Wednesday, October 8, 2014

छन्द

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छन्द शब्द मूल रूप से छन्दस् अथवा छन्दः है । इसके शाब्दिक अर्थ दो है – ‘आच्छादित कर देने वाला’ और ‘आनन्द देने वाला’ । लय और ताल से युक्त ध्वनि मनुष्य के हृदय पर प्रभाव डाल कर उसे एक विषय में स्थिर कर देती है और मनुष्य उससे प्राप्त आनन्द में डूब जाता है । यही कारण है कि लय और ताल वाली रचना छन्द कहलाती है. इसका दूसरा नाम वृत्त है । वृत्त का अर्थ है प्रभावशाली रचना । वृत्त भी छन्द को इसलिए कहते हैं, क्यों कि अर्थ जाने बिना भी सुनने वाला इसकी स्वर-लहरी से प्रभावित हो जाता है । यही कारण है कि सभी वेद छन्द-रचना में ही संसार में प्रकट हुए थे ।

छन्‍द के भेद

छन्द मुख्यतः दो प्रकार के हैं: 1) मात्रिक और 2) वार्णिक

1) मात्रिक छन्द: मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गिनती की जाती है ।
2) वार्णिक छन्दों में वर्णों की संख्या निश्चित होती है और इनमें लघु और दीर्घ का क्रम भी निश्चित होता है, जब कि मात्रिक छन्दों में इस क्रम का होना अनिवार्य नहीं है । मात्रा और वर्ण किसे कहते हैं, इन्हें समझिए:

मात्रा:
ह्रस्व स्वर जैसे ‘अ’ की एक मात्रा और दीर्घस्वर की दो मात्राएँ मानी जाती है । यदि ह्रस्व स्वर के बाद संयुक्त वर्ण, अनुस्वार अथवा विसर्ग हो तब ह्रस्व स्वर की दो मात्राएँ मानी जाती है । पाद का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पडने पर गुरु मान लिया जाता है । ह्रस्व मात्रा का चिह्न ‘ ।‘  है और दीर्घ का ‘=‘ है ।
जैसे ‘सत्याग्रह’ शब्द में कितनी मात्राएँ हैं, इसे हम इस प्रकार समझेंगे:
= = । ।
सत्याग्रह = 6 मात्राएँ

इस प्रकार हमें पता चल गया कि इस शब्द में छह मात्राएँ हैं । स्वरहीन व्यंजनों की पृथक् मात्रा नहीं गिनी जाती ।

वर्ण या अक्षर:
ह्रस्व मात्रा वाला वर्ण लघु और दीर्घ मात्रा वाला वर्ण गुरु कहलाता है । यहाँ भी ‘सत्याग्रह’ वाला नियम समझ लेना चाहिए ।

चरण अथवा पाद:
‘पाद’ का अर्थ है चतुर्थांश, और ‘चरण’ उसका पर्यायवाची शब्द है । प्रत्येक छन्द के प्रायः चार चरण या पाद होते हैं ।
  • सम और विषमपाद: 
पहला और तीसरा चरण विषमपाद कहलाते हैं और दूसरा तथा चौथा चरण समपाद कहलाता है । सम छन्दों में सभी चरणों की मात्राएँ या वर्ण बराबर और एक क्रम में होती हैं और विषम छन्दों में विषम चरणों की मात्राओं या वर्णों की संख्या और क्रम भिन्न तथा सम चरणों की भिन्न होती हैं ।
यति:
हम किसी पद्य को गाते हुए जिस स्थान पर रुकते हैं, उसे यति या विराम कहते हैं । प्रायः प्रत्येक छन्द के पाद के अन्त में तो यति होती ही है, बीच बीच में भी उसका स्थान निश्चित होता है । प्रत्येक छन्द की यति भिन्न भिन्न मात्राओं या वर्णों के बाद प्रायः होती है ।

छन्‍द के प्रकार

छन्‍द तीन प्रकार के होते है।

वर्णिक छंद (या वृत) - जिस छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या समान हो।
मात्रिक छंद (या जाति) - जिस छंद के सभी चरणों में मात्राओं की संख्या समान हो।
मुक्त छंद - जिस छंद में वर्णिक या मात्रिक प्रतिबंध न हो।

