Friday, September 28, 2018

गोपालतापिन्युपनिषत्



गोपालतापिन्युपनिषत्

व्याख्याता: स्वामी निर्दोष

गोपाल शब्द का अर्थ है, भूमि, वाणी, वेद, इन्द्रियां, इन सब का पालन करने वाला गोपाल कहलाता है ।{ गवाम् पालयति इति गोपालः } | [गो पुंस्त्री गच्छत्यनेन गम--करणे डो । ]   वेदों में गो शब्द अनेक अर्थों प्रयुक्त होता है जैसे कि १. गाय । २. प्रकाशरश्मि । ३. वृष राशि । ४. ऋषभ नाम की औषधि । ५. इंद्रिय । ६. वाणी । ७. सरस्वती । ८.  दृष्टि । ९. बिजली ।  १०. पृथ्वी  । ११. दिशा । १२. माता  । १३.  बकरी, भैंस, भेड़ी इत्यादि दूध देनेवाले पशु । १४.  । जिह्वा । १५  . चन्द्रमा  १६  . स्वर्ग  १७ . ज्योतिष में नक्षत्रों की नौ वीथियों में से एक ।   १८  . बैल । १९ . नंदी नामक शिवगण  । २० . घोड़ा | २१ . सूर्य । २२ .आकाश । २३ . बाण  । २४ . प्रशंसक । २५ .  स्वर्ग । २६.  जल । २७ .  वज्र । २८ .  शब्द । २९ . नौ का अंक ।  ३०. शरीर के रोम । ३१ . पशुजाति |  तापिनी में जो 'तप' शब्द है वो (  तप आलोचने धातुसे बनाता है  )अर्थात् विचार के द्वारा परमात्मा का अनुभव होता है |  गोपाल शब्द { गवाम् पालयति इतिगोपालः }  जो ब्रह्म तत्व है उसको उद्भाषित करने वाली यह विद्या माने समझ ।  तापनीय स्वर्ण को भी कहते हैं [ चित्त रूपी स्वर्ण को तपाकर शुद्ध करनेवाली विद्या ] अर्थात्  "आत्म वैराग्य"

 से अन्तःकरण शुद्ध होनेपर परतत्व गोपाल रूपी सच्चिदानन्दघन का प्रकाश होता है |  उपनिषद शब्द का अर्थ तो सबको ज्ञात ही है, 'उप' और 'नि' दो उपसर्ग हैं,  'षद्लृ' धातु है, इसका अर्थ गति ,विसरण  और अवसादन में होता है मतलब जो परम तत्व का समीपता से ज्ञान करावे और माया के बन्धनों को शिथिल करे और अज्ञान का नाश करे उसको उपनिषद  विद्या कहते हैं  |   

 

पहला श्लोक है:

श्रीमत्पञ्चपदागारं सविशेषतयोज्ज्वलम् ।

प्रतियोगिविनिर्मुक्तं निर्विशेषं हरिं भजे ॥

जो पञ्च पद माने पांच शब्द , वे हैं १  क्लीं,  { नाद शक्ति }कृष्ण , २ गोविन्द , ३ गोपीजन ४ वल्लभ , ५ स्वाहा ये  ही  पांच पञ्च पद माने पांच शब्द हैं  अथवा इन पांच पदों से सूचित भगवानके पञ्चकृत्य भी समझ लेने चाहिये { वे पांच हैं सृष्टि, स्थिति, प्रलय , अनुग्रह तथा निग्रह } और आगार माने भण्डार यानी जिसमें पांच पद निहित हैं, पञ्च पदात्मक जो है । वैसे तो ब्रह्म निर्विशेष है, समस्त विशेषणों से रहित परन्तु वही जब माया की उपाधि को स्वीकार कर लेता है तो प्रकट हो जाता है इन्द्रियगोचर हो जाता है इसलिए उसे कहा, सविशेषतयोज्ज्वलं । 

प्रतियोगी, अर्थात् विरुद्ध या विपरीत  यह न्यायशास्त्र का पारिभाषिक शब्द है, जैसे घट का प्रतियोगी घटाभाव है और घटाभाव का प्रतियोगी है घट यानि उसके विपरीत तो सारे अभावों के विरुद्ध, सारे अभावोंसे , सारे निषेधों से विनिर्मुक्त और वास्तव में जो निर्विशेष हैं ऐसे हरि जो पाप, ताप,अविद्या, दुःख,  दारिद्र्य इनको हरण करने वाले हैं, इसलिए उनको हरि कहते है, उनका मैं चिन्तन करता हूँ ध्यान करता हूँ भजन करता हूँ आलोचन करता हूँ , अनुसन्धान करता हूँ ।

 

उपनिषद के प्रारम्भ में, खासकर के अथर्ववेदी जो उपनिषद होती हैं उनमें ये मंगलाचरण किया जाता है । इसका भी संक्षिप्त अर्थ बताते हैं :

 

ॐ भद्रं कर्णेभिः श‍ृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 1.1

 

हे देवताओ ऐसी कृपा करो की हम कानों से (कानों के देवता हैं (दिक्) दिशा रुपी जो देवता हैं वो हमारे ऊपर ऐसी कृपा करें कि कानों से हम भद्र (यानी कल्याण) का श्रवण करें । भद्र और सुभद्र, ये सब भगवान् के नाम हैं । श्रीमद्भागवत मेंकहा है - तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ,श्रवण मंगलम् श्री मदाततम् , । विष्णुसहस्रनाम में भी -   विश्रुतात्मा ;   शुचिश्रवाः ;पुण्यश्रवणकीर्तनः ;   पवित्रं मङ्गलं परम्‌    ऐसे नाम हैं, तो हम कानों से उन परमात्मा का ही परम तत्व का ज्ञान ही श्रवण करें और आँखों से हम केवल भद्र यानि कल्याण ही देखें, यज्ञ करें, स्थिर अंगों के द्वारा आपकी स्तुति करें । और जब तक हमारी आयु रहे हम उस परमात्म देव की सेवा के लिए ही प्रयत्नशील हों ।

महा यशस्वी इन्द्र हमारे लिए कल्याण साधन उपस्थित करें, हमारे लिए अनुकूल हो जाएं क्योंकि इन्द्र हाथों के देव हैं और हाथों से ही कर्म का अनुष्ठान होता है इसी लिये कर्म की ही प्रशंसा होती है अतः इन्द्र से प्रार्थना है कि हमारा कर्म यशस्वी हो , सनातन हो | { स्वस्ति शब्दो सनातन वचनः } 

सारे विश्व को जानने वाले और पोषण करने वाले  सूर्य देव हैं वे हमारे लिए स्वस्ति या कल्याण का सम्पादन करें ।

जिनकी गति कहीं अवरुद्ध नहीं होती है, ऐसे अरिष्टनेमि भगवान गरुड़, तार्क्ष्य माने गरुड़, वो हमारे लिए स्वस्ति का, कल्याण का विधान करें ।

विस्तृत जो वाणी है, उसके जो पति हैं,   ( बृहती पतिः = बृहस्पतिः ) बृहस्पति वो गुरु तत्व हमारे लिए स्वस्ति या कल्याण का विधान करें ।इसके बाद "ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः" ऐसा तीन बार कहते हैं, तो तीनो तापों की (आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक) त्रिविध तापों की शान्ति हो ।

 

गोपालतापनं कृष्णं याज्ञवल्क्यं वराहकम् ।

शाट्यायनी हयग्रीवं दत्तात्रेयं च गारुडम् ॥

 

ये जो विभिन्न उपनिषद हैं इनमें उसी गोपाल कृष्ण का परमात्मा रूप से वर्णन किया हुआ है,

 गोपालतापनि उपनिषद, कृष्ण उपनिषद, याज्ञवल्क्य उपनिषद, वराह उपनिषद, शाट्यायनी उपनिषद, हयग्रीव उपनिषद, दत्तात्रेय उपनिषद और गारुड उपनिषद, इनमें मुख्य विषय जो है वही गोपालतापनी उपनिषद में भी है ।

 

हरिः ॐ सच्चिदानन्दरूपाय कृष्णायाक्लिष्टकर्मणे ।

नमो वेदान्तवेद्याय गुरवे बुद्धिसाक्षिणे ॥

 

जो सनातन हैं अर्थात् नित्य हैं , ज्ञानस्वरूप हैं, तथा आनन्द स्वरूप हैं | क्लेशरहित होकर कर्म करनेवाले हैं | अर्थात् अक्लिष्टकर्मा हैं उन कृष्ण को जो वेदान्तों { उपनिषदों } द्वारा वेद्य (जानने योग्य ) हैं तथा  जो परमगुरु  और  सबकी बुद्धियों के भी साक्षी हैं उन कृष्ण को मैं नमस्कार करता हूं | भक्तों के पापों का आकर्षण के कारण श्री कृष्ण ही परम देव हैं | 

 

 

परमात्मा सच्चिदानंद स्वरुप हैं उन्ही का नाम कृष्ण हैं और यहाँ पर एक विशेषण दिया है 'अक्लिष्टकर्मणे '; 'अक्लिष्टकर्मा',  साधारणतया ये विशेषण 'राम' के लिए ज्यादा प्रसिद्ध है ।कृष्ण के लिये प्रयुक्त होता है 

  { कृष्णयाद्भुतकर्मणे }  मतलब अद्भुतकर्मा और राम के लिए कहा जाता है अक्लिष्टकर्मा, लेकिन राम और कृष्ण दोनों एक ही हैं इसलिए यहाँ कृष्ण को भी अक्लिष्टकर्मा कहा यानि क्लेषरहित कर्म करने वाला ।{ जो महाभारत के युद्ध में भी मुस्करा सकता है तथा हजारों पत्नियों के बीच में भी हँसता खेलता रह सकता है वह निश्चित ही अक्लिष्ट कर्मा है }  पांच प्रकार के क्लेश हैं - अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश

अविद्या माने - अज्ञान, मूर्खता,नासमझी { ऐसी अविद्या जिनमें नहीं है }  पूरी जानकारी प्राप्त करके ही कोई कर्म करते हैं । उनके कर्मो में अहंकार नहीं होता, राग नहीं होता, द्वेष नहीं होता, अभिनिवेश - एक प्रकार का मोह,{ मृत्युका भय }  नहीं होता । जैसे तादात्म्य  में अध्यास होता है न ये सब वेदान्त के जरा पारिभाषिक शब्द हैं, थोड़े क्लिष्ट लगेंगे परन्तु शास्त्रों के अभ्यास से सरल हो जायेगा । { अध्यास माने उलटीसमझ } अतस्मिन् तद् बुद्धिः अध्यासः | वेदान्तवेद्याय भी एक विशेषण है । वेदान्त के द्वारा ही जिसे जाना जा सकता है - वेदान्त है वेद का अन्तिम भाग । जो गुरु तत्व स्वरुप हैं,  बुद्धि का साक्षी है उसको प्रणाम करते हैं । यहाँ सभी विशेषण चतुर्थी विभक्ति में हैं ।

 

मुनयो ह वै ब्रह्माणमूचुः । कः परमो देवः कुतो मृत्युर्बिभेति ।

कस्य विज्ञानेनाखिलं विज्ञातं भवति । केनेदं विश्वं संसरतीति ।

तदुहोवाच ब्राह्मणः । कृष्णो वै परमं दैवतम् । 

गोविन्दान्मृत्युर्बिभेति । गोपीजनवल्लभज्ञानेनैतद्विज्ञातं भवति ।

स्वाहेदं विश्वं संसरतीति । तदुहोचुः । कः कृष्णः । गोविन्दश्च 

कोऽसाविति । गोपीजनवल्लभश्च कः । का स्वाहेति । तानुवाच ब्राह्मणः ।

पापकर्षणो गोभूमिवेदवेदितो गोपीजनविद्याकलापप्रेरकः ।

तन्माया चेति सकलं परं ब्रह्मैव तत् । यो ध्यायति रसति भजति 

सोऽमृतो भवतीति । ते होचुः । किं तद्रूपं किं रसनं किमाहो 

तद्भजनं तत्सर्वं विविदिषतामाख्याहीति । तदुहोवाच हैरण्यो 

गोपवेषबिभ्राणं  कल्पद्रुमाश्रितम् । तदिह श्लोका भवन्ति ॥

 

ऋषी मुनि ब्रह्मा जी के पास गए और बोले: कौन परम यानि उत्कृष्ट, अन्तिम देव हैं ? किससे मृत्यु को भी भय  प्राप्त होता है, मृत्यु के देवता भी डरते हैं ? किसके विज्ञान से किसको जान लेने से सब जाना जाता हैं ? किसके  द्वारा, किसकी शक्ति/प्रेरणा से यह संसार संचालित होता है ?

तो फिर ब्रह्मा जी बोले: कृष्ण नाम से विख्यात जो तत्व हैं वही सर्वोत्कृष्ट देवता हैं और फिर बताया गोविन्द से मृत्यु भी भय प्राप्त करती है।जैसे एक गोपाल अपनी गायोंकी रक्षा सिंह, व्याघ्रादि हिंसक पशुओं से करता है वैसे ही गोविंद भक्त जीवों की मृत्यु से रक्षा करते हैं  |  जैसा पर्याय है, कृष्ण, गोविन्द, गोपीजन, वल्लभ और स्वाहा, ये पांच पद हैं, तो गोपीजनवल्लभ इस पदके ज्ञान से ये सब ज्ञान हो जाता है ।गोपी समस्त प्रकृति का नाम है , जो समस्त नाम रूपात्मक प्रपञ्च का गोपन करती है , रक्षण करती है  तथा उत्पत्ति का भी कारण है | गोपन और जनन का कार्य प्रकृति ही करती है  उस प्रकृति के जो वल्लभ हैं स्वामी हैं वे गोपीजनवल्लभ हैं |  स्वाहा { समर्पण } शब्द की शक्ति से ही सारा विश्व संचालित होता है ।

तो वह ऋषि लोग कहने लगे: यह समझा कर कहिये कि यह कृष्ण क्या है ? गोविन्द कौन है? गोपीजनवल्लभ कौन है ? स्वाहा शब्द का क्या अर्थ है ?

उन ऋषियों के प्रति ब्रह्मा जी ने कहा:  कृष्ण शब्द से मतलब है पाप-कर्षण - जो अज्ञान का, पाप का, कपट का आकर्षण करले; खींच कर समाप्त कर दे वही कृष्ण है।  अथवा जो कृषक हमारे अंतःकरणमें हल चलाता है , खेती करता है वह कृष्ण है |एवं कृष  शब्द सत्ता वाचक है और ण शब्द आनंद वाचक है तो कृष्ण शब्द का अर्थ हुआ सदानन्द | ‘कृषिर्भूवाचकः शब्दो णश्च निवृत्तिवाचकः। तयोरैक्यं परं ब्रह्म कृष्ण इत्यभिधीयते।।’

(महाभारत, उद्योग-पर्व 71/4)  गोविन्द से मतलब है - गो, भूमि , वेद वेदितो, इन्द्रियों के द्वारा भूमि के द्वारा और वेद के द्वारा जिसका ज्ञान होता है । जो अधिष्ठान रूप है, भूमि माने अधिष्ठान रूप, इन्द्रिय माने ज्ञान का साधन रूप, प्रमा के करण प्रमाण स्वरुप, वेद यानी ज्ञान । और गोपीजन जो हैं वे भक्तजन है, वृत्तियाँ हैं  इनको विद्या में और कला में प्रेरण करनेवाला , विद्या का कलाप माने विद्या का विस्तार । ये जो स्वाहा है, यही इनकी माया है और ये सब अधिष्ठान ब्रह्म से भिन्न नही हैं, ये सब परब्रह्म स्वरुप ही है। अधिष्ठान से भिन्न अधिष्ठेय नहीं होता है, कारण से भिन्न कार्य नहीं होता है इसलिए जो इनका ध्यान करता है, रसति यानि रस लेता है अनुसंधान करता है  और भजति यानी सेवन करता है वह अमृत हो जाता है।

तो फिर ऋषियों ने कहा: उनका स्वरुप क्या है? ये रसन क्या होता है? ये भजन क्या होता है?

ये सब हम जानने की इच्छा करते हैं । तो हमारे प्रति इसका आख्यान-व्याख्यान करें ।

ख्या - ज्ञान , जाहिर करना और आ - सम्पूर्ण, सम्पूर्ण रीति से हमें ज्ञान हो जाये ऐसी व्याख्या आप करें।

तो फिर ब्रह्मा (हिरण्यगर्भ) जी ने बताया: जो गोपवेश धारण किये हुए हैं, कल्पवृक्ष के नीचे बैठे हैं; क्योंकि उन्ही के संकल्प से ही सारे जगत की रचना हुई है | गोप वेश धारण किये हुए भगवान् कृष्ण कल्पवृक्ष के नीचे विराजमान हैं | स्वयं कल्पवृक्ष हैं तो जो कल्पना करते हैं वो सच सिद्ध हो जाती है; तो उनके यशगान के रूप में ये श्लोक प्रकट हुए।

 

ये ध्यान के श्लोक हैं

सत्पुण्डरीकनयनं मेघाभं वैद्युताम्बरम् ।

द्विभुजं ज्ञानमुद्राढ्यं वनमालिनमीश्वरम् ॥ १॥

 

भगवान् कल्पवृक्ष के नीचे बैठे हैं, कमलनयन हैं, नील आभा है, बिजली के जैसे चमकीले पीले पीले वस्त्र पहने हुए हैं, दो हाथ वाले-बिलकुल मनुष्य जैसे हैं, [ बिलकुल मैं तेरे जैसा ही हूँ,]  ज्ञान मुद्रा (अंगूठा और तर्जनी मिला कर के जो बनाते हैं, भद्रा-मुद्रा, चिन्-मुद्रा उसके पर्याय शब्द हैं ) में बैठे हुएहैं ,  वनमाला पहनी हुई है   | “आजानुलम्बिनी माला सर्वर्तुकुसुमोज्ज्वला । मध्ये स्थूलकदम्बाद्या वनमालेति कीर्त्तिता”  , (जो पांच फूलों से मिलके बनती है, वैजयंती माला भी  जिसे कहते हैं), सबको शासन करने वाले हैं, प्रभु हैं ।

 { तुलसीकुन्दमन्दारपारिजातसरोरुहैः। पंचभिर्ग्रथिता माला वनमाला प्रकीर्तिता।। } वनमाला वन्यपुष्प-स्तवकों की बनी है, उसमें तुलसी मिश्रित है | 

 

गोपगोपीगवावीतं सुरद्रुमतलाश्रितम् ।

दिव्यालंकरणोपेतं रत्नपङ्कजमध्यगम् ॥ २॥

 

गोप, गोपी और गायों से घिरे हुए, जो देवताओं का वृक्ष (स्वर्गीय कल्पवृक्ष) है उस वृक्ष के तल में बैठे हुए हैं, अर्थात् मूल में   बैठे हुए हैं | दिव्य, अति-उत्कृष्ट आभरणों से युक्त हैं और एक रत्न से बना हुआ कमल हैं जिसके मध्य में वे विराजमान  हैं।

 

कालिन्दीजलकल्लोलसङ्गिमारुतसेवितम् ।

चिन्तयञ्चेतसा कृष्णं मुक्तो भवति संसृतेः ॥ ३॥ इति॥

 

कालिन्दी यानी यमुना के जल की कल्लोल ध्वनि के संग से शीतल हुई वायु से सेवित भगवान कृष्ण को अन्तः करण की वृत्तियों के द्वारा, मन-बुद्धि के द्वारा उनका चिन्तन/धारणा करने से इस संसार (कर्तृत्व  भोक्तृत्व लक्षणो संसारः - संसार का लक्षण हैं कर्ता और भोक्ता होना, ये अज्ञान के कारण ही है ) के आवागमन से मुक्त हो जाता है।

 

तस्य पुना रसनमितिजलभूमिं तु संपाताः । कामादि कृष्णायेत्येकं 

पदम् । गोविन्दायेति द्वितीयम् । गोपीजनेति तृतीयम् । वल्लभेति तुरीयम् ।

स्वाहेति पञ्चममिति पञ्चपदं जपन्पञ्चाङ्गं द्यावाभूमी 

सूर्याचन्द्रमसौ साग्नि तद्रूपतया ब्रह्म संपद्यत इति । तदेष श्लोकः

क्लीमित्येतदादावादाय कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभायेति

बृहन्मानव्यासकृदुच्चरेद्योऽसौ गतिस्तस्यास्ति मङ्क्षु नान्या

गतिः स्यादिति । भक्तिरस्य भजनम् । एतदिहामुत्रोपाधिनैराश्ये

नामुष्मिन्मनःकल्पनम् । एतदेव च नैष्कर्म्यम् । 1.2 

 

