गर्भाशय की पीड़ा - ब्रह्म पुराण - विविध तापों का वर्णन (पृष्ठ - ४०२)
अत्यन्त मल से भरे हुए गर्भाशय में सुकुमार शरीरवाला जीव झिल्ली से लिप्त हुआ रहता है । उसकी पीठ और ग्रीवा की हड्डियां मुड़ी होती हैं । माता के खाये हुए अत्यन्त तापदायक और अधिक खट्टे, कड़वे, चरपरे, गर्म और खारे पदार्थों से कष्ट पाकर उसकी पीड़ा बहुत बढ़ जाती है । वह अपने अंगो को फ़ैलाने या सिकोड़ने में समर्थ नहीं होता । मल और मूत्र के महान पंक में उसे सोना पड़ता है, जिससे उसके सभी अंगों में पीड़ा होती है । चेतनायुक्त होने पर भी वह खुलकर सांस नहीं ले सकता । अपने कर्मो के बन्धन में बंधा हुआ वह जीव सैकड़ो जन्मों का स्मरण करता हुआ बड़े दुःख से गर्भ में रहता है । जन्म के समय उसका मुख मल-मूत्र, रक्त और वीर्य आदि में लिप्त रहता है । प्राजापत्य नामक वायु से उसकी हड्डियों के प्रत्येक जोड़ में बड़ी पीड़ा होती है । प्रबल प्रसूति वायु उसके मुंह को नीचे की ओर कर देती है और वह गर्भस्थ जीव अत्यन्त आतुर होकर बड़े क्लेश के साथ माता के उदर से बाहर निकल पाता है । मुनिवरों ! जन्म लेने के पश्चात बाह्य वायु का स्पर्श होने से अत्यन्त मूर्छा को प्राप्त होकर वह बालक अपनी सुध-बुध खो बैठता है । दुर्गन्धयुक्त फोड़े से पृथ्वी पर गिरे हुए कीड़े की भांति वह छटपटाता है । उस समय उसे ऐसी पीड़ा होती है, मानो उसके सारे अंगों में कांटे चुभो दिए गए हों अथवा वह आरे से चीरा जा रहा हो । उसे अपने अंगो को खुजलाने की भी शक्ति नहीं रहती । वह करवट बदलने में असमर्थ होता है । स्तन-पान आदि आहार भी उसे दूसरों की इच्छा से ही प्राप्त होता है । वह अपवित्र बिछौने पर पड़ा रहता है । उस समय उसे खटमल और डांस आदि काटते हैं तो भी वह उन्हें हटाने में समर्थ नहीं होता ।
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कर्म करो या कर्म का त्याग करो? - ब्रह्म पुराण - कर्म तथा ज्ञान का अन्तर (पृष्ठ - ४०९)
मुनि बोले: महर्षि ! अगर वेद की ऐसी आज्ञा है कि 'कर्म करो' तथा यह भी आदेश है कि 'कर्म का त्याग करो' तो यह बताइये कि मनुष्य ज्ञान के द्वारा कर्म त्याग देने पर किस गति को प्राप्त होते हैं तथा कर्म करने से उन्हें किस फल की प्राप्ति होती है ? इस बात को हम सुनना चाहते हैं, क्योंकि उक्त दोनों आज्ञाएं परस्पर विरुद्ध प्रतीत होती हैं ।
व्यासजी ने कहा: ब्राह्मणो ! ज्ञान से मनुष्य जिस गति को पाते हैं और कर्म से उन्हें जैसी गति मिलती है, उसका वर्णन सुनाता हूँ; सुनो । तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर गहन है । शास्त्र में दो मार्गों का वर्णन है - प्रवृत्ति धर्म और निवृत्ति धर्म । प्रवृत्ति मार्ग को 'कर्म' और निवृत्ति मार्ग को ज्ञान भी कहते हैं । कर्म(अविद्या)- से मनुष्य बन्धन में पड़ता है और ज्ञान से मुक्त हो जाता है; इसलिए पारदर्शी यति कर्म नहीं करते। कर्म से मरने के बाद जन्म लेना पड़ता है, सोलह तत्वों के बने हुए शरीर की प्राप्ति होती है । किन्तु ज्ञान से नित्य, अव्यक्त एवं अविनाशी परमात्मा प्राप्त होते हैं । कुछ मन्दबुद्धि मानव कर्म की प्रशंसा करते हैं, अतः वे भोगासक्त होकर बारम्बार देह के बन्धन में पड़ते हैं । परन्तु जो धर्म के तत्व को भलीभांति समझते हैं तथा जिन्हे उत्तम बुद्धि प्राप्त है, वे कर्म की उसी तरह प्रशंसा नहीं करते, जैसे नदी का पानी पीनेवाला मनुष्य कुएं का आदर नहीं करता । कर्म के फल मिलते हैं - सुख और दुःख, जन्म और मृत्यु । किन्तु ज्ञान से उस पद की प्राप्ति होती है, जहाँ जाकर मनुष्य सदा के लिए शोक से मुक्त हो जाता है । जहाँ जन्म, मृत्यु, जरा और वृद्धि स्पर्श नहीं करते, वह केवल अव्यक्त, अचल, ध्रुव, अव्याकृत एवं अमृतस्वरूप परब्रह्म की ही स्थिति है ।
त्रिविध ताप विविध तापों का वर्णन(पृष्ठ ४०९)
आध्यात्मिक ताप के भेद -
१) शारीरिक - शिरोरोग, प्रतिश्याय(पीनस), ज्वर, शूल, भगन्दर, गुल्म(पेट की गाँठ), अर्श(बवासीर), श्वयथु(सूजन), श्वास(दमा), छदि(वमन) आदि ।
२) मानसिक - काम, क्रोध, भय, द्वेष, लोभ, मोह, विषाद(चिन्ता), शोक, असूया(दोषदृष्टि), अपमान, ईर्ष्या, मात्सर्य तथा पराभव ।
आधिभौतिक ताप -
मृग, पक्षी, मनुष्य आदि तथा पिशाच, सर्प, राक्षस और बिच्छू आदि से मनुष्यों को जो पीड़ा होती है ।
आधिदैविक ताप -
शीत, उष्ण, वायु, वर्षा, जल और विद्युत् आदि से होने वाले संताप ।
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सत्व, रज और तम - ये तीनो गुण आपने कारणभूत प्रकृति से प्रकट हैं । वे सम्पूर्ण प्राणियों में समान भाव से स्थित हैं। उनके कार्यों द्वारा उनकी पहचान करनी चाहिए। जब अन्तः करण कुछ प्रीतियुक्त सा जान पड़े, अत्यन्त शांति का सा अनुभव हो, तब उसे सत्वगुण जानना चाहिए। जब शरीर और मन में कुछ सन्ताप का सा अनुभव हो, तब उसे रजोगुण की प्रवृत्ति मानना चाहिए । जब अन्तः करण में अव्यक्त, अतर्क्य और अज्ञेय मोह का संयोग होने लगे, तब उसे तमोगुण समझना चाहिए । जब अकस्मात् किसी कारणवश अत्यन्त हर्ष, प्रेम, आनन्द, समता और स्वस्थचित्त का विकास हो, तब उसे सात्विक गुण कहते हैं । अभिमान, असत्यभाषण, लोभ और असहनशीलता - ये रजोगुण के चिन्ह हैं । मोह, प्रमाद, निद्रा, आलस्य और अज्ञान आदि दुर्गुण जब किसी तरह प्रवृत्त हों तब उन्हें तमोगुण का कार्य जानना चाहिए।
जैसे जलचर पक्षी जल में विचरता हुआ भी उससे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार मुक्तात्मा योगी संसार में रहकर भी उसके गुण-दोषों से लिप्त नहीं होता। इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष विषयों में आसक्त न होने के कारण उनका उपभोग करते हुए भी उनके दोषों से लिप्त नहीं होता । जो सदा परमात्मा के चिन्तन में ही लगा रहता है, वह पूर्वकृत कर्मों के बन्धन से रहित हो सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मा हो जाता है और विषयों में कभी आसक्त नहीं होता । गुण आत्मा को नहीं जानते, किन्तु आत्मा उन्हें सदा जानता रहता है; क्योंकि