लाङ्गूलचालनमधश्चरणावपातम्
भूमौ निपत्य वदनोदरदर्शनं च ।
श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु
धीरं विलोकयति चाटुशतैश्च भुङ्कते ॥ ३१ ॥
अर्थ:
कुत्ते को देखिये, कि वह अपने रोटी देने वाले के सामने पूँछ हिलाता है, उसके चरणों में गिरता है, जमीन पर लेट कर उसे अपना मुह और पेट दिखता है, उधर श्रेष्ठ गाज को देखिये, कि वह अपने खिलाने वाले की तरफ धीरता से देखता है और सैकड़ों तरह की खुशामदें करा के ही खाता है।
"गुलिस्तां" में लिखा है:
नानम अफजूदो आ बरूयम कास्त।
बेनवाई वह अज़ मज़िल्लते ख्वास्त।।
जिस रोटी से इज़्ज़त घटे, उस 'रोज़ी' से गरीबी भली ।
दोहा:
स्वान लेत लोयो लपक, दीन मान करि दूर।
सौ कों दे भक्षण करत, धीर चीर गजपूर।।
स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् ।
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ॥ ३२ ॥
अर्थ:
इस परिवर्तनशील जगत में मर कर कौन जन्म नहीं लेता? जन्म लेना उसी का सार्थक है, जिसके जन्म से वंशनकी गौरव वृद्धि या उन्नति हो ।
दोहा:
जन्म मरण जग चक्र में ये दो बात महान।
करै जु उन्नति वंश की जन्मयौ सो ही जान।।
कुसुमस्तबकस्येव द्वे गती स्तो मनस्विनाम् ।
मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य विशीर्यते वनेડथवा ॥ ३३ ॥
अर्थ:
फूलों के गुच्छे की तरह महापुरुषों की गति दो प्रकार की होती है - या तो वे सब लोगो के सिर पर ही विराजते हैं अथवा वन में पैदा होकर वन में ही मुरझा जाते हैं ।
दोहा:
पहुपगुच्छ सिर पै रहै, कै सूखै बन माहिं।
मान ठौर सत्पुरुष रहि, कै सुख दुख धन माहिं।।
सन्त्यन्येડपि बृहस्पतिप्रभृतयः सम्भाविताः पञ्चषा
स्तान्प्रत्येषविशेषविक्रमरुची राहुर्न वैरायते ।
द्वावेव ग्रसते दिनेश्वरनिशाप्राणेश्वरौ भासुरौ
भ्रान्तः पर्वणि पश्य दानवपतिः शीर्षावशेषीकृतः ॥ ३४ ॥
अर्थ:
आकाश में बृहस्पति प्रभृत्ति और भी पांच छः ग्रह श्रेष्ठ हैं, पर असाधारण पराक्रम दिखाने की इच्छा रखनेवाला राहु इन ग्रहों से बैर नहीं करता । यद्यपि दानवपति का सिर मात्र अवशेष रह गया है तो भी वह अमावस्या और पूर्णिमा को - दिनेश्वर सूर्य और निशानाथ चन्द्र को ही ग्रास करता है ।
माह पुरुषों का स्वाभाव होता है कि वो छोटो से वैरभाव नहीं करते क्योंकि छोटो को जीतने से नेकनामी नहीं मिलती पर हार जाने पर बदनामी होती है - छोटो से जीतने पर भी हार और हारने पर भी हार । महापुरुष, इसलिए, अपने समान या अधिक बलवानों से ही युद्ध करते हैं।
भामिनि विलास:
वेतंडगंडकंडूति पाण्डित्य परिपंथिना।
हरिणा हरिणालीषु कथ्यताम कः पराक्रमः।।
अर्थ: गजगंडस्थल की कंडू(खुजली) को नाश करनेवाला सिंह हरिणों में अपने किस पराक्रम का वर्णन करे? (वीर पुरुष स्व समान पुरुषों ही में अपना पराक्रम प्रकट करते हैं, नीचों में नहीं।)
वहति भुवनश्रेणीं शेषः फणाफलकस्थितां
कमठपतिना मध्येपृष्ठं सदा स विधार्यते ।
तमपि कुरुते क्रोडाधीनं पयोधिरनादरा-
दहह महतां निःसीमानश्चरित्रविभूतयः ॥ ३५ ॥
अर्थ:
शेषनाग ने चौदह भुवनों की श्रेणी को अपने फन पर धारण कर रखा है, उस शेषनाग को कच्छपराज ने अपनी पीठ के मध्य भाग पर धारण कर रखा है, किन्तु समुद्र ने इन कच्छपराज को भी हलकी सी चीज समझ कर अपनी गोद में रख छोड़ा है । इससे प्रत्यक्ष है, कि बड़ो के चरित्र की विभूति की कोई सीमा नहीं है ।
वृन्द कवी:
बड़े जो चाहें सो करैं, करन मतो उर धारि।
बड़े भार ले निरबहें, तजत न खेद बिचारि।।
बड़े भार ले निरबहें, तजत न खेदा बिचार।
शेष धरा धरि धर धरैं, अब लों देत्त न डार।।
वरं पक्षच्छेदः समदमघवन्मुक्तकुलिश-
प्रहारैरुद्गच्छद्बहलदहनोद्गारगुरुभिः ।
तुषाराद्रेः सूनोरहह पितरि क्लेशविवशे
न चासौ सम्पातः पयसि पयसां पत्युरुचितः ॥ ३६ ॥
अर्थ:
हिमालय पुत्र मैनाक ने पिता को संकट में छोड़ कर, अपनी रक्षा के लिए समुद्र की शरण ली - यह काम उसने अच्छा नहीं किया । इससे तो यही अच्छा होता, कि मैनाक स्वयं भी मदोन्मत्त इन्द्र के अग्निज्वाला उगलनेवाले वज्र से अपने भी पंख कटवा लेता ।
यदचेतनोડपि पादैः स्पृष्टः प्रज्वलति सवितुरिनकान्तः ।
तत्तेजस्वी पुरुषः परकृतविकृतिं कथं सहते ॥ ३७ ॥
अर्थ:
जब चेतना रहित सूर्यकान्त मणि भी सूर्य किरण रूप पैरों के लगने से जल उठती है, तब चेतना सहित तेजस्वी पुरुष, पर का किया अपमान कैसे सह सकते हैं ?
दोहा:
बचन बाणसम श्रवण सुन, सहत कौन रिस त्याग ?
