Wednesday, October 8, 2014

छन्द

 ==========

छन्द शब्द मूल रूप से छन्दस् अथवा छन्दः है । इसके शाब्दिक अर्थ दो है – ‘आच्छादित कर देने वाला’ और ‘आनन्द देने वाला’ । लय और ताल से युक्त ध्वनि मनुष्य के हृदय पर प्रभाव डाल कर उसे एक विषय में स्थिर कर देती है और मनुष्य उससे प्राप्त आनन्द में डूब जाता है । यही कारण है कि लय और ताल वाली रचना छन्द कहलाती है. इसका दूसरा नाम वृत्त है । वृत्त का अर्थ है प्रभावशाली रचना । वृत्त भी छन्द को इसलिए कहते हैं, क्यों कि अर्थ जाने बिना भी सुनने वाला इसकी स्वर-लहरी से प्रभावित हो जाता है । यही कारण है कि सभी वेद छन्द-रचना में ही संसार में प्रकट हुए थे ।

छन्‍द के भेद

छन्द मुख्यतः दो प्रकार के हैं: 1) मात्रिक और 2) वार्णिक

1) मात्रिक छन्द: मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गिनती की जाती है ।
2) वार्णिक छन्दों में वर्णों की संख्या निश्चित होती है और इनमें लघु और दीर्घ का क्रम भी निश्चित होता है, जब कि मात्रिक छन्दों में इस क्रम का होना अनिवार्य नहीं है । मात्रा और वर्ण किसे कहते हैं, इन्हें समझिए:

मात्रा:
ह्रस्व स्वर जैसे ‘अ’ की एक मात्रा और दीर्घस्वर की दो मात्राएँ मानी जाती है । यदि ह्रस्व स्वर के बाद संयुक्त वर्ण, अनुस्वार अथवा विसर्ग हो तब ह्रस्व स्वर की दो मात्राएँ मानी जाती है । पाद का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पडने पर गुरु मान लिया जाता है । ह्रस्व मात्रा का चिह्न ‘ ।‘  है और दीर्घ का ‘=‘ है ।
जैसे ‘सत्याग्रह’ शब्द में कितनी मात्राएँ हैं, इसे हम इस प्रकार समझेंगे:
= = । ।
सत्याग्रह = 6 मात्राएँ

इस प्रकार हमें पता चल गया कि इस शब्द में छह मात्राएँ हैं । स्वरहीन व्यंजनों की पृथक् मात्रा नहीं गिनी जाती ।

वर्ण या अक्षर:
ह्रस्व मात्रा वाला वर्ण लघु और दीर्घ मात्रा वाला वर्ण गुरु कहलाता है । यहाँ भी ‘सत्याग्रह’ वाला नियम समझ लेना चाहिए ।

चरण अथवा पाद:
‘पाद’ का अर्थ है चतुर्थांश, और ‘चरण’ उसका पर्यायवाची शब्द है । प्रत्येक छन्द के प्रायः चार चरण या पाद होते हैं ।
  • सम और विषमपाद: 
पहला और तीसरा चरण विषमपाद कहलाते हैं और दूसरा तथा चौथा चरण समपाद कहलाता है । सम छन्दों में सभी चरणों की मात्राएँ या वर्ण बराबर और एक क्रम में होती हैं और विषम छन्दों में विषम चरणों की मात्राओं या वर्णों की संख्या और क्रम भिन्न तथा सम चरणों की भिन्न होती हैं ।
यति:
हम किसी पद्य को गाते हुए जिस स्थान पर रुकते हैं, उसे यति या विराम कहते हैं । प्रायः प्रत्येक छन्द के पाद के अन्त में तो यति होती ही है, बीच बीच में भी उसका स्थान निश्चित होता है । प्रत्येक छन्द की यति भिन्न भिन्न मात्राओं या वर्णों के बाद प्रायः होती है ।

छन्‍द के प्रकार

छन्‍द तीन प्रकार के होते है।

वर्णिक छंद (या वृत) - जिस छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या समान हो।
मात्रिक छंद (या जाति) - जिस छंद के सभी चरणों में मात्राओं की संख्या समान हो।
मुक्त छंद - जिस छंद में वर्णिक या मात्रिक प्रतिबंध न हो।

वर्णिक छंद
वर्णिक छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या समान रहती है और लघु-गुरु का क्रम समान रहता है।

वर्णिक छन्दों में वर्ण गणों के हिसाब से रखे जाते हैं । तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं । इन गणों के नाम हैं: यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण । अकेले लघु को ‘ल’ और गुरु को ‘ग’ कहते हैं । किस गण में लघु-गुरु का क्या क्रम है, यह जानने के लिए यह सूत्र याद कर लीजिए:
यमाताराजभानसलगा:
जिस गण को जानना हो उसका वर्ण इस में देखकर अगले दो वर्ण और साथ जोड लीजिए और उसी क्रम से गण की मात्राएँ लगाइए, जैसे:
यगण - यमाता = ।ऽऽ आदि लघु
मगण - मातारा = ऽऽऽ सर्वगुरु
तगण - ताराज = ऽऽ । अन्तलघु
रगण - राजभा = ऽ ।ऽ मध्यलघु
जगण - जभान = ।ऽ । मध्यगुरु
भगण - भानस = ऽ ॥ आदिगुरु
नगण - नसल = ॥ । सर्वलघु
सगण - सलगाः = ॥ऽ अन्तगुरु

मात्राओं में जो अकेली मात्रा है, उस के आधार पर इन्हें आदिलघु या आदिगुरु कहा गया है । जिसमें सब गुरु है, वह ‘मगण’ सर्वगुरु कहलाया और सभी लघु होने से ‘नगण’ सर्वलघु कहलाया । नीचे सब गणों के स्वरुप का एक श्लोक दिया जा रहा है । उसे याद कर लीजिए:

मस्त्रिगुरुः त्रिलघुश्च नकारो, भादिगुरुः पुनरादिर्लघुर्यः ।
जो गुरुम्ध्यगतो र-लमध्यः, सोऽन्तगुरुः कथितोऽन्तलघुःतः ॥


प्रमुख वर्णिक छंद 
  • प्रमाणिका (8 वर्ण)
  • स्वागता
  • भुजंगी
  • शालिनी
  • इन्द्रवज्रा
  • दोधक (सभी 11 वर्ण)
  • वंशस्थ
  • भुजंगप्रयाग
  • द्रुतविलम्बित
  • तोटक (सभी 12 वर्ण)
  • वसंततिलका (14 वर्ण)
  • मालिनी (15 वर्ण)
  • पञ्चचामर (16 वर्ण)

  • चंचला (सभी 16 वर्ण)
  • मन्दाक्रान्ता
  • शिखरिणी (सभी 17 वर्ण)
  • शार्दूल विक्रीडित (19 वर्ण)
  • स्त्रग्धरा (21 वर्ण)
  • सवैया (22 से 26 वर्ण)
  • घनाक्षरी (31 वर्ण) 
  • रूपघनाक्षरी (32 वर्ण)
  • देवघनाक्षरी (33 वर्ण)
  • कवित्त / मनहरण (31-33 वर्ण)

मात्रिक छंद
मात्रिक छंद के सभी चरणों में मात्राओं की संख्या तो समान रहती है लेकिन लघु-गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

प्रमुख मात्रिक छंद

सम मात्रिक छंद :
  • अहीर (11 मात्रा)
  • तोमर (12 मात्रा)
  • मानव (14 मात्रा)
  • अरिल्ल, पद्धरि/ पद्धटिका
  • चौपाई (सभी 16 मात्रा)
  • पीयूषवर्ष
  • सुमेरु (दोनों 19 मात्रा)
  • राधिका (22 मात्रा)
  • रोला
  • दिक्पाल
  • रूपमाला (सभी 24 मात्रा)
  • गीतिका (26 मात्रा)
इस छन्द में प्रत्येक चरण में छब्बीस मात्राएँ होती हैं और 14 तथा 12 मात्राओं के बाद यति होती है । जैसे:
ऽ । ऽ ॥ ऽ । ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ ऽ । ऽ
हे दयामय दीनबन्धो, प्रार्थना मे श्रूयतां
यच्च दुरितं दीनबन्धो, पूर्णतो व्यपनीयताम् ।
चञ्चलानि मम चेन्द्रियाणि, मानसं मे पूयतां
शरणं याचेऽहं सदा हि, सेवकोऽस्म्यनुगृह्यताम् ॥
ऊपर पहले चरण पर मात्रा-चिह्न लगा दिए हैं । इसी प्रकार सारे चरणों में आप चिह्न लगा कर मात्राओं की गणना कर सकते हैं |
  • सरसी (27 मात्रा)
  • सार (28 मात्रा)
  • हरिगीतिका (28 मात्रा)
हरिगीतिका छन्द में प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं और अन्त में लघु और फिर गुरु वर्ण अवश्य होना चाहिए । इसमें यति 16 तथा 12 मात्राओं के बाद होती हैं;
जैसे
। । ऽ । ऽ ऽ ऽ ।ऽ । ।ऽ । ऽ ऽ ऽ । ऽ
मम मातृभूमिः भारतं धनधान्यपूर्णं स्यात् सदा ।
नग्नो न क्षुधितो कोऽपि स्यादिह वर्धतां सुख-सन्ततिः ।
स्युर्ज्ञानिनो गुणशालिनो ह्युपकार-निरता मानवः,
अपकारकर्ता कोऽपि न स्याद् दुष्टवृत्तिर्दांवः ॥
इस छन्द की भी प्रथम पंक्ति में मात्राचिह्न लगा दिए हैं । शेष पर स्वयं लगाइए ।
  • तांटक (30 मात्रा)
  • वीर या आल्हा (31 मात्रा)

अर्द्धसम मात्रिक छंद :
  • बरवै (विषम चरण में - 12 मात्रा, सम चरण में - 7 मात्रा)
  • दोहा (विषम - 13, सम - 11)
संस्कृत में इस का नाम दोहडिका छन्द है । इसके विषम चरणों में तेरह-तेरह और सम चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं । विषम चरणों के आदि में ।ऽ । (जगण) इस प्रकार का मात्रा-क्रम नहीं होना चाहिए और अंत में गुरु और लघु (ऽ ।) वर्ण होने चाहिए । सम चरणों की तुक आपस में मिलनी चाहिए । 

जैसे:
।ऽ ।ऽ । । ऽ । ऽ ऽऽ ऽ ऽऽ । 

महद्धनं यदि ते भवेत्, दीनेभ्यस्तद्देहि ।
विधेहि कर्म सदा शुभं, शुभं फलं त्वं प्रेहि ॥ 

इस दोहे को पहली पंक्ति में विषम और सम दोनों चरणों पर मात्राचिह्न लगा दिए हैं । इसी प्रकार दूसरी पंक्ति में भी आप दोनों चरणों पर ये चिह्न लगा सकते हैं । अतः दोहा एक अर्धसम मात्रिक छन्द है ।
  • सोरठा (दोहा का उल्टा)
  • उल्लाला (विषम - 15, सम - 13)

विषम मात्रिक छंद :
  • कुण्डलिया (दोहा + रोला)
  • छप्पय (रोला + अल्लाला)

मुक्त छंद
जिस विषय छंद में वर्णित या मात्रिक प्रतिबंध न हो, न प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या और क्रम समान हो और मात्राओं की कोई निश्चित व्यवस्था हो तथा जिसमें नाद और ताल के आधार पर पंक्तियों में लय लाकर उन्हें गतिशील करने का आग्रह हो, वह मुक्त छंद है।

उदाहरण : निराला की कविता 'जूही की कली' इत्यादि।


Sunday, October 5, 2014

लघुसिद्धान्तकौमुदी



अर्थवदधातुरप्रत्यय: प्रातिपदिकम् १|२|४५|
-- धातु, प्रत्यय और प्रत्ययांत भिन्न अर्थवत् शब्दस्वरूप की प्रातिपदिक संज्ञा होती है |

कृत्तधित्समासाश्च १|९|४६|
-- कृदन्त, तद्धितान्त और समास की भी प्रातिपदिक संज्ञा होती है |

स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम 

प्रहेलिका (पहेली/Riddle)


पानियम् पातुमिच्छामि त्वत्तः कमललोचने |
यदि दास्यसि नेच्छामि न दास्यसि पिबाम्यहम् ||
---------------------------------------------------------------------------------------

हे कमलनैन ! मुझे तुमसे पानी पीने की इच्छा है |

1--अगर तुम पानी देती हो तो मुझे नहीं चाहिए, यदि नहीं देती तो मैं पी लूंगा |

2 --यदि तुम दासी हो तो मुझे पानी नहीं चाहिए, यदि नहीं हो तो पी लूंगा |

दास्यसि - तुम देती हो |
दास्यसि --> दासी + असि - तुम दासी हो

O lotus eyed one! I want to have a drink from you.
If you give it to me, I don't want it;
If you don't give it to me, I will drink it.

