Friday, June 29, 2018

संस्कृत परिचर्चा - 1

संयोजक: अभिनन्दन शर्मा


Day 1
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श्लोक:   अखण्ड-मण्डलाकारम् व्याप्तम् येन चराचरम्।
              तत्पदम् दर्शितम् येन तस्मै श्री गुरवे नमः ।।

अर्थ: मण्डल के आकार का संसार जिनके द्वारा व्याप्त है, सभी अचर और चर से, उनके चरण जिनके द्वारा दिखाए गए, उन श्री गुरु को मैं नमस्कार करता हु ।

मण्डल = गोल,
कमंडल = हाथ में पकड़ा जाने वाला गोल बर्तन

सुभाषित: विद्या विवादाय धनं मदाय शक्तिः परेषाम् परपीडनाय ।
               खलस्य साधोर्विपरीतमेतद ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय ।।

अर्थ:  दुष्ट स्वभाव वाले विद्या विवाद करने के लिए, धन अहंकार के लिए और शक्ति दूसरो को दुःख देने के लिए प्रयोग करते हैं  परन्तु इसके विपरीत साधु जन इनका प्रयोग ज्ञान, दान और रक्षा के लिए करते हैं ।


जीवों का वर्गीकरण
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१. अण्डज - अण्डे से पैदा होने वाले ।
२. जरायुज - गर्भ से पैदा होने वाले ।
३. स्वेदज - पसीने से पैदा होने वाले ।
४. उद्धिज - जो जड़ रहते हैं ।


मनुष्य २५ विभिन्न तत्वों से मिलकर बना है

५ महाभूत - पृथ्वी, जल, आकाश, वायु, अग्नि
५ तन्मात्रा - गन्ध, रस,रूप,  स्पर्श, शब्द
५ ज्ञानेन्द्रियाँ - नाक, जीभ, आँख, त्वचा कान
५ कर्मेन्द्रियाँ - हाथ, पैर, उपस्थ, मुंह, लिंग
५ अन्तः करण - मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, आत्मा

*सभी पांच महाभूतों की तन्मात्रा होती हैं जो ज्ञानेन्द्रियों में रहती हैं

कथा:
सनक, सनातन, सनन्दन और सनत कुमार ।  ये सभी ब्रह्मा जी के मानस(मन से उत्पन्न होने वाले) पुत्र थे । इन सभी ने अपने पिता ब्रह्मा की इच्छा के विरुद्ध आजीवन ब्रह्मचर्य धारण किया और सभी जगह साथ में विचरते थे । एक बार वे विचरते हुए वैकुण्ठ (विष्णु जी के स्थान) पहुंचे परन्तु बच्चो वाली काया और शरीर पर कोई कपड़ा न होने के कारण द्वारपाल (जय और विजय) उन पर हंसने लगे तथा उन्हें वहीँ रोक दिया और आगे नहीं जाने दिया । द्वारपालों के इस व्यवहार से सभी ब्राह्मण क्रुद्ध हो गए और द्वारपालों को पृथ्वी पर ३ बार एक दुर्जन के रूप में जन्म लेने का श्राप दे दिया । जब विष्णु जी को इसके बारे में पता लगा तो उन्होंने कुमारो को दर्शन दिए द्वारपालों को क्षमा करने के लिए कहा । कुमारो ने कहा की जय और विजय को जन्म तो लेना ही होगा परन्तु उनकी मुक्ति हर बार विष्णु जी के द्वारा होगी ।

वे दोनों द्वारपाल सतयुग में असुर रूप में ऋषि कश्यप और दिति के यहाँ हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप नाम से हुए । भगवान् विष्णु ने वराह अवतार लेकर हिरण्याक्ष और नरसिंह अवतार में हिरण्यकश्यप का वध किया ।

त्रेता युग में वे दोनों रावण और कुम्भकर्ण के रूप में जन्मे, जिनको श्री राम ने मुक्ति दिलाई, जैसा की रामायण में है और अंत में वे दोनों द्वापर युग में शिशुपाल और दन्तवक्त्र के रूप में जन्मे और श्री कृष्ण के समसामयिक थे ।

#sanskritik_satsang

Thursday, June 28, 2018

रोचक संस्कृत - ५

Sanskrit tidbit 5
 

Pronunciation is extremely important in Sanskrit.  Take the sentences below and you are saying “I am so and so”.  Those are all proper names, Kamini, Charu, Tintin, Tanika and Parimala.  How will you pronounce “aham”?  You will be tempted to say “aham” as in with “m”, but you will be wrong.  Sanskrit flows seamlessly like water and that also explains many of the rules of grammar.

अहम् कामिनी। अहम् चारु। अहम् टिनटिन। अहम् तनिका। अहम् परिमळ।

Letters are grouped into different classes,
वर्ग, वर्ग, वर्ग, वर्ग, वर्ग and so on.  वर्ग letters are pronounced from the throat, वर्ग letters are pronounced from one part of the palate, वर्ग letters are pronounced from another part of the palate, वर्ग letters are pronounced from the base of the teeth and वर्ग letters are pronounced from the lips.  That is the tongue occupies different places within the mouth.  If the in अहम् is pronounced as , the tongue will have to move to a different position to pronounce कामिनी and there will be a break in speaking.  Therefore, in अहम् कामिनी, the will be pronounced as .  In अहम् चारु, the will be pronounced as .  In अहम् टिनटिन, the will be pronounced as . In अहम् तनिका, the will be pronounced as .  And of course in अहम् परिमळ, the will be pronounced as .  The tongue doesn’t have to move and speech flows easily.  Do you get the idea?

