Wednesday, November 7, 2018

नीति शतकम्

॥ नीति शतकम् भर्तृहरिविरचितम् ॥


मंगलाचरणम् 

दिक्‍कालाद्यनवच्छिन्‍नानन्‍तचिन्‍मात्रमूर्तये ।
स्‍वानुभूत्‍येकमानाय नम: शान्‍ताय तेजसे ।। १ ।।


अर्थ:

दशों दिशाओं और तीनो कालों से परिपूर्ण, अनंत और चैतन्य-स्वरुप अपने ही अनुभव से प्रत्यक्ष होने योग्य, शान्त और तेजरूप परब्रह्म को नमस्कार है ।


यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता, 
साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः।
अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या, 
धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ।। २ ।। 

अर्थ:
मैं जिसके प्रेम में रात दिन डूबा रहता हूँ - किसी क्षण भी जिसे नहीं भूलता, वह मुझे नहीं चाहती, किन्तु किसी और ही पुरुष को चाहती है । वह पुरुष किसी और ही स्त्री को चाहता है । इसी तरह वह स्त्री मुझे प्यार करती है । इसलिए उस स्त्री को, मेरी प्यारी के यार को, प्यारी को, मुझको और कामदेव को, जिसकी प्रेरणा से ऐसे ऐसे काम होते हैं, अनेक धिक्कार हैं । 


अज्ञः सुखमाराध्यः
सुखतरमाराध्य्ते विशेषज्ञ: ।
ज्ञानलवदुर्विदग्धं
ब्रह्मापि नरं न रञ्जयति 
।। ३ ।। 

अर्थ:
हिताहितज्ञानशून्य नासमझ को समझाना बहुत आसान है, उचित और अनुचित को जानने वाले ज्ञानवान को राजी करना और भी आसान है; किन्तु थोड़े से ज्ञान से अपने को पण्डित समझने वाले को स्वयं विधाता भी सन्तुष्ट नहीं कर सकता ।

संसार में तीन तरह के मनुष्य होते है 
अज्ञ - जिसे अपने भले-बुरे का ज्ञान नहीं, निरा मूर्ख ।
सुज्ञ - जिसे युक्तायुक्त, उचित और अनुचित का ज्ञान होता है ।
अल्पज्ञ - जिसे थोड़ा ज्ञान होता है, न वह पूरा पण्डित होता है और न ही निरा मूर्ख ।

दोहा:
सुख कर मूढ़ रिझाइये, अति सुख पण्डित लोग ।
स्वल्पज्ञाननिर्विष्ट को, विधिहु न रिझवान योग ।।


प्रसह्य मणिमुद्धरेन्मकरदंष्ट्रान्तरात्
समुद्रमपि सन्तरेत् प्रचलदुर्मिमालाकुलाम् ।
भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ।। ४ ।। 


अर्थ:
यदि मनुष्य चाहे तो मकर की दाढ़ों की नोक में से मणि निकल लेने का उद्योग भले ही करे; यदि चाहे तो चञ्चल लहरों से उथल-पुथल समुद्र को अपनी भुजाओं से तैर कर पार कर जाने की चेष्टा भले ही करे, क्रोध से भरे हुए सर्प को पुष्पहार की तरह सर पर धारण करने का साहस करे तो भले ही करे, परन्तु हठ पर चढ़े हुए मूर्ख मनुष्य के चित्त की असत मार्ग से सात मार्ग पर लाने की हिम्मत कभी न करे ।

जो मूरख उपदेश के, होते योग जहान ।
दुर्योधन कह बोध किन, आये श्याम सुजान ।। - गोस्वामी तुलसीदास 

लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नत: पीडयन् 
पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दित:।
कदाचिदपि पर्यटन् शशविषाणमासादयेत्
न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ।। ५ ।। 

अर्थ:
कदाचित कोई किसी तरकीब से बालू में से भी तेल निकल ले, कदाचित कोई प्यासा मृगतृष्णा के जल से भी अपनी प्यास शान्त कर ले; कदाचित कोई पृथ्वी पर घुमते घुमते घरगोश का सींग भी खोज ले; परन्तु हठ पर चढ़े हुए मूर्ख मनुष्य के चित्त को कोई भी अपने काबू में नहीं कर सकता ।


व्यालं बाल-मृणाल-तन्तुभिरसौरोद्धं समुज्जृम्भते, 
भेत्तुं वज्रमपि शिरीषकुसुम-प्रान्तेन सन्नह्यते । 
माधुर्यं मधुबिन्दुना रचयितुं क्षाराम्बुधेरीहते, 
ने तुं वांछति यः खलान्पथि सतां सूक्तैः सुधास्यन्दिभिः ।। ६ ।।

अर्थ:
जो मनुष्य अपने अमृतमय उपदेशों से दुष्ट को सुराह पर लाने की इच्छा करता है, वह उसके सामान अनुचित काम करता है, जो कोमल कमल की डण्डी के सूत से ही मतवाले हाथी को बांधना चाहता है, सिरस के नाजुक फूल की पंखुड़ी से हीरे को छेदना चाहता है अथवा एक बूँद मधु से खारे महासागर को मीठा करना चाहता है ।

फूले फलै न बेत, यद्यपि सुधा बरपहिं जल्द ।
मूरख-ह्रदय न चेत, जो गुरु मिले विरंचि-सम ।। - तुलसी 


स्वायत्तमेकान्तगुणं विधात्रा
विनिर्मितं छादनमज्ञतायाः ।
विशेषतः सर्वविदां समाजे
विभूषणं मौनमपण्डितानाम् ।। ७ ।।

अर्थ:
मूर्खों को अपनी मूर्खता छिपाने के लिए ब्रह्मा ने "मौन धारण करना" अच्छा उपाय बता दिया है और वह उनके अधीन भी कर दिया है । मौन मूर्खता का ढक्कन है । इतना ही नहीं वह विद्वानों की मण्डली में उनका आभूषण भी है ।



यदा किञ्चिज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः ।
यदा किञ्चित् किञ्चित् बुधजनसकाशादवगतं
तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः ।। ८  ।।

अर्थ:

जब मैं कुछ थोड़ा सा जानता था, तब मदोन्मत्त हाथी की तरह घमण्ड से अन्धा होकर, अपने को ही सर्वज्ञ समझता था । लेकिन ज्योंही मैंने विद्वानों की सङ्गति से कुछ जाना और सीखा, त्योंही मालूम हो गया की मैं तो निरा मूर्ख हूँ । उस समय मेरा मद ज्वर की तरह उतर गया ।

जौक:

हम जानते थे, इल्म से कुछ जानेंगे ।
जाना तो यह जाना, कि न जाना कुछ भी ।।

कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं
निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम् ।
सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते
न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम् ।। ९ ।।

अर्थ:
जिस तरह कीड़ो से भरे हुए, लार-युक्त, दुर्गन्धित, रस-मास हीन मनुष्य के घ्रणित हाड को आनंद से खाता हुआ कुत्ता, पास खड़े इन्द्र की भी शंका नहीं करता, उसी तरह क्षुद्र जीव, जिसका ग्रहण कर लेता है, उसकी तुच्छता पर ध्यान नहीं देता ।

कुण्डलिया: 

कूकर शिर कारा परै, गिरै बदन ते लार। 
बुरौ बास बिकराल तन, बुरौ हाल बीमार।।
बुरौ हाल बीमार, हाड सूखे को चाबत।
लखि इंद्रहु को निकट, कछु उर शंक न लावत।।
निठुर महा मनमांहि, देख घुर्रावत हूकर।
तैसे ही नर नीच, निलज डोलै ज्यों कूकर।।


शिरः शार्वं स्वर्गात् पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरम्।
महीध्रादुत्तुङगादवनिमवनेश्चापि जलधिम्।
अधो गङ्गा सेयं पदमुपगता स्तोकमथवा।
विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ।। १० ।।
 


अर्थ:

गङ्गा पहले स्वर्ग से शिव के मस्तक पर गिरी, उनके मस्तक से हिमालय पर्वत पर गिरी, वहां से पृथ्वी पर गिरी और पृथ्वी से बहती बहती समुद्र में जा गिरी । इस तरह ऊपर से नीचे गिरना आरम्भ होने पर, गङ्गा नीचे ही नीचे गिरी और स्वल्प हो गयी । गङ्गा की सी ही दशा उन लोगों की होती है, जो विवेक-भ्रष्ट हो जाते हैं, उनका भी अधःपतन गङ्गा की ही तरह सौ-सौ तरह होता है ।  



शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक् छत्रेण सूर्यातपो
नागेन्द्रोनिशितांकुशेन समदो दण्डेन गौर्गर्दभः ।
व्याधिर्भेषजसंग्रहैश्च विविधैः मन्त्रप्रयोगैर्विषं
सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम् ।। ११ ।।

अर्थ:

अग्नि को पानी से शांत किया जा सकता है, छाते से सूर्य की धूप को, तीक्ष्ण अङ्कुश से हाथी को, लकडी से मदोन्मत्त भैंसे या घोड़े को काबू में किया जा सकता है; अलग अलग दवाईयों से रोग, और विविध मन्त्रों से विष दूर हो सकता है; सभी चीज़ के लिए शास्त्रों में औषध है, लेकिन मूर्ख के लिए कोई औषध नहीं है ।

साहित्यसंगीतकलाविहीनः 

साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः । 
तृणं न खादन्नपि जीवमानः 
तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ।। १२ ।।

अर्थ:

जो मनुष्य साहित्य और संगीत कला से विहीन है, यानि जो साहित्य और संगीत शास्त्र का जरा भी ज्ञान नहीं रखता या इनमें अनुराग नहीं रखता, वह बिना पूँछ और सींग का पशु है । यह घास नहीं खाता और जीता है, यह इतर पशुओं का परम सौभाग्य है ।

येषां न विद्या न तपो न दानं 

ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः। 
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता 
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।। १३ ।।

अर्थ:

जिन्होंने न विद्या पढ़ी है, न तप किया है, न दान ही दिया है, न ज्ञान का ही उपार्जन किया है, न सच्चरित्रों का सा आचरण ही किया है, न गुण ही सीखा है, न धर्म का अनुष्ठान ही किया है - वे इस लोक में वृथा पृथ्वी का बोझ बढ़ाने वाले हैं, मनुष्य की सूरत-शकल में, चरते हुए पशु हैं ।


वरं पर्वतदुर्गेषु भ्रान्तं वनचरैः सह।
न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वप ।। १४ ।।


अर्थ:

बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है किंतु अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।

इल्म चंदा कि बेशतर रव्वानी।

चूं अमल दर तो नेस्त नादानी।।
न मुहक्किक बुवद न दानिशमन्द।
चारपाये वरो किताबे चन्द।।

किसी गधे पर यदि कुछ ग्रन्थ लाद दिए जाएं तो क्या वह उनसे विद्वान या बुद्धिमान बन सकता है?

चन्दन का भार उठाने वाला गधा केवल भार की बात को जानता है; वह चन्दन और उसके गुणों को नहीं जानता । इसी तरह जो अनेक शास्त्रो को पढ़ तो लेते हैं पर शास्त्रों के उपदेशानुसार नहीं चलते वे मूर्ख गधे ही हैं । ऐसो को खाली अहङ्कार ही होता है । इससे उनकी मूर्खता और भी भयंकर हो जाती है । अंग्रेजी में एक कहावत है "विद्या से मनुष्य बुद्धिमान हो जाता है, किन्तु मूर्ख उससे और भी मूर्ख हो जाता है ।

दोहा:

कुटिल क्रूर लोभी जो नर, करै न संगति ताहि।
ऋषि वशिष्ठ धेनु हरि, विश्वामित्र जु चाहि।।


शास्त्रोपस्कृत शब्द सुन्दरगिरः शिष्यप्रदेयागमाः
विख्याताः कवयो वसंति विषये यस्य प्रभोर्निर्धनाः|
तज्जाड्यं वसुधाधिपस्य सुधियस्त्वर्थं विनापीश्वराः
कुत्स्याःस्युः कुपरीक्षैर्न मणयो यैरर्घतः पातिताः।। १५ ।।


अर्थ:

जिन कवियों की वाणी शास्त्राध्ययन की वजह से शुद्ध और सुन्दर है, जिनमें शिष्यों को पढ़ाने की योग्यता है, जो अपनी योग्यता के लिए सुप्रसिद्ध हैं - ऐसे विद्वान् जिस राजा के राज्य में निर्धन रहते हैं वह राजा निस्संदेह मूर्ख है । कविजन तो बिना धन के भी श्रेष्ठ ही होते हैं । रत्नपारखी अगर रत्न का मोल घटा दे तो रत्न का मूल्य काम न हो जायेगा, रत्न का मूल्य तो जितना है उतना ही बना रहेगा, मूल्य घटने वाला अनाड़ी समझ जायेगा ।


हर्तुर्याति न गोचरं किमपि शं पुष्णाति यत्सर्वदा
ह्यार्थिभ्यः प्रतिपाद्यमानमनिशं प्राप्नोति वृद्धिं पराम् ||
कल्पान्तेष्वपि न प्रयाति निधनं विद्याख्यमन्तर्धनं
येषां तान्प्रति मानमुज्झत नृपाः कस्तैः सह स्पर्धते ।। १६ ।।



अर्थ:

विद्या एक ऐसा धन है जो एक चोर को भी नहीं दिखाई देता
है पर फिर भी जिस के पास भी यह धन होता है वह सदैव सुखी रहता है |
निश्चय ही विद्या प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों को दान देने से यह
दान दाता के सम्मान में तथा स्वयं भी निरन्तर वृद्धि प्राप्त करता है और
कल्पान्त तक (लाखों वर्षों तक ) इसका नाश नहीं हो सकता है | इसी
लिये विद्या को लोग एक गुप्त धन कहते हैं .और इसी लिये महान राजा
भी ऐसे विद्या धन से संपन्न व्यक्ति के प्रति अपने गर्व को त्याग कर
उसका सम्मान करते हैं | भला ऐसे व्यक्ति से कौन स्पर्धा कर सकता है ?


अधिगतपरमार्थान्पण्डितान्मावमंस्था
स्तृणमिव लघुलक्ष्मीर्नैव तान्संरुणद्धि ।
अभिनवमदलेखाश्यामगण्डस्थलानां
न भवति बिसतन्तुवरिणं वारणानाम् 
।। १७ ।।


अर्थ:

हे राजाओं ! जिन्हें परमार्थ साधन की कुञ्जी मिल गयी है, उन्हें आत्मज्ञान हो गया है, उनका आपलोग अपमान न कीजिये क्योंकि उनको तुम्हारी तिनके जैसे तुच्छ लक्ष्मी उसी तरह नहीं रोक सकती जिस तरह नवीन मद की धरा से सुशोभित श्याम मस्तक वाले मदोन्मत्त गजेंद्र को कमाल की डण्डी का सूत नहीं रोक सकता ।

महाकवि दाग:

तेरी बन्दा-नवाजी, हफ्त किश्वर वख्फा देती है।
जो तू मेरा, जहाँ मेरा, अरब मेरा, अजम मेरा ।।

तेरी सेवा करने से सातो विलायतों का राज्य मिल जाता है । जब तू अपना हो जाता है, तो सारे जहाँ के अपना होने में क्या संदेह है ।


कुण्डलिया:

पण्डित परमार्थीन को, नहिं करिये अपमान ।
तरुण-सम संपत को गिनै, बस नहिं होत सुजान ।।
बस नहिं होत सुजान, पटा झरमद है जैसे ।
कमलनाल के तन्तु बंधे, रुक रहीहै कैसे? ।।
तैसे इनको जान, सबहिं सुख शोभा मण्डित ।
आदरसो बस होत, मस्त हाथी ज्यों पण्डित ।।



अम्भोजिनीवनवासविलासमेव,
हंसस्य हन्ति नितरां कुपितो विधाता ।
न त्वस्य दुग्धजलभेदविधौ प्रसिद्धां,
वैदग्ध्यकीर्तिमपहर्तुमसौ समर्थः ।। १८ ।।

अर्थ:
अगर विधाता हंस से नितान्त ही कुपित हो जाय, तो उसका कमलवन का निवास और विलास नष्ट कर सकता है, किन्तु उसकी दूब और पानी को अलग अलग कर देने की प्रसिद्ध चतुराई की कीर्ति को स्वयं विधाता भी नष्ट नहीं कर सकता ।



दोहा:
कोपित यदि विधि हंस को, हरत निवास विलास।
पय पानी को पृथक गुण, तासु सकै नहि नाश।।


केयूरा न विभूषयन्ति पुरुषं हारा न चन्द्रोज्ज्वला
न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः ।
वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ।। १९  ।।


अर्थ:
बाजूबन्द, चन्द्रमा के समान मोतियों के हार, स्नान, चन्दनादि के लेपन, फूलों के श्रृंगार और सँवारे हुए, बालों से पुरुष की शोभा नहीं होती; पुरुष की शोभा केवल संस्कार की हुई वाणी से है; क्योंकि और सब भूषण निश्चय ही नष्ट हो जाते है, किन्तु वाणी-रुपी भूषण सदा वर्तमान रहता है ।

विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं
विद्या भोगकारी यशःसुखकारी विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परा देवता
विद्या राजसु पूजिता न तु धनं विद्याविहीनः पशुः ।।२० ।।


अर्थ:

विद्या मनुष्य का सच्चा रूप और छिपा हुआ धन है; विद्या मनुष्य को भोग, सुख और सुयश देने वाली है; विद्या गुरुओं की भी गुरु है, परदेश में विद्या ही बन्धु का काम करती है, विद्या ही परम देवता है, राजाओं में विद्या का ही मान है, धन का नहीं। जिसमें विद्या नहीं, वह पशु के समान है ।

गोस्वामी तुलसीदास:

तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक ।
साहस सुकृत सत्यव्रत, राम भरोसो एक ।।


क्षान्तिश्चेत्कवचेन किं, किमिरिभिः क्रोधोऽस्ति चेद्देहिनां
ज्ञातिश्चेदनलेन किं यदि सुहृद्दिव्यौषधिः किं फलम् ।
किं सर्पैर्यदि दुर्जनः, किमु धनैर्वुद्यानवद्या यदि
व्रीडा चेत्किमु भूषणैः सुकविता यद्यस्ति राज्येन किम् ।। २१  ।।


अर्थ:

यदि क्षमा है तो कवच की क्या आवश्यकता ? यदि क्रोध है तो शत्रुओं की क्या जरुरत है ? यदि स्वजातीय है तो अग्नि का क्या प्रयोजन ? यदि सुन्दर ह्रदय वाले मित्र हैं, तो आशुफलप्रद दिव्य औषधियों से क्या लाभ ? यदि दुर्जन है तो सर्पों से क्या ? यदि निर्दोष विद्या है तो धन से क्या प्रयोजन ? यदि लज्जा है तो जेवरों की क्या जरुरत ? यदि सुन्दर कविताशक्ति है तो राजवैभव का क्या प्रयोजन ?


दाक्षिण्यं स्वजने, दया परजने, शाट्यं सदा दुर्जने
प्रीतिः साधुजने, नयो नृपजने, विद्वज्जनेऽप्यार्जवम् ।
शौर्यं शत्रुजने, क्षमा गुरुजने, नारीजने धूर्तता
ये चैवं पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थितिः ।। २२  ।।


अर्थ:


जो अपने रिश्तेदारों के प्रति उदारता, दूसरों पर दया, दुष्टों के साथ शठता, सज्जनों के साथ प्रीति, राज सभा में नीति, विद्वानों के आगे नम्रता, शत्रुओं के साथ क्रूरता, गुरुजनों के सामने सेहेनशीलता और स्त्रियों में धूर्तता या चतुरता का बर्ताव करते हैं - उन्ही कला कुशल नर पुंङ्गवो से लोक मर्यादा या लोक स्थिति है; अर्थात जगत उन्ही पर ठहरा हुआ है ।



जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं , 

मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति । 
चेतः प्रसादयति दिक्षु तनोति कीर्तिं , 
सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम् ।। २३  ।।

अर्थ:

सत्संगति, बुद्धि की जड़ता को हरती है, वाणी में सत्य सींचती है, सम्मान की वृद्धि करती है, पापों को दूर करती है, चित्त को प्रसन्न करती है और दशों दिशाओं में कीर्ति को फैलाती है । कहो, सत्संगति मनुष्य में क्या नहीं करती ?

कबीरदास:

एक घडी आधी घडी, आधी सों भी आध।
कबिरा सङ्गति साधु की, कटे कोटि अपराध।।
कबिरा सङ्गति साधु की, नित प्रति कीजै जाये।
दुर्मति दूर बहावसी, देसी सुमति बताय।।


जयन्ति ते सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।

नास्ति येषां यशः काये जरामरणजं भयम्  ।। २४ ।।

अर्थ:

जो पुण्यात्मा कवि श्रेष्ठ श्रृंगार आदि नव रसों में सिद्ध हस्त हैं, वे धन्य हैं । उनकी जय हो ! उनकी कीर्ति रूप देह को बुढ़ापे और मृत्यु का भय नहीं ।

जौक:

रहता है सखुन से नाम, क़यामत तलक है जौक।
औलाद से तो है, यही दो पुश्त चार पुश्त ।।



सूनुः सच्चरितः सती प्रियतमा स्वामी प्रसादोन्मुखः
स्निग्धं मित्रमवञ्चकः परिजनो निःक्लेशलेशं मनः ।
आकारो रुचिरः स्थिरश्च विभवो विद्यावदातं मुखं
तुष्टे विष्टपकष्टहारिणि हरौ सम्प्राप्यते देहिना ॥ २५॥

अर्थ:

सदा चरणपरायण पुत्र, पतिव्रता सती स्त्री, प्रसन्नमुख स्वामी, स्नेही मित्र, निष्कपट नातेदार, केशरहित मन, सुन्दर आकृति, स्थिर संपत्ति और विद्या से शोभायमान मुख, ये सब उसे मिलते हैं जिस पर सर्व मनोरथों के पूर्ण करनेवाले स्वर्गपति कृष्ण भगवान् प्रसन्न होते हैं अर्थात विश्वेश लक्ष्मीपति नारायण की कृपा बिना उत्तमोत्तम पदार्थ नहीं मिलते ।

वृन्द कवी:
जैसो गन दिनों दई, तैसो रूप निबन्ध।
ये दोनों कहाँ पाइये, सोनो और सुगन्ध।।


प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं
काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम् ।
तृष्णास्रोतोविभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा
सामान्यः सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः श्रेयसामेष पन्थाः ॥ २६॥

अर्थ:


जीव हिंसा न करना, पराया धन हरण करने से मन को रोकना, सत्य बोलना, समय पर सामर्थ्यनुसार दान करना, पर-स्त्रियों की चर्चा न करना और न सुन्ना, तृष्णा के प्रवाह को तोडना, गुरुजनो के आगे नम्र रहना और सब प्राणियों पर दया करना - सामान्यतया, सब शास्त्रों के मत से ये सब मनुष्य के कल्याण के मार्ग हैं । 

शेख सादी:
ज़ेरे पायत गरिबदानी हाले मोर। 
हम चोहाले तस्त जेरे पाये पील।। 

तुम्हारे पाँव के नीचे दबी चींटी का वही हाल होता है, जो यदि तुम हाथी के पाँव के नीचे दब जाओ तो तुम्हारा हो ।

कबीरदास:
बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ि खाल।
जो बकरी को खात है, तिनको कौन हवाल?
मुर्गी मुल्ला सों कहै, ज़िबह करत है मोहि।
साहब लेखा माँगसी, संकट परि है तोहि ।।
गाला काटि कलमा भरे, किया कहै हलाल।
साहब लेखा माँगसी, तब होसी कौन हवाल?


प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः
प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः ।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः
प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति ॥२७॥


अर्थ:


संसार में तीन तरह के मनुष्य होते हैं:-१. नीच, २. मध्यम और ३. उत्तम । नीच मनुष्य, विघ्न होने के भय से काम को आरम्भ ही नहीं करते । मध्यम मनुष्य कार्य को आरम्भ तो कर देते हैं, किन्तु विघ्न होते ही उसे बीच में ही छोड़ देते हैं, परन्तु उत्तम मनुष्य जिस काम को आरम्भ कर देते हैं, उसे विघ्न पर विघ्न होने पर भी, पूरा करके ही छोड़ते हैं ।

शेख सादी :
मुश्किले नेस्त कि आसां न शवद ।
मर्द बायद कि, परेशां न शवद ।।

ऐसी कोई मुश्किन नहीं, जो आसान न हो जाय; पर यह जरूरी है कि मर्द घबराये नहीं ।


असन्तो नाभ्यर्थाः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः ।
प्रिया न्यायया वृत्ति र्मलिनमसभंगेऽप्यसुकरम्।।
विपद्युच्चैः स्थेयं पदमनुविधेयं च महताम्।
सतां केनोद्रिष्टं विषमसिधाराव्रत मिदम् ॥ २८ ॥

अर्थ:

सत्पुरुष दुष्टों से याचना नहीं करते, थोड़े धन वाले मित्रों से भी कुछ नहीं मांगते, न्याय की जीविका से संतुष्ट रहते हैं, प्राणों पर बन आने पर भी पाप कर्म नहीं करते, विषाद काल में वे ऊँचे बने रहते हैं यानी घबराते नहीं और महत पुरुषों के पदचिन्हों का अनुसरण करते हैं । इस तलवार की धार के सामान कठिन व्रत का उपदेश उन्हें किसने दिया ? किसी ने नहीं, वे स्वभाव से ही ऐसे होते हैं । मतलब ये है कि सत्पुरुषों में उपरोक्त गुण किसी के सिखाने से नहीं आते, उनमें ये सब गुण स्वभाव से या पैदाइशी होते हैं ।

वृन्द कवी:
मानधनी नर नीच पै, जाचे नाहिं जाय।
कबहुँ न मांगे स्यार पै, मरु भूखो मृगराज।।

तुलसीदास:
तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर न करो।
जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरण करो।।
घर से भूख पड़ रहे, दस फांके हो जाय।
तुलसी भैया बंधू के, कबहुँ न मांगें जाय।।

शेखसादी:
अगर हिनज़ल खुरी अज़ दस्त खुशरुए।
वह अज़ शीरीनी दस्ते तुर्शरुए।।

दुष्ट के हाथ से मिठाई खाने की अपेक्षा सज्जन के हाथ से इन्द्रायण का कड़वा फल खाना अच्छा ।



मानशौर्य प्रशंसा
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क्षुत्क्षामोऽपि जराकृशोऽपि शिथिलप्राणोऽपि कष्टां दशाम्
आपन्नोऽपि विपन्नदीधितिरिति प्राणेषु नश्यत्स्वपि ।
मत्तेभेन्द्रविभिन्नकुम्भपिशितग्रासैकबद्धस्पृहः
किं जीर्णं तृणमत्ति मानमहतामग्रेसरः केसरी  ॥ २९ ॥

अर्थ:
जो सिंह माननीयों में अगुआ है और जो सदा मतवाले हाथियों के विदारे हुए मस्तक के ग्रास का चाहनेवाला है, वह चाहे कितना ही भूख, बुढ़ापे के मारे शिथिल, शक्तिहीन अत्यंत दुःखी और तेजहीन क्यों न हो जाय - पर वह प्राणनाश का समय आने पर भी, सूखी हुई, सड़ी घास खाने को हरगिज़ तैयार न होगा ।

गिरधर कविराज:
पीवे नीर न सरवरो, बूँद स्वाति की आश।
केहरि तरुण नहिं चर सके जो व्रत करे पचाश।।
जो व्रत करे पचाश, विपुल गज-युत्थ विदारे।
सत्पुरुष तजै न धीर, जीव अरु कोई मारे।।
कह गिरिधर कविराज जीव जोधक मरि जीवै।
चातक अरु मर जाय, नीर सरवर नहिं पीवै।।



स्वल्पं स्नायुवसावशेषमलिनं निर्मांसमप्यस्थि गोः
श्वा लब्ध्वा परितोषमेति न तु तत्तस्य क्षुधाशान्तये ।
सिंहो जम्बुकमङ्कमागतमपि त्यक्त्वा निहन्ति द्विपं 
सर्वः कृच्छगतोपि वाञ्छति जनः सत्त्वानुरूपं फलम् ।। ३० ।।