OR, the last line can be translated to.......

If you are a servant, I don't want it;
If you are not a servant, I will drink it.
=========================================================================================

हनूमति हतारामे वानराः हर्षनिर्भराः ।
रुदन्ति राक्षसाः सर्वे हा हारामो हतो हतः ॥
---------------------------------------------------------------------------------------

जब हनुमान ने राम को मारा, वानर प्रफुल्लित हुए,
सभी राक्षस रोये और चिल्लाये, हा! हा! राम मारे गए |

Translation:
When Hanuman killed Rama, the monkeys were full of delight.
All the rakshasas wept and exclaimed, Alas! Alas! Rama has been killed.

हताराम: = हत् + आराम:(बगीचा)
हतारामे ---> बगीचा ध्वस्त किया

पुन:
जब हनुमान ने वाटिका को उजाड़ दिया तो वानर प्रफुल्लित हुए,
सभी राक्षस रोये और चिल्लाये, हा! हा! अशोक वाटिका नष्ट हो गयी |

Another translation:
When Hanuman destroyed the pleasure-garden, the monkeys were full of delight.  All the rakshasas wept and exclaimed, alas!  Alas!  The pleasure-garden has been destroyed.
=========================================================================================

केशवं पतितं दृष्ट्वा द्रोण हर्षमुपादयत।
कौरवाः सर्वे रुदन्ति हा! हा! केशव केशवः॥
 ---------------------------------------------------------------------------------------

कहते हैं कि व्यास के इस कथन पर स्वयं गणेशजी भी सोच में पड़ गये थे। सम्पूर्ण महाभारत में कृष्ण तो कहीं गिरे नहीं और अगर कहीं गिर भी गये हों तो कृष्ण को गिरते देखकर द्रोण हर्ष से क्यों उछल पड़ेंगे? और तो और शत्रु पक्ष के दुष्ट कौरव हा! हा ! केशव! केशव! कर के क्यों रोयेंगे...?

किन्तु यहाँ केशव का अर्थ है जल में लाश (के (जले) शवं), द्रोण का अर्थ है कौव्वा और कौरव का अर्थ है सियार। अब श्लोक का अर्थ लगाइये। यह महाभारत युद्ध की विभीषिका का वर्णन है। एक दिन में इतनी लाशें गिरती थी कि जलाने या दफ़नाने की जगह ना फ़ुर्सत। लाशों को पानी में बहा दिया जाता था। कौव्वे खुशी के मारे उछल पड़ते थे कि वाह ! अब तो महीनों लाश के उपर बैठ कर मांस खाते रहेंगे। लेकिन एक और मांसाहारी सियार को तैरना तो आता नहीं है... सो वह पानी में लाश को देखता है पर खा नहीं सकता इसीलिये अपना कलेजा पीटता है... हा!..हा...! पानी में लाश ! पानी में लाश ! (काश जमीन पर होता तो सालों तक खाते)
=========================================================================================

यस्य षष्ठी चतुर्थी च विहस्य च विहाय च ।
अहं कथं द्वितीया स्यात् द्वितीया स्यामहं कथम् ।।
 ---------------------------------------------------------------------------------------

विहस्य = after laughing
विहाय = after forsaking

Story:
There were two friends. One was wise but poor. He had a daughter, who was also smart, intelligent and was also beautiful. The other person, was rich but had no intellectual acclaim. He had a son, who also had no wisdom of letters. The rich person caught the fancy to have his wise but poor friend’s daughter as his daughter-in-law.
He did make the proposal to the poor wise man.

Poor wise man knew that his daughter will not be happy by marrying the dim-witted son of his rich but uneducated friend.
But he was also worried of saying no to his rich friend’s proposal.
On knowing her father’s anxiety, she said there was a simple way out. Can you tell uncle, that I have a simple condition for accepting the proposal ? I am stuck up at deciphering the meaning of a simple verse. If the son can help me, I can consider the proposal.
Actually she composed a verse herself. This was the verse.

दो मित्र थे | एक विद्वान परन्तु गरीब था, उसकी एक बेटी थी जो कि बहुत विदुषी और सुन्दर थी | दूसरा बहुत धनी था परन्तु वह विद्वान नहीं था, उसका एक पुत्र भी था जो उसी कि तरह अक्षरशत्रु था | धनिक ने अपने विद्वान मित्र की विदुषी और सुन्दर कन्या को अपनी बहू बनाने का निश्चय किया | धनिक मित्र ने यह प्रस्ताव अपने दरिद्र मित्र के समक्ष प्रस्तुत किया | दरिद्र विद्वान मित्र यह जानता था की उसकी पुत्री, धनी परन्तु मूढ़ के अक्षरशत्रु पुत्र से विवाह के लिए तैयार नहीं होगी परन्तु वह अपने मित्र के प्रस्ताव को इन्कार नहीं करना चाहता था | अपने पिता की चिंता जानकार कन्या को इसका एक सरल उपाय सूझा | उसने अपने पिता से कहा "अपने मित्र से कहिये कि विवाह के लिए मेरी एक आसान सी शर्त है | मैं एक श्लोक का अर्थ करने पर अटकी हुई हू, अगर उनका पुत्र श्लोक का अर्थ कर दे तो मैं उससे विवाह कर लूंगी" |

असल में कन्या ने श्लोक स्वयं बनाया | जो कि इस तरह है :

यस्य विहस्य(शब्दे) षष्ठी च विहाय(शब्दे) चतुर्थी च (भवति) ।
- जिसके लिए "विहस्य" छठी विभक्ति और "विहाय" चौथी विभक्ति का है
- One for whom word विहस्य is of sixth case and word विहाय is of fourth case.

कथम् अहं(शब्दे) द्वितीया च स्यात् |
- "अहम् और कथम्"(शब्द) दूसरी विभक्ति से हो सकता है |
- the word अहं (ever) कथम् be of second case.

कथम् अहम् (तस्य) द्वितीया स्याम् |
- मैं ऐसे व्यक्ति कि पत्नी(द्वितीया) कैसे हो सकती हू ?
- How can I be a wife of such person ?
(Note, alternate meaning of द्वितीया is wife.)

*************

Is it not interesting that a dim-witted may think word विहस्य is of sixth case and word विहाय is of fourth case, simply because they have suffix-like endings of स्य and अय as in देवस्य and देवाय ?
A dim-witted may as well think the word अहम् to be of second case, simply because the word has suffix-like ending of म् as in देवम् ! He may even think the word कथम् to be of second case !!
It is also interesting to think how and why alternate meaning of द्वितीया is wife. Meaning of द्वितीया is not just “second” as in द्वितीयोऽध्यायः. The word also means “next (to)”. A lady “next to” a person would be his wife. That is how the word द्वितीया has this alternate meaning of द्वितीया = wife.

चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम्

====================

चर्पट - पुराना फटा कपडा/Tattered piece of cloth
पञ्जरिका - पिंजड़ा/Cage

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् गोविन्दम् भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

संप्राप्त - अर्जित/attained
सन्निहिते - पास में/situated nearby

रे मूढ़ मन... गोविन्द की खोज कर, गोविन्द का भजन कर और गोविन्द का ही ध्यान कर... अन्तिम समय आने पर व्याकरण के नियम तेरी रक्षा न कर सकेंगे...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायुः॥1॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

निशिदिन शाम सवेरा आता, फेरा शिशिर वसंत लगाता।
काल खेल में जाता जीवन, कटता किंतु न आशा बंधन॥1॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
अग्रे वह्निः पृष्ठे भानुः रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः।
करतलभिक्षा तरुतलवासः तदपि न मुञ्चत्याशापाशः॥2॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

अग्नि-सूर्य से तप दिन जाते, घुटने मोड़े रात बिताते।
बसे वृक्ष तल, लिए भीख धन, किंतु न छूटा आशा बंधन॥2॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
यावद्वित्तोपार्जनसक्तः तावन्निजपरिवारोरक्तः।
पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्ता पृच्छति कोऽपि न गेहे॥3॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

जब तक कमा-कमा धन धरता, प्रेम कुटुंब तभी तक करता।
जब होगा तन बूढ़ा जर्जर, कोई बात न पूछेगा घर॥3॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति लोकः उदरनिमित्तं बहुकृतशोकः॥4॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

जटा बढ़ाई, मूंड मुंडाए, नोचे बाल, वस्त्र रंगवाये।
सब कुछ देख, न देख सका जन, करता शोक पेट के कारण॥4॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
भगवद् गीता किञ्चितधीता गङ्गाजल लवकणिका पीता।
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चा॥5॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

पढ़ी तनिक भी भगवद् गीता, एक बूंद गंगाजल पीता।
प्रेम सहित हरि पूजन करता, यम उसकी चर्चा से डरता॥5॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्।
वृध्दो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्॥6॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

गलितं -- worn out
पलितं - grey with age
तुण्डं - mouth
मुञ्चति - leaves

The body has become worn out. The head has turned grey. The mouth has become toothless.
The old man moves about leaning on his staff. Even then he leaves not the bundle of his desires.