अब इसका जो रसन माने विस्तार है वो जल और भूमि, जल ही जब कठिन हो जाता है तो भूमि बन जाता है; विचार ही जब सघन रूप धारण कर लेते हैं तो वही पदार्थ बन जाते हैं, ऐसा इसका तात्पर्य है । इसमें जो मुख्य मन्त्र है ( क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजन वल्ल्भाय स्वाहा )   उसमें कामादि है ,काम शब्द आदि में है , काम माने क्लीं और बाद में कृष्ण कहा तो क्लीं कृष्णाय पहला पद/शब्द है, गोविन्द दूसरा पद है तो कृष्ण तत्व को समझना चाहिए गोविन्द तत्व को समझना चाहिए, गोपीजन तीसरा पद है, वल्लभ  तुरीयं  यानी चौथा पद है।   स्वाहा ये पांचवा  पद, यह पांच मिला कर के इसी को पञ्च पदागार विद्या कहते हैं । जप करते हुए यह पांच हैं - द्यावा माने आकाशगंगा; ऊपर है भूमि माने पृथ्वी,नीचे  है  सूर्य अर्थात् बुद्धि ,  चन्द्रमा अर्थात् मन और अग्नि अर्थात् वाणी  ये बीच में हैं; और इन पांचों  का जो संयुक्त समन्वित  रूप  है उसे ब्रह्म कहते हैं ।

 

तो उसका संयुक्त सम्बन्ध से एक श्लोक बनाया - सबसे पहले क्लीं  , ऐसा बोलना समझना, क्लीं  कामराज बीज को  कहते हैं इसको (क्लींकारी कामरूपिण्यै - कुञ्जिकास्तोत्र में ) ।क्लीं कृष्णाय  , नम्बर एक; गोविन्दाय नम्बर दो;   गोपीजन ; नम्बर तीन; वल्लभाय  नम्बर चार ; स्वाहा नम्बर पांच इति । इसे लम्बा लम्बा करके बोलना चाहिए, जैसे क्लीं ऽऽऽऽऽम कृष्णाऽऽऽऽऽऽयऽ  गोविन्दाऽऽऽऽऽऽयऽ गोपीजनवल्लभाऽऽऽऽऽयऽ स्वाऽहाऽऽऽ, इस तरह इन्हें  वैखरी वाणी से बोलना चाहिए। तो इससे जो ज्ञान प्राप्त होता हैं वो अत्यंत तीव्र, चटपट, शीघ्रतापूर्वक ये परम तत्व में ले जाते हैं, इन शब्दों का जो स्पन्दन है , शब्द शक्ति है ,तो इससे अंतःकरण शुद्ध होनेपर  ज्ञान हो जाता है ।{ गं गति ज्ञानयो }  गति से गमन होता है और ज्ञान भी होता है - गं गतिज्ञानयोः, गम धातु से गति और ज्ञान ये दो अर्थ होते हैं । तो वह स्वयं भी गोविन्दरूप ही हो जाता है । इसकी जो भक्ति है, यानी विभक्त न होना, एकरूपता को प्राप्त करना, उपासना करना, सेवन करना; भजसेवायां  -धातु से भक्ति बनता है न, तो इसकी जो भक्ति है , सेवा है  उसी को भजन कहते हैं । इह माने  इस लोक , अमुत्र माने परलोक इन दोनों उपाधियों को हटा देने पर,  परम तत्व ही शेष रहता है | इहामुत्र की उपाधि को मन की कल्पना मात्र जानलेने से नैराश्य की सिद्धि बड़ी सरलतासे होजाती है |और जब आशा ही नहीं रहेगी तो स्वभावतः  नैष्कर्म्य प्राप्त हो जाता है । क्योकि यहलोक और परलोक केवल जाग्रत और स्वप्न अवस्था में ही रहते हैं अर्थात् जब मन होता है तब  ही रहते हैं अतः मनसापेक्ष हैं | पहले मन में कामना होती है फिर उस कामनाकी पूर्ति के लिये कर्म में प्रवृत्ति होती है और इन दोनोंका मूल अज्ञान या मोह है यह बात दर्शन , विज्ञान और व्यावहारिक अनुभव से प्रसिद्ध ही है |

 

गीता में एक श्लोक है:

अधिष्ठानं तथा कर्ता करणं च पृथग्विधम्।

विविधाश्च पृथक्चेष्टा दैवं चैवात्र पञ्चमम्।।18.14।।

 

कर्म के पांच हेतु बताये हैं: अधिष्ठान, मान लो शरीर अधिष्ठान है कर्म का; और कर्ता, जीव; करण, ज्ञानेन्द्रियाँ-कर्मेन्द्रियाँ; चेष्टा, जो है वो प्राण से होती है, एनर्जी; दैवं, प्रारब्ध कर्म, पूर्व कर्म । लेकिन ये पांचो हेतु अविद्या, अज्ञान के ही विलास हैं, क्योंकि आप शरीर नहीं हैं आप मन-इन्द्रिय-प्राण नहीं हैं, आप इन सबके साक्षी हैं, जब साक्षी का ज्ञान हो जायेगा तो  नैष्कर्म्य  की सिद्धि हो जाएगी । ये सब complicated है परन्तु गीतादि का अभ्यास करने से सरल हो जायेगा।

 

कृष्णं तं विप्रा बहुधा यजन्ति 

गोविन्दं सन्तं बहुधा आराधयन्ति ।

गोपीजनवल्लभो भुवनानि दध्रे 

स्वाहाश्रितो जगदैजत्सुरेताः ॥ १॥ 

 

वेदपाठात् भवेत् विप्रो । वेदपाठी लोग उन कृष्ण का अनेक प्रकार से यजन करते हैं, पूजन करते हैं, समर्पित होते हैं। यज्ञ ( यज् धातु ) का अर्थ है स्थूल द्रव्यत्याग, परमात्मा की सेवा में आपके पास जो स्थूल सामग्री है उसका विनियोग/उपयोग करना।

गोविन्द होते हुए, गोविन्द को जानते हुए - गो माने पृथ्वी, वाणी और वेद माने ज्ञान तो इसमें स्थूल और सूक्ष्म सभी आ जाते हैं।

 गोः इन्द्रियैः विन्दते लभ्यते इति गोविन्दः - इन्द्रियों के द्वारा, वेद के द्वारा और पदार्थो के त्याग के द्वारा; तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः । तो ये सब जो यज्ञ की प्रक्रिया है, इसके द्वारा परमात्मा की आराधना की जाती है । तो गोविन्द होते हुए; वो कहते है न आत्मा-परमात्मा एक है, आत्मा जब अपने परम या उत्कृष्ट रूप में जान ली जाती है तो उसी को परमात्मा कहते हैं । परमात्मा होते हुए उसकी आराधना करते हैं।

गोपीजनवल्लभ शब्द से इङ्गित जो शक्ति है वो तीनो लोकों को (१४ भुवनों) को धारण करती है। सञ्चालन करती है | और स्वाहा शब्द में जो शक्ति है, स्वाहा माने द्रव्य-त्याग, दान, समर्पण इसके द्वारा ही यह जगत वीर्य, पराक्रम, शक्ति संपन्न है अर्थात् इसमें क्रियाशक्ति का आधान होता है | 

 

वायुर्यथैको भुवनं प्रविष्टो

जन्येजन्ये पञ्चरूपो बभूव ।

कृष्णस्तदेकोऽपि जगद्धितार्थं

शब्देनासौ पञ्चपदो विभाति ॥ २॥ 

 

जैसे एक ही वायु सारे संसार में प्रविष्ट हो गया और अनेक रूपों में, पञ्चरूपो बभूव, पंचरूप माने पञ्च प्राणो के रूप में हो गया । इसी प्रकार कृष्ण एक होते हुए भी,जगत के हित लिए ये पाँच शब्दों के रूप में बन गए, जैसे वायु पाँच प्राण के रूप में बन गया, प्राण, अपान, उदान, समान, ब्यान; ऐसे ही कृष्ण जगत के लिए पाँच पदों के रूप में, शब्दों के रूप में बन गए । कृष्ण एक, गोविन्द दो, गोपीजन तीन वल्लभ चार और स्वाहा पांच ।

 

ते होचुरुपासनमेतस्य परमात्मनो गोविन्दस्याखिलाधारिणो

ब्रूहीति । तानुवाच यत्तस्य पीठं हैरण्याष्टपलाशमम्बुजं

तदन्तराधिकानलास्त्रयुगं तदन्तरालाद्यर्णाखिलबीजं कृष्णाय

नम इति बीजाढ्यं सब्रह्मा ब्राह्मणमादायानङ्गगायत्रीं

यथावदालिख्य भूमण्डलं शूलवेष्टितं कृत्वाङ्गवासुदेवादि

रुक्मिण्यादिस्वशक्तिं नन्दादिवसुदेवादिपार्थादिनिध्यादिवीतं 

यजेत्सन्ध्यासु प्रतिपत्तिभिरुपचारैः । तेनास्याखिलं भवत्यखिलं 

भवतीति ॥ २॥ तदिह श्लोका भवन्ति ।

 

ऋषिलोग जो जिज्ञासा लेकर के आये थे उन्होंने प्रश्न किया:  कि ये जो अखिल जगतको धारण करने वाले गोविन्द हैं इनकी उपासना कैसे की जाये ये हमें बताइये ।

ब्रह्मा ने कहा: वो जिस  आसन पर बैठे हुए हैं, वो उनका पीठ सोने के बने हुए अष्टदलकमल का  है उस वे पर बैठे हुए है, वो उनका पीठ है । और उनके अंदर राधिका और अनल अर्थात् अग्नि रुपी दो अस्त्र हैं यानी कि वे  दो शक्तियों से युक्त हैं राधिका आल्हादिका शक्ति हैं और अग्नि शब्द ,वाणी या सरस्वती रूप है | इन्ही दो शक्तियों  से जगत संचालित होता है |  और उनके अन्दर अखिल अर्ण (अर्ण जैसे - 'अ' से 'क्ष' तक जितने अक्षर हैं जैसे अं कृष्णाय नमः, आं कृष्णाय नमः, इं कृष्णाय नमः, ईं कृष्णाय नमः आदि ) क्योंकि सभी वर्णों के बीज श्री कृष्ण ही हैं | इस तरह से जो मात्रिका वर्ण हैं उनके द्वारा सम्पुटित करके, उन्हें बीज बना करके, कृष्ण नाम की जो ब्रह्म विद्या है इसकी उपासना करते हैं । कामदेव गायत्री का जो सूक्ष्म रूप है वही यह क्लीं है । ये यहां यन्त्र बनाने का प्रकार बता रहे हैं, उस यन्त्र में कामगायत्री को ब्रह्मगायत्री के साथ यथावत लिख कर यहां कहते हैं कि  इस तरह से अष्टदल कमल बनाओ फिर इसमें मात्रिका बीजों को जोड़ो फिर उसके बाद भूमण्डल,जो भूपुर होता है वो बनाओ और आठ दिशाओं में त्रिशूल का चिन्ह बना दो । तो इस प्रकार से उस यन्त्र के अंगो की स्थापना करके, उसमें उनके पिता वसुदेव जी, उनकी पत्नी रुक्मिणी, जो उनकी अपनी शक्ति है । और नन्द, सुनन्द आदि उनके पार्षद कहे जाते हैं, नन्दादि गोप,  वसुदेवादि यादव, पार्थ माने अर्जुन आदि सखा, महापद्मादि निधियों से परिवेष्टित  करके इन सबको मिलाकर के एक मंडल बना करके फिर उनकी प्रातः और सायं संध्या में शरणागति के भाव से और उपचारों (उपचार - गन्ध,पुष्प, धूप, दीप, छत्र, चँवर डुलाना, काजल लगाना, पान खिलाना आदि ) से उनकी पूजा करें । इस प्रकार से भजन, उपासना करने से उसको सर्व सिद्धियां प्राप्त होती हैं, यहाँ "अखिलं भवति" दो बार कहने का मतलब है कि यह निश्चयही परम सत्य है ।

उसके बारे में यह विज्ञान प्रकट होता है। रासपञ्चाध्यायी के आरम्भ में ही यह श्लोक है -

दृष्ट्वा कुमुद्वन्तमखण्डमण्डलं रमाननाभं नवकुंकुमारुणम् ।

वनं च तत्कोमलगोभिरञ्जितं जगौ कलं वामदृशां मनोहरम् ।। ३ ।। श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १०/पूर्वार्धः/अध्यायः २९ - उस दिन चन्द्रमाका मण्डल अखण्ड था | पूर्णिमाकी रात्रि थी | श्री कृष्ण नूतन केशरके समान लाल -लाल हो रहे थे , उनका मुखमण्डल लक्ष्मीजीके समान मालूम हो रहा था | उनकी कोमल किरणोंसे सारा वन अनुरागके रंगमें रँग गया था | तब भगवान् श्रीकृष्णने अपनी बाँसुरीपर व्रजसुन्दरियोंके मनको हरण करनेवाली कामबीज ‘क्लीं ’ की मधुर तान छेड़ी || ३ || इसमें  जगौ कलं- कलं का अर्थ है अस्फुट और मधुर। जैसे-जैसे बच्चे तोतली बोली बोलते हैं तो उनको बोलते हैं कल वाक्य। कल माने होता है मधुर लेकिन अस्फुट। ‘कलं तु मधुरास्फुटे।’ कोशकार कहते हैं- कल माने मधुर और अस्फुट। बहुत मीठी बांसुरी बजायी कृष्ण ने, लेकिन अस्फुट था स्वर! अस्फुट था माने जो सुने, उसको यह मालूम पड़े कि हमारा ही नाम ले रहे हैं। जैसे ललिते! विशाखे! राधे! चंद्रावली! एक-एक गोपी को ऐसा मालूम पड़े कि हमारे नाम की रट लगा रहे हैं। ये हुई अस्फुटता और मिठास इतनी कि सबके प्राण खिंच आवें- जगौ कलं। यहाँ नादात्मक शब्द है। भगवान नाद के द्वारा आकृष्ट करते हैं, इसके लिए पहले वंशी कलध्वनि है। भगवान ने बजाया कलकं सुखं लाति इति कलम् जो सबको सुख दे  उसका नाम कल। गाँव में कहते हैं ‘‘ कल पड़ गयी ’’ ‘‘ चैन आगया ’’ - आज कल नहीं मिला, थोड़ा कल मिल जाय, तो सब ठीक हो जाय। कल से कल्य बनता है फिर इसी से कल्याण बन जाता है। ये कल, कल्य, कल्याण शब्दों की परंपरा है। भगवान ने कल बजाया। कल बजाया माने सुखदान प्रारम्भ किया। 

‘क्लीं’। एक अक्षर का मंत्र है ‘क्लीं ’ यदि  कृष्ण के पहले हो, तो क्लीं कृष्ण; पीछे हो तो कृष्ण क्लीं ; यह भी मंत्र हैं। क्लीं कृष्णाय नमः यह भी मंत्र है. क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय  स्वाहा यह भी मंत्र है। यह क्लीं जो है यह काम बीज है। इसका अर्थ होता है- ‘क माने सुख, ल माने जीवन;’ ‘ई’ माने शक्ति और ‘म’ माने प्रेम। जब भगवान के सामने बोलते हैं- क्लीं, तो इसका अर्थ होता है- तुम मेरे सुख हो, तुम मेरे जीवन-सर्वस्व हो, तुम्हारा ही बल है- भरोसा है, और तुम्ह ही मेरे प्यारे हो। भगवान ने जब ‘कल’ गाना करना शुरू किया, तो मानो गोपियों से कहा- ‘गोपियों! तुममें ही मेरा सुख है, तुम्हीं मेरी जीवन-सर्वस्व हो, तुम्हीं मेरी शक्ति हो और तुम्हीं मेरी प्यारी हो।’ जब भक्त लोग इसका गान करते हैं तो भगवान को क्लीं बोलते हैं और जब भगवान ही इसका गायन करते हैं तो भक्त ‘क्लीं’ हो जाते हैं। जगौ कलं वामदृशां मनोहरम् - कलं वामदृशां क+ल+ई (वामदृशा माने ई)+ अम (वामदृशां में जो ऊपर बिन्दी है सो) – क्लीं। तो ‘जगौ कलं वामदृशां’ का अर्थ हुआ कि जहाँ भगवान ने वंशी में ‘क्लीं’- काम बीज का स्वर बजाया।

ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजन वल्लभाय स्वाहा 

ॐ क्लींकाराय  विद्महे  कामदेवाय धीमहि तन्नोऽनंगः प्रचोदयात् 

ॐ कामदेवाय विद्महे पुष्पबाणाय धीमहि तन्नोऽनङ्गः प्रचोदयात्

ॐ मन्मथेशाय विद्महे कामदेवाय धीमहि ॥ तन्नोऽनंगः प्रचोदयात् 

 

एको वशी सर्वगः कृष्ण ईड्य

एकोऽपि सन्बहुधा यो विभाति ।

तं पीठं येऽनुभजन्ति धीरा

स्तेषां सिद्धिः शाश्वती नेतरेषाम् ॥ ३॥

 

एक ही परमात्मा, सबको वश में करने वाला, अपनी शक्तियों को वश में रखने वाला, सर्व-व्यापक, कृष्ण ही   ईड्य है स्तुत्य है . नमस्करणीय है ; जो एक होते हुए भी अनेक प्रकार से दिखता है जैसे समुद्र एक है और उसमें अनेको तरंगों से भिन्न रूप से दिखता है,  अथवा जैसे एक ही स्फटिक नामका पत्थर यदि अनेक रंगों के फूलोंसे बनेहुए एक रंगीन कपडे पर रख दिया जाय तो अनेक रंगोंवाला दीखता है | एक ही वृक्ष, पत्र, शाखा, पुष्प, फलादि के रूप में विभिन्न रूप से दिखता है, मूल रस तो एक ही होता है, जो बीज में है वही वृक्ष में है लेकिन पत्र पुष्प त्वचा उनमें विभिन्न रूप में दिखता है लेकिन एक ही है । इनका जो पीठ बताया था जिसमें नन्द, वसुदेव, पार्थ, रुक्मिणी, ये सब अलग अलग दिखते हैं परन्तु एक ही तत्व हैं । इस प्रकार से उस पीठ का यानि अधिष्ठान का जो धीरपुरुष ध्यान करते हैं उनको शाश्वती सिद्धि मिलती है दूसरों को नहीं।

 

नित्यो नित्यानां चेतनश्चेतनाना

मेको बहूनां यो विदधाति कामान् ।

तं पीठगं येऽनुभजन्ति धीरा

स्तेषां सुखं शाश्वतं नेतरेषाम् ॥ ४॥

 

अब फिर उसी परमात्म तत्व के बारे में बताते हैं कि वो परम तत्व कैसा है - अनित्यों के बीच में नित्य अथवा जो नित्य शब्द से मार्कण्डेय, हनुमानादि जिनको चिरंजीवी कहते हैं अथवा ब्रह्मा (जिनकी बहुत लम्बी उम्र है) तो वो नित्य जैसे ही दिखते हैं, उनसे भी ज्यादा अमृत, उनसे भी ज्यादा नित्य । नित्य माने अविनाशी, तो ब्रह्मा-शंकर जिन्हे अविनाशी कहा जाता है ये उनसे भी ज्यादा अविनाशी है । जो नित्य हैं, क्षणभंगशील हैं उनमें जो नित्य है, जैसे शरीर और भोग जो अनित्य हैं । जो चेतन हैं जैसे वृक्ष, मनुष्य, प्राणी, कुत्ते, देवता तो जो चेतना की अति-उत्कृष्ट कक्षा है , उन चेतनों  में सर्वोत्तम चेतन अथवा अचेतनो में जो में चेतना का संचार करने वाला है । एक होते हुए भी जो अनेको की कामना पूरी करता है जैसे सभी जीना चाहते हैं तो भगवान् वायुरूप हो करके सबको जिलाता है, सब भोग करना चाहते हैं तो अन्न होकर के भगवान् सबको भोग देता है। एक होते हुए भी अनेको की इच्छाओं को पूरा करना । विरोधी इच्छाओ को भी पूरी करता है, रावण की इच्छा भी पूरी करता है और राम की इच्छा भी पूरी करता है । ऐसे उन भगवान को पीठके मध्यमें विराजमान करके शाण्डिल्यादि महर्षियोंके निर्देशानुसार जो धीरपुरुष भजन करते हैं  उन्हीको शास्वत सुख प्राप्त होता है दूसरोंको नहीं ये जो पीठ यहां  बताया है इसका पूरी तरह स्पष्ट  वर्णन पञ्चरात्र आदि जो आगम शास्त्रों में है क्योंकि उनमें उपासना का विस्तृत वर्णन है, यहाँ तो खाली सङ्केत किया गया है । 

 

एतद्विष्णोः परमं पदं ये

नित्योद्युक्तास्तं यजन्ति न कामात् ।

तेषामसौ गोपरूपःप्रयत्ना

त्प्रकाशयेदात्मपदं तदेव ॥ ५॥

 