If you make mistakes in pronunciation, the consequences can be disastrous, probably much more than in English.  Take the words
स्वजनाः श्वजनाः.  The former means one’s own people, that is, one’s relatives.  The latter means the relatives of a dog, since shvān is a dog.  If you invite me to dinner and ask me to bring my स्वजनाः, I will bring my relatives.  But if you ask me to bring my श्वजनाः, I will bring my dog and his friends.

I think you should begin to read some of Adi Shankaracharya’s (788-820 CE) stotrams.  The Sanskrit,  though not always the philosophy, is easy to understand and they constitute beautiful poetry, easy to learn and memorize.  The one I am going to quote from is called
चर्पट पञ्जरिका, पञ्जरिका means a cage and चर्पट is a tattered piece of cloth.  The idea is that, in our pursuit for the irrelevant, we are caging ourselves in a tattered piece of cloth.  The stotram has 18 shlokas.  Some of it requires an understanding of grammar forms we still aren’t familiar with.  But here is one shloka that should be crystal clear. I have only broken up the sandhi to make it easier.You shouldn’t have any problems.  But here is what it says.  The limbs have decayed.  The head is grey.  The mouth is bereft of teeth.  The old man is walking with a stick.  But the mass of desire still doesn’t free him.

अङ्गम् गलितं पलितं मुण्डम् दशनविहीनम् जातं तुण्डं

वृद्धः याति गृहित्वा दण्डम् तदपि मुञ्चति आशापिण्डम् !!

This stotram has a more famous shloka too and this is the following.  This has verb forms we are still not familiar with, such as the imperative (bhaja) instead of bhajasi.  But you will probably get the general sense.  O foolish person!  Worship Govinda.  When death is near, you will not be saved by
डुकृञ्करणे !

भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भजमूढमते

संप्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ्करणे

I have you the shloka because of the
डुकृञ्करणे bit.  What does it mean?  I don’t think it is a very poetic expression.  But let that be.  There are two kinds of verbs in Sanskrit, परस्मैपद (PP) and आत्मनेपद (AP).  PP is when I do something for someone else.  So if I cook for someone else, it will be पचामि.  However, if I cook for myself, it will be AP and पचे.  So far, you are only familiar with PP verbs.  AP will come.  But I have been a bit inaccurate.  There are verbs that can be both PP and AP and these are called उभयपद (UP).  The verb “to do” (कृ) is one such.  It is UP and can adopt both PP and AP forms.  डुकृञ्करणे means the two forms of the verb कृ.  When death is near, knowing about the two forms of the verb isn’t going to save you.  And the expression is really being used as an instance of grammar.  That is when death is near, knowledge of grammar isn’t going to save you.  There is a story about how Shankacharya came to compose the stotram, during his stay in Varanasi.  He saw an old man, struggling with the rules of Panini’s grammar.  I thought I would mention this, because I have been cautioning you not to get too bogged down by grammar, especially mugging it up.  I am not suggesting you only worship Govinda instead.  After all, you are interested in learning Sanskrit.  However, go easy on the grammar.

Mihir Jha gave me a shloka that seems to run counter to this proposition.  Here it is.  It is in the imperative form again and is being addressed to a son.  O son!  Even if you do not study a lot, do study grammar, so that you do not get confused between
स्वपचः श्वपचः, सकळः शकल: and सकृत् शकृत्.  Of this, सकळः is the entire part, while शकल: is a fragment. सकृत् means once, or a person who is acting at once or immediately. But शकृत् is fertilizer or dung. स्वपचः is someone who cooks for himself.  I will revisit श्वपचः next week, because I don’t like the translation I am giving today.  For today, श्वपचः means someone who cooks and eats dogs.  Do we really have two shlokas that are opposite in intent?  I don’t think so.  Though Mihir’s shloka mentions grammar, I think it is more about correct pronunciation.  On grammar, as I have said, go easy.

यद्यपि बहुषु नाधीषे तथापि पुत्र पठ व्याकरणम्
स्वपचः श्वपचः मा भूत सकळः शकल: सकृत् शकृत्!


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संस्कृत में उच्चारण का बहुत महत्व है । नीचे दिया गए वाक्य को पढ़िए । ये सभी नाम हैं, कामिनी, चारु, टिनटिन, तनिका और परिमल । आपने "अहम्" का उच्चारण कैसे किया ? आप "अहम्" का अंत 'म' से करेंगे परन्तु वो अनुचित होगा । संस्कृत जल की तरह निर्बाध प्रवाहित होती है और यह व्याकरण के नियमो से भी पता चलता है ।


अहम् कामिनी। अहम् चारु। अहम् टिनटिन। अहम् तनिका। अहम् परिमळ।



सभी अक्षर विभिन्न समूहों में वर्गीकृत होते हैं, कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग आदि । कवर्ग अक्षरों का उच्चारण कंठ से होता है, चवर्ग अक्षरों का तालु से, टवर्ग अक्षरों का ऊपरी तालु से, तवर्ग अक्षरों का दांतो के तल से और पवर्ग अक्षरों का उच्चारण होंठो से होता है । इससे यह पता चलता है की जीभ अलग अलग अक्षरों के उच्चारण के लिए मुंह में अलग अलग जगह स्पर्श करती है । अगर "अहम्" में 'म्' का उच्चारण 'म' किया तो कामिनी बोलने के लिए जीभ(जीव्हा) को भिन्न स्थिति में जाना पड़ेगा जिससे उच्चारण का प्रवाह टूटेगा । इसलिए "अहम् कामिनी" में 'म' का उच्चारण 'ङ' होगा ।  "अहम् चारु" में 'म' का उच्चारण 'ञ' होगा । "अहम् टिनटिन" में यह 'ण' से उच्चारित होगा, "अहम् तनिका" में 'न' और "अहम् परिमल" में 'म' ही उच्चारित होगा । इस तरह से शब्दों के उच्चारण में प्रवाह बना रहता है ।

