी गुदड़ी में सुखी रहे । मनुष्यों के एहसानों का भार उठाने से अपने दुखों का भार हल्का न समझे । जो तंगनज़र हैं, जो लोभी हैं, उनको या तो सन्तोष से सुख मिलता है अथवा मर जाने से । सन्तोष की तारीफ में <b>महात्मा कबीर </b>की भी सुनिए -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">गो-धन गज-धन बाजि-धन और रतन-धन-खानि।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जब आवे सन्तोष-धन, सब धन धूरि-समानि।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">संसार में गो धन, गज धन, बाजि धन और रतन धन आदि अनेक प्रकार के धन हैं । कोई गायों को धन मानता है, कोई हाथियों को धन मानता है, कोई घोड़ों को और कोई हीरे, पन्ने, पुखराज, नीलम प्रभृति को धन मानता है । संसारी लोग इन सबको ही धन समझते हैं, पर इन धनो से किसी की भी तृष्णा नहीं बुझती, सन्तोष नहीं आता - शान्ति नहीं मिलती । जब सन्तोष रुपी धन मनुष्य के हाथ आता है; तब वह गाय, बैल, घोड़े, हाथी, मुहर-अशरफी और हीरे-पन्ने प्रभृति धनो को मिटटी के समान समझता है और सन्तोष-धन से सुखी हो जाता है । सारांश यह कि जय, घोड़े, हाथी, हीरे-पन्नो प्रभृति से किसी को सुख शांति नहीं मिलती । सुख शांति मिलती है केवल सन्तोष से; अतः सन्तोष धन सब धनो से बड़ा धन है । और धन, देखने में अच्छे मालूम होते हैं, पर उनमें वास्तविक सुख नहीं - वास्तविक सुख सन्तोष में ही है । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>तुलसीदास </b>जी की भी सुनिए -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जहाँ तोष तहाँ राम है, राम तोष नहीं भेद।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"तुलसी" देखत गहत नहिं, सहत विविध विधि खेद।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">मनुष्य जब दुनियावी आदमियों का आसरा-भरोसा छोड़कर भगवान् की शरण में आ जाता है, तब उसे सन्तोष होता है । भगवान् में और सन्तोष में फर्क नहीं है । जहाँ सन्तोष है, वहां भगवान् है और जहाँ भगवान् है, वह सन्तोष है । तुलसीदास जी कहते हैं - हमने आँखों से देखा है, जिन्होंने भी भगवान् की शरण गही और सन्तोष किया, वे निश्चय ही सुखी हुए । इसके विपरीत, जो लोग दुनियावी मनुष्यों और धन प्रभृति से सुख की आशा करते हैं, भगवान् से विमुख रहते हैं, उन पर भरोसा नहीं करते, एकमात्र उन्हीं की शरण में नहीं जाते, वे नाना प्रकार के दुःख भोगते हैं । बचपन में माँ के मर जाने से अथवा परतंत्र रहने से दुःख पाते हैं । जवानी में अपनी स्त्री को परपुरुष का देखकर जलते-कुढ़ते हैं अथवा पराई सुन्दर स्त्री को देखकर और उसे न पाकर कामाग्नि में भस्म होते हैं अथवा पुत्र कन्या और स्त्री प्रभृति प्यारों के मरने से उनकी वियोगग्नि में जल-जलकर दुखी होते हैं; अथवा धन के नाश होने से कलपते हैं । बुढ़ापे में आँख, कान आदि इन्द्रियों के बेकाम हो जाने से और शरीर में शक्ति न रहने एवं जने-जने से अपमानित होने से घोर, दुःसह दुःख सहन करते हैं । जब तरह तरह के रोग आकर घेर लेते हैं, तब जीवन भार स्वरुप मालूम होता है । जब ऐसे ऐसे झंझटों में तृष्णा को साथ लेकर मर जाते हैं; तब फिर चौरासी लाख योनियों में जन्म लेते और मरते हैं । इस तरह हज़ारों लाखों बरस बाद - न जाने कब ? फिर मनुष्य जन्म मिलता है । मनुष्य देह पाकर ही मनुष्य अपने उद्धार का उपाय कर सकता है; क्योंकि इसी जन्म में भले बुरे के विचार की शक्ति होती है; और योनियों में तो पाप ही पाप होते हैं; अतः मनुष्य जन्म को मामूली बात समझकर योंही दुनियावी सुख-भोगों में नहीं गंवाना चाहिए । संसारी सुख-भोगो से न तो इस दुनिया में सुख शांति मिलती है और न इसके बाद की दुनिया में । इस लोक में सुख भोगनेवालों को लाखों वर्षों तक घोर दुःख भोगने होते हैं । हाँ, जो लोग इस मनुष्य देह की कीमत समझकर, सब संसारी सुखों को लात मारकर, भगवान् की शरण में चले जाते हैं और संतोष वृत्ति रखते हैं; वे इस लोक और परलोक में सदा सुख भोग करते हैं और अंत में ब्रह्म में लीन हो जाते है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुम धनसों सन्तुष्ट, हमहुँ हैं वृक्षबकल तें।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दोउ भये समान, नैन मुख अंग सकल तें।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जाने जात दरिद्र, बहुत तृष्णा है जिनके।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जिनके तृष्णा नाहिं, बहुत सम्पत है तिनके।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुमहि विचार देखो दृगन, को निर्धन? धनवन्त को ?</span></span></div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जुत पाप कौन ? निष्पाप को ? को असन्त अरु सन्त को?</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: medium;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: medium;"><br></span></span>
</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">यदेतत्स्वछन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">सहार्यैः संवासः श्रुतमुपशमैकव्रतफलम्।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">मनो मन्दस्पन्दं बहिरपि चिरस्यापि विमृशन्</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">न जाने कस्यैष परिणतिरुदारस्य तपसः।। ५१ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">स्वधीनतापूर्वक जीवन अतिवाहित करना, बिना मांगे खाना, विपद में साहस रखनेवाले मित्रों की सांगत करना, मन को वश में करने की तरकीबें बताने वाले शास्त्रों का पढ़ना-सुनना और चंचल चित्त को स्थिर करना - हम नहीं जानते, ये किस पूर्व-तपस्या के फल से प्राप्त होते हैं ? </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">पराधीन मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता, उसे पग-पग पर अपमानित, लाञ्छित और दुखित होना पड़ता है । जो स्वाधीन हैं, किसी के अधीन नहीं है, वे ही सच्चे सुखिया हैं । जिनको अपने पेट के लिए किसी के सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ता - किसी के सामने दीन वचन नहीं कहने पड़ते, जिनके दुःख में सहायता देने वाले, बिना कहे कष्ट निवारण करनेवाले मित्र हैं; जो मन को शांत करनेवाले और उसकी चञ्चलता दूर करने वाले शास्त्रों को पढ़ते हैं - वे भाग्यवान हैं । कह नहीं सकते, उन्होंने ये उत्तम फल पूर्वजन्म के किस कठोर तप से पाए हैं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सत्संगति स्वछन्दता, बिना कृपणता भक्ष।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: medium;"></span></span><br></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जान्यो नहिं किहि तप किये, यह फल होत प्रत्यक्ष।।</span></div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं भैक्ष्यमक्षय्यमन्नं </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">विस्तीर्णं वस्त्रमाशासुदशकममलं तल्पमस्वल्पमुर्वी।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">येषां निःसङ्गताङ्गीकरणपरिणत: स्वात्मसन्तोषिणस्ते</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">धन्याः संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्मनिर्मूलयन्ति।। ५२ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">वे ही प्रशंसाभाजन हैं, वे ही धन्य हैं, उन्होंने ही धर्म की जड़ काट दी है - जो अपने हाथों के सिवा और किसी बासन की जरुरत नहीं समझते, जो घूम घूम कर भिक्षा का अन्न कहते हैं, जो देशो दिशाओं को ही अपना विस्तृत वस्त्र समझते हैं, जो अकेले रहना पसन्द करते हैं, जो दीनता से घृणा करते हैं और जिन्होंने आत्मा में ही सन्तोष कर लिया है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जिन्होंने सबसे मन हटाकर, सब तरह के विषयों को त्याग कर, संसारी माया जाल काटकर अपने आत्म में ही सन्तोष कर लिया है; जो किसी भी वास्तु की आकांक्षा नहीं रखते, यहाँ तक की जल पीने को भी कोई बर्तन पास नहीं रखते; अपने हाथों से ही बर्तन का काम लेते हैं; खाने के लिए घर में सामान नहीं रखते, कल के भोजन की फ़िक्र नहीं करते, आज इस गांव में मांगकर पेट भर लेते हैं तो कल दुसरे गांव में जा मांगते हैं, एक गांव में दो रात नहीं बिताते; जो शरीर ढकने के लिए कपड़ों की भी जरुरत नहीं रखते, दशों दिशाओं को ही अपना वस्त्र समझते हैं; जो पलंग-तोशक, गद्दे-तकियों की आवश्यकता नहीं समझते, ज़रा सी जमीन को ही निर्मल पलंग समझते हैं; जब नींद आती है तो अपने हाथ का तकिया लगाकर सो जाते हैं; जो किसी का संग नहीं करते, अकेले रहते हैं, वैराग्य में ही परमानन्द समझते हैं; जो किसी के सामने दीनता नहीं करते अथवा दैत्यरूपी व्यसनों से घृणा करते और अपने स्वरुप में ही मगन रहते हैं, वे पुरुष सचमुच ही महापुरुष हैं । ऐसे पुरुष रत्न धन्य हैं ! उन्होंने सचमुच ही कर्मबन्धन काट दिया है । वे ही सच्चे त्यागी और सन्यासी हैं । ऐसे ही महापुरुषों के सम्बन्ध में <b>महात्मा सुन्दरदास</b> जी ने कहा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">काम ही क्रोध न जाके, लोभ ही न मोह ताके।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मद ही न मत्सर, न कोउ न विकारो है।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दुःख ही न सुख माने, पाप ही न पुण्य जाने।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हरष ही न शोक आनै, देह ही तें न्यारौ है।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">निंदा न प्रशंसा करै, राग ही न द्वेष धरै।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">लेन ही न दें जाके, कुछ न पसारो है।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सुन्दर कहत, ताकी अगम अगाध गति।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऐसो कोउ साधु, सों तो राम जी कू प्यारो है।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जिसमें काम, क्रोध, लोभ, मद और मत्सर प्रभृति विकार नहीं हैं; जो दुःख सुख और पाप पुण्य को नहीं जानता; जिसे न ख़ुशी होती है न रंज; जो अपने शरीर से अलग है; जो न किसी की तारीफ करता है और न किसी की बुराई करता है; जिसे न किसी से प्रेम है न किसी से वैर, जिसका न किसी से लेना है और न किसी को देना, न और ही किसी तरह का व्यवहार है। सुन्दरदास कहते हैं, ऐसे मनुष्य की गति अगम्य और अगाध है । उसकी गहराई का पता नहीं । ऐसा ही मनुष्य भगवान् को प्यारा लगता है । </span><br>
<span style="font-size: large;"><b><span style="font-size: medium;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: medium;">छप्पय</span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भोजन को कर पट्ट, दशों दिशि बसन बनाये।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भखै भीख को अन्न, पलंग पृथ्वी पर छाये।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">छाँड़ि सबन को संग, अकेले रहत रैन दिन।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नित आतस सों लीन, पौन सन्तोष छिनहिं छिन।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मन को विकार, इन्द्रीन को डारै तोर मरोर जिन।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वे धन्य संन्यास धन, कर्म किये निर्मूल तिन।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"></span><br></span>
</div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">दुराराध्यः स्वामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">वयं तु स्थूलेच्छा महति च पदे बद्धमनसः।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">जरा देहं मृत्युर्हरति सकलं जीवितमिदं </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषोऽन्यत्र तपसः।। ५३ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">मालिक को राज़ी करना कठिन है। राजाओं के दिल घोड़ों के समान चंचल होते हैं। इधर हमारी इच्छाएं बड़ी भारी हैं; उधर हम बड़े भारी पद - मोक्ष के अभिलाषी हैं । बुढ़ापा शरीर को निकम्मा करता है और मृत्यु जीवन को नाश करती है । इसलिए हे मित्र ! बुद्धिमान के लिए, इस जगत में, तप से बढ़कर और कल्याण का मार्ग नहीं है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">सेवा-धर्म बड़ा कठिन है । हज़ारों प्रकार की सेवाएं करने, अनेक प्रकार की हाँ में हाँ मिलाने, दिन को रात और रात को दिन कहने, तरह तरह की खुशामदें करने से भी मालिक कभी संतुष्ट नहीं होता । राजाओं के दिल अशिक्षित घोड़ों की तरह चंचल होते हैं । उनके चित्त स्थिर नहीं रहते; ज़रा सी देर में वे प्रसन्न होते हैं और ज़रा सी देर में अप्रसन्न हो जाते हैं; क्षणभर में गांव के गांव बक्शते और क्षणभर में सूली पर चढ़वाते हैं; इसलिए राजसेवा में बड़ा खतरा है । उसमें ज़रा भी सुख नहीं, यहाँ तक की जान की भी खैर नहीं है । एक तरफ तो हमारी इच्छाओं और हमारे मनोरथों की सीमा नहीं है दूसरी ओर हम परमपद के अभिलाषी हैं; इसलिए यहाँ भी मेल नहीं खाता । बुढ़ापा हमारे शरीर को निर्बल और रूप को कुरूप करता एवं सामर्थ्य और बल का नाश करता है तथा मृत्यु सिर पर मंडराती है । ऐसी दशा में मित्रवर ! कहीं सुख नहीं है । अगर सुख - सच्चा सुख चाहते हो, तो परमात्मा का भजन करो । उससे आपके परलोक और इहलोक दोनों सुधरेंगे, आप जन्म-मरण के कष्ट से छुटकारा पाकर मोक्ष-पद पाएंगे । सारांश यह है कि सच्चा और नित्य सुख केवल वैराग्य और ईश्वर भक्ति में है । गोस्वामी <b>तुलसीदास जी</b> कहते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"तुलसी" मिटै न कल्पना, गए कल्पतरु-छाँह।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जब लगि द्रवै न करि कृपा, जनक-सुता को नाह।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हित सन हित-रति राम सन, रिपु सन वैर विहाय।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">उदासीन संसार सन, "तुलसी" सहज सुभाय।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य चाहे कल्पवृक्ष के नीचे क्यों न चला जाय, जब तक सीतापति की कृपा न होगी तब तक उसके दुखों का नाश नहीं हो सकता; इसलिए शत्रुता-मित्रता छोड़, संसार से उदासीन हो, भगवान् से प्रीति करो ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">खुलासा - कहते हैं, इंद्रा के बगीचे में एक ऐसा वृक्ष है, जिसकी छाया में जाकर मनुष्य या देवता जो चीज़ चाहते हैं, वही उनके पास, आप से आप आ जाती है । उसी वृक्ष को "कल्पवृक्ष" कहते हैं । तुलसीदास जी कहते हैं, जब तक जानकीनाथ रामचन्द्र जी दया करके प्रसन्न न हों तब तक, मनुष्य की कल्पना कल्पवृक्ष की छाया में जाने से भी नहीं मिट सकती ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><b>जप</b>, <b>तप</b>, <b>तीर्थ</b>, <b>व्रत</b>, <b>शम</b>, <b>दम</b>, <b>दया</b>, <b>सत्य</b>, <b>शौच </b>और <b>दान </b>बगैर काम अगर मन में वासना रखकर किये जाते हैं; यानी करनेवाला यदि उनका फल या परस्कार चाहता है, तो उसे स्वर्गादि मिलते हैं । स्वर्ग में जाने से मनुष्य का आवागमन - इस दुनिया में आना और यहाँ से फिर जाना - पैदा होना और मरना - नहीं बन्द हो सकता । क्योंकि कहते हैं - "पुण्य क्षीणे मृत्युलोके", पुण्यों के क्षीण होते ही फिर स्वर्ग से मृत्युलोक में आना पड़ता है, पर मनुष्य का असल मकसद पूरा नहीं होता; यानि उसे परमपद या मोक्ष नहीं मिलता । इसलिए मनुष्य को निष्काम कर्म करने चाहिए । "गीता" में भी यही बात भगवान् कृष्ण ने कही है । बहुत लिखने से क्या - भगवान् की भक्ति सर्वोपरि है । भगवान् की भक्ति से जो काम हो सकता है, वह घोर-से-घोर तपस्याओं से भी नहीं हो सकता । </span><br>
<span style="font-size: large;"><b>किसी ने कहा</b> है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पठित सकल वेदश्शास्त्रपारंगतो वा</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यम नियम पारो वा धर्म्मशास्त्रार्थकृद्वा।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अटित सकल तीर्थव्राजको वाहिताग्निर्नहि</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हृदि यदि रामः सर्वमेतत्वृथा स्यात्।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">चाहे सारे वेद-शास्त्रों को पढ़लो, चाहे यम नियम आदि कर लो, चाहे धर्मशास्त्र को मनन कर लो और चाहे सारे तीर्थ कर लो, अगर आपके दिल में राम नहीं हैं तो सब वृथा है ।</span><br>
<span style="font-size: large;">इसीलिए तुलसीदास जी कहते हैं, कि दोस्तों से दोस्ती और दुश्मनो से दुश्मनी छोड़कर एवं संसार से उदासीन होकर भगवान् से प्रीति करो । मतलब यह है, कि न किसी से राग करो और न किसी से द्वेष; सबको उदासीन होकर देखो । जब आपका दिल राज-द्वेषादि से शुद्ध होगा - इस दुनिया में न कोई आपका प्यारा होगा और न कोई कुप्यारा; तभी आपका दिल एक भगवान् में लगेगा । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>सुंदरदास जी</b> कहते हैं - </span><br>
<b><span style="font-size: large;">१)</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">काहे कूँ फिरत नर! दीन भयो घर-घर।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">देखियत, तेरो तो आहार इक सेर है।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जाको देह सागर में, सुन्यो शत योजन को।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ताहू कूँ तो देत प्रभु, या में नहिं फेर है।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भूको कोउ रहत न, जानिये जगत मांहि।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कीरी अरु कुञ्जर, सबन ही कूँ देत है।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" कहत, विश्वास क्यों न राखे शठ?</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बेर-बेर समझाय, कह्यौ केती बेर है।। २ ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">२)</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">काहे कूँ दौरत है दशहुं दिशि?</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तू नर ! देख कियो हरिजू को।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बैठी रहै दूरिके मुख मुंदी,</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">उघारत दांत खवाइहि टूको।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">गर्भ थके प्रतिपाल करी जिन,</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">होइ रह्यो तबहिं जड़ मूको।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" क्यूँ बिल्लात फिरे अब? </span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">राख ह्रदय विश्वास प्रभु को।। २ ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">१)</span><br>
<span style="font-size: large;">हे पुरुष ! तू दीन होकर क्यों घर-घर मारा-मारा फिरता है ? हैख, तेरा पेट तो एक सेर आते में भर जाता है। सुनते हैं, समुद्र में जिसका शरीर चार सौ कोस लम्बा चौड़ा है, उसको भी प्रभु भोजन पहुंचाते हैं, इसमें ज़रा भी शक नहीं । संसार में कोई भी भूखा नहीं रहता । वह जगदीश चींटी और हाथी सबका पेट भरते हैं । अरे शठ ! विश्वास क्यों नहीं रखता ? सुन्दरदास कहते हैं, मैंने तुझे यह बात बारम्बार कितनी बार नहिं समझाई है ?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">२)</span><br>
<span style="font-size: large;">अरे ! तू दशों दिशाओं में क्यों भागता फिरता है ? तू भगवान् के किये कामों का ख्याल कर। देख, जब तू मुंह बन्द किये हुए छिपा बैठा था, तब भी तुझे खाने को पहुँचाया और जब तेरे दांत आ गए तब भी तेरे मुंह खोलते ही खाने को टुकड़ा दिया । जिस प्रभु ने तेरी गर्भावस्था से ही - जबकि तू जड़ और मूक था - पालना की है, वही क्या अब तेरी खबर न लेगा? सुन्दरदास जी कहते हैं, तू क्यों चीखता फिरता है ? भगवान् का भरोसा रख; वही प्रभु अब भी तेरी पालना करेंगे।</span><br>
<span style="font-size: large;">सारांश यह कि बुद्धिमान को दुनिया के घमण्डी लोगों की खुशामद छोड़, केवल उसकी खुशामद और नौकरी करनी चाहिए, जिसके दिल में न घमण्ड है और न क्रूरता । जो उसकी शरण में जाता है, उसी की वह अवश्य प्रतिपालना करता और उसके दुःख दूर करने को हाज़रा हुज़ूर खड़ा रहता है । मनुष्य ! तेरी ज़िन्दगी अढ़ाई मिनट की है । इस अढ़ाई मिनट की ज़िन्दगी को वृथा बरबाद न कर । इसे ख़तम होते देर न लगेगी । राजाओं और अमीरों की सेवा-टहल और लल्लो-चप्पो में यह शीघ्र ही पूरी हो जाएगी और उनसे तेरी कामना भी सिद्ध न होगी । यदि तू सबका आसरा छोड़, जगदीश की ही चाकरी करेगा; तो निश्चय ही तेरा भला होगा - तेरे दुखों का अवसान हो जायेगा; तुझे फिर जन्म लेकर घोर कष्ट न सहने होंगे; तुझे नित्य और चिरस्थायी शान्ति मिलेगी । अरे ! तू साड़ी चतुराई और चालाकियों को छोड़कर, एक इस चतुराई को कर; क्योंकि यह चातुरी सच्ची चातुरी है । जो जगदीश को प्रसन्न कर लेता है, वही सच्चा चतुर है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">कहा है -</span></b></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">या राका शशि-शोभना गतघना सा यामिनी यामिनी।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">या सौन्दर्य्य-गुणान्विता पतिरता सा कामिनी कामिनी।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">या गोविन्द-रस-प्रमोद मधुरा सा माधुरी माधुरी।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">या लोकद्वय साधनी तनुभृतां सा चातुरी चातुरी।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;">मेघावरण शून्य पूर्ण-चन्द्रमा से शोभायमान जो रात्रि है, वही रात्रि है । जो सुंदरी है, गुणवती है और पति में भक्ति रखनेवाली है, वही कामिनी है । कृष्ण के प्रेम के आनन्द से मनोहर मधुरता ही मधुरता है । शरीरधारियों का दोनों लोक में उपकार करनेवाली जो चतुराई है, वही चतुराई है ।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">दोहा</span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नृप-सेवा में तुच्छ फल, बुरी काल की व्याधि।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अपनों हित चाहत कियो, तौ तू तप आराधि।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<br>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">भोगा मेघवितानमध्यविलसत्सौदामिनीचञ्चला </span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">आयुर्वायुविघट्टिताभ्रपटलीलीनाम्बुवद्भङ्गुरम्।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">लोला यौवनलालसा तनुभृतामित्याकलय्य द्रुतं</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">योगे धैर्यसमाधिसिद्धिसुलभे बुद्धिं विधध्वं बुधाः।। ५४ ।।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b><br></b><b>अर्थ:</b></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">देहधारियों के भोग - विषय सुख - सघन बादलों में चमकनेवाली बिजली की तरह चञ्चल हैं; मनुष्यों की आयु या उम्र हवा से छिन्न भिन्न हुए बादलों के जल के समान क्षणस्थायी या नाशमान है और जवानी की उमंग भी स्थिर नहीं है । इसलिए बुद्धिमानो ! धैर्य से चित्त को एकाग्र करके उसे योगसाधन में लगाओ ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">संसार और संसार के सारे पदार्थ आसार और नाशमान हैं । यहाँ जो दिखाई देता है वह स्थिर न रहेगा। यह जो अथाह जल से भरा हुआ समन्दर दिखाई देता है, किसी दिन मरुस्थल में परिणत हो जाएगा; पानी की एक बूँद भी नहीं मिलेगी । यह बगीचा जो आज इंद्रा के बगीचे की बराबरी कर रहा है, जिसमें हज़ारों तरह के फलों के वृक्ष लगे रहते हैं, हौज़ बने हुए हैं, छोटी छोटी नहरे कटी हुई हैं, संगमरमर और संगे-मूसा के चबूतरे बने हुए हैं, बीच में इन्द्रभवन के जैसा महल खड़ा है, किसी दिन उजाड़ हो जाएगा; इसमें स्यार, लोमड़ी और जरख प्रभृति पशु बसेरा लेंगे । यह जो सामने महलों की नगरी दीखती है, जिसमें हज़ारों दुमंजिले, तिमंज़िले, चौमंज़िले और सतमंज़िले आलिशान मकान खड़े हुए आकाश को चूम रहे हैं, जहाँ लाखों मनुष्यों के आने जाने और काम धंधा करने के कारण पीठ-से-पीठ छिलती है, किसी दिन यहाँ घोर भयानक वन हो जाएगा । मनुष्यों के स्थान में सिंह, बाघ, हाथी, गैंडे, हिरन और स्यार प्रभृति पशु आ बसेंगे । और तो क्या - यह सूर्य, जो अपने तेज से तीनो लोकों प्रकाश फैलता है, अंधकार रूप हो जाएगा । यह अमृत से पूर्ण सुधाकर - चन्द्रमा भी शून्य हो जायेगा । इसकी शीतल चांदनी न जाने कहाँ विलीन हो जाएगी ? हिमालय और सुमेरु जैसे पर्वत एक दिन मिटटी में मिल जायेंगे। यह ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र भी शून्य हो जाएगने । सारा जगत नाश हो जायेगा । ये स्त्री, पुत्र, नाते-रिश्तेदार न जाने कहाँ छिप जायेंगे ? युगों की सहस्त्र चौकड़ियों का ब्राह्मण का एक दिन होता है । उस दिन के पूरे होते ही प्रलय होती है । तब इस जगत की रचना करने वाला ब्रह्मा भी नष्ट हो जाता है । आज तक अनगिनती ब्रह्मा हुए । उन्होंने जगत की रचना की और अंत में स्वयं नष्ट हो गए । जब हमारे पैदा करनेवाले का यह हाल है, तब हमारी क्या गिनती ?</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">या काया - जिसे मनुष्य अपना सर्वस्व समझता है, जिसे मल-मल कर धोता है, इत्र फुलेलों से सुवासित करता, नाना प्रकार के रत्नजड़ित मनोहर गहने पहनता, कष्ट से बचने और सुखी होने के लिए नरम-नरम मखमली गद्दों पर सोता, पैरों को तकलीफ से बचाने के लिए जोड़ी-गाडी या मोटर में चढ़ता है - एक दिन नाश हो जाएगी; पांच तत्वों से बानी हुई काया, पांच तत्वों में ही विलीन हो जाएगी । जिस तरह पत्ते पर पड़ी हुई जल की बूँद क्षणस्थायी होती है; उसी तरह यह काया क्षणभंगुर है । दीपक और बिजली का प्रकाश आता जाता दीखता है, पर इस काया का आदि-अन्त नहीं दीखता । यह काया कहाँ से आती है और कहाँ जाती है । जिस तरह समुद्र में बुद्बुदे उठते और मिट जाते हैं; उसी तरह शरीर बनते और क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं । सच तो यह है कि यह शरीर बिजली की चमक और बादल की छाया की तरह चञ्चल और अस्थिर है । जिस दिन जन्म लिया, उसी दिन मौत पीछे पद गयी; अब वह अपना समय देखती है और समय पूर्ण होते ही प्राणी को नष्ट कर देती है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">जिस तरह जल की तरंगे उठ उठ कर नष्ट हो जाती है; उसी तरह लक्ष्मी आकर क्षणभर में विलीन हो जाती है । जिस तरह बिजली चमक कर गायब हो जाती है; उसी तरह लक्ष्मी दर्शन देकर गायब हो जाती है । हवा और चपला को रोकना अत्यन्त कठिन है, पर शायद कोई उन्हें रोक सके; आकाश का चूर्ण करना अतीव कठिन है, पर शायद कोई आकाश को भी चूर्ण करने में समर्थ हो जाये; समुद्र को भुजाओं से तैरना बाउट कठिन है, पर शायद कोई तैरकर उसे भी पार कर सके; इतने असम्भव काम शायद को सामर्थ्यवान कर सके, पर चञ्चला लक्ष्मी को कोई भी स्थिर नहीं कर सकता। जिस तरह अंजलि में जल नहीं ठहरता; उसी तरह लक्ष्मी भी किसी के पास नहीं ठहरती । जिस तरह वेश्या एक पुरुष से राज़ी नहीं रहती, नित नए पुरुषों को चाहती है; उसी तरह लक्ष्मी भी किसी एक के पास नहीं रहती, नित नए पुरुषों को भजती है । इसी से वेश्या और लक्ष्मी दोनों को ही चपला कहते हैं ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">जिस तरह सांसारिक पदार्थ लक्ष्मी और विषय-भोग तथा आयु चञ्चल और क्षणस्थायी है; उसी तरह यौवन या जवानी भी क्षणस्थायी है । जवानी आते दीखती है, पर जाते मालूम नहीं होती । हवा की अपेक्षा भी तेज़ चाल से दिन-रात होते है और उसी तेज़ी से जवानी झट ख़त्म हो जाती और बुढ़ापा आ जाता है । उस समय विस्मय होने लगता है । यह शरीर तभी तक सुन्दर और मनोहर लगता है, जब तक बुढ़ापा नहीं आता । बुढ़ापा आते ही वह उछल-कूद, वह अकड़-तकड़, वह चमक-दमक, वह सुर्खी, वह छातियों का उभार, वह नयनों का रसीलापन न जाने कहाँ गायब हो जाता है । असल में यौवन के लिए बुढ़ापा, राहु है । जिस तरह चन्द्रमा को जब तक राहु नहीं ग्रसता, तभी तक प्रकाश रहता है; उसी तरह जब तक बुढ़ापा नहीं आता, तभी तक शरीर का सौंदर्य और रूप-लावण्य बना रहता है । प्राणियों को बाल्यावस्था के बाद युवावस्था और युवावस्था के बाद वृद्धावस्था अवश्य आती है । युवावस्था सदा नहीं रहती; अच्छी तरह गहरा विचार करने से जवानी क्षणभर की मालूम होती है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">संसार में जो नाना प्रकार के मनभावन पदार्थ दिखाई देते है, ये सभी नाशमान है । ये सब वास्तव में कुछ भी नहीं; केवल मन की कल्पना से इनकी सृष्टि की गयी है । मूर्ख ही इनमें आस्था रखते हैं, ज्ञानी नहीं ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">इस जगत में ज्ञानी का जीवन सार्थक और अज्ञानी का निरर्थक है । अज्ञानी के जीने से कोई लाभ नहीं। उसके जीने से अर्थ-सिद्धि नहीं होती । वह वृथा सुअवसर गंवाता है । मूर्ख मोह के मारे नहीं समझता, कि ऐसा मौका बड़ी मुश्किल से मिला है । इस बारे चुके तो खैर नहीं । अज्ञानी अपनी अज्ञानता या मोह के कारन ही नाशमान और दुखों के मूल विषयों की ओर दौड़ता है, पर आयु, यौवन और विषयों की क्षणभंगुरता पर ध्यान नहीं देता । यह मायामोह नहीं तो क्या है ?</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">"<b>सुभाषितावली</b>" में लिखा है -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">चला विभूतिः क्षणभंगी यौवनं कृतान्तदन्तान्तर्वर्त्ति जीवितं।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तथाप्यवज्ञा परलोकसाधने नृणामहो विस्मयकारि चेष्टितं।।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">विभूति चञ्चल है, यौवन क्षणभंगुर है, जीवन काल के दांतो में है; तो भी लोग परलोक साधन की परवाह नहीं करते। मनुष्यों की यह चेष्टा विस्मयकारक है !</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">फिरदौसी ने "<b>शाहना</b>" में कहा है - "मनुष्य इस नापायेदार दुनिया से क्यों दिल लगाते हैं; जबकि मौत का नक्कारा दरवाजे पर बज रहा है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">मनुष्यों ! होश करो, गफलत की नींद छोडो। वह देखो ! मौत आपका द्वार खटखटा रही है । अब तो मिथ्या संसार का मोह त्यागो । ये जो स्त्री, पुत्र, भाई, बहन, माता-पिता आदि प्यारे और समबन्धी दिखाई देते है, ये उसी वक्त तक हैं, जब तक की शरीर नाश नहीं हुआ है। शरीर के नाश होते ही ये नज़र भी न आएंगे । यह भी समझ में न आवेगा कि कहाँ से आये थे और कहाँ गए। यह बन्धु-बान्धवों का मिलना उन यात्रियों या मुसाफिरों की तरह है, जो भिन्न-भिन्न स्थानों से सफर करते हुए एक वृक्ष के नीचे आकर ठहर जाते हैं और क्षणभर विश्राम लेकर फिर अपनी अपनी राह पर चल देते हैं या उन मुसाफिरों की तरह है, जो अनेक स्थानों से आकर एक सराय या धर्मशाला में ठहरते हैं; और फिर कोई दो दिन, कोई चार दिन ठहर कर अपनी अपनी जगह को चल देते हैं । वृक्षों के नीचे चन्द मिनट ठहरने वालों अथवा सराय के मुसाफिरों का आपस में प्रीती करना क्या अक्लमन्दी है ? जिनका क्षणभर का साथ है, उनमें दिल फंसना, दुःख मोल लेना है । उनके अलग होते ही मन में भयानक वेदना होगी, अतः उनके साथ कोई सरोकार न रखना चाहिए । यह संसार दो स्थानों के बीच का स्थान है । यात्री यहाँ आकर क्षणभर के लिए आराम करते और फिर आगे चले जाते हैं । ऐसे यात्रियों का आपस में मेल बढ़ाना, एक-दुसरे की मुहब्बत के फन्दे में फंसना, सचमुच ही दुःखोत्पादक है । समझदार लोग, मुसाफिरों से दिल नहीं लगाते - उनसे प्रेम नहीं करते - उन्हें अपना-पराया नहीं समझते । न उन्हें किसी से राग है न द्वेष। वे सबको समदृष्टि या एक नज़र से देखते हुए सहाय्य करते और उनका कष्ट निवारण करते हैं, पर उनसे प्रीती नहीं करते; लेकिन मूर्ख लोग स्त्री-पुत्र और माता-पिता प्रभृति को अपना प्यारा समझते और दूसरों को पराया समझते हैं । इस जगत में न कोई अपना है न कोई पराया । यह जगत एक वृक्ष है । इस पर हज़ारों लाखों पक्षी भिन्न भिन्न स्थानों से आकर रात को बसेरा लेते और सवेरे ही अपने अपने स्थानों को उड़ जाते हैं भिन्न भिन्न स्थानों से आये हुए पक्षियों को क्या रातभर के साथ के लिए आपस में नाता जोड़ना चाहिए? हरगिज़ नहीं। दूसरों से समबन्ध जोड़ना, किसी को अपना पुत्र और किसी को अपनी स्त्री एवं किसी को माँ या बहन समझकर स्नेह करना तो मूर्खता ही है । स्नेह तो अपनी काया से भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह भी क्षणभंगुर है - सदा साथ न रहेगी ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा सुन्दरदास</b> जी कहते हैं -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बालू के मन्दिर मांहि, बैठी रह्यो स्थिर होइ ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">राखत है जीवन की आश, केउ दिन की।।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">पल-पल छीजत, घटत जाट घरी-घरी।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विनाशत बेर कहाँ? खबर न छिन की।।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">करत उपाय, झूठे लेन-देन खान-पान।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मूसा इत-उत फायर, ताकि रही मिनकी।। १ ।।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><br></span><span style="background-color: #fff2cc;">देह सनेह न छाँडत है नर।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जानत है थिर है ये देहा।।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">छीजत जात घटै दिन ही दिन।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दीसत है घट को नित छेहा।।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">काल अचानक आय गहे कर।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ठाँह गिराई करे तन खेहा।।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">"सुन्दर" जानि यह निहचै धर।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">एक निरंजन सूँ कर नेहा।।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">अरे मूर्ख ! तू इस शरीर की मुहब्बत नहीं छोड़ता, यह तेरी बड़ी भूल है । तू इस बालू के घर को स्थिर या चिरस्थायी समझता है; पर यह दिन-पर-दिन छीजता और घटता जाता है । हमें तो इस घट का नित्य क्षय ही दीखता है । देख, किसी दिन काल अचानक आकर तेरे हाथ पकड़ लेगा और तुझे गिराकर तेरे शरीर को ख़ाक कर देगा । सुन्दरदास जी कहते हैं - अरे मूर्ख ! तू मेरी बात को - मेरी सलाह को ठीक समझ, इसमें मीन मेख न लगा । यह अटल बात है और बातों में चाहे फर्क पड़ जाय पर इसमें फर्क नहीं पड़ने का । इसलिए तू अपने इस शरीर से, अपने स्त्री-पुत्रों से और अपनी दौलत से मुहब्बत छोड़कर, एकमात्र जगदीश से प्रेम कर । उनसे स्नेह करेगा तो सदा सुख पायेगा और इनसे मुहब्बत रखेगा तो घोरातिघोर दुःख भोगेगा ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं - अरे अज्ञानी मनुष्य ! मुझे तेरी इस बात पर बड़ा ही अचम्भा आता है कि तू इस बालू के मकान में निःशंक और मस्त होकर बैठा हुआ है और कितने ही दिनों तक जीने की उम्मीद रखता है । यह तेरा बालू का घर, हर क्षण छीजता और घटता जाता है। इसको नाश होते कितनी देर लगेगी ? मुझे तो एक पल का भी भरोसा नहीं है । तू इस बालू के क्षणभंगुर घर में बेखटके बैठा हुआ अनेक तरह के झूठे उपाय-उद्योग, लेन-देन और खान-पान करता है । तू चूहे की तरह इधर-उधर उछलता कूदता फिरता है । क्या तुझे खबर नहीं कि जिस तरह बिल्ली, चूहे की ताक में बैठी रहती है; उसी तरह तेरी घात में मौत बैठी है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>खुलासा </b>- ज़रा भी समझ रखनेवाले समझ सकते हैं कि प्राणियों के शरीर के भीतर कोई ऐसी चीज़ है, जिसके रहने से प्राणी चलते-फिरते, काम-धंधा करते और ज़िंदा समझे जाते हैं । जिस वक्त वह चीज़ शरीर से निकल जाती है, उस वक्त मनुष्य मुर्दा हो जाता है, उस समय वह न तो चल-फिर सकता है, न देख-सुन या कोई और काम कर सकता है । जिस चीज़ के प्रकाश से शरीर में प्रकाश रहता है, जिसके बल से यह काम-धंधे करता और बोलता चालता है, उसे जीव या आत्मा कहते हैं । हमारा शरीर हमारे आत्मा के रहने का घर है । जिस तरह मकान में मोरी, परनाले, खिड़की और जंगले होते हैं; उसी तरह आत्मा के रहने के इस शरीर रुपी घर में भी मोरी और परनाले वगैरह हैं । आँख, कान, नाक और मुंह प्रभृति इस शरीर रुपी घर के द्वार और गुदा-लिङ्ग या योनि वगैरह मोरी-परनाले हैं । शरीर के करोड़ों छेद इस मकान के जंगले और खिड़कियां हैं । मतलब यह कि, यह शरीर आत्मा या जीव के बसने का घर है । यह घर मिटटी और जल प्रभृति पञ्च-तत्वों से बना हुआ है इस घर के बनाने वाला कारीगर परमात्मा है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">जिस तरह परमात्मा ने आत्मा के रहने के लिए पांच तत्वों से बने यह शरीर रुपी घर बना दिया है; उसी तरह हमने भी अपने इस आत्मा के शरीर की रक्षा के लिए - मेह पानी और धूप आदि से बचने के लिए - मिटटी या ईंट पत्थर प्रभृति के मकान बना लिए है । हमारे बनाये हुए ईंट पत्थरों के मकान सौ-सौ, दो-दो सौ और पांच-पांच सौ बरसों तक रह सकते हैं । हज़ार हज़ार बरस से ज्यादा मुद्दत के बने हुए मकान आज तक खड़े हुए हैं । पर हमारे आत्मा के रहने का पञ्च तत्वों से बना हुआ मकान इतना मजबूत नहीं - वह क्षणभर में ढह जाता है । इसलिए इस आत्मा के मकान - शरीर - को महात्मा सुन्दरदास जी बालू का मकान कहते हैं । क्योंकि बालू का मकान इधर बनता और उधर गिर पड़ता है । उसकी उम्र पल भर की भी नहीं । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">मनुष्य अज्ञान और मोह से अँधा रहने के कारण, इस बालू के मकान की क्षणभंगुरता का कभी ख्याल भी नहीं करता । वह इस बालू के मकान में ही सैकड़ों बरसों तक रहने की आशा करता है ! मनुष्य की इस गफलत और बेहोशीपर पूर्णज्ञानी महात्मा सुन्दरदास जी को दुःख और आश्चर्य होता है । महापुरुष सदा पराया भला चाहा करते हैं; वे दूसरों को दुःख और क्लेशों से बचाना अपना कर्तव्य और फ़र्ज़ समझते हैं, इसलिए वे अज्ञानान्धकार में डूबे हुए मनुष्यों को सावधान करने के लिए कहते हैं - अरे मूर्ख ! तू इस बालू के घर में रहकर भी बरसों जीने की - इस घर में रहने की - आशा करता है ? अरे नादान ! होश कर ! जाग ! तेरा यह बालू का घर पलक मारते गिर जायेगा ! जबसे तू इस बालू के घर में आया है, तभी से इसकी नींव हिलने लग गयी है । एक मिनट या एक सेकंड में ये गिर सकता है । ऐसे क्षणभंगुर घर में रहकर तू मकान बनवाता है; बाग़-बगीचे लगवाता है; किसी को अपनी स्त्री, किसी को अपना पुत्र और किसी को अपना बाप, भाई या मित्र समझता है; इनके मोह-जाल में फंसता है; बेहोशी में, लोग पर अत्याचार और जुल्म करता एवं पराया धन हडपता है ! मुझे तेरी इन करतूतों को देखकर बिहायत आश्चर्य भी होता और दुःख भी होता है ! सच तो यह है कि, मुझे तेरी नादानी पर तरस आता है । खैर, जो हुआ सो हुआ, अब भी चेत जा !! धन-दौलत, स्त्री-पुत्र, राज-पाट और ज़मींदारी का मोह त्यागकर अपने बनानेवाले कि शरण में जा । वही तेरे इस बालू के घर में बारम्बार आने और क्षणभर में इसे छोड़ भागने के घोर कष्ट को दूर कर सकता है । अगर तू इस जञ्जाल में फंसा रहेगा, मेरी बात पर ध्यान न देगा, तो पीछे बहुत पछतावेगा । जिस समय तेरा यह घर गिरने पर आवेगा, तू इसे छोड़ने के लिए मजबूर होगा; उस समय तू हज़ार चाहने और हज़ार रोने-कलपनेपर भी इसमें क्षणभर भी न रह सकेगा । जब तक तू इस बालू के घर में है, तभी तक तेरी स्त्री और तभी तक तेरा पुत्र और धन-दौलत आदि हैं । जहाँ तैने यह घर छोड़ा या तेरा यह घर गिरा; फिर न तुझे स्त्री दीखेगी, न पुत्र दीखेगा और न धन-दौलत ही । यह बालू का घर तुझे क्षणभर के लिए, इस गरज़ से मिला है कि, तू इसमें जितनी देर रहे उतनी देर जगदीश की भक्ति करके, अपने कर्मबन्धन काटले और जन्म-मरण के झंझटों से बचकर, अपने मालिक में मिल जावे; ताकि फिर तुझे कभी दुःख न भोगने पड़े - तू सदा-सर्वदा - अनन्त काल तक नित्य और अविनाशी सुख भोगता रहे ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">लक्ष्मी क्षणभंगुर है । समुद्र में जिस तरह तरंगे उठती और विलीन हो जाती हैं; उसी तरह लक्ष्मी से विषय-भोग उपजते और नष्ट हो जाते हैं । जिस तरह चपला की चमक स्थिर नहीं रहती; उसी तरह भोग भी स्थिर नहीं रहते । विषयों के भोगने से तृष्णा घटती नहीं, बल्कि बढ़ती है । तृष्णा के उदय होने से पुरुष के सब गन नष्ट हो जाते हैं । दूध में मधुरता उसी समय तक रहती है, जब तक की उसे सर्प नहीं छूता; पुरुष में गन भी उसी समय तक रहते हैं, जब तक कि तृष्णा का स्पर्श नहीं होता । अतः बुद्धिमानो ! अनित्य, नाशमान एवं दुखों कि खान, विष-समान विषयों से दूर रखो; क्योंकि इनमें ज़रा भी सुख नहीं । जब तक विषय-भोग रहेंगे तभी तक आप सुखी रहेंगे; पर एक-न-एक दिन उनसे आप का वियोग अवश्य होगा; उस समय आप तृष्णा कि आग में जलोगे, बारम्बार जन्म लोगे और मरोगे; अतः इन्द्रियों को वश में करो और एकाग्र चित्त से परमात्मा का भजन करो; क्योंकि विषयों को भोगने से नरकाग्नि में जलोगे और जन्म-मरण के घोर संकट सहोगे; पर परमात्मा के भजन या योगसाधन से नित्य सुख भोगते हुए परमानन्द में लीन हो जाओगे ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">बहुत से मनुष्य मन को एकाग्र नहीं करते, पर दिखावटी माला जपते हैं, गोमुखी में सड़ा-सड़ हाथ चलते हैं, "<b>गीता</b>" और "<b>विष्णु सहस्त्रनाम</b>" प्रभृति का पाठ करते हैं और बीच बीच में कारोबार की बातें भी करते रहते हैं अथवा स्त्री बच्चो के झगडे निपटाया करते हैं । ऐसे भजन करने और माला फेरने से कोई लाभ नहीं । इस तरह समय वृथा नष्ट होता है । मन के एक ठौर हुए बिना, शांत और स्थिर हुए बिना सब वृथा है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा कबीर</b> ने ठीक ही कहा है -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जेती लहर समुद्र की, तेति मन की दौरि।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सहजै हीरा उपजै, जो मन आवै ठौरि।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">माला फेरत युग गया, पाया न मनका फेर।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कर का मनका छाँड़ि के, मन का मनका फेर।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मूँड़ मुड़ावत दिन गए, अजहुँ न मिलिया राम।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">राम नाम कहो क्या करै, मन के औरे काम।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तन को योगी सब करें, मन को विरला कोय।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सहजै सब विधि पाइये, जो मन योगी होय।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">जितनी समुद्र की लहरें है; उतनी ही मन की दौड़ है। अगर मन ठिकाने आ जाय, उसमें समुद्र की सी तरंगे न उठें, तो सहज हीरा पैदा हो जाय; यानी परमात्मा मिल जाय ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">माला फेरते-फेरते युग बीत गया, पर मनका फेर न मिला; अतः हाथ का मनिया छोड़कर, मनका मनिया फेर। हाथ की माला फेरने से कोई लाभ नहीं; लाभ है मन की माला फेरने से । मन लगाकर एक बार भी ईश्वर को याद करने से बड़ा फल मिलता है; पर चञ्चल चित्त से दिन-रात माला फेरने से भी कुछ नहीं मिलता ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">मूँड़ मुड़ाते अनेक दिन हो गए, पर आज तक भगवान् न मिले । मिले कैसे ? मन राम में लगे तब तो राम मिले ? जिस तरह रवि और रजनी - दिन और रात - एकत्र नहीं होते, उसी तरह राम और काम एकत्र नहीं मिलते । जहाँ काम है, वह राम नहीं और जहाँ राम है, वह काम नहीं ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">तन को योगी सब करते हैं, पर मन को कोई ही योगी करता है । अगर मन होगी हो जाय, तो सहज में सिद्धि मिल जाय । लोग गेरुए कपडे पहन लेते हैं, जटा रखा लेते हैं, हाथ में कमण्डल और बगल में मृगछाला ले लेते हैं - इस तरह योगी बन जाते हैं, पर मन उनका संसारी भोगो में ही लगा रहता है; इसलिए उन्हें सिद्धि नहीं मिलती - ईश्वर दर्शन नहीं होता । अगर वे लोग कपडे चाहें गृहस्थों के ही पहनें, गृशस्थों की तरह ही खाएं-पीएं; पर मन को एक परमात्मा में रक्खें, तो निश्चय ही उन्हें भगवान् मिल जाएं । जो मनुष्य गृशस्थ आश्रम में रहता है, पर उसमें आसक्ति नहीं रखता, यानी जल में कमल की तरह रहता है, उसकी मुक्ति निश्चय ही हो जाती है; पर जो सन्यासी होकर विषयों में आसक्ति रखता है उसकी मोक्ष नहीं होती । राजा जनक गृहस्थी में रहते थे; सब तरह के राजभोग भोगते थे; पर भोगों में उनकी आसक्ति नहीं थी, इसी से उनकी मुक्ति हो गयी ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>सारांश </b>- विषय-भोग, आयु और यौवन को अनित्य और क्षणभंगुर समझकर इनमें आसक्ति न रखो और मन को एकाग्र करके हर क्षण परमात्मा का भजन करो - तो जन्म-मरण से छुटकारा मिल जाय और परमानन्द की प्राप्ति हो जाय । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>कबीरदास जी</b> कहते हैं -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कहा भरोसो देह को, विनसि जाय छीन मांहि।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">श्वास श्वास सुमिरन करो, और जतन कछु नांहि।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">इस शरीर का क्या भरोसा ? यह क्षणभर में नष्ट हो जाय । इस दशा में सर्वोत्तम उपाय यही है कि, हर सांस पर परमात्मा का नाम लो । बिना उसके नाम के कोई सांस न जाने पावे । बस, इससे बढ़कर उद्धार का और उपाय नहीं है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">कुण्डलिया</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">--------------</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जैसे चञ्चल चञ्चला, त्योंही चञ्चल भोग।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तैसेही यह आयु है, ज्यों घट पवन प्रयोग।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ज्यों घट पवन प्रयोग, तरल त्योंही यौवन तन।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विनस न लगत न वार, गहत ह्वै जात ओसकन।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">देख्यौ दुःसह दुःख, देहधारिन को ऐसे।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">साधत सन्त समाधि, व्याधि सों छूटत जैसे।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<br></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">विनस - विनाश; वार - समय; गहत - पकड़ते हो; ओसकन - ओंस के कण </span></div>