ये जो विष्णु का परम पद है, इस विषय में जो नित्य उत्साह युक्त होकर  अनुसन्धान करते हैं, इस परम पद का पूजन करते हैं, यजन्ति माने अपनी अंतर्वृत्तियों को उनके लिए समर्पित करते हैं  | उनके लिये ये जो गोपाल रूप हैं वो प्रयत्न के द्वारा,माने सतत अभ्यास के द्वारा प्रत्यक्ष भासते हैं | जो आत्म-पद है, उस आत्म शब्द से उद्भासित या लक्षित है  उसका प्रकाश कर देते हैं। आत्मा शब्दकी व्युत्पत्ति इस श्लोकमें बहुत ही स्पष्ट रूपसे समझाई है |

 यच्चाप्नोति यदादत्ते यच्चात्ति विषयानिह ।

 यच्चास्य सन्ततो भावः तस्मादात्मेति कीर्त्यते । 

इसका साम्प्रदायिक अर्थ है कि जो आत्मा सुषुप्ति अवस्था में प्राज्ञ रूपसे सबको व्याप्त करके रहता है (आप्नोति = व्याप्नोति ) और स्वप्न अवस्था में तैजस रूपसे सब कुछ ग्रहण करता है |  ( आदत्ते = गृह्णाति ) और जाग्रत अवस्था में वैश्वानर रूपसे सभी विषयों का भोग करता है  अद् भक्षणे  ( अत्ति = भुङ्क्ते  ) और चौथा लक्षण है सन्तत भाव  ( अतति = अत , सातत्यगमने ) तुरीय रूपसे तीनों अवस्थाओं में व्याप्त रहता है ,  हमेशां ज्ञानस्वरूप ही रहता है | 

 

यो ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं

यो विद्यां तस्मै गोपयति स्म कृष्णः ।

तं ह देवमात्मबुद्धिप्रकाशं

मुमुक्षुः शरणं व्रजेत् ॥ ६॥

 

जिन्होंने पहले हिरण्यगर्भ की रचना की, ब्रह्मा को उत्पन्न किया और जिन्होंने ब्रह्मा जी के लिए विद्या का प्रकाश किया और विद्या की रक्षा की, उन्ही देवता को, हमें आत्मज्ञान सम्बन्धिनी   बुध्दि के उद्भास के लिये { आत्मज्ञान के लिये } ।  यानी के जैसे वृत्तियाँ स्वभाव से ही बहिर्गामिनी होती हैं, बाहरकी तरफ ही विषय देश में जाती हैं ये उनका स्वभाव है, परन्तु कोई धीर पुरुष उनका प्रत्याहार करके, उनको लौटा के उनके बाहरी मार्ग को अवरुद्ध करके अन्दर की तरफ अगर प्रवाहित कर लेता है , वृत्ति जब आत्मसम्बन्धिनी हो जाती है तब आत्मा का प्रकाश होता है, उस प्रकाश के लिए मुमुक्षु उसकी शरण में जाये । उसी की शरण में जानेसे आत्मविज्ञानका प्रकाश होता है | तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत। तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्।।18.62।।

   हे भारत तू सर्वभावसे उस ईश्वरकी ही शरणमें जा अर्थात् संसारके समस्त क्लेशोंका नाश करनेके लिये मन? वाणी और शरीरद्वारा सब प्रकारसे उस ईश्वरका ही आश्रय ग्रहण कर। फिर उस ईश्वरके अनुग्रहसे परम -- उत्तम शान्तिको? अर्थात् उपरतिको और शाश्वत स्थानको अर्थात् मुझ विष्णुके परम नित्यधामको प्राप्त करेगा।  सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः।।18.66।। सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर तू केवल मेरी शरणमें आ जा। मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, चिन्ता मत कर।  गीता 

 

ओङ्कारेणान्तरितं ये जपन्ति

गोविन्दस्य पञ्चपदं मनुम् ।

तेषामसौ दर्शयेदात्मरूपं

तस्मान्मुमुक्षुरभ्यसेन्नित्यशान्तिः ॥ ७॥

 

ओङ्कार ये युक्त करके (जैसे कि ॐ क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजन वल्लभाय स्वाहा) ये जो पांच पद वाला मन्त्र है जो इसका जप करते हैं उन लोगो के लिए जो सच्चिदानंद स्वरुप हैं वो अपने स्वरुप का प्रकाश करते हैं । इसलिए मुमुक्षु को समाहित हो करके इस विद्या का नित्य अभ्यास करना चाहिए । नित्य ही शमयुक्त होकर , शान्त होकर बार बार मन्त्रार्थका चिन्तन करना चाहिये |  तज्जपः तदर्थभावनम् : उस मन्त्रका जप करते समय उस मन्त्र के अर्थका भावन करना , भावन का मतलब है बार बार चित्तमें स्थापित करना | ऐसा करनेसे शाश्वती शान्तिका लाभ होता है |

 

एतस्मादेव पञ्चपदादभूव

न्गोविन्दस्य मनवो मानवानाम् ।

दशार्णाद्यास्तेऽपि संक्रन्दनाद्यै

रभ्यस्यन्ते भूतिकामैर्यथावत् ॥ ८॥ 

 

इन्ही पांच पदों के द्वारा जो मन्त्र बनता है, वो मनुष्यों के लिए गोविन्द का सान्निध्य प्राप्त कराने में समर्थ है । दस अक्षरों से युक्त करके, उस मन्त्रको शक्तिमान बना करके, ऐश्वर्य की कामना वाले यथावत उसका अभ्यास करें । इसमें जो आदि दशार्ण का प्रयोग बताया है,  जैसे  अं,आं ,इं , ईं , उं, ऊं  एं,  ऐं , ओं, औं ,  उसमें एक एक अक्षर को लम्बा लम्बा करके बोलना जैसे संक्रन्दन कर रहे हों , रो रहे हों { आतुर होकर पुकारना } क्योंकि जब आकर्षण , विकर्षण , संकर्षण होता है तब संक्रन्दन भी होता है जैसे  गोपियां रो रो कर पुकारती हैं |

 अजात पक्षा इव मातरं खगाः,

स्तन्यं यथा वत्स तराः क्षुधार्ताः।

प्रियं प्रियेव व्युषितं विषण्णा,

मनोऽरविन्दाक्ष दिदृक्षते त्वाम्।।

  जैसे अण्डेमें से निकला हुआ पक्षी का बालक जिसके पंख अभी पुष्ट नहीं हुए हैं वह व्याकुल होकर माँ को पुकारता है अथवा बछड़ा अपनी गैय्या मैय्या को डकरा डकरा कर बुलाता है अथवा विरहिणी प्रियतमा अपने प्रियतम के लिये विषाद करती है ऐसे ही जब भक्त भगवान को पुकारता है तो भगवान दौड़े चले आते हैं | अथवा पञ्चप्रणव कोअनुलोम , विलोम करके मूलमन्त्र के आदि , अन्त में प्रयोग करना | 

 पञ्च प्रणव हैं - क्लीं ह्रीं श्रीं ऐं ॐ ; इनका विलोम होगा  ॐ ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं ; | तो प्रयोग होगा इस प्रकार = {  क्लीं ह्रीं श्रीं ऐं ॐ   क्लीं कृष्णाय गोविन्दाय गोपीजन वल्ल्भाय स्वाहा ॐ ऐं श्रीं ह्रीं क्लीं }  इन  अर्णों में जो अकार  है वो पुरुष का प्रतीक है  और इकार शक्ति का स्वरुप है । तो इनके संयोजन करने से ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है।

 

पप्रच्छुस्तदुहोवाच ब्रह्मसदनं चरतो मे ध्यातः

स्तुतः परमेश्वरः परार्धान्ते सोऽबुध्यत । कोपदेष्टा

मे पुरुषः पुरस्तादाविर्बभूव । ततः प्रणतो मयानुकूलेन

हृदा मह्यमष्टादशार्णस्वरूपं सृष्टये दत्त्वान्तर्हितः । 

पुनस्ते सिसृक्षतो मे प्रादुरभूवन् ।

तेष्वक्षरेषु विभज्य भविष्यज्जगद्रूपं प्राकाशयम् ।

तदिह कादाकालात्पृथिवीतोऽग्निर्बिन्दोरिन्दुस्तत्संपातात्तदर्क इति ।

क्लींकारादजस्रं कृष्णादाकाशं खाद्वायुरुत्तरात्सुरभिविद्याः

प्रादुरकार्षमकार्षमिति । तदुत्तरात्स्त्रीपुंसादिभेदं 

सकलमिदं सकलमिदमिति ॥ ३॥

 

नारद के पूंछनेपर ब्रह्माजी  कहते हैं कि  :मैं एक बार अपने ही लोकमें ब्रह्मसदन में  में घूम रहा था । मैंने परमेश्वर का ध्यान/स्तुति किया और परार्ध के अन्त में  स्तुति करने के बाद,मुझे प्रबोध हुआ | यानि ब्रह्मा जी की आयु जब पूरी होती है तो उसे परार्धान्त  कहते हैं (ब्रह्मा जी के ५० वर्ष को पूर्वार्ध और ५१वे वर्ष से १०० वर्षतक की कालावधि को परार्ध   कहते हैं), अर्थात् प्रलयकाल के बाद एक प्रकाशपुञ्ज के रूप में कोई पुरुष मेरे सामने  आविर्भूत हुआ , कोई अनिर्वचनीय उपदेष्टा पुरुष मेरे सामने प्रकट हुआ । उस पुरुष ने मुझ भक्त को प्रणाम करता हुआ देखकर , मुझे अनुकूल समझ करके, हृदयके अन्तर्देश में सृष्टि संरचनार्थ अट्ठारह अक्षरों वाला यह मन्त्र मुझे देकरके अंतर्धान हो गया। और जब मैंने सृष्टि करनेकी इच्छा की  तो ये मन्त्रकी  शक्तियां मेरे सामने प्रकट हो गयीं । उन्ही अक्षरों को विभाग करके भविष्य में होने वाला जो जगत का रूप था उसको  मैंने प्रकाशित किया, अर्थात् उसका मुझे ज्ञान हो गया, वो सब ज्ञान मेरे लिये प्रकाशित होने लगा। तदनन्तर कुछ काल बीत जाने के बाद, पृथ्वी में से अग्नि उत्पन्न हुई, उसमें से बिंदु उत्पन्न हुआ उसमें से इन्दु अर्थात चन्द्रमा उत्पन्न हुआ और इन सबको मिलाकर के सूर्य की उत्पत्ति हुई। और क्लींकार स्वरुप जो कृष्ण हैं उनसे नित्य रहने वाला जो आकाश है वो उत्पन्न हुआ, और उससे वायु उत्पन्न हुई। वायु के बाद, मधु विद्या (ब्रह्म विद्या) उत्पन्न हुई । मैंने उसको उप्तन्न किया ।  उसके बाद स्त्री और पुरुष के भेद वाला ये सकल (कला-सहित) समस्त प्रपंच प्रकट हुआ । 

 

एतस्यैव यजनेन चन्द्रध्वजो गतमोहमात्मानं वेदयति । 

ओङ्कारालिकं मनुमावर्तयेत् । सङ्गरहितोभ्यानयत् ।

 तद्विष्णोः परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरयः । दिवीव चक्षुराततम् ।

तस्मादेनं नित्यमावर्तवेन्नित्यमावर्तयेदिति । ॥४॥

 

ये अष्टादशाक्षरी जो विद्या है इसी के यजन-ध्यान-पूजन-स्तवन करने से चंद्रध्वज, माने मन ही जिसकी ध्वजा है, मन जिसमें अग्रणी है, जिसने मनपर अपनी विजयध्वजा  फहराई है |  सामान्य जीवों के व्यवहार में मन ही शासन करता है;  और विशिष्ट जीवों के व्यवहारमें मनके ऊपर बुद्धि शाशन करती  है | { बुद्धिं तु सारथिं विद्धि } जब बुद्धि शाशन करेगी मोह माने अविवेक नहीं रहेगा  तो ये जो जीव है वो मोह से विगत हो कर अपने यथार्थ स्वरूप को जानता  है | ये अष्टादशाक्षरी विद्या आत्मज्ञान करा देती है। ॐकार से संयुक्त इस मन्त्र का जप करे और आसक्ति से रहित हो कर के इसका अभ्यास करे, वही विष्णु नामक व्यापक जो ब्रह्म है, महर्षि लोग नित्य निरंतर उन्हें देखते हैं और उन्हें दिव्य चक्षुओं की उपलब्धि होती है । इसलिए इसको (अष्टादशाक्षरी) को बार बार दोहराना चाहिए, अभ्यास करना चाहिए ।

 

तदाहुरेके यस्य प्रथमपदाद्भूमिर्द्वितीयपदाज्जलं

तृतीयपदात्तेजश्चतुर्थपदाद्वायुश्चरमपदाद्व्योमेति ।

वैष्णवं पञ्चव्याहृतिमथं मन्त्रं कृष्णावभासकं 

कैवल्यस्य सृत्यै सततमावर्तयेत्सततमावर्तयेदिति ॥ ५॥ 

 

ये जो पांच पद हैं, इसके प्रथम पद से भूमि की उत्पत्ति हुई, दुसरे पद से जल की उत्पत्ति हुई, तीसरे पद से तेज की उत्पत्ति हुई, चौथे पद से वायु की उत्पत्ति हुई और आखिरी पद से आकाश की उत्पत्ति हुई।

पांच व्याहृतियों (भू भुवः स्वः महः जनः) ये पांच व्याहृतियों के साथ कृष्ण का द्योतन/दर्शन कराने वाला ये जो मन्त्र है, मोक्ष को उत्पन्न करने में समर्थ है, क्योंकि मोक्ष नित्य पुरुषार्थ कहा जाता है, धर्म, अर्थ, काम क्षीण हो जाते हैं । अर्थ और काम तो क्षीण होते हैं ये देखने में भी आता है, धर्म के बारे में पता नहीं लगता है, उसके लिए श्रुति प्रमाण हैं । "तद्यथेह कर्मचितो लोकः क्षीयत एवमेवामुत्र पुण्यचितो लोकः क्षीयते " ऐसा श्रुति का मन्त्र है, तो ये सब अनित्य है । तो मोक्ष नाम का जो नित्य पुरुषार्थ है उसकी सिद्धि के लिए जो अष्टादशाक्षरी विद्या है इसका नित्य निरंतर अभ्यास करते रहना चाहिए । दो बार कहने का अर्थ आदर और निश्चय होता है।

 

तदत्र गाथाः 

यस्य चाद्यपदाद्भूमिर्द्वितीयात्सलिलोद्भवः ।

तृतीयात्तेज उद्भूतं चतुर्थाद्गन्धवाहनः ॥ १॥

 

जिसके पहले चरण से भूमि उत्पन्न हुई, दुसरे चरण से जल का उद्भावन हुआ, तीसरे पद से तेज का उद्भावन हुआ, चतुर्थ पद से वायु प्रकट हुआ । 

 

पञ्चमादम्बरोत्पत्तिस्तमेवैकं समभ्यसेत् ।

चन्द्रध्वजोऽगमद्विष्णोः परमं पदमव्ययम् ॥ २॥

 

पांचवे पद से आकाशकी उत्पत्ति हुई । उस एक तत्व का ही, अष्टादशाक्षरी विद्या का ही  अभ्यास करें । तो ये चन्द्रध्वज संज्ञक जो जीवोंका अधिष्ठान चैतन्य जो हिरण्यगर्भ  है , उसको  विष्णुके  अव्यय ,अक्षर पद का ज्ञान हुआ  ।

 

ततो विशुद्धं विमलं विशोक

मशेषलोभादिनिरस्तसङ्गम् ।

यत्तत्पदं पञ्चपदं तदेव

स वासुदेवो न यतोऽन्यदस्ति ॥ ३॥

 

  इसके बाद जो विशुद्ध है, उसमें कोई मिलावट नहीं है । प्रकृति और पुरुष , दो नहीं एक ही तत्व है । 

प्रकृतिश्च प्रतिज्ञा दृष्टान्तानुपरोधात् ,  वे .  सू .  1, 4, 23  परमात्मा का ही एक नाम प्रकृति है। जब जड़ता की प्रधानता से उसका नाम लेते हैं तो प्रकृति बोलते हैं और चेतनता की प्रधानता से उसका नाम लेते हैं तो ब्रह्म बोलते हैं। असल में वस्तु एक ही है, जो अंगरूप से कारण का चिन्तन करते हैं, उसके लिए वह प्रकृति है और जो स्वरूप रूप से कारण का चिन्तन करते हैं उनके लिए वह ब्रह्म है। दृष्टिकोण का ही अन्तर है। जैसे एक सोना से तरह-तरह के जेवर बनते हैं, एक मिट्टी से तरह-तरह के बरतन बनते हैं, एक लोहे से तरह-तरह के सामान बनते हैं। इसी तरह से एक परमात्मा से यह सारी सृष्टि बनी हुई है।

मयाऽध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम्। हेतुनाऽनेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते।।9.10।।

 इसी से यहाँ बताया कि ‘सूयते सचराचरम्’ - यह प्रकृति सचराचर जगत की - जिसमें चलने-फिरने वाले भी हैं और न चलने-फिरने वाले भी हैं। सबकी सृष्टि करती है | 

  प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्ध्यनादी उभावपि। विकारांश्च गुणांश्चैव विद्धि प्रकृतिसंभवान्।।13.20।। तो वो तत्व विशुद्ध है, अद्वैत है। उसमें कोई मल नहीं है कोई विकार नहीं है, शोक, मोह नहीं है। और सभी प्रकार के विकार; लोभादि, आसक्ति से दूर है । तो वह जो विष्णु का पद है वो ये पांच पद ही हैं । ये वही वासुदेव है और इससे भिन्न कुछ भी नहीं है ।

 

तमेकं गोविन्दं सच्चिदानन्दविग्रहं पञ्चपदं

वृन्दावनसुरभूरुहतलासीनं सततं मरुद्गणोऽहं 

परमया स्तुत्या स्तोष्यामि ॥ 

 

  उन्ही एक गोविन्द को जो सच्चिदानन्द विग्रह पंचपद स्वरुप है । वृन्दावन में कल्पवृक्ष/पारिजात के नीचे बैठे हुए श्री कृष्ण को मैं मरुद्गण हो कर के परम स्तुति के द्वारा उनका स्तवन करता हूँ 

और वो इस मन्त्र से स्तवन करते हैं :

ॐ नमो विश्वस्वरूपाय विश्वस्थित्यन्तहेतवे ।

विश्वेश्वराय विश्वाय गोविन्दाय नमोनमः ॥ १॥

 

ॐ विश्वस्वरूपाय नमः, विश्वरूप को  नमस्कार , जो विश्व की स्थिति और अन्त माने प्रलय में जो हेतु हैं, कारण हैं उनको मैं नमस्कार करता हूँ, वे ही विश्व के ईश्वर भी हैं और विश्वरूप भी वे ही हैं । वेदान्त में, परमात्मा को जगत का अभिन्न निमित्तोपादान कहा जाता है मतलब निमित्त भी वही और उपादान भी वही यानी मिटटी भी वही और घड़ा भी वही, कुम्हार भी वही, जगत भी वही, जगत का बनाने वाला भी वही, विश्व का मालिक भी वही और विश्व भी वही; ऐसे गोविन्द को मैं बार बार नमस्कार करता हूँ।

 

नमो विज्ञानरूपाय परमानन्दरूपिणे ।

कृष्णाय गोपीनाथाय गोविन्दाय नमोनमः ॥ २॥

 

वो परमात्मा विज्ञान स्वरुप हैं, अनुभव स्वरुप हैं क्योंकि उनसे भिन्न कुछ भी नहीं, वो सर्व स्वरुप हैं इसलिए उनसे भिन्न कुछ है ही नहीं। सबको आकर्षित करने वाले हैं, इन इन्द्रियों को ही गोपी मान लीजिये, जिनसे जगत की प्रतीति होती है, इनके वो नाथ हैं और इनका पालन और रक्षण करने वाले हैं ऐसे गोविन्द को मेरा नमस्कार है ।

 

नमः कमलनेत्राय नमः कमलमालिने ।

नमः कमलनाभाय कमलापतये नमः ॥ ३॥

 

कमल-दल जैसे जिनके नेत्र हैं, जिन्होंने कमल की माला पहनी हुई है,

जिनकी नाभि में भी कमल है, वो जो बौद्ध लोग जब करते हैं न "ॐ मणिपद्मे हुम् ", नाभि में यानी मणिपुर चक्र में जो पद्म है उसके अन्दर जो शक्ति है, सारी शक्तियों का स्रोत नाभि में ही रहता है । क्योंकि वह समान वायु का स्थान है | तो जो जगत की नाभि स्वरुप हैं , केन्द्र स्वरूप हैं ऐसे कमलापति (लक्ष्मीपति) को नमस्कार है ।

 