शब्दों के उच्चारण का दोष विनाशकारी हो सकता है, संभवतया अंग्रेजी से कही अधिक । जैसे की शब्द "स्वजनाः" और "श्वजनाः"  ।


स्वजनाः = सगे सम्बन्धी

श्वजनाः = कुत्ते के सम्बन्धी, क्योंकि श्वान का अर्थ कुत्ता होता है ।

अगर आप मुझे अपने घर रात्रिभोज पर "स्वजनाः" के साथ आमंत्रित करते हैं तो मैं अपने रिश्तेदार को साथ में लाऊंगा परन्तु अगर आपने मुझे अपने घर रात्रिभोज पर "श्वजनाः" के साथ आमंत्रित किया तो मेरा कुत्ता और उसके साथी आएंगे ।


आपको आदि शंकराचार्य जी के स्तोत्र पढ़ने चाहिए । मैं यहाँ जिस रचना की बात करने जा रहा हु उसका नाम है चर्पटपञ्जरिका, पंजारिका का अर्थ है पिंजरा और चर्पट का अर्थ होता है फटा पुराना कपड़ा । यह इस बात का व्याख्यान करता है की किस तरह हम व्यर्थ वस्तुओं के पीछे दौड़ते रहते हैं और अपने आप को फटे पुराने कपड़ो में जकड लेते हैं । इस स्तोत्र में १८ श्लोक हैं । कुछ श्लोकों में प्रयुक्त व्याकरण की जानकारी नहीं है परन्तु एक श्लोक है जो पूरी तरह समझ में आ जायेगा । मैं इसमें संधि विच्छेद कर रहा हूँ ताकि आसानी से समझ आ सके ।


अङ्गम् गलितं पलितं मुण्डम् दशनविहीनम् जातं तुण्डं

वृद्धः याति गृहित्वा दण्डम् तदपि न मुञ्चति आशापिण्डम् !!

अर्थ:

अंग काम करना बंद कर चुके हैं, सर के बाल सफ़ेद हो चले हैं और मुँह के दांत भी टूटते जा रहे हैं
छड़ी के बिना चलना अब असंभव हो गया हैं परन्तु आशाओं का साथ अभी भी नहीं छूट रहा ।

एक और प्रसिद्ध श्लोक है जिसके क्रिया पदों के पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं है, जैसे "भजसि" की जगह "भज"(अनिवार्य) ।

हे मूर्ख गोविन्द का भजन कर । जब मृत्यु सामने हो तो "डुकृञ्करणे" आपको नहीं बचा सकते ।

भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भजमूढमते
संप्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ्करणे


मैंने यह श्लोक "डुकृञ्करणे" के कारण ही लिया है । आखिर इसका अर्थ क्या है? यह श्लोक पूर्ण काव्यगत भी नहीं लगता । संस्कृत में दो तरह ही क्रियाएं होती हैं - परस्मैपद और आत्मनेपद । परस्मैपद, जब मैं कोई कार्य किसी दुसरे के लिए करूँ । तो अगर मैं किसी के लिए खाना पकाता हूँ तो वह "पचामि" होगा । परन्तु अगर मैं अपने लिए खाना पकाऊं तो वह आत्मनेपद होगा, "पचे" । परन्तु क्रिया के बारे में मैंने अभी तक अशुद्ध/अपूर्ण जानकारी दी है । कुछ ऐसी क्रियाएं हैं जो आत्मनेपदी और परस्मैपदी, दोनों साथ में हो सकती हैं, उन्हें "उभयपदी" कहते हैं । 'कृ' उनमे से ही एक धातु है । उभयपदी होने के कारण यह आत्मनेपदी या परस्मैपदी की तरह व्यवहार कर सकती है । "डुकृञ्करणे" का अर्थ 'कृ' के यह दो रूप हैं । जब मृत्यु सामने होती है तब 'कृ' के दोनों रूपों की जानकारी आपकी जान नहीं बचा सकती और यहाँ 'कृ' धातु को व्याकरण के प्रतीक के रूप में लिया गया है । तात्पर्य यह हुआ कि, जब सामने मृत्यु हो तो व्याकरण का ज्ञान आपकी जान नहीं बचा सकता ।


एक और श्लोक है जिसका अर्थ विपरीत है । यह श्लोक अनिवार्यता दर्शाता है तथा एक पुत्र को सम्बोधित है । हे पुत्र ! अगर तुम बहुत अधिक नहीं पढ़ो तो व्याकरण पढ़ लो ताकि तुम स्वपचः और श्वपचः, सकलः और शकलः तथा सकृत् और शकृत् में भ्रमित न हो जाओ ।


सकलः = पूरा भाग

शकलः = एक टुकड़ा या हिस्सा

सकृत्  = एकदा

शकृत् = उर्वरक या खाद

स्वपचः = अपने लिए खाना बनाना

श्वपचः = श्वपचः के बारे में मैं अगली बार बात करूँगा । अभी के लिए श्वपचः का अर्थ है कुत्ते को पकाने और खाने वाला ।

यद्यपि बहुषु नाधीषे तथापि पुत्र पठ व्याकरणम्

स्वपचः श्वपचः मा भूत सकळः शकल: सकृत् शकृत्!