</div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">पुण्ये ग्रामे वने वा महति सितपटच्छन्नपालिं कपाली-</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">मादाय न्यायगर्भद्विजहुतहुतभुग्धूमधूम्रोपकण्ठं।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">द्वारंद्वारं प्रवृत्तो वरमुदरदरीपूरणाय क्षुधार्तो</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">मानी प्राणी स धन्यो न पुनरनुदिनं तुल्यकुल्येषुदीनः।। ५५ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">वह क्षुधार्त किन्तु मानी पुरुष, जो अपने पेट-रुपी खड्डे के भरने के लिए हाथ में पवित्र साफ़ कपडे से ढका हुआ ठीकरा लेकर वन-वन और गांव-गांव घूमता है और उनके दरवाज़े पर जाता है, जिनकी चौखट न्यायतः विद्वान ब्राह्मणो द्वारा कराये हुए हवन के धुएं से मलिन हो रही है, अच्छा है; किन्तु वह अच्छा नहीं, जो समान कुलवालों के यहाँ जाकर मांगता है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>तुलसीदास जी</b> ने भी कहा है -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">घर में भूखा पड़ रहे, दस फाके हो जाएँ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुलसी भैय्या बन्धु के, कबहुँ न माँगन जाय।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">तुलसीदास जी कहते है, अगर मनुष्य के पास खाने को न हो, उसको उपवास करते करते दस दिन बीत जाएं, अन्न बिना प्राण नाश होने की सम्भावना हो; तो भी उसे अपनी या अपने परिवार की जीवन रक्षा के लिए, कुछ मिलने की आशा से, भाई बन्धुओं के पास हरगिज़ न जाना चाहिए । क्योंकि ऐसे मौके पर वे लोग उसका अपमान करते हैं । उस अपमान का दुःख भोजन बिना प्राण नाश होने के दुःख से अधिक दुःखदायी होता है । मृत्यु की यंत्रणाओं का सहना आसान है, पर उस अपमान को सहना कठिन है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">और भी <b>किसी </b>ने कहा है -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्र सेवितं।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">द्रमालयः पक्कफलाम्बु भोजनं।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तृणानि शय्या परिधान वल्कलं।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">न बन्धुमध्ये धनहीन जीवनं।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">व्याघ्र और हाथियों से भरे हुए जंगल में रहना भला, वृक्षों के नीचे बसना भला, पके-पके फल खाना और जल पीना भला, घास पर सो रहना और छालों के कपडे पहन लेना भला; पर भाइयों के बीच में धनहीन होकर रहना भला नहीं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<br>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">चाण्डाल किमयं द्विजातिरथवा शूद्रोऽथ किं तापसः</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">किं वा तत्त्वविवेकपेशलमतिर्योगीश्वरः कोऽपि किम्।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">इत्युत्पन्नविकल्पजल्पमुखरैः सम्भाष्यमाणा जनैः</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">न क्रुद्धाः पथि नैव तुष्टमनसो यान्ति स्वयं योगिनः।। ५६ ।।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">यह चाण्डाल है या ब्राह्मण है? यह शूद्र है या तपस्वी है? क्या यह तत्वविद योगीश्वर है ? लोगों द्वारा ऐसी अनेक प्रकार की संशय और तर्कयुक्त बातें सुनकर भी योगी लोग न नाराज़ होते हैं न खुश; वे तो सावधान चित्त से अपनी राह चले जाते हैं । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">योगीजन लोगों की बुरी भली बातों का ख्याल नहीं करते; कोई कुछ भी क्यों न कहा करे । चाहे उन्हें कोई शूद्र कहे, चाहे ब्राह्मण, चाहे भंगी और चाहे तपस्वी; चाहे कोई निंदा करे, चाहे स्तुति; वे अच्छी बात से प्रसन्न और बुरी बात से अप्रसन्न नहीं होते सच्चे महात्मा हर्ष शोक, दुःख-सुख और मान-अपमान सबको समान समझते हैं । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>योगेश्वर कृष्ण</b> ने "<b>गीता</b>" के दुसरे अध्याय में कहा है -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">जो दुःख के समय दुखी नहीं होता; जो राग, भय और क्रोध से रहित है, वह "स्थितप्रज्ञ" मुनि है।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">बुद्धिमान को किसी बात की परवाह न करनी चाहिए । हाथी की तरह रहना चाहिए । हाथी के पीछे हज़ारों कुत्ते भौंकते हैं, पर वह उनकी तरफ देखता भी नहीं ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा कबीरदास जी</b> कहते हैं - </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हस्ती चढ़िये ज्ञान के, सहज हुलीचा डारि।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">श्वान-रूप संसार है, भूसनदे झकमारि।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"कबिरा" काहे को डरै, सिर पर सिरजनहार?</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हस्ती चढ़ दुरिये नहीं, कूकर भूसे हज़ार।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>महाकवि रहीम</b> कहते हैं -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जो बड़ेन को लघु कहौ, नहिं "रहीम" घट जाहिं।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सज्जन चित्त कबहुँ न धरत, दुर्जन जान के बोल।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पाहन मारे आम को, तउ फल देत अमोल।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">आप ज्ञान रुपी हाथी पर चढ़कर मस्त हो जाओ; किसी की परवा मत करो; बकनेवालों को बकने दो । यह संसार कुत्ते की तरह है । इसे भौंकने दो । झकमार कर आप ही रह जायेगा । देखते हो, जब हाथी निकलता है, सैकड़ों कुत्ते उसके पीछे पीछे भौंकते हैं; पर वह अपनी स्वाभाविक चाल से, मस्त हुआ, शान से चला जाता है - कुत्तों की तरफ नज़र उठाकर भी नहीं देखता । वह तो चला ही जाता है और कुत्ते भी झकमार के चुप हो जाते हैं । मतलब यह है कि तुम अच्छी राह पर चलो, संसार की बुरी भली बातों पर ध्यान मत दो । हाथी का अनुकरण करो ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">कबीरदास कहते हैं - अरे मनुष्य ! तू क्यों डरता है, जबकि तेरे पास तेरा बनानेवाला मौजूद है ? हाथी पर चढ़कर भागना उचित नहीं, चाहे हज़ारों कुत्ते क्यों न भौंके । मतलब यह कि तुमने जो उत्तम पथ अख्तियार किया है, लोगो के बुरा भला कहने से उसे मत त्यागो । संसारी कुत्तों से न डरो, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करेगा ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">रहीम कवी कहते हैं, बड़ो को छोटा कहने से बड़े छोटे नहीं हो जाते - वे तो बड़े ही रहते हैं । गिरिराज या गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी ऊँगली पर उठानेवाले - अतुल पराक्रम दिखनेवाले कृष्ण को लोग गिरिधर की जगह मुरली या बांस की बांसुरी धारण करनेवाले मुरलीधर कहते हैं, लेकिन वे बुरा नहीं मानते ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">सज्जन लोग दुष्टों की कड़वी बातों या बोली-ठोलियों का ख्याल ही नहीं करते । लोग आम के वृक्ष के पत्थर मारते हैं, तो भी वह अनमोल फल ही देता है ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">------</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विप्र शूद्र योगी तपी, सुपच कहत कर ठोक।</span></span></div>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"></span><br></span>
<br>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सबकी बातें सुनत हों, मोको हर्ष न शोक।।</span></span></div>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">सोरठा </span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विप्रन के घर जाय, भीख माँगिबो है भलो।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बन्धुन को सिरनाय, भोजनहु करिबो बुरो।।</span></span></div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">सखे धन्याः केचित्त्रुटितभवबन्धव्यतिकरा</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">वनान्ते चिन्तान्तर्विषमविषयाशीविषगताः।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">शरच्चन्द्रज्योत्स्नाधवलगगना भोगसुभगां </span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">नयन्ते ये रात्रिं सुकृतचयचित्तैकशरणाः।। ५६ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">हे मित्र ! वे पुरुष धन्य हैं, जो शरद के चन्द्रमा की चांदनी से सफ़ेद हुए आकाशमण्डल से सुन्दर और मनोहर रात को वन में बिताते हैं, जिन्होंने संसार बन्धन को काट दिया है, जिनके अन्तः-करण से भयानक सर्प-रुपी विषय निकल गए हैं और जो सुकर्मों को ही अपना रक्षक समझते हैं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">वही लोग सुखी हैं, वे ही लोग धन्य हैं, जो शरद की चांदनी की मनोहर रात में वन में बैठे हुए परमात्मा का भजन करते हैं, जिन्होंने संसार के जञ्जालों को काट दिया है, जिन्होंने आशा, तृष्णा और राग-द्वेष प्रभृति क्या त्याग दिया है, जिनके भीतरी दिल से विषय रुपी विषैले सर्प भाग गए हैं; यानी जिन्होंने विषयों को विष की तरह दूर कर दिया है, जिनका चित्त केवल पुण्य और परोपकार में ही लगा रहता है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">हमें संसार की प्रत्येक चीज़ से परोपकार की शिक्षा मिलती है । वृक्ष स्वयं फल नहीं खाते, नदियां आप जल नहीं पीती, सूरज और चाँद अपने लिए नहीं घुमते, बादल अपने लिए मेह नहीं बरसाते - ये सब पराये लिए कष्ट करते हैं । हातिम और विक्रम ने पराये लिए नाना कष्ट उठाये, दधीचि और शिवि ने परोपकार के लिए अपने अपने शरीर भी दे दिए , हरिश्चन्द्र ने पराये लिए घोर दुःसह विपत्ति भोगी । जिनका जीवन परोपकार में बीतता है, उन्ही का जीवन धन्य है । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>शेख सादी</b> ने "<b>गुलिस्तां</b>" में कहा है -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चूं इन्सारा न बाशद फ़ज़लो एहसाँ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चे फ़र्क़ज़ आदमी ता नक़श दीवार।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">यदि मनुष्य में परोपकार करने की इच्छा ही नहीं है, तो उसमें और दीवार पर खींचे हुए चित्र में क्या फर्क है ? </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जिससे प्राणी मात्रा का भला हो, वही मनुष्य धन्य है । उसी की माँ का पुत्र जानना सार्थक है । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">"<b>रहीम</b>" कवी कहते हैं -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बड़े दीन को दुख सुने, देत दया उर आनि।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हरि हाथी सों कब हती, कहु "रहीम" पहिचानि ?</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">धनि "रहीम" जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाय? ।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">बड़े लोग दीन और दरिद्रों, निरन्न और दुखियों एवं म्लान और भीतों यानि ख़ौफ़ज़दों की बातें सुनते हैं, उनकी दुख-गाथाओं पर कान देते हैं; फिर ह्रदय में तरस खाकर - दया करके उन्हें कुछ देते और उनका दुख दूर करते हैं । वे इस बात को नहीं देखते कि यह हमारी पहचान का है कि नहीं; यह हमारा अपना आदमी है या गैर है । देखिये, हाथी और भगवान् की पहचान नहीं थी । फिर भी ज्योंही भगवान् को खबर मिली कि गजराज का पैर मगर ने पकड़ लिया है, अब गज का जीवन शेष होना चाहता है, उसने खूब ज़ोर मार लिया है, उसे अपने बचने की ज़रा भी आशा नहीं, इसलिए अब वह तुझे पुकार रहा है; त्योंही, जान-पहचान न होने पर भी भगवान् जल्दी के मारे नंगे पैरों भागे और हाथी की जान बचायी । गज और ग्राह की बात मशहूर है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">मतलब यह है कि जिससे दूसरों की भलाई हो, दूसरों का दुःख दूर हो वही बड़ा है । वह बड़ा - बड़ा नहीं जिससे दूसरों का उपकार न हो । जो दीनों पर दया करते हैं, दीनों की पालना और रक्षा करते हैं, दीनों के दुःख दूर करते हैं, वे ही बड़े कहलाने योग्य हैं । भगवान् में ये गुण पूर्ण रूप से हैं; इसी से उन्हें दीनदयालु, दीनबन्धु, दीननाथ, दीनवत्सल, दीनपालक और दीनरक्षक आदि कहते हैं । मनुष्य को भगवान् ने अपने जैसा ही बनाया है, वे चाहते हैं कि मनुष्य मेरा अनुकरण करे; दीन दुखियों के दुःख दूर करे, संकट में उनकी सहायता करे, मुसीबत में उन्हें मदद दे । जो मनुष्य ऐसा करते हैं, उन्हें भी संसार दीनबन्धु आदि पदवियाँ देता है और सबसे बड़े दीनबन्धु उससे प्रसन्न होकर, उसकी साड़ी कल्पनाओं को मिटा देते हैं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">रहीम कवी कहते हैं - कीचड का पानी धन्य है, जिसे छोटे छोटे जीव - कीड़े-मकोड़े धापकर पीते हैं । समुद्र चाहे जितना बड़ा है, पर उसमें तारीफ की कोई बात नहीं, क्योंकि उसके पास जाकर किसी की प्यास नहीं बुझती; जो भी जाता है उसके पास से प्यासा ही लौटता है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ते नर जग में धन्य हैं, शरदर्शुभ्र निशि मांहि।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तोड़े बन्धन जगत के, मनते विषयन काहि।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">सोरठा </span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विषय-सर्प को मारि, चित्त लगाय शुभ कर्म में।</span></span></div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पुण्यकर्म शुभधारि, त्यागे सब मन-वासना।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">तस्माद्विरमेन्द्रियार्थ गहनादायासदादाशु च</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">श्रेयोमार्गमशेषदुःखशमनव्यापारदक्षं क्षणाम्।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">शान्तिं भावमुपैहि संत्यज निजां कल्लोललोलां मतिं</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">मा भूयो भज भङ्गुरां भवरतिं चेतः प्रसीदाधुना।। ५८ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">हे चित्त ! अब विश्राम ले, इन्द्रियों के सुख सम्पादन के लिए विषयों की खोज में कठोर परिश्रम न कर; आन्तरिक शान्ति की चेष्टा कर, जिससे कल्याण हो और दुःखों का नाश हो; तरंग के समान चञ्चल चाल को छोड़ दे; संसारी पदार्थों में और सुख न मान; क्योंकि ये असार और नाशमान हैं । बहुत कहना व्यर्थ है, अब तू अपने आत्मा में ही सुख मान ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">अरे दिल ! अब तू इन्द्रियों के लिए विषय-सुखों की खोज में मत भरम, उनके लिए तकलीफ न उठा, शान्त हो जा; उनमें कुछ भी सुख नहीं है, वे तो विष से भी बुरे और काले नाग से भी भयङ्कर हैं । अरे ! अब तो मेरा कहना मान और अपनी चालों को छोड़ । देख तेरे सर पर काल मण्डरा रहा है । वह एक ही बार में तुझे निगल जायेगा । अरे भैय्या, ये इन्द्रियां बड़ी ख़राब हैं, इनमें दया-मया नहीं, यह शैतान की तरह कुराह पर ले जाती हैं । तू इनसे सावधान रह और इनके भुलावे में न आ । अब शान्त हो और कष्ट सहना सीख । अपनी चञ्चल चाल छोड़, जगत को असार और स्वप्नवत समझ । इस जञ्जाल से अलग हो । बारम्बार इसी की इच्छा न कर । अपनी आत्मा में ही मग्न हो । इस तरह अवश्य तेरा कल्याण होगा ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">कल्याण कैसा? जब तू ज्योति-स्वरुप आत्मा को देख लेगा, तब तू उसी में संतुष्ट रहेगा, उससे कभी न डिगेगा, उसके आगे सब लाभ तुझे हेय जंचेंगे । योगेश्वर कृष्ण ने ऐसी ही बात गीता के छठे अध्याय में कही है । उस सुख को सब नहीं जान सकते, जो अनुभव करता है वही जानता है । उसे कोई कह कर बता नहीं सकता ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>कबीरदास </b>कहते हैं -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ज्यों नर नारी के स्वाद को, खसी नहीं पहचान ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">त्यों ज्ञानी के सुख को, अज्ञानी नहीं जान ।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">स्त्री-पुरुष के सुख को जैसे हिजड़ा नहीं जान सकता, वैसे ही ज्ञानी के सुख को अज्ञानी नहीं जान सकता । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">------------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अरे चित्त ! कर कृपा, त्याग तू अपनी चालहि।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">शिर पर नाचत खड़्यौ, जान तू ऐसे कालहि ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ये इन्द्रियगण निठुर, मान मत इनको कहिबौ ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">शांतभाव कर ग्रहण, सीख कठिनाई सहिबौ ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">निजमति तरंग-सम चपल तजि, नाशवान जग जानिये ।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जनि करहु तासु इच्छा कछु, शिव-स्वरुप उर आनिये ।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: medium;"></span></span><br></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<br>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">पुण्यैर्मूलफलैः प्रिये प्रणयिनि प्रीतिं कुरुष्वाधुना</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">भूशय्या नववल्कलैरकर्णैरुत्तिष्ठ यामो वनं।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">क्षुद्राणांविवेकमूढमनसां यत्रेश्वराणाम् सदा</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">चित्तव्याध्यविवेकविल्हलगिरां नामापि न श्रूयते।। ५९ ।।</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">ऐ प्यारी बुद्धि ! अब तू पवित्र फल-मूलों से अपनी गुज़र कर; बानी बनाई भूमि-शय्या और वृक्षों की छाल के वस्त्रों से अपना निर्वाह कर । उठ, हम तो वन को जाते हैं । वहां उन मूर्ख और तंगदिल अमीरों का नाम भी नहीं सुनाई देता, जिन की ज़बान, धन की बीमारी के कारण उनके वश में नहीं है । </span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">जिन धनवानों की ज़बान में लगाम नहीं है, जो अपनी धन की बीमारी के कारण मुंह से चाहे जो निकाल बैठते हैं, ऐसे मदान्ध और नीच धनी जंगलों में नहीं रहते, इसलिए बुद्धिमानो को वह चला जाना चाहिए । वहां कहे का अभाव है ? खाने को फलमूल हैं, पीने को शीतल जल है, रहने को वृक्षों की शीतल छाया है और सोने को पृथ्वी है । वह दुःख नहीं है, अशान्ति नहीं है; किन्तु और सभी जीवनधारणोपयोगी पदार्थ हैं ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">जो आशा को त्याग देंगे, वह तो धनियों के दास होंगे ही क्यों ? पर धनियों को भी इतराना न चाहिए । यह धन सदा उनके पास न रहेगा । इसे वे अपने साथ न ले जायेंगे । सम्भव है, यह उनके सामने ही विलाय जाय । फिर ऐसे चञ्चल धन पर अभिमान किसलिए ?</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>किसी ने कहा है</b> -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कितने मुफ़लिस हो गए, कितने तवंगर हो गए।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ख़ाक में जब मिल गए, दोनों बराबर हो गए।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">धनी और निर्धन का भेद तभी तक है, जब तक कि मनुष्य ज़िंदा है; मरने पर सभी बराबर हो जाते हैं ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>गिरिधर कवी</b> कहते हैं -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">कुण्डलिया</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">-------------</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दौलत पाय न कीजिये, सपने में अभिमान।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चञ्चल जल दिन चारिकौ, ठाउँ न रहत निदान।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ठाउँ न रहत निदान, जियत जग यश लीजै।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मीठे वचन सुनाय, विनय सब ही की कीजै।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कह गिरधर कविराय, अरे यह सब घट तौलत।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पाहुन निशिदिन चारि, रहत सब हीके दौलत।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">धनवान होकर सपने में भी घमंड न करना चाहिए । जिस तरह चञ्चल जल चार दिन ठहरता है, फिर अपने स्थान से चला जाता है; उसी तरह धन भी चार दिन का मेहमान होता है, सदा किसी के पास नहीं रहता । ऐसे चञ्चल, ऐसे अस्थिर और चन्दरोजा धन के नशे से मतवाले होकर ज़बान को बेलगाम न रखना चाहिए और सभी के साथ शिष्टाचार दिखाना और नम्रता का बर्ताव करना चाहिए । जब तक देह में प्राण रहे, जब तक ज़िन्दगी रहे, यश कमाना चाहिए; बदनामी से बचना चाहिए । अपनी ज़ुबान से किसी को कड़वी और बुरी लगनेवाली बात न कहनी चाहिए । ज़बान का ज़ख्म तीर के ज़ख्म से भी भारी होता है । तीर का ज़ख्म मिट जाता है, पर ज़बान का ज़ख्म नहीं मिटता । इस जगत में जो जैसा करता है, वह वैसा ही पाता है । जो जौ बोता है वह जौ काटता है; और जो गेंहू बोता है वो गेंहू काटता है; जो दूसरों का दिल दुखाता है, उसका दिल भी दुखाया जायेगा; जो जैसी कहेगा, वह वैसी सुनेगा ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> ने कहा है -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बद न बोले ज़ेर गर्दू, गर कोई मेरी सुने।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">है यह गुम्बद की सदा, जैसी कहे वैसी सुने।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">आसमान के नीचे किसी को बुरी बात ज़बान से न निकालनी चाहिए । यह तो मठ के अन्दर की आवाज़ है, जैसी कहोगे उसको प्रतिध्वनि रूप में वैसी सुनोगे ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">और भी <b>एक कवी</b> ने कहा है -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऐसी बानी बोलिये मन का आपा खोये।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">अभिमान त्यागकर ऐसी बात कहनी चाहिए, जिससे औरों के दिल ठण्डे हों और अपने दिल में भी ठण्डक हो ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><b>तुलसीदास जी</b> ने कहा है -</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ज्ञान गरीबी गुण धरम, नरम बचन निरमोष।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुलसी कबहुँ न छाँड़िये, शील सत्य सन्तोष।।</span></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;">नित्य-अनित्य के विचार का ज्ञान, यौवन और धनादि के घमण्ड का त्याग, सतोगुण, प्रभु में निश्छल प्रीती का धर्म, मीठे और नर्म वचन, निराभिमानता, शील, सत्य और सन्तोष, इनको कभी न छोड़ना चाहिए । अज्ञानता, घमण्ड, रजोगुण, तमोगुण, अधर्म, कड़वे वचन, मान, कुशीलता, झूठ और असन्तोष - इनको छोड़ देना चाहिए ।</span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b></div>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बकल बसन फल असन कर, करिहौं बन विश्राम। </span></span></div>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"></span></span><br>
<div style="font-family: "Times New Roman";">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जित अविवेकी नरन को, सुनियत नाहीं नाम।।</span></span></div>
<div>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span></div>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">मोहं मार्जयतामुपार्जय रतिं चन्द्रार्धचूडामणौ</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">चेतः स्वर्गतरङ्गिणीतटभुवामासङ्गमङ्गीकुरु ।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">को वा वीचिषु बुद्बुदेषु च तडिल्लेखासु च स्त्रीषु च</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">ज्वालाग्रेषु च पन्नगेषु च सरिद्वेगेषु च प्रत्ययः।। ६० ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">ऐ चित्त ! तू मोह छोड़कर शिर पर अर्धचन्द्र धारण करनेवाले भगवान् शिव से प्रीति कर और गंगा किनारे के वृक्षों के नीचे विश्राम ले । देख ! पानी की लहार, पानी के बबूले, बिजली की चमक, आग की लौ, स्त्री, सर्प और नदी के प्रवाह की स्थिरता का कोई विश्वास नहीं; क्योंकि ये सातों चञ्चल हैं । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">मनुष्यों ! आप लोग मोह निद्रा में पड़े हुए क्यों अपनी दुर्लभ मनुष्य-देह को वृथा गँवा रहे हैं ? आपको यह देह इसलिए नहीं मिली है कि, आप इस झूठे संसार से मोह कर, स्त्री पुरुष और धन-दौलत में भूले रहे; बल्कि इसलिए मिली है कि आप इस देह से दुर्लभ मोक्ष पद की प्राप्ति करें । पर संसार की गति ही ऐसी है कि वह अच्छे कामों को त्याग कर बुरे काम करता है । वजह यह है कि मोहान्ध अज्ञानी पुरुष को अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जो नारी, नरक-कूप के समान गन्दगी से भरी है, जो सब तरह से अपवित्र और घृणयोग्य है, जिसमें प्रीति का नामोनिशान भी नहीं है, जो केवल अपने स्वार्थ से पुरुष को प्यार करती है, पति के निर्धन या कर्जदार होते ही उससे प्रीति कम कर देती या त्याग देती है, जो क्षण भर में परायी हो जाती है, उसी नारी को पुरुष अपनी प्राण-वल्लभा कहता और उसके लिए अपनी सारी सुख-शान्ति को तिलाञ्जलि देकर मरने तक को तैयार हो जाता है । क्या यह अज्ञानता नहीं है ?</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">कवियों ने मोहवश स्त्री के अंगों की बड़ी लम्बी चौड़ी तारीफ की है । उसके दोनों स्तनों को किसी ने अनारों, किसी ने संतरों अथवा दो सोने के कलशों की उपमा दी है; पर वास्तव में वे मांस के लौंदे हैं । उनकी जांघो की केले के खम्भों से उपमा दी है, पर वे महागंदी हैं; उन पर हर समय मूत्र या सफेदा बहता रहता है । उसकी आँखों की उपमा हिरणी के बच्चे की आँखों से दी है, पर वे सर्प से भी भयानक हैं; क्योंकि सर्प के काटने से मनुष्य बेहोश होता और मरता है, पर स्त्री के तो देखने मात्र से ही वह पागल सा होकर मर-मिटता है । वास्तव में स्त्री सर्प से भी बुरी है । सर्प का काटा एक बार ही मरता है, पर स्त्री का काटा बार बार मरता और जन्म लेता है । जिस तरह कदली वन का हाथी कागज़ की हथिनी को देख उसकी इच्छा करता और शिकारियोजन के जाल में फंस कर, बन्धन में बंध नाना प्रकार के दुःख झेलता है; उसी तरह जो पुरुष स्त्री की इच्छा करता है, वह बन्धन में बँधता और नाश होता है । स्त्री संसार वृक्ष का बीज है, अतः स्त्री कामी पुरुष का इस संसार से पीछा नहीं छोटा । वह इस दुनिया में आकर, स्त्री के कारण, नाना प्रकार के दुःख भोगता, चिंताग्नि में दिन-रात जलता और अंत में मरकर ममता और वासना के कारण फिर जन्म लेता और दुःख भोगता है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">स्त्री, कामी पुरुष को ज़रा से लालच से अपना दास बना लेती है । कामी पुरुष स्त्री के इशारे पर उसी तरह नाचता है, जिस तरह बन्दर मदारी के इशारे पर नाचता है । वह रात-दिन उसे खुश करने की कोशिशों में लगा रहता है, घर-बाहर, सोते-जागते उसी की चिन्ता करता है, उसी के लिए धन-गर्वित धनियों की खुशामदें करता, उनकी टेढ़ी-सूधी सुनता और आत्मप्रतिष्ठा खोता है । इतने पर भी स्त्री की फरमाइशें पूरी नहीं होती । आज वह गहना मांगती है, तो कल कपडे मांगती है और परसों पुत्र या कन्या के विवाह की बात करती है । कभी कहती है, आज आटा नहीं है, कभी कहती है , आज घर में तेल-नोन नहीं है, इसी तरह उसकी फरमाइशों का अन्त नहीं आता, पर बेचारे पुरुष का अन्त आ जाता है । स्त्री की सेवा चाकरी से उसे इतनी भी फुर्सत नहीं मिलती कि वह क्षणभर भी अपने बनाने वाले स्वामी को पदवन्दना कर सके । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">अनेक प्रकार से सेवा-टहल करने पर भी यदि पुरुष से कोई फरमाइश पूरी नहीं होती, तो वह बाघिन की तरह घुर्राती है । दैवात् यदि पुरुष निर्धन हो जाता है या उसके सिर पर ऋणभार हो जाता है, तो वही सात फेरों की ब्याही स्त्री उसका अनादर और उसकी मरण-कामना करती है । क्योंकि इस जगत में धन की ही कीमत है, मनुष्य की कीमत नहीं । कहते हैं, निर्धन मनुष्य को वेश्या तज देती है । वेश्या का तो नाम प्रसिद्ध है ही; पर वेद विधि से ब्याही हुई स्त्री भी अपने पति को तज देती है । धनहीन को माता-पिता, भाई-बहन, भौजाई, नौकर-चाकर एवं अन्य रिश्तेदार सभी बुरी नज़र से देखते और त्याग देते हैं । संसार का अर्थ - धन के वश में है । जिसके पास धन नहीं, उसका कोई नहीं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>कहा है</b> -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">माता निन्दति नाभिनन्दति पिता भ्राता न सम्भाषते</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भृत्यः कुप्यति नानुगच्छति सुतः कान्ता च नालगते।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अर्थप्रार्थनशंकया न कुरुतेऽप्यालापमात्रं सुहृत </span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तस्मादर्थमुपार्जयस्व च सखे ! ह्यर्थस्यसर्वेवशाः।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">माता निर्धन पुत्र की निन्दा करती है, बाप आदर नहीं करता, भाई बात नहीं करता, चाकर क्रोध करता है, पुत्र आज्ञा नहीं मानता, स्त्री आलिंगन नहीं करती और धन मांगने के डर से कोई मित्र बात नहीं करता; इसलिए मित्र धन कमाओ, क्योंकि सभी धन के वश में हैं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">"<b>आत्मपुराण</b>" में कहा है -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दरिद्रं पुरुषं दृष्ट्वा नार्यः कामातुरा अपि।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">स्प्रष्टुं नेच्छन्ति कुणपं यद्वच्चकृमिदूषितं।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">स्त्रियां काम से आतुर होने पर भी, दरिद्री पति को छूना पसन्द नहीं करती; जिस तरह कीड़ों से दूषित मुर्दे को कोई छूना नहीं चाहता ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">स्पष्ट हो गया कि स्त्री ऊपर से ही सुन्दर है, भीतर से वह महागंदी और पाषाणवत् कठोरहृदय है; जिस समय इसमें निर्दयता आती है, उस समय यह अपने क्रीतदास की तरह सेवा करनेवाले पति और अपने उदर से निकले हुए पुत्र के ऊपर भी दया नहीं करती । अपने स्वार्थ के लिए यह उनकी भी हत्या कर डालती और नरक की राह दिखाती है; अतः स्त्री के मोह में फंसना, अपने नाश का सामान करना है । जिस तरह पतंग दीपक के रूप पर मोहित होकर अपना नाश करता है; उसी तरह कामी भी स्त्री के रूप पर मुग्ध होकर अपने लोक-परलोक गंवाता है - इस जन्म में घोर चिंताग्नि में जलता और मरने पर नरकाग्नि में भस्म होता और तड़पता है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">वास्तव में स्त्री-पुत्रादि शत्रु हैं, पर पुरुष अज्ञानता से इन्हे अपना मित्र समझता है । महात्मा शंकराचार्य ने अपनी प्रश्नोत्तर माला में लिखा है - "स्त्री-पुत्र देखने में मित्र मालूम होते हैं, पर असल में वे शत्रु हैं । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-align: center; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">एक वैश्य और उसके पुत्र</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-align: center; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">-------------------------------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">एक वैश्य ने लाखों-करोड़ों रुपये कमाए और अपने धन में से चार-चार लाख रुपये अपने पुत्रों को देकर, उनकी अलग-अलग दुकाने करवा दीं । शेष धन उसने दीवारों में चुनवा दिया । चंद रोज़ के बाद वह सख्त बीमार हो गया । उसे सन्निपात हो गया और वह आन-तान बकने लगा । लोगों ने उसका अन्त समय समझ उससे कहा -"सेठ जी ! बहुत धन कमाया है, इस समय कुछ पुण्य कीजिये, क्योंकि इस समय धर्म ही साथ जायेगा; स्त्री पुत्र, धन प्रभृति साथ न जाएंगे।" वैश्य का गला बन्द हो गया था, अतः वो बोल न सकता था । उसने बारम्बार दीवारों की तरफ हाथ किये । इशारों से बताया कि इन दीवारों में धन गड़ा है, उसे निकालकर पुण्य कर दो । पुत्र, पिता का मतलब समझकर बोले - " पिताजी कहते हैं, जो धन था, सो तो इन दीवारों में लगा दिया, अब और धन कहाँ है ? " लोगों ने लड़कों की बात मान ली । वैश्य अपने पुत्रों की बेईमानी देखकर बहुत रोया, पर बोल न सकता था, इसलिए छटपटा छटपटा कर मर गया । लड़कों ने उसे शमशान ले जाकर जला दिया । वैश्य के मन की मन में ही रह गयी । इससे बढ़कर पुत्रों की शत्रुता क्या होगी ?</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जो लोग सैकड़ों प्रकार के अनर्थ और बेईमानी से पराया धन हड़प कर अथवा और तरह से दुनिया का गला काटकर लाखों-करोड़ों अपने पुत्र-पौत्रों को छोड़ जाते हैं, वे इस कहानी से शिक्षा ग्रहण करें और पुत्रों का झूठा मोह त्यागें । इस जगत में न कोई किसी का पुत्र है न पिता । माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-पुत्र सभी एक लम्बी यात्रा के यात्री हैं । यह मृत्युलोक उस यात्रा के बीच का मुकाम है । इस मुकाम पर आकर सब इकट्ठे हो गए हैं । कोई किसी से सच्ची प्रीति नहीं रखता । सभी स्वार्थ की रस्सी से एक-दुसरे से बंधे हुए हैं । जब जिसके चलने का समय आ जाता है, तब वही निर्मोही की तरह सब को छोड़ के चल देता है । जो लोग उस चले जाने वाले या मर जाने वाले के लिए प्राण न्यौछावर करते थे, उसके लिए मरने तक को तैयार रहते थे, उनमें से कोई उसके साथ पौली तक जाता है और कोई उसे श्मशान भूमि तक पहुंचकर और जला-बलाकर ख़ाक कर आता है । ऐसे नातेदारों से अनुराग करना - उनमें ममता रखना बड़ी ही गलती है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">कहा है -</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"परलोक की राह में जीव अकेला जाता है; केवल धर्म उसके साथ जाता है । धन, धरती, पशु और स्त्री घर में रह जाते हैं । लोग श्मशान तक जाते हैं और देह चिता तक साथ रहती है ।"</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">बहुत लोग यह समझते हैं कि पुत्र बिना गति नहीं होती; पुत्रहीन पुरुष नरक में जाता है और पुत्रवान स्वर्ग में जाता है । जो लोग ऐसा समझते हैं; वह बड़ी भूल करते हैं । पुत्रों से किसी की भी गति न हुई है और न होगी; सब की गति अपने ही पुरुषार्थ से होती है । अगर पुत्रों से स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति होती, तो कोई विरला ही नरक में जाता । जो जैसा करता है, उसे वैसा ही फल भोगना होता है । ब्रह्मह्त्या, स्त्रीहत्या, भ्रूणहत्या, परस्त्रीगमन और परधन हरण प्रभृति पापों का फल कर्ता को भोगना ही होता है । जो ऐसा समझते हैं कि ऐसे पाप करने पर भी पुत्र-पौत्रों के होने से, हम दण्ड से बच जाएंगे, वे बड़े ही मूर्ख हैं । ज्ञानी लोग तो संसार बन्धन से छूटने के लिए अपने पुत्रों का भी त्याग कर देते हैं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-align: center; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">एक ब्राह्मण और उसका अन्धा पुत्र</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-align: center; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">-----------------------------------------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">किसी नगर में एक ब्राह्मण रहता था । उसके पुत्र नहीं हुआ था, इसलिए उसने गंगाजी की उपासना की । अन्त में बूढी अवस्था में, उसके एक अन्धा पुत्र हुआ । ब्राह्मण उस अन्धे पुत्र को पाकर बड़ा ही प्रसन्न हुआ । उसने खूब उत्सव और भोज प्रभृति किये । इसके बाद जब वह पुत्र पांच </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"> बरस का हुआ, ब्राह्मण ने उसका यज्ञोपवीत संस्कार कराकर, उसे विद्या पढ़ना आरम्भ किया । चन्दरोज में वह अन्धा पूर्ण पण्डित हो गया ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">एक दिन पिता-पुत्र बैठे थे । पुत्र ने पिता से पूछा - "पिताजी ! मनुष्य अन्धा किस पाप से होता है ?" पिता ने उत्तर दिया - "पुत्र ! जो पूर्व जन्म में रत्नो की चोरी करता है, वह अन्धा होता है।" पुत्र ने कहा - "पिताजी ! यह बात नहीं है । कारण के गुण कार्य में भी आ जाते हैं । आप अन्धे हैं, इसी से मैं भी अन्धा हुआ हूँ । पिता ने क्रोध में भरकर कहा, " नालायक, मैं अन्धा कैसे ?" पुत्र ने कहा - "पिताजी ! गंगा माता साक्षात् मुक्ति देने वाली हैं । आपने उनकी उपासना पुत्र की कामना से की; इसी से मैं आपको अन्धा समझता हूँ । जो वेद-शास्त्र पढ़कर भी पेशाब के कीड़े की इच्छा करता है, वह अन्धा नहीं तो क्या सूझता है ? पेशाब से जैसे अनेक अनेक प्रकार के कीड़े पैदा होते हैं, वैसे ही पुत्र भी उसका एक कीड़ा ही है । आपने जिस पुत्र के लिए गंगाजी की इतनी तपस्या की, वह पुत्र तो कुत्ते-बिल्ली और सूअर प्रभृति पशुओं के अनायास ही हो जाते हैं । पुत्र जैसे मूत्र के कीड़े से किसी को भी स्वर्ग या मोक्ष लाभ नहीं हो सकता; पिताजी ! न कोई किसी का पुत्र है न स्त्री प्रभृति; सब एक ही हैं क्यंकि सब में एक ही आत्मा है । वही आत्मा पिता में है, वही पुत्र में और स्त्री में । जिस तरह मरुभूमि में भ्रम से जल दीखता है, पर वास्तव में वहां जल का नाम-निशान भी नहीं है; उसी तरह भ्रम से यह जगत सच्चा दीखता है, पर वास्तव में कुछ भी नहीं । यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा धन है, यह मेरा मकान है - ऐसा वासना से दीखता है । वासना से ही जीव संसार बन्धन में बँधता है; यानी वासना से ही शरीर धारण करता है । वासना से ही मनुष्य अज्ञानी बना रहता है । वासना का त्याग करते ही मनुष्य, ज्ञान-लाभ करके, परमानन्द की प्राप्ति करता है । ज्ञानी सच्चिदानंद रूप ब्रह्म को ज्ञान की आँखों से देखता है, पर अज्ञानी उसे नहीं देख सकता । जैसे अन्धे को सूर्य नहीं दीखता, उसी तरह अज्ञानी को ब्रह्म नहीं दीखता; इसी से अज्ञानी को बाहर की आँखें होने पर भी अन्धा कहते हैं । आप भेद-बुद्धि को त्यागकर, सबमें एक आत्मा को देखो । आत्मज्ञानी होने से ही आपको नित्य सुख मिलेगा।"</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">पिता, पुत्र के अगाध ज्ञान और पाण्डित्य को देख एकदम चकित हो गया और कहने लगा - "पुत्र ! मैंने चार वेद, छहों शास्त्र, उपनिषद, स्मृति और पुराण प्रभृति पढ़कर कुछ भी लाभ न किया; तेरी बातों से मेरी आँखें खुल गयी।"</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">संसार को मिथ्या समझकर ही <b>कोई ज्ञानी कहता</b> है -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">"हे मन ! तू स्त्री के प्रेम में मत भूल; यह बिजली की चमक, नदी के प्रवाह और नदी की तरंग प्रभृति की तरह चञ्चल है । स्त्री के प्रेम का कोई ठिकाना नहीं; आज यह तेरी है, कल पराई है । एक करवट बदलने में स्त्री पराई हो जाती है । इसकी झूठी प्रीति में कोई लाभ नहीं । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>गोस्वामी तुलसीदास जी</b> कहते हैं -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">उरग तुरग नारी नृपति, नर नीचे हथियार।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुलसी परखत रहब नित, इनहिं न पलटत बार।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">सर्प, घोडा, स्त्री, राजा, नीच पुरुष और हथियार - इनको सदा परखते रहना चाहिए, इनसे कभी गाफिल न रहना चाहिए, क्योंकि इन्हें पलटते देर नहीं लगती ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">हे मन ! यदि तुझे प्रीति ही करनी है, तो उठ गंगा के किनारे वृक्षों के नीचे चल बैठ और आशुतोष भगवान् चन्द्रशेखर - शिवजी से प्रीति कर । उनकी प्रीति सच्ची और कल्याणकारी है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>गोस्वामी जी</b> ने और भी कहा है -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कै ममता करु रामपद, कै ममता करु हेल।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"तुलसी" दो मँह एक अब, खेल छाँड़ि छल खेल।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सम्मुख ह्वै रघुनाथ के, देइ सकल जग पीठि।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तजै केंचुरी उरग कहँ, होत अधिक अति दीठि।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">या तो भगवान् के चरणों में ममता कर अथवा देह के सब नातों को त्यागकर उदासीन हो जा और कर्म ज्ञानादि साधन करके मन को शुद्ध कर ले । जब तेरा मन शुद्ध हो जाएगा, तब भगवान् के चरणों में आप ही स्नेह हो जाएगा । इन दोनों बातों में से जो एक बात तुझे पसन्द हो, उसे छल छोड़ कर दिल से कर; एक खेल खेल । सारांश यह, कि भगवान् में सहज स्नेह कर । अगर तेरा मन प्रभु की भक्ति में नहीं जमता तो स्त्री-पुत्र आदि संसारी भोगों से मन हटाकर प्रभु की भक्ति की चेष्टा कर । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जब भगवान् में तेरा मन लग जाए, तब संसार की तरफ से मुंह फेर ले - संसार को पीठ दे दे, जिससे तेरे मन में लोक-वासना न आने पावे; क्योंकि वासना से ह्रदय की दृष्टी मैली हो जाती है । सांप का भीतरी चमड़ा जब मोटा हो जाता है, तब उसे आँखों से साफ़ नहीं दीखता, लेकिन जब वह कांचली छोड़ देता है, तब उसकी आँखों का पटल उतर जाता है; आँखों के साफ़ हो जाने से सांप को खूब साफ़ दिखने लगता है । जिस तरह कांचली त्यागने से सर्प की दृष्टी साफ़ हो जाती है; उसी तरह वासना त्याग देने से ईश्वर के भक्तो की ह्रदय-दृष्टी साफ़ रहती और उन्हें भगवान् के दर्शन होते रहते हैं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">-------------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मोह छाँड़ मन-मीत ! प्रीति सों चन्द्रचूड़ भज !</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सुर-सरिता के तीर, धीर धार दृढ़ आसन सज !!</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">शम दम भोग-विराग, त्याग-तप को - तू अनुसरि।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वृथा विषय-बकवाद, स्वाद सबहि - तू परिहरि।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">थिर नहि तरंग, बुदबुद, तड़ित, अगिन-शिखा , पन्नग, सरित।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">त्योंही तन जोवन धन अथिर, चल दलदल कैसे चरित ।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>शम</b> - इन्द्रिय-निग्रह</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>दम </b>- बाहरी इन्द्रियों का निग्रह </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>परिहरि </b>- त्याग </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>पन्नग </b>- सर्प </span></div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अग्रे गीतं सरसकवयः पार्श्वतो दाक्षिणात्याः</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">पृष्ठे लीलावलयरणितं चामरग्राहिणीनाम् ।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">यद्यस्त्येवं कुरु भवरसास्वादने लम्पटस्त्वं नो </span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">चेच्चेतः प्रविश सहसा निर्विकल्पे समाधौ।। ६१ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">हे मन ! तेरे सामने चतुर गवैये गाते हों, दाहिने-बाएं दक्खन देश के उत्तम कवी सरस काव्य सुनते हों, तेरे पीछे चंवर ढोलने वाली सुंदरी स्त्रियों के कंकणों की मधुर झनकार होती हो, यदि ऐसे सामान तुझे मयस्सर हों, तो तू संसार रसास्वादन में मग्न हो; नहीं तो सबका ध्यान छोड़, निर्विकल्प समाधि में लीन हो ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">विरमत बुधा योषित्सङ्गात्सुखात्क्षणभंगुरा-</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">त्कुरुत करुणामैत्रीप्रज्ञा वधूजनसंगमम्।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">न खलु नर के हाराक्रान्तं घनस्तनमण्डलम्</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">शरणमथवा श्रोणीबिम्बम् रणन्मणिमेखलम्।। ६२ ।।</span></b><br>
