Wednesday, February 27, 2019

वैराग्य शतकम् - Part 1

॥ वैराग्य शतकम् भर्तृहरिविरचितम् ॥


मंगलाचरणम् 


दिक्कालाद्यनवच्छिन्नाऽनन्तचिन्मात्रमूर्त्तये ।
स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे ।। १ ।।

अर्थ:

जो दशों दिशाओं और तीनो कालों में परिपूर्ण है, जो अनन्त है, जो चैतन्य स्वरुप है, जो अपने ही अनुभव से जाना जा सकता है, जो शान्त और तेजोमय है, ऐसे ब्रह्मरूप परमात्मा को मैं नमस्कार करता हूँ ।


बोद्धारो मत्सरग्रस्ताः प्रभवः स्मयदूषिताः। 
अबोधोपहताश्चान्ये जीर्णमंगे सुभाषितम्।। २ ।।

अर्थ:

जो विद्वान् हैं, वे इर्षा से भरे हुए हैं; जो धनवान हैं, उनको उनके धन का गर्व है; इनके सिवा जो और लोग हैं, वे अज्ञानी हैं; इसलिए विद्वत्तापूर्ण विचार, सुन्दर सुन्दर सारगर्भित निबन्ध या उत्तम काव्य शरीर में ही नाश हो जाते हैं ।

जो विद्वान् हैं, पण्डित हैं, जिन्हें अच्छे बुरे का ज्ञान या तमीज है, वे तो अपनी विद्वता के अभिमान से मतवाले हो रहे हैं, वे दूसरों के उत्तम से उत्तम कामों में छिद्रान्वेषण करने या नुक्ताचीनी करने में ही अपना पांडित्य समझते हैं; अतः ऐसो में कुछ कहने में लाभ की जरा भी सम्भावना नहीं ।
दुसरे प्रकार के लोग जो धनी हैं, वे अपने धन के गर्व से भूले हुए हैं । उन्हें धन-मद के कारण कुछ सूझता ही नहीं, उन्हें किसी से बातें करना या किसी की सुनना ही पसन्द नहीं; अतः उनसे भी कुछ लाभ नहीं ।
अब रहे तीसरे प्रकार के लोग; वे नितान्त मूर्ख या अज्ञानी हैं; उन गँवारों में अच्छे बुरे की तमीज नहीं, अतः उनसे कुछ कहने या अपनी कृति दिखाने सुनाने को दिल नहीं चाहता; इसलिए हमारे मुंह से निकल सकने वाले उत्तमोत्तम विचार, निबन्ध, काव्य या सुभाषित, संसार के सामने न आकर, हमारे शरीर में ही नष्ट हुए जाते हैं । हमारा परिश्रम व्यर्थ जाता है और संसार हमारे कामों के देखने और लाभान्वित होने से वञ्चित रहता  है ।

शिक्षा: जो तुम्हारी तरफ मुखातिब हों, तुम्हारी बातों पर कान दे, तुम्हारी बातों को ध्यान से सुने, उन्ही को अपनी बातें सुनाओ । जो तुम्हारी बातें सुनना न चाहें, उनके गले मत पड़ो । ऐसा करने से आपकी आत्म-प्रतिष्ठा में बट्टा लगेगा - आपका अपमान होगा ।

पण्डित मत्सरता भरे, भूप भरे अभिमान ।
और जीव या जगत के, मूरख महाअजान ।।
मूरख महाअजान, देख के संकट सहिये ।
छन्द प्रबन्ध कवित्त, काव्यरस कासों कहिये ।।
वृद्धा भई मनमांहि, मधुर बाणी मुखमण्डित ।
अपने मन को मार, मौन घर बैठत पण्डित ।।



न संसारोत्पन्नं चरितमनुपश्यामि कुशलं विपाकः पुण्यानां जनयति भयं मे विमृशतः । 
महद्भिः पुण्यौघैश्चिरपरिगृहीताश्च विषया महान्तो जायन्ते व्यसनमिव दातुं विषयिणाम् ।। ३ ।।

अर्थ:

मुझे संसारी कामों में जरा सुख नहीं दीखता । मेरी राय में तो पुण्यफल भी भयदायक ही हैं । इसके सिवा, बहुत से अच्छे अच्छे पुण्यकर्म करने से जो विषय-सुख के सामान प्राप्त किये और चिरकाल तक भोगे गए हैं, वे भी विषय सुख चाहनेवालो का, अन्त समय में दुखों के ही कारण होते हैं ।

इस जीवन में सुख का लेश भी नहीं है । जिनके पास अक्षय लक्ष्मी, धन-दौलत, गाडी-घोड़े, मोटर, नौकर-चाकर, रथ-पालकी प्रभृति सभी सुख के सामान मौजूद हैं, राजा भी जिनकी बात को टाल नहीं सकता, जिनके इशारों से ही लोगों का भला बुरा हो सकता है, ऐसे सर्वसुख संपन्न लोग भी, चाहे ऊपर से सुखी दीखते हों, पर वास्तव में सुखी नहीं हैं; भीतर ही भीतर उन्हें घुन खाये जाता है; किसी न किसी दुःख से वे जरजरित हुए जाते हैं ।  दो कहानियां सुनते हैं -

एक महात्मा अपने शिष्य के साथ किसी नगर में गए । वहां उन्होंने देखा कि, एक साहूकार इन्द्रभवन जैसे मकान में बैठा है, सैकड़ों सेवक आज्ञापालन को तैयार खड़े हैं, जोड़ी-गाडी द्वार पर खड़ी है, हाथी झूम रहे हैं, सामने सोने-चंडी और हीरे-पन्नो के ढेर लग रहे हैं । महात्मा को देखकर सेठ ने अपने एक कर्मचारी को उनको भोजन कराने की आज्ञा दी । जब गुरु-चेले भोजन करने बैठे, तब चेला बोलै - "गुरु जी ! आप कहते थे, संसार में कोई भी सुखी नहीं है । देखिये यह सेठ कैसा सुखी है ! इसे किस बात का अभाव है ? लक्ष्मी इसकी दासी हो रही है ।" गुरु ने कहा - "जरा सब्र करो । हम पता लगाकर कुछ कह सकेंगे ।" महात्मा ने जब भोजन कर लिया, तब सेठ से कहा - "सेठ जी ! परमात्मा ने आपको सभी सुख दिए हैं ।" सेठ ने रोककर कहा - "महाराज ! मेरे समान इस जगत में कोई दुखी नहीं है । मुझे परमात्मा ने धनैश्वर्य सब कुछ दिया है, पर पुत्र एक भी नहीं । पुत्र बिना, ये सुख बिना नमक के पदार्थ की तरह बेस्वाद हैं । मेरा दिल रात दिन जला करता है, कभी मुझे सुख की नींद नहीं आती । मैं इसी सोच में जला जाता हूँ कि पुत्र बिना इस संपत्ति को कौन भोगेगा ?" सेठ की बातें सुनकर चेले ने कहा - "हाँ गुरूजी, आपकी बात राई-रत्ती सच है । संसार में कोई सुखी नहीं । कोई किसी बात से दुखी है तो कोई किसी दुःख से ।"


संसारी सुख अनित्य हैं 
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सांसारिक सुख-भोग असार, अनित्य और नाशवान हैं । ये सदा स्थिर रहनेवाले नहीं; आज जो लक्ष्मी का लाल है, वह कल दर दर का भिखारी देखा जाता है; जो आज जवान पट्ठा है, मिर्जा अकड़बेग की तरह अकड़ता हुआ चलता है, वही कल बुढ़ापे के मारे लकड़ी टेक टेक कर चलता है । जिसे पहले सब लोग खूबसूरत कहते थे और मुहब्बत से पास बिठाते थे, अब उसके पास खड़ा होना भी नहीं चाहते । मतलब यह कि यौवन, जीवन, मन-धन, शरीर-छाया और प्रभुता, यह सब अनित्य और चञ्चल हैं; अतः दुःख के कारण हैं । काया में मरण, लाभ में हानि , जीत में हार, सुन्दरता में असुन्दरता, भोग में रोग, संयोग में वियोग और सुख में दुःख - ये सब दुःख के कारण हैं । अगर बिना मृत्यु का जीवन, बिना रंज की ख़ुशी, बिना बुढ़ापे की जवानी, बिना दुःख का सुख, बिना वियोग का संयोग और सदा-सर्वदा रहने वाला धन होता, तो मनुष्य को इस जीवन में अवश्य सुख होता ।
विषय भोगों में सुख नहीं है । ये असार हैं; केले के पत्ते या प्याज के छिलको की तरह सारहीन हैं । फिर भी, मोहवश मनुष्य विषयों में फंसा रहता है । पर एक न एक दिन मनुष्य को इन विषय-भोगों से अलग होना ही पड़ता है । अलग होने के समय विषय भोगी को बड़ा दुःख होता है इससे विषय परिणाम में दुःखदायी ही हैं ।
इसके सिवा, तरह तरह के पुण्य सञ्चय करने, यज्ञ-याग आदि करने अथवा दान करने से मनुष्य को स्वर्ग मिलता है । वहां वह अमृत पीता और अप्सराओं को भोगता है, कल्पवृक्ष से मनवांछित पदार्थ पाता है, पर पुण्य कर्मो के नाश हो जाने या उनके फल भोग चुकने पर वह स्वर्ग से नीचे गिरा दिया जाता है, उसे फिर इसी मृत्युलोक में आना होता है । उस समय वह स्वर्ग सुखों की याद कर करके मन ही मन रोता और दुखी होता है । इसी से मुझे पुण्यफल भी भयावह मालूम होते हैं । परिणाम में वे भी दुखो के ही कारण होते हैं । तात्पर्य यह कि, संसार मिथ्या और सारहीन है । इसके सुखभोग अनित्य, चञ्चल और सदा न रहने वाले हैं, इसी से दुःख के कारण हैं । मृत्युलोक और स्वर्गलोक में कहीं भी प्राणी को सुख नहीं है ।

शिक्षा: अगर मनुष्य दुखों से दूर रहना चाहे, सदा सुख भोगना चाहे, तो उसे अनित्य और नाशमान पदार्थों से अलग रहना चाहिए । उनमें मोह न रखना चाहिए । बुद्धिमान को लोक-परलोक की असारता और संयोग-वियोग का विचार करके अनित्य पदार्थो से प्रेम न करना चाहिए उसे सदा नित्य अविनाशी परमात्मा से प्रेम करना चाहिए ।


उत्खातं निधिशंकया क्षितितलं ध्माता गिरेर्धातवो 
निस्तीर्णः सरितां पतिर्नृपतयो यत्नेन संतोषिताः ।
मन्त्राराधनतत्परेण मनसा नीताः श्मशाने निशाः 
प्राप्तः काणवराटको‌ऽपि न मया तृष्णेऽधुना मुञ्चमाम् ।। ४ ।।

अर्थ:
धन मिलने की उम्मीद से मैंने जमीन के पैंदे तक खोद डाले; अनेक प्रकार की पर्वतीय धातुएं फूंक डाली; मोतियों के लिए समुद्र की भी थाह ले आया; राजाओं को भी राजी रखने में कोई बात उठा न राखी; मन्त्रसिद्धि के लिए रात रात भर श्मसान एकाग्रचित्त से बैठा हुआ जप करता रहा; पर अफ़सोस की बात है, कि इतनी आफ़ते उठाने पर भी एक कानि कौड़ी न मिली । इसलिए हे तृष्णे ! अब तो तू मेरा पीछा छोड़ ।

इसका यही मतलब है कि, भाग्य के विरुद्ध चेष्टा करना व्यर्थ है । जितना धन भाग्य में लिखा है, उतना तो बिना कोशिश किये, बिना किसी कि खुशामद किये, बिना देश-विदेश डोले, घर बैठे ही मिल जाएगा । भाग्य के लिखे से अधिक हजारों चेष्टाएं करने पर भी न मिलेगा । सिकंदर अमृत के लिए अँधेरी दुनिया में गया; पर अमूर्त के कुण्ड के पास पहुँच जाने पर भी, वह अमृत को चख न सका; क्योंकि उसके भाग्य में अमृत न था । मूर्ख मनुष्य भाग्य पर सन्तोष नहीं करता; धन के लिए मारा मारा फिरता है । जब कुछ भी हाथ नहीं लगता, तब रोता और कलपता है । 


भ्रान्तं देशमनेकदुर्गविषम् प्राप्तं न किञ्चित्फलम् 

त्यक्त्वा जातिकुलाभिमानमुचितं सेवा कृता निष्फला ।
भुक्तं मानविवर्जितम परगृहेष्वाशङ्कया काकव- 
त्तृष्णे दुर्मतिपापकर्मनिरते नाद्यापि संतुष्यसि ।। ५ ।।

अर्थ:

मैं अनेक कठिन और दुर्गम स्थानों में डोलता फिरा, पर कुछ भी नतीजा न निकला । मैंने अपनी जाति और कुल का अभिमान त्यागकर, पराई चाकरी भी की; पर उससे भी कुछ न मिला । शेष में, मैं कव्वे की तरह डरता हुआ और अपमान सहता हुआ पराये घरों के टुकड़े भी खाता फिरा । हे पाप-कर्म करने वाली और कुमतिदायिनी तृष्णे ! क्या तुझे इतने पर भी सन्तोष नहीं हुआ ?


खलोल्लापाः सोढाः कथमपि तदाराधनपरै:
निगृह्यान्तर्वास्यं हसितमपिशून्येन मनसा ।
कृतश्चित्तस्तम्भः प्रहसितधियामञ्जलिरपि
त्वमाशे मोघाशे किमपरमतो नर्त्तयसि माम् ।। ६ ।।

अर्थ:
मैंने दुष्टों की सेवा करते हुए उनकी तानेजानि और ठट्ठेबाज़ी सही, भीतर से, दुःख से आये हुए आंसू रोके और उद्विग्न चित्त से उनके सामने हँसता रहा । उन हंसने वालों के सामने, चित्त को स्थिर करके, हाथ भी जोड़े । हे झूठी आशा ! क्या अभी और भी नाच नचाएगी ?


आदित्यस्य गतागतैरहरहः संक्षीयते जीवितम् 
व्यापारैर्बहुकार्यभारगुरुभिः कालो न विज्ञायते । 
दृष्ट्वा जन्मजराविपत्तिमरणं त्रासश्च नोत्पद्यते 
पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत् ।। ७ ।।

अर्थ:
सूर्य के उदय और अस्त के साथ मनुष्यों की ज़िन्दगी रोज़ घटती जाती है । समय भागा जाता है, पर कारोबार में मशगूल रहने के कारण वह भागता हुआ नहीं दीखता । लोगों को पैदा होते, बूढ़े होते, विपत्ति ग्रसित होते और मरते देखकर भी उनमें भय नहीं होता । इससे मालूम होता है कि मोहमाया, प्रमादरूपी मदिरा के नशे में संसार मतवाला हो रहा है ।

किसी ने खूब कहा है :
सुबह होती है शाम होती है ।
योंही उम्र तमाम होती है ।।

विचारकर देखने से बड़ा विस्मय होता है कि दिन और रात कैसे तेजी से चले जाते हैं । जिनको कोई काम नहीं है अथवा दुखिया है, उन्हें तो ये बड़े भारी मालूम होते हैं, काटे नहीं कटते, एक एक क्षण, एक एक वर्ष की तरह बीतता है; पर जो कारोबार या नौकरी में लगे हुए हैं, उनका समय हवा से भी अधिक तेजी से उड़ा चला जा रहा है, यानी कारोबार या धंधे में लगे रहने के कारण उन्हें मालूम नहीं होता । वे अपने कामों में भूले रहते हैं और मृत्युकाल तेजी से नजदीक आता जाता है ।

शंकराचार्य जी ने 'मोहमुद्गर' में कहा है :
दिन यामिन्यौ सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः। 
कालः क्रीडति गच्छत्यायु तदपि न मुञ्चत्याशावायुः।।

दिन-रात, सवेरे-सांझ, शीत और वसंत आते और जाते हैं, काल क्रीड़ा करता है, जीवनकाल चला जाता है, तो भी संसार आशा को नहीं छोड़ता ।
शिक्षा: मनुष्यों ! मिथ्या आशा के फेर में दुर्लभ मनुष्य देह को योंही नष्ट न करो । देखो ! सर पर काल नाच रहा है: एक सांस का भी भरोसा न करो । जो सांस बाहर निकल गया है, वह वापस आवे या न आवे इसलिए गफलत और बेहोशी छोड़कर, अपनी काया को क्षणभंगुर समझकर, दूसरो की भलाई करो और अपने सिरजनहार में मन लगाओ; क्योंकि नाता उसी का सच्चा है; और सब नाते झूठे हैं । 

कहा है -
माया सगी न मन सगा, सगा न यह संसार।
परशुराम या जीव को, सगा सो सिरजनहार।।


दीना दीनमुखैः सदैव शिशुकैराकृष्टजीर्णाम्बरा 
क्रोशद्भिः क्षुधितैर्नरैर्न विधुरा दृश्या न चेद्गेहिनी । 
याच्ञाभङ्गभयेन गद्गदगलत्रुट्यद्विलीनाक्षरं 
को देहीति वदेत् स्वदग्धजठरस्यार्थे मनस्वी जनाः ।। ८ ।।

अन्वयः  
शिशुकैः + आकृष्ट 
क्षुधितैः + निरन्न 
चेत् + गेहिनी 
याचना + भङ्ग + भयेन -> मांग पूरी न होने का भय, जबान खली जाने का भय  

अर्थ:
स्त्री के फटे हुए कपड़ों को दीनातिदीन बालक खींचते हैं, घर के और मनुष्य भूख के मारे उसके सामने रोते हैं - इससे स्त्री अतीव दुखित है । ऐसी दुखिनी स्त्री अगर घर में न होती तो कौन धीर पुरुष, जिसका गला मांगने के अपमान और इन्कारी के भय से रुका आता है, अस्पष्ट भाषा या टूटे-फूटे शब्दों में, गिड़गिड़ा कर "कुछ दीजिये" इन शब्दों को, अपने पेट की ज्वाला शान्त करने के लिए, कहता?

भूख से बिल्लाते बच्चे जिस मां की फटी पुरानी साडी को पकड़ कर खींचते हुए रो रहे हों और मां भी खुद भूख से बेताब हो, ऐसी स्त्री को यदि घर में देखना न पड़े, तो कोई ऐसा व्यक्ति न होगा जो अपना निजी पेट भरने के लिए किसी के सामने सवाल करने जाय और वह भी जबकि सवाल करने से पहले ही मन में यह दुविधा हो कि कहीं जबान खाली न जाय और इस डर से मुंह से शब्द भी न निकलें अर्थात घर में बच्चो और स्त्री कि यह दशा देख नहीं सकता इसलिए अपने अपमान का ध्यान न कर औरो से मांगने पर मजबूर हो जाता है । 

याचना करने से त्रिलोकी भगवान् को भी छोटा होना पड़ा, तब औरो कि कौन बात है ? इसीलिए तुलसीदास जी ने कहा है -

तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर न करो ।
जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरण करो ।।

हाथ के ऊपर हाथ करो, पर हाथ के नीचे हाथ न करो, जिस दिन हाथ के नीचे हाथ करो, उस दिन मरण करो; यानी दूसरों को दो, पर दूसरों के आगे हाथ न फैलाओ । जिस दिन दूसरों के आगे हाथ फ़ैलाने की नौबत आये, उस दिन मरण हो जाए तो भला ।

स्त्री पुरुषों के पालन पोषण की चिन्ता में सारी आयु बीत जाती है; पर परमात्मा के भजन में उसका मन नहीं लगता ! मन तो तब लगे जबकि वह शुद्ध हो । उसे तो हरदम, नून-तेल, आटे-दाल की चिन्ता लगी रहती है । ईश्वर में मन न लगने से और शेष दिन आ जाने से, उसे फिर जन्म-मरण के झंझटों में फंसना होता है । यह स्त्री माया ही संसार वृक्ष का बीज है । शब्द, स्पर्श, रस, रूप और गंध उसके पत्ते; काम, क्रोधादि उसकी डालियाँ और पुत्र-कन्या प्रभृति उसके फल हैं । तृष्णा रुपी जल से यह संसार-वृक्ष बढ़ता है । संसारबंधन से मुक्त होने में "कनक और कामिनी" ये दो ही बाधक हैं । 

कहा है : 
चलूँ चलूँ सब कोई कहै, पहुंचे विरला कोय ।
एक कनक और कामिनी, दुर्लभ घाटी दोय ।।
एक कनक और कामिनी, ये लम्बी तलवारि ।
चाले थे हरिमिलन को, बीचहि लीने मारि ।।
नारि नसावै तीन सुख, जेहि नर पास होये ।
भक्ति-मुक्ति अरु ज्ञान में, पैठ सके न कोय ।।

एक बार व्यास जी ने शुकदेव जी को शादी करने को कहा । व्यास जी ने समझाने में घटा न रखा, पर शुकदेव जी ने एक न मानी । उन्होंने कहा "पिताजी ! लोह और काठ की बेड़ियों से चाहे छुटकारा हो जाय; पर स्त्री पुत्र प्रभृति की मोहरूपी बेड़ियों से पुरुष का पीछा नहीं छूट सकता   हे पिता ! गृहस्थाश्रम जेलखाना है; इसमें जरा भी सुख नहीं । स्त्री के लिए पुरुष को संसार में नीच से नीच काम करने पड़ते हैं । जिनके मुंह देखने से पाप लगता है उसकी खुशामदें करनी पड़ती हैं, इसके वास्ते मैं स्त्री बंधन में नहीं पड़ना चाहता ।"


*व्यास-शुकदेव संवाद स्कंदपुराण से है।

निवृता भोगेच्छा पुरुषबहुमानो विगलितः
समानाः स्‍वर्याताः सपदि सुहृदो जीवितसमाः । 
शनैर्यष्टयोत्थानम घनतिमिररुद्धे च नयने
अहो धृष्टः कायस्तदपि मरणापायचकितः ।। ९ ।।

अर्थ:
बुढ़ापे के मारे भोगने की इच्छा नहीं रही; मान भी घट गया; हमारी बराबर वाले चल बसे; जो घनिष्ट मित्र रह गए हैं, वे भी निकम्मे या हम जैसे हो गए हैं । अब हम बिना लकड़ी के उठ भी नहीं सकते और आँखों में अँधेरी छा गयी है । इतना सब होने पर भी, हमारी काया कैसी बेहया है, जो अपने मरने की बात सुनकर चौंक उठती है ?

जगत की विचित्र गति है ! इस जीवन में जरा भी सुख नहीं है । मनुष्य के मित्र और नातेदार मर जाते हैं, आप निकम्मा हो जाता है, आँख कान प्रभृति इन्द्रियां बेकाम हो जाती हैं, आँखों से सूझता नहीं और कानो से सुनाई नहीं देता, घर-बाहर के लोग अनादर करते हैं, बुढ़ापे के मारे चला फिरा नहीं जाता, खाने को भी कठिनाई से मिलता है; तो भी मनुष्य मरना नहीं चाहता, बल्कि मरने की बात सुनकर चौंक उठता है। इसे मोह न कहें तो क्या कहें ?

लकड़हारा और मौत
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एक वृद्ध अतीव निर्धन था । बेटे पोते सभी मर गए थे । एक मात्र बुढ़िया रह गयी थी । बूढ़े के हाथ पैरों ने जवाब दे दिया था । आँखों से दीखता न था । फिर भी, अपने और बूढी के पेट के लिए, वह जंगल से लकड़ी काटकर लाता और बेचकर गुज़ारा करता था । एक दिन उसने जीवन से निहायत दुखी होकर मृत्यु को पुकारा । उसके पुकारते ही मृत्यु मनुष्य के रूप में उसके प्रत्यक्ष आ खड़ी हुई । बूढ़े ने पुछा - "तुम कौन हो ?" उसने कहा - "मैं मृत्यु हूँ, तुम्हें लेने आयी हूँ ।" मृत्यु का नाम सुनते ही लकड़हारा चौंक उठा और कहने लगा - "मैंने आपको ये भार उठवाने को बुलवाया था ।" मृत्यु उसका भार उठवा कर चली गयी ।
देखिये ! बूढा लकड़हारा हर तरह दुखी था, उसे जीवन में जरा भी सुख नहीं था, फिर भी वह मरना न चाहता था; अपितु मृत्यु को देखते ही चौंक पड़ा था । यही गति संसार की है ।

एक दुखित बूढ़ा सेठ
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एक वैश्य ने उम्र भर मर-पचकर खूब धन जमा किया । बुढ़ापे में पुत्रों ने सारे धन पर अधिकार कर बूढ़े को पौली में एक टूटी सी खाट और फटी सी गुदड़ी पर डाल दिया और कुत्ता मारने के लिए हाथ में लकड़ी दे दी । सुबह शाम घर का कोई आदमी बचा-खुचा, बासी-कूसी उसे खाने को दे जाता । सेठ बड़े दुःख से अपना जीवन जीता था । पुत्र-वधुएं दिन भर कहा करती थी - "यह मर नहीं जाते, सबको मौत आती है पर इनको नहीं आती। दिन भर पौली में थूक-थूक कर मैला करते हैं ।"  एक दिन एक पोता उन्हें पीट रहा था । इतने में नारद जी आ निकले उन्होंने सारा हाल देखकर कहा - "सेठजी ! आप बड़े दुखी हैं । स्वर्ग में कुछ आदमियों की आवश्यकता है । अगर तुम चलो तो हम ले चलें ।" सुनते ही सेठ ने कहा - "जा रे वैरागीड़ा ! मेरे बेटे पोते मुझे मारते हैं चाहे गाली देते हैं, तुझे क्या ? तू क्या हमारा पञ्च है ? मैं इन्हीं में सुखी हूँ । मुझे स्वर्ग की आवश्यकता नहीं ।" सेठ की बातें सुनकर नारद जी को बड़ा आश्चर्य हुआ । कहने लगे - "ओह ! संसार सचमुच ही मोह-पाश में फंसा है । मोह की मदिरा के मारे इसे होश नहीं । मनुष्य ने कब्र में पैर लटका रखे हैं; फिर भी विषयों में ही उसका मन लगा है ।" किसी ने ठीक ही कहा है :
गतं तत्तारुण्यं तरुणिहृदयानन्दजनकं 
विशीर्णा दन्तालिर्निजगतिरहो यैष्टिशरणां । 
जड़ी भूता दृष्टिः श्रवणरहितं कर्णयुगलं 
मनोमे निर्लज्जं तदपि विषयेभ्यः स्पृहयति ।।

तरुणियों के ह्रदय में आनन्द पैदा करने वाली जवानी चली गयी है, दन्तपंक्ति गिर गयी है, लकड़ी का सहारा लेकर चलता हूँ, नेत्र ज्योति मारी गयी है, दोनों कानों से सुनाई नहीं देता, तो भी मेरा निर्लज्ज मन विषयों को चाहता है ।

शंकराचार्यकृत चर्पटपञ्जरिका स्तोत्र से:

अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्।
वृध्दो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्।।


हिंसाशून्यमयत्नलभ्यमशनं धात्रामरुत्कल्पितं 
व्यालानां पशवः तृणांकुरभुजः सृष्टाः स्थलीशायिनः ।
संसारार्णवलंघनक्षमधियां वृत्तिः कृता सा नृणां 
यामन्वेषयतां प्रयांति संततं सर्वे समाप्ति गुणाः ।। १० ।।

अर्थ:
विधाता ने हिंसारहित, बिना उद्योग के मिलने वाली हवा का भोजन साँपों की जीविका बनाई, पशुओं को घास खाना और जमीन पर सोना बताया; किन्तु जो मनुष्य अपनी बुद्धि के बल से भवसागर के पार हो सकते हैं, उनकी जीविका ऐसी बनाई कि जिसकी खोज में उनके सारे गुणों की समाप्ति हो जाये, पर वह न मिले ।

विधाता ने सांपो के लिए तो हवा का भोजन बता दिया, जिसके हासिल करने में किसी प्रकार की हिंसा भी नहीं करनी पड़ती और वह बिना किसी प्रकार की चेष्टा के उन्हें अपने वासस्थानों में ही मिल सकता है । जानवरों के लिए घास चरने को और जमीन सोने को बता दी, इससे उनको भी अपने खाने के लिए विशेष चेष्टा नहीं करनी पड़ती, वे जंगल में उगी उगाई घास तैयार पाते हैं और इच्छा करते ही पेट भर लेते हैं । उन्हें सोने के लिए पलँगो और गद्दे-तकियों की फ़िक्र नहीं करनी पड़ती, जमीन पर ही जहाँ जी चाहता है पड़ रहते हैं । सर्प और पशुओं के साथ भगवान् ने पक्षपात किया, उन्हें बेफिक्री की ज़िन्दगी भोगने के उपाय बता दिए, किन्तु मनुष्यों के साथ ऐसा नहीं किया ! उन बेचारों को बुद्धि तो ऐसी दे दी कि जिससे वे संसार सागर के पार हो सकें अथवा दुर्लभ मोक्षपद को प्राप्त हो सकें; पर उन्हें जीविका ऐसी बताई कि जिसकी खोज में उनकी सारी कोशिशें बेकार हो जाएं, पर जीविका का ठिकाना न हो । यह क्या कुछ कम दुःख की बात है ? यदि विधाता मनुष्यों को भी साँपों और पशुओं की सी ही जीविका बताता, तो कैसा अच्छा होता ? मनुष्य जीविका की फ़िक्र न होने से, सहज में ही अपनी बुद्धि के जोर से मोक्ष पा जाते ।

उस्ताद ज़ौक़ भी कुछ इस तरह शिकायत करते हैं -
बनाया ज़ौक़ जो इंसां को उसने जुजव ज़ईफ़ ।
तो उस ज़ईफ़ से कुल काम दो जहाँ के लिए ।।

ए ज़ौक़ ! ईश्वर को देखो, कि उसने मनुष्य को कितना कमज़ोर बनाया, पर काम उससे दोनों लोकों के लिए । उसे इस लोक और परलोक, दोनों कि फ़िक्र लगा दी । 

किसी ने ठीक कहा है -
घृतलवणतैलतण्डुल शोकन्धन चिन्तयाऽअनुदिनम् ।
विपुल मतेरपि पुंसो नश्यति धीरमन्दविभावत्वात् ।।

घी, नोन, तेल, चावल, साग और ईंधन की चिंता में बड़े बड़े मतिमानों की उम्र भी पूरी हो जाती है; पर इस चिंता का ओर छोर नहीं आता । इसी से मनुष्य को ईश्वर भजन या परमात्मा की भक्ति-उपासना को समय नहीं मिलता । अगर मनुष्य इतनी आपदाओं के होते हुए भी परलोक बनाना चाहे, तो उसे चाहिए कि अपनी ज़िन्दगी की जरूरतों को कम करे, क्योंकि जिसकी आवश्यकताएं जितनी ही कम हैं, वह उतना ही सुखी है । इसलिए महात्मा लोग महलों में न रहकर वृक्षों के नीचे उम्र काट देते हैं । वन में जो फल-फूल मिलते हैं, उन्हें खाकर और झरनो का शीतल जल पीकर पेट भर लेते हैं । आवश्यकताओं को कम करना ही सुख-शांति का सच्चा उपाय है ।



वैराग्य शतकं - कालमहिमानुवर्णनम् - 11 

न ध्यातं पदमीश्वरस्य विधिवत्संसारविच्छित्तये
स्वर्गद्वारकपाटपाटनपटुर्धर्मोऽपि नोपार्जितः ।
नारीपीनपयोधरोरुयुगलं स्वप्नेऽपि नालिङ्गितं
मातुः केवलमेव यौवनवनच्छेदे कुठारा वयम् ।। ११ ।।

अर्थ:
हमने संसार बन्धन के काटने के लिए, यथाविधि, ईश्वर के चरणों का ध्यान नहीं किया; हमने स्वर्ग के दरवाजे खुलवाने वाले धर्म का सञ्चय भी नहीं किया और हमने स्वप्न में भी कठोर कूचों का आलिङ्गन नहीं किया । हम तो अपनी माँ के यौवन रुपी वन के काटने के लिए कुल्हाड़े ही हुए ।

हमने लोक-परलोक साधन के लिए, जन्म मरण का फंदा काटने के लिए अथवा परमपद की प्राप्ति के लिए, शास्त्रों में लिखी विधि से परमात्मा के कमल चरणों का ध्यान नहीं किया; उसकी पूजा उपासना नहीं की; सारी उम्र पेट की चिंता में बिता दी । हमने पूर्वजन्म या वर्तमान जन्म के पापों के समूल नाश करने के लिए प्रायश्चित्त नहीं किये, न जीवों को अभय किया, न दानपुण्य किया; फिर हमारे लिए स्वर्ग का द्वार कैसे खुल सकता है ? क्योंकि धर्म का सञ्चय करने से ही स्वर्ग का द्वार खुलता है । न हमने परमात्मा के पद-पंकजों का ध्यान किया, न धर्म सञ्चय किया और न स्त्री के पीनपयोधरों का स्वप्न में भी आलिङ्गन किया । मतलब यह है, न हमने संसार के मिथ्या विषय-सुख ही भोगे और न हमने मोक्ष या स्वर्ग प्राप्ति के उपाय ही किये । "दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम" अथवा "इधर के रहे न उधर के रहे, खुदा मिला न विसाले सनम" । हमने यों ही संसार में जन्म लेकर अपनी माता की जवानी और नाश की ! अगर हम जैसे निकम्मे न पैदा होते तो बेचारी की जवानी की रेढ़ तो न होती ।

वैराग्य शतकं - तृष्णादूषणं - 12 

भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्तास्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः ।

कालो न यातो वयमेव यातास्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।। १२ ।।

अर्थ:

विषयों को हमने नहीं भोगा, किन्तु विषयों ने हमारा ही भुगतान कर दिया; हमने तप को नहीं तपा किन्तु तप ने हमें ही तपा डाला; काल का खात्मा न हुआ, किन्तु हमारा ही खात्मा हो चला । तृष्णा का बुढ़ापा न आया, किन्तु हमारा ही बुढ़ापा आ गया ।

हमने बहुत कुछ भोग भोगे, पर भोगों का अन्त न आया, हाँ हमारा अन्त आ गया । काल या समय का अन्त न आया किन्तु हमारा अन्त आ गया - हमारी उम्र पूरी हो चली । हमें जो धर्म-कार्य करने थे, वह हम न कर सके । हमने तप तो नहीं तपा, किन्तु संसारी तापों ने हमारे तई तपा डाला - संसार के जालों में फंसकर हम ही शोक-तापों से तप गए । हमारा अन्त आ पहुंचा, हम निर्बल और वृद्ध हो गए; पर तृष्णा बूढी और कमज़ोर न हुई - हमें संसार से विरक्ति न हुई ।


ऐसी ही बात उस्ताद ज़ौक़ ने कही है -

दुनिया से ज़ौक़ ! रिश्तए उल्फत को तोड़ दे ।
जिस सर का है यह बाल, उसी सर में जोड़ दे।।
पर ज़ौक़ न छोड़ेगा इस पीरा जाल को।
यह पीरा जाल, गर तुझे चाहे तो छोड़ दे।।


मतलब या कि लोग दुनिया को नहीं छोड़ते, दुनिया ही उन्हें निकम्मा करके छोड़ देती है ।



वैराग्य शतकं - तृष्णादूषणं - 13 

क्षान्तम् न क्षमया ग्रहोचितसुखं त्यक्तं न सन्तोषतः
सोढा दुःसहशीतवाततपनक्लेशा न तप्तम् तपः। 
ध्यातं वित्तमहर्निशं  नियमितप्राणैर्न  शम्भोः पदम्
तत्तत्कर्म कृतम्य यदेव मुनिभिस्तैस्तैः फलैर्वचितम् ।। १३ ।।

अर्थ:
क्षमा तो हमने की, परन्तु धर्म के ख्याल से नहीं की । हमने घर के सुख चैन तो छोड़े पर सन्तोष से नहीं छोड़े । हमने सर्दी-गर्मी और हवा के न सह सकने योग्य दुःख तो सही; किन्तु ये सब दुःख हमने तप की गरज से नहीं, किन्तु दरिद्रता के कारन सही । हम दिन रात ध्यान में लगे तो रहे, पर धन के ध्यान में लगे रहे - हमने प्राणायाम क्रिया द्वारा शम्भू के चरणों का ध्यान नहीं किया । हमने काम तो सब मुनियों के से किये, परन्तु उनकी तरह फल हमें नहीं मिले ।

हमनें क्षमा तो की परन्तु दया-धर्मवश नहीं की, हमारी क्षमा असमर्थता के कारण हुई; हममे सामर्थ्य नहीं थी इसलिए शांत हो गए । हमने अच्छा खाना पीना ऐश-आराम छोड़े, मजबूरी से छोड़े; अपनी भीतरी इच्छा से नहीं छोड़े । हमने उन्हें रोग प्रभृति के कारण त्यागा, पर सन्तोष से नहीं त्यागा । हमने गर्म-सर्द हवा के झोंके सही; हमने सर्दी-गर्मी सही जरूर, पर तप की गरज से नहीं, किन्तु घर में पैसा न होने की वजह से । हम सोते जागते आठ पहर, चौंसठ घडी ध्यान तो करते रहे, पर पैसे या स्त्री-पुत्रों का अथवा संसार के और झगड़ों का । हमने भोलानाथ के कमल चरणों का ध्यान नहीं किया । सारांश यह ! हमने मुनियों की तरह विषय-सुख त्यागे, उनकी तरह सर्दी-गर्मी के दुस्सह कष्ट भी उठाये, उनकी तरह हम ध्यान मग्न भी रहे - पर वे जिस तरह सामर्थ्य होते भी शांत होते हैं - सन्तोष के साथ विषय-सुखों से मुंह मोड़ लेते हैं - शिव का ही ध्यान करते हैं, उस तरह हमने नहीं किया; इसी से हम उन फलों से वञ्चित रहे, जिनको वे लोग प्राप्त करते हैं ।

दरिद्रावस्था में वैराग्य

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आपके घर में कंगाली और मुहताजी का राज है । आप स्त्री और बच्चों का पालन नहीं कर सकते । इसलिए स्त्री आपको नफरत की नजर से देखती है । यह सब देखकर आपके दिल में वैराग्य पैदा हुआ है । यह नीचे दर्जे का वैराग्य है ।

सुखैश्वर्य में वैराग्य 

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आपका अन्तः करण शुद्ध हो गया है; अतः आप धनैश्वर्य और पुत्रकलत्रादि को त्यागकर वन को जा रहे हैं । आप कहते हैं, "अब मुझे विषय सुख अच्छे नहीं लगते । मैं वन जाकर जगदीश का भजन करूँगा ।" यही वैराग्य उत्तम वैराग्य है और ऐसे नररत्न प्रशंसा के पात्र हैं । 



वैराग्य शतकं - तृष्णादूषणं - 14 

वलीभिर्मुखमाक्रान्तं पलितैरङ्कितं शिरः।
गात्राणि शिथिलायन्ते तृष्णैका तरुणायते।। १४ ।।

अर्थ:
चेहरे पर झुर्रियां पड़ गयी, सर के बाल पककर सफ़ेद हो गए, सारे अंग ढीले हो गए - पर तृष्णा तो तरुण होती जाती है ।

महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं -
नैननकी पलही में पल के, क्षण आधि घरी घरी घटिका जो गई है ।
जाम गयो जुग जाम गयो, पुनि सांझ गयी तब रात भई है ।
आज गयी अरु काल गई, परसों तरसों कुछ और ठई है ।
सुन्दर ऐसे ही आयु गई, तृष्णा दिन ही दिन होत नई है ।

आज सारा संसार तृष्णा के फेरे में पड़ा हुआ है । अमीर और गरीब, सभी इसके बन्धन में बन्धे हैं । गरीब की अपेक्षा धनियों को तृष्णा बहुत है । धनी हमेशा निन्यानवे के फेरे में लगे रहते हैं । ९९ होने पर १०० करने की फ़िक्र लगी रहती है । १००० होने पर १०,००० की, १० हज़ार होने पर लाख की, लाख होने पर करोड़ की और करोड़ होने पर अरब-ख़रब की तृष्णा लगी रहती है । इसी फेर में मनुष्य रोगी और बूढा हो जाता है पर तृष्णा न रोगिणी होती है और न बूढी ।

सुभाषितावली में लिखा है -
यौवनं जरया ग्रस्तमारोग्यं व्याधिभिर्हतं।
जीवितं मृत्युरभ्येति तृष्णैका निरुपद्रवा।।

जवानी बुढ़ापे से, आरोग्यता व्याधियों से और जीवन मृत्यु से ग्रसित है; पर तृष्णा को किसी उपद्रव का डर नहीं ।

शंकराचार्य कृत प्रश्नोत्तरमाला में लिखा है -
बद्धो हि को यो विषयानुरागी ।
का वा विमुक्तिर्विषयेनुरक्तिः ।।
को वास्ति घोरो नरकस्स्वदेहस्तृष्णाक्षयस्स्वर्गपदं किमस्ति ?

बन्धन में कौन है? विषयानुरागी।
विमुक्ति क्या है? विषयों का त्याग।
घोर नरक क्या है? अपना शरीर।
स्वर्ग क्या है? तृष्णा का नाश।

और भी किसी ने कहा है -

कामानां हृदये वासः संसार इति कीर्तितः ।
तेषां सर्वात्मना नाशो मोक्ष उक्तो मनीषिभिः ।।

हृदय में कामनाओं का निवास है, उसी को 'संसार' कहते हैं और उनके सब तरह से नाश हो जाने को 'मोक्ष' कहते हैं ।


चर्पटपञ्जरिका स्तोत्रं से -

अङ्गम् गलितं पलितं मुण्डम दशनविहीनं जातं तुण्डं 
वृद्धो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम 

अंग शिथिल हो रहे हैं, सर गंजा  हो गया है, मुँह से दांत गिर चुके हैं, चलने के लिए लाठी का सहारा लेना पड़ता है, फिर भी आशाएं पीछा नहीं छोड़ रहीं 


दोहा

सेत चिकुर तन दशन बिन, बदन भयो ज्यों कूप ।
गात सबै शिथिलित भये, तृष्णा तरुण स्वरुप ।।




येनैवाम्बरखण्डेन संवीतो निशि चन्द्रमाः।
तेनैव च दिवा भानु्रहो दौर्गत्यमेतयो:।। १५ ।।

अर्थ:

आकाश के जिस टुकड़े को ओढ़कर चन्द्रमा रात बिताता है, उसी को ओढ़कर सूर्य दिन बिताता है । इन दोनों की कैसी दुर्गति होती है !

आकाश के जिस हिस्से को, रात के समय चन्द्रमा तय करता है, उसी को दिन में सूर्य तय करता है । सूरज और चाँद, ज्योतिष में सबसे बड़े हैं । जब ऐसे ऐसों की ऐसी दुर्गति होती है, कि बेचारों को रात दिन इधर से उधर और उधर से इधर चक्कर लगाने पड़ते हैं और परिणाम में कोई फल भी नहीं मिलता; तब हमारी आपकी कौन गिनती है ? जब ये पराधीनता की बेड़ियों में जकड़े हुए हैं, इन्हें ज़रा सी भी आज़ादी नहीं है, एक दिन क्या - एक क्षण भी ये अपनी इच्छानुसार आराम नहीं कर सकते, तब इतर छोटे प्राणियों की क्या बात हैं ?


शिक्षा: बड़ों की दुर्दशा देखकर छोटो को अपनी विपत्ति पर रोना-कलपना नहीं, बल्कि सन्तोष करना चाहिए । संसार में कोई भी सुखी नहीं है ।


दोहा:

इक अम्बर के टूक कों, निशि में ओढ़त चन्द।
दिन में ओढ़त ताहि रवि, तू कत करात छछन्द।।


अवश्यं यातारश्चिरतरमुषित्वाऽपि विषया
वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममून् ।
व्रजन्तः स्वातन्त्र्यादतुलपरितापाय मनसः
स्वयं त्यक्त्वा ह्येते शमसुखमनन्तं विदधति ।। १६ ।।

अर्थ:
विषयों को हम चाहें कितने दिन तक क्यों न भोगें, एक दिन वे निश्चय ही हम से अलग हो जायेंगे; तब मनुष्य उन्हें स्वयं अपनी इच्छा से ही क्यों न छोड़ दे? इस जुदाई में क्या फर्क है ? अगर वह न छोड़ेगा तो, वे छोड़ देंगे । जब वे स्वयं मनुष्य को छोड़ेंगे, तब उसे बड़ा दुःख और मनःक्लेश होगा । अगर मनुष्य उन्हें स्वयं छोड़ देगा, तो उसे अनन्त सुख और शान्ति प्राप्त होगी ।

जो लोग विषयों को पहले ही त्याग देते हैं, उन्हें उनके न होने पर दुःख नहीं होता; किन्तु जो उन्हें नहीं छोड़ते, उन्हें उनके न होने पर महाकष्ट होता है । जो बुद्धिमान पहले से ही धन दौलत स्त्री-पुरुष आदि से मोह हटा लेते हैं, उन्हें मरते समय कष्ट नहीं होता । जो उनमें अपना मन लगाए रहते हैं, वे मरते समय रोते हैं, पर ज़बान बंद हो जाने से अपने मन की बात बता नहीं सकते । इसलिए जो सुख से मरना चाहें, उन्हें पहले से ही विषयों से मुख मोड़ लेना चाहिए । इसी तरह, जो आज नाना प्रकार के सुख भोग रहा है, यदि कल उसे वे सुख न मिलें, तो वह बड़ा दुखी होता है; किन्तु जो विषयों को भोगते तो हैं, किन्तु उनमें आसक्ति नहीं रखते, उन्हें विषय सुखों के न मिलने या उनसे बिछुड़ने पर ज़रा भी कष्ट नहीं होता ।



विवेकव्याकोशे विदधति शमे शाम्यति तृषा-

परिष्वङ्गे तुङ्गे प्रसरतितरां सा परिणतिः।
जराजीर्णैश्वर्यग्रसनगहनाक्षेपकृपणस्तृषापात्रं
यस्यां भवति मरुतामप्यधिपतिः ।। १७ ।।

अर्थ:

जब ज्ञान का उदय होता है, तब शान्ति की प्राप्ति होती है । शान्ति की प्राप्ति से तृष्णा शान्त होती जाती है, किन्तु वही तृष्णा विषयों के संसर्ग से बेहद बढ़ जाती है । मतलब यह है, कि विषयों से तृष्णा कभी शान्त नहीं हो सकती । सुन्दरी के कठोर कूचों पर हाथ लगाने से काम-मद बढ़ता है, घटता नहीं । जराजीर्ण ऐश्वर्य को देवराज इन्द्र भी नहीं त्याग सकते ।

ज्ञान से ही तृष्णा का नाश और शान्ति की प्राप्ति होती है । विषयों के भोगने से तृष्णा घटती नहीं, उलटी बढ़ती है । जो तृष्णा को त्यागते हैं, तृष्णा से नफरत करते हैं, उसे पास नहीं आने देते, उनसे तृष्णा भी दूर भागती है । देखिये, यद्यपि स्वर्ग के राज को भोगते लाखों-करोडो वर्ष बीत गए, तो भी इन्द्र स्वर्ग-राज्य को छोड़ नहीं सकता । जब इन्द्र की भी तृष्णा लाखों-करोड़ों वर्ष राज्य भोगने से शान्त नहीं होती, तब मनुष्य बेचारे किस खेत की मूली हैं ? तृष्णा पुराणी होने से बढ़ती है, घटती नहीं । हम ज्यों ज्यों विषय भोगते हैं, त्यों त्यों वे पुराने होते हैं और हमारी तृष्णा बढ़ती है । पुराने होने पर, उन्हें छोड़ने में हमें बड़ा कष्ट होता है ।


शिक्षा: तृष्णा को शीघ्र छोड़ो । पुराणी होने से वह पापीयसी और भी बलवती हो जाएगी; फिर उसे त्यागना आपकी शक्ति से बाहर हो जायेगा । उसके नाश के लिए 'ज्ञान' का पैदा होना जरुरी है; क्योंकि उसका सच्चा मार 'ज्ञान' ही है ।


तृष्णा-मूल नसाय होये जब ज्ञान उदय मन।

भये विषय में लीं बढे दिन-पर-दिन चौगुन।
जैसे मुग्धा-नार कठिन कुच हाथ लगावत।
बढ़त काममद अधिक अधिक तब में सरसावत।
जराजीर्ण ऐश्वर्य को त्यागत लागत दुःख अति।
तोहि तजिबे को असमर्थ यह वासव जो है वायुपति।।



कृशः काणः खञ्जः श्रवणरहितः पुच्छविकलो
ब्रणी पूयल्किन्नः कृमिकुलशतैरावृततनुः ।
क्षुधाक्षामो जीर्णः पिठरजककपालार्पितगलः
शुनीमन्वेति श्वा हतमपि च हन्त्येव मदनः।। १८ ।।

अर्थ:

दुबला काना और लंगड़ा कुत्ता, जिसके कान और पूँछ नहीं हैं, जिसके जख्मों में राध बह रही है, जिसके शरीर मेंकीड़े बिलबिला रहे हैं, जो भूखा और बूढा है, जिसके गले में हांडी का घेरा पड़ा है - कुतिया के पीछे पीछे दौड़ता है । कामदेव मरे हुए को भी मारता है ।


जिस कुत्ते की ऐसी बुरी हालत है, वह कुत्ता भी मैथुन करने के लिए कुतिया के पीछे पीछे दौड़ता है; तब मोटे-ताजे, मावा-मलाई और मिष्टान्न खाने वाले अपनी कामवासना को कैसे रोक सकते हैं ? इसी से बचने के लिए, ज्ञानी लोग अपनी देह को एकदम गला देते हैं, तरह तरह के व्रत और उपवास करते हैं, धूनी तपते हैं और शीत लहर सहते हैं । कामदेव बड़ा बलवान है । जो उसके काबू में नहीं आते, वे सबसे बलवान और सच्चे योद्धा हैं । वे भीष्म और अर्जुन हैं ।

भिक्षासनं तदपि नीरसमेकवारं
शय्या च भूः परिजनो निजदेहमात्रं।
वस्त्रं च जीर्णशतखण्डसलीनकन्था
हा हा तथाऽपि विषया न परित्यजन्ति।। १९ ।।

अर्थ:
वह मनुष्य जो भीख मांगकर दिन में एक समय ही नीरस अलौना अन्न खाता है, धरती पर सो रहता है, जिसका शरीर ही उसका कुटुम्बी है जो सौ थेगलियों(चीथड़ों) की गुदड़ी ओढ़ता है, आश्चर्य है कि, ऐसे मनुष्य को विषय नहीं छोड़ते !

जो दिन भर में एक अलौना - फीका अन्न खाते हैं और वह भी मांग-मांग कर; जिनके पास सोने के लिए पलंग और गद्दे-तकिये नहीं, बेचारे पेड़ों के नीचे या खुले मैदान में घास-पात पर सो रहते हैं; जिनके नाते-रिश्तेदार कोई नहीं, उनका अपना शरीर ही उनका नातेदार है; जिनके पास पहनने को कपडे नहीं; बेचारे ऐसी गुदड़ी ओढ़ते हैं, जिसमें सैकड़ों चीथड़े लटकते हैं - ऐसे लोगों का भी विषय पीछा नहीं छोड़ते, तब धनियों का पीछा तो वे कैसे छोड़ने लगे, जहाँ उन्हें सब तरह के ऐशो-आराम मिलते हैं ? कहा है :-

विश्वामित्रपराशरप्रभृतयो वाताम्बुपर्णाशना-
स्तेऽपि स्त्रीमुखपड़्कजं सुललितं दृष्ट्वैव मोहंगताः?
शाल्यन्नं सघृतं पयोदधियुतं ये भुञ्जते मानवा-
स्तेषामिन्द्रियनिग्रहो यदि भवेद्विन्ध्यस्तरेत्सागरे।। 

विश्वामित्र और पराशर प्रभृति ऋषि भी - जो हवा, जल और पत्ते खाते थे - स्त्री का कमल मुख देखकर मोहित हो गए; फिर शालिचांवल, दही और घी मिला भोजन जो खाते हैं, उनकी इन्द्रियां यदि उनके वश में हो जाएँ, तो विंध्याचल पर्वत भी समुद्र में तैरने लगे । मतलब यह है कि पत्तों और जल पर गुज़र करने वाले ऋषि भी जब स्त्रियों पर मोहित हो गए, तब घी दूध खानेवालों की क्या बात है ? कामदेव का वश करना बड़ा कठिन है । पराशर ने दिन की रात कर दी और नदी को रेत में परिणत कर दिया, पर वे भी काम को वश में न कर सके। इतना ही नहीं; बड़े बड़े देवता भी काम को वश में न कर सके । स्वयं ब्रह्मा, विष्णु और महेश तक को काम ने जीत लिया । 

"आत्मपुराण" में लिखा है :
कामेन विजितो ब्रह्मा, कामेन विजितो हरिः ।
कामेन विजितः शम्भुः, शक्रः कामेन निर्जितः।।

कामदेव ने ब्रह्मा, विष्णु, शिव और इन्द्र को जीत लिया ।

"पद्मपुराण" में लिखा है - शान्तनु नामक ऋषि की स्त्री का नाम अमोघ था । वह परमा सुन्दरी और पतिव्रता थी । एक दिन ब्रह्मा जी ऋषि से मिलने गए । ऋषि उस समय कहीं बाहर गए हुए थे । उस पतिव्रता ने ब्रह्मा जी को आसन बिछा कर बिठाया । ब्रह्मा जी उसका रूप देखकर मुग्ध हो गए । उनका वीर्य निकल गया; अतः वे लज्जित हो गए। इतने में ऋषि आ गए । उन्होंने वीर्य पड़ा देख स्त्री से पूछा - "यह क्या !" स्त्री ने कहा - "स्वामिन ! ब्रह्मा जी आये थे ।"  सुनकर ऋषि ने कहा - "स्त्री का दर्शन ऐसा ही है कि जिससे देवता भी धैर्य त्याग देते हैं ।"

एक बार महादेव जी समाधिस्थ थे । वहीँ वन में मनुष्यों की सुन्दरी और युवती स्त्रियां क्रीड़ा कर रही थीं । शिवजी का मन चल गया । उन्होंने अपने तपोबल से उन्हें आकाश में ले जाकर उनसे भोग किया । अन्त में पारवती जी ने स्त्रियों को नीचे गिरा दिया और शिवजी को समाधी में लगाया ।
विष्णु भगवान् ने जलन्धर नामक राक्षस की वृन्दा नामक पतिव्रता स्त्री से छलकर भोग किया । उसने उन्हें श्राप दिया । 
इन्द्र ने गौतम ऋषि की स्त्री अहिल्या से छल से भोग किया और इतने में ऋषि आ गए । उन्होंने इन्द्र को देखते ही श्राप दिया । ऋषि के श्राप से इन्द्र के शरीर में भग ही भग हो गयी ।
एक बूढा तपस्वी किसी मन्दिर में अकेला रहता था । वह पूरा जितेन्द्रिय था । दैवात एक युवती उस मन्दिर के सामने से निकली । तपस्वी मुग्ध हो गया और उसके पीछे हो लिया । जब वह अपने घर पहुंची, तब ऋषि भी द्वार पर जाकर उससे प्रार्थना करने लगा । उसने द्वार बन्द करना चाहा और ऋषि ने सिर अड़ा कर घुसना चाहा । उसने ज़ोर से द्वार बन्द करने की चेष्टा की । इससे ऋषि का सिर कट गया और वह वहीँ मर गया । ऐसे ऐसे बूढ़े और अभ्यासी जितेन्द्रिय पुरुष जब स्त्रियों को देखते ही पागल हो जाते हैं, तब औरों का क्या कहना ?