Credit: Shri Bibek Debroy
Content is provided as is without any alteration but with translation in hindi and with minor additions wherever needed.

Sunday, June 17, 2018

रोचक संस्कृत - ४

Sanskrit tidbit 4
 

त्वमेव माता पिता त्वमेव।  त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।

twameve maata ch pita twameve | twameve bandhushch sakha twameve |

त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव।  त्वमेव सर्वं मम देव देव॥
twameve vidya dravinam twameve | twameve sarvam mum dev dev ||

From what you already know, this should be simple to translate and understand.  “Eva” is difficult to translate.  It only adds emphasis and the meaning varies marginally, depending on context.  This is a prayer to the God of all gods.  You are my mother.  You are also my father.  You are my “bandhu”.  You are also my friend.  You are knowledge.  You are strength (or prosperity).  You are everything.  Notice that I have not translated “bandhu”.  Whenever I ask people what “bandhu” means, they say that it means “friend”.  It does mean friend in Sanskrit, as it does in many Indian languages.  But “sakhaa” also means friend.  If “bandhu” also means friend, then why am I saying “friend” twice?  Words in Sanskrit have multiple meanings and when trying to understand something written in Sanskrit, one should be careful that one has got the right meaning.  Don’t artificially apply a meaning you think is right, without checking it with a dictionary.  The primary meaning of “bandhu” is not friend, but relative, as in blood-relative.  That’s the sense in which one should interpret it here, not in the sense of “friend”.  In the Bhagavad Gita, you won’t find Krishna and Arjuna addressing each other as “bandhu”.  They aren’t blood-relatives.  They address each other as “sakhaa”.  What’s “baandhava”?  Again, “friend” and “relative” are tempting translations that aren’t incorrect.  However, “baandhava” is better translated as a relative with whom one doesn’t have a blood relationship, such as an in-law.  Krishna and Arjuna are “baandhava”s.  “Mitra” is also a friend.  Time to confuse you.

मित्र: मित्रम पश्यति। मित्रम मित्रम पश्यति।
mitrah mitram pashyati | mitram mitram pashyati |

 What’s the difference between these two sentences?  The intention was to confuse you and I am certain I have succeeded.  The word “mitra” means sun.  It also means friend.  When it means sun, it is masculine gender, mitrah.  When it means friend, it is neuter gender, mitram.  The first sentence means that the sun is looking at a friend or the sun is looking at another sun, assuming a second sun were to exist.  The second sentence means that a friend is looking at the sun, or at another friend.  Got it?  There is a famous shloka that I am not going to burden you with now.  It says that a “mitram” is someone you work with.  A “sakhaa” is someone you share kinship of heart with, a true friend.  A “bandhu” is someone from whom you cannot bear to be separated.  A “suhrida” is someone who is always devoted to you.  A “baandhava” is someone who accompanies you to the king’s palace and to the cremation-ground (when you are dead).

Kalidasa was a great Sanskrit poet and we will return to Kalidasa’s poetry later.  One of his poems is titled “Raghuvamsha” and is about the lineage of Raghu, Rama’s ancestor.  That is the reason Rama is also known as Raghava.  Raghu’s son was Aja and his queen was Indumati.  When Indumati died, Aja lamented and that lamentation is often cited.  In the first part of this lamentation, Aja describes Indumati as grihini (housewife), sachivah (adviser), sakhi (feminine of sakhaa) and mitah (mitram).

Back to words and their meanings.  I have given you an image and it is one that all of you will be able to identify.  It is an image of the Bhagavad Gita and we have Krishna and Arjuna on the chariot.  Can you detect anything wrong in this picture?  Arjuna had several names and one of these was Savyasachi.  When I ask people why Arjuna was called Savyasachi, they invariably say this was because he was ambidextrous.  “Savya” actually means left and Arjuna was known as Savyasachi because he was left-handed.  The Mahabharata doesn’t tell us that he was ambidextrous.  That’s a deduced or derived meaning.  Therefore, contrary to every depiction that you see of Arjuna, the bow should be held in the right hand and he should be taking the arrow out with the left.  “Asavya” or “dakshina” means right.  And “dakshina” also means south.  In many societies and cultures, the left side is inauspicious.  Take the word “sinister” for example.  It means inauspicious.  But it originally meant the left-side.  Have you done a “pradakshina” of temples?  Why do we do this clock-wise?  Why not counter clock-wise?  If you do it clock-wise, the deity will always be on your right.  If you do it counter clock-wise, the deity will be on your left.

The word “vaam” means left and the word “vaamaa” means lady or wife.  But do not take this to mean that a woman in inauspicious.  Look at all the images of Shiva-Parvati that you can find.  Or Lakshmi-Narayana.  You will always find Parvati to Shiva’s left and Lakshmi to Narayana’s left.  There is one exception though.  Sometimes, there are depictions of Shiva and Parvati’s marriage.  In those cases, you will find Parvati to Shiva’s right before the marriage and to Shiva’s left after the marriage.  Therefore, by looking at the image, you will be able to determine whether the marriage has happened or not.  Next time you have a picture taken, be careful, depending on whether it is a spouse or a girl friend/boy friend.

