Small details about sanskrit that makes big difference when speaking or writing the language
Thursday, October 18, 2018
Maymatam
मयमतम् - अध्याय १
संग्रहाध्याय
मङ्गलाचरण
सर्वस्व के ज्ञाता, संसार के स्वामी देवता को सिर झुका कर प्रणाम करने के पश्चात् मैं (मय) ने उनसे (वास्तुशास्त्र से सम्बन्धित) प्रश्न किया एवं उनसे पर्याप्त शास्त्र-श्रवण करने के पश्चात् क्रमानुसार उस शास्त्र का उपदेश करता हूँ ॥१॥
देवों एवं मनुष्यों के सभी प्रकार के वास्तु आदि (भूमि, भवन एवं उपस्कर आदि) के विद्वान स्थपति मय मुनि सुख प्रदान करने वाले सभी प्रकार के वास्तु के लक्षण का उपदेश करते हैं ॥२॥
ग्रन्थविषयसूचना
वास्तुकार्य के प्रारम्भिक चरण में प्रथमतः ध्यातव्य तथ्य है - सर्वप्रथम भूमि एवं भवन के प्रकार (भेदों) का ज्ञान, तत्पश्चात् भूमि के गूण-दोषों की परीक्षा । उपयुक्त भूमि के चयन के पश्चात् उसका मापन एवं इसके पश्चात् भूमि में शङ्कु की स्थापना की जाती है ॥३॥
इसके पश्चात भूमि में वास्तुपद का विन्यास किया जाता है एवं पदोंमें वास्तुदेवों की स्थापना की जाती है । वास्तुदेवों का बलिकर्म विधि (किस देवता की पूजा किस सामग्री से की जाय, यही बलिकर्म विधि है) से पूजन किया जाता है । तत्पश्चात् नगर आदि में विविध प्रकार के ग्रामों का लक्षण एवं उनके विन्यास का वर्णन किया गया है (इसी भाँति नगर-योजना पर भी विचार किया गया है) ॥४॥
इसके पश्चात इस ग्रन्थ में भूलम्ब (गृह के तल), गर्भ-विन्यास, उपपीठ एवं गृह के अधिष्ठान के लक्षणों का वर्णन किया गया है ॥५॥
भवननिर्माण के प्रसङ्ग में स्तम्भों का लक्षण, गृह की प्रस्तारविधि, भवन के विभिन्न अङ्गों की आपस में सन्धिं एवं भवन के शिखरों के लक्षण वर्णित है ॥६॥
भवन के तलों के प्रसङ्ग में (विशेषतः मन्दिरनिर्माण में) एक तल का विधान. दूसरे तल का विधान, तीसरे तल का विधान एवं चतुर्थ तल आदि का विधान लक्षणों-सहित वर्णित है ॥७॥
देवालय के सेवकों के आवास, गोपुर (मन्दिर का प्रवेश-मार्ग), मण्डपादिकों का विधान एवं शालाओं का लक्षण प्राप्त होता है ॥८॥
इसके पश्चात् गृह-विन्यास-मार्ग, गृहप्रवेश, राजगृह का विधान एवं द्वारविन्यास का लक्षण वर्णित है ॥९॥
तदनन्तर यान के लक्षण, शयन के लक्षण, लिङ्ग (देवलिङ्ग) एवं उनके पीठ के लक्षण एवं उसके अनुरूप उचित कर्म की विधि वर्णित है ॥१०॥
देवालय के प्रसङ्ग में मूर्ति के लक्षण, देवता एवं देवियों के प्रमाण का लक्षण, नेत्रों के उन्मीलन की विधि क्रमानुसार संक्षेप में वर्णित है ॥११॥
ब्रह्मा आदि देवों ने एवं श्रेष्ठ मुनियों ने जिस प्रकार विद्वानों, देवों एवं मनुष्यों के सम्पूर्ण भवनलक्षणों का उपदेश किया है, उसी प्रकार मय ऋषि ने उन सभी लक्षणों का वर्णन प्रस्तुत किया है ॥१२॥
इति मयमते वास्तुशास्त्रे संग्रहाध्यायः प्रथमः
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मयमतम् - अध्याय २
वस्तुप्रकार
आवास एवं भूमि के प्रकार - अमर (देव) एवं मरणधर्मा (मनुष्य) जहाँ जहाँ निवास करते हैं, विद्वज्जन उसे वस्तु (वास्तु) कहते है । उन निवासस्थलों के भेदों का मैं (मय ऋषि) वर्णन करता हूँ ॥१॥