सूरजपद परिहार ते, पाहन उगलत आग।
सिंहः शिशुरपि निपतति मदमलिनकपोलभित्तिषु गजेषु ।
प्रकृतिरियं सत्त्ववतां न खलु वयस्तेजसो हेतुः ॥ ३८ ॥
अर्थ:
सिंह चाहे छोटा बालक भी हो, तो भी वह मद से मलीन कपोलो वाले उत्तम गज के मस्तक पर ही चोट करता है । यह तेजस्वियों का स्वभाव ही है । निस्संदेह अवस्था तेज के कारण नहीं होती।
सिंह का बच्चा नितान्त छोटा होने पर भी मदोन्मत्त हाथी के गण्डस्थलों पर ही चोट करता है; यह उसका स्वभाव हैं।
अवस्था से तेज नहीं होता। शकुंतला पुत्र महाराज भरत बाल्यावस्था में ही, हिमालय पर, सिंह के कान पकड़ कर उसके साथ खेला करते थे ।
दोहा:
टूट सिंह शिशु करि निकर, बिचलावै क्षण माहिं।
तेजवान की प्रकृति यह, तेज हेतु बय नाहिं।।
जातिर्यातु रसातलं गुणगणस्तस्याप्यधो गच्छतु
शीलं शैलतटात्पतत्वभिजनः संदह्यतां वह्निना ।
शौर्ये वैरिणि वज्रमाशुनिपतत्वर्थोડस्तु नः केवलं
येनैकेन विना गुणास्तृणलवप्रायाः समस्ता इमे ॥ ३९ ॥
अर्थ:
यदि जाति पाताल को चली जाय, सारे गुण पाताळ से भी नीचे चले जाएं, शील पर्वत से गिर कर नष्टभो जाये, स्वजन अग्नि में कर भस्म हो जाएं और वैरिन शूरता पर वज्रपात हो जाये - तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन हमारा धन नष्ट न हो, हमें तो केवल धन चाहिए, क्योंकि धन के बिना मनुष्य के सारे गुण तिनके की तरह निकम्मे हैं ।
तानीन्द्रियाणि सकलानि तदेव कर्म
सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव ।
अर्थोष्मणा विरहितः वचनं तदेव
त्वन्यः क्षणेन भवतीति विचित्रमेतत् ॥ ४० ॥
अर्थ:
सारी इन्द्रियां वे की वे ही हैं, काम भी सब वैसे ही हैं, परंतु एक धन की गर्मी बिना वही पुरुष और का और हो जाता है। निस्संदेह यह एक विचित्र बात है ।
दोहा:
वै इन्द्री वै कर्म हैं, वही बुद्धि वही ठौर।
धनविहीन नर क्षणहि में, होत और ते और।।
निर्धनता मनुष्य का घोर दुःख और अपमान करने वाली है । निर्धन के भाई बन्धु निर्धन को जीवित अवस्था ही में मुर्दे की तरह समझते हैं ।
यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान्गुणज्ञः ।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते ॥ ४१ ॥
अर्थ:
जिसके पास धन है, वही कुलीन, पण्डित, शास्त्रज्ञ, वक्ता और दर्शनीय है । इससे सिद्ध हुआ कि सारे गुण धन में ही हैं ।
धनहीन का मर जाना या वन में रहना भला क्योंकि धनहीन का कोई आदर नहीं करता । और तो क्या, सेज माँ बाप और स्त्री तक धनहीन को नफरत की नजर से देखते हैं । इसलिए समझदार लोग जब उद्योग करने पर भी धन को प्राप्त नहीं कर सकते - सब कुछ करके थक जाते हैं, तब अपमान के भय से वन में चले जाते हैं ।
कहा है :-
वर वन व्याघ्रगजेन्द्र सेवितं।
द्रुमालयः पक्व फलाम्बु भोजनं।।
तृणानि शय्या परिधान वल्कलं।
न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनं।।
सिंह व्याघ्रादि वाले वन में पेड़ के नीचे बसना, पके पके फल खाना, जल पीना और घास की शय्या पर सोना भला; पर भाई बन्धुओं के बीच में निर्धन होकर रहना भला नहीं ।
धन बिना धर्म नहीं होता । धर्म और अर्थ आपस में एक दुसरे की पुष्टि करते हैं। मनुष्य को दिन के पहले भाग में धर्माचरण, दुसरे भाग में अर्थ सञ्चय और तीसरे भाग में कामानुशीलन करना चाहिए । जो यथासमय त्रिवर्ग साधन करते हैं, वे धर्मतत्व के जाननेवाले पण्डित हैं । धन बिना धर्म और काम की प्राप्ति में बाधा पड़ती है; इसलिए धनोपार्जन अवश्य करना चाहिए और साथ ही सञ्चित धन की रक्षा करनी चाहिए । धन से स्वयं सुख भोगने चाहिये और उसे सत्पात्रों को देकर पुण्य सञ्चय करना चाहिए । धन की गर्मी मनुष्य के तेज को बढाती है और यदि उसका भोग और त्याग हो, तब तो कहना ही क्या?
दोहा:
सोई पंडित वक्ता गुणी, दर्शन योग कुलीन।
जाके ढिंग लक्ष्मी अहे, सब गुण तिहि आधीन।।
दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनश्यति यतिः संगात्सुतो लालना-
द्विप्रोડनध्ययनात्कुलं कुतनयात् शीलं खलोपासनात् ।
ह्रीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रया-
न्मैत्री चाप्रणयात्समृद्धिरनयात्त्यागात्प्रमादाद्धनम् ॥ ४२ ॥
अर्थ:
दुष्ट मन्त्री से राजा, सन्सारियों की सङ्गति से सन्यासी, लाड से पुत्र, न पढ़ने से ब्राह्मण, कुपुत्र से कुल, खल की सेवा से शील, मदिरा पीने से लज्जा, देखभाल न करने से खेती, विदेश में रहने से स्नेह, प्रीती न करने से मित्रता, अनीति से संपत्ति और अंधाधुंध खर्च करने से संपत्ति नष्ट हो जाती है ।
"गुलिस्तां" में एक कहानी है : दमस्कम शहर के निकट वन में एक फ़कीर रहता था । वह पेड़ो के पत्ते खाकर निर्वाह करता था । एक रोज वहा का बादशाह उसके दर्शन करने आ गया और उसे बहुत कुछ कह सुनकर अपने शहर ले आया । अपने निज के बाग़ में उसका डेरा करा दिया और चाँद अव्वल दर्जे की खूबसूरत दासियाँ उसकी सेवा में नियुक्त कर दी । चन्द रोज बाद ही वह फ़कीर उत्तमोत्तम भोजन करने और भांति भांति की पोशाके पहनने तथा कुंवारी स्त्रियों और उनकी सहेलियों की सोहबत का आनंद लूटने लगा । बहुत लिखना वृथा है, वह पूरा आमिर और अय्याश बन गया । महापुरुषों ने कहा है कि, सुंदरी युवती कि ज़ुल्फ़ें, विचार शक्ति के पैरों कि बेड़ियाँ हैं - यह बात सोलह आने ठीक हुई ।
कुछ बातचीत के बाद बादशाह ने कहा - "मुझे विद्वान और एकांतवासी सन्यासी अच्छे लगते हैं।" एक अनुभवी और समझदार मन्त्री ने कहा - "हुज़ूर आप विद्वानों को धन दें जिससे और लोग भी विद्वान बनें और संसार त्यति सन्यासियों को कुछ भी न दें जिससे उनकी विरक्ति बनी रहे।" बादशाह बुद्धिमान मन्त्री कि बात से खुश हुआ और अपने किये पर पछताया । वैरागियों को इससे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । उन्हें खूब ख्याल रखना चाहिए कि इन्द्रियां बड़ी प्रबल हैं । ये सदा मनुष्य को विषयों कि ओर खींच ले जाने कि चेष्टा करती हैं । जब विश्वामित्र जैसे तपस्वी मेनका के रूपजाल में फंसकर अपना तप भङ्ग कर बैठे और पाराशर नाव में ही नाविक कि कन्या पर लट्टू हो गए । जब ऐसे ऐसे जितेन्द्रियों के दिल मोहिनियों के मोहपाश में फंस गए, तब साधारण साधू सन्यासी कि बाड़ी के बथुए हैं ?
