योगसूत्र व्याख्या सूत्र संख्या १ से ४ तक { समाधि पाद }
योग को समाधि कहते हैं यद्यपि समाधि योग का अङ्ग है योग का फल नहीं। योग का अन्तिम तात्पर्य, परिणाम उसका फल तो सत्वान्यताख्याति अथवा पुरुषाख्याति, प्रकृति-पुरुष का विवेक होकर के पुरुष में ???(1 -19) में आपत्ति योग का फल है। लेकिन जब तक चित्त समाहित नहीं होता, समाधिष्ठ नहीं होता तब तक इस भूमिका को प्राप्त नहीं किया जा सकता। 'युज् संयोजने' और 'युज् समाधौ' - इन दो धातुओं से योग शब्द की निष्पत्ति होती है। "संयोगोयोग इत्युक्तो जीवात्मपरमात्मनो:" - जीवात्मा का परमात्मा से संयोग, यही योग है। "समाधिसमतावस्था जीवात्मपरमात्मनो: ब्रह्मण्येवस्थितरियासासमाधि: प्रत्यकात्मानः" - जब जीवात्मा और परमात्मा एक सम अवस्था में अवस्थित हो जाएँ अर्थात प्रत्यकात्मा की ब्रह्म में सम्यक स्थिति हो जाए उसी का नाम समाधि है। इस प्रकार सभी व्याख्याकारों ने मुख्यतः व्यास जी ने यहाँ पर योग का अर्थ समाधि में ही लिया है और समाधि सारी भूमियों में सारी अवस्थाओं में चित्त का धर्म है। वह तीन भूमियों में, तीन अवस्थाओं में दबा रहता है और केवल दो भूमियों में प्रकट होता है। चित्त की पांच भूमियां है, पांच अवस्थाएं हैं - क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध - इनका विस्तारपूर्वक वर्णन आगे किया जाएगा। इनमें से अत्यन्त चञ्चल चित्त को क्षिप्त, जैसे किसी शान्त सरोवर में किसी ने ढेला डाल दिया अथवा चित्त की जो stressed अवस्था है अनेक इच्छाओं को एक साथ पूरा करना चाहता है, उसको क्षिप्त अवस्था कहते हैं। दूसरी है मूढ़ अवस्था, इसमें निद्रा, तन्द्रा और आलस्य आदि से युक्त जो चित्त है इसको मूढ़ कहते हैं। क्षिप्त से जो श्रेष्ठ चित्त है अर्थात जिसमें कभी कभी स्थिरता होती है ऐसे चित्त को विक्षिप्त चित्त कहा जाता है - विशेष रूप से क्षिप्त। वि - उपसर्ग है, इसका अर्थ विगत, विरुद्ध, विपरीत और विशेष, इस प्रकार से इस उपसर्ग के अर्थ होते हैं - "विगतः क्षिप्तत्वं तस्मात्" अथवा "क्षिप्तत्वेन: विपरीतम्" । ऐसा जो चित्त है, उसको विक्षिप्त चित्त कहेंगे। इस अवस्था में कुछ कुछ स्थिरता रहती है। क्षिप्त और मूढ़ चित्त में तो योग की गन्ध भी नहीं होती और विक्षिप्त चित्त में जो कभी कभी क्षणिक स्थिरता होती है उसकी भी योगपक्ष में गिनती नहीं है क्योंकि यह स्थिरता दीर्घकाल तक स्थिर नहीं रहने पाती, शीघ्र ही प्रबल चञ्चलता से नष्ट हो जाती है इसलिए विक्षिप्त भूमि भी योगरूप नहीं है। जिसका एक ही अग्र्विषय हो अर्थात एक ही विषय में विलक्षण वृत्ति के व्यवधान से रहित, बीच बीच में कोई दूसरी बात न आ जाये, ऐसे जो वृत्तियों का जो प्रवाह होता है उसको एकाग्रचित्त कहते हैं। ऐसी एकाग्रता नृत्य में भी हो जाती है, गायन, वादन में भी हो जाती है इष्टपदार्थ के भोजन में भी हो जाती है, इष्टमित्र के संयोग में भी ऐसी एकाग्रता हो जाती है। यह 'एकाग्र' नाम वाली जो