सारे अंग शिथिल, सिर मुंडा, टूटे दांत, हुआ मुख तुंडा।
वृद्ध हुए तब दंड उठाया, किंतु न छूटी आशा-माया॥6॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
बालस्तावत्क्रीडासक्तः तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः।
वृध्दस्तावच्चिन्तामग्नः परे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः॥7॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

बालकपन हंस-खेल गंवाया, यौवन तरुणी संग बिताया।
वृद्ध हुआ चिंता ने घेरा, पार ब्रह्म में ध्यान न तेरा॥7॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे॥8॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

फिर-फिर जनम-मरण है होता, मातृ उदर में फिर-फिर सोता।
दुस्तर भारी संसृति सागर, करो मुरारे पार कृपा कर॥8॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः।
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षम् तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम्॥9॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

फिर-फिर रैन-दिवस हैं आते, पक्ष-महीने आते-जाते।
अयन, वर्ष होते नित नूतन, किंतु न छूटा आशा बंधन॥9॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारः ज्ञाते तत्वे कः संसारः॥10॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

काम वेग क्या आयु ढले पर, नीर सूखने पर क्या सरवर।
क्या परिवार द्रव्य खोने पर, क्या संसार ज्ञान होने पर॥10॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम्।
एतन्मांसवसादि विकारं मनसि विचारय बारम्बारम्॥11॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

नारि नाभि कुच में रम जाना, मिथ्या माया मोह जगाना।
मैला मांस विकार भरा घर, बारम्बार विचार अरे नर॥11॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः।
इति परभावय सर्वमसारम् विश्वं त्यक्ता स्वप्नविचारम्॥12॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

तू मैं कौन, कहां से आए, कौन पिता मां किसने जाये।
इनको नित्य विचार अरे नर, जग प्रपंच तज स्वप्न समझकर॥12॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
गेयं ग‍ीतानामसह्स्रम् ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम्।
नेयं सज्जनसङ्गे चित्तम् देयं दीनजनाय च वित्तम्॥13॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

गीता ज्ञान विचार निरंतर, सहस नाम जप हरि में मन धर।
सत्संगति में बैठ ध्यान दे, दीनजनों को द्रव्य दान दे॥13॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे।
गतवति वायौ देहापाये भार्या विभ्यति तस्मिन्काये॥14॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

जब तक रहते प्राण देह में, तब तक पूछें कुशल गेह में।
तन से सांस निकल जब जाते, पत्नी-पुत्र सभी भय खाते॥14॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।
यद्यपि लोके मरणं शरणम् तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्॥15॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

भोग-विलास किए सब सुख से, फिर तन होता रोगी दुःख से।
मरना निश्चित जग में जन को, किंतु न तजता पाप चलन को॥15॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
रथ्याचर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः।
नाहं न त्वं नायं लोकः तदपि किमर्थं क्रियते शोकः॥16॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

चिथड़ों की गुदड़ी बनवा ली, पुण्य-पाप से राह निराली।
नित्य नहीं मैं, तू जग सारा, फिर क्यों करता शोक पसारा॥16॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीने सर्वमतेन मुक्तिर्भवति न जन्मशतेन॥17॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

क्या गंगासागर का जाना, धर्म-दान-व्रत-नियम निभाना।
ज्ञान बिना चाहे कुछ भी कर, सौ-सौ जन्म न मुक्ति मिले नर॥17॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
--- श्री शञ्कराचार्यविरचितम्
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

Wednesday, August 20, 2014

कहानी दो अंकों की

===========================

कला और विज्ञान को आमतौर पर अलग-अलग श्रेणियों में रखा जाता है. अंग्रेज़ों द्वारा तैयार की गयी वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली में भी दोनों विषय माध्यमिक स्तर पर ही अलग कर दिये जाते है. क्या कला और विज्ञान साथ-साथ नहीं चल सकते? अगर कोई कहे कि कम्प्यूटर क्रांति कला की एक बड़ी देन है तो उस व्यक्ति पर निश्चित रूप से संदेह की दृष्टि से देखा जायेगा!

कला और विज्ञान का एकात्म स्वरूप के ईसा से कोई ५०० वर्ष पूर्व भारतीय विद्वान पिंगल को विदित था. यदि कहें कि कम्प्यूटर क्रांति का स्रोत पिंगल की इसी सोच में छिपा है, तो गलत न होगा! कैसे? आइये जानने का प्रयास करें.

कम्प्यूटर जो भी कुछ करता है, उसमें एक गणना छिपी होती है. अब एक निर्जीव वस्तु गणना कैसे करे, और उस वस्तु को गिनती समझायी जाय तो भला कैसे! यह सब संभव है द्विअंकीय प्रणाली के माध्यम से. ये दो अंक १ और ० हार्ड डिस्क के किसी क्षेत्र के चुम्बकीयकृत होने या न होने को निरूपित कर सकते हैं या सी.डी. के किसी स्थान पर प्रकाश के ध्रुवीयकरण की दो अलग अवस्थाओं को भी. अब प्रश्न यह है कि इसमें कला कहाँ से आ गयी? तो जवाब है कि यह विचार कि किसी वस्तु की दो अवस्थाओं के आधार पर कोई भी कठिन से कठिन गणना संभव है, कला से ही आया. अब सोचिये न, ये दो अवस्थायें कविता में प्रयोग किये जाने वाले छन्दों के किसी स्थान पर लघु अथवा गुरु होने का निरूपण भी तो कर सकतीं हैं! द्विअंकीय सिद्धान्त यहीं से आया! पिंगल के छन्द शास्त्र में पद्यों में छिपे इस सिद्धान्त का वर्णन बहुत सहजता और वैज्ञानिक ढंग से किया गया है.

पिंगल ने कई छन्दों का वर्गीकरण आठ गणों के आधार पर किया. इस वर्गीकरण को समझने के लिये पहले देखें एक सूत्र: “यमाताराजभानसलगा“. यदि मात्रा गुरु है तो लिखें १ और यदि लघु है तो ०. अब इस सूत्र में तीन-तीन अक्षरों को क्रमानुसार लेकर बनायें आठ गण,

यगण = यमाता = (०,१,१)
मगण = मातारा = (१,१,१)
तगण = ताराज = (१,१,०)
रगण = राजभा = (१,०,१)
जगण = जभान = (०,१,०)
भगण = भानस = (१,०,०)
नगण = नसल = (०,०,०)
सगण = सलगा = (०,०,१)

अब ये आठ गण यूँ समझिये कि हुये ईंट, जिनसे मिलकर कविता का सुंदर महल खड़ा है. इन ईंटों का प्रयोग करके बहुत से सुंदर छन्द परिभाषित और वर्गीकृत किये जा सकते हैं. यही नहीं, ये आठ गण ० से लेकर ७ तक की संख्याओं का द्विअंकीय प्रणाली में निरूपण कर रहे हैं, सो अलग. और तो और इनमें गणित की सुप्रसिद्ध द्विपद प्रमेय [Binomial Theorem] भी छिपी बैठी है! यदि ल और ग दो चर हैं [या दो अवस्थायें हैं], तो (ल+ग)३ के विस्तार में ल२ग का गुणांक = उन गणों की संख्या जिनमें दो लघु तथा एक गुरु है = ३ [ज‍गण, भगण, सगण]. तो इस प्रकार (ल+ग)३ = ल३+ ३ल२ग+ ३लग२+ ग३.

छन्दों से गणित और कम्प्यूटर विज्ञान का यह रास्ता पिंगल ने दिखाया. क्या यह एक संयोग ही है कि छन्दों के अध्ययन में भी हम विश्व में अग्रणी रहे और आज २५०० वर्षों के बाद कम्प्यूटर विज्ञान में भी अपनी सर्वोत्कॄष्टता सिद्ध कर चुके हैं! शायद यह सब हमारे उन पुरखों का आशीर्वाद है जिनकी कल की सोच की रोशनी हमारे आज को प्रकाशित कर रही है.

स्त्रोत:
http://vandemataram.wordpress.com/2007/01/21/कहानी-दो-अंकों-की/

Wednesday, August 6, 2014

लोट् लकार(आज्ञार्थक/प्रार्थनार्थक) और सम्बोधन(भवान्/भवति, त्वम् ) प्रयोग

सम्बोधन के बिना आज्ञा देना असंभव है इसलिए लोट् लकार के साथ सम्बोधन के विभिन्न प्रयोग प्रस्तुत है :

-----------
प्रथम पुरुष
-----------
भवान्/भवति आदर प्रदर्शित करते है और सदा प्रथम पुरुष में आते है इसलिए किसी को आदरसहित प्रार्थना के लिए भवान्/भवति का प्रयोग होता है |

उदाहरण :
--> भवान् जलम् पिबतु |
आप जल पीजिये |

--> भवति आगच्छतु |
आप(स्त्रीलिंग) आइये |

* सामंजस्य के लिए क्रिया भी प्रथम पुरुष एकवचन से ली गयी है |

यदि किसी बड़े व्यक्तित्व को सम्मान देते है तो प्रथम पुरुष एकवचन की जगह प्रथम पुरुष बहुवचन प्रयोग होता है |
उदाहरण :
--> भवन्तः जलम् पिबन्तु |
आप जल पीजिये |

--------------
मध्यम पुरुष
--------------
आज्ञा देने या सुहृदयता(closeness) दर्शाने के लिए त्वम् का प्रयोग होता है जो कि मध्यम पुरुष है |

उदाहरण :
--> राम त्वं जलम् पिब |
राम तुम जल पियो |
या
--> राम जलम् पिब |
राम जल पियो |

* सामंजस्य के लिए क्रिया भी मध्यम पुरुष एकवचन से ली गयी है |

------------
उत्तम पुरुष
------------
हम अपने आप को आज्ञा नहीं दे सकते और न ही प्रार्थना की जा सकती है इसलिए लोट् लकार उत्तम पुरुष हमेशा आज्ञा लेने/मांगने के भाव को दर्शाता है |

--> अहं भोजनं खादानि किम् ?
क्या मैं भोजन खा लूँ |

इसके अतिरिक्त इच्छा (wish) दर्शाने के लिए भी उत्तम पुरुष लोट् लकार का प्रयोग होता है |
--> नंदाम शरदः शतम् |
हम सैकड़ो वर्षोँ के लिए आनन्दित रहें |

======--ध्यान दें--=========
आज्ञा देते समय सदैव आप,तुम या नाम लेकर सम्बोधित किया जाता है | यदि 'तुम' से सम्बोधित किया गया है तो वह मध्यम पुरुष हो जायेगा परन्तु यदि 'आप' या नाम से सम्बोधित किया जाता है तो वह प्रथम पुरुष होगा |
जैसे :
--> त्वम् उपविश - तुम बैठो - मध्यम पुरुष |
--> भवन्तः पठन्तु - आप लोग पढ़िए - प्रथम पुरुष |
--> श्याम भवान् मया सह चलतु - श्याम, मेरे साथ चलो - प्रथम पुरुष |
--> श्याम, त्वं मया सह चल - श्याम, मेरे साथ चलो - मध्यम पुरुष |

परन्तु यदि त्वम् और भवान् के अलावा किसी शब्द या नाम के प्रथम पुरुष का प्रयोग होता है तो वाक्य की दिशा बदल जाती है |
--> श्यामः मया सह चलतु - श्याम को मेरे साथ चलने दो |
--> बालका: उद्याने क्रीडन्तु - बच्चो को खेलने दो |
--> शिष्य: पाठं पठतु - शिष्यों को पढ़ने दो |
(यहाँ वक्ता किसी और से बात कर रहा है )

Saturday, August 2, 2014

१ से परार्ध(१,00,00,00,00,00,00,00,000) तक गिनती |

Sanskrit counting from 1 - 1,00,00,00,00,00,00,00,000

==============================
एक-दश-शत सहस्रायुत-लक्ष-प्रयुत-कोटयः क्रमशः |
अर्बुदमब्ज खर्व-निखर्व-महापद्म-शङ्कवस्तस्मात् ||
जलधिश्चान्तं मध्यं परार्धमिति दशगुणोत्राः संज्ञाः |
संख्यायाः स्थानानां व्यवहारार्थं कृताः पूर्वैः ||
==============================