बर्हापीडाभिरामाय रामायाकुण्ठमेधसे ।

रमामानसहंसाय गोविन्दाय नमोनमः ॥ ४॥

 

मोर मुकुट जिन्होंने अपनी पगड़ी में लगाया हुआ है और उस मोर मुकुट से जो अत्यंत सुन्दर दिख रहे हैं। रामाय, माने बलराम स्वरुप अथवा राम भद्र स्वरुप, या सबको रमण कराने वाले या योगी लोग जिसमें रमण करते हैं, ऐसी बहुत सी परिभाषाएं 'राम' शब्द के लिए हैं । वो राम अकुण्ठ मेधसे - जिनकी मेधा (मेधा/स्मरणशक्ति/धारणाशक्ति) अकुण्ठित है - भगवान का एक नाम बैकुण्ठ भी है - विगत: कुण्ठा यस्मात्- जिसके अन्दर से कुण्ठा निकल गई हो; जहां कोई अवरोध नहीं है, कोई कुण्ठा नहीं है । तो जिनकी स्मृति में कोई अवरोध नहीं है, कोई कुण्ठा नहीं है ऐसे अकुण्ठ मेधा वाले को मैं नमस्कार करता हूँ । लक्ष्मी के अंतःकरण रुपी सरोवर में हँस स्वरुप विराजमान गोविन्द को बारम्बार नमस्कार है। 

 

कंसवंशविनाशाय केशिचाणूरघातिने ।

वृषभध्वजवन्द्याय पार्थसारथये नमः ॥ ५॥

 

कंस के वंश का विनाश करने वाले, केशी और चाणूर नाम के दैत्यों अथवा असुरों को मारने वाले, शङ्कर के द्वारा वन्दित, अर्जुन (पार्थ माने पृथा के, कुन्ती के पुत्र) के सारथी उनको नमस्कार है ।

 

वेणुनादविनोदाय गोपालायाहिमर्दिने ।

कालिन्दीकूललोलाय लोलकुण्डलधारिणे ॥ ६॥

 

वंशी बजाने में जिनको बहुत आनन्द आता है, कालिया नाम के सर्प का मर्दन करने वाले, यमुना के किनारे आनन्दित रहने वाले और रास करने वाले, हिलते हुए कुण्डलों को धारण करने वाले, उनको नमस्कार है ।

 

वल्लवीवदनाम्भोजमालिने नृत्तशालिने ।

नमः प्रणतपालाय श्रीकृष्णाय नमोनमः ॥ ७॥

 

चारों तरफ गोपियां नृत्य कर रही हैं और बीच में श्री कृष्ण हैं तो ऐसा  लगता है मानो गोपियों के मुख कमलों की माला माला पहने हुए हैं अथवा नए नए कमलों की माला पहनने वाले और नृत्य करने वाले, नृत्यशील; जो शरणागत हैं उनका पालन करने वाले श्री कृष्ण को बारम्बार नमस्कार है ।

 

नमः पापप्रणाशाय गोवर्धनधराय च ।

पूतनाजीवितान्ताय तृणावर्तासुहारिणे ॥ ८॥

 

पाप का, कपट का, दम्भ का, छल का नाश करने वाले और गोवर्धन नाम के पर्वत को धारण करने वाले, पूतना के जीवन का अन्त करने वाले, तृणावर्त नाम के दैत्य के प्राणो का हरण करने वाले को नमस्कार है ।

 

निष्कलाय विमोहाय शुद्धायाशुद्धवैरिणे ।

अद्वितीयाय महते श्रीकृष्णाय नमोनमः ॥ ९॥

 

कला-रहित, निर्विशेष, मोह से रहित, जिनके अन्तः करण से मोह निकल गया है (अविवेक, भ्रम, संशय यह सब मोह के पर्याय हैं ), ये सब जिसमें नहीं है ऐसे, और जो निर्मल शुद्ध स्वरूप हैं तथा अशुद्ध के जो वैरी हैं,  जो अद्वितीय हैं  | उनके सिवाय दूसरा कोई नहीं है, सबसे बड़े, पूज्य, उन कृष्ण को बार बार नमस्कार है ।

 

प्रसीद परमानन्द प्रसीद परमेश्वर ।

आधिव्याधिभुजङ्गेन दष्टं मामुद्धर प्रभो ॥ १०॥

 

हे परमानन्द स्वरुप परमेश्वर ! आप   प्रसन्न हों , कृपा करें । आधि माने मानसिक तनाव, व्याधि माने शारीरिक बीमारी, ये आधि-व्याधि रुपी सर्प के द्वारा मुझे डसा गया है; मैं उस सर्प के द्वारा ग्रसित हूँ मुझे उसके मुँह से निकालिये, मेरा उद्धार कीजिये, हे मालिक, सर्व-शक्तिमान मेरी रक्षा करें, मेरा उद्धार करें ।

 

श्रीकृष्ण रुक्मिणीकान्त गोपीजनमनोहर ।

संसारसागरे मग्नं मामुद्धर जगद्गुरो ॥ ११॥

 

हे श्रीकृष्ण ! हे रुक्मिणी के लिए प्रिय ! हे रुक्मिणी रमण ! गोपीजन के मन को हरण करने वाले, संसार सागर में मुझ डूबते हुए का, हे जगद्गुरु ! मेरा उद्धार कीजिये ।

 

केशव क्लेशहरण नारायण जनार्दन ।

गोविन्द परमानन्द मां समुद्धर माधव ॥ १२॥

 

हे केशव ! हे ब्रह्मा और शिव के ईश्वर, हे क्लेश ( पाँच क्लेश - अज्ञान, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश ) हरण करने वाले ! हे नारायण ! (नार माने ज्ञान और ज्ञान के अयन माने आश्रय, ज्ञान स्वरुप ) और जनार्दन, जना कहते हैं माया को और माया का अर्दन माने उसको चूर चूर करके नष्ट करने वाले अथवा जो दुर्जन लोग हैं उसको मारने वाले, मेरा ठीक ठीक प्रकार से उद्धार कीजिये ।

 

  अथैवं स्तुतिभिराराधयामि । तथा यूयं पञ्चपदं जपन्तः 

श्रीकृष्णं ध्यायन्तः संसृतिं तरिष्यथेति होवाच

हैरण्यगर्भः । अमुं पञ्चपदं मनुमार्तयेयेद्यः स 

यात्यनायासतः केवलं तत्पदं तत् । अनेजदेकं मनसो जवीयो

नैनद्देवा आप्नुवन्पूर्वमर्षदिति । तस्मात्कृष्ण एव परमं 

देवस्तं ध्यायेत् । तं रसयेत् । तं यजेत् । तं भजेत् । 

 

अब इसके बाद इस प्रकार स्तुतियों के द्वारा, अराधना करता हूँ । तुम सब लोग, ब्रह्मा जी से पूछने वाले जो ऋषिलोग थे, उनके लिए कहते हैं; कि ये पांच पद वाला, पांच शब्दों वाला जो मन्त्र है इसका जप करते हुए, श्री कृष्ण का ध्यान करते हुए इस संसार से तर जाओगे, इसके पार चले जाओगे, हिरण्यगर्भ भगवान ने ऐसा कहा । जो इस पांच पद वाले मन्त्र का आवर्तन करता है वो बिना प्रयास के ही वो जो केवल, अद्वैत मोक्ष का पद है उसको प्राप्त कर लेता है । ये कम्पन रहित,नित्य , सनातन  ये विरुद्ध धर्माश्रय परमात्मा हैं,  ये एक हैं अर्थात् अद्वितीय हैं और मन से भी ज्यादा तीव्र गति वाले हैं क्योंकि आकाश को कहीं जाना नहीं पड़ता, जो सब जगह पहले से ही विद्यमान है, मन में सबसे ज्यादा कम्पन है, सबसे ज्यादा हिलने वाले, मन से भी ज्यादा वेगवान, गतिवान, ।  देवता इसको दौड़ में नहीं पकड़ पाए, ये देवताओं से पहले पहुँच गया, इसलिए कृष्ण ही परम देव, सर्वोत्कृष्ट देव हैं, उनका ही ध्यान करें, उनका अनुसन्धान करें; चिन्तन करें; अनुशीलन करें, उनका ही रस लें , उनकी पूजा करें, उनका सेवन करें; अनुभव करें ।

 

ॐ तत्सदित्युपनिषत् ॥

वो जो है, वही नित्य है , सत्य है , सनातन है । यही उपनिषत् है |  यही रहस्य विद्या है | यही ब्रह्मविद्या है | 

 

ॐ भद्रं कर्णेभिः श‍ृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ॥

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवाꣳसस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥

स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ 1.1

 

हे देवताओ ऐसी कृपा करो की हम कानों से (कानों के देवता हैं (दिक्) दिशा रुपी जो देवता हैं वो हमारे ऊपर ऐसी कृपा करें कि कानों से हम भद्र (यानी कल्याण) का श्रवण करें । भद्र और सुभद्र, ये सब भगवान् के नाम हैं । श्रीमद्भागवत मेंकहा है - तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ,श्रवण मंगलम् श्री मदाततम् , । विष्णुसहस्रनाम में भी -   विश्रुतात्मा ;   शुचिश्रवाः ;पुण्यश्रवणकीर्तनः ;   पवित्रं मङ्गलं परम्‌    ऐसे नाम हैं, तो हम कानों से उन परमात्मा का ही परम तत्व का ज्ञान ही श्रवण करें और आँखों से हम केवल भद्र यानि कल्याण ही देखें, यज्ञ करें, स्थिर अंगों के द्वारा आपकी स्तुति करें । और जब तक हमारी आयु रहे हम उस परमात्म देव की सेवा के लिए ही प्रयत्नशील हों ।

महा यशस्वी इन्द्र हमारे लिए कल्याण साधन उपस्थित करें, हमारे लिए अनुकूल हो जाएं क्योंकि इन्द्र हाथों के देव हैं और हाथों से ही कर्म का अनुष्ठान होता है इसी लिये कर्म की ही प्रशंसा होती है अतः इन्द्र से प्रार्थना है कि हमारा कर्म यशस्वी हो , सनातन हो | { स्वस्ति शब्दो सनातन वचनः } 

सारे विश्व को जानने वाले और पोषण करने वाले  सूर्य देव हैं वे हमारे लिए स्वस्ति या कल्याण का सम्पादन करें ।

जिनकी गति कहीं अवरुद्ध नहीं होती है, ऐसे अरिष्टनेमि भगवान गरुड़, तार्क्ष्य माने गरुड़, वो हमारे लिए स्वस्ति का, कल्याण का विधान करें ।

विस्तृत जो वाणी है, उसके जो पति हैं,   ( बृहती पतिः = बृहस्पतिः ) बृहस्पति वो गुरु तत्व हमारे लिए स्वस्ति या कल्याण का विधान करें ।इसके बाद "ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः" ऐसा तीन बार कहते हैं, तो तीनो तापों की (आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक) त्रिविध तापों की शान्ति हो ।

 

 

इति गोपालपूर्वतापिन्युपनिषत्समाप्ता ॥

गोपाल पूर्वतापनि उपनिषद, के गोपाल तत्व का प्रतिपादन करने वाले रहस्य का पूर्व भाग यहाँ  पूरा हुआ । अब  उत्तर भाग में  प्रवेश करते हैं |  ॐ शिवाय गुरवे नमः 

 

2.1

(गोपालोत्तरतापिन्युपनिषत्)

ॐ एकदा हि व्रजस्त्रियः सकामाः शर्वरीमुषित्वा

सर्वेश्वरं गोपालं कृष्णमूचिरे । उवाच ताः

कृष्ण अमुकस्मै ब्राह्मणाय भैक्ष्यं दातव्यमिति

दुर्वासस इति । कथं यास्यामो जलं तीर्त्वा यमुनायाः ।

यतः श्रेयो भवति कृष्णेति ब्रह्मचारीत्युक्त्वा मार्गं

वो दास्यति । यं मां स्मृत्वाऽगाधा गाधा भवति ।

यं मां स्मृत्वाऽपूतः पूतो भवति । यं मां स्मृत्वाऽव्रती

व्रती भवति । यं मां स्मृत्वा सकामो निष्कामो भवति ।

यं मां स्मृत्वाऽश्रोत्रियः श्रोत्रियो भवति । यं मां

स्मृत्वाऽगाधतः स्पर्शरहितापि सर्वा सरिद्गाधा भवति ।

श्रुत्वा तद्वाक्यं हि वै रौद्रं स्मृत्वा तद्वाक्येन तीर्त्वा

तत्सौर्यां हि वै गत्वाश्रमं पुण्यतमं हि वै नत्वा मुनिं

श्रेष्ठतमं हि वै रौद्रं चेति । दत्त्वास्मै ब्राह्मणाय

  क्षीरमयं घृतमयमिष्टतमं हि वै मृष्टतमं

हि तुष्टः स्नात्वा भुक्त्वा हित्वशिषं प्रयुज्यान्नं ज्ञात्वादात् ।

कथं यास्यामो तीर्त्वा सौर्याम् । स होवाच मुनिर्दुर्वासनं

मां स्मृत्वा वो दास्यतीति मार्गम् । तासां मध्ये हि श्रेष्ठा

गान्धर्वी ह्युवाच तं तं हि वै तामिः । एवं कथं कृष्णो

ब्रह्मचारी । कथं दुर्वासनो मुनिः । तां हि मुख्यां विधाय

पूर्वमनुकृत्वा तूष्णीमासुः । शब्दवानाकाशः शब्दाकाशाभ्यां

भिन्नः । तस्मिन्नाकाशस्तिष्ठति । आकाशे तिष्ठति

स ह्याकाशस्तं न वेद । स ह्यात्मा ।

अहं कथं भोक्ता भवामि । रूपवदिदं तेजो रूपाग्निभ्यां

भिन्नम् । तस्मिन्नग्निस्तिष्ठति । अग्नौ तिष्ठति अग्निस्तं

न वेद । स ह्यात्मा । अहं कथं भोक्ता भवामि । रसवत्य

आपो रसाद्भ्यां भिन्नाः । तास्वापस्तिष्ठन्ति । अप्सु

भूमिर्गन्धभूमिभ्यां भिन्ना । तस्यां भूमिस्तिष्ठति ।

भूमौ तिष्ठति । भूमिस्तं न वेद । स ह्यात्मा । अहं कथं

भोक्ता भवामि । इदं हि मनसैवेदं मनुते । तानिदं हि गृह्णाति ।

यत्र सर्वमात्मैवाभूत्तत्र कुत्र वा मनुते । कथं वा गच्छतीति ।

स ह्यात्मा । अहं कथं भोक्ता भवामि । अयं हि कृष्णो यो हि

प्रेष्ठः शरीरद्वयकारणं भवति । द्वा सुपर्णा भवतो

ब्रह्मणोऽहं संभूतस्तथेतरो भोक्ता भवति । अन्यो हि साक्षी

भवतीति । वृक्षधर्मे तौ तिष्ठतः । अतू भोक्तभोक्तारौ । पूर्वो

हि भोक्ता भवति । तथेतरोऽभोक्ता कृष्णो भवतीति । यत्र विद्याविद्ये

न विदाम । विद्याविद्याभ्यां भिन्नो विद्यामयो हि यः कथं विषयी

भवतीति । यो ह वै कामेन कामान्कामयते स कामी भवति । यो ह वै

त्वकामेन कामान्कामयते सोऽकामी भवति । जन्मजराभ्यां

भिन्नः स्थाणुरयमच्छेद्योऽयं योऽसौ सूर्ये तिष्ठति योऽसौ

गोषु तिष्ठति । योऽसौ गोपान्पालयति । योऽसौ सर्वेषु देवेषु

तिष्ठति । योऽसौ सर्वैर्देवैर्गीयते । योऽसौ सर्वेषु भूतेष्वाविश्य

भूतानि विदधाति स वो हि स्वामी भवति । सा होवाच गान्धर्वी ।

कथं वास्मासु जातो गोपालः कथं वा ज्ञातोऽसौ त्वया मुने कृष्णः ।

को वास्य मन्त्रः किं स्थानम् । कथं वा देवक्या जातः । को वास्य

जायाग्रामो भवति । कीदृशी पूजास्य गोपालस्य भवति । साक्षात्प्रकृति

परोऽयमात्मा गोपालः कथं त्ववतीर्णो भूम्यां हि वै

सा गान्धर्वी मुनिमुवाच । स होवाच तां हि वै पूर्वं नारायणो

यस्मिंल्लोका ओताश्च प्रोताश्च तस्य हृत्पद्माजातोऽब्जयोनिस्तपस्तपस्तप्त्वा

तस्मै ह वरं ददौ । स कामप्रश्नमेव वव्रे । तं हास्मै ददौ ।

स होवाचाब्जयोनिः यो वावताराणां मध्ये श्रेष्ठोऽवतारः

को भवति । येन लोकास्तुष्टा भवन्ति । यं स्मृत्वा मुक्ता

अस्मात्संसाराद्भवन्ति । कथं वास्यावतारस्य ब्रह्मता भवति ।

स होवाच तं हि वै नारायणो देवः । सकाम्या मेरोः शृङ्गे

यथा सप्तपुर्यो भवन्ति तथा निष्काम्याः सकाम्या

भूगोपालचक्रे सप्तपुर्यो भवन्ति । तासां मध्ये साक्षाद्ब्रह्म

गोपालपुरी भवति । सकाम्या निष्काम्या देवानां सर्वेषां

भूतानां भवति । अथास्य भजनं भवति । यथा हि वै सरसि

पद्मं तिष्ठति तथा भूम्यां तिष्ठति । चक्रेण रक्षिता

मथुरा । तस्माद्गोपालपुरी भवति बृहद्बृहद्वनं मधोर्मधुवनं

तालस्तालवनं काम्यं काम्यवनं बहुला बहुलवनं कुमुदः

कुमुदवनं खदिरः खदिरवनं भद्रो भद्रवनं भाण्डीर इति

भाण्डीरवनं श्रीवनं लोहवनं वृन्दावनमेतैरावृता पुरी

भवति । तत्र तेष्वेव गगनेश्वेवं देवा मनुष्या गन्धर्वा नागाः

किंनरा गायन्ति नृत्यन्तीति । तत्र द्वादशादित्या एकादश रुद्रा

अष्टौ वसवः सप्त मुनयो ब्रह्मा नारदश्च पञ्च विनायका

वीरेश्वरो रुद्रेश्वरोऽम्बिकेश्वरो गणेश्वरो नीलकण्ठेश्वरो विश्वेश्वरो

गोपालेश्वरो भद्रेश्वर इत्यष्टावन्यानि लिङ्गानि चतुर्विंशतिर्भवन्ति ।

द्वे वने स्तः कृष्णवनं भद्रवनम् । तयोरन्तर्द्वादश वनानि

पुण्यानि पुण्यतमानि । तेश्वेव देवास्तिष्ठन्ति । सिद्धाः सिद्धिं प्राप्ताः ।

तत्र हि रामस्य राममूर्तिः प्रद्युम्नस्य प्रद्युम्नमूर्तिरनिरुद्धस्य

अनिरुद्धमूर्तिः कृष्णस्य कृष्णमूर्तिः । वनेश्वेवं मथुरास्वेवं

द्वादश मूर्तयो भवन्ति । एकां हि रुद्रा यजन्ति । द्वितीयां हि ब्रह्मा यजति ।

तृतीयां ब्रह्मजा यजन्ति । चतुर्थीं मरुतो यजन्ति । पञ्चमीं विनायका

यजन्ति । षष्ठीं च वसवो यजन्ति । सप्तमीमृषयो यजन्ति ।

नवमीमप्सरसो यजन्ति । दशमी वै ह्यन्तर्धाने तिष्ठति । एकादशीति

स्वपदानुगा । द्वादशीति भूम्यां तिष्ठति । तां हि ये यजन्ति ते

मृत्युं तरन्ति । मुक्तिं लभन्ते । गर्भजन्मजरामरणतापत्रयात्मकदुःखं

तरन्ति । तदप्येते श्लोका भवन्ति ।

 

अब गोपाल उत्तर तापनि उपनषिद यानी गोपालतापनि उपनिषद के उत्तर भाग का विश्लेषण करते हैं ।

 