कहा है :
तीव्र तपस में लीन, नहिं कर इन्द्रिय विश्वास ।
विश्वामित्र जु मेनका, कण्ठ लगायी हुलास ।।
लालने बहुवो दोषः, ताड़ने बहुवो गुणाः।
तस्मात् पुत्रश्च शिश्यश्च, ताड्येत न तू लालयेत।।
लाड करने में बहुत से दोष हैं; ताड़ना करने में बहुत गुण हैं इसीलिए पुत्र और शिष्य को ताड़ना देनी चाहिए, लाड न करना चाहिए ।
दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयः भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति ॥ ४३ ॥
अर्थ:
दान, भोग और नाश - धन की यही तीव्र गति है । जिसने न दिया और न भोगा उसके धन की तीसरी गति होती है ।
वृन्द:
खाय न खर्चे सूम धन, चोर सबै ले जाय।
पीछे ज्यों मधु-मच्छिका, हाथ मले पछताय।।
गिरिधर:
खायो जाय सो खायरे, दियो जाय सो देह।
इन दोनों से जो बचै, सो तुम जानो खेह।।
सो तुम जानो खेह, सिके पुनि काम न आवे।
सर्व शोक को बीज, पुनः पुनि तुझे रुलावे।।
कह गिरिधर कविराज, चरण त्रै धन के गायो।
दान भोग बिन नाश होत, जो दियो न खायो।।
सोरठा:
दान भोग अरु नाश, तीन होत गति द्रव्य को।
नाहिन द्वै को बास, तहाँ तीसरो बसत है।।
मणि: शाणोल्लीढ: समरविजयी हेतनिहतो
मदक्षिणो नाग: शरदि सरित: श्यानपुलिनाः ।
कलाशेषश्चन्द्र: सुरत्मृदित बालवनिता
तनिम्ना: शोभन्ते गलितविभवाश्चार्थिषु जनाः ॥ ४४ ॥
अर्थ:
सान पर खरादी हुई मणि, हथियारों से घायल विजयी योद्धा, मदक्षीण हाथी, शरद ऋतू की सूखे किनारों और अल्पजळ वाली नदी, कलाहीन दूज का चन्द्रमा, सुरत के मर्दन चुम्बन आदि से थकी हुई नवयुवती और अपना सारा ही धन दान करके दरिद्र हुए सज्जन पुरुष - ये सब अपनी हानि या दुर्बलता से ही शोभा पाते हैं ।
तात्पर्य यह है की मणि और योद्धा प्रभृत्ति की शोभा क्षीणता से उल्टी बढ़ जाती है । विशेष कर के वह दानी जो अपने दान के कारण दरिद्र हो जाता है, सबसे अधिक शोभायमान लगता है । उसकी जितनी ही प्रशंसा की जाय थोड़ी है । महाराजा हरिश्चन्द्र और राजा बलि ने अपना सर्वस्व दान करके जो शोभा और अक्षय कीर्ति सम्पादन की है, वह प्रलय काल तक स्थिर रहेगी ।
कुण्डलिया:
छोटो हु नीकी लगे, मणि खरषाण चढ़ीसु ।
वीर अंग कटि शस्त्रसो, शोभा सरस बढ़ीसु ।।
शोभा सरस बढ़ीसु, अंग गज मदकर छिनहि ।
द्वैज कला शशि साह, शरदि सरिता जिमि हीनहि ।।
सुरत दलमली नार, लहत सुन्दरता मोटी ।
अर्थिं को धन देत, घटी सो नाहिन छोटी ।।
जब मनुष्य दरिद्र होता है, तब तो एक पस्से जौ की भूसी की इच्छा करता है, पर वही मनुष्य जब धनवान हो जाता है, तब साड़ी पृथ्वी को तिनके के सामान समंझने लगता है । इससे स्पष्ट है, कि मनुष्य को विशेष अवस्थाएं ही पदार्थ में अपनी लघुता या गुरुता के कारण भिन्नता पैदा करती हैं, कभी उन्ही वस्तुओं को फैलाती कभी सिकुड़ाती हैं; अर्थात धनावस्था और दरिद्रावस्था ही मनुष्य को छोटा या बड़ा बनती है ।
छप्पय:
होत वहै धनहीन, तबै अंजलि जौ माँगत ।
धन पाय बौराय, ताहि महि तृणसम लागत ।।
दशा यही द्वै चपल, नरहि लघु दीर्घ बनावै ।
करहिं नीच को ऊँच, ऊँच को नींच जनावै ।।
जग यह विलोकि सज्जन पुरुष, सदा रहे समता धरे ।
ते पूर्ण रहे अम्भोधि जनु, प्रेम ईश वश में करे ।।
राजन्दुधुक्षसि यदि क्षितिधेनुमेतां
तेनाद्य वत्तमिव लोकममुं पुषाण ।
तस्मिंश्च सम्यगनिइां परिपोष्यमाणे
नानाफलैः फलति कल्पलतेव भूमिः ॥ ४६ ॥
अर्थ:
हे राजा ! अगर तुम पृथ्वी रुपी गाय को दुहना चाहते हो, तो प्रजा रुपी बछड़े का पालन पोषण करो । यदि तुम प्रजा रुपी बछड़े का अच्छी तरह पालन पोषण करोगे, तो पृथ्वी स्वर्गीय कल्पलता की तरह आपको नाना प्रकार के फल देगी ।
दोहा:
धेनु-धरा को चाहत पय, प्रजा वत्स करि मान ।
याकौ परिपोषण किये, कल्पवृक्ष सम जान ।।
सत्याअन्रिता च परूशा प्रियवादिनी च
हिन्सा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या ।
नित्यव्यया प्रचुरनित्यधनागमा च
वेश्यान्गनेव न्रिप नीतिरनेकरूपा ॥ ४७ ॥
अर्थ:
राजनीति, वेश्या की नाइ अनेक रूपिणी होती है । कहीं यह सत्यवादिनी और कहीं असत्यवादिनी, कहीं कटुभाषिणी और कहीं प्रियभाषिणी, कहीं हिंसा करने वाली और कहीं दयालु, कहीं लोभी और कहीं उदार, कहीं अपव्यय करने वाली और कहीं धन सञ्चय करने वाली होती है ।
न राम सदृशो राजा पृथिव्या नितिमानभूत ।
न कूटनितिरभवत श्रीकृष्ण सदृशो नृपः ।।
इसी पृथ्वी पर रामचन्द्र के समान नीतिमान और श्रीकृष्ण के समान कूटनीतिज्ञ राजा नहीं हुआ । रामचन्द्र जी ने अपनी नीति के बल से वानरों को अपने वश में कर लिया और श्रीकृष्ण ने अपनी ही बहिन सुभद्रा, छल से अर्जुन को ब्याह दी ।
विद्या कीर्तिः पालनं ब्राह्मणानां
दानं भोगो मित्रसंरक्षणम् च ।
येषामेते षड्गुणा न प्रवृत्ताः
कोऽर्थस्तेषां पार्थिवोपाश्रयेण ॥ ४८ ॥
अर्थ:
जिन पुरुषों में विद्या, कीर्ति, ब्राह्मणो का पालन, दान, भोग और मित्रों की रक्षा - ये छः गुण नहीं हुए, उनकी राज सेवा वृथा है ।
दोहा:
विद्या, यश द्विज पालना, दान भोग सन्मान ।
नृप-सेवा इन छः बिना, निष्फल ज्ञान सुजान ।।
यद्धात्रा निजभालपट्टलिखितं स्तोकं महद् वा धनम्
तत् प्राप्नोति मरूस्थलेऽपि नितरां मेरौ ततो नाधिकम् ।
तद्धीरो भव , वित्तवत्सु कॄपणां वॄत्तिं वॄथा मा कॄथा:
पश्य पयोनिधावपि घटो गॄह्णाति तुल्यं पय: ॥ ४९ ॥
अर्थ:
थोड़ा या बहुत - जितना धन विधाता ने तुम्हारे भाग्य में लिख दिया है, उतना ही तुम्हें निश्चय ही मरुस्थल में भी मिल जायेगा; उससे ज्यादा तुमको सुमेरु पर भी नहीं मिल सकता; इसलिए सन्तोष करो, ढाणियों के सामने वृथा दीनता से याचना न करो; क्योंकि, देखो, घड़ा, समुद्र और कुएं से समान (समान मात्रा में) ही जल ग्रहण करता है ।
पञ्चतन्त्र:
न हि भवति यत्र भाव्यं, भवति च भाव्य विनापि यत्नेन ।
करतलगतमपि नश्यति यस्य तु भवितव्यता नास्ति ।।
जो होनहार नहीं है, वह नहीं होता और जो होनहार है, वह बिना उपाय किये हि हो जाता है । जो हमारे भाग्य में नहीं है, वह हाथ में आकर भी नष्ट हो जाता है ।
मनुष्य ने जितना पूर्वजन्म में बोया है, उतना वह अवश्य ही कटेगा । सारा सन्सार प्रारब्ध और पुरुषार्थ में ही विद्यमान है । पूर्वजन्म के कर्म को प्रारब्ध और इस जन्म के कर्म को पुरुषार्थ कहते हैं ।
एक ही कर्म के दो नाम हैं । फलों की प्राप्ति का हेतु प्रत्यक्ष नहीं दीखता । फलों की प्राप्ति पूर्वजन्म के कर्मानुसार ही होती है । देखते हैं की कोई कोई बिना जरा सा भी उद्योग और परिश्रम किये अतुल संपत्ति का अधिकारी हो जाता है और कोई दिन-रात घोर परिश्रम करने पर भी पेट भर अन्न नहीं पाता । जिस तरह बछड़ा अपनी माँ कोई हजारों गायों में भी पहचान लेता है ; उसी तरह पूर्वजन्म का कर्म अपने करता को चट पहचान लेता है । किया हुआ कर्म, सोते के साथ सोता है, चलते के साथ चलता है; बहुत क्या, पूर्वकृत कर्म आत्मा के साथ रहता है । छाया और धूप का आपस में जो सम्बन्ध है, कर्ता और कर्म का भी वही सम्बन्ध है ।
दोहा:
भाल लिखौ जू विरंचि वह, घटै बढ़ै कछु नाहिं ।
मुरधर कञ्चन मेरु-सम, जान लेहुँ मनमाहि ।।
त्वमेव चातकाधारोડसीति केषां न गोचरः ।
किमम्भोदवराડस्माकं कार्पण्योक्तिः प्रतीक्ष्यते ।। ५० ।।
अर्थ:
हे श्रेष्ठ मेघ ! तुम्हीं हम पपहीयों के एकमात्र आधार हो, इस बात को कौन नहीं जानता ? हमारे दीन वचनों की प्रतीक्षा क्यों करते हो ?