1. One एकम् (ekam)
2.Two द्वे (dve)
3.Three त्रीणि (treeni)
4. Four चत्वारि (chatvaari)
5. Five पञ्च (pancha)
6. Six षट् (shat)
7. Seven सप्त (sapta)
8. Eight अष्ट (ashta)
9. Nine नव (nava)
10. Ten दश (dasha)
11. Elelven एकादश (ekaadasha)
12. Twelve द्वादश (dvaadasha)
13. Thirteen त्रयोदश (trayodasha)
14. Fourteen चतुर्दश (chaturdasha)
15. Fifteen पञ्चदश (panchadasha)
16. Sixteen षोडश (shodash)
17. Seventeen सप्तदश (saptadasha)
18. Eighteen अष्टादश (ashtaadasha)
19. Nineteen नवदश (navadasha)
20. Twenty विंशतिः (vimshatihi)
21. Twenty one एकविंशतिः (ekavimshatihi)
22. Twenty two द्वाविंशतिः (dvaavimshathi)
23. Twenty three त्रयोविंशतिः (trayovimshatihi)
24. Twenty four चतुर्विंशतिः (chaturvimshatihi)
25. Twenty five पञ्चविंशतिः (panchavimshatihi)
26. Twenty six षड्विंशतिः (shadvimshatihi)
27. Twenty seven सप्तविंशतिः (saptavimshatihi)
28. Twenty eight अष्टाविंशतिः (ashtaavimshatihi)
29. Twenty nine नवविंशतिः (navavimshatihi)
30. Thirty त्रिंशत् (trimshat)
31. Thirty one एकत्रिंशत् (ekatrimshat)
32. Thirty two द्वात्रिंशत् (dvaatrimshat)
33. Thirty three त्रयस्त्रिंशत् (trayastrimshat)
34. Thirty four चतुस्त्रिंशत् (chatustrimshat)
35. Thirty five पञ्चत्रिंशत् (panchatrimshat)
36. Thirty six षट्त्रिंशत् (shat-trimshat)
37. Thirty seven सप्तत्रिंशत् (saptatrimshat)
38. Thirty eight अष्टत्रिंशत् (ashtatrimshat)
39. Thirty nine नवत्रिंशत् (navatrimshat)
40. Forty चत्वारिंशत् (chatvaarimshat)
41. Forty one एकचत्वारिंशत् (ekachatvaarimshat)
42. Forty two द्विचत्वारिंशत् (dvichatvaarimshat)
43. Forty three त्रिचत्वारिंशत् (trichatvaarimshat)
44. Forty four चतुश्चत्वारिंशत् (chatushchatvaarimshat)
45. Forty five पञ्चचत्वारिंशत् (panchachatvaarimshat)
46. Forty six षट्चत्वारिंशत् (shatchatvaarimshat)
47. Forty seven सप्तचत्वारिंशत् (saptachatvaarimshat)
48. Forty eight अष्टचत्वारिंशत् (ashtachatvaarimshat)
49. Forty nine नवचत्वारिंशत् (navachatvaarimshat)
50. Fifty पञ्चाशत् (panchaashat)
51. Fifty one एकपञ्चाशत् (ekapanchaashat)
52. Fifty two द्विपञ्चाशत् (dvipanchaashat)
53. Fifty three त्रिपञ्चाशत् (tripanchaashat)
54. Fifty four चतुःपञ्चाशत् (chatuhupanchaashat)
55. Fifty five पञ्चपञ्चाशत् (panchapanchaashat)
56. Fifty six षट्पञ्चाशत् (shatpanchaashat)
57. Fifty seven सप्तपञ्चाशत् (saptapanchaashat)
58. Fifty eight अष्ट्पञ्चाशत् (ashtapanchaashat)
59. Fifty nine नवपञ्चाशत् (navapanchaashat)
60. Sixty षष्टिः (shashtihi)
61. Sixty one एकषष्टिः (ekashashtihi)
62. Sixty two द्विषष्टिः (dvishashtihi)
63. Sixty three त्रिषष्टिः (trishashtihi)
64. Sixty four चतुःषष्टिः (chatuhushashtihi)
65. Sixty five पञ्चषष्टिः (panchashashtihi)
66. Sixty six षट्षष्टिः (shatshashtihi)
67. Sixty seven सप्तषष्टिः (saptashashtihi)
68. Sixty eight अष्टषष्टिः (ashtashashtihi)
69. Sixty nine नवषष्टिः (navashashtihi)
70. Seventy सप्ततिः (saptatihi)
71. Seventy one एकसप्ततिः (ekasaptatihi)
72. Seventy two द्विसप्ततिः (dvisaptatihi)
73. Seventy three त्रिसप्ततिः (trisaptatihi)
74. Seventy four चतुःसप्ततिः (chatuhusaptatihi)
75. Seventy five पञ्चसप्ततिः (panchasaptatihi)
76. Seventy six षट्सप्ततिः (shatsaptatihi)
77. Seventy seven सप्तसप्ततिः (saptasaptatihi)
78. Seventy eight अष्टसप्ततिः (ashtasaptatihi)
79. Seventy nine नवसप्ततिः (navasaptatihi)
80. Eighty अशीतिः (asheetihi)
81. Eighty one एकाशीतिः (ekaasheetihi)
82. Eighty two द्व्यशीतिः (dvyasheetihi)
83. Eighty three त्र्यशीतिः (tryasheetihi)
84. Eighty four चतुरशीतिः (chaturasheetihi)
85. Eighty five पञ्चाशीतिः (panchaasheetihi)
86. Eighty six षडशीतिः (shadasheetihi)
87. Eighty seven सप्ताशीतिः (saptaasheetihi)
88. Eighty eight अष्टाशीतिः (ashtaasheetihi)
89. Eighty nine नवाशीतिः (navaasheetihi)
90. Ninety नवतिः (navatihi)
91. Ninety one एकनवतिः (ekanavatihi)
92. Ninety two द्विनवतिः (dvinavatihi)
93. Ninety three त्रिनवतिः (trinavatihi)
94. Ninety four चतुर्नवतिः (chaturnavatihi)
95. Ninety five पञ्चनवतिः (panchanavatihi)
96. Ninety six षण्णवतिः (shannavatihi)
97. Ninety seven सप्तनवतिः (saptanavatihi)
98. Ninety eight अष्टनवतिः (ashtanavatihi)
99. Ninety nine नवनवतिः (navanavatihi)
100. A hundred शतम् (shatam)
200 - द्विशत or द्वेशते (dvishat)
300 - त्रिशत (trishat)
400 - चतुःशत (chatuhu shat)
500 - पञ्चशत (punch shat)
600 - षट्शत (shatt shat)
700 - सप्तशत (sapt shat)

800 - अष्टशत (asht shat)
900 - नवशत (nav shat)
1,000 - सहस्र or दशशत (sahastra/dash shat)
2,000 - द्विसहस्र (dvi shahastra)
3,000 - त्रिसहस्र (tri
shahastra)
4,000 - चतःसहस्र (chatah
shahastra)
5,000 - पञ्चसहस्र (punch
shahastra)
6,000 - षट्सहस्र (shatt
shahastra)
7,000 - सप्तसहस्र (sapta
shahastra)
8,000 - अष्टसहस्र (ashta
shahastra)
9,000 - नवसहस्र (nav
shahastra)
10,000 - अयुत (ayut)
1,00,000 - लक्ष (laksh)
10,00,000 - प्रयुत (prayut)
1,00,00,000 - कोटि (koti)
10,00,00,000 - अर्बुद (arbud)
1,00,00,00,000 - अब्ज (abz)
10,00,00,00,000 - खर्व (kharva)
1,00,00,00,00,000 - निखर्व (nikharva)
10,00,00,00,00,000 - महापद्म (mahapadma)
1,00,00,00,00,00,000 - शङ्कु (shanku)
10,00,00,00,00,00,000 - जलधि (jaladhee)
1,00,00,00,00,00,00,000 - अन्त्य (antya)
10,00,00,00,00,00,00,000 - मध्य (madhya)
1,00,00,00,00,00,00,00,000 - परार्ध (paraardha)

Sunday, July 27, 2014

धातु प्रकरण( Tenses )

1. लट् लकार (Present tense)

2. लृट् लकार (अद्यतन future tense)

3. लङ् लकार (अद्यतन past tense)

4. लोट् लकार (request or order)

      लिङ् लकार (has 2 subtypes. आशीर्लिंङ् and विधिर्लिंङ् )

5. आशीर्लिंङ्

6. विधिर्लिंङ् (for rituals, invitation, prayer, possibility etc)
  
7. लिट् लकार (परोक्ष past tense)

8. लुट् लकार (अनद्यतन future tense)

9. लुङ् लकार (नअद्यतन or अनद्यतन past tense)

10. लृङ्
लकार (combination of past and future tense with cause and effect relationship)


*अद्यतन  काल applies to any today's event.
*अनद्यतन past tense is used for event, that is not so ancient.
*परोक्ष is for event that we have not seen.

लट्लकार / laTlakaara (Present Tense): लट्लकार (laTlakaara) represents verb-forms in present tense (वर्तमानकाल / vartamaanakaala). So, while forming a sentence which is in present tense, the verb (क्रिया / kriaa) has to be in लट्लकार (laTlakaara).

Example:

बालकः पठति

बालिका गच्छति


लृट्लकार / lRRiTlakaara (Future Tense): लृट्लकार (lRRiTlakaara) verb-forms represent the future tense in a sentence. So, while forming sentences in future tense we need to use verbd-forms from लृट्लकार (lRRiTlakaara).

Example:

रामः पठिष्यति

वयं गमिष्यामः


लङ्लकार / laN^lakaara (Past Tense): लङ्लकार (laN^lakaara) verb-forms represent the past tense in a sentence. So, while forming sentences in past tense we need to use verbd-forms from लङ्लकार (laN^lakaara).

Example:

बालिका अपठत्

बालकाः अगच्छन्

वयं अपठाम



लोट्लकार(आज्ञार्थक वृत्ति) / loTlakaara (Imperative Mood - Commands & Requests): का प्रयोग मुख्या रूप से नीचे दिए गए संदर्भो में होता है :
क) आज्ञा या सलाह का भाव बताने के लिए |
ख) इच्छा या प्रार्थना को प्रकट करने के लिए |
 These verb-forms are used while giving commands or requests


Example:

रामः पठतु

त्वं पठ

वयं पठाम



विधैलिङ्लकार(सम्भावनार्थक वृत्ति) / vidhailiN^lakaara (Optative Mood - Should or May): - का प्रयोग मुख्या रूप से नीचे दिए गए संदर्भो में होता है :
क) इच्छा, सलाह या आशीर्वाद के लिए |
ख) संदेह या संभावना सूचित करने के लिए |
ग) संभाव्यता प्रदर्शित करने के लिए |
घ) हेतुहेतुमद वाक्यांशों में |

विधैलिङ्लकार (vidhailiN^lakaara) verb-forms represent sentences in optative mood. So, any sentence indicating possibility of something verb-forms of विधैलिङ्लकार (vidhailiN^lakaara) should be used.