Sanskrit is rich in words and vocabulary.  But there are some English words for which a satisfactory Sanskrit term is difficult to find.  Take “boredom”.  It is difficult to find a good Sanskrit term for boredom.  You will find a word like “avinoda”, but that’s an approximation.  It is not quite boredom.  You will never be bored in Sanskrit.

By the end of this course, you should be able to read the Bhagavad Gita (BG) in Sanskrit on your own.  You won’t be able to understand everything, because in addition to Sanskrit, you need to know some concepts.  However, with a dictionary to help, you shouldn’t have any problems with the Sanskrit of BG.  Try it out just now.  Check out 1.31, 6.37, 11.32 and 13.28 and see it you can identify the verb and the subject.  The first number refers to the chapter number and the second number to the shloka number.  You won’t understand much else of the shlokas yet.  But the fact that you understand some parts in Sanskrit should give you confidence.




त्वमेव माता  पिता त्वमेव।  त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।


त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव।  त्वमेव सर्वं मम देव देव॥

अगर आप हिंदी समझते हैं तो इस श्लोक को समझने में अधिक प्रयास नहीं करना पड़ेगा । "एव" का अर्थ बताना थोड़ा कठिन है । यह किसी बात पर अधिक जोर देने के लिए प्रयोग होता है । यह प्रार्थना उस सर्वशक्तिमान को है । तुम्ही माता हो, तुम्ही पिता भी हो । तुम्ही हो बधु और सखा भी तुम्ही हो । तुम्ही विद्या और तुम्ही मेरी समृद्धि हो । तुम ही सब कुछ हो । जब भी मैं किसी से "बंधू" का मतलब पूछता हूँ, वे कहते हैं, मित्र । संस्कृत में बंधू का मतलब मित्र भी होता है परन्तु अगर "बंधू" यहाँ पर मित्र है तो हम यहाँ दो बार मित्र क्यों कह रहे हैं ? संस्कृत मैं शब्दों के कई अर्थ होते हैं और संस्कृत पढ़ते समय हमें सही अर्थ जानने के लिए सचेत रहना चाहिए । अपने आप किसी शब्द का अर्थ वाक्य में ना लगा कर पहले शब्दकोष से सन्दर्भ लेना चाहिए । "बंधू" का प्राथमिक अर्थ "मित्र" नहीं अपितु संबधी(सगा संबधी) होता है और इसी अर्थ को इस श्लोक में भी लिया गया है । भगवद गीता में किसी भी भाग में कृष्ण और अर्जुन एक दुसरे को "बंधू" कह कर सम्बोधित नहीं करते क्योंकि वे सगे सम्बन्धी नहीं हैं । वे एक दुसरे को "सखा" सम्बोधित करते हैं ।


"बांधव" क्या होता है ? एक बार फिर ध्यान "मित्र" या "सम्बन्धी" की ओर जाता है, और यह गलत भी नहीं हैं परन्तु "बांधव" का सही अर्थ ऐसा सम्बन्धी होता है जो खून से न जुड़ा हो ।  जैसे समधी, वधू । कृष्ण और अर्जुन "बांधव" हैं । अब एक भ्रमित करने वाला वाक्य ।



मित्रमित्रम पश्यति। मित्रम मित्रम पश्यति।

इन दो वाक्यों में क्या अंतर है? यह वाक्य आपको भ्रमित करने के लिए हैं और उम्मीद है की आप भ्रमित हो गए हैं । "मित्र" का अर्थ होता है "सूर्य" तथा सखा/दोस्त  । "मित्र" का अर्थ "सूर्य" होने पर यह पुल्लिंग(मित्रः) होता है और "सखा" होने पर नपुंसकलिंग(मित्रम) होता है । प्रथम वाक्य का अर्थ है की सूर्य, मित्र की ओर देख रहा है अथवा एक सूर्य, दुसरे सूर्य की ओर देख रहा है (अगर एक और सूर्य हो तो) । दुसरे वाक्य का अर्थ है की मित्र, सूर्य की ओर देख रहा है अथवा मित्र, मित्र की ओर देख रहा है । एक प्रसिद्ध श्लोक है जो मैं यहाँ नहीं लिख रहा हूँ, यह श्लोक बताता है की "मित्रम" का अर्थ है साथ काम करने वाला, "सखा" वो है जिसके साथ आपका हार्दिक प्रेम हो, एक सच्चा दोस्त, "बंधू" वो है जिससे आप अलग नहीं हो सकते, "सुहृदय" वो है जो आपको समर्पित है और बांधव वो हैं जो आपका शमशान तक साथ देते हैं ।

कालिदास एक महान कवि थे । "रघुवंश" उनकी रचनाओं में से एक है और रघु की वंशावली के बारे में है जो की श्री राम के पूर्वज थे । यही कारण है की श्री राम को राघव भी कहते हैं । रघु के पुत्र थे अज और उनकी रानी का नाम था इंदुमती । जब इंदुमती की मृत्यु हुई तो विलाप करते हुए अज ने इंदुमती को गृहणी, सचिव, सखी और मितः वर्णित किया ।


