Sanskrit tidbit 5
Pronunciation is extremely important in Sanskrit. Take the sentences below and you are saying
“I am so and so”. Those are all proper
names, Kamini, Charu, Tintin, Tanika and Parimala. How will you pronounce “aham”? You will be tempted to say “aham” as in with
“m”, but you will be wrong. Sanskrit
flows seamlessly like water and that also explains many of the rules of
grammar.
अहम् कामिनी। अहम् चारु। अहम् टिनटिन। अहम् तनिका। अहम् परिमळ।
Letters are grouped into different classes, क वर्ग, च वर्ग, ट वर्ग, त वर्ग, प वर्ग and so on. क वर्ग letters
are pronounced from the throat, च वर्ग letters
are pronounced from one part of the palate, ट वर्ग letters are pronounced from another part of
the palate, त वर्ग letters
are pronounced from the base of the teeth and प वर्ग letters are pronounced from the lips. That is the tongue occupies different places
within the mouth. If the म in अहम् is pronounced as म, the tongue will have to move to a different
position to pronounce कामिनी and there
will be a break in speaking. Therefore,
in अहम् कामिनी,
the म will be
pronounced as ङ. In अहम् चारु, the म will be pronounced as ञ. In
अहम् टिनटिन,
the म will be
pronounced as ण. In अहम् तनिका, the म will be pronounced as न. And
of course in अहम् परिमळ, the
म will be
pronounced as म. The tongue doesn’t have to move and speech
flows easily. Do you get the idea?
If you make mistakes in pronunciation, the consequences can be disastrous,
probably much more than in English. Take
the words स्वजनाः श्वजनाः. The former means one’s own people, that is,
one’s relatives. The latter means the
relatives of a dog, since shvān is a dog.
If you invite me to dinner and ask me to bring my स्वजनाः, I will bring my relatives. But if you ask me to bring my श्वजनाः, I will bring my dog and his friends.
I think you should begin to read some of Adi Shankaracharya’s (788-820 CE)
stotrams. The Sanskrit, though not always the philosophy, is easy to
understand and they constitute beautiful poetry, easy to learn and
memorize. The one I am going to quote
from is called चर्पट पञ्जरिका, पञ्जरिका means a cage and चर्पट is a tattered piece of cloth. The idea is that, in our pursuit for the
irrelevant, we are caging ourselves in a tattered piece of cloth. The stotram has 18 shlokas. Some of it requires an understanding of
grammar forms we still aren’t familiar with.
But here is one shloka that should be crystal clear. I have only broken
up the sandhi to make it easier.You shouldn’t have any problems. But here is what it says. The limbs have decayed. The head is grey. The mouth is bereft of teeth. The old man is walking with a stick. But the mass of desire still doesn’t free
him.
अङ्गम् गलितं पलितं मुण्डम् दशनविहीनम् जातं तुण्डं
वृद्धः याति गृहित्वा दण्डम् तदपि न मुञ्चति आशापिण्डम् !!
This stotram has a more famous shloka too and this is the following. This has verb forms we are still not familiar
with, such as the imperative (bhaja) instead of bhajasi. But you will probably get the general
sense. O foolish person! Worship Govinda. When death is near, you will not be saved by डुकृञ्करणे !
भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भजमूढमते
संप्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ्करणे
I have you the shloka because of the डुकृञ्करणे bit.
What does it mean? I don’t think
it is a very poetic expression. But let
that be. There are two kinds of verbs in
Sanskrit, परस्मैपद (PP) and आत्मनेपद (AP).
PP is when I do something for someone else. So if I cook for someone else, it will be पचामि. However,
if I cook for myself, it will be AP and पचे. So
far, you are only familiar with PP verbs.
AP will come. But I have been a
bit inaccurate. There are verbs that can
be both PP and AP and these are called उभयपद (UP).
The verb “to do” (कृ) is one
such. It is UP and can adopt both PP and
AP forms. डुकृञ्करणे means the two forms of the verb कृ. When
death is near, knowing about the two forms of the verb isn’t going to save
you. And the expression is really being
used as an instance of grammar. That is
when death is near, knowledge of grammar isn’t going to save you. There is a story about how Shankacharya came
to compose the stotram, during his stay in Varanasi. He saw an old man, struggling with the rules
of Panini’s grammar. I thought I would
mention this, because I have been cautioning you not to get too bogged down by
grammar, especially mugging it up. I am
not suggesting you only worship Govinda instead. After all, you are interested in learning
Sanskrit. However, go easy on the
grammar.