यद्यपि कामदेव को काबू में करना महाकठिन है ; 
तथापि कामदेव को वश में करो; 
क्योंकि स्त्री संसार बन्धन की मूल और जन्म-मरण की कारण है ।

स्त्री भक्ति-मुक्ति और सुख-शान्ति की नाशक है । जिनके स्त्री है, वे परमेश्वर की भक्ति नहीं कर सकते, क्योंकि उन्हें जञ्जालों से फुर्सत ही नहीं मिल सकती । यों तो सभी विषय विष के समान घातक हैं, पर स्त्री सबसे ऊपर है । जहाँ स्त्री है, वहां सभी विषय हैं । विषय दुःख और ताप के कारण हैं, अतः बुद्धिमान व्यक्ति को विषयों से बचना चाहिए । मोक्ष चाहने वालों को तो स्त्री के दर्शन भी न करने चाहिए ।

शिक्षा: विषय विष हैं। इनका त्याग ही सुख की जड़ है । जो विषयी हैं उन्हें कहीं सुख नहीं । अतः काम को जीतो । जिसने काम को जीत लिया, उसने सबको जीत लिया ।



स्तनौ मांसग्रन्थि कनकलशावित्युपमितौ
मुखं श्लेष्मागारं तदपि च शशाङ्केन तुलितम ।।
स्रबन्मूत्रक्लिन्नम् करिवरकरस्पर्द्धि जघन-
महो निन्द्यम रूपं कविजन विशेषैर्गुरु कृतं ।। २० ।।

अर्थ:
स्त्रियों के स्तन, मांस के लौंदे हैं, पर कवियों ने उन्हें सोने के कलशों की उपमा दी है । स्त्रियों का मुंह कफ का घर है, पर कवी उसे चन्द्रमा के समान बताते हैं और उनकी जांघो को, जिनमे पेशाब प्रभृति बहते रहते हैं, श्रेष्ठ हाथी की सूंड के समान कहते हैं । स्त्रियों का रूप घृणा योग्य है, पर कवियों ने उसकी कैसी तारीफ की है ।

राग सोरठ
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अनाड़ी मन ! नारी नरक का मूल ।
रंग रूप पर भय लुभाना, क्यों भूल गया हरि नाम दिवाना?
इस धन यौवन का नाहिं ठिकाना, दो दिन में हो जाये धूल ।।
कंचन भरे दो कलश बतावे, ताहि पकड़ आनंद मनावे।
यह तो चमड़े की थैली है मूरख, जिन पै रह्यो तू भूल।।
जा मुख को तू चन्दा कर माने, थूक राल वामे लिपटाने।
धिक् धिक् धिक् ! तेरे या मुख पै, मिष्टा में रह्यो तू भूल।।
कैसा भारी धोका खाया, तन पर कामिन के ललचाया।
कहें कबीर आँख से देखा, यह तो माटी का स्थूल।।

स्त्री आफतों की जड़ है
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स्त्री अनेक आपदाओं का मूल है । अनेक रूपवती स्त्रियों के कारण उनके पतियों के प्राण नष्ट हुए हैं । नूरजहां के कारण शेर अफ़ग़ान के जान मारी गयी । स्त्री के पीछे सुन्द-उपसुन्द आपस में लड़कर मर गए । स्त्री के पीछे राजा नहुष को स्वर्ग से गिरना पड़ा । स्त्री के कारण बाली मारा गया और रावण का सर्वनाश हुआ एवं शिशुपाल का सर काटा गया । स्त्री के पीछे ही भारत को ग़ारत करने वाला महाभारत हुआ । स्त्री सांप से भी भयंकर है । सांप के तो काटने से मनुष्य मरता है, स्त्री विष के सम्बन्ध से मनुष्य को बार बार जन्म लेना और मरना पड़ता है; क्योंकि मरते समय पुरुष का मन अपनी स्त्री में जरूर जाता है । मरण समय जिसकी वासना जिसमें रहती है, वह उसे अवश्य मिलता है ।

कहा है:
वासना यत्र यस्य स्यात्सतं स्वप्नशु पश्यति ।
स्वप्नवन्मरणे ज्ञेयं वासनातो वपुर्नृणां ।।

जिस मनुष्यकी जहाँ वासना होती है, उसी वासनाके अनुरूप वह स्वप्न देखता है । स्वप्नके समान ही मरण होता है अर्थात्‌ वासनाके अनुरूप ही अन्तसमयमें चिन्तन होता है और उस चिन्तनके अनुसार ही मनुष्यकी गति होती है ।

दोहा
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नारी कहूं कि नाहरी(सिंहनी), नख-सिख सों यह खाये। 
जल बूड़ा तो ऊबरे, भग बूड़ा बहि जाये।।

एक कनक अरु कामिनी, तजिये भगिए दूर। 
हरि विच पारें अन्तरा, यम देसी मुख धूर।।

जहाँ काम तहाँ राम नहीं, राम तहाँ नहीं काम।
दोउ कबहुँ न रहें, काम राम इक ठाम।।

अविनाशी विच धार तिन, कुल कंचन अरु नार।
जो कोई इन ते बचे, सोइ उतरे पार।।

स्त्री त्यागी ही पण्डित है
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मनुष्यों और पशुओं में क्या भेद है ? मनुष्य खाते, सोते, डरते और स्त्री भोग करते हैं और पशु भी यही चारों काम करते हैं । पर इन दोनों में अंतर यही है कि मनुष्य को धम्मज्ञान है, पशु को नहीं । यदि मनुष्य पशुओं की तरह अज्ञानी हो, तो वह भी पशु ही है ।

कहा है:
अधीत्य वेदशास्त्राणि, संसारे रागिणश्च ये।
तेभ्यः परो न मूर्खोऽस्ति सधर्मा श्वाश्वसूकरैः।।

जो पुरुष वेद-शास्त्रों को पढ़कर भी संसार से या स्त्री-पुरुष आदि से प्रीति रखते हैं, उनसे बढ़कर मूर्ख कौन है? क्योंकि स्त्री-पुरुष प्रभृति में तो कुत्ते, घोड़े और सूअर भी प्रेम रखते हैं । 

शुकदेव जी ने भागवत में कहा है :
मानुष्यं दुर्लभं प्राप्य, वेदशास्त्राणय धीत्य च ।
वध्यते यदि संसारे, को विमुच्येत मानवः ?

दुर्लभ मनुष्य चोला पाकर और वेद-शास्त्र पढ़कर भी यदि मनुष्य संसार में फंसा रहे, तो फिर संसार बन्धन से छूटेगा कौन ?

कबीरदास जी कहते हैं:
काम क्रोध मद लोभ की, जब लग घट में खानि।
कहा मूर्ख कहा पण्डिता, दोनों एक समानि।।

जब तक मन में, काम, क्रोध, मद और लोभ है, तब तक पण्डित और मूर्ख दोनों समान हैं । जिसमें ये सब नहीं, वही पण्डित है और जिसमें ये सब हैं, वह मूर्ख और अज्ञानी है।

शंकराचार्य कृत "प्रश्नोत्तरमाला" में लिखा है :
शूरान्महाशूर तमोऽस्ति को वा?
मनोजवाणैर्व्यथितो न यस्तु।
प्राज्ञोऽति धीरश्च शमोऽस्ति को वा?
प्राप्तो न मोहं ललनाकाटाक्षैः।

संसार में सबसे बड़ा शूरवीर कौन है? जो काम-बाणो से पीड़ित नहीं है।
प्राज्ञ, धीर और समदर्शी कौन है? जिसे स्त्री के कटाक्षों से मोह नहीं होता।


क्रमशः 

महात्मा तुलसीदास जी को स्त्री से विरक्ति
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एक बार महात्मा तुलसीदास जी की स्त्री अपने पीहर चली गयी; महात्मा जी को आधी रात के समय स्त्री-प्रसंग की इच्छा हुई । आपकी ससुराल और आपके गाँव के बीच में नदी पड़ती थी । आप फ़ौरन ही घर छोड़ ससुराल को चल दिए । भयंकर रात में प्रबल वेग से बहती हुई नदी को पार कर आप ससुराल पहुँच गए । लेकिन जब घर के द्वार पर पहुंचे तो पौली का द्वार बन्द था । अब आप मकान में चढ़ने की तरकीब सोचने लगे । इतने में आपको एक रस्सी सी नज़र आयी, आप उसे पकड़ कर चढ़ गए और अणि स्त्री के कमरे में जा पहुंचे । स्त्री आपको देखते ही चौकन्नी सी हो गयी । आपने कहा - "प्यारी ! मैं तेरे लिए इस समय महाकष्ट भोग कर आया हूँ । मेरी अभिलाषा पूर्ण कर।"

स्त्री आपको देखते ही पलंग से नीचे बैठ गयी और बोली - "हे मेरे पतिदेव ! रात कैसी भयावनी हो रही है । बादलों की गड़गड़ाहट और बिजली की कड़क से मनुष्य का ह्रदय काँप उठता है । उधर नदी चढ़ रही है । आपने अपने शरीर की परवा न कर मुझे दर्शन दिए; इसलिए मैं आपकी अनुग्रहीत हूँ । परन्तु स्वामिन ! यह तो बताइये, आप मकान में आये कैसे, क्योंकि द्वार बन्द है?" आपने कहा - "एक रस्सी लटक रही थी, उसी के सहारे मैं चढ़ आया।" स्त्री ने जाकर देखा, तो वह रस्सी नहीं, वरन एक लम्बा चौड़ा काल सर्प था । देखते ही स्त्री के सिर में चक्कर आ गया उसके मुंह से इतना ही निकला - "स्वामिन ! जितना प्रेम आपका मुझमें है, यदि इतना ही हरि में होता, तो आपका निश्चय ही बड़ा उपकार होता ।
जितना प्रेम हराम से, उतना हरि से होय।
चला जाय बैकुंठ को, पला न पकडे कोय।।

कहते हैं, तुलसीदास तत्क्षण उसे गुरु कहकर वन को चले गए । 




आजानन्माहात्म्यं पततु शलभो दीपदहने
स मीनोऽप्यज्ञानाद्वडिशयुतमश्नातु पिशितम् ।
विजानन्तोऽप्येतान्वयमिह विपज्जालजटिलान्
न मुञ्चामः कामानहह गहनो मोहमहिमा ॥ २१॥

अर्थ:
अज्ञानवश, पतङ्ग दीप की लौ पर गिरकर अपने तई भस्म कर लेता है; क्योंकि वह उसके परिणाम को नहीं जानता; इसी तरह मछली भी कांटे के मांस पर मुंह चलकर अपने प्राण खोती है, क्योंकि वह उससे अपने प्राण-नाश की बात नहीं जानती । परन्तु हम लोग तो अच्छी तरह जानबूझकर भी विपद मूलक विषयों की अभिलाषा नहीं त्यागते । मोह की महिमा कैसी विस्मयकर है । 

आश्चर्य है कि मनुष्य - जिसे भगवान् ने समझ दी है, जो जानता है कि विषयों की कामना आफत की जड़ है, विषयों में सुख नहीं, घोर विपद है; विषय विष से भी अधिक दुखदायी हैं - विषयों की इच्छा करता है । इससे कहना पड़ता है कि, मोह की माया बड़ी कठिन है । महात्मा कबीरदास कहते हैं:

शङ्कर हूँ ते सबल है, माया या संसार।
अपने बल छूटे नहीं, छुडावे सिरजनहार।।



फलमलमशनाये स्वादुपानाय तोयं 
शयनमवनिपृष्ठे वल्कले वाससी च।
नवधनमधुपानभ्रान्तसर्वेन्द्रियाणा-
मविनयमनुमन्तुं नोत्सहे दुर्जनानाम् ।। २२ ।।

अर्थ:
खाने के लिए फलों की इफरात है, पीने के लिए मीठा जल है, पहनने के लिए वृक्षों की छाल है; फिर हम धनमद से मतवाले दुष्टों की बातें क्यों सहें ?

मनुष्य को सन्तोष नहीं, उसे तृष्णा नहीं छोड़ती; इसी से वह विषयों को भोगने की लालसा से ढाणियों की खुशामदें करता है, उनकी टेढ़ी-सूधी सुनता है, अपनी प्रतिष्ठा खोता है, निरादर और अपमान सेहत है । अगर वह सन्तोष कर ले, तो उसे ऐसे दुष्टों और धनमद से मतवाले शैतानो की खुशामद क्यों करवानी पड़े? अपनी मानहानि क्यों करनी पड़े ? परमात्मा इन शैतानो से बचावे ! एक तो तंगदिल लोग वैसे ही शैतान होते हैं, पर जब उन पर दौलत का नशा चढ़ जाता है, तब तो उनकी शैतानी का ठिकाना ही क्या ? 
उस्ताद ज़ौक़ कहते हैं और खूब कहते हैं -
नशा दौलत का बद अवतार को, जिस आन चढ़ा ।
सर पै शैतान के, एक और भी शैतान चढ़ा ।।

अनुभवहीन और तंगदिल मनुष्य पर जिस समय दौलत का नशा चढ़ गया, तब मानो शैतान के सर पर एक और शैतान चढ़ गया । जिसे किसी चीज़ की जरुरत नहीं वो किसी की खुशामद क्यों करेगा ? वह अपना मान क्यों खोयेगा ? निष्पृह के लिए तो जगत तिनके के समान है । इसलिए सुख चाहो तो इच्छाओं को त्यागो।
किसी ने ठीक ही कहा है:
भागती फिरती थी दुनिया, तब तलब करते थे हम।
अब जो नफरत हमने की, तो बेक़रार आने को है।।

दोहा:

भूमि शयन, बल्कल वसन, फल भोजन जलपान।
धनमदमाते नरन को, कौन सहत अहमान? 


विपुलहृदयैर्धन्यैः कैश्चिज्जगज्जनितं पुरा
विधृतमपरैर्दत्तं चान्यैर्विजित्य तृणं यथा ।
इह हि भुवनान्यन्ये धीराश्चतुर्दश भुञ्जते
कतिपयपुरस्वाम्ये पुंसां क एष मदज्वरः ।। २३ ।।

अर्थ:
कोई तो ऐसे बड़े दिलवाले लोग हुए, जिन्होंने इस प्राचीनकाल में इस जगत की रचना की; कुछ ऐसे हुए जिन्होंने इस जगत को अपनी भुजाओं पर धारण किया; कुछ ऐसे हुए जिन्होंने समग्र पृथ्वी जीती और फिर तुच्छ समझकर दूसरों को दान कर दी; और कुछ ऐसे भी हैं जो चौदह भुवन का पालन करते हैं । जो लोग थोड़े से गावों के मालिक होकर, अभिमान के ज्वर से मतवाले हो जाते हैं, उनके समबन्ध में हम क्या कहें?

सज्जन लोग धनैश्वर्य और प्रभुता पाकर कभी अहङ्कार नहीं करते; ओछे या नीच ही थोड़ी सी विषय सम्पत्ति पाकर अभिमान किया करते हैं । निति रत्न में लिखा है:
दिव्यं चूतरसं पीत्वा गर्वं नो याति कोकिलः। 
पीत्वा कर्दमपानीयं भेको मकमकायते। ।
अगाधजलसञ्चारी न गर्वं याति रोहितः। 
अङ्गष्ठोदकमात्रेण सफरी फर्फरायते।।

उत्तम रसाल के रस को पीकर कोकिल गर्व नहीं करता, किन्तु कीचड मिला पानी पीकर ही मेंढक टरटराया करता है ।
अगाध जल में रहने वाली रोहित मछली गर्व नहीं करती किन्तु अंगूठे जितने जल में सफरी मछली ख़ुशी से नाचती फिरती है ।
बस, छोटे और बड़े, पूरे और ओछे लोगों में यही अन्तर होता है । जो जितना छोटा है, वह उतना ही घमण्डी और उछलकर चलनेवाला है और जो जितना ही बड़ा और पूरा है, वह उतना ही गम्भीर और निरभिमानी है । नदी नाले थोड़े से जल से इतरा उठते हैं; किन्तु सागर, जिसमें अनंत जल भरा है गम्भीर रहता है ।
अभिमान या अहङ्कार महा अनर्थों का मूल है । यह नाश की निशानी है । अहंकारी से परमात्मा दूर रहता है । जिससे परमात्मा दूर रहता है, उसके दुःखों का अंत कहाँ है ? अतः मनुष्यों ! अभिमान को त्यागो । जो आज टुकड़ो का मुहताज है, वह कल राजगद्दी का स्वामी दिखाई देता है और आज जिसके सर पर राजमुकुट है, सम्भव है कि कल वह गली-गली मारा-मारा फिरे । संसार की यही गति है, इसलिए अभिमान वृथा है । परमात्मा ने एक से बढ़कर एक बना दिया है । कहा है:
एक-एक से एक-एक को, बढ़कर बना दिया।
दारा किसी को, किसी को सिकन्दर बना दिया।।

*दारा ईरान का बादशाह था । वह अपने समय में मध्याह्न के मार्तण्ड की तरह तपता था । उसने बहुत से देश जीत लिए । किसी को उम्मीद न थी कि, दारा भी किसी से पराजित होगा ; पर ईश्वर ने तो एक से बढ़कर एक बनाये हैं । उसने दारा को भी परास्त करने वाला सिकन्दर पैदा कर दिया । सिकन्दर आज़म ने दारा को शिकस्त दी और भारत पर भी चढ़ाई की।

आपको किस बात का गर्व है? यह राज्य और धन दौलत क्या सदा आपके कुल में रहेंगे या आपके साथ जायेंगे ? जो रावण लंकेश्वर था, जिसने यक्ष, किन्नर, गन्धर्व और देवताओं तक को अपने अधीन कर लिया था, आज वह कहाँ है? उसका धन वैभव क्या उसके साथ गया? जिस राम ने समुद्र का पल बांधकर वानर सेना से रावण का नाश किया वही राम आज कहाँ है? जिस बलि ने रावण जैसे त्रिलोक विजयी को अपने पुत्र के पालने से बाँध रखा था आज वह बलि कहाँ है ? जिस सहस्त्रबाहु ने रावण के सर पर चिराग रख कर जलाया था, वह सहस्त्रबाहु ही आज कहाँ है ? चारों दिशाओं को अपने भुजबल से जीतनेवाले भीमार्जुन कहाँ हैं ? इस पृथ्वी पर अनेक, एक से एक बली राजा और शूरवीर हो गए, पर यह पृथ्वी किसी के साथ न गयी । क्या आपकी धन-दौलत, जमींदारी या राजलक्ष्मी अटल और स्थिर है ? क्या यह आपके साथ जाएगी ? हरगिज़ नहीं । आप जिस तरह खाली हाथ आये थे, उसी तरह खाली हाथ जायेंगे । 

अभिमानियों का नशा उतरने के लिए उस्ताद ज़ौक ने भी खूब कहा है:
दिखा न जोशो खरोश इतना, ज़ोर पर चढ़कर।
गए जहां में दरिया, बहुत उतर-चढ़कर।।

हे मनुष्य ! ज़ोर में आकर इतना जोश-खरोश न दिखा इस दुनिया में बहुत से दरिया चढ़-चढ़ कर उतर गए - कितने ही बाग़ लगे और सूख गए ।
महात्मा कबीरदास जी कहते हैं:
धरती करते एक पग, करते समन्दर फाल ।
हाथों परवत तोलते, ते भी खाये काल।।
हाथों परवत फाड़ते, समुन्दर घूँट भराय।
ते मुनिवर धरती गले, कहा कोई गर्व कराय?


त्वं राजा वयमप्युपासितगुरुप्रज्ञाभिमानोन्नताः
ख्यातस्त्वं विभवैर्यशांसि कवयो दिक्षु प्रतन्वन्ति नः ।
इत्थं मानद नातिदूरमुभयोरप्यावयोरन्तरं यद्यस्मासु 
पराङ्मुखोऽसिवयमप्येकान्ततो निःस्पृहाः।। २४ ।।

अर्थ:
अगर तू राजा है, तो हम भी गुरु की सेवा से सीखी हुई विद्या के अभिमान से बड़े हैं। अगर तू अपने धन और वैभव के लिए प्रसिद्ध है, तो कवियों ने हमारी विद्या की कीर्ति भी चारों और फैला रखी हैं । हे मानभञ्जन करने वाले, तुझमें और हममें ज्यादा फर्क नहीं है । अगर तू हमारी ओर नहीं देखता, तो हमें भी तेरी परवा नहीं है । 


अभुक्तयां यस्यां क्षणमपि न यातं नृपशतै-
र्भुवस्तस्या लाभे क इव बहुमानः क्षितिभुजाम्।
तदंशस्याप्यंशे तदवयवलेशेऽपि पतयो 
विषादे कर्तव्ये विदधति जडाः प्रत्युत मुदम।। २५ ।।

अर्थ:
सैकड़ों हज़ारों राजा इस पृथ्वी को अपनी अपनी कहकर चले गए, पर यह किसी की भी न हुई; तब राजा लोग इसके स्वामी होने का घमंड क्यों करते हैं ? दुःख की बात है, कि छोटे छोटे राजा छोटे से छोटे टुकड़े के मालिक होकर अभिमान के मारे फूले नहीं समाते ! जिस बात से दुःख होना चाहिए, मूर्ख उससे उलटे खुश होते हैं ।

इस पृथ्वी पर रावण और सहस्त्रबाहु प्रभृति एक से एक बढ़कर राजा हो गए, जिन्होंने त्रिलोकी अपनी ऊँगली पर नचा डाली । वे कहते थे कि हमारे बराबर जगत में दूसरा कोई नहीं है। यह पृथ्वी सदा हमारे पास ही रहेगी । पर वे सब एक दिन इसे छोड़कर चल बसे। यह उनकी न हुई; वे इसे सदा न भोग सके। तब आजकल के छोटे छोटे राजा, जो अपने तई पृथ्वीपति समझ कर अभिमान के नशे में चूर रहते हैं, इसके लिए लड़ते हैं, खून खराबा करते हैं, क्या यह उनकी अज्ञानता नहीं है ? उनकी यह छोटी सी प्रभुता - मालिकाई, सदा-सर्वदा नहीं रहेगी; यह विजली की सी चमक और बदल की सी छाया है । इस पर घमण्ड करना बड़ी भूल की बात है । 

महात्मा कबीर कहते हैं -
चहुँदिशि पाका कोट था, मंदिर नगर मंझार ।
खिरकी खिरकी पाहरू, गज बंधा दरबार ।।
चहुँदिशि तो योद्धा खड़े, हाथ लिए हथियार ।
सब ही यह तन देखता, काल ले गया मार ।।
आस पास योद्धा खड़े, सबै बजावें गाल ।
मंझ महल ते ले चला, ऐसा परबल काल ।।


हे मनुष्य ! मौत से डर, अभिमान त्याग । किसी राजा की नगरी के चारों तरफ पक्की शहरपनाह थी, उसका महल शहर के बीचोंबीच था, हरेक फाटक की खिड़की पर पहरेदार थे, दरबार में हाथी बंधा था, चारों तरफ सिपाही हथियार बांधे हुए खड़े थे । आस पास खड़े योद्धा गाल बजाते ही रह गए और वह बलवान काल, ऐसा बंदोबस्त होने पर भी राजा को अपने साथ ले गया ।


न नटा न विटा न गायना न परद्रोहनिबद्धबुद्धयः।
नृपसद्मनि नाम के वयं स्तनभारानमिता न योषितः।। २७ ।।

अर्थ:
न तो हम नट या बाज़ीगर हैं, न हम नचैये-गवैये हैं, न हमको चुगलखोरी आती है, न हमें दूसरों की बर्बादी की बन्दिशें बांधनी आती हैं और न हम स्तनभारावनत स्त्रियां ही हैं; फिर हमारी पूछ राजाओं के यहाँ क्यों होने लगी? हममें इनमें से एक भी बात नहीं, फिर हमारा प्रवेश राजसभा में कैसे हो सकता है ? वहां तो उनकी पूछ है - उन्ही का आदर है - जो उनकी विषय-वासनाएं पूरी करते हैं।

दोहा:
नट भट विट गायन नहीं, नहिं बादिन के माहिं।
कौन भांति भूपति मिलन, तरुणी भी हम नाहिं?।।


पुरा विद्वत्तासीऽदुपशमवतां क्लेशहतये
गता कालेनासौ विषयसुखसिद्धयै विषयिणाम् ।
इदानीं तु प्रेक्ष्य क्षितितलभुजः शास्त्रविमुखा
नहो कष्टं साऽपि प्रतिदिनमधोऽधः प्रविशति ।। २८ ।।

अर्थ:
पहले समयों में, विद्या केवल उन लोगों के लिए थी, जो मानसिक क्लेशों से छुटकारा पाकर चित्त की शान्ति चाहते थे । इसके बाद विषय सुख चाहने वालों के काम की हुई । अब तो राजा लोग शास्त्रों को सुनना ही नहीं चाहते; वे उससे पराङ्गमुख हो गए हैं; इसलिए वह दिन-ब-दिन रसातल को चली जाती है । यह बड़े ही दुःख की बात है।

पहले ज़माने में जो विद्या शान्तिकामी लोगों के अशान्त चित्तों को शान्त करने, उनकी मनोवेदनाओं को दूर करने और उनके शोक ताप की आग में जलने से बचने के काम आती थी, होते होते वही विद्या, विषय-सुख भोगने का जरिया हो गयी । लोग भाँति भाँति की विद्याएं सीख कर राजाओं और ढाणियों को खुश करते और उनसे धन पाकर स्वयं विषय सुख भोगते थे । यहाँ तक तो खैर थी; किन्तु अब राजा लोग ऐसे हो गए हैं, कि वह विद्या और विद्वानों कि ओर नज़र उठा कर भी नहीं देखते, पण्डितों से धर्मशास्त्र नहीं सुनते; इसलिए अब कोई विद्या नहीं पढता । कदर न होने से, विद्या अब अधोगति को प्राप्त होती जा रही है। क्या यह दुःख का विषय नहीं है?

दोहा:

विद्या दुःखनाशक हती, फेरि विषय सुख दीन।
जात रसातल को चली, देखि नृपन्ह मतिहीन।।


स जातः कोऽप्यासीन्मदनरिपुणा मूर्ध्नि धवलं
कपालं यस्योच्चैर्विनिहितमलंकारविधये ।
नृभिः प्राणत्राणप्रवणमतिभिः कैश्चिदधुना
नमद्भिः कः पुंसामयमतुलदर्पज्वरभरः ।। २९ ।।

अर्थ:
प्राचीन काल में ऐसे पुरुष हुए हैं, जिनकी खोपड़ियों कि माला बनाकर स्वयं शिव ने श्रृंगार के लिए अपने गले में पहनी । अब ऐसे लोग हैं, जो अपनी जीविका-निर्वाह के लिए सलाम करने वालों से ही प्रतिष्ठा पाकर, अभिमान के ज्वर (मद) से गरम हो रहे हैं । 

दोहा:

ऐसेहू जग में भये, मुण्डमाल शिव कीन।

धनलोभी नर नावट लखि, तुमको मदज्वर दीन।।


अर्थानामीशिषे त्वं वयमपि च गिरामीश्महे यावदित्थं
शूरस्त्वं वादिदर्पज्वरशमनविधावक्षयं पाटवं नः।
सेवन्ते त्वां धनान्धा मतिमलहतये मामपि श्रोतुकामा
मय्यप्यास्था न ते चेत्त्वयि मम सुतरामेष राजन्गतोऽस्मि  ।। ३० ।।

अर्थ:


यदि तुम धन के स्वामी हो तो हम वाणी के स्वामी हैं। यदि तुम युद्ध करने में वीर हो तो हम अपने प्रतिपक्षियों से शास्त्रार्थ करके उनका मद-ज्वर तोड़ने में कुशल हैं । यदि तुम्हारी सेवा धन-कामी या धनान्ध करते हैं, तो हमारी सेवा अज्ञान-अंधकार का नाश चाहनेवाले, शास्त्र सुनने के लिए करते हैं । यदि तुम्हें हमारी ज़रा भी गरज़ नहीं है, तो हमें भी तुम्हारी बिलकुल गरज़ नहीं है । लो, हम भी चलते हैं ।


यदा किञ्चिज्झोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं 
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः।
यदा किंचित्किञ्चिद्बुधजनसकाशादवगतं 
तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः।। ३१ ।।

अर्थ:
जब मैं थोड़ा जानता था, तब हाथी के समान मद से अन्धा हो रहा था; मैं समझता था कि मैं सर्वज्ञ हूँ । जब मुझे बुद्धिमानो की सुहबत से कुछ मालूम हुआ; तब मैंने समझा, कि मैं तो कुछ भी नहीं जानता । मेरा झूठा मद, ज्वर की तरह उतर गया।

उस्ताद ज़ौक़ ने भी ठीक ऐसी ही बात कही है:
हम जानते थे, इल्म से कुछ जानेंगे ।
जाना तो यह जाना, कि न जाना कुछ भी।।

किसी ने ठीक ही कहा है:
"अल्प विद्यो महागर्वी "।


अतिक्रान्तः कालो लटभललनाभोगसुभगो 
भ्रमन्तः श्रान्ताः स्मः सुचिरमिह संसारसरणौ।।
इदानीं स्वः सिन्धोस्तटभुवि समाक्रन्दनगिरः 
सुतारैः फुत्कारैः शिवशिवशिवेति प्रतनुमः।। ३२ ।।

अर्थ:
ज़ेवरों से लदी हुई स्त्रियों के भोगने-योग्य जवानी चली गयी; और हम चिरकाल तक विषयों के पीछे दौड़ते-दौड़ते थक भी गए । अब हम पवित्र जाह्नवी तट पर, (ललचाने वाली स्त्रियों) की निन्दा करते हुए, शिव-शिव जपेंगे।

किसी ने ठीक ही कहा है:
इश्क़ का जोश है जब तक, कि जवानी के हैं दिन।
यह मर्ज़ करता है शिद्दत, इन्ही अय्याम में ख़ास।।

अब तो बुढ़ापे का दौरदौरा है, इस उम्र में हम नाज़नीनों के साथ ऐश कर भी नहीं सकते । इसके सिवा हम सावधान भी हो गए हैं । हमने बेवकूफी छोड़ दी है । हम बहुत दिनों तक विषयों में लीं रहे, हमने बहुत कुछ विषय भोग, भोगे; अब हम थक गए, उनसे हमारा जी ऊब गया । उनसे हमें कुछ भी सुख नहीं मिला । इसलिए हम गंगा जी के किनारे बैठ कर, संसार बन्धन की मूल और नरक की नसैनी सुंदरियों की ममता  छोड़, शिव से प्रीती करेंगे और दिन-रात उन्ही का पवित्र एवं कल्याणकारी नाम जपेंगे, जिससे हमारा अंतकाल तो सुधर जाए ।

दोहा:
रमणकाल यौवन गयो, थक्यो भ्रमत संसार।
देहुँ गंगतट शेष वय, शिव-शिव जपत विस्तार।।


माने म्लायिनि खण्डिते च वसुनि व्यर्थे प्रयातेऽर्थिनि
क्षीणे बन्धुजने गते परिजने नष्टे शनैर्यौवने ।
युक्तं केवलमेतदेव सुधियां यज्जह्नुकन्यापयः-
पूतग्रावगिरीन्द्रकन्दरतटीकुञ्जे निवासः क्वचित् ।। ३३ ।।

अर्थ:
जब लोगों में इज़्ज़त आबरू न रहे; धन नाश हो जाये; याचक लौट लौट कर जाने लगें; भाई-बन्धु, स्त्री-पुत्र और नाते-रिश्तेदार मर जाएं; तब बुद्धिमान को चाहिए कि किसी ऐसे पर्वत की गुहा के कोने में जा बसे, जिसके पत्थर गंगा जी के जल से पवित्र हो रहे हों ।

जब लोगों में अपना मान न रहे, लोग नफरत की नज़र से देखने लगें; अपनी धन-दौलत जाती रहे; जो याचक पहले कुछ पाते थे, वे निर्धनता के कारण विमुख होकर लौट जाते हैं; भाई-बन्धु और स्त्री-पुत्र प्रभृति नातेदार दूसरी दुनिया को चले गए हों, तब तो बुद्धिमान को चाहिए कि संसार को त्याग दें; इसमें मोह न रखें और किसी ऐसे पहाड़ की गुफा में जा रहे, जिसके पत्थरों को पवित्र गंगाजल पखार पखारकर पवित्र करता हो। ऐसी हालत में संसार में रहना - वृथा समय खोना है । कम से कम उस समय तो बुद्धिमान एकान्त में बैठकर, सब तरह की आशा तृष्णा छोड़कर, भगवान् के चरणकमलों के मन लगावे ।

दोहा:

गयो मान यौवन सुधन, भिक्षुक जात निराश।
अब तो मौको उचित यह, श्रीगंगा तट बास।।



परेषां चेतांसि प्रतिदिवसमाराध्य बहुधा
प्रसादं किं नेतुं विशसि हृदयक्लेशकलितम् ।
प्रसन्ने त्वय्यन्तः स्वयमुदितचिन्तामणि गुणे
विमुक्तः संकल्पः किमभिलषितं पुष्यति न ते ।। ३४ ।।

अर्थ:
हे मलिन मन ! तू पराये दिलों को प्रसन्न करने में किसलिए लगा रहता है ? यदि तू तृष्णा को छोड़कर संतोष कर ले, अपने में ही संतुष्ट रहे, तो तू स्वयं चिंतामणि स्वरुप हो जाये। फिर तेरी कौन सी इच्छा पूरी न हो?

मन ही सब कामों का करता है । सभी इन्द्रियां मन के ही अधीन और मन की ही अनुगामिनी हैं। मन ही बंधन और मोक्ष का कारण है । मनुष्य मन से ही पाप-पुण्य और सुख-दुःख प्रभृति का भागी होता है । मन ही मनुष्य को बुरा-भला, साधु-असाधु सब कुछ बना देता है । मन की वृत्ति सुधरने से ही, मन के वासना-हीन होने से ही, सब कुछ त्यागने से ही, वह आत्मसाक्षात्कार के योग्य हो जाता है ; इसीलिए कोई ज्ञानी पुरुष मन को सम्बोधित करके कहता है -
"अरे मन ! तू स्वयं तो मलिन और दुःख के भार से दबा हुआ है; फिर तू औरो के दिल खुश करने की इतनी कोशिशें क्यों करता है, क्यों आफतें उठता है, क्यों मान खोता है और क्यों अपमान सहता है ? इससे तुझे क्या लाभ होगा ? मेरी बात माने तो तू इच्छा को त्याग दे, किसी भी चीज़ की इच्छा मत रख; तब तुझे शान्ति मिलेगी - परमानन्द की प्राप्ति होगी । जब तू चिंतामणि की भाँती स्वच्छ हो जायेगा, जब तू अपने स्वरुप को पहचान जायेगा, तब तुझे आत्मसाक्षात्कार हो जायेगा, तुझे ब्रह्मज्ञान हो जायेगा, तू ब्रह्म के प्रेम में लीन हो जायेगा, हर्ष-विषाद और शोक-मोह तेरे पास न आएंगे, अष्ट सिद्धि और नव निधि तेरे सामने हाथ बांधे खड़ी रहेंगी । उस समय तेरी कोई अभिलाषा पूरी हुए बिना बाकी न रहेगी । इसीलिए कहता हूँ, कि तू दूसरों को राज़ी करने की अपेक्षा अपने तई ही राज़ी कर, इससे तुझे निश्चय ही उसकी प्राप्ति होगी, जिसके समान त्रिलोकी में और कोई नहीं है । जिस समय उसकी अनुपम छवि तेरी आँखों में समा जाएगी, उस समय तुझे और कुछ अच्छा न लगेगा;केवल वही अच्छा लगेगा । महाकवि रहीम ने कहा है -
प्रीतम-छवि नैनन बसी, पर-छवि कहाँ समाये।
भरी सराय "रहीम" लखि, आप पथिक फिर जाए।।

जब आँखों में प्यारे कृष्ण की सुन्दर मनमोहिनी छवि समा जाती है, तब उसमें और किसी की छवि नहीं समा सकती । जब तक नयनों में मुरली मनोहर की छवि नहीं समाती, नयन उसकी छवि से खाली रहते हैं, तभी तक मामूली छवि उनमें समाती रहती है । जिस तरह सराय को भरी हुई देखकर, उसमें कोठरियां खाली न पाकर, मुसाफिर लौट जाते हैं; उसी तरह नयनों में मनमोहन की बांकी छवि देखकर और संसारी मिथ्या खूबसूरतियाँ नयनों के पास भी नहीं फटकती । जब दिल में परम प्यारे कृष्ण का डेरा लग जाता है, तब उसमें सुन्दर कामिनियों और लक्ष्मी  प्रभृति किसी को भी स्थान नहीं मिलता; अर्थात दिल को उसके मुकाबले में संसार के अच्छे से अच्छे पदार्थ - स्त्री-पुरुष और धन-दौलत प्रभृति- तुच्छातितुच्छ जंचते हैं ।

दोहा:

तू ही रीझत क्यों नहीं, कहा रिझावत और?
तेरे ही आनन्द से, चिंतामणि सब ठौर ।।





भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं
मौने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया: भयम् ।
शास्त्रे वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं
सर्वं वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्।। ३५ ।।

अर्थ:
विषयों के भोगने में रोगों का डर है, कुल में दोष होने का डर है, धन में राज का भय है, चुप रहने में दीनता का भय है, बल में शत्रुओं का भय है, सौंदर्य में बुढ़ापे का भय है, शास्त्रों में विपक्षियों के वाद का भय है, गुणों में दुष्टों का भय है, शरीर में मौत का भय है; संसार की सभी चीज़ों में मनुष्यों को भय है। केवल "वैराग्य" में किसी प्रकार का भय नहीं है ।

यों तो संसार में ज़रा भी सुख नहीं - सर्वत्र भय ही भय है; पर दुष्ट और नीचों का भय सबसे भारी है । दुष्टों से तंग होकर ही महाकवि ग़ालिब आदमियों की बस्ती में बसना भी पसंद नहीं करते और कहते हैं -
रहिये अब ऐसी जगह चलकर, जहाँ कोई न हो।
हमसखुन कोई न हो और हमज़बाँ कोई न हो।।
बे दरो-दीवार सा, इक घर बनाना चाहिए।
कोई हंसाया न हो और पासबाँ कोई न हो।।
पड़िये गर बीमार तो कोई न हो तीमारदार।
और अगर मर जाइये, तो नोहाखां कोई न हो।।

संसार में ज़रा भी सुख नहीं है, सर्वत्र भय ही भय है । एक को एक खाने को दौड़ता है । जिसे देखो वही जला मरता है । यहाँ ईर्ष्या द्वेष का बाजार जोरों से गर्म रहता है, इस वास्ते ऐसी जगह चलकर रहना चाहिए, जहाँ कोई न हो; हमारी बात कोई न समझे और हम किसी की न समझें । मकान भी ऐसा ही हो, जिसमें दरवाजे और दीवार न हो; अर्थात साफ़, जंगल हो। न हमारा कोई साथी हो, न पडोसी; अगर बीमार हो जाएं, तो कोई खबर लेनेवाला तीमारदारी और सेवा-शुश्रूषा करनेवाला न हो। अगर सौभाग्य से मर जाएं, तो कोई शोक करनेवाला भी न हो ।

हमसखुन= हम जैसा कलाम कहने वाला
पासबाँ = साथ रहनेवाला 
नोहाखां = शोक करने वाला, रोने वाला

महात्मा सुन्दरदास ने भी कहा है-
सर्प डसै, सु नहिं कछु तालक;
बीछु लगै, सु भलो करि मानौ।
सिंह हु खाय, तु नाहिं कछु डर ;
जो गज मारत, तौ नहिं हानौ।
आगि जरौ, जल बूढ़ि मरौ, गिरि
जाइ गिरौ; कछु भै मत मानो।
"सुन्दर" और भले सब ही यह;
दुर्जन संग भले जिन जानौ।।

सुन्दरदास जी कहते हैं, अगर आपको सांप डसे, बिच्छू काटे और हाथी मारे तो कुछ हज मत समझो । आग में जलने और जल में डूबने और पहाड़ से गिरने में भी कोई हानि न समझो, ये सब भले हैं - इनसे हानि नहीं; हानि और खतरा है दुष्ट की सङ्गति में, इसलिए दुर्जन की सुहबत मत करो । उसकी सङ्गति अच्छी नहीं; पर आजकल दुष्टों की बहुतायत है; कदम कदम पर दुर्जनो के दर्शन होते हैं । इसलिए संसार से दुखित और उदासीन मनुष्य के लिए वन में जाकर रहने में ही शान्ति है । इन पंक्तियों के लेखक को भी, जो अनेक बार ऐसा ही चाहने लगता है, इस संसार से दिल लगाना - इसमें रहना अच्छा नहीं मालूम होता; पर बकौल उस्ताद ज़ौक़, कुछ मजबूरी ऐसी आ पड़ती है, कि सरता नहीं । आपने फ़रमाया है -
बेहतर तो है यही, कि न दुनिया से दिल लगे।
पर क्या करें, जो काम न बे-दिल्लगी चले।।

संसार से दिल लगाना अच्छा नहीं; पर क्या करें, बिना दिल लगाए चलता भी तो नहीं ।

सारांश यह है कि, यदि सच्ची सुख शान्ति चाहते हो; तो स्त्री-पुत्र, धन-दौलत और ज़मीन जायदाद की ममता छोड़कर वैराग्य लेलो; यानी इन सबको छोड़कर वन में जा बसो और एकमात्र परमात्मा में मन लगाओ । संसार को त्यागने के सिवा, सुख की और राह नहीं । हमने अनेक बार  संसार त्यागने का इरादा किया, पर हमारे अज्ञानी मन ने हमें बारम्बार ऐसा करने से रोका । हम मन की बातों को विचार के कांटे पर तोलते रहे । अब हम इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि मन की सलाह ठीक नहीं । हमारा गन्दा मन हमें शैतान की तरह गुमराह कर रहा है । जिस सुख की खोज में ५१ वर्ष यों ही गवां दिए, उस सुख का लेश भी हमें न मिला । 


अमीषां प्राणानां तुलितबिसिनीपत्रपयसां
कृते किं नास्माभिर्विगलितविवेकैर्व्यवसितम्।
यदाढ्यानामग्रे द्रविणमदनिःसंज्ञमनसां
कृतं वीतव्रीडैर्निजगुणकथापातकमपि।। ३६ ।।

अर्थ:
कमल-पत्र पर जल की बूंदों के समान चञ्चल प्राणो के लिए; हमने बुरे और भले का विचार न करके, क्या क्या काम नहीं किये? हम धन-मद से मतवाले लोगों के सामने निर्लज्ज होकर अपने गुणों के कीर्तन करने का पाप तक किया है ।

कहने वाला कहता है कि इस जीवन के लिए, जो नितान्त क्षणभंगुर है, जिसकी स्थिरता कुछ भी नहीं है, मैंने कोई उपाय, कोई उद्यम उठा न रखा । और तो और, इस क्षुद्र जीवन के लिए, अपनी तारीफ करने का महापातक भी मैंने किया; और वह भी ऐसे लोगों के सामने, जो धन के मद से मतवाले हो रहे थे और किसी की ओर आँख उठा कर भी न देखते थे । हाय ! ये सब अकर्म करने पर भी मेरा मनोरथ सिद्ध न हुआ ।
संसार में अपने गुणों का आप बखान करना - बड़ा भारी पाप समझा जाता है । आत्मश्लाघा या आत्मप्रशंसा वास्तव में बहुत ही बुरी है । जिसने आत्मश्लाघा की, उसने कौन सा पाप नहीं किया ? इसी से कोई भी बुद्धिमान ऐसा नहीं करता; परन्तु जरूरत इस पाप को भी करा लेती है । जब किसी तरह कोई काम नहीं होता, कोई और तारीफ करने वाला नहीं मिलता; तब मनुष्य, क्षणस्थायी जीवन के लिए, इस निंद्य-कर्म को भी करता है ।

जीवन क्षणभंगुर है 
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यह प्राण उसी तरह चञ्चल हैं, जिस तरह कमल के पत्ते पर पानी की बूँद । यह जीवन बादल की छाया, बिजली की चमक और पानी के बुलबुले की तरह है । जीवन की चञ्चलता पर महात्मा कबीर कहते हैं -
पानी केरा बुदबुदा, अस मानुस की जात।
देखता ही छिप जायेगा, ज्यों तारा परभात।।
"कबिरा" पानी हौज़ का, देखत गया बिलाय।
ऐसे जियरा जाएगा, दिन दश ढीली लाय।।

मनुष्य पानी के बुलबुले की तरह है । जिस तरह पानी का बुलबुला उठता और क्षणभर में नष्ट हो जाता है । यह मनुष्य उसी तरह अदृश्य हो जाएगा, जिस तरह सवेरे का तारा देखते देखते गायब हो जाता है।
कबीरदास कहते हैं; जिस तरह देखते देखते हौज़ का पानी, मोरी की राह से निकल कर, बिलाय जाता है; उसी तरह यह जीवात्मा देह से निकल जाएगा; दस पांच दिन की देर समझिये ।
महात्मा शंकराचार्य जी ने भी कहा है -
नलिनीदलगत जलमतितरलम् ।
तद्वज्जीवनमतिशय चपलम् ।।

यह जीवन कमल-पत्र पर पड़े हुए जल की तरह चञ्चल है ।
ऐसे चञ्चल जीवन के लिए अज्ञानी मनुष्य नीच से नीच कर्म करने से संकोच नहीं करता - यह बड़ी ही लज्जा की बात है । अगर मनुष्य को हज़ारों-लाखों वर्ष की उम्र मिलती या सभी काकभुशुण्ड होते; तो मनुष्य न जाने क्या क्या पाप कर्म न करता? बड़े ही नीच हैं, जो इस चंदरूज़ा ज़िन्दगी के लिए, तरह-तरह के पापों की गठरी बाँध कर, अपना लोक-परलोक बिगाड़ते हैं। मनुष्यों ! आँखें खोल कर देखो और कान देकर सुनो ! मिटटी और पत्थर अथवा लकड़ी वगैरह की बनी चीजों की कुछ उम्र है; पर तुम्हारी उम्र कुछ भी नहीं । अतः इस क्षणस्थायी जीवन में पाप-कर्म न करो।

कुण्डलिया
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जैसे पंकजपत्र पर, जल चञ्चल ढरि जात ।
त्योंही चञ्चल प्राणहू, तजि जैहें निज गात ।।
तजि जैहें निज गात, बात यह नीके जानत ।
तोहू छाँड़ि विवेक, नृपन की सेवा ठानत ।।
निज गुन करत बखान, निलजता उघरी ऐसे ।
भूल गयो सतज्ञान, मूढ़ अज्ञानी ऐसे ।।



भ्रातः कष्टमहो महान्स नृपतिः सामन्तचक्रं च 
तत्पाश्र्वे तस्य च साऽपि राजपरिषत्ताश्चन्द्रबिम्बाननाः। 
उद्रिक्तः स च राजपुत्रनिवहस्ते बन्दिनस्ताः कथाः 
सर्वं यस्य वशादगात्स्मृतिपदं कालाय तस्मै नमः।। ३७ ।।

अर्थ:
ऐ भाई ! कैसे कष्ट की बात है ! पहले यहाँ कैसा राजा राज करता था, उसकी सेना कैसी थी, उसके राजपुत्रों का समूह कैसा था, उसकी राजसभा कैसी थी, उसके यहाँ कैसी कैसी चन्द्रानना स्त्रियां थीं, कैसे अच्छे अच्छे चारण-भाट और कहानी कहने वाले उसके यहाँ थे ! वे सब जिस काल के वश हो गए, जो काल ऐसा बली है, जिसने उन सब को स्वप्नवत कर दिया, मैं उस बली काल को ही नमस्कार करता हूँ । 
महात्मा कबीरदास कहते हैं -
सातों शब्दज बाजते, घर-घर होते राग।
ते मन्दिर खाली परे, बैठन लागे काग।।
परदा रहती पदमिनी, करती कुल की कान।
छड़ी जु पहुंची काल की, डेरा हुआ मैदान।।

जिन मकानों में पहले तरह-तरह के बाजे बजते और गाने गाये जाते थे, वे आज खाली पड़े हैं । अब उन पर कव्वे बैठते हैं । 
जो पद्मिनी पहले परदे में रहती थी, उसी का आज, काल के आने से मैदान में डेरा हो गया है; यानी सबके सामने मरघट में पड़ी है । 
निश्चय ही संसार अनित्य और नाशमान है । इस जगत की कोई भी चीज़ सदा न रहेगी । एक दिन अपनी अपनी बारी आने से सभी का नाश होगा । 

इसी विषय में महाकवि दाग़ कहते हैं -
है ज़वाल आमदा अजज़ा, आफ़रीनश के तमाम।
महार गर्दू है, चिरागे रेहगुज़ारे बाद यां।।

संसार के सभी पदार्थ अनित्य हैं, सभी नाशमान हैं । जिसे सूर्य कहते हैं, वह भी एक ऐसा चिराग - दीपक है, जो हवा के सामने रक्खा हुआ है और "अब बुझा-अब बुझा" हो रहा है; तब औरो की तो बात ही क्या? इस संसार की यही दशा है।

ये अनन्त जलराशिपूर्ण महासागर और सुमेरु तथा हिमालय प्रभृति पर्वत भी एक दिन काल के कराल-गाल में समां जायेंगे । देवता, सिद्ध , गन्धर्व, पृथ्वी, जल और पवन, इन सबको भी काल खा जायेगा । याम, कुबेर, वरुण और इन्द्रादिक महातेजस्वी देव भी एक दिन गिर पड़ेंगे । स्थिर ध्रुव भी अस्थिर हो जायेगा । अमृतमय चन्द्रमा और महाप्रकाशमान सूर्य, ये दोनों भी नष्ट हो जाएंगे । जगत के अधिष्ठाता ईश्वर, परमेष्टि ब्रह्मा और महाभैरव रूप इन्द्र का भी अभाव हो जाएगा; तब संसार के साधारण प्राणियों की कौन गिनती है ? एक दिन इस जगत का ही अस्तित्व नहीं रहेगा, तब और किस की आस्था की जाए ? यह जगत ही भ्रममात्र है । इसमें अज्ञानी को ही आस्था होती है । वही भोगों को सुखरूप समझकर उनकी तृष्णा करता और अपने तई बन्धन में फंसाता है । ज्ञानी पुरुष इस संसार को मिथ्या और सार-हीन तथा नाशमान समझता है । वह तो केवल ब्रह्म को नित्य और अविनाशी समझकर उसमें मग्न रहता है ।

दोहा
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नृपति सैन जम्मति सचिव, सुत कलत्र परिवार।
करात सबन को स्वप्न सम, नमो काल करतार।।


वयं येभ्यो जाताश्चिरपरिगता एव खलुते
समं यैः संवृद्धाः स्मृतिविषयतां तेऽपि गमिताः।
इदानीमेते स्मः प्रतिदिवसमासन्नपतना-
ग्दतास्तुल्यावस्थां सिकतिलनदीतीरतरुभिः।। ३८ ।।

अर्थ:
जिनसे हमने जन्म लिया था, उन्हें इस दुनिया से गए बहुत दिन हो गए; जिनके साथ हम बड़े हुए थे, वे भी इस दुनिया को छोड़कर चले गए । अब हमारी दशा भी रेतीले नदी-किनारे के वृक्षों की सी हो रही है, जो दिन दिन जड़ छोड़ते हुए गिराऊ होते चले जाते हैं ।

जिनसे हम पैदा हुए थे, उन्हें इस दुनिया से गए ज़माना गुज़र गया और जिन लोगों के साथ हम जन्मे थे अथवा जो लोग हमारे समवयस्क थे, वे भी चल बसे; जिन लोगों के साथ हम पले, जिनके साथ हम खेले-कूदे, जिनके साथ हमने कारोबार किया, वे सब भी काल के गाल में समा गए । अब हमारा नम्बर भी आया ही समझिये - अब हम भी चलने ही वाले हैं । दिन-दिन हमारा शरीर क्षीण हुआ जाता है । हमारी दशा अब नदी तट के बालू में लगे हुए वृक्षों की सी है, जिनके गिरने की सम्भावना हर घडी रहती है । हमारी ऐसी हालत है, फिर भी आश्चर्य है, कि हमारा माय-मोह नहीं छूटता ! अब भी हमारा मन नहीं समझता और वह संसारी जञ्जालों से अलग नहीं होना चाहता ! महात्मा कबीर भी यही कहते हैं । उनकी भी सुन लीजिये -
बारी बारी आपनी, चले पियारे मिंत।
तेरी बारी जीवरा, नियरे आवे निंत।।
माली आवत देखिकै, कलियाँ करि पुकार।
फूली फूली चुनि लईं, कल्ह हमारी बार।।
साथी हमरे चलि गए, हम भी चालनहार।
कागद में बाकी रही, तातें लागी बार।।

बारी बारी से सभी प्यारे और मित्र चल बसे। अरे जीव ! अब तेरा नम्बर भी नित्य निकट आता जाता है । माली को आते देख कर, कलियों ने कहा - फूली फूली तो आज चुन ली गयी, कल हमारी भी बारी है । हमारे साथी चले गए अब हम भी चलने वाले हैं । कागज़ में, यानी खाते में कुछ साँस बाकी रह गयी हैं, इससे देर हो रही है; यानी अपनी शेष साँसों को पूरा करने के लिए हम ठहरे हुए हैं । 
संसार का यही हाल है, रोज़ ही यह तमाशा देखते हैं; पर फिर भी हमें होश नहीं होता ! 