वास्तु चार प्रकार के होते हैं - भूमि, प्रासाद (देवालय), यान एवं शयन । इनमें प्रधान वास्तु भूमि ही हैं; क्योंकि शेष इसी से उत्पन्न होते हैं ॥२॥
प्रासाद आदि वास्तु प्रधान वस्तु (वास्तु) भूमि से उत्पन्न होने एवं उस पर आश्रित होने के कारण वास्तु ही है । इसी कारण प्राचीन आचार्यो ने इन्हें वास्तु की संज्ञा प्रदान की है ॥३॥
(चारो वास्तुओं में प्रथमतः प्रधान वास्तु पर विचार करना चाहिये ।) भवन-प्रासादादि के निर्माण के लिये भूमि की परीक्षा वर्ण (रंग), गन्ध, रस (स्वाद), आकृति, दिशा, शब्द एवं स्पर्श के द्वारा करनी चाहिये । परीक्षा के पश्चात् ही निर्माणकार्य की आवश्यकता के अनुसार भूमि-ग्रहण करना चाहिये ॥४॥
भूमिभेद
प्रत्येक वर्ण (ब्राह्मणादि) के अनुसार भूमि का वर्णन किया गया है । इस दृष्टि से भूमि क्रमशः दो प्रकार की होती है - गौण एवं अङ्गी (प्रधान) ॥५॥
भूमि अङ्गी होती है तथा ग्रामादि गौण के अन्तर्गत आते है । सभागार, शाला, प्रपा (प्याऊ), रङ्गमण्डप एवं मन्दिर (प्रासाद होते है) ॥ ६॥
इन्हें प्रासाद कहते है । शिबिका, गिल्लिका, रथ, स्यन्दन एवं आनीक को यान कहा जाता है ॥७॥
शयन के अन्तर्गत मञ्च (सिंहासन), मञ्चिलिका (दिवान), काष्ठ (काष्ठ के आसन), पञ्जर (पिंजरा), फलकासन (बेञ्च), पर्यङ्क (पलंग), बालपर्यङ्क आदि ग्रहण किये जाते हैं ॥८॥
भूप्राधान्य हेतु
उपर्युक्त चारो में प्रथम स्थान भूमि का कहा जाता हैं; क्योंकि भूतों(पञ्च महाभूतों) में प्रथम स्थान भूमि का है, संसार की स्थिति इसी पर है एवं यही सबका आधार है ॥९॥
वर्णानुरूप भूमि
ब्राह्मणो के लिये प्रशस्त भूमि के लक्षण इस प्रकार है - भूमि चौकोर (लम्बाई-चौड़ाई का प्रमाण सम) हो, मिट्टी का रंग श्वेत हो, उदुम्बर के वृक्ष से (गूलर) युक्त हो एवं भूमि का ढलान उत्तर दिशा की ओर रहे ॥१०॥
कषाय-मधुर स्वाद वाली भूमि (ब्राह्मणो के लिये) सुखद कही गयी है । क्षत्रियों के लिये श्रेष्ठ भूमि के लक्षण इस प्रकार है - भूमि लम्बाई में चौडाई से आठ भाग अधिक हो, मिट्टी का रंग लाल हो एवं स्वाद में तिक्त हो ॥११॥
पूर्व की ओर ढलान वाली, विस्तृत, पीपल के वृक्ष से समन्वित भूमि पीपल के वृक्ष से समन्वित भूमि राजाओं (क्षत्रियों) के लिये शुभ एवं सर्वदा सभी प्रकार की सम्पत्ति प्रदान करने वाली कही गई है ॥१२॥
लम्बाई चौड़ाई से छः भाग अधिक हो, मिट्टी का रंग पीला हो, उसका स्वाद खट्टा ओ, प्लक्ष (पाकड़) के वृक्ष से युक्त हो एवं पूर्व दिशा की ओर ढलान हो-ऐसी भूमि वैश्य वर्ण के लिये प्रशस्त कही गई है ॥१३॥
लम्बाई और चौड़ाई से चार भाग अधिक हो, पूर्व दिशा की ओर ढलान हो, मिट्टी का रंग काला हो तथा स्वाद कड़वा हो, भूमि पर बरगद के वृक्ष हो । इस प्रकार की भूमि शूद्र वर्ण वालों को धन-धान्य एवं समृद्धि प्रदान करती है ॥१४॥