अब शब्दार्थ देखते हैं । जो छवि आप देख रहे हैं उसे पहचानना कठिन नहीं । यह भगवद गीता है तथा कृष्ण और अर्जुन रथ पर हैं । क्या आप इस छवि के कुछ गड़बड़ देख सकते हैं? अर्जुन के बहुत से नाम थे, "सव्यसाची" उनमे से एक था । जब मैं किसी से पूछता हूँ की अर्जुन को सव्यसाची क्यों कहते हैं तो हमेशा ही यह उत्तर मिलता है की अर्जुन "उभयहस्त" थे, यानि वे दो ही हाथो से, समान दक्षता से धनुष चला सकते थे ।  "सव्य" का अर्थ होता है बांया और अर्जुन "सव्यसाची" थे क्योंकि वह बाए हाथ से धनुष चलाते थे । महाभारत यह कहीं नहीं दर्शाती की अर्जुन उभयहस्त थे । यह एक मनगढंत अर्थ है । इसलिए अर्जुन के किसी भी चित्रण के विपरीत अर्जुन का धनुष दांये हाँथ में होना चाहिए और तीर बांये हाँथ में । "असव्य" या "दक्षिण" का अर्थ दांया होता है और "दक्षिण" दिशा भी होती है । बहुत सी संस्कृतियों में बांये को अशुभ माना जाता है । अंग्रेजी शब्द "सिनिस्टर" का अर्थ होता है अशुभ परन्तु मूल रूप से इसका अर्थ "बांया" होता है । क्या आपने मंदिर में प्रदक्षिणा करी है ? हम प्रदक्षिणा हमेश बांयी ओर से क्यों करते हैं? दांयी ओर से क्यों नहीं? जब हम बांयी ओर से प्रदक्षिणा देते हैं तो पूज्य हमारे दांयी ओर होते हैं और अगर हम इसे दांयी ओर से प्रदक्षिणा दें तो पूज्य हमारे बांयी ओर होंगे ।


संस्कृत, शब्द और शब्दावली समृद्ध है परन्तु अंग्रेजी के कुछ शब्दों के लिए संस्कृत अनुवाद मिलना कठिन होता है । जैसे "boredome" । संस्कृत में इस शब्द का  पर्यायवाची मिलना कठिन है । "अविनोद" पर्यायवाची तो नहीं परन्तु सन्निकट है । आप संस्कृत में कभी "bore" नहीं हो सकते।



Credit: Shri Bibek Debroy
Content is provided as is without any alteration but with translation in hindi and with minor additions wherever needed.

Saturday, June 16, 2018

रोचक संस्कृत - ३

Sanskrit tidbit 3

Some of you may know that I am translating the Mahabharata in unabridged form, from Sanskrit to English.  Some of the action of the Mahabharata takes place in Hastinapura (Hastinaapura), the capital of the Kuru dynasty.  Hastinapura is roughly 40 km away from Meerut.  It is a real place.  There is a belief that the city owed its name to a king named Hasti, but there is another explanation too.  The word “hastin” means elephant.  “Pura” means city.  Therefore, there must have been a lot of elephants in Hastinapura, for the city to have obtained that name.  At the time of the Mahabharata, elephants were used quite a lot, including in the Kurukshetra War.  The word “naga” (naaga) has several meanings and one of these is elephant.  The word “gaja” also means elephant.  “Sahvya” (saahvya) is not a common Sanskrit word. You won’t find it in any of the standard dictionaries.  However, “sahva” means “called” or “named”.  Most people have heard of Hastinapura.  Unless you have read the Mahabharata very carefully, you may not know the Mahabharata also refers to Hastinapura as Nagasahvya and Gajasahvya.  Nagasahvya and Gajasahvya simply meant places named after elephants and the words are synonyms for Hastinapura.  The word “varana” (vaarana) also means elephant and in some rare instances, Hastinapura is also called Varanasahvya.

There is someone named Abhinav Agarwal.  He is a very serious and careful reader of the Mahabharata and that applies to my translation too.  However, he reads it in the English translation, not the Sanskrit.  Abhinav asked me a question.  Why does the Mahabharata refer to Hastinapura as Nagasahvya and Gajasahvya and why does it never refer to the city as Nagapura or Gajapura?  Nagapura and Gajapura are also logical names.  By the way, Abhinav is factually correct.  The words Nagapura and Gajapura are never used.  The question stumped me.  I had never thought about it.  Having thought about it, I got the answer.  Or at least, I think I have.  But before giving you the answer, I need to digress.


रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे

raamo raajmanih sadaa vijayate ramam ramesham bhaje |

रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः

raamenabhihtaa nishaacharchamu ramay tasmay namah ||

रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहम्
ramannasti paraynam partaram ramasya daasosmyaham |
रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर
rame chittalayah sadaa bhavatu me bho raam maamuddhar ||


What I have given you above is a small part from the “Sri Rama Raksha Stotram”, believed to have been composed by the sage Budha Koushika.  It is a prayer to Rama.  Since you still don’t know sandhi and how to break up words, this may seem difficult to understand.  But you will get the sense.  Let’s take it bit by bit.  Rama, a jewel (mani) among kings, is always victorious.  I worship Rama Ramesha.  Why is Rama also Ramesha?  Rama is an incarnation of Vishnu.  Ramaa is Lakshi, Vishnu’s consort.  Therefore, Ramesha, Ramaa’s lord, is Vishnu, or Rama.  Nishaacharas are those who wander around (chara) in the night (nishaa) and Rama destroyed their army (chamu).  I am bowing down before Rama.  There is no refuge or resort (paraayana) superior (paratara) to Rama.  I am Rama’s servant (daasa).  May my mind (chitta) always (sadaa) be dissolved in Rama.  Oh, Rama!  Save me. Taken bit by bit, it should be clear now.

