Wednesday, October 8, 2014

छन्द

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छन्द शब्द मूल रूप से छन्दस् अथवा छन्दः है । इसके शाब्दिक अर्थ दो है – ‘आच्छादित कर देने वाला’ और ‘आनन्द देने वाला’ । लय और ताल से युक्त ध्वनि मनुष्य के हृदय पर प्रभाव डाल कर उसे एक विषय में स्थिर कर देती है और मनुष्य उससे प्राप्त आनन्द में डूब जाता है । यही कारण है कि लय और ताल वाली रचना छन्द कहलाती है. इसका दूसरा नाम वृत्त है । वृत्त का अर्थ है प्रभावशाली रचना । वृत्त भी छन्द को इसलिए कहते हैं, क्यों कि अर्थ जाने बिना भी सुनने वाला इसकी स्वर-लहरी से प्रभावित हो जाता है । यही कारण है कि सभी वेद छन्द-रचना में ही संसार में प्रकट हुए थे ।

छन्‍द के भेद

छन्द मुख्यतः दो प्रकार के हैं: 1) मात्रिक और 2) वार्णिक

1) मात्रिक छन्द: मात्रिक छन्दों में मात्राओं की गिनती की जाती है ।
2) वार्णिक छन्दों में वर्णों की संख्या निश्चित होती है और इनमें लघु और दीर्घ का क्रम भी निश्चित होता है, जब कि मात्रिक छन्दों में इस क्रम का होना अनिवार्य नहीं है । मात्रा और वर्ण किसे कहते हैं, इन्हें समझिए:

मात्रा:
ह्रस्व स्वर जैसे ‘अ’ की एक मात्रा और दीर्घस्वर की दो मात्राएँ मानी जाती है । यदि ह्रस्व स्वर के बाद संयुक्त वर्ण, अनुस्वार अथवा विसर्ग हो तब ह्रस्व स्वर की दो मात्राएँ मानी जाती है । पाद का अन्तिम ह्रस्व स्वर आवश्यकता पडने पर गुरु मान लिया जाता है । ह्रस्व मात्रा का चिह्न ‘ ।‘  है और दीर्घ का ‘=‘ है ।
जैसे ‘सत्याग्रह’ शब्द में कितनी मात्राएँ हैं, इसे हम इस प्रकार समझेंगे:
= = । ।
सत्याग्रह = 6 मात्राएँ

इस प्रकार हमें पता चल गया कि इस शब्द में छह मात्राएँ हैं । स्वरहीन व्यंजनों की पृथक् मात्रा नहीं गिनी जाती ।

वर्ण या अक्षर:
ह्रस्व मात्रा वाला वर्ण लघु और दीर्घ मात्रा वाला वर्ण गुरु कहलाता है । यहाँ भी ‘सत्याग्रह’ वाला नियम समझ लेना चाहिए ।

चरण अथवा पाद:
‘पाद’ का अर्थ है चतुर्थांश, और ‘चरण’ उसका पर्यायवाची शब्द है । प्रत्येक छन्द के प्रायः चार चरण या पाद होते हैं ।
  • सम और विषमपाद: 
पहला और तीसरा चरण विषमपाद कहलाते हैं और दूसरा तथा चौथा चरण समपाद कहलाता है । सम छन्दों में सभी चरणों की मात्राएँ या वर्ण बराबर और एक क्रम में होती हैं और विषम छन्दों में विषम चरणों की मात्राओं या वर्णों की संख्या और क्रम भिन्न तथा सम चरणों की भिन्न होती हैं ।
यति:
हम किसी पद्य को गाते हुए जिस स्थान पर रुकते हैं, उसे यति या विराम कहते हैं । प्रायः प्रत्येक छन्द के पाद के अन्त में तो यति होती ही है, बीच बीच में भी उसका स्थान निश्चित होता है । प्रत्येक छन्द की यति भिन्न भिन्न मात्राओं या वर्णों के बाद प्रायः होती है ।