इस प्रकार ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों एवं शूद्रों के अनुरूप वास्तु (भूमि) के प्रकार का वर्णन किया गया है । देवों, ब्राह्मणों एवं राजाओं के लिये सभी प्रकार की भूमियाँ प्रशस्त होती है (यह उपर्युक्त मत का विकल्प है); किन्तु शेष दो (वैश्य एवं शूद्र) को अपने अनुरूप भूमि का ही चयन करना चाहिये ॥१५॥
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मयमतम् - अध्याय ३
भूमीपरीक्षा
देवों एवं ब्राह्मणों के लिये आयताकार भूमि भे प्रशस्त होती है । भूमि की आकृति अनिन्दनीय होनी चाहिये एवं उसे दक्षिण तथा पश्चिम में ऊँची होनी चाहिये ॥१॥
भूमि, अश्व, गज, वेणु, वीणा, समुद्र (जल) एवं दुन्दुभि वाद्य की ध्वनि से युक्त होनी चाहिये तथा पुन्नाग (नागकेसर), जाति-पुष्प (चमेली), कमल, धान्य एवं पाटल (गुलाब) के सुगन्ध से सुवासित होनी चाहिये ॥२॥
पशु के गन्ध के समान एवं जिस पर सभी प्रकार के बीज उगे, ऐसी भूमि श्रेष्ठ होती है । भूमि एक रंग की, सघन, कोमल एवं छूने में सुख प्रदान करने वाली होनी चाहिये ॥३॥
जिस समतल भूमि पर बेल, नीम, निर्गुण्डी, पिण्डित, सप्तपर्णक (सप्तच्छद) एवं सहकार (आम)-ये छः वृक्ष हों एवं भूमि समतल हो ॥४॥
रंग मे श्वेत, लाल, पीली तथा कपोत के समान काली, स्वाद मे तिक्त, कड़वी, कसैली, नमकीन, खट्टी ॥५॥
एवं मीठी - इन छः स्वादोवाली भूमि सभी प्रकार की सम्पत्तियाँ प्रदान करती है । रंग, गन्ध एवं स्वाद से युक्त जिस भूमि पर जलधारा का प्रवाह दाहिनी ओर हो, वह भूमि शुभ होती है ॥६॥
(उत्खनन करने पर) पुरुषाञ्जलि-प्रमाण (पुरुष-प्रमाण) पर जल दिखाई पड़े, मन को अच्छी लगने वाली, कपालास्थि-विहीन, कंकड़-पत्थररहित, कीटों एवं दीमक की बाँबी आदि से विहीन ॥७॥
हड्डी आदि से रहित, छिद्ररहित, महीन बालू वाली, जले कोयले, वृक्ष के मूल एवं किसी प्रकार के शूल से रहित ॥८॥
कीचड़. धूल, कूप, काष्ठ, मिट्टी के ढेले एवं बालू, राख आदि से तथा भूसे से रहित ॥९॥
निन्द्य भूमी
भूमि सभी वर्ण वालों के लिये शुभ एवं समृद्धि प्रदान करने वाली होती है । जो भूमि दधि, घृत, मधु (मद्य), तेल तथा रक्त गन्ध वाली होती है (वह भी प्रशस्त होती है ) ॥१०॥
शव, मछली एवं पक्षी के गन्ध वाली भूमि अग्राह्य होती है । इसी प्रकार सभागार, चैत्य (ग्राम का प्रधान वृक्ष) एवं राजभवन के निकट की भूमि गृहनिर्माण की दृष्टि से त्याज्ज होती है ॥११॥
देवालय के निकट, काँटेदार वृक्ष से युक्त, वृत्ताकार, त्रिकोण, विषम (जिसकी आकृति असमान हो), वज्र के सदृश (कई कोण वाली) तथा कछुये के समान आकृति (बीच मे ऊँची) वाली भूमि गृहनिर्माण के लिये प्रशस्त नही होती है ॥१२॥
जिस भूमि पर चाण्डाल (शव आदि से आजीविका चलाने वाले) के गृह की छाया पड़े, चर्म द्वारा आजीविका चलाने वाले के गृह के पास, एक, दो, तीन एवं चार मार्गो पर (एक-दो राजमार्गो, तिराहे एवं चौराहे) पर स्थित तथा जहाँ ठीक मार्ग न हों, ऐसे स्थान पर गृह-निर्माण प्रशस्त नहीं होता ॥१३॥
मध्य में दबी, पणव (ढोल के सदृश एक वाद्य), पक्षी, मुरज (एक वाद्य) तथा मछली के समान आकार की भूमि तथा जहाँ चारो कोनों पर महावृक्ष लगे हों, ऐसी भूमि गृहनिर्माण के लिये उचित नहीं होती है ॥१४॥