चित्त की वृत्ति है अथवा अवस्था है, ये अपने आत्मा के सत्स्वरूप को प्रकाशित करने में और क्लेशों का नाश करने में, बन्धन को ढीला करने में और निरोधवृत्ति के प्रति अभिमुख करने में ये सहायक होती है। इसी एकाग्रवृत्ति में सम्प्रज्ञात समाधि अथवा सम्प्रज्ञानात योग प्राप्त होता है। इसके चार भेद हैं - वितर्कानुगत, विचारानुगत, आनन्दानुगत और अस्मितानुगत। ये सब विषय आगे आएंगे। इसके बाद जब सारी वृत्तियों का निरोध हो जाता है उस - सर्ववृत्ति निरोधस्वरुप - जो चित्त की वृत्ति है उस निरुद्ध चित्त में असम्प्रज्ञात समाधि घटित होती है, उसी को असम्प्रज्ञात योग कहते हैं। इस समाधि अवस्था को प्राप्त करने के लिए महर्षि पतञ्जलि ने आठ साधन बताये हैं , वो योग के आठ अंग कहे जाते हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि - ये आठ अंग हैं। योग के आदिवक्ता हिरण्यगर्भ हैं - हिरण्यगर्भोयोगस्यवक्तानान्यः पुरातनः। सांख्यस्य वक्ता कपिलः परमऋषि: स उच्यते। हिरण्यगर्भोयोगस्यवक्तानान्यः पुरातनः इदं हि योगेश्वर योगनेपुणं, हिरण्यगर्भो भगवाञजगाद् यत्। यह वचन, याज्ञवल्क्य स्मृति, महाभारत और श्रीमद्भागवत से लिए हैं।
ऋग्वेद में भी कहा है -
हिरण्यगर्भ: समवर्तताग्रे भूतस्य जात: पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमां कस्मै देवाय हविषा विधेम।।
और यहाँ पर 'कस्मै' शब्द का अर्थ 'एकस्मै' ले लेना चाहिए, ये वहां पर ??अध्यार्थ??(7.13) कर लेना चाहिए। वह एक ही देव है जिसने 'द्यौ' व 'पृथ्वी' को धारण किया हुआ है।
अथ य एषोऽन्तरादित्ये हिरण्मयः पुरुषो दृश्यते हिरण्यश्मश्रुर्हिरण्यकेश आप्रणखात्सर्व एव सुवर्णः। - छान्दोग्य उपनिषद्
हिरण्यगर्भो द्युतिमान य एषच्छन्दशि स्तुतः।
योगै: सम्पुज्यते नित्यं स च लोके विभु: स्मृतः।।
- महाभारत
हिरण्यगर्भो भगवान् एष बुद्धिरिति स्मृत:।
महानिति च योगेषु विरंचिरित्ति चाप्यजः।।
हिरण्यगर्भो जगदन्तरात्मा - अद्भुत रामायण
इस प्रकार ये हिरण्यगर्भ भगवान् ही योग के और वेदों के आदि-प्रवक्ता हैं, इन्होने कहा है -
तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम्।
अप्रमत्तस्तदा भवति योगो हि प्रभवाप्ययौ।।
अर्थात जब पाँचों ज्ञानेन्द्रियाँ जब मन के साथ स्थिर हो जाती हैं प्रत्याहार के द्वारा अन्तर्मुख हो जाती हैं और बुद्धि भी चेष्टा रहित हो जाती है, चित्त की सब वृत्तियों का निरोध हो जाता है, तब उसको परम गति - सबसे ऊंची अवस्था कहते हैं, उसी को योग मानते हैं। जो इन्द्रियों की निश्चल धारणा है, शरीर स्थिर, प्राण स्थिर, मन स्थिर, इन्द्रियां स्थिर उस समय वह योगी प्रमाद से अपने स्वरुप को भूला हुआ जो वृत्ति-सारूप्य प्रतीत हो रहा था, उससे रहित हो जाता है अर्थात शुद्ध परमतम भाव में अवस्थित हो जाता है क्योंकि योग, प्रभाव और अप्यय निरोध के संस्कारों के प्रादुर्भाव अर्थात प्रकट होने और व्युत्थान के संस्कारों के अभिभव अर्थात दबने का जो स्थान है, जहाँ व्युत्थान नहीं होता और निरोध की अवस्था स्थिर रहती है, उसी को योग कहते हैं। गीता में भी भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा है -