छन्‍द के प्रकार

छन्‍द तीन प्रकार के होते है।

वर्णिक छंद (या वृत) - जिस छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या समान हो।
मात्रिक छंद (या जाति) - जिस छंद के सभी चरणों में मात्राओं की संख्या समान हो।
मुक्त छंद - जिस छंद में वर्णिक या मात्रिक प्रतिबंध न हो।

वर्णिक छंद
वर्णिक छंद के सभी चरणों में वर्णों की संख्या समान रहती है और लघु-गुरु का क्रम समान रहता है।

वर्णिक छन्दों में वर्ण गणों के हिसाब से रखे जाते हैं । तीन वर्णों के समूह को गण कहते हैं । इन गणों के नाम हैं: यगण, मगण, तगण, रगण, जगण, भगण, नगण और सगण । अकेले लघु को ‘ल’ और गुरु को ‘ग’ कहते हैं । किस गण में लघु-गुरु का क्या क्रम है, यह जानने के लिए यह सूत्र याद कर लीजिए:
यमाताराजभानसलगा:
जिस गण को जानना हो उसका वर्ण इस में देखकर अगले दो वर्ण और साथ जोड लीजिए और उसी क्रम से गण की मात्राएँ लगाइए, जैसे:
यगण - यमाता = ।ऽऽ आदि लघु
मगण - मातारा = ऽऽऽ सर्वगुरु
तगण - ताराज = ऽऽ । अन्तलघु
रगण - राजभा = ऽ ।ऽ मध्यलघु
जगण - जभान = ।ऽ । मध्यगुरु
भगण - भानस = ऽ ॥ आदिगुरु
नगण - नसल = ॥ । सर्वलघु
सगण - सलगाः = ॥ऽ अन्तगुरु

मात्राओं में जो अकेली मात्रा है, उस के आधार पर इन्हें आदिलघु या आदिगुरु कहा गया है । जिसमें सब गुरु है, वह ‘मगण’ सर्वगुरु कहलाया और सभी लघु होने से ‘नगण’ सर्वलघु कहलाया । नीचे सब गणों के स्वरुप का एक श्लोक दिया जा रहा है । उसे याद कर लीजिए:

मस्त्रिगुरुः त्रिलघुश्च नकारो, भादिगुरुः पुनरादिर्लघुर्यः ।
जो गुरुम्ध्यगतो र-लमध्यः, सोऽन्तगुरुः कथितोऽन्तलघुःतः ॥


प्रमुख वर्णिक छंद 
  • प्रमाणिका (8 वर्ण)
  • स्वागता
  • भुजंगी
  • शालिनी
  • इन्द्रवज्रा
  • दोधक (सभी 11 वर्ण)
  • वंशस्थ
  • भुजंगप्रयाग
  • द्रुतविलम्बित
  • तोटक (सभी 12 वर्ण)
  • वसंततिलका (14 वर्ण)
  • मालिनी (15 वर्ण)
  • पञ्चचामर (16 वर्ण)

  • चंचला (सभी 16 वर्ण)
  • मन्दाक्रान्ता
  • शिखरिणी (सभी 17 वर्ण)
  • शार्दूल विक्रीडित (19 वर्ण)
  • स्त्रग्धरा (21 वर्ण)
  • सवैया (22 से 26 वर्ण)
  • घनाक्षरी (31 वर्ण) 
  • रूपघनाक्षरी (32 वर्ण)
  • देवघनाक्षरी (33 वर्ण)
  • कवित्त / मनहरण (31-33 वर्ण)

मात्रिक छंद
मात्रिक छंद के सभी चरणों में मात्राओं की संख्या तो समान रहती है लेकिन लघु-गुरु के क्रम पर ध्यान नहीं दिया जाता है।