Sanskrit is deceptive.  Sanskrit poets were clever and there is always something hidden somewhere.  Appearances are deceptive and it’s a bit like an onion with several layers.  Having understood the prayer, let’s take a closer look.  If you want, take out the vibhakti table for the masculine gender (Rama) and focus only on the singular.  Forget the dual and the plural.  Now blank out everything else and look at the terms in the prayer that have Raama.  There is Raamah, Raamam, Raamena, Raamaaya, Raamat, Raamasya, Raame and Raama.  In that prayer, the poet has given you the masculine gender (actually the “a”-kaaraanta type) singular vibhakti table.  Poetry and prayers are easier to remember.  Perhaps this is a way for you to remember the vibhakti table too.

There is a very rich tradition of Sanskrit prosody (cchanda).  In a more advanced blog, we will revisit it and you will find the binomial theorem, Pascal’s triangle and even the Fibonacci series in such texts.  For the moment, there is a notion of syllable (akshara) and syllables are laghu (light) or guru (heavy).  Let’s call these L and G.  There are rules on how syllables are formed.  For example, no syllable should have more than one vowel.  If that vowel is a, i, u, r or l, the syllable is L.  Otherwise, it is G.  A syllable with aa will be G and so on.  You won’t yet be able to break up poetry into syllables.  Be patient and wait for that expertise.  But you should be able to understand what I am doing.  Let me now break up the first line of the prayer into syllables, as shown below.  As G and L, the structure is GGG LLG LGL LLG GGL GGL and G.  (In analysis and discussion of Sankrit prosody, the convention is to cluster the syllables into groups of 3, GGG, LLG and so on.)  There are 19 syllables in this first line.  But the point is this.  If I analyze any of the other lines, even from parts of the Sri Rama Raksha Stotram that I have not reproduced, you will always find 19 syllables.  And the pattern will always be GGG LLG LGL LLG GGL GGL G.  Depending `on how the G-s and L-s are chosen, I have different kinds of metres.  This particular one is called “shardulavikridita” or tiger’s play.  If I am a good poet, once I have picked a metre, I must stick with it throughout the poem, even if I am composing an extremely long poem.

raa mah raa ja ma nih sa daa vi ja ye te raa mam ra me sham bha je

Let’s get back to Hastinapura, Nagasahvya and Nagapura.  Syllable-wise, the structure of Nagapura is GLL-L.  The structure of Hastinapura is GLG-LL and the structure of Nagasahvya GLG-LL.  Nagapura is a synonym for Hastinapura in meaning.  It is not a synonym for Hastinapura in structure of syllables.  Using Nagapura or Gajapura would have broken the metre.  Use of Nagasahvya or Gajasahvya retains the metre.  I am not a great Sanskrit scholar, but I think I have the right answer.  Isn’t there great beauty in this?

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इस व्याख्यान के लेखक, बिबेक देबरॉय, महाभारत के संस्कृत से अंग्रेजी अनुवाद पर काम कर रहे हैं । महाभारत का कर्मक्षेत्र हस्तिनापुर रहा है जो कि कुरु वंश कि राजधानी था । हस्तिनापुर मेरठ से ४० किमी दूर है । कहा जाता है कि इस जगह का नाम हस्तिनापुर यहाँ के राजा हस्ती के नाम पर पड़ा है । एक व्याख्या यह हो सकती है कि "हस्तिन" का अर्थ होता है हाथी और "पुरा" यानी शहर । यहाँ हाथियों कि अधिकता रही होती जिसके कारण यह नाम पड़ा । महाभारत के समय में हाथियों का प्रयोग बहुत अधिक था, कुरुक्षेत्र के युद्ध में भी । शब्द "नाग" के कई अर्थ हैं और हाथी उनमे से एक है । "गज" का अर्थ भी हाथी होता है । "साह्वय" ऐसा शब्द है जो संस्कृत साहित्य में आम नहीं है और इसका किसी शब्दकोष में मिलना भी कठिन ही है । "साहव" का अर्थ होता है सम्बोधन । अधिकतर लोगों ने हस्तिनापुर सुना होगा । अगर आपने महाभारत ध्यान से नहीं पढ़ी तो आप नहीं जानते होंगे कि हस्तिनापुर को नागसाह्वय या गजसाह्वय भी कहा गया है । दोनों ही नाम हाथी से सम्बंधित हैं तथा हस्तिनापुर के पर्यायवाची हैं । शब्द "वारन" का अर्थ भी हाथी होता है और कहीं कहीं हस्तिनापुर को वारनसाह्वय भी कहा गया है ।

एक व्यक्ति हैं जिनका नाम अभिनव अग्रवाल है । वह बहुत गंभीर और देखभाल कर महाभारत पढ़ने वालो में से हैं और ऐसे ही बिबेक देबरॉय भी हैं(इस व्याख्यान के लेखक) । अभिनव महाभारत का अंग्रेजी अनुवाद पढ़ते हैं, संस्कृत नहीं । अभिनव ने एक प्रश्न किया । महाभारत में हस्तिनापुर को नागसाह्वय और गजसाह्वय क्यों कहा गया है, नागपुर या गजपुर क्यों नहीं ? यह भी तार्किक नाम हैं । इस प्रश्न से मैं अवाक् रह गया । मैंने इसके बारे में सोचा नहीं था पर चिंतन करने पर उत्तर मिल गया (कम से कम मुझे ऐसा ही प्रतीत होता है) । इसका उत्तर बताने से पहले मैं आपको कुछ और बताना चाहता हूँ ।

रामो राजमणिः सदा विजयते रामं रमेशं भजे 
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नमः 
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोऽस्म्यहम् 