योगी युञ्जीत सततमात्मानं रहसि स्थित।
एकाकी यत चित्तात्मा निराशीरपरिग्रह।।
योगी अकेला एकान्त स्थान में बैठकर, एकाग्रचित्त होकर, आशा और सङ्ग्रह को त्यागकर निरन्तर आत्मा को परमात्मा के साथ जोड़े
शुचौ देशे प्रतिष्ठाप्य स्थिरमासनमात्मन।
नात्युच्छ्रितं नातिनीचं चैलाजिनकुशोत्तरम।।
तत्रैकाग्रं मनः कृत्वा यतचित्तेन्द्रियक्रियः।
उपविश्यासने युञ्ज्याद्योगमात्मविशुद्धय।।
वह योगी पवित्र स्थान में जो अति ऊंचा भी न हो, अति नीचे भी न हो, कुश का आसन और वस्त्र को बिछाकर, कुशासन पर एकाग्र मन से बैठकर इन्द्रियों और चित्त को वश करके आत्मशुद्धि के लिए योगाभ्यास कर।
समं काय शिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिर।
संप्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन।।
सर गर्दन और धड़ एक सीध में, अचल और स्थिर करके, स्थिर रहे हुए, इधर उधर न देखता हुआ, नासिका के अग्रभाग में दृष्टी रख। नासिका का अग्रभाग माने, नासिका का मूल जहाँ पर है अर्थात आज्ञाचक्र में, वृत्ति को स्थिर करे। थोड़ा सा अधखुली आँखों से, थोड़ा ऊपर देखते हुए शाम्भवी मुद्रा में जल्दी एकाग्रता आ जाती है।
प्रशान्तात्मा विगतभीः ब्रह्मचारिव्रते स्थितः।
मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्पर:।।
और शान्तचित्त होकर निर्भय होकर, ब्रह्मचर्य व्रत में स्थित होकर, मन का संयम करके मुझ परमात्मा में परायण हुआ, योगयुक्त हो गए।
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानस।
शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छत।।
इस प्रकार निरन्तर अपने आप को योग में लगाए हुए तथा मन को निग्रह किये हुए योगी, मुझ परमात्मा में स्थित रहने वाली तथा परम निर्वाण को देनेवाली शान्ति को प्राप्त होता है।
तपस्विभ्योऽधिको योगी ज्ञानिभ्योऽपि मतोऽधिक।
कर्मिभ्यश्चाधिको योगी तस्माद्योगी भवार्जु।।
योगी तपस्वियों में श्रेष्ठ है, शास्त्रों को जानने वाले ज्ञानियों में भी श्रेष्ठ माना गया है तथा कर्मकाण्डियों में भी श्रेष्ठ है इसलिए हे अर्जुन ! तू योगी बन।
प्रयाणकाले मनसाचले न भक्त्यायुक्तो योगबलेनचै।
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्यक् स तं परं पुरुषमुपैितिदव्यम्।।
वह भक्तियुक्त चित्त वाला पुरुष अंतकाल में भी योगबल से भृकुटि के मध्य में प्राण को अच्छी तरह से स्थापन करके फिर निश्चल मन से स्मरण करता हुआ उस दिव्य स्वरुप, परम पुरुष, परमात्मा को ही प्राप्त होता है।
सर्वद्वाराणि संयम्य मनो हृदि निरुध्य च।
मूर्ध्न्याधायात्मनः प्राणमास्थितो योगधारणाम।।
हे अर्जुन ! सब इन्द्रियों के द्वारों को रोककर अर्थात इन्द्रियों को विषयों से हटाकर तथा मन को हृद्देश में स्थित करके और प्राण को अपने ब्रह्मरन्ध्र में स्थापन करके योगधारणा में स्थिर होकर -