<div>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<span style="font-size: large;">हे बुद्धिमानो ! स्त्री के संग से बचो, क्योंकि उनके संग से जो सुख मिलता है, वह क्षणिक है । आप मैत्री, करुणा और बुद्धिरूपी वधू के साथ संगम करो । जिस समय नरक में सजा मिलेगी, उस समय युवतियों के हारों से शोभित स्तनद्वय और घुंघरूदार कर्धनियों से सुशोभित कमर तुम्हारी सहायता न करेंगी ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्यों, स्त्रियों में मन मत लगाओ । उनके साथ रहने, उनके साथ संगम करने से सुख होता है; पर वह सुख नश्वर और क्षणस्थायी है । वह ऐसा सुख नहीं जो सदा रहे । परिणाम में उससे अनेक प्रकार के दुःख होते हैं । जो सुख अनित्य है, शेष में दुखों का मूल और रोगों की खान है, उस सुख को सुख समझना, बुद्धिमानो का काम नहीं । अगर आपको सङ्गंम ही करना है, तो आप सुहानुभूति, परोपकारवृत्ति एवं प्रज्ञारूपी बहू के साथ सङ्गंम कीजिये । इनके साथ सङ्गंम और प्रीति करने से आप को नित्य सुख मिलेगा; ऐसा सुख मिलेगा, जो इस लोक और परलोक में सदा स्थिर रहेगा ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जिन लोगों ने पहले दूसरों के दुःख दूर किये हैं, जिन्होंने परोपकार के लिए जानें दी हैं, जिन्होंने ज्ञान से काम लिया है, उनका भला ही हुआ है । अगर आप स्त्री-सुख में भूले रहोगे, तो जब आपको नरक की भयंकर यातनाएं भोगनी पड़ेंगी, जब आप पर यमदूतों के डण्डे पड़ेंगे, उस समय क्या स्त्रियों के हारों से सुशोभित स्तन-मण्डल और कर्धनियों से शोभायमान पतली कमर आपकी रक्षा कर सकेंगी ? नहीं, इनसे कोई लाभ न होगा; उस समय ये आड़े न आएंगे । उस मौके पर, परोपकार करके जो पुण्य संचय किया होगा, वही आपकी रक्षा करेगा । बुद्धि से काम लोगे तो भला होगा; क्योंकि बुद्धि ही आपको नरक से बचने की राह बतावेगी; किन्तु स्त्री तो आपको सीधी नरक की राह दिखावेगी । आश्चर्य है, अज्ञानी लोग अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा समझते हैं । वे अपने सच्चे मित्रों से प्रीति नहीं करते, किन्तु झूठे और कुराह में ले जानेवालों से प्रीति करते हैं । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा सुन्दरदास जी</b> ने कहा है -</span><br>
<b><span style="font-size: large;">(१)</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विषही की भूमि मांहि, विष के अङ्कुर भये।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नारी-विषवेली बढ़ी, नखशिख देखिये।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विषही के जर मूल, विषही के डार पात।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विषही के फूल फल, लागे जु विशेखिये।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विष के तन्तु पसार, उरझायी आंटी मार।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सब नर-वृक्ष पर, लपटेहि लेखिये।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" कहत, कोऊ सन्त-तरु बची गए।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तिनके तौ कहूं, लता लागि नहीं पेखिये।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">(२)</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कामिनी को अंग, अति मलिन महा अशुद्ध।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रोम-रोम-मलिन, मलिन सब द्वार हैं।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हाड मांस मज्जा मेद, चामसूँ लपेट राखै।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ठौर-ठौर रकत के, भरेई भण्डार हैं।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मूत्रहु-पुरीष-आंत, एकमेक मिल रहीं।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">औरहु उदर मांहि, विविध विकार हैं।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" कहत, नारी नखशिख निन्द्यरूप।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ताहि जो सराहै, सो तौ बड़ोई गंवार है।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">(३)</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रसिकप्रिया रसमंजरी और श्रृंगारहि जान।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चतुराई करि बहुत विधि, विषय बनाई आन।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विषय बनाई आन, लगत विषयिनकूँ प्यारी।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जागे मदन प्रचण्ड, सराहै नखशिख नारी।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ज्यूँ रोगी मिष्टान्न खाई, रोगहि बिस्तारै।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" ये गति होइ, जोई रसिकप्रिया धारै।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<br>
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;">(१)</span></div>
<span style="font-size: large;">विष की ज़मीन में विष के अङ्कुर जमे। फिर नारी रूप विषलता बढ़ी । उस लता में विष की जड़ें लगीं और विष की डालियाँ और पत्तियां आयीं । फिर उस लता में विष के ही फल और फूल लगे । उस विषलता में विष के तन्तु निकले । फिर उस विषलता ने अपने विष तन्तु फैला-फैलाकर नर-वृक्षों को उलझा लिया और खुद उनसे लिपट गयी । सुन्दरदास जी कहते हैं, उस विषलता के फन्दे में अधिकाँश नर-रुपी वृक्ष फंस गए - कोई विरले ही सन्त रुपी वृक्ष उससे अछूते बच सके । उनके ही शरीरों में यह विष लता लगी हुई न दिखाई दी ।</span><br>
<span style="font-size: large;">मतलब यह की स्त्री विष की बेल है । उसकी जड़, उसकी डालियाँ, उसकी पत्तियां, उसके फल फूल सभी विषपूर्ण हैं । सारांश यह कि स्त्री का सर्वाङ्ग विष से भरा है स्त्री का कोई भी अंग ऐसा नहीं जिसमें विष न हो । यह स्त्रीरूपी विषबेल अज्ञानी विषयी लोगों को अपने फन्दे में फंसाकर नाश कर देती है; क्योंकि विष स्वभाव से ही प्राणघाती होता है । सिर्फ वे लोग इस स्त्रीरूपी विषबेल से बचते हैं, जो ज्ञानी हैं, जो इसकी असलियत को जानते हैं, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है, जिनकी इन्द्रियां विषयों की तरफ नहीं झुकतीं । और भी खुलासा यह है, कि स्त्री विष-लता के समान है, विष लता जिस वृक्ष से लिपट जाती है, उसे सुखा-सुखाकर नष्ट कर देती है। इसी तरह स्त्री जिस विषयी पुरुष के पीछे लग जाती है अथवा जो पुरुष स्त्री के फन्दे में फंस जाता है, वह भी सब तरह से नष्ट हो जाता है । इसके सभी अंगों में विष भरा है । जिस तरह विष खाने से ज़हर चढ़ता है, उसी तरह इसकी आँख, इनके गाल, इसकी भौं, छातियां, जांघें प्रभृति किसी भी अंग के देखने और छूने से विष चढ़ जाता है । विष के चढ़ जाने से पुरुष मतवाला हो जाता है; उसके होश-हवास खता हो जाते हैं और बुद्धि मारी जाती है । बुद्धि के मारे जाने से पुरुष बिना पतवार की नाव की तरह नष्ट हो जाता है । इस लोक में नाना प्रकार के रोग और दुःख भोगकर मर जाता और परलोक में भी दुःख ही पाता है । संखिया प्रभृति विष का मारा हुआ इस लोक में दुःख पाता है, पर स्त्री-विष का मारा हुआ अनेक जन्मों में दुःख पाता है । और ज़हर खाने वाला एक ही बार मरता है; पर स्त्री-विष सेवन करने वाला बारम्बार मरता है । अतः बुद्धिमानों को इस स्त्रीरूपी विषलता से सदा दूर रहना चाहिए, ताकि इसका विष शरीर में पैवस्त न होने पावे।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<br>
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;">(२)</span></div>
<span style="font-size: large;">स्त्री का शरीर अत्यंत मैला और अतीव अशुद्ध या गन्दा है । इस प्रकार प्रत्येक रोम मैला और सारे ही दरवाजे गन्दे हैं । इसका शरीर हाड, मांस, मज्जा, मेद और चमड़े से लिपटा हुआ है । इसके अन्दर जगह जगह खून के हौज़ भरे हुए हैं । पेशाब और पाखाने की आंतें आपस में सट रहती है । इन सब के अलावा पेट में और भी अनेक तरह के मैले भरे हुए हैं । सुन्दरदास जी कहते हैं, नारी एड़ी से छोटी तक निन्द्य है - नख से शिख तक निन्दा करने योग्य है । ऐसी निन्दा की पात्री नारी की जो सराहना करते हैं, वे तो निश्चय ही बड़े गंवार और भौंदू हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;">खुलासा यह है कि स्त्री ऊपर से अच्छी मालूम होती है, पर वास्तव में गन्दगी का पिटारा है । इसकी नाक में रहँट भरा हुआ है। इसकी आँखों में गींडें भरी हुई हैं । इसके मुंह में कफ और खखार भरे हुए हैं । इसकी मूत्रेन्द्रिय से हर समय सफ़ेद-सफ़ेद या लाल-लाल गन्दा पदार्थ बहा करता है । पेशाब से जाँघे भीगी रहती है । इसकी मल और मूत्र की इन्द्रिय में २ अंगुल से ज्यादा का दूर का फर्क नहीं है । जिन छातियों पर विषयी मर मिटते हैं, जिन्हे वे सुन्दर सोने के कलश, कामदेव के नगाड़े अथवा शान्तरे और अनार कहते हैं, वे दो मांस के लौंदे हैं । उनके ऊपर चमड़ा चढ़ा हुआ है, इसी से उनके भीतर की गन्दगी छिपी रहती है । ऐसी गन्दगी की पिटारी की तारीफों में जो लोग कवितायेँ करते हैं वे सचमुच ही बेअक्ल और गंवार हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<br>
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;">(३)</span></div>
<span style="font-size: large;">अनेक तरह की इन्द्रिय भोग सम्बन्धी वस्तुओं से बनी हुई और सजी हुई स्त्री विषयी लोगों को बहुत ही प्यारी लगती है । जब बलवान काम जागता है, तब वे इसका नखशिख वर्णन करने में अपनी सारी विद्वता खर्च कर देते हैं । चोटी से एड़ी तक एक-एक अंग की दिल खोल कर तारीफ करते हैं । जिस तरह रोगी मिठाई खाकर अपने रोग को बढ़ाता है; उसी तरह जो लोग स्त्री या प्रिय को धारण करते हैं - अपनाते हैं, अनेक तरह के रोगों और दुखों को जानबूझकर आप बुलाते हैं । उनकी हर तरह से दुर्गति होती है । तरह तरह के रोग होते हैं, बल घटता है, आयु क्षीण होती है, हर क्षण चिंतित रहना पड़ता है, शान्ति पास नहीं आती और ईश्वर भजन में मन नहीं लगता । हर समय उसी को संतुष्ट करने की फ़िक्र लगी रहती है । मरते समय भी उसी में मन अटका रहता है, जीवात्मा उसे छोड़कर जाना नहीं चाहता, उसके संग ही रहना चाहता है, पर समय आ जाने पर कोई भी इस काया में क्षणभर भी नहीं रह सकता; अतः देह त्यागनी ही पड़ती है; पर चूंकि स्त्री में मन लगा रह जाता है, उसकी वासना मन में रह जाती है, इसलिए वासना के कारण फिर जन्म लेना पड़ता है । जो जन्म लेता है, उसे मरना भी पड़ता है । इस तरह स्त्री-लोलुप को बारम्बार जन्म लेने और मरने का घोर क्लेश सहना पड़ता है । उसे कभी सुख नहीं मिलता; उसकी मोक्ष नहीं होती । इसीलिए कहा है कि, जो लोग स्त्री को रखते हैं, उनकी बड़ी बुरी गति होती है । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">सोरठा </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तजि तरुणी सों नेह, बुद्धिबधू सों नेह कर।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नरक निवारत येह, वहै नरक लै जात है।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">===============</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"></span><br></div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">विरमत बुधा योषित्सङ्गात्सुखात्क्षणभंगुरा-</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">त्कुरुत करुणामैत्रीप्रज्ञा वधूजनसंगमम्।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">न खलु नर के हाराक्रान्तं घनस्तनमण्डलम्</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">शरणमथवा श्रोणीबिम्बम् रणन्मणिमेखलम्।। ६२ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">हे बुद्धिमतियों ! पुरुष के संग से बचो, क्योंकि उनके संग से जो सुख मिलता है, वह क्षणिक है । आप मैत्री, करुणा और विवेकरूपी वर के साथ संगम करो । जिस समय नरक में सजा मिलेगी, उस समय युवकों की बलिष्ठ काया और सुडौल शरीर तुम्हारी सहायता न करेंगे ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">मनुष्यों, पुरुषों में मन मत लगाओ । उनके साथ रहने, उनके साथ संगम करने से सुख होता है; पर वह सुख नश्वर और क्षणस्थायी है । वह ऐसा सुख नहीं जो सदा रहे । परिणाम में उससे अनेक प्रकार के दुःख होते हैं । जो सुख अनित्य है, शेष में दुखों का मूल और रोगों की खान है, उस सुख को सुख समझना, बुद्धिमतियों का काम नहीं । अगर आपको सङ्गंम ही करना है, तो आप सुहानुभूति, परोपकारवृत्ति एवं विवेकरूपी वर के साथ सङ्गंम कीजिये । इनके साथ सङ्गंम और प्रीति करने से आप को नित्य सुख मिलेगा; ऐसा सुख मिलेगा, जो इस लोक और परलोक में सदा स्थिर रहेगा ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जिन्होंने पहले दूसरों के दुःख दूर किये हैं, जिन्होंने परोपकार के लिए जानें दी हैं, जिन्होंने ज्ञान से काम लिया है, उनका भला ही हुआ है । अगर आप पुरुष-सुख में भूली रहोगी, तो जब आपको नरक की भयंकर यातनाएं भोगनी पड़ेंगी, जब आप पर यमदूतों के डण्डे पड़ेंगे, उस समय क्या पुरुषों की बलिष्ठ भुजाएं और सुडौल शरीर आपकी रक्षा कर सकेंगे ? नहीं, इनसे कोई लाभ न होगा; उस समय ये आड़े न आएंगे । उस मौके पर, परोपकार करके जो पुण्य संचय किया होगा, वही आपकी रक्षा करेगा । विवेक से काम लेंगी तो भला होगा; क्योंकि विवेक ही आपको नरक से बचने की राह बतावेगा; किन्तु पुरुष तो आपको सीधा नरक की राह दिखावेगा । आश्चर्य है, अज्ञानी लोग अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा समझते हैं । वे अपने सच्चे मित्रों से प्रीति नहीं करते, किन्तु झूठे और कुराह में ले जानेवालों से प्रीति करते हैं । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा सुन्दरदास जी</b> ने कहा है -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">(१)</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विषही की भूमि मांहि, विष के अङ्कुर भये।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नारी-विषवेली बढ़ी, नखशिख देखिये।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विषही के जर मूल, विषही के डार पात।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विषही के फूल फल, लागे जु विशेखिये।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विष के तन्तु पसार, उरझायी आंटी मार।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सब नर-वृक्ष पर, लपटेहि लेखिये।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" कहत, कोऊ सन्त-तरु बची गए।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तिनके तौ कहूं, लता लागि नहीं पेखिये।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">(२)</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कामिनी को अंग, अति मलिन महा अशुद्ध।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रोम-रोम-मलिन, मलिन सब द्वार हैं।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हाड मांस मज्जा मेद, चामसूँ लपेट राखै।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ठौर-ठौर रकत के, भरेई भण्डार हैं।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मूत्रहु-पुरीष-आंत, एकमेक मिल रहीं।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">औरहु उदर मांहि, विविध विकार हैं।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" कहत, नारी नखशिख निन्द्यरूप।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ताहि जो सराहै, सो तौ बड़ोई गंवार है।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">(३)</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रसिकप्रिया रसमंजरी और श्रृंगारहि जान।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चतुराई करि बहुत विधि, विषय बनाई आन।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विषय बनाई आन, लगत विषयिनकूँ प्यारी।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जागे मदन प्रचण्ड, सराहै नखशिख नारी।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ज्यूँ रोगी मिष्टान्न खाई, रोगहि बिस्तारै।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" ये गति होइ, जोई रसिकप्रिया धारै।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-align: center; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">(१)</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">विष की ज़मीन में विष के अङ्कुर जमे। फिर नर रूप विषवृक्ष बढ़ा । उस वृक्ष में विष की जड़ें लगीं और विष की डालियाँ और पत्तियां आयीं । फिर उस वृक्ष में विष के ही फूल लगे । उस विषवृक्ष में विष के फल निकले । फिर उस विषवृक्ष ने नारीरुपी लताओं को उलझा लिया । सुन्दरदास जी कहते हैं, उस विषवृक्ष के फन्दे में अधिकाँश नारी-रुपी लताएं फंस गयीं - कोई विरले ही साध्वी-रूपा लता उससे अछूती बच सकी । उनके ही शरीर इस विषवृक्ष से लगे हुए न दिखाई दिए ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">मतलब यह की पुरुष विष का वृक्ष है । उसकी जड़, उसकी टहनियां, उसकी पत्तियां, उसके फल फूल सभी विषपूर्ण हैं । सारांश यह कि पुरुष का सर्वाङ्ग विष से भरा है पुरुष का कोई भी अंग ऐसा नहीं जिसमें विष न हो । यह पुरुषरूपी विषवृक्ष अज्ञानी विषया स्त्रियों को अपने फन्दे में फंसाकर नाश कर देता है; क्योंकि विष स्वभाव से ही प्राणघाती होता है । सिर्फ वे ही स्त्रियां इस पुरुषरूपी विषवृक्ष से बचती हैं, जो ज्ञानवती हैं, जो इसकी असलियत को जानती हैं, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है, जिनकी इन्द्रियां विषयों की तरफ नहीं झुकतीं । और भी खुलासा यह है, कि पुरुष विष-वृक्ष के समान है, विष वृक्ष से जो लता लिपट जाती है, वह उसे भी विषरूप कर देता है। इसी तरह पुरुष जिस विषया स्त्री के पीछे लग जाता है अथवा जो स्त्री पुरुष के फन्दे में फंस जाती है, वह भी सब तरह से नष्ट हो जाती है । इसके सभी अंगों में विष भरा है । जिस तरह विष खाने से ज़हर चढ़ता है, उसी तरह इसकी आँख, इनकी भुजाएं, इसकी छातियां, जांघें प्रभृति किसी भी अंग के देखने और छूने से विष चढ़ जाता है । विष के चढ़ जाने से स्त्री मतवाली हो जाती है; उसके होश-हवास खता हो जाते हैं और बुद्धि मारी जाती है । बुद्धि के मारे जाने से स्त्री बिना पतवार की नाव की तरह नष्ट हो जाती है । इस लोक में नाना प्रकार के रोग और दुःख भोगकर मर जाती और परलोक में भी दुःख ही पाती है । संखिया प्रभृति विष की मारी हुई इस लोक में दुःख पाती है, पर पुरुष रुपी विष की मारी हुई अनेक जन्मों में दुःख पाती है । ज़हर खाने वाली एक ही बार मरती है; पर पुरुष-विष सेवन करने वाली बारम्बार मरती है । अतः बुद्धिमतियों को इस पुरुष-रूपी विषवृक्ष से सदा दूर रहना चाहिए, ताकि इसका विष शरीर में पैवस्त न होने पावे।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-align: center; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">(२)</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">पुरुष का शरीर अत्यंत मैला और अतीव अशुद्ध या गन्दा है । इस प्रकार प्रत्येक रोम मैला और सारे ही दरवाजे गन्दे हैं । इसका शरीर हाड, मांस, मज्जा, मेद और चमड़े से लिपटा हुआ है । इसके अन्दर जगह जगह खून के हौज़ भरे हुए हैं । पेशाब और पाखाने की आंतें आपस में सट रहती है । इन सब के अलावा पेट में और भी अनेक तरह के मैले भरे हुए हैं । सुन्दरदास जी कहते हैं, नर एड़ी से शिर तक निन्द्य है - नख से शिख तक निन्दा करने योग्य है । ऐसे निन्दा के पात्र नर की जो सराहना करें, वे तो निश्चय ही बड़ी गंवार और भौंदू हैं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">खुलासा यह है कि पुरुष ऊपर से अच्छा मालूम होता है, पर वास्तव में गन्दगी का पिटारा है । इसकी नाक में रहँट भरा हुआ है। इसकी आँखों में गींडें भरी हुई हैं । इसके मुंह में कफ और खखार भरे हुए हैं । इसकी मूत्रेन्द्रिय से हर समय गन्दा पदार्थ बहा करता है । जिन भुजाओं पर विषया स्त्रियां मर मिटती हैं, जिन्हे वे पौरुष या बल का प्रतीक कहती हैं, वे दो मांस के लौंदे हैं । उनके ऊपर चमड़ा चढ़ा हुआ है, इसी से उनके भीतर की गन्दगी छिपी रहती है । ऐसी गन्दगी के पिटारे की जो स्त्रियां तारीफ करती हैं वे सचमुच ही बेअक्ल और गंवार हैं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-align: center; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">(३)</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">अनेक तरह की इन्द्रिय भोग सम्बन्धी वस्तुओं से बना हुआ पुरुष विषया स्त्रियों को बहुत ही प्यारा लगता है । जब बलवान काम जागता है, तब वे इसका नखशिख वर्णन करने में अपनी सारी विद्वता खर्च कर देती हैं । चोटी से एड़ी तक एक-एक अंग की दिल खोल कर तारीफ करती हैं । जिस तरह रोगी मिठाई खाकर अपने रोग को बढ़ाता है; उसी तरह जो स्त्रियां, पुरुष या प्रिय को धारण करती हैं - अपनाती हैं, अनेक तरह के रोगों और दुखों को जानबूझकर आप बुलाती हैं । उनकी हर तरह से दुर्गति होती है । तरह तरह के रोग होते हैं, रूप घटता है, आयु क्षीण होती है, हर क्षण चिंतित रहना पड़ता है, शान्ति पास नहीं आती और ईश्वर भजन में मन नहीं लगता । हर समय उसी को संतुष्ट करने की फ़िक्र लगी रहती है । मरते समय भी उसी में मन अटका रहता है, जीवात्मा उसे छोड़कर जाना नहीं चाहता, उसके संग ही रहना चाहता है, पर समय आ जाने पर कोई भी इस काया में क्षणभर भी नहीं रह सकता; अतः देह त्यागनी ही पड़ती है; पर चूंकि पुरुष में मन लगा रह जाता है, उसकी वासना मन में रह जाती है, इसलिए वासना के कारण फिर जन्म लेना पड़ता है । जो जन्म लेता है, उसे मरना भी पड़ता है । इस तरह पुरुष-आसक्त को बारम्बार जन्म लेने और मरने का घोर क्लेश सहना पड़ता है । उसे कभी सुख नहीं मिलता; उसकी मोक्ष नहीं होती । इसीलिए कहा है कि, जो स्त्रियां पुरुष के साथ हैं, उनकी बड़ी बुरी गति होती है । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">सोरठा </span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तजि तरुण सों नेह, बुद्धिबर सों नेह कर।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नरक निवारत येह, वहै नरक लै जात है।।</span></span></div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"> </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं </span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">कालेशक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम्।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">तृष्णास्त्रोतोविभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा </span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">सामान्यः सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधि:श्रेयसामेष पन्थाः।। ६३ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">किसी भी जीव की हिंसा न करना, पराया माल न चुराना, सत्य बोलना, समय पर सामर्थ्यानुसार दान करना, परस्त्रियों की चर्चा में चुप रहना, गुरुजनो के सामने नम्र रहना, सब प्राणियों पर दया करना और भिन्न भिन्न शास्त्रों में समान विश्वास रखना - ये सब नित्य सुख प्राप्त करने के अचूक रस्ते हैं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">यदि आप मोक्ष की अचूक राह चाहते हो, यदि आप चिरस्थायी कल्याण चाहते हो, तो आप किसी भी प्राणी का विनाश मत करो; अपने पेट के लिए किसी की जान मत मारो । जब मौका आवे, अपनी शक्ति अनुसार गरीबों और मुहताजों को दान दो, उनके दुःख दूर करो; उनके दुखों को अपना दुःख समझकर उनका कष्ट निवारण करो। जहाँ पराई स्त्रियों का ज़िक्र होता हो, वहां मत बैठो; यदि बैठना ही पड़े, तो तुम अपनी ज़बान से कुछ मत कहो । माता-पिता और गुरु के सामने सदा नम्र रहो, उनकी आज्ञा का पालन करो, उनका मान-सम्मान करो; भूल कर भी उनका अपमान न करो । छोटे बड़े सभी प्राणियों पर दया करो । सभी शास्त्रों को समान समझो; किसी में विश्वास और किसी में अविश्वास न करो, क्योंकि सभी का ध्येय एक ही है, सभी वहीँ पहुँचते हैं । जिस तरह नदियां, टेढ़ी-सीढ़ी बहती हुई समुद्र में ही जा मिलती हैं; उसी तरह सभी शास्त्र अपनी-अपनी राहों से मोक्ष या परमात्मा की ही राह बताते हैं । जो ऐसा विश्वास नहीं रखते, तर्क-वितर्क के झमेले में पड़ते हैं, वे वृथा भटकते और अपनी मंज़िल मक़सूद - परमपद - तक नहीं पहुँचते ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा तुलसीदास</b> ने ये सब विषय कैसी खूबी से संक्षेप में ही कह दिए हैं -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सदा भजन गुरु साधु द्विज, जीव दया सम जान।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सुखद सुनै रत सत्यव्रत, स्वर्ग-सप्त सोपान।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वञ्चक विधिरत नर अनय, विधि हिंसा अतिलीन।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुलसी जग मँह विदित वर, नरक निसैनी तीन।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">ईश्वर-भजन; गुरु, साधु-महात्मा और ब्राह्मणो की सेवा करना; जीवों पर दया करना; लोक में समदृष्टि रखना - सबको एक नज़र से देखना; सबको सुख देना; सुनीति पर चलना और सत्यव्रत धारण करना - ये सातों स्वर्ग में जाने की सात सीढ़ियां हैं । जो इन कामों को वासना के साथ करते हैं - इन कामों का पुरस्कार चाहते हैं, वे स्वर्ग में जाते हैं और जो इन कामों को बिना वासना के करते हैं, वे भगवान् में मिल जाते हैं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">खुलासा यह है कि जो लोग परमात्मा का भजन करते हैं, गुरु, महात्मा और ब्राह्मणो को सेवा करते और उनसे उपदेश लेते हैं, जीवों पर दया करते हैं, अपनी भरसक किसी भी जीव को दुःख नहीं होने देते, सबको एक नज़र से देखते हैं, किसी से दोस्ती और किसी से दुश्मनी नहीं रखते; सभी को सुख देते हैं - किसी को भी नहीं सताते; न्याय और नीति के मार्ग पर चलते हैं - अनीति से बचते और अत्याचार नहीं करते तथा सदा सत्य बोलते हैं - सपने में भी झूठ नहीं बोलते - वे स्वर्ग में जाते हैं, क्योंकि ये सात स्वर्ग की सीढिया हैं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"></span><br></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">गोस्वामी जी ने ऊपर स्वर्ग में चढ़ने की सात सीढ़ियाँ बताई हैं, अब वह नरक की तीन नसैनी भी बताते हैं - जो लोग चोरी, जोरी और ठगी अथवा और तरह से धोखा देकर पराया धन हड़पते हैं, जो लोग अनीति और अन्याय करते हैं - पराई स्त्रियों को भोगते हैं, पराई निन्दा या बदनामी करते हैं, पराया काम बिगाड़ते हैं, जुआ खेलते हैं, वेश्यागमन करते हैं, जो लोग अपने सुख के लिए जीवों को मारते हैं अथवा मोह के वश में होकर जीवहत्या करते हैं; यानी छल, अनीति और हिंसा का आश्रय लेते हैं, वे निश्चय ही नरकों में जाते हैं; क्योंकि ये तीनो काम नरक की नसैनी हैं ।</span></div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<br></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<br></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">मातर्लक्ष्मि भजस्व कंचिदपरं मत्काङ्क्षिणी मा स्म भूः</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">भोगेभ्यः स्पृहयालवो न हि वयं का निस्पृहाणामसि।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">सद्यःस्यूतपलाशपत्रपुटिकापात्रे पवित्रीकृते </span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">भिक्षासक्तुभिरेव सम्प्रति वयं वृत्तिं समीहामहे।। ६४ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">हे मां लक्ष्मी ! अब किसी और को खोज, मेरी इच्छा न कर; अब मुझे विषय-भोगों की चाह नहीं है; मेरे जैसे निस्पृह - इच्छा-रहितों के सामने तू तुच्छ है । क्योंकि अब मैंने हर ढाकके पत्तो के दोनों में भिक्षा के सत्तू से गुज़ारा करने का संकल्प कर लिया है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जो अपनी इच्छा का नाश कर देता है, जो किसी भी पदार्थ की इच्छा नहीं रखता - वह लक्ष्मी क्या - संसार के बड़े बड़े सुख-भोग और धन-दौलत को तुच्छ समझता है; वह बादशाहों को भी माल नहीं समझता । जो जंगल के फलमूलों पर गुज़र कर लेता है या भिक्षा के सत्तू को ढाक के पात में पानी से घोल कर पी जाता है, वस्त्र की भी जरुरत नहीं रखता, उसे किसी परवा ? उसे दुःख कहाँ ? यदि मनुष्य सच्चा सुख चाहे, परमपद या परमात्मा को चाहे तो "इच्छा" को त्याग दे । सब आफतों की जड़ "इच्छा" ही है ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मौकों तजि भजि और कों, ऐरी लक्ष्मी मात !।</span></span></div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हैं पलाश के पात में, मांग्यो सतुआ खात।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">यूयं वयं वयं यूयमित्यासीन्मतिरावयोः।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">किं जातमधुना येन यूयं यूयं वयं वयम्।। ६५ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">पहले हमारा आपका इतना गाढ़ा सम्बन्ध था कि, आप थे सो मैं था और मैं था सो आप थे । अब क्या फर्क हो गया है, कि मैं - मैं ही हूँ और आप - आप ही हैं ?</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">पहले आपमें और मुझमें भेद नहीं था । जो आप थे सो मैं था और मैं था सो आप थे । मैं और आप दोनों ही एक से थे - आप और मैं दोनों ही पहले विषयासक्त थे; किन्तु अब बड़ा भेद हो गया है; यानी आप अब तक विषयासक्त ही हैं पर मैं विषयों से विरक्त हो गया हूँ । आपने अब तक संसार के झूठे सुखों - विषय वासनाओं का परित्याग नहीं किया है; पर मित्र, मैं तो अब इनसे घबरा गया - थक गया; मुझे इनमें कुछ भी सार या तत्व न दीखा, इसलिए मैंने अब सबसे किनारा करके वैराग्य ले लिया है । आप सभी नरक में ही हैं, पर मैं विवेक-बुद्धि से काम लेकर, नरक से निकलकर स्वर्ग में आ गया हूँ । आप अभी तक दुःख के बीज बो रहे हैं; पर मैं अब सुख के बीज बो रहा हूँ । मित्र ! तुम भी मेरी तरह उन भयंकर जञ्जालों को छोड़कर मेरी जैसी सुख की राहपर क्यों नहीं आ जाते ? मित्रवर ! इस राह में सुख है; उस राह में घोर दुःख और नरक यातनाएं हैं । संसार को छोड़ने और भगवत से प्रीती करने में बड़ा आनन्द है । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> ने कहा है -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दुनिया से ज़ौक़ रिश्तए उल्फत को तोड़ दे।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जिस सर का है यह बाल, उसी सर में जोड़ दे।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुम-हम हम-तुम एक हैं, सब विधि रह्यो अभेद।</span></span></div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अब तुम-तुम हम-हमहिं हैं, भयो कठिन यह भेद।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">बाले लीलामुकुलितममीमन्थरा दृष्टिपाताः</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">किं क्षिप्यते विरम विरमं व्यर्थ एव श्रमस्ते।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">संप्रत्यन्ये वयमुपरतम् बाल्यामावस्था वनान्ते</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">क्षीणो मोहस्तृणमिव जगज्जालमालोक्यामः।। ६६ ।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">ऐ बाला ! अब तू लीला से अपनी आधी खुली आँखों से मुझ पर क्यों कटाक्ष बाण चलाती है ? अब तू काममद पैदा करने वाली दृष्टी को रोक ले; तेरे इस परिश्रम से तुझे कोई लाभ न होगा । अब हम पहले जैसे नहीं रहे हैं । हमारी जवानी चली गयी है । अब हमने वन में रहने का निश्चय कर लिया है और मोह त्याग दिया है; अब हम विषय सुखों को तृण से भी निकम्मा समझते हैं । </span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><b>महाकवि दाग</b> कहते हैं -</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तौबा जो मैंने की, निकल आया ज़रा सा मुंह।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वह रंग रूप ही नहीं, सुबहे बहार का।।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"></span></span><br></div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">बसन्त को सौंदर्य का बड़ा अभिमान था । जब से मैंने शराब पीने से तौबा कर ली है, तब से बसन्त-लक्ष्मी का मुंह फीका पड़ गया है । जब तक मैं शराबी था, तभी तक उसकी शोभा का कायल था। अब तो मुझे उसमें भी विशेषता मालूम नहीं होती ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
</div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">इयं बाला मां प्रत्यनवरतमिन्दीवरदल</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">प्रभाचोरं चक्षुः क्षिपति किमभिप्रेतमनया।।</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">गतो मोहोऽस्माकं स्मरकुसुमबाण व्यतिकर-</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">ज्वलज्ज्वाला शान्ति न तदपि वराकी विरमति।। ६७ ।। </span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">यह बाला स्त्री मुझ पर बार-बार नीलकमल की शोभा से भी सुन्दर नेत्रों से कटाक्ष क्यों मारती है ? मैं नहीं समझता इसका क्या मतलब है ? अब तो मेरा मोह जाता रहा है - काम के पुष्प बाणो से निकली हुई आग की ज्वाला शान्त हो गयी है । आश्चर्य है, कि अब तक भी यह मूर्खा बाला अपनी कोशिशों से बाज़ नहीं आती ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;">जिनका मोह-जाल कट जाता है, जिनकी विषय-वासना बुझ जाती है, जो स्त्रियों की असलियत को समझ जाते हैं, जो उनको नरक की नसैनी समझ लेते हैं, उन पर स्त्रियों के कटाक्ष बाण असर नहीं करते । हाँ वे अपने स्वभावानुसार अपने तीखे-तीखे बाण चलाया ही करती हैं; परन्तु तत्ववित्त लोग उनके जाल में नहीं फंसते । उन पर उनके अचूक बाण फेल हो जाते हैं ।</span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">केहि कारण डारत बयन, कमलनयन यह नार।</span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मोह काम मेरे नहीं, तउ न तिय-चित हार।।</span></span></div>
<div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span></div>