Example:

बालिका पठेत्

बालकाः गच्छेयुः

युयं पठेत



टिप्पणी: लोट लकार(आज्ञार्थक वृत्ति) और विधिलिंग(सम्भावनार्थक वृत्ति) का प्रयोग कभी कभी एक दुसरे के स्थान पर होता है | इन दोनों का प्रयोग इच्छा, आशीर्वाद या परामर्श की अभिव्यक्ति के लिए हो सकता है | परन्तु लोट का प्रयोग अधिकांशतः आज्ञा देने के लिए और विधिलिंग का प्रयोग प्रायः आशीर्वाद और इच्छा जताने के लिए होता है |

 =============================




'मा' और 'न' में अंतर (Difference between 'मा' and 'न')

दोनो ही का अर्थ 'नहीं' का होता है परन्तु 'मा' विरोधी स्वर में प्रयोग होता है जबकि 'न' साधारण वाक्य में प्रयोग होता है |

उदाहरणार्थ :

मा वद | (मत बोलो ) - विरोधाभासी

अहम् न वदामि | (मैं नहीं बोलता हु) - साधारण वाक्य 


                                                ============

Distinction between 'मा' and 'न'
----------------------------------------
Both are used for negating things but
'मा' is used when you order or tell someone and
'न' is used in normal statements.

Example-

मा वद | Don't speak. - It is to tell someone not to speak.

अहम् न वदामि | I don't speak. - It is a normal statement informing that I don't speak.

छोटे छोटे वाक्यों से दैनिक जीवन मे संस्कृत को लाइए |


अहम् गच्छामि = मैं जा रहा हूँ
अहम् भोजनम् खादामि = मैं भोजन खा रहा हूँ
अहम् सीदामि = मैं बैठा हूँ
अहम् तिष्ठामि = मैं ठहरा हूँ
अहम् लिखामि = मैं लिख रहा हूँ
अहम् क्रीडामि = मैं खेल रहा हूँ
अहम् क्राम्यामि = मैं चलता हूँ

कटपयादि:

संख्याओं को शब्द या श्लोक के रूप में आसानी से याद रखने की प्राचीन भारतीय पद्धति |

शंकरवर्मन द्वारा रचित सद्रत्नमाला का निम्नलिखित श्लोक इस पद्धति को स्पष्ट करता है -

नज्ञावचश्च शून्यानि संख्या: कटपयादय:|
मिश्रे तूपान्त्यहल् संख्या न च चिन्त्यो हलस्वर:||


Transiliteration:

nanyāvacaśca śūnyāni saṃkhyāḥ kaṭapayādayaḥ
miśre tūpāntyahal saṃkhyā na ca cintyo halasvaraḥ

अर्थ: न, ञ तथा अ शून्य को निरूपित करते हैं। (स्वरों का मान शून्य है) शेष नौ अंक क, ट, प और य से आरम्भ होने वाले व्यंजन वर्णों द्वारा निरूपित होते हैं। किसी संयुक्त व्यंजन में केवल बाद वाला व्यंजन ही लिया जायेगा। बिना स्वर का व्यंजन छोड़ दिया जायेगा।

उदाहरण:

1). सदरत्नमाला में पाई का मान

गोपीभाग्यमध्रुवात श्रृङ्गिशोदधिसन्धिग ।
खलजीवितखाताव गलहालारसंधर ।।
= 314159265358979324 (सत्रह दशमलव स्थानों तक, 3 के बाद दशमलव मानिए।)
2). कुछ लोग बच्चों के नाम उनके जन्मकाल के आधार पर कटपयादि का उपयोग करते हुए रखते हैं।



योग का व्यावहारिक रूप है संस्कृत भाषा के रहस्य

दुनिया की पहली पुस्तक की भाषा होने के कारण संस्कृत भाषा को विश्व की प्रथम भाषा मानने में कहीं कोई संशय की गुंजाइश नहीं हैं।इसके सुस्पष्ट व्याकरण और वर्णमाला की वैज्ञानिकता के कारण सर्वश्रेष्ठता भी स्वयं सिध्द है।
सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्य की धनी हाने से इसकी महत्ता भी निर्विवाद है। इतना सब होने के बाद भी बहुत कम लोग ही जानते है कि संस्कृत भाषा अन्य भाषाओ की तरह केवल अभिव्यक्ति का साधन मात्र ही नहीं है; अपितु वह मनुष्य के सर्वाधिक संपूर्ण विकास की कुंजी भी है। इस रहस्य को जानने वाले मनीषियों ने प्राचीन काल से ही संस्कृत को देव भाषा और अम्रतवाणी के नाम से परिभाषित किया है। संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं वल्कि संस्कारित भाषा है इसीलिए इसका नाम संस्कृत है। संस्कृत को संस्कारित करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं वल्कि महर्षि पाणिनि; महर्षि कात्यायिनि और योग शास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं। इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट किया है। यही इस भाषा का रहस्य है । जिस प्रकार साधारण पकी हुई दाल को शुध्द घी में जीरा; मैथी; लहसुन; और हींग का तड़का लगाया जाता है;तो उसे संस्कारित दाल कहते हैं। घी ; जीरा; लहसुन, मैथी ; हींग आदि सभी महत्वपूर्ण औषधियाँ हैं। ये शरीर के तमाम विकारों को दूर करके पाचन संस्थान को दुरुस्त करती है।दाल खाने वाले व्यक्ति को यह पता ही नहीं चलता कि वह कोई कटु औषधि भी खा रहा है; और अनायास ही आनन्द के साथ दाल खाते-खाते इन औषधियों का लाभ ले लेता है।
ठीक यही बात संस्कारित भाषा संस्कृत के साथ सटीक बैठती है।जो भेद साधारण दाल और संस्कारित दाल में होता है ;वैसा ही भेद अन्य भाषाओं और संस्कृत भाषा के बीच है।संस्कृत भाषा में वे औषधीय तत्व क्या है ? यह जानने के लिए विश्व की तमाम भाषाओं से संस्कृत भाषा का तुलनात्मक अध्ययन करने से स्पष्ट हो जाता है।
संस्कृत में निम्नलिखित चार विशेषताएँ हैं जो उसे अन्य सभी भाषाओं से उत्कृष्ट और विशिष्ट बनाती हैं।
१ अनुस्वार (अं ) और विसर्ग(अ:)
सेस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण और लाभ दायक व्यवस्था है, अनुस्वार और विसर्ग। पुल्लिंग के अधिकांश शब्द विसर्गान्त होते हैं —
यथा- राम: बालक: हरि: भानु: आदि।
और
नपुंसक लिंग के अधिकांश शब्द अनुस्वारान्त होते हैं—
यथा- जलं वनं फलं पुष्पं आदि।
अब जरा ध्यान से देखें तो पता चलेगा कि विसर्ग का उच्चारण और कपालभाति प्राणायाम दोनों में श्वास को बाहर फेंका जाता है। अर्थात् जितनी बार विसर्ग का उच्चारण करेंगे उतनी बार कपालभाति प्रणायाम अनायास ही हो जाता है। जो लाभ कपालभाति प्रणायाम से होते हैं, वे केवल संस्कृत के विसर्ग उच्चारण से प्राप्त हो जाते हैं।
उसी प्रकार अनुस्वार का उच्चारण और भ्रामरी प्राणायाम एक ही क्रिया है । भ्रामरी प्राणायाम में श्वास को नासिका के द्वारा छोड़ते हुए भौंरे की तरह गुंजन करना होता है, और अनुस्वार के उच्चारण में भी यही क्रिया होती है। अत: जितनी बार अनुस्वार का उच्चारण होगा , उतनी बार भ्रामरी प्राणायाम स्वत: हो जावेगा।

कपालभाति और भ्रामरी प्राणायामों से क्या लाभ है? यह बताने की आवश्यकता नहीं है; क्योंकि स्वामी रामदेव जी जैसे संतों ने सिद्ध करके सभी को बता दिया है। मैं तो केवल यह बताना चाहता हूँ कि संस्कृत बोलने मात्र से उक्त प्राणायाम अपने आप होते रहते हैं।
जैसे हिन्दी का एक वाक्य लें- '' राम फल खाता है``

इसको संस्कृत में बोला जायेगा- '' राम: फलं खादति"
राम फल खाता है ,यह कहने से काम तो चल जायेगा ,किन्तु राम: फलं खादति कहने से अनुस्वार और विसर्ग रूपी दो प्राणायाम हो रहे हैं। यही संस्कृत भाषा का रहस्य है।
संस्कृत भाषा में एक भी वाक्य ऐसा नहीं होता जिसमें अनुस्वार और विसर्ग न हों। अत: कहा जा सकता है कि संस्कृत बोलना अर्थात् चलते फिरते योग साधना करना।

२- शब्द-रूप
संस्कृत की दूसरी विशेषता है शब्द रूप। विश्व की सभी भाषाओं में एक शब्द का एक ही रूप होता है,जबकि संस्कृत में प्रत्येक शब्द के 25 रूप होते हैं। जैसे राम शब्द के निम्नानुसार 25 रूप बनते हैं।
यथा:- रम् (मूल धातु)
राम: रामौ रामा:
रामं रामौ रामान्
रामेण रामाभ्यां रामै:
रामाय रामाभ्यां रामेभ्य:
रामत् रामाभ्यां रामेभ्य:
रामस्य रामयो: रामाणां
रामे रामयो: रामेषु
हे राम! हेरामौ! हे रामा:!

ये 25 रूप सांख्य दर्शन के 25 तत्वों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिस प्रकार पच्चीस तत्वों के ज्ञान से समस्त सृष्टि का ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वैसे ही संस्कृत के पच्चीस रूपों का प्रयोग करने से आत्म साक्षात्कार हो जाता है। और इन 25 तत्वों की शक्तियाँ संस्कृतज्ञ को प्राप्त होने लगती है।
सांख्य दर्शन के 25 तत्व निम्नानुसार हैं।-
आत्मा (पुरुष)
(अंत:करण 4 ) मन बुद्धि चित्त अहंकार
(ज्ञानेन्द्रियाँ 5) नासिका जिह्वा नेत्र त्वचा कर्ण
(कर्मेन्द्रियाँ 5) पाद हस्त उपस्थ पायु वाक्
(तन्मात्रायें 5) गन्ध रस रूप स्पर्श शब्द
( महाभूत 5) पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश

३- द्विवचन
संस्कृत भाषा की तीसरी विशेषता है द्विवचन। सभी भाषाओं में एक वचन और बहु वचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है। इस द्विवचन पर ध्यान दें तो पायेंगे कि यह द्विवचन बहुत ही उपयोगी और लाभप्रद है।
जैसे :- राम शब्द के द्विवचन में निम्न रूप बनते हैं:- रामौ , रामाभ्यां और रामयो:। इन तीनों शब्दों के उच्चारण करने से योग के क्रमश: मूलबन्ध ,उड्डियान बन्ध और जालन्धर बन्ध लगते हैं, जो योग की बहुत ही महत्वपूर्ण क्रियायें हैं।