वह गुणों का दृष्टा है। प्रकृति और आत्मा में यही अन्तर है । एक(प्रकृति) तो गुणों की सृष्टि करती है किन्तु दूसरा(आत्मा) ऐसा नहीं करता । वे दोनों स्वभावतः पृथक होते हुए भी एक दुसरे से संयुक्त हैं । जैसे पत्थर में सुवर्ण जड़ा होता है, जैसे गूलर और उसके कीड़े साथ साथ रहते हैं, जिस प्रकार मूँज में सींक होती है और ये सभी वस्तुएं पृथक होती हुई भी परस्पर संयुक्त रहती हैं, उसी प्रकार प्रकृति और पुरुष भी एक दुसरे से संयुक्त रहते हैं ।
प्रकृति गुणों की सृष्टि करती है और क्षेत्रज्ञ आत्मा उदासीन की भांति अलग रहकर समस्त विकारशील गुणों को देखा करता है । प्रकृति जो इन गुणों की सृष्टि करती है, वह सब उसका स्वाभाविक कर्म है । जैसे मकड़ी अपने शरीर से तन्तुओं की सृष्टि करती है, वैसे ही प्रकृति भी समस्त त्रिगुणात्मक पदार्थों को जन्म देती है । किन्ही का मत है कि जब तत्वज्ञान से गुणों को नाश कर दिया जाता है, तब वे फिर उत्पन्न नहीं होते , उनका सर्वथा बाध हो जाता है । क्योंकि फिर उनका कोई चिन्ह उपलब्ध नहीं होता । इस प्रकार वे भ्रम या अविद्या के निवारण को ही मुक्ति मानते हैं । दूसरों के मत में त्रिविध दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति ही मोक्ष है । इन दोनों मतों पर अपनी बुद्धि के अनुसार विचार करके सिद्धान्त का निश्चय करें ।
आत्मा आदि और अन्त से रहित है । उसे जानकर मनुष्य हर्ष और क्रोध को त्याग दे और मात्सर्यरहित होकर विचरण करे । जैसे तैरने की कला न जाननेवाले मनुष्य यदि भरी हुई नदी में कूद पड़ते हैं तो वे डूब जाते हैं, किन्तु जो तैरना जानते हैं, वे कष्ट में नहीं पड़ते, वे तो जल में भी स्थल की ही भाँति विचरते हैं, उसी प्रकार ज्ञान स्वरुप आत्मा को प्राप्त हुआ तत्व-वेत्ता पुरुष संसार-सागर से पार हो जाता है । जो सम्पूर्ण प्राणियों के आवागमन को जानकर सबके प्रति संभव रखते हुए बर्ताव करता है, वह उत्तम शांति को प्राप्त होता है । ब्राह्मण में इस ज्ञान को प्राप्त करने की सहज शक्ति होती है । मन और इन्द्रियों का संयम तथा आत्मा का ज्ञान - ये मोक्षप्राप्ति के लिए पर्याप्त साधन हैं । तत्व का ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य बुद्ध(ज्ञानी) हो जाता है । बुद्ध का इसके सिवा और क्या लक्षण हो सकता है । बुद्धिमान मनुष्य इस आत्मतत्व को जानकर कृतकृत्य हो संसार-बन्धन से मुक्त हो जाते हैं । अज्ञानी पुरुषों को परलोक में जो महान भय प्राप्त होता है, वह ज्ञानी को नहीं होता। ज्ञानी पुरुषों को जो सनातन गति प्राप्त होती है, उससे बढ़कर दूसरी कोई गति नहीं है।
मृत्युकाल के क्लेश - ब्रह्म पुराण - (पृष्ठ - ४०3)