ग्रामादि के प्रधान वृक्ष, जिसके चारो कोनों पर साल वृक्ष हों, सर्प के आवास के निकट एवं मिश्रित जाति के वृक्षों के बाग के पास की भूमि गृह-निर्माण केल लिये अप्रशस्त होती है ॥१५॥
श्मशान के क्षेत्र, आश्रमस्थान, बन्दर एवं सुअर के आकार की, वनसर्प के सदृश, कुठार की आकृति वाली, शूर्प एवं ऊखल की आकृति वाली भूमि त्याज्य होती है ॥१६॥
शङ्ख, शङ्कु, विडाल, गिरगिट तथा छिपकली की आकृति वाली, ऊसर एवं कीड़े लगी भूमि गृह निर्माण के लिये त्याज्य होती है ॥१७॥
इसी प्रकार अन्य आकृति वाली भूमि, बहुत से प्रवेशमार्ग वाली एवं मार्ग से विद्ध भूमि विद्वानों द्वारा निन्दित है ॥१८॥
यदि अज्ञानतावश ऐसी भूमि पर गृह बन भी जाय तो इससे महान दोष उत्पन्न होता है । अतः सभी प्रकार से ऐसी भूमि का परित्याग करना चाहिये ॥१९॥
सर्वोत्कृष्ट भूमी
श्वेत, रक्त, पीत एवं कृष्ण वर्ण वाली, अश्व एवं गज के निनाद से युक्त, मधुर आदि छः स्वादो वाली, एक वर्ण की, गो-धान्य एवं कमल के गन्ध से युक्त, पत्थर एवं भूसे से रहित, दक्षिण एवं पश्चिम मे ऊँची, पूर्व एवं उत्तर मे ढलान वाली, श्रेष्ठ सुरभि के सदृश, शूल एवं अस्थि से रहित, कणद (धूल, बालू आदि) रहित भूमि सभी के लिये अनुकूल होती है, ऐसा सभी श्रेष्ठ मुनियों का विचार है ॥२०॥
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मयमतम् - अध्याय ४
भूमीपरिग्रह
भूमीग्रहण कर्त्तव्य
निर्माण-हेतु भुमि का ग्रहण - आकार, रंग एवं शब्द आदि गुणों से युक्त भूमि का चयन करने के पश्चात् बुद्धिमान स्थपति को देवबलि (वास्तुदेवों की पूजा) करनी चाहिये । इसके पश्चात् ॥१॥
वह स्वस्तिवाचक घोष एवं जय आदि मंगलकारी शब्दों के साथ इस प्रकार कहे-राक्षसों के साथ देवता एवं भूत (मानवेतर प्राणी) दूर हो जायँ ॥२॥
वे इस भूमि से अन्यत्र स्थान पर जाकर अपना निवास बनायें । हम इस भूमि को (गृहनिर्माण-हेतु) ग्रहण कर रहे हैं । इस मन्त्र का उच्चारण करते हुये ग्रहण की गी भूमि पर (अधोरेखित कार्य करना चाहिये) ॥३॥
उस भूमि में हल चलवा कर गोबरमिश्रित सभी प्रकार के बीजों को उसमें बो देना चाहिये । उन बीजों को उगा हुआ एवं उनमें पके हुये फल देख कर - ॥४॥
वृषभ एवं बछड़ो के साथ गायों को वहाँ बसा देना चाहिये; क्योंकि गायों के वहाँ चलने एवं सूँघने से वह भूमि पवित्र हो जाती है ॥५॥
प्रसन्न वृषों के नाद से एवं बछड़ों के मुख से गिरे हुये फेन से भूमि परिष्कृत हो जाती है एवं उसके सभी दोष धुल जाते है ॥६॥
गोमूत्र से सींची गई तथा गोबर से लीपी हुई, शरीर रगड़ने से गिरे हुये रोमों से युक्त तथा गायों के पैरों द्वारा किये गये खेल से भूमि (शुद्ध हो जाति है।) ॥७॥
गाय के गन्ध से युक्त, इसके पश्चात् पुण्यजल से पुनः पवित्र की गई भूमि पर (निर्माणकार्य के लिये) शुभ तिथि से युक्त नक्षत्र का विचार करना चाहिये ॥८॥
विद्वानों द्वारा सुविचारित शुभ करण, मुहूर्त एवं सुन्दर लग्न में अक्षत एवं श्वेत पुष्पों से वास्तुदेवों का पूजन करना चाहिये ॥९॥
ब्राह्मणों द्वारा यथाशक्ति स्वस्तिवाचन कराना चाहिये । इसके पश्चात् वास्तुक्षेत्र के मध्य में पृथिवीतल की खुदाई करनी चाहिये ॥१०॥
