Thursday, July 12, 2018

संस्कृत परिचर्चा - 3

संयोजक: अभिनन्दन शर्मा


Day 3
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श्लोक:
वक्रतुण्ड महाकाय सूर्यकोटि समप्रभ ।
निर्विघ्नं कुरु मे देव सर्व कार्येषु सर्वदा ।।

अर्थ : 
हे टेढ़ी सूंड वाले, विशाल काया वाले, जिनकी प्रभा(तेज)  कोटि सूर्यों के सामान है,
(कृपा करो कि) मेरे सभी कार्य हमेशा निर्विघ्न संपन्न हों ।

भावार्थ: हे श्री गणेश, मेरे सभी कार्य निर्विघ्न पूर्ण हों ।

सुभाषित:
येषां न विद्या न तपो न दानं ज्ञानं न शीलं न गुणों न धर्मः ।
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।।

अर्थ : 
जिन लोगों के पास न विद्या है, न तप है, जो दान नहीं करते, साधु गुण नहीं है और न धर्माचरण करते हैं, वे पृथ्वी पर बोझ की तरह हैं और मनुष्य के रूप में जानवर हैं ।

खग = आकाश मे विचरने वाला
ख = आकाश
ग = गमन करने वाला

मृगा
मृ = मृत्तिका = मिट्टी
मृग = मृत्तिका पे गमन करने वाला = चौपाये

कथा:
नारद जी का अहङ्कार
एक बार महर्षि नारद ने वन मे घोर तप किया । उनके तप से भयभीत होकर देवताओ के राजा इन्द्र ने कामदेव की सहायता से उनके तप को भंग करने का प्रयत्न किया लेकिन महर्षि अपने तप से नहीं डिगे । तपस्या समाप्त कर नारद जी कामदेव और मेनका पर अपनी सफलता  के बारे में बताने के लिए कैलाश पर्वत शिव जी के पास गए क्योंकि वही एक हैं जिन्होंने कामदेव पर विजय प्राप्त की थी । शिव जी समझ गए के नारद जी को अहंकार हो गया है, उन्होंने नारद जी से कहा की मुझे बता दिया पर विष्णु जी को न बताना । अहंकारवश नारद जी समझे की शिव जी उन्हें प्रचारित करने से रोकना चाहते हैं और वे बैकुंठलोक में भगवान् विष्णु के पास गए और कामदेव पर अपनी विजय की गाथा सुनाई । भगवान् विष्णु ने उनके गर्व को दूर करने के लिए अपनी माया से धनधान्य से पूर्ण एक अत्यन्त सुन्दर नगर की रचना की । उस नगर का राजा शिवनिधि था और उसके विश्वरूपा नाम की अत्यन्त रूपवती कन्या थी । राजा अपनी कन्या के लिए स्वयंवर रच रहे थे तो महर्षि नारद से कन्या का हाथ देखकर यह बताने के लिए कहा की उसका विवाह किसके साथ होगा । नारद जी ने हाथ देखा तो पाया की कन्या से विवाह करने वाला अमर हो जायेगा तो उन्होंने यह बात राजा को न बताकर किसी तरह उस सुन्दर कन्या से विवाह करने की उधेड़बन शुरू कर दी । वे भूल गए की वह एक ऋषि हैं ।

नारद जी ने श्री हरि को याद किया और उनके ही रूप की चाह में उन्होंने कहा "मुझे हरि जैसा बना दो" । विष्णु भगवान् तथास्तु कह कर चले गए  परन्तु नारद जी श्री हरि जैसे न होकर बन्दर (हरि का एक और अर्थ) जैसे होने वाले थे । शंकर जी ने अपने दो सेवको को नारद जी के पास उनकी वाह वाही करने के लिए भेज दिया जिससे की उन्हें अपनी कुरूपता का पता न चले । स्वयंवर में कन्या ने नारद जी को न चुन कर श्री हरि की गले में माला डाल दी ।

कारण पूछने पर कन्या ने नारद जी को अपना चेहरा देखने को कहा, जब नारद जी ने अपना चेहरा देखा तो उन्हें क्रोध आया और वे श्री हरि से बोले कि मैंने अपने विवाह कि लिए आपसे रूप माँगा था और अपने मुझे कुरूप बना कर स्वयं विवाह कर लिया । तब भगवान् विष्णु बोले की कुछ दिन पहले मेरे पास कोई आया था और कह रहा था की मैंने कामदेव पर विजय प्राप्त कर ली है, क्या आप जानते हैं उन्हें? इतना सुनते ही महर्षि नारद को अपनी किये का एहसास हुआ की वे अहंकार में अपने ही आराध्य पर क्रोधित हो रहे हैं ।

*इन्द्र:- इन्द्र कोई नाम न होकर एक पद होता है, जिसका भी तप इन्द्र से अधिक हो जाता है वो इन्द्र हो जाता है ।

निष्कर्ष : मनुष्य में श्रेष्ठता के साथ अहंकार आ जाने से ही उसका नाश होता है ।

चर्चा:
कल्प शास्त्र मे ४ सूत्र होते हैं
१ . श्रोत सूत्र (यज्ञ विधि विधान)
२ . गृह्य सूत्र (गृहस्थी के नियम, सोलह संस्कार आदि)
३ . धर्म सूत्र (सामाजिक अचार विचार और संरचना)
४ . शुल्ब सूत्र (यज्ञ ज्यामिति)

लड़कियों के नाम नदियों के नामो पर नहीं रखे जाते क्योंकि नदियां माँ स्वरूपा होती हैं ।

संस्कार:
१. गर्भाधान
२. पुंसवन संस्कार (गर्भाधान के ३ महीने बाद)
३. सीमान्त संस्कार (गर्भाधान के ६-८ महीने मे)
४. जातकर्म संस्कार (बच्चे के पैदा होने पर)
५. नामकरण (११वे दिन)
६. निष्क्रमण
७. अन्नप्राशन (६ महीने बाद)
८. चूड़ाकर्म(मुण्डन) संस्कार (१/३/५ वर्ष बाद)
चूड़ = बाल
शास्त्रों में बालो को पापों का निवासकारी स्थान बताया गया है, जो भी पाप करते हैं वो आपके बालो में आकर बस्ते हैं, यही कारण है के बाल कटवाए जाते हैं ।
९. विद्यारम्भ संस्कार (५ वर्ष)
१०. कर्णभेद संस्कार
११. यज्ञोपवीत संस्कार (८ वर्ष)
१२. वेदारम्भ संस्कार
१३. केशान्त संस्कार
१४. समावर्तन संस्कार
१५. विवाह संस्कार
१६. अंत्येष्टि(अन्तिम) संस्कार

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