चातक कहता है - " हे मेघ ! संसार में नद, नदी और सरोवर आदि अनेक जलाशय हैं; हम प्यासे ही क्यों न मर जाएं, पर तुम्हारे सिवा हम किसी का जल नहीं पीते । तुम्हारे जल के सिवा गङ्गा, जमुना, सरस्वती और सिंधु प्रभृति हमारे लिए धूल हैं । हम लोगों को तुम्हारा ही आश्रय है । इस दशा में तुम्हें उचित नहीं है, कि तुम हमसे बार बार दीनता कराओ ।
सज्जनो को अपने आश्रितों कि दीनता की प्रतीक्षा न करनी चाहिए । उनकी अनुनय- विनय और दीन वाणी के बिना ही उनकी आशा पूरी करनी चाहिए । जो अपने आश्रित को बिना दीनता कराये दे, उसके समान कौन दाता है ?
दोहा:
मेघ तुझे जाने जगत, पपिहा प्राण अधार ।
दीन वचन चाहत सुन्यौ, यह नहिं उचित विचारि ।।
दुर्जनो परिहर्तव्यो विद्यया भूपितोऽपि सन् ।
मणिनालङ्कृतः सर्प: किमसौ न भयङ्करः ।। ५३ ।।
अर्थ:
दुर्जन विद्वान् हो तो भी उसे त्याग देना ही उचित है, क्योंकि मणि से भूपित सर्प क्या भयङ्कर नहीं होता?
जिस तरह मणि धारण करने से सर्प की भयङ्करता नष्ट नहीं हो जाती; उसी तरह विद्या अध्ययन कर लेने से दुर्जनो की स्वाभाविक दुष्टता नहीं चली जाती ।
पञ्चतन्त्र में लिखा है:
न धर्मशास्त्र पठतीति कारण
न चापि वेदाध्ययनं दुरात्मनः ।
स्वभाव एवात्र तथातिरिच्यते
यथा प्रकृत्या मधुर गवां पयः ।।
धर्मशास्त्र के पढ़ने या वेदाध्ययन से दुष्टात्मा, साधु-स्वभाव नहीं होता; जिसका जो स्वाभाव है, वही प्रबल है, गाय का ढूढ़ स्वभाव से ही मीठा होता है ।
वृन्द कवी ने कहा है :
खाल विद्या-भूपति तउ, नहीं भरोस को मूल ।
जो मणि भूषित भुजग जग, नीच मीच सम तूल ।।
नहीं इलाज देख्यौ सुन्यौ, जासों मिटत स्वभाव ।
मधुपुत कोटिक देत तउ, विष न तजत विष-भाव ।।
किसी का भी जन्म स्वभाव नहीं बदलता । विद्या उत्तम चीज़ है, पर स्वभाव बदलने की शक्ति उसमें भी नहीं है । विद्या से मनुष्य में बुद्धिमत्ता आती है, पर मूर्ख की मूर्खता और भी बढ़ती है । विद्या से दुष्टों को एक प्रकार का बल और मिल जाता है । विद्याबल से उनकी दुष्टताएँ और भी भीषण रूप धारण कर लेती हैं । स्वाति की बूँद सीप में पड़कर मोती का रूपधारण करती है और सर्प के मुख में पड़कर भयङ्कर विष हो जाती है । जो अयोग्य और नालायक होता है, जिसकी असलिलयात ही ख़राब होती है, उसे कैसी भी उत्तम शिक्षा दी जाये और कैसी भी अच्छी सङ्गत में रखा जाये, वह हरगिज़ उत्तम न होगा । पानी को कितना ही गरम कीजिये, थोड़ी देर बाद वह शीतल हो ही जायेगा यानि अपने असल स्वभाव पर आ जायेगा । लहसुन और हींग, कस्तूरी के हजारों पुट दिए जाने पर भी अपने स्वाभाव को नहीं त्यागते; उनकी असली गन्ध बनी ही रहती है । जीभ पर कितनी ही चिकनाई ल्हेसी जाये, पर वह चिकनी न होगी । नीम में कितना ही गुड़-घी सींचा जाये, पर वह मीठा न होगा , जिसका स्वाभाव जैसा है, वैसे ही रहेगा ।
रावण कम विद्वान् नहीं था, पर विद्वान् होने से क्या उसकी दुष्टता चली गयी थी ? इन बातों को हृदयंगम करके, अपना भला चाहने वालों को अपढ़-निरक्षर दुष्टों से तो बचना ही चाहिए, पर पढ़े लिखे या विद्वान् दुर्जनो से और भी अधिक दूर रहना चाहिए । निरक्षर दुर्जनो से साक्षर दुर्जन अधिक भयङ्कर होते हैं । बहुत कहने से क्या, असली स्वाभाव किसी भी उपाय से मिट नहीं सकता ।
जाड्यं ह्रीमति गण्यते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं
शूरे निघृणता ऋजौ विमतिता दैन्यं प्रियालापिनि ।
तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे
तत्को नाम गुणो भवेत् स गुणिनां यो दुर्जनैर्नांकितः ।। ५४ ।।
अर्थ:
लज्जावानों को मूर्ख, व्रत उपवास करने वालों को ठग, पवित्रता से रहने वालों को धूर्त, शूरवीरों को निर्दयी, चुप रहने वालों को निर्बुद्धि, मधुर भाषियों को दीन, तेजस्वियों को अहङ्कारी, वक्ताओं को बकवादी(वाचाल) और शांत पुरुषों को असमर्थ कह कर दुष्टों ने गुणियों के कौन से गन को कलङ्कित नहीं किया ?