एक बार व्रज की स्त्रियां सकाम भाव से, रात्रि बिताने के बाद सर्वेश्वर गोपाल कृष्ण से बोली। हे कृष्ण किसी ब्राह्मण को भिक्षा देनी है और वो हैं दुर्वासा; दुर्वासा शब्द के तीन अर्थ होतेहैं  १  दुर्वासा माने  अच्छे कपडे नहीं पहनने वाला और सुवासा माने अच्छे कपडे पहनने वाला । २  जिसके कपडोंसे अच्छी गन्ध न आती हो ३ जो केवल दूव नामकी  घास का ही भोजन करे { यः दूर्वां अशति } तो कैसे हम जाएं उनके पास वे तो  यमुना नदी के उस पार विराजते हैं हम कैसे यमुना नदी पार करके उनके पास जायेंगे ? और यदि हम उनके पास नहीं पहुंच सके तो हमारे व्रतकी पूर्ति कैसे होगी ? हे कृष्ण ! कोई ऐसा उपाय बताओ जिससे हमारा कल्याण हो | तब श्रीकृष्ण  ने कहा की आप यमुना से कहना कि कृष्ण ब्रह्मचारी हैं, ऐसा कहने से यमुना आपको मार्ग दे देगी, क्योंकि मेरा स्मरण करने से अगाध यानि के अथाह, जो यमुना है वो थाह वाली हो जाएगी क्योंकि मेरा स्मरण करने से अपवित्र, पवित्र हो जाता है, अव्रती भी व्रती (जो दृढ निश्चय वाले नहीं है वो दृढ निश्चय वाले हो जाते हैं) हो जाते हैं, सकाम, निष्काम हो जाते हैं; अवेदविद, वेद विद हो जाते हैं; मेरा स्मरण करने से अगाध, अथाह स्पर्श से रहित जो नदी है वो स्पर्श वाली हो जाती है, आप उसके तल पर पैर रख सकते हैं । इन वाक्यों को सुनकर के, रुद्रांश दुर्वासाजीका स्मरण करके वो जो प्रतापशाली, पराक्रमी भगवान कृष्ण हैं, उनका स्मरण करके और उनके वाक्य से कि "कृष्ण ब्रह्मचारी हैं, आप हमें मार्ग दो", यह वाक्य सुनकर यमुना ( सौर्यां - सूर्य की पुत्री, यमुना ) के पार हो गयीं । 

 

तदनन्तर यमुना पार करके दुर्वासा जी के पवित्र आश्रम में पहुँच गयी और वहाँ रुद्रावतार मुनि दुर्वासाको नमस्कार करके, ये जो पराक्रमशाली जो रुद्र हैं (रुरून् , प्राणान् द्रावयति इति रुद्रः - जो प्राणो को द्रवणशील बनाते हैं अथवा जो दुःखों को पिघला देते हैं, नष्ट कर देते हैं इसलिए उनका नाम रूद्र है , रुजं दुःखं द्रावयति इति रुद्रः  अथवा " रोदयति सर्वमंतकाले इति रुद्रः " रोरूयमाणो द्रवतीति वा, रोदयतेर्वा, “ रुतौ नादांते द्रवति " नाद से परे प्रकट होने वाला) ऐसे महामुनि  दुर्वासा जी को उन्होंने दूध से बनाए हुए, घी से बनाए हुए , उनकी पसंदके  प्रिय पदार्थ मुलायम मुलायम मालपुए आदि पदार्थ, ये सब दे करके, दुर्वासा जी उससे तुष्ट हुए, उन्होंने स्नान किया, भोग लगाया और फिर आशीष दिया, तब गोपियों ने कहा किअब  हम यमुना को कैसे पार कर के जायेंगे? तब दुर्वासा (जो केवल दूर्वा का ही असन करते थे, इसलिए उनका एक नाम दूर्वाशन भी था) ने कहा कि यमुना से कहना कि यदि दुर्वासा, दूर्वा के सिवाय और कुछ नहीं खाते हों तो हमें मार्ग दें । इस प्रकार मेरा स्मरण करने से यमुना जी आपको मार्ग दे देंगी । तो जो मध्य में जो गान्धर्वी (ये राधा का दूसरा नाम है) नाम की गोपी थी, वो बोली, कि ये क्या है? कृष्ण ने कहा था कि मैं ब्रह्मचारी हूँ , और हम जानते हैं कि वे तो गोपियोंके पीछे पीछे भटकते हैं और ये महात्माजी  ये लड्डू, पूड़ी, खीर, हलवा खाने के बाद कहते हैं कि मैं केवल दूर्वा खाता हूँ और कुछ नहीं खाता, राधिका जी को मुख्य बना कर के बाकी सब गोपिया चुप रहीं, गान्धर्वी  यानि राधिका जी ने पूछा, कि कृष्ण कैसे ब्रह्मचारी हैं और आप कैसे मात्र दूर्वासन हैं ? तब दुर्वासा जी ने ये उपनिषद विद्या बताई कि आकाश शब्द वाला है लेकिन शब्द आकाश से भिन्न है और उसी आकाश में वो शब्द रहता है परन्तु आकाश उसको नहीं जानता, आकाश ही शब्द की आत्मा है । तो इस प्रकार आकाश शब्दसे भिन्न भी है और अभिन्न भी है | जैसे स्वरूप से आकाश शून्य साक्षी मात्र है और स्वभावसे शब्दरूप है उसी प्रकार  मैं  स्वरूपसे अभोक्ता और स्वभावसे भोक्ता हूँ और मैं जो कुछ भी खाता हूँ उसे दूर्वा दृष्टि से ही खाता हूँ तो मैं अन्य रसों का भोक्ता किस तरह हो जाऊंगा ? जैसे कि रूपवान यह तेज है, परन्तु रूप और अग्नि से भिन्न है, उस तेजमें ही अग्नि रहता है  अग्नि में ही रूप रहता है (यानी कि तेज में ही रूप रहता है) लेकिन अग्नि उसे नहीं जानता इसी प्रकार यह आत्मा है ऐसा समझ के अब यह बताओ कि मैं भोक्ता कैसे हुआ? और भी दुसरे उदहारण देते हैं जल रसवान है, लेकिन जल रस से भिन्न है, जल में ही रस रहते हैं, जल में ही भूमि और गंध भी रहते हैं लेकिन जल उन सबसे भिन्न है । भूमि जल में ही रहती है लेकिन रस भूमि में नहीं रहते, भूमि उनको जानती भी नहीं और वो रस ही भूमि कि आत्मा है । ये सब विचार करके आप बताएं कि मैं भोक्ता कैसे हुआ ? मन के द्वारा ही मनन होता है, वो मन ही इन विषयों को ग्रहण करता है । जहा पर यह सब कुछ आत्मा ही हो जाता है, आत्मा से भिन्न कुछ नहीं होता, तो कैसे मनन करेगा उसके लिए तो दो वस्तु चाहिए, एक मन और दूसरा मननीय पदार्थ । मन ही विषयों को ग्रहण करता है लेकिन जहाँ सब कुछ आत्मा ही हो जाता है तो मन किस प्रकार पदार्थ का मनन करे? दो हों तो मनन करे न ? कैसे ज्ञान होगा उसका क्योंकि ये तो आत्मा है, अतः मैं भोक्ता कैसे हुआ ? ये जो कृष्ण हैं, ये श्रेष्ठ हैं, प्रेष्ठ (प्रियतम, प्रेम का विषय) हैं, सूक्ष्म और स्थूल शरीर, इन दोनों के कारण हैं।

यत्र हि द्वैतमिव भवति तदितर इतरं जिघ्रति तदितर इतरं पश्यति तदितर इतर शृणोति तदितर इतरमभिवदति तदितर इतरं मनुते तदितर इतरं विजानाति यत्र वा अस्य सर्वमात्मैवाभूत्तत्केन कं जिघ्रेत्तत्केन कं पश्येत्तत्केन कं शृणुयात्तत्केन कमभिवदेत्तत् केन कं मन्वीत तत् केन कं विजानीयाद्येनेद सर्वं विजानाति तं केन विजानीयाद्विज्ञातारमरे केन विजानीयादिति॥

दो पक्षी होते हैं, उपनिषद में एक कथा है न - द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया ।  जीव और ईश्वर दो पक्षी हैं, एक ही वृक्ष में रहते हैं । एक भोक्ता है और दूसरा अभोक्ता है, एक केवल साक्षी मात्र है और वृक्ष के आधार में, अधिष्ठान में दोनों रहते हैं ।शरीर ही वह वृक्ष है जिसमें एक जीव भोक्ता और दूसरा परमात्मा अभोक्ता है, जो जीव है वही इन्द्रिय , प्राण , मन और बुद्धि से मिलकर  भोक्ता हो जाता है और जो दूसरा है वो अभोक्ता, शुद्ध साक्षी ,कृष्ण होता है । तो जहाँ पर हम विद्या और अविद्या में भेद रेखा नहीं खींच पाते, विद्या और अविद्या के स्वरूप को नहीं जानते, विद्या और अविद्या से भिन्न शुद्ध विद्या में ये जो साक्षी हैं इसको जब तक हम नहीं जानते तभी तक इस शुद्ध चेतनामें  हम भोक्ता होनेका आरोप करते हैं । यह किसी भी प्रकारसे विषयी नहीं होता, भोक्ता नहीं होता । जो कामसे कामकी  कामना करता है, वही कामी होता है । जो अकाम हो कर के कामनाओं की  कामना करता है वह अकामी होता है । जैसे भगवान् ने गीता में कहा न - तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।।4.13।। इस जगतका कर्ता होते हुए भी मुझे अव्यय , अकर्ता ही जानो कारण कि कर्मोंके फलमें मेरी स्पृहा नहीं है, इसलिये मुझे कर्म लिप्त नहीं करते। इस प्रकार जो मुझे तत्त्वसे जान लेता है, वह भी कर्मोंसे नहीं बँधता। 

  न मां कर्माणि लिम्पन्ति न मे कर्मफले स्पृहा। इति मां योऽभिजानाति कर्मभिर्न स बध्यते।।4.14।।

   इस भूतमय प्रपञ्च का मैं कर्ता  हूँ पर तुम मुझे अकर्ता जानो । तो इस प्रकार से जो अकाम हो कर के कामना करता है, जैसे ईशावास्य उपनिषद में कहा है - तेन त्यक्तेन भुञ्जीथाः - त्याग पूर्वक भोग करो; मा गृधः कस्यस्विद्धनम् - किसी के धन की आशा मत करो, ग्रहण मत करो, लोभ मत करो तो जन्म जराभ्यां भिन्नः - जो अज है, नित्य है; न जायते म्रियते वा कदाचित्  - गीता और कठोपनिषद में प्रतिपादित जो आत्मतत्व अथवा ब्रह्मतत्व है वो स्थाणु है, स्थिर है, अचञ्चल साक्षी है, अच्छेद्य है, जो सूर्य में निवास करता है जो किरणों में, गायों में, वृत्तियों में निवास करता है और जो सारे जीवों का पालन करता है जो इन सब देवताओं का अधिष्ठान है, उनके अन्दर रहता है अन्तर्यामी रूप से, जो सब देवताओं के द्वारा स्तुति प्राप्त करता है, सारे देवता जिसका गान करते हैं, जो सब प्राणियों के अन्दर प्रवेश करके जीवो का निर्माण करता है, वही हमारा सबका स्वामी होता है । 

तो गान्धर्वी ने कहा: अरे जो हमारे बीच में ही पैदा हुआ, हमारे बीच में ही बड़ा हुआ उस गोपाल कृष्ण को हे मुनि  आपने कैसे जाना ? इस कृष्ण के बारे में आप हमें बताइये। इनका क्या मन्त्र है? इनका अधिष्ठान क्या है ? ये किस प्रकार देवकी से उत्पन्न हुआ? कौन इनकी पत्नियां होंगी? कैसे इनकी पूजा की जाती है? ये गोपाल कैसे हुए? साक्षात् प्रकृति से पर ये आत्मा स्वरूप गोपाल पृथ्वी पर कैसे अवतीर्ण हुए?

 

तब मुनि ने गान्धर्वी को कहा: पहले यही नारायण थे, जिनमे लोक ओत-प्रोत थे, जैसे ताना-बाना होता है न वस्त्रों में; एक दुसरे से मिला हुआ, ऐसे ही ये जगत और जगदीश्वर एक हैं। इन्ही के हृदय कमल में जो अब्ज-योनि, पद्म-गर्भ, जो ब्रह्मा जी हैं, उन्होंने तप करके अर्थात् विचार करके इनका साक्षात्कार किया तब इन्ही नारायण जी ने ब्रह्मा जी को वर दिया कि तुम्हें संकल्प सिद्धि होगी । तब  ब्रह्माजी ने प्रश्न पूछा -  कि आपके सब अवतारों में श्रेष्ठतम अवतार कौन हैं, जिससे सारे लोक संतुष्ट हो जाते हैं, जिनका स्मरण करके मुक्त हो जाते हैं और इस संसार सागर से पार हो जाते हैं? किस प्रकारआपके अवतारकी ब्रह्मता सिद्ध  होती है ?

नारायण ने ब्रह्माजी को बताया:  कि  नारायण देव के संकल्प से मेरु पर्वत पर देवताओं की सात पुरियों का निर्माण होता है । तो जो देवलोक की नगरियां हैं वो सकाम कही जाती हैं  १ इंद्रकी अमरावती २ अग्निकी अशोकवती 

 ३ वरुणकी  भोगवती ४ ईशानकी सिद्धवती ५ वायुकी गान्धर्ववती ६ कुबेरकी अलकावती ७ निर्ऋतिकी  यशोवती  और ब्रह्मलोक सम्बन्धिनी जो पुरियां हैं वो निष्काम कही जाती हैं - तो निष्काम और सकाम, जैसे पितृलोक, इन्द्रलोक सकाम हैं और महः ,  जनः, तपः, सत्यम्  निष्काम हैं ।  इसी प्रकार से भूलोक में गोपाल की सात पुरियां होती हैं १ अयोध्या २ मथुरा ३ हरिद्वार ४ काशी ५ काञ्ची ६ उज्जैन ७ द्वारका  तो इस भूगोपालचक्रके मध्यस्थानमें  जो गोपाल पुरी है वो मथुरा साक्षात् ब्रह्म स्वरूपा है । इन पुरियोंमें सभी प्रकारके सकाम जीवात्मा प्राणी और देवता निवास करते हैं | यदि व्यक्ति भजन करे तो इन पुरियों के प्रभावसे सकामता से  निष्कामता की ओर अग्रसर होता है । अतः इन स्थानोंमें भक्ति करनी चाहिए,  यहाँ यदि सत्संग लाभ होजाय तो भजनमें मन लगता है ।

 जैसे तालाब में एक कमल रहता है वैसे ही स्थल कमल भी होता है तो इस ब्रह्मतत्व में भूमि रहती है और इस भूमि का केंद्र है मथुरा, सुदर्शन चक्र से रक्षित अतः इस को गोपाल पुरी कहते हैं । इस गोपाल पुरी के चारों ओर बहुत से वन हैं, एक बृहत् वन है वो बहुत बड़ा है ।  एक बहुत मीठा, जिसमें बहुत ही मीठे मीठे फल होते हैं ऐसा मधुवन है । जिसमें बहुत से तालके वृक्ष हैं, उसको तालवन कहते हैं । जो कामनाओं  की पूर्ती करने वाला है, वो काम्यवन है । जहाँ पर अनेक वृक्ष जातियोंका का बाहुल्य है उसका नाम है बहुलवन है । जिसमें बहुत कुमुद खिलते हैं उसका नाम है कुमुदवन । जिसमें बहुत से कत्था के पेड़ हैं उसको खदिरवन कहते हैं । जो मोक्ष देने वाला, कल्याण देने वाला है वो भद्रवन है । भाण्डीरवन  जहाँ सब प्रकार के तत्त्वज्ञान तथा ऐश्वर्य-माधुर्यपूर्ण लीला-माधुरियों का सम्पूर्ण रूप से प्रकाश हो, उसे भाण्डीरवन कहते हैं।, श्रीवन,को { विल्ववन भी कहते हैं, शोभा युक्त वन }  लौहवन,{श्रीकृष्ण ने यहीं पर गोचारण करते समय लोहजंघासुर का वध किया था }   वृन्दावन { जहां तुलसी की झाड़ियां अधिक मात्रा में हों वह वृन्दावन  इन सब वनों से ढकी हुई, घिरी हुई ये गोपालपुरी है । इन वनों में आकाशमें  देवता, मनुष्य, गन्धर्व, किन्नर, नाग  गान करते हैं और नृत्य करते हैं । वहाँ उस दिव्य मथुरा धाममें 

   १२ आदित्य,  { 1अंशुमान, 2 अर्यमा , 3  इन्द्र,  4 त्वष्टा, 5  धाता , 6  पर्जन्य,  7 पूषा,  8 भग,  9 मित्र, 

  10 वरुण, 11  विवस्वान और 12  विष्णु।

 ११ रूद्र, {1- कपाली 2- पिंगल 3- भीम 4- विरुपाक्ष 5- विलोहित 6- शास्ता 7- अजपाद 8- अहिर्बुधन्य 9- शंभु 10- चण्ड 11- भव } 

  ८ वसु,  { 1. आप, 2. ध्रुव, 3. सोम, 4. धर, 5. अनिल, 6. अनल, 7. प्रत्यूष और 8. प्रभाष। } 

 ७ मुनि, { क्रतु, पुलह, पुलस्त्य, अत्रि, अंगिरस, वशिष्ठ तथा मारीचि हैं। ब्रह्मा, नारद, पांच विनायक, { पंचविनायक-१ मोद, २ प्रमोद, ३ दुर्मुख,४सुमुख और  ५गणनायक.}  वीरेश्वर, रुद्रेश्वर, अम्बिकेश्वर, गणेश्वर,नीलकण्ठेश्वर, विश्वेश्वर, गोपालेश्वर, भद्रेश्वर - ये आठ बड़े बड़े लिङ्ग हैं । तो ये सब मिला कर के ये २४ स्थान हो जाते हैं । प्रकृति में २४ तत्व कहे गए हैं न - ५ महाभूत, ५ ज्ञानेन्द्रियाँ, ५ कर्मेन्द्रियाँ, ५ प्राण, ४ अन्तःकरण; यही जो एकादश रूद्र, द्वादश आदित्य, ब्रह्मा जी; ये मिलाकर के, २४ होकर के २४ तत्व हो जाते हैं और इनके अधिष्ठान केंद्र में मुख्यरूपसे दो वन हैं, कृष्णवन और भद्रवन, कृष्णवन - मोक्ष देनेवाला और भद्रवन - जो संसार के भोग देनेवाला है । उनके अन्दर १२ वन हैं, जो की परम पुण्यतम हैं, उन्ही में देवता लोग निवास करते हैं, सिद्ध लोग सिद्धि को प्राप्त करते हैं, वही पर राम की राममूर्ति यानि के बलराम की मूर्ति - सङ्कर्षण तत्व, प्रद्युम्न माने काम-मूर्ति, अनिरुद्ध माने अहंकार की मूर्ति और कृष्ण-वासुदेव माने परब्रह्म की मूर्ति । इस प्रकार वनों का वर्णन किया और जैसा वर्णन किया, मथुरा में भी वही स्थिति है । वहाँ पर भी द्वादश मूर्तियां होती है । इनमे से एक मूर्ति का रूद्र भजन करते हैं और दूसरी मूर्ति का ब्रह्मा भजन करते हैं, तीसरी मूर्ति का सनत कुमारादि, नारदादि जो ब्रह्मा के पुत्र हैं वो तीसरी मूर्ति का भजन करते हैं और चौथी को मरुद्गण उपासना करते हैं । तो मूर्तियां है चार, अनिरुद्ध, प्रद्युम्न, वासुदेव, सङ्कर्षण । क्रम यह है - वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध । जो पांचवी मूर्ति है उसकी  विनायक लोग पूजा करते हैं, छठी की वसु लोग पूजा करते हैं, सातवीं की ऋषि पूजा करते हैं , नौवीं की अप्सराएं पूजा करती हैं, दसवीं मूर्ति अंतर्धान रूपसे, अव्यक्त , अप्रकट रूपसे रहती है | ग्यारहवीं की स्वपदानुगा, अपने ही स्वरूपमें प्रतिष्ठित रहती है जो भगवान् के परम भक्त हैं, वो पूजा करते हैं और बारहबीं भगवान की मूर्ति भूमि पर विराजती है । तो इस प्रकार से भगवान् की १२ मूर्तियां बतायीं । मुख्य तो चार हैं लेकिन द्वादशादित्य के रूप से भगवान् की १२ मूर्तियां हो जाती हैं । इनकी जो उपासना करते हैं वो मृत्यु से, यानि के अज्ञान से तर जाते हैं और मुक्ति को प्राप्त करते हैं । उन्हें गर्भ-जन्म, जरा, मरण, तापत्रय और दुःख, ये सब नहीं देखने पड़ते, इन सबसे तर जाते हैं ।  तो सारभूत ये श्लोक होता है ।

 

संप्राप्य मथुरा रम्यां सदा ब्रह्मादिवन्दिताम् ।

शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गरक्षितां मुसलादिभिः ॥ १॥

 

