Tuesday, April 16, 2019

शिव का स्तवन

शिव का स्तवन 
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जैसे तुम उदार परमेस्वर, तैसी सिवा भवानी।
तुम घट-घटवासी अविनासी व्यापक अंतरजामी,
सुद्ध सच्चिदानन्द अनामय अमल अकाम अनामी।
अविदितगति अनवद्य अगोचर अगुन अनीह अमानी।।
अगम प्रमानि तुमहि निगमागम नेति नेति कहि हारे,
सोइ तुम हित कारन रूप अनेकन धारे ।
किये अनुग्रह भाजन प्रभु ने सकल चराचर प्रानी।।
परखि प्रीति परबत-तनया कों आधे अंग बिठायो,
आधो पुरुष अरध नारी को अद्भुत रूप बनायो।
दंपति की यह एकरूपता तुम ते जग ने जानी।।
आक, धतूर, पात, श्रीफल पै तुम रीझत त्रिपुरारी,
चाउर चारि चढ़ाई पदारथ चारि लहत नर-नारी।
आसुतोष ! तुम बिन त्रिभुवन में को अति कृपानिधानी।।
जाके पदरज के प्रसाद ते सुर सुरपति सुखभोगी,
सोइ सरबस्व अरपि औरन कों फिरै, अकिंचन जोगी।
परहित जाचत कर कपाल लै, डारत भीख भवानी।।
तुम बिन प्रेत पिसचनहू कों को मानत निज प्यारे,
बैर बिहाई मोर अहि मूषक निवसत सदन तिहारे।
वृषभ सिंघ संग संग रह पीअत एक घाट पै पानी।।
विष विषधर दोषाकर दूषन भूषन कौन बनावै,
कौन आप हलाहल पीकै औरहि सुधा पियावै।
तुम बिन काके कंठ कृपा की लखियत नील निसानी।।
कासी बीच मुक्ति-मुक्तमनि कौन लुटावत डोलै,
को पसुपति बिनु बंधे पसुन को पास कृपा करि खोलै।
स्रवन सुनाई कौन तारक मनु तारत अगनित प्रानी।।
जेहि मारत जग जेहि अहि गन कों प्यार करत तुम स्वामी,
लीजै सरन महेस ! कृपा करि, चरन नमामि नमामी।
तुम बिन को अपनावत मो सम कुटिल अधम अभिमानी।।

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