रामे चित्तलयः सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर 

यह "श्री राम रक्षास्तोत्रम" का एक छोटा सा भाग है । माना जाता है कि इसे ऋषि "बुद्ध कौशिक" ने रचा था । यह प्रार्थना प्रभु राम को समर्पित है । अगर आपको संधि-विच्छेद का ज्ञान नहीं है तो इसे समझना थोड़ा कठिन हो सकता है । राम, राजाओ में मणि जैसे, हमेशा जीतने वाले । मैं उन राम रमेश कि अर्चना करता हूँ । राम, रमेश कैसे हैं ? प्रभु राम, विष्णु के अवतार हैं । रमा, लक्ष्मी जी हैं, जो कि विष्णु कि भार्या हैं । इसलिए रमा के इष्ट विष्णु, रमेश या राम । "निशाचर" वो जीव/प्राणी जो रात्रि में विचरण करते (घुमते) हैं । राम उनकी सेना(चमू) को ध्वस्त करते हैं । राम को मेरा नमन । राम से अच्छी कोई शरण नहीं । मैं राम का दास हूँ । राम सदा मेरे चित्त (ह्रदय) में बसें । हे राम ! मेरा उद्धार करो । 

संस्कृत एक भ्रामक भाषा है । संस्कृत के रचनाकार बहुत ही चतुर थे, संस्कृत साहित्य में हर शब्द में कुछ छुपा हो सकता है । संस्कृत के लेख की दिखावट भ्रामक हो सकती है ।यह एक प्याज कि तरह कई परतों में  होता है । हमने प्रार्थना तो समझ ली, चलिए अब थोड़ा अधिक ध्यान से निरिक्षण करते हैं । चाहे तो "राम" की विभक्ति सारणी देख सकते हैं, एकवचन के लिए, द्विवचन और बहुवचन को अनदेखा कर सकते हैं । अब प्रार्थना के उन शब्दों को पुनः देखते हैं जिनमे राम है । रामः, रामम, रामेणा, रामया, रामात, रामस्य, रामे और हे राम/भो राम । इस प्रार्थना में रचनाकार ने पुल्लिंग (अकारान्त)एकवचन विभक्ति सारणी बताई है । यह विभक्ति याद रखने की लिए प्रयोग किया जा सकता है ।


संस्कृत छंदशास्त्र बहुत ही समृद्ध है । आगे के छंदो में हम द्विपद प्रमेय (binomial theorem), मेरुप्रस्तार/हलायुध त्रिकोण (pascal's triangle), हेमचन्द्र संख्या(fibonacci sequence) भी देखेंगे । आरम्भ के लिए, सबसे छोटा अक्षर होता है तथा अक्षर लघु(ल) या गुरु(ग) होते हैं । अक्षर की रचना के भी नियम होते हैं जैसे : किसी भी अक्षर के साथ एक से अधिक स्वर नहीं हो सकते । अगर वह स्वर 'अ', 'इ', 'उ', 'र' या 'ल' है तो अक्षर लघु अथवा गुरु होगा ।  किसी अक्षर के साथ 'आ' होने पर वह गुरु होगा आदि । अभी आप किसी श्लोक को अक्षरों में नहीं बदल पाएंगे पर समझ सकेंगे । अब मैं प्रार्थना की पहली पंक्ति को अक्षरों में बदलता हूँ । लघु को 'ल' और गुरु को 'ग' मानकर जो संरचना बनेगी वो ऐसी होगी



ग ग ग - ल ल ग - ल ग ल - ल ल ग - ग ग ल - ग ग ल - ग 


(छंदशास्त्र की विश्लेषण में अक्षरों को सामान्यतया ३ के समूह में रखा जाता है ।) यहाँ प्रथम पंक्ति में १९ अक्षर हैं । यहाँ समझने वाली बात यह है की अगर आप "श्री राम रक्षास्तोत्रम" के किसी और भाग(पंक्ति) का विश्लेषण करेंगे (वो पंक्तियाँ भी जो यहाँ नहीं लिखी हैं) तो भी सदैव १९ अक्षर ही मिलेंगे और उनका स्वरुप भी ग ग ग - ल ल ग - ल ग ल - ल ल ग - ग ग ल - ग ग ल - ग  रहेगा । विभिन्न प्रकार के श्लोक गुरु और लघु अक्षरों के विभिन्न स्वरूपों पर आधारित होते हैं ।  यह श्लोक "शार्दूलविक्रीड़ित" है । एक अच्छा लेखक अपनी रचना को एक  ही स्वरुप में रखता है चाहे वो रचना कितनी भी बड़ी हो ।

रा मः रा ज म णिः स दा वि ज य ते रा मम् र मे शम् भ जे ।

अब बात करते हैं हस्तिनापुर के बारे मे ।
"नागपुर" मे अक्षरों का स्वरुप है: ग ल ल - ल ।
"हस्तिनापुर" मे अक्षरों का स्वरुप है : ग ल ग - ल ल
"नागसाह्वय" मे अक्षरों का स्वरुप है : ग ल ग - ल ल
नागपुर, हस्तिनापुर का पर्यायवाची है परन्तु केवल शाब्दिक अर्थ मे । यह अक्षरों के स्वरुप मे हस्तिनापुर का पर्यायवाची नहीं है । नागपुर या गजपुर का प्रयोग श्लोक की ताल को भंग कर देता । नागसाह्वय या गजसाह्वय के प्रयोग से श्लोक का स्वरुप बना रहता है । मैं संस्कृत का पंडित तो नहीं परन्तु मुझे लगता है की यह उत्तर सही है ।

Credit: Shri Bibek Debroy
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