<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span></div>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"><b>रम्यं हर्म्यतलं न किं वसतये श्राव्यं न गेयादिकं</b></span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"><b>किं वा प्राणसमासमागमसुखं नैवाधिकं प्रीतये।।</b></span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"><b>किं तूद्भ्रान्तपतङ्गपक्षपवनव्यालोलदीपाङ्कुर-</b></span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"><b>च्छायाचञ्चलमाकलय्य सकलं सन्तो वनान्तं गताः।। ६८ ।।</b></span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"><b><br></b></span>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"><b>अर्थ:</b></span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;">क्या सन्तों के रहने के लिए उत्तमोत्तम महल न थे, क्या सुनने के लिए उत्तमोत्तम गान न थे, क्या प्यारी-प्यारी स्त्रियों के संगम का सुख न था, जो वे लोग वनों में रहने को गए ? हाँ, सब कुछ था; पर उन्होंने इस जगत को गिरने वाले पतंग के पंखों से उत्पन्न हवा से हिलते हुए दीपक की छाया के समान चञ्चल समझकर छोड़ दिया; अथवा उन्होंने मूर्ख पतंग की भांति, जो हवा से हिलते हुए दीपक के छाया में घूम-घूमकर अपने तई जलाकर भस्म कर देता है, संसार को अपना नाश करते देखकर संसार को छोड़ दिया।</span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;">यह संसार दीपक की लौ के समान है और इसमें बसनेवाले जीव पतंगों के समान हैं । जिस तरह मूर्ख पतंग दीपक से मोह करके और उस पर गिर-गिर भस्म होते हैं; उसी तरह मनुष्य इस संसार के असल तत्व को न समझकर, इसके मोह में फंसकर, इसमें नाश होते हैं । जिस तरह पतंग नहीं समझता कि दीपक से प्रेम करने में मेरे हाथ कुछ न आवेगा, बल्कि मेरी जान ही जायेगी; उसी तरह संसारी आदमी नहीं समझते, कि इन संसारी विषय-वासनाओं में फंसकर, इनसे प्रेम करके हम अपना नाश करा बैठेंगे । जो बुद्धिमान और विचारवान हैं, वे इस बात को समझते हैं; अतः संसारी पदार्थों से मोह नहीं करते और अपने नाश से बचते हैं । वे संसार को अनित्य और नाश की निशानी समझकर, इससे मन हटाकर परमात्मा में मन लगते हैं । वे अपने तई दुनिया का मुसाफिर मात्र समझकर, मौत का हरदम ख्याल रखते हैं ।</span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"><b>महात्मा कबीर</b> ने कहा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-family: "times new roman"; font-size: large;">तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-family: "times new roman"; font-size: large;">को काहू को है नहीं, सब देखा ठोक बजाय।।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-family: "times new roman"; font-size: large;">"कबिरा" रसरि पाँव में, कहँ सोवे सुख चैन।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-family: "times new roman"; font-size: large;">श्वास-नकारा कूंच का, बाजत है दिन-रैन।।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-family: "times new roman"; font-size: large;">इस चौसर चेता नहीं, पशु-ज्यों पाली देह।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-family: "times new roman"; font-size: large;">राम नाम जाना नहीं, अन्त परी मुख खेह।।</span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"><br></span>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;">यह शरीर सराय है, मन चौकीदार है और मनसा - इच्छा इस शरीर रुपी सराय में उतरा हुआ मुसाफिर है; इस जगत में कोई किसी का नहीं है । अच्छी तरह ठोक बजा या जांच पड़ताल करके देख लिया ।</span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;">हे कबीर ! पैरों में रस्सी पड़ी हुई है । फिर भी तू सुख चैन में कैसे सो रहा है ? देख इस दुनिया से कूच करने का श्वास रुपी नागदा दिन-रात बज रहा है !</span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;">अगर तू इस चौपड़ के खेल में न चेतेगा, इस जन्म में भी होश न करेगा, पशु की तरह शरीर को पालेगा और राम को नहीं जानेगा; तो अन्त में तेरे मुंह में धुल पड़ेगी ।</span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"><br></span>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"><b>छप्पय</b></span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"><b>----------</b></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-family: "times new roman"; font-size: large;">महल महारमणीक, कहा बसिबे नहिं लायक ?</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-family: "times new roman"; font-size: large;">नाहिन सुनवे जोग, कहा जो गावत गायक ?</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-family: "times new roman"; font-size: large;">नवतरुणी के संग, कहा सुखहू नहिं लागत ?</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-family: "times new roman"; font-size: large;">तो काहे को छाँड़-छाँड़, ये बन को भागत ?</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-family: "times new roman"; font-size: large;">इन जान लियो या जगत को, जैसे दीपक पवन में ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-family: "times new roman"; font-size: large;">बुझिजात छिनक में छवि भरयो, होत अंधेरो भवन में ।।</span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"></span></span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;">अतीव सुन्दर व रमणीक महल क्या बसने योग्य नहीं हैं ? गवैये जो मनोहर गाना गाते हैं, क्या वह सुनने योग्य नहीं है ? नवीना बाला स्त्रियों के साथ रमण करने में क्या आनन्द नहीं आता ? अगर इन सब में आनन्द और सुख है, तो लोग इन सबको छोड़-छोड़ कर बन में क्यों भागे जाते हैं ? इसलिए भागे जाते हैं, कि उन्होंने इस जगत को उस दीपक के समान समझ लिया है, जो हवा में रखा हुआ है और क्षणभर में बुझ जाता है ।</span><br>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"><br></span>
<span style="font-family: "times new roman"; font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">किं कन्दाःकन्दरेभ्यः प्रलयमुपगता निर्झरा व गिरिभ्यः</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">प्रध्वस्ता वा तरुभ्यः सरसफलभृतो वल्कलिन्यश्च शाखाः।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">वीक्ष्यन्तेयन्मुखानि प्रसभमपगतप्रश्रयाणाम् खलानां</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">दुःखोपात्ताल्पवित्तस्मयवशपवनानअर्तितभ्रूलतानि।। ६९ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">क्या पहाड़ों की गुफाओं में कन्द-मूल और उनकी चट्टानों में पानी के झरने नहीं रहे, क्या छाल वाले वृक्षों में रसीली फलवती शाखाएं नहीं रहीं, जो लोग उन अभिमानी और नीचों के सामने दीनता करते हैं, जिनकी भौंहें मारे अभिमान के चढ़ी रहती हैं और जिन्होंने बड़े कष्ट से थोड़ा सा धन जमा कर लिया है ? </span><br>
<span style="font-size: large;">पहाड़ों में रहने को गुफाएं, खाने को कन्दमूल, पीने को उनके झरनों का जल और वृक्षों में मीठे मीठे रसीले फल मौजूद हैं; फिर भी लोग उन धनियों की टेढ़ी भृकुटियों को क्यों देखते हैं, उनकी टेढ़ी-सूधी क्यों सहते हैं, जिनकी आँखें उस थोड़े से धन के मद से नहीं खुलती, जो उन्होंने बड़े बड़े कष्टों से येनकेन प्रकारेण जमा कर लिया है ! ऐसे नीच अभिमानियों से अपमानित होने की अपेक्षा पहाड़ों में रहना और फलमूल तथा शीतल जल पर गुज़ारा करना भला । इस से उनकी आत्मा खूब सुखी होगी; अभिमानी नीच धनियों की बुरी बातों से आत्मा जल जल कर ख़ाक होती है ।</span><br>
<span style="font-size: large;">अगर कुछ भी समझ हो, ज़रा भी आत्मप्रतिष्ठा का ख्याल हो, तो मनुष्य को अपनी "इच्छा" का नाश करना चाहिए । इच्छा रहित मनुष्य सात विलायतों के बादशाह को भी तुच्छ समझता है । धनियों से दीनता करना और माँगना बड़ी बुरी बात है । देखिये <b>गोस्वामी तुलसीदासजी</b> प्रभृति महापुरुषों ने क्या कहा है :-</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर न करो।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरण करो।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">माँगन मरण समान है, मत कोई मांगो भीख।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">माँगन ते मरना भला, यह सतगुरु की सीख।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">तुलसीदास जी कहते हैं - हे प्रभु ! हाथ पर हाथ करो, हाथ के नीचे हाथ न करो । जिस दिन हाथ के नीचे हाथ करो, उस दिन हमारी मौत हो जाए । मतलब यह है कि जब तक हम दूसरों को देते रहे, तब तक हम जीवित रहे; जिस दिन हमारी मांगने की नौबत आ जाये, उस दिन हम मर जाएँ ।</span><br>
<span style="font-size: large;">अगर दीनता ही करनी है तो परमात्मा से करो । उसके आगे दीनता करने से सभी इच्छाएं पूरी हो सकती हैं । कहा है :-</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तेरी बन्दानवाज़ी, हफ्त किश्वर बख़्फ़ा देती है ।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;">जो तू मेरा - जहाँ मेरा, अरब मेरा, अज़म मेरा ।।</span> <b>दाग़ </b><span style="background-color: #fff2cc;">।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>कबीर</b> ने कहा है :-</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">थोड़ा सुमिरन बहुत सुख, जो करि जानै कोय ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सूत लगे न बिनावनी, सहजै तनसुख होय ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">साईं सुमिर, मत ढील कर; जा सुमरे ते लाह।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">इहाँ ख़लक खिदमत करे, वहाँ अमरपुर जाह।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">भगवान् की थोड़ी सी याद करने से ही बहुत सुख होता है, बशर्ते की कोई याद करना जाने । इसमें न तो सूत लगता है और न बिनवाई देनी पड़ती है; सहज में आनन्द होता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;">हे मनुष्य ! स्वामी को सुमिरन करने में देर न कर । उसके सुमिरन में बहुत लाभ हैं । जो स्वामी को याद करता है, इस दुनिया में संसारी लोग उसकी सेवा करते हैं और जब मर कर दूसरी दुनिया में जाता है, तब स्वर्गपुरी में बस्ता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कहा कन्दराहीन भये, पर्वत भूतल से ?</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">झरना निर्जल भये कहा, जे पूरित जल से ?</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कहा रहे सब वृक्ष, फूल-फल बिन मुरझाये ?</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सही खलन के बैन, अन्धता जो मद छाये ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कर संचित धन जे स्वल्प हूँ, इत उत फेरें भ्रू विकट ।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-family: "times new roman"; font-size: medium;"></span><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रे मन ! तू भूल न जाहुं कहूं, इन खल पुरुषन के निकट ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">गंगातरंगकणशीकरशीतलानि</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">विद्याधराध्युषितचारुशीलतलानि।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">स्थानानि किं हिमवतः प्रलयं गतानि</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">यत्सावमानपरपिण्डरता मनुष्याः।। ७० ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">हिमालय पर्वत के वे चट्टानें जो गंगाजल की लागरों से उठे हुए छींटो से शीतल हो रही है और जहाँ जगह जगह विद्याधर बैठे हैं, क्या अब नहीं रही हैं, जो लोग अपमान से मिले हुए पराये टुकड़ों पर गुज़र करते हैं ?</span><br>
<span style="font-size: large;">पराये टुकड़ों पर गुज़र करने की अपेक्षा मर जाना भला है । अगर माँगना ही हो तो, तो मांगने की विधि चातक से सीखनी चाहिए । वह एक से ही मांगता है, दूसरे से हरगिज़ नहीं मांगता, चाहे मर क्यों न जाए; और मांगने में भी यह खूबी, कि वह कभी अधीन होकर नहीं मांगता; एक घनश्याम(बादल) से ही मांगता है । चातक के समान याचक और वारिद(बादल) के समान दानी जगत में कौन है ? जो ओछों से मांगते हैं, जने-जने के पैर पकड़ते हैं, उनको धिक्कार है ! इसलिए मनुष्यों ! पापहीये की तरह एकमात्र घनश्याम से ही मांगो । <b>महात्मा तुलसीदास जी</b> ने कहा है :-</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"तुलसी" तीनों लोक में, चातक ही को माथ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सुनियत जासु न दीनता, किये दूसरो नाथ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऊंची जाति पपीहरा, नीचे पियत न नीर।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कै याचै घनश्याम सों, कै दुःख सहै शरीर।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ह्वै अधीन चातक नहीं, शीश नाय नहिं लेय।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऐसे मानी मंगनहीं, को वारिद बिन देय।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">तुलसी कहते हैं - तीनो लोक में सिर्फ एक पापहीये का ही सिर ऊंचा है, क्योंकि उसने अपने स्वामी स्वाति के सिवा और किसी से कभी दीनता नहीं की ।</span><br>
<span style="font-size: large;">पपहिए की जाति ऊंची है; क्योंकि वह नदियों और तालाबों वगैरह जलाशयों का पानी नहीं पीता । वह या तो घनश्याम से यानि स्वाति नक्षत्र में बादल से ही मांगता है अथवा दुःख भोगता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;">पपहिया और मंगतों की तरह अधीन होकर और सिर नवकार नहीं लेता । वह तो मान के साथ ही लेता है । ऐसे मानी मांगते को बादल के सिवा और कौन दे सकता है ? जिनको परमात्मा ने देने लायक बनाया है, उन्हें दिल खोलकर गरीब और मुहताजों को देना चाहिए । जो देते हैं, फिर पाते हैं और जो देते हैं उन्हीं का जीवन सफल है । <b>रहीम कवी</b> कहते हैं :-</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दीनहि सबको लखत है, दीन लखे नहीं कोय।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जो "रहीम" दीनहिं लखत, दीनबन्धु सम होय।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"रहिमन" वे नर मर चुके, जे कहूं माँगन जाहिं।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">उनते पाहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तबही लग जीबो भलो, दीबो परे न धीम।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बिन दीबो जीबो जगत, हमें न रुचे "रहीम"।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="font-size: large;">दीन या मुहताज सबकी तरफ देखता है, पर दीन की तरफ कोई नहीं देखता । रहीम कहते हैं, जो दीन की तरफ देखता है, वह दीनबन्धु भगवान् के समान होता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;">रहीम कहते हैं, वे मनुष्य मर गए जो कहीं मांगने जाते हैं । उनसे पहले वे मरे, जिनके मुंह से नाही निकलती है । मतलब यह है कि मंगता तो मरा हुआ है ही, पर जो मांगने वालों को नहीं देता, वह उससे भी पहले मरा हुआ है । जीना तभी तक अच्छा है जब तक देना मन्दा न हो । बिना दान किये जीना, रहीम कहते हैं, हमें अच्छा नहीं लगता ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><b><span style="font-size: medium;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: medium;">दोहा</span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">गंगातट गिरिवर गुफा, उहाँ कहँ नहीं ठौर ?</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">क्यों ऐते अपमान सों, खात पराये कौर ?</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">यदा मेरुः श्रीमान्निपतति युगान्ताग्निनिहितः </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">समुद्राः शुष्यन्ति प्रचुरनिकरग्राहनिलायाः।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">धरा गच्छत्यन्तं धरणिधरपादैरपि धृता </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">शरीरका वार्त्ता करिकल भकर्णाग्रचपले।। ७१ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">जब प्रलय की अग्नि के मारे श्रीमान सुमेरु पर्वत गिर पड़ता है; मगरमच्छों के रहने के स्थान समुद्र भी सूख जाते हैं; पर्वतों के पैरों से दबी हुई पृथ्वी भी नाश हो जाती है; तब हाथी के कान की कोर के समान चञ्चल मनुष्य की क्या गिनती ?</span><br>
<span style="font-size: large;">जब काल सुमेरु जैसे पर्वतों को जला कर गिरा देता है, महासागरों को सुखा देता है, पृथ्वी को नाश कर देता है, तब इस छोटे से चञ्चल मनुष्य की क्या गिनती ? इसके नाश में कौन सा आश्चर्य ?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मेरु गिरत सूखत जलधि, धरनि प्रलय ह्वै जात।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">गजसुत के श्रुति चपल त्यौं, कहा देह की बात।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">कदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मूलनक्षमः।। ७२ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">हे शिव ! मैं कब अकेला, इच्छा रहित और शान्त हूँगा ? कब हाथ ही मेरा पात्र होगा और कब दिशाएं मेरे वस्त्र होंगे ? मैं कब कर्मों की जड़ उखाड़ने में समर्थ हूँगा ? </span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;">एकान्त वास करना, इच्छाओं को त्याग देना, शान्त रहना, हाथ से ही पानी वगैरह पीने के बर्तन का काम लेना, दिशाओं को ही वस्त्र समझना; यानी नग्न रहना और कर्मो की जड़ उखाड़ने में समर्थ होना - ये ही कल्याण के मार्ग हैं । जिनमें ये गुण हैं, वे धन्य हैं और वे ही सच्चे सुखिया हैं ।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">दोहा</span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">एकाकी इच्छा-रहित, पाणिपात्र दिगवस्त्र।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">शिव शिव ! हौं कब होऊंगा, कर्मशत्रु को शस्त्र?</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुघास्ततः किं</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">न्यस्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">सम्पादिताः प्रणयिनो विभवैस्ततः किं</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">कल्पस्थितास्तनुभृतां तनवस्ततः किम् ।। ७३ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">जीर्णा कंथा ततः किं सितममलपटं पट्टसूत्रं ततः किम् </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">एका भार्या ततः किं हय करिसुगणैरावृतो वा ततः किम्।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">भक्तं भुक्तं ततः किं कदशनमथ वा वासरांते ततः किं </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">व्यक्त ज्योतिर्नवांतर्मथितभवभयं वैभवं वा ततः किम्।। ७४ ।।</span></b><br>
<span style="font-size: large;"><b><br></b><b>अर्थ:</b></span><br>
<span style="font-size: large;">अगर मनुष्यों को सब इच्छाओं के पूर्ण करनेवाली लक्ष्मी मिली तो क्या हुआ ? अगर शत्रुओं को पदानत किया तो क्या ? अगर धन से मित्रों की खातिर की तो क्या ? अगर इसी देह से इस जगत में एक कल्प तक भी रहे तो क्या ?</span><br>
<span style="font-size: large;">अगर चीथड़ों की बनी हुई गुदड़ी पहनी तो क्या ? अगर निर्मल सफ़ेद वस्त्र पहने या पीताम्बर पहने तो क्या ? अगर एक ही स्त्री रही तो क्या ? अगर अनेक हाथी-घोड़ों सहित अनेकों स्त्रियां रहीं तो क्या ? अगर नाना प्रकार के व्यंजन भोजन किये अथवा शाम को मामूली खाना खाया तो क्या ? चाहे जितना वैभव पाया, पर यदि संसार बन्धन को मुक्त करनेवाली आत्मज्ञान की ज्योति न जानी, तो कुछ भी न पाया और कुछ भी न किया ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;">मतलब यह है, सारे संसार के राज्य-वैभव अथवा त्रिभुवन के अधिपति होने में भी जो आनन्द नहीं है, वह आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान में है ।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"> आत्मज्ञान होने से ही मनुष्य, जीवन मरण के कष्ट से छुटकारा पाकर, परम शान्ति-लाभ मिलता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;">अर्ब खर्ब लौं द्रव्य है, उदय अस्त लौं राज।</span><br>
<span style="font-size: large;">जो तुलसी निज मरन है, तौ आवे केहि काज?।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;">अगर अरब खरब तक धन हो और उदयाचल से अस्ताचल तक राज हो, तो भी अगर अपना मरण हो, तो ये सब किस काम के ? धन-दौलत और राज-पाट सब जीते रहने पर काम आते हैं, मरने पर इनसे कोई लाभ नहीं ।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">दोहा</span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">इन्द्र भये धनपति भये, भये शत्रु के साल।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कल्प जिए तोउ गए, अन्त काल के गाल।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: medium;"></span></span><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">भक्तिर्भवे मरणजन्मभयं हृदिस्थं</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">स्नेहो न बन्धुषु न मन्मथजा विकाराः।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">संसर्गदोषरहिता विजना वनान्ता</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">वैराग्यमस्ति किमितः परमार्थनीयम्।। ७५ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">सदाशिव की भक्ति हो, दिल में जन्म-मरण का भय हो, कुटुम्बियों में स्नेह न हो, मन से काम-विचार दूर हों और संसर्ग-दोष से रहित होकर जंगल में रहते हों - अगर हममें ये गुण हों तब और कौन सा वैराग्य ईश्वर से मांगें ?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">परमात्मा में प्रेम होना, मन में जन्म-मरण का भय होना, रिश्तेदारों से प्रेम न होना, मन में स्त्री की इच्छा का न उठना, एकान्तस्थान में अकेले वन में निवास करना - ये ही तो वैराग्य के पूरे लक्षण हैं । इनसे अधिक वैराग्य के और लक्षण नहीं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मन विरक्त हरिभक्ति-युत, संगी बन तृणडाभ ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">याहुते कछु और है, परम अर्थ को लाभ ?</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">तस्मादनन्तमजरं परमं विकासि-</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">तद्ब्रह्म चिन्तय किमेभिरसद्विकल्पैः ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">यस्यानुषङ्गिण इमे भुवनाधिपत्य-</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">भोगादयः कृपणलोकमता भवन्ति।। ७६ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">उस वास्ते मनुष्यों ! अनन्त, अजर, अमर, अविनाशी और शान्तिपूर्ण ब्रह्म का ध्यान करो । मिथ्या जंजालों में क्या रखा है ? जो ब्रह्म का ज़रा सा भी आनन्द पा जाते हैं, उनकी नज़रों में संसारी राजाओं का आनन्द तुच्छ जंचता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;">मतलब है कि लोगों को अनन्त, अजर, अमर, अविनाशी, शोक-रहित, शान्तिपूर्ण ब्रह्म का ध्यान करना चाहिए । उसी के ध्यान में पूर्णानन्द है; संसार के भोग-विलासों में ज़रा भी आनन्द नहीं । वह आनन्द सदा है; या आनंद क्षणिक है । उसमें सदा सुख है; इसमें सदा दुःख है । जिनको ब्रह्मानन्द का ज़रा सा भी मज़ा आ जाता है, वे त्रिलोकी के अधिपति के आनन्द को भी तुच्छ समझते हैं । राज, धन-दौलत और स्त्री-पुत्र प्रभृति सब उस परमात्मा के पीछे हैं; इसलिए इनको छोड़कर उससे ही प्रीति करने में चतुराई है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">दोहा</span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ब्रह्म अखण्डानन्द पद, सुमिरत क्यों न निशङ्क । </span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जाके छिन-संसर्ग सों, लगत लोकपति रंक ?</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<br>
<div>
<b><span style="font-size: large;">पातालमाविशशि यासि नभो विलङ्घ्य</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">दिङ्मण्डलं भ्रमसि मानस चापलेन ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">भ्रान्त्यापि जातु विमलं कथमात्मनीतं </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">तद्ब्रह्म न स्मरसि निर्वृतिमेषि येन ।। ७७ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">हे चित्त ! तू अपनी चञ्चलता के कारण पाताल में प्रवेश करता है, आकाश से भी परे जाता है, दशों दिशाओं में घूमता है; पर भूल से भी तू उस विमल परमब्रह्म की याद नहीं करता, जो तेरे ह्रदय में ही मौजूद है, जिसके याद करने से ही तुझे परमानन्द - मोक्ष - मिल सकती है ! </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">इस चञ्चल मन की अद्भुत लीला है । यह कभी आकाश में जाता है, कभी पाताल में जाता है और कभी दशों दिशाओं में फिरता है । इधर-उधर तो इतना भटकता है; पर, भूलकर भी, जहाँ जाना चाहिए वहां नहीं जाता । उसके पास ही अमृत का सरोवर है, उसे छोड़कर सदी-गली नालियों में फिरता है । उसे सब जगह छोड़ कर अपने ह्रदय में ही बैठे हुए ब्रह्म के पास जाना चाहिए और हर समय उसकी ही चिन्तना करनी चाहिए; इस से उसके पापों का नाश हो जाएगा, आवागमन से छुटकारा मिल जाएगा एवं परम शान्ति की प्राप्ति होगी । और चिन्ताओं से कोई लाभ नहीं; उन से तो जञ्जालों में ही फंसना होता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;">मूर्ख लोग अव्वल तो परमत्मा में दिल ही नहीं लगते । यदि भूल से लगते भी हैं, तो परमात्मा की खोज में जहाँ-तहँ मारे मारे फिरते हैं; पर अपने ह्रदय में ही उसे नहीं खोजते ! यह उनका महा अज्ञान है । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> ने कहा है :-</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वह पहलु में बैठे हैं और बदगुमानी ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">लिए फिरती मुझको, कहीं का कहीं है ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">वह(ईश्वर) बगल में ही बैठा है, पर मैं भ्रम में फंसकर उसे ढूंढने के लिए कहाँ कहाँ मारा फिरता हूँ ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा कबीर</b> कहते हैं :-</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ज्यों नयनन में पूतली, त्यों खालिक घट मांहि ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मूरख नर जाने नहीं, बाहर ढूंढन जाहि ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूंढें बन मांहि ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऐसे घट-घट ब्रह्म है, दुनिया जाने नाहिं ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">समझा तो घर में रहे, परदा पलक लगाय ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तेरा साहिब तुझहि में, अंत कहूँ मत जाय ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा सुन्दरदास जी</b> कहते हैं :-</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कोउक जात प्रयाग बनारस।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कोउ गया जगन्नाथहि धावै ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कोउ मथुरा बदरी हरिद्वार सु ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कोउ गंगा कुरुक्षेत्र नहावै ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कोउक पुष्कर ह्वै पञ्च तीरथ ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दौरिहि दौरि जु द्वारिका आवै ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सुन्दर चित्त गह्यौ घरमांहि सु ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बाहिर ढूँढत क्यूंकरि पावै ? ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जिस तरह आँखों में पुतली है, उसी तरह घट में (ह्रदय कमल में) पैदा करने वाला है; पर मूर्ख इस बात को नहीं जानता और उसे बहार खोजने जाता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;">कस्तूरी हिरन की अपनी नाभि में है, पर मृग उसे बन में खोजता है; उसी तरह ब्रह्म घट-घट में है, पर दुनिया इस भेद को नहीं जानती ।</span><br>
<span style="font-size: large;">अगर समझता है तो घर में रह और पलकों का पर्दा लगा कर देख, तेरा मालिक तेरे ही अंदर है; अन्यत्र जाने की ज़रुरत नहीं ।</span><br>
<span style="font-size: large;">कोई परमेश्वर की खोज में प्रयाग, काशी, गया, पुरी, मथुरा, कुरुक्षेत्र और पुष्कर जाता है और कोई द्वारका जाता है । सुन्दरदास जी कहते हैं, जो धन घर में गड़ा है, वह बाहर कैसे मिलेगा ?</span><br>
<span style="font-size: large;">सारांश यह है, कि संसार अज्ञानान्धकार के कारण "छोरा बगल में ढिंढोरा शहर में" वाली कहावत चरितार्थ करता है । ईश्वर इसी शरीर के भीतर ह्रदय-कमल में मौजूद है, पर अज्ञानी लोग उसे पाने के लिए तीर्थों में भटकते फिरते हैं । इस तरह वह मिलता भी नहीं और वृथा हैरानी होती है । जो उसके दर्शन करना चाहें, नेत्र बन्द करके अपने ह्रदय में ही उसे देखें ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">कुण्डलिया </span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">--------------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">फांद्यौ ते आकाश को, पठयौ ते पाताल ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दशों दिशाओं में तू फिरयो, ऐसी चञ्चल चाल ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऐसी चञ्चल चाल, इतै कबहूँ नहीं आयौ ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बुद्धि सदन कों पाय, पाय छिनहूँ न छुवायौ ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">देख्यौ नहीं निज रूप, कूप अमृत को छाँद्यौ ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऐरे मन मतिमूढ़ ! क्यों न भव-वारिधि फांद्यौ ? ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">रात्रिः सैव पुनः स एव दिवसो मत्वा बुधा जन्तवो</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">धावन्त्युद्यमिनस्तथैव निभृतप्रारब्धतत्तत्क्रियाः ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">व्यापारैः पुनरुक्तभुक्त विषयैरित्थंविधेनामुना</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">संसारेण कदर्थिता कथमहो मोहान्न लज्जामहे।। ७८ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">प्राणियों में बुद्धिमान यदि जानते हैं कि दिन और रात ठीक पहले की तरह ही होते हैं; तो भी वे उन्हीं काम-धंधों के पीछे दौड़ते हैं, जिनके पीछे वे पहले दौड़ते थे । वे लोग उन्हीं-उन्हीं कामों में लगे रहते हैं, जिनसे क्षणिक और बारम्बार वही लाभ होते हैं, जिनको वे बारम्बार कह और भोग चुके हैं । आश्चर्य का विषय है, कि मनुष्यों को लज्जा नहीं आती !</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">देखते हैं कि पहले की तरह ही दिन, रात, तिथि, वार, नक्षत्र और मॉस तथा वर्ष आते हैं और जाते हैं ; उसी तरह हम कहते-पीते, सोते-जाते और काम-धंधे करते हैं; कोई नई बात नहीं देखते । जिन कामों को पहले करते थे, उन्हें ही बारम्बार करते हैं । उनमें कितना सा लाभ और सुख है, इसे भी देखते-सुनते और समझते हैं । फिर भी; आश्चर्य है कि, हम इस मिथ्या संसार से मोह नहीं तोड़ते !</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">कुण्डलिया </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">-------------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वेही निशि वेही दिवस; वेही तिथि वेही बार ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वे उद्यम वेही क्रिया, वेही विषय-विकार ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वेही विषय-विकार, सुनत देखत अरु सूंघत ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वेही भोजन भोग, जागि सोवत अरु ऊंघत ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">महा निलज यह जीव; भोग में भयो विदेही ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अजहूँ पलटत नाहिं, कढत गन वे के वेही ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">मही रम्या शय्या विपुलमुपधानं भुजलता</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">वितानं चाकाशं व्यजनमनुकूलोऽयमनिलः।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">स्फुरद्दीपश्चन्द्रो विरतिवनितासंगमुदितः </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">सुखं शान्तः शेते मुनिरतनुभूतिर्नृप इव।। ७९ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">मुनि लोग राजा महाराजाओं की तरह सुख से ज़मीन को ही अपनी सुखदायिनी शय्या मान कर सोते हैं । उनकी भुजा ही उनका गुदगुदा तकिया है, आकाश ही उनकी चादर है, अनुकूल वह ही उनका पंखा है, चन्द्रमा ही उनका चिराग है, विरक्ति ही उनकी स्त्री है; अर्थात विरक्ति रुपी स्त्री को लेकर वे उपरोक्त सामानों के साथ राजाओं की तरह सुख से आराम करते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">मुनि लोगों के पास न राजाओं की तरह महल हैं, न बढ़िया-बढ़िया पलंग और मखमली गद्दे-तकिये हैं, न ओढ़ने के लिए शाल-दुशाले हैं, बिजली के पंखे हैं, न झाड़-फानूस या बिजली की रौशनी है और न मृगनयनी, मोहिनी कामिनी ही हैं; तो भी वे ज़मीन को ही अपना पलंग, हाथ को ही तकिया, शीतल वह को ही पंखा, चन्द्रमा को ही दीपक और संसारी विषय-भोगों से विरक्ति को ही अपनी स्त्री मान कर सुख से सोते हैं । राजा-महाराजा और अमीर-उमरा बढ़िया-बढ़िया पलंग, कन्दहारी कालीन, मखमली गद्दे-तकिये, बिजली के पंखे और रौशनी तथा सुंदरी स्त्रियों के साथ जो मिथ्या सुख उपभोग करते हैं, उससे लाख दर्जे उत्तम और सच्चा सुख मुनि लोग ज़मीर और अपनी भुजा, अनुकूल वह, चन्द्रमा तथा अपनी विरक्ति रूपिणी स्त्री के साथ उपभोग करते हैं । अब बुद्धिमानो को विचार करना चाहिए, कि उन दोनों में बुद्धिमान कौन है और वास्तविक सुख किसे मिलता है । अमीरों के सुख के लिए कितने झंझट करने पड़ते हैं और कितनी आफतें उठानी पड़ती हैं; तथापि उन्हें सच्चा सुख नहीं मिलता और मुनि लोग बिना झंझट, बिना आफत और बिना प्रयास के सच्चा सुख भोगते और शान्ति की नींद सोते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पृथ्वी परम पुनीत, पलंग ताकौ मन मान्यौ ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तकिया अपनो हाथ, गगन को तम्बू तान्यौ ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सोहत चन्द चिराग, बीजना करात दशोंदिशि ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बनिता अपनी वृत्ति, संगहि रहत दिवस-निशि ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अतुल अपार सम्पति सहित, सोहत है सुख में मगन ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मुनिराज महानृपराज ज्यों, पौढ़े देखे हम दृगन ।।</span></span></div>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<br>
<div>
<b><span style="font-size: large;">त्रैलोक्याधिपतित्वमेव विरसं यस्मिन्महाशासने</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">तल्लब्ध्वासनवस्त्रमानघटने भोगे रतिं मा कृथाः।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">भोगः कोऽपि स एक एव परमो नित्योदितो जृम्भते</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">यत्स्वादाद्विरसा भवन्ति विषयास्त्रैलोक्यराज्यादयः।। ८० ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">हे आत्मा ! अगर तुझे उस ब्रह्म का ज्ञान हो गया है, जिसके सामने तीनो लोक का राज्य तुच्छ मालूम होता है; तो तू भोजन, वस्त्र और मान के लिए भोगों की चाहना मत कर; क्योंकि वह भोग सर्वश्रेष्ठ और नित्य है; उसके मुकाबले में त्रिलोकी के राज्य प्रभृति सुख कुछ भी नहीं हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जब तक मनुष्य को ब्रह्म ज्ञान नहीं होता, जब तक उसे आत्मज्ञान नहीं होता, जब तक उसे सुख का स्वाद नहीं मिलता, तभी तक मनुष्य संसारी-विषय-भोगों में सुख समझता है । जब मनुष्य को उस सर्वोत्तम - सदा स्थिर रहनेवाले सुख का स्वाद मिल जाता है, तब वह संसारी आनन्द या दुनियावी मज़े तो क्या - त्रिभुवन के राजसुख को भी कोई चीज़ नहीं समझता । मतलब यह है कि सच्चा और वास्तविक सुख ब्रह्मज्ञान या आत्मज्ञान में है । उसके बराबर आनन्द त्रिलोकी के और किसी पदार्थ में नहीं है । जो संसारी पदार्थों में सुख मानते हैं वे अज्ञानी और नासमझ हैं । उनमें अच्छे और बुरे, असल और नक़ल के पहचानने की तमीज नहीं । वे रस्सी को सांप और मृगमरीचिका को जल समझने वालों की तरह भ्रम में डूबे या बहके हुए हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">सोरठा </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कहा विषय को भोग, परम भोग इक और है ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जाके होत संयोग, नीरस लागत इन्द्रपद ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रैर्महाविस्तरैः</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">स्वर्गग्रामकुटिनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">मुक्तवैकं भवबन्धदुःखरचनाविध्वंसकालानलं </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषा वणिग्वृत्तयः।। ८१ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">वेद, स्मृति, पुराण और बड़े बड़े शास्त्रों के पढ़ने तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड करने से स्वर्ग में एक कुटिया की जगह प्राप्त करने के सिवा और क्या लाभ है ? ब्रह्मानन्द रुपी गढ़ी में प्रवेश करने की चेष्टा के सिवा, जो संसार बन्धनों के काटने में प्रलयाग्नि के समान है, और सब काम व्यापारियों के से काम हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;">वेद, स्मृति, पुराण और बड़े-बड़े शास्त्रों के पढ़ने-सुनने और उनके अनुसार कर्म करने से मनुष्य को कोई बड़ा लाभ नहीं है । अगर ये कर्मकाण्ड ठीक तरह से पार पड़ जाते हैं, तो इनसे इतना ही होता है, कि स्वर्ग में एक कुटी के लायक स्थान मिल जाता है, पर वह स्थान भी सदा कब्ज़े में नहीं रहता; जिस दिन पुण्यकर्मों का ओर आ जाता है, उस दिन वह स्वर्गीय स्थान फिर छिन जाता है; इससे प्राणी को फिर दुःख होता है । मतलब यह हुआ कि कर्मकाण्डों से जो सुख मिलता है, वह सुख नित्य या सदा-सर्वदा रहनेवाला नहीं । उस सुख के अन्त में फिर दुःख होता है - फिर स्वर्ग छोड़ कर मृत्युलोक में जन्म लेना पड़ता है - वही जन्म-मरण के दुःख झेलने पड़ते हैं । इसलिए मनुष्यों को ब्रह्मज्ञानी होने कि चेष्टा करनी चाहिए; क्योंकि ब्रह्मज्ञान रुपी अग्नि प्रलयाग्नि के समान है । वह अग्नि संसार बन्धनों को जड़ से जला देती है; अतः फिर सदा सुख रहता है - दुःख का नाम भी सुनने को नहीं मिलता । इसलिए ज्ञानियों ने ब्रह्मज्ञान - आत्मज्ञान को सर्वोपरि सुख दिलानेवाला माना है । मतलब यह है कि बिना ब्रह्मज्ञान या रामभक्ति के सब जप-तप आती वृथा हैं । सारे वेद-शास्त्रों और पुराणों का यही निचोड़ है कि ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्मरूप है । जो इस तत्व को जानता है वही सच्चा पण्डित है । जो ब्रह्म या आत्मा को नहीं जानता, वह अज्ञानी और मूर्ख है । उसका पड़ना लिखना वृथा समय नष्ट करना है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>तुलसीदास जी</b> ने कहा है :-</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चतुराई चूल्हे परौ, यम गहि ज्ञानहि खाय ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुलसी प्रेम न रामपद, सब जरमूल नशाय ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>महादेवजी पार्वती</b> से कहते हैं :-</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ये नराधम लोकेषु, रामभक्ति पराङ्गमुखाः।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जपं तपं दयाशौचं, शास्त्राणां अवगाहनं।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सर्व वृथा विना येन, श्रुणुत्वं पार्वति प्रिये ! ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">हे प्रिये ! जो नराधम इस लोक में राम की भक्ति से विमुख हैं, उनके जप, तप, दया, शौच, शास्त्रों का पठन-पाठन - ये सब वृथा हैं । असल तत्व भगवान् की निष्काम भक्ति या ब्रह्म में लीन होना है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">छप्पय</span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">श्रुति अरु स्मृति, पुरान पढ़े बिस्तार सहित जिन ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">साधे सब शुभकर्म, स्वर्ग को बात लह्यौ तिन ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">करत तहाँ हूँ चाल, काल को ख्याल भयंकर ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ब्रह्मा और सुरेश, सबन को जन्म मरण डर ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ये वणिकवृत्ति देखी सकल, अन्त नहीं कछु काम की ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अद्वैत ब्रह्म को ज्ञान, यह एक ठौर आराम की ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<br>
<div>
<b><span style="font-size: large;">ब्रह्माण्डमण्डलीमात्रं किं लोभाय मनस्विनः ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">शफरीस्फुरितेनाब्धेः क्षुब्धता जातु जायते ।। ८३ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">जो विचारवान है, जो ब्रह्मज्ञानी है, उसे संसार लुभा नहीं सकता । मछली के उछालने से समुद्र उड़ नहीं उमड़ता ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जिस तरह सफरी मछली के उछाल-कूद मचाने से समुद्र अपनी गंभीरता को नहीं छोड़ता, ज़रा भी नहीं उमगता, जैसा का तैसा बना रहता है; उसी तरह विचारवान ब्रह्मज्ञानी संसारी-पदार्थों पर लट्टू नहीं होता वह समुद्र की तरह गंभीर ही बना रहता है; अपनी गंभीरता नहीं छोड़ता । समुद्र जिस तरह मछली की उछल-कूद को कुछ नहीं समझता उसी तरह वह त्रिलोकी की सुख-संपत्ति को तुच्छ समझता है । मतलब यह है कि संसारी विषय-भोग उन्ही को लुभाते हैं, जो विचारवान नहीं हैं, जिनमें विचार शक्ति नहीं है, जिन्हे ब्रह्मज्ञान का आनन्द नहीं मालूम है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> कहते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दुनिया है वह सय्यद कि सब दाम में इसके।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आ जाते हैं लेकिन कोई दाना नहीं आता ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">दुनिया एक ऐसा जाल है, जिसमें प्रायः सभी फंसे हुए हैं । कोई दाना अर्थात विचारशील पुरुष ही इस जाल से बचा हुआ है ।</span><br>
<span style="font-size: large;">संसार अन्तः सार-शून्य है, इसमें कुछ नहीं है । यह ठीक आंवले के समान है, जो ऊपर से खूब सुन्दर और चिकना-चुपड़ा दीखता है; मगर भीतर कुछ नहीं । किसी ने संसार को स्वप्नवत और किसी ने इसे कोरा ख्याल ही कहा है । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>महाकवि ग़ालिब</b> कहते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हस्ती के मत फरेब में आ जाइयो असद ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आलम तमाम हलक़ ये दाम ख़्याल है ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">ग़ालिब सृष्टि के चक्कर में मत आ जाना । यह सब प्रपंच तुम्हारे ख़्याल के सिवा और कोई चीज़ नहीं है ।</span><br>