४ सन्धि
संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण विशेषता है सन्धि। ये संस्कृत में जब दो शब्द पास में आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता है। उस बदले हुए उच्चारण में जिह्वा आदि को कुछ विशेष प्रयत्न करना पड़ता है।ऐंसे सभी प्रयत्न एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति के प्रयोग हैं।
''इति अहं जानामि" इस वाक्य को चार प्रकार से बोला जा सकता है, और हर प्रकार के उच्चारण में वाक् इन्द्रिय को विशेष प्रयत्न करना होता है।
यथा:- १ इत्यहं जानामि।
२ अहमिति जानामि।
३ जानाम्यहमिति ।
४ जानामीत्यहम्।
इन सभी उच्चारणों में विशेष आभ्यंतर प्रयत्न होने से एक्यूप्रेशर चिकित्सा पद्धति का सीधा प्रयोग अनायास ही हो जाता है। जिसके फल स्वरूप मन बुद्धि सहित समस्त शरीर पूर्ण स्वस्थ एवं नीरोग हो जाता है।
इन समस्त तथ्यों से सिद्ध होता है कि संस्कृत भाषा केवल विचारों के आदान-प्रदान की भाषा ही नहीं ,अपितु मनुष्य के सम्पूर्ण विकास की कुंजी है। यह वह भाषा है, जिसके उच्चारण करने मात्र से व्यक्ति का कल्याण हो सकता है। इसीलिए इसे देवभाषा और अमृतवाणी कहते हैं।

(-शास्त्री नित्यगोपाल कटारे)

'च' (हिंदी - और ) को प्रयोग करने के नियम

दो तरह से 'च' वाक्यो में प्रयोग हो सकता है:

१ - सभी संज्ञाओं को लिख कर, अंतिम संज्ञा के बाद 'च' लगा दे, जो की आसान और ज्यादा इस्तेमाल होने वाला तरीका है |

उदाहरण : रामः, श्यामः , माला , शीला च क्रीडन्ती |

२ - सभी संज्ञाओं के बीच में 'च' लगा दे, जो की थोड़ा मुश्किल और काम इस्तेमाल होने वाला तरीका है |

उदहारण : रामः च श्यामः च माला च शीला च क्रीडन्ति |

३ - जब वाक्य में पुल्लिंग और स्त्रीलिंग, दोनों संज्ञा हों, तब पुल्लिंग को प्राथमिकता दी जाती है |

उदाहरण : तौ गच्छतः |
अगर आपको पुरुष प्रधान वाक्य से आपत्ति है तो आप कह सकते है - "सः सा गच्छतः |" दोनों ही वाक्य सही है |

४ - कर्ता के वचन के स्वरुप क्रिया वचन प्रयोग होगा |


उदाहरण :
रामः माला च खादतः | (खाद का प्रथम पुरुष द्विवचन)
रामः माला सीता च खादन्ति | (खाद का प्रथम पुरुष बहुवचन)

५ - अगर कर्ता विभिन्न पुरुषो में है (प्रथम, मध्यम एवं उत्तम पुरुष ) तो पहली प्राथमिकता उत्तम पुरुष की होगी और दूसरी प्राथमिकता मध्यम पुरुष की |

उदाहरण :
त्वम् अहं च गच्छावः | ----- यहाँ वाक्य में मध्यम पुरुष और उत्तम पुरुष आये है इसलिए क्रिया पद उत्तम पुरुष के द्विवचन से लिया गया है |
रामः अहं त्वम् च गच्छावः | ----- उत्तम पुरुष और बहुवचन |
रामः त्वम् च गच्छथः | ----- मध्यम पुरुष और द्विवचन |
ते त्वम् च गच्छथ | ----- मध्यम पुरुष और बहुवचन |

'अहम्' और 'अहं' में अंतर (Difference in writing 'अहम्' and 'अहं' )

क्या आपने कभी सोचा है कि 'अहम्' कभी
'अहम्' लिखा जाता है और कभी 'अहं' ?
------------------------------------------------

'संस्कृत' का अर्थ है व्यवस्थित | दी गयी तालिका पर गौर कीजिये, आपको समझ में आने लगेगा कि यह कितनी व्यवस्थित भाषा है | यह बेहद परिपूर्ण तरीके से अनुनासिक शब्दों को उच्चारित करने के संकेत दिखाता है |

=====
लेखन

=====
शंकर X
शङ्कर √

इसको लिखने की तरकीब है, शब्द के अनुनासिक उच्चारण के ठीक बाद वाले अक्षर को देखना और लिखे जाने वाले अनुनासिक अक्षर का पता लगाना | याद रखने वाली बात है कि केवल 'म् ' को ही अनुस्वार कि तरह प्रयोग होने का अधिकार है (अनुस्वार - किसी अक्षर के ऊपर लगने वाली बिंदी ) |

उदाहरण:
पंच X
पञ्च √

कंठ X
कण्ठ √

दंत X
दन्त √

चंपा X
चम्पा √

=======
उच्चारण
=======
संस्कृत पानी कि तरह है | यह बहती है | इसीलिए 'म्' उच्चारण के समय अपने आपको अगले शब्द के साथ समाहित कर लेता है |
उदाहरण :

"अहं तारा" में बिंदु को 'न' उच्चारित किया जाता है, जिससे वह अगले अक्षर 'त' के साथ आसानी से उच्चारित होता है, क्योंकि 'न', 'त' वर्ग से सम्बंधित है |
इसका सही उच्चारण होगा "अहन तारा" न कि "अहम् तारा" |

"अहं कान्ता" का सही उच्चारण होगा "अहङ् कान्ता" | यहाँ 'म्' का उच्चारण 'ङ्' की तरह होगा |

इसी तरह

"अहं टीपू सुलतान" का सही उच्चारण होगा "अहण टीपू सुल्तान" |


 

33 कोटि देवी देवता

देवभाषा संस्कृत में कोटि के दो अर्थ होते है, कोटि का मतलब
प्रकार होता है और एक अर्थ करोड़ भी होता। हिन्दू धर्म का दुष्प्रचार करने के लिए ये बात उडाई गयी की हिन्दुओ के 33 करोड़ देवी देवता हैं कुल 33 प्रकार के देवी देवता हैँ हिँदू धर्म मेँ:
12 प्रकार हैँ आदित्य: , धाता, मित, आर्यमा, शक्रा, वरुण, अँश, भाग, विवास्वान, पूष, सविता, तवास्था, और विष्णु...
8 प्रकार हैँ
वसु:, धर, ध्रुव, सोम, अह, अनिल, अनल, प्रत्युष और प्रभाष। 

11 प्रकार हैँ- रुद्र: ,हर, बहुरुप,त्रयँबक,अपराजिता, बृषाकापि, शँभू, कपर्दी, रेवात, मृगव्याध, शर्वा, और कपाली। 
एवँ दो प्रकार हैँ अश्विनी और कुमार।
कुल: 12+8+11+2=33

पकोड़ा

'पकोड़ा' शब्द का उद्गम संस्कृत के 'पक्ववट' शब्द से हुआ है |
पक्व - पकाना |
वट - ढेला |

PAKODA is derived from sanskrit pakvavaṭa, compound of pakva 'cooked' and vaṭa 'a small lump.


श्रीरामरक्षास्तोत्रम् (Shri Ram Raksha Stotram)


Hymn (of Lord) Rama (for) protection (from spiritual obstacles)


॥ श्रीरामरक्षास्तोत्रम् ॥

श्रीगणेशायनम: ।
अस्य श्रीरामरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य ।
बुधकौशिक ऋषि: ।
श्रीसीतारामचंद्रोदेवता ।
अनुष्टुप् छन्द: ।
सीता शक्ति: ।
श्रीमद्‌हनुमान् कीलकम् ।
श्रीसीतारामचंद्रप्रीत्यर्थे जपे विनियोग: ॥

इस राम रक्षा स्तोत्र मंत्र के रचयिता बुध कौशिक ऋषि हैं, सीता और रामचंद्र देवता हैं, अनुष्टुप छंद हैं, सीता शक्ति हैं, हनुमान जी कीलक है तथा श्री रामचंद्र जी की प्रसन्नता के लिए राम रक्षा स्तोत्र के जप में विनियोग किया जाता हैं |
 
I worship Rama whose jewel (among kings) who always wins and who is lord of Lakshmi (goddess of wealth) । Through whom the hordes of demons who move at night have been destroyed, I salut that Rama । There is no place of surrender greater than Rama, (and thus) I am servant of Rama । My mind is totally absorbed in Rama. O Rama, please lift me up (from lower to higher self) 
Salutations to the Lord Ganesh (Lord of knowledge) Thus begins the hymn of Lord Rama for protection The author of this hymn is Budhakaushika । The deity is Sri Sita-Ramachandra । The meter is eight syllables in a quarter । Power (energy of mother nature) is Sita । Limit (protector) is Hanumana । The usage is recitation for (devotion to) Sita-Ramachandra ।
॥ अथ ध्यानम् ॥ 
ध्यायेदाजानुबाहुं धृतशरधनुषं बद्दद्पद्‌मासनस्थं ।
पीतं वासोवसानं नवकमलदलस्पर्धिनेत्रं प्रसन्नम् ॥
वामाङ्‌कारूढसीता मुखकमलमिलल्लोचनं नीरदाभं ।
नानालङ्‌कारदीप्तं दधतमुरुजटामण्डनं रामचंद्रम् ॥

ध्यान धरिए — जो धनुष-बाण धारण किए हुए हैं,बद्द पद्मासन की मुद्रा में विराजमान हैं और पीतांबर पहने हुए हैं, जिनके आलोकित नेत्र नए कमल दल के समान स्पर्धा करते हैं, जो बाएँ ओर स्थित सीताजी के मुख कमल से मिले हुए हैं- उन आजानु बाहु, मेघश्याम,विभिन्न अलंकारों से विभूषित तथा जटाधारी श्रीराम का ध्यान करें |
Then meditate
I meditate on he, who has arms reaching his knees, who is holding a bow and arrows, who is seated in a lotus pose । who is wearing yellow clothes, whose eyes compete with petals of a fresh lotus, who looks contented ॥ Whose sight is fixed on the lotus face of Sita, sitting on his left thigh, whose color is like that of rain cloud । Who shines in various ornaments and has matted hair which can reach till thighs, the Ramchandra 
 
॥ इति ध्यानम् ॥ 
Thus meditate

चरितं रघुनाथस्य शतकोटिप्रविस्तरम् ।
एकैकमक्षरं पुंसां महापातकनाशनम् ॥१॥

श्री रघुनाथजी का चरित्र सौ करोड़ विस्तार वाला हैं | उसका एक-एक अक्षर महापातकों को नष्ट करने वाला है |
 
The life story of Sri Rama has a vast expanse । Recitation of each and every word is capable of destroying even the greatest sins ॥1॥

ध्यात्वा नीलोत्पलश्यामं रामं राजीवलोचनम् ।
जानकीलक्ष्मणॊपेतं जटामुकुटमण्डितम् ॥२॥

नीले कमल के श्याम वर्ण वाले, कमलनेत्र वाले , जटाओं के मुकुट से सुशोभित, जानकी तथा लक्ष्मण सहित ऐसे भगवान् श्री राम का स्मरण करके,
 
Let us meditate on the blue lotus-eyed, dark-complexioned Rama । Who is accompanied with Sita and Lakshmana and is well-adorned with crown of matted hairs ॥2॥

सासितूणधनुर्बाणपाणिं नक्तं चरान्तकम् ।
स्वलीलया जगत्त्रातुमाविर्भूतमजं विभुम् ॥३॥