वर्णिक छंद
वर्णिक छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या समान रहती है और लघु-गुरु का क्रम समान रहता है।

वर्णिक छन्दों में वर्ण गणों के हिसाब से रखे जाते हैं । तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं । इन गणों के नाम हैं: यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण । अकेले लघु को ‘ल’ और गुरु को ‘ग’ कहते हैं । किस गण में लघु-गुरु का क्या क्रम है, यह जानने के लिए यह सूत्र याद कर लीजिए:
यमाताराजभानसलगा:
जिस गण को जानना हो उसका वर्ण इस में देखकर अगले दो वर्ण और साथ जोड लीजिए और उसी क्रम से गण की मात्राएँ लगाइए, जैसे:
यगण - यमाता = ।ऽऽ आदि लघु
मगण - मातारा = ऽऽऽ सर्वगुरु
तगण - ताराज = ऽऽ । अन्तलघु
रगण - राजभा = ऽ ।ऽ मध्यलघु
जगण - जभान = ।ऽ । मध्यगुरु
भगण - भानस = ऽ ॥ आदिगुरु
नगण - नसल = ॥ । सर्वलघु
सगण - सलगाः = ॥ऽ अन्तगुरु

मात्राओं में जो अकेली मात्रा है, उस के आधार पर इन्हें आदिलघु या आदिगुरु कहा गया है । जिसमें सब गुरु है, वह ‘मगण’ सर्वगुरु कहलाया और सभी लघु होने से ‘नगण’ सर्वलघु कहलाया । नीचे सब गणों के स्वरुप का एक श्लोक दिया जा रहा है । उसे याद कर लीजिए:

मस्त्रिगुरुः त्रिलघुश्च नकारो, भादिगुरुः पुनरादिर्लघुर्यः ।
जो गुरुम्ध्यगतो र-लमध्यः, सोऽन्तगुरुः कथितोऽन्तलघुःतः ॥


प्रमुख वर्णिक छंद 
  • प्रमाणिका (8 वर्ण)
  • स्वागता
  • भुजंगी
  • शालिनी
  • इन्द्रवज्रा
  • दोधक (सभी 11 वर्ण)
  • वंशस्थ
  • भुजंगप्रयाग
  • द्रुतविलम्बित
  • तोटक (सभी 12 वर्ण)
  • वसंततिलका (14 वर्ण)
  • मालिनी (15 वर्ण)
  • पञ्चचामर (16 वर्ण)

  • चंचला (सभी 16 वर्ण)
  • मन्दाक्रान्ता
  • शिखरिणी (सभी 17 वर्ण)
  • शार्दूल विक्रीडित (19 वर्ण)
  • स्त्रग्धरा (21 वर्ण)
  • सवैया (22 से 26 वर्ण)
  • घनाक्षरी (31 वर्ण) 
  • रूपघनाक्षरी (32 वर्ण)
  • देवघनाक्षरी (33 वर्ण)
  • कवित्त / मनहरण (31-33 वर्ण)

मात्रिक छंद
मात्रिक छंद के सभी चरणों में मात्राओं की संख्या तो समान रहती है लेकिन लघु-गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