<span style="font-size: large;">इसके जाल में समझदार नहीं फंसते किन्तु नासमझ लोग, जाल के किनारों पर लगी सीपियों की चमक-दमक देखकर जाल में आ फंसने वाली मछलियों की तरह इसके माया-मोह में फंसकर अनेक प्रकार के कष्ट उठाते हैं; किन्तु ज्ञानी इसकी अनित्यता, इसकी असारता को देखकर इससे किनारा कर लेते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ज्यों सफरी को फिरत लख, सागर करत न क्षोभ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अण्डा से ब्रह्माण्ड को, त्यों सन्तन को लोभ ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">यदासीदज्ञानं स्मरितिमिरसंस्कारजनितं</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">तदा दृष्टं नारिमयभिदमशेषं जगदपि ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">इदानीमस्माकं पटुतर विवेकाञ्जनजुषां</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">समीभूता दृष्टीस्त्रिभुवनमपि ब्रह्म तनुते ।। ८४ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">जब तक हमें कामदेव से पैदा हुआ अज्ञान-अन्धकार था, तब तक हमें सारा जगत स्त्रीरूप ही दीखता था । अब हमने विवेकरूपी अञ्जन आँज लिया है, इससे हमारी दृष्टी समान हो गयी है । अब हमें तीनो भुवन ब्रह्मरूप दिखाई देते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जब हम काम-मद से अन्धे हो रहे थे, जब हमें अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं था, तब हमें स्त्री ही स्त्री दिखाई देती थी, बिना स्त्री हमें क्षणभर भी कल नहीं थी; किन्तु अब हममें विवेक-बुद्धि आ गयी है, अब हम अच्छे-बुरे को समझने लगे हैं, इसलिए अब हमें सारा संसार एक सा मालूम होता है । अब हमें कहीं स्त्री नहीं दीखती, सभी तो एक से दीखते हैं । जहाँ नज़र दौड़ाते हैं, वहीँ ब्रह्म ही ब्रह्म नज़र आता है । मतलब यह कि न कोई स्त्री है न कोई पुरुष, सभी तो एकही हैं; केवल छोले का भेद है । आत्मा न स्त्री है न पुरुष; वह सबमें समान है । मगर अज्ञानियों को यह बात नहीं दीखती । उन्हें और का और दीखता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><b>श्वेताश्वतरोपनिषद </b>में लिखा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यद्यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स युज्यते ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">यह आत्मा न स्त्री है न पुरुष और न नपुंसक । यह जिस शरीर को धारण करता है, उसी-उसी के साथ जुड़ जाता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;">जब मनुष्य को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं, जो मैं हूँ वही स्त्री है - स्त्री ने और तरह का कपडा पहन रखा है और मैंने और तरह का - तब उसका मन स्त्री पर नहीं भूलता । अपने ही स्वरुप को और समझकर उससे मैथुन करने की इच्छा नहीं होती । ज्ञानी को संसार में शत्रु, मित्र, स्त्री-पुत्र, स्वामी-सेवक नहीं दीखते । वह स्त्री-पुत्र और शत्रु-मित्र सबको समान समझता है; किसी से राग और किसी से द्वेष नहीं रखता । उसे कुत्ते में, आदमी में तथा प्राणी मात्र में ही एक विष्णु दीखता है । यह अवस्था परमपद की अवस्था है । </span><br>
<span style="font-size: large;"><b>स्वामी शंकराचार्य जी</b> कहते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ </span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भव समचित्तः सर्वत्र त्वम् </span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वाञ्छस्यचिराद् यदि विष्णुत्वम् ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">शत्रु, मित्र और पुत्र-बांधवों में, विरोध या मेल के लिए चेष्टा न कर । यदि शीघ्र ही मोक्ष पद चाहता है तो शत्रु-मित्र और पुत्र-कलत्र प्रभृति को एक नज़र से देख । सबको अपना समझ, किसी को गैर न समझ; समान चित्त हो जाय । जैसा ही पुरुष वैसी ही स्त्री, जैसा बेटा वैसा दुश्मन और जैसा धन वैसी मिटटी ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">कहानी - एक सच्चा महात्मा</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">-------------------------------</span></b><br>
<span style="font-size: large;">एक साधु सदा ज्ञानोन्मत्त अवस्था में रहता था । वह कभी किसी से फालतू बातचीत नहीं करता था । एक रोज़ एक गाँव में भिक्षा मांगने गया । एक घर से उसे जो रोटी मिली, वह उसे आप खाने लगा और साथ में कुत्ते को भी खिलने लगा । यह देख वहां अनेक लोग इकट्ठे हो गए और उनमें से कोई-कोई उसे पगला कह कर उसकी हंसी करने लगे । यह देख महात्मा ने उनसे कहा - "तुम क्यों हँसते हो?" </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विष्णुः परिस्थितो विष्णुः </span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विष्णुः खादति विष्णवे ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कथं हससि रे विष्णो ?</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सर्वं विष्णुमयं जगत् ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">विष्णु के पास विष्णु है । विष्णु, विष्णु को खिलता है । अरे विष्णु, तू क्यों हँसता है ? सारा जगत विष्णुमय है; यानी सारा संसार उस पूर्णतम विष्णु से व्याप्त है । </span><br>
<span style="font-size: large;">सच्चे और पहुंचे हुए साधू-फ़क़ीर सारे संसार में एक परमात्मा को देखते हैं । उन्हें दूसरा कोई नज़र नहीं आता । अज्ञानी लोग, जिनके ज्ञान-चक्षु बन्द हैं, जगत में किसी को अपना और किसी को पराया समझते हैं । </span><br>
<span style="font-size: large;">किसी ने क्या अच्छा उपदेश दिया है ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयताम् ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्व्यापितं दृश्यतां ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">प्राक्कर्म प्रविलोप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरे श्लिष्यतां ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम् ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">एकान्त-निर्जन स्थान में सुख से बैठना चाहिए । परब्रह्म परमात्मा में मन लगाना चाहिए । पूर्णात्मा पूर्णब्रह्म से साक्षात् करना चाहिए और इस जगत को पूर्णब्रह्म से व्याप्त समझना चाहिए । पूर्वजन्म के कर्मो का लोप करना चाहिए और ज्ञान के प्रभाव से अब के किये कर्मों के फल त्याग देने चाहिए; यानी निष्काम कर्म करने चाहिए; जिससे कर्मबन्धन में बंधकर फिर जन्म न लेना पड़े । इस संसार में प्रारब्ध या पूर्व जन्म के कर्मो को भोगना चाहिए और इसके बाद परमेश्वररूप से इस जगत में ठहरना चाहिए; यानि अपने में और परमात्मा में भेद न समझना चाहिए ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">काम-अन्ध जबही भयौ, तिय देखी सब ठौर ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अब विवेक-अञ्जन किये, लख्यौ अलख सिरमौर ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">रम्याश्चन्द्रमरिचयस्तृणवती रम्या वनान्तस्थळी</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">रम्यः साधुसमागमः शमसुखं काव्येषु रम्याः कथाः ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">कोपोपहितवाष्पबिन्दुतरलं रम्यं प्रियाया मुखं</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">सर्वंरम्यमनित्यतामुपगते चित्तेनकिञ्चित्पुनः ।। ८५ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ: </span></b><br>
<span style="font-size: large;">चन्द्रमा की किरणे, हरी-हरी घास के तख्ते, मित्रों का समागम, शृङ्गार रस की कवितायेँ, क्रोधाश्रुओं से चञ्चल प्यारी का मुख - पहले ये सब हमारे मन को मोहित करते थे; किन्तु जब से संसार की अनित्यता हमारी समझ में आयी, तब से ये सब हमें अच्छे नहीं लगते ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जब तक मनुष्य को संसार की असारता, उसकी अनित्यता, उसका थोथापन, उसकी पोल नहीं मालूम होती, तभी तक मनुष्य संसार और संसार के झगड़ों में फंसा रहता है और विषय भोगों को अच्छा समझता है; किन्तु संसार की असलियत मालूम होते ही, उसे विषय सुखों से घृणा हो जाती है । उस समय न उसे चन्द्रमा की शीतल चांदनी प्यारी लगती है, न मित्रमण्डली अच्छी मालूम होती है, न शृङ्गार रस की कवितायेँ अच्छी मालूम होती हैं और न उसका चित्त, चंद्रवदनि कामिनियों को ही देखकर मचलता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">छप्पय</span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चन्द चाँदनी रम्य, रम्य बनभूमि पहुपयुत ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">योंही अति रमणीक, मित्र मिळवो है अद्भुत ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बनिता के मृदु बोल, महारमणीक विराजत ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मानिनमुख रमणीक, दृगन अँसुअन जल साजत ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ए हे परमरमणीक सब, सब कोउ चित्त में चहत ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">इनको विनाश जब देखिये, तब इनमें कछुहु न रहत ।।</span></span></div>
</div>
<div>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">भिक्षाशी जनमध्यसंगरहितः स्वायत्तचेष्टः सदा</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">दानादानविरक्तमार्गनिरतः कश्चित्तपस्वी स्थितः।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">रथ्याक्षीणविशीर्णजीर्णवसनैः सम्प्राप्तकंथासखि-</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">र्निमानो निरहंकृतिः शमसुखाभोगैकबद्धस्पृहः।। ८६ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">ऐसा तपस्वी को विरला ही होता है, जो भीख मांगकर खाता है, जो अपने लोगों में रहकर भी उनमें मोह नहीं रखता, जो स्वाधीनतापूर्वक अपना जीवन निर्वाह करता है, जिसने लेने और देने का व्यवहार छोड़ दिया है, जो राह में पड़े हुए चीथड़ों की गुदड़ी ओढ़ता है, जिसे मान का ख्याल नहीं है, जिसमें अभिमान नहीं है और जो ब्रह्मज्ञान के सुख को ही सुख मानता है । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">ज्ञानी के लक्षण <b>सुन्दरदास </b>जी ने इस भांति कहे हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कर्म न विकर्म करे, भाव न अभाव धरे।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">शुभ न अशुभ परे, यातें निधरक है।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वस तीन शून्य जाके, पापहु न पुण्य ताके।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अधिक न न्यून वाके, स्वर्ग न नरक है।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सुख दुःख सम दोउ, नीचहूँ न उंच कोउ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऐसी विधि रहै सोउ, मिल्यो न फरक है।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">एकही न दोय जाने, बंद मोक्ष भ्रम मानै।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सुन्दर कहत, ज्ञानी ज्ञान में गरक है।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जो भीख मांगकर पेट की अग्नि को शांत कर लेता है, पर किसी की खुशामद नहीं करता, किसी के अधीन नहीं होता, स्वाधीन रहता है; राह में पड़े हुए चीथड़े उठाकर उनकी ही गुदड़ी बनाकर ओढ़ लेता है; मान-अपमान और सुख-दुःख को समान समझता है; न किसी से कुछ लेता है न किसी को कुछ देता है; गृहस्थी में या अपने बन्धु-बान्धवों में रहकर भी उनमें ममता नहीं रखता; शुभाशुभ, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक को कोई चीज़ नहीं समझता; किसी को नीच और किसी को उंच नहीं समझता, सभी में एक आत्मा देखता है; बन्धन और मोक्ष को भी मन का संकल्प या भ्रम समझता है तथा ब्रह्मज्ञान में गर्क रहता है और उसमें ही पूर्ण सुख समझता है - उससे बढ़कर ज्ञानी और कौन है ? ऐसे ज्ञानी के जीवन्मुक्त होने में संशय नहीं । उसे जन्म-मरण का कष्ट नहीं उठाना पड़ता । वह सदा परमानन्द में मग्न रहता है, पर ऐसे पुरुष कोई-कोई ही होते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">सोरठा</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">उञ्छवृत्ति गति मान, समदृष्टि इच्छारहित।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">करत तपस्वी ध्यान, कंथा को आसन किये।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">मातर्मेदिनि तात मारुत सखे तेजः सुबन्धो जलं ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">भ्रातर्व्योम निबद्ध एव भवतामेष प्रणामाञ्जलिः ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">युष्मतसंगवशोपजातसुकृतोद्रेकस्फुरन्निर्म्मल-</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लिये परे ब्रह्मणि ।। ८७ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">हे माता पृथ्वी ! पिता वायु ! मित्र तेज ! बन्धु जल ! भाई आकाश ! अब मैं आपको अन्तिम विदाई का प्रणाम करता हूँ । आपकी संगती से मैंने पुण्य कर्म किये और पुण्यों के फल स्वरुप मुझे आत्मज्ञान हुआ, जिसने मेरे संसारी मोह का नाश कर दिया । अब मैं परब्रह्म में लीन होता हूँ ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य शरीर पृथ्वी, वायु, तेज, जल और आकाश - पांच तत्वों से बनता है । जिसे आत्मज्ञान हो गया है, जिसने ब्रह्म को पहचान लिया है, वह इन पांच तत्वों से विदा लेता है और प्रणाम करके कहता है, कि मैं आप पाँचों के संग रहने से - यह शरीर धारण करने से - इस योग्य हुआ कि, ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सका; अब मेरा आपका साथ न होगा, अब मैं छोले में न आऊंगा, अब मुझे जन्म न लेना पड़ेगा । मैं आप लोगों का कृतज्ञ हूँ ; क्योंकि आपकी सुसंगति से ही मुझे या फल मिला है । अब मैं आपसे सदा को विदा होता हूँ । अब मैं ब्रह्म के आनन्द में मग्न हूँ । अब मुझे यहाँ आने की, आप लोगों की संगती करने की; यानि शरीर धारण करने की जरुरत नहीं । मतलब यह है कि मनुष्य का चोला ब्रह्मज्ञान के लिए मिलता है; और चोलों में, यह ज्ञान नहीं हो सकता । जो मनुष्य चोले में आकर ब्रह्मज्ञान लाभ करते हैं और उसकी बदौलत परम पद या मोक्ष प्राप्त करते हैं - वे ही धन्य हैं, उन्हीं का मनुष्य-देह पाना सार्थक है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अरी मेदिनी-मात, तात-मारुत सुन ऐरे।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तेज-सखा जल-भ्रात, व्योम-बन्धु सुन मेरे।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुमको करत प्रणाम, हाथ तुम आगे जोरत।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुम्हारे ही सत्संग, सुकृत कौ सिन्धु झकोरत।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अज्ञान जनित यह मोहहू, मिट्यो तुम्हारे संगसों।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आनन्द अखण्डानन्द को, छाय रह्यो रसरंग सों।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च दूरे जरा</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महा-</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">न्प्रोदीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ।। ८८ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">जब तक शरीर ठीक हालत में है, बुढ़ापा दूर है, इन्द्रियों की शक्ति बनी हुई है, आयु के दिन बाकी हैं, तभी तक बुद्धिमान को अपने कल्याण की चेष्टा अच्छी तरह से कर लेनी चाहिए । घर जलने पर कुआँ खोदने से क्या फायदा ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जब तक आपका शरीर निरोग और तन्दरुस्त रहे, बुढ़ापा न आवे, आपकी इन्द्रियों की शक्ति ठीक बनी रहे, आपका अन्त दूर हो, उम्र बाकी दिखे, तभी तक आप अपनी भलाई की चेष्टा कर लीजिये; यानि ऐसी हालत में ही भगवान् का भजन कर लीजिये । जब आप रोगों से जर्जरित हो जाएंगे, कफ,खांसी और दम घेर लेंगे, आँखों से न दिखेगा, कानो से न सुनाई देगा, गले में घर-घर कफ बोलने लगेगा, मौत अपना पंजा जमा देगी, तब आप क्या करेंगे ? अर्थात कुछ नहीं । उस समय आप कुछ करने की चेष्टा करेंगे भी, तो आपकी दशा उसकी सी होगी, जो घर में आग लगने पर कुआ खोदता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><b>किसी ने कहा है</b> -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">प्रथम नार्जिता विद्या, द्वितीय नार्जितं धनं ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तृतीये नार्जितं पुण्यं, चतुर्थे किं करिष्यति ?।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">बचपन में यदि विद्या नहीं सीखी, जवानी में यदि धन सञ्चय नहीं किया, बुढ़ापे में यदि पुण्य नहीं किया; तो चौथेपन में क्या करोगे ?</span><br>
<span style="font-size: large;">सबसे अच्छी बात तो बचपन में ही परमात्मा की भक्ति करना है । ध्रुव और प्रह्लाद ने बचपन में ही भक्ति करके परमात्मा के दर्शन किये थे अगर इस उम्र में न हो सके, तो जवानी में, जवानी में न हो सके तो बुढ़ापे में तो चूकना ही न चाहिए । स्त्री-पुत्र, धन-दौलत का मोह छोड़ परमात्मा में मन लगाओ; आजकल पर मत टालो; क्योंकि मौत हर समय घात में है, न जाने कब तुम्हे ले जाय । जब वह आ जाएगी तो तुमसे कुछ करते-धरते न बनेगा, तुम घबरा जाओगे, मुंह से परमात्मा का नाम न निकलेगा और हाथों से दान या पराया उपकार न कर सकोगे । उस समय तुम्हारा परलोक बनाने की चेष्टा करना, आग लग जाने पर कुंआ खोदने वाले के समान मूर्खतापूर्ण काम होगा । अतः जो करना है, मरने के समय से पहले ही करो । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">किसी ने परलोक-साधन के लिए क्या अच्छी सलाह दी है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वेदो नित्यंधीयतां तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तेनेशस्यपिधीयतामपचितिः कामे मतिसत्यज्यतां।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पापौघः परिधूयतां भवसुखे दोषोऽनुसन्धीयताम्</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आत्मेच्छा व्यवसीयतां निजगृहात् तूर्णं विनिर्गम्यताम् ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">नित्य वेद पढ़ो और वेदोक्त कर्मो का अनुष्ठान करो । वेद विधि से परमेश्वर की पूजा करो । विषय भोगों को बुद्धि से हटाओ ; यानि विषयों को त्यागो । पाप समूह का निवारण करो । संसारी सुख इत्र-फुलेल चन्दनादि के लगाने, स्त्री-भोगने और नाच-गाना देखने सुनने प्रभृति परिणाम विचारो ; यानि इनके दोषों की भावना करो । परमेश्वर या आत्मा में अनुराग करो और गृहस्थी के अनेक दोषों को समझ कर, शीघ्र ही घर को त्यागकर वन को चले जाओ ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> कहते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बेनिशाँ पहले फ़नासे हो, जो हो तुझको बका ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वर्ना है किसका निशाँ, ज़ौके फनाने रक्खा ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">मरने से पहले सांसारिक बन्धनों से अपने चित्त को हटा ले - अमर होने की यही एक तरकीब है; वर्ना मौत किसी का निशान नहीं छोड़ती ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जौ लौं देह निरोग, और जौ लौं जरा तन ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अरु जौ लौं बलवान आयु, अरु इन्द्रिन के गन ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तौं लौं निज कल्याण करन को, यत्न विचारत ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वह पण्डित वह धीर-वीर, जो प्रथम सम्हारत ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">फिर होत कहा जर्जर भये, जप तप संयम नहिं बनत ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भव काम उठ्यौ निज भवन जब, तब क्योंकर कूपहि खनत ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"></span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"></span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">नाभ्यस्ता भुविवादिवृन्ददमनी विद्या विनीतोचिता</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">खड्गाग्रैः करिकुम्भपीठदलनैर्नाकं न नीतं यशः ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">कान्ताकोमलपल्लवाधररसः पीतो न चन्द्रोदये</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">तारुण्यं गतमेव निष्फलमहो शून्यालये दीपवत् ।। ८९ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">हमनें इस जगत में नम्रों को संतुष्ट करनेवाली और वादियों की मान भञ्जन करनेवाली विद्या नहीं पढ़ी, तलवार की धार से हाथी के मस्तक का पिछला भाग काटकर अपना यश स्वर्ग तक नहीं पहुँचाया; चांदनी रात में सुन्दरी के कोमल अधर-पल्लव (निचले होठ) का रस भी नहीं पिया । हाय ! हमारी जवानी सूने घर में जलनेवाले और आपही बुझ जाने वाले दीपक की तरह योंही गयी !</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विद्या पढ़ी न रिपु दले, रह्यौ न नारि समीप।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यौवन यह योंही गयो, ज्यों सूने गृह दीप।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">ज्ञानं सतां मानमदादिनाशनं</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">केषांचिदेतन्मदमानकारणं ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">स्थानं विविक्तं यामिनां विमुक्तये </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">कामातुराणामतिकामकारणाम् ।। ९० ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">अच्छे मनुष्यों में तो ज्ञान उनके मान-मद आदि का नाश करता है; किन्तु दुष्टों में वही ज्ञान मान-मद प्रभृति औगुणों की वृद्धि करता है । एकांत स्थान योगियों के लिए तो मुक्ति दिलानेवाला होता है; किन्तु वही कामियों की कामज्वाला बढ़ानेवाला होता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जिस तरह स्वाति-बूँद सीप में पड़ने से मोती और केले में कपूर हो जाती है, किन्तु सर्पमुख में पड़ने से विष का रूपधारण करती है; उसी तरह एक चीज़ पुरुष-भेद से अलग अलग गुण दिखाती है । ज्ञान से अच्छे लोगों का अभिमान नाश हो जाता है, वे सब किसी को अपने बराबर समझते हैं, सबके साथ सुहानुभूति रखते हैं, किसी का दिल नहीं दुखाते; किन्तु उसी ज्ञान से दुष्ट लोगों की दुष्टता और भी बढ़ जाती है, वे अपने सामने जगत को तुच्छ समझते हैं; विद्याभिमान के मारे किसी की ओर नज़र उठा कर भी नहीं देखते, अपने सिवा सबको पशु समझते हैं । एक ही ज्ञान दो स्थानों में, स्थान भेद से अपना अलग-अलग प्रभाव दिखाता है । जैसे एकान्त स्थान योगियों के चित्त को ब्रह्मविचार में लीन करता है और इससे उनको परमपद - मुक्ति - मिल जाती है ; किन्तु वही एकान्त स्थान कामियों के दिलों में मस्ती पैदा करता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">दोहा</span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ज्ञान घटावै मान-मद, ज्ञानहि देय बढ़ाय।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रहसि मुक्ति पावे यती, कामी रत लपटाय।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">जीर्णा एव मनोरथाः स्वहृदये यातं च जरां यौवनं</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">हन्ताङ्गेषु गुणाश्च वन्ध्यफलतां याता गुणज्ञैर्विना ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">किं युक्तं सहसाऽभ्युपैति बलवान्कालः कृतान्तोऽक्षमी</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">ह्याज्ञातंस्मरशासनाङ्घ्रियुगलं मुक्त्वाऽस्तिनान्यागतिः ।। ९१ ।।</span></b><br>
<span style="font-size: large;"><b><br></b><b>अर्थ:</b></span><br>
<span style="font-size: large;">हमारी इच्छाएं हमारे ह्रदय में ही जीर्ण हो गईं, जवानी भी चली गयी, हमारे अच्छे-अच्छे गुण भी कदरदानों के न होने से बेकार हो गए, सर्वशक्तिमान, सर्वनाशक काल (मृत्यु) शीघ्र-शीघ्र हमारे पास आ रहा है; इसलिए अब हमारी समझ में कामारि शिव के चरणों के सिवा और जगह हमारी रक्षा नहीं है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य दुखित होकर कहता है - हमारे मन की मन में ही रह गयी, हमारे अरमान न निकले और जवानी कूच कर गयी; अब उसके आने की भी उम्मीद नहीं, क्योंकि जवानी किसी की भी लौटकर आती सुनी नहीं ।</span><br>
<span style="font-size: large;">मनुष्य की तृष्णा कभी नहीं बुझती, एक पर एक इच्छा उठा ही करती है । इच्छाएं पूरी नहीं होती और मौत आ जाती है । <b>महाकवि ग़ालिब</b> भी पछता कर कहते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी, कि हर ख्वाहिश पै दम निकले।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले।।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>महाकवि दाग </b>भी घबरा कर कहते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भरे हुए हैं हज़ारों अरमान </span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">फिर उस पै है हसरतों की हसरत।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कहाँ निकल जाऊं या इलाही</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मैं दिल की वसअत से तंग होकर।।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">मेरे मन में हज़ारों वासनाएं हैं, पर वासनाओं के पूर्ण न होने का दुःख भी कुछ कम नहीं है । हे ईश्वर ! मैं अपने मन की विशालता से तंग हो गया । अब मेरा जी यही चाहता है, कि इस विराट दिल से तंग होकर कहीं चला जाऊं ।</span><br>
<span style="font-size: large;">इसी तरह <b>महात्मा सुन्दरदास जी</b> भी कहते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तीनहिं लोक आहार कियो सब।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सात समुद्र पियो पुनि पानी।।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">और जहाँ तहाँ ताकत डोलत।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">काढत आँख दरवात प्रानी।।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दांत दिखावत जीभ हिलावत।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">या हित मैं यह डाकिनि जानी।।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुन्दर खात भये कितने दिन।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">हे तृष्णा ! अजहुँ न अघानी।।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">इस तृष्णा से सभी समझदार अन्त में दुखी ही हुए हैं और उन्होंने पछता पछता कर ऐसी ही बातें कही हैं । इस तृष्णा के फेर में मनुष्य का बुढ़ापा आ जाता है, पर तृष्णा बूढी नहीं होती । बुढ़ापे में उसका ज़ोर और भी बढ़ जाता है । यह तीनो लोको को खाकर और सातों सागरों को पीकर भी नहीं धापति । इसलिए मनुष्य को आशा-तृष्णा त्यागकर, परमात्मा में लौ लगनी चाहिए । जो नहीं चेतते, उनका परिणाम बुरा होता है । जब एकदम से बुढ़ापा छा जाता है, शरीर अशक्त हो जाता है, तब कुछ भी नहीं होता । उम्र ख़त्म होने या मृत्यु आ जाने पर मनुष्य पछताता हुआ सबको छोड़ चला जाता है । कहा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये मम देश विलायत हैं गज ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये मम मन्दिर ये मम थाती ।।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये मम मात पिता पुनि बान्धव ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये मम पूत सु ये मम नाती ।।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये मम कामिनि केलि करै नित ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ये मम सेवक हैं दिन राती ।।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुन्दर ऐसेही छाँड़ि गयो सब ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">तेल जरयो सु बुझी जब बाती ।।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">यह मेरा देश है, ये मेरे हाथी-घोड़े महल-मकान हैं, ये मेरे माँ-बाप और बन्धु-बान्धव तथा नाती-पोते हैं, यह मेरी स्त्री और यह मेरे सेवक हैं; ऐसे करता करता ही मनुष्य सबको छोड़कर चला जाता है । जिस तरह तेल के जल जाने पर दीपक बुझ जाता है; उसी तरह उम्र पूरी होने पर मनुष्य मर जाता है । अतः जवानी में ही स्त्री-पुत्र प्रभृति सबका मोह छोड़, एकान्त में जा, परमात्मा का भजन करना चाहिए; क्योंकि बुढ़ापे में कुछ नहीं हो सकता ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><b>शेख सादी</b> ने कहा है और ठीक कहा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">जवान गोशानशीं, शेर मर्दे राहे खुदास्त ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कि पीर खुद न तवानद, ज़े गोशये बरखास्त ।।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जवानी में जिन्होंने एकान्त में ईश्वर भजन किया है, सच्चे भक्त वही हैं, बूढा आदमी अगर एकान्तवास पर गर्व करे तो झूठा है, क्योंकि वह तो जहाँ पड़ा है, वह से सरक ही नहीं सकता ।</span><br>
<span style="font-size: large;">जो लोग साड़ी उम्र संसारी जंजालों में बिता देते हैं और परमात्मा का भजन नहीं करते, उनका नक्शा स्वामी <b>सुन्दरदास जी</b> ने खूब ही खींचा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">ग्रीव त्वचा कटि है लटकी ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कचहुँ पलटे अजहुँ रतीबामी ।।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दन्त गए मुख के उखरे ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">नखरे न गए सु खरो खर कामी ।।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कम्पत देह सनेह सु दम्पति ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सम्पति जपत है निशि जामी ।।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">सुन्दर अन्तहु भौन तज्यो ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">न भज्यो भगवन्त सु लौनहरामी ।।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य की गर्दन हिलने लगती है, खाल लटकने लगती है, कमर झुक जाती है, बाल सफ़ेद हो जाते हैं, तो भी स्त्री के साथ भोग करता है । मुंह के दांत उखड जाते हैं, फिर भी कामी गधे के नखरे नहीं जाते, देह कांपती है; पर स्त्री से प्रीति रखता है और रात-दिन धन का जाप करता है । अन्त में घर छोड़ता है, पर नमकहराम मालिक का भजन नहीं करता ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">छप्पय</span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">मन के मनही मांहि, मनोरथ वृद्ध भये सब ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">निज अंगन में नाश भयो, वह यौवनहु अब ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">विद्या है गयी बाँझ, बूझवारे नहीं दीसत ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">दौरयो आवत काल, कोपकर दशनन पीसत ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">कबहुँ नहिं पूजे प्रीति सों, चक्रपाणि प्रभु के चरण ।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;">भवबन्धन काटे कौन अब, अजहुँ गहरे हरि शरण ।।</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc; font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभि </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">क्षुधार्तः सञ्शालीन्कवलयति शाकादिवाळितां ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">प्रदीप्ते कामाग्नौ सुदृढतरमाश्लिष्यति वधूं</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ।। ९२ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">जब मनुष्य का कण्ठ प्यास से सूखने लगता है, तब वह शीतल जल पीता है; जब उसे भूख लगती है, तब वह साग और कढ़ी प्रभृति के संग चावल खाता है; जब उसकी कामाग्नि तेज़ होती है तब वह स्त्री को ज़ोर से गले लगाता है; विचार कर देखने से मालूम होता है, कि ये सब बिमारियों की एक-एक दवा है; परन्तु लोग इन्हे भूल से सुख समान मानते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">प्यास रोग की दवा शीतल जल है; यानि शीतल जल से तृष्णा नाश होती है । क्षुधारोग की दवा रोटी-भात और साग-दाल प्रभृति हैं; यानी भात-दाल प्रभृति से भूख रोग नाश होता है । कामाग्नि भी एक रोग है, उसके शान्त करने का उपाय स्त्री को छाती से लगाना है, यानी स्त्री का आलिङ्गन करने से या चिपटाने से काम की आग ठण्डी हो जाती है । ( दाह ज्वर में षोडशी कामिनी के शरीर में चन्दन लगाकर चिपटने से बहुत लाभ होता है ) इन बातों पर विचार करने से साफ़ मालूम होता है, कि शीतल जल-पान, भिन्न-भिन्न प्रकार के भोजन और स्त्रियों का आलिङ्गन प्रभृति तृषा, क्षुधा और कामाग्नि प्रभृति रोगों की औषधियां हैं । इनको सुख समझना भूल नहीं तो क्या है ?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">प्यास लगे जब पान करत, शीतल सुमिष्ट जल।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भूख लगे तब खात, भात-घृत दूध और फल।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बढ़त काम की आगि, तबहिं नववधू संग रति।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ऐसे करत विलास, होत विपरीत दैव गति।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सब जीव जगत के दिन भरत, खात पियत भोगहु करत।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ये महारोग तीनो प्रबल, बिना मिटाये नहिं मिटत।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">स्नात्वा गाङ्गैः पयोभिः शुचिकुसुमफलैरर्चयित्वा विभो </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">त्वां ध्येये ध्यानं नियोज्य क्षितिधरकुहरग्रावपर्येकमूले ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">आत्मारामः फलाशी गुरुवचनरतस्त्वत्प्रसादात्स्मरारे</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">दुःखं मोक्ष्ये कदाहं तब चरणरतो ध्यानमार्गैकनिष्ठ ।। ९३ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">हे शिव ! हे कामारि ! गंगा स्नान करके तुझ पर पवित्र फल-फूल चढ़ाता हुआ, तेरी पूजा करता हुआ, पर्वत की गुफा में शिला पर बैठा हुआ, अपने ही आत्मा में मग्न होता हुआ, वन-फल खाता हुआ, गुरु की आज्ञानुसार तेरे ही चरणों का ध्यान करता हुआ कब मैं इन संसारी दुखों से छुटकारा पाउँगा ?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">न रसेवा तजि, ब्रह्म भजि, गुरुचरणन चित लाय।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कब गंगातट ध्यान धर, पूजोंगो शिव पाय?।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">शय्या शैलशिला गृहं गिरिगुहा वस्त्रं तरुणं त्वचः</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">सारंगाः सुहृदो ननु क्षितिरुहां वृत्तिः फलैः कमलैः ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">येषां निर्झरम्बुपानमुचितं रत्येव विद्याङ्गना</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">मन्ये ते परमेश्वराः शिरसि यैर्बद्धो न सेवांजलिः।। ९३ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">मैं उनको परमेश्वर समझता हूँ, जो किसी के सामने मस्तक नहीं नवाते, जो पर्वत की शिला को ही अपनी शय्या समझते हैं, जो गुफा को ही अपना घर मानते हैं, जो वृक्षों की छालों को ही अपने वस्त्र और जंगली हिरणो को ही अपने मित्र समझते हैं, वृक्षों के कोमल फलों से ही उदार की अग्नि को शान्त करते हैं, जो कुदरती झरनो का जल पीते हैं और जो विद्या को ही अपनी प्राण प्यारी समझते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जो किसी चीज़ की चाह नहीं रखते, वे किसी की परवा नहीं करते, वे किसी के सामने मस्तक नहीं नवाते; जिनकी वासनाओं का अन्त नहीं होता, वे ही जने-जने के सामने सर झुकाते हैं । जो संसार के दास नहीं, वे सचमुच ही देवता हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><b>उस्ताद ज़ौक़</b> ने कहा है - </span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जिस इन्सां को सगे दुनिया न पाया। </span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">फरिश्ता उसका हमपाया न पाया ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जो मनुष्य संसार का दास नहीं - संसार का कुत्ता नहीं - वह देवताओं से कहीं ऊंचा है । देवता उसकी बराबरी नहीं कर सकते । जिसमें सांसारिक वासनाओं का लेश न हो, उस मनुष्य और देवताओं में कोई भेद नहीं ।</span><br>
<span style="font-size: large;">सच्चे महात्मा वन और पर्वतों को छोड़कर दुनिया में कभी नहीं आते; वे मांगकर नहीं खाते; उन्हें वन में ही जो कुछ मिल जाता है, वही खा लेते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><b>महाकवि ग़ालिब</b> कहते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वे तलब दें, तो मज़ा उसमें सिवा मिलता है ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वह गदा, जिसका न हो खुए सवाल अच्छा है ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">बिना मांगे मिल जाने में बड़ा आनन्द है । फ़क़ीर वही अच्छा जिसमें मांगने की आदत न हो । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">और भी कहा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दस्ते सवाल, सैकड़ों ऐबों का ऐब है ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जिस दस्त में ये ऐब नहीं, वह दस्ते गैब है ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>कबीर </b>साहब ने भी कहा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अनमाँग्या उत्तम कह्यो, माध्यम माँगि जो लेय ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कहे कबीर निकृष्ट सो, पर घर धरना देय ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">उत्तम भीख जो अजगरी, सुनि लीजौ निज बैन ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कहै कबीर ताके गहे, महा परम सुख चैन ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">महापुरुष भगवान् के भरोसे रहते हैं, इसलिए उन्हें उनकी जरुरत की चीज़ उनके स्थान पर ही मिल जाती है । वे संसार रुपी काजल की कोठरी में आकर कालिख लगाना पसन्द नहीं करते । संसारी लोगों के साथ मिलने जुलने में भलाई नहीं । संसार से दूर रहना ही भला । क्योंकि मनुष्य जैसे आदमियों को देखता और जैसों की सङ्गति करता है, वैसा ही हो जाता है । रागियों की सङ्गति से वैरागी भी रागी या विषय-भोगी हो जाता है । जल और वृक्षों के पत्ते खाने वाले ऋषि स्त्रियों के देखने मात्र से अपने तप से हीन हो गए । इसीलिए शास्त्रों में लिखा है कि सन्यासी संसारियों से दूर रहे । वास्तविक महापुरुष जो सच्चे ब्रह्मज्ञानी और रासायनिक हैं; किसी के भी द्वार पर नहीं जाते । जिसे कुछ कामना होती है, वही किसी के द्वार पर जाता है । कामनाहीन पुरुष कभी किसी के पास नहीं जाता । सच्चे महात्मा संसारियों से अपनी जान छुपाते हैं । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">दो महात्मा जो राजा से मिलना नहीं चाहते थे</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">---------------------------------------------------</span></b><br>
<span style="font-size: large;">एक नगर के बाहर वन में दो बड़े ही त्यागी महात्मा रहते थे । राजा ने चाहा कि मैं उनसे मिलूं । राजा अपने परिवार सहित उनसे मिलने गया । महात्माओं ने सोचा - यह तो बुरी बला लगी । इसे सदा को टालना चाहिए । आज यह आया है, कल नगर भर आवेगा । फिर हम तो भजन ही न कर सकेंगे । जब राजा पास पहुंचा, तो वे आपस में लड़ने लगे । एक बोला - "तूने मेरी रोटी खाली" । दुसरे ने कहा - "तूने भी तो कल मेरी खा ली थी"। यह देखकर राजा को घृणा हो गयी और वह लौट आया । इस तरह महात्माओं के एकान्तवास में विघ्न नहीं पड़ा ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">संसारियों की सङ्गति बुरी</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">-------------------------------</span></b><br>
<span style="font-size: large;">एक महात्मा कहीं से आकर काशी में रह गए । दस पांच वर्ष बाद अनेक लोग उन्हें जान गए और उन्हें अपने-अपने घर भोजन के लिए ले जाने लगे । महात्मा ने देखा कि, घरों में जाने से विक्षेप होता है, इसलिए उन्होंने अपनी लंगोटी ही उतारकर फेंक दी, कि नंगे रहने से लोग घरों पर न ले जाएंगे । पर फल उल्टा हुआ, उनकी महिमा और भी बढ़ गयी । अब तो बड़े-बड़े राजा, रईस और जमींदार उनके दर्शन को आने लगे । उनका सारा समय अमीरों से मिलने में ही बीतने लगा । इतने में एक और महात्मा आये और उनसे एकान्त में पुछा - "क्या हाल है ?" महात्मा ने कहा - "बवासीर से मरते हैं ।" आगन्तुक महात्मा ने कहा - "लोग तो आपको सिद्ध कहते हैं ?" महात्मा ने कहा - "कहा करें, लोग मूर्ख हैं । हमारे चित्त में तो वासनाएं भरी हैं, न जाने हमें किस योनि में जन्म लेना होगा ? हमारा तो सारा वैराग्य इन धनियों की सङ्गति में ही नष्ट हो गया । सच है, निवृत्ति मार्ग वालों को प्रवृत्ति मार्गवालों की सङ्गति करना अच्छा नहीं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बसैं गुहागिरि, शुचित शिला शय्या मनमानी।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वृक्षवकल के वसन, स्वच्छ सुरसरिको पानी।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बाणमृग जिनके मित्र, वृक्षफल भोजन जिसके।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">विद्या जिनकी नारि, नहीं सुरपति सभ तिनके।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ते लगत ईश सम मनुज मोहि, तनशुचि ऐसे जग भये।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जे पर सेवा के काज को, हाथ नहीं जोरत नए ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
</span><br>
<div>
