Friday, July 6, 2018

रोचक संस्कृत - ६

Sanskrit tidbit 6
 
In the last tidbits, I promised to revisit the word
श्वपचः. If you look it up in a dictionary, you will find various meanings given.  One of these is the one I gave you last week, श्वपचः is someone who cooks and eats dogs, since श्वा is a dog and पच is the act of cooking.  A beauty about the Sanskrit language is that words can have multiple meanings and you can also be innovative about how you to choose to interpret a word.  Just because the words dog and cooking come together, does it necessarily mean that श्वपचः is someone who cooks and eats dogs?  Not necessarily.  It can equally well mean someone who cooks for dogs, that is, someone who keeps dogs, is in the company of dogs and possesses dogs.  Dogs were looked down upon and so were those who kept dogs.  They were regarded as outcastes.  Hence, श्वपचः also means an outcaste.  You will also find such people described as चण्डाल and sometimes people also use the word शूद्र.  I can’t say I like this.  A शूद्र was inside the caste system, a चण्डाल was outside it.  The two terms are different.

Most people have heard about the sage
विश्वामित्रः and his quarrel with the sage वशिष्ठः It is by no means obvious that these were individual proper names, as opposed to family names, so that there may have been several sages named विश्वामित्रः and several sages named वशिष्ठः There are many stories about Vishvamitra and he was prone to anger.  However, in all these stories, we are never told what the word विश्वामित्रः  means.  If I asked you to guess, you would probably think that it has something to do with विश्व (universe) and अमित्र (enemy).  That is, he was so named because he was an enemy to the entire universe and had no friend in the universe.  Perhaps, but his anger and feud with वशिष्ठः apart, Vishvamitra never did anything to warrant such a description.  (In fairness, you can also interpret Vishvamitra to mean that he was a friend to everyone in the universe.)  I have already told you that श्वा is a dog and मित्रम् means friend.  A friend to dogs will therefore be called श्वामित्रः We now come to something in Sanskrit known as उपसर्ग.  These are prefixes and there are 22 of these.  We will learn about them later.  उपसर्ग-s are delightful things.  Sometimes, they reinforce the meaning of the original word.  Sometimes, they change the meaning of the original word.  Sometimes, they reverse the meaning of the original word.  Anyway, one such upasarga is वि and this means distinct, different, special.  Hence, विश्वामित्रः is a special friend of dogs.  When I have mentioned this to Sanskrit scholars, and I am not one, they are aghast.  Yet, no one has told me why I am grammatically wrong and why my speculation is impossible.  And so that you are convinced, Shanti Parva of Mahabharata has a story about Vishvamitra cooking, though not actually eating, dog-meat.  And so that you are convinced even more, his sons were named शुन:पुच्छः (dog’s tail) and शुन:शेपः (dog’s penis).  Whether you agree with me about my meaning for विश्वामित्रः is irrelevant.  You will have to agree that I have proved that you can be extremely innovative with Sanskrit.

शुष्कं काष्ठं तिष्ठति अग्रे !

A dry piece of wood is in front.  I have mentioned the great poet Kalidasa earlier.  There are many legends about him.  It has been impossible to date him satisfactorily.  He was a poet in King Vikramaditya’s court.  Many kings named themselves Vikramaditya, so we don’t quite know which King Vikramaditya this one was.  This was probably a king who ruled in Ujjain.  Some others say that the king in question was King Bhoja, whose capital was Dhara (Dhaaraa).  Whichever king it was, the king loved Kalidasa and his poetry and this was resented by other poets who wished to challenge Kalidasa’s supremacy.  One day, King Bhoja (or Vikramaditya) pointed to a dry piece of wood in front and asked one of the challenger-poets to describe it.  The sentence above is what this challenger-poet produced.  When it came to Kalidasa’s turn, he produced
नीरसः तरूवरः पुरतः भाति.  The words have exactly the same meaning.  But you can see how they have got transformed.  One is poetry, the other is not.

There is a story that once, King Bhoja and Kalidasa had a disagreement and Kalidasa left Dhara and went to live somewhere else.  While he was there, a message was brought to him that King Bhoja had died.  Kalidasa was distraught and composed the following shloka.  Though they had quarreled, Kalidasa still retained a lot of affection for King Bhoja.

अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती

पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवं गते


Today, Dhara is without a foundation (aadhaara).  The goddess Sarasvati is without support (aalamba).  All the learned men are disappointed or abandoned (khandita).  King Bhoja has gone to heaven.