यत्रासौ संस्थितः कृष्णः स्त्रीभिः शक्त्या समाहितः ।

रमानिरुद्धप्रद्युम्नै रुक्मिण्या सहितो विभुः ॥ २॥

मधुर रमणीय मथुरा को प्राप्त करके यानी जानकर के जो मथुरा ब्रह्मा आदि देवताओं से वन्दित है और शङ्ख, चक्र, गदा और धनुष के द्वारा रक्षित है, मुसलादि आयुधों से जो सुरक्षित है, जहाँ भगवान कृष्ण अनेक स्त्रियों के द्वारा, जैसे के आत्मदेव अनेक वृत्तियों से घिरे रहते है उसी तरह ये कृष्ण स्वरुप परमात्मदेव अनेक स्त्री-रुपी शक्तियों से घिरे हुए, समाहित, अपने स्वरूप में प्रतिष्ठित ।  रमा माने लक्ष्मी, रुक्मिणी और अनिरुद्ध-प्रद्युम्न, इन सबके साथ, ये सर्व व्यापक जो आकाश के समान हैं, वो वहाँ विराजमान हैं ।

 

2.2

चतुःशब्दो भवेदेको ह्योंकारश्च उदाहृतः । तस्मादेव

परो रजसेति सोऽहमित्यवधार्यात्मानं गोपालोऽहमिति भावयेत् ।

स मोक्षमश्नुते । स ब्रह्मत्वमधिगच्छति । स ब्रह्मविद्भवति ।

स गोपाञ्जीवानात्मत्वेन सृष्टिपर्यन्तमालाति । स गोपालो

ह्यों भवति । तत्सत्सोऽहम् । परं ब्रह्म कृष्णात्मको

नित्यानन्दैक्यस्वरूपः सोऽहम् । तत्सद्गोपालोऽहमेव । परं

सत्यमबाधितं सोऽहमित्यत्मानमादाय मनसैक्यं कुर्यात् ।

आत्मानं गोपालोऽहमिति भावयेत् । स एवाव्यक्तोऽनन्तो नित्यो गोपालः ।

 

जैसे चार शब्दों से मिलकर ॐकार होता है; अकार, उकार, मकार और अर्धमात्रा अथवा जागृत स्वप्न, सुषुप्ति, तुरीया उसी प्रकार से ये जो परम देव हैं, रज (माने माया से मुक्त, माया से ऊपर) वही मैं हूँ, ऐसी धारणा करके, समझ प्राप्त करे, कि मैं ही गोपाल हूँ ऐसी भावना करे तो उसे मोक्ष प्राप्त होता है । वह ब्रह्मत्व को समझ जाता है । वह ब्रह्मज्ञानी हो जाता है । वह गोपो को, जीवों को अपना ही स्वरुप समझ कर के सृष्टिपर्यन्त उनका पालन करता है ।उनको यथारूप में स्वीकार करता है |  वह ॐकार स्वरुप गोपाल ही हो जाता है । वही सत्य है, वही मैं हूँ । जो परमब्रह्म कृष्ण हैं, उनसे एकरूप हो जाता है, वही मैं हूँ । वह सत्यस्वरूप गोपाल ही मैं हूँ । जो परम सत्य है, अबाधित है, कभी मिथ्या नहीं होता है, वही मैं हूँ । इस प्रकार से अपने स्वरुप को समझ कर के ऐक्य की भावना करे । अपने आप को 'ब्रह्माहम् ', 'गोपालोहम् ', इस प्रकार की भावना करे । वही अव्यक्त, अनन्त, नित्य, अविनाशी गोपाल है ।

 

मथुरायां स्थितिर्ब्रह्मन्सर्वदा मे भविष्यति ।

शङ्खचक्रगदापद्मवनमालाधरस्य वै ॥ १॥

 

ब्रह्मा जी को नारायण ने बताया: हे ब्रह्मन् !  सदा मेरी स्थिति मथुरा में ही होगी, मैं वहाँ पर शङ्ख, चक्र, गदा, पद्म और वनमाला धारण करके नित्य निवास करता हूँ ।

 

विश्वरूपं परंज्योतिः स्वरूपं रूपवर्जितम् ।

मथुरामण्डले यस्तु जम्बूद्वीपे स्थितोऽपि वा ॥ २॥

 

विश्वरूप परमज्योति, आत्मस्वरूप(रूपवर्जित), वही परब्रह्मतत्व जम्बूद्वीप में, मथुरा मंडल में स्थित है ।

 

योऽर्चयेत्प्रतिमां मां च स मे प्रियतरो भुवि ।

तस्यामधिष्ठितः कृष्णरूपी पूज्यस्त्वया सदा ॥ ३॥

 

जो मेरी प्रतिमा को या मुझे साक्षात् रूप में अर्चना करता है, वह मुझे प्रियतम है । उस मथुरा में अधिष्ठित कृष्ण रुपी जो परब्रह्म है, तुम्हारे द्वारा वो सदा पूज्य हो।

 

चतुर्धा चास्यावतारभेदत्वेन यजन्ति माम् ।

युगानुवर्तिनो लोका यजन्तीह सुमेधसः ॥ ४॥

 

इनके चार प्रकार से अवतार भेद हुए हैं । ये युगानुवर्ती हैं । सतयुग में ये भगवान सफेद ब्राह्मण रूप में हो जाते हैं, त्रेतायुग में लाल, क्षत्रिय रूप हो जाते हैं और द्वापरयुग में पीत, वैश्यरूप हो जाते हैं और कलियुग में यही कृष्ण हो जाते हैं । बुद्धिमान लोग युगानुरूप इसी प्रकार इनकी पूजा करते हैं |(श्रीमद्भागवतएकादशस्कन्ध में  वर्णन है ) चारोंयुगोंमें भगवान श्रीहरिका ध्यान का

  १.  कृते शुक्लश्चतुर्बाहुः जटिलो वल्कलाम्बरः ।

 कृष्णाजिनोपवीताक्षान् बिभ्रद् दण्डकमण्डलू ॥ २१ ॥ 

           श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः ११/अध्यायः ५

सत्य युग  में भगवान का श्वेत वर्ण होता है, वे चार भुजाएँ, सिर पर  जटा, वल्कल वस्त्र, काले मृगका चर्म, यज्ञोपवीत, रुद्राक्ष की माला, दण्ड और कमण्डलु धारण करते है | सतयुग के मनुष्य भगवान के इसी स्वरूप का ध्यान करते थे | अखण्डतपयोग_ध्यान ही भगवत्प्राप्ति का मार्ग था 

 

    २.  त्रेतायां रक्तवर्णोऽसौ चतुर्बाहुस्त्रिमेखलः ।

 हिरण्यकेशः त्रय्यात्मा स्रुक् स्रुवाद्युपलक्षणः ॥ २४ ॥ 

 त्रेतायुग में भगवान का रक्त (लाल) वर्ण होता है, ये चार भुजाएं धारण करते हैं। उनके केश सुनहरे होते है और वे वेदप्रतिपादित यज्ञ के रूप में रहकर स्रुक्, स्रुवा आदि यज्ञपात्रों को धारण करते है | त्रेता के मनुष्य भगवान के इसी स्वरूप का ध्यान करते थे | वेदोक्त_यज्ञ ही भगवत्प्राप्ति का मार्ग था | 

 

 

 

३.  द्वापरे भगवान् श्यामः पीतवासा निजायुधः ।

 श्रीवत्सादिभिरङ्कैश्च लक्षणैरुपलक्षितः ॥ २७ ॥    

 द्वापरयुग मे भगवान श्याम (सांवले) वर्ण के होते है। वे पीताम्बर और शंख, चक्र, आदि आयुध धारण करते है। वक्षःस्थल पर श्रीवत्स आदि चिह्नों और अनेक लक्षणों से वे पहचाने जाते है । द्वापर के मनुष्य भगवान के इसी स्वरूप का ध्यान करते थे | सकामपूजन कर्मकाण्ड ही भगवत्प्राप्ति का मार्ग था | 

 

 

 

४.   कृष्णवर्णं त्विषाकृष्णं साङ्गोपाङ्गास्त्र पार्षदम् ।

 यज्ञैः सङ्कीर्तनप्रायैः यजन्ति हि सुमेधसः ॥ ३२ ॥    

 कलियुग में काले वर्ण की कान्ति से, अंगों और उपांगों, अस्त्रों एवं पार्षदों से युक्त भगवान श्रीकृष्ण की श्रेष्ठ बुद्धि सम्पन्न पुरूष यज्ञों के द्वारा और प्रधान रूप से नाम कीर्तन आदि के द्वारा आराधना करते है | 

 

 

 

 

गोपालं सानुजं कृष्णं रुक्मिण्या सह तत्परम् ।

गोपालोऽहमजो नित्यः प्रद्युम्नोऽहं सनातनः ॥ ५॥

 

अपने छोटे भाई के साथ गोपाल, कृष्ण, रुक्मिणी के साथ वही गोपाल मैं हूँ जो अज है, जो नित्य है और वही प्रद्युम्न मैं हूँ जो सनातन है । 

 

रामोऽहमनिरुद्धोऽहमात्मानं चार्चयेद्बुधः ।

मयोक्तेन स धर्मेण निष्कामेन विभागशः ॥ ६॥

 

   मैं ही राम हूँ  { यहाँ राम माने बलराम } अनिरुद्ध भी मैं ही हूँ इनको आत्मस्वरूप जानकर के जो विद्वान् पुरुष अर्चना करते हैं । मेरे द्वारा बताये हुए जो पंचरात्र के धर्म हैं अर्चना के धर्म हैं, उसकी निष्काम भाव से और विभाग से यानी वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न, और अनिरुद्ध माने चित्त,  बुद्धि, मन,  और अहंकार । इस प्रकार से विभाग से इनको समझकर के, इन सब में जो अनुस्यूत, परब्रह्म वासुदेव स्वरुप, उनकी पूजा करते हैं ।

 

तैरहं पूजनीयो हि भद्रकृष्णनिवासिभिः ।

तद्धर्मगतिहीना ये तस्यां मयि परायणाः ॥ ७॥

उन्हें माने भद्रवन में और कृष्णवन में जो निवास करते हैं उनके लिए, जो कर्मकांड आदि धर्म को नहीं जानते हैं लेकिन मेरे परायण हैं और कलि के दोषों से ग्रसित होने पर भी, मत्परायण होने के कारण,  मेरे परायण होने के कारण उन्हें परम गति प्राप्त होती है ।

 

 

कलिना ग्रसिता ये वै तेषां तस्यामवस्थितिः ।

यथा त्वं सह पुत्रैस्तु यथा रुद्रो गणैः सह ॥ ८॥

 

हे ब्रह्मा जी जो लोग कलि के प्रभाव से ग्रसित हैं  { कलह , राग , द्वेष आदि से विमूढ हैं } यदि वे भी मथुरा में निवास करें  तो जैसे तुम मुझे प्रिय हो और तुम्हारे पुत्र, सनत्कुमार, नारदादि मुझे प्रिय हैं,  जैसे रूद्र को अपने गण प्रिय हैं, उसी तरह मथुरा निवासी मुझे प्रिय हैं ।

 

यथा श्रियाभियुक्तोऽहं तथा भक्तो मम प्रियः ।

स होवाचाब्जयोनिश्चतुर्भिर्देवैः कथमेको देवः स्यात् ।

एकमक्षरं यद्विश्रुतमनेकाक्षरं कथं संभूतम् ।

स होवाच हि तं पूर्वमेकमेवाद्वितीयं ब्रह्मासीत् ।

तस्मादव्यक्तमेकाक्षरम् । तस्मादक्षरान्महत् ।

महतोऽहङ्कारः । तस्मादहङ्कारात्पञ्च तन्मात्राणि ।

तेभ्यो भूतानि । तैरावृतमक्षरम् ।

अक्षरोऽहमोंकारोऽयमजरोऽमरोऽभयोऽमृतो ब्रह्माभयं हि वै ।

स मुक्तोऽहमस्मि । अक्षरोऽहमस्मि ।

सत्तामात्रं चित्स्वरूपं प्रकाशं व्यापकं तथा ॥ ९॥

 

जैसे मुझे लक्ष्मी प्रिय है उसकी प्रकार मेरे भक्त मुझे प्रिय हैं ।

यह सब सुन कर के अब्जयोनि{ कमलजन्मा }  ब्रह्मा जी बोले कि बताइये कि चार देवताओं में से (वासुदेव, सङ्कर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध), ये चारों देवता एक कैसे हो गए ? एक अक्षर कहा जाता है ॐकार, उसी से सकल जगत प्रसूत होता है, वह एक अक्षर अनेक अक्षर कैसे हो गया?

 

नारायणदेव ने उत्तर दिया: वो पहले एक अद्वितीय ब्रह्म ही था । उससे अव्यक्त एकाक्षर { अ } से  प्रकृति प्रकट हुई । उसके बाद उस अक्षर से महतत्व फिर उस महतत्वसे अहंकार की उत्पत्ति हुई। उस अहंकार से पांच तन्मात्राएं प्रकट हुई । उन तन्मात्राओं से पांच भूतों कि उत्पत्ति हुई । उनके द्वारा ये अक्षर ढका हुआ है । मैं अक्षर हूँ । वही ॐकार है, वही अज है, वही अजर है, वही अमर है, वही अभय है, वही अमृत है, वही ब्रह्म है । ब्रह्म यानी व्यापक, एकतत्व और जहाँ व्यापक ब्रह्मतत्व का ज्ञान होता है वही पर अभय होता है । जहाँ दो होते हैं वहाँ भय होता है और जहाँ एक होता है वहाँ अभय होता है, ऐसा जान करके मैं मुक्त हूँ । मैं अक्षर हूँ, मैं सत्तामात्र हूँ, मैं चिन्मात्र हूँ, मैं प्रकाश मात्र  हूँ, मैं सर्व-व्यापक हूँ ।

 

एकमेवाद्वयं ब्रह्म मायया च चतुष्टयम् ।

रोहिणीतनयो विश्व अकाराक्षरसंभवः ॥ 2.2.१०॥

 

एक अद्वितीय ब्रह्म है परन्तु माया से वह चार प्रकार का दिखने लगता है रोहिणी तनय यानि बलराम जी जो है वो विश्व अकार अक्षर से उत्पन्न हुए । ॐ में जो अकार है वो बलराम हैं, वही विश्व है यानी पंचभूत से बना हुआ जो प्रकट, जागृत अवस्था में जो विश्व का दर्शन होता है यही रोहिणी तनय यानि संकर्षण भगवान् हैं । 

 

तैजसात्मकः प्रद्युम्न उकाराक्षरसंभवः ।

प्राज्ञात्मकोऽनिरुद्धोऽसौ मकाराक्षरसंभवः ॥ ११॥

 

तैजसात्मक जो उकार है उस उकार से सम्भूत; ये प्रद्युम्न हैं , प्राज्ञात्मक जो मकार है उसीसे अनिरुद्ध की उत्पत्ति  हुई है । 

 

अर्धमात्रात्मकः कृष्णो यस्मिन्विश्वं प्रतिष्ठितम् ।

कृष्णात्मिका जगत्कर्त्री मूलप्रकृती रुक्मिणी ॥ १२॥

 

अर्धमात्रा ही कृष्ण हैं जिसमें सम्पूर्ण विश्व प्रतिष्ठित है, यानि अकार, उकार और मकार ये सब अर्धमात्रा में प्रतिष्ठित हैं, कृष्ण से अभिन्न जगत की उपादान कारण भूता जो मूल प्रकृति है वही रुक्मिणी हैं ।

 

व्रजस्त्रीजनसंभूतः श्रुतिभ्यो ज्ञानसंगतः ।

प्रणवत्वेन प्रकृतित्वं वदन्ति ब्रह्मवादिनः ॥ १३॥

 

जो ब्रज की स्त्रियां हैं वही श्रुति के भिन्न भिन्न मन्त्र हैं |उन्ही वेदके मन्त्रों के आधार पर ज्ञानकी संगति बिठाई जाती है | उसी संगतिके संग्रहका नाम ब्रह्मसूत्र है |  जैसे प्रणव में तीन तत्व हैं, अकार, उकार, मकार; व्यष्टि में  (विश्व , जाग्रत) अकारसे उद्भूत जाग्रत अवस्थाके अभिमानी चेतनको विश्व कहते हैं |  ( तैजस ,स्वप्न) उकारसे उद्भूत स्वप्न अवस्थाके अभिमानी चेतनको तैजस कहते हैं |  ( प्राज्ञ ,सुषुप्ति )  और मकारसे उद्भूत सुषुप्ति अवस्थाके अभिमानी चेतनको प्राज्ञ कहते हैं | समष्टि में इन्हीको विराट , हिरण्यगर्भ  और ईश्वर कहते हैं |  वैसे ही प्रकृति में रजोगुण, तमोगुण और सत्वगुण हैं अतः जो प्रकृति है वही प्रणव है ऐसा ब्रह्मवादी लोग कहते हैं ।

 

तस्मादोंकारसंभूतो गोपालो विश्वसंस्थितः ।

क्लीमोंकारस्यैकतत्वं वदन्ति ब्रह्मवादिनः ॥ १४॥

 

उस ॐकार से ये विश्व प्रकट होता है, उसी का नाम गोपाल है, वही सारे विश्व का अधिष्ठान है । क्लींकार और ॐकार का एकत्व ब्रह्मवादी कहते हैं । क्लींकार अर्थात प्रकृति और ॐकार अर्थात ब्रह्म, यह दोनों   एक हैं, प्रकृति और पुरुष दोनों एक हैं । ब्रह्मसूत्र में एक सूत्र आता है  प्रकृतिश्च प्रतिज्ञादृष्टान्तानुपरोधात्।।1.4.23।।  प्रकृति भी परब्रह्म ही है क्योंकि प्रतिज्ञा और दृष्टांत से उसका समन्वय होता है । प्रतिज्ञा ये है कि एक तत्व के जानने से सबका ज्ञान हो जायेगा, तो एक तत्व के जानने से सबका ज्ञान कैसे हो जायेगा? तो दृष्टांत देते हैं जैसे एक स्वर्ण को जानने से समस्त सुवर्ण के आभूषणों का ज्ञान हो जाता है, जैसे एक  मिट्टी  को जानने से समस्त पार्थिव पदार्थों का ज्ञान हो जाता है वैसे ही एक सत् तत्व को जान लेने से समस्त विश्व का ज्ञान हो जाता है तो यदि प्रकृति और पुरुष दो हों तो एक के जानने से सबका ज्ञान हो जाता है ये प्रतिज्ञा पूरी नहीं हो पायेगी अतः प्रकृति भी ब्रह्म का ही एक नाम है । श्रीमद्भगवद्गीता का तेरहवां अध्याय इस विषय को

 समझने  में बहुत ही सहायक है | 

 

मथुरायां विशेषेण मां ध्यायन्मोक्षमश्नुते ।

अष्टपत्रं विकसितं हृत्पद्मं तत्र संस्थितम् ॥ १५॥

 

मथुरा माने मधुरा, मधुविद्या ,ब्रह्मविद्या तो विशेष रूप से इस ब्रह्मविद्या को समझ करके जो ध्यान करता है वो मोक्ष को प्राप्त करता है तो मथुरा ये मधुरा ब्रह्मविद्या का प्रतीक है, अंदर हृदय कमल में आठ पंखुड़ियां हैं, ये पंखुड़ियां ही अष्टधाप्रकृति है । भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च। अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।  पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश -- ये पञ्चमहाभूत और मन, बुद्धि तथा अहंकार -- यह आठ प्रकारके भेदोंवाली मेरी 'अपरा' प्रकृति है।

 

दिव्यध्वजातपत्रैस्तु चिह्नितं चरणद्वयम् ।

श्रीवत्सलाञ्छनं हृत्स्थं कौस्तुभं प्रभया युतम् ॥ १६॥

 

जो भगवान के श्रीचरण हैं, उनमें दिव्य ध्वजा और (आतपत्र) छत्र इन दिव्य चिन्हों से चिन्हित, चरणद्वय और श्रीवत्स का चिन्ह जिनके हृदय में धारण किया हुआ है   [ एक सात अंक की आकृतिकी स्वर्णमयी बालों की रेखा{ भँवरी } भगवान के  वक्षस्थल पर विराजमान है उसको श्रीवत्स का चिन्ह कहते हैं ] जो कि दक्षिणावर्त भौंरी के आकार का कहा गया है |  वक्षस्थल के बामभाग में ’भृगुलता‘ का चिह्व तथा दायें भाग में  ‘श्रीवत्स चिन्ह होता है । भृगुलता भगवान की सहिष्णुता और क्षमाशीलता का प्रतीक है तथा श्रीवत्स दर्शन शरणागति दायक और भक्तवत्सलता का प्रतीक हैं।  और मध्यभाग में  जो दिव्य प्रभासे युक्त कौस्तुभ मणि धारण किये हुए है ।

 

चतुर्भुजं शङ्खचक्रशार्ङ्गपद्मगदान्वितम् ।

सुकेयूरान्वितं बाहुं कण्ठमालसुशोभितम् ॥ १७॥

 

चार भुजा धारण करने वाले, शङ्ख, चक्र, गदा और शार्ङ्ग (धनुष का नाम), कमल आदि धारण किये हुए, केयूरों से युक्त (बाहु का आभूषण), कण्ठमाला से सुशोभित हैं ।