जो अजन्मा एवं सर्वव्यापक, हाथों में खड्ग, तुणीर, धनुष-बाण धारण किए राक्षसों के संहार तथा अपनी लीलाओं से जगत रक्षा हेतु अवतीर्ण श्रीराम का स्मरण करके,
 
Who is has sword, bows and arrows, who destroyed the demons । Who is birthless (beyond birth and death) but is incarnated by his own will to protect this world ॥3॥

रामरक्षां पठॆत्प्राज्ञ: पापघ्नीं सर्वकामदाम् ।
शिरो मे राघव: पातु भालं दशरथात्मज: ॥४

मैं सर्वकामप्रद और पापों को नष्ट करने वाले राम रक्षा स्तोत्र का पाठ करता हूँ | राघव मेरे सिर की और दशरथ के पुत्र मेरे ललाट की रक्षा करें |
May the wise, read the Hymn (of Lord) Rama (for) protection, which destroys all sins and grants all desires । May Rama, Raghu's descendant (Rama) protect my head. May Rama, Dasharatha's son (Rama) protect my forehead ॥4॥

कौसल्येयो दृशौ पातु विश्वामित्रप्रिय: श्रुती ।
घ्राणं पातु मखत्राता मुखं सौमित्रिवत्सल: ॥५॥

कौशल्या नंदन मेरे नेत्रों की, विश्वामित्र के प्रिय मेरे कानों की, यज्ञरक्षक मेरे घ्राण की और सुमित्रा के वत्सल मेरे मुख की रक्षा करें |
 
May Kausalya's son protect my eyes, may favorite (disciple) of Vishvamitra protect my ears । May savior of sacrificial fire protect my nose, may affectionate to Lakshmana protect my mouth ॥5॥

जिव्हां विद्दानिधि: पातु कण्ठं भरतवंदित: ।
स्कन्धौ दिव्यायुध: पातु भुजौ भग्नेशकार्मुक: ॥६॥

मेरी जिह्वा की विधानिधि रक्षा करें, कंठ की भरत-वंदित, कंधों की दिव्यायुध और भुजाओं की महादेवजी का धनुष तोड़ने वाले भगवान् श्रीराम रक्षा करें |
 
And may ocean of wisdom protect my toungue, may he who is saluted by Bharatha protect my neck । May berear of celestial weapons protect my shoulders, may he who broke (Lord Shiva's) bow protect my arms ॥6॥

करौ सीतापति: पातु हृदयं जामदग्न्यजित् ।
मध्यं पातु खरध्वंसी नाभिं जाम्बवदाश्रय: ॥७॥

मेरे हाथों की सीता पति श्रीराम रक्षा करें, हृदय की जमदग्नि ऋषि के पुत्र (परशुराम) को जीतने वाले, मध्य भाग की खर (नाम के राक्षस) के वधकर्ता और नाभि की जांबवान के आश्रयदाता रक्षा करें |
 
May husband of Sita protect my hands, may he who won over Parasurama protect my heart । May slayer of Khara (demon) protect my abdomen, may he who gave refuge to Jambavad protect my navel ॥7॥

सुग्रीवेश: कटी पातु सक्थिनी हनुमत्प्रभु: ।
ऊरू रघुत्तम: पातु रक्ष:कुलविनाशकृत् ॥८॥

मेरे कमर की सुग्रीव के स्वामी, हडियों की हनुमान के प्रभु और रानों की राक्षस कुल का विनाश करने वाले रघुश्रेष्ठ रक्षा करें |
 
May master of Sugreeva protect my waist, may master of Hanuman protect my hips । May the best of Raghu scions and destroyer of the lineage of demons protect my thighs ॥8॥

जानुनी सेतुकृत्पातु जङ्‌घे दशमुखान्तक: ।
पादौ बिभीषणश्रीद: पातु रामोSखिलं वपु: ॥९॥

मेरे जानुओं की सेतुकृत, जंघाओं की दशानन वधकर्ता, चरणों की विभीषण को ऐश्वर्य प्रदान करने वाले और सम्पूर्ण शरीर की श्रीराम रक्षा करें |
 
May establisher of the bridge (Ramasetu) protect my knees, may slayer of ten-faced (Ravana) protect my shins । May consecrator of wealth to Bibhishana protect feet, may SriRama protect my all my body ॥9॥

एतां रामबलोपेतां रक्षां य: सुकृती पठॆत् ।
स चिरायु: सुखी पुत्री विजयी विनयी भवेत् ॥१०॥

शुभ कार्य करने वाला जो भक्त भक्ति एवं श्रद्धा के साथ रामबल से संयुक्त होकर इस स्तोत्र का पाठ करता हैं, वह दीर्घायु, सुखी, पुत्रवान, विजयी और विनयशील हो जाता हैं |
 
May the good man read this (hymn) equable to all the power of Rama । would live long, be blessed with children, be victorious and possess humility ॥10॥

पातालभूतलव्योम चारिणश्छद्‌मचारिण: ।
न द्र्ष्टुमपि शक्तास्ते रक्षितं रामनामभि: ॥११॥

जो जीव पाताल, पृथ्वी और आकाश में विचरते रहते हैं अथवा छद्दम वेश में घूमते रहते हैं , वे राम नामों से सुरक्षित मनुष्य को देख भी नहीं पाते |
 
They who travel in the hell, earth and heaven and who travel secretly (changing forms) । Would not be able to see (the one who reads) the protective chant of Rama by the power of chant ॥11॥

रामेति रामभद्रेति रामचंद्रेति वा स्मरन् ।
नरो न लिप्यते पापै भुक्तिं मुक्तिं च विन्दति ॥१२॥

राम, रामभद्र तथा रामचंद्र आदि नामों का स्मरण करने वाला रामभक्त पापों से लिप्त नहीं होता. इतना ही नहीं, वह अवश्य ही भोग और मोक्ष दोनों को प्राप्त करता है |
 
(The one who) remembers Rama, Rambhadra and Ramachandra (The poet has used these names for the same Lord Rama)। Sins never get attached, he gets good life and salvation ॥12॥

जगज्जेत्रैकमन्त्रेण रामनाम्नाभिरक्षितम् ।
य: कण्ठे धारयेत्तस्य करस्था: सर्वसिद्द्दय: ॥१३॥

जो संसार पर विजय करने वाले मंत्र राम-नाम से सुरक्षित इस स्तोत्र को कंठस्थ कर लेता हैं, उसे सम्पूर्ण सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं |
 
In all three worlds, one who wears the hymn of the name of Rama । as a protection round his neck, would get all the powers on his hand ॥13॥



वज्रपंजरनामेदं यो रामकवचं स्मरेत् ।
अव्याहताज्ञ: सर्वत्र लभते जयमंगलम् ॥१४॥

जो मनुष्य वज्रपंजर नामक इस राम कवच का स्मरण करता हैं, उसकी आज्ञा का कहीं भी उल्लंघन नहीं होता तथा उसे सदैव विजय और मंगल की ही प्राप्ति होती हैं |
 
He who recites this hymn of the name of Rama called as cage of diamond । Would be obeyed by everywhere and he will get victory in all things ॥14॥

आदिष्टवान् यथा स्वप्ने रामरक्षामिमां हर: ।
तथा लिखितवान् प्रात: प्रबुद्धो बुधकौशिक: ॥१५॥

भगवान् शंकर ने स्वप्न में इस रामरक्षा स्तोत्र का आदेश बुध कौशिक ऋषि को दिया था, उन्होंने प्रातः काल जागने पर उसे वैसा ही लिख दिया |
 
This protective hymn of Rama was told by Shiva (Lord of destruction) in the dream । And was written down as it is by Budhakoushika the very next morning ॥15॥

आराम: कल्पवृक्षाणां विराम: सकलापदाम् ।
अभिरामस्त्रिलोकानां राम: श्रीमान् स न: प्रभु: ॥१६॥

जो कल्प वृक्षों के बगीचे के समान विश्राम देने वाले हैं, जो समस्त विपत्तियों को दूर करने वाले हैं (विराम माने थमा देना, किसको थमा देना/दूर कर देना ? सकलापदाम = सकल आपदा = सारी विपत्तियों को)  और जो तीनो लोकों में सुंदर (अभिराम + स्+ त्रिलोकानाम) हैं, वही श्रीमान राम हमारे प्रभु हैं |
 
Who is like a wish giving tree and who stops all obstacles । And who is the praise of all three worlds, SriRama, is our 'Lord' ॥16॥

तरुणौ रूपसंपन्नौ सुकुमारौ महाबलौ ।
पुण्डरीकविशालाक्षौ चीरकृष्णाजिनाम्बरौ ॥१७

जो युवा,सुन्दर, सुकुमार,महाबली और कमल (पुण्डरीक) के समान विशाल नेत्रों वाले हैं, मुनियों की तरह वस्त्र एवं काले मृग का चर्म धारण करते हैं |
 
Who are young, full of beauty, clever and very strong । Who have broad eyes like lotus, who wear the hides of trees ॥17॥

फलमूलशिनौ दान्तौ तापसौ ब्रह्मचारिणौ ।
पुत्रौ दशरथस्यैतौ भ्रातरौ रामलक्ष्मणौ ॥१८॥

जो फल और कंद का आहार ग्रहण करते हैं, जो संयमी , तपस्वी एवं ब्रह्रमचारी हैं , वे दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण दोनों भाई हमारी रक्षा करें |
 
Ones who are subsisting on roots and fruits and practicing penance and celibacy । Two brothers, sons of Dasharatha, Ram and Lakshmana (protect us) ॥18॥

शरण्यौ सर्वसत्वानां श्रेष्ठौ सर्वधनुष्मताम् ।
रक्ष:कुलनिहन्तारौ त्रायेतां नो रघुत्तमौ ॥१९॥

ऐसे महाबली – रघुश्रेष्ठ मर्यादा पुरूषोतम समस्त प्राणियों के शरणदाता, सभी धनुर्धारियों में श्रेष्ठ और राक्षसों के कुलों का समूल नाश करने में समर्थ हमारा त्राण करें |
 
Who give protection to all beings and who are foremost among all the archers। Who destroy whole race of demons, protect us, o best of scions of Raghu ॥19॥

आत्तसज्जधनुषा विषुस्पृशा वक्षया शुगनिषङ्ग सङि‌गनौ ।
रक्षणाय मम रामलक्ष्मणा वग्रत: पथि सदैव गच्छताम् ॥२०॥

संधान किये धनुष धारण किये, बाण का स्पर्श कर रहे, अक्षय बाणो से युक्त तूणीर लिए हुए राम और लक्ष्मण मेरी रक्षा करने के लिए मेरे आगे चलें |  

Who bows pulled and ready, their hands on the arrows packed in ever full quivers carried on their backs । May Rama and Lakshmana always escort me in my path for my protection ॥20॥

संनद्ध: कवची खड्‌गी चापबाणधरो युवा ।
गच्छन्‌मनोरथोSस्माकं राम: पातु सलक्ष्मण: ॥२१॥

हमेशा तत्पर, कवचधारी, हाथ में खडग, धनुष-बाण तथा युवावस्था वाले भगवान् राम लक्ष्मण सहित आगे-आगे चलकर हमारी रक्षा करें |
 
Young men, prepared and armed with sword, shield, bow and arrows । Rama is like our cherished thoughts come to life. May he,along with Lakshman, protect us ॥21॥

रामो दाशरथि: शूरो लक्ष्मणानुचरो बली ।
काकुत्स्थ: पुरुष: पूर्ण: कौसल्येयो रघुत्तम: ॥२२॥