Mihir Jha gave me a shloka that seems to run counter to this proposition. Here it is.
It is in the imperative form again and is being addressed to a son. O son!
Even if you do not study a lot, do study grammar, so that you do not get
confused between स्वपचः श्वपचः, सकळः शकल: and सकृत् शकृत्. Of
this, सकळः is the
entire part, while शकल: is a
fragment. सकृत् means
once, or a person who is acting at once or immediately. But शकृत् is fertilizer or dung. स्वपचः is someone who cooks for himself. I will revisit श्वपचः next week, because I don’t like the
translation I am giving today. For
today, श्वपचः means
someone who cooks and eats dogs. Do we
really have two shlokas that are opposite in intent? I don’t think so. Though Mihir’s shloka mentions grammar, I
think it is more about correct pronunciation.
On grammar, as I have said, go easy.
यद्यपि बहुषु नाधीषे तथापि पुत्र पठ व्याकरणम्
स्वपचः श्वपचः मा भूत सकळः शकल: सकृत् शकृत्!
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संस्कृत में उच्चारण का बहुत महत्व है । नीचे दिया गए वाक्य को पढ़िए । ये सभी नाम हैं, कामिनी, चारु, टिनटिन, तनिका और परिमल । आपने "अहम्" का उच्चारण कैसे किया ? आप "अहम्" का अंत 'म' से करेंगे परन्तु वो अनुचित होगा । संस्कृत जल की तरह निर्बाध प्रवाहित होती है और यह व्याकरण के नियमो से भी पता चलता है ।
अहम् कामिनी। अहम् चारु। अहम् टिनटिन। अहम् तनिका। अहम् परिमळ।
सभी अक्षर विभिन्न समूहों में वर्गीकृत होते हैं, कवर्ग, चवर्ग, टवर्ग, तवर्ग, पवर्ग आदि । कवर्ग अक्षरों का उच्चारण कंठ से होता है, चवर्ग अक्षरों का तालु से, टवर्ग अक्षरों का ऊपरी तालु से, तवर्ग अक्षरों का दांतो के तल से और पवर्ग अक्षरों का उच्चारण होंठो से होता है । इससे यह पता चलता है की जीभ अलग अलग अक्षरों के उच्चारण के लिए मुंह में अलग अलग जगह स्पर्श करती है । अगर "अहम्" में 'म्' का उच्चारण 'म' किया तो कामिनी बोलने के लिए जीभ(जीव्हा) को भिन्न स्थिति में जाना पड़ेगा जिससे उच्चारण का प्रवाह टूटेगा । इसलिए "अहम् कामिनी" में 'म' का उच्चारण 'ङ' होगा । "अहम् चारु" में 'म' का उच्चारण 'ञ' होगा । "अहम् टिनटिन" में यह 'ण' से उच्चारित होगा, "अहम् तनिका" में 'न' और "अहम् परिमल" में 'म' ही उच्चारित होगा । इस तरह से शब्दों के उच्चारण में प्रवाह बना रहता है ।
शब्दों के उच्चारण का दोष विनाशकारी हो सकता है, संभवतया अंग्रेजी से कही अधिक । जैसे की शब्द "स्वजनाः" और "श्वजनाः" ।
स्वजनाः = सगे सम्बन्धी
श्वजनाः = कुत्ते के सम्बन्धी, क्योंकि श्वान का अर्थ कुत्ता होता है ।
अगर आप मुझे अपने घर रात्रिभोज पर "स्वजनाः" के साथ आमंत्रित करते हैं तो मैं अपने रिश्तेदार को साथ में लाऊंगा परन्तु अगर आपने मुझे अपने घर रात्रिभोज पर "श्वजनाः" के साथ आमंत्रित किया तो मेरा कुत्ता और उसके साथी आएंगे ।
आपको आदि शंकराचार्य जी के स्तोत्र पढ़ने चाहिए । मैं यहाँ जिस रचना की बात करने जा रहा हु उसका नाम है चर्पटपञ्जरिका, पंजारिका का अर्थ है पिंजरा और चर्पट का अर्थ होता है फटा पुराना कपड़ा । यह इस बात का व्याख्यान करता है की किस तरह हम व्यर्थ वस्तुओं के पीछे दौड़ते रहते हैं और अपने आप को फटे पुराने कपड़ो में जकड लेते हैं । इस स्तोत्र में १८ श्लोक हैं । कुछ श्लोकों में प्रयुक्त व्याकरण की जानकारी नहीं है परन्तु एक श्लोक है जो पूरी तरह समझ में आ जायेगा । मैं इसमें संधि विच्छेद कर रहा हूँ ताकि आसानी से समझ आ सके ।
अङ्गम् गलितं पलितं मुण्डम् दशनविहीनम् जातं तुण्डं
वृद्धः याति गृहित्वा दण्डम् तदपि न मुञ्चति आशापिण्डम् !!