अर्थ:
कुत्ता, गाय प्रभृत्ति पशु का जरा सा पित्त और चर्बी लगा हुआ मलिन और मांसहीन छोटा सा हाड का टुकड़ा पाकर - जिससे उसकी क्षुधा शांत नहीं हो सकती - अत्यन्त प्रसन्न होता है, लेकिन सिंह गोद में आये हुए सियार को भी त्याग कर हाथी के मरने को दौड़ता है ।

वृन्द कवी:
बड़े कष्ट हू जे बड़े, करें उचित ही काज।
स्यार निकट तजि खोज के, सिंह हने गजराज।।

कुण्डलिया:
कूकर सूखे हाड सों, मानत है मन मोद।
सिंह चलावत हाथ नहिं, गीदड़ आये गोद।।
गीदड़ आये गोद, आँखहू नाहिं उधारे।
महामत्त गज देख, दौर के कुम्भ विदारे।।
ऐसे ही न खरे, बढ़ी कृत करत दुहूँकर।
करैं नीचता नीच, क्रूर कुत्सित ज्यों कूकर।।


लाङ्गूलचालनमधश्चरणावपातम् 
भूमौ निपत्य वदनोदरदर्शनं च ।
श्वा पिण्डदस्य कुरुते गजपुङ्गवस्तु 
धीरं विलोकयति चाटुशतैश्च भुङ्कते  ३१  

अर्थ:
कुत्ते को देखिये, कि वह अपने रोटी देने वाले के सामने पूँछ हिलाता है, उसके चरणों में गिरता है, जमीन पर लेट कर उसे अपना मुह और पेट दिखता है, उधर श्रेष्ठ गाज को देखिये, कि वह अपने खिलाने वाले की तरफ धीरता से देखता है और सैकड़ों तरह की खुशामदें करा के ही खाता है।

"गुलिस्तां" में लिखा है:
नानम अफजूदो आ बरूयम कास्त।
बेनवाई वह अज़ मज़िल्लते ख्वास्त।।

जिस रोटी से इज़्ज़त घटे, उस 'रोज़ी' से गरीबी भली ।

दोहा:
स्वान लेत लोयो लपक, दीन मान करि दूर।
सौ कों दे भक्षण करत, धीर चीर गजपूर।।


स जातो येन जातेन याति वंशः समुन्नतिम् । 
परिवर्तिनि संसारे मृतः को वा न जायते ॥ ३२ 

अर्थ:
इस परिवर्तनशील जगत में मर कर कौन जन्म नहीं लेता? जन्म लेना उसी का सार्थक है, जिसके जन्म से वंशनकी गौरव वृद्धि या उन्नति हो ।

दोहा:
जन्म मरण जग चक्र में ये दो बात महान।
करै जु उन्नति वंश की जन्मयौ सो ही जान।।

कुसुमस्तबकस्येव द्वे गती स्तो मनस्विनाम् । 
मूर्ध्नि वा सर्वलोकस्य विशीर्यते वनेડथवा  ३३ 

अर्थ:
फूलों के गुच्छे की तरह महापुरुषों की गति दो प्रकार की होती है - या तो वे सब लोगो के सिर पर ही विराजते हैं अथवा वन में पैदा होकर वन में ही मुरझा जाते हैं ।

दोहा:
पहुपगुच्छ सिर पै रहै, कै सूखै बन माहिं।
मान ठौर सत्पुरुष रहि, कै सुख दुख धन माहिं।।


सन्त्यन्येડपि बृहस्पतिप्रभृतयः सम्भाविताः पञ्चषा 
स्तान्प्रत्येषविशेषविक्रमरुची राहुर्न वैरायते ।
द्वावेव ग्रसते दिनेश्वरनिशाप्राणेश्वरौ भासुरौ 
भ्रान्तः पर्वणि पश्य दानवपतिः शीर्षावशेषीकृतः  ३४ 

अर्थ:
आकाश में बृहस्पति प्रभृत्ति और भी पांच छः ग्रह श्रेष्ठ हैं, पर असाधारण पराक्रम दिखाने की इच्छा रखनेवाला राहु इन ग्रहों से बैर नहीं करता । यद्यपि दानवपति का सिर मात्र अवशेष रह गया है तो भी वह अमावस्या और पूर्णिमा को - दिनेश्वर सूर्य और निशानाथ चन्द्र को ही ग्रास करता है ।

माह पुरुषों का स्वाभाव होता है कि वो छोटो से वैरभाव नहीं करते क्योंकि छोटो को जीतने से नेकनामी नहीं मिलती पर हार जाने पर बदनामी होती है - छोटो से जीतने पर भी हार और हारने पर भी हार । महापुरुष, इसलिए, अपने समान या अधिक बलवानों से ही युद्ध करते हैं।

भामिनि विलास:
वेतंडगंडकंडूति पाण्डित्य परिपंथिना।
हरिणा हरिणालीषु कथ्यताम कः पराक्रमः।।

अर्थ: गजगंडस्थल की कंडू(खुजली) को नाश करनेवाला सिंह हरिणों में अपने किस पराक्रम का वर्णन करे? (वीर पुरुष स्व समान पुरुषों ही में अपना पराक्रम प्रकट करते हैं, नीचों में नहीं।)

वहति भुवनश्रेणीं शेषः फणाफलकस्थितां
कमठपतिना मध्येपृष्ठं सदा स विधार्यते ।
तमपि कुरुते क्रोडाधीनं पयोधिरनादरा-
दहह महतां निःसीमानश्चरित्रविभूतयः  ३५ 

अर्थ:
शेषनाग ने चौदह भुवनों की श्रेणी को अपने फन पर धारण कर रखा है, उस शेषनाग को कच्छपराज ने अपनी पीठ के मध्य भाग पर धारण कर रखा है, किन्तु समुद्र ने इन कच्छपराज को भी हलकी सी चीज समझ कर अपनी गोद में रख छोड़ा है । इससे प्रत्यक्ष है, कि बड़ो के चरित्र की विभूति की कोई सीमा नहीं है ।

वृन्द कवी:
बड़े जो चाहें सो करैं, करन मतो उर धारि।
बड़े भार ले निरबहें, तजत न खेद बिचारि।।
बड़े भार ले निरबहें, तजत न खेदा बिचार।
शेष धरा धरि धर धरैं, अब लों देत्त न डार।।

वरं पक्षच्छेदः समदमघवन्मुक्तकुलिश-
प्रहारैरुद्गच्छद्बहलदहनोद्गारगुरुभिः ।
तुषाराद्रेः सूनोरहह पितरि क्लेशविवशे 
न चासौ सम्पातः पयसि पयसां पत्युरुचितः  ३६ 

अर्थ:
हिमालय पुत्र मैनाक ने पिता को संकट में छोड़ कर, अपनी रक्षा के लिए समुद्र की शरण ली - यह काम उसने अच्छा नहीं किया । इससे तो यही अच्छा होता, कि मैनाक स्वयं भी मदोन्मत्त इन्द्र के अग्निज्वाला उगलनेवाले वज्र से अपने भी पंख कटवा लेता ।

यदचेतनोડपि पादैः स्पृष्टः प्रज्वलति सवितुरिनकान्तः ।
तत्तेजस्वी पुरुषः परकृतविकृतिं कथं सहते  ३७ 

अर्थ:
जब चेतना रहित सूर्यकान्त मणि भी सूर्य किरण रूप पैरों के लगने से जल उठती है, तब चेतना सहित तेजस्वी पुरुष, पर का किया अपमान कैसे सह सकते हैं ?

दोहा:
बचन बाणसम श्रवण सुन, सहत कौन रिस त्याग ?
सूरजपद परिहार ते, पाहन उगलत आग।

सिंहः शिशुरपि निपतति मदमलिनकपोलभित्तिषु गजेषु ।
प्रकृतिरियं सत्त्ववतां न खलु वयस्तेजसो हेतुः  ३८ 

अर्थ:
सिंह चाहे छोटा बालक भी हो, तो भी वह मद से मलीन कपोलो वाले उत्तम गज के मस्तक पर ही चोट करता है । यह तेजस्वियों का स्वभाव ही है । निस्संदेह अवस्था तेज के कारण नहीं होती।

सिंह का बच्चा नितान्त छोटा होने पर भी मदोन्मत्त हाथी के गण्डस्थलों पर ही चोट करता है; यह उसका स्वभाव हैं।

अवस्था से तेज नहीं होता। शकुंतला पुत्र महाराज भरत बाल्यावस्था में ही, हिमालय पर, सिंह के कान पकड़ कर उसके साथ खेला करते थे । 

दोहा:
टूट सिंह शिशु करि निकर, बिचलावै क्षण माहिं।
तेजवान की प्रकृति यह, तेज हेतु बय नाहिं।।


धन महिमा 

जातिर्यातु रसातलं गुणगणस्तस्याप्यधो गच्छतु 
शीलं शैलतटात्पतत्वभिजनः संदह्यतां वह्निना ।
शौर्ये वैरिणि वज्रमाशुनिपतत्वर्थोડस्तु नः केवलं
येनैकेन विना गुणास्तृणलवप्रायाः समस्ता इमे  ३९ 

अर्थ:
यदि जाति पाताल को चली जाय, सारे गुण पाताळ से भी नीचे चले जाएं, शील पर्वत से गिर कर नष्टभो जाये, स्वजन अग्नि में कर भस्म हो जाएं और वैरिन शूरता पर वज्रपात हो जाये - तो कोई हर्ज नहीं, लेकिन हमारा धन नष्ट न हो, हमें तो केवल धन चाहिए, क्योंकि धन के बिना मनुष्य के सारे गुण तिनके की तरह निकम्मे हैं ।

तानीन्द्रियाणि सकलानि तदेव कर्म
सा बुद्धिरप्रतिहता वचनं तदेव । 
अर्थोष्मणा विरहितः वचनं तदेव 
त्वन्यः क्षणेन भवतीति विचित्रमेतत्  ४० 

अर्थ:
सारी इन्द्रियां वे की वे ही हैं, काम भी सब वैसे ही हैं, परंतु एक धन की गर्मी बिना वही पुरुष और का और हो जाता है। निस्संदेह यह एक विचित्र बात है ।

दोहा:
वै इन्द्री वै कर्म हैं, वही बुद्धि वही ठौर।
धनविहीन नर क्षणहि में, होत और ते और।।

निर्धनता मनुष्य का घोर दुःख और अपमान करने वाली है । निर्धन के भाई बन्धु निर्धन को जीवित अवस्था ही में मुर्दे की तरह समझते हैं ।

यस्यास्ति वित्तं स नरः कुलीनः स पण्डितः स श्रुतवान्गुणज्ञः ।
स एव वक्ता स च दर्शनीयः सर्वे गुणाः काञ्चनमाश्रयन्ते  ४१ 

अर्थ:
जिसके पास धन है, वही कुलीन, पण्डित, शास्त्रज्ञ, वक्ता और दर्शनीय है । इससे सिद्ध हुआ कि सारे गुण धन में ही हैं ।

धनहीन का मर जाना या वन में रहना भला क्योंकि धनहीन का कोई आदर नहीं करता । और तो क्या, सेज माँ बाप और स्त्री तक धनहीन को नफरत की नजर से देखते हैं । इसलिए समझदार लोग जब उद्योग करने पर भी धन को प्राप्त नहीं कर सकते - सब कुछ करके थक जाते हैं, तब अपमान के भय से वन में चले जाते हैं ।

कहा है :-

वर वन व्याघ्रगजेन्द्र सेवितं।
द्रुमालयः पक्व फलाम्बु भोजनं।।
तृणानि शय्या परिधान वल्कलं।
न बन्धुमध्ये धनहीनजीवनं।।

सिंह व्याघ्रादि वाले वन में पेड़ के नीचे बसना, पके पके फल खाना, जल पीना और घास की शय्या पर सोना भला; पर भाई बन्धुओं के बीच में निर्धन होकर रहना भला नहीं ।

धन बिना धर्म नहीं होता । धर्म और अर्थ आपस में एक दुसरे की पुष्टि करते हैं। मनुष्य को दिन के पहले भाग में धर्माचरण, दुसरे भाग में अर्थ सञ्चय और तीसरे भाग में कामानुशीलन करना चाहिए । जो यथासमय त्रिवर्ग साधन करते हैं, वे धर्मतत्व के जाननेवाले पण्डित हैं । धन बिना धर्म और काम की प्राप्ति में बाधा पड़ती है; इसलिए धनोपार्जन अवश्य करना चाहिए और साथ ही सञ्चित धन की रक्षा करनी चाहिए । धन से स्वयं सुख भोगने चाहिये और उसे सत्पात्रों को देकर पुण्य सञ्चय करना चाहिए । धन की गर्मी मनुष्य के तेज को बढाती है और यदि उसका भोग और त्याग हो, तब तो कहना ही क्या?

दोहा:
सोई पंडित वक्ता गुणी, दर्शन योग कुलीन।
जाके ढिंग लक्ष्मी अहे, सब गुण तिहि आधीन।।


दौर्मन्त्र्यान्नृपतिर्विनश्यति यतिः संगात्सुतो लालना-
द्विप्रोડनध्ययनात्कुलं कुतनयात् शीलं खलोपासनात् ।
ह्रीर्मद्यादनवेक्षणादपि कृषिः स्नेहः प्रवासाश्रया-
न्मैत्री चाप्रणयात्समृद्धिरनयात्त्यागात्प्रमादाद्धनम्  ४२ 

अर्थ:
दुष्ट मन्त्री से राजा, सन्सारियों की सङ्गति से सन्यासी, लाड से पुत्र, न पढ़ने से ब्राह्मण, कुपुत्र से कुल, खल की सेवा से शील, मदिरा पीने से लज्जा, देखभाल न करने से खेती, विदेश में रहने से स्नेह, प्रीती न करने से मित्रता, अनीति से संपत्ति और अंधाधुंध खर्च करने से संपत्ति नष्ट हो जाती है ।

"गुलिस्तां" में एक कहानी है : दमस्कम शहर के निकट वन में एक फ़कीर रहता था । वह पेड़ो के पत्ते खाकर निर्वाह करता था । एक रोज वहा का बादशाह उसके दर्शन करने आ गया और उसे बहुत कुछ कह सुनकर अपने शहर ले आया । अपने निज के बाग़ में उसका डेरा करा दिया और चाँद अव्वल दर्जे की खूबसूरत दासियाँ उसकी सेवा में नियुक्त कर दी । चन्द रोज बाद ही वह फ़कीर उत्तमोत्तम भोजन करने और भांति भांति की पोशाके पहनने तथा कुंवारी स्त्रियों और उनकी सहेलियों की सोहबत का आनंद लूटने लगा । बहुत लिखना वृथा है, वह पूरा आमिर और अय्याश बन गया । महापुरुषों ने कहा है कि, सुंदरी युवती कि ज़ुल्फ़ें, विचार शक्ति के पैरों कि बेड़ियाँ हैं - यह बात सोलह आने ठीक हुई ।

कुछ बातचीत के बाद बादशाह ने कहा - "मुझे विद्वान और एकांतवासी सन्यासी अच्छे लगते हैं।" एक अनुभवी और समझदार मन्त्री ने कहा - "हुज़ूर आप विद्वानों को धन दें जिससे और लोग भी विद्वान बनें और संसार त्यति सन्यासियों को कुछ भी न दें जिससे उनकी विरक्ति बनी रहे।" बादशाह बुद्धिमान मन्त्री कि बात से खुश हुआ और अपने किये पर पछताया । वैरागियों को इससे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए । उन्हें खूब ख्याल रखना चाहिए कि इन्द्रियां बड़ी प्रबल हैं । ये सदा मनुष्य को विषयों कि ओर खींच ले जाने कि चेष्टा करती हैं । जब विश्वामित्र जैसे तपस्वी मेनका के रूपजाल में फंसकर अपना तप भङ्ग कर बैठे और पाराशर नाव में ही नाविक कि कन्या पर लट्टू हो गए । जब ऐसे ऐसे जितेन्द्रियों के दिल मोहिनियों के मोहपाश में फंस गए, तब साधारण साधू सन्यासी कि बाड़ी के बथुए हैं ?

कहा है :
तीव्र तपस में लीन, नहिं कर इन्द्रिय विश्वास ।
विश्वामित्र जु मेनका, कण्ठ लगायी हुलास ।।

लालने बहुवो दोषः, ताड़ने बहुवो गुणाः।
तस्मात् पुत्रश्च शिश्यश्च, ताड्येत न तू लालयेत।।

लाड करने में बहुत से दोष हैं; ताड़ना करने में बहुत गुण हैं इसीलिए पुत्र और शिष्य को ताड़ना देनी चाहिए, लाड न करना चाहिए ।

दानं भोगो नाशस्तिस्रो गतयः भवन्ति वित्तस्य ।
यो न ददाति न भुङ्क्ते तस्य तृतीया गतिर्भवति  ४३ 

अर्थ:
दान, भोग और नाश - धन की यही तीव्र गति है । जिसने न दिया और न भोगा उसके धन की तीसरी गति होती है ।

वृन्द:
खाय न खर्चे सूम धन, चोर सबै ले जाय।
पीछे ज्यों मधु-मच्छिका, हाथ मले पछताय।।

गिरिधर:
खायो जाय सो खायरे, दियो जाय सो देह।
इन दोनों से जो बचै, सो तुम जानो खेह।।
सो तुम जानो खेह, सिके पुनि काम न आवे।
सर्व शोक को बीज, पुनः पुनि तुझे रुलावे।।
कह गिरिधर कविराज, चरण त्रै धन के गायो।
दान भोग बिन नाश होत, जो दियो न खायो।।

सोरठा:
दान भोग अरु नाश, तीन होत गति द्रव्य को।
नाहिन द्वै को बास, तहाँ तीसरो बसत है।।


मणि: शाणोल्लीढ: समरविजयी हेतनिहतो
मदक्षिणो नाग: शरदि सरित: श्यानपुलिनाः ।
कलाशेषश्चन्द्र: सुरत्मृदित बालवनिता
तनिम्ना: शोभन्ते गलितविभवाश्चार्थिषु जनाः 
 ४४  

अर्थ:
सान पर खरादी हुई मणि, हथियारों से घायल विजयी योद्धा, मदक्षीण हाथी, शरद ऋतू की सूखे किनारों और अल्पजळ वाली नदी, कलाहीन दूज का चन्द्रमा, सुरत के मर्दन चुम्बन आदि से थकी हुई नवयुवती और अपना सारा ही धन दान करके दरिद्र हुए सज्जन पुरुष - ये सब अपनी हानि या दुर्बलता से ही शोभा पाते हैं ।

तात्पर्य यह है की मणि और योद्धा प्रभृत्ति की शोभा क्षीणता से उल्टी बढ़ जाती है । विशेष कर के वह दानी जो अपने दान के कारण दरिद्र हो जाता है, सबसे अधिक शोभायमान लगता है । उसकी जितनी ही प्रशंसा की जाय थोड़ी है । महाराजा हरिश्चन्द्र और राजा बलि ने अपना सर्वस्व दान करके जो शोभा और अक्षय कीर्ति सम्पादन की है, वह प्रलय काल तक स्थिर रहेगी ।

कुण्डलिया:
छोटो हु नीकी लगे, मणि खरषाण चढ़ीसु ।
वीर अंग कटि शस्त्रसो, शोभा सरस बढ़ीसु ।।
शोभा सरस बढ़ीसु, अंग गज मदकर छिनहि ।
द्वैज कला शशि साह, शरदि सरिता जिमि हीनहि ।।
सुरत दलमली नार, लहत सुन्दरता मोटी ।
अर्थिं को धन देत, घटी सो नाहिन छोटी ।।

जब मनुष्य दरिद्र होता है, तब तो एक पस्से जौ की भूसी की इच्छा करता है, पर वही मनुष्य जब धनवान हो जाता है, तब साड़ी पृथ्वी को तिनके के सामान समंझने लगता है । इससे स्पष्ट है, कि मनुष्य को विशेष अवस्थाएं ही पदार्थ में अपनी लघुता या गुरुता के कारण भिन्नता पैदा करती हैं, कभी उन्ही वस्तुओं को फैलाती कभी सिकुड़ाती हैं; अर्थात धनावस्था और दरिद्रावस्था ही मनुष्य को छोटा या बड़ा बनती है ।

छप्पय:

होत वहै धनहीन, तबै अंजलि जौ माँगत ।
धन पाय बौराय, ताहि महि तृणसम लागत ।।
दशा यही द्वै चपल, नरहि लघु दीर्घ बनावै ।
करहिं नीच को ऊँच, ऊँच को नींच जनावै ।।
जग यह विलोकि सज्जन पुरुष, सदा रहे समता धरे ।
ते पूर्ण रहे अम्भोधि जनु, प्रेम ईश वश में करे ।।


राजन्दुधुक्षसि यदि क्षितिधेनुमेतां 

तेनाद्य वत्तमिव लोकममुं पुषाण । 
तस्मिंश्च सम्यगनिइां परिपोष्यमाणे 
नानाफलैः फलति कल्पलतेव भूमिः  ४६ 

अर्थ:

हे राजा ! अगर तुम पृथ्वी रुपी गाय को दुहना चाहते हो, तो प्रजा रुपी बछड़े का पालन पोषण करो । यदि तुम प्रजा रुपी बछड़े का अच्छी तरह पालन पोषण करोगे, तो पृथ्वी स्वर्गीय कल्पलता की तरह आपको नाना प्रकार के फल देगी ।

दोहा:

धेनु-धरा को चाहत पय, प्रजा वत्स करि मान ।
याकौ परिपोषण किये, कल्पवृक्ष सम जान ।।


सत्याअन्रिता च परूशा प्रियवादिनी च

हिन्सा दयालुरपि चार्थपरा वदान्या ।
नित्यव्यया प्रचुरनित्यधनागमा च
वेश्यान्गनेव न्रिप नीतिरनेकरूपा  ४७ 

अर्थ:

राजनीति, वेश्या की नाइ अनेक रूपिणी होती है । कहीं यह सत्यवादिनी और कहीं असत्यवादिनी, कहीं कटुभाषिणी और कहीं प्रियभाषिणी, कहीं हिंसा करने वाली और कहीं दयालु, कहीं लोभी और कहीं उदार, कहीं अपव्यय करने वाली और कहीं धन सञ्चय करने वाली होती है ।

न राम सदृशो राजा पृथिव्या नितिमानभूत ।

न कूटनितिरभवत श्रीकृष्ण सदृशो नृपः ।।

इसी पृथ्वी पर रामचन्द्र के समान नीतिमान और श्रीकृष्ण के समान कूटनीतिज्ञ राजा नहीं हुआ । रामचन्द्र जी ने अपनी नीति के बल से वानरों को अपने वश में कर लिया और श्रीकृष्ण ने अपनी ही बहिन सुभद्रा, छल से अर्जुन को ब्याह दी ।



विद्या कीर्तिः पालनं ब्राह्मणानां

दानं भोगो मित्रसंरक्षणम्  च ।
येषामेते षड्गुणा न प्रवृत्ताः
कोऽर्थस्तेषां पार्थिवोपाश्रयेण  ४८ 

अर्थ:

जिन पुरुषों में विद्या, कीर्ति, ब्राह्मणो का पालन, दान, भोग और मित्रों की रक्षा - ये छः गुण नहीं हुए, उनकी राज सेवा वृथा है ।

दोहा:

विद्या, यश द्विज पालना, दान भोग सन्मान ।
नृप-सेवा इन छः बिना, निष्फल ज्ञान सुजान ।।


यद्धात्रा निजभालपट्टलिखितं स्तोकं महद् वा धनम् 

तत् प्राप्नोति मरूस्थलेऽपि नितरां मेरौ ततो नाधिकम् ।
तद्धीरो भव , वित्तवत्सु कॄपणां वॄत्तिं वॄथा मा कॄथा:
पश्य पयोनिधावपि घटो गॄह्णाति तुल्यं पय:  ४९ 

अर्थ:

थोड़ा या बहुत - जितना धन विधाता ने तुम्हारे भाग्य में लिख दिया है, उतना ही तुम्हें निश्चय ही मरुस्थल में भी मिल जायेगा; उससे ज्यादा तुमको सुमेरु पर भी नहीं मिल सकता; इसलिए सन्तोष करो, ढाणियों के सामने वृथा दीनता से याचना न करो; क्योंकि, देखो, घड़ा, समुद्र और कुएं से समान (समान मात्रा में) ही जल ग्रहण करता है ।

पञ्चतन्त्र:

न हि भवति यत्र भाव्यं, भवति च भाव्य विनापि यत्नेन ।
करतलगतमपि नश्यति यस्य तु भवितव्यता नास्ति ।।

जो होनहार नहीं है, वह नहीं होता और जो होनहार है, वह बिना उपाय किये हि हो जाता है । जो हमारे भाग्य में नहीं है, वह हाथ में आकर भी नष्ट हो जाता है ।

मनुष्य ने जितना पूर्वजन्म में बोया है, उतना वह अवश्य ही कटेगा । सारा सन्सार प्रारब्ध और पुरुषार्थ में ही विद्यमान है । पूर्वजन्म के कर्म को प्रारब्ध और इस जन्म के कर्म को पुरुषार्थ कहते हैं ।

 एक ही कर्म के दो नाम हैं । फलों की प्राप्ति का हेतु प्रत्यक्ष नहीं दीखता । फलों की प्राप्ति पूर्वजन्म के कर्मानुसार ही होती है । देखते हैं की कोई कोई बिना जरा सा भी उद्योग और परिश्रम किये अतुल संपत्ति का अधिकारी हो जाता है और कोई दिन-रात घोर परिश्रम करने पर भी पेट भर अन्न नहीं पाता । जिस तरह बछड़ा अपनी माँ कोई हजारों गायों में भी पहचान लेता है ; उसी तरह पूर्वजन्म का कर्म अपने करता को चट पहचान लेता है । किया हुआ कर्म, सोते के साथ सोता है, चलते के साथ चलता है; बहुत क्या, पूर्वकृत कर्म आत्मा के साथ रहता है । छाया और धूप का आपस में जो सम्बन्ध है, कर्ता और कर्म का भी वही सम्बन्ध है ।


दोहा:

भाल लिखौ जू विरंचि वह, घटै बढ़ै कछु नाहिं ।
मुरधर कञ्चन मेरु-सम, जान लेहुँ मनमाहि ।।


त्वमेव चातकाधारोડसीति केषां न गोचरः ।

किमम्भोदवराડस्माकं कार्पण्योक्तिः प्रतीक्ष्यते ।। ५० ।।

अर्थ:

हे श्रेष्ठ मेघ ! तुम्हीं हम पपहीयों के एकमात्र आधार हो, इस बात को कौन नहीं जानता ? हमारे दीन वचनों की प्रतीक्षा क्यों करते हो ?

चातक कहता है - " हे मेघ ! संसार में नद, नदी और सरोवर आदि अनेक जलाशय हैं; हम प्यासे ही क्यों न मर जाएं, पर तुम्हारे सिवा हम किसी का जल नहीं पीते । तुम्हारे जल के सिवा गङ्गा, जमुना, सरस्वती और सिंधु प्रभृति हमारे लिए धूल हैं । हम लोगों को तुम्हारा ही आश्रय है । इस दशा में तुम्हें उचित नहीं है, कि तुम हमसे बार बार दीनता कराओ ।


सज्जनो को अपने आश्रितों कि दीनता की प्रतीक्षा न करनी चाहिए । उनकी अनुनय- विनय और दीन वाणी के बिना ही उनकी आशा पूरी करनी चाहिए । जो अपने आश्रित को बिना दीनता कराये दे, उसके समान कौन दाता है ?


दोहा:

मेघ तुझे जाने जगत, पपिहा प्राण अधार ।
दीन वचन चाहत सुन्यौ, यह नहिं उचित विचारि ।।


दुर्जनो परिहर्तव्यो विद्यया भूपितोऽपि सन् ।

मणिनालङ्कृतः सर्प: किमसौ न भयङ्करः ।। ५३  ।।

अर्थ:

दुर्जन विद्वान् हो तो भी उसे त्याग देना ही उचित है, क्योंकि मणि से भूपित सर्प क्या भयङ्कर नहीं होता?