 

द्युमत्किरीटमभयं स्फुरन्मकरकुण्डलम् ।

हिरण्मयं सौम्यतनुं स्वभक्तायाभयप्रदम् ॥ १८॥

 

चमकीले मुकुट को धारण किये हुए, अद्वैत स्वरुप, चमकीले मकराकृति कुण्डलों को जिन्होंने धारण किया हुआ है, सोने जैसा चमकीला स्वरुप और अपने भक्तों को अभय देने वाले ।

 

ध्यायेन्मनसि मां नित्यं वेणुशृङ्गधरं तु वा ।

मथ्यते तु जगत्सर्वं ब्रह्मज्ञानेन येन वा ॥ १९॥

 

इस प्रकार से मन में नित्य ध्यान करें अथवा वेणु और सींग (ग्वालों के बजाने का वाद्य), जिनके ज्ञान से सर्व जगत का ज्ञान हो जाता है यानी एक ब्रह्म को यदि जान लें तो सबको जान सकते हैं क्योंकि सबके अंदर सच्चिदानंद रहा हुआ है । ये कहा जाता है वेदांत में - अस्ति भाति प्रियं रूपं नाम चेत्यंशपञ्चकम् । आद्यत्रयं ब्रह्मरूपं जगद्रूपं ततो द्वयम् ॥ अस्ति भाति और प्रिय , {  है, भान होता है और प्रिय है; यह ब्रह्म का रूप है } और सर्वव्यापक है तथा नाम और रूप ये बदलते रहते हैं, यही जगत का  रूप हैं यही मिथ्या है । 

 

मत्सारभूतं यद्यत्स्यान्मथुरा सा निगद्यते ।

अष्टदिक्पालकैर्भूमिपद्मं विकसितं जगत् ॥ 2.2.२०॥

 

बह्मज्ञान के  द्वारा जब  सम्पूर्ण जगत का मन्थन किया गया तब मेरा जो सारभूत है यानि ब्रह्मविद्या का जो सारभूत है, उसी का नाम मथुरा अथवा मधुरा विद्या है । जो अष्टदिक्पाल हैं वही अष्टदल कमल है जिसमें सारा जगत विकसित है ।  मथ्यते तु जगत्सर्वं ब्रह्मज्ञानेन येन वा। तत्सारभूतं यद्यत्स्यान्मथुरा सा निगद्यते॥ अर्थात्‌ जिस ब्रह्मज्ञान एवं भक्तियोग से सारा जगत  मथा जाता है तब जैसे छाछ और मख्खन अलग अलग हो जाते हैं यानी ज्ञानी और भक्तों का संसार लय हो जाता है, ज्ञानी को सबकुछ बह्ममय दीखता है और भक्त को सर्वत्र भगवद्दर्शन होता है तब वह सारभूत ज्ञान और भक्ति जिसमें सदा विद्यमान रहते हैं, वह मथुरा कहलाती है। पद्मपुराण में भगवान्‌ का वचन है- अहो न जानन्ति नरा दुराशयाः पुरीं मदीयां परमां सनातनीम्‌। सुरेन्द्रनागेन्द्रमुनीन्द्रसंस्तुतां मनोरमां तां मथुरां पराकृतिम्‌॥ अर्थात्‌ दुष्ट हृदय के लोग मेरी इस परम सुंदर सनातन मथुरा नगरी को नहीं जानते, जिसकी सुरेन्द्र, नागेन्द्र तथा मुनीन्द्रों ने स्तुति की है और जो मेरा ही स्वरूप है।

 

संसारार्णवसंजातं सेवितं मम मानसे ।

चन्द्रसूर्यत्विषो दिव्या ध्वजा मेरुर्हिरण्मयः ॥ २१॥

 

मन से मेरी भक्ति जो करता है उसके लिए संसार से उद्भूत जो त्रिविध ताप हैं वो उन्हें नहीं सताते । अज्ञान को नष्ट करने वाली सूर्य कि कि किरणें और अमृत से आप्लावन करने वाली चन्द्रमा कि किरणें, यही दिव्य दो ध्वजाएं हैं; तथा  ये हिरण्मय मेरु, अधिष्ठानभूत जो ब्रह्म है उसमें वे दोनों ध्वजायें प्रतिष्ठित हैं । यानी कि मन और बुद्धि का प्रसाद होता है { मन और बुद्धि निर्मल हो जाते हैं } और ध्वजा का दण्ड चमकीला , सुनहला सुमेरू पर्वत है अर्थात् ब्रह्मनिष्ठा स्थिर होती है | 

 

आतपत्रं ब्रह्मलोकमथोर्ध्वं चरणं स्मृतम् ।

श्रीवत्सस्य स्वरूपं तु वर्तते लाञ्छनैः सह ॥ २२॥

 

ब्रह्मलोक छत्र है (सबसे ऊपर) और उसके भी ऊपर मेरे चरण हैं (क्योंकि ब्रह्मा जी ने भगवान् के चरण धोये थे न तो वो ब्रह्मलोक से भी ऊपर चले गए थे) । श्रीवत्स का जो चिन्ह है, और ब्राह्मण के चरण का जो चिन्ह है, वही मेरे ह्रदय में है यानि ब्रह्म विद्या ही मेरा ह्रदय है ।

 

श्रीवत्सलक्षणं तस्मात्कथ्यते ब्रह्मवादिभिः ।

येन सूर्याग्निवाक्चन्द्रतेजसा स्वस्वरूपिणा ॥ २३॥

 

इसीलिए ब्रह्मज्ञानियों ने श्रीवत्स के  लक्षण कहे हैं ।  वत्सं लाति इति वत्सला गौः जो गाय अपने बछड़े को चाट चाट कर उसके दोषों निवृत्त कर उसे सौन्दर्य प्रदान करे और  श्री का शोभा का आधान करे उसीको श्रीवत्स को धारण करने वाला कहा जाता है । ऐसा ब्रह्मवादी कहते हैं । उसी श्रीवत्स से सूर्य, अग्नि, वाणी और चन्द्रमा प्रकाशित होते हैं। वो सब श्रीवत्स स्वरुप ही हैं।

 

वर्तते कौस्तुभाख्यमणिं वदन्तीशमानिनः ।

सत्त्वं रजस्तम इति अहंकारश्चतुर्भुजः ॥ २४॥

 

   ईश्वर तत्वको जानने वाले कहते हैं कि स्वयं भगवान् अजन्मा  हैं | वे कौस्तुभमणिके बहाने जीव -चैतन्य रूप आत्मज्योतिको ही धारण करते हैं और उसकी सर्वव्यापिनी प्रभा को ही वक्षःस्थल पर  श्रीवत्सरूपसे तथा सत्व, रजस, तमस और अहङ्कार ये  ही उनकी  चार भुजाएं हैं । 

कौस्तुभव्यपदेशेन स्वात्मज्योतिर्बिभर्त्यजः

तत्प्रभा व्यापिनी साक्षात्श्रीवत्समुरसा विभुः १०  श्रीमद्भागवतपुराणम्/स्कन्धः १२/अध्यायः ११ 

 

स्वमायां वनमालाख्यां नानागुणमयीं दधत्

वासश्छन्दोमयं पीतं ब्रह्मसूत्रं त्रिवृत्स्वरम् ११

बिभर्ति साङ्ख्यं योगं च देवो मकरकुण्डले

मौलिं पदं पारमेष्ठ्यं सर्वलोकाभयङ्करम् १२

अव्याकृतमनन्ताख्यमासनं यदधिष्ठितः

धर्मज्ञानादिभिर्युक्तं सत्त्वं पद्ममिहोच्यते १३

ओजःसहोबलयुतं मुख्यतत्त्वं गदां दधत्

अपां तत्त्वं दरवरं तेजस्तत्त्वं सुदर्शनम् १४

नभोनिभं नभस्तत्त्वमसिं चर्म तमोमयम्

कालरूपं धनुः शार्ङ्गं तथा कर्ममयेषुधिम् १५

इन्द्रियाणि शरानाहुराकूतीरस्य स्यन्दनम्

तन्मात्राण्यस्याभिव्यक्तिं मुद्रयार्थक्रियात्मताम् १६

मण्डलं देवयजनं दीक्षा संस्कार आत्मनः

परिचर्या भगवत आत्मनो दुरितक्षयः १७

भगवान्भगशब्दार्थं लीलाकमलमुद्वहन्

धर्मं यशश्च भगवांश्चामरव्यजनेऽभजत् १८

आतपत्रं तु वैकुण्ठं द्विजा धामाकुतोभयम्

त्रिवृद्वेदः सुपर्णाख्यो यज्ञं वहति पूरुषम् १९

अनपायिनी भगवती श्रीः साक्षादात्मनो हरेः

विष्वक्सेनस्तन्त्रमूर्तिर्विदितः पार्षदाधिपः

नन्दादयोऽष्टौ द्वाःस्थाश्च तेऽणिमाद्या हरेर्गुणाः २०

वासुदेवः सङ्कर्षणः प्रद्युम्नः पुरुषः स्वयम्

अनिरुद्ध इति ब्रह्मन्मूर्तिव्यूहोऽभिधीयते २१

स विश्वस्तैजसः प्राज्ञस्तुरीय इति वृत्तिभिः

अर्थेन्द्रियाशयज्ञानैर्भगवान्परिभाव्यते २२

अङ्गोपाङ्गायुधाकल्पैर्भगवांस्तच्चतुष्टयम्

बिभर्ति स्म चतुर्मूर्तिर्भगवान्हरिरीश्वरः २३

 

पञ्चभूतात्मकं शङ्खं करे रजसि संस्थितम् ।

बालस्वरूपमित्यन्तं मनश्चक्रं निगद्यते ॥ २५॥

 

जो शङ्ख है वो पञ्चभूतात्मक है, वो मेरी क्रिया शक्ति रूप  हाथ में स्थित है । मेरा जो बालमुकुन्द स्वरूप है उसका जो मन है, वो मन ही चक्र है ।, जलतत्वरूप पाञ्चजन्य शङ्ख और तेजतत्वरूप सुदर्शनचक्रको धारण करते हैं |  अपां तत्त्वं दरवरं तेजस्तत्त्वं सुदर्शनम् || १४ || जलतत्वरूप पाञ्चजन्य शङ्ख और तेजस्तत्वरूप सुदर्शन चक्रको धारण करते हैं | 

 

 

आद्या माया भवेच्छार्ङ्गं पद्मं विश्वं करे स्थितम् ।

आद्या विद्या गदा वेद्या सर्वदा मे करे स्थिता ॥ २६॥

 

    कालरूप शार्ङ्गधनुष कालरूपं धनुः शार्ङ्गं   जो अनादि अविद्यारूप मायाशक्ति  है वही शार्ङ्ग धनुष है उपाधि भेद से इसके दो नाम हो जाते हैं जब अन्तः करण की उपाधि में आती है तो उसको अविद्या कहते हैं। जब ईश की  उपाधि बन जाती है तो उसे मायाशक्ति  कहते हैं, वही शार्ङ्ग धनुष है । धर्म -ज्ञानादियुक्त सत्वगुण ही  कमल है , वही विश्व है । धर्मज्ञानादिभिर्युक्तं सत्त्वं पद्ममिहोच्यते | { यह विश्व रूपी कमल तथा काल रूपी धनुष सदा भगवान के हाथ में रहता है | } 

भगवान्भगशब्दार्थं लीलाकमलमुद्वहन् | श्रीमद्भागवत में  सूतजी  कहते हैं  ब्राह्मणो ! समग्र ऐश्वर्य , धर्म , यश , लक्ष्मी , ज्ञान और वैराग्य -- इन छः पदार्थों का नाम ही लीला- कमल है , जिसे भगवान् अपने करकमल में धारण करते हैं |  मन , इन्द्रिय और शरीरसम्बन्धी शक्तियों से युक्त प्राणतत्वरूप कौमोदकी गदा  जो महामोह का नाश करने वाली है , वह आद्याविद्या ही  वह  गदा  है  वो हमेशा  मेरे हाथ में रहती है । ओजःसहोबलयुतं मुख्यतत्त्वं गदां दधत् |

 

धर्मार्थकामकेयूरैर्दिव्यैर्दिव्यमयेरितैः ।

कण्ठं तु निर्गुणं प्रोक्तं माल्यते आद्ययाऽजया ॥ २७॥ 

 

धर्म, अर्थ और काम रूपी  दिव्य केयूर (भुजा के आभूषण), मेरी प्रेरणा से मेरे भुजभूषण हैं । जो मेरा कंठ है वो गुणातीत है यहाँ पर आद्या विद्या, अजया विद्या रूपी महालक्ष्मी के द्वारा मुझे मालाओं से सुशोभित किया जाता है । { माँ लीयते यत्र सा माला } 

 

माला निगद्यते ब्रह्मंस्तव पुत्रैस्तु मानसैः ।

कूटस्थं सत्त्वरूपं च किरीटं प्रवदन्ति माम् ॥ २८॥

 

और वह माला क्या है ? सनत्कुमारादि तुम्हारे जो तुम्हारे  मानस पुत्र हैं वे ही मेरे कण्ठ की  माला हैं । और जो शुद्ध सत्व  रूप जो कूटस्थ तत्व है वही मेरा मुकुट कहा जाता है ।

 

क्षीरोत्तरं प्रस्फुरन्तं कुण्डलं युगलं स्मृतम् ।

ध्यायेन्मम प्रियं नित्यं स मोक्षमधिगच्छति ॥ २९॥

 

   बिभर्ति साङ्ख्यं योगं च देवो मकरकुण्डले

देवाधिदेव भगवान सांख्य और योगरूप मकराकृति कुण्डल धारण करते हैं  जो कि दूध से भी अधिक सफेद और चमकीले हैं |  यानि कि सत्वगुण से ऊपर जो विशुद्ध सत्व है वही मेरे कुण्डल हैं |  इस प्रकार मेरे इन परम प्रिय  कुण्डलोंका  तथा  इनसे युक्त  मेरे रूप का जो ध्यान करता है वो मोक्ष को प्राप्त हो जाता है ।

 

स मुक्तो भवति तस्मै स्वात्मानं तु ददामि वै ।

एतत्सर्वं मया प्रोक्तं भविष्यद्वै विधे तव ॥ 2.2.३०॥

 

  हे  ब्रह्मन् ! वह मोक्ष को प्राप्त करता है ।और  मैं अपना आत्मा ही उसे दे देता हूँ , वो मेरा आत्मस्वरूप ही हो जाता है । यह सब  रहस्य्ज्ञान मैंने आप को बताया हे ब्रह्मा जी, तुम भी मेरा ही स्वरूप हो और भविष्य में भी मेरा ही स्वरूप हो जाओगे । पहले भी ब्रह्म था और जानने के कारण फिर ब्रह्म हो गया । जैसे कि  एक कहानी है न: एक राजकुमार व्याध के घर में पला-बढ़ा और व्याध ही हो गया, शिकार करने लगा, फिर कोई महात्मा आये और उन्होंने उस राजकुमार के शरीर में राज-चिन्ह देखकर के उसे समझाया के बेटा तू देख, तेरा स्वरुप, तेरे लक्षण, तेरे गुण , सब राजा से मिलते है, तू तो राजकुमार है, राजा होना ही तेरी नियति है, कहानी का  तात्पर्य है  कि तू ब्रह्म है, तू जीव नहीं है, तू छोटा नहीं है, तू  द्वैत में फँसा  हुआ नहीं है, इस प्रकार से धीरे धीरे जब उसको स्वरुप का ज्ञान कराया और उन्होंने लक्षण को मिलाया तो वो राजकुमार जो अपने को व्याध-पुत्र समझता था, वो समझ गया के मैं तो राजकुमार हूँ और एक क्षण में राजकुमार  बन गया । अपने आप को पहचान गया | 

 

स्वरूपं द्विविधं चैव सगुणं निर्गुणात्मकम् ॥ ३१॥

 

भगवान का स्वरूप दो प्रकार का होता है , एक सगुण और दूसरा निर्गुण | जो असली स्वरुप है वो तो निर्गुण है लेकिन माया की भ्रान्ति से अपने को गुणों से युक्त मान लेता है इसीलिए बन्धन, भय और शोक में फँस जाता है । निर्गुणात्मक अपने साक्षी चैतन्य मात्र स्वरुप को जब जानता है तो मोक्ष को प्राप्त कर लेता है ।

 

2.3

स होवाचाब्जयोनिः । व्यक्तीनां मूर्तीनां प्रोक्तानां कथं

चाभरणानि भवन्ति । कथं वा देवा यजन्ति । रुद्रा यजन्ति ।

ब्रह्मा यजति । ब्रह्मजा यजन्ति । विनायका यजन्ति । द्वादशादित्या

यजन्ति । वसवो यजन्ति । गन्धर्वा यजन्ति । स्वपदानुगा अन्तर्धाने

तिष्ठन्ति । कां मनुष्या यजन्ति । सहोवाच तं हि वै नारायणो

देव आद्या व्यक्ता द्वादश मूर्तयः सर्वेषु लोकेषु सर्वेषु

देवेषु सर्वेषु मनुष्येषु तिष्ठन्तीति । रुद्रेषु रौद्री

ब्रह्माणीषु ब्राह्मी देवेषु दैवी मनुष्येषु मानवी विनायकेषु

विघ्नविनाशिनी आदित्येषु ज्योतिर्गन्धर्वेषु गान्धर्वी अप्सरःस्वेवं

गौर्वसुष्वेवं काम्या अन्तर्धानेष्वप्रकाशिनी आविर्भावतिरोभावा

स्वपदे तिष्ठन्ति । तामसी राजसी सात्त्विकी मानुषी विज्ञानघन

आनन्दसच्चिदानन्दैकरसे भक्तियोगे तिष्ठति ।

ॐ प्राणात्मने ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै प्राणात्मने नमोनमः ॥ 2.3.१॥

 

इतना उपदेश सुनने के बाद ब्रह्मा जी ने भगवान नारायण से पूछा  : जो आपकी अभिव्यक्त मूर्तियां हैं, प्रकट मूर्तियां हैं उनके आभरणो के विषय में बताइये । उन मूर्तियों की देवता कैसे उपासना करते हैं? रूद्र किस प्रकार से ध्यान-भजन करते हैं? ब्रह्मा कैसे पूजा करते हैं? ब्रह्मा के पुत्र, नारद, सनत्कुमारादि किस प्रकार पूजा करते हैं? किस प्रकार विनायक-गण पूजा ध्यान करते हैं? बारह आदित्य किस प्रकार से पूजा करते हैं? आठ वसु किस प्रकार पूजा करते हैं? गन्धर्व किस प्रकार गान-ध्यान करते हैं? जो आपके नित्य सखा हैं वो अव्यक्त रूप से किस प्रकार आप का ध्यान करते हैं? किस रूप का मनुष्य ध्यान करते हैं?