छप्पय
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जो जन्में हम संग, उतौ सब स्वर्ग सिधारे ।
जो खेले हम संग, काल तिनहुँ कहँ मारे ।
हमहूँ जरजर देह, निकट ही दीसत मरिबो ।
जैसे सरिता-तीर-वृक्ष को, तुच्छ उखरिबो ।
अजहुँ नहिं छाँड़त मोह मन, उमग उमग उरझो रहत ।
ऐसे अचेत के संग सों, न्याय जगत को दुख सहत ।।


यत्रानेके क्वचिदपि गृहे तत्र तिष्ठत्यथैको
यत्राप्येकस्तदनु बहवस्तत्र चान्ते न चैकः।।
इत्थं चेमौ रजनिदिवसौ दोलयन्द्वाविवाक्षौ
कालः काल्या सह बहुकलः क्रीडति प्राणिशारैः।। ३९ ।।

अर्थ:
जिस घर में पहले अनेक लोग थे, उसमें अब एक ही रह गया है। जिस घर में एक था, उसमें अनेक हो गए, पर अन्त में एक भी न रहा । इससे मालूम होता है कि काल देवता, अपनी पत्नी काली के साथ, संसार रुपी चौपड़ में, दिन-रात रुपी पासों को लुढ़का लुढ़का कर और इस जगत के प्राणियों की गोटी बना बनाकर, खेल रहा है।

जिस घर में पहले पुत्र, पौत्र, पुत्र-वधु, पौत्र-वधु, पुत्री, दोहिते और दोहिती प्रभृति अनेक लोग थे, आज वह सूना सा हो गया है, उसमें आज एक ही आदमी नज़र आता है। जिस घर में पहले एक आदमी था, उसका कुटुम्ब इतना बढ़ा कि सैकड़ों हो गए; पर आज देखते हैं कि उसमें एक भी नहीं है । घर का ताला लगा है, भीतर लम्बी लम्बी घास उग आयी है, दीवारे गिर रही हैं, छतें चू रही हैं और ईंटे दांत दिखा रही हैं । अब स घर में चमगीदड, उल्लू, सांप और बिच्छू प्रभृति रहते हैं । 
महात्मा कबीर कहते हैं -
ऊँचा महल चिनाईया, सुबरन कली बुलाय ।
ते मन्दिर खाली परे, रहे मसाना जाय।
मलमल खासा पहरते, खाते नागर पान।
टेढ़े होकर चालते, करते बहुत गुमान।
महलन मांहि पौढ़ते, परिमल अंग लगाय।
ते सपने दीसे नहीं, देखत गए बिलाय।।

जिन्होंने ऊँचे ऊँचे महल चिनवाए थे और उनमें सुनहरी काम करवाए थे, वे आज शमशान में चले गए हैं और उनके बनवाये हुए महल सूने पड़े हैं । जो मलमल और खासा पहनते थे, नागर-पान चबाते थे, अकड़-अकड़ कर टेढ़े-टेढ़े चलते थे, अभिमान के नशे में चूर हुए जाते थे और बदन में इत्र, फुलेल और सेन्ट(scent )प्रभृति लगाकर महलों में सोते थे, वे स्वप्न में भी नहीं दीखते । देखते-देखते न जाने कहाँ गायब हो गए ।

छप्पय 
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बहुत रहत जिहिं धाम, तहँ एकहि को राखत।
एक रहत जिहिं ठौर, तहँ बहुतहि अभिलाषत।
फेर एकहू नाहि, करी तहँ राज दुराजी।
काली के संग काल, रची चौपड़ कि बाजी।
दिनरात उभय पास लिए, इहि विधिसौँ क्रीड़ा करत।
सब प्राणी सोबत सार ज्यों, मिलत चलत बिछुरत मरत।।



तपस्यन्तः सन्तः किमधिनिवसामः सुरनदीं
गुणोदारान्दारानुत परिचयामः सविनयम्।
पिबामः शास्त्रौघानुतविविधकाव्यामृतरसा 
न्न विद्मः किं कुर्मः कतिपयनिमेषायुषि जने।। ४० ।।

अर्थ:
हमारी समझ में नहीं आता, कि हम इस अल्प जीवन - इस छोटी सी ज़िन्दगी में क्या क्या करें अर्थात हम गंगा तट पर बस कर तप करें अथवा गुणवती स्त्रियों की प्रेम-सहित यथायोग्य सेवा करें अथवा वेदान्त शास्त्र का अमृत पिएं या काव्यरस-पान करें ।

कहने वाला कहता है और ठीक कहता है - यह जीवन क्षण भर का है । इस चन्दरोजा ज़िन्दगी में हम क्या क्या करें ? काम तो अनेक हैं, पर समय थोड़ा है । गंगा तट पर जाकर शिव-शिव की रट लगाना भी अच्छा है; गुणवती सुंदरियों के साथ मीठी-मीठी बातें बनाना, उनके संग रहना और उनके साथ रमण करना भी भला है । वेदान्त शास्त्र के मर्म को समझना और उसका अमृत रस पीना या काव्य-रस पीना भी अच्छा है । अच्छे सब हैं और सभी करने योग्य हैं; पर हमारी समझ में नहीं आता, कि क्षणभर कि ज़िन्दगी में हम क्या-क्या करें ? मतलब यह है, कि मनुष्य जीवन बहुत ही थोड़ा है । इसलिए मनुष्य को जब तक दम रहे, सब तज कर एकमात्र परमात्मा का भजन करना चाहिए । कबीरदास जी कहते हैं -
यह तन कांचा कुम्भ है, मांहि किया रहबास।
"कबिरा" नैन निहारिया, नहीं पलक की आस।।
"कबिरा" जो दिन आज है, सो दिन नाहिं काल।
चेत सके तो चेतिये, मीच परी है ख्याल।।
"कबिरा" सुपने रैन के, उघरि आये नैन।
जीव परा बहु लूट में, जागूँ तो लेन न देन।।
आजकाल की पांच दिन, जंगल होयेगा बास।
ऊपर-ऊपर हिल फिरे, ढोर चरेंगे घास।।

तुलसीदास जी कहते हैं -
"तुलसी" जग में आईके, कर लीजे दो काम।
देवेको टुकड़ा भलो, लेवेको हरिनाम।।
"तुलसी" राम-सनेह करु, त्यागु सकल उपचार।
जैसे घटत न अंक नौ, नौ के लिखत पहार।।
जग ते रहु छत्तीस ह्वै, राम-चरन छत्तीन।
"तुलसी" देखु विचारि हिय, है यह मतौ प्रवीन।।

यह शरीर मिटटी के कच्चे घड़े जैसा है। इसी के अंदर जीवात्मा रहता है । कबीरदास जी कहते हैं, आखों से देखा है, एक क्षण की भी आशा नहीं । खुलासा यह, कि जिस शरीर में जीवात्मा रहता है, वह कच्चे घड़े के समान क्षण-भंगुर है । जिस तरह कच्चे घड़े को फूटते देर नहीं; उसी तरह इस कच्चे घड़े जैसे शरीर को नाश होते देर नहीं । कौन जाने किस क्षण यह शरीर रुपी कच्चा घड़ा फुट जाय और इसमें से जीवात्मा निकल जाय ? इसकी आशा उतनी देर की भी नहीं, जितनी देर पलक झपकने में लगती है ।

कबीरदास जी कहते हैं, जो दिन आज है, वह कल न होगा। जीव ! चेत सके तो चेत । मौत सर पर सवार है ।
जो अज्ञानी बरसों का प्रबन्ध करते हैं, बरसों जीने की आशा करते हैं, वे इस वचन से शिक्षा ग्रहण करें । कबीरदास बरसों छोड़ - दो-चार दिन भी जीवन रहने की आशा नहीं करते । वे कहते हैं, आज हो, कल रहो या न रहो । आज तुम हंस-खेल रहे हो, आज तुम्हारा शरीर आरोग्य है; आश्चर्य नहीं, कल तुम बीमार हो कर मरण-शय्या पड़े हो अथवा मर ही जाओ । इसलिए चेत करो, होश सम्भालो और आगे की सफर का बदोबस्त करो । अगर संसार के जंजाल में फंसे हुए, जीवन की लम्बी आशा रखे हुए, शीघ्र ही, आज ही, अभी, इसी क्षण से अगली यात्रा का प्रबन्ध न करोगे; वहां मिलने के लिए - यहाँ के ईश्वरीय बैंक द्वारा - रूपए-पैसे, धन-दौलत, गाडी-घोड़े, महल-मकान और बाग़-बगीचों का बंदोबस्त न करोगे - इस दुनिया में पराया दुःख दूर न करोगे और मालिक का नाम न जपोगे; तो तुम्हें उस लम्बे सफर में बड़ी-बड़ी तकलीफो का सामना करना पड़ेगा। यहाँ बोओगे, तो वहां काटोगे । यहाँ अच्छा करोगे, तो वहां अच्छा पाओगे। यहाँ गरीब और मुहताजों को दोगे, तो वहां आपको मिलेगा ।
कबीरदास कहते हैं, यह जीवन सुपने के समान है । रात को सुपने में देखा कि जीव लूट में पड़ा है, तरह तरह के ऐश आराम कर रहा है, सुख भोग रहा है; लेकिन ज्योंही आँख खुली तो क्या देखता हूँ, कि कुछ भी नहीं है । जिस तरह सुपने में आदमी दिल को फरहत देने वाले बाग़-बगीचों की सैर करता है, माशूका के गले में हाथ डाले घूमता है, उससे सम्भोग करता है; अथवा राजा होता है, हुकूमत करता है, चन्द्रबदनियों का नाच-गान देखता है और मन ही मन बड़ा खुश होता है; पर ज्योंही आँख खुलती है, तो न बाग़-बगीचे दीखते है और न माशूका और राज-पाट। बस, ठीक यही हाल जाग्रत अवस्था का है । जिस तरह रात के सुपने को मिथ्या समझते हो, उसी तरह दिन के दृश्यों को भी मिथ्या समझो । वह सपना सोई हुई हालत में दीखता है और यह जागते हुए । देखते हैं, आज एक आदमी राजा है, हज़ारों तरह के भोग, भोग रहा है; पर कल ही वह राह का भिखारी बन जाता है । आज किसी के घर में सुन्दर पतिव्रता नारी है, आज्ञाकारी पुत्र-पौत्र, सुशीला पुत्र-वधुएं और कन्याएं हैं, सैकड़ों दास-दासी हैं, द्वार पर हाथी झूमता है, मोटर हर समय दरवाजे पर खड़ी रहती है; चंद रोज़ बार देखते हैं, कि वह आदमी गुदड़ी ओढ़े हुए सड़क पर भीख मांग रहा है । पूछते हैं, क्यों जी, तुम्हारा यह क्या हाल ? तुम्हारे कुटुम्बी और धन-दौलत का क्या हुआ? जवाब देता है - भाई ! प्लेग में सारे घर के लोग मर गए । कोई पानी देने वाला और नाम लेने वाला भी न रहा । धन-दौलत में से कुछ को चोर और शेष को डाकू, डाका डाल कर ले गए । जब खाने का भी ठिकाना न रहा, तब प्राणरक्षार्थ भीख माँगना आरम्भ किया है । कहिये, ऐसे जीवन और सुख भोगों को सुपने की माया न कहें तो क्या कहें ?
अभी कल की ही बात है, हमारी एक आँखों की पुतली के समान प्यारी पुत्री हमें छोड़कर चली गयी । वह ऐसी रूपवती थी, कि हम उसे देखकर कहा करते थे - विधाता ने खूब फुर्सत में गढ़ी है । उसके देखने से हमारी शोक सन्तप्तआत्मा को शांति मिलती थी । घोर शोक में गर्क होने पर भी उसे देखकर हम खिल पड़ते थे । हमारे दिनभर के रंजो-गम काफूर हो जाते थे । उसके दर्शनों से हमारे ह्रदय में सुख होता था, इसी से हम उसे 'दिलाराम' भी कहा करते थे । नाम उसका दिलाराम नहीं 'सूर्यकान्ता' था । जब हम घर में बैठे प्रूफ देखा करते थे, वह भोली सूरत घुटुअन चलकर हमारे पास आ जाती । कभी हमारी दवात उलट देती, कभी कलम उठा लेती और कभी प्रूफ के कागज़ों को मुँह में भर लेती । जब हम आनंद में मग्न हो जाते, कलम पटक कर उसे उठा लेते । उसको चूमते, प्यार करते और ह्रदय को शीतल करते थे । आज तीन दिन से वह नहीं है । कहीं नज़र नहीं आती । ऐसा जान पड़ता है, गोया उसे हमने सुपने में देखा था । सुपने में ही वह हमारे पास आयी थी । सुपने में ही अपने बचपन के खेलों से उसने हमें खुश किया था और सुपने में ही हमने उसे प्यार-दुलार किया था । पाठक ! आप ही विचारिये । क्या यह सब सुपना नहीं था ? क्या अब जो हमारे प्यारे हमारे साथ हैं, हमारे सामने फिरते-डोलते और काम-धंधा करते हैं, उनको भी हम सुपने की माया न समझें ? उस डेढ़ साल की बच्ची की तरह ही, हम भी सबको छोड़कर यमसदन के रही न होंगे ? हमारे पीछे जो रह जाएंगे, उन्हें हम सुपने में मिले हुए के समान न दिखेंगे? यद्यपि हमने अभी तक घर-गृहस्थी नहीं त्यागी है । अभी हम संसारी जंजालों में फंसे हुए हैं; तो भी हम अपने प्यारे से प्यारे के मरनेपर भी आँखों से आंसू नहीं डालते । बहुत लोग हमारे इस हाल को देखकर अचम्भा करते हैं । कोई कुछ और कोई कुछ कहता है । पर हमारे न रोने-कूकने का कारण यह है, कि हमने इस संसार में ऐसे ऐसे बहुत से दुःख देखे हैं । हम कई प्राण प्यारों की वियोगग्नि में जले हैं । इसी से अब हम समझ गए हैं कि यह सब सुपना है । एक न एक दिन हम भी सबको छोड़कर चल देंगे अथवा और सब जो हमारी आँखों के सामने मौजूद है - हमारे देखते देखते, सुपने में देखे हुओं की तरह, गायब हो जाएंगे।
कबीरदास कहते हैं - अरे भाई ! आज अथवा कल अथवा पांच दिन बाद तुम्हारा बसेरा जंगल में होगा । तुम्हारे ऊपर हल चलेंगे अथवा तुम्हारे ऊपर उगी हुई घास को गाय-भैंस आदि पशु चरेंगे । खुलासा यह है, कि तुम कदाचित आज ही मर जाओ; आज बच गए तो कल खैर नहीं । अगर सांस पूरे न हुए होंगे - चित्रगुप्त के खाते में तुम्हारे कुछ सांस बाकी होंगे, तो उनके पूरे होने पर पांच या दस दिन बाद तुम अवश्य मरोगे । तुम इस शरीर में सदा न रहोगे । तुम्हारे देह छोड़ते ही, लोग तुमसे घृणा करेंगे । ख़ास तुम्हारी हृदयेश्वरी ही तुम्हारी सूरत देखकर डरेगी । तुम्हारे बदन पर अगर एक चांदी का छल्ला भी होगा, तो उसे उतार लेगी । लोग तुम्हें लेजाकर जला या गाड़ आवेंगे । जिस जगह तुम जलाये या दफनाए जाओगे - जहाँ तुम्हारे शरीर की ख़ाक पड़ी होगी, उसी जगह किसान हल चलावेंगे । यदि तुम्हारी मिटटी पर घास उग आएगी, तो ढोर चौपे उसे चरेंगे । अतः होशियार हो जाओ ! गफलत की नींद त्यागो और अपनी अवश्यम्भावी यात्रा का प्रबन्ध करो, जिससे राह में तुम्हें किसी वास्तु का अभाव और किसी तरह की तकलीफ न हो ।
इस दुनिया में काम बहुत है और उम्र का यह हाल है, कि पलक मारने भर का भरोसा नहीं । इस क्षण-भर की ज़िन्दगी में कौन सा काम करना चाहिए, जिससे की आगे की यात्रा में सुख ही सुख मिले ? यही सवाल ऊपर उठाया गया है । इस सवाल को ईश्वर तक पहुंचे हुए, इसवहार के सच्चे और प्रथम श्रेणी के भक्तवर गोस्वामी तुलसीदास जी ने बहुत ही खूबसूरती से हल कर दिया है । उन्होंने मनुष्य के लिए दो ही काम चुन दिए हैं - "देवे को टुकड़ा भला, लेवे को हरनाम"। उनकी इन दो बातों पर जो अमल करेंगे, निश्चय ही उनको सुख ही सुख है । उन्हें नारको की भीषण यातनाएं न सहनी होंगी। वे स्वर्ग में नाना प्रकार के सुख भोगेंगे और अमृतपान करेंगे, कल्पतरु उनकी इच्छाओं को पूरी करेगा । अगर वे पराया भला करके, दुखियों के दुःख दूर करके, बदला या मुआवजा पाने की इच्छा न करेंगे; निष्काम कर्म करेंगे और और कृष्ण के प्रेम में गर्क हो जाएंगे, उसके सिवा किसी भी संसारी पदार्थ को न चाहेंगे; तो उन्हें वह चीज़ मिलेगी, जो हज़ारों लाखों स्वर्गों से भी बढ़-चढ़कर होगी; फिर उन्हें दुःख का नाम भी न सुनना पड़ेगा । यही बात महात्मा तुलसीदास जी ने अपने दोहों में कही है; उन्हें खाली पढ़िए ही नहीं, उन पर गौर भी कीजिये। बिचारने से उनकी बातें आपके दुःख और क्लेश नाश करने वाली महाऔषधियां जान पड़ेंगी । अगर आप उनकी बताई हुई दवा पिएंगे, तो आप अजर-अमर हो जाएंगे ।
तुलसीदास जी कहते हैं - संसार में आकर दो काम कर लो १)  भूखों को भोजन दो और २) भगवान् का नाम लो ।
तुलसीदास जी कहते हैं - कर्म, ज्ञान और उपासना प्रभृति उपचारों को त्याग कर भगवान् की भक्ति करो; क्योंकि भक्ति से विषयी लोगों को भी मुक्ति मिल सकती है; किन्तु कर्म, ज्ञान और उपासना से नहीं । जैसे नौ(९) का पहाड़ा लिखने से नौ का अंक नहीं मिटता, वैसे ही कर्म, ज्ञान आदि से वासना नहीं मिटती और जब तक वासना बनी रहती है तब तक मुक्ति नहीं हो सकती । वासना ही तो जन्म मरण की जड़ है, वासना से ही जन्म लेना पड़ता है; वासना मिटी और मुक्ति हुई; पर विषयी लोगों की वासना नहीं मिटती । जी तरह नौ का पहाड़ा लिखने से नौ का अंक बना ही रहता है; उसी तरह उनके कर्म, ज्ञान और उपासना आदि उपचार करने पर भी वासना बनी ही रहती है ।
इस दोहे कर अर्थ हमने साधारणतया समझा दिया है । अगर हम और भी खुलासा समझावे तो ३।४ पेज खर्च होंगे । मतलब यह, मुक्ति-लाभ करने के लिए "भक्ति" सीधा और सरल उपाय है । नारद, वाल्मीकि और शबरी प्रभृति, भक्ति के प्रभाव से ही ऊँचे चढ़े हैं  - कर्म, ज्ञान और उपासना आदि से नहीं ।
जगत से ३६ की तरह और भगवान् के चरणों में - छह, तीन या तिरसठ की तरह रहो । तुलसीदास जी कहते हैं, मन में विचार करके देख लो, यह मत अत्युत्तम है । 
६ जगत है और ३ मनुष्य है । ३६ के अंक में ३ ने ६ को पीठ दे रखी है । बस, इसी तरह तुम इस जगत को पीठ देकर रहो; यानी संसार की ओर मत देखो, संसार में ममता मत रखो । दूसरी ओर भगवान् के पक्ष में ६३ की तरह रहो । इसमें ६ भगवान् की शरण है और ३ मनुष्य है । जिस तरह ३ का अंक ६ की ओर टकटकी लगाए देखता रहा है उसी तरह मनुष्य को हरदम जगदीश की शरण में टकटकी लगाए हुए रहना चाहिए । 

दोहा
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तप तीरथ तरुणी-रमण, विद्या बहुत प्रसंग ।
कहा-कहा मन रूचि करै, पायौ तन क्षणभंग ।।



गंगातीरे हिमगिरिशिलाबद्धपद्मासनस्य 
ब्रह्मध्यानाभ्यसनविधिना योगनिद्रां गतस्य।
किं तैर्भाव्यम् मम सुदिवसैर्यत्र ते निर्विशंकाः 
सम्प्राप्स्यन्ते जरठहरिणाः श्रृगकण्डूविनोदम्।। ४१ ।।

अर्थ:
अहा ! वे सुख के दिन कब आएंगे, जब हम गंगा किनारे, हिमालय की शालिओं पर, पद्मासन लगाकर, विधान-अनुसार आँख मूंदकर, ब्रह्म का ध्यान करते हुए, योग निद्रा में मग्न होंगे और बूढ़े बूढ़े हिरन निर्भय हो, हमारे शरीर की रगड़ से, अपने शरीर की खुजली मिटाते होंगे ? 
जिन पुरुषों को यह सुख प्राप्त है, वही सच्चे सुखिया हैं - उन्ही का जीवन धन्य है । 
प्रेमिक के प्रेम में तन्मय हो जाने में ही मजा है । जब पूरी तरह से ध्यान लग जाता है, तब शरीर पर पक्षी बैठे या जानवर, खुजली मिटावे या चाहे जो करे, कोई खबर नहीं रहती । ऐसे ध्यानियों को ही सिद्धि मिलती है । महाकवि दाग कहते हैं - 
कमाल इश्क़ है ए दाग, महब हो जाना।
मुझे खबर नहीं, नफा क्या ज़रर कैसा?

प्रेम में जो लोग तन्मय हो जाते हैं, उन्ही के प्रेम - प्रेम है । बिना प्रेम के प्रेम थोथा है । मैं तन्मय हूँ, इसलिए मुझे घाटे-लाभ की फ़िक्र तो क्या, खबर ही नहीं ।
कबीर कहते हैं -
प्रेम-प्रेम सब कोई कहै, प्रेम न चीन्हे कोए।
आठ पहर भीना रहे, प्रेम कहावे सोये।। 
लौ लागी जब जानिये, छूटि न कबहुँ जाए।
जीवन लौ लागी रहे, मूआ माहिं समाये।।

कबीर साहब कहते हैं - प्रेम-प्रेम सब कहते हैं, पर प्रेम को कोई नहीं जानता। जिसमें आठ पहर डूबा रहे वही प्रेम है। लौ लगी तभी समझो, जबकि लौ छूट न जाए। ज़िन्दगी भर लौ लगी रहे और मरने पर प्यार में समा जाये।

चित्त का स्वभाव है, कि वह अगली-पिछली बातों को याद करता है। इन्द्रियों का स्वभाव है, कि वे अपने अपने विषयों की ओर झुकती हैं। कान आवाज़ सुनना चाहता है। नेत्र नयी वस्तु देखना चाहते हैं; पर इस तरह ईश्वर-उपासना करने से कोई लाभ नहीं। वृथा अमूल्य समय नष्ट करना है। ईश्वर-उपासना करने वाले को, सबसे पहले अपने चित्त और इन्द्रियों को, उनके कामों से हटा कर अपने अधीन कर लेना चाहिए । बिना चित्त के एक तरफ हुए और बिना इन्द्रियों को उनके काम से रोके - ध्यान नहीं लग सकता ।
ध्यान करनेवाला न शरीर को हिलावे और न किसी तरफ देखे। अगर किसी तरफ भयानक शब्द हो या कोई जीव काटे, तोभी ध्यानी का ध्यान न टूटना चाहिए । आजकल अधिकाँश कर्मकाण्डी गोमुखी में हाथ चलाते जाते हैं और मन में अनेक गढ़न्त गढ़ते जाते हैं । कोई कुछ कहता है, तो उसकी भी सुन लेते हैं। ऐसी ईश्वरोपासना से क्या लाभ?

एक गोपी का कृष्ण में आदर्श प्रेम
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एक बार एक गोपी यशोदा के घर दीपक जलने आई। वहां कृष्ण खेल रहे थे । वह कृष्ण के प्रेम में ऐसी पगी कि उसने बत्ती के बजाय अपनी ऊँगली दीपक पर लगा दी। यहाँ तक कि उसकी साड़ी ऊँगली जल गयी, पर उसे खबर न हुई; किसी दुसरे ने उसे चेत कराया तो उसे चेत हुआ।

एक नमाज़ी मियां को कुलटा का उपदेश
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इसी तरह एक मियां जी भी जांनमाज़ बिछा कर नमाज़ पढ़ने लगे। उधर से एक व्यभिचारिणी स्त्री अपने यार के प्रेम में डूबी हुई उससे मिलने चली। वह प्रेम में ऐसी डूबी हुई थी कि वह मियां जी कि जांनमाज़ पर होकर निकल गयी। मियां जी को क्रोध आ गया; आपने उसे दो-चार गालियां सुनाई। स्त्री ने कहा - "लानत है आपके ईश्वर-प्रेम पर, जो आपने मुझे देख लिया ! प्रेम तो मेरे जैसा होना चाहिए, जो अपने यार के प्रेम में मुझे न आप दिखे और न आपकी जांनमाज़ ही ।

सच है, दिखाऊ प्रेम से कोई लाभ नहीं; प्रेम हो तो ऐसा हो कि अष्ट पहर चौंसठ घडी अपने प्रेमी का ही ध्यान रहे और उसमें मनुष्य ऐसा डूबा रहे कि तनबदन की भी सुध न रहे । वैसे प्रेम से ही जगदीश मिलते हैं ।

दोहा
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ब्रह्मध्यान धर गंगतट, बैठूँगो तज संग।
कबधौं वह दिन होयगो, हिरन खुजावत अंग।।


स्फुरत्स्फारज्योत्स्नाधवलिततले क्वापि पुलिने 
सुखासीनाः शान्तध्वनिषु द्युसरितः ।।
भवाभोगोद्विग्नाः शिवशिवशिवेत्यार्तवचसः
कदा स्यामानन्दोद्गमबहुलबाष्पाकुलदृशः।। ४२ ।।

अर्थ:
वह समय कब आवेगा, जब हम पवित्र गंगा के ऐसे स्थान पर जो चन्द्रमा की चांदनी से चमक रहा होगा , सुख से बैठे होंगे और रात के समय, जब सब तरह का शोरगुल बन्द होगा, आनन्दाश्रुपूर्ण नेत्रों से, संसार के विषय दुखों से थक कर, सर्वशक्तिमान शिव की रटना लगा रहे होंगे ?


धन्य हैं वे लोग जिन्हे संसारी झूठे विषय-सुखों से नफरत हो गयी है, जो यहाँ के जंजालों से थक गए हैं जिन्होंने मोह जाल तोड़कर गङ्गा के पवित्र किनारे पर वास कर लिया है और निस्तब्ध चांदनी रात में, गदगद होकर, शिव शिव रटते हैं !! और लोग जो संसार के मोहपाश में फंसे हुए हैं, अपना जीवन वृथा खोते हैं।


महादेवो देवः सरिदपि च सैषा सुरसरिद्गुहा एवागारं वसनमपि ता एव हरितः।
सुहृदा कालोऽयं व्रतमिदमदैन्यव्रतमिदं कियद्वा वक्ष्यामो वटविटप एवास्तु दयिता।। ४३ ।।

अर्थ:
महादेव ही एक हमारा देव हो, जाह्नवी ही हमारी नदी हो, एक गुफा ही हमारा घर हो, दिशा ही हमारे वस्त्र हों, समय ही हमारा मित्र हो, किसी के सामने दीन न होना ही हमारा मित्र हो, अधिक क्यों कहें, वटवृक्ष ही हमारी अर्धांगिनी हो ।

जो हज़ारों लाखों देवताओं को छोड़कर एक परमात्मा को ही अपना देव समझता है, रात-दिन उसी के ध्यान में मग्न रहता है; जो गंगा तट पर बस्ता है; गंगा में स्नान करता है; गंगा जल ही पीता है; जो कपड़ों की भी जरुरत नहीं रखता; दिशों को ही अपने वस्त्र समझता है; काल को ही अपना मित्र मानता है; किसी के सामने दीनता नहीं करता, किसी से कुछ नहीं मांगता; वटवृक्ष के आश्रय में रहकर भगवान् का भजन करता और वटवृक्ष को ही अपने दुःख-सुख की संगिनी प्राणवल्लभा समझता है, वही पुरुष धन्य है ! उसका ही जगत में आना सफल है । परमात्मा की दया या पूर्वजन्म के पुण्यों से ही ऐसी बुद्धि होती है । ऐसी बुद्धि के प्रभाव से ही वह दुखों से छूटकर नित्यानन्द में मग्न रहता है ।

दोहा:
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देव, ईश, सुरसरि सरित, दिशा वसन गिरी गेह।
सुहृत्काल वट कामिनी, व्रत अदैन्य सुख एह।।



शिरः शार्व स्वर्गात्पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं
महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम्।।
अधो गङ्गा सेयं पदमुपगता स्तोकमथवा
विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः।। ४४ ।।

अर्थ:
देखिये, गङ्गा जी स्वर्ग से शिवजी के मस्तक पर गिरी; उनके सर से हिमालय पर्वत पर; हिमालय से पृथ्वी पर; और पृथ्वी से समुद्र में गिरी । इससे मालूम होता है, कि विवेक-हीनो का पद पद पर सैकड़ो प्रकार से पतन होता है ।

जो विचारपूर्वक काम नहीं करते, जो अक्ल से काम नहीं लेते, उनको तरह तरह से नीचे देखना पड़ता है । कवी ने यहाँ गङ्गा का दृष्टान्त दिया है और खूब दिया है ।
शिक्षा: जो विवेकहीन हैं, जो अहंकारी हैं, वे सदा नीचे देखते और बार बार नीचे गिरते हैं ; अतः मनुष्य को भूलकर भी घमण्ड न करना चाहिए और खूब विचार कर काम करना चाहिए । गङ्गा को बड़ा घमण्ड हुआ, तब उसका गर्व ख़त्म करने के लिए ब्रह्मा ने उसे अपने कमण्डल में भर लिया । गङ्गा का मस्तक नीचे हो गया । फिर भी, उसने घमण्ड न छोड़ा, तब शिवजी ने उसे अपनी जटाओं में रोक लिया । फिर महाराज भगीरथ ने घोर तप किया, तो शिवजी ने उसे छोड़ा । शिवजी के सिर से वह हिमालय पर गिरी और वहां से बहती बहती समंदर में जा गिरी । जो गर्व करते हैं, जगदीश उनके दुश्मन हो जाते हैं । जगदीश उन्ही को मिलते हैं, जो गर्व से दूर भागते हैं और विवेकभ्रष्ट नहीं होते । 

शेख सादी ने कहा है -
हर्के बेहूदा गर्दन अफ़राज़द।
खेशतन रा बगर्दन अन्दाज़द।।

जो कोई अपनी गर्दन ऊँची करता है, मुंह के बल गिरता है । 

आशा नाम नदी  मनोरथजला तृष्णातरंगाकुला 
रागग्राहवती वितर्कविहगा धैर्यद्रुमध्वंसिनी।।
मोहावर्त्तसुदुस्तराऽतिगहना प्रोत्तुड्गचिन्तातटी 
तस्याः पारगता विशुद्धमनसोनन्दन्ति योगीश्वराः।। ४५ ।।

अर्थ:
आशा एक नदी है, उसमें इच्छा रुपी जल है; तृष्णा उस नदी की तरंगे हैं, प्रीति उसके मगर हैं, तर्क-वितर्क या दलीलें उसके पक्षी हैं, मोह उसके भंवर हैं; चिंता ही उसके किनारे हैं; वह आशा नदी धैर्यरूपी वृक्ष को गिरानेवाली है; इस कारण उसके पार होना बड़ा कठिन है । जो शुद्धचित्त योगीश्वर उसके पार चले जाते हैं; वे बड़ा आनन्द उपभोग करते हैं ।

सारांश: यदि आनन्द चाहो; तो आशा, इच्छा, प्रीति, तर्क-वितर्क, मोह और चिन्ता प्रभृति को एकदम छोड़कर शुद्धचित्त हो जाओ और अपने आत्मा या ब्रह्म के ध्यान में तन्मय हो जाओ । 

छप्पय
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नदीरूप यह आश, मनोरथ पुअर रह्यो जल।
तृष्णा तरल तरंग, राग है यह ग्रह महाबल।
नाना तर्क विहंग, संग धीरज तरु तोरत।
भ्रमर भयानक मोह, सबद को गहि गहि बोरत।
नित बहत रहत चित-भूमि में, चिन्तातट अति विकट।
कढ़ि गए पार योगी पुरुष, उन पायौ सुख तेहि निकट।।



आसंसारं त्रिभुवनमिदं चिन्वतां तात तादृङ्
नैवास्माकं नयनपदवीं श्रोत्रवर्त्मागतो वा। 
योऽयं धत्ते विषयकरिणीगाढगूढाभिमान
क्षीवस्यान्तः करणकरिण: संयमालानलीलाम्।। ४६ ।।

अर्थ:
ओ भाई ! मैं सारे संसार में घूमा और तीनो भुवनों में मैंने खोज की; पर ऐसा मनुष्य मैंने न देखा न सुना, जो अपनी कामेच्छा पूर्ण करने के लिए हथिनी के पीछे दौड़ते हुए मदोन्मत्त हाथी के समान मन को वश में रख सकता हो ।

भाई ! मैंने त्रिलोक की खोज कर डाली, पर मुझे एक भी आदमी ऐसा न दिखा, जो विषय रुपी हथिनी के पीछे लगे हुए मनरूपी गज को रोक सकता हो । इसका खुलासा यह है - विषयों में फंसे हुए मन को काबू में रखना अथवा उसे विषयों से हटाना असंभव है । 
मन बड़ा जबरदस्त है । इसके पङ्ख नहीं, पर पक्षी की तरह उड़ने वाला है; कभी यह आकाश में जाता है और कभी पातळ में जाता है । मन शरीर को जिधर घूमता है, शरीर उधर ही घूमता है । मन ही मनुष्य को परमात्मा से अलग रखता और मन ही उसे उससे मिला देता है । मन की चंचलता अच्छी नहीं । उसकी चंचलता ही साधना में बाधक है । 

महात्मा कबीर कहते हैं -
मन-पक्षी तब लगि उड़े, विषय-वासना मांहि ।
ज्ञान-बाज़ की झपट में, जब लगि आया नाहिं ।।
मन के बहुतै रंग हैं, छिन-छिन मध्ये होय ।
एक रंग में जो रहे, ऐसा बिरला कोय ।।
जेती लहार समुद्र की, तेती मन की दौर ।
सहजै हीरा उपजे, जो मन आवे ठौर ।।
मन के मते न चालिये, मन के मते अनेक ।
जो मन पर असवार हैं, ते साधू कोई एक ।।

उस्ताद ज़ौक़ कहते हैं -
दुनिया से मैं अगर, दिल मुज़तर को तोड़ दूँ ।
सारे तिलिस्म, बहम मुकद्दर को तोड़ दूँ ।।

संसार में लगे हुए मन को यदि मैं तोड़ दूँ, तो धोखे और बुराई में डालनेवाले इस प्रपंच को ही तोड़ डालूं। संसार पाश में बन्धे हुए मन को तोडना मुश्किल है ।
मन-पक्षी विषय-वासनाओं में उस वक्त तक उड़ता है, जब तक वह ज्ञान बाज़ की झपट में नहीं आता । मतलब यह है, कि मन विषयों में उसी वक्त तक फंसा रहता है, जब तक कि उसे ज्ञान नहीं होता । ज्ञान होते ही मन विषयों के फंदे से निकल जाता है ।
मन के अनेक रंग हैं, जो छिन-छिन में बदलते रहते हैं । जो एक ही रंग में रंगा रहता है, वह कोई विरला ही होता है ।
समुद्र की जितनी लहर हैं, मन की उतनी ही दौड़ हैं । अगर मन एक ही ठिकाने ठहर जावे, तो सहज में हीरा पैदा हो जावे । मतलब यह है कि मन के एक जगह ठहरने या स्थिर हो जाने से सिद्धि मिल जा सकती है, जगदीश के दर्शन हो सकते हैं । चंचल मन से सिद्धि दूर भागती है । जगदीश-मिलान के लिए स्थिर चित्त की दरकार है ।
मन के मते न चालिये क्योंकि मन के मते अनेक हैं । मन पर सवार रहने वाले, मन को अपने वश में रखनेवाले महात्मा कोई विरले ही होते हैं । सारांश यह कि, मन की चाल पर न चलना चाहिए, उसकी सलाह के माफिक काम न करना चाहिए । मन को काबू में रखना चाहिए और उसे अपनी इच्छानुसार चलाना चाहिए । जो मन की राह पर नहीं चलते, मन के अधीन नहीं होते, मन को स्थिर रखते हैं, उसे चंचल नहीं होने देते, उसकी लगाम अपने हाथों में रखते और अपने माफिक चलते हैं - स्वयं उसकी मर्जी पर नहीं चलते, वे जगत को विजय कर सकते हैं । वे नाना प्रकार की सिद्धियों को प्राप्त कर सकते हैं और जगदीश से मिलकर अक्षय सुख के अधिकारी हो सकते हैं । जिन्हें संसारी जालों से छूटना हो, जन्म-मरण के कष्ट न भोगने हों, नित्य और अविनाशी सुख भोगना हो, परमपद प्राप्त करना हो; वे मन को अपने वश में करें, उसे इधर-उधर जाने से रोकें और उसे करतार के ध्यान में लगावें ।

उस्ताद ज़ौक़ एक जगह फिर कहते हैं -
बड़े मूज़ी को मारा, नफ़ से अम्मारे को गर मारा ।
नहंगो अज़दहाओ, शेर नर मारा तो क्या मारा ।

अपने दिल को मार, अभिमान को मार; इसमें तेरी बड़ाई है। बड़े बड़े खूंखार जानवरों के मारने में कोई बड़ाई नहीं है । पर अभिमान-शून्य होना है बड़ा कठिन । जिस बासन में लहसन या प्याज रखे जाते हैं, उसमें से उनकी गन्ध बड़ी कठिनाई से जाती है; इसी तरह अभिमान भी बड़ी कठिनाई से जाता है ।
इसके नाश का उपाय, विवेक या ज्ञान है । जब ज्ञान का उदय हो जाता है, तब जिस तरह पका हुआ आम आप-से-आप गिर पड़ता है; उसी तरह अभिमान भी आप-से-आप दूर हो जाता है । अभिमान के नाश होते ही चित्त शुद्ध हो जाता है । चित्त के शुद्ध होने से परमात्मा के दर्शन होने की राह साफ़ हो जाती है ।
मनुष्यों ! अभ्यास करो; अभ्यास से सब कठिनाइयां हल हो जाती है । जैसे भी हो, मन को वासनाहीन बनाओ । वासनाहीन, निर्मल चित्त वाले व्यक्ति पर उपदेश जल्दी असर करता है और उसमें ईश्वरानुराग शीघ्र ही उत्पन्न हो जाता है ।

दोहा
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ऐसो मैं संसार में, सुन्यो न देख्यो धीर।
विषय-हथिनी संग लग्यो, मनगज बांधे बीर।।

ये वर्धन्ते धनपतिपुरः प्रार्थनादुःखभोज
ये चालपत्वं दधति विषयक्षेपपर्यस्तबुद्धेः।
तेषामन्तः स्फुरितहसितं वासराणां स्मारेयं 
ध्यानच्छेदे शिखरिकुहरग्रावशय्या निषण्णः।। ४७ ।।

अर्थ:
वे दिन जो धन के लिए धनवानों की खुशामद करने के दुःख से बड़े मालूम होते थे और वे दिन जो विषयासक्ति में छोटे लगते थे; उन दोनों प्रकार दे दिनों को हम पर्वत की एकान्त गुहा में, पत्थर की शिला पर बैठे हुए आत्मध्यान में मग्न होकर अन्तःकरण में हँसते हुए याद करेंगे।

जिन लोगों को अनेकों प्रकार के एशोइशरत और भोग-विलास के सामान मयस्सर हैं, जिनके यहाँ किसी भी संसारी भोग-विलास की सामग्री का अभाव नहीं है, जिनके सुंदरी मृगनयनी कामिनी सेवा करने को है, जिनके दास-दासी हैं, जिनके बाग़-बगीचे हैं, जिनके गाडी-घोड़े और मोटर हैं, जिनके पीछे अनेक तरह के खुशामदी लगे रहते हैं, जिनके हाथ में द्रव्य है अथवा राजकृपा है - ऐसे लोगों के दिन बड़ी ही जल्दी काटते हैं । उन्हें दिन रात बीतते हुए मालूम ही नहीं होते, लम्बे लम्बे दिन भी छोटे प्रतीत होते हैं; किन्तु जिन लोगों को सब तरह का अभाव है, जो हर बात के लिए तंग हैं, जो अपनी इच्छा पूरी करने के लिए धनियों से धन मांगते हैं, उनकी खुशामद करते हैं, उनकी दुत्कार, फटकार सहते हैं, अपमानित होते हैं, उनके लिए वे ही दिन बड़े भारी मालूम होते हैं - काटे भी नहीं कटते । किन्तु जो लोग विषयों का सामान होते हुए भी विषय सुख नहीं भोगते और अभाव होने पर भी इच्छा नहीं रखते, इसलिए धनियों के देहरे नहीं ढोकते, उनकी खुशामद नहीं करते, अपने आत्माराम में ही मस्त रहते हैं - वे सुखी हैं; उन्हें दिन बड़े और छोटे नहीं लगते । 
जिसने दोनों प्रकार के दिन देखे हैं, पर शेष में उसे ऐसे झगड़ो से विरक्ति हो गयी है, वह कहता है - मैं एकान्त गुफा में पवित्र शिला पर बैठा हुआ, आत्मा का ध्यान करूँगा और उन दिनों की याद करके उन पर घृणा से हसूंगा ।

कुण्डलिया 
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छोटे दिन लागत तिन्हें, जिनके बहुविधि भोग।
बीत जात विलसत हँसत, करत सुयत संयोग।।
करत सुयत संयोग, तनक से लागत तिन को।
जे हैं सेवक दीन, निपट दीरघ हैं विनको।।
हम बैठे गिरि- शृङ्ग, अंग याहि ते मोटे।


सदा एक रस द्योष, लगत हैं बड़े न छोटे।।


विद्या नाधिगता कलंकरहिता वित्तं च नोपार्जितम 
शुश्रूषापि समाहितेन मनसा पित्रोर्न सम्पादिता।
आलोलायतलोचना युवतयः स्वप्नेऽपि नालिंगिताः
कालोऽयं परपिण्डलोलुपतया ककैरिव प्रेरितः।। ४८ ।।

अर्थ:
न तो हमने निष्कलंक विद्या पढ़ी और न धन कमाया; न हमने शांत-चित्त से माता-पिता की सेवा ही की और न स्वप्न में भी दीर्घनायनी कामिनियों को गले से ही लगाया । हमने इस जगत में आकर, कव्वे की तरह पराये टुकड़ों की ओर ताक लगाने के सिवा क्या किया?

जो संसार में आकर न हरिभजन करते हैं, न विद्या-अध्ययन करते हैं, न धनोपार्जन करके सुख भोगते हैं और न संसार के दुखियों के दुःख ही दूर करते हैं, उनका इस दुनिया में आना वृथा है । किसी ने कहा है -
न इधर के रहे, न उधर के रहे।
न खुदा ही मिला न विसाले सनम।।

और भी किसी ने कहा है -
कहा कियो हम आय के, कहा करेंगे जाय?
इतके भये न उतके, चाले मूल गवाँय।

मतलब यह है, कि विद्या पढ़ना, विद्या-बुद्धि से धन उपार्जन करना, सुख भोगना और माँ-बाप की सेवा करना अच्छा; पर खाली पेट भरने के लिए, कव्वे की तरह पराया मुंह ताकना अच्छा नहीं । मुंह ही ताकना है तो उस परमात्मा का ताको, जो अभावशून्य है और सबका दाता है ।उससे ही आपकी इच्छा पूरी होगी। अगर आप उसी का भरोसा करेंगे, तो वह आपके सब आभाव दूर करेगा, आपके दुखों में दुखी और आपके सुखों में सुखी होगा । उसके बिना आपकी भूख न मिटेगी । रहीम कहते हैं और सच कहते हैं -
रामचरण पहिचान बिन, मिटी न मनकी दौर ।
जनम गंवाए बादिही, रटत पराये पौर।।

भगवान् के चरण कमलों से परिचय हुए बिना, उनके पदपंकजों से प्रेम हुए बिना, मनुष्य के मन की दौड़ नहीं मिटती - मन की चंचलता नहीं जाती और स्थिरता नहीं होती । मन के स्थिर हुए बिना भगवान् के भजन में मन नहीं लग सकता । जो लोग गेरुआ बाना धारण करके साधू हो जाते हैं और भगवान् में मन नहीं लगाते - वे लोग पेट के लिए दर-दर चीख चिल्ला कर अपना दुर्लभ मनुष्य जन वृथा ही गंवाते हैं । वे मूर्ख इस बात को नहीं समझते, कि यह मनुष्य जन्म बड़ी कठिनाई से मिला है । ऐसा मौका जल्दी नहीं मिलने का । अगर यह जन्म पेट की चिंता में गंवाया जायेगा, तो फिर चौरासी लाख योनियों में जन्म लेने के बाद कहीं मनुष्य जन्म मिलेगा । इससे तो यही अच्छा होता, कि वे संसार त्यागी बनने का ढोंग न रचकर, संसारी या गृहस्थ ही बने रहते । संसारी बने रहने से वे इस दुनिया के मिथ्या सुख-भोग तो भोग लेते । ऐसे ढोंगी दोनों तरफ से जाते हैं । 
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -
काम क्रोध मद लोभ की, जब लगि मन में खान।
का पण्डित का मूरखै, दोनों एक समान।
इत कुल की करनी तजे, उत न भजे भगवान्।
"तुलसी" अघवर के भये, ज्यों बघूर के पान।।
"तुलसी" पति दरबार में, कमी बस्तु कुछ नाहिं।
कर्महीन कलपत फिरत, चूक चाकरी मांहि।।
राम गरीबनिवाज हैं, राम देत जन जानि।
"तुलसी" मन परिहरत नहिं, घुरुबिनिया की बानि।।

काम, क्रोध, मद और लोभ - जब तक मन में रहते हैं, तब तक पण्डित और मूर्ख में कोई फर्क नह्नि - दोनों ही समान हैं ।
जो लोग केवल पुजने के लिए घर गृहस्थी को त्यागकर साधू बन जाते हैं, वे अगर घर में रहे तो माता-पिता की सेवा, आतिथ्य सत्कार, पिण्डदान, ब्राह्मण-भोजन, संतानोत्पत्ति और कन्यादान आदि गृहस्थकर्म कर सकते हैं; पर साधुवेश धारण करने से इन कामो को नहीं कर सकते । दूसरी ओर साधू होकर ईश्वर भजन करना चाहिए, पर चूंकि वे सच्चे साधू नहीं - काम, क्रोध, मद, मोह और लोभ उनसे अलग नहीं - इसलिए उनका चित्त स्थिर नहीं होता । चित्त के स्थिर न होने से, ईश्वर में भी उनका मन नहीं लगता । पेट भरने के लिए वे घर-घर मारे-मारे फिरते हैं । इस तरह वे न तो घर के रहते हैं न घाट के। तुलसीदास जी कहते हैं, उनकी गति बवण्डरया बगूले के पत्ते की सी होती है, जो न तो आकाश में ही जाता है, न ज़मीन पर ही रहता है - अधपर में उड़ता फिरता है । इस तरह जन्म गंवाना - मूर्खता नहीं तो क्या है ? जो लोग मेहनत मज़दूरी करके कमा नहीं सकते और बैठे-बैठे मिलता नहीं; वे कुटुम्ब का पालन न कर सकने की वजह से साधू बन जाते हैं । फिर वे दर-दर टुकड़े मांगते हैं और ठोकरें खाते हैं । ईश्वर पर भी उनका भरोसा नहीं । अगर परमात्मा पर भरोसा होता, तो वे ध्यानस्थ होकर उसी का जप करते और वह भी उनकी फ़िक्र करता । जो उसके भरोसे निर्जन और बियाबान जंगलों में भी जाकर बैठ जाते हैं, उनको वह वहीँ पहुंचाता है, इसमें संदेह नहीं । वह उसका नाम न जपने वालों को ही पहुंचाता है; तब उसके ही भरोसे रहनेवालों और उसकी माला जपने वालों को वह कैसे भूल सकता है ? वह सवेरे से शाम तक विश्व के प्राणियों को खाना पहुंचाता है, विश्व का पालन करता है, इसी से उसे विश्वम्भर कहते हैं । वह हाथी को मन और कीड़ों को कन पहुंचाता है, इसमें संदेह नहीं। एक बार शहंशाह अकबरे आज़म को उसके विश्वम्भर होने में सन्देह हुआ । उन्होंने एक कांच के बक्स में एक चींटी बन्द करवा दी । चींटी के उसमें बन्द किये जाने से पहले, उन्होंने स्वयं बक्स का कोना कोना देख लिया । फिर उसमें चींटी बंद कराकर ताला लगा दिया और चाभी अपने पास रख ली । बक्स भी दिन रात अपने सामने ही रखा । २४ घण्टे बाद जब बक्स खोला गया, तो चींटी के मुंह में एक चावल का दाना पाया गया । बादशाह का शक रफा हो गया । उन्होंने भी उसे विश्वम्भर मान लिया ।
तुलसीदास जी कहते हैं, स्वामी के दरबार में किसी चीज़ का अभाव नहीं है । उनके दरबार में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष चरों पदार्थ मौजूद हैं । उनके भक्त जो चाहते हैं, उन्हें वही मिल जाता है । उनके भक्तो की इच्छा होते ही ऋद्धि सिद्धि उनके क़दमों में हाज़िर हो जाती है, पर शर्त यह है की उनके भक्तों का मन चलायमान न हो, उनका मन किसी दूसरी ओर न जाये । जो लोग ईश्वर की चाकरी में चूकते हैं, स्थिर-चित्त होकर उसकी पूजा उपासना नहीं करते, मन को जगह जगह भटकाते हैं, वे कर्महीन दुःख पाते हैं, उनको मनवांछित पदार्थ नहीं मिलते । सुखदाता को भूलने से सुख कैसे हो सकता है ? 
भगवान् दीनबंधु, दीन-दयाल और गरीब परवर हैं । वे दीनों के दुःख दूर करनेवाले और गरीबों की गरीबी या मुहताजी मिटाने वाले हैं । वे अपनों को अपना समझ कर, इस लोक और परलोक में पूर्ण सुखैश्वर्य देते हैं । इस दुनिया में अर्थ, धर्म और काम देते हैं और मरने पर, उस दुनिया में, स्वर्ग या मोक्ष देते हैं । मतलब यह है, जो ईश्वर की शरण में चले जाते हैं, ईश्वर अपने उन शरणागतों की इच्छाओं को उनके मन में इच्छा होते ही पूरी कर देता है । पर अफ़सोस तो यही है कि मन अपनी घुरुबिनिया की आदत नहीं छोड़ता अर्थात मन संसारी पदार्थों में जाए बिना नहीं रहता । अगर मन संसारी पदार्थों में जाना छोड़ दे, तो दरिद्रता रहे ही क्यों? सारे अभाव दूर हो जाएं।

छप्पय
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विद्या रहित कलंक, ताहि चित्त में नहिं धारी।
धन उपजायो नाहिं, सदा-संगी सुखकारी।
मात-पिता की सेवा सुश्रुषा, नेक न कीन्हि
मृगनयनी नवनारि, अंक भर कबहुँ न लीन्हि।
योंही व्यतीत कीन्हों समय, ताकत डोल्यो काक ज्यों।
ले भाज्यों टूक पर हाथ तें, चंचल चोर चलाक ज्यों।।


वितीर्णे सर्वस्वे तरुणकरुणापूर्णहृदयाः
स्मरन्तः संसारे विगुणपरिणाम विधिगतिः।
वयं पुण्यारण्ये परिणतशरच्चन्द्रकिरणै-
स्त्रियामां नेष्यामो हरचरणचित्तैकशरणाः।। ४९ ।।

अर्थ:
सर्वस्व त्यागकर (अथवा सर्वस्वा नष्ट हो जाने पर) करुणापूर्ण ह्रदय से, संसार और संसार के पदार्थों को सारहीन समझकर, केवल शिवचरणो को अपना रक्षक समझते हुए, हम शरद की चांदनी में, किसी पवित्र वन में बैठे हुए कब रातें बिताएंगे?

