Thursday, July 5, 2018

संस्कृत परिचर्चा - 2

संयोजक: अभिनन्दन शर्मा


Day 2
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श्लोक:
शान्ताकारम् भुजंगशयनम् पद्मनाभम् सुरेशम् ।
विश्वाधारम् गगनसदृशम् मेघवर्णम् शुभांगम् ।।
लक्ष्मीकांतम् कमलनयनम् योगिभिर्ध्यानगम्यम्।
वन्दे विष्णुम् भवभयहरम् सर्व लोकैकनाथम् ।।

भव = जन्म-मृत्यु का चक्र
शान्ताकारम् = शांतचित्त वाले
भुजंगशयनम् = नाग की शय्या पर लेटने वाले
पद्मनाभम् = जिनकी नाभि से कमल का फूल निकला हुआ है
सुरेशम् = सुरों(देवताओं) के ईश
विश्वाधारम् = विश्व का आधार
गगनसदृशम्  = आकाश के जैसे अनन्त
मेघवर्णम् = मेघ के रंग वाले
शुभांगम् =दोषरहित अंगो वाले
लक्ष्मीकांतम् = लक्ष्मी के स्वामी
कमलनयनम् = कमल के जैसी आँखों वाले
योगिभिर्ध्यानगम्यम् = योगी उनको समझने के लिए ध्यान करते हैं

अर्थ:  हे सभी लोको के नाथ, जन्म-मृत्यु के चक्र का भय हरने वाले, हम आपकी वंदना करते हैं ।

सुभाषित:
पृथिव्यां त्रीणि रत्नानी जलमन्नम सुभाषितम ।
मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ।।

अर्थ: 
पृथ्वी पर तीन ही रत्न हैं, जल, अन्न और सुभाषित, परन्तु मुर्ख लोग पत्थर के टुकड़ो को ही रत्न समझते हैं ।


कथा:
भक्त ध्रुव 
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राजा उत्तानपाद की दो रानियां थीं, सुरुचि और सुनीति । सुरुचि का एक पुत्र था, उत्तम और सुनीति का पुत्र था, ध्रुव । राजा की सुरुचि पर अधिक आसक्ति थी इसलिए सुनीति और ध्रुव की उपेक्षा होती थी । जब ये बालक केवल पांच वर्ष के ही थे तब एक दिन उत्तम राजा की गोद में बैठे थे, छोटे भाई को पिता की गोद में बैठे देख ध्रुव भी राजा की गोद में बैठ गए तो सुरुचि ने उन्हें झिड़क कर गोद से उतार दिया कहा कि तुम मेरी कोख से नहीं जन्मे हो तो तुम्हे यहां बैठने का कोई  अधिकार नहीं है। आँखों में आंसू भरे ध्रुव ने सहारे के लिए पिता की ओर देखा किन्तु स्त्री प्रेम में मग्न पिता ने बालक के समर्थन में कुछ भी नहीं कहा।  दुखी हो कर ध्रुव अपनी माँ सुनीति के पास आये - और यह सब सुन कर माँ ने उनको सांत्वना दी और कहा के सबसे बड़ी गोद तो भगवन विष्णु की है ।

ध्रुव तप करने निकल पड़े। जब वे इधर उधर भटक रहे थे तब देवर्षि नारद उन्हें मिले और उन्हें समझाने का प्रयत्न किया की यह आयु तप की नहीं और उन्हें सुरुचि की बात का बुरा न मानते हुए वापस चले जाना चाहिए परन्तु ध्रुव ने अपना मन बना लिया था और वे न माने । तब नारद जी ने उन्हें मंत्र दिया ।

ध्रुव वन में कड़ा तप करने लगे।  पहले मास उन्होंने सिर्फ फल खाए, दूसरे महीने वे घास और सूखे पत्ते खाने लगे।  तीसरे महीने सिर्फ जल पर और चौथे महीने सिर्फ हवा (सांस) पर रहे।  पांचवे महीने उन्होंने श्वास लेना भी बंद कर दिया।  उनके तप से घोर ऊर्जा प्रकट होने लगी और तपन को सहन न कर सकने से देव नारायण के पास गए और बालक को दर्शन देने का आग्रह किया।

सर्वज्ञ नारायण ध्रुव के सामने आये और कहा की तुम महान राजा बनोगे और मृत्यु पश्चात सर्वोच्च स्थान प्राप्त करोगे । इधर बालक के घर छोड़ कर जाने के बाद उत्तानपाद अपने व्यवहार पर बहुत लज्जित हुए और चिंतित और दुखी रहने लगे।  ध्रुव को दीक्षित करने के बाद नारद वहां आये और राजा के दुःख का कारण पूछा। उत्तानपाद ने सब बताया और कहा कि वे पुत्र की कुशलता को लेकर चिंतित हैं।  वन में कोई पशु उसे खा ही गए होंगे।  नारद जी ने राजा को सांत्वना दी और कहा कि ध्रुव को आप साधारण बालक न समझें - उन्हें कोई भय नहीं है,  उनकी रक्षा स्वयं नारायण कर रहे हैं। वे आगे जाकर बहुत बड़े राजा होंगे और आप उनके पिता होने के कारण जाने जाएंगे।

निष्कर्ष: उत्तानपाद का अर्थ होता है, जिसके पैर ऊपर हों । सभी मनुष्य उत्तानपाद होते हैं क्योंकि सभी के पैर गर्भ में ऊपर ही तरफ होते हैं और उनकी दो पत्नियां होती हैं, मन और बुद्धि । सुरुचि हमारे वो कार्य होते हैं जो हम अपने मन से करते हैं, सुनीति हमारे वे कार्य होते हैं जो हम बुद्धि से करते हैं । मानव पर अधिकतर मन/सुरुचि हावी रहता है । इन कार्यो के फल उनके पुत्र की तरह होते हैं । मन से काम लेने पर फल तो "उत्तम" होता है परन्तु चिरस्थायी नहीं । अगर हम बुद्धि से काम लें तो फल जो भी हो वो स्थिर (ध्रुव) होगा ।


शास्त्र 

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