ॐ इत्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम।।
जो पुरुष (ॐ) ऐसे, इस एक अक्षर रूप ब्रह्म का उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थस्वरूप मेरे को, परमात्मा का चिन्तन करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह पुरुष परमगति को प्राप्त होता है। इन श्लोकों का तात्पर्य है कि ह्रदय बहुत सी नाड़ियों का केन्द्रस्थान है वहां से एक नाड़ी ब्रह्मरन्ध्र की तरफ जाती है। जैसा कि श्रुति बतलाती है -
शतं चैका च हृदयस्य नाड्यस्तासां मूर्धानमभिनिःसृतैक।
तयोर्ध्वमायन्नमृतत्वमेति विश्वङ्ङन्या उत्क्रमणे भवन्त।।
एक सौ एक ह्रदय की नाड़ियां हैं उनमें से एक, 'सुषुम्ना' नाम वाली नाड़ी मूर्धा की ओर निकलती है उस नाड़ी से ऊपर चढ़ता हुआ योगी अमृतत्व, ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है। दूसरी नाड़ियां निकलने में भिन्न-भिन्न गति देने वाली होती हैं। जो योगी प्रत्याहार द्वारा मन को ह्रदय में स्थिर करके, पूरे मनोबल से, सारे प्राण को उस मुख्य नाड़ी से, प्राण को ब्रह्मरन्ध्र में ले जाता है और वहां योगधारणा का आश्रय किये हुए 'ॐ' का जाप करता हुआ और उसके अर्थभूत ईश्वर का चिन्तन करता हुआ शरीर त्यागता है वह परमगति को प्राप्त होता है, किन्तु इस प्रक्रिया को अन्तसमय वही कर सकता है जिसने जीवनकाल में इसका अच्छी प्रकार अभ्यास कर लिया हो। योगदर्शन का परम प्रयोजन स्वरूप स्थिति है, इसको अत्यन्त सुगमता से, सरलता से नियम तथा ज्ञानपूर्वक इसको क्रियात्मक रूप कैसे दिया जाए इसका सुन्दरतम वर्णन योगदर्शन में किया गया है। साधनों के भेद से योग को राजयोग, ध्यानयोग, ज्ञानयोग, सांख्ययोग, कर्मयोग, निष्काम कर्मयोग, अनासक्ति योग, भक्तियोग, हठयोग, लययोग इत्यादि श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है। इस दर्शन का मुख्य विषय राजयोग अर्थात ध्यानयोग है पर उपर्युक्त सब प्रकार के योग इसके ही अन्तर्गत हैं।
केवलं राजयोगाय हठविद्योपदिश्यते।
केवल राजयोग के लिए ही हठविद्या का उपदेश किया जाता है।
हकारः कीर्तितः सूर्यष्ठकारश्चंद्र उच्यते सूर्यचंद्रमसोर्योगाद्धठयोग निगद्यते।
सूर्य - पिङ्गला नाड़ी अथवा दाहिनी नासिका अथवा प्राणवायु इसको ह-कार कहते हैं और चन्द्र - इड़ा नाड़ी अथवा अपान वायु और बायीं नासिका, इसको ठ-कार कहते हैं। ह-कार सूर्य, ठ-कार चन्द्रमा। इन सूर्य और चन्द्र अर्थात पिङ्गला और इड़ा नाड़ियों से बहने वाला जो प्राण का प्रवाह है अथवा प्राण और अपान वायु को मिलाने का नाम हठयोग है।
स्पर्शान्कृत्वा बहिर्बाह्यांश्चक्षुश्चैवान्तरे भ्रुवोः।
प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ।।
अपाने जुह्वति प्राण प्राणेऽपानं तथाऽपरे।
प्राणापानगती रुद्ध्वा प्राणायामपरायणाः।।