जिस तरह मणि धारण करने से सर्प की भयङ्करता नष्ट नहीं हो जाती; उसी तरह विद्या अध्ययन कर लेने से दुर्जनो की स्वाभाविक दुष्टता नहीं चली जाती ।


पञ्चतन्त्र में लिखा है:

न धर्मशास्त्र पठतीति कारण
न चापि वेदाध्ययनं दुरात्मनः ।
स्वभाव एवात्र तथातिरिच्यते
यथा प्रकृत्या मधुर गवां पयः ।।

धर्मशास्त्र के पढ़ने या वेदाध्ययन से दुष्टात्मा, साधु-स्वभाव नहीं होता; जिसका जो स्वाभाव है, वही प्रबल है, गाय का ढूढ़ स्वभाव से ही मीठा होता है ।


वृन्द कवी ने कहा है :

खाल विद्या-भूपति तउ, नहीं भरोस को मूल ।
जो मणि भूषित भुजग जग, नीच मीच सम तूल ।।
नहीं इलाज देख्यौ सुन्यौ, जासों मिटत स्वभाव ।
मधुपुत कोटिक देत तउ, विष न तजत विष-भाव ।।

किसी का भी जन्म स्वभाव नहीं बदलता । विद्या उत्तम चीज़ है, पर स्वभाव बदलने की शक्ति उसमें भी नहीं है । विद्या से मनुष्य में बुद्धिमत्ता आती है, पर मूर्ख की मूर्खता और भी बढ़ती है । विद्या से दुष्टों को एक प्रकार का बल और मिल जाता है । विद्याबल से उनकी दुष्टताएँ और भी भीषण रूप धारण कर लेती हैं । स्वाति की बूँद सीप में पड़कर मोती का रूपधारण करती है और सर्प के मुख में पड़कर भयङ्कर विष हो जाती है । जो अयोग्य और नालायक होता है, जिसकी असलिलयात ही ख़राब होती है, उसे कैसी भी उत्तम शिक्षा दी जाये और कैसी भी अच्छी सङ्गत में रखा जाये, वह हरगिज़ उत्तम न होगा । पानी को कितना ही गरम कीजिये, थोड़ी देर बाद वह शीतल हो ही जायेगा यानि अपने असल स्वभाव पर आ जायेगा । लहसुन और हींग, कस्तूरी के हजारों पुट दिए जाने पर भी अपने स्वाभाव को नहीं त्यागते; उनकी असली गन्ध बनी ही रहती है । जीभ पर कितनी ही चिकनाई ल्हेसी जाये, पर वह चिकनी न होगी । नीम में कितना ही गुड़-घी सींचा जाये, पर वह मीठा न होगा , जिसका स्वाभाव जैसा है, वैसे ही रहेगा ।


रावण कम विद्वान् नहीं था, पर विद्वान् होने से क्या उसकी दुष्टता चली गयी थी ? इन बातों को हृदयंगम करके, अपना भला चाहने वालों को अपढ़-निरक्षर दुष्टों से तो बचना ही चाहिए, पर पढ़े लिखे या विद्वान् दुर्जनो से और भी अधिक दूर रहना चाहिए । निरक्षर दुर्जनो से साक्षर दुर्जन अधिक भयङ्कर होते हैं । बहुत कहने से क्या, असली स्वाभाव किसी भी उपाय से मिट नहीं सकता ।



जाड्यं ह्रीमति गण्यते व्रतरुचौ दम्भः शुचौ कैतवं 
शूरे निघृणता ऋजौ विमतिता दैन्यं प्रियालापिनि ।
तेजस्विन्यवलिप्तता मुखरता वक्तर्यशक्तिः स्थिरे 
तत्को नाम गुणो भवेत् स गुणिनां यो दुर्जनैर्नांकितः ।। ५४ ।।

अर्थ:

लज्जावानों को मूर्ख, व्रत उपवास करने वालों को ठग, पवित्रता से रहने वालों को धूर्त, शूरवीरों को निर्दयी, चुप रहने वालों को निर्बुद्धि, मधुर भाषियों को दीन, तेजस्वियों को अहङ्कारी, वक्ताओं को बकवादी(वाचाल) और शांत पुरुषों को असमर्थ कह कर दुष्टों ने गुणियों के कौन से गन को कलङ्कित नहीं किया ?

दुर्जनो को सज्जनो से स्वाभाविक बैर होता है । जिस तरह मूर्ख पण्डितों से, दरिद्र धनियों से, व्यभिचारिणी कुल-स्त्रियों से और विधवा सधवाओं से सदा जलती रहती है उसी तरह दुर्जन सज्जनो से जला करते है ।


ऐसो से ही दुखित होकर महाकवि ग़ालिब ने कहा है:

रहिये अब ऐसी जगह चलकर जहाँ कोई न हो ।
हमसखुन कोई न हो और हम-जबाँ कोई न हो ।।
वे दरो-दीवार सा इक घर बनाना चाहिए ।
कोई हमसाया न हो और कोई पासबाँ न हो ।।

संसार रहने की जगह नहीं, यहाँ ईर्ष्या-द्वेष का बाजार गर्म है । जी में आता है, ऐसी जगह चलकर रहिये, जहाँ कोई न हो । हमारी बात कोई न समझे और न हम किसी की समझें । मकान भी ऐसा हो जिसमें न दर हो न दीवार अर्थात शुद्ध जङ्गळ हो, न कोई साथी न पडोसी ।


इसी तरह एक अंग्रजी विद्वान् ने दुष्टो से दुखित हो कर कहा है  -

the better I know men the more I admire dogs.

जो लोग इन दुष्टों में ही रहना चाहें अथवा इच्छा न होने पर भी रहे बिना न सरे, उनको इन दुष्टों की बातों पर कान न देना चाहिए । मन में समझना चाहिए, हम तो कौन चीज हैं, ये बड़े बड़ों की निंदा करते हैं । इनकी निन्दा से हमारा क्या बिगड़ जायेगा ?


तुलसीदास ने कहा है:

द्वारे टाट न दे सकहिं, तुलसी जे नर नीच ।
निदरहिं बल हरिचन्द कहे, कहु का करण दधीच ।।
भलो कहहिं जाने बिना, की अथवा अपवाद ।
तुलसी गावर जानि जिय करब न हर्ष विषाद ।।
तुलसी दे बल राम के, लागे लाख करोड़ ।
काक अभागे हगि भरे, महिमा भयहु न थोर ।।

नीच लोग दरवाजे पर तो टाट भी नहीं लगा सकते, पर बलि और हरिश्चन्द्र जैसे महादानियों की निन्दा करते हैं, कर्ण और दधीचि तो इनकी नजरों में कोई चीज़ नहीं ।

बिना जाने प्रशंसा करे या निन्दा, गंवार समझ कर इनकी बात पर न हर्ष ही करना चाहिए और न शोक ही करना चाहिए ।
रामचन्द्र जी के लाखों करोड़ों की लागत से बने मन्दिर पर अगर अभागा काक हग भरता है तो क्या मन्दिर की महिमा कम हो जाती है ?

लोभश्चेदगुणेन किं पिशुनता यद्यस्ति किं पातकैः 

सत्यं चेत्तपसा च किं शुचि मनो यद्यस्ति तीर्थेन किम् । 
सौजन्यं यदि किं गुणैः स्वमहिमा यद्यस्ति किं मण्डनैः 
सद्विद्या यदि किं धनैरपयशो यद्यस्ति किं मृत्युना ।। ५५ ।।

अर्थ:

यदि लोभ है तो और गुणों की जरुरत ? यदि परनिन्दा या चुगलखोरी है, तो और पापों की क्या आवश्यकता ? यदि सत्य है, तो तपस्या से क्या प्रयोजन ? यदि मन शुद्ध है तो तीर्थों से क्या लाभ ? यदि सज्जनता है तो गुणों की क्या जरुरत ? यदि कीर्ति है तो आभूषणों की क्या आवश्यकता ? यदि उत्तम विद्या है तो धन का क्या प्रयोजन ? यदि अपयश है तो मृत्यु से और क्या होगा ?

लोभ से ही काम, क्रोध और मोह की उत्पत्ति होती है और मोह से मनुष्य का नाश होता है । लोभ ही पापों का कारण है । लोभ से बुद्धि चञ्चल हो जाती है । लोभ से तृष्णा होती है । तृष्णार्त को दोनों लोकों में सुख नहीं । धन के लोभी को, असन्तोषी को, चञ्चल मन वाले को और अजितेन्द्रिय को सर्वत्र आफत है । लोभ सचमुच ही सब अवगुणों की खान है । लोभ होते है सब अवगुण अपने आप चले आते हैं । दुष्टों के मन में पहले लोभ ही होता है ; इसके बाद वे परनिन्दा, परपीड़न और हत्या प्रभृति कुकर्म करते है । रावण को सीता पर पहले लोभ ही हुआ था । दुर्योधन को पाण्डवों की सम्पत्ति पर पहले लोभ ही हुआ था  इसलिए मनुष्य को लोभ-शत्रु से बिलकुल दूर ही रहना चाहिए । जिसमें लोभ नहीं, वह सच्चा विद्वान् और पण्डित है । निर्लोभ को जगत में आपदा कहाँ ? अगर विद्वान् के मन में लोभ है तो वो विद्वान् कहा, मूर्ख है ।


कहा है -

काम क्रोध मद लोभ की, जब लगि मन में खान ।
का पण्डित का मूरखे, दोनों एक समान ।।

जो मनुष्य अस्पष्टता के कारण किसी ग्रन्थकर्ता की निन्दा करे, वह अपने ही चित्त में, विचार कर देखे, कि क्या वहां बिलकुल स्वच्छता है ।धुंधलके में स्पष्ट से स्पष्ट लेख नहीं समझ आता । जिनका दिल स्वच्छ नहीं होता उनको ही पराया काम सदोष दीखता है ।


कबीरदास ने कहा है:

निन्दक एकहु मति मिलै, पापी मिलै हजार।
एक निन्दक के सीस पर, हजार पाप को भार ।।

जिसका मन शुद्ध नहीं, जिसके ह्रदय में पाप है, वही दुष्ट है । वह सौ बार तीर्थ स्नान करने से भी शुद्ध नहीं हो सकता । क्या मदिरा का पात्र जलने से शुद्ध हो जाता है ? जिनके मन में काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ प्रभृति का निवास नहीं होता - उनका ही मन शुद्ध है, उनका ही मन रोग-रहित है । अगर मन शुद्ध रहे तो सारा काम ही बन जाये - स्वयं जगदीश ही न मिल जाएँ


कहा है:

मन दाता मन लालची, मन राजा मन रङ्क ।
जो यह मन हर सों मिले, तो हरि मिलै निःशङ्क ।।

हमारा स्वामी - परमेश्वर, मूर्खों को धन देता है । जिन्हे वह धन देता है, उन्हें वह सिवा धन के और कुछ नहीं देता ।  इन दुखों के सिवा धन से एक और दुःख है । वह यह कि मरण समय भी यह कष्ट देता है । जिस गधे पर हल्का बोझ होता है, वह आसानी से चला जाता है ;उसी तरह जो गरीब होते है, जिनके हाथी घोड़े महल मकान बाग़ बगीचे, बड़ा परिवार और अनेक प्रकार के रत्न, हीरा पन्ना आदि नहीं होते, वे सहज में देह त्याग कर जाते हैं , उन्हें प्राणान्त के समय भयङ्कर वेदना नहीं होती - इन सब दुखों के कारण ही विद्वान् लोग धन को पसन्द नहीं करते ।



शशी दिवसधूसरो गलितयौवना कामिनी 

सरो विगतवारिजं मुखमनक्षरं स्वाकृते: ।
प्रभुर्धनपरायण: सततदुर्गत: सज्जनो 
नृपाङ्गणगत: खलो मनसि सप्त शल्यानि मे ।। ५६ ।।

अर्थ:

दिन का मलिन चन्द्रमा, यौवनहीन कामिनी, कमलहीन सरोवर, निरक्षर रूपवान, कञ्जूस स्वामी या राजा, सज्जन की दरिद्री और राज सभा में दुष्टों का होना - ये सातों हमारे दिल में कांटे कि तरह चुभते हैं ।

परमात्मा ने अपने सभी कामों में कुछ न कुछ दोष रख दिए हैं और वे ही दोष चतुरों के दिल में खटकते हैं । अगर चन्द्रमा दिन में भी प्रभाहीन न होता, स्त्री का यौवन सदा रहता, सरोवर कभी कमल-शून्य न होता, रूपवान विद्वान् होते, धनी उदार होते, सज्जन धनवान होते और राजसभा में दुष्टों की पहुँच न होती - तो कैसी आनन्द की बात होती ? परमात्मा की लीला ही अजब है । वह सज्जनो को बहुधा निर्धन रखता है ।


कवियों ने कहा है:

भले बुरे विधिना रचे, पै सदोष सब कीन ।
कामधेनु पशु, कठिन मनि, दधि खारो शशि छीन ।।
कहीं कहीं विधि की अविधि, भूले पारस प्रवीन।
मूरख को सम्पत दई, पण्डित सम्पतहीन ।।

सोने में सुगन्ध, ऊख में फल, चन्दन में फल, विद्वान धनी और राजा चिरजीवी न किया, इससे स्पष्ट है कि विधाता को कोई अक्ल देने वाला न था ।



न कश्चिच्चण्डकोपानामात्मीयो नाम भूभुजाम्।

होतारमपि जुह्वानं स्पृष्टो दहति पावकः।। ५७ ।।

अर्थ:

प्रचण्ड क्रोधी राजाओं का कोई प्यारा नहीं । जिस तरह हवन करने वाले को भी अग्नि छूते ही जला देती है, उसी तरह राजा भी किसी के नहीं ।

कहावत प्रसिद्ध है:

राजा जोगी अगिन जल, इनकी उल्टी रीति ।
डरते रहिये परसराम, ये थोड़ी पालें प्रीति ।।

पञ्चतन्त्र में लिखा है :

काके शौचं द्यूतकारे च सत्यं 
सर्पे क्षान्ति स्त्रीषु कामोपशान्तिः ।
क्लीबे धैर्यं मद्यपे तत्वचिन्ता
राजा मित्रं केन दृष्टं श्रुतं वा ।।

कव्वे में पवित्रता, जुआरी में सत्य, सर्प में सहनशीलता, स्त्री में कामशान्ति, नामर्द में धीरज, शराबी में तत्वचिन्ता और राजा में मैत्री किसने देखि या सुनी है ?


दोहा:

जे अति पापी भूप ते, काहूसौ न कृपाल ।
होम करत हूँ द्विजन कौ, दहत अग्नि कि ज्वाल ।।


नीति शतक - दुर्जनों कि निन्दा 58


मानौंन्मूकः प्रवचनपटुः वाचको जल्पको वा 

धृष्टः पार्श्वे वसति च तथा दूरतश्चाप्रगल्भः । 
क्षान्त्या भीरुर्यदि न सहते प्रायशो नाभिजात: 
सेवाधर्म परमगहनो योगिनामप्यगम्यः ।। ५८ ।।

अर्थ:

नौकर यदि चुप रहता है तो मालिक उसे गूंगा कहता है; यदि बोलता है तो उसे बकवादी कहता है; यदि पास रहता है तो ढीठ कहता है; यदि खरी-खोटी सुन लेता है तो डरपोक कहता है और यदि नहीं सहता है तो उसे नीच कुल का कहता है । मतलब यह है कि सेवा धर्म - पराई चाकरी बड़ी ही कठिन है; योगियों के लिए भी अगम्य है ।

संसार में जितने कठिन काम हैं, उनमें पराई चाकरी सबसे कठिन है । योगीजन सब तरह के कष्ट सहने के अभ्यासी होते है, उन्हें कोई कष्ट-कष्ट और कोई दुःख - दुःख नहीं मालूम होता; परन्तु, पर-सेवा उनके लिए भी महा कठिन है । नौकर को किसी तरह भी चैन नहीं । जो लोग सेवावृत्ति को कुत्ते कि वृत्ति कहते है, बड़ी गलती करते हैं । कुत्ते में और सेवक में तो बड़ा फर्क है । सेवक से कुत्ता भला है; क्योंकि कुत्ता अपनी मौज से फिरता है; पर नौकर तो प्रभु कि आज्ञा से फिरता है ।


वरं वनं वरं भैक्ष्यं, वरं भारोपजीवनम् ।

वरं व्याधिर्मनुष्याणां, नाधिकारेण सम्पदः ।।

वन में रहना अच्छा, भीख मांग कर खाना अच्छा, बोझा उठा कर जीना अच्छा, रोगी रहना अच्छा पर सेवा करके धन प्राप्त करना अच्छा नहीं ।


महावीर प्रसाद द्विवेदी:

चाहे कुटी अति घने वन में बनावे,
चाहे बिना निमक कुत्सित अन्न खावे ।
चाहे कभी नर नए वस्त्र भी न पावे,
सेवा प्रभो पर न तू पर कि करावे ।।

दोहा:

चुप गूँगों लाबर वचन, निकट ढाठ जड़ दूर ।
क्षमाहीन परिहास खल, सेवा कष्टहि पूर ।।


उद्भासिताखिलखलस्य विशृङ्खलस्य 

प्राग्जातविस्मृतनिजाधमकर्मवृत्तेः ।
दैवादवाप्तविभवस्य गुणद्विषोऽस्य 
नीचस्य गोचरगतैःसुखमास्यते  कैः ।। ५९ ।।

अर्थ:

जो दुष्टों का सिरताज है, जो निरंकुश या मर्यादा-रहित है, जो पूर्व-जन्मों के कुकर्मों के कारण परले सिरे का दुराचारी है, जो सौभाग्य से धनी हो गया है और जो उत्तमोत्तम गुणों से द्वेष रखने वाला है - ऐसे नीच के अधीन रहकर कौन सुखी हो सकता है ?

तात्पर्य यह है कि नीच मनुष्य कि सेवा करके मनुष्य हरगिज़ सुखी नहीं हो सकता ।


कहा है:

अगम्यान्यः पुमान्याति, असेव्यांशृ नीपेवते ।
स मृत्युमुपगृहणाति, गर्भमश्वतरी यथा ।।


जो अगम्या स्त्री से गमन करता है, जो सेवा न करने योग्य की सेवा करता है, वह उसी तरह मरता है, जिस तरह खच्चरी गर्भ धारण करने से मरती है ।


दुर्योधन दुष्टों का सरदार और बुराइयों कि खान था, वह किसी नीति- नियम को न मानता था । जो मन में आता वही करता था । पूर्वजन्म के पापों से घोर दुराचारी था । दैव के अनुकूल होने से लक्ष्मी मिल गयी थी; परन्तु पाण्डवों के उत्तमोत्तम गुणों से वह अहर्निश जला करता था । उसकी सेवा करने से गोगृह में भीष्म को अपमानित होना पड़ा और द्रोणाचार्य को भी नीचे देखना पड़ा । भरी सभा में अन्यायाचरण देख कर भी, चाकरी के कारण, भीष्म और द्रोण कुछ न बोल सके । बहुत क्या, शेष में उन्हें अपने प्राण भी गवाने पड़े ।


कुण्डलिया:

संग न करिये दुष्ट को, जासों होय उपाध।
पूर्वजन्म के पाप सब, उपज उठावें व्याध।।
उपज उठावें व्याध, दैवबल होय धनी सो।
शुभगुण राखै द्वेष, कुबुध कों मित्र करै सो।।
निपट निरंकुश नीच, तासु चित रङ्ग न धरिये।
दुखमय दुर्गुण खान, तासु को सङ्ग न करिये।।


आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण

लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात् ।
दिनस्य पूर्वार्ध-परार्धभिन्ना 
छायेव मैत्री खलसज्जनानाम् ।। ६० ।।

अर्थ:

दुष्टों की मैत्री, दोपहर-पाहिले की छाया के समान, आरम्भ में बहुत लम्बी चौड़ी होती है और पीछे क्रमशः घटती चली जाती है; किन्तु सज्जनो की मैत्री दोपहर बाद की छाया के समान पहले बहुत थोड़ी सी होती है और पीछे क्रमशः बढ़ने वाली होती है ।

इक्षोरग्रात्क्रमशः पर्वणि यथा रसः विशेषः ।

तद्वत्सज्जनमैत्री विपरीतानां तु विपरीता ।।

ईख के अगले हिस्से में रस कम होता है; ज्यों ज्यों आगे चलिएगा, रस अधिक मिलता जायेगा । बस, सज्जनो की मैत्री ठीक ऐसी होती है; दुर्जनो की इसके विपरीत होती है ।


कहा है:

ओछे नर की प्रीत की, दीनी रीत बताय।
जैसे छीलर ताल जल, घटत घटत घट जाय।।

बिनसत बार न लागई, ओछे नर की प्रीती।

अम्बर डम्बर सांझ के, ज्यों बालू की भीति।।


नीति शतकम्  - दुर्जनों की निन्दा - 61


मॄगमीनसज्जनानं तृणजलसन्तोपविहितवृत्तिनाम् ।

लुब्धकधीवरपिशुना निष्कारणवैरिणो जगति ।। ६१ ।।

अर्थ:

हिरन, मछली और सज्जन क्रमशः तिनके, जल और सन्तोष पर अपना जीवन निर्वाह करते हैं; पर शिकारी, मछुए और दुष्ट लोग अकारण ही इनसे वैर भाव रखते हैं ।

हिरन, मछली और सज्जन - ये किसी की हानि नहीं करते, पर दुष्ट लोग इन्हे वृथा ही सताते हैं । इससे मालूम होता है की दुष्टो का स्वाभाव ही ऐसा होता है । वे दूसरों को तकलीफ देने में ही अपना कर्तव्य पालन समझते हैं ।


कहा है:

सहज सन्तोष है साध को, खाल दुःख दैन प्रवीन ।
मछुआ मारत जल बसत, कहा बिगारत मीन ।।

दोहा:

मीन वारि मृग तृण सुजन, करि संतोषहि जीव ।
लुब्धक धीमर दुष्टजन, बिन कारण दुःख कीव ।।

नीति शतकम् - सज्जन प्रशन्सा - 62


वाञ्छा सज्जनसङ्गमे परगुणे प्रीतिर्गुरौ नम्रता विद्यायां व्यसनं स्वयोषिति रतिर्लोकापवादादभ्यम्  ।

भक्तिः शूलिनि शक्तिरात्मदमने संसर्गमुक्तिः खलेष्वेते येषु वसन्ति निर्मलगुणास्तेभ्यो नरेभ्यो नमः ।। ६२ ।।

अर्थ:

सज्जनों की सङ्गति की अभिलाषा, पराये गुणों में प्रीति, बड़ो के साथ नम्रता, विद्या का व्यसन, अपनी ही स्त्री में रति, लोक-निन्दा से भय, शिव की भक्ति, मन को वश में करने की शक्ति और दुष्टों की सङ्गति का अभाव - ये उत्तम गुण जिनमें हैं, उन्हें हम प्रणाम करते हैं ।
जिन पुरुषों में ये उत्तम गुण हैं - वे मनुष्य रूप में देवता हैं और इस भूतल की शोभा हैं । सज्जन आप दुखी रहने पर भी दूसरों का भला करते हैं । अर्जुन ने स्वयं, घोर विपत्ति में भी, विराट की गौवें कौरवों से छुड़ाकर राजा का भला किया था । शिवजी स्वयं भिक्षाटन करते हैं पर उनकी सहधर्मिणी जगत को अन्न पूरती हैं ।

तुलसीदास जी ने कहा है:

तुलसी सत्पुरुष सेइये, जब तब आवहि काम ।
लङ्क विभीषण को दई, बड़े दुचित में राम ।।


विपदि धैर्यमथाभ्युदये क्षमा, सदसि वाक्पटुता युधि विक्रमः ।

यशसि चाभिरुचिर्व्यसनं श्रुतौ,प्रकृतिसिद्धमिदं हि महात्मनाम् ।। ६३ ।।

अर्थ:

विपत्ति में धीरज, अपनी वृद्धि में क्षमा, सभा में वाणी की चतुराई, युद्ध में पराक्रम, यश में इच्छा, शास्त्र में व्यसन - ये छः गुण महात्मा लोगों में स्वभाव से ही सिद्ध होते हैं ।
ऐसे गुण स्वभाव से ही, जिन में हो, उन को महात्मा जानो । इससे जो महात्मा बनना चाहे वह ऐसे गुणों के सेवन के लिए अत्यंत उद्योग करे ।

कर्मों के फल भोगने से कोई नहीं बच सकता, जो किया है उसका फल भोगना ही होगा । विपत्ति और दुर्भाग्य का रोकना असम्भव है, फिर घबराने से क्या लाभ? घबराने या धैर्य त्यागने से विपत्ति बढ़ती है, घटती नहीं ।

उनका मानना है, कि विपत्ति, परमात्मा अपने प्यारों पर डालता है । विपत्ति रुपी कसौटी पर ही वह अपने प्यारों के धैर्य और धर्म कि परीक्षा करता है । परीक्षा में उत्तीर्ण होने पर वह अपने प्यारों को उचित पुरस्कार भी देता है । विपत्ति भयङ्कर सर्प है और उसके गुण, सर्प की मणि से ज्यादा कीमती नहीं तो कम भी नहीं । विपत्ति में ही मनुष्य को अपने और पराये, मित्र प्रभृति का खरा-खोटापन मालूम होता है । इस समय स्त्री पुत्र, बन्धु-बान्धव और सेवक आदि जो साथ देते हैं, वे ही सच्चे समझे जाते हैं; सम्पदावस्था में तो शत्रु भी मित्र हो जाते हैं । गोस्वामी जी ने कहा है:

धीरज धर्म मित्र अरु नारी, आपद्काल परखिये चारि ।


रात जितनी ही अँधेरी होती है, तारे उतनी ही तेजी से चमकते हैं; विपद जितनी ही भारी होती है, मनुष्य उतना ही अधिक गुणवान होता है  विपद में ही मनुष्य के गुणों का प्रकाश होता है । विपद निश्चय ही परमात्मा का शुभाशीर्वाद है ।


अयोध्यानाथ महाराजा रामचन्द्र जी पर कुछ काम विपत्ति नहीं पड़ी ।  राजतिलक होते होते वनवास हुआ, पिता दशरथ का मरण हुआ, जननी से वियोग हुआ, सीता जैसी कोमलाङ्गी को लेकर भीषण वन और दुर्गम पर्वतों में भ्रमण करना पड़ा । वन में भी सीता का वियोग हुआ, वे जरा भी धैर्यच्युत नहीं हुए और इसीलिए महादुस्तर विपद से पार होकर विजयी हुए । महाराजा नल पर काम विपद नहीं पड़ी । राज्य गया, रानी और संतान से वियोग हुआ, अन्न और वस्त्र के लिए तरसना पड़ा, पराई चाकरी करनी पड़ी; पर वे घबराये नहीं; इसीलिए शेष में उनकी विपद भाग गई , रानी और राज्य सभी मिल गए । पाण्डवों की तरह कौन विपद सहेगा ? बेचारों पर, विपद पर विपद पड़ती रहीं, धनैश्वर्य गया, भरी सभा में घोर अपमान हुआ, वन-वन में मारे-मारे डोले, भिक्षा-वृत्ति पर भी जीवन निर्वाह करना पड़ा, पर धैर्य के बल से सारी विपदाओं को काट कर, भगवान् कृष्ण की दया से, वे युद्ध में विजयी हुए । महाराजा हरिश्चन्द्र का राज्य गया, स्त्री और पुत्र से वियोग हुआ, पुत्र का मरण हुआ, रानी को पराई दासी बनना पड़ा, स्वयं आपने शमशान में चाण्डाल की चाकरी की, पर आपने पुत्र के मरने पर भी अपने धैर्य और धर्म को न छोड़ा, इसी से भगवान् आप पर प्रसन्न हुए, आपकी सारी विपद हवा हो गयी ।

मनुष्यों को इन महात्माओं की विपद कहानियों से शिक्षा ग्रहण कर, विपद में कदापि धैर्यच्युत न होना चाहिए ।