प्रमुख मात्रिक छंद

सम मात्रिक छंद :
  • अहीर (11 मात्रा)
  • तोमर (12 मात्रा)
  • मानव (14 मात्रा)
  • अरिल्ल, पद्धरि/ पद्धटिका
  • चौपाई (सभी 16 मात्रा)
  • पीयूषवर्ष
  • सुमेरु (दोनों 19 मात्रा)
  • राधिका (22 मात्रा)
  • रोला
  • दिक्पाल
  • रूपमाला (सभी 24 मात्रा)
  • गीतिका (26 मात्रा)
इस छन्द में प्रत्येक चरण में छब्बीस मात्राएँ होती हैं और 14 तथा 12 मात्राओं के बाद यति होती है । जैसे:
ऽ । ऽ ॥ ऽ । ऽ ऽ ऽ । ऽ ऽ ऽ । ऽ
हे दयामय दीनबन्धो, प्रार्थना मे श्रूयतां
यच्च दुरितं दीनबन्धो, पूर्णतो व्यपनीयताम् ।
चञ्चलानि मम चेन्द्रियाणि, मानसं मे पूयतां
शरणं याचेऽहं सदा हि, सेवकोऽस्म्यनुगृह्यताम् ॥
ऊपर पहले चरण पर मात्रा-चिह्न लगा दिए हैं । इसी प्रकार सारे चरणों में आप चिह्न लगा कर मात्राओं की गणना कर सकते हैं |
  • सरसी (27 मात्रा)
  • सार (28 मात्रा)
  • हरिगीतिका (28 मात्रा)
हरिगीतिका छन्द में प्रत्येक चरण में 28 मात्राएँ होती हैं और अन्त में लघु और फिर गुरु वर्ण अवश्य होना चाहिए । इसमें यति 16 तथा 12 मात्राओं के बाद होती हैं;
जैसे
। । ऽ । ऽ ऽ ऽ ।ऽ । ।ऽ । ऽ ऽ ऽ । ऽ
मम मातृभूमिः भारतं धनधान्यपूर्णं स्यात् सदा ।
नग्नो न क्षुधितो कोऽपि स्यादिह वर्धतां सुख-सन्ततिः ।
स्युर्ज्ञानिनो गुणशालिनो ह्युपकार-निरता मानवः,
अपकारकर्ता कोऽपि न स्याद् दुष्टवृत्तिर्दांवः ॥
इस छन्द की भी प्रथम पंक्ति में मात्राचिह्न लगा दिए हैं । शेष पर स्वयं लगाइए ।
  • तांटक (30 मात्रा)
  • वीर या आल्हा (31 मात्रा)

अर्द्धसम मात्रिक छंद :
  • बरवै (विषम चरण में - 12 मात्रा, सम चरण में - 7 मात्रा)
  • दोहा (विषम - 13, सम - 11)
संस्कृत में इस का नाम दोहडिका छन्द है । इसके विषम चरणों में तेरह-तेरह और सम चरणों में ग्यारह-ग्यारह मात्राएँ होती हैं । विषम चरणों के आदि में ।ऽ । (जगण) इस प्रकार का मात्रा-क्रम नहीं होना चाहिए और अंत में गुरु और लघु (ऽ ।) वर्ण होने चाहिए । सम चरणों की तुक आपस में मिलनी चाहिए । 

जैसे:
।ऽ ।ऽ । । ऽ । ऽ ऽऽ ऽ ऽऽ । 

महद्धनं यदि ते भवेत्, दीनेभ्यस्तद्देहि ।
विधेहि कर्म सदा शुभं, शुभं फलं त्वं प्रेहि ॥ 

इस दोहे को पहली पंक्ति में विषम और सम दोनों चरणों पर मात्राचिह्न लगा दिए हैं । इसी प्रकार दूसरी पंक्ति में भी आप दोनों चरणों पर ये चिह्न लगा सकते हैं । अतः दोहा एक अर्धसम मात्रिक छन्द है ।
  • सोरठा (दोहा का उल्टा)
  • उल्लाला (विषम - 15, सम - 13)