इस प्रकार प्राणायाम और प्रत्याहार से मनोवृत्तियों को एकाग्र और निरुद्ध दशा की तरफ आगे बढ़ाया जा सकता है। यम और नियम, ये न केवल व्यक्तिगत रूप से, विशेषतया योगियों के लिए बल्कि सामान्य रूप से सभी वर्णों, आश्रमों तथा मत-मतान्तरों, जातियों, देशों और समस्त मनुष्य समाज के लिए माननीय हैं, मुख्य कर्तव्य हैं, परम धर्म हैं। इस प्रकार इस पातञ्जलि योगदर्शन में सब प्रकार के योगों का समावेश हो गया है।
चित्त की वृत्तियों को रोकना, यही योग है। निरोध अर्थात रोकना। जो बहिर्मुख वृत्तियाँ हैं जो संसार की तरफ, जो बाह्य विषयों की तरफ जा रही हैं, वहां से उनको लौटकर, उलटाकर, अन्तर्मुख करके अपने चित्त में लीन कर लेना, यही योग है। ऐसा यह निरोध सब चित्त की भूमियों में, सब प्राणियों का धर्म है जो कभी किसी के चित्त में प्रकट हो जाता है प्रायः यह चित्तों में छिपा हुआ ही रहता है अर्थात चित्त से तमरूपी मल का जो आवरण है उसको हटाकर और राजस की जो विक्षेपरूप चञ्चलता है उससे निवृत्त होकर सत्व के प्रकाश में जो एकाग्र वृत्ति से रहे उसको योग समझना चाहिए। सारी सृष्टि, सत्व, रजस और तमस, इन तीन गुणों का ही परिणाम रूप है। एक धर्म, आकार अथवा रूप को छोड़कर, धर्मान्तर के ग्रहण अर्थात दुसरे धर्म, आकार अथवा रूप के धारण करने को परिणाम कहते हैं। चित्त इन गुणों का सबसे प्रथम सत्व प्रधान परिणाम है इसीलिए इसको चित्तसत्व भी कहते हैं, यह इसका अपना व्यापक स्वरुप है। यह सारा स्थूल जगत जिसमें हमारा व्यवहार चल रहा है। रज तथा तम प्रधान गुणों का परिणाम है। बाह्य जगत के रज और तम प्रधान पदार्थों और विषयों से जब इस चित्त का संपर्क होता है तो उसको चित्तवृत्ति कहते हैं। विषय को और स्पष्ट रूप से समझना चाहिए, मानो चित्त एक अगाध, परिपूर्ण सागर का जल है। जिस प्रकार पृथ्वी के सम्बन्ध से खाड़ी, झील, तलाव, कुआं, सरोवर इत्यादि अनेक प्रकार के परिणाम को जल प्राप्त हो जाता है इसी प्रकार चित्त अपने अन्तर में राग, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय इत्यादि आकारों को धारण कर लेता है और जिस प्रकार वायु आदि के वेग से जल में तरंगे उठती हैं इसी प्रकार चित्त, इन्द्रियों द्वारा बाह्य विषयों से आकर्षित होकर उनके जैसे ही आकारों के रूप में परिणित हो जाता है - यह सब चित्त की वृत्तियाँ कहलाती हैं जो कि अनन्त है और प्रतिक्षण उदय होती रहती हैं जैसे जल, वायु आदि के अभाव में तरंग आदि आकारों को परिणामों को त्याग कर अपने ही स्वभाव में, शान्त स्वभाव में अवस्थित हो जाता है वैसे ही जब चित्त, बाह्य तथा आभ्यन्तर विषयाकार परिणाम को त्यागकर अपने स्वरुप में अवस्थित हो जाता है तब उसको चित्तवृत्ति निरोध कहते हैं। ये वृत्तियाँ रजोगुणी, तमोगुणी और सतोगुणी होती हैं। जब उसमें रजोगुण और तमोगुण, इन दोनों का मेल होता है तब ऐश्वर्य और विषय प्रिय लगते हैं। जब यह तमोगुण से युक्त होता है तब अधर्म, अज्ञान, अवैराग्य, अनीश्वरी को प्राप्त होता है। वही चित्त जब तमोगुण के नष्ट होने पर रजोगुण के अंश से युक्त होता