प्रमुख मात्रिक छंद

सम मात्रिक छंद :
  • अहीर (11 मात्रा)
  • तोमर (12 मात्रा)
  • मानव (14 मात्रा)
  • अरिल्ल, पद्धरि/ पद्धटिका
  • चौपाई (सभी 16 मात्रा)
  • पीयूषवर्ष
  • सुमेरु (दोनों 19 मात्रा)
  • राधिका (22 मात्रा)
  • रोला
  • दिक्पाल
  • रूपमाला (सभी 24 मात्रा)
  • गीतिका (26 मात्रा)
इस छन्द में प्रत्येक चरण में छब्बीस मात्राएँ होती हैं और 14 तथा 12 मात्राओं के बाद यति होती है । जैसे:
ऽ । ऽ ॥ ऽ । ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ ऽ । ऽ
हे दयामय दीनबन्धो, प्रार्थना मे श्रूयतां
यच्च दुरितं दीनबन्धो, पूर्णतो व्यपनीयताम् ।
चञ्चलानि मम चेन्द्रियाणि, मानसं मे पूयतां
शरणं याचेऽहं सदा हि, सेवकोऽस्म्यनुगृह्यताम् ॥
ऊपर पहले चरण पर मात्रा-चिह्न लगा दिए हैं । इसी प्रकार सारे चरणों में आप चिह्न लगा कर मात्राओं की गणना कर सकते हैं |
  • सरसी (27 मात्रा)
  • सार (28 मात्रा)
  • हरिगीतिका (28 मात्रा)
हरिगीतिका छन्द में प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं और अन्त में लघु और फिर गुरु वर्ण अवश्य होना चाहिए । इसमें यति 16 तथा 12 मात्राओं के बाद होती हैं;
जैसे
। । ऽ । ऽ ऽ ऽ ।ऽ । ।ऽ । ऽ ऽ ऽ । ऽ
मम मातृभूमिः भारतं धनधान्यपूर्णं स्यात् सदा ।
नग्नो न क्षुधितो कोऽपि स्यादिह वर्धतां सुख-सन्ततिः ।
स्युर्ज्ञानिनो गुणशालिनो ह्युपकार-निरता मानवः,
अपकारकर्ता कोऽपि न स्याद् दुष्टवृत्तिर्दांवः ॥
इस छन्द की भी प्रथम पंक्ति में मात्राचिह्न लगा दिए हैं । शेष पर स्वयं लगाइए ।
  • तांटक (30 मात्रा)
  • वीर या आल्हा (31 मात्रा)

अर्द्धसम मात्रिक छंद :
  • बरवै (विषम चरण में - 12 मात्रा, सम चरण में - 7 मात्रा)
  • दोहा (विषम - 13, सम - 11)
संस्कृत में इस का नाम दोहडिका छन्द है । इसके विषम चरणों में तेरह-तेरह और सम चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं । विषम चरणों के आदि में ।ऽ । (जगण) इस प्रकार का मात्रा-क्रम नहीं होना चाहिए और अंत में गुरु और लघु (ऽ ।) वर्ण होने चाहिए । सम चरणों की तुक आपस में मिलनी चाहिए । 

जैसे:
।ऽ ।ऽ । । ऽ । ऽ ऽऽ ऽ ऽऽ । 

महद्धनं यदि ते भवेत्, दीनेभ्यस्तद्देहि ।
विधेहि कर्म सदा शुभं, शुभं फलं त्वं प्रेहि ॥ 

इस दोहे को पहली पंक्ति में विषम और सम दोनों चरणों पर मात्राचिह्न लगा दिए हैं । इसी प्रकार दूसरी पंक्ति में भी आप दोनों चरणों पर ये चिह्न लगा सकते हैं । अतः दोहा एक अर्धसम मात्रिक छन्द है ।
  • सोरठा (दोहा का उल्टा)
  • उल्लाला (विषम - 15, सम - 13)

विषम मात्रिक छंद :
  • कुण्डलिया (दोहा + रोला)
  • छप्पय (रोला + अल्लाला)

मुक्त छंद
जिस विषय छंद में वर्णित या मात्रिक प्रतिबंध न हो, न प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या और क्रम समान हो और मात्राओं की कोई निश्चित व्यवस्था हो तथा जिसमें नाद और ताल के आधार पर पंक्तियों में लय लाकर उन्हें गतिशील करने का आग्रह हो, वह मुक्त छंद है।

उदाहरण : निराला की कविता 'जूही की कली' इत्यादि।


1 comment:

Anonymous said...

Thank you for sharing , I am very enthusiastic about learning Sanskrit. i am very new to it, but the way you have explained things in your blog is commendable and praiseworthy. we see a lot more from you further. regards.
Ar. Rupa Bhaty