A beautiful shloka, but there was a problem.  King Bhoja hadn’t actually died, that was wrong information.  When Kalidasa realized that he had been misled, he rejoiced.  As for the shloka, did it have to be abandoned?  Not quite.  Kalidasa changed it to the following.  A little bit of tweaking and the entire meaning changes.  With King Bhoja having gone to earth, Dhara always has a support and the goddess Sarasvati always has a support.  All the learned men are adorned.

अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती

पण्डिताः मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवं गते


You will say that it needed a Kalidasa to do this.  That’s undoubtedly true.  But you also needed the Sanskrit language to do this.  There are very few languages in the world where you could have done this.  That’s the beauty of Sanskrit.
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पिछली बार हमने "श्वपचः" पढ़ा था । अगर आप शब्दकोष में देखे तो इसके कई अर्थ मिलेंगे जिनमे से एक पिछली बार मैंने आपको बताया था, श्वपचः यानी जो कुत्ता पकाता और खाता है । 'श्वा' का अर्थ होता है 'कुत्ता' और 'पच' होता है पकाने की क्रिया । संस्कृत की सुन्दरता यह है की शब्द के कई अर्थ हो सकते हैं और शब्द के अर्थ के अनुसार भावार्थ बदल सकते हैं । क्या 'कुत्ता' और 'पकाना' जैसे शब्द आने से श्वपचः कर अर्थ कुत्ता पकाने और खाने वाला हो गया? यह आवश्यक नहीं । इसका अर्थ यह भी हो सकता है की वह जो कुत्तो के लिए खाना बनाता हो, यानी, जो कुत्ते पालता हो, कुत्तो के साथ रहता हो और जिसके पास कुत्ते हों । कुत्तों को पहले  हीन समझा जाता था और साथ ही उन्हें भी, जो कुत्ते रखते थे । ऐसे लोगो को निर्वासित माना जाता था इसलिए श्वपचः कर अर्थ बहिष्कृत भी  होता है । ऐसे लोगो की व्याख्या चाण्डाल और कभी कभी शूद्र भी मिलती है । ऐसा नहीं की ये मुझे अच्छा लगता है, एक शूद्र जातिगत होता है जबकि चाण्डाल जाति बहिष्कृत होता है, दोनों शब्द भिन्न हैं ।


आपने ऋषि विश्वामित्र के बारे में और ऋषि वशिष्ठ से उनके झगडे के बारे में अवश्य ही सुना होगा । इस बात की कोई स्पष्टता नहीं है की यह केवल नाम थे और इसलिए ऐसा हों सकता है की विश्वामित्र और वशिष्ठ नाम के कई ऋषि हुए हों । विश्वामित्र के बारे में कई कहानिया है जिनमे उनके गुस्से का उल्लेख है परन्तु इन कहानियों में कही भी विश्वामित्र का अर्थ नहीं बताया गया है । अगर मैं आपसे इसका अर्थ पूछूं तो आप संभवतया अनुमान लगाएंगे की यह विश्व और अमित्र से मिलकर बना है क्योंकि वे पूरे संसार से रूठे रहते थे और उनका कोई मित्र नहीं था । ऐसा हो सकता है, परन्तु ऋषि वशिष्ठ से झगडे से पृथक उन्होंने ऐसा कुछ नहीं किया जिससे उन्हें संसार का अमित्र कहा जाए । 'श्वा' का अर्थ मैंने 'कुत्ता' बताया था तो कुत्तो को साथ रखने वाला या उन्हें पालने वाले को 'श्वामित्रः' कहेंगे । अब हम संस्कृत में उपसर्ग के बारे में जानेंगे । उपसर्ग किसी शब्द से पूर्व लग कर कभी शब्द को प्रबलित करते हैं, कभी उसका अर्थ परिवर्तित करते और कभी उसका प्रतिलोम बना देते हैं । कुल २२ उपसर्ग होते हैं । ऐसा ही एक उपसर्ग है 'वि' और इसका अर्थ होता है विशिष्ट, पृथक, विशेष । तो इस तरह 'विश्वामित्र:', कुत्तो के विशिष्ट मित्र हुए । जब इसके बारे में मैंने संस्कृत के विद्वानों से बात की तो वे भौचक्के रह गए परन्तु अभी तक किसी ने मुझे यह नहीं बताया की क्यों  व्याकरण की दृष्टि से यह अर्थ अनुचित होगा या फिर मेरी परिकल्पना क्यों अनुचित है । ताकि आपको इस अर्थ का विश्वास हो, बता दू कि महाभारत के शांति पर्व  में एक कहानी है जिसमे विश्वामित्र कुत्तो को पकाते हैं परन्तु खाने का कोई उल्लेख नहीं है । विश्वास की दृढ़ता के लिए, उनके पुत्रो के नाम शुनः पुच्छ:(कुत्ते की पूँछ) और शुनः शेपः(कुत्ते का लिंग) थे ।

*संभवतः उन्होंने कुत्ते पाले हुए थे जिनके नाम ऊपर बताये गए हैं तथा जिनके लिए वे खाना पकाते थे ।

शुष्कं काष्ठं तिष्ठति अग्रे !