दुर्जनो को सज्जनो से स्वाभाविक बैर होता है । जिस तरह मूर्ख पण्डितों से, दरिद्र धनियों से, व्यभिचारिणी कुल-स्त्रियों से और विधवा सधवाओं से सदा जलती रहती है उसी तरह दुर्जन सज्जनो से जला करते है ।
ऐसो से ही दुखित होकर महाकवि ग़ालिब ने कहा है:
रहिये अब ऐसी जगह चलकर जहाँ कोई न हो ।
हमसखुन कोई न हो और हम-जबाँ कोई न हो ।।
वे दरो-दीवार सा इक घर बनाना चाहिए ।
कोई हमसाया न हो और कोई पासबाँ न हो ।।
संसार रहने की जगह नहीं, यहाँ ईर्ष्या-द्वेष का बाजार गर्म है । जी में आता है, ऐसी जगह चलकर रहिये, जहाँ कोई न हो । हमारी बात कोई न समझे और न हम किसी की समझें । मकान भी ऐसा हो जिसमें न दर हो न दीवार अर्थात शुद्ध जङ्गळ हो, न कोई साथी न पडोसी ।
इसी तरह एक अंग्रजी विद्वान् ने दुष्टो से दुखित हो कर कहा है -
the better I know men the more I admire dogs.
जो लोग इन दुष्टों में ही रहना चाहें अथवा इच्छा न होने पर भी रहे बिना न सरे, उनको इन दुष्टों की बातों पर कान न देना चाहिए । मन में समझना चाहिए, हम तो कौन चीज हैं, ये बड़े बड़ों की निंदा करते हैं । इनकी निन्दा से हमारा क्या बिगड़ जायेगा ?
तुलसीदास ने कहा है:
द्वारे टाट न दे सकहिं, तुलसी जे नर नीच ।
निदरहिं बल हरिचन्द कहे, कहु का करण दधीच ।।
भलो कहहिं जाने बिना, की अथवा अपवाद ।
तुलसी गावर जानि जिय करब न हर्ष विषाद ।।
तुलसी दे बल राम के, लागे लाख करोड़ ।
काक अभागे हगि भरे, महिमा भयहु न थोर ।।
नीच लोग दरवाजे पर तो टाट भी नहीं लगा सकते, पर बलि और हरिश्चन्द्र जैसे महादानियों की निन्दा करते हैं, कर्ण और दधीचि तो इनकी नजरों में कोई चीज़ नहीं ।
बिना जाने प्रशंसा करे या निन्दा, गंवार समझ कर इनकी बात पर न हर्ष ही करना चाहिए और न शोक ही करना चाहिए ।
रामचन्द्र जी के लाखों करोड़ों की लागत से बने मन्दिर पर अगर अभागा काक हग भरता है तो क्या मन्दिर की महिमा कम हो जाती है ?
लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः
सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम् ।
सौजन्यं यदि किं गुणैः स्वमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना ।। ५५ ।।
अर्थ:
यदि लोभ है तो और गुणों की जरुरत ? यदि परनिन्दा या चुगलखोरी है, तो और पापों की क्या आवश्यकता ? यदि सत्य है, तो तपस्या से क्या प्रयोजन ? यदि मन शुद्ध है तो तीर्थों से क्या लाभ ? यदि सज्जनता है तो गुणों की क्या जरुरत ? यदि कीर्ति है तो आभूषणों की क्या आवश्यकता ? यदि उत्तम विद्या है तो धन का क्या प्रयोजन ? यदि अपयश है तो मृत्यु से और क्या होगा ?
लोभ से ही काम, क्रोध और मोह की उत्पत्ति होती है और मोह से मनुष्य का नाश होता है । लोभ ही पापों का कारण है । लोभ से बुद्धि चञ्चल हो जाती है । लोभ से तृष्णा होती है । तृष्णार्त को दोनों लोकों में सुख नहीं । धन के लोभी को, असन्तोषी को, चञ्चल मन वाले को और अजितेन्द्रिय को सर्वत्र आफत है । लोभ सचमुच ही सब अवगुणों की खान है । लोभ होते है सब अवगुण अपने आप चले आते हैं । दुष्टों के मन में पहले लोभ ही होता है ; इसके बाद वे परनिन्दा, परपीड़न और हत्या प्रभृति कुकर्म करते है । रावण को सीता पर पहले लोभ ही हुआ था । दुर्योधन को पाण्डवों की सम्पत्ति पर पहले लोभ ही हुआ था इसलिए मनुष्य को लोभ-शत्रु से बिलकुल दूर ही रहना चाहिए । जिसमें लोभ नहीं, वह सच्चा विद्वान् और पण्डित है । निर्लोभ को जगत में आपदा कहाँ ? अगर विद्वान् के मन में लोभ है तो वो विद्वान् कहा, मूर्ख है ।
कहा है -
काम क्रोध मद लोभ की, जब लगि मन में खान ।
का पण्डित का मूरखे, दोनों एक समान ।।
जो मनुष्य अस्पष्टता के कारण किसी ग्रन्थकर्ता की निन्दा करे, वह अपने ही चित्त में, विचार कर देखे, कि क्या वहां बिलकुल स्वच्छता है ।धुंधलके में स्पष्ट से स्पष्ट लेख नहीं समझ आता । जिनका दिल स्वच्छ नहीं होता उनको ही पराया काम सदोष दीखता है ।
कबीरदास ने कहा है:
निन्दक एकहु मति मिलै, पापी मिलै हजार।
एक निन्दक के सीस पर, हजार पाप को भार ।।
जिसका मन शुद्ध नहीं, जिसके ह्रदय में पाप है, वही दुष्ट है । वह सौ बार तीर्थ स्नान करने से भी शुद्ध नहीं हो सकता । क्या मदिरा का पात्र जलने से शुद्ध हो जाता है ? जिनके मन में काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ प्रभृति का निवास नहीं होता - उनका ही मन शुद्ध है, उनका ही मन रोग-रहित है । अगर मन शुद्ध रहे तो सारा काम ही बन जाये - स्वयं जगदीश ही न मिल जाएँ
कहा है:
मन दाता मन लालची, मन राजा मन रङ्क ।
जो यह मन हर सों मिले, तो हरि मिलै निःशङ्क ।।
हमारा स्वामी - परमेश्वर, मूर्खों को धन देता है । जिन्हे वह धन देता है, उन्हें वह सिवा धन के और कुछ नहीं देता । इन दुखों के सिवा धन से एक और दुःख है । वह यह कि मरण समय भी यह कष्ट देता है । जिस गधे पर हल्का बोझ होता है, वह आसानी से चला जाता है ;उसी तरह जो गरीब होते है, जिनके हाथी घोड़े महल मकान बाग़ बगीचे, बड़ा परिवार और अनेक प्रकार के रत्न, हीरा पन्ना आदि नहीं होते, वे सहज में देह त्याग कर जाते हैं , उन्हें प्राणान्त के समय भयङ्कर वेदना नहीं होती - इन सब दुखों के कारण ही विद्वान् लोग धन को पसन्द नहीं करते ।
शशी दिवसधूसरो गलितयौवना कामिनी ।
सरो विगतवारिजं मुखमनक्षरं स्वाकृते: ।।
प्रभुर्धनपरायण: सततदुर्गत: सज्जनो ।
नृपाङ्गणगत: खलो मनसि सप्त शल्यानि मे ।। ५६ ।।
अर्थ:
दिन का मलिन चन्द्रमा, यौवनहीन कामिनी, कमलहीन सरोवर, निरक्षर रूपवान, कञ्जूस स्वामी या राजा, सज्जन की दरिद्री और राज सभा में दुष्टों का होना - ये सातों हमारे दिल में कांटे कि तरह चुभते हैं ।
परमात्मा ने अपने सभी कामों में कुछ न कुछ दोष रख दिए हैं और वे ही दोष चतुरों के दिल में खटकते हैं । अगर चन्द्रमा दिन में भी प्रभाहीन न होता, स्त्री का यौवन सदा रहता, सरोवर कभी कमल-शून्य न होता, रूपवान विद्वान् होते, धनी उदार होते, सज्जन धनवान होते और राजसभा में दुष्टों की पहुँच न होती - तो कैसी आनन्द की बात होती ? परमात्मा की लीला ही अजब है । वह सज्जनो को बहुधा निर्धन रखता है ।
कवियों ने कहा है:
भले बुरे विधिना रचे, पै सदोष सब कीन ।
कामधेनु पशु, कठिन मनि, दधि खारो शशि छीन ।।
कहीं कहीं विधि की अविधि, भूले पारस प्रवीन।
मूरख को सम्पत दई, पण्डित सम्पतहीन ।।
सोने में सुगन्ध, ऊख में फल, चन्दन में फल, विद्वान धनी और राजा चिरजीवी न किया, इससे स्पष्ट है कि विधाता को कोई अक्ल देने वाला न था ।
न कश्चिच्चण्डकोपानामात्मीयो नाम भूभुजाम्।
होतारमपि जुह्वानं स्पृष्टो दहति पावकः।। ५७ ।।
अर्थ:
प्रचण्ड क्रोधी राजाओं का कोई प्यारा नहीं । जिस तरह हवन करने वाले को भी अग्नि छूते ही जला देती है, उसी तरह राजा भी किसी के नहीं ।
कहावत प्रसिद्ध है:
राजा जोगी अगिन जल, इनकी उल्टी रीति ।
डरते रहिये परसराम, ये थोड़ी पालें प्रीति ।।
पञ्चतन्त्र में लिखा है :
काके शौचं द्यूतकारे च सत्यं
सर्पे क्षान्ति स्त्रीषु कामोपशान्तिः ।
क्लीबे धैर्यं मद्यपे तत्वचिन्ता
राजा मित्रं केन दृष्टं श्रुतं वा ।।
कव्वे में पवित्रता, जुआरी में सत्य, सर्प में सहनशीलता, स्त्री में कामशान्ति, नामर्द में धीरज, शराबी में तत्वचिन्ता और राजा में मैत्री किसने देखि या सुनी है ?