व्यासजी ने कहा: ब्राह्मणो ! ज्ञान से मनुष्य जिस गति को पाते हैं और कर्म से उन्हें जैसी गति मिलती है, उसका वर्णन सुनाता हूँ; सुनो । तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर गहन है । शास्त्र में दो मार्गों का वर्णन है - प्रवृत्ति धर्म और निवृत्ति धर्म । प्रवृत्ति मार्ग को 'कर्म' और निवृत्ति मार्ग को ज्ञान भी कहते हैं । कर्म(अविद्या)- से मनुष्य बन्धन में पड़ता है और ज्ञान से मुक्त हो जाता है; इसलिए पारदर्शी यति कर्म नहीं करते। कर्म से मरने के बाद जन्म लेना पड़ता है, सोलह तत्वों के बने हुए शरीर की प्राप्ति होती है । किन्तु ज्ञान से नित्य, अव्यक्त एवं अविनाशी परमात्मा प्राप्त होते हैं । कुछ मन्दबुद्धि मानव कर्म की प्रशंसा करते हैं, अतः वे भोगासक्त होकर बारम्बार देह के बन्धन में पड़ते हैं । परन्तु जो धर्म के तत्व को भलीभांति समझते हैं तथा जिन्हे उत्तम बुद्धि प्राप्त है, वे कर्म की उसी तरह प्रशंसा नहीं करते, जैसे नदी का पानी पीनेवाला मनुष्य कुएं का आदर नहीं करता । कर्म के फल मिलते हैं - सुख और दुःख, जन्म और मृत्यु । किन्तु ज्ञान से उस पद की प्राप्ति होती है, जहाँ जाकर मनुष्य सदा के लिए शोक से मुक्त हो जाता है । जहाँ जन्म, मृत्यु, जरा और वृद्धि स्पर्श नहीं करते, वह केवल अव्यक्त, अचल, ध्रुव, अव्याकृत एवं अमृतस्वरूप परब्रह्म की ही स्थिति है ।
त्रिविध ताप विविध तापों का वर्णन(पृष्ठ ४०९)
आध्यात्मिक ताप के भेद -
१) शारीरिक - शिरोरोग, प्रतिश्याय(पीनस), ज्वर, शूल, भगन्दर, गुल्म(पेट की गाँठ), अर्श(बवासीर), श्वयथु(सूजन), श्वास(दमा), छदि(वमन) आदि ।
२) मानसिक - काम, क्रोध, भय, द्वेष, लोभ, मोह, विषाद(चिन्ता), शोक, असूया(दोषदृष्टि), अपमान, ईर्ष्या, मात्सर्य तथा पराभव ।
आधिभौतिक ताप -
मृग, पक्षी, मनुष्य आदि तथा पिशाच, सर्प, राक्षस और बिच्छू आदि से मनुष्यों को जो पीड़ा होती है ।
आधिदैविक ताप -
शीत, उष्ण, वायु, वर्षा, जल और विद्युत् आदि से होने वाले संताप ।
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सत्व, रज और तम - ये तीनो गुण आपने कारणभूत प्रकृति से प्रकट हैं । वे सम्पूर्ण प्राणियों में समान भाव से स्थित हैं। उनके कार्यों द्वारा उनकी पहचान करनी चाहिए। जब अन्तः करण कुछ प्रीतियुक्त सा जान पड़े, अत्यन्त शांति का सा अनुभव हो, तब उसे सत्वगुण जानना चाहिए। जब शरीर और मन में कुछ सन्ताप का सा अनुभव हो, तब उसे रजोगुण की प्रवृत्ति मानना चाहिए । जब अन्तः करण में अव्यक्त, अतर्क्य और अज्ञेय मोह का संयोग होने लगे, तब उसे तमोगुण समझना चाहिए । जब अकस्मात् किसी कारणवश अत्यन्त हर्ष, प्रेम, आनन्द, समता और स्वस्थचित्त का विकास हो, तब उसे सात्विक गुण कहते हैं । अभिमान, असत्यभाषण, लोभ और असहनशीलता - ये रजोगुण के चिन्ह हैं । मोह, प्रमाद, निद्रा, आलस्य और अज्ञान आदि दुर्गुण जब किसी तरह प्रवृत्त हों तब उन्हें तमोगुण का कार्य जानना चाहिए।