भगवान् का कथन है की श्रीराम, दाशरथी, शूर, लक्ष्मनाचुर, बली, काकुत्स्थ , पुरुष, पूर्ण, कौसल्येय, रघुतम, 
Valiant Rama, the son of Dasaratha and ever accompanied by powerful Lakshmana । The scion of Raghu, the son of Kausalya, is all powerful and is the perfect man ॥22॥

वेदान्तवेद्यो यज्ञेश: पुराणपुरुषोत्तम: ।
जानकीवल्लभ: श्रीमानप्रमेय पराक्रम: ॥२३॥

वेदान्त्वेघ, यज्ञेश,पुराण पुरूषोतम , जानकी वल्लभ, श्रीमान और अप्रमेय पराक्रम आदि नामों का
 
He who can be perceived by Vedanta, lord of sacrificial fire, ancient and best among all men । dearest of Sita, whose bravery is immeasurable ॥23॥

इत्येतानि जपेन्नित्यं मद्‌भक्त: श्रद्धयान्वित: ।
अश्वमेधाधिकं पुण्यं संप्राप्नोति न संशय: ॥२४॥

नित्यप्रति श्रद्धापूर्वक जप करने वाले को निश्चित रूप से अश्वमेध यज्ञ से भी अधिक फल प्राप्त होता हैं |
 
(Thus lord Shiva said) My devotee who recites these names of Rama with faith । He, without any doubt, is blessed more than the performance of Aswamedha (Sacrifice of white horse) etc. ॥24॥

रामं दूर्वादलश्यामं पद्‌माक्षं पीतवाससम् ।
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर: ॥२५॥


दूर्वादल के समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीराम की उपरोक्त दिव्य नामों से स्तुति करने वाला संसारचक्र में नहीं पड़ता |
Ram, dark-complexioned like leaf of green grass, who is lotus-eyed and dressed in yellow clothes । Who sing the praise of him are no longer ordinary men trapped in the world ॥25॥

रामं लक्ष्मण पूर्वजं रघुवरं सीतापतिं सुंदरम् ।
काकुत्स्थं करुणार्णवं गुणनिधिं विप्रप्रियं धार्मिकम् ।
राजेन्द्रं सत्यसंधं दशरथनयं श्यामलं शान्तमूर्तिम् ।
वन्दे लोकभिरामं रघुकुलतिलकं राघवं रावणारिम् ॥२६॥

लक्ष्मण जी के पूर्वज , सीताजी के पति, काकुत्स्थ, कुल-नंदन, करुणा के सागर , गुण-निधान , विप्र भक्त, परम धार्मिक , राजराजेश्वर, सत्यनिष्ठ, दशरथ के पुत्र, श्याम और शांत मूर्ति, सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर, रघुकुल तिलक , राघव एवं रावण के शत्रु भगवान् राम की मैं वंदना करता हूँ |
 
Rama, the elder brother of Lakshmana, best of the scions of the Raghu, the husbandof Sita, handsome । Ocean of compassion, treasure of virtues, the most beloved of the religious people । Lord emperor of kings, follower of truth, son of Dasharath, dark-complexioned, idol tranquillity । Salute to cynosure of eyes of all people, the crown jewel of the Raghu dynasty and the enemy of Ravana ॥26॥

रामाय रामभद्राय रामचंद्राय वेधसे ।
रघुनाथाय नाथाय सीताया: पतये नम: ॥२७॥

राम, रामभद्र, रामचंद्र, विधात स्वरूप , रघुनाथ, प्रभु एवं सीताजी के स्वामी की मैं वंदना करता हूँ |
 
I salut to Ram, beloved Ram, moon like peaceful Ram । To Lord of Raghu Scion, Lord (of all), husband of Sita, I salut ॥27॥

श्रीराम राम रघुनन्दन राम राम ।
श्रीराम राम भरताग्रज राम राम ।
श्रीराम राम रणकर्कश राम राम ।
श्रीराम राम शरणं भव राम राम ॥२८॥

हे रघुनन्दन श्रीराम ! हे भरत के अग्रज भगवान् राम! हे रणधीर, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ! आप मुझे शरण दीजिए |
 
Rama who is the delight of the Raghus । Rama who is elder brother of Bharata । Rama who is tormentor of his enemies । I come under refuge of God Rama.॥28॥

श्रीरामचन्द्रचरणौ मनसा स्मरामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ वचसा गृणामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शिरसा नमामि ।
श्रीरामचन्द्रचरणौ शरणं प्रपद्ये ॥२९॥

मैं एकाग्र मन से श्रीरामचंद्रजी के चरणों का स्मरण और वाणी से गुणगान करता हूँ, वाणी द्धारा और पूरी श्रद्धा के साथ भगवान् रामचन्द्र के चरणों को प्रणाम करता हुआ मैं उनके चरणों की शरण लेता हूँ |
 
I remember the feet of Sri Ramachandra in my mind । I praise the feet of Sri Ramachandra by my speech । I salut the feet of Sri Ramachandra by bowing down my head । I take refuge on the feet of Sri Ramachandra by bowing myself down ॥29॥

माता रामो मत्पिता रामचंन्द्र: ।
स्वामी रामो मत्सखा रामचंद्र: ।
सर्वस्वं मे रामचन्द्रो दयालु ।
नान्यं जाने नैव जाने न जाने ॥३०॥

श्रीराम मेरे माता, मेरे पिता , मेरे स्वामी और मेरे सखा हैं | इस प्रकार दयालु श्रीराम मेरे सर्वस्व हैं. उनके सिवा में किसी दुसरे को नहीं जानता |
 
Mother is Rama, my father is Ramachandra । Lord is Rama, my dearest friend is Ramachandra । My everything is merciful Ramachandra । I know of no other like him, I really don't! ॥30॥

दक्षिणे लक्ष्मणो यस्य वामे च जनकात्मजा ।
पुरतो मारुतिर्यस्य तं वन्दे रघुनंदनम् ॥३१॥

जिनके दाईं और लक्ष्मण जी, बाईं और जानकी जी और सामने हनुमान ही विराजमान हैं, मैं उन्ही रघुनाथ जी की वंदना करता हूँ |
 
who has Lakshmana on his right and daughter of Janaka (Sita) on the left । And who has Hanuman in his front, I salute to delight of the Raghus (Rama) ॥31॥

लोकाभिरामं रणरङ्‌गधीरं राजीवनेत्रं रघुवंशनाथम् ।
कारुण्यरूपं करुणाकरंतं श्रीरामचंद्रं शरणं प्रपद्ये ॥३२॥

मैं सम्पूर्ण लोकों में सुन्दर तथा रणक्रीड़ा में धीर, कमलनेत्र, रघुवंश नायक, करुणा की मूर्ति और करुणा के भण्डार की श्रीराम की शरण में हूँ |
cynosure of eyes of all people, courageous in war, lotus-eyed, lord of the Raghu race । Personification of compassion, I surrender to (that) Lord Sri Rama ॥32॥

मनोजवं मारुततुल्यवेगं जितेन्द्रियं बुद्धिमतां वरिष्ठम् ।
वातात्मजं वानरयूथमुख्यं श्रीरामदूतं शरणं प्रपद्ये ॥३३॥

जिनकी गति मन के समान और वेग वायु के समान (अत्यंत तेज) है, जो परम जितेन्द्रिय एवं बुद्धिमानों में श्रेष्ठ हैं, मैं उन पवन-नंदन वानारग्रगण्य श्रीराम दूत की शरण लेता हूँ |
 
Who is as fast as the mind, equals his father (wind) in speed, master of senses, foremost amongst brilliants । Son of the Wind, leader of the Monkey forces and messenger of Sri Rama, I bow down to him ॥33॥

कूजन्तं रामरामेति मधुरं मधुराक्षरम् ।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥३४॥

मैं कवितामयी डाली पर बैठकर, मधुर अक्षरों वाले ‘राम-राम’ के मधुर नाम को कूजते हुए वाल्मीकि रुपी कोयल की वंदना करता हूँ |
 
Who sings the sweet name of Rama as । a cuckoo will sing sitting atop a tree, I salute to that Valmiki ॥34॥

आपदामपहर्तारं दातारं सर्वसंपदाम् ।
लोकाभिरामं श्रीरामं भूयो भूयो नमाम्यहम् ॥३५॥

मैं इस संसार के प्रिय एवं सुन्दर उन भगवान् राम को बार-बार नमन करता हूँ, जो सभी आपदाओं को दूर करने वाले तथा सुख-सम्पति प्रदान करने वाले हैं |
Who is destroyer all dangers and consecrator of all sorts of wealth। I again and again salute that Rama who is cynosure of eyes of all people॥35॥

भर्जनं भवबीजानामर्जनं सुखसंपदाम् ।
तर्जनं यमदूतानां रामरामेति गर्जनम् ॥३६॥

‘राम-राम’ का जप करने से मनुष्य के सभी कष्ट समाप्त हो जाते हैं | वह समस्त सुख-सम्पति तथा ऐश्वर्य प्राप्त कर लेता हैं | राम-राम की गर्जना से यमदूत सदा भयभीत रहते हैं |
 
Destructs of the cause of rebirth (cause of liberation), generates happiness and wealth । Scares Yama's (lord of death) messengers, the roar of the name of Rama ॥36॥

रामो राजमणि: सदा विजयते रामं रमेशं भजे ।
रामेणाभिहता निशाचरचमू रामाय तस्मै नम: ।
रामान्नास्ति परायणं परतरं रामस्य दासोSस्म्यहम् ।
रामे चित्तलय: सदा भवतु मे भो राम मामुद्धर ॥३७॥

राजाओं में श्रेष्ठ श्रीराम सदा विजय को प्राप्त करते हैं | मैं लक्ष्मीपति भगवान् श्रीराम का भजन करता हूँ | सम्पूर्ण राक्षस सेना का नाश करने वाले श्रीराम को मैं नमस्कार करता हूँ | श्रीराम के समान अन्य कोई आश्रयदाता नहीं | मैं उन शरणागत वत्सल का दास हूँ | मैं हमेशा श्रीराम मैं ही लीन रहूँ | हे श्रीराम! आप मेरा (इस संसार सागर से) उद्धार करें |
I worship Rama whose jewel (among kings) who always wins and who is lord of Lakshmi (goddess of wealth) । Through whom the hordes of demons who move at night have been destroyed, I salut that Rama । There is no place of surrender greater than Rama, (and thus) I am servant of Rama । My mind is totally absorbed in Rama. O Rama, please lift me up (from lower to higher self) ॥37॥

राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे ।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने ॥३८॥

(शिव पार्वती से बोले –) हे सुमुखी ! राम- नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान हैं | मैं सदा राम का स्तवन करता हूँ और राम-नाम में ही रमण करता हूँ |
 
Fair-faced lady (Parvati) ! My mind enjoys saying Rama Rama । Uttering once the name of Rama is equal to the uttering of any other name of God, a thousand times ॥38॥

इति श्रीबुधकौशिकविरचितं श्रीरामरक्षास्तोत्रं संपूर्णम् ॥
Thus ends Hymn (of Lord) Rama (for) protection and composed by Budha Koushika ॥

॥ श्री सीतारामचंद्रार्पणमस्तु ॥

बुधकौशिक ऋषि