Saturday, September 22, 2018

शांतिपाठ

ॠग्वेद मन्त्र:
वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितमावीरावीर्म एधि।
वेदस्य म आणिस्थः श्रुतं मे मा प्रहासीरनेनाधीतेनाहोरात्रान् संदधाम्यृतम् वदिष्यामि सत्यं वदिष्यामि तन्मामवतु तद्वक्तारमवत्ववतु मामवतु वक्तारमवतु वक्तारम् ॥
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

अर्थ:
मेरी वागिन्द्रिय मेरे मन में स्थित हो और मन वाणी में स्थित हो (अर्थात मेरी वागिन्द्रिय और मन एक-दुसरे के अनुकूल रहें) ।  हे स्वप्रकाश परमात्मन् ! तुम मेरे समक्ष अविर्भूत होओ ।
(हे वाक् और मन ! ) तुम मेरे प्रति वेद को लाओ । मेरा श्रवण किया हुआ मेरा परित्याग न करे । अपने इस अध्ययन के द्वारा मैं रात और दिन को एक कर दूँ (अर्थात मेरा अध्ययन अहर्निश चलता रहे) । मैं ऋत (वाचिक सत्य) का भाषण करूँ और सत्य (मन में निश्चय किया हुआ सत्य) बोलूँ ।
वह ब्रह्म मेरी रक्षा करे; वह वक्ता की रक्षा करे । वह मेरी और वक्ता की रक्षा करे ।
त्रिविध ताप की शांति हो ।


कृष्णयजुर्वेद मन्त्र: 
ॐ सह नाववतु | सह नौ भुनक्तु | सह वीर्यं करवावहै | तेजस्विनावधीतमस्तु मा विद्विषावहै || ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||

अर्थ:
परमेश्वर हम दोनों अर्थात आचार्य और शिष्य के ह्रदय में ब्रह्म-विद्या के स्वरुप को प्रकाश करके रक्षा करे । परमेश्वर हम दोनों को विद्या के फल को प्राप्त करे, वह परमेश्वर हम दोनों की ब्रह्म-विद्या-कृत सामर्थ्य को बढ़ावे, हम दोनों अतिशय करके तेजस्वी होवें । हम दोनों अर्थात आचार्य और शिष्य के ह्रदय में प्रमाद करके परस्पर द्वेष कभी न होवे, हम दोनों की आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक विघ्नो से शांति होवे ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

कृष्णयजुर्वेद मन्त्र: 
ॐ शं नो मित्रः शं वरुणः। शं नो भवत्वर्यमा। शं न इन्द्रो ब्रृहस्पतिः। शं नो विष्णुरुरुक्रमः। नमो ब्रह्मणे। नमस्ते वायो। त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि। त्वामेव प्रत्यक्षम् ब्रह्म वदिष्यामि। ॠतं वदिष्यामि। सत्यं वदिष्यामि। तन्मामवतु। तद्वक्तारमवतु। अवतु माम्। अवतु वक्तारम् ॥ 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

अर्थ:
प्राणवृत्ति का अभिमानी मित्रसंज्ञक देवता हम लोगों को सुखकारी हो, अपानवृत्ति का अभिमानी वरुणसंज्ञक देवता हम लोगों को सुखकारी हो, चक्षु का अभिमानी अर्यमासंज्ञक देवता हम लोगों को सुखकारी हो, भुजा का अभिमानी इन्द्रसंज्ञक देवता हम लोगों को सुखकारी हो, बुद्धि का अभिमानी बृहस्पतिसंज्ञक देवता हम लोगों को सुखकारी हो और चरणों का अभिमानी विष्णु देवता, जिसने राजा बलि के यज्ञ में अपने तीन पादों से तीन लोकों का आच्छादन किया है, हम लोगों को सुखकारी हो, हे सूत्रात्मा वायु ! तेरे को मैं नमस्कार करता हूँ, तू ही प्राणरूप से सब शरीरों में स्थित है, तेरे इस रूप को भी नमस्कार है, तू ही प्रत्यक्ष ब्रह्म है, तुझको मैं ब्रह्म कहूंगा और शास्त्र के निश्चित अर्थ के ग्रहण के लिए मैं तेरे ही को निश्चयात्मक बुद्धि कहूंगा, तू ही साररूप ब्रह्म है, समष्टि सूत्रात्मा वायु है, हे व्यष्टिरूप प्राणात्मक वायु ! तू मुझ विद्यार्थी की रक्षा करे और विद्या ग्रहण करने की सामर्थ्य दे । ब्रह्मरूप वायु मेरे गुरु वक्त को वक्तृत्व शक्ति दे, मुझको और मेरे आचार्य की रक्षा करे और
जो त्रिविध ताप विघ्न हैं, उनसे हम दोनों की शांति होवे ।