महात्मा लोग विपद में जिस तरह कठोर हो जाते हैं; उसी तरह सम्पद में वे एकदम नम्र बने रहते हैं और धनैश्वर्यशाली होकर इतराते नहीं; अभिमान के वश होकर किसी को कष्ट नहीं देते । इस अवस्था में उनकी सहनशीलता उल्टी बढ़ जाती है । क्षमा और नम्रता की वे मूर्ती ही बन जाते हैं; क्योंकि वे इस अवस्था को भी विपदावस्था की तरह चिरस्थायी नहीं समझते ।

महापुरुषों में क्षमाशीलता स्वाभाव से ही होती है; किन्तु सर्प-समान दुष्टों में क्षमा नहीं होती । सम्पद पाकर दुष्ट लोग नदी-नालों की तरह इत्र जाते हैं; पर महात्मा लोग समुद्र की तरह गंभीर बने रहते हैं ।

वृन्द कवी ने कहा है:

भले वंस को पुरुष सों, निहुरे बहुत धन पाए ।
नवै धनुष सदवंस को, जिहि द्वै कोटि दिखाय ।।

सभा चातुरी एक बहुत बड़ा गुण है । सभा चतुर मनुष्य अपनी वचन-चातुरी से सबको मन्त्र मुग्ध कर देता है । जो सुन्दर वचन रुपी द्रव्य का संग्रह नहीं करता वह परस्पर के अलाप रुपी यज्ञ में क्या दक्षिणा दे सकता है ? सभा चतुर पुरुष हजारो- लाखों विपक्षियों को भी मूक बना देता है । कहा है:


श्रवण नाथन मुख नासिका, सब ही के इक ठौर ।

हँसियो बोलियो देखियो, चतुरन को कछु और ।।
करिये सभा सुहावते, सुखते वचन प्रकाश ।
बिन समझे शिशुपाल को, वचनन भयो विनाश ।।

महात्मा लोग जीवन को एक-न-एक दिन अवश्य नाश होने वाला समझते हैं, उन्हें धन और प्राणो का मोह नहीं होता । वे आगे पैर रखकर पीछे पैर नहीं देते । कर्ण, अर्जुन और अभिमन्यु प्रभृति महापुरुषों के पराक्रम की बात 'महाभारत' पढ़ने वालों से छिपी नहीं है :


रन सन्मुख पग सूर के, वचन कहें ते सन्त ।

निकल न पाछे होत है, ज्यों गयन्द के दन्त ।।
(गयन्द = हाथी)

महापुरुषों की तरह मनुष्य को स्त्रावलोकन के सिवा और व्यसन न रखना चाहिए ।


दोहा:

विपत धीर, सम्पति क्षमा, सभा माहि शुभ बैन ।

युधि विक्रम, यश माहिं रुचि, ते नरवर गुण ऐन ।।



नीति शतकं - सज्जन प्रशंसा - 64


प्रदानं प्रच्छन्नं गृहमुपगते सम्भ्रमविधिः। 

प्रियं कृत्वा मौनं सदसि कथनं चाप्युपकृतेः ।।
अनुत्सेको लक्ष्म्यां निरभिभवसारा परकथाः ।
सतां केनोद्दिष्टं विषममसिधाराव्रतमिदम्  ।। ६४ ।।

अर्थ:

दान को गुप्त रखना, घर आये का सत्कार करना, पराया भला करके चुप रहना, दूसरों के उपकार को सबके सामने कहना, धनी होकर गर्व न करना और पराई बात निन्दा-रहित कहना - ये गुण महात्माओं में स्वाभाव से ही होते हैं।

दान करके किसी से कहना, अख़बारों में छपवाना अथवा और तरह की डोंडी पिटवाना अच्छा नहीं । इस तरह से जो दान किया जाता है, उस दान का मूल्य घाट जाता है; इसी से वास्तविक दानी अपने दान की खबर अपने दूसरे हाथ को भी नहीं पड़ने देते ।


बड़े बड़ेई काम कर, आप सिहायत नाहिं ।

तस जस उत्तर को दियो, पथ विराट के माहिं ।।

सत्पुरुष, घर आये शत्रु का भी उपकार करते हैं । अपने घर में जो कुछ होता है, उसी से उसका सत्कार करते हैं ।


अपूजितोऽतिथिर्यस्य गृहाद्याति विनिःश्वसन् । 

गच्छन्ति विमुखास्तस्य पितृभिःसह देवताः ।।

जिसके घर में अपोजिट अतिथि सांस लेता हुआ चला जाता है, उसके यहाँ देवता पितरों सहित-विमुख होकर चले जाते हैं । अगर गृहस्थ सूर्य  डूबने के पश्चात आये हुए अतिथि की सेवा करता है, तो वह देवता होता है - "आइये" कहने से अग्नि, आसान देने से इन्द्र, चरण धोने से पितर   और अर्घ देने से शिव जी प्रसन्न होते हैं ।

देखिये, वृक्ष अपने काटने वाले के सर पर भी छाया करता है । घर आये हुए बालक, वृद्ध, युवा सभी की पूजा करनी चाहिए, क्योंकि अभ्यागत सबका गुरु होता है । जिसके घर से अतिथि निराश होकर लौट जाता है, वह अपने किये पाप उसे देकर उसका पुण्य ले जाता है ।

जो घर आवत शत्रुहु, सुजन देत सुख चाहि ।

ज्यों काटे तरु मूल कोउ, छाँह करत वह ताहि ।।

महापुरुष अपने किये उपकारों को तो छिपाते हैं, परन्तु दूसरा उनके साथ जो ज़रा सी भी भलाई करता है, उसको सौगुनी करके औरो से कहते हैं । यह सामर्थ्य सत्पुरुषों में ही होती है । नीच लोग तो अपने उपकारी के उपकार को छिपाने की ही चेष्टा किया करते हैं, क्योंकि संकीर्ण ह्रदय लोग इसमें अपनी मान-हानि समझते हैं ।

मनुष्य निस्संदेह सब प्राणधारियों में उत्तम है और कुत्ता सबसे नीच है लेकिन बुद्धिमान कहते हैं की उपकार न मानने वाले मनुष्य से कुत्ता अच्छा है । शास्त्रों में लिखा है - मित्रद्रोही, कृतघ्न, भ्रूणहत्या करने वाले और विश्वासघाती सदा रौरव नरक में रहते हैं ।

तिनसों विमुख न हुजिये, जे उपकार समेत ।

मोर ताल जल पान करि, जैसे पीठ न देत ।।
खल नर गुण माने नहि, मेटहिं दाता ओप ।
जिमि जल तुलसी देत रवि, जलद करत तेहि लोप ।।

सत्पुरुषों को धन से गर्व नहीं होता ।  धनैश्वर्य पाकर सत्पुरुष फलदार वृक्षों की तरह उल्टा नीचे को झुक जाते हैं । वे इस बात को जानते हैं की धन, यौवन और जीवन, असार और चञ्चल हैं । जो आज ऊँचा है उसे कल नीचे गिरना ही होगा । इस जहां में कितने ही बाग़ लग लगकर सूख गए, आज उनका नाम-ओ-निशान भी नहीं, कितने ही दरिया चढ़े और उतर गए । सँसार की परिवर्तनशीलता का ज्ञान होने की वजह से ही वे साड़ी पृथ्वी के अकेले स्वामी होने पर भी, मुतलक़ घमण्ड नहीं करते और जो ऐश्वर्यशाली होने पर घमण्ड नहीं करते, वे निस्संदेह महात्मा और इस पृथ्वी के भूषण हैं । कहा है -

सधन सगुण सधरम सगन, सुजन सुसबल महीप ।
तुलसी जे अभिमान बिन, ते त्रिभुवन के दीप ।।

धनवान, गुणवान, धर्मवान, बलवान, और सर्वप्रिय राजा से भी श्रेष्ठ, तीनों लोकों में प्रकाशित होने वाला, निरभिमान  (अर्थात् जिसमें अहंकार न हो) को बताया है।


महात्मा पुरुष अगर किसी का जिक्र करते हैं तो उसमें निन्दाव्यञ्जक वाक्य तो क्या - एक बुरा शब्द भी नहीं आने देते । दोष उन्ही को दीखते हैं जिनके ह्रदय स्वयं मलीन होते हैं और जो परछिद्रान्वेषण की फ़िक्र में रहते हैं । धुंधले आईने में ही चेहरा ख़राब दीखता है । शैली महाशय ने कहा है :

"जो ग्रन्थकारों की धुल उड़ाते हैं, उनमें अधिकाँश लोग मूर्ख और पर-गुण द्वेषी होते हैं "।  पर-गुण द्वेषी की सिवा निन्दा कौन करेगा ? दूसरे का दिल दुखने वाली बात, सच हो तो भी न कहनी चाहिए ।

पर को अवगुण देखिये, अपनों दृष्टी न होये ।

करै उजेरो दीप पै, तरे अंधेरो जोय ।।
दोष भरी न उचारिये, जदपि यथारथ बात ।
कहै अन्ध को आँधरो, मान बुरौ सतरात ।।


करे श्लाघ्यस्त्याग: शिरसि गुरुपादप्रणयिता ।  

मुखे सत्या वाणी विजयि भुजयोर्वीर्यमतुलम् ।।
हृदि स्वस्था वृत्ति: श्रुतमधिगतैकव्रतफलं । 
र्विनाप्यैश्वर्येण प्रकृतिमहतां मण्डनमिदम् ।। ६५ ।।

अर्थ:

बिना ऐश्वर्य के भी महापुरुषों के हाथ दान से, मस्तक गुरुजनो को सर झुकाने से, मुख सत्य बोलने से, जय चाहने वाली दोनों भुजाएं अतुल पराक्रम से, ह्रदय शुद्ध वृत्ति से और कान शास्त्रों से शोभा के योग्य होते हैं ।

संपत्सु महतां चित्तं भवत्युत्पलकोमलं ।

आपत्सु च महाशैलशिलासंघातकर्कशम् ।। ६६ ।।

अर्थ:

सम्पत्तिकाल में महापुरुषों का चित्त, कोमल से भी कोमल रहता है और विपद काल में पर्वत की महँ शिला की तरह कठोर हो जाता है ।

सोरठा:

सत्पुरुषन की रीति, सम्पत में कोमलहि मन ।
दुखहू में यह नीति, बज्रसमानहि होत तन ।।


सन्तप्तायसि संस्थितस्य पयसो नामापि न ज्ञायते ।

मुक्ताकारतया तदेव नलिनीपत्रस्थितं राजते ।।
स्वात्यां सागरशुक्तिमध्यपतितं तन्मौक्तिकं जायते ।
प्रायेणोत्तममध्यमाधमदशा संसर्गतो देहिनाम् ।। ६७  ।।

अर्थ:

गर्म लोहे पर जल की बूँद पड़ने से उसका नाम भी नहीं रहता; वही जल की बूँद कमल के पत्ते पर पड़ने से मोती सी हो जाती है और वही जल की बूँद स्वाति नक्षत्र में समुद्र की सीप में पड़ने से मोती हो जाती है । इससे सिद्ध होता है, कि संसार में अधम, मध्यम और उत्तम गन प्रायः संसर्ग से ही होते हैं ।


यः प्रणीयेत्सुचरितै पितरं स पुत्रो ।

यद्भर्तुरेव हितमिच्छति तत्कलत्रम्।।
तन्मित्रमापदि सुखे च समक्रियं य- 
देतत्रयं जगति पुण्यकृतो लभन्ते ।। ६८ ।।

अर्थ:

अपने उत्तम चरित्र से पिता को प्रसन्न रखे वही पुत्र है, अपने पति का सदा-सर्वदा भला चाहे वही स्त्री है और सम्पद और विपद - दोनों अवस्थाओं में एक सा रहे वही मित्र है । जगत में ये तीनो भाग्यवानो को ही मिलते हैं ।

दोहा:

पुत्रचरित तिय हितकरन, सुख-दुःख मित्र सामान।
मनभावन तीनो मिलें, पूरब पुण्यहि जान ।।


एको देवः केशवो वा शिवो वा 

एकं मित्रं भूपतिर्वा यतिर्वा । 
एको वासः पत्तने वा वने वा 
एका नारी सुन्दरी वा दरी वा ।। ६९ ।।

अर्थ:

एक देवता की आराधना करनी चाहिए - केशव की या शिव की; एक ही मित्र करना चाहिए - राजा हो या तपस्वी, एक ही जगह बसना चाहिए - नगर में या वन में और एक से ही विलास करना चाहिए - सुन्दरी नारी से या कन्दरा से ।

इसका खुलासा यह है - मनुष्य को या तो संसार में रहकर भोग भोगने चाहिए अथवा संसार को परित्याग करके वन में जा बसना चाहिए । यदि मनुष्य संसार में रहे तो उसे कृष्ण भगवान् कि भक्ति करनी चाहिए, किसी राजा से मैत्री करनी चाहिए, नगर में बसना चाहिए और किसी सुन्दर नारी का पाणिग्रहण कर उससे विलास करना चाहिए । अगर मनुष्य संसार कि असारता से विरक्त हो कर वन में रहे तो उसे शिवजी कि भक्ति और आराधना करनी चाहिए, किसी तपस्वी से मैत्री करनी चाहिए, वन में रहना चाहिए और कन्दरा - गुफा से विलास करना चाहिए ।


एक ही काम करना चाहिए, 'इधर के रहे न उधर के रहे', खुदा ही मिला न विसाले सनम" वाली कहावत न चरितार्थ करनी चाहिए । संसारी बनना हो तो संसारी ही बनना चाहिए; त्यागी का ढोंग नहीं करना ठीक नहीं । सन्यासी होकर गृहस्थों के घर आना, उत्तमोत्तम पुष्टिकारक भोजन करना, धन सञ्चय करना, युवतियों को पास बिठाना, उनसे पैर पूजाना  - उचित नहीं; इस तरह करने से मनुष्य न इधर का रहता है न उधर का । ''धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का"  यह कहावत चरितार्थ होती है ।


गोस्वामी जी ने कहा है:

कै ममता करू रामपद, कै ममता करू हेल।
तुलसी दो मँह एक अब, खेल छाँड़ि छल खेल।।




नम्रत्वेनोन्नमन्त: परगुणकथनै: स्वान्गुणान्ख्यापयन्त: 

स्वार्थान्सम्पादयन्तो विततप्रियतरारम्भयत्ना: पदार्थे। 
क्षान्त्यैवाक्षेपरूक्षाक्षरमुखान्दुर्मुखान्दूषयन्त: 
सन्त: साश्चर्यचर्या जगति बहुमता: कस्य नाभ्यर्चनीया:।। ७० ।।

अर्थ:

नम्रता से ऊँचे होते हैं,पराये गुणों का कीर्तन करके अपने गुणों को प्रसिद्ध कर लेते हैं - पराया भला करने से दिल लगाकर अपना मतलब भी बना लेते हैं और निन्दा करनेवाले दुष्टों को अपनी क्षमाशीलता से ही लज्जित करते हैं - ऐसे आश्चर्यकारक आचरण से सभी के माननीय सत-पुरुष संसार में किसके पूज्य्नीय नहीं हैं ?

सज्जन सबसे नम्रता से व्यवहार करते हैं,  अपने तई सबसे नीचे समझते हैं और अपनी नम्रता से ही ऊँचे होते हैं; यानी किसी को भी अपने से कम नहीं समझते, अदना से अदना आदमी से विनीत व्यवहार करते हैं । उनके इस व्यवहार से प्रत्येक मनुष्य का आत्मा सन्तुष्ट हो जाता है; प्रत्येक मनुष्य उनका सम्मान करने लगता है और उन्हें अपने से ऊँचा समझता हैं क्योंकि वास्तविक महापुरुषों में ही नम्रता होती है; जो ओछे और थोथे होते हैं, उनमें ही अभिमान की मात्रा हद से ज्यादा होती है ।


कविजन कहते हैं :

नर की अरु नल नीर की, गति एकी कर जोय।
ज्यों ज्यों नीचे ह्वै चले, त्यों त्यों ऊँचो होय।।

जो सबको ही परमात्मा समझते हैं, सभी प्राणियों में परमात्मा को देखते हैं, वे भूल कर भी किसी की निन्दा नहीं कर सकते । उनकी ऐसी समझ है तभी वे किसी से शत्रुता या द्वेषभाव नहीं रखते ।


कहा है:

कैसा मोमिन, कैसा काफिर, कौन है सूफी, कैसा रिन्द ।
सारे बशर हैं बन्दे हक़ के, सारे शर के झगडे हैं ।।
और भी:
ए जौक, किसको चश्मे हिक़ारत से देखिये ।
सब हमसे हैं ज़ियादा, कोई हम से कम नहीं ।।

जो सबको बन्दे-खुदा समझते हैं और सभी को अपने से ज्यादा समझते हैं, वे किसी को नज़र-हिक़ारत से नहीं देख सकते । उनके मुंह से पराई प्रशंसा छोड़ निन्दा निकल ही नहीं सकती ।


A true man hates no one - Napoleon


तीसरा गुण सज्जनो में यह होता है, कि वे सदा परोपकार में दत्तचित्त रहते हैं । जो सदा पराई भलाई में लगा रहेगा, उसका कोई काम बिना बने नहीं रह सकता ।


 चौथा गुण सज्जनो में यह होता है कि वे अपने निन्दकों कि बातों का बुरा नहीं मानते । वे वृक्ष कि तरह होते हैं, जिसको लोग पत्थर मारते हैं तो वह फल देता है । जो लोग उनकी निन्दा करते हैं, वे उन्ही कि प्रशंसा करते हैं । उनका ख्याल है -


ज़ुबाँ खोलेंगे मुझ पर बद ज़ुबाँ क्या बादशआरि से ।

कि मैंने ख़ाक भर दी है उनके मुंह में खाकसारी से।
तू भला है तो बुरा नहीं हो सकता ए जौक !
है बुरा वही कि जो तुझको बुरा जानता है । 

सज्जन पुरुष नीचों कि बातों कि परवा नहीं करते । वे अपनी नम्रता और क्षमाशीलता से ही उनके मुंह बन्द कर देते हैं । बुराई करते करते जब दुष्ट थक जाते हैं तब आप ही लज्जित हो कर बुराई करना छोड़ देते हैं -

क्षमा खड्ग लीने रहे, खल कि कहा बसाय।
अगिन परी तृण रहित थल, आपहि तैं बुझ जाय।।

नम्रता से ऊँचा होना, पराया गुणगान करके अपनी प्रसिद्धि करना, पराया भला करते हुए अपना भी स्वार्थ सिद्ध कर लेना और निन्दकों को अपनी क्षमाशीलता से लज्जित करना - ये चारों गुण अनुकरणीय हैं । जिनमें ये चारों गुण होते हैं, निश्चय ही वे सभी के पूजनीय होते हैं ।



नीति शतकं - धैर्य प्रशंसा - 81

रत्नैर्महार्हैस्तुपुर्न देवा न भेजिरे भीमविषेण भीतिम् ।
सुधां विना न प्रपयुरविरामं न निश्चितार्थाद्विरमन्ति धीराः ।। ८१ ।।

अर्थ: 
समुद्र मथते समय, देवता नाना प्रकार के अमोल रत्न पाकर भी संतुष्ट न हुए - उन्होंने समुद्र मथना न छोड़ा। भयानक विष से भयभीत होकर भी, उन्होंने अपना उद्योग न त्यागा । जब तक अमृत न निकल आया उन्होंने विश्राम न किया - अविरत परिश्रम करते ही रहे । इससे यह सिद्ध होता है, कि वीर पुरुष अपने निश्चित अर्थ - इच्छित पदार्थ - को पाए बिना, बीच में घबरा कर अपना काम नहीं छोड़ बैठते ।


क्वचिदभूमौ शय्या क्वचिदपि च पर्यङ्कशयनम ।
क्वचिच्छाकाहारी क्वचिदपि च शाल्योदनरुचि: ।।
क्वचित्कन्थाधारी क्वचिदपि च दिव्याम्बरधरो ।
मनस्वी कार्यार्थी न गणयति दु:खं न च सुखम्।। ८२ ।।

अर्थ:

कभी जमीन पर सो रहते हैं और कभी उत्तम पलंग पर सोते हैं, कभी साग-पात खाकर रहते हैं, कभी दाल-भात कहते हैं, कभी फटी पुराणी गुदड़ी पहनते हैं और कभी दिव्य वस्त्र धारण करते हैं - कार्यसिद्धि पर कमर कस लेने वाले पुरुष सुख और दुःख दोनों को ही कुछ नहीं समझते ।



ऐश्वर्यस्य विभूषणं सुजनता शौर्यस्य वाक्संयमो ।
ज्ञानस्योपशमः श्रुतस्य विनयो वित्तस्य पात्रे व्ययः । ।
अक्रोधस्तपसः क्षमा प्रभावितुर्धर्मस्य निर्व्याजता ।
सर्वेषामपि सर्वकारणमिदं शीलं परं भूषणम् ।। ८३ ।।

अर्थ:
ऐश्वर्य का भूषण सज्जनता, शूरता का भूषण अभिमान रहित बात करना, ज्ञान का भूषण शान्ति, शास्त्र देखने का भूषण विनय, धन का भूषण सुपात्र को दान देना, तप का भूषण क्रोधहीनता, प्रभुता का भूषण क्षमा और धर्म का भूषण निश्छलता है, किन्तु अन्य सब गुणों का कारण और सर्वोत्तम भूषण 'शील' है ।

शंकराचार्य कृत प्रश्नोत्तरमला में लिखा है:
किम्भूषणादभूषणमस्ति शीलं ।
तीर्थम्परम किं स्वमनो विशुद्धं ।
किमत्र हेय कनक च कान्ता ।
श्राव्य सदा किं गुरुवेदवाक्यम्  ।

उत्तम से उत्तम आभूषण क्या है? शील । 
उत्तम से उत्तम तीर्थ कौन सा है? अपने मन की शुद्धता ।
इस जगत में त्यागने योग्य क्या है?  धन और स्त्री ।
सदा सुनने लायक क्या है? गुरु और वेद का वाक्य ।

संसार में "स्वभाव" सबके ऊपर समझा जाता है । जिसका स्वभाव अच्छा नहीं, वह हज़ार हज़ार गुण होने पर भी निकम्मा है । जिसके स्वभाव में "शील" है, वह सब गुणियों का सरदार है ।

कहा है -
गिरि ते गिरि परिवो भलो, भलो पकरिवो नाग।
अग्नि मांहि जरिबो भलो, बुरो "शील" को त्याग।।

सारांश: यदि इहलोक और परलोक में सुख चाहो, तो शील व्रत धारण करो । शील सब गुणों का राजा है । शीलवान को जगत मस्तक झुकाता है । शीलवान के लिए अग्नि शीतल हो जाती है, समुद्र में टखनों टखनों पानी हो जाता है, बड़ा भारी सुमेरु पर्वत बालू के दाने के बराबर हो जाता है, सिंह बकरी सा हो जाता है, जंङ्गळ शहर हो जाता है, विष अमृत हो जाता है, त्रिलोकी की सम्पदा चरणों में आप से आप आ जाती है, स्वर्ग उसकी बात देखता है; बहुत क्या - शीलवान को जगदीश भी मिल जाते हैं । हम तो क्या चीज़ हैं, शील की महिमा का शायद गणेश और सरस्वती भी कठिनता से बखान कर सकें ।

कुण्डलिया:

मण्डन है ऐश्वर्य को, सज्जनता सनमान।
वाणी सज्जन शूरता, मण्डन धन को दान।।
मण्डन धन को दान, ज्ञान मण्डन इंद्रीदम।
तप मण्डन अक्रोध, विनय मण्डन सोहत सम।।
प्रभुतामण्डन क्षमा, धर्म मण्डन छल खण्डन।
सबहिन में सरदार, शीलता सब को मण्डन।।


निन्दन्तु नीतिनिपुणाः  यदि वा स्ववन्तु।
लक्ष्मी: समाविषतु गच्छतु वा यथेष्ठम् ।। 
अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा। 
न्यायात्पथ: प्रविचलन्ति पदं न धीरा:।। ८४ ।।

अर्थ:
नीति निपुण लोग निन्दा करें चाहे स्तुति, लक्ष्मी आवे और चाहे चली जाय, प्राण अभी नाश हो जाएं और चाहे कल्पान्त में हों - पर धीर पुरुष न्यायमार्ग से जरा भी इधर-उधर नहीं होते ।

धीर-वीर पुरुष किसी प्रकार के लालच या भय से अपने निश्चित किये हुए नीतिमार्ग से ज़रा भी विचलित नहीं होते, जबकि नीच पुरुष ज़रा सा लालच या भय दिखने से ही नीति मार्ग से फिसल पड़ते हैं । महाराणा प्रताप को अकबर की ओर से अनेक प्रकार के प्रलोभन और भय दिखाए गए, पर वे ज़रा भी न डिगे - अपने नीति मार्ग पर अडिग होकर जमे रहे ।  महात्मा प्रह्लाद को उनके पिता हिरण्यकश्यप ने अनेक तरह के लालच दिए, भय दिखाए और शेष में उन्हें पर्वत शिखर से समुद्र में गिराया, अग्नि में जलाया; पर वे अपने निश्चित किये नीति या धर्म-मार्ग से ज़रा भी विचलित न हुए । सच्चा मर्द वही है, जो सर्वस्व नाश होने या फांसी चढ़ाये जाने के भय से भी, न्यायमार्ग को न छोड़े ।

चलन्ति गिरयः कामं युगान्तपवनाहताः । 
कृच्छ्रेऽपि न चलत्येव धीराणां निश्चलं मनः ।।
-चण्डकौशिक

प्रलय-काल की पवन से पर्वत चलायमान हों जाते हैं, पर घोर कष्ट पड़ने पर भी, धीर पुरुषों का निश्चल चित्त चलायमान नहीं होता ।



भग्नाशस्य करण्डपीडितंतेनोर्म्लानेन्द्रियस्य क्षुधा ।
कृत्वा खुर्विवरं स्वयं निपतितो नक्तं मुख्य भोगिनः ।।
तप्तस्तत्पिशितेन सत्वरमसौ तेनैव थातः पथा ।
लोकाःपश्यत दैवमेव हि नृणां वृद्धौ क्षये कारणं ।। ८५ ।।

अर्थ: 
एक सर्प पिटारी में बन्द पड़ा हुआ, जीवन से निराश, शरीर से शिथिल और भूख से व्याकुल हो रहा था । उस समय एक चूहा रात के वक्त, कुछ खाने की चीज़ पाने की आशा से, पिटारे में छेद करके घुसा और सर्प के मुंह में गिरा । सर्प उसे खाकर तृप्त हो गया और उसी चूहे के किये हुए छेद की राह से बाहर निकल कर स्वतंत्र - आज़ाद हो गया । इस घटना को देखकर , मनुष्यों को अपनी वृद्धि और क्षय का एकमात्र कारण दैव को ही समझना चाहिए ।
यही बात वृन्द कवी ने अपनी कविता में इस भांति कही है - 
सुख दुःख दीवे को दई, है आतुर इहि ठाट ।
अहि करण्ड सूसा परयौ, भखि निकस्यो वुहि वाट ।।

प्राणी दैवाधीन है
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मनुष्य का बुरा और भला सब दैव या प्रारब्ध के आधीन है, मनुष्य स्वतंत्र नहीं है, प्रारब्ध के वश में है; प्रारब्ध जो खेल खिलाती है, वही खेल खेलता है । मनुष्य के पूर्वजन्म के शुभाशुभ कर्मों को ही प्रारब्ध कहते हैं; यानी पहले जन्म के बुरे भले कर्मो से ही प्रारब्ध या अदृष्ट बनता है । अगर समय पर पुण्यों का उदय होता है, तो मनुष्य सुख पाता है और यदि पापों का उदय होता है तो दुःख-भोग करता है । दुःख का उद्यम न करने पर भी मनुष्य दुःख पाता है, यही इस बात का पक्का प्रमाण है :
कहा है - 
अन उद्यम सुख पाइये, जो पूरबख्रूट होय। 
दुःख को उद्यम को करत? पावत है नर सोय।।
को सुख को दुःख देत है? देत करम झकझोर।
उरझे-सुरझे आप ही, ध्वजा पवन के जोर।।

और भी:
स्वयं कर्म करोत्यात्मा, स्वयं तत्फलमश्नुते।
स्वयं भ्रमति संसार, स्वयं तस्माद विमुच्यते।।