अर्थ:
अंग काम करना बंद कर चुके हैं, सर के बाल सफ़ेद हो चले हैं और मुँह के दांत भी टूटते जा रहे हैं
छड़ी के बिना चलना अब असंभव हो गया हैं परन्तु आशाओं का साथ अभी भी नहीं छूट रहा ।
एक और प्रसिद्ध श्लोक है जिसके क्रिया पदों के पूरी जानकारी उपलब्ध नहीं है, जैसे "भजसि" की जगह "भज"(अनिवार्य) ।
हे मूर्ख गोविन्द का भजन कर । जब मृत्यु सामने हो तो "डुकृञ्करणे" आपको नहीं बचा सकते ।
भजगोविन्दं भजगोविन्दं गोविन्दं भजमूढमते
संप्राप्ते सन्निहिते मरणे नहि नहि रक्षति डुकृञ्करणे
मैंने यह श्लोक "डुकृञ्करणे" के कारण ही लिया है । आखिर इसका अर्थ क्या है? यह श्लोक पूर्ण काव्यगत भी नहीं लगता । संस्कृत में दो तरह ही क्रियाएं होती हैं - परस्मैपद और आत्मनेपद । परस्मैपद, जब मैं कोई कार्य किसी दुसरे के लिए करूँ । तो अगर मैं किसी के लिए खाना पकाता हूँ तो वह "पचामि" होगा । परन्तु अगर मैं अपने लिए खाना पकाऊं तो वह आत्मनेपद होगा, "पचे" । परन्तु क्रिया के बारे में मैंने अभी तक अशुद्ध/अपूर्ण जानकारी दी है । कुछ ऐसी क्रियाएं हैं जो आत्मनेपदी और परस्मैपदी, दोनों साथ में हो सकती हैं, उन्हें "उभयपदी" कहते हैं । 'कृ' उनमे से ही एक धातु है । उभयपदी होने के कारण यह आत्मनेपदी या परस्मैपदी की तरह व्यवहार कर सकती है । "डुकृञ्करणे" का अर्थ 'कृ' के यह दो रूप हैं । जब मृत्यु सामने होती है तब 'कृ' के दोनों रूपों की जानकारी आपकी जान नहीं बचा सकती और यहाँ 'कृ' धातु को व्याकरण के प्रतीक के रूप में लिया गया है । तात्पर्य यह हुआ कि, जब सामने मृत्यु हो तो व्याकरण का ज्ञान आपकी जान नहीं बचा सकता ।
एक और श्लोक है जिसका अर्थ विपरीत है । यह श्लोक अनिवार्यता दर्शाता है तथा एक पुत्र को सम्बोधित है । हे पुत्र ! अगर तुम बहुत अधिक नहीं पढ़ो तो व्याकरण पढ़ लो ताकि तुम स्वपचः और श्वपचः, सकलः और शकलः तथा सकृत् और शकृत् में भ्रमित न हो जाओ ।
सकलः = पूरा भाग
शकलः = एक टुकड़ा या हिस्सा
सकृत् = एकदा
शकृत् = उर्वरक या खाद
स्वपचः = अपने लिए खाना बनाना
श्वपचः = श्वपचः के बारे में मैं अगली बार बात करूँगा । अभी के लिए श्वपचः का अर्थ है कुत्ते को पकाने और खाने वाला ।
यद्यपि बहुषु नाधीषे तथापि पुत्र पठ व्याकरणम्
स्वपचः श्वपचः मा भूत सकळः शकल: सकृत् शकृत्!
Credit: Shri Bibek Debroy
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