 

श्री नारायण ने कहा: सबसे पहली जो द्वादश व्यक्त मूर्तियां हैं उन्ही को सब लोग, सब देवता, सब मनुष्य सारे लोकों में जो प्रतिष्ठित हैं वे उन द्वादश मूर्तियों की ही पूजा करते हैं । रुद्रों में मेरी रौद्री  मूर्ति है और ब्राह्मी आदि जो सात माताएं हैं, ब्राह्मी माहेश्वरी आदि उनमें ब्राह्मी मूर्ति प्रधान है उसी की पूजा होती है । देवों में जो दैवी मूर्ति है उसकी पूजा होती है । मनुष्यों में जो मानवी मूर्ति है, जो मन का ईशन  करने वाली; मनसा सीव्यति इति मनुष्यः - मन से जो सबके साथ प्रेम सम्बन्ध बना लेता है, उसीको मनुष्य कहते हैं  जैसे मनुष्यों में  भगवान राम की मूर्ति है  | भगवान रामने कहा है कि आत्मानं मानुषं मन्ये रामं दशरथात्मजम् ।  नराणां च नराधिपम्। इस प्रकार मनुष्यों में मानुषी मूर्ति की पूजा होती है |  जो विनायक हैं ,  विघ्न-नाशक हैं उनमें जो विघ्न-विनाशिनी मूर्ति है उसकी पूजा होती है । जो अदिति  के पुत्र आदित्य है उसमें ज्योति स्वरूप से मेरी पूजा होती है । गन्धर्वो में जो गान्धर्वी, जो गान कुशल मूर्ति है उसकी पूजा होती है । अप्सराओं में उसी प्रकार, अप्सु -सरति इति अप्सराः जैसे पानी नित्य गति करता है किसी भी आकर को धारण करता है,  समस्त रसों का भण्डार , जीवनकी आधारभूता गौ मूर्ति की पूजा अप्सराओं में होती है । वसुओं में काम्या रूप से मेरी पूजा होती है, कामना करने योग्य है उसे काम्या कहते हैं । जो अंतर्धान विद्या में कुशल देवता हैं वहां पर अप्रकाशिनी मूर्ति की गुप्त रूप से ही मेरी पूजा होती है । आविर्भाव और तिरोभाव, ये अपने अपने स्थान में प्रतिष्ठित हैं । भक्तियोग में सभी प्रकार की मूर्तियों का ग्रहण है, जैसा जैसा जिसका अधिकार है वो अपने राजसी, तामसी और सात्विकी भाव से अथवा मानुषी भाव से विज्ञानघन होकर के सच्चिदानंदघन होकर के, एक रस में, भक्तियोग में प्रतिष्ठित हैं ।  तीनो लोको में जो व्याप्त प्राण हैं वही प्राणात्मा है उस प्राणात्मा को यानि क्रियाशक्ति को नमस्कार है ।

 

ॐ श्रीकृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै नमोनमः ॥ २॥

 

ॐ श्रीकृष्णाय गोविन्दाय गोपीजनवल्लभाय, वही परम सत्य है, वह जो तीनों लोकों (भूः ,{ पृथिवी } 

 भुवः,{ अन्तरिक्ष }  स्वः { स्वर्गलोक } ) में व्याप्त है, उसको नमस्कार है ।

 

ॐअपानात्मने ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै अपानात्मने नमोनमः ॥ ३॥

 

अपानस्वरूप, विसर्गस्वरूप, त्याग स्वरूप वही ॐ जो तीनो लोकों (भूः , भुवः , स्वः  ) में व्याप्त है, ऐसे अपानात्मा को नमस्कार है ।

 

ॐ श्रीकृष्णायानिरुद्धाय ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ४॥

 

श्री कृष्ण यानी चित्तस्वरूपी  वासुदेव और अनिरुद्ध यानी अहङ्कार यानि ऊपर से नीचे तक वही सत्य है और वही तीनो लोकों (भूः , भुवः , स्वः  ) में व्याप्त है, उसको नमस्कार है ।

 

ॐ व्यानात्मने ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै व्यानात्मने नमोनमः ॥ ५॥

 

व्यान माने व्यापक, { व्यानः सर्व शरीरगः } वही सत्य है और त्रिलोकव्यापी है, उसको नमस्कार है ।

 

ॐ श्रीकृष्णाय रामाय ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ६॥

 

जो श्री कृष्ण हैं वही श्री राम हैं (माने बलराम) वही सत्य हैं, वही भूः , भुवः , स्वः   हैं , उनको नमस्कार है ।

 

ॐउदानात्मने ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै उदानात्मने नमोनमः ॥ ७॥

 

जो उत्क्रमण करने वाला है, { उदानः कण्ठदेशे स्यात् } जिससे परलोक में गति होती  है, वही सत्य है वही त्रिलोकों में व्याप्त है, उस उदानात्मा को नमस्कार है ।

 

ॐ श्रीकृष्णाय देवकीनन्दनाय ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ८॥

 

ये सगुण  साकार हो करके देवकीनन्दन बन जाते हैं, वही सत्य स्वरूप हैं, वही भूः , भुवः , स्वः   में व्याप्त हैं, उनको नमस्कार है ।

 

ॐ समानात्मने ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै समानात्मने नमोनमः ॥ ९॥

 

जो समीकरणात्मक, समन्वयात्मक, जो केन्द्र स्थान में; नाभि स्थान में विराजमान हैं { जहां से सर्वत्र समान विभाजन की क्रिया निष्पन्न  होती है } वही सत्य है, वही तीनो लोकों में व्याप्त हैं, उन समानात्मा को, समीकरणात्मक भगवान को नमस्कार है ।

 

ॐ श्रीगोपालाय निजस्वरूपाय ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ 2.3.१०॥

 

जो गोपाल इनका निजस्वरूप है इन्द्रयों के, वेदों के, भूमि के पालक, हैं | वही सत्य है, वही भूः , भुवः , स्वः   में व्याप्त हैं, उनको नमस्कार है ।

 

ॐ योऽसौ प्रधानात्मा गोपाल ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ ११॥

 

प्रधान आत्मा माने मुख्य आत्मा, जैसे शरीर , प्राण , मन , बुद्धि औपाधिक आत्मा हैं ,  सच्ची आत्मा नहीं | वास्तविक आत्मा तो शुद्ध चित् है | पहले बता चुके हैं कि प्रकृति शब्द भी ब्रह्म का पर्याय है | सांख्यवादी लोग प्रकृति को प्रधान शब्द से व्यवहार करते हैं, तो वो प्रधान आत्मा भगवान, वही सत्य है, वही भूः , भुवः , स्वः   में व्याप्त है, उनको नमस्कार है ।

 

ॐ योऽसाविन्द्रियात्मा गोपाल ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १२॥

 

जो इन्द्रियात्मक हैं, इन्द्रिय स्वरुप से अभिव्यक्त हैं, ज्ञान कराने के साधन रूप से वही सत्य है, वही भूः , भुवः , स्वः   में व्याप्त हैं, उनको नमस्कार है ।

 

ॐ योऽसौ भूतात्मा गोपाल ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १३॥

 

जो गोपाल भूतात्मा बन गए हैं, पञ्चभूत रूप से प्रकट हुए हैं अभिव्यक्त हुए हैं, वही परम सत्य हैं, वही भूः , भुवः , स्वः   में व्याप्त हैं, उनको नमस्कार है ।

 

ॐ योऽसावुत्तमपुरुषो गोपाल ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तमै वै नमोनमः ॥ १४॥

 

जो क्षर और अक्षर से अतीत यानि के पञ्चभूत और सूक्ष्म शरीर, जीवात्मा से भिन्न जो उत्तम पुरुष गोपाल हैं, वही सत्य हैं, वही  भूः , भुवः , स्वः    में व्याप्त हैं, उनको नमस्कार है ।

 

ॐ योऽसौ ब्रह्म परं वै ब्रह्म ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १५॥

 

जो सर्वोत्कृष्ट सर्वसाक्षी सर्वगुणों  से अतीत जो ब्रह्म हैं, वही परम ब्रह्म है, वही सत्य हैं, वही भूः , भुवः , स्वः  में व्याप्त हैं, उनको नमस्कार है ।

 

ॐ योऽसौ सर्वभूतात्मा गोपाल ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै नमोनमः ॥ १६॥

 

जो सब प्राणियों के अन्तरात्मा  हैं, वही सत्य हैं, वही भूः , भुवः , स्वः   में व्याप्त हैं, उनको नमस्कार है ।

 

ॐ जाग्रत्स्वप्नसुषुप्तितुरीयतुरीयातीतोऽन्तर्यामी गोपाल ॐ तत्सद्भूर्भुवः सुवस्तस्मै वै नमोनमः ॥ १७॥

 

यहाँ पर पांच अवस्थाओं से अतीत, गोपाल को बताया है; जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति ,तुरीय और तुरीयातीत  यानि के विश्व, तैजस और प्राज्ञ तथा तुरीय,और तुरीयातीत  इन सबसे अलग छठ्ठा और उससे भी ऊपर यानि कि सर्वातीत  सबसे सूक्ष्म, { एषोऽणुरणुपरिमाण आत्माऽणोरप्यणीयान् सूक्ष्मात् सूक्ष्मतरं , “एषोऽणुरात्मा चेतसा वेदितव्यः” 'अणोरणीयान् महतोमहीयान्' }  अन्तर्यामी [एष ते आत्मा अन्तर्यामी अमृतः । ]  जो गोपाल हैं, वही सत्य हैं, वही  भूः , भुवः , स्वः   में व्याप्त हैं, उनको नमस्कार है ।

 

एको देवः सर्वभूतेषु गूढः सर्वव्यापी सर्वभूतान्तरात्मा ।

कर्माध्यक्षः  सर्वभूताधिवासः साक्षी  चेता केवलो निर्गुणश्च ॥ १८॥

 

उस 'एकमेव देव' का ही अस्तित्व है, प्रत्येक प्राणी में 'वही' गूढ रूप से छिपा हुआ है क्योंकि 'वही' सर्वव्यापी एवं समस्त प्राणियों का 'अन्तरात्मा' है, 'वह' सभी कर्मों का अध्यक्ष-स्वामी है, एवं सभी जीवसत्ताओं का आवासस्थान  है। 'वही' सकल जगत के व्यापारों का 'महान साक्षी' है जो विचारों में परस्पर सम्बद्धता लाता है, 'वह' है 'निरपेक्ष' एवं निर्गुण, जिसमें न कोई मनोभाव है न कोई गुण है। दिवु धातु जिससे देव शब्द बनता है उसके कई अर्थ होते हैं |दिवु क्रीडा - विजिगीषा - व्यवहार - द्युति - स्तुति - मोद - मद - स्वप्न - कान्ति गतिषु ॥  दिव ( क्रीड़ा , जुवा खेलना , व्यवहार , चमकना , स्तुति करना , प्रसन्न  होना , नशा करना , सोना , इच्छा करना , चलना और जानना  ) —  ऐसे दस अर्थ बताये हुए है, वही देव स्वरुप सर्व भूतों में गूढ़ है यानि सर्व चैतन्यात्मक है, और वह चैतन्य सर्वव्यापी है, सर्व भूतों का सर्व प्राणियों का अंतरात्मा है, वही कर्मो का अध्यक्ष है, वही सर्वभूतों का अधिष्ठान है, वही साक्षी है, वही चैतन्य है, वह केवल अद्वितीय है, निर्गुण, निर्विशेष है, उन्ही की ये सब मूर्तियां हैं उन्ही मूर्तियों को बारम्बार नमस्कार करते हैं ।

 

रुद्राय नमः । आदित्याय नमः । विनायकाय नमः । सूर्याय नमः ।

 

विद्यायै नमः । इन्द्राय नमः । अग्नये नमः । यमाय नमः ।

 

निर्ऋतयेनमः । वरुणाय नमः । वायवे नमः । कुबेराय नमः ।

 

ईशानाय नमः । सर्वेभ्यो देवेभ्यो नमः ।

 

दत्त्वा स्तुतिं पुण्यतमां ब्रह्मणे स्वस्वरूपिणे ।

कर्तृत्वं सर्वभूतानामन्तर्धानो बभूव सः ॥ १९॥

 

नारायण ने एक बहुत बड़ा स्तोत्र ब्रह्मा जी को बताया, ब्रह्मा भी उन्ही के स्वरुप हैं; ब्रह्मणे स्वस्वरूपिणे , इस प्रकार जो परम पुण्यतम, परम पवित्र जो स्तुति है, वो अपने ही स्वरुप ब्रह्मा जी को उन्होंने निदर्शन किया, समझाया सारे जगत की सृष्टि करने का सामर्थ्य देकर के नारायण अंतर्धान हो गए ।

 

ब्रह्मणे ब्रह्मपुत्रेभ्यो नारदात्तु श्रुतं मुने ।

तथा प्रोक्तं तु गान्धर्वि गच्छ  त्वं स्वालयान्तिकम् ॥ 2.3.२०॥ इति॥

 

अब दुर्वासा मुनि गान्धर्वी को बताते हैं, ब्रह्मा जी ने अपने पुत्रों सनत्कुमारादि को यह रहस्य ज्ञान  दिया और सनत्कुमारादि  ने नारदजी को बताया और नारद से मैंने सुना । हे गांधर्वी ! वही विद्या मैंने तुम्हें सुनाई है अब तुम अपने घर जाओ

 

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवाः ॥ भद्रं पश्येमाक्शभिर्यजत्राः ॥

स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवा{\म्+}सस्तनूभिः ॥ व्यशेम देवहितं यदायुः ॥

स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः ॥ स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ॥

स्वस्ति नस्तार्क्श्यो अरिष्टनेमिः ॥ स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ॥

ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥

 

हे देवताओ ऐसी कृपा करो की हम कानों से (कानों के देवता हैं (दिक्) दिशा रुपी जो देवता हैं वो हमारे ऊपर ऐसी कृपा करें कि कानों से हम भद्र (यानी कल्याण) का श्रवण करें । भद्र और सुभद्र, ये सब भगवान् के नाम हैं । श्रीमद्भागवत मेंकहा है - तस्मै सुभद्रश्रवसे नमो नमः ,श्रवण मंगलम् श्री मदाततम् , । विष्णुसहस्रनाम में भी -   विश्रुतात्मा ;   शुचिश्रवाः ;पुण्यश्रवणकीर्तनः ;   पवित्रं मङ्गलं परम्‌    ऐसे नाम हैं, तो हम कानों से उन परमात्मा का ही परम तत्व का ज्ञान ही श्रवण करें और आँखों से हम केवल भद्र यानि कल्याण ही देखें, यज्ञ करें, स्थिर अंगों के द्वारा आपकी स्तुति करें । और जब तक हमारी आयु रहे हम उस परमात्म देव की सेवा के लिए ही प्रयत्नशील हों ।

महा यशस्वी इन्द्र हमारे लिए कल्याण साधन उपस्थित करें, हमारे लिए अनुकूल हो जाएं क्योंकि इन्द्र हाथों के देव हैं और हाथों से ही कर्म का अनुष्ठान होता है इसी लिये कर्म की ही प्रशंसा होती है अतः इन्द्र से प्रार्थना है कि हमारा कर्म यशस्वी हो , सनातन हो | { स्वस्ति शब्दो सनातन वचनः } 

सारे विश्व को जानने वाले और पोषण करने वाले  सूर्य देव हैं वे हमारे लिए स्वस्ति या कल्याण का सम्पादन करें ।

जिनकी गति कहीं अवरुद्ध नहीं होती है, ऐसे अरिष्टनेमि भगवान गरुड़, तार्क्ष्य माने गरुड़, वो हमारे लिए स्वस्ति का, कल्याण का विधान करें ।

विस्तृत जो वाणी है, उसके जो पति हैं,   ( बृहती पतिः = बृहस्पतिः ) बृहस्पति वो गुरु तत्व हमारे लिए स्वस्ति या कल्याण का विधान करें ।इसके बाद "ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः" ऐसा तीन बार कहते हैं, तो तीनो तापों की (आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक) त्रिविध तापों की शान्ति हो ।

 

इति गोपालोत्तरतापिन्युपनिषत्समाप्ता ॥

 

इस तरह त्रितापों की शांति की प्रार्थना के साथ उत्तर तापिनी उपनिषद समाप्त हुआ ।

 


नारायण ऋषि विरचित गोपालाष्टकं   Narayana Rishi virachit gopal ashtakam

Hindi Lyrics

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 विहरति  स्वच्छन्दं आनन्द कन्दं , श्री वृज चन्द्रं ब्रह्म परं !

             पूरण शशिवदनं शोभा सदनं , जित छवि मदनं रूपवरम् !!

हलधर वरबीरं श्याम शरीरं ,गुण गम्भीरं धीर धरं !

             भज श्री गोपालं दीन दयालं ,वचन रसालं ताप हरम् !!१ !!


राजत वनमाला रूप विशाला , चाल मराला सुरत हरम्!

कुण्डल धृत करणं गिरिवर धरणं ,निजजन शरणं कृपाकरं !!

गोपन कृत संगं ललित त्रिभङ्गं ,लजित अनंगं साम परं !

           भज श्री गोपालं दीन दयालं ,वचन रसालं ताप हरम् !!२ !!


जलधर वर श्यामं पूरण कामं ,अति सुख धामं दुःख हरं !

वृन्दावन क्रीडित असुरन पीडित ,व्रज तिय व्रीडित रसिक वरम् !!

नूपुर ध्वनि चरणं मुनि मन हरणं ,तारण तरणं तुष्ट तरम् !

              भज श्री गोपालं दीन दयालं ,वचन रसालं ताप हरम्!!३ !!


राधा उर हारं रूप अपारं ,नीर विहारं चीर हरं !

कुंचित वर केशं मुकुट विशेषं ,गोप सुवेषं निगम परम् !!

अति कोमल चरणं वेद विचरणं ,जगदुद्धरणं मृदुल तरं !

       भज श्री गोपालं दीन दयालं ,वचन रसालं ताप हरम्!!४ !!


अलकन सुख राजत मन्मथ लाजत ,किंकिणि बाजत मधुर स्वरं !

वन्शी कृत नादं हरत विषादं त्रिक्रम पादं तिमिर हरम् !!

भक्तन आधीनं चरित नवीनं ,परम प्रवीणं प्रेम परं 

        भज श्री गोपालं दीन दयालं ,वचन रसालं ताप हरम्!!५ !!



अति नृत्य प्रबीरे धीर समीरे ,यमुना तीरे रास करं! 

 कलमान अनूपं श्याम स्वरूपं त्रिभुवन भूपं मोद भरम् !!

राधा गुण गायक ब्रज सुख दायक ,सुर वर नायक वेणु धरं !

        भज श्री गोपालं दीन दयालं ,वचन रसालं ताप हरम्!!६ !!


सुन्दर मृदु हासं विपिन विलासं ,कुञ्ज निवासं केलि करं !

 युवती दृग अंजन जन मन रंजन ,केशी भंजन भार हरम् !!

भूषण निज भवनं गजपति गमनं ,कालिय दमनं नृत्य करं !

        भज श्री गोपालं दीन दयालं ,वचन रसालं ताप हरम्!!७ !!


गोरज मुख शोभित सुर नर लोभित ,मन्मथ क्षोभित दृष्य परं !

 गोपन सह भुञ्जे विपिन निकुञ्जे ,वत्सन पुञ्जे द्रुहिण हरम् !!

ये छवि नारायण लखि नारायण ,भये परायण अखिल नरं 

 भज श्री गोपालं दीन दयालं ,वचन रसालं ताप हरम्!!८ !!




English Lyrics

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viharati swachchandam aanand kandam ,shrivrijchandram braham param ।  


   Purna Shashivadanm Shobha Sadanm, Jit chavi Madanm Roopvaram। ।


 Haldhar var veeram Syam shareeram ,gun gambheeram dheer daram ।


 bhaja shri Gopalam deen dayaalam, vachan rasaalam taap haram।।1।। 


Rajat Vanmaala roop Vishala, ChalMarala Surat Harm।


 kundal dhrit karnam girivar Dharnam  , Nij jan Sharanam kripakaram।।


 Gopan Krit sangam lalit Tribhangam, lajit anangagam Sam param ।


 bhaja shri Gopalam deen dayaalam, vachan rasaalam taap haram ।।2।।


jaldhar var syaamam pooran kaamam ,ati sukhadhaamam duhkha haram ।


vrindaavan kreedit asuran peedit , vrija tiya breedit rasik varam ।।


noopur dhvni charanam muni man haranam, taaran taranam tushta taram ।


bhaja shri Gopalam deen dayaalam, vachan rasaalam taap haram।।3।। 


raadhaa ur haaram roop apaaram, neer viharam cheerharam ।


kunchit var kesham mukuta vishesham, gopa suvesham nigama param ।।


ati komal charanam ved vicharanam, jagaduddharanam mridul taram ।


bhaja shri Gopalam deen dayaalam, vachan rasaalam taap haram ।।4।।





alakan sukha raajat manmatha laajata, kinkini bajata madhura svaram ।


vanshee krita naadam harata vishaadam, trikrama paadam timira haram ।।


bhaktana aadheenam charita naveenam , parama praveenam prema param ।


bhaja shri Gopalam deen dayaalam, vachan rasaalam taap haram ।।5।।


ati nritya praveere dheera sameere , yamunaa teere raasa karam ।


kalamaana anoopam shyaama svaroopam ,tribhuvana bhoopam moda bharam ।।


raadhaa guna gaayak brja sukha daayaka , sura vara naayaka venu dharam ।


bhaja shri Gopalam deen dayaalam, vachan rasaalam taap haram ।।6।।


sundara mridu haasam vipina vilaasam , kunja nivaasam keli karam ।।


yuvatee driga anjana jana mana ranjana , keshee bhanjan bhaara haram ।।


bhooshana nija bhavanam gajapati gamanam , kaaliya damanam nritya karam ।


bhaja shri Gopalam deen dayaalam, vachan rasaalam taap haram ।।7।।


goraja mukha shobhit sura nara lobhita , manmatha kshobhita drishya param ।


gopana saha bhunje vipina nikunje ,vatsana punje druhina haram ।।


yaha chavi naaraayana lakhi naaraayana , bhaye paraayana akhila naram ।


bhaja shri Gopalam deen dayaalam, vachan rasaalam taap haram ।।8।।


https://sanskritdocuments.org/doc_upanishhat/gopala.html


http://webstock.in/001-Epics-PDF/Gopal-Sahastranaam-Stotram-Hindi/Gopal-Sahastranaam-Stotram-Hindi.pdf


https://sanskritdocuments.org/doc_vishhnu/gopaalasahasra.pdf


https://sanskritdocuments.org/doc_vishhnu/gopaalasahasra.html


https://sanskritdocuments.org/doc_vishhnu/gopAlasahasranAmastotra2.html