जीव आप ही कर्म करता है; आप ही उसका फल भोगता है; आप ही संसार में भ्रमता है और आप ही उससे छुटकारा पाता है ।

यस्माच्च येन च यदा च यथाच यच्च।
यावच्च यत्र च शुभाशुभमात्मकर्म।।
तस्माच्च तेन च तदा च तथा च तच्च।
तावच्च तत्र च कृतान्तवशादुपैति ।।

जिसने, जिस वजह से, जब, जैसा, जो, जितना और जहाँ शुभ और अशुभ कर्म किया है; उसे उसी से, तभी, तैसा ही, सो, उतना ही और वहां ही, काल की प्रेरणा से, फल मिलता है ।


इन प्रमाणों से स्पष्ट समझ में आ सकता है कि, मनुष्य अपने कर्मो से बन्धन में फसकर दुःख और सुख भोगता है । जो लोग दुःख सुख को मनुष्य या परमात्माकृत समझते हैं, वे बड़ी भारी गलती करते हैं । जिस समय पिटारी वाले सर्प के पापों का उदय हुआ, वह पिटारी में बन्द हुआ  । जब तक पापों का अन्त न हुआ, वह भूख प्यास से कष्ट पाता रहा । ज्यों ही पुण्यों का उदय हुआ, दैव की प्रेरणा से, चूहा उसके पिटारे में छेद करके घुसा। उससे सर्प की क्षुधा शान्त हुई और वह उसी छेद की राह से निकल कर स्वतंत्र भी हो गया । इसी तरह मनुष्य भी दैव के अधीन होकर सुख भोगते हैं ।


पतितोऽपि कराघातैरुत्पततत्येव कन्दुकः।
प्रायेण साधुवृत्तानामस्थायिन्यो विपत्तयः।। ८३ ।।

अर्थ:
जिस तरह हाथ से गिराने पर भी गेंद ऊँची ही उठती है, उसी तरह साधु वृत्ति पर चलने वालों की विपत्ति भी सदा नहीं रहती ।


आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्थो महान् रिपुः ।
नास्त्युद्यमसमो बंधुर्यं कृत्वा नावसीदति ।। ८७ ।।

अर्थ:
आलस्य मनुष्यों के शरीर में रहने वाला घोर शत्रु है और उद्योग के सामान उनका कोई बन्धु नहीं है; क्योंकि उद्योग करने वे मनुष्य के पास दुःख नहीं आते ।

शंकराचार्य ने कहा है:
कोवा दारिद्रोहिविशाल तृष्णा ।
श्रीमांश्च को यस्य समस्त तोष।।
जीवन्मृतः कस्तु निरुद्यमो यः।
कोवामृतस्यास्वात्सुखदा निराशा।।

दरिद्री कौन है? जिसे तृष्णा बहुत है ।
धनवान कौन है? जिसे सब तरह संतोष है ।
जीता हुआ ही मृतक कौन है? जो उद्यम रहित या आलसी है ।
अमृत क्या है? सुखदायी निराशा।

आलस्य से ही सब आपदाओं की मूल, निर्धनता आती है। नीति ग्रन्थों में कहा है -

षड्दोषा: पुरुषेणेह हातव्या भूतिमिच्छता । 
निद्रा तन्द्रा भयं क्रोधं आलस्यं दीर्घसूत्रता ।।
आलस्य स्त्रीसेवा सरोगता जन्मभूमिवात्सल्यम् ।
सन्तोषो भीरुत्वं षड व्याघात्ता महत्वस्य ।।
अव्ययवसायिनमलस दैवपरं साहासाच्चपरिहीनं ।
परमदेव हि वृद्धपर्ति नेच्छत्युपग्रहितुं लक्ष्मीः ।।
क्लेशस्यांङ्गमदत्वा सुखमेव सुखानि नेह लभन्ते । 
मधुभिन्मथनायस्तैराश्लिरयति बाहुभिर्लक्ष्मीं ।।

जिन्हे धन की इच्छा हो, उन्हें निन्द्रा, तन्द्रा, भय, क्रोध, आलस्य और दीर्घसूत्रता - ये दोष त्याग देने चाहिए।
आलस्य, स्त्री-सेवा, अस्वस्थता, जन्मभूमि से प्रेम, संतोष और भय - ये छः बड़प्पन को नाश करने वाले हैं ।
जिस तरह जवान स्त्री बूढ़े पति को आलिङ्गन करना नहीं चाहती ; उसी तरह लक्ष्मी उद्योगहीन, आलसी, तकदीर को बड़ी समझने वाले और साहसहीन - पस्तहिम्मत मनुष्य को नहीं चाहती ।
इस जगत में बिना शरीर को दुःख दिए सुख नहीं मिलता । मधुसूदन भगवान् ने समुद्र मंथन से थकी हुई भुजाओं द्वारा ही लक्ष्मी पायी थी । 

आलसियों पर महाकवि "मीर" ने खूब कहा है:
दुनिया में हाथ पैर हिलाना नहीं अच्छा ।
मर जाना, पर उठ के कहीं जाना नहीं अच्छा ।।
बिस्तर पै मिस्ल लोथ, पड़े रहना है अच्छा ।
बन्दर की तरह धूम मचाना नहीं अच्छा ।।
रहने दो जमीन पे मुझे, आराम यहीं है ।
छेड़ो न नक़्शेपा है, मिटाना नहीं अच्छा ।।
उठ करके घर से कौन चले यार के घर तक ।
मौत अच्छी है पर दिल का लगाना नहीं अच्छा ।।
धोती भी पहने जब, कि कोई गैर पिन्हाये ।
उमरा को हाथ पैर चलाना नहीं अच्छा ।।
सिर भारी चीज है, इसे तकलीफ हो तो हो ।
पर जीभ बिचारि को सताना नहीं अच्छा ।।
फाको से मरिये, पर कोई काम न कीजिये ।
दुनिया नहीं अच्छी है, जमाना नहीं अच्छा ।।
सिजदे से गर बहिश्त मिले, दूर कीजिये ।
दोजख ही सही, सर का झुकाना नहीं अच्छा ।।
मिल जाय, हिन्द ख़ाक में, हम काहिलों को क्या ।
ए 'मीर'! फर्श रंज उठाना नहीं अच्छा ।।

आलसी हाथ-पैर नहीं हिला सकते, इसी से भाग्य कि आड़ लेते हैं । शुक्राचार्य महाराज ने बहुत ठीक कहा है:
धीमन्तो वैद्यचरिता मन्यन्ते पौरुष महत् । 
अशक्त पौरुषं कर्तुं क्लीबा दैवमुपासते ।।

बुद्धिमान और माननीय लोग पुरुषार्थ को बड़ा मानते हैं, पर नपुन्सक - हिजड़े, जो पुरुषार्थ नहीं कर सकते - दैव या प्रारब्ध की उपासना करते हैं ।

दोहा:
आलस तन में रिपु बड़ो, सब सुख को हर लेत।
त्यों ही उद्यम बन्धु सम, किये सकल सुख देत।।


छिन्नोऽपिरोहत तरुः क्षीणोऽप्युपचीयते पुनश्चन्द्रः। 
इति विमृशन्तः सन्तः सन्तप्यन्ते न विप्लुता लोके ।। ८८ ।।

अर्थ:
कटा हुआ वृक्ष फिर चढ़ कर फैल जाता है, क्षीण हुआ चन्द्रमा भी फिर धीरे धीरे बढ़ कर पूरा हो जाता है, इस बात को समझ कर, संतपुरुष अपनी विपत्ति में नहीं घबराते ।

शेख सादी ने कहा है:
शगूफा गाह शगुफतस्तो गाह खोशीदह ।
दरख़्त वक्त बिरहनस्तो वक्त पोशीदह ।।

संसार परिवर्तनशील है । फूल कभी मुरझाता है, कभी खिलता है । वृक्ष के पत्ते कभी गिर जाते हैं और कभी हरे भरे पत्तों से उसकी शोभा होती है ।

लोग विपद को जैसी भयावनी समझते हैं, वह वैसी नहीं है । विपद के फूल कड़वे होते हैं, पर उसके फल मीठे होते हैं । विपत्ति मित्रो की सच्ची कसौटी है । स्त्री, पुत्र, सेवक, सचिव, मित्र और नाते-रिश्तेदारों की सच्ची परीक्षा इसी समय होती है । जिस तरह बदल के बिना बिजली का प्रकाश नहीं होता; उसी तरह विपत्ति बिना मनुष्य के गुणों का प्रकाश नहीं होता । विपत्ति हर पहलु से अच्छी है, बशर्ते कि वह हमेशा न रहे ।
कहा है -
विपत बरोबर सुख नहीं, जो थोड़े दिन होय।
इष्ट मित्र और बन्धु सब, जान पड़े सब कोय ।।

विद्वानों ने कहा है, कि मनुष्य परमात्मा पर पूरा भरोसा करके अपनी तई उस पर छोड़ दे और वह जिस हालत में रखे, अपने तई उसी हालत में सुखी माने ।
राज़ी हूँ उसी में, जिसमें तेरी रज़ा है।

महाकवि दाग कहते हैं:
आपकी जिसमें हो मर्जी, मुसीबत बेहतर।
आपकी जिसमें ख़ुशी हो, वह मलाल अच्छा है ।।

सुख और दुःख पूर्वजन्म के पुण्य और पापों के अवश्यम्भावी कर्म फल हैं । पूर्वजन्म में बुरा या भला जैसा कर्म किया जाता है, उसका फल प्रारब्ध में लिख दिया जाता है । देवता तो देवता  - स्वयं शिव और विष्णु भी भाग्य के लिखे को मिटा नहीं सकते । समुद्र चन्द्रमा का पिता है, पर ऐसा बलवान समुद्र भी अपने पुत्र के कलङ्क को मिटा नहीं सकता । शिवजी महेश्वर हैं, सर्वशक्तिमान हैं, पर वे भी अपने सर पर रहने वाले चन्द्रमा को पूर्ण नहीं कर सकते - उसके घटने बढ़ने के दोष को हरण नहीं कर सकते ।
शिवजी स्वयं महेश्वर हैं, उनके पुत्र गणेश सर्व सिद्धियों के दाता हैं, उनके पुत्र स्वामी कार्तिकेय देवसेना के सेनापति हैं, महाशक्ति उनकी अर्धांगिनी हैं, धन के स्वामी कुबेर उनके घनिष्ठ मित्र हैं; इस पर भी शिवजी का खप्पर ले कर भीख मांगना नहीं छूटता, मतलब यह कि कर्म के लिखे को कोई मिटा नहीं सकता ।

अवश्य भाविनो भावा भवन्ति महतामपि ।
नग्नत्वं नीलकण्ठस्य महाहि शयनं हरेः ।।

जो होनहार है, वह अवश्य होता है; उससे बड़े भी नहीं बच सकते । देखिये, शिवजी नंगे रहते हैं और विष्णु भगवान महासर्प के ऊपर सोते हैं ।

गिरिधर कविराज कहते हैं -
अवश्यमेव भोक्तव्य है, कृत कर्म शुभाशुभ जोय।
ज्ञानी हँसि करि भोगि है , अज्ञानी भोगि रोय।।
अज्ञानी भोगि रोय, पुनः पुनि मस्तक कूटे।
प्रारब्ध जो होय, बिना भोगे नहीं छूटे।।
कह गिरिधर कविराज न दीरघ होत रहस्य ।
जैसे जैसे भाग पुरुष को फलै अवश्य।।

विपद में मान-अपमान और निन्दा-स्तुति का ख्याल करना दुःखमयी है । विपद में तो जो मनुष्य गूंगा, बहरा, अँधा, लूला या लंगड़ा हो जाता है  , अपने को पत्थर या मिटटी समझ लेता है, उसकी विपद सुख से कटती है -- उसे शारीरिक और मानसिक दुःख, दोनों ही काम होते हैं । किन्तु जो मान अपमान का ख्याल करते हैं उनको क्षण भर भी सुख की नींद नहीं आती ।
जिस अर्जुन ने अपनी भुजाओं के द्वारा समस्त पृथ्वी को जीत कर विपुल धन-सञ्चय किया था, स्वर्ग में इन्द्र के शत्रु - राक्षसों का संहार किया था, जिन्होंने कृष्ण के साथ खाण्डवप्रस्थ में अग्नि को तृप्त किया था, जिनके समान धनुर्धर पूरे भूतल पर दूसरा नहीं था, उन्ही धनञ्जय को हाथ में स्त्रियों का सा कंगन और कमर में करधनी पहन कर विराटराज की कन्याओं को नाचना गाना सीखना पड़ा था ।
इसी तरह महाबली भीम को रसोइया बनाना पड़ा था और धर्मराज को अर्जुन, भीम, नकुल, सहदेव जैसे भाई और धृष्टद्युम्न जैसे नातेदार होने पर भी विराटराज की सभा में राजा को जुआ खिलाना पड़ा था । एक बार विराट ने क्रोध में आकर उनके पैसा फेंक कर मारा, उससे रक्त की धार बाह निकली । एक सार्वभौम चक्रवर्ती राजा का क्या यह काम अपमान था?

प्राचीन कल के महापुरुषों के पदचिन्हों का अनुसरण करने से विपद उसी तरह सहज में कट जाती है जिस तरह रेगिस्तान में अपने से पहले राह तय करने वालो के पद चिन्हों के देख देख कर चलने से यात्री अपनी अपनी मंजिल मक़सूद पर आराम से पहुँच जाते हैं ।

विपदा जब आती है तो अकेली नहीं आती, अपने साथ और भी विपदाएं लाती है। कोई संगी साथी, साथ नहीं होता । मनुष्य जब सब तरह से निराश हो जाता है, आँख पसार कर देखने पर भी जब उसे कोई मददगार नजर नहीं आता, तब उसे दीनबन्धू, दयासिन्धु, अनाथनाथ भगवान् की याद आती है । ज्यों ही वह आर्त होकर प्रभु को पुकारता है, आशुतोष भगवान् का आसन तत्काल हिलने लगता है । वे संकट-भञ्जन, भक्तमनरंजन, फ़ौरन ही नंगे पैर भक्त को विपद से बचने के लिए दौड़ते और उनकी रक्षा करते हैं। नीचे की ग़ज़ल में इसका चित्र खूब खींचा गया है -
दुःख दूर कर हमारा, संसार के रचैया।
जल्दी से दो सहारा, मझधार में है नैया।।
तुम बिना कोई हमारा, रक्षक नहीं यहाँ पर।
ढूँढा जहाँ सारा, तुमसे नहीं रखैया।।
दुनिया में खूब देखा, आँखें पसार करके।
साथी नहीं हमारा, माँ बाप और भैया।।
सुख के हैं सब सगाती, दुनिया के यार सारे।
तेरा ही नाम प्यारा, दुःख दर्द से बचैया।।
दुनिया में फसके हमको, हासिल हुआ न कुछ फल।
तेरे बिना हमारा, कोई नहीं सुनैया।।
चारों तरफ से हम पर, गम की घटा है छाई।
सुख का करो उजेरा, परकाश के करैया।।
अच्छा बुरा है जैसा, सभी में राम रहता।
चेरा है यह तुम्हारा, सुध लेउ सुध लिवैय्या।।


नेता यस्य बृहस्पति: प्रहरणं वज्रं सुराः सैनिकाः ।
स्वर्गो दुर्गमनुग्रहः किल हरेरैरावतो वारणः ।।
इत्यैश्वर्यबलान्वितोऽपि बलिभिद्भग्नः परैः संगरे ।
तद्युक्तं वरमेव दैवशरणं धिक् धिक् वृथा पौरुषं ।। ८९ ।।

अर्थ:
जिसके बृहस्पति के सामान मन्त्री, वज्र-सदृश शास्त्र, देवताओं की सेना, स्वर्ग जैसा किला, ऐरावत जैसा वाहन और विष्णु भगवान् की जिन पर कृपा है  - ऐसे अनुपम ऐश्वर्य वाला इन्द्र भी शत्रुओं से युद्ध में हारता ही रहा, इससे सिद्ध होता है, कि पुरुषार्थ वृथा और धिक्कार योग्य है । एकमात्र दैव ही सबकी शरण है ।

मतलब यही है कि प्रारब्ध या दैव के मुकाबले में परुषार्थ कोई चीज़ नहीं है । जिस इन्द्र का इतना वैभव है और जिसके सर पर स्वयं जगदीश्वर का हाथ है वह इन्द्र भी युद्ध में हारता ही रहा - इस घटना को देखकर "पुरुषार्थ" को तुच्छ और दैव को सर्वोपरि मानना पड़ता है । 
और भी दृष्टान्त लीजिये -
दुर्गस्त्रिकूटः परिखाः समुद्रा
रक्षांस योधा धनदाच्चवित्तम् ।
शास्त्रश्च यस्यौशनसा प्रणीत
स रावणो दैववशाद्विपन्नः।।

जिसका किला त्रिकूट पर्वत, समुद्र खाई, राक्षस योद्धा, कुबेर से धन कि प्राप्ति और जिसके यहाँ शुक्राचार्य-प्रणीत शास्त्र था, वह रावण भी दैववश नष्ट हो गया ।

शुक्रनीति में लिखा है -
कालानुकूल्यं विस्पष्टं राघवार्जुनस्य च ।
अनुकूल यदा दैवे क्रियाल्पा सुफला भवेत् ।।
महती सत्क्रिया अनिष्टफलास्यात्प्रतिकूलके ।
बलिदानं सम्बद्धो हरिश्चन्द्रस्तथैव च ।।

रामचन्द्र और अर्जुन की कला सम्बन्धी अनुकूलता संसार-प्रसिद्ध है । जब दैव अनुकूल होता है, तब स्वल्प क्रिया भी सफल होती है, किन्तु जब प्रारब्ध प्रतिकूल होता है, तब बड़े भरी सत्कर्म का फल भी अनिष्ट ही होता है । देखिये, बलि और राजा हरिश्चन्द्र दान करने से भी बन्धन में पड़े । 

जो भीष्म वसुओं के अवतार थे, जो भीष्म देवताओं से भी अजेय थे, जिन भीष्म ने और क्षत्रिय कुलनाशक परशुराम जी को भी युद्ध में नीचे दिखाया था, जिनके जोड़ का योद्धा पृथ्वी पर दूसरा न था - उन्ही भीष्म की, गोहरण के समय, विराट नगरी में अर्जुन द्वारा पराजय हुई । जिस अर्जुन ने स्वर्ग में जाकर इन्द्र का कार्य-साधन किया, जिस अर्जुन ने अपने बाहुबल से पृथ्वी के समस्त राजाओं को पराजित करके धन-दण्ड लिया । जिस अर्जुन ने भीष्म पितामह और द्रोणाचार्य के भी छक्के छुड़ा दिए , जिस अर्जुन ने महातेजस्वी सूर्यपुत्र कर्ण को युद्धक्षेत्र में परास्त कर दिया, जिस अर्जुन ने गन्धर्वो के भी अपनी युद्ध कला-कुशलता से नीचे दिखा दिया, वही अर्जुन, प्रभासतीर्थ में, यादव स्त्रियों की भीलों से रक्षा न कर सका। क्या यह काम आश्चर्य की बात है ? परमात्मा की विचित्र गति है, उस लीलामयी की लीलाओं को समझना मनुष्य की सामर्थ्य के बाहर है । सूरदास जी ने क्या खूब कहा है ? -

भजन
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दयानिधि ! तोरी गति लखि न परे ।। टेक ।।
गुरु वशिष्ठ से पण्डित ज्ञानी, रुचि रुचि लगन धरे ।
सीता हरण मरण दशरथ को, विपति में विपति परे ।।
एक गऊ जो देत विप्र को, सो सुरलोक तरे ।
कोटि गऊ राजा मृग दीनी, सो भव-कूप परे ।।
पिता वचन पलटे से पापी, सो प्रह्लाद करे ।
जिनकी रक्षा कारण तुम प्रभु, नरसिंह-रूप धरे ।।
पाण्डवजन के आप सारथी, तीन पर विपत परे ।
दुर्योधन को मान घटयो, यदुकुल नाश करे ।।
तीन लोक इस विपत के वश में, विपता वश ना परे।
सूरदास या को सोच न कीजे, होनी तो होक रहे ।।

दैव की मुख्यता बताने को गिरिधर कविराज भी यही कहते हैं -
अदृष्ट समान बलिष्ठ नहिं, देख्यो जगत में मीत ।
करै भगोड़ा शूर को, पुनि कायर की जीत ।।
पुनि कायर की जीत, धनी को करै है कंगला ।
निर्धन को करै धनी, शहर करि डारै जंगला ।।
कहैं गिरिधन कविराज, इष्ट को करे अनिष्ट ।
पुनि अनिष्ट को इष्ट, ऐसो कौन अदृष्ट ।।


कर्मायत्तं फलं पुंसां, बुद्धि: कर्मानुसारिणी। 
तथापि सुधिया भाव्यं, सुविचार्यैव कुर्वता ।। ९० ।।

अर्थ:
यद्यपि मनुष्यों को कर्मानुसार फल मिलते हैं और बुद्धि भी कर्मानुसार हो जाती है; तथापि बुद्धिमानो को सोच विचार कर ही काम करने चाहिए ।

बुद्धि कर्मानुसार कैसे हो जाती है?
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मनुष्यों को पूर्वजन्म के कर्मों के अनुसार ही बुरे या भले फल मिलते हैं । जैसे फल मिलने वाले होते हैं, वैसे ही होनहार होती है; जैसी होनी होती है वैसी ही मनुष्य की बुद्धि हो जाती है । अगर भली होनी होती है तो भली हो जाती है और अगर बुरी होनी होती है तो बुरी हो जाती है । होनहार के आगे बड़े-बड़ो की नहीं चलती । 

वृन्द कवी महाशय कहते हैं -
जैसी हो होतव्यता, तैसी उपजे बुद्ध ।
होनहार हिरदे बसे, बिसर जाय सब सुद्ध ।।
जैसी हो भवितव्यता, तैसी बुद्धि प्रकाश ।
सीता हरवें ते भयो, रावण कुल को नाश ।।
सब की सबैं विनाश में, उपजत मति विपरीत ।
रघुपति मारयौ लङ्कपति, जो हर लेगयो सीत ।।
मति फिर जाय विपत्ति में, राज रङ्क इक रीत ।
हेम हिरन पीछे गए, राम गँवाई सीत ।।

जब मनुष्य की होनहार बुरी होती है, जब उस पर विपद आने वाली होती है; तब वह जानबूझकर ऐसे काम करता है, जिससे विपद न आती हो तो आवे । मनुष्य जानता है, कि अमुक वन में रात के समय अकेला जाऊँगा, तो डाकुओं के द्वारा मारा जाऊंगा और लोग भी यह बात समझते हैं; उसे जाने को मना करते हैं पर वह होनी के वश, अपने अन्तःकरण की और मित्रों की बात न मानकर जाता है और मारा जाता है । रावण नीति का अद्वितीय विद्वान् था । क्या वह न जानता था, कि परस्त्री हरण का परिणाम अच्छा नहीं ? जानता तो था, पर होनी उसके सर पर सवार थी, इससे उसकी बुद्धि में सीता को चुपचाप हर ले जाना ही ठीक जंचता था । राजा नल क्या जुए कि बुराइयों को न जानते थे । रामचंद्र क्या नहीं जानते थे कि सोने का हिरन नहीं होता? पर वे उसके पीछे सीता को छोड़ कर भागे । लक्ष्मण और सीता क्या नहीं जानते थे, कि राम को मारनेवाला त्रिलोकी में कोई नहीं है? फिर भी लक्ष्मण सीता को कुटिया में सूनी छोड़ भागे । इन बातों से साफ़ मालूम होता है कि मनुष्य प्रारब्ध के वश हो, जान-बूझकर भी बुरे काम करता है । 

नीति में कहा है -
जानन्नपि नरो दैवात्प्रकरोति विगर्हितम । 
कर्म किं कस्यचिल्लोके गर्हितम रोचते कथम ।।
असम्भव हेममृगस्य जन्म ।
तथापि राम लुलुभे मृगाय ।।
प्रायः समापन्न विपत्तिकाले ।
धियोSपि  पुंसां मलिना भवन्ति ।।

मनुष्य जानकर भी प्रारब्ध के वश में हो, निन्दित कर्म करता है, नहीं तो संसार में निन्दित कर्म किसे अच्छा लगता है?
सोने के हिरन का होना असम्भव है; तो भी रामचन्द्र जी को माया-मृग का लालच आ गया । बहुधा, विपत्ति के समय बुद्धिमानो कि बुद्धि भी मलीन हो जाती है ।
इन दृष्टान्तों से समझ में आ जाता है, कि कर्मफलों के अनुसार जैसी होनहार होती है, वैसी ही बुद्धि हो जाती है । विनाशकाल उपस्थित होने पर बुद्धिमान-से-बुद्धिमान की बुद्धि भी मारी जाती है । अगर यह बात न होती तो पण्डित-शिरोमणि रावण और जगदीश के अवतार रामचन्द्र जी क्यों विपद भोगते ? जब स्वयं राम और रावण से भूलें हुई; तब और मनुष्यों की क्या गिनती है ?