दोहा:
जे अति पापी भूप ते, काहूसौ न कृपाल ।
होम करत हूँ द्विजन कौ, दहत अग्नि कि ज्वाल ।।
नीति शतक - दुर्जनों कि निन्दा 58
मानौंन्मूकः प्रवचनपटुः वाचको जल्पको वा
धृष्टः पार्श्वे वसति च तथा दूरतश्चाप्रगल्भः ।
क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजात:
सेवाधर्म परमगहनो योगिनामप्यगम्यः ।। ५८ ।।
अर्थ:
नौकर यदि चुप रहता है तो मालिक उसे गूंगा कहता है; यदि बोलता है तो उसे बकवादी कहता है; यदि पास रहता है तो ढीठ कहता है; यदि खरी-खोटी सुन लेता है तो डरपोक कहता है और यदि नहीं सहता है तो उसे नीच कुल का कहता है । मतलब यह है कि सेवा धर्म - पराई चाकरी बड़ी ही कठिन है; योगियों के लिए भी अगम्य है ।
संसार में जितने कठिन काम हैं, उनमें पराई चाकरी सबसे कठिन है । योगीजन सब तरह के कष्ट सहने के अभ्यासी होते है, उन्हें कोई कष्ट-कष्ट और कोई दुःख - दुःख नहीं मालूम होता; परन्तु, पर-सेवा उनके लिए भी महा कठिन है । नौकर को किसी तरह भी चैन नहीं । जो लोग सेवावृत्ति को कुत्ते कि वृत्ति कहते है, बड़ी गलती करते हैं । कुत्ते में और सेवक में तो बड़ा फर्क है । सेवक से कुत्ता भला है; क्योंकि कुत्ता अपनी मौज से फिरता है; पर नौकर तो प्रभु कि आज्ञा से फिरता है ।
वरं वनं वरं भैक्ष्यं, वरं भारोपजीवनम् ।
वरं व्याधिर्मनुष्याणां, नाधिकारेण सम्पदः ।।
वन में रहना अच्छा, भीख मांग कर खाना अच्छा, बोझा उठा कर जीना अच्छा, रोगी रहना अच्छा पर सेवा करके धन प्राप्त करना अच्छा नहीं ।
महावीर प्रसाद द्विवेदी:
चाहे कुटी अति घने वन में बनावे,
चाहे बिना निमक कुत्सित अन्न खावे ।
चाहे कभी नर नए वस्त्र भी न पावे,
सेवा प्रभो पर न तू पर कि करावे ।।
दोहा:
चुप गूँगों लाबर वचन, निकट ढाठ जड़ दूर ।
क्षमाहीन परिहास खल, सेवा कष्टहि पूर ।।
उद्भासिताखिलखलस्य विशृङ्खलस्य
प्राग्जातविस्मृतनिजाधमकर्मवृत्तेः ।
दैवादवाप्तविभवस्य गुणद्विषोऽस्य
नीचस्य गोचरगतैःसुखमास्यते कैः ।। ५९ ।।
अर्थ:
जो दुष्टों का सिरताज है, जो निरंकुश या मर्यादा-रहित है, जो पूर्व-जन्मों के कुकर्मों के कारण परले सिरे का दुराचारी है, जो सौभाग्य से धनी हो गया है और जो उत्तमोत्तम गुणों से द्वेष रखने वाला है - ऐसे नीच के अधीन रहकर कौन सुखी हो सकता है ?
तात्पर्य यह है कि नीच मनुष्य कि सेवा करके मनुष्य हरगिज़ सुखी नहीं हो सकता ।
कहा है:
अगम्यान्यः पुमान्याति, असेव्यांशृ नीपेवते ।
स मृत्युमुपगृहणाति, गर्भमश्वतरी यथा ।।
जो अगम्या स्त्री से गमन करता है, जो सेवा न करने योग्य की सेवा करता है, वह उसी तरह मरता है, जिस तरह खच्चरी गर्भ धारण करने से मरती है ।
दुर्योधन दुष्टों का सरदार और बुराइयों कि खान था, वह किसी नीति- नियम को न मानता था । जो मन में आता वही करता था । पूर्वजन्म के पापों से घोर दुराचारी था । दैव के अनुकूल होने से लक्ष्मी मिल गयी थी; परन्तु पाण्डवों के उत्तमोत्तम गुणों से वह अहर्निश जला करता था । उसकी सेवा करने से गोगृह में भीष्म को अपमानित होना पड़ा और द्रोणाचार्य को भी नीचे देखना पड़ा । भरी सभा में अन्यायाचरण देख कर भी, चाकरी के कारण, भीष्म और द्रोण कुछ न बोल सके । बहुत क्या, शेष में उन्हें अपने प्राण भी गवाने पड़े ।
कुण्डलिया:
संग न करिये दुष्ट को, जासों होय उपाध।
पूर्वजन्म के पाप सब, उपज उठावें व्याध।।
उपज उठावें व्याध, दैवबल होय धनी सो।
शुभगुण राखै द्वेष, कुबुध कों मित्र करै सो।।
निपट निरंकुश नीच, तासु चित रङ्ग न धरिये।
दुखमय दुर्गुण खान, तासु को सङ्ग न करिये।।
आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण
लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।
दिनस्य पूर्वार्ध-परार्धभिन्ना
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ।। ६० ।।
अर्थ:
दुष्टों की मैत्री, दोपहर-पाहिले की छाया के समान, आरम्भ में बहुत लम्बी चौड़ी होती है और पीछे क्रमशः घटती चली जाती है; किन्तु सज्जनो की मैत्री दोपहर बाद की छाया के समान पहले बहुत थोड़ी सी होती है और पीछे क्रमशः बढ़ने वाली होती है ।
इक्षोरग्रात्क्रमशः पर्वणि यथा रसः विशेषः ।
तद्वत्सज्जनमैत्री विपरीतानां तु विपरीता ।।
ईख के अगले हिस्से में रस कम होता है; ज्यों ज्यों आगे चलिएगा, रस अधिक मिलता जायेगा । बस, सज्जनो की मैत्री ठीक ऐसी होती है; दुर्जनो की इसके विपरीत होती है ।
कहा है:
ओछे नर की प्रीत की, दीनी रीत बताय।
जैसे छीलर ताल जल, घटत घटत घट जाय।।
बिनसत बार न लागई, ओछे नर की प्रीती।
अम्बर डम्बर सांझ के, ज्यों बालू की भीति।।
नीति शतकम् - दुर्जनों की निन्दा - 61
मॄगमीनसज्जनानं तृणजलसन्तोपविहितवृत्तिनाम् ।
लुब्धकधीवरपिशुना निष्कारणवैरिणो जगति ।। ६१ ।।
अर्थ:
हिरन, मछली और सज्जन क्रमशः तिनके, जल और सन्तोष पर अपना जीवन निर्वाह करते हैं; पर शिकारी, मछुए और दुष्ट लोग अकारण ही इनसे वैर भाव रखते हैं ।
हिरन, मछली और सज्जन - ये किसी की हानि नहीं करते, पर दुष्ट लोग इन्हे वृथा ही सताते हैं । इससे मालूम होता है की दुष्टो का स्वाभाव ही ऐसा होता है । वे दूसरों को तकलीफ देने में ही अपना कर्तव्य पालन समझते हैं ।
कहा है:
सहज सन्तोष है साध को, खाल दुःख दैन प्रवीन ।
मछुआ मारत जल बसत, कहा बिगारत मीन ।।
दोहा:
मीन वारि मृग तृण सुजन, करि संतोषहि जीव ।
लुब्धक धीमर दुष्टजन, बिन कारण दुःख कीव ।।
नीति शतकम् - सज्जन प्रशन्सा - 62
वाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीतिर्गुरौ नम्रता विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादादभ्यम् ।
भक्तिः शूलिनि शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खलेष्वेते येषु वसन्ति निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः ।। ६२ ।।
अर्थ:
सज्जनों की सङ्गति की अभिलाषा, पराये गुणों में प्रीति, बड़ो के साथ नम्रता, विद्या का व्यसन, अपनी ही स्त्री में रति, लोक-निन्दा से भय, शिव की भक्ति, मन को वश में करने की शक्ति और दुष्टों की सङ्गति का अभाव - ये उत्तम गुण जिनमें हैं, उन्हें हम प्रणाम करते हैं ।
जिन पुरुषों में ये उत्तम गुण हैं - वे मनुष्य रूप में देवता हैं और इस भूतल की शोभा हैं । सज्जन आप दुखी रहने पर भी दूसरों का भला करते हैं । अर्जुन ने स्वयं, घोर विपत्ति में भी, विराट की गौवें कौरवों से छुड़ाकर राजा का भला किया था । शिवजी स्वयं भिक्षाटन करते हैं पर उनकी सहधर्मिणी जगत को अन्न पूरती हैं ।
तुलसीदास जी ने कहा है:
तुलसी सत्पुरुष सेइये, जब तब आवहि काम ।
लङ्क विभीषण को दई, बड़े दुचित में राम ।।
विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः ।
यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ,प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ।। ६३ ।।
अर्थ:
विपत्ति में धीरज, अपनी वृद्धि में क्षमा, सभा में वाणी की चतुराई, युद्ध में पराक्रम, यश में इच्छा, शास्त्र में व्यसन - ये छः गुण महात्मा लोगों में स्वभाव से ही सिद्ध होते हैं ।
ऐसे गुण स्वभाव से ही, जिन में हो, उन को महात्मा जानो । इससे जो महात्मा बनना चाहे वह ऐसे गुणों के सेवन के लिए अत्यंत उद्योग करे ।
कर्मों के फल भोगने से कोई नहीं बच सकता, जो किया है उसका फल भोगना ही होगा । विपत्ति और दुर्भाग्य का रोकना असम्भव है, फिर घबराने से क्या लाभ? घबराने या धैर्य त्यागने से विपत्ति बढ़ती है, घटती नहीं ।
उनका मानना है, कि विपत्ति, परमात्मा अपने प्यारों पर डालता है । विपत्ति रुपी कसौटी पर ही वह अपने प्यारों के धैर्य और धर्म कि परीक्षा करता है । परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर वह अपने प्यारों को उचित पुरस्कार भी देता है । विपत्ति भयङ्कर सर्प है और उसके गुण, सर्प की मणि से ज्यादा कीमती नहीं तो कम भी नहीं । विपत्ति में ही मनुष्य को अपने और पराये, मित्र प्रभृति का खरा-खोटापन मालूम होता है । इस समय स्त्री पुत्र, बन्धु-बान्धव और सेवक आदि जो साथ देते हैं, वे ही सच्चे समझे जाते हैं; सम्पदावस्था में तो शत्रु भी मित्र हो जाते हैं । गोस्वामी जी ने कहा है:
धीरज धर्म मित्र अरु नारी, आपद्काल परखिये चारि ।
रात जितनी ही अँधेरी होती है, तारे उतनी ही तेजी से चमकते हैं; विपद जितनी ही भारी होती है, मनुष्य उतना ही अधिक गुणवान होता है विपद में ही मनुष्य के गुणों का प्रकाश होता है । विपद निश्चय ही परमात्मा का शुभाशीर्वाद है ।
अयोध्यानाथ महाराजा रामचन्द्र जी पर कुछ काम विपत्ति नहीं पड़ी । राजतिलक होते होते वनवास हुआ, पिता दशरथ का मरण हुआ, जननी से वियोग हुआ, सीता जैसी कोमलाङ्गी को लेकर भीषण वन और दुर्गम पर्वतों में भ्रमण करना पड़ा । वन में भी सीता का वियोग हुआ, वे जरा भी धैर्यच्युत नहीं हुए और इसीलिए महादुस्तर विपद से पार होकर विजयी हुए । महाराजा नल पर काम विपद नहीं पड़ी । राज्य गया, रानी और संतान से वियोग हुआ, अन्न और वस्त्र के लिए तरसना पड़ा, पराई चाकरी करनी पड़ी; पर वे घबराये नहीं; इसीलिए शेष में उनकी विपद भाग गई , रानी और राज्य सभी मिल गए । पाण्डवों की तरह कौन विपद सहेगा ? बेचारों पर, विपद पर विपद पड़ती रहीं, धनैश्वर्य गया, भरी सभा में घोर अपमान हुआ, वन-वन में मारे-मारे डोले, भिक्षा-वृत्ति पर भी जीवन निर्वाह करना पड़ा, पर धैर्य के बल से सारी विपदाओं को काट कर, भगवान् कृष्ण की दया से, वे युद्ध में विजयी हुए । महाराजा हरिश्चन्द्र का राज्य गया, स्त्री और पुत्र से वियोग हुआ, पुत्र का मरण हुआ, रानी को पराई दासी बनना पड़ा, स्वयं आपने शमशान में चाण्डाल की चाकरी की, पर आपने पुत्र के मरने पर भी अपने धैर्य और धर्म को न छोड़ा, इसी से भगवान् आप पर प्रसन्न हुए, आपकी सारी विपद हवा हो गयी ।
मनुष्यों को इन महात्माओं की विपद कहानियों से शिक्षा ग्रहण कर, विपद में कदापि धैर्यच्युत न होना चाहिए ।
महात्मा लोग विपद में जिस तरह कठोर हो जाते हैं; उसी तरह सम्पद में वे एकदम नम्र बने रहते हैं और धनैश्वर्यशाली होकर इतराते नहीं; अभिमान के वश होकर किसी को कष्ट नहीं देते । इस अवस्था में उनकी सहनशीलता उल्टी बढ़ जाती है । क्षमा और नम्रता की वे मूर्ती ही बन जाते हैं; क्योंकि वे इस अवस्था को भी विपदावस्था की तरह चिरस्थायी नहीं समझते ।
महापुरुषों में क्षमाशीलता स्वाभाव से ही होती है; किन्तु सर्प-समान दुष्टों में क्षमा नहीं होती । सम्पद पाकर दुष्ट लोग नदी-नालों की तरह इत्र जाते हैं; पर महात्मा लोग समुद्र की तरह गंभीर बने रहते हैं ।
वृन्द कवी ने कहा है:
भले वंस को पुरुष सों, निहुरे बहुत धन पाए ।
नवै धनुष सदवंस को, जिहि द्वै कोटि दिखाय ।।
सभा चातुरी एक बहुत बड़ा गुण है । सभा चतुर मनुष्य अपनी वचन-चातुरी से सबको मन्त्र मुग्ध कर देता है । जो सुन्दर वचन रुपी द्रव्य का संग्रह नहीं करता वह परस्पर के अलाप रुपी यज्ञ में क्या दक्षिणा दे सकता है ? सभा चतुर पुरुष हजारो- लाखों विपक्षियों को भी मूक बना देता है । कहा है:
श्रवण नाथन मुख नासिका, सब ही के इक ठौर ।
हँसियो बोलियो देखियो, चतुरन को कछु और ।।
करिये सभा सुहावते, सुखते वचन प्रकाश ।
बिन समझे शिशुपाल को, वचनन भयो विनाश ।।
महात्मा लोग जीवन को एक-न-एक दिन अवश्य नाश होने वाला समझते हैं, उन्हें धन और प्राणो का मोह नहीं होता । वे आगे पैर रखकर पीछे पैर नहीं देते । कर्ण, अर्जुन और अभिमन्यु प्रभृति महापुरुषों के पराक्रम की बात 'महाभारत' पढ़ने वालों से छिपी नहीं है :
रन सन्मुख पग सूर के, वचन कहें ते सन्त ।
निकल न पाछे होत है, ज्यों गयन्द के दन्त ।।
(गयन्द = हाथी)
महापुरुषों की तरह मनुष्य को स्त्रावलोकन के सिवा और व्यसन न रखना चाहिए ।
दोहा:
विपत धीर, सम्पति क्षमा, सभा माहि शुभ बैन ।
युधि विक्रम, यश माहिं रुचि, ते नरवर गुण ऐन ।।
नीति शतकं - सज्जन प्रशंसा - 64
प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते सम्भ्रमविधिः।
प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृतेः ।।
अनुत्सेको लक्ष्म्यां निरभिभवसारा परकथाः ।
सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम् ।। ६४ ।।
अर्थ:
दान को गुप्त रखना, घर आये का सत्कार करना, पराया भला करके चुप रहना, दूसरों के उपकार को सबके सामने कहना, धनी होकर गर्व न करना और पराई बात निन्दा-रहित कहना - ये गुण महात्माओं में स्वाभाव से ही होते हैं।
दान करके किसी से कहना, अख़बारों में छपवाना अथवा और तरह की डोंडी पिटवाना अच्छा नहीं । इस तरह से जो दान किया जाता है, उस दान का मूल्य घाट जाता है; इसी से वास्तविक दानी अपने दान की खबर अपने दूसरे हाथ को भी नहीं पड़ने देते ।
बड़े बड़ेई काम कर, आप सिहायत नाहिं ।
तस जस उत्तर को दियो, पथ विराट के माहिं ।।
सत्पुरुष, घर आये शत्रु का भी उपकार करते हैं । अपने घर में जो कुछ होता है, उसी से उसका सत्कार करते हैं ।
अपूजितोऽतिथिर्यस्य गृहाद्याति विनिःश्वसन् ।
गच्छन्ति विमुखास्तस्य पितृभिःसह देवताः ।।
जिसके घर में अपोजिट अतिथि सांस लेता हुआ चला जाता है, उसके यहाँ देवता पितरों सहित-विमुख होकर चले जाते हैं । अगर गृहस्थ सूर्य डूबने के पश्चात आये हुए अतिथि की सेवा करता है, तो वह देवता होता है - "आइये" कहने से अग्नि, आसान देने से इन्द्र, चरण धोने से पितर और अर्घ देने से शिव जी प्रसन्न होते हैं ।
देखिये, वृक्ष अपने काटने वाले के सर पर भी छाया करता है । घर आये हुए बालक, वृद्ध, युवा सभी की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि अभ्यागत सबका गुरु होता है । जिसके घर से अतिथि निराश होकर लौट जाता है, वह अपने किये पाप उसे देकर उसका पुण्य ले जाता है ।
जो घर आवत शत्रुहु, सुजन देत सुख चाहि ।
ज्यों काटे तरु मूल कोउ, छाँह करत वह ताहि ।।
महापुरुष अपने किये उपकारों को तो छिपाते हैं, परन्तु दूसरा उनके साथ जो ज़रा सी भी भलाई करता है, उसको सौगुनी करके औरो से कहते हैं । यह सामर्थ्य सत्पुरुषों में ही होती है । नीच लोग तो अपने उपकारी के उपकार को छिपाने की ही चेष्टा किया करते हैं, क्योंकि संकीर्ण ह्रदय लोग इसमें अपनी मान-हानि समझते हैं ।
मनुष्य निस्संदेह सब प्राणधारियों में उत्तम है और कुत्ता सबसे नीच है लेकिन बुद्धिमान कहते हैं की उपकार न मानने वाले मनुष्य से कुत्ता अच्छा है । शास्त्रों में लिखा है - मित्रद्रोही, कृतघ्न, भ्रूणहत्या करने वाले और विश्वासघाती सदा रौरव नरक में रहते हैं ।
तिनसों विमुख न हुजिये, जे उपकार समेत ।
मोर ताल जल पान करि, जैसे पीठ न देत ।।
खल नर गुण माने नहि, मेटहिं दाता ओप ।
जिमि जल तुलसी देत रवि, जलद करत तेहि लोप ।।
सत्पुरुषों को धन से गर्व नहीं होता । धनैश्वर्य पाकर सत्पुरुष फलदार वृक्षों की तरह उल्टा नीचे को झुक जाते हैं । वे इस बात को जानते हैं की धन, यौवन और जीवन, असार और चञ्चल हैं । जो आज ऊँचा है उसे कल नीचे गिरना ही होगा । इस जहां में कितने ही बाग़ लग लगकर सूख गए, आज उनका नाम-ओ-निशान भी नहीं, कितने ही दरिया चढ़े और उतर गए । सँसार की परिवर्तनशीलता का ज्ञान होने की वजह से ही वे साड़ी पृथ्वी के अकेले स्वामी होने पर भी, मुतलक़ घमण्ड नहीं करते और जो ऐश्वर्यशाली होने पर घमण्ड नहीं करते, वे निस्संदेह महात्मा और इस पृथ्वी के भूषण हैं । कहा है -
सधन सगुण सधरम सगन, सुजन सुसबल महीप ।
तुलसी जे अभिमान बिन, ते त्रिभुवन के दीप ।।
धनवान, गुणवान, धर्मवान, बलवान, और सर्वप्रिय राजा से भी श्रेष्ठ, तीनों लोकों में प्रकाशित होने वाला, निरभिमान (अर्थात् जिसमें अहंकार न हो) को बताया है।
महात्मा पुरुष अगर किसी का जिक्र करते हैं तो उसमें निन्दाव्यञ्जक वाक्य तो क्या - एक बुरा शब्द भी नहीं आने देते । दोष उन्ही को दीखते हैं जिनके ह्रदय स्वयं मलीन होते हैं और जो परछिद्रान्वेषण की फ़िक्र में रहते हैं । धुंधले आईने में ही चेहरा ख़राब दीखता है । शैली महाशय ने कहा है :
"जो ग्रन्थकारों की धुल उड़ाते हैं, उनमें अधिकाँश लोग मूर्ख और पर-गुण द्वेषी होते हैं "। पर-गुण द्वेषी की सिवा निन्दा कौन करेगा ? दूसरे का दिल दुखने वाली बात, सच हो तो भी न कहनी चाहिए ।
पर को अवगुण देखिये, अपनों दृष्टी न होये ।
करै उजेरो दीप पै, तरे अंधेरो जोय ।।
दोष भरी न उचारिये, जदपि यथारथ बात ।
कहै अन्ध को आँधरो, मान बुरौ सतरात ।।