जैसे जलचर पक्षी जल में विचरता हुआ भी उससे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार मुक्तात्मा योगी संसार में रहकर भी उसके गुण-दोषों से लिप्त नहीं होता। इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष विषयों में आसक्त न होने के कारण उनका उपभोग करते हुए भी उनके दोषों से लिप्त नहीं होता । जो सदा परमात्मा के चिन्तन में ही लगा रहता है, वह पूर्वकृत कर्मों के बन्धन से रहित हो सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मा हो जाता है और विषयों में कभी आसक्त नहीं होता । गुण आत्मा को नहीं जानते, किन्तु आत्मा उन्हें सदा जानता रहता है; क्योंकि वह गुणों का दृष्टा है। प्रकृति और आत्मा में यही अन्तर है । एक(प्रकृति) तो गुणों की सृष्टि करती है किन्तु दूसरा(आत्मा) ऐसा नहीं करता । वे दोनों स्वभावतः पृथक होते हुए भी एक दुसरे से संयुक्त हैं । जैसे पत्थर में सुवर्ण जड़ा होता है, जैसे गूलर और उसके कीड़े साथ साथ रहते हैं, जिस प्रकार मूँज में सींक होती है और ये सभी वस्तुएं पृथक होती हुई भी परस्पर संयुक्त रहती हैं, उसी प्रकार प्रकृति और पुरुष भी एक दुसरे से संयुक्त रहते हैं ।
प्रकृति गुणों की सृष्टि करती है और क्षेत्रज्ञ आत्मा उदासीन की भांति अलग रहकर समस्त विकारशील गुणों को देखा करता है । प्रकृति जो इन गुणों की सृष्टि करती है, वह सब उसका स्वाभाविक कर्म है । जैसे मकड़ी अपने शरीर से तन्तुओं की सृष्टि करती है, वैसे ही प्रकृति भी समस्त त्रिगुणात्मक पदार्थों को जन्म देती है । किन्ही का मत है कि जब तत्वज्ञान से गुणों को नाश कर दिया जाता है, तब वे फिर उत्पन्न नहीं होते , उनका सर्वथा बाध हो जाता है । क्योंकि फिर उनका कोई चिन्ह उपलब्ध नहीं होता । इस प्रकार वे भ्रम या अविद्या के निवारण को ही मुक्ति मानते हैं । दूसरों के मत में त्रिविध दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति ही मोक्ष है । इन दोनों मतों पर अपनी बुद्धि के अनुसार विचार करके सिद्धान्त का निश्चय करें ।
आत्मा आदि और अन्त से रहित है । उसे जानकर मनुष्य हर्ष और क्रोध को त्याग दे और मात्सर्यरहित होकर विचरण करे । जैसे तैरने की कला न जाननेवाले मनुष्य यदि भरी हुई नदी में कूद पड़ते हैं तो वे डूब जाते हैं, किन्तु जो तैरना जानते हैं, वे कष्ट में नहीं पड़ते, वे तो जल में भी स्थल की ही भाँति विचरते हैं, उसी प्रकार ज्ञान स्वरुप आत्मा को प्राप्त हुआ तत्व-वेत्ता पुरुष संसार-सागर से पार हो जाता है । जो सम्पूर्ण प्राणियों के आवागमन को जानकर सबके प्रति संभव रखते हुए बर्ताव करता है, वह उत्तम शांति को प्राप्त होता है । ब्राह्मण में इस ज्ञान को प्राप्त करने की सहज शक्ति होती है । मन और इन्द्रियों का संयम तथा आत्मा का ज्ञान - ये मोक्षप्राप्ति के लिए पर्याप्त साधन हैं । तत्व का ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य बुद्ध(ज्ञानी) हो जाता है । बुद्ध का इसके सिवा और क्या लक्षण हो सकता है । बुद्धिमान मनुष्य इस आत्मतत्व को जानकर कृतकृत्य हो संसार-बन्धन से मुक्त हो जाते हैं । अज्ञानी पुरुषों को परलोक में जो महान भय प्राप्त होता है, वह ज्ञानी को नहीं होता। ज्ञानी पुरुषों को जो सनातन गति प्राप्त होती है, उससे बढ़कर दूसरी कोई गति नहीं है।
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