फिर भी विचार कर कर्म करना चाहिए ।
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कर्म-फलों के अनुसार बुद्धि हो जाती है इसमें जरा भी सन्देह नहीं, फिर भी नीतिज्ञ पण्डित विचार कर काम करने की सलाह देते हैं । विचार पूर्वक काम करने से मनुष्य दोष का भागी नहीं होता और स्वयं उसके ह्रदय में खटक नहीं रहती ।

किरातार्जुनीय महाकाव्य के दुसरे सर्ग में कहा है - 
सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणुते हि विमृप्य कारिणं गुणलुब्धा: स्वयमेव सम्पदः ।।

हठात किसी काम को न करना चाहिए । बिना विचारे काम करने से भारी विपत्ति की सम्भावना रहती है । विचार पूर्वक काम करने वाले के पास गुण-लोभी सम्पत्तियाँ आप-से-आप आ जाती हैं । 

दोहा:
फलहु पावत कर तें, बुद्धिहु कर्म अधीन ।
तद्यपि बुद्धि विचार के, कारज करो प्रवीन ।।


खल्वाटो दिवसेश्वरस्य किरणैःसन्तापितो मस्तके ।
गच्छन्देशमनातपं विधिशात्तालस्य मूलं गतः ।। 
तत्राप्यस्य महाफ़लेन पतता भग्नं सशब्दं शिरः ।
प्रायो गच्छति यत्र भाग्यरहितस्तत्रैव यान्त्यापदः ।। ९१ ।।

अर्थ:
किसी गंजे आदमी का सर धुप से जलने लगा । वह छाया की इच्छा से, दैवात एक ताड़ के वृक्ष के नीचे जाके खड़ा हो गया । उसके वह पहुँचते ही, एक बड़ा ताड़-फल उसके सर पर बड़े जोर से गिरा । उससे उसकी खोपड़ी फट गयी । इससे सिद्ध होता है, कि भाग्यहीन मनुष्य जहाँ जाता है, उसकी विपत्ति भी प्रायः उसके साथ साथ जाती है ।


बिना उद्योग किये भी, पुरुषों को दुसरे जन्म का शुभाशुभ फल, विधि के नियोग से मिलता ही है । जिस देश, काल और अवस्था में, जिसने जैसा बुरा या भला कर्म किया है, उसका वैसा ही फल उसे भोगना होता है । 


शशिदिवाकरयोग्रहपीडनं गजभुजङ्गमयोरपिबन्धनम् ।
मतिमतांचविलोक्य दरिद्रतां विधिरही ! बलवानिति मे मतिः ।। ९२ ।।

अर्थ:
हाथी और सर्प में बंधन को देखकर, सूर्य और चन्द्रमा में ग्रहण लगते देखकर और बुद्धिमानो की दरिद्री देखकर - मेरी समझ में यही आता है, कि विधाता ही सबसे बलवान है ।

निस्संदेह विधाता सबसे बलवान है । वह जो कुछ भाग्य में लिख देता है, उसे कोई बड़े से बड़ा नहीं मिटा सकता । कपाल के दोष से ही शिवजी नंगे रहते हैं और कपाल के दोष से ही विष्णु सर्प-शय्या पर सोते हैं । कुबेर के मित्र होने पर भी महादेव जी चर्मवस्त्र पहनते और भिक्षा मांगते फिरते हैं । जो पक्षी सौ योजन की ऊंचाई से भी अधिक दूर से अपने भक्ष्य मांस को देख लेता है, वही प्रारब्ध जब खोटी होती है; जाल के फन्दे को पास से भी नहीं देख सकता; क्योंकि भाग्य का लिखा होकर रहता है ।

कहा है -
स हि गगनविहारी कल्मषध्वंसकारी ।
दशशतकरधारी ज्योतिषां मध्यचारी।।
विधुरपि विधियोगाता ग्रस्यते राहुणासौ।
लिखितमपि ललाटे प्रोज्झितुं कः समर्थः।।

वह आकाश में विहार करने वाला, अन्धकार को नाश करने वाला, सहस्त्र किरणों वाला, प्रकाशमान, तारागणों के बीच में घूमने वाला चन्द्रमा भी भाग्यवश राहु से ग्रसा जाता है । इससे सिद्ध है, कि माथे पर लिखे को कोई मिटा नहीं सकता ।

सृजति तावदशेपगुणाकरं पुरुषरत्नमलंकरणं भुवः ।
तदपि तत्क्षणभंगिकरोति चेदहह कष्टमपण्डितताविधे: ।। ९३ ।।

अर्थ:
बड़े दुःख कि बात है, कि विधाता सब गुणों की खान और पृथ्वी के भूषण  पुरुषरत्न को सृजन कर भी, उसकी देह को क्षण-भंगुर कर देता है । इसी से विधाता की मूर्खता ही प्रकट होती है ।

मनुष्य - ईश्वर की सृष्टि की शोभा और पृथ्वी का भूषण होने पर भी क्षणभंगुर है - उसकी आयु कुछ नहीं । वह पानी के बुलबुले की तरह क्षण भर में ही नाश हो जाता है । ब्रह्मा गुणों की खान - पृथ्वी की शोभा रूप पुरुष को बनता है, यह तो अच्छी बात है, पर उसे पलक झपकाते ही नाश कर देता है, यह दुःख की बात है । यह विधाता की मूर्खता नहीं तो क्या है ? यदि वह पुरुष को सदा स्थिर रहने वाला, अजर और अमर बनाता, तो अच्छा होता ।  इसमें उसकी बुद्धिमता दीखती; क्योंकि अपने बाग़ में आप ही वृक्ष लगाकर, आप ही जल सींच कर और बढ़ा कर अपने ही हाथों से उसे कोई नहीं काटता । जो ऐसा करता है वह मूर्ख ही समझा जाता है ।

सार - मनुष्य क्षणभंगुर है, पलक मारते नाश हो जाता है इसलिए जीवन पर अभिमान न करके , दिन रात परोपकार करना चाहिए ।  नीचे के भजन से गफलत की नींद में पड़े पाठको को होश आ जायेगा ।

भजन
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मुखड़ा क्या देखे दर्पण में, तेरे दया धरम न मन में।। टेक ।।
हरी हरी पाग केसरिया जामा, सोहत गोर तन में।
वा दिन की तोहे खबर नहीं, जब आग लगेगी तन में।।
कौड़ी कौड़ी माया जोड़ी, सूरत लगी है धन में।
जब यमदूत पकड़ ले जाये, रह जाये मन की मन में।।
अम्ब की डाली तोता राजा, कोयल रानी बागन में।
घरवारी तो घर में ही राजी, साधु है राजी वन में।।
एठत चलत मरोड़त मूछें, तेल चुये जुलफन में।
कहें कबीर भई ऐसा हिजड़ा, कैसे लड़ेगा रण में?।।


पत्रं नैव यदा करीर विटपे दोषो वसन्तस्य किं 
नोलुकोऽप्यव्लोकते यदि दिवा सूरस्य किं दूषणम् ।
धारा नैव पतन्ति चातकमुखे मेघस्य किं दूषणम् 
यत्पूर्वं विधिना ललाटलिखितं तत् मार्जितुः कः क्षमः ।। ९४ ।।

अर्थ:
अगर करील के पेड़ में पत्ते नहीं लगते तो इसमें बसंत का क्या दोष है ? अगर उल्लू को दिन में नहीं सूझता, तो इसमें सूर्य का क्या दोष है ? अगर पापहीये के मुख में जल-धारा नहीं गिरती, तो इसमें मेघ का क्या दोष है ? विधाता ने जो कुछ भाग्य में लिख दिया है, उसे कोई भी मिटा नहीं सकता ।

कहा है -
कोउ न दूर कर सकै, विधि के उल्टे अङ्क।
उदधि पिता तउ चन्द्र को, धोय न सक्यो कलङ्क।।


उदधि : समुद्र, सागर, बादल की परिभाषा


कर्म प्रशंसा 
नमस्यामो देवान्ननु हतविधेस्तेऽपि वशगा ।
विधिर्वन्द्यः सोऽपि प्रतिनियतकर्मैकफलदः ।।
फलं कर्मायत्तं किमरगणैः किं च विधिना ।
नमस्तत्कर्मभ्यो विधिरपि न येभ्यः प्रभवति ।। ९५ ।।

अर्थ:
देवताओं की हम सब वन्दना करते हैं, पर वे सब विधाता के अधीन दीखते हैं, इसलिए हम विधाता की वन्दना करते हैं, पर विधाता भी हमारे पूर्व जन्म के कर्मो के हिसाब से ही फल देता है । जब फल और विधाता, दोनों ही कर्म के वश में हैं, तब देवताओं और विधाता से क्या मतलब? कर्म ही सर्वोपरि है; इसलिए हम कर्म को नमस्कार करते हैं, जिसके खिलाफ विधाता भी कुछ नहीं कर सकता ।

असल में कर्म ही सर्व प्रधान है । मनुष्य जैसा कर्म करता है, विधाता उसे वैसा ही फल देता है । इसमें विधाता न तो किसी तरह की रियायत ही दे सकता है और न ही कर्म के विपरीत ही फल दे सकता है । मतलबा यह है, हमने जो कर्म किये हैं, उसके अनुसार ही हमें फल मिलेंगे । हम देवताओं की लाख खुशामद करें, वे कर्म के खिलाफ कुछ भी नहीं कर सकते । वे तो क्या स्वयं विधाता भी रेख पर मेख नहीं मार सकता । जो लोग दुःख के समय परमात्मा को बुरा भला कहा करते हैं, वे बड़े ही नासमझ हैं । परमात्मा न किसी को दुःख देता है न सुख । सुख - दुःख  मनुष्य के ही प्रारब्ध हैं । प्रारब्ध मनुष्य के किये हुए कर्मो से बनता है इसलिए कर्म ही मुख्य है ।

बन्दहुँ सुर ते जानि बस, विधि को वन्दौ ताहि । 
देत विरञ्चिहु कर्म-फल, वन्दौ कर्म सदाहि ।।



ब्रह्मा येन कुलालवन्नियमितो ब्रह्माण्डभाण्डोदरे ।
विष्णुर्येन दशावतारगहने क्षिप्तो महासङ्कटे ।।
रुद्रो येन कपालपाणिपुटके भिक्षाटनं कारितः
सूर्यो भ्राम्यति नित्यमेव गगने, तस्मै नमः कर्मणे ।। ९६ ।।

अर्थ:
जिस कर्म के बल से ब्रह्मा इस ब्रह्माण्डभाण्डोदर में सदा कुम्हार का काम कर रहा है, विष्णु भगवान् दस अवतार लेने के महासंकट में पड़े हुए हैं, रूद्र हाथ में कपाल लेकर भीख मांगते रहते हैं और सूर्य आकाश में चक्कर लगता रहता है, उस कर्म को हम नमस्कार करते हैं ।

किसी कवी ने कहा है:
रामो येन विडम्बितो मृदुमयश्चन्द्रः कलङ्कीकृतः। 
क्षाराम्बु सरितांपतिश्च नहुषः सर्पः कपाली हरः।।
माण्डव्यो मुनि शूलपीडिततनुर्भिक्षाभुजः पाण्डवाः। 
नीतो येन रसातलं बलिरसौ तस्मै नमः कर्मणे ।।

राम को जिसने वन-वन फिराया, सुन्दर चन्द्रमा को कलङ्क लगाया, समुद्र को खारा किया, नहुष को सर्प बनाया, महादेव को कापालिक बनाया, माण्डव मुनि को सूली पर चढ़ाया, पाण्डवों से भीख मंगाई और राजा बलि को जिसने पाताल पठाया, उस कर्म को नमस्कार है ।

दोहा:
विधि को कियो कुम्हार जिन, हरि को दस अवतार।
भीख मँगावत ईश सो, ऐसो कर्म उदार ।।


नैवाकृति: फलति नैव कुलं न शीलं । 
विद्यापि नैव न च यत्नकृतापि सेवा ।। 
भाग्यानि पूर्वतपसा खलु संचितानि । 
काले फलन्ति पुरुषस्य यथैव वृक्षाः ।। ९७ ।।

अर्थ:
मनुष्य को सुन्दर आकृति, उत्तम कुल, शील, विद्या और खूब अच्छी तरह की हुई सेवा - ये सब कुछ फल नहीं देते; किन्तु पूर्वजन्म के कर्म ही,  समय पर, वृक्ष की तरह फल देते हैं ।

कवी ने खूब कहा है: 
भाग्यं फलति सर्वत्र न च विद्या न च पौरुषं ।
समुद्रमथनाल्लेभे हरिर्लक्ष्मी हरो विषं ।।

सब जगह भाग्य फलता है; विद्या और पौरुष नहीं फलते । हरि और हर, दोनों ने मिलकर समुद्र मथा; पर हरि को लक्ष्मी मिली और महादेव को विष ।

शेख सादी कहते हैं :
हुनरवर जो बख्तश न बाशद बकाम ।
बजाये रबद केश न दानन्द नाम ।।

जब भाग्य अनुकूल नहीं होता, तब हुनरमंद जहाँ जाता है, वहीँ उसको कोई नहीं पूछता - अथवा वह जाता ही ऐसी जगह है, जहाँ उसका कोई नाम तक नहीं लेता । 

गिरधर कविराज कहते हैं:
भाग्य सर्वत्र फलत है न च विद्या पौरुष सरल।
हरि हर सागर मथ्यो हर को मिल्यो गरल।।
हर को मिल्यो गरल हरि ने लक्ष्मी पाई ।
षट भाग दो सम्पन्न भाग की कही न जाई ।।
कह गिरिधर कविराज कोउ मिल खेले फाग ।
कोउ हमेशा रोवे आयो अपने भाग ।।



वने रणे शत्रुजलाग्निमध्ये महार्णवे पर्वतमस्तके वा। 
सुप्तं प्रमत्तं विषमस्थितं वा रक्षन्ति पुण्यानि पुराकृतानि ।। ९८ ।।

अर्थ:
वन में, रण में, शत्रुओं में, आग में, समुद्र अथवा पर्वत की छोटी पर सोते हुए, आफत में पड़े हुए मनुष्य की रक्षा, पूर्व जन्म के पुण्य ही करते हैं ।

मनुष्य चाहे गहन वन में हो, चाहे भीषण रणक्षेत्र में हो, चाहे शत्रुओं के जाल में हो, चाहे अग्नि के बीच में हो, चाहे अगाध जल में हो, चाहे पर्वत की चोटी पर बेहोश पड़ा हो और चाहे किसी भयंकर आफत में हो - अगर उसके पूर्व जन्म के शुभ कर्म होते हैं, तो वह सब खतरों से बच जाता है, अगर नहीं होते तो कष्ट भोगता है या मर जाता है । 

नीति में कहा है -
अरक्षितं तिष्ठति दैवरक्षितं, सुरक्षितं दैवहतं विनश्यति ।
जीवत्यनाथोऽअपि वने विसर्जितः कृतप्रयत्नोऽअपि गृहे न जीवति ।।

जिसकी रक्षा करने वाला कोई न हो ; किन्तु दैव(प्रारब्ध) उसकी रक्षा करे, तो वह जीवित रहता है । वन में त्यागा हुआ अनाथ भी जीवित रहता है, पर घर में यत्न से रक्षा करने पर भी नहीं जीता ।

मतलब यह है की जिसके पूर्वजन्म के शुभकर्म होते हैं, वह हर विपद से बच जाता है । अगर वह सिंह की माँद में भी चला जाये, तो सिंह उसे नहीं खाता । ऐसी भयानक जगह पर कौन रक्षा करता है ? दैव । दैव किसे कहते हैं ? प्रारब्ध या भाग्य को । प्रारब्ध काहे से बनती है ? पूर्वजन्म के कर्मो से । 

मेनका, हाल की पैदा हुई कन्या को विश्वामित्र की गोद में छोड़, स्वर्ग को उड़ गई । मुनि ने उस नवजात कन्या को एक निर्जन स्थान में राह के किनारे रख दिया । कन्या के पूर्वजन्म के शुभकर्म थे, इसलिए शकुन नमक एक पक्षी ने अपने पंखों से छाया करके, उसकी पालना करने लगा । दैव योग से, कण्व ऋषि तीर्थाटन करके उसी राह से आ रहे थे । उन्होंने नन्हे से बच्चे को हाथ-पैर उठाते देख उठा लिया और आश्रम से लेकर उसकी पालन-पोषण के लिए एक स्त्री निश्चित कर दी । इसी बच्चे का नाम आगे चल कर शकुन्तला रखा गया । अगर शकुन्तला के पूर्वजन्म के शुभकर्म न होते, तो शकुन पक्षी उसकी रक्षा क्यों करता ? वह धूप में ही भूख प्यास से मर जाती अथवा कोई जंगली जानवर आकर उसे खा जाता ।

दिल्लीश्वर जहांगीर की जगत प्रसिद्ध बेगम नूरजहाँ सिंध के जंगलों में पैदा हुई थी । माता पिता घोर विपदावस्था में अपना देश, ईरान छोड़ कर भागे थे । राह में ही जेठ की तपती धूप में कन्या पैदा हो गयी । प्रसूता के लिए न कुछ खाने को था, न पीने को । ऊपर आसमान जल रहा था और नीचे रेगिस्तान की बालू जल कर अङ्गारवत हो रही थी । उस समय कन्या को लेकर राह चलने से माता के भी मर जाने का भय था; इसलिए पति के बारम्बार समझाने से माता अपनी आँखों की पुतली को वहां छोड़ देने को राजी हो गई । पिता ने कन्या को एक जगह लिटा दिया और दोनों राह चलने लगे । थोड़ी दूर चलकर ही माता ने कहा - मैं भले ही मर जाऊँ पर अपनी बच्ची को यहाँ न छोडूंगी । लाचार होकर पति फिर कन्या को वह लेने गया । पर वहां पहुँचते ही देखता है की एक बड़ा भरी कालसर्प कन्या के ऊपर अपने फ़न से छाया किये बैठा है  ।पिता ही हिम्मत कन्या को वह से उठाने की न पड़ी । वह लौटने लगा । इतने में सर्प उसका मतलब समझकर वहीँ लुप्त हो गया और आदमीं अपनी पुत्री को छाती से लगाकर ले आया । अगर उस नवजात कन्या के पूर्वजन्म के कर्म न होते तो, वह क्षणभर में ही उस अंगार समान तपती रेती पर जलकर प्राणत्याग कर देती है । पूर्व जन्मो के शुभ-कर्मों ने ही सर्प बनकर उसकी रक्षा की ।
एक बार स्वयं हम पर ही (लेखक) बीत चुकी है, मुसीबत के मारे एक दिन हम जंगल की रेल में सड़क सड़क चल रहे थे । सिन्धु घाटी के फट जाने या बाढ़ आने से सैकड़ो कोस तक जल ही जल हो गया था । कहीं किनारा या वृक्ष इत्यादि दिखाई नहीं देते थे । चलते चलते हम एक रेलवे पुल पर पहुंचे । पुल के नीचे अथाह जल, दोनों और दाहिने बाएं अगम्य जल । ऊपर आकाश और नीचे जल ही जल था । उस अनंत जलराशि के बीच में पांच सात फुट चौड़ी रेल की लाइन मात्र दीखती थी । जल की भयङ्कर गर्जना से हृदय काँपता था । अगर पुल पर मनुष्य हो और रेलगाड़ी आ जाय, तो उसकी रक्षा का कोई उपाय न था । हम डरते हुए जा रहे थे, कि पुल पर हमारे रहते हुए कोई रेलगाड़ी आ जाय हमारे प्राण न बचेंगे । आख़िरकार, जिस बात कि आशँका थी वही हुआ । हम पुल के बीच में पहुंचे और पुल के कोने पर हमें रेलगाड़ी का इञ्जन दिखा । हमारे प्राण काँप उठे, पर हमने उस नाज़ुक समय में घबराना उचित न समझा । तत्काल बचने का उपाय सोचा । पीछे पटरियों के बीच में हम एक जरा गहरा सा गड्ढा देख आये थे । पालक मारते ही हम गड्ढे में जमीन पर चिपट गए । एक क्षण में ही सब काम हुए । रेल धड़धड़ाती हुई हमारे सर के ऊपर से होकर निकल गयी । पूर्व जन्म के शुभ कर्मों से हमारी जीवन रक्षा हो गयी । 

किसी ने ठीक कहा है -
निमग्नस्य पयोराशौ पर्वतात पतितस्य च ।
तक्षकेनापि दष्टस्य त्वायुर्मर्माणि रक्षति ।।

अगाध जल में डूबे हुए की, पर्वत से गिरे हुए की और सांप से काटे हुए की पूर्वजन्म के पुण्यबल या आयुर्बल से ही रक्षा होती है ।

और भी कहा है -
नाकाले म्रियते जन्तुर्बिद्ध: शरशतैपि।
कुशाग्रेणैव संस्पृष्टः प्राप्तकालो न जीवति ।।

सौ बाणो से बिंधा हुआ शरीरधारी भी बिना समय नहीं मरता; पर काल आने पर, कुशा की नोक छू जाने पर ही मर जाता है । 

किसी कवी ने कहा है - 
जाको राखे साईंया मार सके न कोय ।
बाल न बांका कर सके जो जग बैरी होय ।।

*यहाँ लेखक ने दो दृष्टान्त और भी दिए हैं (शिकारी और हिरन तथा कबूतर और शिकारी) जो लेख की अधिकता के कारण छोड़ दिए गए हैं ।



या साधूँश्च खलान्करोति विदुषो मूर्खान्हितान्द्वेषिणः
प्रत्यक्षं कुरुते परोक्षममृतं हलाहलं तत्क्षणात् ।
तामाराधय सत्क्रियां भगवतीं भोक्तुं फलं वाञ्छितं
हे साधो व्यसनैर्गुणेषु विपुलेष्वास्थां वृथा मा कृथाः ।। ९९ ।। 

अर्थ:
हे सज्जनो ! अगर आप मनोवांछित फल चाहते हैं, तो आप और गुणों में कष्ट और हठ से वृथा परिश्रम न करके केवल सत्क्रिया रुपी भगवती की आराधना कीजिये । वह दुष्टों को सज्जन, मूर्खों को पण्डित, शत्रुओं को मित्र, गुप्त विषयों को प्रकट और हलाहल विष को तत्काल अमृत कर सकती है ।

खुलासा - अगर आप इस जगत में इच्छानुसार सुख भोगने की अभिलाषा रखते हैं; तो आप और गुणों के संग्रह करने में वृथा परिश्रम न करें । इसके लिए आप केवल 'सदाचरण' की सच्ची आराधना करें । 

शुक्रनीति में कहा है - 
भवतीष्टम् सत्क्रिययानिष्टं तद्विपरीयता ।
शास्त्रतः सदसज्ज्ञात्वा त्यक्त्वाऽ सत्सत्समाचरेत्।।

अच्छे कामों से अच्छा और बुरे कामों से बुरा फल मिलता है; इसलिए शास्त्र द्वारा अच्छे और बुरे का ज्ञान प्राप्त करके बुरे कामो को  त्याग दो और अच्छे काम करो ।
संसार में जितने भी ऋषि, मुनि, अवतार तथा पैगम्बर हुए हैं, सभी ने जगत के प्राणियों को सदाचार करने का उपदेश दिया है इसलिए सदाचार की जरा लम्बी चौड़ी व्याख्या करना आवश्यक प्रतीत होता है ।
सदाचार इस जगत का व्यवस्थापक नियम है । सदाचार रुपी स्तम्भों पर ही जगत ठहरा हुआ है । अगर पृथ्वी से सदाचार उठ जाय, तो शायद प्रलय ही हो जाय ।
सदाचारी सारे संसार को अपना ही समझता है; सबके दुःखों में सुहानुभूति प्रकट करता है; सत्य परायणता; क्षमा, दया प्रभृति सद्गुणों को धारण करता है और प्राण संकट में आने पर भी, न्यायमार्ग से विचलित नहीं होता है । सदाचारी सब प्राणियों को प्रेम की नजर से देखता हुआ मधुर भाषण करता है, किसी से भी कठोर वचन नहीं कहता और परोपकार को अपने जीवन का मुख्य उद्देश्य समझता है । सदाचारी के जो मन में होता है, वही कहता है; और जो कहता है, वही करता है तथा प्राणनाश की संभावना होने पर भी अपनी प्रतिज्ञा को भङ्ग नहीं करता । सदाचारी की हंसी में कही हुई बात भी पत्थर की लकीर होती है । सदाचारी, मिथ्या, कपट, अन्याय, अनीति, अत्याचार, कठोर भाषण, प्रतिज्ञा भङ्ग, विषयासक्ति, क्रोध, लोभ, मद और अभिमान प्रभृति दुर्गुणों से हज़ार कोस दूर भागता है । सदाचारी कर्तव्य पालन को हरदम तैयार रहता है ; क्योंकि कर्तव्यपरायण ही सदाचार का उच्च स्वरुप है ।

सदाचारी अपने निर्मल और विशुद्ध चरित्र तथा अपनी प्रमाणिकता और शुद्ध वासना से जगत को वश में कर लेता है । संसार उसका विश्वास करता है और उसके इशारों पर नाचता है - नाचता ही नहीं, उसकी आज्ञा से प्राण तक देने को तैयार हो जाता है । जगत के प्राणिमात्र उसकी वन्दना करते हैं । सदाचारी अपनी कठिन तपस्या के कारण, सबका पूजनीय होता है । सदाचारी ऊँची से ऊँची पदवी पाता और संसार के सभी सुख भोगता है । सदाचारी का शत्रु कोई नहीं; सभी उसके हितैषी मित्र होते है ।

आज तक इस धरा-धाम पर जितने भी ऋषि-मुनि, अवतार-औलिया हुए हैं, उन सबकी प्रतिष्ठा और इज़्ज़त केवल उनके सदाचार के कारण से ही हुई है । सदाचारी होने की वजह से ही, उनकी ईश्वर के समान पूजा और आराधना होती है । महात्मा बुद्ध, हज़रत इसा और हज़रत मुहम्मद साहब के करोडो अनुयायी उनके सदाचार के कारण से ही हुए हैं । सदाचार के कारण ही राम और कृष्ण भगवान् माने जाते हैं । 

सदाचारियों के सर पर तलवार रख दी जाय, उन्हें फांसी का भय दिखाया जाय; उन्हें आग में जलाया जाय अथवा उन्हें दुनिया की बड़ी से बड़ी न्यामत का लालच दिखाया जाय, पर वे आचरण कभी ख़राब नहीं करते । रावण ने सीता माता को बहुत धमकाया, डराया और लालच भी दिखाया; पर वह सती अपने सत पर डटी रही । उसने अपने चरित्र में जरा भी धब्बा नहीं लगाया और अपना शील नहीं छोड़ा । इसीलिए आजतक उनका नाम है और यावत् चन्द्र-दिवाकर इसी तरह रहेगा ।




गुणवदगुणवद्वा कुर्वता कार्यमादौ परिणतिरवधार्यां यत्नतः पण्डितेन। 
अतिरभसकृतानां कर्मणानां विपत्तेः भवति हृदयदाही शल्यतुल्यो विपाकः ।। १०० ।।

अर्थ:
कोई काम कैसा ही अच्छा बुरा क्यों न हो, काम करनेवाले बुद्धिमान को पहले, उसके परिणाम का विचार करके तब काम में हाथ लगाना चाहिए; क्योंकि बिना विचारे, अति शीघ्रता से किये हुए काम का फल, मरण काल तक ह्रदय को जलाता और कांटे की तरह खटकता है ।

गिरिधर कविराज कहते हैं -
बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछताए ।
काम बिगारे आपनो, जग में होत हंसाय ।।
जब में होत हंसाय, चित्त में चैन न पावे ।
खान पान सन्मान, राग रंग मनहि न भावे ।।
कह गिरिधर कविराज, दुःख कछु टरत न टारे ।
खटकत है जिय माहिं कियौ जो बिना विचारे ।।

जो मनुष्य बिना विचारे काम करता है, वह पीछे पछताता है; अपना काम बिगाड़ता है और लोक-हंसाई करवाता है । उसका चित्त हर समय बेचैन रहता है और उसे खाना-पीना आदर-सन्मान एवं राग-रङ्ग, कुछ भी अच्छे नहीं लगते ।
गिरिधर कविराज कहते हैं कि दुःख टालने से टल नहीं जाता, होनहार होकर रहती है, पूर्व जन्म के कर्मो का फल भोगना ही पड़ता है । फिर भी जो काम बिना विचारे किया जाता है, वह दिल में कांटे कि तरह खटकता है । पाठक ! अविचारवानों कि यही दशा होती है । 

वृन्द कवी ने भी कहा है - 
फिर पाछे पछताए सो, जो न करे मति सूध ।
बदन जीभ हिय जरत है, पीवत तातो दूध ।।

मूढ़ ! ऐसा काम न कर, जिससे पीछे पछताना पड़े । जो गरम दूध पीता है, उसके मुंह, जीभ और ह्रदय जलते हैं । सहसा कोई काम करने का फल बुरा ही होता है ।

कारज अच्छा अरु बुरो, कीजै बहुत बिचार ।
बिना बिचारे करत ही, होत रार अरु हार ।।



स्थाल्यां वैदूर्मय्यां पचति च लशुनं चान्दनैरीन्धनोघैः
सौवर्णेर्लाङ्गलाग्रैविलिखति वसुधामर्कमूलस्य हेतोः ।
छित्त्वा कर्पूर खण्डानवृतिमिह कुरुते कोद्रवाणाम् समन्तात् 
प्राप्येमां कर्मभूमि न चरति मनुजो यस्तपो मद्भाग्यः ।। १०१ ।।

अर्थ:
जो मन्दभागी, इस कर्मभूमि - संसार - में आकर तप नहीं करता, वह निस्संदेह उस मूर्ख की तरह है, जो लहसन को मरकतमणि के वासन में चन्दन के ईंधन से पकाता है; अथवा खेत में सोने का हल जोतकर आक की जड़ प्राप्त करना चाहता है अथवा कोदों के खेत के चारों तरफ कपूर के वृक्षों को काटकर उनकी बाढ़ लगाता है ।

यह संसार कर्मभूमि है । मनुष्य देह बड़ी कठिनाई से मिलती है । जो मनुष्य दुर्लभ मानव जन्म को विष-रुपी विषयों में वृथा गंवाता है, तपश्चरण नहीं करता, परमात्मा की उपासना-अराधना नहीं करता, वह परीक्षा में अनुत्तीर्ण होता और भयानक भूल करता है। मरकत मणि के वासन में चन्दन की लकड़ी जलाकर लहसन पकाना जिस तरह मूर्खता है; उसी तरह मानव देह पाकर विषय वासना में फंसे रहना भी मूर्खता है । जिस तरह कोदो के खेत के चारों ओर कपूर के वृक्षों की बाढ़ लगाना नादानी है उसी तरह मिथ्या जगत के झूठे जंजालों में उम्र गवाना भी नादानी है ।