वह दिन कब आवेंगे जब हम सर्वस्वा त्यागकर, संसार को आसार समझकर, संसार के सुखो को अनित्य समझकर, संसार के भोग-विलासों को दुःख-मूल समझकर, विषयों को विष समझकर, किसी पवित्र वन में बैठे हुए शरद ऋतू की चांदनी रात को शिव-शिव की रटना लगाते हुए व्यतीत करेंगे? अर्थात हमारे ये दिन जो संसारी जंजालों में बीते जा रहे हैं, वृथा नष्ट हो रहे हैं । जब हम सबको त्यागकर भगवान् का भजन करेंगे, तभी हमारे दिन ठीक तरह से काटेंगे। हम उन्ही दिनों को सार्थक हुआ समझेंगे । संसारी सुखों से तो हम अघा गए।
तुलसीदास कहते है -
दुखदायक जाने भले, सुखदायक भेज राम।
अब हमको संसारको, सब विधि पूरन काम।।


हे मन ! अब परमात्मा में लग; संसारी सुखों में अब हमारी इच्छा नहीं: इनकी पोल अब हमने देख ली।


वयमिह परितुष्टा वल्कलैस्त्वं च लक्ष्म्या 
सम इह परितोषो निर्विशेषावशेषः।
स तु भवति दरिद्री यस्य तृष्णा विशाला 
मनसि च परितुष्टे कोऽर्थवान्को दरिद्रः ? ।। ५० ।।

अर्थ:
हम वृक्षों की छाल पहनकर सन्तुष्ट हैं; आप लक्ष्मी से सन्तुष्ट हो । हमारा तुम्हारा दोनों का सन्तोष समान है, कोई भेद नहीं । वह दरिद्र है, जिसके दिल में तृष्णा है । मन में सन्तोष आने पर कौन धनी और कौन निर्धन है ? अर्थात संतोषी के लिए धनी और निर्धन दोनों बराबर हैं ।

जिसमें सन्तोष है, वह सदा सुखी है । उसे कोई सुख नहीं जिसकी इच्छाएं बड़ी बड़ी हैं । जिसे सन्तोष नहीं है; वह सदा दुखी है । सन्तोष बड़ी से बड़ी दौलत से भी अच्छा है । जो सुखी होना चाहे, वह तृष्णा को त्यागे और परमात्मा जो दे उसी में सन्तोष करे । सन्तोषी के लिए कोई व्याधि नहीं है । सन्तोषी के चित्त, मन और काया सदा सुखी रहते हैं । सन्तोषी किसी की खुशामद नहीं करता ।
उस्ताद ज़ौक़ कहते हैं -
जो कुंजे कनाअत में हैं, तक़दीर पर शाकिर।
है ज़ौक़ बराबर, उन्हें कम और ज़ियादा।।

जो सन्तोषी हैं और तकदीर पर भरोसा रखते हैं, उन्हें कम और ज्यादा सभी बराबर हैं । उन्हें जो मिल जाये उसी पर सब्र है ।

शेख सादी ने 'गुलिस्तां' में लिखा है -
ए कनाअत तबन्गरम गरदां।
के वराये तो हेच नेमत नेस्त।।

हे सन्तोष ! मुझे धनी बना दे - क्योंकि संसार की कोई दौलत तुझसे बढ़कर नहीं है।
मनुष्य को चाहिए कि सूखी रोटी और चीथड़ों से बानी गुदड़ी में सुखी रहे । मनुष्यों के एहसानों का भार उठाने से अपने दुखों का भार हल्का न समझे । जो तंगनज़र हैं, जो लोभी हैं, उनको या तो सन्तोष से सुख मिलता है अथवा मर जाने से । सन्तोष की तारीफ में महात्मा कबीर की भी सुनिए -

गो-धन गज-धन बाजि-धन और रतन-धन-खानि।
जब आवे सन्तोष-धन, सब धन धूरि-समानि।।

संसार में गो धन, गज धन, बाजि धन और रतन धन आदि अनेक प्रकार के धन हैं । कोई गायों को धन मानता है, कोई हाथियों को धन मानता है, कोई घोड़ों को और कोई हीरे, पन्ने, पुखराज, नीलम प्रभृति को धन मानता है । संसारी लोग इन सबको ही धन समझते हैं, पर इन धनो से किसी की भी तृष्णा नहीं बुझती, सन्तोष नहीं आता - शान्ति नहीं मिलती । जब सन्तोष रुपी धन मनुष्य के हाथ आता है; तब वह गाय, बैल, घोड़े, हाथी, मुहर-अशरफी और हीरे-पन्ने प्रभृति धनो को मिटटी के समान समझता है और सन्तोष-धन से सुखी हो जाता है । सारांश यह कि जय, घोड़े, हाथी, हीरे-पन्नो प्रभृति से किसी को सुख शांति नहीं मिलती । सुख शांति मिलती है केवल सन्तोष से; अतः सन्तोष धन सब धनो से बड़ा धन है । और धन, देखने में अच्छे मालूम होते हैं, पर उनमें वास्तविक सुख नहीं - वास्तविक सुख सन्तोष में ही है । 
तुलसीदास जी की भी सुनिए -

जहाँ तोष तहाँ राम है, राम तोष नहीं भेद।
"तुलसी" देखत गहत नहिं, सहत विविध विधि खेद।।

मनुष्य जब दुनियावी आदमियों का आसरा-भरोसा छोड़कर भगवान् की शरण में आ जाता है, तब उसे सन्तोष होता है । भगवान् में और सन्तोष  में फर्क नहीं है । जहाँ सन्तोष है, वहां भगवान् है और जहाँ भगवान् है, वह सन्तोष है । तुलसीदास जी कहते हैं - हमने आँखों से देखा है, जिन्होंने भी भगवान् की शरण गही और सन्तोष किया, वे निश्चय ही सुखी हुए । इसके विपरीत, जो लोग दुनियावी मनुष्यों और धन प्रभृति से सुख की आशा करते हैं, भगवान् से विमुख रहते हैं, उन पर भरोसा नहीं करते, एकमात्र उन्हीं की शरण में नहीं जाते, वे नाना प्रकार के दुःख भोगते हैं । बचपन में माँ के मर जाने से अथवा परतंत्र रहने से दुःख पाते हैं । जवानी में अपनी स्त्री को परपुरुष का देखकर जलते-कुढ़ते हैं अथवा पराई सुन्दर स्त्री को देखकर और उसे न पाकर कामाग्नि में भस्म होते हैं अथवा पुत्र कन्या और स्त्री प्रभृति प्यारों के मरने से उनकी वियोगग्नि में जल-जलकर दुखी होते हैं; अथवा धन के नाश होने से कलपते हैं । बुढ़ापे में आँख, कान आदि इन्द्रियों के बेकाम हो जाने से और शरीर में शक्ति न रहने एवं जने-जने से अपमानित होने से घोर, दुःसह दुःख सहन करते हैं । जब तरह तरह के रोग आकर घेर लेते हैं, तब जीवन भार स्वरुप मालूम होता है । जब ऐसे ऐसे झंझटों में तृष्णा को साथ लेकर मर जाते हैं; तब फिर चौरासी लाख योनियों में जन्म लेते और मरते हैं । इस तरह हज़ारों लाखों बरस बाद - न जाने कब ? फिर मनुष्य जन्म मिलता है । मनुष्य देह पाकर ही मनुष्य अपने उद्धार का उपाय कर सकता है; क्योंकि इसी जन्म में भले बुरे के विचार की शक्ति होती है; और योनियों में तो पाप ही पाप होते हैं; अतः मनुष्य जन्म को मामूली बात समझकर योंही दुनियावी सुख-भोगों में नहीं गंवाना चाहिए । संसारी सुख-भोगो से न तो इस दुनिया में सुख शांति मिलती है और न इसके बाद की दुनिया में । इस लोक में सुख भोगनेवालों को लाखों वर्षों तक घोर दुःख भोगने होते हैं । हाँ, जो लोग इस मनुष्य देह की कीमत समझकर, सब संसारी सुखों को लात मारकर, भगवान् की शरण में चले जाते हैं और संतोष वृत्ति रखते हैं; वे इस लोक और परलोक में सदा सुख भोग करते हैं और अंत में ब्रह्म में लीन हो जाते है ।

छप्पय
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तुम धनसों सन्तुष्ट, हमहुँ हैं वृक्षबकल तें।
दोउ भये समान, नैन मुख अंग सकल तें।
जाने जात दरिद्र, बहुत तृष्णा है जिनके।
जिनके तृष्णा नाहिं, बहुत सम्पत है तिनके।
तुमहि विचार देखो दृगन, को निर्धन? धनवन्त को ?
जुत पाप कौन ? निष्पाप को ? को असन्त अरु सन्त को?


यदेतत्स्वछन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं
सहार्यैः संवासः श्रुतमुपशमैकव्रतफलम्।
मनो मन्दस्पन्दं बहिरपि चिरस्यापि विमृशन्
न जाने कस्यैष परिणतिरुदारस्य तपसः।। ५१ ।।

अर्थ:
स्वधीनतापूर्वक जीवन अतिवाहित करना, बिना मांगे खाना, विपद में साहस रखनेवाले मित्रों की सांगत करना, मन को वश में करने की तरकीबें बताने वाले शास्त्रों का पढ़ना-सुनना और चंचल चित्त को स्थिर करना - हम नहीं जानते, ये किस पूर्व-तपस्या के फल से प्राप्त होते हैं ? 

पराधीन मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता, उसे पग-पग पर अपमानित, लाञ्छित और दुखित होना पड़ता है । जो स्वाधीन हैं, किसी के अधीन नहीं है, वे ही सच्चे सुखिया हैं । जिनको अपने पेट के लिए किसी के सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ता - किसी के सामने दीन वचन नहीं कहने पड़ते, जिनके दुःख में सहायता देने वाले, बिना कहे कष्ट निवारण करनेवाले मित्र हैं; जो मन को शांत करनेवाले और उसकी चञ्चलता दूर करने वाले शास्त्रों को पढ़ते हैं - वे भाग्यवान हैं । कह नहीं सकते, उन्होंने ये उत्तम फल पूर्वजन्म के किस कठोर तप से पाए हैं ।

दोहा
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सत्संगति स्वछन्दता, बिना कृपणता भक्ष।

जान्यो नहिं किहि तप किये, यह फल होत प्रत्यक्ष।।


पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं भैक्ष्यमक्षय्यमन्नं 
विस्तीर्णं वस्त्रमाशासुदशकममलं तल्पमस्वल्पमुर्वी।
येषां निःसङ्गताङ्गीकरणपरिणत: स्वात्मसन्तोषिणस्ते
धन्याः संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्मनिर्मूलयन्ति।। ५२ ।।

अर्थ:
वे ही प्रशंसाभाजन हैं, वे ही धन्य हैं, उन्होंने ही धर्म की जड़ काट दी है - जो अपने हाथों के सिवा और किसी बासन की जरुरत नहीं समझते, जो घूम घूम कर भिक्षा का अन्न कहते हैं, जो देशो दिशाओं को ही अपना विस्तृत वस्त्र समझते हैं, जो अकेले रहना पसन्द करते हैं, जो दीनता से घृणा करते हैं और जिन्होंने आत्मा में ही सन्तोष कर लिया है ।

जिन्होंने सबसे मन हटाकर, सब तरह के विषयों को त्याग कर, संसारी माया जाल काटकर अपने आत्म में ही सन्तोष कर लिया है; जो किसी भी वास्तु की आकांक्षा नहीं रखते, यहाँ तक की जल पीने को भी कोई बर्तन पास नहीं रखते; अपने हाथों से ही बर्तन का काम लेते हैं; खाने के लिए घर में सामान नहीं रखते, कल के भोजन की फ़िक्र नहीं करते, आज इस गांव में मांगकर पेट भर लेते हैं तो कल दुसरे गांव में जा मांगते हैं, एक गांव में दो रात नहीं बिताते; जो शरीर ढकने के लिए कपड़ों की भी जरुरत नहीं रखते, दशों दिशाओं को ही अपना वस्त्र समझते हैं; जो पलंग-तोशक, गद्दे-तकियों की आवश्यकता नहीं समझते, ज़रा सी जमीन को ही निर्मल पलंग समझते हैं; जब नींद आती है तो अपने हाथ का तकिया लगाकर सो जाते हैं; जो किसी का संग नहीं करते, अकेले रहते हैं, वैराग्य में ही परमानन्द समझते हैं; जो किसी के सामने दीनता नहीं करते अथवा दैत्यरूपी व्यसनों से घृणा करते और अपने स्वरुप में ही मगन रहते हैं, वे पुरुष सचमुच ही महापुरुष हैं । ऐसे पुरुष रत्न धन्य हैं ! उन्होंने सचमुच ही कर्मबन्धन काट दिया है । वे ही सच्चे त्यागी और सन्यासी हैं । ऐसे ही महापुरुषों के सम्बन्ध में महात्मा सुन्दरदास जी ने कहा है -
काम ही क्रोध न जाके, लोभ ही न मोह ताके।
मद ही न मत्सर, न कोउ न विकारो है।।
दुःख ही न सुख माने, पाप ही न पुण्य जाने।
हरष ही न शोक आनै, देह ही तें न्यारौ है।।
निंदा न प्रशंसा करै, राग ही न द्वेष धरै।
लेन ही न दें जाके, कुछ न पसारो है।।
सुन्दर कहत, ताकी अगम अगाध गति।
ऐसो कोउ साधु, सों तो राम जी कू प्यारो है।।

जिसमें काम, क्रोध, लोभ, मद और मत्सर प्रभृति विकार नहीं हैं; जो दुःख सुख और पाप पुण्य को नहीं जानता; जिसे न ख़ुशी होती है न रंज; जो अपने शरीर से अलग है; जो न किसी की तारीफ करता है और न किसी की बुराई करता है; जिसे न किसी से प्रेम है न किसी से वैर, जिसका न किसी से लेना है और न किसी को देना, न और ही किसी तरह का व्यवहार है। सुन्दरदास कहते हैं, ऐसे मनुष्य की गति अगम्य और अगाध है । उसकी गहराई का पता नहीं । ऐसा ही मनुष्य भगवान् को प्यारा लगता है । 

छप्पय

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भोजन को कर पट्ट, दशों दिशि बसन बनाये।
भखै भीख को अन्न, पलंग पृथ्वी पर छाये।
छाँड़ि सबन को संग, अकेले रहत रैन दिन।
नित आतस सों लीन, पौन सन्तोष छिनहिं छिन।
मन को विकार, इन्द्रीन को डारै तोर मरोर जिन।
वे धन्य संन्यास धन, कर्म किये निर्मूल तिन।।


दुराराध्यः स्वामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो
वयं तु स्थूलेच्छा महति च पदे बद्धमनसः।
जरा देहं मृत्युर्हरति सकलं जीवितमिदं 
सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषोऽन्यत्र तपसः।। ५३ ।।

अर्थ:
मालिक को राज़ी करना कठिन है। राजाओं के दिल घोड़ों के समान चंचल होते हैं। इधर हमारी इच्छाएं बड़ी भारी हैं; उधर हम बड़े भारी पद - मोक्ष के अभिलाषी हैं । बुढ़ापा शरीर को निकम्मा करता है और मृत्यु जीवन को नाश करती है । इसलिए हे मित्र ! बुद्धिमान के लिए, इस जगत में, तप से बढ़कर और कल्याण का मार्ग नहीं है ।

सेवा-धर्म बड़ा कठिन है । हज़ारों प्रकार की सेवाएं करने, अनेक प्रकार की हाँ में हाँ मिलाने, दिन को रात और रात को दिन कहने, तरह तरह की खुशामदें करने से भी मालिक कभी संतुष्ट नहीं होता । राजाओं के दिल अशिक्षित घोड़ों की तरह चंचल होते हैं । उनके चित्त स्थिर नहीं रहते; ज़रा सी देर में वे प्रसन्न होते हैं और ज़रा सी देर में अप्रसन्न हो जाते हैं; क्षणभर में गांव के गांव बक्शते और क्षणभर में सूली पर चढ़वाते हैं; इसलिए राजसेवा में बड़ा खतरा है । उसमें ज़रा भी सुख नहीं, यहाँ तक की जान की भी खैर नहीं है । एक तरफ तो हमारी इच्छाओं और हमारे मनोरथों की सीमा नहीं है दूसरी ओर हम परमपद के अभिलाषी हैं; इसलिए यहाँ भी मेल नहीं खाता । बुढ़ापा हमारे शरीर को निर्बल और रूप को कुरूप करता एवं सामर्थ्य और बल का नाश करता है तथा मृत्यु सिर पर मंडराती है । ऐसी दशा में मित्रवर ! कहीं सुख नहीं है । अगर सुख - सच्चा सुख चाहते हो, तो परमात्मा का भजन करो । उससे आपके परलोक और इहलोक दोनों सुधरेंगे, आप जन्म-मरण के कष्ट से छुटकारा पाकर मोक्ष-पद पाएंगे । सारांश यह है कि सच्चा और नित्य सुख केवल वैराग्य और ईश्वर भक्ति में है । गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -
"तुलसी" मिटै न कल्पना, गए कल्पतरु-छाँह।
जब लगि द्रवै न करि कृपा, जनक-सुता को नाह।।
हित सन हित-रति राम सन, रिपु सन वैर विहाय।
उदासीन संसार सन, "तुलसी" सहज सुभाय।।

मनुष्य चाहे कल्पवृक्ष के नीचे क्यों न चला जाय, जब तक सीतापति की कृपा न होगी तब तक उसके दुखों का नाश नहीं हो सकता; इसलिए शत्रुता-मित्रता छोड़, संसार से उदासीन हो, भगवान् से प्रीति करो ।

खुलासा - कहते हैं, इंद्रा के बगीचे में एक ऐसा वृक्ष है, जिसकी छाया में जाकर मनुष्य या देवता जो चीज़ चाहते हैं, वही उनके पास, आप से आप आ जाती है । उसी वृक्ष को "कल्पवृक्ष" कहते हैं । तुलसीदास जी कहते हैं, जब तक जानकीनाथ रामचन्द्र जी दया करके प्रसन्न न हों तब तक, मनुष्य की कल्पना कल्पवृक्ष की छाया में जाने से भी नहीं मिट सकती ।
जपतपतीर्थव्रतशमदमदयासत्यशौच और दान बगैर काम अगर मन में वासना रखकर किये जाते हैं; यानी करनेवाला यदि उनका फल या परस्कार चाहता है, तो उसे स्वर्गादि मिलते हैं । स्वर्ग में जाने से मनुष्य का आवागमन - इस दुनिया में आना और यहाँ से फिर जाना - पैदा होना और मरना - नहीं बन्द हो सकता । क्योंकि कहते हैं - "पुण्य क्षीणे मृत्युलोके", पुण्यों के क्षीण होते ही फिर स्वर्ग से मृत्युलोक में आना पड़ता है, पर मनुष्य का असल मकसद पूरा नहीं होता; यानि उसे परमपद या मोक्ष नहीं मिलता । इसलिए मनुष्य को निष्काम कर्म करने चाहिए । "गीता" में भी यही बात भगवान् कृष्ण ने कही है । बहुत लिखने से क्या - भगवान् की भक्ति सर्वोपरि है । भगवान् की भक्ति से जो काम हो सकता है, वह घोर-से-घोर तपस्याओं से भी नहीं हो सकता । 
किसी ने कहा है -
पठित सकल वेदश्शास्त्रपारंगतो वा
यम नियम पारो वा धर्म्मशास्त्रार्थकृद्वा।
अटित सकल तीर्थव्राजको वाहिताग्निर्नहि
हृदि यदि रामः सर्वमेतत्वृथा स्यात्।।

चाहे सारे वेद-शास्त्रों को पढ़लो, चाहे यम नियम आदि कर लो, चाहे धर्मशास्त्र को मनन कर लो और चाहे सारे तीर्थ कर लो, अगर आपके दिल में राम नहीं हैं तो सब वृथा है ।
इसीलिए तुलसीदास जी कहते हैं, कि दोस्तों से दोस्ती और दुश्मनो से दुश्मनी छोड़कर एवं संसार से उदासीन होकर भगवान् से प्रीति करो । मतलब यह है, कि न किसी से राग करो और न किसी से द्वेष; सबको उदासीन होकर देखो । जब आपका दिल राज-द्वेषादि से शुद्ध होगा - इस दुनिया में न कोई आपका प्यारा होगा और न कोई कुप्यारा; तभी आपका दिल एक भगवान् में लगेगा । 

सुंदरदास जी कहते हैं - 
१)
काहे कूँ फिरत नर! दीन भयो घर-घर।
देखियत, तेरो तो आहार इक सेर है।।
जाको देह सागर में, सुन्यो शत योजन को।
ताहू कूँ तो देत प्रभु, या में नहिं फेर है।।
भूको कोउ रहत न, जानिये जगत मांहि।
कीरी अरु कुञ्जर, सबन ही कूँ देत है।।
"सुन्दर" कहत, विश्वास क्यों न राखे शठ?
बेर-बेर समझाय, कह्यौ केती बेर है।। २ ।।

२)
काहे कूँ दौरत है दशहुं दिशि?
तू नर ! देख कियो हरिजू को।
बैठी रहै दूरिके मुख मुंदी,
उघारत दांत खवाइहि टूको।
गर्भ थके प्रतिपाल करी जिन,
होइ रह्यो तबहिं जड़ मूको।
"सुन्दर" क्यूँ बिल्लात फिरे अब? 
राख ह्रदय विश्वास प्रभु को।। २ ।।

१)
हे पुरुष ! तू दीन होकर क्यों घर-घर मारा-मारा फिरता है ? हैख, तेरा पेट तो एक सेर आते में भर जाता है। सुनते हैं, समुद्र में जिसका शरीर चार सौ कोस लम्बा चौड़ा है, उसको भी प्रभु भोजन पहुंचाते हैं, इसमें ज़रा भी शक नहीं । संसार में कोई भी भूखा नहीं रहता । वह जगदीश चींटी और हाथी सबका पेट भरते हैं । अरे शठ ! विश्वास क्यों नहीं रखता ? सुन्दरदास कहते हैं, मैंने तुझे यह बात बारम्बार कितनी बार नहिं समझाई है ?

२)
अरे ! तू दशों दिशाओं में क्यों भागता फिरता है ? तू भगवान् के किये कामों का ख्याल कर। देख, जब तू मुंह बन्द किये हुए छिपा बैठा था, तब भी तुझे खाने को पहुँचाया और जब तेरे दांत आ गए तब भी तेरे मुंह खोलते ही खाने को टुकड़ा दिया । जिस प्रभु ने तेरी गर्भावस्था से ही - जबकि तू जड़ और मूक था - पालना की है, वही क्या अब तेरी खबर न लेगा? सुन्दरदास जी कहते हैं, तू क्यों चीखता फिरता है ? भगवान् का भरोसा रख; वही प्रभु अब भी तेरी पालना करेंगे।
सारांश यह कि बुद्धिमान को दुनिया के घमण्डी लोगों की खुशामद छोड़, केवल उसकी खुशामद और नौकरी करनी चाहिए, जिसके दिल में न घमण्ड है और न क्रूरता । जो उसकी शरण में जाता है, उसी की वह अवश्य प्रतिपालना करता और उसके दुःख दूर करने को हाज़रा हुज़ूर खड़ा रहता है । मनुष्य ! तेरी ज़िन्दगी अढ़ाई मिनट की है । इस अढ़ाई मिनट की ज़िन्दगी को वृथा बरबाद न कर । इसे ख़तम होते देर न लगेगी । राजाओं और अमीरों की सेवा-टहल और लल्लो-चप्पो में यह शीघ्र ही पूरी हो जाएगी और उनसे तेरी कामना भी सिद्ध न होगी । यदि तू सबका आसरा छोड़, जगदीश की ही चाकरी करेगा; तो निश्चय ही तेरा भला होगा - तेरे दुखों का अवसान हो जायेगा; तुझे फिर जन्म लेकर घोर कष्ट न सहने होंगे; तुझे नित्य और चिरस्थायी शान्ति मिलेगी । अरे ! तू साड़ी चतुराई और चालाकियों को छोड़कर, एक इस चतुराई को कर; क्योंकि यह चातुरी सच्ची चातुरी है । जो जगदीश को प्रसन्न कर लेता है, वही सच्चा चतुर है ।

कहा है -

या राका शशि-शोभना गतघना सा यामिनी यामिनी।
या सौन्दर्य्य-गुणान्विता पतिरता सा कामिनी कामिनी।।
या गोविन्द-रस-प्रमोद मधुरा सा माधुरी माधुरी।
या लोकद्वय साधनी तनुभृतां सा चातुरी चातुरी।।

मेघावरण शून्य पूर्ण-चन्द्रमा से शोभायमान जो रात्रि है, वही रात्रि है । जो सुंदरी है, गुणवती है और पति में भक्ति रखनेवाली है, वही कामिनी है । कृष्ण के प्रेम के आनन्द से मनोहर मधुरता ही मधुरता है । शरीरधारियों का दोनों लोक में उपकार करनेवाली जो चतुराई है, वही चतुराई है ।


दोहा

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नृप-सेवा में तुच्छ फल, बुरी काल की व्याधि।
अपनों हित चाहत कियो, तौ तू तप आराधि।।



भोगा मेघवितानमध्यविलसत्सौदामिनीचञ्चला 
आयुर्वायुविघट्टिताभ्रपटलीलीनाम्बुवद्भङ्गुरम्।
लोला यौवनलालसा तनुभृतामित्याकलय्य द्रुतं
योगे धैर्यसमाधिसिद्धिसुलभे बुद्धिं विधध्वं बुधाः।। ५४ ।।

अर्थ:
देहधारियों के भोग - विषय सुख - सघन बादलों में चमकनेवाली बिजली की तरह चञ्चल हैं; मनुष्यों की आयु या उम्र हवा से छिन्न भिन्न हुए बादलों के जल के समान क्षणस्थायी या नाशमान है और जवानी की उमंग भी स्थिर नहीं है । इसलिए बुद्धिमानो ! धैर्य से चित्त को एकाग्र करके उसे योगसाधन में लगाओ ।

संसार और संसार के सारे पदार्थ आसार और नाशमान हैं । यहाँ जो दिखाई देता है वह स्थिर न रहेगा। यह जो अथाह जल से भरा हुआ समन्दर दिखाई देता है, किसी दिन मरुस्थल में परिणत हो जाएगा; पानी की एक बूँद भी नहीं मिलेगी । यह बगीचा जो आज इंद्रा के बगीचे की बराबरी कर रहा है, जिसमें हज़ारों तरह के फलों के वृक्ष लगे रहते हैं, हौज़ बने हुए हैं, छोटी छोटी नहरे कटी हुई हैं, संगमरमर और संगे-मूसा के चबूतरे बने हुए हैं, बीच में इन्द्रभवन के जैसा महल खड़ा है, किसी दिन उजाड़ हो जाएगा; इसमें स्यार, लोमड़ी और जरख प्रभृति पशु बसेरा लेंगे । यह जो सामने महलों की नगरी दीखती है, जिसमें हज़ारों दुमंजिले, तिमंज़िले, चौमंज़िले और सतमंज़िले आलिशान मकान खड़े हुए आकाश को चूम रहे हैं, जहाँ लाखों मनुष्यों के आने जाने और काम धंधा करने के कारण पीठ-से-पीठ छिलती है, किसी दिन यहाँ घोर भयानक वन हो जाएगा । मनुष्यों के स्थान में सिंह, बाघ, हाथी, गैंडे, हिरन और स्यार प्रभृति पशु आ बसेंगे । और तो क्या - यह सूर्य, जो अपने तेज से तीनो लोकों प्रकाश फैलता है, अंधकार रूप हो जाएगा । यह अमृत से पूर्ण सुधाकर - चन्द्रमा भी शून्य हो जायेगा । इसकी शीतल चांदनी न जाने कहाँ विलीन हो जाएगी ? हिमालय और सुमेरु जैसे पर्वत एक दिन मिटटी में मिल जायेंगे। यह ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र भी शून्य हो जाएगने । सारा जगत नाश हो जायेगा । ये स्त्री, पुत्र, नाते-रिश्तेदार न जाने कहाँ छिप जायेंगे ? युगों की सहस्त्र चौकड़ियों का ब्राह्मण का एक दिन होता है । उस दिन के पूरे होते ही प्रलय होती है । तब इस जगत की रचना करने वाला ब्रह्मा भी नष्ट हो जाता है । आज तक अनगिनती ब्रह्मा हुए । उन्होंने जगत की रचना की और अंत में स्वयं नष्ट हो गए । जब हमारे पैदा करनेवाले का यह हाल है, तब हमारी क्या गिनती ?
या काया - जिसे मनुष्य अपना सर्वस्व समझता है, जिसे मल-मल कर धोता है, इत्र फुलेलों से सुवासित करता, नाना प्रकार के रत्नजड़ित मनोहर गहने पहनता, कष्ट से बचने और सुखी होने के लिए नरम-नरम मखमली गद्दों पर सोता, पैरों को तकलीफ से बचाने के लिए जोड़ी-गाडी या मोटर में चढ़ता है - एक दिन नाश हो जाएगी; पांच तत्वों से बानी हुई काया, पांच तत्वों में ही विलीन हो जाएगी । जिस तरह पत्ते पर पड़ी हुई जल की बूँद क्षणस्थायी होती है; उसी तरह यह काया क्षणभंगुर है । दीपक और बिजली का प्रकाश आता जाता दीखता है, पर इस काया का आदि-अन्त नहीं दीखता । यह काया कहाँ से आती है और कहाँ जाती है । जिस तरह समुद्र में बुद्बुदे उठते और मिट जाते हैं; उसी तरह शरीर बनते और क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं । सच तो यह है कि यह शरीर बिजली की चमक और बादल की छाया की तरह चञ्चल और अस्थिर है । जिस दिन जन्म लिया, उसी दिन मौत पीछे पद गयी; अब वह अपना समय देखती है और समय पूर्ण होते ही प्राणी को नष्ट कर देती है ।

जिस तरह जल की तरंगे उठ उठ कर नष्ट हो जाती है; उसी तरह लक्ष्मी आकर क्षणभर में विलीन हो जाती है । जिस तरह बिजली चमक कर गायब हो जाती है; उसी तरह लक्ष्मी दर्शन देकर गायब हो जाती है । हवा और चपला को रोकना अत्यन्त कठिन है, पर शायद कोई उन्हें रोक सके; आकाश का चूर्ण करना अतीव कठिन है, पर शायद कोई आकाश को भी चूर्ण करने में समर्थ हो जाये; समुद्र को भुजाओं से तैरना बाउट कठिन है, पर शायद कोई तैरकर उसे भी पार कर सके; इतने असम्भव काम शायद को सामर्थ्यवान कर सके, पर चञ्चला लक्ष्मी को कोई भी स्थिर नहीं कर सकता। जिस तरह अंजलि में जल नहीं ठहरता; उसी तरह लक्ष्मी भी किसी के पास नहीं ठहरती । जिस तरह वेश्या एक पुरुष से राज़ी नहीं रहती, नित नए पुरुषों को चाहती है; उसी तरह लक्ष्मी भी किसी एक के पास नहीं रहती, नित नए पुरुषों को भजती है । इसी से वेश्या और लक्ष्मी दोनों को ही चपला कहते हैं ।
जिस तरह सांसारिक पदार्थ लक्ष्मी और विषय-भोग तथा आयु चञ्चल और क्षणस्थायी है; उसी तरह यौवन या जवानी भी क्षणस्थायी है । जवानी आते दीखती है, पर जाते मालूम नहीं होती । हवा की अपेक्षा भी तेज़ चाल से दिन-रात होते है और उसी तेज़ी से जवानी झट ख़त्म हो जाती और बुढ़ापा आ जाता है । उस समय विस्मय होने लगता है । यह शरीर तभी तक सुन्दर और मनोहर लगता है, जब तक बुढ़ापा नहीं आता । बुढ़ापा आते ही वह उछल-कूद, वह अकड़-तकड़, वह चमक-दमक, वह सुर्खी, वह छातियों का उभार, वह नयनों का रसीलापन न जाने कहाँ गायब हो जाता है । असल में यौवन के लिए बुढ़ापा, राहु है । जिस तरह चन्द्रमा को जब तक राहु नहीं ग्रसता, तभी तक प्रकाश रहता है; उसी तरह जब तक बुढ़ापा नहीं आता, तभी तक शरीर का सौंदर्य और रूप-लावण्य बना रहता है । प्राणियों को बाल्यावस्था के बाद युवावस्था और युवावस्था के बाद वृद्धावस्था अवश्य आती है । युवावस्था सदा नहीं रहती; अच्छी तरह गहरा विचार करने से जवानी क्षणभर की मालूम होती है ।
संसार में जो नाना प्रकार के मनभावन पदार्थ दिखाई देते है, ये सभी नाशमान है । ये सब वास्तव में कुछ भी नहीं; केवल मन की कल्पना से इनकी सृष्टि की गयी है । मूर्ख ही इनमें आस्था रखते हैं, ज्ञानी नहीं ।
इस जगत में ज्ञानी का जीवन सार्थक और अज्ञानी का निरर्थक है । अज्ञानी के जीने से कोई लाभ नहीं। उसके जीने से अर्थ-सिद्धि नहीं होती । वह वृथा सुअवसर गंवाता है । मूर्ख मोह के मारे नहीं समझता, कि ऐसा मौका बड़ी मुश्किल से मिला है । इस बारे चुके तो खैर नहीं । अज्ञानी अपनी अज्ञानता या मोह के कारन ही नाशमान और दुखों के मूल विषयों की ओर दौड़ता है, पर आयु, यौवन और विषयों की क्षणभंगुरता पर ध्यान नहीं देता । यह मायामोह नहीं तो क्या है ?
"सुभाषितावली" में लिखा है -
चला विभूतिः क्षणभंगी यौवनं कृतान्तदन्तान्तर्वर्त्ति जीवितं।
तथाप्यवज्ञा परलोकसाधने नृणामहो विस्मयकारि चेष्टितं।।

विभूति चञ्चल है, यौवन क्षणभंगुर है, जीवन काल के दांतो में है; तो भी लोग परलोक साधन की परवाह नहीं करते। मनुष्यों की यह चेष्टा विस्मयकारक है !

फिरदौसी ने "शाहना" में कहा है - "मनुष्य इस नापायेदार दुनिया से क्यों दिल लगाते हैं; जबकि मौत का नक्कारा दरवाजे पर बज रहा है ।
मनुष्यों ! होश करो, गफलत की नींद छोडो। वह देखो ! मौत आपका द्वार खटखटा रही है । अब तो मिथ्या संसार का मोह त्यागो । ये जो स्त्री, पुत्र, भाई, बहन, माता-पिता आदि प्यारे और समबन्धी दिखाई देते है, ये उसी वक्त तक हैं, जब तक की शरीर नाश नहीं हुआ है। शरीर के नाश होते ही ये नज़र भी न आएंगे । यह भी समझ में न आवेगा कि कहाँ से आये थे और कहाँ गए। यह बन्धु-बान्धवों का मिलना उन यात्रियों या मुसाफिरों की तरह है, जो भिन्न-भिन्न स्थानों से सफर करते हुए एक वृक्ष के नीचे आकर ठहर जाते हैं और क्षणभर विश्राम लेकर फिर अपनी अपनी राह पर चल देते हैं या उन मुसाफिरों की तरह है, जो अनेक स्थानों से आकर एक सराय या धर्मशाला में ठहरते हैं; और फिर कोई दो दिन, कोई चार दिन ठहर कर अपनी अपनी जगह को चल देते हैं । वृक्षों के नीचे चन्द मिनट ठहरने वालों अथवा सराय के मुसाफिरों का आपस में प्रीती करना क्या अक्लमन्दी है ? जिनका क्षणभर का साथ है, उनमें दिल फंसना, दुःख मोल लेना है । उनके अलग होते ही मन में भयानक वेदना होगी, अतः उनके साथ कोई सरोकार न रखना चाहिए । यह संसार दो स्थानों के बीच का स्थान है । यात्री यहाँ आकर क्षणभर के लिए आराम करते और फिर आगे चले जाते हैं । ऐसे यात्रियों का आपस में मेल बढ़ाना, एक-दुसरे की मुहब्बत के फन्दे में फंसना, सचमुच ही दुःखोत्पादक है । समझदार लोग, मुसाफिरों से दिल नहीं लगाते - उनसे प्रेम नहीं करते - उन्हें अपना-पराया नहीं समझते । न उन्हें किसी से राग है न द्वेष। वे सबको समदृष्टि या एक नज़र से देखते हुए सहाय्य करते और उनका कष्ट निवारण करते हैं, पर उनसे प्रीती नहीं करते; लेकिन मूर्ख लोग स्त्री-पुत्र और माता-पिता प्रभृति को अपना प्यारा समझते और दूसरों को पराया समझते हैं । इस जगत में न कोई अपना है न कोई पराया । यह जगत एक वृक्ष है । इस पर हज़ारों लाखों पक्षी भिन्न भिन्न स्थानों से आकर रात को बसेरा लेते और सवेरे ही अपने अपने स्थानों को उड़ जाते हैं भिन्न भिन्न स्थानों से आये हुए पक्षियों को क्या रातभर के साथ के लिए आपस में नाता जोड़ना चाहिए? हरगिज़ नहीं। दूसरों से समबन्ध जोड़ना, किसी को अपना पुत्र और किसी को अपनी स्त्री एवं किसी को माँ या बहन समझकर स्नेह करना तो मूर्खता ही है । स्नेह तो अपनी काया से भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह भी क्षणभंगुर है - सदा साथ न रहेगी ।
महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं -
बालू के मन्दिर मांहि, बैठी रह्यो स्थिर होइ ।
राखत है जीवन की आश, केउ दिन की।।
पल-पल छीजत, घटत जाट घरी-घरी।
विनाशत बेर कहाँ? खबर न छिन की।।
करत उपाय, झूठे लेन-देन खान-पान।
मूसा इत-उत फायर, ताकि रही मिनकी।। १ ।।

देह सनेह न छाँडत है नर।
जानत है थिर है ये देहा।।
छीजत जात घटै दिन ही दिन।
दीसत है घट को नित छेहा।।
काल अचानक आय गहे कर।
ठाँह गिराई करे तन खेहा।।
"सुन्दर" जानि यह निहचै धर।
एक निरंजन सूँ कर नेहा।।

अरे मूर्ख ! तू इस शरीर की मुहब्बत नहीं छोड़ता, यह तेरी बड़ी भूल है । तू इस बालू के घर को स्थिर या चिरस्थायी समझता है; पर यह दिन-पर-दिन छीजता और घटता जाता है । हमें तो इस घट का नित्य क्षय ही दीखता है । देख, किसी दिन काल अचानक आकर तेरे हाथ पकड़ लेगा और तुझे गिराकर तेरे शरीर को ख़ाक कर देगा । सुन्दरदास जी  कहते हैं - अरे मूर्ख ! तू मेरी बात को - मेरी सलाह को ठीक समझ,  इसमें मीन मेख न लगा । यह अटल बात है और बातों में चाहे फर्क पड़ जाय पर इसमें फर्क नहीं पड़ने का । इसलिए तू अपने इस शरीर से, अपने स्त्री-पुत्रों से और अपनी दौलत से मुहब्बत छोड़कर, एकमात्र जगदीश से प्रेम कर । उनसे स्नेह करेगा तो सदा सुख पायेगा और इनसे मुहब्बत रखेगा तो घोरातिघोर दुःख भोगेगा ।

महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं - अरे अज्ञानी मनुष्य ! मुझे तेरी इस बात पर बड़ा ही अचम्भा आता है कि तू इस बालू के मकान में निःशंक और मस्त होकर बैठा हुआ है और कितने ही दिनों तक जीने की उम्मीद रखता है । यह तेरा बालू का घर, हर क्षण छीजता और घटता जाता है।  इसको नाश होते कितनी देर लगेगी ? मुझे तो एक पल का भी भरोसा नहीं है । तू इस बालू के क्षणभंगुर घर में बेखटके बैठा हुआ अनेक तरह के झूठे उपाय-उद्योग, लेन-देन और खान-पान करता है । तू चूहे की तरह इधर-उधर उछलता कूदता फिरता है । क्या तुझे खबर नहीं कि जिस तरह बिल्ली, चूहे की ताक में बैठी रहती है; उसी तरह तेरी घात में मौत बैठी है ।

खुलासा - ज़रा भी समझ रखनेवाले समझ सकते हैं कि प्राणियों के शरीर के भीतर कोई ऐसी चीज़ है, जिसके रहने से प्राणी चलते-फिरते, काम-धंधा करते और ज़िंदा समझे जाते हैं । जिस वक्त वह चीज़ शरीर से निकल जाती है, उस वक्त मनुष्य मुर्दा हो जाता है, उस समय वह न तो चल-फिर सकता है, न देख-सुन या कोई और काम कर सकता है । जिस चीज़ के प्रकाश से शरीर में प्रकाश रहता है, जिसके बल से यह काम-धंधे करता और बोलता चालता है, उसे जीव या आत्मा कहते हैं । हमारा शरीर हमारे आत्मा के रहने का घर है । जिस तरह मकान में मोरी, परनाले, खिड़की और जंगले होते हैं; उसी तरह आत्मा के रहने के इस शरीर रुपी घर में भी मोरी और परनाले वगैरह हैं । आँख, कान, नाक और मुंह प्रभृति इस शरीर रुपी घर के द्वार और गुदा-लिङ्ग या योनि वगैरह मोरी-परनाले हैं । शरीर के करोड़ों छेद इस मकान के जंगले और खिड़कियां हैं । मतलब यह कि, यह शरीर आत्मा या जीव के बसने का घर है । यह घर मिटटी और जल प्रभृति पञ्च-तत्वों से बना हुआ है इस घर के बनाने वाला कारीगर परमात्मा है ।

जिस तरह परमात्मा ने आत्मा के रहने के लिए पांच तत्वों से बने यह शरीर रुपी घर बना दिया है; उसी तरह हमने भी अपने इस आत्मा के शरीर की रक्षा के लिए - मेह पानी और धूप आदि से बचने के लिए - मिटटी या ईंट पत्थर प्रभृति के मकान बना लिए है । हमारे बनाये हुए ईंट पत्थरों के मकान सौ-सौ, दो-दो सौ और पांच-पांच सौ बरसों तक रह सकते हैं । हज़ार हज़ार बरस से ज्यादा मुद्दत के बने हुए मकान आज तक खड़े हुए हैं । पर हमारे आत्मा के रहने का पञ्च तत्वों से बना हुआ मकान इतना मजबूत नहीं - वह क्षणभर में ढह जाता है । इसलिए इस आत्मा के मकान - शरीर - को महात्मा सुन्दरदास जी बालू का मकान कहते हैं । क्योंकि बालू का मकान इधर बनता और उधर गिर पड़ता है । उसकी उम्र पल भर की भी नहीं । 

मनुष्य अज्ञान और मोह से अँधा रहने के कारण, इस बालू के मकान की क्षणभंगुरता का कभी ख्याल भी नहीं करता । वह इस बालू के मकान में ही सैकड़ों बरसों तक रहने की आशा करता है ! मनुष्य की इस गफलत और बेहोशीपर पूर्णज्ञानी महात्मा सुन्दरदास जी को दुःख और आश्चर्य होता है । महापुरुष सदा पराया भला चाहा करते हैं; वे दूसरों को दुःख और क्लेशों से बचाना अपना कर्तव्य और फ़र्ज़ समझते हैं, इसलिए वे अज्ञानान्धकार में डूबे हुए मनुष्यों को सावधान करने के लिए कहते हैं - अरे मूर्ख ! तू इस बालू के घर में रहकर भी बरसों जीने की - इस घर में रहने की - आशा करता है ? अरे नादान ! होश कर ! जाग ! तेरा यह बालू का घर पलक मारते गिर जायेगा ! जबसे तू इस बालू के घर में आया है, तभी से इसकी नींव हिलने लग गयी है । एक मिनट या एक सेकंड में ये गिर सकता है । ऐसे क्षणभंगुर घर में रहकर तू मकान बनवाता है; बाग़-बगीचे लगवाता है; किसी को अपनी स्त्री, किसी को अपना पुत्र और किसी को अपना बाप, भाई या मित्र समझता है; इनके मोह-जाल में फंसता है; बेहोशी में, लोग पर अत्याचार और जुल्म करता एवं पराया धन हडपता है ! मुझे तेरी इन करतूतों को देखकर बिहायत आश्चर्य भी होता और दुःख भी होता है ! सच तो यह है कि, मुझे तेरी नादानी पर तरस आता है । खैर, जो हुआ सो हुआ, अब भी चेत जा !! धन-दौलत, स्त्री-पुत्र, राज-पाट और ज़मींदारी का मोह त्यागकर अपने बनानेवाले कि शरण में जा । वही तेरे इस बालू के घर में बारम्बार आने और क्षणभर में इसे छोड़ भागने के घोर कष्ट को दूर कर सकता है । अगर तू इस जञ्जाल में फंसा रहेगा, मेरी बात पर ध्यान न देगा, तो पीछे बहुत पछतावेगा ।  जिस समय तेरा यह घर गिरने पर आवेगा, तू इसे छोड़ने के लिए मजबूर होगा; उस समय तू हज़ार चाहने और हज़ार रोने-कलपनेपर भी इसमें क्षणभर भी न रह सकेगा । जब तक तू इस बालू के घर में है, तभी तक तेरी स्त्री और तभी तक तेरा पुत्र और धन-दौलत  आदि हैं । जहाँ तैने यह घर छोड़ा या तेरा यह घर गिरा; फिर न तुझे स्त्री दीखेगी, न पुत्र दीखेगा और न धन-दौलत ही । यह बालू का घर तुझे क्षणभर के लिए, इस गरज़ से मिला है कि, तू इसमें जितनी देर रहे उतनी देर जगदीश की भक्ति करके, अपने कर्मबन्धन काटले और जन्म-मरण के झंझटों से बचकर, अपने मालिक में मिल जावे; ताकि फिर तुझे कभी दुःख न भोगने पड़े - तू सदा-सर्वदा - अनन्त काल तक नित्य और अविनाशी सुख भोगता रहे ।

लक्ष्मी क्षणभंगुर है । समुद्र में जिस तरह तरंगे उठती और विलीन हो जाती हैं; उसी तरह लक्ष्मी से विषय-भोग उपजते और नष्ट हो जाते हैं । जिस तरह चपला की चमक स्थिर नहीं रहती; उसी तरह भोग भी स्थिर नहीं रहते । विषयों के भोगने से तृष्णा घटती नहीं, बल्कि बढ़ती है । तृष्णा के उदय होने से पुरुष के सब गन नष्ट हो जाते हैं । दूध में मधुरता उसी समय तक रहती है, जब तक की उसे सर्प नहीं छूता; पुरुष में गन भी उसी समय तक रहते हैं, जब तक कि तृष्णा का स्पर्श नहीं होता । अतः बुद्धिमानो ! अनित्य, नाशमान एवं दुखों कि खान, विष-समान विषयों से दूर रखो; क्योंकि इनमें ज़रा भी सुख नहीं । जब तक विषय-भोग रहेंगे तभी तक आप सुखी रहेंगे; पर एक-न-एक दिन उनसे आप का वियोग अवश्य होगा; उस समय आप तृष्णा कि आग में जलोगे, बारम्बार जन्म लोगे और मरोगे; अतः इन्द्रियों को वश में करो और एकाग्र चित्त से परमात्मा का भजन करो; क्योंकि विषयों को भोगने से नरकाग्नि में जलोगे और जन्म-मरण के घोर संकट सहोगे; पर परमात्मा के भजन या योगसाधन से नित्य सुख भोगते हुए परमानन्द में लीन हो जाओगे ।

बहुत से मनुष्य मन को एकाग्र नहीं करते, पर दिखावटी माला जपते हैं, गोमुखी में सड़ा-सड़ हाथ चलते हैं, "गीता" और "विष्णु सहस्त्रनाम" प्रभृति का पाठ करते हैं और बीच बीच में कारोबार की बातें भी करते रहते हैं अथवा स्त्री बच्चो के झगडे निपटाया करते हैं । ऐसे भजन करने और माला फेरने से कोई लाभ नहीं । इस तरह समय वृथा नष्ट होता है । मन के एक ठौर हुए बिना, शांत और स्थिर हुए बिना सब वृथा है ।
महात्मा कबीर ने ठीक ही कहा है -
जेती लहर समुद्र की, तेति मन की दौरि।
सहजै हीरा उपजै, जो मन आवै ठौरि।।
माला फेरत युग गया, पाया न मनका फेर।
कर का मनका छाँड़ि के, मन का मनका फेर।।
मूँड़ मुड़ावत दिन गए, अजहुँ न मिलिया राम।
राम नाम कहो क्या करै, मन के औरे काम।।
तन को योगी सब करें, मन को विरला कोय।
सहजै सब विधि पाइये, जो मन योगी होय।।

जितनी समुद्र की लहरें है; उतनी ही मन की दौड़ है। अगर मन ठिकाने आ जाय, उसमें समुद्र की सी तरंगे न उठें, तो सहज हीरा पैदा हो जाय; यानी परमात्मा मिल जाय ।
माला फेरते-फेरते युग बीत गया, पर मनका फेर न मिला; अतः हाथ का मनिया छोड़कर, मनका मनिया फेर। हाथ की माला फेरने से कोई लाभ नहीं; लाभ है मन की माला फेरने से । मन लगाकर एक बार भी ईश्वर को याद करने से बड़ा फल मिलता है; पर चञ्चल चित्त से दिन-रात माला फेरने से भी कुछ नहीं मिलता ।
मूँड़ मुड़ाते अनेक दिन हो गए, पर आज तक भगवान् न मिले । मिले कैसे ? मन राम में लगे तब तो राम मिले ? जिस तरह रवि और रजनी - दिन और रात - एकत्र नहीं होते, उसी तरह राम और काम एकत्र नहीं मिलते । जहाँ काम है, वह राम नहीं और जहाँ राम है, वह काम नहीं ।
तन को योगी सब करते हैं, पर मन को कोई ही योगी करता है । अगर मन होगी हो जाय, तो सहज में सिद्धि मिल जाय । लोग गेरुए कपडे पहन लेते हैं, जटा रखा लेते हैं, हाथ में कमण्डल और बगल में मृगछाला ले लेते हैं - इस तरह योगी बन जाते हैं, पर मन उनका संसारी भोगो में ही लगा रहता है; इसलिए उन्हें सिद्धि नहीं मिलती - ईश्वर दर्शन नहीं होता । अगर वे लोग कपडे चाहें गृहस्थों के ही पहनें, गृशस्थों की तरह ही खाएं-पीएं; पर मन को एक परमात्मा में रक्खें, तो निश्चय ही उन्हें भगवान् मिल जाएं । जो मनुष्य गृशस्थ आश्रम में रहता है, पर उसमें आसक्ति  नहीं रखता, यानी जल में कमल की तरह रहता है, उसकी मुक्ति निश्चय ही हो जाती है; पर जो सन्यासी होकर विषयों में आसक्ति रखता है उसकी मोक्ष नहीं होती । राजा जनक गृहस्थी में रहते थे; सब तरह के राजभोग भोगते थे; पर भोगों में उनकी आसक्ति नहीं थी, इसी से उनकी मुक्ति हो गयी ।

सारांश - विषय-भोग, आयु और यौवन को अनित्य और क्षणभंगुर समझकर इनमें आसक्ति न रखो और मन को एकाग्र करके हर क्षण परमात्मा का भजन करो - तो जन्म-मरण से छुटकारा मिल जाय और परमानन्द की प्राप्ति हो जाय । 
कबीरदास जी कहते हैं -
कहा भरोसो देह को, विनसि जाय छीन मांहि।
श्वास श्वास सुमिरन करो, और जतन कछु नांहि।।

इस शरीर का क्या भरोसा ? यह क्षणभर में नष्ट हो जाय । इस दशा में सर्वोत्तम उपाय यही है कि, हर सांस पर परमात्मा का नाम लो । बिना उसके नाम के कोई सांस न जाने पावे । बस, इससे बढ़कर उद्धार का और उपाय नहीं है ।

कुण्डलिया
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जैसे चञ्चल चञ्चला, त्योंही चञ्चल भोग।
तैसेही यह आयु है, ज्यों घट पवन प्रयोग।
ज्यों घट पवन प्रयोग, तरल त्योंही यौवन तन।
विनस न लगत न वार, गहत ह्वै जात ओसकन।
देख्यौ दुःसह दुःख, देहधारिन को ऐसे।
साधत सन्त समाधि, व्याधि सों छूटत जैसे।।