विषम मात्रिक छंद :
  • कुण्डलिया (दोहा + रोला)
  • छप्पय (रोला + अल्लाला)

मुक्त छंद
जिस विषय छंद में वर्णित या मात्रिक प्रतिबंध न हो, न प्रत्येक चरण में वर्णों की संख्या और क्रम समान हो और मात्राओं की कोई निश्चित व्यवस्था हो तथा जिसमें नाद और ताल के आधार पर पंक्तियों में लय लाकर उन्हें गतिशील करने का आग्रह हो, वह मुक्त छंद है।

उदाहरण : निराला की कविता 'जूही की कली' इत्यादि।


Sunday, October 5, 2014

लघुसिद्धान्तकौमुदी



अर्थवदधातुरप्रत्यय: प्रातिपदिकम् १|२|४५|
-- धातु, प्रत्यय और प्रत्ययांत भिन्न अर्थवत् शब्दस्वरूप की प्रातिपदिक संज्ञा होती है |

कृत्तधित्समासाश्च १|९|४६|
-- कृदन्त, तद्धितान्त और समास की भी प्रातिपदिक संज्ञा होती है |

स्वौजसमौट्छष्टाभ्याम 

प्रहेलिका (पहेली/Riddle)


पानियम् पातुमिच्छामि त्वत्तः कमललोचने |
यदि दास्यसि नेच्छामि न दास्यसि पिबाम्यहम् ||
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हे कमलनैन ! मुझे तुमसे पानी पीने की इच्छा है |

1--अगर तुम पानी देती हो तो मुझे नहीं चाहिए, यदि नहीं देती तो मैं पी लूंगा |

2 --यदि तुम दासी हो तो मुझे पानी नहीं चाहिए, यदि नहीं हो तो पी लूंगा |

दास्यसि - तुम देती हो |
दास्यसि --> दासी + असि - तुम दासी हो

O lotus eyed one! I want to have a drink from you.
If you give it to me, I don't want it;
If you don't give it to me, I will drink it.

OR, the last line can be translated to.......

If you are a servant, I don't want it;
If you are not a servant, I will drink it.
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हनूमति हतारामे वानराः हर्षनिर्भराः ।
रुदन्ति राक्षसाः सर्वे हा हारामो हतो हतः ॥
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जब हनुमान ने राम को मारा, वानर प्रफुल्लित हुए,
सभी राक्षस रोये और चिल्लाये, हा! हा! राम मारे गए |

Translation:
When Hanuman killed Rama, the monkeys were full of delight.
All the rakshasas wept and exclaimed, Alas! Alas! Rama has been killed.

हताराम: = हत् + आराम:(बगीचा)
हतारामे ---> बगीचा ध्वस्त किया

पुन:
जब हनुमान ने वाटिका को उजाड़ दिया तो वानर प्रफुल्लित हुए,
सभी राक्षस रोये और चिल्लाये, हा! हा! अशोक वाटिका नष्ट हो गयी |

Another translation:
When Hanuman destroyed the pleasure-garden, the monkeys were full of delight.  All the rakshasas wept and exclaimed, alas!  Alas!  The pleasure-garden has been destroyed.
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केशवं पतितं दृष्ट्वा द्रोण हर्षमुपादयत।
कौरवाः सर्वे रुदन्ति हा! हा! केशव केशवः॥
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कहते हैं कि व्यास के इस कथन पर स्वयं गणेशजी भी सोच में पड़ गये थे। सम्पूर्ण महाभारत में कृष्ण तो कहीं गिरे नहीं और अगर कहीं गिर भी गये हों तो कृष्ण को गिरते देखकर द्रोण हर्ष से क्यों उछल पड़ेंगे? और तो और शत्रु पक्ष के दुष्ट कौरव हा! हा ! केशव! केशव! कर के क्यों रोयेंगे...?