वास्तु के मध्य मेख एक हाथ गहरा, चौकोर, जिसकी दिशायें ठीक हों, दोषरहित गड्ढा खोदना चाहिये । यह गड्ढा सँकरा नहीं होना चाहिये तथा न ही बहुत गहरा होना चाहिये ॥११॥
इसके पश्चात् यथोचित विधि से पूजा करके तथा उस गड्ढे की वन्दना करने के पश्चात् चन्दन एवं अक्षतमिश्रित तथा सभी रत्नों से युक्त जल को- ॥१२॥
पयसा तु ततः प्राज्ञो निशादौ परिपूरयेत् ।
बुद्धिमान् मनुष्य को रात्रि के प्रारम्भ में गड्ढे में डालते हुये उसे जल से पूर्ण करना चाहिये । इसके पश्चात् पवित्र होकर सावधान मन से गड्ढे के पास भूमि पर कुश बिछा कर पूर्व दिशा की ओर मुख करके बैठ जाना चाहिये ॥१३॥
उपवास करते हुये इस मन्त्र का जप करना चाहिये । मन्त्र इस प्रकार है- हे पृथिवी, इस भूमि पर उत्तम समृद्धि स्थापित कर इसे धन-धान्य से वृद्धि प्रदान करो । तुम कल्याणकारी बनो, तुम्हें प्रणाम ॥१४-१५॥
उत्तमादिभूमीलक्षण
बुद्धिमान स्थपति को दिन होने पर प्रथमतः उस गड्ढे की परीक्षा करनी चाहिये । इसमें जल बचा हुआ देख कर सभी प्रकार की सम्पत्तियों के लिये उस भूमि को निर्माणहेतु ग्रहण करना चाहिये ॥१६॥
भूमि यदि गीली रहे तो उस पर निर्मित गृह में विनाश होता है । यदि शुष्क रहे तो उस गृह में धन-धान की हानि होती है । यदि उस गड्ढे के खोदने से निकली मिट्टी से उसे भरा जाय एवं पुरी मिट्टी उसमें समा जाय तो भूमि को मध्यम श्रेणी का समझना चाहिये ॥१७॥
यदि मिट्टी से गड्ढा भर जाय एवं मिट्टी बच भी जाय अर्थात् मिट्टी अधिक हो तो भूमि उत्तम, यदि गड्ढा भी न भरे एवं मिट्टी समाप्त हो जाय अर्थात् मिट्टी गड्ढा भरने में कम पड़े तो भूमि हीन कोटि की होती है । उस गड्ढे के मध्यमें यदि जल दाहिनी ओर घूम कर बहे तो इस प्रकार की सुरभि की मूर्ति के सदृश वाली भूमि सर्वसम्पत्तिकारक होती है ॥१८॥
इसे निर्माण-हेतु ग्रहण करना चाहिये । इस प्रकार पूर्वोक्त विधि से विविध प्रकार की भूमियों का ज्ञान कर व्यक्ति को ग्राम, अग्रहार, पुर, पतन, खर्वट, स्थानीय, खेट, निगम एवं अन्य की स्थापना के लिये भूमि का ग्रहण करना चाहिये ॥१९॥
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मयमतम् - अध्याय ५
मानोपकरण
भूमि-मापन के उपकरण - सभी प्रकार के वास्तुओं (भूमि एवं भवन) का निर्धारण मान या प्रमाण से ही किया जाता है; अतः मैं (मय ऋषि) संक्षेप में मापन के उपकरणों के विषय में बतलाता हूँ ॥१॥
(मापन की प्रथम इकाई) अङ्गुल-माप परमाणुओं के क्रमशः वृद्धि से होती है । परमाणुओंका दर्शन योगी-जनों को होता है, ऐसा शास्त्रों मे कहा गया है ॥२॥
आठ परमाणुओं के मिलने से एक 'रथरेणु' (धूल का कण), आठ रथरेणुओं के मिलने से एक बालाग्र (बाल की नोक), आठ बालाग्र से एक 'लिक्षा', आठ लिक्षा से एक 'यूका' एवं आठ यूका से एक 'यव' रूपी माप बनता है ॥३॥
उपर्युक्त माप क्रमशः आठ गुना बढ़ते हुये 'यव' बनते हैं । यव का आठ गुना 'अङ्गुल' माप होता है । बारह अङ्गुल माप को 'वितस्ति' (बित्ता) कहते है ॥४॥