विनस - विनाश; वार - समय; गहत - पकड़ते हो; ओसकन - ओंस के कण 


पुण्ये ग्रामे वने वा महति सितपटच्छन्नपालिं कपाली-
मादाय न्यायगर्भद्विजहुतहुतभुग्धूमधूम्रोपकण्ठं।
द्वारंद्वारं प्रवृत्तो वरमुदरदरीपूरणाय क्षुधार्तो
मानी प्राणी स धन्यो न पुनरनुदिनं तुल्यकुल्येषुदीनः।। ५५ ।।

अर्थ:
वह क्षुधार्त किन्तु मानी पुरुष, जो अपने पेट-रुपी खड्डे के भरने के लिए हाथ में पवित्र साफ़ कपडे से ढका हुआ ठीकरा लेकर वन-वन और गांव-गांव घूमता है और उनके दरवाज़े पर जाता है, जिनकी चौखट न्यायतः विद्वान ब्राह्मणो द्वारा कराये हुए हवन के धुएं से मलिन हो रही है, अच्छा है; किन्तु वह अच्छा नहीं, जो समान कुलवालों के यहाँ जाकर मांगता है ।

तुलसीदास जी ने भी कहा है -
घर में भूखा पड़ रहे, दस फाके हो जाएँ।
तुलसी भैय्या बन्धु के, कबहुँ न माँगन जाय।।

तुलसीदास जी कहते है, अगर मनुष्य के पास खाने को न हो, उसको उपवास करते करते दस दिन बीत जाएं, अन्न बिना प्राण नाश होने की सम्भावना हो; तो भी उसे अपनी या अपने परिवार की जीवन रक्षा के लिए, कुछ मिलने की आशा से, भाई बन्धुओं के पास हरगिज़ न जाना चाहिए । क्योंकि ऐसे मौके पर वे लोग उसका अपमान करते हैं । उस अपमान का दुःख भोजन बिना प्राण नाश होने के दुःख से अधिक दुःखदायी होता है । मृत्यु की यंत्रणाओं का सहना आसान है, पर उस अपमान को सहना कठिन है ।

और भी किसी ने कहा है -
वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्र सेवितं।
द्रमालयः पक्कफलाम्बु भोजनं।।
तृणानि शय्या परिधान वल्कलं।
न बन्धुमध्ये धनहीन जीवनं।

व्याघ्र और हाथियों से भरे हुए जंगल में रहना भला, वृक्षों के नीचे बसना भला, पके-पके फल खाना और जल पीना भला, घास पर सो रहना और छालों के कपडे पहन लेना भला; पर भाइयों के बीच में धनहीन होकर रहना भला नहीं ।



चाण्डाल किमयं द्विजातिरथवा शूद्रोऽथ किं तापसः
किं वा तत्त्वविवेकपेशलमतिर्योगीश्वरः कोऽपि किम्।
इत्युत्पन्नविकल्पजल्पमुखरैः सम्भाष्यमाणा जनैः
न क्रुद्धाः पथि नैव तुष्टमनसो यान्ति स्वयं योगिनः।। ५६ ।।

अर्थ:
यह चाण्डाल है या ब्राह्मण है? यह शूद्र है या तपस्वी है? क्या यह तत्वविद योगीश्वर है ? लोगों द्वारा ऐसी अनेक प्रकार की संशय और तर्कयुक्त बातें सुनकर भी योगी लोग न नाराज़ होते हैं न खुश; वे तो सावधान चित्त से अपनी राह चले जाते हैं । 

योगीजन लोगों की बुरी भली बातों का ख्याल नहीं करते; कोई कुछ भी क्यों न कहा करे । चाहे उन्हें कोई शूद्र कहे, चाहे ब्राह्मण, चाहे भंगी और चाहे तपस्वी; चाहे कोई निंदा करे, चाहे स्तुति; वे अच्छी बात से प्रसन्न और बुरी बात से अप्रसन्न नहीं होते सच्चे महात्मा हर्ष शोक, दुःख-सुख और मान-अपमान सबको समान समझते हैं । 

योगेश्वर कृष्ण ने "गीता" के दुसरे अध्याय में कहा है -
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।

जो दुःख के समय दुखी नहीं होता; जो राग, भय और क्रोध से रहित है, वह "स्थितप्रज्ञ" मुनि है।
बुद्धिमान को किसी बात की परवाह न करनी चाहिए । हाथी की तरह रहना चाहिए । हाथी के पीछे हज़ारों कुत्ते भौंकते हैं, पर वह उनकी तरफ देखता भी नहीं ।

महात्मा कबीरदास जी कहते हैं - 
हस्ती चढ़िये ज्ञान के, सहज हुलीचा डारि।
श्वान-रूप संसार है, भूसनदे झकमारि।।

"कबिरा" काहे को डरै, सिर पर सिरजनहार?
हस्ती चढ़ दुरिये नहीं, कूकर भूसे हज़ार।

महाकवि रहीम कहते हैं -
जो बड़ेन को लघु कहौ, नहिं "रहीम" घट जाहिं।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं।।

सज्जन चित्त कबहुँ न धरत, दुर्जन जान के बोल।
पाहन मारे आम को, तउ फल देत अमोल।।

आप ज्ञान रुपी हाथी पर चढ़कर मस्त हो जाओ; किसी की परवा मत करो; बकनेवालों को बकने दो । यह संसार कुत्ते की तरह है । इसे भौंकने दो । झकमार कर आप ही रह जायेगा । देखते हो, जब हाथी निकलता है, सैकड़ों कुत्ते उसके पीछे पीछे भौंकते हैं; पर वह अपनी स्वाभाविक चाल से, मस्त हुआ, शान से चला जाता है - कुत्तों की तरफ नज़र उठाकर भी नहीं देखता । वह तो चला ही जाता है और कुत्ते भी झकमार के चुप हो जाते हैं । मतलब यह है कि तुम अच्छी राह पर चलो, संसार की बुरी भली बातों पर ध्यान मत दो । हाथी का अनुकरण करो ।
कबीरदास कहते हैं - अरे मनुष्य ! तू क्यों डरता है, जबकि तेरे पास तेरा बनानेवाला मौजूद है ? हाथी पर चढ़कर भागना उचित नहीं, चाहे हज़ारों कुत्ते क्यों न भौंके । मतलब यह कि तुमने जो उत्तम पथ अख्तियार किया है, लोगो के बुरा भला कहने से उसे मत त्यागो । संसारी कुत्तों से न डरो, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करेगा ।
रहीम कवी कहते हैं, बड़ो को छोटा कहने से बड़े छोटे नहीं हो जाते - वे तो बड़े ही रहते हैं । गिरिराज या गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी ऊँगली पर उठानेवाले - अतुल पराक्रम दिखनेवाले कृष्ण को लोग गिरिधर की जगह मुरली या बांस की बांसुरी धारण करनेवाले मुरलीधर कहते हैं, लेकिन वे बुरा नहीं मानते ।
सज्जन लोग दुष्टों की कड़वी बातों या बोली-ठोलियों का ख्याल ही नहीं करते । लोग आम के वृक्ष के पत्थर मारते हैं, तो भी वह अनमोल फल ही देता है ।

दोहा
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विप्र शूद्र योगी तपी, सुपच कहत कर ठोक।


सबकी बातें सुनत हों, मोको हर्ष न शोक।।
सोरठा 
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विप्रन के घर जाय, भीख माँगिबो है भलो।
बन्धुन को सिरनाय, भोजनहु करिबो बुरो।।


सखे धन्याः केचित्त्रुटितभवबन्धव्यतिकरा
वनान्ते चिन्तान्तर्विषमविषयाशीविषगताः।
शरच्चन्द्रज्योत्स्नाधवलगगना भोगसुभगां 
नयन्ते ये रात्रिं सुकृतचयचित्तैकशरणाः।। ५६ ।।

अर्थ:
हे मित्र ! वे पुरुष धन्य हैं, जो शरद के चन्द्रमा की चांदनी से सफ़ेद हुए आकाशमण्डल से सुन्दर और मनोहर रात को वन में बिताते हैं, जिन्होंने संसार बन्धन को काट दिया है, जिनके अन्तः-करण से भयानक सर्प-रुपी विषय निकल गए हैं और जो सुकर्मों को ही अपना रक्षक समझते हैं ।

वही लोग सुखी हैं, वे ही लोग धन्य हैं, जो शरद की चांदनी की मनोहर रात में वन में बैठे हुए परमात्मा का भजन करते हैं, जिन्होंने संसार के जञ्जालों को काट दिया है, जिन्होंने आशा, तृष्णा और राग-द्वेष प्रभृति क्या त्याग दिया है, जिनके भीतरी दिल से विषय रुपी विषैले सर्प भाग गए हैं; यानी जिन्होंने विषयों को विष की तरह दूर कर दिया है, जिनका चित्त केवल पुण्य और परोपकार में ही लगा रहता है ।
हमें संसार की प्रत्येक चीज़ से परोपकार की शिक्षा मिलती है । वृक्ष स्वयं फल नहीं खाते, नदियां आप जल नहीं पीती, सूरज और चाँद अपने लिए नहीं घुमते, बादल अपने लिए मेह नहीं बरसाते - ये सब पराये लिए कष्ट करते हैं । हातिम और विक्रम ने पराये लिए नाना कष्ट उठाये, दधीचि और शिवि ने परोपकार के लिए अपने अपने शरीर भी दे दिए , हरिश्चन्द्र ने पराये लिए घोर दुःसह विपत्ति भोगी । जिनका जीवन परोपकार में बीतता है, उन्ही का जीवन धन्य है । 

शेख सादी ने "गुलिस्तां" में कहा है -
चूं इन्सारा न बाशद फ़ज़लो एहसाँ।
चे फ़र्क़ज़ आदमी ता नक़श दीवार।।

यदि मनुष्य में परोपकार करने की इच्छा ही नहीं है, तो उसमें और दीवार पर खींचे हुए चित्र में क्या फर्क है ? 
जिससे प्राणी मात्रा का भला हो, वही मनुष्य धन्य है । उसी की माँ का पुत्र जानना सार्थक है । 

"रहीम" कवी कहते हैं -
बड़े दीन को दुख सुने, देत दया उर आनि।
हरि हाथी सों कब हती, कहु "रहीम" पहिचानि ?
धनि "रहीम" जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाय? ।।

बड़े लोग दीन और दरिद्रों, निरन्न और दुखियों एवं म्लान और भीतों यानि ख़ौफ़ज़दों की बातें सुनते हैं, उनकी दुख-गाथाओं पर कान देते हैं; फिर ह्रदय में तरस खाकर - दया करके उन्हें कुछ देते और उनका दुख दूर करते हैं । वे इस बात को नहीं देखते कि यह हमारी पहचान का है कि नहीं; यह हमारा अपना आदमी है या गैर है । देखिये, हाथी और भगवान् की पहचान नहीं थी । फिर भी ज्योंही भगवान् को खबर मिली कि गजराज का पैर मगर ने पकड़ लिया है, अब गज का जीवन शेष होना चाहता है, उसने खूब ज़ोर मार लिया है, उसे अपने बचने की ज़रा भी आशा नहीं, इसलिए अब वह तुझे पुकार रहा है; त्योंही, जान-पहचान न होने पर भी भगवान् जल्दी के मारे नंगे पैरों भागे और हाथी की जान बचायी । गज और ग्राह की बात मशहूर है ।

मतलब यह है कि जिससे दूसरों की भलाई हो, दूसरों का दुःख दूर हो वही बड़ा है । वह बड़ा - बड़ा नहीं जिससे दूसरों का उपकार न हो । जो दीनों पर दया करते हैं, दीनों की पालना और रक्षा करते हैं, दीनों के दुःख दूर करते हैं, वे ही बड़े कहलाने योग्य हैं । भगवान् में ये गुण पूर्ण रूप से हैं; इसी से उन्हें दीनदयालु, दीनबन्धु, दीननाथ, दीनवत्सल, दीनपालक और दीनरक्षक आदि कहते हैं । मनुष्य को भगवान् ने अपने जैसा ही बनाया है, वे चाहते हैं कि मनुष्य मेरा अनुकरण करे; दीन दुखियों के दुःख दूर करे, संकट में उनकी सहायता करे, मुसीबत में उन्हें मदद दे । जो मनुष्य ऐसा करते हैं, उन्हें भी संसार दीनबन्धु आदि पदवियाँ देता है और सबसे बड़े दीनबन्धु उससे प्रसन्न होकर, उसकी साड़ी कल्पनाओं को मिटा देते हैं ।
रहीम कवी कहते हैं - कीचड का पानी धन्य है, जिसे छोटे छोटे जीव - कीड़े-मकोड़े धापकर पीते हैं । समुद्र चाहे जितना बड़ा है, पर उसमें तारीफ की कोई बात नहीं, क्योंकि उसके पास जाकर किसी की प्यास नहीं बुझती; जो भी जाता है उसके पास से प्यासा ही लौटता है ।

दोहा
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ते नर जग में धन्य हैं, शरदर्शुभ्र निशि मांहि।
तोड़े बन्धन जगत के, मनते विषयन काहि।।

सोरठा 
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विषय-सर्प को मारि, चित्त लगाय शुभ कर्म में।
पुण्यकर्म शुभधारि, त्यागे सब मन-वासना।।


तस्माद्विरमेन्द्रियार्थ गहनादायासदादाशु च
श्रेयोमार्गमशेषदुःखशमनव्यापारदक्षं क्षणाम्।
शान्तिं भावमुपैहि संत्यज निजां कल्लोललोलां मतिं
मा भूयो भज भङ्गुरां भवरतिं चेतः प्रसीदाधुना।। ५८ ।।

अर्थ:
हे चित्त ! अब विश्राम ले, इन्द्रियों के सुख सम्पादन के लिए विषयों की खोज में कठोर परिश्रम न कर; आन्तरिक शान्ति की चेष्टा कर, जिससे कल्याण हो और दुःखों का नाश हो; तरंग के समान चञ्चल चाल को छोड़ दे; संसारी पदार्थों में और सुख न मान; क्योंकि ये असार और नाशमान हैं । बहुत कहना व्यर्थ है, अब तू अपने आत्मा में ही सुख मान ।
अरे दिल ! अब तू इन्द्रियों के लिए विषय-सुखों की खोज में मत भरम, उनके लिए तकलीफ न उठा, शान्त हो जा; उनमें कुछ भी सुख नहीं है, वे तो विष से भी बुरे और काले नाग से भी भयङ्कर हैं । अरे ! अब तो मेरा कहना मान और अपनी चालों को छोड़ । देख तेरे सर पर काल मण्डरा रहा है । वह एक ही बार में तुझे निगल जायेगा । अरे भैय्या, ये इन्द्रियां बड़ी ख़राब हैं, इनमें दया-मया नहीं, यह शैतान की तरह कुराह पर ले जाती हैं । तू इनसे सावधान रह और इनके भुलावे में न आ । अब शान्त हो और कष्ट सहना सीख । अपनी चञ्चल चाल छोड़, जगत को असार और स्वप्नवत समझ । इस जञ्जाल से अलग हो । बारम्बार इसी की इच्छा न कर । अपनी आत्मा में ही मग्न हो । इस तरह अवश्य तेरा कल्याण होगा ।
कल्याण कैसा? जब तू ज्योति-स्वरुप आत्मा को देख लेगा, तब तू उसी में संतुष्ट रहेगा, उससे कभी न डिगेगा, उसके आगे सब लाभ तुझे हेय जंचेंगे । योगेश्वर कृष्ण ने ऐसी ही बात गीता के छठे अध्याय में कही है । उस सुख को सब नहीं जान सकते, जो अनुभव करता है वही जानता है । उसे कोई कह कर बता नहीं सकता ।

कबीरदास कहते हैं -
ज्यों नर नारी के स्वाद को, खसी नहीं पहचान ।
त्यों ज्ञानी के सुख को, अज्ञानी नहीं जान ।।

स्त्री-पुरुष के सुख को जैसे हिजड़ा नहीं जान सकता, वैसे ही ज्ञानी के सुख को अज्ञानी नहीं जान सकता । 

छप्पय
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अरे चित्त ! कर कृपा, त्याग तू अपनी चालहि।
शिर पर नाचत खड़्यौ, जान तू ऐसे कालहि ।
ये इन्द्रियगण निठुर, मान मत इनको कहिबौ ।
शांतभाव कर ग्रहण, सीख कठिनाई सहिबौ ।
निजमति तरंग-सम चपल तजि, नाशवान जग जानिये ।
जनि करहु तासु इच्छा कछु, शिव-स्वरुप उर आनिये ।।



पुण्यैर्मूलफलैः प्रिये प्रणयिनि प्रीतिं कुरुष्वाधुना
भूशय्या नववल्कलैरकर्णैरुत्तिष्ठ यामो वनं।
क्षुद्राणांविवेकमूढमनसां यत्रेश्वराणाम् सदा
चित्तव्याध्यविवेकविल्हलगिरां नामापि न श्रूयते।। ५९ ।।

अर्थ:
ऐ प्यारी बुद्धि ! अब तू पवित्र फल-मूलों से अपनी गुज़र कर; बानी बनाई भूमि-शय्या और वृक्षों की छाल के वस्त्रों से अपना निर्वाह कर । उठ, हम तो वन को जाते हैं । वहां उन मूर्ख और तंगदिल अमीरों का नाम भी नहीं सुनाई देता, जिन की ज़बान, धन की बीमारी के कारण उनके वश में नहीं है । 
जिन धनवानों की ज़बान में लगाम नहीं है, जो अपनी धन की बीमारी के कारण मुंह से चाहे जो निकाल बैठते हैं, ऐसे मदान्ध और नीच धनी जंगलों में नहीं रहते, इसलिए बुद्धिमानो को वह चला जाना चाहिए । वहां कहे का अभाव है ? खाने को फलमूल हैं, पीने को शीतल जल है, रहने को वृक्षों की शीतल छाया है और सोने को पृथ्वी है । वह दुःख नहीं है, अशान्ति नहीं है; किन्तु और सभी जीवनधारणोपयोगी पदार्थ हैं ।
जो आशा को त्याग देंगे, वह तो धनियों के दास होंगे ही क्यों ? पर धनियों को भी इतराना न चाहिए । यह धन सदा उनके पास न रहेगा । इसे वे अपने साथ न ले जायेंगे । सम्भव है, यह उनके सामने ही विलाय जाय । फिर ऐसे चञ्चल धन पर अभिमान किसलिए ?
किसी ने कहा है -
कितने मुफ़लिस हो गए, कितने तवंगर हो गए।
ख़ाक में जब मिल गए, दोनों बराबर हो गए।।

धनी और निर्धन का भेद तभी तक है, जब तक कि मनुष्य ज़िंदा है; मरने पर सभी बराबर हो जाते हैं ।

गिरिधर कवी कहते हैं -

कुण्डलिया
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दौलत पाय न कीजिये, सपने में अभिमान।
चञ्चल जल दिन चारिकौ, ठाउँ न रहत निदान।।
ठाउँ न रहत निदान, जियत जग यश लीजै।
मीठे वचन सुनाय, विनय सब ही की कीजै।।
कह गिरधर कविराय, अरे यह सब घट तौलत।
पाहुन निशिदिन चारि, रहत सब हीके दौलत।।

धनवान होकर सपने में भी घमंड न करना चाहिए । जिस तरह चञ्चल जल चार दिन ठहरता है, फिर अपने स्थान से चला जाता है; उसी तरह धन भी चार दिन का मेहमान होता है, सदा किसी के पास नहीं रहता । ऐसे चञ्चल, ऐसे अस्थिर और चन्दरोजा धन के नशे से मतवाले होकर ज़बान को बेलगाम न रखना चाहिए और सभी के साथ शिष्टाचार दिखाना और नम्रता का बर्ताव करना चाहिए । जब तक देह में प्राण रहे, जब तक ज़िन्दगी रहे, यश कमाना चाहिए; बदनामी से बचना चाहिए । अपनी ज़ुबान से किसी को कड़वी और बुरी लगनेवाली बात न कहनी चाहिए । ज़बान का ज़ख्म तीर के ज़ख्म से भी भारी होता है । तीर का ज़ख्म मिट जाता है, पर ज़बान का ज़ख्म नहीं मिटता । इस जगत में जो जैसा करता है, वह वैसा ही पाता है । जो जौ बोता है वह जौ काटता है; और जो गेंहू बोता है वो गेंहू काटता है; जो दूसरों का दिल दुखाता है, उसका दिल भी दुखाया जायेगा; जो जैसी कहेगा, वह वैसी सुनेगा ।

उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है -
बद न बोले ज़ेर गर्दू, गर कोई मेरी सुने।
है यह गुम्बद की सदा, जैसी कहे वैसी सुने।।

आसमान के नीचे किसी को बुरी बात ज़बान से न निकालनी चाहिए । यह तो मठ के अन्दर की आवाज़ है, जैसी कहोगे उसको प्रतिध्वनि रूप में वैसी सुनोगे ।

और भी एक कवी ने कहा है -
ऐसी बानी बोलिये मन का आपा खोये।
औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय।।

अभिमान त्यागकर ऐसी बात कहनी चाहिए, जिससे औरों के दिल ठण्डे हों और अपने दिल में भी ठण्डक हो ।

तुलसीदास जी ने कहा है -
ज्ञान गरीबी गुण धरम, नरम बचन निरमोष।
तुलसी कबहुँ न छाँड़िये, शील सत्य सन्तोष।।

नित्य-अनित्य के विचार का ज्ञान, यौवन और धनादि के घमण्ड का त्याग, सतोगुण, प्रभु में निश्छल प्रीती का धर्म, मीठे और नर्म वचन, निराभिमानता, शील, सत्य और सन्तोष, इनको कभी न छोड़ना चाहिए । अज्ञानता, घमण्ड, रजोगुण, तमोगुण, अधर्म, कड़वे वचन, मान, कुशीलता, झूठ और असन्तोष - इनको छोड़ देना चाहिए ।

दोहा
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बकल बसन फल असन कर, करिहौं बन विश्राम। 

जित अविवेकी नरन को, सुनियत नाहीं नाम।।


मोहं मार्जयतामुपार्जय रतिं चन्द्रार्धचूडामणौ
चेतः स्वर्गतरङ्गिणीतटभुवामासङ्गमङ्गीकुरु ।
को वा वीचिषु बुद्बुदेषु च तडिल्लेखासु च स्त्रीषु च
ज्वालाग्रेषु च पन्नगेषु च सरिद्वेगेषु च प्रत्ययः।। ६० ।।

अर्थ:
ऐ चित्त ! तू मोह छोड़कर शिर पर अर्धचन्द्र धारण करनेवाले भगवान् शिव से प्रीति कर और गंगा किनारे के वृक्षों के नीचे विश्राम ले । देख ! पानी की लहार, पानी के बबूले, बिजली की चमक, आग की लौ, स्त्री, सर्प और नदी के प्रवाह की स्थिरता का कोई विश्वास नहीं; क्योंकि ये सातों चञ्चल हैं । 

मनुष्यों ! आप लोग मोह निद्रा में पड़े हुए क्यों अपनी दुर्लभ मनुष्य-देह को वृथा गँवा रहे हैं ? आपको यह देह इसलिए नहीं मिली है कि, आप इस झूठे संसार से मोह कर, स्त्री पुरुष और धन-दौलत में भूले रहे; बल्कि इसलिए मिली है कि आप इस देह से दुर्लभ मोक्ष पद की प्राप्ति करें । पर संसार की गति ही ऐसी है कि वह अच्छे कामों को त्याग कर बुरे काम करता है । वजह यह है कि मोहान्ध अज्ञानी पुरुष को अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं ।
जो नारी, नरक-कूप के समान गन्दगी से भरी है, जो सब तरह से अपवित्र और घृणयोग्य है, जिसमें प्रीति का नामोनिशान भी नहीं है, जो केवल अपने स्वार्थ से पुरुष को प्यार करती है, पति के निर्धन या कर्जदार होते ही उससे प्रीति कम कर देती या त्याग देती है, जो क्षण भर में परायी हो जाती है, उसी नारी को पुरुष अपनी प्राण-वल्लभा कहता और उसके लिए अपनी सारी सुख-शान्ति को तिलाञ्जलि देकर मरने तक को तैयार हो जाता है । क्या यह अज्ञानता नहीं है ?
कवियों ने मोहवश स्त्री के अंगों की बड़ी लम्बी चौड़ी तारीफ की है । उसके दोनों स्तनों को किसी ने अनारों, किसी ने संतरों अथवा दो सोने के कलशों की उपमा दी है; पर वास्तव में वे मांस के लौंदे हैं । उनकी जांघो की केले के खम्भों से उपमा दी है, पर वे महागंदी हैं; उन पर हर समय मूत्र या सफेदा बहता रहता है । उसकी आँखों की उपमा हिरणी के बच्चे की आँखों से दी है, पर वे सर्प से भी भयानक हैं; क्योंकि सर्प के काटने से मनुष्य बेहोश होता और मरता है, पर स्त्री के तो देखने मात्र से ही वह पागल सा होकर मर-मिटता है । वास्तव में स्त्री सर्प से भी बुरी है । सर्प का काटा एक बार ही मरता है, पर स्त्री का काटा बार बार मरता और जन्म लेता है । जिस तरह कदली वन का हाथी कागज़ की हथिनी को देख उसकी इच्छा करता और शिकारियोजन के जाल में फंस कर, बन्धन में बंध नाना प्रकार के दुःख झेलता है; उसी तरह जो पुरुष स्त्री की इच्छा करता है, वह बन्धन में बँधता और नाश होता है । स्त्री संसार वृक्ष का बीज है, अतः स्त्री कामी पुरुष का इस संसार से पीछा नहीं छोटा । वह इस दुनिया में आकर, स्त्री के कारण, नाना प्रकार के दुःख भोगता, चिंताग्नि में दिन-रात जलता और अंत में मरकर ममता और वासना के कारण फिर जन्म लेता और दुःख भोगता है ।
स्त्री, कामी पुरुष को ज़रा से लालच से अपना दास बना लेती है । कामी पुरुष स्त्री के इशारे पर उसी तरह नाचता है, जिस तरह बन्दर मदारी के इशारे पर नाचता है । वह रात-दिन उसे खुश करने की कोशिशों में लगा रहता है, घर-बाहर, सोते-जागते उसी की चिन्ता करता है, उसी के लिए धन-गर्वित धनियों की खुशामदें करता, उनकी टेढ़ी-सूधी सुनता और आत्मप्रतिष्ठा खोता है । इतने पर भी स्त्री की फरमाइशें पूरी नहीं होती । आज वह गहना मांगती है, तो कल कपडे मांगती है और परसों पुत्र या कन्या के विवाह की बात करती है । कभी कहती है, आज आटा नहीं है, कभी कहती है , आज घर में तेल-नोन नहीं है, इसी तरह उसकी फरमाइशों का अन्त नहीं आता, पर बेचारे पुरुष का अन्त आ जाता है । स्त्री की सेवा चाकरी से उसे इतनी भी फुर्सत नहीं मिलती कि वह क्षणभर भी अपने बनाने वाले स्वामी को पदवन्दना कर सके । 
अनेक प्रकार से सेवा-टहल करने पर भी यदि पुरुष से कोई फरमाइश पूरी नहीं होती, तो वह बाघिन की तरह घुर्राती है । दैवात् यदि पुरुष निर्धन हो जाता है या उसके सिर पर ऋणभार हो जाता है, तो वही सात फेरों की ब्याही स्त्री उसका अनादर और उसकी मरण-कामना करती है । क्योंकि इस जगत में धन की ही कीमत है, मनुष्य की कीमत नहीं । कहते हैं, निर्धन मनुष्य को वेश्या तज देती है । वेश्या का तो नाम प्रसिद्ध है ही; पर वेद विधि से ब्याही हुई स्त्री भी अपने पति को तज देती है । धनहीन को माता-पिता, भाई-बहन, भौजाई, नौकर-चाकर एवं अन्य रिश्तेदार सभी बुरी नज़र से देखते और त्याग देते हैं । संसार का अर्थ - धन के वश में है । जिसके पास धन नहीं, उसका कोई नहीं ।

कहा है -
माता निन्दति नाभिनन्दति पिता भ्राता न सम्भाषते
भृत्यः कुप्यति नानुगच्छति सुतः कान्ता च नालगते।
अर्थप्रार्थनशंकया न कुरुतेऽप्यालापमात्रं सुहृत 
तस्मादर्थमुपार्जयस्व च सखे ! ह्यर्थस्यसर्वेवशाः।।

माता निर्धन पुत्र की निन्दा करती है, बाप आदर नहीं करता, भाई बात नहीं करता, चाकर क्रोध करता है, पुत्र आज्ञा नहीं मानता, स्त्री आलिंगन नहीं करती और धन मांगने के डर से कोई मित्र बात नहीं करता; इसलिए मित्र धन कमाओ, क्योंकि सभी धन के वश में हैं ।

"आत्मपुराण" में कहा है -
दरिद्रं पुरुषं दृष्ट्वा नार्यः कामातुरा अपि।
स्प्रष्टुं नेच्छन्ति कुणपं यद्वच्चकृमिदूषितं।।

स्त्रियां काम से आतुर होने पर भी, दरिद्री पति को छूना पसन्द नहीं करती; जिस तरह कीड़ों से दूषित मुर्दे को कोई छूना नहीं चाहता ।
स्पष्ट हो गया कि स्त्री ऊपर से ही सुन्दर है, भीतर से वह महागंदी और पाषाणवत् कठोरहृदय है; जिस समय इसमें निर्दयता आती है, उस समय यह अपने क्रीतदास की तरह सेवा करनेवाले पति और अपने उदर से निकले हुए पुत्र के ऊपर भी दया नहीं करती । अपने स्वार्थ के लिए यह उनकी भी हत्या कर डालती और नरक की राह दिखाती है; अतः स्त्री के मोह में फंसना, अपने नाश का सामान करना है । जिस तरह पतंग दीपक के रूप पर मोहित होकर अपना नाश करता है; उसी तरह कामी भी स्त्री के रूप पर मुग्ध होकर अपने लोक-परलोक गंवाता है - इस जन्म में घोर चिंताग्नि में जलता और मरने पर नरकाग्नि में भस्म होता और तड़पता है ।
वास्तव में स्त्री-पुत्रादि शत्रु हैं, पर पुरुष अज्ञानता से इन्हे अपना मित्र समझता है । महात्मा शंकराचार्य ने अपनी प्रश्नोत्तर माला में लिखा है - "स्त्री-पुत्र देखने में मित्र मालूम होते हैं, पर असल में वे शत्रु हैं । 

एक वैश्य और उसके पुत्र
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एक वैश्य ने लाखों-करोड़ों रुपये कमाए और अपने धन में से चार-चार लाख रुपये अपने पुत्रों को देकर, उनकी अलग-अलग दुकाने करवा दीं । शेष धन उसने दीवारों में चुनवा दिया । चंद रोज़ के बाद वह सख्त बीमार हो गया । उसे सन्निपात हो गया और वह आन-तान बकने लगा । लोगों ने उसका अन्त समय समझ उससे कहा -"सेठ जी ! बहुत धन कमाया है, इस समय कुछ पुण्य कीजिये, क्योंकि इस समय धर्म ही साथ जायेगा; स्त्री पुत्र, धन प्रभृति साथ न जाएंगे।" वैश्य का गला बन्द हो गया था, अतः वो बोल न सकता था । उसने बारम्बार दीवारों की तरफ हाथ किये । इशारों से बताया कि इन दीवारों में धन गड़ा है, उसे निकालकर पुण्य कर दो । पुत्र, पिता का मतलब समझकर बोले - " पिताजी कहते हैं, जो धन था, सो तो इन दीवारों में लगा दिया, अब और धन कहाँ है ? " लोगों ने लड़कों की बात मान ली । वैश्य अपने पुत्रों की बेईमानी देखकर बहुत रोया, पर बोल न सकता था, इसलिए छटपटा छटपटा कर मर गया । लड़कों ने उसे शमशान ले जाकर जला दिया । वैश्य के मन की मन में ही रह गयी । इससे बढ़कर पुत्रों की शत्रुता क्या होगी ?
जो लोग सैकड़ों प्रकार के अनर्थ और बेईमानी से पराया धन हड़प कर अथवा और तरह से दुनिया का गला काटकर लाखों-करोड़ों अपने पुत्र-पौत्रों को छोड़ जाते हैं, वे इस कहानी से शिक्षा ग्रहण करें और पुत्रों का झूठा मोह त्यागें । इस जगत में न कोई किसी का पुत्र है न पिता । माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-पुत्र सभी एक लम्बी यात्रा के यात्री हैं । यह मृत्युलोक उस यात्रा के बीच का मुकाम है । इस मुकाम पर आकर सब इकट्ठे हो गए हैं । कोई किसी से सच्ची प्रीति नहीं रखता । सभी स्वार्थ की रस्सी से एक-दुसरे से बंधे हुए हैं । जब जिसके चलने का समय आ जाता है, तब वही निर्मोही की तरह सब को छोड़ के चल देता है । जो लोग उस चले जाने वाले या मर जाने वाले के लिए प्राण न्यौछावर करते थे, उसके लिए मरने तक को तैयार रहते थे, उनमें से कोई उसके साथ पौली तक जाता है और कोई उसे श्मशान भूमि तक पहुंचकर और जला-बलाकर  ख़ाक कर आता है । ऐसे नातेदारों से अनुराग करना - उनमें ममता रखना बड़ी ही गलती है ।

कहा है -
"परलोक की राह में जीव अकेला जाता है; केवल धर्म उसके साथ जाता है । धन, धरती, पशु और स्त्री घर में रह जाते हैं । लोग श्मशान तक जाते हैं और देह चिता तक साथ रहती है ।"

बहुत लोग यह समझते हैं कि पुत्र बिना गति नहीं होती; पुत्रहीन पुरुष नरक में जाता है और पुत्रवान स्वर्ग में जाता है । जो लोग ऐसा समझते हैं; वह बड़ी भूल करते हैं । पुत्रों से किसी की भी गति न हुई है और न होगी; सब की गति अपने ही पुरुषार्थ से होती है । अगर पुत्रों से स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति होती, तो कोई विरला ही नरक में जाता । जो जैसा करता है, उसे वैसा ही फल भोगना होता है । ब्रह्मह्त्या, स्त्रीहत्या, भ्रूणहत्या, परस्त्रीगमन और परधन हरण प्रभृति पापों का फल कर्ता को भोगना ही होता है । जो ऐसा समझते हैं कि ऐसे पाप करने पर भी पुत्र-पौत्रों के होने से, हम दण्ड से बच जाएंगे, वे बड़े ही मूर्ख हैं । ज्ञानी लोग तो संसार बन्धन से छूटने के लिए अपने पुत्रों का भी त्याग कर देते हैं ।

एक ब्राह्मण और उसका अन्धा पुत्र
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किसी नगर में एक ब्राह्मण रहता था । उसके पुत्र नहीं हुआ था, इसलिए उसने गंगाजी की उपासना की । अन्त में बूढी अवस्था में, उसके एक अन्धा पुत्र हुआ । ब्राह्मण उस अन्धे पुत्र को पाकर बड़ा ही प्रसन्न हुआ । उसने खूब उत्सव और भोज प्रभृति किये । इसके बाद जब वह पुत्र पांच 
 बरस का हुआ, ब्राह्मण ने उसका यज्ञोपवीत संस्कार कराकर, उसे विद्या पढ़ना आरम्भ किया । चन्दरोज में वह अन्धा पूर्ण पण्डित हो गया ।
एक दिन पिता-पुत्र बैठे थे । पुत्र ने पिता से पूछा - "पिताजी ! मनुष्य अन्धा किस पाप से होता है ?" पिता ने उत्तर दिया - "पुत्र ! जो पूर्व जन्म में रत्नो की चोरी करता है, वह अन्धा होता है।" पुत्र ने कहा - "पिताजी ! यह बात नहीं है । कारण के गुण कार्य में भी आ जाते हैं । आप अन्धे हैं, इसी से मैं भी अन्धा हुआ हूँ । पिता ने क्रोध में भरकर कहा, " नालायक, मैं अन्धा कैसे ?" पुत्र ने कहा - "पिताजी ! गंगा माता साक्षात् मुक्ति देने वाली हैं । आपने उनकी उपासना पुत्र की कामना से की; इसी से मैं आपको अन्धा समझता हूँ ।  जो वेद-शास्त्र पढ़कर भी पेशाब के कीड़े की इच्छा करता है, वह अन्धा नहीं तो क्या सूझता है ? पेशाब से जैसे अनेक अनेक प्रकार के कीड़े पैदा होते हैं, वैसे ही पुत्र भी उसका एक कीड़ा ही है । आपने जिस पुत्र के लिए गंगाजी की इतनी तपस्या की, वह पुत्र तो कुत्ते-बिल्ली और सूअर प्रभृति पशुओं के अनायास ही हो जाते हैं । पुत्र जैसे मूत्र के कीड़े से किसी को भी स्वर्ग या मोक्ष लाभ नहीं हो सकता; पिताजी ! न कोई किसी का पुत्र है न स्त्री प्रभृति; सब एक ही हैं क्यंकि सब में एक ही आत्मा है । वही आत्मा पिता में है, वही पुत्र में और स्त्री में । जिस तरह मरुभूमि में भ्रम से जल दीखता है, पर वास्तव में वहां जल का नाम-निशान भी नहीं है; उसी तरह भ्रम से यह जगत सच्चा दीखता है, पर वास्तव में कुछ भी नहीं । यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा धन है, यह मेरा मकान है - ऐसा वासना से दीखता है । वासना से ही जीव संसार बन्धन में बँधता है; यानी वासना से ही शरीर धारण करता है । वासना से ही मनुष्य अज्ञानी बना रहता है । वासना का त्याग करते ही मनुष्य, ज्ञान-लाभ करके, परमानन्द की प्राप्ति करता है । ज्ञानी सच्चिदानंद रूप ब्रह्म को ज्ञान की आँखों से देखता है, पर अज्ञानी उसे नहीं देख सकता । जैसे अन्धे को सूर्य नहीं दीखता, उसी तरह अज्ञानी को ब्रह्म नहीं दीखता; इसी से अज्ञानी को बाहर की आँखें होने पर भी अन्धा कहते हैं । आप भेद-बुद्धि को त्यागकर, सबमें एक आत्मा को देखो । आत्मज्ञानी होने से ही आपको नित्य सुख मिलेगा।"
पिता, पुत्र के अगाध ज्ञान और पाण्डित्य को देख एकदम चकित हो गया और कहने लगा - "पुत्र ! मैंने चार वेद, छहों शास्त्र, उपनिषद, स्मृति और पुराण प्रभृति पढ़कर कुछ भी लाभ न किया; तेरी बातों से मेरी आँखें खुल गयी।"

संसार को मिथ्या समझकर ही कोई ज्ञानी कहता है -
"हे मन ! तू स्त्री के प्रेम में मत भूल; यह बिजली की चमक, नदी के प्रवाह और नदी की तरंग प्रभृति की तरह चञ्चल है । स्त्री के प्रेम का कोई ठिकाना नहीं; आज यह तेरी है, कल पराई है । एक करवट बदलने में स्त्री पराई हो जाती है । इसकी झूठी प्रीति में कोई लाभ नहीं । 

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -
उरग तुरग नारी नृपति, नर नीचे हथियार।
तुलसी परखत रहब नित, इनहिं न पलटत बार।।

सर्प, घोडा, स्त्री, राजा, नीच पुरुष और हथियार - इनको सदा परखते रहना चाहिए, इनसे कभी गाफिल न रहना चाहिए, क्योंकि इन्हें पलटते देर नहीं लगती ।

हे मन ! यदि तुझे प्रीति ही करनी है, तो उठ गंगा के किनारे वृक्षों के नीचे चल बैठ और आशुतोष भगवान् चन्द्रशेखर - शिवजी से प्रीति कर । उनकी प्रीति सच्ची और कल्याणकारी है ।

गोस्वामी जी ने और भी कहा है -
कै ममता करु रामपद, कै ममता करु हेल।
"तुलसी" दो मँह एक अब, खेल छाँड़ि छल खेल।।
सम्मुख ह्वै रघुनाथ के, देइ सकल जग पीठि।
तजै केंचुरी उरग कहँ, होत अधिक अति दीठि।।

या तो भगवान् के चरणों में ममता कर अथवा देह के सब नातों को त्यागकर उदासीन हो जा और कर्म ज्ञानादि साधन करके मन को शुद्ध कर ले । जब तेरा मन शुद्ध हो जाएगा, तब भगवान् के चरणों में आप ही स्नेह हो जाएगा । इन दोनों बातों में से जो एक बात तुझे पसन्द हो, उसे छल छोड़ कर दिल से कर; एक खेल खेल । सारांश यह, कि भगवान् में सहज स्नेह कर । अगर तेरा मन प्रभु की भक्ति में नहीं जमता तो स्त्री-पुत्र आदि संसारी भोगों से मन हटाकर प्रभु की भक्ति की चेष्टा कर । 
जब भगवान् में तेरा मन लग जाए, तब संसार की तरफ से मुंह फेर ले - संसार को पीठ दे दे, जिससे तेरे मन में लोक-वासना न आने पावे; क्योंकि वासना से ह्रदय की दृष्टी मैली हो जाती है । सांप का भीतरी चमड़ा जब मोटा हो जाता है, तब उसे आँखों से साफ़ नहीं दीखता, लेकिन जब वह कांचली छोड़ देता है, तब उसकी आँखों का पटल उतर जाता है; आँखों के साफ़ हो जाने से सांप को खूब साफ़ दिखने लगता है । जिस तरह कांचली त्यागने से सर्प की दृष्टी साफ़ हो जाती है; उसी तरह वासना त्याग देने से ईश्वर के भक्तो की ह्रदय-दृष्टी साफ़ रहती और उन्हें भगवान् के दर्शन होते रहते हैं ।

छप्पय
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मोह छाँड़ मन-मीत ! प्रीति सों चन्द्रचूड़ भज !
सुर-सरिता के तीर, धीर धार दृढ़ आसन सज !!
शम दम भोग-विराग, त्याग-तप को - तू अनुसरि।
वृथा विषय-बकवाद, स्वाद सबहि - तू परिहरि।।
थिर नहि तरंग, बुदबुद, तड़ित, अगिन-शिखा , पन्नग, सरित।
त्योंही तन जोवन धन अथिर, चल दलदल कैसे चरित ।।

शम - इन्द्रिय-निग्रह
दम - बाहरी इन्द्रियों का निग्रह 
परिहरि - त्याग 
पन्नग - सर्प 


अग्रे गीतं सरसकवयः पार्श्वतो दाक्षिणात्याः
पृष्ठे लीलावलयरणितं चामरग्राहिणीनाम् ।
यद्यस्त्येवं कुरु भवरसास्वादने लम्पटस्त्वं नो 
चेच्चेतः प्रविश सहसा निर्विकल्पे समाधौ।। ६१ ।।

अर्थ:
हे मन ! तेरे सामने चतुर गवैये गाते हों, दाहिने-बाएं दक्खन देश के उत्तम कवी सरस काव्य सुनते हों, तेरे पीछे चंवर ढोलने वाली सुंदरी स्त्रियों के कंकणों की मधुर झनकार होती हो, यदि ऐसे सामान तुझे मयस्सर हों, तो तू संसार रसास्वादन में मग्न हो; नहीं तो सबका ध्यान छोड़, निर्विकल्प समाधि में लीन हो ।

विरमत बुधा योषित्सङ्गात्सुखात्क्षणभंगुरा-
त्कुरुत करुणामैत्रीप्रज्ञा वधूजनसंगमम्।
न खलु नर के हाराक्रान्तं घनस्तनमण्डलम्
शरणमथवा श्रोणीबिम्बम् रणन्मणिमेखलम्।। ६२ ।।

अर्थ:
हे बुद्धिमानो ! स्त्री के संग से बचो, क्योंकि उनके संग से जो सुख मिलता है, वह क्षणिक है । आप मैत्री, करुणा और बुद्धिरूपी वधू के साथ संगम करो । जिस समय नरक में सजा मिलेगी, उस समय युवतियों के हारों से शोभित स्तनद्वय और घुंघरूदार कर्धनियों से सुशोभित कमर तुम्हारी सहायता न करेंगी ।

मनुष्यों, स्त्रियों में मन मत लगाओ । उनके साथ रहने, उनके साथ संगम करने से सुख होता है; पर वह सुख नश्वर और क्षणस्थायी है । वह ऐसा सुख नहीं जो सदा रहे । परिणाम में उससे अनेक प्रकार के दुःख होते हैं । जो सुख अनित्य है, शेष में दुखों का मूल और रोगों की खान है, उस सुख को सुख समझना, बुद्धिमानो का काम नहीं । अगर आपको सङ्गंम ही करना है, तो आप सुहानुभूति, परोपकारवृत्ति एवं प्रज्ञारूपी बहू के साथ सङ्गंम कीजिये । इनके साथ सङ्गंम और प्रीति करने से आप को नित्य सुख मिलेगा; ऐसा सुख मिलेगा, जो इस लोक और परलोक में सदा स्थिर रहेगा ।

जिन लोगों ने पहले दूसरों के दुःख दूर किये हैं, जिन्होंने परोपकार के लिए जानें दी हैं, जिन्होंने ज्ञान से काम लिया है, उनका भला ही हुआ है । अगर आप स्त्री-सुख में भूले रहोगे, तो जब आपको नरक की भयंकर यातनाएं भोगनी पड़ेंगी, जब आप पर यमदूतों के डण्डे पड़ेंगे, उस समय क्या स्त्रियों के हारों से सुशोभित स्तन-मण्डल और कर्धनियों से शोभायमान पतली कमर आपकी रक्षा कर सकेंगी ? नहीं, इनसे कोई लाभ न होगा; उस समय ये आड़े न आएंगे । उस मौके पर, परोपकार करके जो पुण्य संचय किया होगा, वही आपकी रक्षा करेगा । बुद्धि से काम लोगे तो भला होगा; क्योंकि बुद्धि ही आपको नरक से बचने की राह बतावेगी; किन्तु स्त्री तो आपको सीधी नरक की राह दिखावेगी । आश्चर्य है, अज्ञानी लोग अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा समझते हैं । वे अपने सच्चे मित्रों से प्रीति नहीं करते, किन्तु झूठे और कुराह में ले जानेवालों से प्रीति करते हैं । 

महात्मा सुन्दरदास जी ने कहा है -
(१)
विषही की भूमि मांहि, विष के अङ्कुर भये।
नारी-विषवेली बढ़ी, नखशिख देखिये।।
विषही के जर मूल, विषही के डार पात।
विषही के फूल फल, लागे जु विशेखिये।।
विष के तन्तु पसार, उरझायी आंटी मार।
सब नर-वृक्ष पर, लपटेहि लेखिये।।
"सुन्दर" कहत, कोऊ सन्त-तरु बची गए।
तिनके तौ कहूं, लता लागि नहीं पेखिये।।

(२)
कामिनी को अंग, अति मलिन महा अशुद्ध।
रोम-रोम-मलिन, मलिन सब द्वार हैं।।
हाड मांस मज्जा मेद, चामसूँ लपेट राखै।
ठौर-ठौर रकत के, भरेई भण्डार हैं।।
मूत्रहु-पुरीष-आंत, एकमेक मिल रहीं।
औरहु उदर मांहि, विविध विकार हैं।।
"सुन्दर" कहत, नारी नखशिख निन्द्यरूप।
ताहि जो सराहै, सो तौ बड़ोई गंवार है।।

(३)
रसिकप्रिया रसमंजरी और श्रृंगारहि जान।
चतुराई करि बहुत विधि, विषय बनाई आन।।
विषय बनाई आन, लगत विषयिनकूँ प्यारी।
जागे मदन प्रचण्ड, सराहै नखशिख नारी।।
ज्यूँ रोगी मिष्टान्न खाई, रोगहि बिस्तारै।
"सुन्दर" ये गति होइ, जोई रसिकप्रिया धारै।।


(१)
विष की ज़मीन में विष के अङ्कुर जमे। फिर नारी रूप विषलता बढ़ी । उस लता में विष की जड़ें लगीं और विष की डालियाँ और पत्तियां आयीं । फिर उस लता में विष के ही फल और फूल लगे । उस विषलता में विष के तन्तु निकले । फिर उस विषलता ने अपने विष तन्तु फैला-फैलाकर नर-वृक्षों को उलझा लिया और खुद उनसे लिपट गयी । सुन्दरदास जी कहते हैं, उस विषलता के फन्दे में अधिकाँश नर-रुपी वृक्ष फंस गए - कोई विरले ही सन्त रुपी वृक्ष उससे अछूते बच सके । उनके ही शरीरों में यह विष लता लगी हुई न दिखाई दी ।
मतलब यह की स्त्री विष की बेल है । उसकी जड़, उसकी डालियाँ, उसकी पत्तियां, उसके फल फूल सभी विषपूर्ण हैं । सारांश यह कि स्त्री का सर्वाङ्ग विष से भरा है स्त्री का कोई भी अंग ऐसा नहीं जिसमें विष न हो । यह स्त्रीरूपी विषबेल अज्ञानी विषयी लोगों को अपने फन्दे में फंसाकर नाश कर देती है; क्योंकि विष स्वभाव से ही प्राणघाती होता है । सिर्फ वे लोग इस स्त्रीरूपी विषबेल से बचते हैं, जो ज्ञानी हैं, जो इसकी असलियत को जानते हैं, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है, जिनकी इन्द्रियां विषयों की तरफ नहीं झुकतीं । और भी खुलासा यह है, कि स्त्री विष-लता के समान है, विष लता जिस वृक्ष से लिपट जाती है, उसे सुखा-सुखाकर नष्ट कर देती है। इसी तरह स्त्री जिस विषयी पुरुष के पीछे लग जाती है अथवा जो पुरुष स्त्री के फन्दे में फंस जाता है, वह भी सब तरह से नष्ट हो जाता है । इसके सभी अंगों में विष भरा है । जिस तरह विष खाने से ज़हर चढ़ता है, उसी तरह इसकी आँख, इनके गाल, इसकी भौं, छातियां, जांघें प्रभृति किसी भी अंग के देखने और छूने से विष चढ़ जाता है । विष के चढ़ जाने से पुरुष मतवाला हो जाता है; उसके होश-हवास खता हो जाते हैं और बुद्धि मारी जाती है । बुद्धि के मारे जाने से पुरुष बिना पतवार की नाव की तरह नष्ट हो जाता है । इस लोक में नाना प्रकार के रोग और दुःख भोगकर मर जाता और परलोक में भी दुःख ही पाता है । संखिया प्रभृति विष का मारा हुआ इस लोक में दुःख पाता है, पर स्त्री-विष का मारा हुआ अनेक जन्मों में दुःख पाता है । और ज़हर खाने वाला एक ही बार मरता है; पर स्त्री-विष सेवन करने वाला बारम्बार मरता है । अतः बुद्धिमानों को इस स्त्रीरूपी विषलता से सदा दूर रहना चाहिए, ताकि इसका विष शरीर में पैवस्त न होने पावे।


(२)
स्त्री का शरीर अत्यंत मैला और अतीव अशुद्ध या गन्दा है । इस प्रकार प्रत्येक रोम मैला और सारे ही दरवाजे गन्दे हैं । इसका शरीर हाड, मांस, मज्जा, मेद और चमड़े से लिपटा हुआ है । इसके अन्दर जगह जगह खून के हौज़ भरे हुए हैं । पेशाब और पाखाने की आंतें आपस में सट  रहती है । इन सब के अलावा पेट में और भी अनेक तरह के मैले भरे हुए हैं । सुन्दरदास जी कहते हैं, नारी एड़ी से छोटी तक निन्द्य है - नख से शिख तक निन्दा करने योग्य है । ऐसी निन्दा की पात्री नारी की जो सराहना करते हैं, वे तो निश्चय ही बड़े गंवार और भौंदू हैं ।
खुलासा यह है कि स्त्री ऊपर से अच्छी मालूम होती है, पर वास्तव में गन्दगी का पिटारा है । इसकी नाक में रहँट भरा हुआ है। इसकी आँखों में गींडें भरी हुई हैं । इसके मुंह में कफ और खखार भरे हुए हैं । इसकी मूत्रेन्द्रिय से हर समय सफ़ेद-सफ़ेद या लाल-लाल गन्दा पदार्थ बहा करता है । पेशाब से जाँघे भीगी रहती है । इसकी मल और मूत्र की इन्द्रिय में २ अंगुल से ज्यादा का दूर का फर्क नहीं है । जिन छातियों पर विषयी मर मिटते हैं, जिन्हे वे सुन्दर सोने के कलश, कामदेव के नगाड़े अथवा शान्तरे और अनार कहते हैं, वे दो मांस के लौंदे हैं । उनके ऊपर चमड़ा चढ़ा हुआ है, इसी से उनके भीतर की गन्दगी छिपी रहती है । ऐसी गन्दगी की पिटारी की तारीफों में जो लोग कवितायेँ करते हैं वे सचमुच ही बेअक्ल और गंवार हैं ।