यदि मनुष्य को सब कामनाओं को पूर्ण करनेवाली लक्ष्मी मिल जाए तो क्या ? यदि उदय से अस्त तक साम्राज्य मिल जाय तो क्या ? अगर मनुष्य अपने सभी शत्रुओं को पदानत कर ले तो क्या ? अगर घन से मित्र और नातेदारों की प्रतिपालना और आदर सम्मान कर ले तो क्या ? अगर सैकड़ो चन्द्रानना स्त्रियां हो जाएं तो क्या ? अगर वह इस देह से कल्प भर भी जी ले तो क्या ? अगर भवभयहारिणि ब्रह्म की ज्योति ह्रदय में जगी, तो इन सब विभव से क्या ? तात्पर्य यह की ब्रह्मज्ञान या ईश्वर की सच्ची भक्ति बिना, ये सब व्यर्थ है । 

"भामिनि विलास" में भी खूब कहा है -
पातालं व्रज याहि वा सुरपुरीमारोह मेरोः शिरः 
पाराबारपरम्परान्तर तथाऽप्याशा न शान्तास्तव।
आधिव्याधिपराहतो यदि सदा क्षेमन्निजंवाञ्छसि
श्रीकृष्णेति रसायनं रसय त्वं शून्यैः किमन्यैः श्रमैः ।।

चाहे पाताल में जा, चाहे इन्द्रपुरी में जा; चाहे सुमेरु पर्वत पर चढ़, चाहे सात समुन्द्रों के पार जा, तेरी आशा शान्त न होगी । इसलिए आधि-व्याधि से पराहत हुए मन ! यदि तू अपना सदा भला चाहता है, तो श्रीकृष्ण रुपी रसायन का सेवन कर, वृथा घोर परिश्रम से कोई लाभ नहीं ।

कहा है -
भरमत भरमत आइया, पाई मानुष देह ।
ऐसो अवसर फिर कहाँ, नामहि जल्दी लेह ।।

तुलसी बिलम न कीजिये, भजि लीजे रघुवीर।
तन तरकस ते जात है, श्वास सार सों तीर ।।

धन यौवन यों जाएगा, जा विधि उड़त कपूर।
नारायण गोपाल भज, क्यों चाटे जग धूर ।।

श्वास श्वास पै नाम भज, श्वास न विरथा खोय ।
न जाने इस श्वास का, आवन होय न होय ।।

संसार में आकर मनुष्य को अपना एक क्षण भी बिना परोपकार और परमात्मा के भजन के गंवाना गहरी नादानी है । जो अपने बनाने वाले को, जो अपने सब सुख देने वाले को और क्षण क्षण रक्षा करनेवाले स्वामी को ही भूलते हैं, वे बड़े कृतघ्न हैं, कल्प-कल्पान्त तक नर्क में रहेंगे । कर्तव्य का पालन न करने वालों के लिए ही नरको की सृष्टि की गयी है । इसलिए जिन्हे नरकों से बचना हो, जिन्हें जन्म मरण के झगडे से बचकर सदा-सर्वदा सुख भोगना हो, वो सब चिंताओं को छोड़कर परमात्मा की भक्ति और परोपकार करें, क्योंकि इस लोक में मनुष्य के यही कर्तव्य हैं । मनुष्य इस कर्मभूमि में उत्तमोत्तम कर्म कर्तव्य करने को ही भेजा गया है । 

स्वामी शंकराचार्य कहते हैं - 
को व ज्वरः प्राणभृतां हि चिन्ता
मूर्खोऽस्ति को यस्तु विवेकहीनः ।
कार्य्या प्रिया का शिवविष्णुभक्तिः
किं जीवनं दोषविवर्जितं यत् ।।

संसार में जीवों को ज्वर क्या है ? चिन्ता ।
मूर्ख कौन है ? विवेकहीन ।
कर्तव्य क्या है ? शिव और विष्णु भगवान् की भक्ति ।
उत्तम जीवन कौन सा है ? जो दूषण रहित है ।

सारांश कि जिस आयु का एक भी क्षण मृत्यु के समय से नहीं बढ़ सकता, उस अमूल्य आयु को विषय भोगों में नष्ट करना और अपना कर्तव्य पालन न करना, अपनी आयु को वृथा गंवाना है । नीचे हम चन्द उत्तमोत्तम उपदेशामृत भजन और ग़ज़ल प्रभृति पाठकों के उपकारार्थ लिखते हैं । पाठक उन्हें कण्ठाग्र कर लें और अवकाश के समय गाया करें ।

भजन
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सुधार मन मेरे, बिगड़ी हुई को सुधार।
खाने में, सोने में, खेलों में, मेलों में, भूला फिरे क्यों गंवार ।।
खेलों तमाशों की, यारों की बातों की, थोड़े दिनों की बहार ।।
दमड़ी पै चमड़ी पै मरता है गिरता है, बनता है तू क्यों चमार ।।
तुलसी हटाकर बोये क्यों बबूरी, समझे न सार और आर ।।
पावे तभी शान्ती राधेश्याम तू, सूझे जब सच्चा विचार ।।

ग़ज़ल (राग सोरठ)
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किसे देख दिल तू हुआ है दिवाना।
नहीं तेरी, इस ज़िन्दगी का ठिकाना।।
हजारों शहंशाह हुए इस जमीं पर।
गए कूंच कर, जिनको जाने न जाना।।
जो पैदा है, ना-पैदा होगा वो एक दिन।
फरा सो झरा और धरा सो बुनाना।।
धरम एक हमराह केवल चलेगा।
रहेगा पड़ा सब यहीं पर खजाना।।
है धोखे की टट्टी, जहाँ में पुतंदर।
समझ के चलो, मुल्क है ये बिगाना।।
करो याद उसकी, जो मालिक जहाँ का।
उसी की दया से, मिटै आना जाना।।

ग़ज़ल 
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जो मोहन में मन को लगाए हुए हैं।
वह फल, मुक्त जीवन का पाए हुए हैं।।
जो बन्दे हैं दुनिया के, गन्दे सरासर।
वो फन्दे में खुद को फंसाये हुए हैं।।
जो सोते हैं गफलत में, रोते हैं आखिर।
वो खोते रतन, हाथ आये हुए हैं।।
पकड़ पाया, सतगुरु के दामन को जिसने।
वही है मगन, सब सताए हुए हैं।।

भजन
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जीवन दिन चार का रे ! ये मन मूरख फिरे मस्ताना।
मंदिर महल अटारी बंगले, नकदी माल खजाना।
जिस दिन कूंच करेगा मूरख, सब कुछ हो बेगाना।।
कौड़ी कौड़ी माया जोड़ी, बन बैठा धनवाना।
साथ न जाए फूटी कौड़ी, निकल जाए जब प्राना।।
अपने आप को बड़ा जान के, क्यों करता अभिमाना।
तेरे जैसे तो लाखों चले गए, तू किसका मेहमाना।।
मान ले शिक्षा खन्नादास की, जो चाहे कल्याना।
परमारथ और नित्य कर्म कर, दे दीनों को दाना।।

भजन
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तुम देखो रे लोगों, भूल भुलैया का तमाशा।
ना कोई आता ना कोई जाता, यही जगत का नाता।
कौन किसी की बहन भानजी, कौन किसी का भ्राता।।
देह तलाक तिरिया का नाता, पौली तक की माता।
मरघट तक के लोग बराती, हंस अकेला जाता।।
लट्ठा पहने, बुक भी पहने, पहने मलमल खासा।
शाल-दुशाले सब ही ओढ़े, अन्त खाक में बासा।।
कौड़ी कौड़ी माया जोड़ी जोड़े पांच पचासा।
कहत कबीर सुनो भाई साधो, संग चले नहि मासा।।


मज्जत्वंभसि यातु मेरुशिखर शत्रुञ्जय त्वाहवे
वाणिज्यं कृषिसेवनादिसकला विद्याः कलाः शिक्षतु ।
आकाशं विपुलं प्रयातु खगवत्कृत्वा प्रयत्नं परं
नो भाव्यं भवतीह कर्मवशतो भव्यस्य नाशः कुतः ।। १०२ ।।

अर्थ:
चाहे समुद्र में गोते लगाओ; चाहे सुमेरु के सिर पर चढ़ जाओ; चाहे घोर युद्ध में शत्रुओं को जीतो; चाहे खेती, वाणिज्य-व्यापार और अन्यान्य सारी विद्या और कलाओं को सीखो; चाहे बड़े प्रयत्न से पखेरुओं की तरह आकाश में उड़ते फिरो; परन्तु प्रारब्ध के वश से अनहोनी नहीं होती और होनहार नहीं टलती ।

महात्मा शेखसादी ने भी "गुलिस्तां" में कहा है कि संसार में दो बातें असंभव हैं :-

१। भाग्य में लिखा है, उससे अधिक सुख भोगना ।
२। नियत समय से पहले मरना ।

"ऐ रोजी-जीविका चाहने वाले ! भरोसा रख, तुझे बैठे बैठे खाने को मिलेगा और तू, जिसको यम-मन्दिर से बुलावा आ गया है, भाग मत, तू कहीं क्यों न जाए, भागकर बच न सकेगा । हाँ अगर तेरे मरने का दिन अभी नहीं आया है, तो तू शेरों के मुंह में ही क्यों न चला जाए, वे तुझे हरगिज़ न खाएंगे ।"

बलिहारी इस उपदेश की ! क्या ही खूब नसीहत दी है । मनुष्य समझे तो समझ सकता है कि उसे अपने भले-बुरे कर्मों के फल तो भोगने ही होंगे ।  उनसे वह किसी तरह पीछा नहीं छुड़ा सकता ।  पाठकों के लाभार्थ एक किस्सा लिखते हैं :


राजा और मस्त हाथी
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एक राजा हाथी पर सवार होकर कहीं जा रहा था । वह हाथी बदमाश था । किसी काम से राजा नीचे उतरा, तो हाथी अपनी सूंड से राजा पर आक्रमण करने लगा । भय के मारे राजा भागा और भागते भागते एक अन्धे कुएं में जा गिरा । उस कुँए की एक बगल में एक पीपल का वृक्ष खड़ा था । उस वृक्ष कि जड़ें कुँए के भीतर थी और उसने आधा कुआँ घेर रखा था । घबराहट में भागते भागते राजा जो कुँए में गिरा तो उसका सिर नीचे और पैर ऊपर को हो गए क्योंकि वह उस पीपल के पेड़ की जड़ों में उलझ गया । राजा न नीचे ही जा सकता था और न ऊपर ही आ सकता था । वह हाथी भी राजा का पीछा करता हुआ उसी कुँए पर आ गया और राजा के बाहर निकलने कि राह देखने लगा । राजा के नजर नीचे गयी तो उसने देखा कि भयङ्कर कालसर्प, बिसखपरे, बिच्छू, कनखजूरे प्रभृति भयानक-भयानक जानवर ऊपर कि तरफ मुंह किये हुए खुश हो रहे हैं कि हमारा भक्ष्य आ गया । राजा उन्हें देखते ही काँप उठा । राजा ने ऊपर कि ओर देखा तो क्या देखता है कि दो चूहे,  जिनमें एक काला और एक सफ़ेद था, जिस जड़ में राजा के पैर उलझे थे, उसे काट रहे हैं । राजा घवरा गया कि थोड़ी ही देर में उनके जड़ काट देते ही मैं नीचे गिरूंगा और सर्प तथा बिच्छू प्रभृति जीवों का भोजन बनूँगा । उसने फिर किसी तरह ऊपर चढ़कर निकल भागने का विचार किया और कुँए के ऊपर दृष्टी फेंकी तो क्या देखा कि वह दुष्ट हाथी खड़ा है । राजा ने सोचा कि मेरे ऊपर जाते ही हाथी मुझे चीर डालेगा । राजा सब ओर आफत देखकर बहुत ही गहराया । उस पीपल के वृक्ष में मधु-मक्खियों का एक छत्ता था । उससे मधु कि बूंदे टपकती थीं । उनमें से कोई कोई बूँद राजा के मुंह में भी जा गिरती थी । उसी शहद के चाटने में राजा सारी आफतों को भूला हुआ था । बाज बाज वक्त तो वह शहद के मजे में ऐसा गर्क हो जाता था, कि इसे इस बात का भी ख्याल न रहता था कि चूहों के जड़ काट देते ही मेरी क्या दुर्दशा होगी । 

किसी ने खूब कहा है -

गजल 
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तू क्या उम्र की शाख पर सो रहा है ।
तुझे कुछ खबर है कि क्या हो रहा है ।।
कतरते हैं जिसको, चूहे रात दिन दो ।
तू इस पर पड़ा बेखबर सो रहा है ।।
खड़ा नीचे है मौत का मस्त हाथी ।
तेरे गिरने का, मुन्तजिर हो रहा है ।।
ए न्यामत ! ये टहनी गिरना चाहती है ।
विषय-बूँद रस, क्यों तू यूँ खो रहा है ।।

जब जीवात्मा-रुपी राजा कर्म-रुपी हाथी से उतरना चाहता है, तब कर्म-रुपी हाथी उसे खदेड़कर गर्भाशय-रुपी अन्धे कुँए में डाल देता है ।
आयु-रुपी वृक्ष की जड़ में राजा-रुपी आत्मा का पैर उलझा रहता है । गर्भाशय में बच्चा नीचे सिर और ऊपर पैर करके उसी तरह रहता है; जिस तरह राजा वृक्ष कि जड़ में उलझकर लटक रहा था । राजा-रुपी जीव नीचे की ओर देखता है तो काम-क्रोध-रुपी सर्प-बिच्छू वगैरह, खाने की इच्छा से मुंह बाए दीखते हैं । ऊपर देखता है तो आयु-रुपी जड़ को दिन-रात चूहे काटते मालूम होते हैं । कुँए के बाहर सूंड से धकेलने को हाथी-रुपी कर्म दीखता है । पर राजा-रुपी जीवात्मा पेड़ में लगे छत्ते के विषय-रुपी शहद की बूंदों की चाट में सब दुखों को भूलकर लटका रहता है । जब चूहे जड़ काट देते हैं, तब वह पछताता और गर्भाशय-रुपी कुँए में जा गिरता है, यानी फिर जन्म लेता है । तात्पर्य यह कि किये हुए कर्म का फल भोगे बिना कोई बच नहीं सकता । जो किसी तरह बच जाते हैं या आत्महत्या कर लेते हैं, उन्हें कर्म-रुपी हाथी गर्भाशय-रुपी कुँए में फिर गिरा देते हैं । वे फिर जन्म लेते और कर्म-फल भोगते हैं ।

इस दृष्टान्त का बड़ा गहरा मतलब है । इसके समझने से आँखें खुल जाती है । आयु की अस्थिरता - चंचलता आखों के सामने आ जाती है; पर हम यहाँ इससे इतना ही समझायेंगे कि मनुष्य कहीं क्यों न जाय; शुभाशुभ कर्मों के फल उसके साथ ही रहेंगे । राजा ने प्राणों की रक्षा की भरसक चेष्टा की; पर कर्मवश, उस कुँए में भी हर तरफ मौत ही मौत दिखने लगी । मतलब यह है कि कर्म अपना फल भुगाये बिना हरगिज़ पीछा नहीं छोड़ता । इसलिए किसी ने ठीक ही कहा है - 

अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम ।

नाभुक्ते क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।।

अपने किये हुए शुभाशुभ कर्मों का फल अवश्य भोगना होता है, बिना भोगे कर्म का फल सौ करोड़ कल्प में भी क्षय नहीं होता ।


दोहा:

जलधि डूब चह मेरु चढ़, विद्या रितु व्यौपार।
अनहोनी होवे न कहुं, होनी अमिट विचार।।



भीम वनं भवति तस्य पुरं प्रधानं 
सर्वो जनः सुजनतामुपयातितस्य ।
कृत्स्ना च भूर्भवति सन्निधिरत्नपूर्णा
यस्यास्ति पूर्वसुकृतं विपुलं नरस्य।। १०३ ।।

अर्थ:
जिस मनुष्य के पूर्व जन्म के उत्तम कर्म - पुण्य - अधिक होते हैं, उनके लिए भयानक वन, नगर हो जाता है । सभी मनुष्य उसके हितचिंतक मित्र हो जाते हैं और सारी पृथ्वी उसके लिए रत्नपूर्ण हो जाती है ।

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -
गरल सुधा, करै रिपु मिताई, गोपद सिंधु अनल सितलाई।
गरुड़ सुमेरु रेणु-सम ताहि, राम कृपा करि चितवही जाही ।।

सच है; जिसके पूर्वजन्म के पुण्य होते हैं, उसके लिए जङ्गळ में मङ्गळ होता है, उसके कट्टर शत्रु भी उसके पक्के मित्र हो जाते हैं और उनकी रात दिन हितचिन्तना और खुशामद करते हैं, वह जहाँ नज़र डालता है उसे धन ही धन दिखाई देता है और वह मिटटी छूता है तो सोना हो जाता है । जब तक पुण्य का ओर नहीं आता, तब तक सुन्दर भवन, विलासवती युवतियां, दासदासी और छत्र-चामर आदि विभूति, सभी स्थिर रहते हैं; पर पुण्यों का क्षय होते ही वे सब वैभव रस-केलि की कलह में टूटी हुई मोतियों की लड़ी की तरह विलायमान होते हैं । तात्पर्य यह है, पुण्यवान का सर्वत्र मङ्गळ है । उसका न कोई शत्रु होता है और न उसे किसी प्रकार का कष्ट या अभाव ही होता है । 


को लाभों गुणसङ्गमः किमसुखं प्राज्ञेतरैः 
का हानिः समयच्युतिर्निपुणता का धर्मतत्वे रतिः ।
कः शूरो विजितेन्द्रियः प्रियतमा कानुव्रता किं धनं
विद्या किं सुखमप्रवासगमनं राज्यं किमाज्ञाचलम् ।। १०४ ।।

अर्थ:
लाभ क्या है? गुणियों की सङ्गति । दुःख क्या है ? मूर्खों का संसर्ग । हानि क्या है ? समय पर चूकना । निपुणता क्या है? धर्मानुराग । शूर कौन है ? इन्द्रियविजयी । स्त्री कैसी अच्छी है ? जो अनुकूल और पतिव्रता है । धन क्या है? विद्या । सुख क्या है ? प्रवास में न रहना । राज्य क्या है ? अपनी आज्ञा का चलना ।

प्रश्नोत्तर के रूप में योगिराज कैसी अमूल्य अमूल्य शिक्षाएं दे रहे हैं । इन्ही भावों के दो श्लोक, स्वामी शंकराचार्य महाराज की 'प्रश्नोत्तरमाला' से पाठकों के लाभार्थ नीचे देते हैं -

विद्या हि का ब्रह्मगतिप्रदात्री बोधो हि को यस्तु विमुक्तिहेतुः।
को लाभ आत्मावगमो हि यो वै जितं जगत्केन मनो हि येन।। 

किं दुर्लभः सद्गुरुस्ति लोके सत्सङ्गतिब्रह्मविचारणा च।
त्यागो हि सर्वस्व शिवात्मबोधः को दुर्जयस्सर्वजनैर्मनोजः।।

विद्या क्या है? ब्रह्मगति देनेवाली 
बोध क्या है? विमुक्ति का कारण
लाभ क्या है? आत्म प्राप्ति या अपने स्वरुप को पहचानना 
जगतविजेता कौन है? जिसने मन को जीता है

संसार में दुर्लभ क्या है? सद्गुण, सत्संग और ब्रह्म विचार 

सब कुछ त्याग देने वाला कौन है? कल्याणरूप ज्ञान(शिवात्मबोध) । 
दुर्जय कौन है? कामदेव 

पाठक ! समझे ? कैसी अनमोल शिक्षा है  ! आप इनको कई कई बार पढ़ें और इन पर विचार करें । एकान्त में, तर्क-वितर्क के साथ, इनको समझने की चेष्टा करने से अपपोरव आनन्द आएगा ।


अगर आप चाहते हैं कि हम संसार में रहकर सुख पावें, जन्म मरण के फन्दे से बच, परमात्मा की भक्ति करें; तो आप इस पर अमल करें; पढ़कर यदि अमल न किया, तो वृथा समय नष्ट किया । पढ़कर, पढ़े हुए पर जो अमल करता है और उसके अनुसार चलता है, वह वास्तविक विद्वान् है ।



अप्रियवचनदरिद्रैः प्रियवचनाद्यैः स्वदारपरितुष्टैः ।
परपरिवादनिवृत्तैः काचित्क्वचिनमण्डिता वसुधा ।। १०५ ।।

अर्थ: 
जो अप्रिय वचनो के दरिद्री हैं, प्रिय वचनों के धनी हैं, अपनी ही स्त्री से सन्तुष्ट रहते हैं और पराई निन्दा से बचते हैं - ऐसे पुरुषों से कहीं कहीं की ही पृथ्वी शोभायमान है ।

मधुर भाषण 
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सत्पुरुषों को यहाँ, चाहे संसारी चीज़ो का आभाव हो, पर मीठे वचनो का अभाव नहीं होता । सत्पुरुष धन के दरिद्री हों तो हों, पर मीठे वचनो के दरिद्री नहीं होते । जो उनके पास जाता है, जो उनसे मिलता है, उसे वे अमृत समान प्रिय वचनो से अपने वश में कर लेते हैं । कहा है - 

तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता । 
एतान्यपि सतां गेहे नोच्छिद्यन्ते कदा चन ।।

चटाई, जमीन, जल और सत्य-सहित प्रिय वाक्य - इनसे भले आदमियों का घर कभी खाली नहीं होता; यानी दरिद्र होने पर भी सज्जनो के घर में ये तो अवश्य ही होते हैं । 
प्राणिमात्र पर दया, मित्रता, दान और मधुर वाणी - इनके समान वशीकरण, संसार में और नहीं है। कहा है - 

तुलसी मीठे वचन ते सुख उपजत चहुँ ओर।
वशीकरण यह मन्त्र है परिहरु वचन कठोर ।।

और भी कहा है -
कोऽतिभारः समर्थानां किं दूरं व्यवसायिनाम् । 
को विदेशः सुविद्यानां कः परः प्रियवादिनाम्  ।।

समर्थ पुरुषों को बड़ा भार क्या है ? व्यवसाइयों को दूर कौन सी जगह है ? विद्वानों के लिए विदेश कौन सा है ? प्रिय बोलने वालों को गैर कौन है ?
मधुर भाषण से पराये भी अपने हो जाते हैं और वज्र ह्रदय भी मोम हो जाते हैं । 

कठोर भाषण 
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मधुर भाषण की जगत के सभी विद्वानों और महापुरुषों ने बड़ी महिमा लिखी है; इसलिए सभी समझदारों को भूलकर भी किसी से कड़वी बात न करनी चाहिए । कठोर वचन से घनिष्ठ मित्र भी शत्रु हो जाते हैं । कठोर वचन बोलने वाले की सभी अहित-कामना करते हैं । कटुवादी की कोई सहायता नहीं करता । तीर का जख्म अच्छा हो जाता है पर जुबान का जख्म जीवन भर अच्छा नहीं होता । कहा है -
रोहते शायकैर्विद्धं वनं परशुना हतम् ।
वाचा दुरुक्तं वीभत्सं नापि रोहति वापक्षतम् ।।

बाण का घाव भर जाता है; कुल्हाड़ी से काटा वृक्ष फिर हरा हो जाता है; पर कठोर वाणी से हुआ घाव कभी नहीं भरता ।

वाक्यवाण नहि छोड़िये तीच्छनतायुत जोय।
कटुक वचन कुरुकुल हन्यो, भीम क्रोधवस होय।।
नाहिं विवाद मदान्ध सों, करै न पर पै खीस।
तुरुष वचन सों कृष्ण ने, काट्यो चेदिप सीस।।

महापुरुष, भूल से भी, किसी का दिल दुखने वाली बात नहीं कहते; क्योंकि वे पराया दिल दुखने को ही सबसे बड़ा पाप समझते हैं । इतना ही नहीं, महापुरुष अपने तईं गाली देने वाले को भी गाली नहीं देते; क्योंकि उनके पास कठोर वचन या गाली होती ही नहीं, दें कहाँ से ? जिनके पास जिस चीज़ का अभाव होगा, वह उसे कहाँ से देगा ? 

एक महात्मा को दुष्ट लोग व्यथा ही सताया करते थे; पर वे बदले में मीठी मीठी बातें ही किया करते थे । एक बार तंग होकर वह कहने लगे -
ददतु ददतु गालिर्गालिबन्तो भवन्तो 
वयमिह तद्भावाद् गालिदानेप्यशक्तः ।
जगति विदितमेतद् दीयते तद् परस्मै 
नहि शशकविषाणम् कोषि कस्मै ददाति ।।

दो, दो, आप गालीबंत हैं । कोई धनवान होता है, कोई बलवान होता है, आप गालिवान हैं । पर मेरे पास तो गालियों का अभाव है; मैं गले कहाँ से लाऊँ ? संसार जानता है, जिसके पास जो चीज़ होती है, उसे ही वह दुसरे को दे सकता है । खरगोश अपने सींग क्यों नहीं देता? भैया ! मैं तो पण्डितराज जगन्नाथ के इस कौल पर चलता हूँ -
अपि बहलदहनजालं मूर्धन रिपुमें निरन्तरं धमतु। 
पातयतु वाऽसिधारामहमणुमात्र न किंचिदपभाषे।।

दुश्मन चाहे मेरे सिर पर लगातार आग जलाते रहे, चाहे मुझ पर तलवार की चोटें करें; पर में जरा भी अपभाषण न करूँ; यानी मेरे मुंह से कोई ख़राब शब्द न निकले ।

सज्जनो का स्वाभाव ही होता है कि वे अपने हानि पहुँचाने वाले का भी भला ही करते हैं; गाली देने वालों का मधुर वचनो से समादर करते हैं  और मारने वाले के सामने अपना सिर कर देते हैं । आम के वृक्ष पर लोग पत्थर मारते हैं, मगर वह उत्तम फल प्रदान करता है । दूध को लोग चाहे कितना ही तपायें, चाहे कितना ही विकृत करें और कितना ही मथें; पर वह प्रहार - चोट सहता हुआ भी अपने प्रहकर्ताओं के लिए चिकनाई - घी ही देता है । जो लोग सज्जनो का अनुकरण करते हैं; सज्जन और दुर्जन, मित्र और शत्रु, सबसे मीठा बोलते हैं; वे मधुर वाणी वाले मोर की तरह सबके प्यारे होते हैं । जो प्रिय बोलते हैं, प्रिय के सत्कार की इच्छा करते हैं; वे मनुष्य शरीर में होते हुए भी देवता हैं । 
गोस्वामी जी कहते हैं - 
ज्ञान गरीबी गुण धरम, नरम वचन निरमोष।
तुलसी कबहुँ न छाँड़िये, शील सत्य सन्तोष।।

स्त्री दुःख और नरक की मूल है 
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स्त्री वास्तव में विष है, पर वह अमृत सी दीखती है । अथाह जल में डूबने से आदमी बच सकता है; पर स्त्री में डूबने से नहीं बच सकता। भक्ति, मुक्ति और ज्ञान की, स्त्री दुश्मन है और परमात्मा के मिलने की राह में दुर्गम घाटी है । स्त्री अपने तीखे नयन-बाणों से पुरुष को मदिरा की तरह मतवाला कर देती है और अपनी इच्छानुसार चलाती है । स्त्री दीपक है और पुरुष पतंग है । पुरुष अज्ञान से, उसके मिथ्या रूप पर मुग्ध होकर अपना लोक-परलोक गंवाता है । स्त्री संसार बन्धन में बाँधने वाली, दुखों की मूल - ममता की जड़, नरक का द्वार और अविश्वास योग्य है - उसकी प्रीति का कुछ भी भरोसा नहीं; वह करवट बदलते बदलते पराई हो जाती है । अपने सुख और स्वार्थ के लिए वह पुरुष को मतवाला करके, उससे कौन कौन से नीच कर्म नहीं कराती ? उसी के कारण पुरुष जने-जने के कठोर वचन सहता, अपमानित होता, आदमी-आदमी की खुशामद करता और नाना प्रकार के दुःख भोगा करता है । ऐसी दुखों की खान और नरक की नसैनी स्त्री के पीछे जो मरे मिटते हैं, वे क्या बुद्धिमान हैं ? जो ऐसी एक स्त्री के होने पर भी सन्तुष्ट नहीं रहते - और स्त्रियों को चाहते हैं, यहाँ तक की पराई स्त्रियों पर नीयत डिगते हैं - उन अधर्मियों को क्या कहें ? पूर्व जन्म के पापों से उनकी बुद्धि मारी गयी है ।