दो वितस्ति का एक 'हस्त' होता है, जिसे 'किष्कु' भी कहा गया है । पच्चीस हाथ का एक 'प्राजापत्य' होता है ॥५॥
छब्बीस हाथ की एक 'धनुर्मिष्ट' तथा सत्ताईस हाथ से एक 'धनुर्ग्रह' माप बनता है । यान (वाहन) तथा शयन (आसन एवं शय्या) में किष्कु माप तथा विमान में प्राजापत्य माप का प्रयोग होता है ॥६॥
वास्तुनिर्माण में 'धनुर्मुष्टि' माप का तथा ग्रामादि के मापन में 'धनुर्ग्रह' प्रमाण का प्रयोग होता है । अथवा सभी प्रकार के वास्तु-कर्म में 'किष्कु' प्रमाण का प्रयोग किया जा सकता है ॥७॥
हस्त माप को 'रत्नि', 'अरत्नि, 'भुज', बाहु' एवं 'कर' कहते हैं । चार हस्त से 'धनुर्दण्ड' माप बनता है । इसी को 'यष्टि' भी कहते है ॥८॥
आठ दण्ड (यष्टि) को 'रज्जु' कहा जाता है । दण्डमाप से ही ग्राम, पत्तन, नगर, निगम, खेट एवं वेश्म (भवन) आदि का मापन करना चाहिये ॥९॥
गृहादि का माप हस्त से, यान एवं शयन का मापन वितस्ति (बित्ता) से एवं छोटी वस्तुओं का मापन अङ्गुल से करना चाहिये, ऐसा विद्वानों का मत है ॥१०॥
'यव' माप से अत्यन्त छोटी वस्तुओं का मापन किया जाता है । यह मध्यमा अङ्गुलि में बीच वाले पर्व के बराबर )अङ्गुलि के मध्य के जोड़ के ऊपर बनी यव की आकृति ) होता है ॥११॥
इस माप को 'मात्राङ्गुल' कहते है । इसका प्रयोग यज्ञ में किया जाता है एवं यह माप यज्ञकर्ता की अङ्गुलि से लिया जाता है । इसे 'देहलब्धाङ्गुल' भी कहते है ॥१२॥
इस प्रकार माप का ज्ञान करने के पश्चात् स्थपति को दृढ़तापूर्वक (सावधानी पूर्वक) मापनकार्य करना चाहिये ।
शिल्पिलक्षण
संसार में अपने-अपने कार्यों के अनुसार चार प्रकार के शिल्पी होते हैं ॥१३॥
चार प्रकार के शिल्पी - स्थपिती, सूत्रग्राही, वर्धकि (बढ़ई) एवं तक्षक (छीलने, काटने एवं आकृतियाँ उकेरने वाले) होते हैं । ये सभी (स्थापत्यादि कर्म के लिये) प्रसिद्ध स्थान वाले, सङ्कीर्ण जाति से उत्पन्न एवं अपने कार्यो के लिये अभिष्ट गुणों से युक्त होते हैं ॥१४॥
'स्थपति' संज्ञक शिल्पी को भवन की स्थापना में योग्य एवं (गृह-निर्माण के सहायक) अन्य शास्त्रों का भी ज्ञाता होना चाहिये । शारीरिक दृष्टि से सामान्य से न कम अङ्गो वाला तथा न ही अधिक अङ्गो वाला (अर्थात् सम्पूर्ण रूप से स्वस्थ) धार्मिक वृत्ति वाला एवं दयावान होना चाहिये ॥१५॥
स्थपति को द्वेषरहित, ईर्ष्यारहित, सावधान आभिजात्य गुणों से युक्त, गणित तथा पुराणों का ज्ञाता, सत्यवक्ता एवं इन्द्रियो को वश मे रखने वाला होना चाहिये ॥१६॥
स्थपति को चित्रकर्म (गृह के नक्शा आदि बनाने) मे निपुण, सभी देशों का ज्ञाता (स्थान के भूगोल का ज्ञाता), (अपने सहायको को) अन्न देने वाला, अलोभी, रोगरहित, आलस्य एवं भूल न करने वाला तथा सात प्रकार के व्यसनों (वाचिक आघात पहुँचाना, सम्पत्ति के लिये हिंसा का मार्ग अपनाना, शारीरिक चोट पहुँचाना, शिकार, जुआ, स्त्री एवं सुरापान -अर्थशास्त्र - ८३.२३.३२) से रहित होना चाहिये ॥१७॥
सूत्रग्राही
'सूत्रग्राही' स्थपति का पुत्र या शिष्य होता है । उसे यशस्वी, दृढ़ मानसिकता से युक्त एवं वास्तु-विद्या मे पारंगत होना चाहिये ॥१८॥