<b><span style="font-size: large;">प्रिय सखि विपद्दण्डव्रतप्रताप परम्परा-</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">तिपरिचपले चिन्ताचक्रे निधाय विधिः खलः ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">मृदमिव बलात्पिण्डीकृत्य प्रगल्भकुलालवद्-</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">भ्रमयति मनो नो जानीमः किमत्र विधास्यति ।। ९८ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">हे प्यारी सखी बुद्धि ! कुम्हार जिस तरह गीली मिटटी के लौंदे को चाक पर चढ़कर डंडे से चाक को बारम्बार घुमाता है और उससे इच्छानुसार बर्तन तैयार करता है; उसी तरह संसार को गढ़नेवाला ब्रह्मा हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर चढ़ा कर, विपत्तियों के डंडे से चाक को लगातार घुमाता हुआ, हमारा क्या करना चाहता है, यह हमारी समझ में नहीं आता ?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य के पीछे भगवान् ने चिन्ता बुरी लगा दी है । बात यह है, कि मनुष्य के पूर्व जन्म के कर्मो के कारण या इस जन्म की भूलों के कारण, उसे विपत्तियां भोगनी ही पड़ती है । विपत्तियों से पार होने के लिए, मनुष्य रात-दिन चिन्तित रहता है । चिन्ता या फ़िक्र से मनुष्य का रूप-रंग सब नष्ट होकर शीघ्र ही बुढ़ापा आ जाता है । आजकल चालीस बरस की उम्र में ही लोग बूढ़े हो जाते हैं, इसका कारण चिन्ता ही है । अगर चिन्ता न होती, तो मनुष्य को कुछ दुःख न होता । जहाँ तक हो, मनुष्य को चिन्ता को अपने पास न आने देना चाहिए; क्योंकि चिन्ता, चिता से भी बुरी है । चिता मरे हुए को भस्म करती है, पर चिन्ता जीते हुए को ही जलाकर ख़ाक कर देती है; अतः चिन्ता से दूर रहो । स्त्री, पुत्र और धन की चिन्ता में अपनी अमूल्य दुर्लभ काया को नाश न करो; क्योंकि ये स्त्री-पुत्र प्रभृति तुम्हारे कोई नहीं । अगर चिन्ता और विचार ही करना है, तो इस बात का करो कि तुम कौन हो और कहाँ से आये हो ? </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>स्वामी शंकराचार्य</b> ने <b>मोहमुद्गर </b>में कहा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">का तव कान्ताः कस्ते पुत्रः संसारोऽयमतीव विचित्रः ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कस्य त्वम् वा कुत आयातः तत्त्वं चिन्तय तदिदं भ्रातः ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">कौन तेरी स्त्री है ? कौन तेरा पुत्र है ? यह संसार अतीव विचित्र है । तू कौन है ? कहाँ से आया है ? हे भाई ! इस तत्व की चिन्ता कर; अर्थात न कोई तेरी स्त्री है और न कोई तेरा पुत्र है, वृथा चिन्ता क्यों करता है ?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">तू कौन है ? कहाँ से आया है ? क्यों आया है ? तूने अपना कर्तव्य पालन किया है या नहीं ? तेरा अन्तिम परिणाम क्या है ? इत्यादि विचारों द्वारा अपने स्वरुप को पहचान जाने अथवा ईश्वर की शरण में चले जाने से ही चिन्ता से पीछा छूटेगा और शान्ति मिलेगी । निश्चय ही चिन्ता और विपत्तियों से बचने के लिए भगवान् का आश्रय लेना सर्वोपरि उपाय है । विपत्ति रुपी समुद्र में डूबते हुए के लिए भगवान् का नाम ही सच्चा सहारा है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>गोस्वामी तुलसीदास जी</b> ने कहा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुलसी साथी विपति के, विद्या विनय विवेक ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">साहस सुकृत सत्यव्रत, राम भरोसो एक ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुलसी असमय के सखा, साहस धर्म विचार ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सुकृत शील स्वाभाव ऋजु, रामशरण आधार ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">खेलत बालक व्याल संग, पावक मेलत हाथ ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुलसी शिशु पितु मातु इव, राखत सिय रघुनाथ ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुलसी केवल रामपद, लागे सरल सनेह ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तौ घर घट बन बाट मँह, कतहुँ रहै किन देह ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">सारांश यह कि जो हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर चढ़ा कर विपत्तियों के डंडे से घुमाता है, यदि हम उसकी ही शरण में चले जाएँ, उसी से प्रेम करें, तो वह हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर न रक्खे; अर्थात हमें चिंताग्नि में न जलना पड़े; सुख-शान्ति सदा हमारे सामने हाथ बांधे खड़े रहे । यह बाला उन्हीं को खाती है, जो भगवान् से विमुख रहते हैं । इसलिए यदि इस चिन्ता-डायन से बचना चाहो तो परमात्मा को भजो ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">दोहा</span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मन को चिंताचक्र धर, खल विधि रह्यौ घुमाय ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रचि है कहा कुलालसम, जान्यौ कछु न जाय ?।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<br>
<div>
<b><span style="font-size: large;">महेश्वरे वा जगतामधीश्वरे जनार्दने वा जगदन्तरात्मनि।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">तयोर्न भेदप्रतिपत्तिरस्ति मे तथापि भक्तिस्तरुणेन्दुशेखरे।। ९९ ।।</span></b><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">अर्थ:</span><br>
<span style="font-size: large;">यद्यपि मुझे विश्वेश्वर शिव और सर्वात्मन विष्णु में कोई भेद नहीं दीखता; तथापि मेरा मन उन्ही की ओर झुकता है, जिनके मस्तक में तरुण चन्द्रमा विराजमान है; अर्थात मैं शिव को ही चाहता हूँ ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">विष्णु और शिव में कोई भेद नहीं, एक ही परमात्मा के अलग अलग नाम हैं, वही कृष्ण हैं, वही रघुनाथ हैं, वही राम हैं और वही शिव हैं । पर फिर भी; जिस नाम का आश्रय ले लिया उसी का भरोसा करना ठीक है । मन भटकाना अच्छा नहीं ।</span><br>
<span style="font-size: large;">एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी वृन्दावन गए । वहां उन्हें भगवान् कृष्ण के दर्शन हुए । भगवान् की बांकी झांकी देखकर गोस्वामी जी मुग्ध हो गए, पर उन्होंने उनको सिर न नवाया; क्योंकि उनके इष्टदेव रामचन्द्र जी थे । <b>उन्होंने उस समय कहा</b> -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कहा कहूँ छवि आज की, भले बने हो नाथ ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तुलसी मस्तक जब नवै, धनुषबाण लेयो हाथ ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">आपकी छवि आज भी बहुत मनोमुग्धकर है, पर मैं तो आपको तभी प्रणाम करूँगा, जब आप धनुष-बाण हाथ में लेकर रामचन्द्र बनोगे । भगवान् को तत्काल रामरूप धर धनुष-बाण हाथ में लेना पड़ा । यह काम भगवान् को भक्त की दृढ़ता देखकर करना पड़ा ।</span><br>
<span style="font-size: large;">प्रीति पपहिये की सच्ची और आदर्श है । वह चाहे प्यासा मर जाए, पर मेघ के सिवा किसी भी जलाशय का जल नहीं पीता । "<b>उत्तर चातकाष्टक</b>" में लिखा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पयोद हे ! वारि ददासि वा न वा ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तवडेकचित्तः पुनरेष चातकः ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">वरं महत्या म्रियते पिपासया</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तथापि नान्यस्य करोत्युपासनाम् ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">हे मेघ ! तू जल दे चाहे न दे, चातक तो तेरा ही आश्रय रखता है । घोर प्यास से भले ही मर जाए, पर वह दुसरे की उपासना नहीं करता ।<b> गोस्वामी तुलसीदास जी</b> ने भी कहा है -</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चातक घन तजि दूसरे, जियत न नाई नारि।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मरत न मांगे अर्घजल, सुरसरिहु को वारि ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">व्याधा बधो पपीहरा, परो गंगजल जाय ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चोंच मूँदि पीवे नहीं, धिक् पीवन प्रण जाय ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">चातक ने मेघ को छोड़ और किसी को अपनी ज़िन्दगी में सर न नवाया । मरते समय गंगा का जल भी ग्रहण न किया । किसी शिकारी ने किसी चातक को मारा, वह गंगाजी में गिर पड़ा, प्यास के मारे घबरा रहा था, पर गंगाजल नहीं पीता था । उसने उलटी चोंच बन्द कर ली; कि कहीं जल मुख में न चला जाय और मेरा प्रण टूट जाय । वाह वाह ! प्रीति और भक्ति हो तो ऐसी ही हो ।</span><br>
<span style="font-size: large;">सारांश यह है, कि भगवान् के भी जिस नाम से प्रेम हो, उसे छोड़ कर दूसरे से प्रेम न करना चाहिए । एक ही पति की स्त्री होने में भलाई है । जिसके अनेक पति होते हैं, उसका भला नहीं होता । अनेक देवी-देवताओं के उपासक चातक से शिक्षा ग्रहण करें । <b>कहा है -</b></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पतिव्रता को सुख घना, जाके पति है एक।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मन मैली व्यभिचारिणी, जाके खसम अनेक।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पतिव्रता पति को भजै, और न अन्य सुहाय।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सिंह बचा जो लंघना, तो भी घास न खाय।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"कबिरा" सीप समुद्र की, रटे पियास पियास।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सकल बूँद को न गिनै, स्वाति बूँद की आस।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">प्रीति रीति तुझ सों मेरे, बहु गुनियाला कन्त।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जो हँसि बोलूं और सूँ, तो नील रंगाऊं दन्त।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">पतिव्रता, जिसके एक पति होता है, सदा सुखी रहती है; किन्तु अनेक खसमवाली व्यभिचारिणी सदा दुखी रहती है । पतिव्रता सदा अपने पति को ही चाहती है; उसे दूसरा अच्छा नहीं लगता । सिंह का बच्चा लंघन पर लंघन करने पर भी घास नहीं खाता । कबीरदास कहते हैं, समुद्र की सीप प्यास ही प्यास रटा करती है; कितनी ही बूंदे क्यों न गिरें, उसे तो स्वाति की बूँद ही प्यारी लगती है । मेरे गुणनिधान कन्त ! मेरी प्रीती तुझसे है । जो मैं दुसरे से हंसकर बोलूं तो मेरा काला मुंह हो ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">दोहा </span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नाहिन शिव अरु विष्णु में, सूझै अन्तर मोय ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तदपि चन्द्रशेखर लखत, प्रीति अधिक कछु होय ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<br>
<div>
<b><span style="font-size: large;">रे कंदर्प करं कदर्थयसि किं कोदण्डटंकारितैः। </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">रे रे कोकिल कोमलैः किं त्वं वृथाजल्पसि ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">मुग्धे स्निग्धविदग्धमुग्धमधुरैर्लोलैः कटाक्षैरलं</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">चेतश्चुम्बितचन्द्रचूड़चरणध्यानमृतं वर्त्तते ।। १०० ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">हे कामदेव ! तू धनुष्टङ्कार सुनाने के लिए क्यों बारबार हाथ उठाता है ? हे कोकिला ! तू मीठी-मीठी सुहावनी आवाज़ में क्यों कुहू-कुहू करती है ? ए मूर्ख स्त्री ! तू अपने मनोमोहक मधुर कटाक्ष मुझ पर क्यों चलाती है ? अब तुम मेरा कुछ नहीं कर सकते; क्योंकि अब मेरे चित्त ने शिव के चरण चूमकर अमृत पी लिया है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जब तक मनुष्य का मन ब्रह्मानन्द का मज़ा नहीं जानता, जब तक वह परमात्मा के चरणों में ध्यान लगा कर अमृत नहीं पीटा, तभी तक कामदेव का ज़ोर चलता है, तभी तक कोकिला का पञ्चम स्वर उसके दिल में खलबली पैदा करता है, तभी तक स्त्री के कटाक्ष-बाण उस पर असर करते हैं; कामारि शिव से प्रीति होने पर ये सब कुछ नहीं कर सकते । भगवान् शिव और कामदेव में वैर है; अतः शिवभक्तों पर कामदेव अपने अस्त्र अपने अस्त्र नहीं चला सकता ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<b><span style="font-size: medium;">छप्पय</span></b></span><br>
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अरे काम वेकाम, धनुष टंकारत तर्जत।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तू हू कोकिल व्यर्थ बोल, काहे को गरजत।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तैसे ही तू नारि वृथा ही करत कटाक्षै।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मोहि न उपजै मोह, छोह सब रहिगे पाछै।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चित चन्द्रचूड़चरण को, ध्यान अमृत बरषत हिते।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आनन्द अखण्डानन्द को, ताहि अमृत सुख क्यों हिते।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span></div>
<span style="font-size: large;"><span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: medium;"></span></span><br></span>
<br>
<div>
<b><span style="font-size: large;">कौपीनं शतखण्डजर्ज्जरतरं कन्था पुनस्तादृशी</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">निश्चिन्तम् सुखसाध्यभैक्ष्यमशनं शय्या श्मशाने वने ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">मित्रामित्र समानताऽतिविमला चिन्ताऽथशून्यालये </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">ध्वस्ता शेषमदप्रमाद मुदितो योगी सुखं तिष्ठति ।। १०१ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">वही योगी सुखी है, जो एकदम से फटी-पुरानी सैकड़ो चीथड़ों से बनी कोपीन पहनता है और वैसी ही गुदड़ी ओढ़ता है, जिसके पास चिन्ता नहीं फटकती, जो सुख से मिला हुआ भिक्षान्न खाता है, जो श्मशान भूमि या वन में सो रहता है, जो मित्र और शत्रुओं को समान समझता है, जो सूनी झोंपड़ी में ध्यान करता है और जिसके मद और प्रमाद सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो गए हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">फटी-पुरानी कोपीन पहनने, चीथड़ों की गुदड़ी ओढ़ने, निश्चिन्त रहने, सुख से मिले भिक्षान्न के खाने, मरघट या जंगल में सो रहने, दोस्त और दुश्मन को बराबर समझने और नितान्त सूने घर में पवित्र ध्यान करने से जिसके मद और प्रमाद नाश हो गए हैं, वही योगी संसार में सुखी है । ऐसी महापुरुषों को किसी की इच्छा नहीं होती । जिसे किसी चीज़ की इच्छा नहीं, उसके किसकी गरज़ ? जो मित्र और शत्रु को एक नज़र से देखते हैं, जहाँ जगह पाते हैं वही पद रहते हैं, वहीँ खा लेते हैं, उन्हें न चिन्ता राक्षसी सताती है, न उन्हें घमण्ड होता है और न उन्हें मस्ती आती है । वे तो ब्रह्म के ध्यान में मग्न रहते हैं, इसलिए दुःख उनके पास नहीं आता; वे सदा सुख में दिन बिताते हैं । जो लोग बढ़िया बढ़िया कपडे पहनते हैं, शाल-दुशाले ओढ़ते है, अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट भोजन करते हैं, मखमली गद्दे-तकियों पर सोते हैं, किसी को दोस्त और किसी को दुश्मन समझते हैं, ब्रह्म का ध्यान नहीं करते, उनको चिन्ता लगी ही रहती है । देखने में वे सुखी मालूम होते हैं, पर भीतर ही भीतर उनकी आत्मा जला करती है । चिन्ता उनको खोखला कर डालती है । क्योंकि बढ़िया बढ़िया भोजन और वस्त्रों के लिए उन्हें सदा उपाय करने पड़ते हैं और उनकी रक्षा की चिन्ता करनी पड़ती है । ऐसो के ही मित्र और शत्रु होते हैं । जिनका वे भला करते हैं, जिन्हे कुछ सहायता देते हैं अथवा जिन्हे उनसे कुछ मिलने की आशा रहती है, वे मित्र बन जाते हैं; पर जिनका स्वार्थ साधन नहीं होता, जो उनके ठाठ-बाठ और वैभव को फूटी आँख नहीं देख सकते, वे उनके नाश की चेष्टा करते हैं और उनके दुश्मन हो जाते हैं । इसलिए उन्हें रात-दिन शत्रुओं से बदला लेने और उन्हें पराजित करने की फ़िक्र के मारे क्षणभर भी सुख की नींद नहीं आती । अपने वैभव और ऐश्वर्य को देखकर उन्हें स्वतः ही अभिमान हो आता है । अभिमान के नशे में वो अनर्थ करने लगते हैं; इससे उन्हें सदा भयभीत रहना पड़ता है । बहुत क्या कहें; जिनको आप अमीर देखते हैं, जिनको आप स्त्री-पुरुष, धन-रत्न, गाडी-घोड़े, मोटर प्रभृति से सुखी देखते हैं, वे वास्तव में ज़रा भी सुखी नहीं । सुखी वही है जिसे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं, जिसे किसी से वैर या प्रीति नहीं, जिसे ज़रा भी अभिमान नहीं, जिसकी इन्द्रियां वश में हैं, जो कभी चिन्ता को पास नहीं आने देता और जो ब्रह्मानन्द में ही मग्न रहता है । भला राजा महाराजा और धनी लोग इस सुख को कैसे पा सकते हैं ? अगर सुखी होना चाहो, तो संसार को त्याग कर, एकदम से निश्चिन्त होकर, परमात्मा के सिवा किसी चीज़ की चिन्ता न करो ।</span><br>
<span style="font-size: large;">जो लोग संसार त्यागें, वह सच्चे मन से त्यागें; ढोंग करने से कोई लाभ नहीं । आजकल ऐसे बनावटी महात्मा बहुत देखने में आते हैं, जो जाता-जूट बढ़ा लेते हैं, ख़ाक रमा लेते हैं आँखें लाल कर लेते हैं, गंगा में पहरों खड़े रहते हैं, शूलों की शय्या पर सोते हैं, पर उनकी आशा और तृष्णा नहीं जाती । वे ज़ाहिरा कष्ट उठाते हैं, कर्मेन्द्रियों से उनका काम नहीं लेते; पर मन और ज्ञानेन्द्रियों को अपने वश में नहीं करते, वासनाओं का त्याग नहीं करते, इससे उनका जीवन वृथा जाता है । ऐसे लोगों के सम्बन्ध में <b>महात्मा कबीर</b> कहते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">निर्बन्धन बंधा रहे, बंध्या निरबन्ध होय ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कर्म करे करता नहीं, दास कहावे सोय ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>कृष्ण भगवान् गीता</b> के तीसरे अध्याय के छठे श्लोक में कहते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । </span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जो मनुष्य कर्मेन्द्रियों को वश में करके कुछ काम तो नहीं करता; किन्तु मन में इन्द्रियों के विषयों का ध्यान किया करता है, वह मनुष्य झूठा और पाखण्डी है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">मतलब यह है, कि मनुष्यों को हाथ, पाँव, मुंह, गुदा और लिङ्ग को वश में कर लेने और इनसे कोई काम न लेने से कोई लाभ नहीं; इनसे तो इनका कोई काम लेना ही चाहिए; किन्तु आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा को वश में करना चाहिए । आँख, कान आदि पांच इन्द्रियों को वश में करना या अपने अपने विषयों से रोकना जरूरी है । बहुत से लोग, ज़ाहिर में सिद्ध बनने के लिए, हाथ-पाँव प्रभृति कर्मेन्द्रियों से काम नहीं लेते, किन्तु मन में भाँती भाँती के इन्द्रिय विषयों की इच्छा किया करते हैं । भगवान् कृष्ण ऐसों को पाखण्डी कहते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;">सबसे अच्छा और सिद्ध पुरुष वही है जो ज़ाहिरा तो काम करता है, किन्तु अन्दर से मन और ज्ञानेन्द्रियों को विषय वासना से रोकता है । <b>गीता </b>में कहा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">हे अर्जुन ! जो मन से आँख कान नाक आदि इन्द्रियों को वश में करके और इन्द्रियों को विषयों में न लगा कर "कर्मयोग" करता है, वही श्रेष्ठ है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><b>रहीम </b>ने यही बात कैसी अच्छी तरह कही है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जो "रहीम" मन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जल में छाया जो परी, काया भीजत नाहिं ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तन को योगी सब करें, मन को विरला कोय ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सहजे सब विधि पाइये, जो मन योगी होय ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">मतलब यह है कि ढोंग करने से कोई लाभ नहीं । जिनका दिल साफ़ है, जिनके दिल से वासनाएं निकल गयी है, उन्हें नहाने धोने प्रभृति दिखाऊ कामों या दुकानदारी की जरुरत नहीं है । रहीम कहते हैं, मन यदि हाथ में है तो मनसा कहीं क्यों न जाय, हानि नहीं; क्योंकि जल में शरीर की परछाईं पड़ने से शरीर नहीं भीजता । लोग शरीर को जोगी करते हैं - तिलक छापे लगाते हैं, जटाजूट बढ़ाते हैं, नेत्रों को सुर्ख करते हैं, भभूत मलते हैं, कोपीन बांधते हैं; पर मन को कोई विरला ही जोगी करता है । लोग ऊपर से योगी बन जाते हैं, पर मन उनका विषय-भोगों में लगा रहता है । शरीर से चाहे जो काम क्यों न किये जाएँ, पर मन में विषयों की कामना न रहे; यानि शरीर जोगी न हो, मन जोगी हो जाये; तो सिद्धि या मोक्ष मिलने में संदेह नहीं । सारांश यह कि, मन के योगी होने से ही ईश्वर मिलता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>महाकवि ज़ौक़</b> कहते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सरापा पाक हैं धोये जिन्होंने हाथ दुनिया से ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नहीं हाजत कि वह पानी बहाएं सर से पाऊं तक ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जिन्होंने दुनिया से हाथ धो लिए हैं, वे सिरसे पाँव तक शुद्ध हो गए हैं । उन्हें सिर से पाँव तक पानी बहाकर स्नान करने की जरुरत नहीं ।</span><br>
<span style="font-size: large;">मन जब वासना-हीन हो जाता है, तब वह सूखी दिया-सलाई के समान हो जाता है । सूखी दिया-सलाई जिस तरह झट जल उठती है, पर गीली नहीं जलती; उसी तरह वासनाहीन मन पर परमात्मा का रंग जल्दी चढ़ता है ; किन्तु वासनायुक्त मन पर हरगिज़ नहीं । इसलिए मन को वासनाहीन करना चाहिए । साथ ही भक्ति भी निष्काम करनी चाहिए । ईश्वर से मुराद न मांगनी चाहिए । कामना रखकर भक्ति करने से कामना निश्चय ही पूर्ण होती है - ईश्वर भक्त की इच्छा अवश्य पूरी करता है; पर वैसी भक्ति से परिणाम में भय है ; क्योंकि फलों के भोगने के लिए जन्मना और मरना पड़ता है । किन्तु जो लोग बिना किसी इच्छा के परमात्मा की भक्ति करते हैं, वे मुक्ति लाभ करते हैं - उन्हें जन्म लेना और मरना नहीं पड़ता ।</span><br>
<span style="font-size: large;">जब साधक के मन में कामना नहीं रहती, तब उसके मन से ईर्ष्या-द्वेष और मित्रता-शत्रुता सब दूर हो जाती है । वह सब जगत को एक नज़र से देखता है । वह मनुष्यों की आशा नहीं रखता, केवल परमात्मा की शरण ले लेता है; इसलिए उसे सहज में मुक्ति मिल जाती है । गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है -</span><br>
<span style="font-size: large;">तब लगि हमते सब बड़े, जब लगि है कुछ चाह ।</span><br>
<span style="font-size: large;">चाह-रहित कह को अधिक, पाय परमपद थाह ।।</span><br>
<span style="font-size: large;">जब तक मन में ज़रा भी आशा रहती है, तभी तक मनुष्य किसी को बड़ा मानता है और किसी का दास बनता है; जब आशा नहीं रहती तब वह सबको समान समझता है और सबका आसरा छोड़ एकमात्र परमात्मा का आसरा पकड़ता है; इससे उसको भवबन्धन से छुटकारा मिलकर परमपद की प्राप्ति हो जाती है ।</span><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कन्था अरु कोपीन, फटी पुनि महा पुरानी ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बिना याचना भीख, नींद मरघट मनमानी ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रह जग सों निश्चिन्त, फिरै जितहि मन आवै ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">राखे चित कू शान्त, अनुचित नहीं भाषै ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जो रहे लीन अस ब्रह्म में, सोवत अरु जागत यदा ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">है राज तुच्छ तिहुँ भुवन को, ऐसे पुरुषन को सदा ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">भोगा भंगुरवृत्तयो बहुविधास्तैरेव चायं भवः</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">तत्कस्यैव कृते परिभ्रमतरे लोका कृतं चेष्टितैः ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">आशापाशशतोपशान्तिविशदं चेतः समाधीयतां</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">कामोच्छित्तिवशे स्वधामनि यदि श्रद्धेयमस्मद्वचः ।। १०२ ।।</span></b><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">अर्थ:</span><br>
<span style="font-size: large;">नाना प्रकार के विषय भोग नाशमान और संसार-बन्धन के कारण हैं, इस बात को जानकार भी मनुष्यों ! उनके चक्कर में क्यों पड़ते हो ? इस चेष्टा से क्या लाभ होगा ? अगर आपको हमारी बात का विश्वास हो, तो आप अनेक प्रकार के आशा-जाल के टूटने से शुद्ध हुए चित्त को सदा कामनाशक स्वयंप्रकाश शिवजी के चरण में लगाओ । (अथवा अपनी इच्छाओं के समूल नाश के लिए, अपने ही आत्मा के ध्यान में मग्न हो जाओ ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">आप आज जिन विषय-सुखों को देखकर फूले नहीं समाते, वे विषय-सुख सदा आपके साथ नहीं रहेंगे । वे आज हैं तो कल नहीं रहेंगे । वे बिजली की चमक के समान चञ्चल हैं; अभी बिजली चमकी और फिर नहीं । आप ऐसे नश्वर, असार और क्षणस्थायी सुखों पर मत भूलो । होश करो ! अपनी काया नाशमान है । आप सदा इस संसार में नहीं रहेंगे । आपकी ज़िन्दगी का कोई भरोसा नहीं । आपका जो दम आता है, उसे ही गनीमत समझिये । आप एक कदम रखकर, दूसरा कदम रखने की भी दृढ़ आशा न कीजिये । आपका जीवन हवा के झोंको से छिन्न-भिन्न मेघों के समान है । अभी घटा छा रहीं थी; देखते देखते हवा उन्हें कहाँ का कहाँ उड़ा ले गयी; आकाश साफ़ हो गया। यह सारा संसार, संसार के सुख-भोग, स्त्री-पुत्र, धन-रत्नादि सभी स्वप्न की सी माया हैं । यह दुनिया मुसाफिरखाना है । रोज़ अनेक आदमी मुसाफिरखाने, सराय या धर्मशालाओं में आते और जाते रहते हैं; सदा उनमें कोई नहीं रहता । वे जिस तरह एक दिन या दो-तीन दिन रहकर चले जाते हैं; उसी तरह आपको भी, इस दुनिया रुपी सराय में चन्द रोज़ क़याम करके, आगे जाना होगा । ये सारे सामान यहाँ के यहीं रह जायेंगे । ये सब ऐसे ही रहेंगे, पर आप न रहेंगे । इसलिए आप होशियार रहिये, भूलिए मत । जिस जवानी पर आप इतना इतराते और इतने श्रृंगार-बनाव करते हैं, यह भी चन्दरोज़ा है । यह चार दिन की चाँदनी है । इसके बाद अन्धेरी रात निश्चय ही आवेगी । उस समय आपको यह अकड़, यह उछाल कूद, यह एन्ठना, यह मूंछे मरोड़ना - सब हवा हो जाएगा । आप शीघ्र ही लाठी तक कर चलने लगेंगे । आपका रूप-लावण्य नाश हो जाएगा । जो लोग आपको खूबसूरत समझकर आज प्यार करते हैं, वे ही कल आपको देखकर नाक-भौं सिकोड़ेंगे । फिर भला, आप ऐसी नश्वर निकम्मी काया क्यों इतना अभिमान करते हैं ? आप अहङ्कार को त्यागिये और अपने को उस खिलाडी का एक मिटटी का पुतला मात्र समझिये । सबकी शुभकामना और परोपकार कीजिये और एकमात्र अपने बनानेवाले से ही दिल लगाइये । इसी में आपका कल्याण है । यह जगत कुछ भी नहीं, कोरा भ्रम है । यह मृगमरीचिका या स्वप्न की सी माया है । इस पर ज्ञानी नहीं भूलते । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा सुन्दरदास जी</b> कहते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कोउ नृप फूलन की सेज पर सूतो आई ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जब लग जाग्यो तौ लों, अति सुख मान्यो है ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नींद जब आयी, तब वाही कूँ स्वप्न भयो ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जब परयो नरक के कुण्ड में, यूं जान्यो है ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अति दुःख पावे, पर निकस्यो न क्यूँ ही जाहि ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जागि जब परयो, तब स्वप्न बखान्यो है ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यह झूठ वह झूठ, जाग्रत स्वप्न दोउ ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" कहत, ज्ञानी सब भ्रम मान्यो है ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><span style="font-size: medium;"><br></span>
<span style="font-size: medium;">छप्पय</span></span><br>
<span style="font-size: large;">--------</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अति चञ्चल ये भोग, जगत हूँ चञ्चल तैसो ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तू क्यों भटकत मूढ़ जीव, संसारी जैसो ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आशाफांसी काट, चित्त तू निर्मल ह्वैरे ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">करि रे प्रतीति मेरे वचन, ढुरिरे तू इह ओर को ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">छिन यहै यहै दिनहुँ भल्यौ, निज राखै कुछ भोर को ।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">धन्यानां गिरिकन्दरे निवसतां ज्योतिः परं ध्यायतां-</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">आनन्दाश्रुजलं पिबन्ति शकुना निःशङ्कमङ्केशयाः ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">अस्माकं तु मनोरथोपरचितप्रासादवापीतट-</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">क्रीडाकाननकेलिकौतुकजुषामायुः परिक्षीयते ।। १०३ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">वे धन्य हैं, जो पर्वतों की गुफाओं में रहते हैं और परब्रह्म की ज्योति का ध्यान करते हैं, जिनके आनन्दाश्रुओं को उनकी गोद में बैठे हुए पक्षी निर्भयता से पीते हैं । हमारी ज़िन्दगी तो मनोरथों के महल की बावड़ी के किनारे के क्रीड़ा-स्थान में लीलाएं करते हुए ही वृथा बीतती है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">मतलब यह कि वे लोग सफल काम हैं, जो पहाड़ों की गुफाओं में बैठे हुए परमात्मा ज्योति का ध्यान करते रहते हैं और ध्यान में इतने मग्न हो जाते हैं कि उन्हें अपने तनबदन की भी सुध नहीं रहती । उनको भीतर ही भीतर उस ब्रह्म के ध्यान से जो आनन्द-बोध होता है, उससे उनकी आँखों से आनन्द के आंसू बहने लगते हैं । पक्षी उनकी गोद में निडर बैठे हुए उन आंसुओं को पीते हैं । उन्हें कुछ खबर नहीं, कि पक्षी गोद में बैठे हैं या क्या कर रहे हैं । वे तो आनन्द में बेसुध रहते हैं । यही आनन्द परमानन्द है । इससे परे और आनन्द नहीं । जिनको यह सच्चा आनन्द मिलता है, वही सच्चे भाग्यवान हैं । एक वह हैं और एक हम अभागे हैं, जो रात-दिन मनोरथों के महल गढ़ा करते हैं - रात-दिन मिथ्या कल्पनाएं किया करते हैं । इन शेखचिल्ली के से गढन्तों से हमें कोई लाभ नहीं - इन झूठे ख्याली पुलावों के पकने में हमारा दुष्प्राप्य जीवन वृथा नष्ट हो रहा है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जो मनुष्य मानव-चोला पाकर परमात्मा का भजन नहीं करते, परमात्मा के दर्शनों की चेष्टा नहीं करते - उनका जीवन वृथा है । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">इसलिए <b>उस्ताद ज़ौक़</b> ने कहा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दिल वह क्या, जिसको नहीं तेरी तमनाये विसाल ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चश्म वह क्या, जिसको तेरे दीद की हसरत नहीं ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">वह दिल ही नहीं, जिसे तुझे पाने की इच्छा न हो और वह आँख ही नहीं, जिसे तेरे दर्शन की लालसा न हो ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<br>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">बीती सो बीती, अब तो होश करो !</span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">------------------------------------------</span></b></div>
<span style="font-size: large;">भाइयों ! बीती सो बीती, अब तो चेत करो और प्रभु से लौ लगाओ । आजकल मत करो, नहीं तो पछताओगे । अन्त समय पछताने से कोई लाभ न होगा । जो लोग विचार ही विचार करते रहते हैं, वे धोखे में रह जाते हैं और काल एक दिन अचानक आकर उनकी छोटी पकड़ लेता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>गोस्वामी तुलसीदास जी</b> कहते हैं -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">गए पलट आवें नहीं, सो करु मन पहचान ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आजु जोई सोई कालहि है, तलसी मर्म न मान ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रामनाम रटिबो भलो, तुलसी खता न खाय ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">लरिकाई ते पैरिबो, धोखे बूड़ि न जाय ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">नदी की जो धार चली गयी है, लौटकर नहीं आएगी, जो दिन चले गए हैं, वापस नहीं आएंगे । जो दिन आज है, वही कल है । कल कोई नई बात नहीं हो जायेगी । अतः जो कल करना है उसे आजही करो; और जो आज करना है, उसे अभी करो; क्योंकि यदि पल भर में प्रलय हो गयी - आप चल बसे - तो फिर कब करोगे ? बचपन से ही राम नाम रटना अच्छा है । जो लोग बचपन से ही तैरना सीख लेते हैं, धोखे से नहीं डूबते । जो लोग यही विचार किया करते हैं, कि अमुक काम हो जायेगा, तो उसके बाद हम सब गृहस्थी के झगड़े छोड़ भगवत भजन करेंगे, वे इस तरह के विचार किया ही करते हैं कि इतने में समय पूरा हो जाता है और काल उनका चोटा पकड़ कर उन्हें ले जाता है । उस वक्त वह बहुत पछताते और सिर धुनते हैं; लेकिन उस समय क्या हो सकता है ? उस समय उनकी गति उस भौंरे सी होती है, जो कमल के मुख में बन्द हो कर कहता है -</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजालं ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">बड़े बड़े शाल के लट्ठों को छेद डालने की शक्ति रखने वाला भौंरा, प्रेम के मारे, कोमल कमल में बन्द हो जाता है । रात हो जाती है और भौंरा कमल के अन्दर बैठा विचार करता है - "अब रात का अवसान होगा, सवेरा होगा, सूरज उदय होगा और यह कमल खिल जायेगा; तब मैं निकल जाऊंगा । अब रात भर यहीं आनन्द करूँ ।" वह तो ऐसे विचार करता ही रहता है, कि जंगली हाथी कमल को उखाड़ कर मुंह में रख लेता है और भौंरो के मन की मन में ही रह जाती है । यही दशा संसारी विषय-लोलुपों की है । वह विचार बाँधा ही करते हैं और काल उन्हें मुंह में धर लेता है, अतः हो सके तो बचपन में ही ईश्वर भजन करो । बचपन में यदि ऐसा सौभाग्य न हो, तो जवानी में तो न चूको । जवानी इसके लिए अच्छा समय है । उस अवस्था में शक्ति रहती है । जाने में ईश्वरभक्ति करनेवाला निश्चय ही मोक्ष या स्वर्ग पाता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>कहा है</b> -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दानं दरिद्रस्य प्रबोशच शान्तिः </span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यूनां तपो ज्ञानवताञ्च मौनं ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">इच्छा निवृत्तिश्च सुखासितानां</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दया च भूतेषु दिवं नयन्ति ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">दरिद्रता का किया दान, निग्रह अनुग्रह की शक्ति होने पर क्षमा, जवानी का किया तप, विद्वान् होकर चुप रहना, सुख-भोग की सामर्थ्य होने पर इच्छाओं को रोक लेना और प्राणियों पर दया करना - ये स्वर्ग की प्राप्ति करते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<br>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">ईश्वर भजन में आजकल मत करो </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">-------------------------------------------</span></b></div>
<span style="font-size: large;">एक धनवान सदा घर-धंधों में लीन रहता था । उसकी स्त्री उससे बहुत कुछ कहती थी कि हे स्वामी ! यह शरीर विषय-भोगों के लिए नहीं, बल्कि परमात्मा की भक्ति के लिए मिला है । पारसमणि समझकर, इससे मोक्ष रुपी सोना बना लीजिये । ऐसा न हो कि आप सोना न बनावें और यह पारसमणि पहले ही आपसे छीन ली जाय । इस शरीर का बारम्बार मिलना कठिन है । ८४ लाख योनियां भोगने के बाद यह मनुष्य चोला मिला है । इस बार यदि इससे काम न लिया जायेगा, तो फिर चौरासी लाख योनियों में जन्म-मरण होने पर यह मनुष्य-चोला मिलेगा; इसलिए दो चार घडी तो सब तरफ से मन हटाकर परमात्मा की याद किया करो । स्त्री उससे बार बार कहती, पर वह सेठ उसकी बात टाल देता ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">एक दिन सेठ बीमार हो गया । उसने सेठानी से वैद्य को बुलाने को कहा । सेठानी ने वैद्य को बुलाया । वैद्य ने नाड़ी-नब्ज़ देख, रोग का हाल पूछ, दवा का नुस्खा लिख दिया और सेवन-विधि बताकर चला गया । सेठानी ने पंसारी के यहाँ से दवा मंगा, आले में रख दी । दिन भर हो गया पर सेठ को दवा न दी । संध्या समय सेठ ने कहा - "क्या दवा नहीं मंगाई गयी ?" सेठानी ने कहा - "जी, दवा तो मंगा ली है, पर वह रक्खी है उस ताक में ।" सेठ ने पूछा - "अब तक दी क्यों नहीं ?" सेठानी ने कहा - "जल्दी क्या है ? आज नहीं तो कल, नहीं तो परसों दे दूंगी । कभी न कभी दे ही दूंगी ।" सेठ ने कहा - "अगर मैं मर गया तो दवा कौन काम आवेगी ?" सेठानी ने कहा - "मरने को तो आप मानते ही नहीं । मैं जब जब भगवत भजन करने को कहती हूँ, तब-तब आप कह देते हैं कि देखा जायेगा; जल्दी थोड़े ही है । यदि आपको मरने की ही याद होती तो ऐसा न कहते । आज दवा के लिए आपको मरने की याद आयी है । जिस तरह दवा की रोगनाश के लिए जरुरत है; उसी तरह भजन-पूजन की जन्म-मरण का फन्दा काटने के लिए जरुरत है । ऐसा न हो कि पशु योनि मिल जाय और सारा गुड़-गोबर हो जाय ।" आज स्त्री का उपदेश लग गया । सेठ को वैराग्य हो गया । सेठानी ने उसे दवा पिला दी और वह अच्छा भी हो गया । उसी दिन से उसने ईश्वर भजन में लौ लगा दी । वह और सब भूला पर ज़िन्दगी भर, मौत और ईश्वर को न भूला ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<br>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">मौत को हरदम याद रक्खो </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">---------------------------------</span></b></div>
<span style="font-size: large;">एक बादशाह ने अपने दरबार और बैठने के स्थानों में कब्रें बनवा रक्खी थीं । वह चाहता था कि मैं हरदम कब्रों को देखकर मौत को न भूलूँ । मौत की याद रहने से पापों से बचा रहूँगा और ईश्वर को न भूलूंगा । हमारे यहाँ के अनेक सच्चे सिद्ध अक्सर शमशान भूमि में ही डेरा रखते हैं । सारांश यह कि मनुष्य को अपनी मौत सदा याद रखनी चाहिए, ताकि संसार से वैराग्य होकर ज्ञान हो और ज्ञान से मोक्ष मिले । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा कबीर</b> ने खूब जबरदस्त चेतावनी दी है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"कबिरा" जो दिन आज है, सो दिन नाहिं काल।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">चेत सके तो चेतियो, मीच परी है ख्याल।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">हे कबीर ! जो दिन आज है, वह कल नहीं होगा; यानी आज का सा मौका कल फिर न मिलेगा । चेतना है तो चेत जा ! देख, मृत्यु तेरे घात में है । चूहे पर बिल्ली की तरह झपट्टा मारना ही चाहती है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>गोस्वामी जी</b> ने भी खूब कहा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"तुलसी" विलम्ब न कीजिये, भेज लीजै रघुबीर।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तन तरकस ते जात है, श्वास सार सो तीर।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पल में परलय होएगी, बहुरि करोगे कब?</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">तुलसीदास जी कहते हैं, देर न करो, भगवान् को भेज लो; क्योंकि तनरूपी तरकस से श्वास रुपी तीर, जो सार है, निकला जाता है । जो काम कल करना है, उसे आज ही कर डालो और जो आज करना है, उसे अभी कर डालो; क्योंकि यदि पल में प्रलय हो गयी, तो फिर कब करोगे ?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जो मनुष्य दिन-रात घर-धन्धों में ही लगे रहते हैं, कभी खुश होते हैं कभी रंज करते हैं, कभी कन्या के वैधव्य दुःख को देखकर जलते रहते हैं, तो कभी पुत्र के मरण से औंधा मुंह किये पड़े रहते हैं अथवा कान्ता-वियोग या स्त्री के मरण से तड़फते हैं अथवा धनवृद्धि के लिए दौड़ते फिरते हैं । लेकिन परमात्मा का नाम कभी नहीं लेते; यदि लेते हैं तो हाथ को तो गोमुखी में रखते हैं, पर मन को विषयों में लगाए रहते हैं, लोगों से बातें करते रहते और सड़ासड़ माला फेरा करते हैं, ऐसों के पास एक दिन भी चतुर पृष्ठों को न रहना चाहिए ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>कहा है</b> -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">राजा धर्मविना, द्विजः शुचिविना, ज्ञानं विना योगिनः ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कान्ता सत्यविना, हयो गति विना, भूषा च ज्योतिर्विना ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">योद्धा शूरविना, तपो व्रत विना, छन्दो विना गीयते ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भ्राता स्नेह विना, नरो हरि विना, मुञ्चन्ति शीघ्रं बुधाः ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">धर्महीन राजा को, शौचहीन ब्राह्मण को, ज्ञानहीन योगी को, असत्यवादिनी स्त्री को, गतिहीन घोड़े को, चमक-दमक रहित गहने को, शूरताहीन योद्धा को, नियम रहित तप को, छन्द बिना कविता को, स्नेह-हीन भाई को और हरिभक्ति रहित पुरुष को बुद्धिमान लोग शीघ्र ही छोड़ देते हैं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">हरिभक्ति रहित पुरुष को चतुर लोग इसलिए त्याग देते हैं, कि उसकी सङ्गति में उनका मन भी कहीं वैसा न हो जाय । मनुष्य जैसी सङ्गति करता है, वैसा ही हो जाता है । जो विषयी पुरुषों की सङ्गति करता है, वह विषयी हो जाता है; पर जो ज्ञानी और वैरागियों की सङ्गति करता है, वह ज्ञानी और वैरागी हो जाता है । महापुरुषों की एक शुभ दृष्टी से मनुष्य निहाल हो जाता है; यानी भाव-बन्धन से उसका पीछा छूट जाता है । हम आगे दोनों तरह के दृष्टान्त देते हैं -</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<br>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">एक राजा और महात्मा </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">-----------------------------</span></b></div>