किन्तु यहाँ केशव का अर्थ है जल में लाश (के (जले) शवं), द्रोण का अर्थ है कौव्वा और कौरव का अर्थ है सियार। अब श्लोक का अर्थ लगाइये। यह महाभारत युद्ध की विभीषिका का वर्णन है। एक दिन में इतनी लाशें गिरती थी कि जलाने या दफ़नाने की जगह ना फ़ुर्सत। लाशों को पानी में बहा दिया जाता था। कौव्वे खुशी के मारे उछल पड़ते थे कि वाह ! अब तो महीनों लाश के उपर बैठ कर मांस खाते रहेंगे। लेकिन एक और मांसाहारी सियार को तैरना तो आता नहीं है... सो वह पानी में लाश को देखता है पर खा नहीं सकता इसीलिये अपना कलेजा पीटता है... हा!..हा...! पानी में लाश ! पानी में लाश ! (काश जमीन पर होता तो सालों तक खाते)
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यस्य षष्ठी चतुर्थी च विहस्य च विहाय च ।
अहं कथं द्वितीया स्यात् द्वितीया स्यामहं कथम् ।।
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विहस्य = after laughing
विहाय = after forsaking

Story:
There were two friends. One was wise but poor. He had a daughter, who was also smart, intelligent and was also beautiful. The other person, was rich but had no intellectual acclaim. He had a son, who also had no wisdom of letters. The rich person caught the fancy to have his wise but poor friend’s daughter as his daughter-in-law.
He did make the proposal to the poor wise man.

Poor wise man knew that his daughter will not be happy by marrying the dim-witted son of his rich but uneducated friend.
But he was also worried of saying no to his rich friend’s proposal.
On knowing her father’s anxiety, she said there was a simple way out. Can you tell uncle, that I have a simple condition for accepting the proposal ? I am stuck up at deciphering the meaning of a simple verse. If the son can help me, I can consider the proposal.
Actually she composed a verse herself. This was the verse.

दो मित्र थे | एक विद्वान परन्तु गरीब था, उसकी एक बेटी थी जो कि बहुत विदुषी और सुन्दर थी | दूसरा बहुत धनी था परन्तु वह विद्वान नहीं था, उसका एक पुत्र भी था जो उसी कि तरह अक्षरशत्रु था | धनिक ने अपने विद्वान मित्र की विदुषी और सुन्दर कन्या को अपनी बहू बनाने का निश्चय किया | धनिक मित्र ने यह प्रस्ताव अपने दरिद्र मित्र के समक्ष प्रस्तुत किया | दरिद्र विद्वान मित्र यह जानता था की उसकी पुत्री, धनी परन्तु मूढ़ के अक्षरशत्रु पुत्र से विवाह के लिए तैयार नहीं होगी परन्तु वह अपने मित्र के प्रस्ताव को इन्कार नहीं करना चाहता था | अपने पिता की चिंता जानकार कन्या को इसका एक सरल उपाय सूझा | उसने अपने पिता से कहा "अपने मित्र से कहिये कि विवाह के लिए मेरी एक आसान सी शर्त है | मैं एक श्लोक का अर्थ करने पर अटकी हुई हू, अगर उनका पुत्र श्लोक का अर्थ कर दे तो मैं उससे विवाह कर लूंगी" |

असल में कन्या ने श्लोक स्वयं बनाया | जो कि इस तरह है :

यस्य विहस्य(शब्दे) षष्ठी च विहाय(शब्दे) चतुर्थी च (भवति) ।
- जिसके लिए "विहस्य" छठी विभक्ति और "विहाय" चौथी विभक्ति का है
- One for whom word विहस्य is of sixth case and word विहाय is of fourth case.

कथम् अहं(शब्दे) द्वितीया च स्यात् |
- "अहम् और कथम्"(शब्द) दूसरी विभक्ति से हो सकता है |
- the word अहं (ever) कथम् be of second case.