शुक्लयजुर्वेद मन्त्र: 
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदम् पूर्णात् पूर्णमुदच्यते | 
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते || 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ||

अर्थ:
ॐ! पूर्ण है वह, पूर्ण है यह, पूर्ण से ही पूर्ण हो जाता है,
पूर्ण में से पूर्ण लेकर, पूर्ण ही अवशेष रह जाता है ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

सामवेद मन्त्र: 
ॐ आप्यायन्तु ममांगानि वाक्प्राणश्चक्षुः श्रोत्रमथो बलमिन्द्रियाणि च सर्वाणि। सर्वम् ब्रह्मौपनिषदम् माऽहं ब्रह्म निराकुर्यां मा मा ब्रह्म निराकरोदनिराकरणमस्त्वनिराकरणम् मेऽस्तु। तदात्मनि निरते य उपनिषत्सु धर्मास्ते मयि सन्तु ते मयि सन्तु ॥ 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

अर्थ:


अथर्ववेद मन्त्र: 
ॐ भद्रं कर्णेभिः श्रुणुयाम देवाः। भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः स्थिरैरंगैस्तुष्टुवागं सस्तनूभिर्व्यशेम देवहितम् यदायुः। स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः। स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः। स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः। स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु। 
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥

अर्थ:

अन्य मन्त्रा:
ॐ द्यौ: शान्ति: अन्तरिक्षँ शान्ति: पृथिवी शान्तिराप: शान्तिरोषधय: शान्ति:। 
वनस्पतये: शान्तिर्विश्वे देवा: शान्ति: ब्रह्म शान्ति: सर्वँ शान्ति: शान्तिरेव शान्ति: सा मा शान्तिरेधि ॥ 
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥ सुशान्तिर्भवतु। सर्वारिष्टशान्तिर्भवतु ॥

अर्थ:


यतो यत: समीहसे ततो नो अभयं कुरु ।
शन्न: कुरु प्रजाभ्योsभयं न: पशुभ्य:।।
भाषार्थ: हे परमेश्वर ! आप जिस- जिस देश से जगत् के रचन और पालन के अर्थ चेष्टा करते हैं उस उस देश से भय से रहित करिये , अर्थात् किसी देश से हम को किञ्चित् भी भय न हो , (शन्न:कुरु) वैसे ही सब दिशाओं में जो आपकी प्रजा और पशु हैं उन से भी हम को भय रहित करें तथा हम से उनको सुख हो , और उनको भी हम से भय न हो तथा आप की प्रजा में जो मनुष्य और पशु आदि हैं , उन सब से जो धर्म , अर्थ काम और मोक्ष पदार्थ हैं , वे सुख से सिद्ध हों ।।७।।
-------ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका

ॐ असतो मा सद्गमय। 
तमसो मा ज्योतिर्गमय। 
मृत्योर्मामृतं गमय ॥ 
ॐ शान्ति: शान्ति: शान्ति: ॥

अर्थ:

गतोऽपि (Gato-Api): Even under [any other conditions] 
गत (Gata) = Gone to any state or condition, Fallen into 
अपि (Api) = Even

 अपवित्रः पवित्रो वा सर्वावस्थांगतोऽपि वा ।
यः स्मरेत्पुण्डरीकाक्षं  बाह्याभ्यन्तरःशुचिः 

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