एक सूखा लकड़ी का टुकड़ा आगे पड़ा है । मैं महँ कवी कालिदास का वर्णन पहले किया है । उनके बारे में कई कहानिया प्रचलित हैं । उनके समय के बारे में ठीक से बताना असंभव है । वह महाराज विक्रमादित्य की सभा में कवी थे । बहुत से राजाओ का नाम विक्रमादित्य था तो यह नहीं पता चलता कि वह कौन से राजा थे ।  कालिदास वाले, संभवत: उज्जैन कि राजा थे । कुछ लोग कहते हैं की जिनकी यहाँ बात हो रही है वे राजा भोज थे, जिनकी राजधानी 'धारा' थी । वह जो भी राजा रहे हों, महाराज को कालिदास और उनकी कविताएं बहुत प्रिय थीं । इस बात से दुसरे कवी अप्रसन्न रहते थे, जिन्होंने कालिदास की श्रेष्ठता को चुनौती भी देनी चाही । एक दिन, राजा भोज(या विक्रमादित्य) ने एक सूखी लकड़ी की तरफ देखा और एक चुनौती देने वाले कवी से उसकी व्याख्या करने को कहा । ऊपर जो वाक्य लिखा है वही कवी ने कहा । जब कालिदास को कहने को कहा गया तो उन्होंने कहा "नीरसः तरुवरः पुरतः भाति ।" शब्दों का ठीक वही अर्थ है परन्तु आप देख सकते हैं वह किस तरह परिवर्तित हो गए । इनमे से एक कविता है और दूसरी नहीं है ।


एक कहानी प्रचलित है की एक बार राजा भोज और कालिदास कि बीच एक असहमति हो गयी और परिणामस्वरुप कालिदास धारा नगरी छोड़ कर कही और रहने चले गए । जब कालिदास वह थे तब उन्हें एक सन्देश दिया गया कि राजा भोज की मृत्यु हो गयी है । कालिदास व्याकुल हो गए और इस श्लोक की रचना की । यद्यपि उनमे झगड़ा हुआ था परन्तु कालिदास को राजा भोज बहुत प्रिय थे ।


अद्य धारा निराधारा निरालम्बा सरस्वती ।

पण्डिताः खण्डिताः सर्वे भोजराजे दिवङ्गते ।।

इसका अर्थ है, आज धारा नगरी निराधार हो गयी, देवी सरस्वती निरालम्ब(असमर्थित) हो गयी । सभी विद्वान् दुःखी हैं । राजा भोज स्वर्ग सिधार गए ।


एक बहुत ही सुन्दर रचना परन्तु एक समस्या आ गयी कि राजा भोज कि मरने की सूचना असत्य थी और वास्तव में वह नहीं मरे थे । जब कालिदास को यह पता लगा कि यह सही नहीं है तो वह प्रफुल्लित हो उठे. क्या अब इस श्लोक को भूल जाना(या त्याग देना) चाहिए? . . नहीं । कालिदास ने उसमे परिवर्तन कर दिया । थोड़ा सा फेरबदल और पूरा अर्थ बदल जाता है । राजा भोज कि पृथ्वी पर आगमन से धारा नगरी आधार सहित हो गयी और देवी सरस्वती भी समर्थित हैं और विद्वान् विभूषित हैं ।


अद्य धारा सदाधारा सदालम्बा सरस्वती ।

पण्डिताः मण्डिताः सर्वे भोजराजे भुवङ्गते ।।

आप कहेंगे की ऐसा केवल कालिदास ही कर सकते हैं । यह निस्संदेह सत्य है । परन्तु यह आप बिना संस्कृत कि नहीं कर सकते । संसार में ऐसे कुछ ही भाषाएं हैं जिनमे आप ऐसा कर सकते हैं । यही संस्कृत की सुन्दरता है ।



Credit: Shri Bibek Debroy
Content is provided as is without any alteration but with translation in hindi and with minor additions wherever needed.

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