सूत्रग्राही को स्थपति की आज्ञानुसार कार्य करने वाला एवं (स्थापत्यसम्बन्धी) सभी कार्यों का ज्ञाता होना चाहिये । उसे सूत्र एवं दण्ड के प्रयोग का ज्ञाता एवं विविध प्रकार के मापन मान-उन्मान (लम्बाई, चौड़ाई, ऊँचाई एवं उनके उचित अनुपात) का ज्ञाता होना चाहिये ॥१९॥
पत्थर, काष्ठ एवं ईट आदि को मोटा एवं पतला काटने के कारण वह शिल्पी 'तक्षक' कहलाता है । यह सूत्रग्राही के इच्छानुसार कार्य करता है ॥२०॥
वर्धकि मृत्तिका के कर्म (गृहनिर्माण) का ज्ञाता, गुणवान, अपने कार्य मे समर्थ, अपने क्षेत्र से सम्बद्ध सभी कार्यो को स्वतन्त्रतापूर्वक करनेवाला, तक्षक द्वारा काटे छाँटे गये सभी टुकड़ों को युक्तिपूर्वक जोड़ सकता है ॥२१॥
सर्वदा सूत्रग्राही के अनुसार कार्य करने वाला शिल्पी 'वर्धकि' कहा जाता है । इस प्रकार ये सभी शिल्पी कार्य करने वाले, अपने कार्यों में कुशल, शुद्ध, बलवान, दयावान होते है ॥२२॥
ये सभी शिल्पी अपने गुरु (प्रधान स्थपति) का सम्मान करने वाले, सदा प्रसन्न रहने वाले एवं सदैव स्थपति की आज्ञा का अनुसरण करने वाले होते है । उनके लिये स्थपति ही विश्वकर्मा माना जाता है ॥२३॥
उपर्युक्त (सूत्रग्राही, तक्षक एवं वर्धकि) शिल्पियों के विना स्थपति (भवननिर्माणसम्बन्धी) सभी कार्य नही कर सकता है । इसलिये स्थपति आदि चारो शिल्पियों का सदा सत्कार करना चाहिये ॥२४॥
इस संसार में इन स्थपति आदि को ग्रहण किये विना कोई भी (निर्माणसम्बन्धी) सुन्दर कार्य सम्भव नही है । अतः तीनों शिल्पियों को उनके गुरु (प्रहान स्थपति) के साथ ग्रहण करना चाहिये । इसी से मनुष्य संसार (शीत, धूप, वर्षा एवं गृह के अभाव में होने वाले कष्टों) से मुक्ति प्राप्त करते है ॥२५॥
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मयमतम् - अध्याय ६
दिक्परिच्छेद
दिशा-निर्धारण - मैं (मय) दिशा के निर्धारण के विषय में कहता हूँ । यह कार्य उत्तरायण मास में शुभ शुक्ल पक्ष में सूर्योदय होने पर शङ्कु द्वारा करना चाहिये ॥१॥
शुभ पक्ष एवं नक्षत्र में सूर्यमण्डल के निर्मल रहने पर ग्रहण किये गये वास्तु के मध्य की भूमि को समतल करना चाहिये ॥२॥
शङ्कुलक्षण
जिस स्थान पर शङ्कुस्थापन करना हो, उस स्थान से चारो दिशाओं में दण्डप्रमाण से चौकोर किये गये भूखण्ड को जल द्वारा समतल करना चाहिये ॥
उस समतल भूमि के मध्य में शङ्कुस्थापन करना चाहिये । अब शङ्कु के प्रमाण का वर्णन किया जा रहा है ॥३॥
शङ्कु का लक्षण इस प्रकार है - यह एक हाथ लम्बा हो, शीर्ष पर इसका माप एक अङ्गुल हो तथा मूल भाग में इसका व्यास पाँच अङ्गुल हो । इसकी गोलाई सुन्दर हो, किसी प्रकार का इसमें व्रण न हो अर्थात् इसका काष्ठ कटा-फटा न हो एवं श्रेष्ठ हो ॥४॥
(उपर्युक्त माप उत्तम शङ्कुमान का है।) मध्यम शङ्कु अट्ठारह अङ्गुल लम्बा एवं कनिष्ठ शङ्कु बारह या नौ अङ्गुल लम्बा होता है । लम्बाई के समान ही इसका मूल एवं अग्र भाग में भी माप रखना चाहिये ॥५॥
दन्त (मौलसिरी), चन्दन, खैर या कत्था, कदर, शमी, शाक (सागौन) एवं तिन्दुक (तेंद) के वृक्ष शङ्कु-वृक्ष कहलाते है अर्थात् इनके काष्ठ से शङ्कुनिर्माण करना चाहिये ॥६॥