(३)
अनेक तरह की इन्द्रिय भोग सम्बन्धी वस्तुओं से बनी हुई और सजी हुई स्त्री विषयी लोगों को बहुत ही प्यारी लगती है । जब बलवान काम जागता है, तब वे इसका नखशिख वर्णन करने में अपनी सारी विद्वता खर्च कर देते हैं । चोटी से एड़ी तक एक-एक अंग की दिल खोल कर तारीफ करते हैं । जिस तरह रोगी मिठाई खाकर अपने रोग को बढ़ाता है; उसी तरह जो लोग स्त्री या प्रिय को धारण करते हैं - अपनाते हैं, अनेक तरह के रोगों और दुखों को जानबूझकर आप बुलाते हैं । उनकी हर तरह से दुर्गति होती है । तरह तरह के रोग होते हैं, बल घटता है, आयु क्षीण होती है, हर क्षण चिंतित रहना पड़ता है, शान्ति पास नहीं आती और ईश्वर भजन में मन नहीं लगता । हर समय उसी को संतुष्ट करने की फ़िक्र लगी रहती है । मरते समय भी उसी में मन अटका रहता है, जीवात्मा उसे छोड़कर जाना नहीं चाहता, उसके संग ही रहना चाहता है, पर समय आ जाने पर कोई भी इस काया में क्षणभर भी नहीं रह सकता; अतः देह त्यागनी ही पड़ती है; पर चूंकि स्त्री में मन लगा रह जाता है, उसकी वासना मन में रह जाती है, इसलिए वासना के कारण फिर जन्म लेना पड़ता है । जो जन्म लेता है, उसे मरना भी पड़ता है । इस तरह स्त्री-लोलुप को बारम्बार जन्म लेने और मरने का घोर क्लेश सहना पड़ता है । उसे कभी सुख नहीं मिलता; उसकी मोक्ष नहीं होती । इसीलिए कहा है कि, जो लोग स्त्री को रखते हैं, उनकी बड़ी बुरी गति होती है । 

सोरठा 
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तजि तरुणी सों नेह, बुद्धिबधू सों नेह कर।
नरक निवारत येह, वहै नरक लै जात है।।

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विरमत बुधा योषित्सङ्गात्सुखात्क्षणभंगुरा-
त्कुरुत करुणामैत्रीप्रज्ञा वधूजनसंगमम्।
न खलु नर के हाराक्रान्तं घनस्तनमण्डलम्
शरणमथवा श्रोणीबिम्बम् रणन्मणिमेखलम्।। ६२ ।।

अर्थ:
हे बुद्धिमतियों ! पुरुष के संग से बचो, क्योंकि उनके संग से जो सुख मिलता है, वह क्षणिक है । आप मैत्री, करुणा और विवेकरूपी वर के साथ संगम करो । जिस समय नरक में सजा मिलेगी, उस समय युवकों की बलिष्ठ काया और सुडौल शरीर तुम्हारी सहायता न करेंगे ।

मनुष्यों, पुरुषों में मन मत लगाओ । उनके साथ रहने, उनके साथ संगम करने से सुख होता है; पर वह सुख नश्वर और क्षणस्थायी है । वह ऐसा सुख नहीं जो सदा रहे । परिणाम में उससे अनेक प्रकार के दुःख होते हैं । जो सुख अनित्य है, शेष में दुखों का मूल और रोगों की खान है, उस सुख को सुख समझना, बुद्धिमतियों का काम नहीं । अगर आपको सङ्गंम ही करना है, तो आप सुहानुभूति, परोपकारवृत्ति एवं विवेकरूपी वर के साथ सङ्गंम कीजिये । इनके साथ सङ्गंम और प्रीति करने से आप को नित्य सुख मिलेगा; ऐसा सुख मिलेगा, जो इस लोक और परलोक में सदा स्थिर रहेगा ।
जिन्होंने पहले दूसरों के दुःख दूर किये हैं, जिन्होंने परोपकार के लिए जानें दी हैं, जिन्होंने ज्ञान से काम लिया है, उनका भला ही हुआ है । अगर आप पुरुष-सुख में भूली रहोगी, तो जब आपको नरक की भयंकर यातनाएं भोगनी पड़ेंगी, जब आप पर यमदूतों के डण्डे पड़ेंगे, उस समय क्या पुरुषों की बलिष्ठ भुजाएं और सुडौल शरीर आपकी रक्षा कर सकेंगे ? नहीं, इनसे कोई लाभ न होगा; उस समय ये आड़े न आएंगे । उस मौके पर, परोपकार करके जो पुण्य संचय किया होगा, वही आपकी रक्षा करेगा । विवेक से काम लेंगी तो भला होगा; क्योंकि विवेक ही आपको नरक से बचने की राह बतावेगा; किन्तु पुरुष तो आपको सीधा नरक की राह दिखावेगा । आश्चर्य है, अज्ञानी लोग अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा समझते हैं । वे अपने सच्चे मित्रों से प्रीति नहीं करते, किन्तु झूठे और कुराह में ले जानेवालों से प्रीति करते हैं । 

महात्मा सुन्दरदास जी ने कहा है -
(१)
विषही की भूमि मांहि, विष के अङ्कुर भये।
नारी-विषवेली बढ़ी, नखशिख देखिये।।
विषही के जर मूल, विषही के डार पात।
विषही के फूल फल, लागे जु विशेखिये।।
विष के तन्तु पसार, उरझायी आंटी मार।
सब नर-वृक्ष पर, लपटेहि लेखिये।।
"सुन्दर" कहत, कोऊ सन्त-तरु बची गए।
तिनके तौ कहूं, लता लागि नहीं पेखिये।।

(२)
कामिनी को अंग, अति मलिन महा अशुद्ध।
रोम-रोम-मलिन, मलिन सब द्वार हैं।।
हाड मांस मज्जा मेद, चामसूँ लपेट राखै।
ठौर-ठौर रकत के, भरेई भण्डार हैं।।
मूत्रहु-पुरीष-आंत, एकमेक मिल रहीं।
औरहु उदर मांहि, विविध विकार हैं।।
"सुन्दर" कहत, नारी नखशिख निन्द्यरूप।
ताहि जो सराहै, सो तौ बड़ोई गंवार है।।

(३)
रसिकप्रिया रसमंजरी और श्रृंगारहि जान।
चतुराई करि बहुत विधि, विषय बनाई आन।।
विषय बनाई आन, लगत विषयिनकूँ प्यारी।
जागे मदन प्रचण्ड, सराहै नखशिख नारी।।
ज्यूँ रोगी मिष्टान्न खाई, रोगहि बिस्तारै।
"सुन्दर" ये गति होइ, जोई रसिकप्रिया धारै।।

(१)
विष की ज़मीन में विष के अङ्कुर जमे। फिर नर रूप विषवृक्ष बढ़ा । उस वृक्ष में विष की जड़ें लगीं और विष की डालियाँ और पत्तियां आयीं । फिर उस वृक्ष में विष के ही फूल लगे । उस विषवृक्ष में विष के फल निकले । फिर उस विषवृक्ष ने नारीरुपी लताओं को उलझा लिया । सुन्दरदास जी कहते हैं, उस विषवृक्ष के फन्दे में अधिकाँश नारी-रुपी लताएं फंस गयीं - कोई विरले ही साध्वी-रूपा लता उससे अछूती  बच सकी । उनके ही शरीर इस विषवृक्ष से लगे हुए न दिखाई दिए ।
मतलब यह की पुरुष विष का वृक्ष है । उसकी जड़, उसकी टहनियां, उसकी पत्तियां, उसके फल फूल सभी विषपूर्ण हैं । सारांश यह कि पुरुष का सर्वाङ्ग विष से भरा है पुरुष का कोई भी अंग ऐसा नहीं जिसमें विष न हो । यह पुरुषरूपी विषवृक्ष अज्ञानी विषया स्त्रियों को अपने फन्दे में फंसाकर नाश कर देता  है; क्योंकि विष स्वभाव से ही प्राणघाती होता है । सिर्फ वे ही स्त्रियां इस पुरुषरूपी विषवृक्ष से बचती हैं, जो ज्ञानवती  हैं, जो इसकी असलियत को जानती हैं, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है, जिनकी इन्द्रियां विषयों की तरफ नहीं झुकतीं । और भी खुलासा यह है, कि पुरुष विष-वृक्ष के समान है, विष वृक्ष से जो लता लिपट जाती है, वह उसे भी विषरूप कर देता है। इसी तरह पुरुष जिस विषया स्त्री के पीछे लग जाता है अथवा जो स्त्री पुरुष के फन्दे में फंस जाती है, वह भी सब तरह से नष्ट हो जाती है । इसके सभी अंगों में विष भरा है । जिस तरह विष खाने से ज़हर चढ़ता है, उसी तरह इसकी आँख, इनकी भुजाएं, इसकी छातियां, जांघें प्रभृति किसी भी अंग के देखने और छूने से विष चढ़ जाता है । विष के चढ़ जाने से स्त्री मतवाली हो जाती है; उसके होश-हवास खता हो जाते हैं और बुद्धि मारी जाती है । बुद्धि के मारे जाने से स्त्री बिना पतवार की नाव की तरह नष्ट हो जाती है । इस लोक में नाना प्रकार के रोग और दुःख भोगकर मर जाती और परलोक में भी दुःख ही पाती है । संखिया प्रभृति विष की मारी हुई इस लोक में दुःख पाती है, पर पुरुष रुपी विष की मारी हुई अनेक जन्मों में दुःख पाती है । ज़हर खाने वाली एक ही बार मरती है; पर पुरुष-विष सेवन करने वाली बारम्बार मरती है । अतः बुद्धिमतियों को इस पुरुष-रूपी विषवृक्ष से सदा दूर रहना चाहिए, ताकि इसका विष शरीर में पैवस्त न होने पावे।

(२)
पुरुष का शरीर अत्यंत मैला और अतीव अशुद्ध या गन्दा है । इस प्रकार प्रत्येक रोम मैला और सारे ही दरवाजे गन्दे हैं । इसका शरीर हाड, मांस, मज्जा, मेद और चमड़े से लिपटा हुआ है । इसके अन्दर जगह जगह खून के हौज़ भरे हुए हैं । पेशाब और पाखाने की आंतें आपस में सट  रहती है । इन सब के अलावा पेट में और भी अनेक तरह के मैले भरे हुए हैं । सुन्दरदास जी कहते हैं, नर एड़ी से शिर तक निन्द्य है - नख से शिख तक निन्दा करने योग्य है । ऐसे निन्दा के पात्र नर की जो सराहना करें, वे तो निश्चय ही बड़ी गंवार और भौंदू हैं ।
खुलासा यह है कि पुरुष ऊपर से अच्छा मालूम होता है, पर वास्तव में गन्दगी का पिटारा है । इसकी नाक में रहँट भरा हुआ है। इसकी आँखों में गींडें भरी हुई हैं । इसके मुंह में कफ और खखार भरे हुए हैं । इसकी मूत्रेन्द्रिय से हर समय गन्दा पदार्थ बहा करता है । जिन भुजाओं पर विषया स्त्रियां मर मिटती हैं, जिन्हे वे पौरुष या बल का प्रतीक कहती हैं, वे दो मांस के लौंदे हैं । उनके ऊपर चमड़ा चढ़ा हुआ है, इसी से उनके भीतर की गन्दगी छिपी रहती है । ऐसी गन्दगी के पिटारे की जो स्त्रियां तारीफ करती हैं वे सचमुच ही बेअक्ल और गंवार हैं ।

(३)
अनेक तरह की इन्द्रिय भोग सम्बन्धी वस्तुओं से बना हुआ पुरुष विषया स्त्रियों को बहुत ही प्यारा लगता है । जब बलवान काम जागता है, तब वे इसका नखशिख वर्णन करने में अपनी सारी विद्वता खर्च कर देती हैं । चोटी से एड़ी तक एक-एक अंग की दिल खोल कर तारीफ करती हैं । जिस तरह रोगी मिठाई खाकर अपने रोग को बढ़ाता है; उसी तरह जो स्त्रियां, पुरुष या प्रिय को धारण करती हैं - अपनाती हैं, अनेक तरह के रोगों और दुखों को जानबूझकर आप बुलाती हैं । उनकी हर तरह से दुर्गति होती है । तरह तरह के रोग होते हैं, रूप घटता है, आयु क्षीण होती है, हर क्षण चिंतित रहना पड़ता है, शान्ति पास नहीं आती और ईश्वर भजन में मन नहीं लगता । हर समय उसी को संतुष्ट करने की फ़िक्र लगी रहती है । मरते समय भी उसी में मन अटका रहता है, जीवात्मा उसे छोड़कर जाना नहीं चाहता, उसके संग ही रहना चाहता है, पर समय आ जाने पर कोई भी इस काया में क्षणभर भी नहीं रह सकता; अतः देह त्यागनी ही पड़ती है; पर चूंकि पुरुष में मन लगा रह जाता है, उसकी वासना मन में रह जाती है, इसलिए वासना के कारण फिर जन्म लेना पड़ता है । जो जन्म लेता है, उसे मरना भी पड़ता है । इस तरह पुरुष-आसक्त को बारम्बार जन्म लेने और मरने का घोर क्लेश सहना पड़ता है । उसे कभी सुख नहीं मिलता; उसकी मोक्ष नहीं होती । इसीलिए कहा है कि, जो स्त्रियां पुरुष के साथ हैं, उनकी बड़ी बुरी गति होती है । 

सोरठा 
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तजि तरुण सों नेह, बुद्धिबर सों नेह कर।
नरक निवारत येह, वहै नरक लै जात है।।
  
प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं 
कालेशक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम्।
तृष्णास्त्रोतोविभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा 
सामान्यः सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधि:श्रेयसामेष पन्थाः।। ६३ ।।

अर्थ:
किसी भी जीव की हिंसा न करना, पराया माल न चुराना, सत्य बोलना, समय पर सामर्थ्यानुसार दान करना, परस्त्रियों की चर्चा में चुप रहना, गुरुजनो के सामने नम्र रहना, सब प्राणियों पर दया करना और भिन्न भिन्न शास्त्रों में समान विश्वास रखना - ये सब नित्य सुख प्राप्त करने के अचूक रस्ते हैं ।

यदि आप मोक्ष की अचूक राह चाहते हो, यदि आप चिरस्थायी कल्याण चाहते हो, तो आप किसी भी प्राणी का विनाश मत करो; अपने पेट के लिए किसी की जान मत मारो । जब मौका आवे, अपनी शक्ति अनुसार गरीबों और मुहताजों को दान दो, उनके दुःख दूर करो; उनके दुखों को अपना दुःख समझकर उनका कष्ट निवारण करो। जहाँ पराई स्त्रियों का ज़िक्र होता हो, वहां मत बैठो; यदि बैठना ही पड़े, तो तुम अपनी ज़बान से कुछ मत कहो । माता-पिता और गुरु के सामने सदा नम्र रहो, उनकी आज्ञा का पालन करो, उनका मान-सम्मान करो; भूल कर भी उनका अपमान न करो । छोटे बड़े सभी प्राणियों पर दया करो । सभी शास्त्रों को समान समझो; किसी में विश्वास और किसी में अविश्वास न करो, क्योंकि सभी का ध्येय एक ही है, सभी वहीँ पहुँचते हैं । जिस तरह नदियां, टेढ़ी-सीढ़ी बहती हुई समुद्र में ही जा मिलती हैं; उसी तरह सभी शास्त्र अपनी-अपनी राहों से मोक्ष या परमात्मा की ही राह बताते हैं । जो ऐसा विश्वास नहीं रखते, तर्क-वितर्क के झमेले में पड़ते हैं, वे वृथा भटकते और अपनी मंज़िल मक़सूद - परमपद - तक नहीं पहुँचते ।

महात्मा तुलसीदास ने ये सब विषय कैसी खूबी से संक्षेप में ही कह दिए हैं -
सदा भजन गुरु साधु द्विज, जीव दया सम जान।
सुखद सुनै रत सत्यव्रत, स्वर्ग-सप्त सोपान।।

वञ्चक विधिरत नर अनय, विधि हिंसा अतिलीन।
तुलसी जग मँह विदित वर, नरक निसैनी तीन।।

ईश्वर-भजन; गुरु, साधु-महात्मा और ब्राह्मणो की सेवा करना; जीवों पर दया करना; लोक में समदृष्टि रखना - सबको एक नज़र से देखना; सबको सुख देना; सुनीति पर चलना और सत्यव्रत धारण करना - ये सातों स्वर्ग में जाने की सात सीढ़ियां हैं । जो इन कामों को वासना के साथ करते हैं - इन कामों का पुरस्कार चाहते हैं, वे स्वर्ग में जाते हैं और जो इन कामों को बिना वासना के करते हैं, वे भगवान् में मिल जाते हैं ।
खुलासा यह है कि जो लोग परमात्मा का भजन करते हैं, गुरु, महात्मा और ब्राह्मणो को सेवा करते और उनसे उपदेश लेते हैं, जीवों पर दया करते हैं, अपनी भरसक किसी भी जीव को दुःख नहीं होने देते, सबको एक नज़र से देखते हैं, किसी से दोस्ती और किसी से दुश्मनी नहीं रखते; सभी को सुख देते हैं - किसी को भी नहीं सताते; न्याय और नीति के मार्ग पर चलते हैं - अनीति से बचते और अत्याचार नहीं करते तथा सदा सत्य बोलते हैं - सपने में भी झूठ नहीं बोलते - वे स्वर्ग में जाते हैं, क्योंकि ये सात स्वर्ग की सीढिया हैं ।

गोस्वामी जी ने ऊपर स्वर्ग में चढ़ने की सात सीढ़ियाँ बताई हैं, अब वह नरक की तीन नसैनी भी बताते हैं - जो लोग चोरी, जोरी और ठगी अथवा और तरह से धोखा देकर पराया धन हड़पते हैं, जो लोग अनीति और अन्याय करते हैं - पराई स्त्रियों को भोगते हैं, पराई निन्दा या बदनामी करते हैं, पराया काम बिगाड़ते हैं, जुआ खेलते हैं, वेश्यागमन करते हैं, जो लोग अपने सुख के लिए जीवों को मारते हैं अथवा मोह के वश में होकर जीवहत्या करते हैं; यानी छल, अनीति और हिंसा का आश्रय लेते हैं, वे निश्चय ही नरकों में जाते हैं; क्योंकि ये तीनो काम नरक की नसैनी हैं ।


मातर्लक्ष्मि भजस्व कंचिदपरं मत्काङ्क्षिणी मा स्म भूः
भोगेभ्यः स्पृहयालवो न हि वयं का निस्पृहाणामसि।
सद्यःस्यूतपलाशपत्रपुटिकापात्रे पवित्रीकृते 
भिक्षासक्तुभिरेव सम्प्रति वयं वृत्तिं समीहामहे।। ६४ ।।

अर्थ:
हे मां लक्ष्मी ! अब किसी और को खोज, मेरी इच्छा न कर; अब मुझे विषय-भोगों की चाह नहीं है; मेरे जैसे निस्पृह - इच्छा-रहितों के सामने तू तुच्छ है ।  क्योंकि अब मैंने हर ढाकके पत्तो के दोनों में भिक्षा के सत्तू से गुज़ारा करने का संकल्प कर लिया है ।

जो अपनी इच्छा का नाश कर देता है, जो किसी भी पदार्थ की इच्छा नहीं रखता - वह लक्ष्मी क्या - संसार के बड़े बड़े सुख-भोग और धन-दौलत को तुच्छ समझता है; वह बादशाहों को भी माल नहीं समझता । जो जंगल के फलमूलों पर गुज़र कर लेता है या भिक्षा के सत्तू को ढाक के पात में पानी से घोल कर पी जाता है, वस्त्र की भी जरुरत नहीं रखता, उसे किसी परवा ? उसे दुःख कहाँ ? यदि मनुष्य सच्चा सुख चाहे, परमपद या परमात्मा को चाहे तो "इच्छा" को त्याग दे । सब आफतों की जड़ "इच्छा" ही है ।

दोहा
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मौकों तजि भजि और कों, ऐरी लक्ष्मी मात !।
हैं पलाश के पात में, मांग्यो सतुआ खात।।

यूयं वयं वयं यूयमित्यासीन्मतिरावयोः।
किं जातमधुना येन यूयं यूयं वयं वयम्।। ६५ ।।

अर्थ:
पहले हमारा आपका इतना गाढ़ा सम्बन्ध था कि, आप थे सो मैं था और मैं था सो आप थे । अब क्या फर्क हो गया है, कि मैं - मैं ही हूँ और आप - आप ही हैं ?

पहले आपमें और मुझमें भेद नहीं था । जो आप थे सो मैं था और मैं था सो आप थे । मैं और आप दोनों ही एक से थे - आप और मैं दोनों ही पहले विषयासक्त थे; किन्तु अब बड़ा भेद हो गया है; यानी आप अब तक विषयासक्त ही हैं पर मैं विषयों से विरक्त हो गया हूँ । आपने अब तक संसार के झूठे सुखों - विषय वासनाओं का परित्याग नहीं किया है; पर मित्र, मैं तो अब इनसे घबरा गया - थक गया; मुझे इनमें कुछ भी सार या तत्व न दीखा, इसलिए मैंने अब सबसे किनारा करके वैराग्य ले लिया है । आप सभी नरक में ही हैं, पर मैं विवेक-बुद्धि से काम लेकर, नरक से निकलकर स्वर्ग में आ गया हूँ । आप अभी तक दुःख के बीज बो रहे हैं; पर मैं अब सुख के बीज बो रहा हूँ । मित्र ! तुम भी मेरी तरह उन भयंकर जञ्जालों को छोड़कर मेरी जैसी सुख की राहपर क्यों नहीं आ जाते ? मित्रवर ! इस राह में सुख है; उस राह में घोर दुःख और नरक यातनाएं हैं । संसार को छोड़ने और भगवत से प्रीती करने में बड़ा आनन्द है । 

उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है -
दुनिया से ज़ौक़ रिश्तए उल्फत को तोड़ दे।
जिस सर का है यह बाल, उसी सर में जोड़ दे।।

दोहा
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तुम-हम हम-तुम एक हैं, सब विधि रह्यो अभेद।
अब तुम-तुम हम-हमहिं हैं, भयो कठिन यह भेद।।


बाले लीलामुकुलितममीमन्थरा दृष्टिपाताः
किं क्षिप्यते विरम विरमं व्यर्थ एव श्रमस्ते।।
संप्रत्यन्ये वयमुपरतम् बाल्यामावस्था वनान्ते
क्षीणो मोहस्तृणमिव जगज्जालमालोक्यामः।। ६६ ।।

अर्थ:
ऐ बाला ! अब तू लीला से अपनी आधी खुली आँखों से मुझ पर क्यों कटाक्ष बाण चलाती है ? अब तू काममद पैदा करने वाली दृष्टी को रोक ले; तेरे इस परिश्रम से तुझे कोई लाभ न होगा । अब हम पहले जैसे नहीं रहे हैं । हमारी जवानी चली गयी है । अब हमने वन में रहने का निश्चय कर लिया है और मोह त्याग दिया है; अब हम विषय सुखों को तृण से भी निकम्मा समझते हैं । 

महाकवि दाग कहते हैं -
तौबा जो मैंने की, निकल आया ज़रा सा मुंह।
वह रंग रूप ही नहीं, सुबहे बहार का।।


बसन्त को सौंदर्य का बड़ा अभिमान था । जब से मैंने शराब पीने से तौबा कर ली है, तब से बसन्त-लक्ष्मी का मुंह फीका पड़ गया है । जब तक मैं शराबी था, तभी तक उसकी शोभा का कायल था। अब तो मुझे उसमें भी विशेषता मालूम नहीं होती ।


इयं बाला मां प्रत्यनवरतमिन्दीवरदल
प्रभाचोरं चक्षुः क्षिपति किमभिप्रेतमनया।।
गतो मोहोऽस्माकं स्मरकुसुमबाण व्यतिकर-
ज्वलज्ज्वाला शान्ति न तदपि वराकी विरमति।। ६७ ।। 

अर्थ:
यह बाला स्त्री मुझ पर बार-बार नीलकमल की शोभा से भी सुन्दर नेत्रों से कटाक्ष क्यों मारती है ? मैं नहीं समझता इसका क्या मतलब है ? अब तो मेरा मोह जाता रहा है - काम के पुष्प बाणो से निकली हुई आग की ज्वाला शान्त हो गयी है । आश्चर्य है, कि अब तक भी यह मूर्खा बाला अपनी कोशिशों से बाज़ नहीं आती ।

जिनका मोह-जाल कट जाता है, जिनकी विषय-वासना बुझ जाती है, जो स्त्रियों की असलियत को समझ जाते हैं, जो उनको नरक की नसैनी समझ लेते हैं, उन पर स्त्रियों के कटाक्ष बाण असर नहीं करते । हाँ वे अपने स्वभावानुसार अपने तीखे-तीखे बाण चलाया ही करती हैं; परन्तु तत्ववित्त लोग उनके जाल में नहीं फंसते । उन पर उनके अचूक बाण फेल हो जाते हैं ।

दोहा
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केहि कारण डारत बयन, कमलनयन यह नार।
मोह काम मेरे नहीं, तउ न तिय-चित हार।।


रम्यं हर्म्यतलं न किं वसतये श्राव्यं न गेयादिकं
किं वा प्राणसमासमागमसुखं नैवाधिकं प्रीतये।।
किं तूद्भ्रान्तपतङ्गपक्षपवनव्यालोलदीपाङ्कुर-
च्छायाचञ्चलमाकलय्य सकलं सन्तो वनान्तं गताः।। ६८ ।।

अर्थ:
क्या सन्तों के रहने के लिए उत्तमोत्तम महल न थे, क्या सुनने के लिए उत्तमोत्तम गान न थे, क्या प्यारी-प्यारी स्त्रियों के संगम का सुख न था, जो वे लोग वनों में रहने को गए ? हाँ, सब कुछ था; पर उन्होंने इस जगत को गिरने वाले पतंग के पंखों से उत्पन्न हवा से हिलते हुए दीपक की छाया के समान चञ्चल समझकर छोड़ दिया; अथवा उन्होंने मूर्ख पतंग की भांति, जो हवा से हिलते हुए दीपक के छाया में घूम-घूमकर अपने तई जलाकर भस्म कर देता है, संसार को अपना नाश करते देखकर संसार को छोड़ दिया।
यह संसार दीपक की लौ के समान है और इसमें बसनेवाले जीव पतंगों के समान हैं । जिस तरह मूर्ख पतंग दीपक से मोह करके और उस पर गिर-गिर भस्म होते हैं; उसी तरह मनुष्य इस संसार के असल तत्व को न समझकर, इसके मोह में फंसकर, इसमें नाश होते हैं । जिस तरह पतंग नहीं समझता कि दीपक से प्रेम करने में मेरे हाथ कुछ न आवेगा, बल्कि मेरी जान ही जायेगी; उसी तरह संसारी आदमी नहीं समझते, कि इन संसारी विषय-वासनाओं में फंसकर, इनसे प्रेम करके हम अपना नाश करा बैठेंगे । जो बुद्धिमान और विचारवान हैं, वे इस बात को समझते हैं; अतः संसारी पदार्थों से मोह नहीं करते और अपने नाश से बचते हैं । वे संसार को अनित्य और नाश की निशानी समझकर, इससे मन हटाकर परमात्मा में मन लगते हैं । वे अपने तई दुनिया का मुसाफिर मात्र समझकर, मौत का हरदम ख्याल रखते हैं ।
महात्मा कबीर ने कहा है -
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय ।
को काहू को है नहीं, सब देखा ठोक बजाय।।
"कबिरा" रसरि पाँव में, कहँ सोवे सुख चैन।
श्वास-नकारा कूंच का, बाजत है दिन-रैन।।
इस चौसर चेता नहीं, पशु-ज्यों पाली देह।
राम नाम जाना नहीं, अन्त परी मुख खेह।।

यह शरीर सराय है, मन चौकीदार है और मनसा - इच्छा इस शरीर रुपी सराय में उतरा हुआ मुसाफिर है; इस जगत में कोई किसी का नहीं है । अच्छी तरह ठोक बजा या जांच पड़ताल करके देख लिया ।
हे कबीर ! पैरों में रस्सी पड़ी हुई है । फिर भी तू सुख चैन में कैसे सो रहा है ? देख इस दुनिया से कूच करने का श्वास रुपी नागदा दिन-रात बज रहा है !
अगर तू इस चौपड़ के खेल में न चेतेगा, इस जन्म में भी होश न करेगा, पशु की तरह शरीर को पालेगा और राम को नहीं जानेगा; तो अन्त में तेरे मुंह में धुल पड़ेगी ।

छप्पय
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महल महारमणीक, कहा बसिबे नहिं लायक ?
नाहिन सुनवे जोग, कहा जो गावत गायक ?
नवतरुणी के संग, कहा सुखहू नहिं लागत ?
तो काहे को छाँड़-छाँड़, ये बन को भागत ?
इन जान लियो या जगत को, जैसे दीपक पवन में ।
बुझिजात छिनक में छवि भरयो, होत अंधेरो भवन में ।।


अतीव सुन्दर व रमणीक महल क्या बसने योग्य नहीं हैं ? गवैये जो मनोहर गाना गाते हैं, क्या वह सुनने योग्य नहीं है ? नवीना बाला स्त्रियों के साथ रमण करने में क्या आनन्द नहीं आता ? अगर इन सब में आनन्द और सुख है, तो लोग इन सबको छोड़-छोड़ कर बन में क्यों भागे जाते हैं ? इसलिए भागे जाते हैं, कि उन्होंने इस जगत को उस दीपक के समान समझ लिया है, जो हवा में रखा हुआ है और क्षणभर में बुझ जाता है ।


किं कन्दाःकन्दरेभ्यः प्रलयमुपगता निर्झरा व गिरिभ्यः
प्रध्वस्ता वा तरुभ्यः सरसफलभृतो वल्कलिन्यश्च शाखाः।।
वीक्ष्यन्तेयन्मुखानि प्रसभमपगतप्रश्रयाणाम् खलानां
दुःखोपात्ताल्पवित्तस्मयवशपवनानअर्तितभ्रूलतानि।। ६९ ।।

अर्थ:
क्या पहाड़ों की गुफाओं में कन्द-मूल और उनकी चट्टानों में पानी के झरने नहीं रहे, क्या छाल वाले वृक्षों में रसीली फलवती शाखाएं नहीं रहीं, जो लोग उन अभिमानी और नीचों के सामने दीनता करते हैं, जिनकी भौंहें मारे अभिमान के चढ़ी रहती हैं और जिन्होंने बड़े कष्ट से थोड़ा सा धन जमा कर लिया है ? 
पहाड़ों में रहने को गुफाएं, खाने को कन्दमूल, पीने को उनके झरनों का जल और वृक्षों में मीठे मीठे रसीले फल मौजूद हैं; फिर भी लोग उन धनियों की टेढ़ी भृकुटियों को क्यों देखते हैं, उनकी टेढ़ी-सूधी क्यों सहते हैं, जिनकी आँखें उस थोड़े से धन के मद से नहीं खुलती, जो उन्होंने बड़े बड़े कष्टों से येनकेन प्रकारेण जमा कर लिया है ! ऐसे नीच अभिमानियों से अपमानित होने की अपेक्षा पहाड़ों में रहना और फलमूल तथा शीतल जल पर गुज़ारा करना भला । इस से उनकी आत्मा खूब सुखी होगी; अभिमानी नीच धनियों की बुरी बातों से आत्मा जल जल कर ख़ाक होती है ।
अगर कुछ भी समझ हो, ज़रा भी आत्मप्रतिष्ठा का ख्याल हो, तो मनुष्य को अपनी "इच्छा" का नाश करना चाहिए । इच्छा रहित मनुष्य सात विलायतों के बादशाह को भी तुच्छ समझता है । धनियों से दीनता करना और माँगना बड़ी बुरी बात है । देखिये गोस्वामी तुलसीदासजी प्रभृति महापुरुषों ने क्या कहा है :-
तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर न करो।
जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरण करो।।
माँगन मरण समान है, मत कोई मांगो भीख।
माँगन ते मरना भला, यह सतगुरु की सीख।।

तुलसीदास जी कहते हैं - हे प्रभु ! हाथ पर हाथ करो, हाथ के नीचे हाथ न करो । जिस दिन हाथ के नीचे हाथ करो, उस दिन हमारी मौत हो जाए । मतलब यह है कि जब तक हम दूसरों को देते रहे, तब तक हम जीवित रहे; जिस दिन हमारी मांगने की नौबत आ जाये, उस दिन हम मर जाएँ ।
अगर दीनता ही करनी है तो परमात्मा से करो । उसके आगे दीनता करने से सभी इच्छाएं पूरी हो सकती हैं । कहा है :-
तेरी बन्दानवाज़ी, हफ्त किश्वर बख़्फ़ा देती है ।
जो तू मेरा - जहाँ मेरा, अरब मेरा, अज़म मेरा ।। दाग़ ।।

कबीर ने कहा है :-
थोड़ा सुमिरन बहुत सुख, जो करि जानै कोय ।
सूत लगे न बिनावनी, सहजै तनसुख होय ।।
साईं सुमिर, मत ढील कर; जा सुमरे ते लाह।
इहाँ ख़लक खिदमत करे, वहाँ अमरपुर जाह।।

भगवान् की थोड़ी सी याद करने से ही बहुत सुख होता है, बशर्ते की कोई याद करना जाने । इसमें न तो सूत लगता है और न बिनवाई देनी पड़ती है; सहज में आनन्द होता है ।
हे मनुष्य ! स्वामी को सुमिरन करने में देर न कर । उसके सुमिरन में बहुत लाभ हैं । जो स्वामी को याद करता है, इस दुनिया में संसारी लोग उसकी सेवा करते हैं और जब मर कर दूसरी दुनिया में जाता है, तब स्वर्गपुरी में बस्ता है ।

छप्पय
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कहा कन्दराहीन भये, पर्वत भूतल से ?
झरना निर्जल भये कहा, जे पूरित जल से ?
कहा रहे सब वृक्ष, फूल-फल बिन मुरझाये ?
सही खलन के बैन, अन्धता जो मद छाये ।
कर संचित धन जे स्वल्प हूँ, इत उत फेरें भ्रू विकट ।

रे मन ! तू भूल न जाहुं कहूं, इन खल पुरुषन के निकट ।।


गंगातरंगकणशीकरशीतलानि
विद्याधराध्युषितचारुशीलतलानि।।
स्थानानि किं हिमवतः प्रलयं गतानि
यत्सावमानपरपिण्डरता मनुष्याः।। ७० ।।

अर्थ:
हिमालय पर्वत के वे चट्टानें जो गंगाजल की लागरों से उठे हुए छींटो से शीतल हो रही है और जहाँ जगह जगह विद्याधर बैठे हैं, क्या अब नहीं रही हैं, जो लोग अपमान से मिले हुए पराये टुकड़ों पर गुज़र करते हैं ?
पराये टुकड़ों पर गुज़र करने की अपेक्षा मर जाना भला है । अगर माँगना ही हो तो, तो मांगने की विधि चातक से सीखनी चाहिए । वह एक से ही मांगता है, दूसरे से हरगिज़ नहीं मांगता, चाहे मर क्यों न जाए; और मांगने में भी यह खूबी, कि वह कभी अधीन होकर नहीं मांगता; एक घनश्याम(बादल) से ही मांगता है । चातक के समान याचक और वारिद(बादल) के समान दानी जगत में कौन है ? जो ओछों से मांगते हैं, जने-जने के पैर पकड़ते हैं, उनको धिक्कार है ! इसलिए मनुष्यों ! पापहीये की तरह एकमात्र घनश्याम से ही मांगो । महात्मा तुलसीदास जी ने कहा है :-
"तुलसी" तीनों लोक में, चातक ही को माथ।
सुनियत जासु न दीनता, किये दूसरो नाथ।।
ऊंची जाति पपीहरा, नीचे पियत न नीर।
कै याचै घनश्याम सों, कै दुःख सहै शरीर।।
ह्वै अधीन चातक नहीं, शीश नाय नहिं लेय।
ऐसे मानी मंगनहीं, को वारिद बिन देय।।

तुलसी कहते हैं - तीनो लोक में सिर्फ एक पापहीये का ही सिर ऊंचा है, क्योंकि उसने अपने स्वामी स्वाति के सिवा और किसी से कभी दीनता नहीं की ।
पपहिए की जाति ऊंची है; क्योंकि वह नदियों और तालाबों वगैरह जलाशयों का पानी नहीं पीता । वह या तो घनश्याम से यानि स्वाति नक्षत्र में बादल से ही मांगता है अथवा दुःख भोगता है ।
पपहिया और मंगतों की तरह अधीन होकर और सिर नवकार नहीं लेता । वह तो मान के साथ ही लेता है । ऐसे मानी मांगते को बादल के सिवा और कौन दे सकता है ? जिनको परमात्मा ने देने लायक बनाया है, उन्हें दिल खोलकर गरीब और मुहताजों को देना चाहिए । जो देते हैं, फिर पाते हैं और जो देते हैं उन्हीं का जीवन सफल है । रहीम कवी कहते हैं :-
दीनहि सबको लखत है, दीन लखे नहीं कोय।
जो "रहीम" दीनहिं लखत, दीनबन्धु सम होय।।
"रहिमन" वे नर मर चुके, जे कहूं माँगन जाहिं।
उनते पाहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं।।
तबही लग जीबो भलो, दीबो परे न धीम।
बिन दीबो जीबो जगत, हमें न रुचे "रहीम"।।

दीन या मुहताज सबकी तरफ देखता है, पर दीन की तरफ कोई नहीं देखता । रहीम कहते हैं, जो दीन की तरफ देखता है, वह दीनबन्धु भगवान् के समान होता है ।
रहीम कहते हैं, वे मनुष्य मर गए जो कहीं मांगने जाते हैं । उनसे पहले वे मरे, जिनके मुंह से नाही निकलती है । मतलब यह है कि मंगता तो मरा हुआ है ही, पर जो मांगने वालों को नहीं देता, वह उससे भी पहले मरा हुआ है । जीना तभी तक अच्छा है जब तक देना मन्दा न हो । बिना दान किये जीना, रहीम कहते हैं, हमें अच्छा नहीं लगता ।

दोहा

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गंगातट गिरिवर गुफा, उहाँ कहँ नहीं ठौर ?
क्यों ऐते अपमान सों, खात पराये कौर ?

यदा मेरुः श्रीमान्निपतति युगान्ताग्निनिहितः 
समुद्राः शुष्यन्ति प्रचुरनिकरग्राहनिलायाः।।
धरा गच्छत्यन्तं धरणिधरपादैरपि धृता 
शरीरका वार्त्ता करिकल भकर्णाग्रचपले।। ७१ ।।

अर्थ:
जब प्रलय की अग्नि के मारे श्रीमान सुमेरु पर्वत गिर पड़ता है; मगरमच्छों के रहने के स्थान समुद्र भी सूख जाते हैं; पर्वतों के पैरों से दबी हुई पृथ्वी भी नाश हो जाती है; तब हाथी के कान की कोर के समान चञ्चल मनुष्य की क्या गिनती ?
जब काल सुमेरु जैसे पर्वतों को जला कर गिरा देता है, महासागरों को सुखा देता है, पृथ्वी को नाश कर देता है, तब इस छोटे से चञ्चल मनुष्य की क्या गिनती ? इसके नाश में कौन सा आश्चर्य ?

दोहा
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मेरु गिरत सूखत जलधि, धरनि प्रलय ह्वै जात।
गजसुत के श्रुति चपल त्यौं, कहा देह की बात।।


एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः।
कदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मूलनक्षमः।। ७२ ।।

अर्थ:
हे शिव ! मैं कब अकेला, इच्छा रहित और शान्त हूँगा ? कब हाथ ही मेरा पात्र होगा और कब दिशाएं मेरे वस्त्र होंगे ? मैं कब कर्मों की जड़ उखाड़ने में समर्थ हूँगा ? 

एकान्त वास करना, इच्छाओं को त्याग देना, शान्त रहना, हाथ से ही पानी वगैरह पीने के बर्तन का काम लेना, दिशाओं को ही वस्त्र समझना; यानी नग्न रहना और कर्मो की जड़ उखाड़ने में समर्थ होना - ये ही कल्याण के मार्ग हैं । जिनमें ये गुण हैं, वे धन्य हैं और वे ही सच्चे सुखिया हैं ।


दोहा

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एकाकी इच्छा-रहित, पाणिपात्र दिगवस्त्र।
शिव शिव ! हौं कब होऊंगा, कर्मशत्रु को शस्त्र?


प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुघास्ततः किं
न्यस्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं ।
सम्पादिताः प्रणयिनो विभवैस्ततः किं
कल्पस्थितास्तनुभृतां तनवस्ततः किम् ।। ७३ ।।
जीर्णा कंथा ततः किं सितममलपटं पट्टसूत्रं ततः किम् 
एका भार्या ततः किं हय करिसुगणैरावृतो वा ततः किम्।।
भक्तं भुक्तं ततः किं कदशनमथ वा वासरांते ततः किं 
व्यक्त ज्योतिर्नवांतर्मथितभवभयं वैभवं वा ततः किम्।। ७४ ।।

अर्थ:

अगर मनुष्यों को सब इच्छाओं के पूर्ण करनेवाली लक्ष्मी मिली तो क्या हुआ ? अगर शत्रुओं को पदानत किया तो क्या ? अगर धन से मित्रों की खातिर की तो क्या ? अगर इसी देह से इस जगत में एक कल्प तक भी रहे तो क्या ?
अगर चीथड़ों की बनी हुई गुदड़ी पहनी तो क्या ? अगर निर्मल सफ़ेद वस्त्र पहने या पीताम्बर पहने तो क्या ? अगर एक ही स्त्री रही तो क्या ? अगर अनेक हाथी-घोड़ों सहित अनेकों स्त्रियां रहीं तो क्या ? अगर नाना प्रकार के व्यंजन भोजन किये अथवा शाम को मामूली खाना खाया तो क्या ? चाहे जितना वैभव पाया, पर यदि संसार बन्धन को मुक्त करनेवाली आत्मज्ञान की ज्योति न जानी, तो कुछ भी न पाया और कुछ भी न किया ।

मतलब यह है, सारे संसार के राज्य-वैभव अथवा त्रिभुवन के अधिपति होने में भी जो आनन्द नहीं है, वह आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान में है ।

 आत्मज्ञान होने से ही मनुष्य, जीवन मरण के कष्ट से छुटकारा पाकर, परम शान्ति-लाभ मिलता है ।
अर्ब खर्ब लौं द्रव्य है, उदय अस्त लौं राज।
जो तुलसी निज मरन है, तौ आवे केहि काज?।

अगर अरब खरब तक धन हो और उदयाचल से अस्ताचल तक राज हो, तो भी अगर अपना मरण हो, तो ये सब किस काम के ? धन-दौलत और राज-पाट सब जीते रहने पर काम आते हैं, मरने पर इनसे कोई लाभ नहीं ।


दोहा

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इन्द्र भये धनपति भये, भये शत्रु के साल।
कल्प जिए तोउ गए, अन्त काल के गाल।।


भक्तिर्भवे मरणजन्मभयं हृदिस्थं
स्नेहो न बन्धुषु न मन्मथजा विकाराः।
संसर्गदोषरहिता विजना वनान्ता
वैराग्यमस्ति किमितः परमार्थनीयम्।। ७५ ।।

अर्थ:
सदाशिव की भक्ति हो, दिल में जन्म-मरण का भय हो, कुटुम्बियों में स्नेह न हो, मन से काम-विचार दूर हों और संसर्ग-दोष से रहित होकर जंगल में रहते हों -  अगर हममें ये गुण हों तब और कौन सा वैराग्य ईश्वर से मांगें ?

परमात्मा में प्रेम होना, मन में जन्म-मरण का भय होना, रिश्तेदारों से प्रेम न होना, मन में स्त्री की इच्छा का न उठना, एकान्तस्थान में अकेले वन में निवास करना - ये ही तो वैराग्य के पूरे लक्षण हैं । इनसे अधिक वैराग्य के और लक्षण नहीं ।

दोहा
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मन विरक्त हरिभक्ति-युत, संगी बन तृणडाभ ।
याहुते कछु और है, परम अर्थ को लाभ ?

तस्मादनन्तमजरं परमं विकासि-
तद्ब्रह्म चिन्तय किमेभिरसद्विकल्पैः ।
यस्यानुषङ्गिण इमे भुवनाधिपत्य-
भोगादयः कृपणलोकमता भवन्ति।। ७६ ।।

अर्थ:
उस वास्ते मनुष्यों ! अनन्त, अजर, अमर, अविनाशी और शान्तिपूर्ण ब्रह्म का ध्यान करो । मिथ्या जंजालों में क्या रखा है ? जो ब्रह्म का ज़रा सा  भी आनन्द पा जाते हैं, उनकी नज़रों में संसारी राजाओं का आनन्द तुच्छ जंचता है ।
मतलब है कि लोगों को अनन्त, अजर, अमर, अविनाशी, शोक-रहित, शान्तिपूर्ण ब्रह्म का ध्यान करना चाहिए । उसी के ध्यान में पूर्णानन्द है; संसार के भोग-विलासों में ज़रा भी आनन्द नहीं । वह आनन्द सदा है; या आनंद क्षणिक है । उसमें सदा सुख है; इसमें सदा दुःख है । जिनको ब्रह्मानन्द का ज़रा सा भी मज़ा आ जाता है, वे त्रिलोकी के अधिपति के आनन्द को भी तुच्छ समझते हैं । राज, धन-दौलत और स्त्री-पुत्र प्रभृति सब उस परमात्मा के पीछे हैं; इसलिए इनको छोड़कर उससे ही प्रीति करने में चतुराई है ।

दोहा

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ब्रह्म अखण्डानन्द पद, सुमिरत क्यों न निशङ्क ।  
जाके छिन-संसर्ग सों, लगत लोकपति रंक ?



पातालमाविशशि यासि नभो विलङ्घ्य
दिङ्मण्डलं भ्रमसि मानस चापलेन ।
भ्रान्त्यापि जातु विमलं कथमात्मनीतं  
तद्ब्रह्म न स्मरसि निर्वृतिमेषि येन ।। ७७ ।।

अर्थ:
हे चित्त ! तू अपनी चञ्चलता के कारण पाताल में प्रवेश करता है, आकाश से भी परे जाता है, दशों दिशाओं में घूमता है; पर भूल से भी तू उस विमल परमब्रह्म की याद नहीं करता, जो तेरे ह्रदय में ही मौजूद है, जिसके याद करने से ही तुझे परमानन्द - मोक्ष - मिल सकती है ! 

इस चञ्चल मन की अद्भुत लीला है । यह कभी आकाश में जाता है, कभी पाताल में जाता है और कभी दशों दिशाओं में फिरता है । इधर-उधर तो इतना भटकता है; पर, भूलकर भी, जहाँ जाना चाहिए वहां नहीं जाता । उसके पास ही अमृत का सरोवर है, उसे छोड़कर सदी-गली नालियों में फिरता है । उसे सब जगह छोड़ कर अपने ह्रदय में ही बैठे हुए ब्रह्म के पास जाना चाहिए और हर समय उसकी ही चिन्तना करनी चाहिए; इस से उसके पापों का नाश हो जाएगा, आवागमन से छुटकारा मिल जाएगा एवं परम शान्ति की प्राप्ति होगी । और चिन्ताओं से कोई लाभ नहीं; उन से तो जञ्जालों में ही फंसना होता है ।
मूर्ख लोग अव्वल तो परमत्मा में दिल ही नहीं लगते । यदि भूल से लगते भी हैं, तो परमात्मा की खोज में जहाँ-तहँ मारे मारे फिरते हैं; पर अपने ह्रदय में ही उसे नहीं खोजते ! यह उनका महा अज्ञान है । 

उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है :-
वह पहलु में बैठे हैं और बदगुमानी ।
लिए फिरती मुझको, कहीं का कहीं है ।।

वह(ईश्वर) बगल में ही बैठा है, पर मैं भ्रम में फंसकर उसे ढूंढने के लिए कहाँ कहाँ मारा फिरता हूँ ।

महात्मा कबीर कहते हैं :-
ज्यों नयनन में पूतली, त्यों खालिक घट मांहि ।
मूरख नर जाने नहीं, बाहर ढूंढन जाहि ।।
कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूंढें बन मांहि ।
ऐसे घट-घट ब्रह्म है, दुनिया जाने नाहिं ।।
समझा तो घर में रहे, परदा पलक लगाय ।
तेरा साहिब तुझहि में, अंत कहूँ मत जाय ।।

महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं :-
कोउक जात प्रयाग बनारस।
कोउ गया जगन्नाथहि धावै ।।
कोउ मथुरा बदरी हरिद्वार सु ।
कोउ गंगा कुरुक्षेत्र नहावै ।।
कोउक पुष्कर ह्वै पञ्च तीरथ ।
दौरिहि दौरि जु द्वारिका आवै ।।
सुन्दर चित्त गह्यौ घरमांहि सु ।
बाहिर ढूँढत क्यूंकरि पावै ? ।।

जिस तरह आँखों में पुतली है, उसी तरह घट में (ह्रदय कमल में) पैदा करने वाला है; पर मूर्ख इस बात को नहीं जानता और उसे बहार खोजने जाता है ।
कस्तूरी हिरन की अपनी नाभि में है, पर मृग उसे बन में खोजता है; उसी तरह ब्रह्म घट-घट में है, पर दुनिया इस भेद को नहीं जानती ।
अगर समझता है तो घर में रह और पलकों का पर्दा लगा कर देख, तेरा मालिक तेरे ही अंदर है; अन्यत्र जाने की ज़रुरत नहीं ।
कोई परमेश्वर की खोज में प्रयाग, काशी, गया, पुरी, मथुरा, कुरुक्षेत्र और पुष्कर जाता है और कोई द्वारका जाता है । सुन्दरदास जी कहते हैं, जो धन घर में गड़ा है, वह बाहर कैसे मिलेगा ?
सारांश यह है, कि संसार अज्ञानान्धकार के कारण "छोरा बगल में ढिंढोरा शहर में" वाली कहावत चरितार्थ करता है । ईश्वर इसी शरीर के भीतर ह्रदय-कमल में मौजूद है, पर अज्ञानी लोग उसे पाने के लिए तीर्थों में भटकते फिरते हैं । इस तरह वह मिलता भी नहीं और वृथा हैरानी होती है । जो उसके दर्शन करना चाहें, नेत्र बन्द करके अपने ह्रदय में ही उसे देखें ।

कुण्डलिया 

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फांद्यौ ते आकाश को, पठयौ ते पाताल ।
दशों दिशाओं में तू फिरयो, ऐसी चञ्चल चाल ।।
ऐसी चञ्चल चाल, इतै कबहूँ नहीं आयौ ।
बुद्धि सदन कों पाय, पाय छिनहूँ न छुवायौ ।।
देख्यौ नहीं निज रूप, कूप अमृत को छाँद्यौ ।
ऐरे मन मतिमूढ़ ! क्यों न भव-वारिधि फांद्यौ ? ।।


रात्रिः सैव पुनः स एव दिवसो मत्वा बुधा जन्तवो
धावन्त्युद्यमिनस्तथैव निभृतप्रारब्धतत्तत्क्रियाः ।
व्यापारैः पुनरुक्तभुक्त  विषयैरित्थंविधेनामुना
संसारेण कदर्थिता कथमहो मोहान्न लज्जामहे।। ७८ ।।

अर्थ:
प्राणियों में बुद्धिमान यदि जानते हैं कि दिन और रात ठीक पहले की तरह ही होते हैं; तो भी वे उन्हीं काम-धंधों के पीछे दौड़ते हैं, जिनके पीछे वे पहले दौड़ते थे । वे लोग उन्हीं-उन्हीं कामों में लगे रहते हैं, जिनसे क्षणिक और बारम्बार वही लाभ होते हैं, जिनको वे बारम्बार कह और भोग चुके हैं । आश्चर्य का विषय है, कि मनुष्यों को लज्जा नहीं आती !

देखते हैं कि पहले की तरह ही दिन, रात, तिथि, वार, नक्षत्र और मॉस तथा वर्ष आते हैं और जाते हैं ; उसी तरह हम कहते-पीते, सोते-जाते और काम-धंधे करते हैं; कोई नई बात नहीं देखते । जिन कामों को पहले करते थे, उन्हें ही बारम्बार करते हैं । उनमें कितना सा लाभ और सुख है, इसे भी देखते-सुनते और समझते हैं । फिर भी; आश्चर्य है कि, हम इस मिथ्या संसार से मोह नहीं तोड़ते !