है तब धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐस्वर्य को प्राप्त होता है। वही चित्त जब रजोगुण के लेशमात्र मल से भी रहित होता है तब वह अपने स्वरुप में स्थिर होता है, प्रतिष्ठित कहलाता है। तब चित्त, सत्व और पुरुष की भिन्नता का ज्ञान होता है जिसको विवेक-ख्याति अथवा भेदज्ञान कहते हैं। विवेकख्याति के परिपक्व होने पर धर्म-मेघ समाधि की अवस्था प्राप्त होती है अर्थात वहां धर्म बरसता है, ब्रह्मानन्द अपना आत्मानन्द अपना स्वरुप है उसमें वो सराबोर हो जाता है। इस प्रकार चित्त से पुरुष का भिन्न देखना विवेकख्याति कहलाती है।
तदा दृष्टस्वरूपे अवस्थानम् - क्योंकि इसमें कोई सांसारिक, प्राकर्तिक विषय नहीं रह जाता और जब अविवेक की अवस्था होती है अर्थात जब विवेक नहीं होता है उस समय यह चित्त अपनी स्वाभाविक पांच अवस्थाओं में रहता है उनके नाम पहले गिनाये थे - मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र और निरुद्ध।
मूढ़ अवस्था तम-प्रधान और सत्व वहां पर गौण होते हैं अर्थात दबे हुए होते हैं, तमोगुण की प्रधानता होती है इसलिए निद्रा, तन्द्रा, मोह, भय, आलस्य, दीनता, भ्रम इत्यादि इसके गुण है।
दूसरी अवस्था है क्षिप्त अवस्था - इसमें रजोगुण प्रधान होता है तथा तम और सत्वगुण गौण होते हैं। दुःख, चञ्चलता, चिन्ता, शोक और संसार के कामों में प्रवृत्ति, अज्ञान, अधर्म, राग, अनैश्वर्य, ज्ञान, धर्म, ज्ञान, वैराग्य और ऐश्वर्य इन सबमें मिली-जुली प्रवृत्ति इस क्षिप्त अवस्था में होती है। कभी धर्म का विचार करता है कभी अधर्म का विचार करता है।
तीसरी अवस्था है विक्षिप्त अवस्था - यह सत्व प्रधान है, इसमें रज और तमोगुण गौण हैं, दबे हुए रहते हैं। इस अवस्था में सुख, प्रसन्नता, क्षमा, श्रद्धा, धैर्य, चैतन्यता, उत्साह, वीर्य, दान और दया और विशेषकर के ज्ञान, धर्म, वैराग्य और ऐस्वर्य की वृत्तियों की प्रबलता रहती है।
चौथी अवस्था है एकाग्र अवस्था - इस अवस्था में भी सत्व गुण ही प्रधान रहता है, रज और तम, ये नाममात्र के लिए रहते हैं। इस अवस्था में वास्तु का यथार्थ ज्ञान होता है। इस अवस्था में तटस्थता आती है। यह इष्ट अवस्था है, प्राप्त करने जैसी स्थिति है।
और अगली है पांचवीं निरुद्ध अवस्था - ये तीनों गुणों से बाहर है। यहाँ सारे चित्त के परिणाम बन्द हो जाते हैं केवल संसार शेष रहते हैं। इसी अवस्था में दृष्टा की स्वरुपस्थिति होती है। यह ऊंचे योगियों की स्थिति है। जब चित्त की वृत्तियों का सम्पूर्णतया निरोध हो जाता है तो -
दृश्यस्वरूपे अवस्थानं - तदा मने तब ऐसी स्थिति में वह अपने स्वरुप में स्थित हो जाता है और यदि नहीं होता तो -
वृत्तिसारूप्य मितरत्र - वृत्ति की ही समानरूपता को धारण कर लेता है। अब ये वृत्तियाँ पांच प्रकार की होती है। पतञ्जलि ने वृत्तियों का विभाग किया है, पांच में उनको बाँट दिया है। वो कौन कौन से होती हैं यह अगले प्रकरण में विचार करेंगे।
धन्यवाद!