इनके अतिरिक्त कठोर काष्ठ वाले वृक्षों से भी शङ्कु निर्माण किया जा सकता है । शङ्कु का अग्र भाग चित्रवृत्तक (दोषहीन गोलाई) होना चाहिये । शङ्कु निर्माण के पश्चात् प्रातःकाल भूतल के पूर्व निर्धारित स्थल पर उसे स्थापित करना चाहिये ॥७॥
शङ्कु प्रमाण का दुगुना माप लेकर शङ्कु को केन्द्र बना कर वृत्त खींचना चाहिये । दिन के पूर्वाह्ण एवं अपराह्ण में उस मण्डलाकृति पर शङ्कु की छाया पड़ती है ॥८॥
उपर्युक्त छायायें जिन-जिन बिन्दुओं पर पड़ती है, उन बिन्दुओं को सूत्र से मिलाना चाहिये । इससे पूर्व एवं पश्चिम दिशा का ज्ञान होता है (पूर्वाह्ण मे जहाँ छाया पड़ती है, वह पश्चिम दिशा एवं अपराह्ण में जहाँ छाया पड़ती है, वह पूर्व दिशा होती है )। पूर्वोक्त बिन्दुओं को केन्द्र बनाकर मछली की आकृति बनानी चाहिये ॥९॥
दो सूत्रों को बिन्दुओं के केन्द्र में इस प्रकार रखना चाहिये कि वे दक्षिण से उत्तर तक जायँ । इसी प्रकार दूसरे सूत्र को उत्तर से दक्षिण तक ले जाना चाहिये ।
कहने का तात्पर्य यह है कि एक बिन्दु को केन्द्र बनाकर चाप की आकृति उत्तर से दक्षिण तक बनानी चाहिये । पुनः दूसरे बिन्दु को केन्द्र बनाकर दूसरी चापाकृति बनानी चाहिये । मण्डल के दो छोरों पर ये चापाकृतियाँ एक-दूसरे को काटती है । इस प्रकार मत्स्य की आकृति बनती है ॥१०॥
इन सूत्रों से बुद्धिमान स्थपति उत्तर एवं दक्षिण दिशा का निर्धारण करते है । (पूर्व के बाँयीं और उत्तर दिशा एवं दाहिनी ओर दक्षिण दिशा होती है । इस प्रकार भूमि में दिशा का ज्ञान होता है)।
अशुद्ध छाया -
जब सूर्य कन्या या वृषभ राशि में होता है, उस समय सूर्य की अपच्छाया नही पड़ती है (अर्थात् इस स्थिति में शङ्कु की छाया सीधे पूर्व और पश्चिम दिशा पर पड़ती है ) ॥११॥
विशेष -
सूर्य की छाया बारहो महीनों में एक समान नहीं होती है । अतः सूर्य के नक्षत्रों के सङ्क्रमण के अनुसार शुद्ध रूप से पूर्व एवं पश्चिम का निर्धारण किस प्रकार किया जाय एवं अपच्छाया से बचा जाय, इसका उपाय आगे के श्लोकों में वर्णित है ।
मेष, मिथुन, सिंह एवं तुला राशि में सूर्य के रहने पर जहाँ शङ्कु की छाया पड़े, उससे दो अङ्गुल पीछे हट कर पूर्व एवं पश्चिम का निर्धारण करना चाहिये । जिस समय सूर्य कर्क, वृश्चिक एवं मीन राशि पर हो, उस समय अङ्गुल हट कर दिशानिर्धारण करना चाहिये ॥१२॥
धनु एवं कुम्भ पर सूर्य के रहने पर छः अङ्गुल एवं मकर पर आठ अङ्गुल हट कर शङ्कु की छाया के दाहिने एवं बाँये सुत्र का प्रयोग करना चाहिये ॥१३॥
रज्जुलक्षण
माप-सूत्र का लक्षण - रज्जु अथवा सूत्र को आठ दण्ड लम्बा होना चाहिये । इसका निर्माण ताल, केतक के रेशे, कपास, कुश अथवा न्यग्रोध (बरगद) के छाल से होना चाहिये ॥१४॥
देवता, ब्राह्मण एवं राजा (क्षत्रिय) के वास्तु-मापन के लिये रज्जु को अङ्गुल के अग्र बाग के बराबर मोटा, तीन बत्तियों से निर्मित एवं विना गाँठ का बनाना चाहिये । वैश्य एवं शूद्र के लिय
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