कुण्डलिया 
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वेही निशि वेही दिवस; वेही तिथि वेही बार ।
वे उद्यम वेही क्रिया, वेही विषय-विकार ।
वेही विषय-विकार, सुनत देखत अरु सूंघत ।
वेही भोजन भोग, जागि सोवत अरु ऊंघत ।
महा निलज यह जीव; भोग में भयो विदेही ।
अजहूँ पलटत नाहिं, कढत गन वे के वेही ।।


मही रम्या शय्या विपुलमुपधानं भुजलता
वितानं चाकाशं व्यजनमनुकूलोऽयमनिलः।।
स्फुरद्दीपश्चन्द्रो विरतिवनितासंगमुदितः 
सुखं शान्तः शेते मुनिरतनुभूतिर्नृप इव।। ७९ ।।

अर्थ:
मुनि लोग राजा महाराजाओं की तरह सुख से ज़मीन को ही अपनी सुखदायिनी शय्या मान कर सोते हैं । उनकी भुजा ही उनका गुदगुदा तकिया है, आकाश ही उनकी चादर है, अनुकूल वह ही उनका पंखा है, चन्द्रमा ही उनका चिराग है, विरक्ति ही उनकी स्त्री है; अर्थात विरक्ति रुपी स्त्री को लेकर वे उपरोक्त सामानों के साथ राजाओं की तरह सुख से आराम करते हैं ।

मुनि लोगों के पास न राजाओं की तरह महल हैं, न बढ़िया-बढ़िया पलंग और मखमली गद्दे-तकिये हैं, न ओढ़ने के लिए शाल-दुशाले हैं, बिजली के पंखे हैं, न झाड़-फानूस या बिजली की रौशनी है और न मृगनयनी, मोहिनी कामिनी ही हैं; तो भी वे ज़मीन को ही अपना पलंग, हाथ को ही तकिया, शीतल वह को ही पंखा, चन्द्रमा को ही दीपक और संसारी विषय-भोगों से विरक्ति को ही अपनी स्त्री मान कर सुख से सोते हैं । राजा-महाराजा और अमीर-उमरा बढ़िया-बढ़िया पलंग, कन्दहारी कालीन, मखमली गद्दे-तकिये, बिजली के पंखे और रौशनी तथा सुंदरी स्त्रियों के साथ जो मिथ्या सुख उपभोग करते हैं, उससे लाख दर्जे उत्तम और सच्चा सुख मुनि लोग ज़मीर और अपनी भुजा, अनुकूल वह, चन्द्रमा तथा अपनी विरक्ति रूपिणी स्त्री के साथ उपभोग करते हैं । अब बुद्धिमानो को विचार करना चाहिए, कि उन दोनों में बुद्धिमान कौन है और वास्तविक सुख किसे मिलता है । अमीरों के सुख के लिए कितने झंझट करने पड़ते हैं और कितनी आफतें उठानी पड़ती हैं; तथापि उन्हें  सच्चा सुख नहीं मिलता और मुनि लोग बिना झंझट, बिना आफत और बिना प्रयास के सच्चा सुख भोगते और शान्ति की नींद सोते हैं ।

छप्पय 
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पृथ्वी परम पुनीत, पलंग ताकौ मन मान्यौ ।
तकिया अपनो हाथ, गगन को तम्बू तान्यौ ।।
सोहत चन्द चिराग, बीजना करात दशोंदिशि ।
बनिता अपनी वृत्ति, संगहि रहत दिवस-निशि ।।
अतुल अपार सम्पति सहित, सोहत है सुख में मगन ।
मुनिराज महानृपराज ज्यों, पौढ़े देखे हम दृगन ।।



त्रैलोक्याधिपतित्वमेव विरसं यस्मिन्महाशासने
तल्लब्ध्वासनवस्त्रमानघटने भोगे रतिं मा कृथाः।।
भोगः कोऽपि स एक एव परमो नित्योदितो जृम्भते
यत्स्वादाद्विरसा भवन्ति विषयास्त्रैलोक्यराज्यादयः।। ८० ।।

अर्थ:
हे आत्मा ! अगर तुझे उस ब्रह्म का ज्ञान हो गया है, जिसके सामने तीनो लोक का राज्य तुच्छ मालूम होता है; तो तू भोजन, वस्त्र और मान के लिए भोगों की चाहना मत कर; क्योंकि वह भोग सर्वश्रेष्ठ और नित्य है; उसके मुकाबले में त्रिलोकी के राज्य प्रभृति सुख कुछ भी नहीं हैं ।

जब तक मनुष्य को ब्रह्म ज्ञान नहीं होता, जब तक उसे आत्मज्ञान नहीं होता, जब तक उसे सुख का स्वाद नहीं मिलता, तभी तक मनुष्य संसारी-विषय-भोगों में सुख समझता है । जब मनुष्य को उस सर्वोत्तम - सदा स्थिर रहनेवाले सुख का स्वाद मिल जाता है, तब वह संसारी आनन्द या दुनियावी मज़े तो क्या - त्रिभुवन के राजसुख को भी कोई चीज़ नहीं समझता । मतलब यह है कि सच्चा और वास्तविक सुख ब्रह्मज्ञान या आत्मज्ञान में है । उसके बराबर आनन्द त्रिलोकी के और किसी पदार्थ में नहीं है । जो संसारी पदार्थों में सुख मानते हैं वे अज्ञानी और नासमझ हैं । उनमें अच्छे और बुरे, असल और नक़ल के पहचानने की तमीज नहीं । वे रस्सी को सांप और मृगमरीचिका को जल समझने वालों की तरह भ्रम में डूबे या बहके हुए हैं ।

सोरठा 
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कहा विषय को भोग, परम भोग इक और है ।
जाके होत संयोग, नीरस लागत इन्द्रपद ।।

किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रैर्महाविस्तरैः
स्वर्गग्रामकुटिनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।।
मुक्तवैकं भवबन्धदुःखरचनाविध्वंसकालानलं 
स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषा वणिग्वृत्तयः।। ८१ ।।

अर्थ:
वेद, स्मृति, पुराण और बड़े बड़े शास्त्रों के पढ़ने तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड करने से स्वर्ग में एक कुटिया की जगह प्राप्त करने के सिवा और क्या लाभ है ? ब्रह्मानन्द रुपी गढ़ी में प्रवेश करने की चेष्टा के सिवा, जो संसार बन्धनों के काटने में प्रलयाग्नि के समान है, और सब काम व्यापारियों के से काम हैं ।
वेद, स्मृति, पुराण और बड़े-बड़े शास्त्रों के पढ़ने-सुनने और उनके अनुसार कर्म करने से मनुष्य को कोई बड़ा लाभ नहीं है । अगर ये कर्मकाण्ड ठीक तरह से पार पड़ जाते हैं, तो इनसे इतना ही होता है, कि स्वर्ग में एक कुटी के लायक स्थान मिल जाता है, पर वह स्थान भी सदा कब्ज़े में नहीं रहता; जिस दिन पुण्यकर्मों का ओर आ जाता है, उस दिन वह स्वर्गीय स्थान फिर छिन जाता है; इससे प्राणी को फिर दुःख होता है । मतलब यह हुआ कि कर्मकाण्डों से जो सुख मिलता है, वह सुख नित्य या सदा-सर्वदा रहनेवाला नहीं । उस सुख के अन्त में फिर दुःख होता है - फिर स्वर्ग छोड़ कर मृत्युलोक में जन्म लेना पड़ता है - वही जन्म-मरण के दुःख झेलने पड़ते हैं । इसलिए मनुष्यों को ब्रह्मज्ञानी होने कि चेष्टा करनी चाहिए; क्योंकि ब्रह्मज्ञान रुपी अग्नि प्रलयाग्नि के समान है । वह अग्नि संसार बन्धनों को जड़ से जला देती है; अतः फिर सदा सुख रहता है - दुःख का नाम भी सुनने को नहीं मिलता । इसलिए ज्ञानियों ने ब्रह्मज्ञान - आत्मज्ञान को सर्वोपरि सुख दिलानेवाला माना है । मतलब यह है कि बिना ब्रह्मज्ञान या रामभक्ति के सब जप-तप आती वृथा हैं । सारे वेद-शास्त्रों और पुराणों का यही निचोड़ है कि ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्मरूप है । जो इस तत्व को जानता है वही सच्चा पण्डित है । जो ब्रह्म या आत्मा को नहीं जानता, वह अज्ञानी और मूर्ख है । उसका पड़ना लिखना वृथा समय नष्ट करना है ।

तुलसीदास जी ने कहा है :-
चतुराई चूल्हे परौ, यम गहि ज्ञानहि खाय ।
तुलसी प्रेम न रामपद, सब जरमूल नशाय ।।

महादेवजी पार्वती से कहते हैं :-
ये नराधम लोकेषु, रामभक्ति पराङ्गमुखाः।
जपं तपं दयाशौचं, शास्त्राणां अवगाहनं।।
सर्व वृथा विना येन, श्रुणुत्वं पार्वति प्रिये ! ।।

हे प्रिये ! जो नराधम इस लोक में राम की भक्ति से विमुख हैं, उनके जप, तप, दया, शौच, शास्त्रों का पठन-पाठन - ये सब वृथा हैं । असल तत्व भगवान् की निष्काम भक्ति या ब्रह्म में लीन होना है ।

छप्पय

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श्रुति अरु स्मृति, पुरान पढ़े बिस्तार सहित जिन ।
साधे सब शुभकर्म, स्वर्ग को बात लह्यौ तिन ।।
करत तहाँ हूँ चाल, काल को ख्याल भयंकर ।
ब्रह्मा और सुरेश, सबन को जन्म मरण डर ।।
ये वणिकवृत्ति देखी सकल, अन्त नहीं कछु काम की ।
अद्वैत ब्रह्म को ज्ञान, यह एक ठौर आराम की ।।



ब्रह्माण्डमण्डलीमात्रं किं लोभाय मनस्विनः ।
शफरीस्फुरितेनाब्धेः  क्षुब्धता जातु जायते ।। ८३ ।।

अर्थ:
जो विचारवान है, जो ब्रह्मज्ञानी है, उसे संसार लुभा नहीं सकता । मछली के उछालने से समुद्र उड़ नहीं उमड़ता ।

जिस तरह सफरी मछली के उछाल-कूद मचाने से समुद्र अपनी गंभीरता को नहीं छोड़ता, ज़रा भी नहीं उमगता, जैसा का तैसा बना रहता है; उसी तरह विचारवान ब्रह्मज्ञानी संसारी-पदार्थों पर लट्टू नहीं होता वह समुद्र की तरह गंभीर ही बना रहता है; अपनी गंभीरता नहीं छोड़ता । समुद्र जिस तरह मछली की उछल-कूद को कुछ नहीं समझता उसी तरह वह त्रिलोकी की सुख-संपत्ति को तुच्छ समझता है । मतलब यह है कि संसारी विषय-भोग उन्ही को लुभाते हैं, जो विचारवान नहीं हैं, जिनमें विचार शक्ति नहीं है, जिन्हे ब्रह्मज्ञान का आनन्द नहीं मालूम है ।

उस्ताद ज़ौक़ कहते हैं -
दुनिया है वह सय्यद कि सब दाम में इसके।
आ जाते हैं लेकिन कोई दाना नहीं आता ।।

दुनिया एक ऐसा जाल है, जिसमें प्रायः सभी फंसे हुए हैं । कोई दाना अर्थात विचारशील पुरुष ही इस जाल से बचा हुआ है ।
संसार अन्तः सार-शून्य है, इसमें कुछ नहीं है । यह ठीक आंवले के समान है, जो ऊपर से खूब सुन्दर और चिकना-चुपड़ा दीखता है; मगर भीतर कुछ नहीं । किसी ने संसार को स्वप्नवत और किसी ने इसे कोरा ख्याल ही कहा है । 

महाकवि ग़ालिब कहते हैं -
हस्ती के मत फरेब में आ जाइयो असद ।
आलम तमाम हलक़ ये दाम ख़्याल है ।।

ग़ालिब सृष्टि के चक्कर में मत आ जाना । यह सब प्रपंच तुम्हारे ख़्याल के सिवा और कोई चीज़ नहीं है ।
इसके जाल में समझदार नहीं फंसते किन्तु नासमझ लोग, जाल के किनारों पर लगी सीपियों की चमक-दमक देखकर जाल में आ फंसने वाली मछलियों की तरह इसके माया-मोह में फंसकर अनेक प्रकार के कष्ट उठाते हैं; किन्तु ज्ञानी इसकी अनित्यता, इसकी असारता को देखकर इससे किनारा कर लेते हैं ।

दोहा
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ज्यों सफरी को फिरत लख, सागर करत न क्षोभ।
अण्डा से ब्रह्माण्ड को, त्यों सन्तन को लोभ ।।


यदासीदज्ञानं स्मरितिमिरसंस्कारजनितं
तदा दृष्टं नारिमयभिदमशेषं जगदपि ।।
इदानीमस्माकं पटुतर विवेकाञ्जनजुषां
समीभूता दृष्टीस्त्रिभुवनमपि ब्रह्म तनुते ।। ८४ ।।

अर्थ:
जब तक हमें कामदेव से पैदा हुआ अज्ञान-अन्धकार था, तब तक हमें सारा जगत स्त्रीरूप ही दीखता था । अब हमने विवेकरूपी अञ्जन आँज लिया है, इससे हमारी दृष्टी समान हो गयी है । अब हमें तीनो भुवन ब्रह्मरूप दिखाई देते हैं ।

जब हम काम-मद से अन्धे हो रहे थे, जब हमें अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं था, तब हमें स्त्री ही स्त्री दिखाई देती थी, बिना स्त्री हमें क्षणभर भी कल नहीं थी; किन्तु अब हममें विवेक-बुद्धि आ गयी है, अब हम अच्छे-बुरे को समझने लगे हैं, इसलिए अब हमें सारा संसार एक सा मालूम होता है । अब हमें कहीं स्त्री नहीं दीखती, सभी तो एक से दीखते हैं । जहाँ नज़र दौड़ाते हैं, वहीँ ब्रह्म ही ब्रह्म नज़र आता है । मतलब यह कि न कोई स्त्री है न कोई पुरुष, सभी तो एकही हैं; केवल छोले का भेद है । आत्मा न स्त्री है न पुरुष; वह सबमें समान है । मगर अज्ञानियों को यह बात नहीं दीखती । उन्हें और का और दीखता है ।
श्वेताश्वतरोपनिषद में लिखा है -
नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः ।
यद्यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स युज्यते ।।

यह आत्मा न स्त्री है न पुरुष और न नपुंसक । यह जिस शरीर को धारण करता है, उसी-उसी के साथ जुड़ जाता है ।
जब मनुष्य को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं, जो मैं हूँ वही स्त्री है - स्त्री ने और तरह का कपडा पहन रखा है और मैंने और तरह का - तब उसका मन स्त्री पर नहीं भूलता । अपने ही स्वरुप को और समझकर उससे मैथुन करने की इच्छा नहीं होती । ज्ञानी को संसार में शत्रु, मित्र, स्त्री-पुत्र, स्वामी-सेवक नहीं दीखते । वह स्त्री-पुत्र और शत्रु-मित्र सबको समान समझता है; किसी से राग और किसी से द्वेष नहीं रखता । उसे कुत्ते में, आदमी में तथा प्राणी मात्र में ही एक विष्णु दीखता है । यह अवस्था परमपद की अवस्था है । 
स्वामी शंकराचार्य जी कहते हैं -
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ 
मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ ।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वम् 
वाञ्छस्यचिराद् यदि विष्णुत्वम् ।।

शत्रु, मित्र और पुत्र-बांधवों में, विरोध या मेल के लिए चेष्टा न कर । यदि शीघ्र ही मोक्ष पद चाहता है तो शत्रु-मित्र और पुत्र-कलत्र प्रभृति को एक नज़र से देख । सबको अपना समझ, किसी को गैर न समझ; समान चित्त हो जाय । जैसा ही पुरुष वैसी ही स्त्री, जैसा बेटा वैसा दुश्मन और जैसा धन वैसी मिटटी ।

कहानी - एक सच्चा महात्मा
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एक साधु सदा ज्ञानोन्मत्त अवस्था में रहता था । वह कभी किसी से फालतू बातचीत नहीं करता था । एक रोज़ एक गाँव में भिक्षा मांगने गया । एक घर से उसे जो रोटी मिली, वह उसे आप खाने लगा और साथ में कुत्ते को भी खिलने लगा । यह देख वहां अनेक लोग इकट्ठे हो गए और उनमें से कोई-कोई उसे पगला कह कर उसकी हंसी करने लगे । यह देख महात्मा ने उनसे कहा - "तुम क्यों हँसते हो?" 

विष्णुः परिस्थितो विष्णुः 
विष्णुः खादति विष्णवे ।
कथं हससि रे विष्णो ?
सर्वं विष्णुमयं जगत् ।।

विष्णु के पास विष्णु है । विष्णु, विष्णु को खिलता है । अरे विष्णु, तू क्यों हँसता है ? सारा जगत विष्णुमय है; यानी सारा संसार उस पूर्णतम विष्णु से व्याप्त है । 
सच्चे और पहुंचे हुए साधू-फ़क़ीर सारे संसार में एक परमात्मा को देखते हैं । उन्हें दूसरा कोई नज़र नहीं आता । अज्ञानी लोग, जिनके ज्ञान-चक्षु बन्द हैं, जगत में किसी को अपना और किसी को पराया समझते हैं । 
किसी ने क्या अच्छा उपदेश दिया है ।
एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयताम् ।
पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्व्यापितं दृश्यतां ।
प्राक्कर्म प्रविलोप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरे श्लिष्यतां ।
प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम् ।।

एकान्त-निर्जन स्थान में सुख से बैठना चाहिए । परब्रह्म परमात्मा में मन लगाना चाहिए । पूर्णात्मा पूर्णब्रह्म से साक्षात् करना चाहिए और इस जगत को पूर्णब्रह्म से व्याप्त समझना चाहिए । पूर्वजन्म के कर्मो का लोप करना चाहिए और ज्ञान के प्रभाव से अब के किये कर्मों के फल त्याग देने चाहिए; यानी निष्काम कर्म करने चाहिए; जिससे कर्मबन्धन में बंधकर फिर जन्म न लेना पड़े । इस संसार में प्रारब्ध या पूर्व जन्म के कर्मो को भोगना चाहिए और इसके बाद परमेश्वररूप से इस जगत में ठहरना चाहिए; यानि अपने में और परमात्मा में भेद न समझना चाहिए ।

दोहा
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काम-अन्ध जबही भयौ, तिय देखी सब ठौर ।
अब विवेक-अञ्जन किये, लख्यौ अलख सिरमौर ।।


रम्याश्चन्द्रमरिचयस्तृणवती रम्या वनान्तस्थळी
रम्यः साधुसमागमः शमसुखं काव्येषु रम्याः कथाः ।
कोपोपहितवाष्पबिन्दुतरलं रम्यं प्रियाया मुखं
सर्वंरम्यमनित्यतामुपगते चित्तेनकिञ्चित्पुनः ।। ८५ ।।

अर्थ: 
चन्द्रमा की किरणे, हरी-हरी घास के तख्ते, मित्रों का समागम, शृङ्गार रस की कवितायेँ, क्रोधाश्रुओं से चञ्चल प्यारी का मुख - पहले ये सब हमारे मन को मोहित करते थे; किन्तु जब से संसार की अनित्यता हमारी समझ में आयी, तब से ये सब हमें अच्छे नहीं लगते ।

जब तक मनुष्य को संसार की असारता, उसकी अनित्यता, उसका थोथापन, उसकी पोल नहीं मालूम होती, तभी तक मनुष्य संसार और संसार के झगड़ों में फंसा रहता है और विषय भोगों को अच्छा समझता है; किन्तु संसार की असलियत मालूम होते ही, उसे विषय सुखों से घृणा हो जाती है । उस समय न उसे चन्द्रमा की शीतल चांदनी प्यारी लगती है, न मित्रमण्डली अच्छी मालूम होती है, न शृङ्गार रस की कवितायेँ अच्छी मालूम होती हैं और न उसका चित्त, चंद्रवदनि कामिनियों को ही देखकर मचलता है ।

छप्पय

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चन्द चाँदनी रम्य, रम्य बनभूमि पहुपयुत ।
योंही अति रमणीक, मित्र मिळवो है अद्भुत ।।
बनिता के मृदु बोल, महारमणीक विराजत ।
मानिनमुख रमणीक, दृगन अँसुअन जल साजत ।
ए हे परमरमणीक सब, सब कोउ चित्त में चहत ।
इनको विनाश जब देखिये, तब इनमें कछुहु न रहत ।।


भिक्षाशी जनमध्यसंगरहितः स्वायत्तचेष्टः सदा
दानादानविरक्तमार्गनिरतः कश्चित्तपस्वी स्थितः।।
रथ्याक्षीणविशीर्णजीर्णवसनैः सम्प्राप्तकंथासखि-
र्निमानो निरहंकृतिः शमसुखाभोगैकबद्धस्पृहः।। ८६ ।।

अर्थ:
ऐसा तपस्वी को विरला ही होता है, जो भीख मांगकर खाता है, जो अपने लोगों में रहकर भी उनमें मोह नहीं रखता, जो स्वाधीनतापूर्वक अपना जीवन निर्वाह करता है, जिसने लेने और देने का व्यवहार छोड़ दिया है, जो राह में पड़े हुए चीथड़ों की गुदड़ी ओढ़ता है, जिसे मान का ख्याल नहीं है, जिसमें अभिमान नहीं है और जो ब्रह्मज्ञान के सुख को ही सुख मानता है । 

ज्ञानी के लक्षण सुन्दरदास जी ने इस भांति कहे हैं -
कर्म न विकर्म करे, भाव न अभाव धरे।
शुभ न अशुभ परे, यातें निधरक है।।
वस तीन शून्य जाके, पापहु न पुण्य ताके।
अधिक न न्यून वाके, स्वर्ग न नरक है।।
सुख दुःख सम दोउ, नीचहूँ न उंच कोउ।
ऐसी विधि रहै सोउ, मिल्यो न फरक है।।
एकही न दोय जाने, बंद मोक्ष भ्रम मानै।
सुन्दर कहत, ज्ञानी ज्ञान में गरक है।।

जो भीख मांगकर पेट की अग्नि को शांत कर लेता है, पर किसी की खुशामद नहीं करता, किसी के अधीन नहीं होता, स्वाधीन रहता है; राह में पड़े हुए चीथड़े उठाकर उनकी ही गुदड़ी बनाकर ओढ़ लेता है; मान-अपमान और सुख-दुःख को समान समझता है; न किसी से कुछ लेता है न किसी को कुछ देता है; गृहस्थी में या अपने बन्धु-बान्धवों में रहकर भी उनमें ममता नहीं रखता; शुभाशुभ, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक को कोई चीज़ नहीं समझता; किसी को नीच और किसी को उंच नहीं समझता, सभी में एक आत्मा देखता है; बन्धन और मोक्ष को भी मन का संकल्प या भ्रम समझता है तथा ब्रह्मज्ञान में गर्क रहता है और उसमें ही पूर्ण सुख समझता है - उससे बढ़कर ज्ञानी और कौन है ? ऐसे ज्ञानी के जीवन्मुक्त होने में संशय नहीं । उसे जन्म-मरण का कष्ट नहीं उठाना पड़ता । वह सदा परमानन्द में मग्न रहता है, पर ऐसे पुरुष कोई-कोई ही होते हैं ।

सोरठा
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उञ्छवृत्ति गति मान, समदृष्टि इच्छारहित।
करत तपस्वी ध्यान, कंथा को आसन किये।।


मातर्मेदिनि तात मारुत सखे तेजः सुबन्धो जलं ।
भ्रातर्व्योम निबद्ध एव भवतामेष प्रणामाञ्जलिः ।।
युष्मतसंगवशोपजातसुकृतोद्रेकस्फुरन्निर्म्मल-
ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लिये परे ब्रह्मणि ।। ८७ ।।

अर्थ:
हे माता पृथ्वी ! पिता वायु ! मित्र तेज ! बन्धु जल ! भाई आकाश ! अब मैं आपको अन्तिम विदाई का प्रणाम करता हूँ । आपकी संगती से मैंने पुण्य कर्म किये और पुण्यों के फल स्वरुप मुझे आत्मज्ञान हुआ, जिसने मेरे संसारी मोह का नाश कर दिया । अब मैं परब्रह्म में लीन होता हूँ ।

मनुष्य शरीर पृथ्वी, वायु, तेज, जल और आकाश - पांच तत्वों से बनता है । जिसे आत्मज्ञान हो गया है, जिसने ब्रह्म को पहचान लिया है, वह इन पांच तत्वों से विदा लेता है और प्रणाम करके कहता है, कि मैं आप पाँचों के संग रहने से - यह शरीर धारण करने से - इस योग्य हुआ कि, ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सका; अब मेरा आपका साथ न होगा, अब मैं छोले में न आऊंगा, अब मुझे जन्म न लेना पड़ेगा । मैं आप लोगों का कृतज्ञ हूँ ; क्योंकि आपकी सुसंगति से ही मुझे या फल मिला है । अब मैं आपसे सदा को विदा होता हूँ । अब मैं ब्रह्म के आनन्द में मग्न हूँ । अब मुझे यहाँ आने की, आप लोगों की संगती करने की; यानि शरीर धारण करने की जरुरत नहीं । मतलब यह है कि मनुष्य का चोला ब्रह्मज्ञान के लिए मिलता है; और चोलों में, यह ज्ञान नहीं हो सकता । जो मनुष्य चोले में आकर ब्रह्मज्ञान लाभ करते हैं और उसकी बदौलत परम पद या मोक्ष प्राप्त करते हैं - वे ही धन्य हैं, उन्हीं का मनुष्य-देह पाना सार्थक है ।

छप्पय 
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अरी मेदिनी-मात, तात-मारुत सुन ऐरे।
तेज-सखा जल-भ्रात, व्योम-बन्धु सुन मेरे।।
तुमको करत प्रणाम, हाथ तुम आगे जोरत।
तुम्हारे ही सत्संग, सुकृत कौ सिन्धु झकोरत।।
अज्ञान जनित यह मोहहू, मिट्यो तुम्हारे संगसों।
आनन्द अखण्डानन्द को, छाय रह्यो रसरंग सों।।


यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च  दूरे जरा
यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः ।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महा-
न्प्रोदीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ।। ८८ ।।

अर्थ:
जब तक शरीर ठीक हालत में है, बुढ़ापा दूर है, इन्द्रियों की शक्ति बनी हुई है, आयु के दिन बाकी हैं, तभी तक बुद्धिमान को अपने कल्याण की चेष्टा अच्छी तरह से कर लेनी चाहिए । घर जलने पर कुआँ खोदने से क्या फायदा ।

जब तक आपका शरीर निरोग और तन्दरुस्त रहे, बुढ़ापा न आवे, आपकी इन्द्रियों की शक्ति ठीक बनी रहे, आपका अन्त दूर हो, उम्र बाकी दिखे, तभी तक आप अपनी भलाई की चेष्टा कर लीजिये; यानि ऐसी हालत में ही भगवान् का भजन कर लीजिये । जब आप रोगों से जर्जरित हो जाएंगे, कफ,खांसी और दम घेर लेंगे, आँखों से न दिखेगा, कानो से न सुनाई देगा, गले में घर-घर कफ बोलने लगेगा, मौत अपना पंजा जमा देगी, तब आप क्या करेंगे ? अर्थात कुछ नहीं । उस समय आप कुछ करने की चेष्टा करेंगे भी, तो आपकी दशा उसकी सी होगी, जो घर में आग लगने पर कुआ खोदता है ।
किसी ने कहा है -
प्रथम नार्जिता विद्या, द्वितीय नार्जितं धनं ।
तृतीये नार्जितं पुण्यं, चतुर्थे किं करिष्यति ?।

बचपन में यदि विद्या नहीं सीखी, जवानी में यदि धन सञ्चय नहीं किया, बुढ़ापे में यदि पुण्य नहीं किया; तो चौथेपन में क्या करोगे ?
सबसे अच्छी बात तो बचपन में ही परमात्मा की भक्ति करना है । ध्रुव और प्रह्लाद ने बचपन में ही भक्ति करके परमात्मा के दर्शन किये थे अगर इस उम्र में न हो सके, तो जवानी में, जवानी में न हो सके तो बुढ़ापे में तो चूकना ही न चाहिए । स्त्री-पुत्र, धन-दौलत का मोह छोड़ परमात्मा में मन लगाओ; आजकल पर मत टालो; क्योंकि मौत हर समय घात में है, न जाने कब तुम्हे ले जाय । जब वह आ जाएगी तो तुमसे कुछ करते-धरते न बनेगा, तुम घबरा जाओगे, मुंह से परमात्मा का नाम न निकलेगा और हाथों से दान या पराया उपकार न कर सकोगे । उस समय तुम्हारा परलोक बनाने की चेष्टा करना, आग लग जाने पर कुंआ खोदने वाले के समान मूर्खतापूर्ण काम होगा । अतः जो करना है, मरने के समय से पहले ही करो । 

किसी ने परलोक-साधन के लिए क्या अच्छी सलाह दी है -
वेदो नित्यंधीयतां तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां
तेनेशस्यपिधीयतामपचितिः  कामे मतिसत्यज्यतां।
पापौघः परिधूयतां भवसुखे दोषोऽनुसन्धीयताम्
आत्मेच्छा व्यवसीयतां निजगृहात् तूर्णं विनिर्गम्यताम् ।।

नित्य वेद पढ़ो और वेदोक्त कर्मो का अनुष्ठान करो । वेद विधि से परमेश्वर की पूजा करो । विषय भोगों को बुद्धि से हटाओ ; यानि विषयों को त्यागो । पाप समूह का निवारण करो । संसारी सुख इत्र-फुलेल चन्दनादि के लगाने, स्त्री-भोगने और नाच-गाना देखने सुनने प्रभृति परिणाम विचारो ; यानि इनके दोषों की भावना करो । परमेश्वर या आत्मा में अनुराग करो और गृहस्थी के अनेक दोषों को समझ कर, शीघ्र ही घर को त्यागकर वन को चले जाओ ।

उस्ताद ज़ौक़ कहते हैं -
बेनिशाँ पहले फ़नासे हो, जो हो तुझको बका ।
वर्ना है किसका निशाँ, ज़ौके फनाने रक्खा ।।

मरने से पहले सांसारिक बन्धनों से अपने चित्त को हटा ले - अमर होने की यही एक तरकीब है; वर्ना मौत किसी का निशान नहीं छोड़ती ।

छप्पय
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जौ लौं देह निरोग, और जौ लौं जरा तन ।
अरु जौ लौं बलवान आयु, अरु इन्द्रिन के गन ।
तौं लौं निज कल्याण करन को, यत्न विचारत ।
वह पण्डित वह धीर-वीर, जो प्रथम सम्हारत ।
फिर होत कहा जर्जर भये, जप तप संयम नहिं बनत ।
भव काम उठ्यौ निज भवन जब, तब क्योंकर कूपहि खनत ।।




नाभ्यस्ता भुविवादिवृन्ददमनी विद्या विनीतोचिता
खड्गाग्रैः करिकुम्भपीठदलनैर्नाकं न नीतं यशः ।
कान्ताकोमलपल्लवाधररसः पीतो न चन्द्रोदये
तारुण्यं गतमेव निष्फलमहो शून्यालये दीपवत् ।। ८९ ।।

अर्थ:
हमनें इस जगत में नम्रों को संतुष्ट करनेवाली और वादियों की मान भञ्जन करनेवाली विद्या नहीं पढ़ी, तलवार की धार से हाथी के मस्तक का पिछला भाग काटकर अपना यश स्वर्ग तक नहीं पहुँचाया; चांदनी रात में सुन्दरी के कोमल अधर-पल्लव (निचले होठ) का रस भी नहीं पिया । हाय ! हमारी जवानी सूने घर में जलनेवाले और आपही बुझ जाने वाले दीपक की तरह योंही गयी !

दोहा
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विद्या पढ़ी न रिपु दले, रह्यौ न नारि समीप।
यौवन यह योंही गयो, ज्यों सूने गृह दीप।।


ज्ञानं सतां मानमदादिनाशनं
केषांचिदेतन्मदमानकारणं ।।
स्थानं विविक्तं यामिनां विमुक्तये 
कामातुराणामतिकामकारणाम् ।। ९० ।।

अर्थ:
अच्छे मनुष्यों में तो ज्ञान उनके मान-मद आदि का नाश करता है; किन्तु दुष्टों में वही ज्ञान मान-मद प्रभृति औगुणों की वृद्धि करता है । एकांत स्थान योगियों के लिए तो मुक्ति दिलानेवाला होता है; किन्तु वही कामियों की कामज्वाला बढ़ानेवाला होता है ।

जिस तरह स्वाति-बूँद सीप में पड़ने से मोती और केले में कपूर हो जाती है, किन्तु सर्पमुख में पड़ने से विष का रूपधारण करती है; उसी तरह एक चीज़ पुरुष-भेद से अलग अलग गुण दिखाती है । ज्ञान से अच्छे लोगों का अभिमान नाश हो जाता है, वे सब किसी को अपने बराबर समझते हैं, सबके साथ सुहानुभूति रखते हैं, किसी का दिल नहीं दुखाते; किन्तु उसी ज्ञान से दुष्ट लोगों की दुष्टता और भी बढ़ जाती है, वे अपने सामने जगत को तुच्छ समझते हैं; विद्याभिमान के मारे किसी की ओर नज़र उठा कर भी नहीं देखते, अपने सिवा सबको पशु समझते हैं । एक ही ज्ञान दो स्थानों में, स्थान भेद से अपना अलग-अलग प्रभाव दिखाता है । जैसे एकान्त स्थान योगियों के चित्त को ब्रह्मविचार में लीन करता है और इससे उनको परमपद - मुक्ति - मिल जाती है ; किन्तु वही एकान्त स्थान कामियों के दिलों में मस्ती पैदा करता है ।

दोहा

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ज्ञान घटावै मान-मद, ज्ञानहि देय बढ़ाय।
रहसि मुक्ति पावे यती, कामी रत लपटाय।।


जीर्णा एव मनोरथाः स्वहृदये यातं च जरां यौवनं
हन्ताङ्गेषु गुणाश्च वन्ध्यफलतां याता गुणज्ञैर्विना ।
किं युक्तं सहसाऽभ्युपैति बलवान्कालः कृतान्तोऽक्षमी
ह्याज्ञातंस्मरशासनाङ्घ्रियुगलं मुक्त्वाऽस्तिनान्यागतिः ।। ९१ ।।

अर्थ:

हमारी इच्छाएं हमारे ह्रदय में ही जीर्ण हो गईं, जवानी भी चली गयी, हमारे अच्छे-अच्छे गुण भी कदरदानों के न होने से बेकार हो गए, सर्वशक्तिमान, सर्वनाशक काल (मृत्यु) शीघ्र-शीघ्र हमारे पास आ रहा है; इसलिए अब हमारी समझ में कामारि शिव के चरणों के सिवा और जगह हमारी रक्षा नहीं है ।

मनुष्य दुखित होकर कहता है - हमारे मन की मन में ही रह गयी, हमारे अरमान न निकले और जवानी कूच कर गयी; अब उसके आने की भी उम्मीद नहीं, क्योंकि जवानी किसी की भी लौटकर आती सुनी नहीं ।
मनुष्य की तृष्णा कभी नहीं बुझती, एक पर एक इच्छा उठा ही करती है । इच्छाएं पूरी नहीं होती और मौत आ जाती है । महाकवि ग़ालिब भी पछता कर कहते हैं -
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी, कि हर ख्वाहिश पै दम निकले।
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले।।

महाकवि दाग भी घबरा कर कहते हैं -
भरे हुए हैं हज़ारों अरमान 
फिर उस पै है हसरतों की हसरत।
कहाँ निकल जाऊं या इलाही
मैं दिल की वसअत से तंग होकर।।

मेरे मन में हज़ारों वासनाएं हैं, पर वासनाओं के पूर्ण न होने का दुःख भी कुछ कम नहीं है । हे ईश्वर ! मैं अपने मन की विशालता से तंग हो गया । अब मेरा जी यही चाहता है, कि इस विराट दिल से तंग होकर कहीं चला जाऊं ।
इसी तरह महात्मा सुन्दरदास जी भी कहते हैं -
तीनहिं लोक आहार कियो सब।
सात समुद्र पियो पुनि पानी।।
और जहाँ तहाँ ताकत डोलत।
काढत आँख दरवात प्रानी।।
दांत दिखावत जीभ हिलावत।
या हित मैं यह डाकिनि जानी।।
सुन्दर खात भये कितने दिन।
हे तृष्णा ! अजहुँ न अघानी।।

इस तृष्णा से सभी समझदार अन्त में दुखी ही हुए हैं और उन्होंने पछता पछता कर ऐसी ही बातें कही हैं । इस तृष्णा के फेर में मनुष्य का बुढ़ापा आ जाता है, पर तृष्णा बूढी नहीं होती । बुढ़ापे में उसका ज़ोर और भी बढ़ जाता है । यह तीनो लोको को खाकर और सातों सागरों को पीकर भी नहीं धापति । इसलिए मनुष्य को आशा-तृष्णा त्यागकर, परमात्मा में लौ लगनी चाहिए । जो नहीं चेतते, उनका परिणाम बुरा होता है । जब एकदम से बुढ़ापा छा जाता है, शरीर अशक्त हो जाता है, तब कुछ भी नहीं होता । उम्र ख़त्म होने या मृत्यु आ जाने पर मनुष्य पछताता हुआ सबको छोड़ चला जाता है । कहा है -
ये मम देश विलायत हैं गज ।
ये मम मन्दिर ये मम थाती ।।
ये मम मात पिता पुनि बान्धव ।
ये मम पूत सु ये मम नाती ।।
ये मम कामिनि केलि करै नित ।
ये मम सेवक हैं दिन राती ।।
सुन्दर ऐसेही छाँड़ि गयो सब ।
तेल जरयो सु बुझी जब बाती ।।

यह मेरा देश है, ये मेरे हाथी-घोड़े महल-मकान हैं, ये मेरे माँ-बाप और बन्धु-बान्धव तथा नाती-पोते हैं, यह मेरी स्त्री और यह मेरे सेवक हैं; ऐसे करता करता ही मनुष्य सबको छोड़कर चला जाता है । जिस तरह तेल के जल जाने पर दीपक बुझ जाता है; उसी तरह उम्र पूरी होने पर मनुष्य मर जाता है । अतः जवानी में ही स्त्री-पुत्र प्रभृति सबका मोह छोड़, एकान्त में जा, परमात्मा का भजन करना चाहिए; क्योंकि बुढ़ापे में कुछ नहीं हो सकता ।
शेख सादी ने कहा है और ठीक कहा है -
जवान गोशानशीं, शेर मर्दे राहे खुदास्त ।
कि पीर खुद न तवानद, ज़े गोशये बरखास्त ।।

जवानी में जिन्होंने एकान्त में ईश्वर भजन किया है, सच्चे भक्त वही हैं, बूढा आदमी अगर एकान्तवास पर गर्व करे तो झूठा है, क्योंकि वह तो जहाँ पड़ा है, वह से सरक ही नहीं सकता ।
जो लोग साड़ी उम्र संसारी जंजालों में बिता देते हैं और परमात्मा का भजन नहीं करते, उनका नक्शा स्वामी सुन्दरदास जी ने खूब ही खींचा है -
ग्रीव त्वचा कटि है लटकी ।
कचहुँ पलटे अजहुँ रतीबामी ।।
दन्त गए मुख के उखरे ।
नखरे न गए सु खरो खर कामी ।।
कम्पत देह सनेह सु दम्पति ।
सम्पति जपत है निशि जामी ।।
सुन्दर अन्तहु भौन तज्यो ।
न भज्यो भगवन्त सु लौनहरामी ।।

मनुष्य की गर्दन हिलने लगती है, खाल लटकने लगती है, कमर झुक जाती है, बाल सफ़ेद हो जाते हैं, तो भी स्त्री के साथ भोग करता है । मुंह के दांत उखड जाते हैं, फिर भी कामी गधे के नखरे नहीं जाते, देह कांपती है; पर स्त्री से प्रीति रखता है और रात-दिन धन का जाप करता है । अन्त में घर छोड़ता है, पर नमकहराम मालिक का भजन नहीं करता ।

छप्पय

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मन के मनही मांहि, मनोरथ वृद्ध भये सब ।
निज अंगन में नाश भयो, वह यौवनहु अब ।
विद्या है गयी बाँझ, बूझवारे नहीं दीसत ।
दौरयो आवत काल, कोपकर दशनन पीसत ।
कबहुँ नहिं पूजे प्रीति सों, चक्रपाणि प्रभु के चरण ।
भवबन्धन काटे कौन अब, अजहुँ गहरे हरि शरण ।।


तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभि 
क्षुधार्तः सञ्शालीन्कवलयति शाकादिवाळितां ।
प्रदीप्ते कामाग्नौ सुदृढतरमाश्लिष्यति वधूं
प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ।। ९२ ।।

अर्थ:
जब मनुष्य का कण्ठ प्यास से सूखने लगता है, तब वह शीतल जल पीता है; जब उसे भूख लगती है, तब वह साग और कढ़ी प्रभृति के संग चावल खाता है; जब उसकी कामाग्नि तेज़ होती है तब वह स्त्री को ज़ोर से गले लगाता है; विचार कर देखने से मालूम होता है, कि ये सब बिमारियों की एक-एक दवा है; परन्तु लोग इन्हे भूल से सुख समान मानते हैं ।

प्यास रोग की दवा शीतल जल है; यानि शीतल जल से तृष्णा नाश होती है । क्षुधारोग की दवा रोटी-भात और साग-दाल प्रभृति हैं; यानी भात-दाल प्रभृति से भूख रोग नाश होता है । कामाग्नि भी एक रोग है, उसके शान्त करने का उपाय स्त्री को छाती से लगाना है, यानी स्त्री का आलिङ्गन करने से या चिपटाने से काम की आग ठण्डी हो जाती है । ( दाह ज्वर में षोडशी कामिनी के शरीर में चन्दन लगाकर चिपटने से बहुत लाभ होता है ) इन बातों पर विचार करने से साफ़ मालूम होता है, कि शीतल जल-पान, भिन्न-भिन्न प्रकार के भोजन और स्त्रियों का आलिङ्गन प्रभृति तृषा, क्षुधा और कामाग्नि प्रभृति रोगों की औषधियां हैं । इनको सुख समझना भूल नहीं तो क्या है ?

छप्पय
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प्यास लगे जब पान करत, शीतल सुमिष्ट जल।
भूख लगे तब खात, भात-घृत दूध और फल।
बढ़त काम की आगि, तबहिं नववधू संग रति।
ऐसे करत विलास, होत विपरीत दैव गति।
सब जीव जगत के दिन भरत, खात पियत भोगहु करत।
ये महारोग तीनो प्रबल, बिना मिटाये नहिं मिटत।।


स्नात्वा गाङ्गैः पयोभिः शुचिकुसुमफलैरर्चयित्वा विभो 
त्वां ध्येये ध्यानं नियोज्य क्षितिधरकुहरग्रावपर्येकमूले ।
आत्मारामः फलाशी गुरुवचनरतस्त्वत्प्रसादात्स्मरारे
दुःखं मोक्ष्ये कदाहं तब चरणरतो ध्यानमार्गैकनिष्ठ ।। ९३ ।।

अर्थ:
हे शिव ! हे कामारि ! गंगा स्नान करके तुझ पर पवित्र फल-फूल चढ़ाता हुआ, तेरी पूजा करता हुआ, पर्वत की गुफा में शिला पर बैठा हुआ, अपने ही आत्मा में मग्न होता हुआ, वन-फल खाता हुआ, गुरु की आज्ञानुसार तेरे ही चरणों का ध्यान करता हुआ कब मैं इन संसारी दुखों से छुटकारा पाउँगा ?

दोहा
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न रसेवा तजि, ब्रह्म भजि, गुरुचरणन चित लाय।
कब गंगातट ध्यान धर, पूजोंगो शिव पाय?।


शय्या शैलशिला गृहं गिरिगुहा वस्त्रं तरुणं त्वचः
सारंगाः सुहृदो ननु क्षितिरुहां वृत्तिः फलैः कमलैः ।।
येषां निर्झरम्बुपानमुचितं रत्येव विद्याङ्गना
मन्ये ते परमेश्वराः शिरसि यैर्बद्धो न सेवांजलिः।। ९३ ।।

अर्थ:
मैं उनको परमेश्वर समझता हूँ, जो किसी के सामने मस्तक नहीं नवाते, जो पर्वत की शिला को ही अपनी शय्या समझते हैं, जो गुफा को ही अपना घर मानते हैं, जो वृक्षों की छालों को ही अपने वस्त्र और जंगली हिरणो को ही अपने मित्र समझते हैं, वृक्षों के कोमल फलों से ही उदार की अग्नि को शान्त करते हैं, जो कुदरती झरनो का जल पीते हैं और जो विद्या को ही अपनी प्राण प्यारी समझते हैं ।

जो किसी चीज़ की चाह नहीं रखते, वे किसी की परवा नहीं करते, वे किसी के सामने मस्तक नहीं नवाते; जिनकी वासनाओं का अन्त नहीं होता, वे ही जने-जने के सामने सर झुकाते हैं । जो संसार के दास नहीं, वे सचमुच ही देवता हैं ।
उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है - 
जिस इन्सां को सगे दुनिया न पाया। 
फरिश्ता उसका हमपाया न पाया ।।

जो मनुष्य संसार का दास नहीं - संसार का कुत्ता नहीं - वह देवताओं से कहीं ऊंचा है । देवता उसकी बराबरी नहीं कर सकते । जिसमें सांसारिक वासनाओं का लेश न हो, उस मनुष्य और देवताओं में कोई भेद नहीं ।
सच्चे महात्मा वन और पर्वतों को छोड़कर दुनिया में कभी नहीं आते; वे मांगकर नहीं खाते; उन्हें वन में ही जो कुछ मिल जाता है, वही खा लेते हैं ।
महाकवि ग़ालिब कहते हैं -
वे तलब दें, तो मज़ा उसमें सिवा मिलता है ।
वह गदा, जिसका न हो खुए सवाल अच्छा है ।।

बिना मांगे मिल जाने में बड़ा आनन्द है । फ़क़ीर वही अच्छा जिसमें मांगने की आदत न हो । 

और भी कहा है -
दस्ते सवाल, सैकड़ों ऐबों का ऐब है ।
जिस दस्त में ये ऐब नहीं, वह दस्ते गैब है ।।

कबीर साहब ने भी कहा है -
अनमाँग्या उत्तम कह्यो, माध्यम माँगि जो लेय ।
कहे कबीर निकृष्ट सो, पर घर धरना देय ।।
उत्तम भीख जो अजगरी, सुनि लीजौ निज बैन ।
कहै कबीर ताके गहे, महा परम सुख चैन ।।

महापुरुष भगवान् के भरोसे रहते हैं, इसलिए उन्हें उनकी जरुरत की चीज़ उनके स्थान पर ही मिल जाती है । वे संसार रुपी काजल की कोठरी  में आकर कालिख लगाना पसन्द नहीं करते । संसारी लोगों के साथ मिलने जुलने में भलाई नहीं । संसार से दूर रहना ही भला । क्योंकि मनुष्य जैसे आदमियों को देखता और जैसों की सङ्गति करता है, वैसा ही हो जाता है । रागियों की सङ्गति से वैरागी भी रागी या विषय-भोगी हो जाता है  । जल और वृक्षों के पत्ते खाने वाले ऋषि स्त्रियों के देखने मात्र से अपने तप से हीन हो गए । इसीलिए शास्त्रों में लिखा है कि सन्यासी संसारियों से दूर रहे । वास्तविक महापुरुष जो सच्चे ब्रह्मज्ञानी और रासायनिक हैं; किसी के भी द्वार पर नहीं जाते । जिसे कुछ कामना होती है, वही किसी के द्वार पर जाता है । कामनाहीन पुरुष कभी किसी के पास नहीं जाता । सच्चे महात्मा संसारियों से अपनी जान छुपाते हैं । 

दो महात्मा जो राजा से मिलना नहीं चाहते थे
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एक नगर के बाहर वन में दो बड़े ही त्यागी महात्मा रहते थे । राजा ने चाहा कि मैं उनसे मिलूं । राजा अपने परिवार सहित उनसे मिलने गया । महात्माओं ने सोचा - यह तो बुरी बला लगी । इसे सदा को टालना चाहिए । आज यह आया है, कल नगर भर आवेगा । फिर हम तो भजन ही न कर सकेंगे । जब राजा पास पहुंचा, तो वे आपस में लड़ने लगे । एक बोला - "तूने मेरी रोटी खाली" । दुसरे ने कहा - "तूने भी तो कल मेरी खा ली थी"। यह देखकर राजा को घृणा हो गयी और वह लौट आया । इस तरह महात्माओं के एकान्तवास में विघ्न नहीं पड़ा ।

संसारियों की सङ्गति बुरी
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एक महात्मा कहीं से आकर काशी में रह गए । दस पांच वर्ष बाद अनेक लोग उन्हें जान गए और उन्हें अपने-अपने घर भोजन के लिए ले जाने लगे । महात्मा ने देखा कि, घरों में जाने से विक्षेप होता है, इसलिए उन्होंने अपनी लंगोटी ही उतारकर फेंक दी, कि नंगे रहने से लोग घरों पर न ले जाएंगे । पर फल उल्टा हुआ, उनकी महिमा और भी बढ़ गयी । अब तो बड़े-बड़े राजा, रईस और जमींदार उनके दर्शन को आने लगे । उनका सारा समय अमीरों से मिलने में ही बीतने लगा । इतने में एक और महात्मा आये और उनसे एकान्त में पुछा - "क्या हाल है ?" महात्मा ने कहा - "बवासीर से मरते हैं ।" आगन्तुक महात्मा ने कहा - "लोग तो आपको सिद्ध कहते हैं ?" महात्मा ने कहा - "कहा करें, लोग मूर्ख हैं । हमारे चित्त में तो वासनाएं भरी हैं, न जाने हमें किस योनि में जन्म लेना होगा ? हमारा तो सारा वैराग्य इन धनियों की सङ्गति में ही नष्ट हो गया । सच है, निवृत्ति मार्ग वालों को प्रवृत्ति मार्गवालों की सङ्गति करना अच्छा नहीं ।

छप्पय
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बसैं गुहागिरि, शुचित शिला शय्या मनमानी।
वृक्षवकल के वसन, स्वच्छ सुरसरिको पानी।
बाणमृग जिनके मित्र, वृक्षफल भोजन जिसके।
विद्या जिनकी नारि, नहीं सुरपति सभ तिनके।
ते लगत ईश सम मनुज मोहि, तनशुचि ऐसे जग भये।
जे पर सेवा के काज को, हाथ नहीं जोरत नए ।।



प्रिय सखि विपद्दण्डव्रतप्रताप परम्परा-
तिपरिचपले चिन्ताचक्रे निधाय विधिः खलः ।।
मृदमिव बलात्पिण्डीकृत्य प्रगल्भकुलालवद्-
भ्रमयति मनो नो जानीमः किमत्र विधास्यति ।। ९८ ।।

अर्थ:
हे प्यारी सखी बुद्धि ! कुम्हार जिस तरह गीली मिटटी के लौंदे को चाक पर चढ़कर डंडे से चाक को बारम्बार घुमाता है और उससे इच्छानुसार बर्तन तैयार करता है; उसी तरह संसार को गढ़नेवाला ब्रह्मा हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर चढ़ा कर, विपत्तियों के डंडे से चाक को लगातार घुमाता हुआ, हमारा क्या करना चाहता है, यह हमारी समझ में नहीं आता ?

मनुष्य के पीछे भगवान् ने चिन्ता बुरी लगा दी है । बात यह है, कि मनुष्य के पूर्व जन्म के कर्मो के कारण या इस जन्म की भूलों के कारण, उसे विपत्तियां भोगनी ही पड़ती है । विपत्तियों से पार होने के लिए, मनुष्य रात-दिन चिन्तित रहता है । चिन्ता या फ़िक्र से मनुष्य का रूप-रंग  सब नष्ट होकर शीघ्र ही बुढ़ापा आ जाता है । आजकल चालीस बरस की उम्र में ही लोग बूढ़े हो जाते हैं, इसका कारण चिन्ता ही है । अगर चिन्ता न होती, तो मनुष्य को कुछ दुःख न होता । जहाँ तक हो, मनुष्य को चिन्ता को अपने पास न आने देना चाहिए; क्योंकि चिन्ता, चिता से भी बुरी है । चिता मरे हुए को भस्म करती है, पर चिन्ता जीते हुए को ही जलाकर ख़ाक कर देती है; अतः चिन्ता से दूर रहो । स्त्री, पुत्र और धन की चिन्ता में अपनी अमूल्य दुर्लभ काया को नाश न करो; क्योंकि ये स्त्री-पुत्र प्रभृति तुम्हारे कोई नहीं । अगर चिन्ता और विचार ही करना है, तो इस बात का करो कि तुम कौन हो और कहाँ से आये हो ? 

स्वामी शंकराचार्य ने मोहमुद्गर में कहा है -
का तव कान्ताः कस्ते पुत्रः संसारोऽयमतीव विचित्रः ।
कस्य त्वम् वा कुत आयातः तत्त्वं चिन्तय तदिदं भ्रातः ।।

कौन तेरी स्त्री है ? कौन तेरा पुत्र है ? यह संसार अतीव विचित्र है । तू कौन है ? कहाँ से आया है ? हे भाई ! इस तत्व की चिन्ता कर; अर्थात न कोई तेरी स्त्री है और न कोई तेरा पुत्र है, वृथा चिन्ता क्यों करता है ?