<span style="font-size: large;">किसी जंगल में एक महात्मा रहते थे । वह पेड़-पत्ते और हवा खाकर ज़िन्दगी बसर करते थे । उनकी शोहरत सारे देश में फ़ैल गयी । उस देश के राजा ने भी उनसे मिलना चाहा । वज़ीर ने यह खबर महात्मा को दी । महात्मा उस जंगल को छोड़ भागने को तैयार हुए; लेकिन मंत्री के बहुत समझने बुझाने से वह वहां रह गए और राजा को दर्शन देने पर भी राज़ी हो गए ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">एक दिन राजा अपने परिवार और दरबारियों समेत महात्मा के दर्शन को गया । महात्मा के दर्शन कर वह बहुत ही खुश हुआ और उनसे नगर में चलकर बाग़ में तप करने की प्रार्थना की । महात्मा बहुत ज़ोर देने से इस बात पर राज़ी हो गया । राजा ने अपने बाग़ में उसके लिए एक एकान्त कमरा खूब सजवा दिया । मखमली गद्दे, तकिये, कौच, पलंग और कुर्सियां रखवा दीं और चौदह-चौदह बरस की सुन्दरी मनमोहिनी कामिनियाँ महात्मा जी की सेवा को नियुक्त कर दीं ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">महात्मा जी खूब आनन्द से दिनी गुज़ारने और विधुवदिनी कामिनियों को भोगने लगे । चन्दरोज में ही वह विषयों के वशीभूत हो गए । एक दीं राजा फिर उनसे मिलने गया । उसने देखा कि महात्मा जी का रंग रूप गुलाब के फूल जैसा हो गया है । वह मसनद के सहारे लेते हुए हैं और चन्द्रानना स्त्रियां उन पर मोरछल कर रही हैं । यह तमाशा देख राजा को बड़ा दुःख हुआ । उसने अपने मंत्री से यह हाल कहा । मंत्री ने कहा - "महाराज ! निवृत्ति मार्ग वालों को प्रवृत्ति मार्ग वालों की सङ्गति भूलकर भी न करनी चाहिए ।"</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>कहा है</b> -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कामीनाम् कामिनीनां च संगात् कामी भवेत् पुमान्। </span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">देहान्तरे ततः क्रोधी लोभी मोहि च जायते।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">काम क्रोधादि संसर्गाद शुद्धं जायते मनः।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">अशुद्धे मनसि ब्रह्मज्ञानं तच्च विनश्यति।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">कामी पुरुषों और स्त्रियों की सङ्गति से पुरुष कामी और जन्मान्तर में मोहि और क्रोधी हो जाता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">काम क्रोधादि के सम्बन्ध से मन भी अशुद्ध हो जाता है । अशुद्ध मन से उपदेश किया हुआ ब्रह्मज्ञान भी नष्ट हो जाता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<br>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">एक महात्मा और वेश्या </span></b></div>
<div style="text-align: center;">
<b><span style="font-size: large;">---------------------------------</span></b></div>
<span style="font-size: large;">एक महात्मा एक दिन वर्षा में भीगते हुए और कीच में लिपटे हुए एक मकान के छज्जे के नीचे जा खड़े हुए । वह मकान राजा की वेश्या का था । महात्मा सर्दी के मारे थर-थर काँप रहे थे । वेश्या की दासी ने महात्मा को देखा और अपनी स्वामिनी से सारा हाल जा कहा । वेश्या ने कहा - "जाओ, महात्मा की लिवा लाओ ।" दासी उन्हें ले आई । वेश्या ने उनको स्नान कराकर नए कपडे पहनाये और भोजन कराया । इसके बाद आप भोजन करके उनके पास गयी और उन्हें पलंग पर लिटा कर उनके पैर दबाने लगी । महात्मा ने एक नज़र भर के वेश्या की तरफ देखा और उसके ह्रदय में अमृत की धारा बहा दी । वह सो गए और वेश्या रात भर उनके चरण चापती रही । सवेरे के समय वह सो गयी और महात्मा उठ कर चल दिए । भोर में उठते ही वेश्या ने दासी से पूछा कि महात्मा कहाँ गए ? उसने कहा कि वो तो चले गए । वेश्या उसी समय नंगी होकर घर से निकल गयी और एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गयी । राजा ने यह समाचार सुनते ही अपने आदमी उसको लिवा लाने को भेजे । वेश्या ने कहा - "राजा से कह दो, कि मैं आपका वह मैला उठाने वाली पहले की भंगन नहीं हूँ ।" राजा ने यह बात सुन, हुक्म दे दिया कि उसे कोई न छेड़े । अगले दिन वह कहीं चली गयी । सच है, महापुरुषों की क्षणभर की सङ्गति से महापापी भी निहाल हो जाता है । निस्संदेह सत्संग बड़ी चीज़ है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>कहा है</b> -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">महानुभावसंसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">पद्मपत्रस्थितम् वारिधत्ते मुक्ताफलश्रियम ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">महापुरुषों की सङ्गति से किसकी उन्नति नहीं होती ? कमल के पत्ते पर पड़ी जल की बून्द मोती की शोभा को धारण करती है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">और भी -</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">दोहा</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">-------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जेहि जैसी सङ्गति करी, सो तैसो फल लीन ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कदली सीप भुजंग मुख, एक बून्द गुण तीन ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">जो जैसी सङ्गति करता है, वह वैसा ही फल पाता है । मेह की एक बून्द केले में कपूर, सीप में मोती और सर्प मुख में विष हो जाती है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">सवैय्या </span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">--------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ज्ञान बढै गुनवान की संगत,</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ध्यान बढै तपसी-संग कीने ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मोह बढै परिवार की संगत,</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">लोभ बढै धन में चित दीने ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">क्रोध बढै नर मूढ़ की संगत,</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">काम बढै तिय के संग कीने ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बुद्धि विवेक विचार बढै,</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कवि "दीन" सुसज्जन संगत कीने ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">सत्संग की महिमा का पार नहीं । सत्संग से ही दस्यु भील वाल्मीकि ऋषि हो गए । पद्मयोनि से पैदा हुए ब्रह्मा कैवर्त्ति से पैदा हुए व्यासजी, उर्वशी से पैदा हुए वशिष्ठ जी और हिरनी से पैदा हुए ऋषि श्रृंगी सत्संग से ब्रह्मतत्व को प्राप्त हुए; अतः महापुरुष्णो का संग करना चाहिए । "सत्संग" भाव-सागर से पर करने के लिए नौका-स्वरुप है । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>कहा है</b> -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तत्त्वं चिन्तय सततं चित्ते,</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">परिहर चिन्तां नश्वरवित्ते ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">क्षणमिह सज्जनसङ्गतिरेका,</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">भवति भवार्णवतरणे नौका ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">हमेशा तत्व की चिन्तना कर, चञ्चल धन की चिन्ता छोड़ । यह जगत अल्पकालीन है; केवल सज्जनों की सङ्गति ही भवसागर के पार जाने के लिए नाव के समान है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">इस संसार वृक्ष के जितने फल हैं, सभी प्राणी के नाश करनेवाले और उसे सदा दुखों के गर्त में पटक रखनेवाले हैं; केवल दो फल अमृत समान हैं; </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">कहा है -</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">संसारविषवृक्षस्य द्वे फैले अमृतोपमे ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">काव्यामृत रसास्वाद आलापः सज्जनैः सह ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">इस संसार रुपी विष-वृक्ष के दो फल अमृत के समान हैं </span><br>
<span style="font-size: large;"><b>१) </b>काव्यरुपी अमृत का रसास्वादन करना, <b>२) </b>साधु पुरुषों की सङ्गति करना ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>शंकराचार्य जी</b> ने कैसा अच्छा उपदेश दिया है । इसमें संसार-सागर से पार होने का सारा मसाला है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">संगः सत्सु विधीयतां, भगवतोभक्तिर्दृढ़ा धीयतां,</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">शान्त्यादिः परिचीयतां, दृढतरं कर्माशु संत्यज्यताम्।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">सद्विद्या ह्युपसर्प्यतां, प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां,</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ब्रह्मैकाक्षरमर्थ्यतां श्रतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम्।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">साधु पुरुषों का संग करना चाहिए । भगवान् में दृढ़ भक्ति करनी चाहिए । क्षमा और दम प्रभृति का अभ्यास करना चाहिए । संसार-बन्धन के कारण "कर्म - सकाम कर्मों को" शीघ्र त्यागना चाहिए । सच्चे विद्वानों की सेवा करनी चाहिए और उनकी पादुकाएं उठानी चाहिए । ब्रह्म बोधक एकाक्षर प्रणव "ॐ" का जाप करना चाहिए और वेद के शिरोवाक्य "वेदान्त" को सुनना चाहिए ।</span><br>
<span style="font-size: large;">वाह ! क्या खूब कहा है ! जो इस वचन पर अमल करेगा, उसे परमानन्द की प्राप्ति क्यों न होगी ? अवश्य होगी । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">----------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">योगी जग विसराय, जाय गिरिगुहा बसत हैं ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">करत ज्योति को ध्यान, मगन आंसू वरसत हैं ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">खगकुल बैठत अंक, पियत निःशंक नयनजल ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">धनि-धनि हैं वे धीर, धरयो जिन यह समाधिबल ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">हम सेवत बारी बाग सर, सरिता बापी कूपतट ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">खोवत है योंही आयु को, भये निपटही नीरघट ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"><br></span></span>
<b><span style="font-size: large;">आघ्रातं मरणेन जन्म जरया विद्युच्चलं यौवनं</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">सन्तोषो धनलिप्सया शमसुखं प्रौढाङ्गनाविभ्रमैः ।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">लोकैर्मत्सरिभिर्गुणा वनभुवो व्यालैर्नृपा दुर्जनैः</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">अस्थैर्येण विभूतिरप्यपहृता ग्रस्तं न किं केन वा ।। १०४ ।।</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;"><br></span></b>
<b><span style="font-size: large;">अर्थ:</span></b><br>
<span style="font-size: large;">मृत्यु ने जन्म को ग्रस रक्खा है, बुढ़ापे ने बिजली के समान चञ्चल युवावस्था को ग्रस रक्खा है, धन की इच्छा ने सन्तोष को ग्रस रक्खा है, जलनेवालों ने गुणों को ग्रस रक्खा है, सर्प और जंगली जानवरों ने वन को ग्रस रक्खा है, दुष्टों ने राजाओं को ग्रस रक्खा है, अस्थिरता या चञ्चलता ने धनैश्वर्य को ग्रस रक्खा है; तब ऐसी कौन सी चीज़ है, जो किसी दूसरी नाशक चीज़ के चंगुल में नहीं है ?</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">खुलासा यह है, कि जन्म को मृत्यु का भय है, जवानी को बुढ़ापे का भय है, सन्तोष को लोभ का भय है, शान्ति को स्त्रियों के हावभाव और विलासों का भय है, गुणों को उनसे जलने या कुढ़नेवालों का भय है, वन में सर्प और हिंसक पशुओं का भय है, राजाओं में दुष्ट दरबारियों का भय है, धन और ऐश्वर्य में क्षणभंगुरता का भय है । संसार में ऐसी कोई अच्छी वास्तु नहीं है, जिसे किसी का भय न हो । मतलब यह है कि, संसार और संसार के सभी पदार्थ नाशमान हैं । ऐसी कोई चीज़ नहीं है, जिसका काल नाश नहीं कर देता अथवा जिसे किसी तरह का भय नहीं है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">संसार की यह दशा है, तब भी तो मनुष्य चेत नहीं करता, यही तो आश्चर्य की बात है ! अज्ञानी मनुष्य, मोहवश, अपना हानि-लाभ नहीं देखता; संसार की झूठी माया में फंसा रहता है । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>तुलसीदास जी</b> ने ठीक ही कहा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">करत चातुरी मोहवश, लखत न निज हित हान ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">शूक मर्कट इव गहत हठ, तुलसी परम सुजान ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दुखिया सकल प्रकार शठ, समुझि परत तोई नाहिं ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">लखत न कण्टक मीन जिमि, अशन भखत भ्रम नाहिं ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">विषयों के संसर्ग से मनुष्य के मन में कामना - इच्छा पैदा होती है । जब इच्छा पूरी नहीं होती, तब क्रोध होता है और क्रोध से मोह की उत्पत्ति होती है । मोह होने से प्राणी को अपना हित या परलोक की हानि नहीं दीखती । राग-द्वेष प्रभृति के कारण उसमें ज्ञानदृष्टी नहीं रहती; पर पढ़ने-लिखने के कारण वह अपने तई परम चतुर समझता है और जिस तरह हठ करके तोता बहेलिये के फन्दे में आप ही फंस जाता है और पिंजरे में कैद हो जाता है तथा बन्दर छोटे मुंह की ठिलिया में रोटी के लिए हाथ डालकर बंदरवाले के कब्जे में हो जाता है; उसी तरह विषयी पुरुष, विषयों के लालच में आकर, अपने तई संसार-बन्धन में फंसा लेता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">मनुष्य भूख, प्यास, रोग, शोक, दरिद्रता, प्रिय-वियोग, बुढ़ापा, जन्म-मरण, चौरासी लाख योनियों में दुःख-भोग तथा नरक प्रभृति से हर तरह दुखी है, उसे ज़रा भी सुख नहीं है, पर वह मोह के मारे ऐसा अन्धा हो रहा है कि उसे कांटे में लगे चारे के लिए फंसने वाली मछली कि तरह कुछ भी नहीं सूझता । जिस तरह मछली को रोटी का टुकड़ा प्यारा है; उसी तरह मनुष्य को विषय-भोग प्यारा है । जिस तरह मछली को काँटा है, उसी तरह मनुष्य को ममता का काँटा है । मतलब यह है, अज्ञानी मनुष्य विषय रुपी चारे के लोभ से ममता के कांटे में फंसकर अपना नाश कराता है; पर मज़ा यह कि वह दुःख को दुःख नहीं समझता; तरह-तरह के भयों से घिरा हुआ नाना प्रकार के संकट झेलता है; मछली, तोते और बन्दर की तरह बन्धन में फंसता है, पर निकलना नहीं चाहता । इन दुःखों का उसे ज़रा भी ख्याल नहीं आता । रोज़ लोगों को मरते हुए देखता है, रोज़ बूढ़ों को असह्य कष्ट उठाते देखता है; पर आप नहीं समझता कि मेरी भी यही गति होनेवाली है ! उल्टा हर साल जन्मतिथि को वर्षगाँठ का उत्सव करता है । मित्रों और रिश्तेदारों को निमंत्रण देता है । गाना बजाना और नाच रंग कराता है । कैसी बात है, जहाँ रंज करना चाहिए, वहां नादान मनुष्य ख़ुशी मनाता है ! उसे समझना चाहिए कि हर सालगिरह को उसकी उम्र का एक साल काम होता है । </span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;"><b>महात्मा सुन्दरदास जी </b>ने क्या खूब कहा है -</span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">जबतें जनम लेत, तबही तें आयु घटे ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">माई तो कहत, मेरो बड़ो होत जात है ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">आज और काल और दिन-दिन होत और ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">दौरयो दौरयो फिरत, खेलत और खात है ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">बालपन बीत्यो, जब यौवन लाग्यो है ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">यौवनहु बीते बूढ़ो डोकरो दिखात है ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">"सुन्दर" कहत, ऐसे देखत ही बूझिगयो ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तेल घटी गए, जैसे दीपक बुझात है ।।</span></span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<span style="font-size: large;">प्राणी जब से जन्म लेता है, तभी से उसकी उम्र घटने लगती है । माँ समझती है कि मेरा लाल बड़ा होता जाता है । दिन-दिन उसके रंग बदलते हैं । बचपन में खाता खेलता और भागा फिरता है । बचपन के बीतते ही जवानी आ जाती है और जवानी के बीतते ही बुढ़ापा आ जाता है और वह बूढा डोकरा सा दिखने लगता है । सुन्दरदास कहते हैं कि देखते-देखते जिस तरह तेल घट जाने से चिराग बुझ जाता है; उसी तरह वह बुझ जाता है; यानी मर जाता है ।</span><br>
<span style="font-size: large;"><br></span>
<b><span style="font-size: large;">छप्पय</span></b><br>
<b><span style="font-size: large;">---------</span></b><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ग्रस्यो जन्म को मृत्यु, जरा यौवन को ग्रास्यौ ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">ग्रसिवे को सन्तोष, लोभ यह प्रगट प्रकास्यो ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">तैसहि समदृष्टि ग्रसित, बनिता बिलास वर ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">मत्सर गुण ग्रसिलेत, ग्रसत वन को भुजङ्गवर ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">नृप ग्रसित किये इन दुर्जनन, कियौ चपलता धन ग्रसित ।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;">कछुहु न देख्यौ बिन ग्रसित जग, याही तें चित अति त्रसित ।।</span></span><br>
<span style="background-color: #fff2cc;"><span style="font-size: large;"></span></span><br>
<br></div>
</div>
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<span style="font-size: large;"></span></div>
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<div style="color: black; font-family: "times new roman"; font-size: medium; font-style: normal; font-weight: 400; letter-spacing: normal; margin: 0px; text-indent: 0px; text-transform: none; white-space: normal; word-spacing: 0px;">
<span style="background-color: #fff2cc;"></span></div>
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Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-35431406651664619812019-02-10T11:52:00.001+05:302019-02-14T08:34:40.368+05:30श्री विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र<span style="color: #b45f06;">ब्रह्मा उवाच</span><br />
शुक्लाम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।<br />
प्रसन्नवदनं ध्यायेत सर्वविघ्नोपशान्तये ।।<br />
<div>
<br />
लाभस्तेषां जयस्तेषां कुतस्तेषां पराजयः ।<br />
येषामिन्दीवरश्यामो हृदयस्थो जनार्दनः ।।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">विनियोगः</span><br />
ॐ अस्य श्रीविष्णु सहस्रनामस्तोत्रमंत्रस्य<br />
ब्रह्मा ऋषिर्विष्णुदेवता अनुष्टुप्छन्दः<br />
सर्वकामावाप्त्यर्थं जपे विनियोगः ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">ध्यानम् </span><br />
सजलजलदनीलं दर्शितोदारशीलं<br />
करतलधृतशैलं वेणुवाद्यै रसालम् ।<br />
व्रजजनकुलपालं कामिनीकेलिलोलं<br />
तरुणतुलसिमालं नौमि गोपालबालम् ।।<br />
<br />
<div style="text-align: center;">
<span style="font-size: large;"><b>अथ विष्णुसहस्त्रनामस्तोत्र</b></span><b><span style="font-size: large;">म्</span></b></div>
<br />
विष्णुर्जिष्णुर्हृषिकेशः सर्वात्मा सर्वभावनः ।<br />
सर्वगः शर्वरीनाथो भूतग्रामाशयाशयः ।। १ ।।<br />
<div>
<br />
अनादिनिधनो देवः सर्वज्ञः सर्वसम्भवः ।<br />
सर्वव्यापी जगध्दाता सर्वशक्तिधरोऽनघः ।। २ ।।<br />
<br />
जगद्बीजं जगत्स्त्रष्टा जगदीशो जगत्पतिः ।<br />
जगद्गगुरुर्जगन्नाथो जगध्दाता जगन्मयः ।। ३ ।।</div>
<div>
<br />
सर्वाकृतिधरः सर्वो विश्वरूपी जनार्दनः ।<br />
अजन्मा शाश्वतो नित्यो विश्वाधारो विभुः प्रभुः ।। ४ ।।<br />
<br />
बहुरूपैकरूपश्च सर्वरूपधरो हरः ।<br />
कालाग्निप्रभवो वायुः प्रलयान्तकरोऽक्षयः ।। ५ ।।</div>
<div>
<br />
महार्णवो महामेघो जलबुद्बुदसम्भवः ।<br />
संस्कृतोऽविकृतो मत्स्यो महामत्स्यस्तिमिङ्गिलः ।। ६ ।।<br />
<br />
अनन्तो वासुकिः शेषो वराहो धरणीधरः ।<br />
पयः क्षीर विवेकाढयो हंसो हैमगिरिस्थितः ।। ७ ।।</div>
<div>
<br />
हयग्रीवो विशालाक्षो हयकर्णो हयाकृतिः ।<br />
मन्थनो रत्नहारी च कूर्मोऽधरधराधरः ।। ८ ।।<br />
<br />
विनिद्रो निद्रितो नन्दी सुनन्दो नन्दनप्रियः ।<br />
नाभिनालमृणाली च सवयंभूश्चतुराननः ।। ९ ।।</div>
<div>
<br />
प्रजापतिपरो दक्षः सृष्टिकर्ता प्रजाकरः ।<br />
मरीचिः कश्यपो वत्सः सुरासुरगुरुः कविः ।। १० ।।<br />
<br />
वामनो वामभागी च वामकर्मा बृहद्वपुः ।<br />
त्रैलोक्यक्रमणो दीपो बलियज्ञविनाशनः ।। ११ ।।</div>
<div>
<br />
यज्ञहर्ता यज्ञकर्ता यज्ञेशो यज्ञभुग विभुः ।<br />
सहस्त्रांशुर्भगो भनुर्विवस्वान् रविरंशुमान् ।। १२ ।।<br />
<br />
तिग्मतेजाश्चाल्पतेजाः कर्मसाक्षीः मनुर्यमः ।<br />
देवराजः सुरपतिर्दानवारिः शचीपतिः ।। १३ ।।<br />
<br />
अग्निर्वायुसखो वह्निर्वरुणो यादसाम्पतिः ।<br />
नैर्ऋतो नादानोऽनादी रक्षोयक्षधनाधिपः ।। १४ ।।<br />
<br />
कुबेरो वित्तवान् वेगो वसुपालो विलासकृत् ।<br />
अमृतस्त्रवणः सोमः सोमपानकरः सुधीः ।। १५ ।।<br />
<br />
सर्वौषधिकरः श्रीमान्निशाकारो दिवाकरः ।<br />
विषारिर्विषहर्ता च विषकण्ठधरो गिरिः ।। १६ ।।<br />
<br />
नीलकण्ठो वृषी रुद्रो भालचन्द्रो ह्यूमापतिः ।<br />
शिवः शान्तो वशी वीरो ध्यानी मानी च मानदः ।। १७ ।।<br />
<br />
कृमिकीटो मृगव्याधो मृगहा मृगवत्सलः ।<br />
वटुको भैरवो बालः कपाली दण्डविग्रहः ।। १८ ।।<br />
<br />
श्मशानवासी मांसाशी दुष्टनाशी स्मरान्तकृत् ।<br />
योगिनीत्रासको योगी ध्यानस्थो ध्यानवासनः ।। १९ ।।<br />
<br />
सेनानीः सैन्यदः स्कन्दो महाकालो गणाधिपः ।<br />
आदिदेवो गणपतिर्विघ्नहा विघ्नाशन ।। २० ।।<br />
<br />
ऋद्धिसिद्धिप्रदो दन्ती भालचन्द्रो गजाननः ।<br />
नृसिंह उग्रद्रंष्ट्रश्च नखी दानवनाशकृत् ।। २१ ।।<br />
<br />
प्रह्लादपोषकर्ता च सर्वदैत्यजनेश्वरः ।<br />
शलभः सागरः साक्षी कल्पद्रुमविकल्पः ।। २२ ।।<br />
<br />
हेमदो हेमभागी च हिमकर्ता हिमाचलः ।<br />
भूधरो भूमिदो मेरुः कैलासशिखरो गिरिः ।। २३ ।।<br />
<br />
लोकालोकान्तरो लोकी विलोकी भुवनेश्वर ।<br />
दिक्पालो दिक्पतिर्दिव्यो दिव्यकायो जितेन्द्रियः ।। २४ ।।<br />
<br />
विरूपो रूपवान् रागी नृत्यगीत विशारदः ।<br />
हाहा हूहूश्चित्ररथो देवर्षिनारदः सखा ।। २५ ।।<br />
<br />
विश्वेदेवाः साध्यदेवा धृताशीश्च चलोऽचलः ।<br />
कपिलो जल्पको वादी दत्तो हैहयसंघराट् ।। २६ ।।<br />
<br />
वसिष्ठो वामदेवश्च सप्तर्षिप्रवरो भृगुः ।<br />
जामदग्न्यो महावीरः क्षत्रियान्तकरो ह्यर्षिः ।। २७ ।।<br />
<br />
हिरण्यकशिपुश्चैव हिरण्याक्षो हरप्रियः ।<br />
अगास्तिः पुलहो रक्षः पौलस्त्यो रावणो घटः ।। २८ ।।<br />
<br />
देवारिस्तापसस्तापि विभीषणहरिप्रियः ।<br />
तेजस्वी तेजदस्तेजी ईशो राजपतिः प्रभुः ।। २९ ।।<br />
<br />
दाशरथी राघवो रामो रघुवंशविवर्धनः ।<br />
सीतापतिः पतिः श्रीमान् ब्रह्मण्यो भक्तवत्सलः ।। ३० ।।<br />
<div>
<br /></div>
सन्नद्धः कवची खड्गी चीरवासा दिगम्बरः ।<br />
किरीटी कुण्डली चापी शङ्खचक्री गदाधरः ।। ३१ ।।<br />
<br />
कौसल्यानन्दनोदारो भूमिशायी गुहप्रियः ।<br />
सौमित्रो भरतो बालः शत्रुघ्नो भरताग्रजः ।। ३२ ।।<br />
<br />
लक्ष्मणः परवीरघ्नः स्त्रीसहायः कपीश्वरः ।<br />
हनुमान् ऋक्षराजश्च सुग्रीवो बालिनाशनः ।। ३३ ।।<br />
<br />
दूतप्रियो दूतकारी ह्यङ्गदो गदतां वरः ।<br />
वनध्वंसी वनी वेगी वानरो वानरध्वजः ।। ३४ ।।<br />
<br />
लांङ्गूली च नखी दंष्ट्री लङ्काहाहाकरो वरः ।<br />
भवसेतुर्महासेतुर्बद्धसेतू रमेश्वरः ।। ३५ ।।<br />
<br />
जानकीवल्लभः कामी किरीटी कुण्डली खगी ।<br />
पुण्डरीकविशालाक्षो महाबाहुर्घनाकृतिः ।। ३६ ।।<br />
<br />
चञ्चलश्चपलः कामी वामी वामाङ्गवत्सलः ।<br />
स्त्रीप्रियः स्त्रीपरः स्त्रैणः स्त्रियो वामाङ्गवासकः ।। ३७ ।।<br />
<br />
जितवैरी जितकामो जितक्रोधो जितेन्द्रियः ।<br />
शान्तो दांतो दयाऽऽरामो ह्येकस्त्रीव्रतधारकः ।। ३८ ।।<br />
<br />
सात्विकः सत्वसंस्थानो मदहा क्रोधहा खरः ।<br />
बहुराक्षससंवीतः सर्वराक्षसनाशकृत् ।। ३९ ।।<br />
<br />
रावणारी रणक्षुद्रदशमस्तकछेदकः ।<br />
राजयकारी यज्ञकारी दाता भोक्ता तपोधनः ।। ४० ।।<br />
<br />
अयोध्याधिपतिः कान्तो वैकुण्ठोऽकुण्ठविग्रहः ।<br />
सत्यव्रतो व्रती शूरास्तपी सत्यफलप्रदः ।। ४१ ।।<br />
<br />
सर्वसाक्षी सर्वगश्च सर्वप्राणोहरोऽव्ययः ।<br />
प्राणश्चाथाप्यपानाश्च व्यानोदानः समानकः ।। ४२ ।।<br />
<br />
नागः कृकलः कूर्मश्च देवदत्तो धनञ्जयः ।<br />
सर्वप्राणविदो व्यापी योगधारकधारकः ।। ४३<br />
<br />
तत्त्ववित्तत्त्वदस्तत्वी सर्वतत्वविशारदः ।<br />
ध्यानस्थो ध्यानशाली च मनस्वी योगवित्तमः ।। ४४ ।।<br />
<br />
ब्रह्मज्ञो ब्रह्मदो ब्रह्मज्ञाता च ब्रह्मसम्भवः ।<br />
अध्यात्मविद विदो दीपो ज्योतिरूपो निरञ्जनः ।। ४५ ।।<br />
<br />
ज्ञानदोऽज्ञानहा ज्ञानी गुरुः शिष्योपदेशकः ।<br />
सुशिष्यः शिक्षितः शाली शिक्षाविशारदः ।। ४६ ।।<br />
<br />
मन्त्रदो मन्त्रहा मन्त्री तन्त्री तन्त्रजनप्रियः ।<br />
संमन्त्रो मन्त्रविन्मन्त्री यन्त्र त्रिएक यन्त्रमन्त्रैकभञ्जनः ।। ४७ ।।<br />
<br />
मारणो मोहनो मोही स्तम्भोच्चाटनकृत्खलः ।<br />
बहुमायो विमायश्च महामायाविमोहकः ॥ ४८॥<br />
<br />
मोक्षदो बन्धको बन्दी ह्याकर्षणविकर्षणः ।<br />
ह्रीङ्कारो बीजरूपी च क्लीङ्कारः कीलकाधिपः ॥ ४९॥<br />
<br />
सौङ्कार शक्तिमाञ्च्छक्तिः सर्वशक्तिधरो धरः ।<br />
अकारोकार ओङ्कारश्छन्दोगायत्रसम्भवः ॥ ५० ॥<br />
<br />
वेदो वेदविदो वेदी वेदाध्यायी सदाशिवः ।<br />
ऋग्यजुःसामाथर्वेशः सामगानकरोऽकरी ॥ ५१ ॥<br />
<br />
त्रिपदो बहुपादी च शतपथः सर्वतोमुखः ।<br />
प्राकृतः संस्कृतो योगी गीतग्रन्थप्रहेलिकः ॥ ५२ ॥<br />
<br />
सगुणो विगुणश्छन्दो निःसङ्गो विगुणो गुणी ।<br />
निर्गुणो गुणवान्सङ्गी कर्मी धर्मी च कर्मदः ॥ ५३ ॥<br />
<br />
निष्कर्मा कामकामी च निःसङ्गः सङ्गवर्जितः ।<br />
निर्लोभो निरहङ्कारी निष्किञ्चनजनप्रियः ॥ ५४ ॥<br />
<br />
सर्वसङ्गकरो रागी सर्वत्यागी बहिश्चरः ।<br />
एकपादो द्विपादश्च बहुपादोऽल्पपादकः ॥ ५५ ॥<br />
<br />
द्विपदस्त्रिपदोऽपादी विपादी पदसङ्ग्रहः ।<br />
खेचरो भूचरो भ्रामी भृङ्गकीटमधुप्रियः ॥ ५६ ॥<br />
<br />
क्रतुः सम्वत्सरो मासो गणितार्कोह्यहर्निशः ।<br />
कृतं त्रेता कलिश्चैव द्वापरश्चतुराकृतिः ॥ ५७ ॥<br />
<br />
दिवाकालकरः कालः कुलधर्मः सनातनः ।<br />
कला काष्ठा कला नाड्यो यामः पक्षः सितासितः ॥ ५८ ॥<br />
<br />
युगो युगन्धरो योग्यो युगधर्मप्रवर्तकः ।<br />
कुलाचारः कुलकरः कुलदैवकरः कुली ॥ ५९ ॥<br />
<br />
चतुराऽऽश्रमचारी च गृहस्थो ह्यतिथिप्रियः ।<br />
वनस्थो वनचारी च वानप्रस्थाश्रमोऽश्रमी ॥ ६० ॥<br />
<br />
बटुको ब्रह्मचारी च शिखासूत्री कमण्डली ।<br />
त्रिजटी ध्यानवान्ध्यानी बद्रिकाश्रमवासकृत् ॥ ६१ ॥<br />
<br />
हेमाद्रिप्रभवो हैमो हेमराशिर्हिमाकरः ।<br />
महाप्रस्थानको विप्रो विरागी रागवान्गृही ॥ ६२ ॥<br />
<br />
नरनारायणोऽनागो केदारोदारविग्रहः ।<br />
गङ्गाद्वारतपः सारस्तपोवन तपोनिधिः ॥ ६३॥<br />
<br />
निधिरेष महापद्मः पद्माकरश्रियालयः ।<br />
पद्मनाभः परीतात्मा परिव्राट् पुरुषोत्तमः ॥ ६४ ॥<br />
<br />
परानन्दः पुराणश्च सम्राड्राज विराजकः ।<br />
चक्रस्थश्चक्रपालस्थश्चक्रवर्ती नराधिपः ॥ ६५ ॥<br />
<br />
आयुर्वेदविदो वैद्यो धन्वन्तरिश्च रोगहा ।<br />
औषधीबीजसम्भूतो रोगी रोगविनाशकृत ॥ ६६ ॥<br />
<br />
चेतनश्चेतकोऽचिन्त्यश्चित्तचिन्ताविनाशकृत् ।<br />
अतीन्द्रियः सुखस्पर्शश्चरचारी विहङ्गमः ॥ ६७ ॥<br />
<br />
गरुडः पक्षिराजश्च चाक्षुषो विनतात्मजः ।<br />
विष्णुयानविमानस्थो मनोमयतुरङ्गमः ॥ ६८ ॥<br />
<br />
बहुवृष्टिकरो वर्षी ऐरावणविरावणः ।<br />
उच्चैःश्रवाऽरुणो गामी हरिदश्वो हरिप्रियः ॥ ६९ ॥<br />
<br />
प्रावृषो मेघमाली च गजरत्नपुरन्दरः ।<br />
वसुदो वसुधारश्च निद्रालुः पन्नगाशनः ॥ ७० ॥<br />
<br />
शेषशायी जलेशायी व्यासः सत्यवतीसुतः ।<br />
वेदव्यासकरो वाग्ग्मी बहुशाखाविकल्पकः ॥ ७१ ॥<br />
<br />
स्मृतिः पुराणधर्मार्थी परावरविचक्षणः ।<br />
सहस्रशीर्षा सहस्राक्षः सहस्रवदनोज्ज्वलः ॥ ७२ ॥<br />
<br />
सहस्रबाहुः सहस्रांशुः सहस्रकिरणो नरः ।<br />
बहुशीर्षैकशीर्षश्च त्रिशिरा विशिराः शिरी ॥ ७३ ॥<br />
<br />
जटिलो भस्मरागी च दिव्याम्बरधरः शुचिः ।<br />
अणुरूपो बृहद्रूपो विरूपो विकराकृतिः ॥ ७४ ॥<br />
<br />
समुद्रमाथको माथी सर्वरत्नहरो हरिः ।<br />
वज्रवैडूर्यको वज्री चिन्तामणिमहामणिः ॥ ७५ ॥<br />
<br />
अनिर्मूल्यो महामूल्यो निर्मूल्यः सुरभिः सुखी ।<br />
पिता माता शिशुर्बन्धुर्धाता त्वष्टार्यमा यमः ॥ ७६ ॥<br />
<br />
अन्तःस्थो बाह्यकारी च बहिःस्थो वै बहिश्चरः ।<br />
पावनः पावकः पाकी सर्वभक्षी हुताशनः ॥ ७७ ॥<br />
<br />
भगवान्भगहा भागी भवभञ्जो भयङ्करः ।<br />
कायस्थः कार्यकारी च कार्यकर्ता करप्रदः ॥ ७८ ॥<br />
<br />
एकधर्मा द्विधर्मा च सुखी दूत्योपजीवकः ।<br />
बालकस्तारकस्त्राता कालो मूषकभक्षकः ॥ ७९ ॥<br />
<br />
सञ्जीवनो जीवकर्ता सजीवो जीवसम्भवः ।<br />
षड्विंशको महाविष्णुः सर्वव्यापी महेश्वरः ॥ ८० ॥<br />
<br />
दिव्याङ्गदो मुक्तमाली श्रीवत्सो मकरध्वजः ।<br />
श्याममूर्तिर्घनश्यामः पीतवासाः शुभाननः ॥ ८१ ॥<br />
<br />
चीरवासा विवासाश्च भूतदानववल्लभः ।<br />
अमृतोऽमृतभागी च मोहिनीरूपधारकः ॥ ८२ ॥<br />
<br />
दिव्यदृष्टिः समदृष्टिर्देवदानववञ्चकः ।<br />
कबन्धः केतुकारी च स्वर्भानुश्चन्द्रतापनः ॥ ८३ ॥<br />
<br />
ग्रहराजो ग्रही ग्राहः सर्वग्रहविमोचकः ।<br />
दानमानजपो होमः सानुकूलः शुभग्रहः ॥ ८४ ॥<br />
<br />
विघ्नकर्ताऽपहर्ता च विघ्ननाशो विनायकः ।<br />
अपकारोपकारी च सर्वसिद्धिफलप्रदः ॥ ८५ ॥<br />
<br />
सेवकः सामदानी च भेदी दण्डी च मत्सरी ।<br />
दयावान्दानशीलश्च दानी यज्वा प्रतिग्रही ॥ ८६ ॥<br />
<br />
हविरग्निश्चरुस्थाली समिधश्चानिलो यमः ।<br />
होतोद्गाता शुचिः कुण्डः सामगो वैकृतिः सवः ॥ ८७ ॥<br />
<br />
द्रव्यं पात्राणि सङ्कल्पो मुशलो ह्यरणिः कुशः ।<br />
दीक्षितो मण्डपो वेदिर्यजमानः पशुः क्रतुः ॥ ८८ ॥<br />
<br />
दक्षिणा स्वस्तिमान्स्वस्ति ह्याशीर्वादः शुभप्रदः ।<br />
आदिवृक्षो महावृक्षो देववृक्षो वनस्पतिः ॥ ८९ ॥<br />
<br />
प्रयागो वेणुमान्वेणी न्यग्रोधश्चाऽक्षयो वटः ।<br />
सुतीर्थस्तीर्थकारी च तीर्थराजो व्रती वतः ॥ ९० ॥<br />
<br />
वृत्तिदाता पृथुः पुत्रो दोग्धा गौर्वत्स एव च ।<br />
क्षीरं क्षीरवहः क्षीरी क्षीरभागविभागवित् ॥ ९१ ॥<br />
<br />
राज्यभागविदो भागी सर्वभागविकल्पकः ।<br />
वाहनो वाहको वेगी पादचारी तपश्चरः ॥ ९२ ॥<br />
<br />
गोपनो गोपको गोपी गोपकन्याविहारकृत् ।<br />
वासुदेवो विशालाक्षः कृष्णोगोपीजनप्रियः ॥ ९३ ॥<br />
<br />
देवकीनन्दनो नन्दी नन्दगोपगृहाऽऽश्रमी ।<br />
यशोदानन्दनो दामी दामोदर उलूखली ॥ ९४ ॥<br />
<br />
पूतनारिः पदाकारी लीलाशकटभञ्जकः ।<br />
नवनीतप्रियो वाग्ग्मी वत्सपालकबालकः ॥ ९५ ॥<br />
<br />
वत्सरूपधरो वत्सी वत्सहा धेनुकान्तकृत् ।<br />
बकारिर्वनवासी च वनक्रीडाविशारदः ॥ ९६ ॥<br />
<br />
कृष्णवर्णाकृतिः कान्तो वेणुवेत्रविधारकः ।<br />
गोपमोक्षकरो मोक्षो यमुनापुलिनेचरः ॥ ९७ ॥<br />
<br />
मायावत्सकरो मायी ब्रह्ममायापमोहकः ।<br />
आत्मसारविहारज्ञो गोपदारकदारकः ॥ ९८ ॥<br />
<br />
गोचारी गोपतिर्गोपो गोवर्धनधरो बली ।<br />
इन्द्रद्युम्नो मखध्वंसी वृष्टिहा गोपरक्षकः ॥ ९९ ॥<br />
<br />
सुरभित्राणकर्ता च दावपानकरः कली ।<br />
कालीयमर्दनः काली यमुनाह्रदविहारकः ॥ १०० ॥<br />
<br />
सङ्कर्षणो बलश्लाघ्यो बलदेवो हलायुधः ।<br />
लाङ्गली मुसली चक्री रामो रोहिणिनन्दनः ॥ १०१ ॥<br />
<br />
यमुनाकर्षणोद्धारो नीलवासा हलो हली ।<br />
रेवती रमणो लोलो बहुमानकरः परः ॥ १०२ ॥<br />
<br />
धेनुकारिर्महावीरो गोपकन्याविदूषकः ।<br />
काममानहरः कामी गोपीवासोऽपतस्करः ॥ १०३ ॥<br />
<br />
वेणुवादी च नादी च नृत्यगीतविशारदः ।<br />
गोपीमोहकरो गानी रासको रजनीचरः ॥ १०४ ॥<br />
<br />
दिव्यमाली विमाली च वनमालाविभूषितः ।<br />
कैटभारिश्च कंसारिर्मधुहा मधुसूदनः ॥ १०५ ॥<br />
<br />
चाणूरमर्दनो मल्लो मुष्टी मुष्टिकनाशकृत् ।<br />
मुरहा मोदका मोदी मदघ्नो नरकान्तकृत् ॥ १०६ ॥<br />
<br />
विद्याध्यायी भूमिशायी सुदामा सुसखा सुखी ।<br />
सकलो विकलो वैद्यः कलितो वै कलानिधिः ॥ १०७ ॥<br />
<br />
विद्याशाली विशाली च पितृमातृविमोक्षकः ।<br />
रुक्मिणीरमणो रम्यः कालिन्दीपतिः शङ्खहा ॥ १०८ ॥<br />
<br />
पाञ्चजन्यो महापद्मो बहुनायकनायकः ।<br />
धुन्धुमारो निकुम्भघ्नः शम्बरान्तो रतिप्रियः ॥ १०९ ॥<br />
<br />
प्रद्युम्नश्चानिरुद्धश्च सात्वतां पतिरर्जुनः ।<br />
फाल्गुनश्च गुडाकेशः सव्यसाची धनञ्जयः ॥ ११० ॥<br />
<br />
किरीटी च धनुष्पाणिर्धनुर्वेदविशारदः ॥<br />
<br />
शिखण्डी सात्यकिः शैब्यो भीमो भीमपराक्रमः ॥ १११॥<br />
<br />
पाञ्चालश्चाभिमन्युश्च सौभद्रो द्रौपदीपति ।<br />
युधिष्ठिरो धर्मराजः सत्यवादी शुचिव्रतः ॥ ११२ ॥<br />
<br />
नकुलः सहदेवश्च कर्णो दुर्योधनो घृणी ।<br />
गाङ्गेयोऽथगदापाणिर्भीष्मो भागीरथीसुतः ॥ ११३ ॥<br />
<br />
प्रज्ञाचक्षुर्धृतराष्ट्रो भारद्वाजोऽथगौतमः ।<br />
अश्वत्थामा विकर्णश्चजह्नुर्युद्धविशारदः ॥ ११४ ॥<br />
<br />
सीमन्तिको गदी गाल्वो विश्वामित्रो दुरासदः ।<br />
दुर्वासा दुर्विनीतश्च मार्कण्डेयो महामुनिः ॥ ११५ ॥<br />
<br />
लोमशो निर्मलोऽलोमी दीर्घायुश्च चिरोऽचिरी ।<br />
पुनर्जीवी मृतो भावी भूतो भव्यो भविष्यकः ॥ ११६ ॥<br />
<br />
त्रिकालोऽथ त्रिलिङ्गश्च त्रिनेत्रस्त्रिपदीपतिः ।<br />
यादवो याज्ञवल्क्यश्च यदुवंशविवर्धनः ॥ ११७ ॥<br />
<br />
शल्यक्रीडी विक्रीडश्च यादवान्तकरः कलिः ।<br />
सदयो हृदयो दायो दायदो दायभाग्दयी ॥ ११८ ॥<br />
<br />
महोदधिर्महीपृष्ठो नीलपर्वतवासकृत ।<br />
एकवर्णो विवर्णश्च सर्ववर्णबहिश्चरः ॥ ११९ ॥<br />
<br />
यज्ञनिन्दी वेदनिन्दी वेदबाह्यो बलो बलिः ।<br />
बौद्धारिर्बाधको बाधो जगन्नाथो जगत्पतिः ॥ १२० ॥<br />
<br />
भक्तिर्भागवतो भागी विभक्तो भगवत्प्रियः ।<br />
त्रिग्रामोऽथ नवारण्यो गुह्योपनिषदासनः ॥ १२१ ॥<br />
<br />
शालिग्रामः शिलायुक्तो विशालो गण्डकाश्रयः ।<br />
श्रुतदेवः श्रुतः श्रावी श्रुतबोधः श्रुतश्रवाः ॥ १२२ ॥<br />
<br />
कल्किः कालकलः कल्को दुष्टम्लेच्छविनाश कृत् ।<br />
कुङ्कुमी धवलो धीरः क्षमाकरो वृषाकपिः ॥ १२३ ॥<br />
<br />
किङ्करः किन्नरः कण्वः केकी किम्पुरुषाधिपः ।<br />
एकरोमा विरोमा च बहुरोमा बृहत्कविः ॥ १२४ ॥<br />
<br />
वज्रप्रहरणो वज्री वृत्रघ्नो वासवानुजः ।<br />
बहुतीर्थकरस्तीर्थः सर्वतीर्थजनेश्वरः ॥ १२५ ॥<br />
<br />
व्यतीपातोपरागश्च दानवृद्धिकरः शुभः ।<br />
असङ्ख्येयोऽप्रमेयश्च सङ्ख्याकारो विसङ्ख्यकः ॥ १२६ ॥<br />
<br />
मिहिकोत्तारकस्तारो बालचन्द्रः सुधाकरः ।<br />
किम्वर्णः कीदृशः किञ्चित्किंस्वभावः किमाश्रयः ॥ १२७ ॥<br />
<br />
निर्लोकश्च निराकारी बह्वाकारैककारकः ।<br />
दौहित्रः पुत्रिकः पौत्रो नप्ता वंशधरो धरः ॥ १२८ ॥<br />
<br />
द्रवीभूतो दयालुश्च सर्वसिद्धिप्रदो मणिः ॥ १२९ ॥<br />
आधारोऽपि विधारश्च धरासूनुः सुमङ्गलः ।<br />
मङ्गलो मङ्गलाकारो माङ्गल्यः सर्वमङ्गलः ॥ १३० ॥<br />
<br />
नाम्नां सहस्रं नामेदं विष्णोरतुलतेजसः ।<br />
सर्वसिद्धिकरं काम्यं पुण्यं हरिहरात्मकम् ॥ १३१ ॥<br />
<br />
यः पठेत्प्रातरुत्थाय शुचिर्भूत्वा समाहितः ।<br />
यश्चेदं शृणुयान्नित्यं नरो निश्चलमानसः ।<br />
त्रिसन्ध्यं श्रद्धया युक्तः सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १३२ ॥<br />
<br />
सहस्त्राक्षः सहस्राङ्घ्रि सहस्त्रवदनोज्जवलः ।<br />
सहस्त्रनामानन्ताक्षः सहस्त्रभुज ते नमः ।।<br />
<br />
इति श्रीस्कन्दमहापुराणे आवन्त्यखण्डेऽवन्तीक्षेत्रमाहात्म्ये विष्णुसहस्रनामोऽध्यायः ॥<br />
<br />
<span style="font-size: large;">*</span><span style="color: blue; font-size: x-small;">स्रोत -: स्कन्द पुराण, आवन्त्यखण्ड, अवन्तिक्षेत्र माहात्म्य </span><br />
<br /></div>
</div>
Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-78666465386850841102019-01-25T06:59:00.001+05:302019-01-25T06:59:28.045+05:30Good Read collection<b>गुरु गोबिंद दौउ खड़े, काके लागों पांय, बलिहारी गुरु आपने गोबिंद दियो बताय ।</b><br />
<br />
गुरु भी खड़े हैं और गोविन्द भी खड़े हैं (भगवान् भी खड़े हैं), शिष्य सोचता है किसके पैर छूने चाहिए पहले । फिर शिष्य सोचता है की बलिहारी गुरु आपने मैं पहले गुरु के पैर छूऊंगा क्योंकि गुरु ने गोबिंद दियो बताय – इन्हीं ने बताया की ये गोविन्द है, यही पहचान कराते हैं अन्यथा, अन्यथा तो मोती हमारे हाथ में है, हीरा हमारे हाथ में है, हम पत्थर समझ कर उसे फ़ेंक देते हैं, अगर हमारे पास समझदारी नहीं है, ज्ञान नहीं है । गुरु का काम है, ज्ञान प्रदान करना । मनुष्य के प्रत्येक के चार गुरु होते हैं । प्रत्येक के पास होते हैं चार गुरु ।<br />
<br />
<span style="color: #b45f06;">पहला</span> - <b>माता</b>, जिसने हमको उठना बैठना सिखाया, खाना पीना सिखाया, वो सबसे पहली गुरु है ।<br />
<span style="color: #b45f06;">दूसरा </span>- <b>पिता</b>, जिसने चलना फिरना सिखाया, व्यवहार करना सिखाया, बोल चाल सिखाई ।<br />
<span style="color: #b45f06;">तीसरा </span>- <b>अध्यापक</b>, जिसने alphabet पढाई, पढना लिखना सिखाया, ABCD पढाई, अ,आ,इ, ई पढाई ।<br />
<span style="color: #b45f06;">चौथा </span>- <b>मित्र</b>, जो माता पिता नहीं सिखाते, जो teacher नहीं सिखाते, वो Friends सिखाते हैं ।<br />
<span style="color: #b45f06;">पांचवां</span> - <b>सद्गुरु</b>, वो बड़े भाग्य वाले को ही मिलता है । वो क्या देता है ? ज्ञान देता है ।<br />
- <span style="color: blue;">डाo अशोक शर्मा </span>Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-29695029310358995122019-01-24T01:53:00.001+05:302019-05-05T21:34:12.883+05:30विष्णुसहस्त्रनाम स्तोत्रम<div dir="ltr">
<span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">ॐ शुक्लाम्बरधर</span><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">म्</span><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;"> विष्णु</span><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">म्</span><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;"> शशिवर्ण</span><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">म्</span><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;"> चतुर्भुजम् । </span></div>
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<span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
प्रसन्नवदनम् ध्यायेत् सर्वविघ्नोपशान्तये</span><span style="font-size: large;"> ॥ 1 ॥</span></div>
<div align="left">
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<span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;"><br />
व्यासम् वशिष्ठरनप्तारम् शक्ते:पौत्र</span><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">म</span><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">कल्मष</span><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">म्</span><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">।</span></div>
<div dir="ltr">
<span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">पराशरात्मजं वंदे शुकतात<span style="font-family: sans-serif;">म्</span> तपोनिधि<span style="font-family: sans-serif;">म्</span></span><span style="font-size: large;"> ॥ 2 ॥</span></div>
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<span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;"><br /></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">व्यासाय् विष्णुरुपाय व्यासरूपाय विष्णवे। </span></div>
<div dir="ltr">
<span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">नमो वै ब्रम्हनिधये वासिष्ठाय नमो नमः</span><span style="font-size: large;"> ॥ 3 ॥ </span></div>
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<span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;"><br /></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">अविकाराय शुद्धाय नित्याय परमात्मने। </span></div>
<div dir="ltr">
<span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">सदैकरूपरूपाय विष्णवे सर्वजिष्णवे</span><span style="font-size: large;"> ॥ 4 ॥</span></div>
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<span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;"><br /></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">यस्य स्मरणमात्रेण जन्मा संसारबन्धनात्। </span></div>
<div dir="ltr">
<span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">विमुच्यते नमस्तस्मै विष्णवे प्रभविष्णवे</span><span style="font-size: large;"> ॥ 5 ॥ </span></div>
<div dir="ltr">
<span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">ॐ नमो विष्णवे प्रभविष्णवे।</span></div>