संसारी को स्त्री बिना सुख नहीं 
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बारीक नज़र से देखने पर स्त्री महा गन्दी और लोक-परलोक का नाश करने वाली मालूम होती है; पर उसके बिना संसार चल ही नहीं सकता । स्त्री न हो तो परमात्मा की सृष्टि का ही लोप हो जाये - उस खिलाडी का सारा खेल ही बिगड़ जाये । स्त्री ही पुरुषों की खान है । उसी से ध्रुव, प्रह्लाद, भगीरथ, रामचन्द्र, अर्जुन, भीम, मान्धाता और हरिश्चन्द्र जैसे महापुरुष पैदा हुए हैं । वह हज़ारों दोष होने पर भी अच्छी है; पत्थर होने पर भी रत्न है; विष होने पर भी अमृत है । स्त्री ही घर की शोभा और लक्ष्मी है । बिना स्त्री घर, घर नहीं वन है । जिस तरह बिना मित्र के पुरुष निर्जीव देह है; उसी तरह बिना स्त्री के पुरुष जीवन रहित शरीर है । स्त्री और पुरुष दोनों से एक देह बनती है । अतः बिना स्त्री पुरुष अधूरा है स्वास्थ्य और स्त्री ये ही दो संसार के सच्चे सुख हैं । अपना घर और अपनी पतिव्रता स्त्री - दोनों सुवर्ण और मोतियों के समान मूलयवान हैं । बिना स्त्री के हमें अपने जीवन के आरम्भ में सहायता करने वाला नहीं, जीवन के दौरान में सुखी करने वाला नहीं; जीवन के अंतिम दिनों में तसल्ली और तसफ्फी करने वाला नहीं ।  अत्यागियों को संसार में स्त्री बिना, जरा भी सुख नहीं । इतना ही नहीं, बिना स्त्री धर्मकार्य भी उचित रूप से सम्पादित नहीं हो सकते । इसी से अनेक ऋषि मुनि, वनवास करते हुए भी स्त्रियों को रखते थे और परमात्मा की सृष्टि को बढ़ाते थे । अतएव कट्टर त्यागियों और रोगी संस्यासियों के सिवा पुरुषमात्र को स्त्री त्याग देना उचित नहीं ।

अपनी ही स्त्री से सन्तुष्ट रहो
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अपनी स्त्री कैसी ही बुरी बावली हो; पुरुष को उसे ही अप्सरा समझ कर उसी से अपना चित्त सन्तुष्ट करना चाहिए । अपनी स्त्री के कुरूपा  या बदशकल होने पर भी पराई स्त्री पर मन न डिगाना चाहिए - पर स्त्रियों को अपनी माता के समान समझना चाहिए । जैसी ही अपनी स्त्री, वैसी ही पराई । पराई स्त्री में हीरे नहीं लटकते । पर नादानो को अपनी अच्छी चीज़ भी अच्छी नहीं मालूम होती और पराई बुरी भी अच्छी मालूम होती है । इसका कारण ? कारण, अपनी स्त्री हर समय नेत्रों के सामने रहती है । मनुष्य का स्वभाव है कि उसे सुलभ वास्तु बुरी और दुर्लभ अच्छी लगती है । कहा है - 
सुलभ वस्तु सब वस्तु जनन सों, ह्वै जग आदरहीन।
परिहरि ज्यों निज नारि जान, ह्वै परनारी लीं।।

पर-स्त्री सब तरह हानिकर है
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जो लोग कहा करते हैं कि अपनी ब्याहता स्त्री में दोष नहीं ; उन्हें समझना चाहिए कि प्रायः अपनी और पराई सभी स्त्रियां नागिन हैं । सभी पुरुषो का बलवीर्य हरण करती और अंत में नरक ले जाती हैं । अपने कुँए में गिरने वाला क्या बच जाता है ? अपने और पराये, दोनों कुओं में गिरने वाला मरता है । अपना विष और पराया विष, दोनों ही खाने से प्राणनाश होता है । अपनी आग और पराई आग, दोनों से ही शरीर जलता है । तात्पर्य यह कि अपनी और पराई, सभी स्त्रियां हानिकारक हैं । फिर भी, अपनी स्त्री से उतनी हानि नहीं जितनी पराई से है । अपनी स्त्री पतिव्रता हो, तो चतुर पुरुष, गृहस्थाश्रम में रहकर भी, स्वर्ग और मोक्ष लाभ कर सकता है । पराई स्त्री में सिवा हानि कि कोई भी लाभ नहीं । पराई स्त्री धन और यौवन का नाश करने वाली और अन्त में नरक में ले जाने वाली है । परनारियों कि सम्बन्ध में अनुभवी पुरुष कहते हैं -
परनारी पैनी छुरी तीन ठौर ते खाये ।
धन छीने जोबन हरे मुए नरक ले जाये ।।


जिस तरह कठोर भाषण बुरा है, जिस तरह स्त्रियों पर मन चलना बुरा है, उसी तरह परनिन्दा करनी भी बुरी है । निन्दक से बढ़कर पापी नहीं, अतः बुद्धिमान को सच्ची और झूठी, कैसी भी निन्दा न करनी चाहिए ।


कदर्थितस्यापि हि धैर्यवृत्तेर्न शक्यते धैर्यगुणः प्रमार्ष्टुम्। 
अधोमुखस्यापि कृतस्य वह्नेर्नाधः खिखा याति कदाचिदेव ।। १०६ ।।

अर्थ:
धैर्यवान पुरुष घोर दुःख पड़ने पर भी अपने धैर्य को नहीं छोड़ता; क्योंकि प्रज्वलित अग्नि के उल्टा कर देने पर भी उसकी शिखा ऊपर ही को रहती है ।
विपद में निरादर या अपमान से मनुष्य की बुद्धि नष्ट हो जाती है; पर जो स्वाभाव से ही धैर्यवान होते हैं, उनकी बुद्धि निरादर से भी नष्ट नहीं होती । बुद्धि के नष्ट न होने से, मनुष्य अपने बुद्धि-बल से ही घोर विपद से पार हो जाता है, अतः मनुष्य पर कैसी भी विपत्ति पड़े, उसे धैर्य न त्यागना चाहिए; क्योंकि धैर्य के बिना बुद्धि नहीं रह सकती और बिना बुद्धि का मनुष्य बिना पतवार की नाव के समान है । जिस तरह पतवार-हीन नाव समुद्र में शीघ्र ही डूब जाती है; उसी तरह धैर्यहीन मनुष्य विपद में शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।

कान्ताकटाक्षविशिखा न दहन्ति यस्य चित्तं न निर्दहति कोपकृषानुतापः ।
कर्पन्ति भूरिविपयाश्च न लोभपाशैर्लोकत्रयं जयति कृत्स्नमिदं स धीरः ।। १०७ ।।

अर्थ:
स्त्रियों के कटाक्ष रुपी बाण जिसके ह्रदय को नहीं बेधते, क्रोध रुपी अग्नि ज्वाला जिसके अन्तः-करण को नहीं जलती और इन्द्रियों के विषय भोग जिसके चित्त को लोभ-पाश में बांधकर नहीं खींचते, वह धीर पुरुष तीन लोक को अपने वश में कर लेता है ।

स्त्री, क्रोध और विषय - ये तीनो ही आफत की जड़ और नाश की निशानी हैं । जो इनके काबू में नहीं आता वह सचमुच बहादुर है । शंकराचार्यकृत प्रश्नोत्तरमला में लिखा है - 
शूरान्महाशूरतमोऽस्ति को वा 
मनोजबाणैर्व्यथितो न यस्तु ।
प्राज्ञोऽतिधीरश्च शमोऽस्ति को वा
प्राप्तो न सोहं ललनाकटाक्षैः ।।

संसार में सबसे बड़ा बहादुर कौन है ? जो काम-बाणो से पीड़ित न हो ।
प्राज्ञ, धीर और समदर्शी कौन है ? जिसे स्त्री के कटाक्ष से मोह न हो ।

क्या खूब कहा है । जो स्त्री के नयनबाणो से घायल होने के करण होश में नहीं रहता, उस बेहोश और विवेकहीन को काम, क्रोध, मद और लोभ प्रभृति सभी शत्रु मार लेते हैं । इसके विपरीत जिस पर स्त्री के कटाक्ष बाण असर नहीं करते, उसे मोह नहीं होता - उसके होश हवास ठीक रहते हैं ।  पर यह बढ़ी टेढ़ी खीर है । कदाचित मनुष्य और सबसे पीछा छुड़ा ले पर कामिनी से पीछा छुड़ा लेना बड़ा कठिन है । बड़े-बड़े मुनिराजो ने यहाँ गोते खाये हैं । और तो क्या - स्वयं योगेश्वर कामारि, कामिनी के पीछे पागल हो गए हैं । पण्डितेन्द्र जगन्नाथ महाराज ने ठीक ही कहा है - 
सर्वेऽपि विस्मृतिपथं विषयाः प्रयाता 
विद्याऽपि खेदकलिता विमुखीबभूव।
सा केवलं हरिणशावकलोचना मे 
नैवापयाति हृदयादधिदेवतेव।।

सारे विषयों को भी मैं भूल गया और विद्या की मुझे याद न रही; पर वह मृग के बच्चे की सी आँखों वाली, इष्ट देवता की तरह, मेरे ह्रदय से दूर नहीं होती (मर गयी है, तो भी याद नहीं भूलती)।

अज्ञानी कामी ही स्त्री को नहीं भूल सकते; किन्तु जो ज्ञानी हैं; जिनकी विवेक बुद्धि नष्ट नहीं हुई है, वे स्त्री मोह-जाल में नहीं फंसते और फंस भी जाते हैं, तो उसकी असलियत को समझकर उसे त्याग देते हैं । 

क्रोध-शत्रु
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स्त्री के कटाक्षबाणो से ही अपनी रक्षा कर लेने से मनुष्य त्रिलोक विजयी नहीं हो सकता । इस भरी विजय के लिए उसे अपने ही शरीर में रहने वाले गुप्त शत्रु "क्रोध" को भी अपने अधीन करना परमावश्यक है, क्योंकि क्रोध मनुष्य के बल, बुद्धि और विवेक को सदा क्षीण करता है और उसकी मौत को सदा सिर पर रखता है । कहा है - 
क्रोधोहि शत्रुः प्रथमो नराणां, देहस्थितो देह विनाशनाय ।
यथा स्थितः काष्ठगतोहि वह्नि स एव वह्निर्दहते च काष्ठं ।।

मनुष्य के शरीर में छिपा हुआ क्रोध इस प्रकार देह को नाश कर देता है, जिस तरह काठ के भीतर छुपी हुई अग्नि प्रज्वलित होने पर काठ को नाश कर देती है ।

संसार में ऐसा कोई पुत्र चाण्डाल न होगा, जो अपनी जननी को ही खा जाये; पर यह चाण्डाल क्रोध, जिस ह्रदय-भूमि रुपी जननी से पैदा होता है  पहले उसे ही खाता है, दुसरे को पीछे । इसके सिवा, जिसमें रहता है, उसी के धर्म ज्ञान को नाश करता है और उसे सदा दुखी रखता है । तात्पर्य यह कि क्रोधी पुरुष, धर्म-अधर्म को नहीं समझता । कहा है -
मत्त प्रमत्तश्चोन्मत्त श्रान्त क्रुद्धो बुभुक्षितः ।
लुब्धो भीरु त्वरायुक्तः कासुकष्च न धर्मवित् ।।

मत्त, प्रमत्त, उन्मत्त, थका हुआ, क्रोधी, भूखा, लोभी, डरपोक, जल्दबाज, कामातुर, रोगार्त या शोकार्त - इनको धर्मज्ञान नहीं रहता ।
ऐसो के दिलों में दया धर्म नहीं होता; इसलिए ये सब तरह के दुष्कर्म कर सकते हैं । सब तरह के दुष्कर्म कर सकने कि वजह से ये सदा दुखी रहते हैं । 

बाइबिल में लिखा है - "क्रोध मूर्खों कि छाती में रहता है" । यह बहुत ठीक बात है । जो अज्ञानी होते हैं, जिन्हे संसार का अनुभव नहीं होता, जिन्हे शास्त्र ज्ञान नहीं होता, जो महात्माओं कि सङ्गति नहीं करते, प्रायः उन्ही में क्रोध पाया जाता है । ज्ञानी और अनुभवी पुरुष काम, क्रोध, मद, मोह, लोभ और मात्सर्य - इन छः को त्यागे रहते हैं और ऐसे ही नररत्न त्रिलोक-विजयी हो सकते हैं ।

विषयों कि फांसी
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विषयों का ध्यान ही आफत कि जड़ है । विषयों का ध्यान करने वाले मनुष्य के मन में पहले विषयों से प्रीति उत्पन्न होती है । प्रीति से इच्छा पैदा होती है । इच्छा से क्रोध पैदा होता है । क्रोध से भ्रम होता है । भ्रम से स्मृति नाश होती है । स्मृति के नष्ट हो जाने से बुद्धि नष्ट हो जाती है । बुद्धि के नष्ट हो जाने से मनुष्य बिलकुल नष्ट हो जाता है । वही बात भगवान् कृष्ण ने गीता के दुसरे अध्याय में कही है । जब विषयों के ध्यान मात्र से यह गति होती है तब विषयों के भोगने से क्या न होता होगा ? ख्याल तो कीजिए ।

असल में विषयों का ध्यान ही पहले किया जाता है । अगर मनुष्य विषयों का ध्यान ही न करे, तो विषयों में प्रीति क्यों हो - उनके भोगने कि इच्छा क्यों हो ? इच्छा न हो, तो मनुष्य बुद्धि खोकर नष्ट-भ्रष्ट क्यों हो ?

अब सोचना चाहिए कि विषयों का ध्यान काहे में होता है ? ध्यान मन से होता है । मन में ध्यान होने के बाद इन्द्रियां अपना काम करती है । अगर मन वश में हो तो इन्द्रियां कुछ न कर सकें । अगर मन वश में न किया जाये, केवल इन्द्रियां वश में कर ली जाएं । परन्तु अगर मन वश में किया जाये तो इन्द्रियां कुछ भी न कर सकेंगी । मन सारथी है और इन्द्रियां घोड़े हैं । घोड़े सारथी के वश में रहते हैं । वह उन्हें जिधर ले जाता है वह उधर ही जाते हैं । जो अपने मन को वश में कर लेता है, उसकी इन्द्रियां भी, मन के वश में होने के करण, वश में हो जाती हैं । जिसका मन वश में नहीं वह मन से भांति भांति के विषयों का ध्यान करता हुआ नष्ट हो जाता है । इसलिए बुद्धिमान को चाहिए कि अपने मन को वश में करे ताकि विषयों का ध्यान ही न हो । जिस मन में विषय-वासना नहीं, वही मन शुद्ध है, उसी मन की शोभा है । कहा है -

पंकैर्विना सरो भाति सभा खलजनैर्विना ।
कटुवणैर्विना काव्यं मानसं विषयैर्विना ।।

कीचड-रहित तालाब की शोभा है, दुर्जन-रहित सभा की शोभा है; कठोर वर्ण-रहित काव्य की शोभा है और विषय-वासना रहित मन की शोभा है ।

J. G. Harder  महोदय कहते हैं: "सिंह को पराजित करने वाला वीर पुरुष है, संसार को परास्त करने वाला भी वीर है; पर जिसने अपने तईं पराजित किया है, वह उनसे भी बड़ा वीर है।"

निश्चय ही बहादुरी अपने तईं जीतने में ही है; पर अपने तईं जीतना बड़ा कठिन काम है । मन को वश में करना लड़कों का खेल नहीं । अगर कोई हवा को वश में कर सकता है, तो मन को भी वश में कर सकता है । किसी कवी ने कहा है -
देखिबे को दौरे तो सटकि जाय वाही ओर।
सुनिबे को दौरे तो रसिक सिरताज है ।।
संघिबे को दौरे तो अघाय न सुगन्धि करि ।
खाइबे को दौरे तो न धापे महाराज है ।।
भोगीबे को दौरे तो तृपति हूँ न काहु होय ।
हनुमत काहे याको नेकहु न लाज है ।।
काहु को न कह्यो करे, अपनी ही टेक धरे ।
मन सों न कोउ हम, देख्यो दगाबाज है ।।

कबीर साहब कहते हैं -

मन के मते न चालिये, मन का मता अनेक ।
जो मन पर असवार है, ते साधू कोई एक ।।
मन-पंछी जब लग उड़े, विषय-वासना माहिं ।
ज्ञान बाज कि झपट में, तब लग आया नाहिं ।।

मन को वश में करने की तरकीब

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मन केवल ज्ञान या वैराग्य से वश में होता है । जब मन को संसार की असारता मालूम हो जाती है और वह धन, यौवन प्रभृति की अनित्यता को जान जाता है, तब उसको वैराग्य होता है, यानी संसार से विरक्ति हो जाती है । उस समय मन फ़ौरन वश में हो जाता है ।

एक दृष्टान्त बताते हैं, पाठक इसे पढ़ें और शिक्षा का लाभ लें 

विषयों की असलियत 
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कोई राजकुमार सैर करता जा रहा था । उसने एक मकान पर एक सेठ की कन्या को बाल सूखते हुए देख लिया । कन्या परमसुन्दरी, रतिमानमर्दिनी और मुनीमनमोहिनी थी । देखते ही राजकुमार मुग्ध हो गया । घर में आकर पलंग पर पड़ रहा और खाना पीना सब त्याग दिया । राजा को खबर हुई । शीघ्र ही राजा ने उसके पास जाकर पुछा- "पुत्र ! भोजन क्यों नहीं करते ? जो तुम्हारी इच्छा हो वही किया जाये ।" राजकुमार ने राजा से सेठ की कन्या के साथ शादी करा देने की प्रार्थना की । राजा ने फ़ौरन सेठ जी को बुलाया और उनसे कहा की आप अपनी कन्या की शादी हमारे राजकुमार से करदे । सेठ जी ने कहा - "महाराज ! बड़ी ख़ुशी की बात है, मेरा परम सौभाग्य है; पर मैं जरा कन्या से भी पूछ लूँ। "

सेठजी ने अपनी कन्या को यह माजरा कह सुनाया । कन्या ने कहा - "पिताजी ! आप राजकुमार से कह आइये, कि मेरी लड़की आपसे सोमवार को मिलेगी; आप खाना पीना कीजिये।" सेठजी यह बात राजकुमार से कह आये । उधर कन्या ने किसी नौकर से जमालगोटा मँगाकर उसका जुलाब ले लिया । अब क्या था, दस्त पर दस्त होने लगे । जो दस्त होता, उसे वह एक सुन्दर पीतल की बाल्टी में रखवा, ऊपर से रेशमी कपडा ढकवा देती । इस तरह कोई ४०-५० बाल्टियां तैयार हो गयी । सेठ की कन्या के गाल बैठ गए, चेहरा भूतनी का सा हो गया । देखने से नफरत होती थी । एक काम उसने और भी किया, वह एक टूटी सी चारपाई पर गूदड़ी बिछवा कर लेट गयी । गूदड़ी पर और अपने पहनने के कपड़ो पर, उसने थोड़ा सा पाखाना छिड़कवा लिया । जब इस तरह सब काम हो गया, तब उसने सेठ जी से कहा - "पिताजी ! आज का वादा है । आप राजकुमार को लिवा लाइए।"

सेठ जी राजकुमार के पास पहुंचे और उनसे अपने घर चलने की प्रार्थना की । राजकुमार तो तैयार ही बैठे थे, फ़ौरन साथ हो लिए । घर में घुसते ही बदबू के मारे उनका दिमाग सड़ने लगा, पर उन्हें कन्या से प्रेम था, इसलिए नाक को रुमाल से दबाकर उसके पलंग के पास पहुंचे । कन्या ने पड़े पड़े ही कहा - "राजकुमार ! अगर आपको मुझसे प्रेम है तो मैं आपकी सेवा में मौजूद हूँ । आपकी इच्छा हो सो कीजिये और अगर आपको मेरी सुन्दरता से प्रेम है, तो वह उन बाल्टियों में भरी रखी है ।" राजकुमार कुछ मूढ़ था । उसने पीतल की चमकदार बाल्टियों पर रेशमी कपडे ढके देख मन में समझा कि संभवतः सुन्दरता ही ढकी हो । उसने अपने हाथ से जो रेशमी रुमाल हटाया, तो सदा हुआ पाखाना नजर आया । देखते ही राजकुमार नाक दबाकर वह से भाग पड़ा । अब उसे होश हो गया । संसार की और खासकर विषयों की असलियत उसे मालूम हो गयी । उसने कहा - "ओह ! संसार में कुछ भी नहीं है; जैसा यह दीखता है वैसा नहीं है।" उसी समय उसे संसार से विरक्ति हो गयी । वह राज को परित्याग कर, अंग में भस्म लगा, मृगछाला और तूम्बी ले, वन को चला गया और परमात्मा की भक्ति में लीन हो गया ।

पाठकों के चित्त पर योगिराज महाराज भर्तृहरि के अमूल्य उपदेशों का असर पूर्ण रूप से हो जाये इसलिए हम एक भजन भी नीचे देते हैं -

मूरख छाँड़ वृथा अभिमान।। टेक ।।

औसर बीत चल्यो है तेरो, तू दो दिन को मेहमान।
भूप अनेक भये पृथ्वी पर, रूप तेज बल खान।
कौन बच्यो या काल बली से, मिट गए नाम निशान।।
धवल धाम धन गज रथ सेना, नारी चन्द्र समान।
अन्त समय सबहि को तज के, जाय बसै समसान।।
तज सतसंग भ्रमत विषयन में, जा विधि मर्घट खान।
क्षण भर बैठ न सुमिरन कीनो, जासों होत कल्यान।।
रे मन मूढ़ ! अन्त मत भटके, मेरो कह्यो अब मान।
"नारायण" ब्रजराज कुंवर से, वेग करो पहचान।।

इतना बहुत है; जो समझने वाले हैं, वे समझकर सचेत हो जाएं ।



ऐकोनापि हि शूरेण पादाक्रान्तं महीतलम् ।
क्रियते भास्करेणेव परिस्फुरिततेजसा ।। १०८ ।।

अर्थ:
जिस तरह एक तेजस्वी सूर्य सारे जगत को प्रकाशित करता है; उसी तरह एक शूरवीर साड़ी पृथ्वी पाँव तले दबाकर अपने वश में कर लेता है ।

दोहा -
बड़े साहसी होत जो, काम करत झकझूमि ।
शूरवीर अरु सूर यह, लांघ जात रणभूमि ।।


वह्निस्तस्य जलायते जलनिधिः कुल्यायते तत्क्षणात् 
मेरुः स्वल्पशिलायते मृगपतिः सद्यः कुरङ्गायते।
व्यालो माल्यगुणायते विषरसः पीयूष वर्षायते 
यस्याङ्गेऽखिललोकवल्लभतमं शीलं समुन्मीलति।। १०९ ।।

अर्थ:
जिस पुरुष में समस्त जग को मोहने वाला शील है उसके लिए अग्नि जल सी जान पड़ती है; समुद्र छोटी नदी सा दीखता है, सुमेरु पर्वत छोटी सी शिला सा मालूम होता है, सिंह शीघ्र उसके आगे हिरन सा हो जाता है, सर्प उसके लिए फूलों की माला सा बन जाता है और विष अमृत के गुणों वाला हो जाता है ।
महात्माओं ने कहा है -
शीलवन्त सबसे बड़ा, सब रत्नो की खानि।
तीन लोक की सम्पदा, रही शील में आनि।।
ज्ञानी ध्यानी संयमी, दाता सूर अनेक।
जपिया तपिया बहुत हैं, शीलवन्त कोई एक।।
शीलवन्त निर्मल दशा, पा परिहै चहुँ खूंट।
कहै कबीर ता दास की, आस करै बैकुंठ।।

महाकवि दाग ने कहा है -
वशर ने ख़ाक पाया, लाल पाया या गुहर पाया।
मिज़ाज़ अच्छा अगर पाया, तो सब कुछ उसने भर पाया।

सच है, जिसका स्वाभाव अच्छा है, जिसके स्वाभाव में शील है, उसे संसार प्यार करता है और सभी प्राणी उसके क़दमों में गिरते हैं । पर खेद का विषय है की सच्चे शीलवान विरले ही होते हैं ।


लज्जागुणौघजननीं जननीमिव स्वा-
मत्यन्तशुद्धहृदयामनुवर्तमानाम् ।
तेजस्विन: सुखमसूनपि संत्यजन्ति 
सत्यव्रतव्यसनिनो न पुन: प्रतिज्ञां ।। ११० ।।

अर्थ:
सत्यव्रत तेजस्वी पुरुष अपनी प्रतिज्ञा भङ्ग करने की अपेक्षा अपना प्राण त्याग करना अच्छा समझते हैं क्योंकि प्रतिज्ञा लज्जा प्रभृति गुणों के समूह की जननी और अपनी जननी की तरह शुद्ध ह्रदय और स्वाधीन रहने वाली है ।

प्रतिज्ञा पालन मनुष्य का परम कर्तव्य है । जो प्रतिज्ञा पालन नहीं करते, वे मनुष्य कहलाने के अधिकारी नहीं है; लोग अपने स्वार्थ के लिए प्रतिज्ञा भङ्ग कर बैठते हैं, यह बहुत ही बुरी बात है । मनुष्य को अपने जीवन की अपेक्षा अपने शब्दों का अधिक ध्यान रखना चाहिए ।  महत पुरुष प्राण त्याग कर देते हैं; पर वचन भङ्ग नहीं करते । सूरज पश्चिम से उदय हो तो हो, सुमेरु चलायमान हो तो हो, अग्नि शीतल हो तो हो, कमल पर्वतों पर पैदा हो तो हो, चन्द्रमा सूर्य की तरह अग्नि उगले तो उगले - कितने सत्पुरुषों की प्रतिज्ञा पूरी हुए बिना नहीं रह सकती ।
कवियों ने कहा है -
रनसन्मुख पग सूर के, वचन कहे ते सन्त।
निकस न पीछे होत है, ज्यों गयन्द के दन्त।।
बड़े वचन पलटें नहीं, कहि निरबाहें धीर।
कियौ बिभीखन लंकपति, पाय विजय रघुवीर।।

बातहिं से दशरथ मरे, बातहिं राम फिरे बन जाई।
बातहिं ते हरिचन्द सही दुःख, बातहिं राज दियौ मुनिराई।।
रे मन ! बात विचारि सदा कहु, बात की गात में राख सचाई।
बात ठिकान नहीं जिनको, तिन बाप ठिकान न जानेहु भाई।।

और भी -
हस्तिदन्तसमानं हि निःसृतं महतां वचः।
कूर्मग्रीवेव नीचानां पुनरायाति याति च।।

बड़ों के वाक्य, हाथी-दान्त के समान होते हैं; निकले सो निकले, निकल कर फिर भीतर नहीं जाते। पर नीचों के वाक्य कछुए की गर्दन के समान होते हैं, जो कभी भीतर जाती है और कभी बाहर आती है ।

पण्डित शिरोमणि जगन्नाथ महोदय भी कहते हैं - 
विदुषां वदनाद्वाचः सहसा यान्ति नो बहिः।
याताश्चेन्न पराञ्चन्ति द्विरदानां रदा इव।।

विद्वानों के मुंह से सहसा कोई बात नहीं निकलती और यदि निकली तो हाथी के दाँतों की तरह निकलकर भीतर फिर नहीं जाती ।

मनुष्य मात्र को, यदि वह मनुष्यत्व का दावा करे, प्रतिज्ञा रक्षा के मुकाबले में, प्राणो को भी तुच्छ समझना चाहिए ।
मैय्या लज्जा गुणन की, निज मैय्या सम जान ।
तेजवन्त तन को तजत, याको तजत न जान।।
याको तजत न जान, सत्यव्रत वारेहु नर।
करत प्राण को त्याग, तजत नहीं नेक वचन वर।।
शरत अपनी राखी रहियो, वह दशरथ रैया।

राखो बल हरिचन्द, टेक यह यश की मैया।।




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