तू कौन है ? कहाँ से आया है ? क्यों आया है ? तूने अपना कर्तव्य पालन किया है या नहीं ? तेरा अन्तिम परिणाम क्या है ? इत्यादि विचारों द्वारा अपने स्वरुप को पहचान जाने अथवा ईश्वर की शरण में चले जाने से ही चिन्ता से पीछा छूटेगा और शान्ति मिलेगी । निश्चय ही चिन्ता और विपत्तियों से बचने के लिए भगवान् का आश्रय लेना सर्वोपरि उपाय है । विपत्ति रुपी समुद्र में डूबते हुए के लिए भगवान् का नाम ही सच्चा सहारा है ।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है -
तुलसी साथी विपति के, विद्या विनय विवेक ।
साहस सुकृत सत्यव्रत, राम भरोसो एक ।।
तुलसी असमय के सखा, साहस धर्म विचार ।
सुकृत शील स्वाभाव ऋजु, रामशरण आधार ।।
खेलत बालक व्याल संग, पावक मेलत हाथ ।
तुलसी शिशु पितु मातु इव, राखत सिय रघुनाथ ।।
तुलसी केवल रामपद, लागे सरल सनेह ।
तौ घर घट बन बाट मँह, कतहुँ रहै किन देह ।।

सारांश यह कि जो हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर चढ़ा कर विपत्तियों के डंडे से घुमाता है, यदि हम उसकी ही शरण में चले जाएँ, उसी से प्रेम करें, तो वह हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर न रक्खे; अर्थात हमें चिंताग्नि में न जलना पड़े; सुख-शान्ति सदा हमारे सामने हाथ बांधे खड़े रहे । यह बाला उन्हीं को खाती है, जो भगवान् से विमुख रहते हैं । इसलिए यदि इस चिन्ता-डायन से बचना चाहो तो परमात्मा को भजो ।

दोहा

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मन को चिंताचक्र धर, खल विधि रह्यौ घुमाय ।
रचि है कहा कुलालसम, जान्यौ कछु न जाय ?।।




महेश्वरे वा जगतामधीश्वरे जनार्दने वा जगदन्तरात्मनि।
तयोर्न भेदप्रतिपत्तिरस्ति मे तथापि भक्तिस्तरुणेन्दुशेखरे।। ९९ ।।

अर्थ:
यद्यपि मुझे विश्वेश्वर शिव और सर्वात्मन विष्णु में कोई भेद नहीं दीखता; तथापि मेरा मन उन्ही की ओर झुकता है, जिनके मस्तक में तरुण चन्द्रमा विराजमान है; अर्थात मैं शिव को ही चाहता हूँ ।

विष्णु और शिव में कोई भेद नहीं, एक ही परमात्मा के अलग अलग नाम हैं, वही कृष्ण हैं, वही रघुनाथ हैं, वही राम हैं और वही शिव हैं । पर फिर भी; जिस नाम का आश्रय ले लिया उसी का भरोसा करना ठीक है । मन भटकाना अच्छा नहीं ।
एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी वृन्दावन गए । वहां उन्हें भगवान् कृष्ण के दर्शन हुए । भगवान् की बांकी झांकी देखकर गोस्वामी जी मुग्ध हो गए, पर उन्होंने उनको सिर न नवाया; क्योंकि उनके इष्टदेव रामचन्द्र जी थे । उन्होंने उस समय कहा -
कहा कहूँ छवि आज की, भले बने हो नाथ ।
तुलसी मस्तक जब नवै, धनुषबाण लेयो हाथ ।।

आपकी छवि आज भी बहुत मनोमुग्धकर है, पर मैं तो आपको तभी प्रणाम करूँगा, जब आप धनुष-बाण हाथ में लेकर रामचन्द्र बनोगे । भगवान् को तत्काल रामरूप धर धनुष-बाण हाथ में लेना पड़ा । यह काम भगवान् को भक्त की दृढ़ता देखकर करना पड़ा ।
प्रीति पपहिये की सच्ची और आदर्श है । वह चाहे प्यासा मर जाए, पर मेघ के सिवा किसी भी जलाशय का जल नहीं पीता । "उत्तर चातकाष्टक" में लिखा है -
पयोद हे ! वारि ददासि वा न वा ।
तवडेकचित्तः पुनरेष चातकः ।।
वरं महत्या म्रियते पिपासया
तथापि नान्यस्य करोत्युपासनाम् ।।

हे मेघ ! तू जल दे चाहे न दे, चातक तो तेरा ही आश्रय रखता है । घोर प्यास से भले ही मर जाए, पर वह दुसरे की उपासना नहीं करता । गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है -

चातक घन तजि दूसरे, जियत न नाई नारि।
मरत न मांगे अर्घजल, सुरसरिहु को वारि ।।
व्याधा बधो पपीहरा, परो गंगजल जाय ।
चोंच मूँदि पीवे नहीं, धिक् पीवन प्रण जाय ।।

चातक ने मेघ को छोड़ और किसी को अपनी ज़िन्दगी में सर न नवाया । मरते समय गंगा का जल भी ग्रहण न किया । किसी शिकारी ने किसी चातक को मारा, वह गंगाजी में गिर पड़ा, प्यास के मारे घबरा रहा था, पर गंगाजल नहीं पीता था । उसने उलटी चोंच बन्द कर ली; कि कहीं जल मुख में न चला जाय और मेरा प्रण टूट जाय । वाह वाह ! प्रीति और भक्ति हो तो ऐसी ही हो ।
सारांश यह है, कि भगवान् के भी जिस नाम से प्रेम हो, उसे छोड़ कर दूसरे से प्रेम न करना चाहिए । एक ही पति की स्त्री होने में भलाई है । जिसके अनेक पति होते हैं, उसका भला नहीं होता । अनेक देवी-देवताओं के उपासक चातक से शिक्षा ग्रहण करें । कहा है -

पतिव्रता को सुख घना, जाके पति है एक।
मन मैली व्यभिचारिणी, जाके खसम अनेक।।
पतिव्रता पति को भजै, और न अन्य सुहाय।
सिंह बचा जो लंघना, तो भी घास न खाय।।
"कबिरा" सीप समुद्र की, रटे पियास पियास।
सकल बूँद को न गिनै, स्वाति बूँद की आस।।
प्रीति रीति तुझ सों मेरे, बहु गुनियाला कन्त।
जो हँसि बोलूं और सूँ, तो नील रंगाऊं दन्त।।

पतिव्रता, जिसके एक पति होता है, सदा सुखी रहती है; किन्तु अनेक खसमवाली व्यभिचारिणी सदा दुखी रहती है । पतिव्रता सदा अपने पति को ही चाहती है; उसे दूसरा अच्छा नहीं लगता । सिंह का बच्चा लंघन पर लंघन करने पर भी घास नहीं खाता । कबीरदास कहते हैं, समुद्र की सीप प्यास ही प्यास रटा करती है; कितनी ही बूंदे क्यों न गिरें, उसे तो स्वाति की बूँद ही प्यारी लगती है । मेरे गुणनिधान कन्त ! मेरी प्रीती तुझसे है । जो मैं दुसरे से हंसकर बोलूं तो मेरा काला मुंह हो ।

दोहा 

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नाहिन शिव अरु विष्णु में, सूझै अन्तर मोय ।
तदपि चन्द्रशेखर लखत, प्रीति अधिक कछु होय ।।




रे कंदर्प करं कदर्थयसि किं कोदण्डटंकारितैः। 
रे रे कोकिल कोमलैः किं त्वं वृथाजल्पसि ।।
मुग्धे स्निग्धविदग्धमुग्धमधुरैर्लोलैः कटाक्षैरलं
चेतश्चुम्बितचन्द्रचूड़चरणध्यानमृतं वर्त्तते ।। १०० ।।

अर्थ:
हे कामदेव ! तू धनुष्टङ्कार सुनाने के लिए क्यों बारबार हाथ उठाता है ? हे कोकिला ! तू मीठी-मीठी सुहावनी आवाज़ में क्यों कुहू-कुहू करती है ? ए मूर्ख स्त्री ! तू अपने मनोमोहक मधुर कटाक्ष मुझ पर क्यों चलाती है ? अब तुम मेरा कुछ नहीं कर सकते; क्योंकि अब मेरे चित्त ने शिव के चरण चूमकर अमृत पी लिया है ।

जब तक मनुष्य का मन ब्रह्मानन्द का मज़ा नहीं जानता, जब तक वह परमात्मा के चरणों में ध्यान लगा कर अमृत नहीं पीटा, तभी तक कामदेव का ज़ोर चलता है, तभी तक कोकिला का पञ्चम स्वर उसके दिल में खलबली पैदा करता है, तभी तक स्त्री के कटाक्ष-बाण उस पर असर करते हैं; कामारि शिव से प्रीति होने पर ये सब कुछ नहीं कर सकते । भगवान् शिव और कामदेव में वैर है; अतः शिवभक्तों पर कामदेव अपने अस्त्र अपने अस्त्र नहीं चला सकता ।

छप्पय

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अरे काम वेकाम, धनुष टंकारत तर्जत।
तू हू कोकिल व्यर्थ बोल, काहे को गरजत।।
तैसे ही तू नारि वृथा ही करत कटाक्षै।
मोहि न उपजै मोह, छोह सब रहिगे पाछै।।
चित चन्द्रचूड़चरण को, ध्यान अमृत बरषत हिते।
आनन्द अखण्डानन्द को, ताहि अमृत सुख क्यों हिते।।



कौपीनं शतखण्डजर्ज्जरतरं कन्था पुनस्तादृशी
निश्चिन्तम्  सुखसाध्यभैक्ष्यमशनं शय्या श्मशाने वने ।
मित्रामित्र समानताऽतिविमला चिन्ताऽथशून्यालये 
ध्वस्ता शेषमदप्रमाद मुदितो योगी सुखं तिष्ठति ।। १०१ ।।

अर्थ:
वही योगी सुखी है, जो एकदम से फटी-पुरानी सैकड़ो चीथड़ों से बनी कोपीन पहनता है और वैसी ही गुदड़ी ओढ़ता है, जिसके पास चिन्ता नहीं फटकती, जो सुख से मिला हुआ भिक्षान्न खाता है, जो श्मशान भूमि या वन में सो रहता है, जो मित्र और शत्रुओं को समान समझता है, जो सूनी झोंपड़ी में ध्यान करता है और जिसके मद और प्रमाद सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो गए हैं ।

फटी-पुरानी कोपीन पहनने, चीथड़ों की गुदड़ी ओढ़ने, निश्चिन्त रहने, सुख से मिले भिक्षान्न के खाने, मरघट या जंगल में सो रहने, दोस्त और दुश्मन को बराबर समझने और नितान्त सूने घर में पवित्र ध्यान करने से जिसके मद और प्रमाद नाश हो गए हैं, वही योगी संसार में सुखी है । ऐसी महापुरुषों को किसी की इच्छा नहीं होती । जिसे किसी चीज़ की इच्छा नहीं, उसके किसकी गरज़ ? जो मित्र और शत्रु को एक नज़र से देखते हैं, जहाँ जगह पाते हैं वही पद रहते हैं, वहीँ खा लेते हैं, उन्हें न चिन्ता राक्षसी सताती है, न उन्हें घमण्ड होता है और न उन्हें मस्ती आती है । वे तो ब्रह्म के ध्यान में मग्न रहते हैं, इसलिए दुःख उनके पास नहीं आता; वे सदा सुख में दिन बिताते हैं । जो लोग बढ़िया बढ़िया कपडे पहनते हैं, शाल-दुशाले ओढ़ते है, अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट भोजन करते हैं, मखमली गद्दे-तकियों पर सोते हैं, किसी को दोस्त और किसी को दुश्मन समझते हैं, ब्रह्म का ध्यान नहीं करते, उनको चिन्ता लगी ही रहती है । देखने में वे सुखी मालूम होते हैं, पर भीतर ही भीतर उनकी आत्मा जला करती है । चिन्ता उनको खोखला कर डालती है । क्योंकि बढ़िया बढ़िया भोजन और वस्त्रों के लिए उन्हें सदा उपाय करने पड़ते हैं और उनकी रक्षा की चिन्ता करनी पड़ती है । ऐसो के ही मित्र और शत्रु होते हैं । जिनका वे भला करते हैं, जिन्हे कुछ सहायता देते हैं अथवा जिन्हे उनसे कुछ मिलने की आशा रहती है, वे मित्र बन जाते हैं; पर जिनका स्वार्थ साधन नहीं होता, जो उनके ठाठ-बाठ और वैभव को फूटी आँख नहीं देख सकते, वे उनके नाश की चेष्टा करते हैं और उनके दुश्मन हो जाते हैं । इसलिए उन्हें रात-दिन शत्रुओं से बदला लेने और उन्हें पराजित करने की फ़िक्र के मारे क्षणभर भी सुख की नींद नहीं आती । अपने वैभव और ऐश्वर्य को देखकर उन्हें स्वतः ही अभिमान हो आता है । अभिमान के नशे में वो अनर्थ करने लगते हैं; इससे उन्हें सदा भयभीत रहना पड़ता है । बहुत क्या कहें; जिनको आप अमीर देखते हैं, जिनको आप स्त्री-पुरुष, धन-रत्न, गाडी-घोड़े, मोटर प्रभृति से सुखी देखते हैं, वे वास्तव में ज़रा भी सुखी नहीं । सुखी वही है जिसे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं, जिसे किसी से वैर या प्रीति नहीं, जिसे ज़रा भी अभिमान नहीं, जिसकी इन्द्रियां वश में हैं, जो कभी चिन्ता को पास नहीं आने देता और जो ब्रह्मानन्द में ही मग्न रहता है । भला राजा महाराजा और धनी लोग इस सुख को कैसे पा सकते हैं ? अगर सुखी होना चाहो, तो संसार को त्याग कर, एकदम से निश्चिन्त होकर, परमात्मा के सिवा किसी चीज़ की चिन्ता न करो ।
जो लोग संसार त्यागें, वह सच्चे मन से त्यागें; ढोंग करने से कोई लाभ नहीं । आजकल ऐसे बनावटी महात्मा बहुत देखने में आते हैं, जो जाता-जूट बढ़ा लेते हैं, ख़ाक रमा लेते हैं आँखें लाल कर लेते हैं, गंगा में पहरों खड़े रहते हैं, शूलों की शय्या पर सोते हैं, पर उनकी आशा और तृष्णा नहीं जाती । वे ज़ाहिरा कष्ट उठाते हैं, कर्मेन्द्रियों से उनका काम नहीं लेते; पर मन और ज्ञानेन्द्रियों को अपने वश में नहीं करते, वासनाओं का त्याग नहीं करते, इससे उनका जीवन वृथा जाता है । ऐसे लोगों के सम्बन्ध में महात्मा कबीर कहते हैं -
निर्बन्धन बंधा रहे, बंध्या निरबन्ध होय ।
कर्म करे करता नहीं, दास कहावे सोय ।।

कृष्ण भगवान् गीता के तीसरे अध्याय के छठे श्लोक में कहते हैं -
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्  । 
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।।

जो मनुष्य कर्मेन्द्रियों को वश में करके कुछ काम तो नहीं करता; किन्तु मन में इन्द्रियों के विषयों का ध्यान किया करता है, वह मनुष्य झूठा और पाखण्डी है ।

मतलब यह है, कि मनुष्यों को हाथ, पाँव, मुंह, गुदा और लिङ्ग को वश में कर लेने और इनसे कोई काम न लेने से कोई लाभ नहीं; इनसे तो इनका कोई काम लेना ही चाहिए; किन्तु आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा को वश में करना चाहिए । आँख, कान आदि पांच इन्द्रियों को वश में करना या अपने अपने विषयों से रोकना जरूरी है । बहुत से लोग, ज़ाहिर में सिद्ध बनने के लिए, हाथ-पाँव प्रभृति कर्मेन्द्रियों से काम नहीं लेते, किन्तु मन में भाँती भाँती के इन्द्रिय विषयों की इच्छा किया करते हैं । भगवान् कृष्ण ऐसों को पाखण्डी कहते हैं ।
सबसे अच्छा और सिद्ध पुरुष वही है जो ज़ाहिरा तो काम करता है, किन्तु अन्दर से मन और ज्ञानेन्द्रियों को विषय वासना से रोकता है । गीता में कहा है -
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।।

हे अर्जुन ! जो मन से आँख कान नाक आदि इन्द्रियों को वश में करके और इन्द्रियों को विषयों में न लगा कर "कर्मयोग" करता है, वही श्रेष्ठ है ।
रहीम ने यही बात कैसी अच्छी तरह कही है -
जो "रहीम" मन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं ।
जल में छाया जो परी, काया भीजत नाहिं ।।
तन को योगी सब करें, मन को विरला कोय ।
सहजे सब विधि पाइये, जो मन योगी होय ।।

मतलब यह है कि ढोंग करने से कोई लाभ नहीं । जिनका दिल साफ़ है, जिनके दिल से वासनाएं निकल गयी है, उन्हें नहाने धोने प्रभृति दिखाऊ कामों या दुकानदारी की जरुरत नहीं है । रहीम कहते हैं, मन यदि हाथ में है तो मनसा कहीं क्यों न जाय, हानि नहीं; क्योंकि जल में शरीर की परछाईं पड़ने से शरीर नहीं भीजता । लोग शरीर को जोगी करते हैं - तिलक छापे लगाते हैं, जटाजूट बढ़ाते हैं, नेत्रों को सुर्ख करते हैं, भभूत मलते हैं, कोपीन बांधते हैं; पर मन को कोई विरला ही जोगी करता है । लोग ऊपर से योगी बन जाते हैं, पर मन उनका विषय-भोगों में लगा रहता है । शरीर से चाहे जो काम क्यों न किये जाएँ, पर मन में विषयों की कामना न रहे; यानि शरीर जोगी न हो, मन जोगी हो जाये; तो सिद्धि या मोक्ष मिलने में संदेह नहीं । सारांश यह कि, मन के योगी होने से ही ईश्वर मिलता है ।

महाकवि ज़ौक़ कहते हैं -
सरापा पाक हैं धोये जिन्होंने हाथ दुनिया से ।
नहीं हाजत कि वह पानी बहाएं सर से पाऊं तक ।।

जिन्होंने दुनिया से हाथ धो लिए हैं, वे सिरसे पाँव तक शुद्ध हो गए हैं । उन्हें सिर से पाँव तक पानी बहाकर स्नान करने की जरुरत नहीं ।
मन जब वासना-हीन हो जाता है, तब वह सूखी दिया-सलाई के समान हो जाता है । सूखी दिया-सलाई जिस तरह झट जल उठती है, पर गीली नहीं जलती; उसी तरह वासनाहीन मन पर परमात्मा का रंग जल्दी चढ़ता है ; किन्तु वासनायुक्त मन पर हरगिज़ नहीं । इसलिए मन को वासनाहीन करना चाहिए । साथ ही भक्ति भी निष्काम करनी चाहिए । ईश्वर से मुराद न मांगनी चाहिए । कामना रखकर भक्ति करने से कामना निश्चय ही पूर्ण होती है - ईश्वर भक्त की इच्छा अवश्य पूरी करता है; पर वैसी भक्ति से परिणाम में भय है ; क्योंकि फलों के भोगने के लिए जन्मना और मरना पड़ता है । किन्तु जो लोग बिना किसी इच्छा के परमात्मा की भक्ति करते हैं, वे मुक्ति लाभ करते हैं - उन्हें जन्म लेना और मरना नहीं पड़ता ।
जब साधक के मन में कामना नहीं रहती, तब उसके मन से ईर्ष्या-द्वेष और मित्रता-शत्रुता सब दूर हो जाती है । वह सब जगत को एक नज़र से देखता है । वह मनुष्यों की आशा नहीं रखता, केवल परमात्मा की शरण ले लेता है; इसलिए उसे सहज में मुक्ति मिल जाती है । गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है -
तब लगि हमते सब बड़े, जब लगि है कुछ चाह ।
चाह-रहित कह को अधिक, पाय परमपद थाह ।।
जब तक मन में ज़रा भी आशा रहती है, तभी तक मनुष्य किसी को बड़ा मानता है और किसी का दास बनता है; जब आशा नहीं रहती तब वह सबको समान समझता है और सबका आसरा छोड़ एकमात्र परमात्मा का आसरा पकड़ता है; इससे उसको भवबन्धन से छुटकारा मिलकर परमपद की प्राप्ति हो जाती है ।

छप्पय
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कन्था अरु कोपीन, फटी पुनि महा पुरानी ।
बिना याचना भीख, नींद मरघट मनमानी ।।
रह जग सों निश्चिन्त, फिरै जितहि मन आवै ।
राखे चित कू शान्त, अनुचित नहीं भाषै ।।
जो रहे लीन अस ब्रह्म में, सोवत अरु जागत यदा ।
है राज तुच्छ तिहुँ भुवन को, ऐसे पुरुषन को सदा ।।


भोगा भंगुरवृत्तयो बहुविधास्तैरेव चायं भवः
तत्कस्यैव कृते परिभ्रमतरे लोका कृतं चेष्टितैः ।
आशापाशशतोपशान्तिविशदं चेतः समाधीयतां
कामोच्छित्तिवशे स्वधामनि यदि श्रद्धेयमस्मद्वचः ।। १०२ ।।

अर्थ:
नाना प्रकार के विषय भोग नाशमान और संसार-बन्धन के कारण हैं, इस बात को जानकार भी मनुष्यों ! उनके चक्कर में क्यों पड़ते हो ? इस चेष्टा से क्या लाभ होगा ? अगर आपको हमारी बात का विश्वास हो, तो आप अनेक प्रकार के आशा-जाल के टूटने से शुद्ध हुए चित्त को सदा कामनाशक स्वयंप्रकाश शिवजी के चरण में लगाओ । (अथवा अपनी इच्छाओं के समूल नाश के लिए, अपने ही आत्मा के ध्यान में मग्न हो जाओ ।

आप आज जिन विषय-सुखों को देखकर फूले नहीं समाते, वे विषय-सुख सदा आपके साथ नहीं रहेंगे । वे आज हैं तो कल नहीं रहेंगे । वे बिजली की चमक के समान चञ्चल हैं; अभी बिजली चमकी और फिर नहीं । आप ऐसे नश्वर, असार और क्षणस्थायी सुखों पर मत भूलो । होश करो ! अपनी काया नाशमान है । आप सदा इस संसार में नहीं रहेंगे । आपकी ज़िन्दगी का कोई भरोसा नहीं । आपका जो दम आता है, उसे ही गनीमत समझिये । आप एक कदम रखकर, दूसरा कदम रखने की भी दृढ़ आशा न कीजिये । आपका जीवन हवा के झोंको से छिन्न-भिन्न मेघों के समान है । अभी घटा छा रहीं थी; देखते देखते हवा उन्हें कहाँ का कहाँ उड़ा ले गयी; आकाश साफ़ हो गया। यह सारा संसार, संसार के सुख-भोग, स्त्री-पुत्र, धन-रत्नादि सभी स्वप्न की सी माया हैं । यह दुनिया मुसाफिरखाना है । रोज़ अनेक आदमी मुसाफिरखाने, सराय या धर्मशालाओं में आते और जाते रहते हैं; सदा उनमें कोई नहीं रहता । वे जिस तरह एक दिन या दो-तीन दिन रहकर चले जाते हैं; उसी तरह आपको भी, इस दुनिया रुपी सराय में चन्द रोज़ क़याम करके, आगे जाना होगा । ये सारे सामान यहाँ के यहीं रह जायेंगे । ये सब ऐसे ही रहेंगे, पर आप न रहेंगे । इसलिए आप होशियार रहिये, भूलिए मत । जिस जवानी पर आप इतना इतराते और इतने श्रृंगार-बनाव करते हैं, यह भी चन्दरोज़ा है । यह चार दिन की चाँदनी है । इसके बाद अन्धेरी रात निश्चय ही आवेगी । उस समय आपको यह अकड़, यह उछाल कूद, यह एन्ठना, यह मूंछे मरोड़ना - सब हवा हो जाएगा । आप शीघ्र ही लाठी तक कर चलने लगेंगे । आपका रूप-लावण्य नाश हो जाएगा । जो लोग आपको खूबसूरत समझकर आज प्यार करते हैं, वे ही कल आपको देखकर नाक-भौं सिकोड़ेंगे । फिर भला, आप ऐसी नश्वर निकम्मी काया क्यों इतना अभिमान करते हैं ? आप अहङ्कार को त्यागिये और अपने को उस खिलाडी का एक मिटटी का पुतला मात्र समझिये । सबकी शुभकामना और परोपकार कीजिये और एकमात्र अपने बनानेवाले से ही दिल लगाइये । इसी में आपका कल्याण है । यह जगत कुछ भी नहीं, कोरा भ्रम है । यह मृगमरीचिका या स्वप्न की सी माया है । इस पर ज्ञानी नहीं भूलते । 

महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं -
कोउ नृप फूलन की सेज पर सूतो आई ।
जब लग जाग्यो तौ लों, अति सुख मान्यो है ।।
नींद जब आयी, तब वाही कूँ स्वप्न भयो ।
जब परयो नरक के कुण्ड में, यूं जान्यो है ।।
अति दुःख पावे, पर निकस्यो न क्यूँ ही जाहि ।
जागि जब परयो, तब स्वप्न बखान्यो है ।।
यह झूठ वह झूठ, जाग्रत स्वप्न दोउ ।
"सुन्दर" कहत, ज्ञानी सब भ्रम मान्यो है ।।

छप्पय

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अति चञ्चल ये भोग, जगत हूँ चञ्चल तैसो ।
तू क्यों भटकत मूढ़ जीव, संसारी जैसो ।।
आशाफांसी काट, चित्त तू निर्मल ह्वैरे ।
करि रे प्रतीति मेरे वचन, ढुरिरे तू इह ओर को ।।
छिन यहै यहै दिनहुँ भल्यौ, निज राखै कुछ भोर को ।


धन्यानां गिरिकन्दरे निवसतां ज्योतिः परं ध्यायतां-
आनन्दाश्रुजलं पिबन्ति शकुना निःशङ्कमङ्केशयाः ।।
अस्माकं तु मनोरथोपरचितप्रासादवापीतट-
क्रीडाकाननकेलिकौतुकजुषामायुः परिक्षीयते ।। १०३ ।।

अर्थ:
वे धन्य हैं, जो पर्वतों की गुफाओं में रहते हैं और परब्रह्म की ज्योति का ध्यान करते हैं, जिनके आनन्दाश्रुओं को उनकी गोद में बैठे हुए पक्षी निर्भयता से पीते हैं । हमारी ज़िन्दगी तो मनोरथों के महल की बावड़ी के किनारे के क्रीड़ा-स्थान में लीलाएं करते हुए ही वृथा बीतती है ।

मतलब यह कि वे लोग सफल काम हैं, जो पहाड़ों की गुफाओं में बैठे हुए परमात्मा ज्योति का ध्यान करते रहते हैं और ध्यान में इतने मग्न हो जाते हैं कि उन्हें अपने तनबदन की भी सुध नहीं रहती । उनको भीतर ही भीतर उस ब्रह्म के ध्यान से जो आनन्द-बोध होता है, उससे उनकी आँखों से आनन्द के आंसू बहने लगते हैं । पक्षी उनकी गोद में निडर बैठे हुए उन आंसुओं को पीते हैं । उन्हें कुछ खबर नहीं, कि पक्षी गोद में बैठे हैं या क्या कर रहे हैं । वे तो आनन्द में बेसुध रहते हैं । यही आनन्द परमानन्द है । इससे परे और आनन्द नहीं । जिनको यह सच्चा आनन्द  मिलता है, वही सच्चे भाग्यवान हैं । एक वह हैं और एक हम अभागे हैं, जो रात-दिन मनोरथों के महल गढ़ा करते हैं - रात-दिन मिथ्या कल्पनाएं किया करते हैं । इन शेखचिल्ली के से गढन्तों से हमें कोई लाभ नहीं - इन झूठे ख्याली पुलावों के पकने में हमारा दुष्प्राप्य जीवन वृथा नष्ट हो रहा है ।

जो मनुष्य मानव-चोला पाकर परमात्मा का भजन नहीं करते, परमात्मा के दर्शनों की चेष्टा नहीं करते - उनका जीवन वृथा है । 

इसलिए उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है -
दिल वह क्या, जिसको नहीं तेरी तमनाये विसाल ।
चश्म वह क्या, जिसको तेरे दीद की हसरत नहीं ।।

वह दिल ही नहीं, जिसे तुझे पाने की इच्छा न हो और वह आँख ही नहीं, जिसे तेरे दर्शन की लालसा न हो ।


बीती सो बीती, अब तो होश करो !
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भाइयों ! बीती सो बीती, अब तो चेत करो और प्रभु से लौ लगाओ । आजकल मत करो, नहीं तो पछताओगे । अन्त समय पछताने से कोई लाभ न होगा । जो लोग विचार ही विचार करते रहते हैं, वे धोखे में रह जाते हैं और काल एक दिन अचानक आकर उनकी छोटी पकड़ लेता है ।

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -
गए पलट आवें नहीं, सो करु मन पहचान ।
आजु जोई सोई कालहि है, तलसी मर्म न मान ।।
रामनाम रटिबो भलो, तुलसी खता न खाय ।
लरिकाई ते पैरिबो, धोखे बूड़ि न जाय ।।

नदी की जो धार चली गयी है, लौटकर नहीं आएगी, जो दिन चले गए हैं, वापस नहीं आएंगे । जो दिन आज है, वही कल है । कल कोई नई बात नहीं हो जायेगी । अतः जो कल करना है उसे आजही करो; और जो आज करना है, उसे अभी करो; क्योंकि यदि पल भर में प्रलय हो गयी - आप चल बसे - तो फिर कब करोगे ? बचपन से ही राम नाम रटना अच्छा है ।  जो लोग बचपन से ही तैरना सीख लेते हैं, धोखे से नहीं डूबते । जो लोग यही विचार किया करते हैं, कि अमुक काम हो जायेगा, तो उसके बाद हम सब गृहस्थी के झगड़े छोड़ भगवत भजन करेंगे, वे इस तरह के विचार किया ही करते हैं कि इतने में समय पूरा हो जाता है और काल उनका चोटा पकड़ कर उन्हें ले जाता है । उस वक्त वह बहुत पछताते और सिर धुनते हैं; लेकिन उस समय क्या हो सकता है ? उस समय उनकी गति उस भौंरे सी होती है, जो कमल के मुख में बन्द हो कर कहता है -

रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं।
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजालं ।।
इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे ।
हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार ।।

बड़े बड़े शाल के लट्ठों को छेद डालने की शक्ति रखने वाला भौंरा, प्रेम के मारे, कोमल कमल में बन्द हो जाता है । रात हो जाती है और भौंरा कमल के अन्दर बैठा विचार करता है - "अब रात का अवसान होगा, सवेरा होगा, सूरज उदय होगा और यह कमल खिल जायेगा; तब मैं निकल जाऊंगा । अब रात भर यहीं आनन्द करूँ ।" वह तो ऐसे विचार करता ही रहता है, कि जंगली हाथी कमल को उखाड़ कर मुंह में रख लेता है और भौंरो के मन की मन में ही रह जाती है । यही दशा संसारी विषय-लोलुपों की है । वह विचार बाँधा ही करते हैं और काल उन्हें मुंह में धर लेता है, अतः हो सके तो बचपन में ही ईश्वर भजन करो । बचपन में यदि ऐसा सौभाग्य न हो, तो जवानी में तो न चूको । जवानी इसके लिए अच्छा समय है । उस अवस्था में शक्ति रहती है । जाने में ईश्वरभक्ति करनेवाला निश्चय ही मोक्ष या स्वर्ग पाता है ।

कहा है -
दानं दरिद्रस्य प्रबोशच शान्तिः 
यूनां तपो ज्ञानवताञ्च मौनं ।
इच्छा निवृत्तिश्च सुखासितानां
दया च भूतेषु दिवं नयन्ति ।।

दरिद्रता का किया दान, निग्रह अनुग्रह की शक्ति होने पर क्षमा, जवानी का किया तप, विद्वान् होकर चुप रहना, सुख-भोग की सामर्थ्य होने पर इच्छाओं को रोक लेना और प्राणियों पर दया करना - ये स्वर्ग की प्राप्ति करते हैं ।


ईश्वर भजन में आजकल मत करो 
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एक धनवान सदा घर-धंधों में लीन रहता था । उसकी स्त्री उससे बहुत कुछ कहती थी कि हे स्वामी ! यह शरीर विषय-भोगों के लिए नहीं, बल्कि परमात्मा की भक्ति के लिए मिला है । पारसमणि समझकर, इससे मोक्ष रुपी सोना बना लीजिये । ऐसा न हो कि आप सोना न बनावें और यह पारसमणि पहले ही आपसे छीन ली जाय । इस शरीर का बारम्बार मिलना कठिन है । ८४ लाख योनियां भोगने के बाद यह मनुष्य चोला मिला है । इस बार यदि इससे काम न लिया जायेगा, तो फिर चौरासी लाख योनियों में जन्म-मरण होने पर यह मनुष्य-चोला मिलेगा; इसलिए दो चार घडी तो सब तरफ से मन हटाकर परमात्मा की याद किया करो । स्त्री उससे बार बार कहती, पर वह सेठ उसकी बात टाल देता ।

एक दिन सेठ बीमार हो गया । उसने सेठानी से वैद्य को बुलाने को कहा । सेठानी ने वैद्य को बुलाया । वैद्य ने नाड़ी-नब्ज़ देख, रोग का हाल पूछ, दवा का नुस्खा लिख दिया और सेवन-विधि बताकर चला गया । सेठानी ने पंसारी के यहाँ से दवा मंगा, आले में रख दी । दिन भर हो गया पर सेठ को दवा न दी । संध्या समय सेठ ने कहा - "क्या दवा नहीं मंगाई गयी ?" सेठानी ने कहा - "जी, दवा तो मंगा ली है, पर वह रक्खी है उस ताक में ।" सेठ ने पूछा - "अब तक दी क्यों नहीं ?" सेठानी ने कहा - "जल्दी क्या है ? आज नहीं तो कल, नहीं तो परसों दे दूंगी । कभी न कभी दे ही दूंगी ।" सेठ ने कहा - "अगर मैं मर गया तो दवा कौन काम आवेगी ?" सेठानी ने कहा - "मरने को तो आप मानते ही नहीं । मैं जब जब भगवत भजन करने को कहती हूँ, तब-तब आप कह देते हैं कि देखा जायेगा; जल्दी थोड़े ही है । यदि आपको मरने की ही याद होती तो ऐसा न कहते । आज दवा के लिए आपको मरने की याद आयी है । जिस तरह दवा की रोगनाश के लिए जरुरत है; उसी तरह भजन-पूजन की जन्म-मरण का फन्दा काटने के लिए जरुरत है । ऐसा न हो कि पशु योनि मिल जाय और सारा गुड़-गोबर हो जाय ।" आज स्त्री का उपदेश लग गया । सेठ को वैराग्य हो गया । सेठानी ने उसे दवा पिला दी और वह अच्छा भी हो गया । उसी दिन से उसने ईश्वर भजन में लौ लगा दी । वह और सब भूला पर ज़िन्दगी भर, मौत और ईश्वर को न भूला ।


मौत को हरदम याद रक्खो 
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एक बादशाह ने अपने दरबार और बैठने के स्थानों में कब्रें बनवा रक्खी थीं । वह चाहता था कि मैं हरदम कब्रों को देखकर मौत को न भूलूँ । मौत की याद रहने से पापों से बचा रहूँगा और ईश्वर को न भूलूंगा । हमारे यहाँ के अनेक सच्चे सिद्ध अक्सर शमशान भूमि में ही डेरा रखते हैं । सारांश यह कि मनुष्य को अपनी मौत सदा याद रखनी चाहिए, ताकि संसार से वैराग्य होकर ज्ञान हो और ज्ञान से मोक्ष मिले । 

महात्मा कबीर ने खूब जबरदस्त चेतावनी दी है -
"कबिरा" जो दिन आज है, सो दिन नाहिं काल।
चेत सके तो चेतियो, मीच परी है ख्याल।।

हे कबीर ! जो दिन आज है, वह कल नहीं होगा; यानी आज का सा मौका कल फिर न मिलेगा । चेतना है तो चेत जा ! देख, मृत्यु तेरे घात में है । चूहे पर बिल्ली की तरह झपट्टा मारना ही चाहती है ।

गोस्वामी जी ने भी खूब कहा है -
"तुलसी" विलम्ब न कीजिये, भेज लीजै रघुबीर।
तन तरकस ते जात है, श्वास सार सो तीर।।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करोगे कब?

तुलसीदास जी कहते हैं, देर न करो, भगवान् को भेज लो; क्योंकि तनरूपी तरकस से श्वास रुपी तीर, जो सार है, निकला जाता है । जो काम कल करना है, उसे आज ही कर डालो और जो आज करना है, उसे अभी कर डालो; क्योंकि यदि पल में प्रलय हो गयी, तो फिर कब करोगे ?

जो मनुष्य दिन-रात घर-धन्धों में ही लगे रहते हैं, कभी खुश होते हैं कभी रंज करते हैं, कभी कन्या के वैधव्य दुःख को देखकर जलते रहते हैं, तो कभी पुत्र के मरण से औंधा मुंह किये पड़े रहते हैं अथवा कान्ता-वियोग या स्त्री के मरण से तड़फते हैं अथवा धनवृद्धि के लिए दौड़ते फिरते हैं । लेकिन परमात्मा का नाम कभी नहीं लेते; यदि लेते हैं तो हाथ को तो गोमुखी में रखते हैं, पर मन को विषयों में लगाए रहते हैं, लोगों से बातें करते रहते और सड़ासड़ माला फेरा करते हैं, ऐसों के पास एक दिन भी चतुर पृष्ठों को न रहना चाहिए ।

कहा है -
राजा धर्मविना, द्विजः शुचिविना, ज्ञानं विना योगिनः ।
कान्ता सत्यविना, हयो गति विना, भूषा च ज्योतिर्विना ।।
योद्धा शूरविना, तपो व्रत विना, छन्दो विना गीयते ।
भ्राता स्नेह विना, नरो हरि विना, मुञ्चन्ति शीघ्रं बुधाः ।।

धर्महीन राजा को, शौचहीन ब्राह्मण को, ज्ञानहीन योगी को, असत्यवादिनी स्त्री को, गतिहीन घोड़े को, चमक-दमक रहित गहने को, शूरताहीन योद्धा को, नियम रहित तप को, छन्द बिना कविता को, स्नेह-हीन भाई को और हरिभक्ति रहित पुरुष को बुद्धिमान लोग शीघ्र ही छोड़ देते हैं ।

हरिभक्ति रहित पुरुष को चतुर लोग इसलिए त्याग देते हैं, कि उसकी सङ्गति में उनका मन भी कहीं वैसा न हो जाय । मनुष्य जैसी सङ्गति करता है, वैसा ही हो जाता है । जो विषयी पुरुषों की सङ्गति करता है, वह विषयी हो जाता है; पर जो ज्ञानी और वैरागियों की सङ्गति करता है, वह ज्ञानी और वैरागी हो जाता है । महापुरुषों की एक शुभ दृष्टी से मनुष्य निहाल हो जाता है; यानी भाव-बन्धन से उसका पीछा छूट जाता है । हम आगे दोनों तरह के दृष्टान्त देते हैं -


एक राजा और महात्मा 
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किसी जंगल में एक महात्मा रहते थे । वह पेड़-पत्ते और हवा खाकर ज़िन्दगी बसर करते थे । उनकी शोहरत सारे देश में फ़ैल गयी । उस देश के राजा ने भी उनसे मिलना चाहा । वज़ीर ने यह खबर महात्मा को दी । महात्मा उस जंगल को छोड़ भागने को तैयार हुए; लेकिन मंत्री के बहुत समझने बुझाने से वह वहां रह गए और राजा को दर्शन देने पर भी राज़ी हो गए ।

एक दिन राजा अपने परिवार और दरबारियों समेत महात्मा के दर्शन को गया । महात्मा के दर्शन कर वह बहुत ही खुश हुआ और उनसे नगर में चलकर बाग़ में तप करने की प्रार्थना की । महात्मा बहुत ज़ोर देने से इस बात पर राज़ी हो गया । राजा ने अपने बाग़ में उसके लिए एक एकान्त कमरा खूब सजवा दिया । मखमली गद्दे, तकिये, कौच, पलंग और कुर्सियां रखवा दीं और चौदह-चौदह बरस की सुन्दरी मनमोहिनी कामिनियाँ महात्मा जी की सेवा को नियुक्त कर दीं ।

महात्मा जी खूब आनन्द से दिनी गुज़ारने और विधुवदिनी कामिनियों को भोगने लगे । चन्दरोज में ही वह विषयों के वशीभूत हो गए । एक दीं राजा फिर उनसे मिलने गया । उसने देखा कि महात्मा जी का रंग रूप गुलाब के फूल जैसा हो गया है । वह मसनद के सहारे लेते हुए हैं और चन्द्रानना स्त्रियां उन पर मोरछल कर रही हैं । यह तमाशा देख राजा को बड़ा दुःख हुआ । उसने अपने मंत्री से यह हाल कहा । मंत्री ने कहा - "महाराज ! निवृत्ति मार्ग वालों को प्रवृत्ति मार्ग वालों की सङ्गति भूलकर भी न करनी चाहिए ।"

कहा है -
कामीनाम् कामिनीनां च संगात् कामी भवेत् पुमान्।  
देहान्तरे ततः क्रोधी लोभी मोहि च जायते।।
काम क्रोधादि संसर्गाद शुद्धं जायते मनः।
अशुद्धे मनसि ब्रह्मज्ञानं तच्च विनश्यति।।

कामी पुरुषों और स्त्रियों की सङ्गति से पुरुष कामी और जन्मान्तर में मोहि और क्रोधी हो जाता है ।

काम क्रोधादि के सम्बन्ध से मन भी अशुद्ध हो जाता है । अशुद्ध मन से उपदेश किया हुआ ब्रह्मज्ञान भी नष्ट हो जाता है ।


एक महात्मा और वेश्या 
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एक महात्मा एक दिन वर्षा में भीगते हुए और कीच में लिपटे हुए एक मकान के छज्जे के नीचे जा खड़े हुए । वह मकान राजा की वेश्या का था । महात्मा सर्दी के मारे थर-थर काँप रहे थे । वेश्या की दासी ने महात्मा को देखा और अपनी स्वामिनी से सारा हाल जा कहा । वेश्या ने कहा - "जाओ, महात्मा की लिवा लाओ ।" दासी उन्हें ले आई । वेश्या ने उनको स्नान कराकर नए कपडे पहनाये और भोजन कराया । इसके बाद आप भोजन करके उनके पास गयी और उन्हें पलंग पर लिटा कर उनके पैर दबाने लगी । महात्मा ने एक नज़र भर के वेश्या की तरफ देखा और उसके ह्रदय में अमृत की धारा बहा दी । वह सो गए और वेश्या रात भर उनके चरण चापती रही । सवेरे के समय वह सो गयी और महात्मा उठ कर चल दिए । भोर में उठते ही वेश्या ने दासी से पूछा कि महात्मा कहाँ गए ? उसने कहा कि वो तो चले गए । वेश्या उसी समय नंगी होकर घर से निकल गयी और एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गयी । राजा ने यह समाचार सुनते ही अपने आदमी उसको लिवा लाने को भेजे । वेश्या ने कहा - "राजा से कह दो, कि मैं आपका वह मैला उठाने वाली पहले की भंगन नहीं हूँ ।" राजा ने यह बात सुन, हुक्म दे दिया कि उसे कोई न छेड़े । अगले दिन वह कहीं चली गयी । सच है, महापुरुषों की क्षणभर की सङ्गति से महापापी भी निहाल हो जाता है । निस्संदेह सत्संग बड़ी चीज़ है ।

कहा है -
महानुभावसंसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः।
पद्मपत्रस्थितम् वारिधत्ते मुक्ताफलश्रियम ।।

महापुरुषों की सङ्गति से किसकी उन्नति नहीं होती ? कमल के पत्ते पर पड़ी जल की बून्द मोती की शोभा को धारण करती है ।

और भी -

दोहा
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जेहि जैसी सङ्गति करी, सो तैसो फल लीन ।
कदली सीप भुजंग मुख, एक बून्द गुण तीन ।।

जो जैसी सङ्गति करता है, वह वैसा ही फल पाता है । मेह की एक बून्द केले में कपूर, सीप में मोती और सर्प मुख में विष हो जाती है ।

सवैय्या 
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ज्ञान बढै गुनवान की संगत,
ध्यान बढै तपसी-संग कीने ।
मोह बढै परिवार की संगत,
लोभ बढै धन में चित दीने ।
क्रोध बढै नर मूढ़ की संगत,
काम बढै तिय के संग कीने ।
बुद्धि विवेक विचार बढै,
कवि "दीन" सुसज्जन संगत कीने ।।

सत्संग की महिमा का पार नहीं । सत्संग से ही दस्यु भील वाल्मीकि ऋषि हो गए । पद्मयोनि से पैदा हुए ब्रह्मा कैवर्त्ति से पैदा हुए व्यासजी, उर्वशी से पैदा हुए वशिष्ठ जी और हिरनी से पैदा हुए ऋषि श्रृंगी सत्संग से ब्रह्मतत्व को प्राप्त हुए; अतः महापुरुष्णो का संग करना चाहिए । "सत्संग" भाव-सागर से पर करने के लिए नौका-स्वरुप है । 

कहा है -
तत्त्वं चिन्तय सततं चित्ते,
परिहर चिन्तां नश्वरवित्ते ।
क्षणमिह सज्जनसङ्गतिरेका,
भवति भवार्णवतरणे नौका ।।

हमेशा तत्व की चिन्तना कर, चञ्चल धन की चिन्ता छोड़ । यह जगत अल्पकालीन है; केवल सज्जनों की सङ्गति ही भवसागर के पार जाने के लिए नाव के समान है ।

इस संसार वृक्ष के जितने फल हैं, सभी प्राणी के नाश करनेवाले और उसे सदा दुखों के गर्त में पटक रखनेवाले हैं; केवल दो फल अमृत समान हैं; 

कहा है -
संसारविषवृक्षस्य द्वे फैले अमृतोपमे ।
काव्यामृत रसास्वाद आलापः सज्जनैः सह ।।

इस संसार रुपी विष-वृक्ष के दो फल अमृत के समान हैं 
१) काव्यरुपी अमृत का रसास्वादन करना, २) साधु पुरुषों की सङ्गति करना ।

शंकराचार्य जी ने कैसा अच्छा उपदेश दिया है । इसमें संसार-सागर से पार होने का सारा मसाला है -
संगः सत्सु विधीयतां, भगवतोभक्तिर्दृढ़ा धीयतां,
शान्त्यादिः परिचीयतां, दृढतरं कर्माशु संत्यज्यताम्।
सद्विद्या ह्युपसर्प्यतां, प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां,
ब्रह्मैकाक्षरमर्थ्यतां श्रतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम्।।

साधु पुरुषों का संग करना चाहिए । भगवान् में दृढ़ भक्ति करनी चाहिए । क्षमा और दम प्रभृति का अभ्यास करना चाहिए । संसार-बन्धन के कारण "कर्म - सकाम कर्मों को" शीघ्र त्यागना चाहिए । सच्चे विद्वानों की सेवा करनी चाहिए और उनकी पादुकाएं उठानी चाहिए । ब्रह्म बोधक एकाक्षर प्रणव "ॐ" का जाप करना चाहिए और वेद के शिरोवाक्य "वेदान्त" को सुनना चाहिए ।
वाह ! क्या खूब कहा है ! जो इस वचन पर अमल करेगा, उसे परमानन्द की प्राप्ति क्यों न होगी ? अवश्य होगी । 

छप्पय
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योगी जग विसराय, जाय गिरिगुहा बसत हैं ।
करत ज्योति को ध्यान, मगन आंसू वरसत हैं ।।
खगकुल बैठत अंक, पियत निःशंक नयनजल ।
धनि-धनि हैं वे धीर, धरयो जिन यह समाधिबल ।।
हम सेवत बारी बाग सर, सरिता बापी कूपतट ।
खोवत है योंही आयु को, भये निपटही नीरघट ।।


आघ्रातं मरणेन जन्म जरया विद्युच्चलं यौवनं
सन्तोषो धनलिप्सया शमसुखं प्रौढाङ्गनाविभ्रमैः ।
लोकैर्मत्सरिभिर्गुणा वनभुवो व्यालैर्नृपा दुर्जनैः
अस्थैर्येण विभूतिरप्यपहृता ग्रस्तं न किं केन वा ।। १०४ ।।

अर्थ:
मृत्यु ने जन्म को ग्रस रक्खा है, बुढ़ापे ने बिजली के समान चञ्चल युवावस्था को ग्रस रक्खा है, धन की इच्छा ने सन्तोष को ग्रस रक्खा है, जलनेवालों ने गुणों को ग्रस रक्खा है, सर्प और जंगली जानवरों ने वन को ग्रस रक्खा है, दुष्टों ने राजाओं को ग्रस रक्खा है, अस्थिरता या चञ्चलता ने धनैश्वर्य को ग्रस रक्खा है; तब ऐसी कौन सी चीज़ है, जो किसी दूसरी नाशक चीज़ के चंगुल में नहीं है ?

खुलासा यह है, कि जन्म को मृत्यु का भय है, जवानी को बुढ़ापे का भय है, सन्तोष को लोभ का भय है, शान्ति को स्त्रियों के हावभाव और विलासों का भय है, गुणों को उनसे जलने या कुढ़नेवालों का भय है, वन में सर्प और हिंसक पशुओं का भय है, राजाओं में दुष्ट दरबारियों का भय है, धन और ऐश्वर्य में क्षणभंगुरता का भय है । संसार में ऐसी कोई अच्छी वास्तु नहीं है, जिसे किसी का भय न हो । मतलब यह है कि, संसार और संसार के सभी पदार्थ नाशमान हैं । ऐसी कोई चीज़ नहीं है, जिसका काल नाश नहीं कर देता अथवा जिसे किसी तरह का भय नहीं है ।

संसार की यह दशा है, तब भी तो मनुष्य चेत नहीं करता, यही तो आश्चर्य की बात है ! अज्ञानी मनुष्य, मोहवश, अपना हानि-लाभ नहीं देखता; संसार की झूठी माया में फंसा रहता है । 

तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है -
करत चातुरी मोहवश, लखत न निज हित हान ।
शूक मर्कट इव गहत हठ, तुलसी परम सुजान ।।
दुखिया सकल प्रकार शठ, समुझि परत तोई नाहिं ।
लखत न कण्टक मीन जिमि, अशन भखत भ्रम नाहिं ।।

विषयों के संसर्ग से मनुष्य के मन में कामना - इच्छा पैदा होती है । जब इच्छा पूरी नहीं होती, तब क्रोध होता है और क्रोध से मोह की उत्पत्ति होती है । मोह होने से प्राणी को अपना हित या परलोक की हानि नहीं दीखती । राग-द्वेष प्रभृति के कारण उसमें ज्ञानदृष्टी नहीं रहती; पर पढ़ने-लिखने के कारण वह अपने तई परम चतुर समझता है और जिस तरह हठ करके तोता बहेलिये के फन्दे में आप ही फंस जाता है और पिंजरे में कैद हो जाता है तथा बन्दर छोटे मुंह की ठिलिया में रोटी के लिए हाथ डालकर बंदरवाले के कब्जे में हो जाता है; उसी तरह विषयी पुरुष, विषयों के लालच में आकर, अपने तई संसार-बन्धन में फंसा लेता है ।

मनुष्य भूख, प्यास, रोग, शोक, दरिद्रता, प्रिय-वियोग, बुढ़ापा, जन्म-मरण, चौरासी लाख योनियों में दुःख-भोग तथा नरक प्रभृति से हर तरह दुखी है, उसे ज़रा भी सुख नहीं है, पर वह मोह के मारे ऐसा अन्धा हो रहा है कि उसे कांटे में लगे चारे के लिए फंसने वाली मछली कि तरह कुछ भी नहीं सूझता । जिस तरह मछली को रोटी का टुकड़ा प्यारा है; उसी तरह मनुष्य को विषय-भोग प्यारा है । जिस तरह मछली को काँटा है, उसी तरह मनुष्य को ममता का काँटा है । मतलब यह है, अज्ञानी मनुष्य विषय रुपी चारे के लोभ से ममता के कांटे में फंसकर अपना नाश कराता है; पर मज़ा यह कि वह दुःख को दुःख नहीं समझता; तरह-तरह के भयों से घिरा हुआ नाना प्रकार के संकट झेलता है; मछली, तोते और बन्दर की तरह बन्धन में फंसता है, पर निकलना नहीं चाहता । इन दुःखों का उसे ज़रा भी ख्याल नहीं आता । रोज़ लोगों को मरते हुए देखता है, रोज़ बूढ़ों को असह्य कष्ट उठाते देखता है; पर आप नहीं समझता कि मेरी भी यही गति होनेवाली है ! उल्टा हर साल जन्मतिथि को वर्षगाँठ का उत्सव करता है । मित्रों और रिश्तेदारों को निमंत्रण देता है । गाना बजाना और नाच रंग कराता है । कैसी बात है, जहाँ रंज करना चाहिए, वहां नादान मनुष्य ख़ुशी मनाता है ! उसे समझना चाहिए कि हर सालगिरह को उसकी उम्र का एक साल काम  होता है । 

महात्मा सुन्दरदास जी ने क्या खूब कहा है -
जबतें जनम लेत, तबही तें आयु घटे ।
माई तो कहत, मेरो बड़ो होत जात है ।।
आज और काल और दिन-दिन होत और ।
दौरयो दौरयो फिरत, खेलत और खात है ।।
बालपन बीत्यो, जब यौवन लाग्यो है ।
यौवनहु बीते बूढ़ो डोकरो दिखात है ।।
"सुन्दर" कहत, ऐसे देखत ही बूझिगयो ।
तेल घटी गए, जैसे दीपक बुझात है ।।

प्राणी जब से जन्म लेता है, तभी से उसकी उम्र घटने लगती है । माँ समझती है कि मेरा लाल बड़ा होता जाता है । दिन-दिन उसके रंग बदलते हैं । बचपन में खाता खेलता और भागा फिरता है । बचपन के बीतते ही जवानी आ जाती है और जवानी के बीतते ही बुढ़ापा आ जाता है और वह बूढा डोकरा सा दिखने लगता है । सुन्दरदास कहते हैं कि देखते-देखते जिस तरह तेल घट जाने से चिराग बुझ जाता है; उसी तरह वह बुझ जाता है; यानी मर जाता है ।

छप्पय
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ग्रस्यो जन्म को मृत्यु, जरा यौवन को ग्रास्यौ ।
ग्रसिवे को सन्तोष, लोभ यह प्रगट प्रकास्यो ।।
तैसहि समदृष्टि ग्रसित, बनिता बिलास वर ।
मत्सर गुण ग्रसिलेत, ग्रसत वन को भुजङ्गवर ।।
नृप ग्रसित किये इन दुर्जनन, कियौ चपलता धन ग्रसित ।
कछुहु न देख्यौ बिन ग्रसित जग, याही तें चित अति त्रसित ।।


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