<span style="font-size: large;"><br /><span style="color: #b45f06;">श्री वैशम्पायन उवाच</span> </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">श्रुत्वा धर्मानशेषेण पावनानि च सर्वशः । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">युधिष्ठिरः शान्तनवं पुनरेवाभ्यभाषत ॥ 7 ॥<br /><br /><span style="color: #b45f06;"> युधिष्ठिर उवाच</span> </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">किमेकं दैवतं लोके किं वाप्येकं परायणम् । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">स्तुवन्तः कं कमर्चन्तः प्राप्नुयुर्मानवाः शुभम् ॥ 8 ॥<br /><br /> को धर्मः सर्वधर्माणां भवतः परमो मतः । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">किं जपन्मुच्यते जन्तुर्जन्मसंसारबन्धनात् ॥ 9 ॥<br /><br /><span style="color: #b45f06;"> श्री भीष्म उवाच </span></span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">जगत्प्रभुं देवदेवमनन्तं पुरुषोत्तमम् । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">स्तुवन्नामसहस्रेण पुरुषः सततोत्थितः ॥ 10 ॥ <br /><br /> तमेव चार्चयन्नित्यं भक्त्या पुरुषमव्ययम् । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">ध्यायन् स्तुवन्नमस्यंश्च यजमानस्तमेव च ॥ 11 ॥<br /><br /> अनादिनिधनं विष्णुं सर्वलोकमहेश्वरम् । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">लोकाध्यक्षं स्तुवन्नित्यं सर्वदुःखातिगो भवेत् ॥ 12 ॥<br /><br /> ब्रह्मण्यं सर्वधर्मज्ञं लोकानां कीर्तिवर्धनम् । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">लोकनाथं महद्भूतं सर्वभूत भवोद्भवम् ॥ 13 ॥<br /><br /> एष मे सर्व धर्माणां धर्मोऽधिकतमोमतः । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">यद्भक्त्या पुण्डरीकाक्षं स्तवैरर्चेन्नरः सदा ॥ 14 ॥<br /><br /> परमम् यो महत्तेजः परमम् यो महत्तपः ।<br />परमम् यो महद्ब्रह्म परमम् यः परायणम् । 15 ॥<br /><br />पवित्राणां पवित्रं यो मङ्गलानां च मङ्गलम् । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">दैवतं देवतानां च भूतानां योऽव्ययः पिता ॥ 16 ॥<br /><br /> यतः सर्वाणि भूतानि भवन्त्यादि युगागमे । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">यस्मिंश्च प्रलयं यान्ति पुनरेव युगक्षये ॥ 17 ॥<br /><br /> तस्य लोक प्रधानस्य जगन्नाथस्य भूपते । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">विष्णोर्नाम सहस्रं मे श्रुणु पाप भयापहम् ॥ 18 ॥<br /><br /> यानि नामानि गौणानि विख्यातानि महात्मनः । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">ऋषिभिः परिगीतानि तानि वक्ष्यामि भूतये ॥ 19 ॥<br /><br /> ऋषिर्नाम्नां सहस्रस्य वेदव्यासो महामुनिः । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">छन्दोऽनुष्टुप् तथा देवो भगवान् देवकीसुतः ॥ 20 ॥</span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;"><br /> अमृतां शूद्भवो बीजं शक्तिर्देवकिनन्दनः । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">त्रिसामा हृदयं तस्य शान्त्यर्थे विनियुज्यते ॥ 21 ॥<br /><br /> विष्णुं जिष्णुं महाविष्णुं प्रभविष्णुं महेश्वरम् ॥ </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">अनेकरूप दैत्यान्तं नमामि पुरुषोत्तमम् ॥ 22 ॥<br /><br /> पूर्वन्यासः </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">अस्य श्री विष्णोर्दिव्य सहस्रनाम स्तोत्र महामन्त्रस्य ॥ </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">श्री वेदव्यासो भगवान् ऋषिः । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">अनुष्टुप् छन्दः । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">श्रीमहाविष्णुः परमात्मा श्रीमन्नारायणो देवता । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">अमृतांशूद्भवो भानुरिति बीजम् । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">देवकीनन्दनः स्रष्टेति शक्तिः । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">उद्भवः, क्षोभणो देव इति परमोमन्त्रः । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">शङ्खभृन्नन्दकी चक्रीति कीलकम् । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">शार्ङ्गधन्वा गदाधर इत्यस्त्रम् । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">रथाङ्गपाणि रक्षोभ्य इति नेत्रम् । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">त्रिसामासामगः सामेति कवचम् । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">आनन्दं परब्रह्मेति योनिः । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">ऋतुस्सुदर्शनः काल इति दिग्बन्धः ॥ </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">श्रीविश्वरूप इति ध्यानम् । </span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;">श्री महाविष्णु प्रीत्यर्थे सहस्रनाम जपे विनियोगः ।</span></div>
<div align="left">
<span style="font-size: large;"><br /><span style="color: #b45f06;"> ध्यानम्</span> <br />क्षीरोदन्वत्प्रदेशे शुचिमणिविलसत्सैकते मौक्तिकानां<br />मालाक्लुप्तासनस्थः स्फटिकमणिनिभैमौर्तिकैमण्डितांगः।<br />शुभ्रैरभ्रैरदभ्रै रुपरिविरचितैर्मुक्तपीयूषवर्षैः<br />आनन्दी नः पुनीयादरिनलिनगदाशङखपाणिर्मुकुन्दः॥<br /><br /> भूः पादौ यस्य नाभिर्वियदसुरनिलचन्द्रसूर्यौ च नेत्रे<br />कर्णावाशाः शिरोद्यौर्मुखमपि दहनो यस्य वास्तेयमब्धिः।<br />अन्तस्थं यस्य विश्वं सुरनरखगगोभोगिगन्धर्वदैत्यैः<br />चित्रंरंरम्यते तं त्रिभुवनवपुषं विष्णुमीशम् नमामि॥<br /><br /><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace;">ॐ नमो भगवते वासुदेवाय</span></span><span style="font-size: large;">।</span><br />
<span style="font-size: large;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace;"><br /></span> शान्ताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशम्<br />विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्णं शुभांगम्।<br />लक्ष्मिकान्तं कमलनयनं योगिहृद्द्यानगम्यं<br />वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्॥ <br /><br /> मेघश्यामं पीतकौशेयवासं श्रीवत्साङकं कौस्तुभोद्भासिताङगं।<br />पुण्योपेतं पुण्डरीकायताक्षं विष्णुं वन्दे सर्वलोकैकनाथम्॥<br /><br /> नमः समस्तभूतानामादि भूतायभूभृते।<br />अनेकरूपरूपाय विष्णवे प्रभविष्णवे॥<br /><br /> सशङखचक्रं सकिरीटकुण्डलं सपीतवस्त्रं सरसीरुहेक्षणं।<br />सहारवक्षस्थलशोभिकौस्तुभं नमामि विष्णुं शिरसा चतुर्भुजम्॥<br /><br /> छायायां पारिजातस्य हेम्सिंहासनोपरि।<br />आसीनमंबूदश्याममायाताक्षमलंकृतम्॥<br /><br />चन्द्राननं चतुर्बाहुं श्रीवत्साङकितवक्षसम्।<br />रुक्मिणीसत्यभामाभ्यां सहितं कृष्णमाश्रये॥</span><br />
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><br /></span>
<br />
<div dir="ltr">
<span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;"><span style="white-space: pre-wrap;">ॐ विश्व</span>म्<span style="white-space: pre-wrap;"> विष्णु: वषट्कारो भूतभव्यभवतप्रभुः ।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">भूतकृत भूतभृत भावो भूतात्मा भूतभावनः ।। 1 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
पूतात्मा परमात्मा च मुक्तानां परमा गतिः।
अव्ययः पुरुष साक्षी क्षेत्रज्ञो अक्षर एव च ।। 2 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
योगो योग-विदां नेता प्रधानपुरुषेश्वरः ।
नारसिंह-वपुः श्रीमान केशवः पुरुषोत्तमः ।। 3 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
सर्वः शर्वः शिवः स्थाणु: भूतादि: निधि: अव्ययः ।
संभवो भावनो भर्ता प्रभवः प्रभु: ईश्वरः ।। 4 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
स्वयंभूः शम्भु: आदित्यः पुष्कराक्षो महास्वनः ।
अनादि-निधनो धाता विधाता धातुरुत्तमः ।। 5 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अप्रमेयो हृषीकेशः पद्मनाभो-अमरप्रभुः ।
विश्वकर्मा मनुस्त्वष्टा स्थविष्ठः स्थविरो ध्रुवः ।। 6 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अग्राह्यः शाश्वतः कृष्णो लोहिताक्षः प्रतर्दनः ।
प्रभूतः त्रिककुब-धाम पवित्रं मंगलं परं ।। 7।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
ईशानः प्राणदः प्राणो ज्येष्ठः श्रेष्ठः प्रजापतिः ।
हिरण्य-गर्भो भू-गर्भो माधवो मधुसूदनः ।। 8 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
ईश्वरो विक्रमी धन्वी मेधावी विक्रमः क्रमः ।
अनुत्तमो दुराधर्षः कृतज्ञः कृति: आत्मवान ।। 9 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
सुरेशः शरणं शर्म विश्व-रेताः प्रजा-भवः ।
अहः संवत्सरो व्यालः प्रत्ययः सर्वदर्शनः ।। 10 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अजः सर्वेश्वरः सिद्धः सिद्धिः सर्वादि: अच्युतः ।
वृषाकपि: अमेयात्मा सर्व-योग-विनिःसृतः ।। 11 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
वसु: वसुमनाः सत्यः समात्मा संमितः समः ।
अमोघः पुण्डरीकाक्षो वृषकर्मा वृषाकृतिः ।। 12 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
रुद्रो बहु-शिरा बभ्रु: विश्वयोनिः शुचि-श्रवाः ।
अमृतः शाश्वतः स्थाणु: वरारोहो महातपाः ।। 13 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
सर्वगः सर्वविद्-भानु: विष्वक-सेनो जनार्दनः ।
वेदो वेदविद-अव्यंगो वेदांगो वेदवित् कविः ।। 14 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
लोकाध्यक्षः सुराध्यक्षो धर्माध्यक्षः कृता-कृतः ।
चतुरात्मा चतुर्व्यूह:-चतुर्दंष्ट्र:-चतुर्भुजः ।। 15 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
भ्राजिष्णु भोजनं भोक्ता सहिष्णु: जगदादिजः ।
अनघो विजयो जेता विश्वयोनिः पुनर्वसुः ।। 16 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
उपेंद्रो वामनः प्रांशु: अमोघः शुचि: ऊर्जितः ।
अतींद्रः संग्रहः सर्गो धृतात्मा नियमो यमः ।। 17 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
वेद्यो वैद्यः सदायोगी वीरहा माधवो मधुः।
अति-इंद्रियो महामायो महोत्साहो महाबलः ।। 18 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
महाबुद्धि: महा-वीर्यो महा-शक्ति: महा-द्युतिः।
अनिर्देश्य-वपुः श्रीमान अमेयात्मा महाद्रि-धृक ।। 19 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
महेष्वासो महीभर्ता श्रीनिवासः सतां गतिः ।
अनिरुद्धः सुरानंदो गोविंदो गोविदां-पतिः ।। 20 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
मरीचि: दमनो हंसः सुपर्णो भुजगोत्तमः ।
हिरण्यनाभः सुतपाः पद्मनाभः प्रजापतिः ।। 21 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अमृत्युः सर्व-दृक् सिंहः सन-धाता संधिमान स्थिरः ।
अजो दुर्मर्षणः शास्ता विश्रुतात्मा सुरारिहा ।। 22 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
गुरुःगुरुतमो धामः सत्यः सत्य-पराक्रमः ।
निमिषो-अ-निमिषः स्रग्वी वाचस्पति: उदार-धीः ।। 23 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अग्रणी: ग्रामणीः श्रीमान न्यायो नेता समीरणः ।
सहस्र-मूर्धा विश्वात्मा सहस्राक्षः सहस्रपात ।। 24 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
आवर्तनो निवृत्तात्मा संवृतः सं-प्रमर्दनः ।
अहः संवर्तको वह्निः अनिलो धरणीधरः ।। 25 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
सुप्रसादः प्रसन्नात्मा विश्वधृक्-विश्वभुक्-विभुः ।
सत्कर्ता सकृतः साधु: जह्नु:-नारायणो नरः ।। 26 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
असंख्येयो-अप्रमेयात्मा विशिष्टः शिष्ट-कृत्-शुचिः ।
सिद्धार्थः सिद्धसंकल्पः सिद्धिदः सिद्धिसाधनः ।। 27।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
वृषाही वृषभो विष्णु: वृषपर्वा वृषोदरः ।
वर्धनो वर्धमानश्च विविक्तः श्रुति-सागरः ।। 28 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
सुभुजो दुर्धरो वाग्मी महेंद्रो वसुदो वसुः ।
नैक-रूपो बृहद-रूपः शिपिविष्टः प्रकाशनः ।। 29 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
ओज: तेजो-द्युतिधरः प्रकाश-आत्मा प्रतापनः ।
ऋद्धः स्पष्टाक्षरो मंत्र: चंद्रांशु: भास्कर-द्युतिः ।। 30 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अमृतांशूद्भवो भानुः शशबिंदुः सुरेश्वरः ।
औषधं जगतः सेतुः सत्य-धर्म-पराक्रमः ।। 31 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
भूत-भव्य-भवत्-नाथः पवनः पावनो-अनलः ।
कामहा कामकृत-कांतः कामः कामप्रदः प्रभुः ।। 32 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<br /></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">युगादि-कृत युगावर्तो नैकमायो महाशनः ।
अदृश्यो व्यक्तरूपश्च सहस्रजित्-अनंतजित ।। 33 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
इष्टो विशिष्टः शिष्टेष्टः शिखंडी नहुषो वृषः ।
क्रोधहा क्रोधकृत कर्ता विश्वबाहु: महीधरः ।। 34 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अच्युतः प्रथितः प्राणः प्राणदो वासवानुजः ।
अपाम निधिरधिष्टानम् अप्रमत्तः प्रतिष्ठितः ।। 35 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
स्कन्दः स्कन्द-धरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।
वासुदेवो बृहद भानु: आदिदेवः पुरंदरः ।। 36 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अशोक: तारण: तारः शूरः शौरि: जनेश्वर: ।
अनुकूलः शतावर्तः पद्मी पद्मनिभेक्षणः ।। 37 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
पद्मनाभो-अरविंदाक्षः पद्मगर्भः शरीरभृत ।
महर्धि-ऋद्धो वृद्धात्मा महाक्षो गरुड़ध्वजः ।। 38 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अतुलः शरभो भीमः समयज्ञो हविर्हरिः ।
सर्वलक्षण लक्षण्यो लक्ष्मीवान समितिंजयः ।। 39 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
विक्षरो रोहितो मार्गो हेतु: दामोदरः सहः ।
महीधरो महाभागो वेगवान-अमिताशनः ।। 40 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
उद्भवः क्षोभणो देवः श्रीगर्भः परमेश्वरः ।
करणं कारणं कर्ता विकर्ता गहनो गुहः ।। 41 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
व्यवसायो व्यवस्थानः संस्थानः स्थानदो-ध्रुवः ।
परर्रद्वि परमस्पष्टः तुष्टः पुष्टः शुभेक्षणः ।। 42 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
रामो विरामो विरजो मार्गो नेयो नयो-अनयः ।
वीरः शक्तिमतां श्रेष्ठ: धर्मो धर्मविदुत्तमः ।। 43 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
वैकुंठः पुरुषः प्राणः प्राणदः प्रणवः पृथुः ।
हिरण्यगर्भः शत्रुघ्नो व्याप्तो वायुरधोक्षजः ।। 44।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
ऋतुः सुदर्शनः कालः परमेष्ठी परिग्रहः ।
उग्रः संवत्सरो दक्षो विश्रामो विश्व-दक्षिणः ।। 45 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
विस्तारः स्थावर: स्थाणुः प्रमाणं बीजमव्ययम ।
अर्थो अनर्थो महाकोशो महाभोगो महाधनः ।। 46 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अनिर्विण्णः स्थविष्ठो-अभूर्धर्म-यूपो महा-मखः ।
नक्षत्रनेमि: नक्षत्री क्षमः क्षामः समीहनः ।। 47 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
यज्ञ इज्यो महेज्यश्च क्रतुः सत्रं सतां गतिः ।
सर्वदर्शी विमुक्तात्मा सर्वज्ञो ज्ञानमुत्तमं ।। 48 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
सुव्रतः सुमुखः सूक्ष्मः सुघोषः सुखदः सुहृत ।
मनोहरो जित-क्रोधो वीरबाहुर्विदारणः ।। 49 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
स्वापनः स्ववशो व्यापी नैकात्मा नैककर्मकृत ।
वत्सरो वत्सलो वत्सी रत्नगर्भो धनेश्वरः ।। 50 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
धर्मगुब धर्मकृद धर्मी सदसत्क्षरं-अक्षरं ।
अविज्ञाता सहस्त्रांशु: विधाता कृतलक्षणः ।। 51 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
गभस्तिनेमिः सत्त्वस्थः सिंहो भूतमहेश्वरः ।
आदिदेवो महादेवो देवेशो देवभृद गुरुः ।। 52 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
उत्तरो गोपतिर्गोप्ता ज्ञानगम्यः पुरातनः ।
शरीर भूतभृद्भोक्ता कपींद्रो भूरिदक्षिणः ।। 53 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
सोमपो-अमृतपः सोमः पुरुजित पुरुसत्तमः ।
विनयो जयः सत्यसंधो दाशार्हः सात्वतां पतिः ।। 54 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
जीवो विनयिता-साक्षी मुकुंदो-अमितविक्रमः ।
अम्भोनिधिरनंतात्मा महोदधिशयो-अंतकः ।। 55 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अजो महार्हः स्वाभाव्यो जितामित्रः प्रमोदनः ।
आनंदो नंदनो नंदः सत्यधर्मा त्रिविक्रमः ।। 56 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
महर्षिः कपिलाचार्यः कृतज्ञो मेदिनीपतिः ।
त्रिपदस्त्रिदशाध्यक्षो महाश्रृंगः कृतांतकृत ।। 57 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
महावराहो गोविंदः सुषेणः कनकांगदी ।
गुह्यो गंभीरो गहनो गुप्तश्चक्र-गदाधरः ।। 58 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
वेधाः स्वांगोऽजितः कृष्णो दृढः संकर्षणो-अच्युतः ।
वरूणो वारुणो वृक्षः पुष्कराक्षो महामनाः ।। 59 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
भगवान भगहानंदी वनमाली हलायुधः ।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णु:-गतिसत्तमः ।। 60 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
सुधन्वा खण्डपरशुर्दारुणो द्रविणप्रदः ।
दिवि: स्पृक् सर्वदृक व्यासो वाचस्पति: अयोनिजः ।। 61 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
त्रिसामा सामगः साम निर्वाणं भेषजं भिषक ।
संन्यासकृत्-छमः शांतो निष्ठा शांतिः परायणम ।। 62 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
शुभांगः शांतिदः स्रष्टा कुमुदः कुवलेशयः ।
गोहितो गोपतिर्गोप्ता वृषभाक्षो वृषप्रियः ।। 63 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अनिवर्ती निवृत्तात्मा संक्षेप्ता क्षेमकृत्-शिवः ।
श्रीवत्सवक्षाः श्रीवासः श्रीपतिः श्रीमतां वरः ।। 64 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
श्रीदः श्रीशः श्रीनिवासः श्रीनिधिः श्रीविभावनः ।
श्रीधरः श्रीकरः श्रेयः श्रीमान्-लोकत्रयाश्रयः ।। 65 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
स्वक्षः स्वंगः शतानंदो नंदिर्ज्योतिर्गणेश्वर: ।
विजितात्मा विधेयात्मा सत्कीर्तिश्छिन्नसंशयः ।। 66 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
उदीर्णः सर्वत: चक्षुरनीशः शाश्वतस्थिरः ।
भूशयो भूषणो भूतिर्विशोकः शोकनाशनः ।। 67 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अर्चिष्मानर्चितः कुंभो विशुद्धात्मा विशोधनः ।
अनिरुद्धोऽप्रतिरथः प्रद्युम्नोऽमितविक्रमः ।। 68 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
कालनेमिनिहा वीरः शौरिः शूरजनेश्वरः ।
त्रिलोकात्मा त्रिलोकेशः केशवः केशिहा हरिः ।। 69 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
कामदेवः कामपालः कामी कांतः कृतागमः ।
अनिर्देश्यवपुर्विष्णु: वीरोअनंतो धनंजयः ।। 70 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
ब्रह्मण्यो ब्रह्मकृत् ब्रह्मा ब्रह्म ब्रह्मविवर्धनः ।
ब्रह्मविद ब्राह्मणो ब्रह्मी ब्रह्मज्ञो ब्राह्मणप्रियः ।। 71 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
महाक्रमो महाकर्मा महातेजा महोरगः ।
महाक्रतुर्महायज्वा महायज्ञो महाहविः ।। 72 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
स्तव्यः स्तवप्रियः स्तोत्रं स्तुतिः स्तोता रणप्रियः ।
पूर्णः पूरयिता पुण्यः पुण्यकीर्तिरनामयः ।। 73 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
मनोजवस्तीर्थकरो वसुरेता वसुप्रदः ।
वसुप्रदो वासुदेवो वसुर्वसुमना हविः ।। 74 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
सद्गतिः सकृतिः सत्ता सद्भूतिः सत्परायणः ।
शूरसेनो यदुश्रेष्ठः सन्निवासः सुयामुनः ।। 75 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
भूतावासो वासुदेवः सर्वासुनिलयो-अनलः ।
दर्पहा दर्पदो दृप्तो दुर्धरो-अथापराजितः ।। 76 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
विश्वमूर्तिमहार्मूर्ति: दीप्तमूर्ति: अमूर्तिमान ।
अनेकमूर्तिरव्यक्तः शतमूर्तिः शताननः ।। 77 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
एको नैकः सवः कः किं यत-तत-पद्मनुत्तमम ।
लोकबंधु: लोकनाथो माधवो भक्तवत्सलः ।। 78 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
सुवर्णोवर्णो हेमांगो वरांग: चंदनांगदी ।
वीरहा विषमः शून्यो घृताशीरऽचलश्चलः ।। 79 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अमानी मानदो मान्यो लोकस्वामी त्रिलोकधृक ।
सुमेधा मेधजो धन्यः सत्यमेधा धराधरः ।। 80 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
तेजोवृषो द्युतिधरः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।
प्रग्रहो निग्रहो व्यग्रो नैकश्रृंगो गदाग्रजः ।। 81 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
चतुर्मूर्ति: चतुर्बाहु: श्चतुर्व्यूह: चतुर्गतिः ।
चतुरात्मा चतुर्भाव: चतुर्वेदविदेकपात ।। 82 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
समावर्तो-अनिवृत्तात्मा दुर्जयो दुरतिक्रमः ।
दुर्लभो दुर्गमो दुर्गो दुरावासो दुरारिहा ।। 83 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
शुभांगो लोकसारंगः सुतंतुस्तंतुवर्धनः ।
इंद्रकर्मा महाकर्मा कृतकर्मा कृतागमः ।। 84 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
उद्भवः सुंदरः सुंदो रत्ननाभः सुलोचनः ।
अर्को वाजसनः श्रृंगी जयंतः सर्वविज-जयी ।। 85 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
सुवर्णबिंदुरक्षोभ्यः सर्ववागीश्वरेश्वरः ।
महाह्रदो महागर्तो महाभूतो महानिधः ।। 86 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
कुमुदः कुंदरः कुंदः पर्जन्यः पावनो-अनिलः ।
अमृतांशो-अमृतवपुः सर्वज्ञः सर्वतोमुखः ।। 87 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
सुलभः सुव्रतः सिद्धः शत्रुजिच्छत्रुतापनः ।
न्यग्रोधो औदुंबरो-अश्वत्थ: चाणूरांध्रनिषूदनः ।। 88 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
सहस्रार्चिः सप्तजिव्हः सप्तैधाः सप्तवाहनः ।
अमूर्तिरनघो-अचिंत्यो भयकृत्-भयनाशनः ।। 89 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अणु: बृहत कृशः स्थूलो गुणभृन्निर्गुणो महान् ।
अधृतः स्वधृतः स्वास्यः प्राग्वंशो वंशवर्धनः ।। 90 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
भारभृत्-कथितो योगी योगीशः सर्वकामदः ।
आश्रमः श्रमणः क्षामः सुपर्णो वायुवाहनः ।। 91 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
धनुर्धरो धनुर्वेदो दंडो दमयिता दमः ।
अपराजितः सर्वसहो नियंता नियमो यमः ।। 92 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
सत्त्ववान सात्त्विकः सत्यः सत्यधर्मपरायणः ।
अभिप्रायः प्रियार्हो-अर्हः प्रियकृत-प्रीतिवर्धनः ।। 93 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
विहायसगतिर्ज्योतिः सुरुचिर्हुतभुग विभुः ।
रविर्विरोचनः सूर्यः सविता रविलोचनः ।। 94 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अनंतो हुतभुग्भोक्ता सुखदो नैकजोऽग्रजः ।
अनिर्विण्णः सदामर्षी लोकधिष्ठानमद्भुतः ।। 95।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
सनात्-सनातनतमः कपिलः कपिरव्ययः ।
स्वस्तिदः स्वस्तिकृत स्वस्ति स्वस्तिभुक स्वस्तिदक्षिणः ।। 96 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अरौद्रः कुंडली चक्री विक्रम्यूर्जितशासनः ।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">शब्दातिगः शब्दसहः शिशिरः शर्वरीकरः ।। 97 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अक्रूरः पेशलो दक्षो दक्षिणः क्षमिणां वरः ।
विद्वत्तमो वीतभयः पुण्यश्रवणकीर्तनः ।। 98 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
उत्तारणो दुष्कृतिहा पुण्यो दुःस्वप्ननाशनः ।
वीरहा रक्षणः संतो जीवनः पर्यवस्थितः ।। 99 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अनंतरूपो-अनंतश्री: जितमन्यु: भयापहः ।
चतुरश्रो गंभीरात्मा विदिशो व्यादिशो दिशः ।। 100 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
अनादिर्भूर्भुवो लक्ष्मी: सुवीरो रुचिरांगदः ।
जननो जनजन्मादि: भीमो भीमपराक्रमः ।। 101 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
आधारनिलयो-धाता पुष्पहासः प्रजागरः ।
ऊर्ध्वगः सत्पथाचारः प्राणदः प्रणवः पणः ।। 102 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
प्रमाणं प्राणनिलयः प्राणभृत प्राणजीवनः ।
तत्त्वं तत्त्वविदेकात्मा जन्ममृत्यु जरातिगः ।। 103 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
भूर्भवः स्वस्तरुस्तारः सविता प्रपितामहः ।
यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञांगो यज्ञवाहनः ।। 104 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
यज्ञभृत्-यज्ञकृत्-यज्ञी यज्ञभुक्-यज्ञसाधनः ।
यज्ञान्तकृत-यज्ञगुह्यमन्नमन्नाद एव च ।। 105 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
आत्मयोनिः स्वयंजातो वैखानः सामगायनः ।
देवकीनंदनः स्रष्टा क्षितीशः पापनाशनः ।। 106 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
शंखभृन्नंदकी चक्री शार्ङ्गधन्वा गदाधरः ।
रथांगपाणिरक्षोभ्यः सर्वप्रहरणायुधः ।। 107 ।।</span></span></div>
<div dir="ltr">
<span style="white-space: pre-wrap;"><span style="font-family: "courier new" , "courier" , monospace; font-size: large;">
<b>सर्वप्रहरणायुध ॐ नमः इति।
वनमालिगदी शार्ङ्गीशंखीचक्री च नंदकी ।
श्रीमान्नारायणो विष्णु: वासुदेवोअभिरक्षतु।</b></span></span><b style="font-family: "courier new", courier, monospace; font-size: x-large; white-space: pre-wrap;">।</b></div>
<div dir="ltr">
<span style="color: #2c3e50; font-size: 18px; white-space: pre-wrap;"><br /></span>
<span style="color: #2c3e50; font-size: 18px; white-space: pre-wrap;">==========================</span><br />
<span style="font-size: large; white-space: pre-wrap;"><br /></span>
<span style="font-size: large;"><span style="white-space: pre-wrap;"><b>इतीदं कीर्तनीयस्य केशवस्य महात्मनः।
नाम्नां सहस्त्रं दिव्यानामशेषेण प्रकीर्तितं।।</b>
य इदं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत्।
नाशुभं प्राप्नुया यत्किञ्चित्सोऽमुत्रेह च मानवः।।
वेदान्तगो ब्राह्मणः स्यात्क्षत्रियो विजयी भवेत्।
वैश्यो धनसमृधः स्याच्छूद्रः सुखमवाप्नुयात।।
धर्मार्थी प्राप्नुयाद्धर्ममर्थार्थी चार्थमाप्नुयात्।
कामानवाप्नुयात्कामी प्रजार्थी प्राप्नुयात्प्रजां।।
भक्तिमान्यः सदोत्थाय शुचिस्तद्गतमानसः।
सहस्त्रं वासुदेवस्य नाम्नामेतत्प्रकीर्तयेत। ।
यशः प्राप्नोति विपुलं ज्ञातिप्रधान्यमेव च।
अचलां श्रियमाप्नोति श्रेयः प्राप्नोत्यनुत्तमम्।।
न भयं क्वचिदाप्नोति वीर्यं तेजश्च विन्दति।
भवत्यरोगो द्युतिमानबलरूपगुणान्वितः।।
रोगार्तो मुच्यते रोगाद्बद्धो मुच्येत बन्धनात्।
भयान्मुच्येत भीतस्तु म्युच्येतापन्न आपदः।।
दुर्गाण्यतितरत्याशु पुरुषः पुरुषोत्तमम्।
स्तुवन्नामसहस्त्रेण नित्यं भक्तिसमन्वितः।।
वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायणः।
सर्व पापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम्।।
न वासुदेवभक्तानामशुभं विद्यते क्वचित्।
जन्ममृत्युजराव्याधिभयं नैवोपजायते।।
इमं स्तवमधीयानः श्रद्धाभक्तिसमन्वितः।
युज्येतात्मसुखक्षान्ति श्रीधृतिस्मृतिकीर्तिभिः।।
न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभोनाशुभा मतिः।
भवन्ति कृतपुण्यानाम् भक्तानांपुरुषोत्तमे।।
द्यौ: सचन्द्रार्कनक्षत्रा खं दिशो भूर्महोदधिः।
वासुदेवस्य वीर्येण विधृतानी महात्मनः।।
ससुरासुरगन्धर्वं सयक्षोरगराक्षसं।
जगद्वशे वर्ततेदं कृष्णस्य सचराचरं।।
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिः सत्त्वं तेजो बलं धृतिः।
वासुदेवात्मकान्याहुः क्षेत्रं क्षेत्रज्ञ एव च।।
सर्वागमानामाचारः प्रथमं परिकल्पते।
आचारप्रभवो धर्मो धर्मस्य प्रभुरच्युतः।।
ऋषयः पितरो देवा महाभूतानि धातवः।
जंगमाजंगमं चेदं जगन्नारायणोद्भवम्।।
योगो ज्ञानम् तथा सांख्यं विद्याः शिल्पादिकर्म च।
वेदाः शस्त्राणि विज्ञानमेतत्सर्वं जनार्दनात्।।
एको विष्णुर्महद्भूतं पृथग्भूतान्यनेकशः।
त्रींल्लोकान् व्याप्या भूतात्मा भुङ्क्ते विश्वभुगव्ययः।।
इमं स्तवं भगवतो विष्णोर्व्यासेन कीर्तितं।
पठेद्य इच्छेत्पुरुषः श्रेयः प्राप्तुम सुखानि च।।
<b>विश्वेश्वरमजम् देवं जगतः प्रभवाप्यमम्।
भजन्ति ये पुष्कराक्षं न ते यान्ति पराभवं।।</b>
जो संसार की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश करने वाले जन्मरहित, विश्व के ईश्वर, कमल लोचन भगवान् विष्णु का भजन करते हैं, वे कभी भी प्रभाव को प्राप्त नहीं होते हैं ।</span></span><br />
<span style="color: #2c3e50;"><span style="font-size: 18px; white-space: pre-wrap;"><br /></span></span>
<span style="color: blue; font-size: 18px; white-space: pre-wrap;">*</span><span style="font-size: 18px; white-space: pre-wrap;">In sync with Vishnusahastranamam sung by MS Subbulakshmi </span></div>
<div dir="ltr">
<span style="color: #2c3e50; font-size: 18px; white-space: pre-wrap;">=======================================</span></div>
<div dir="ltr">
<span style="color: #2c3e50; font-size: 18px; white-space: pre-wrap;"><br /></span></div>
<div align="left">
<br /></div>
विश्वम् - जो स्वयं ही ब्रह्माण्ड है<br />
विष्णुः - सर्वत्र विद्यमान</div>
<div align="left">
वषट्कारः - जिसका यज्ञ में आह्वान किया जाता है</div>
<div align="left">
भूतभव्यभवत्प्रभुः - अतीत, वर्तमान और भविष्य के भगवान</div>
<div align="left">
भूतकृत् - सभी प्राणियों के निर्माता</div>
<div align="left">
भूतभृत् - वह जो सभी प्राणियों को पोषण देते हैं</div>
<div align="left">
भावः - वह जो सभी जड़ और चेतन वस्तुओ का रूप धारण करते हैं</div>
<div align="left">
भूतात्मा - सभी प्राणियों की आत्मा</div>
<div align="left">
भूतभावनः - सभी प्राणियों के विकास और जन्म का कारण</div>
<div align="left">
पूतात्मा - वह जो एक अत्यंत शुद्ध सार के साथ है</div>
<div align="left">
परमात्मा - परम आत्मा</div>
<div align="left">
मुक्तानां परमा गतिः - मुक्त आत्माओं द्वारा प्राप्त किया जाने वाला अंतिम लक्ष्य</div>
<div align="left">
अव्ययः - जिसका विनाश नहीं हो सकता</div>
<div align="left">
पुरुषः - वह जो नौ द्वारो वाले नगर में रहता है</div>
<div align="left">
साक्षी - सब कुछ देखनेवाला</div>
<div align="left">
क्षेत्रज्ञः - वह जो शारीर रुपी क्षेत्र को तत्व से जानने वाला है</div>
<div align="left">
अक्षरः - अविनाशी</div>
<div align="left">
योगः - जो समरूपता की अवस्था में स्थित रहता है</div>
<div align="left">
योगविदां - नेता योग की जानकारी रखने वालों का मार्गदर्शक</div>
<div align="left">
प्रधानपुरुषेश्वरः - मूल प्रक्रति का ईश्वर</div>
<div align="left">
नारसिंहवपुः - वह जिसका रूप मनुष्य और सिंह का है</div>
<div align="left">
श्रीमान् - वह जो हमेशा श्री के साथ रहता है</div>
<div align="left">
केशवः - लंबे और सुंदर बालोंवाला, केशी को मारने वाले </div>
<div align="left">
पुरुषोत्तमः - जो पुरुषों में सबसे उत्तम हो, जो सर्वश्रेष्ठ हो</div>
<div align="left">
सर्वः - वो जो सब कुछ है</div>
<div align="left">
शर्वः - वो जो शुभ है</div>
<div align="left">
शिवः - वह जो हमेशा शुद्ध है</div>
<div align="left">
स्थाणुः - आधार, अचल सत्य</div>
<div align="left">
भूतादिः - पांच महान तत्वों का कारण</div>
<div align="left">
निधिरव्ययः - वह निधि जिसका विनाश नहीं हो सकता</div>
<div align="left">
सम्भवः - वह जो अपनी स्वतंत्र इच्छा से उत्पन्न होता है</div>
<div align="left">
भावनः - वह जो अपने भक्तों को सबकुछ देता है</div>
<div align="left">
भर्ता - वह जो पूरे संसार को नियंत्रित करता है</div>
<div align="left">
प्रभवः - पांच महान तत्वों की उत्पत्ती का स्त्रोत</div>
<div align="left">
प्रभुः - सर्वशक्तिमान भगवान</div>
<div align="left">
ईश्वरः - वह जो बिना किसी सहायता के कुछ भी कर सकता है</div>
<div align="left">
स्वयम्भूः - वह जो खुद से प्रकट होता है</div>
<div align="left">
शम्भुः - वह जो शुभ करनेवाला है</div>
<div align="left">
आदित्यः - अदिति का पुत्र, वामन अवतार</div>
<div align="left">
पुष्कराक्षः - वह जिसकी कमल की तरह आंखें है</div>
<div align="left">
महास्वनः - वह जिसकी गर्जन करने वाली आवाज है</div>
<div align="left">
<div class="outbrainContainer" style="background-color: white; color: #2c3e50; padding: 15px 20px;">
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Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-44271983354026322862019-01-16T01:50:00.002+05:302019-01-16T02:19:02.577+05:30श्री राम स्तुति<br />
<h2 style="text-align: center;">
श्रीराम चन्द्र कृपालु </h2>
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<b>श्री राम चन्द्र कृपालु भजमन हरण भाव भय दारुणम्।</b></div>
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<b>नवकंज लोचन कंज मुखकर, कंज पद कन्जारुणम्।।</b></div>
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<br /></div>
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हे मन, कृपालु (कृपा करनेवाले, दया करनेवाले) भगवान श्रीरामचन्द्रजी का भजन कर। वे संसार के जन्म-मरण रूप दारुण भय को दूर करने वाले है। उनके नेत्र नव-विकसित कमल के समान है, मुख कमल के समान है, हाथ (कर) कमल के समान हैं और चरण (पद) भी कमल के समान हैं ।</div>
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<br /></div>
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<span style="color: #b45f06;">दारुण</span>: कठोर, भीषण, घोर (frightful, terrible)</div>
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<b>कन्दर्प अगणित अमित छवी नव नील जलद सुन्दरम्।</b></div>
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<b>पट्पीत मानहु तडित रूचि शुचि नौमी जनक सुतावरम्।।</b></div>
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उनके सौंदर्य की छ्टा अगणित (असंख्य, अनगिनत) कामदेवो से बढ़कर है, उनका नवीन नील नीरज (कमल, सजल मेघ) जैसा सुंदर वर्ण है, पीताम्बर मेघरूप शरीर मानो बिजली के समान चमक रहा है, ऐसे पावनरूप जानकीपति श्रीरामजी को मै नमस्कार करता हूँ ।</div>
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<span style="color: #b45f06;">कन्दर्प</span>: कामदेव</div>
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<b><br /></b></div>
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<b>भजु दीन बंधु दिनेश दानव दैत्य वंश निकंदनम्।</b></div>
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<b>रघुनंद आनंद कंद कौशल चंद दशरथ नन्दनम्।।</b></div>
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<br /></div>
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हे मन, दीनो के बंधू, सुर्य के समान तेजस्वी, दानव और दैत्यो के वंश का नाश करने वाले, रघु के प्यारे, आनन्द से भरे बादल, कौशल्या के चाँद और दशरथ-नन्दन श्रीराम का भजन कर ।</div>
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<br /></div>
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<b>सिर मुकुट कुण्डल तिलक चारु उदारू अंग विभूषणं।</b></div>
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<b>आजानु भुज शर-चापधर सङ्ग्राम जित खर-दूषणं।। </b></div>
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<br /></div>
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जिनके मस्तक पर रत्नजडित मुकुट, कानो मे कुण्डल, मस्तक पर तिलक और प्रत्येक अंग मे सुंदर आभूषण सुशोभित हो रहे है, जिनकी भुजाए घुटनो तक लम्बी है और जो धनुष-बाण लिये हुए हैं, जिन्होने संग्राम मे खर-दूषण को जीत लिया है ।</div>
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<br /></div>
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<span style="color: #b45f06;">शर-चाप</span>: बाण-धनुष</div>
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<br /></div>
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<b>इति वदति तुलसीदास शङ्कर शेष मुनि मन रञ्जनम्। </b></div>
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<b>मम ह्रदय कु</b><b>ञ्ज</b><b> निवास कुरु कामादी खल दल ग</b><b>ञ्ज</b><b>नम्।।</b></div>
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<br /></div>
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तुलसीदासजी प्रार्थना करते है कि शिव, शेष और मुनियो के मन को प्रसन्न करने वाले श्रीरघुनाथजी मेरे ह्रदय कमल में सदा निवास करें जो कामादि (काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह) शत्रुओं का नाश करने वाले हैं ।</div>
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<br /></div>
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<b>मनु जाहिं राचेऊ मिलिहि सो बरु सहज सुंदर सावरों।</b></div>
<div>
<b>करुना निधान सुजान सिलू सनेहू जानत रावरो।।</b></div>
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<br /></div>
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जिसमे तुम्हारा मन अनुरक्त हो गया है, वही वर (श्रीरामचन्द्रजी) तुमको मिलेगा वह स्वभाव से सहज, सुन्दर और सांवला है वह करुणा निधान (दया का खजाना), सुजान (सर्वज्ञ, सब जाननेवाला), शीलवान है, तुम्हारे स्नेह को जानता है ।</div>
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<br /></div>
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<b>एही भांती गौरी असीस सुनी सिय सहित हिय हरषी अली।</b></div>
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<b>तुलसी भवानी पूजि पूनी पूनी मुदित मन मंदिर चली।।</b></div>
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<b><br /></b></div>
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जानकीजी समेत सभी सखियाँ ह्रदय मे हर्षित हुई इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर (इस प्रकार श्रीगौरीजी का आशीर्वाद सुनकर जानकीजी समेत सभी सखियाँ ह्रदय मे हर्षित हुई) तुलसीदासजी कहते है, भवानीजी को बार-बार पूजकर सीताजी प्रसन्न मन से राजमहल को लौट चली।</div>
<div>
<br /></div>
<div style="text-align: center;">
<span style="background-color: white; border: 0px; box-sizing: inherit; font-family: "noto serif" , serif; font-size: 30.0513px; font-weight: 700; margin: 0px; outline: 0px; padding: 0px; vertical-align: baseline;"><span style="color: blue;">॥ सियावर रामचंद्र की जय ॥</span></span></div>
Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-2621364486285677553.post-24355377243743624132018-11-23T01:18:00.001+05:302018-11-23T01:40:58.835+05:30nadisThere are about 350,000 nadis in body.<br />
14 of them are main nadis<br />
3 (<b>इड़ा, पिङ्गला, सुषुम्ना</b>) of them are more important than others<br />
1(<b>सुषुम्ना</b>) of the these 3 is the main nadi.<br />
<b><br /></b>
<b>Ida</b><br />
<blockquote class="tr_bq">
Starts on left side, winds up muladhara chakra, ends left nostril.<br />
Chandra (lunar)<br />
Cooling<br />
White (kapha)<br />
Feminine energy<br />
Promotes emotion, feeling, love, attachment</blockquote>
---------------------------------------------------------------<br />
<br />
<b>Pingala</b><br />
<blockquote class="tr_bq">
Starts on rt side, winds up muladhara chakra, ends rt nostril.<br />
Surya (solar)<br />
Heating, red (pitta)<br />
Masculine energy<br />
Promotes reason, perception, analysis, and discrimination</blockquote>
---------------------------------------------------------------<br />
<br />
<b>Alambusha</b><br />
<blockquote class="tr_bq">
Supplies energy to organs of elimination.<br />
From muladhara thru anus.<br />
Base of spine and back to tip of rectum.</blockquote>
---------------------------------------------------------------<br />
<br />
<b>Kuhu</b><br />
<blockquote class="tr_bq">
Supplies energy to genitals.<br />
Muladhara to swadhishtana chakra.<br />
Base of spine forward thru end of penis or vagina.</blockquote>
---------------------------------------------------------------<br />
<br />
<b>Vishvodhara</b><br />
<blockquote class="tr_bq">
Energy to digestive system.<br />
Muladhara thru manipura chakras.<br />
Base of spine up thru stomach.</blockquote>
---------------------------------------------------------------<br />
<br />
<b>Hastijihva</b><br />
<blockquote class="tr_bq">
Energy to left limbs.<br />
Muladhara thru manipura chakras.</blockquote>
---------------------------------------------------------------<br />
<br />
<b>Yashaswini</b><br />
<blockquote class="tr_bq">
Energy to right limbs.<br />
Muladhara thru manipura chakras.</blockquote>
---------------------------------------------------------------<br />
<br />
<b>Varuna</b><br />
<blockquote class="tr_bq">
Energy to whole body thru circulatory system.<br />
Muladhara thru Anahata chakras.</blockquote>
---------------------------------------------------------------<br />
<br />
<b>Saraswati</b><br />
<blockquote class="tr_bq">
Energy to tongue, mouth, and throat.<br />
Muladhara thru Vishuddhi chakras.</blockquote>
---------------------------------------------------------------<br />
<br />
<b>Gandhari</b><br />
<blockquote class="tr_bq">
Energy to left eye.<br />
Muladhara thru Ajna chakras.</blockquote>
---------------------------------------------------------------<br />
<br />
<b>Pusha</b><br />
<blockquote class="tr_bq">
Energy to right eye.<br />
Muladhara thru Ajna chakras.</blockquote>
---------------------------------------------------------------<br />
<br />
<b>Shankhini</b><br />
<blockquote class="tr_bq">
Energy to left ear<br />
Muladhara thru Ajna chakras.</blockquote>
---------------------------------------------------------------<br />
<br />
<b>Shushumna</b><br />
<blockquote class="tr_bq">
Main Nadi. Prana flows thru to other Nadis. Central Nadi arising from muladhara chakra ascending up to Sahasrara chakra. Awakened Kundalini rises thru Shushumna.</blockquote>
---------------------------------------------------------------<br />
<br />
<b>Payaswini</b><br />
<blockquote class="tr_bq">
Energy to right ear</blockquote>
Sudarshanhttp://www.blogger.com/profile/13466140458902996930noreply@blogger.com0