कथम् अहम् (तस्य) द्वितीया स्याम् |
- मैं ऐसे व्यक्ति कि पत्नी(द्वितीया) कैसे हो सकती हू ?
- How can I be a wife of such person ?
(Note, alternate meaning of द्वितीया is wife.)

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Is it not interesting that a dim-witted may think word विहस्य is of sixth case and word विहाय is of fourth case, simply because they have suffix-like endings of स्य and अय as in देवस्य and देवाय ?
A dim-witted may as well think the word अहम् to be of second case, simply because the word has suffix-like ending of म् as in देवम् ! He may even think the word कथम् to be of second case !!
It is also interesting to think how and why alternate meaning of द्वितीया is wife. Meaning of द्वितीया is not just “second” as in द्वितीयोऽध्यायः. The word also means “next (to)”. A lady “next to” a person would be his wife. That is how the word द्वितीया has this alternate meaning of द्वितीया = wife.

चर्पटपञ्जरिकास्तोत्रम्

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चर्पट - पुराना फटा कपडा/Tattered piece of cloth
पञ्जरिका - पिंजड़ा/Cage

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भज गोविन्दम् भज गोविन्दम् गोविन्दम् भज मूढ़मते।
संप्राप्ते सन्निहिते मरणे न हि न हि रक्षति डुकृञ् करणे॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

संप्राप्त - अर्जित/attained
सन्निहिते - पास में/situated nearby

रे मूढ़ मन... गोविन्द की खोज कर, गोविन्द का भजन कर और गोविन्द का ही ध्यान कर... अन्तिम समय आने पर व्याकरण के नियम तेरी रक्षा न कर सकेंगे...
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दिनमपि रजनी सायं प्रातः शिशिरवसन्तौ पुनरायातः।
कालः क्रीडति गच्छत्यायुः तदपि न मुञ्चत्याशावायुः॥1॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

निशिदिन शाम सवेरा आता, फेरा शिशिर वसंत लगाता।
काल खेल में जाता जीवन, कटता किंतु न आशा बंधन॥1॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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अग्रे वह्निः पृष्ठे भानुः रात्रौ चिबुकसमर्पितजानुः।
करतलभिक्षा तरुतलवासः तदपि न मुञ्चत्याशापाशः॥2॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

अग्नि-सूर्य से तप दिन जाते, घुटने मोड़े रात बिताते।
बसे वृक्ष तल, लिए भीख धन, किंतु न छूटा आशा बंधन॥2॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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यावद्वित्तोपार्जनसक्तः तावन्निजपरिवारोरक्तः।
पश्चाद्धावति जर्जरदेहे वार्ता पृच्छति कोऽपि न गेहे॥3॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

जब तक कमा-कमा धन धरता, प्रेम कुटुंब तभी तक करता।
जब होगा तन बूढ़ा जर्जर, कोई बात न पूछेगा घर॥3॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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जटिलो मुण्डी लुञ्चितकेशः काषायाम्बरबहुकृतवेषः।
पश्यन्नपि च न पश्यति लोकः उदरनिमित्तं बहुकृतशोकः॥4॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

जटा बढ़ाई, मूंड मुंडाए, नोचे बाल, वस्त्र रंगवाये।
सब कुछ देख, न देख सका जन, करता शोक पेट के कारण॥4॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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भगवद् गीता किञ्चितधीता गङ्गाजल लवकणिका पीता।
सकृदपि यस्य मुरारिसमर्चा तस्य यमः किं कुरुते चर्चा॥5॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

पढ़ी तनिक भी भगवद् गीता, एक बूंद गंगाजल पीता।
प्रेम सहित हरि पूजन करता, यम उसकी चर्चा से डरता॥5॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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अङ्गं गलितं पलितं मुण्डं दशनविहीनं जातं तुण्डम्।
वृध्दो याति गृहीत्वा दण्डं तदपि न मुञ्चत्याशापिण्डम्॥6॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

गलितं -- worn out
पलितं - grey with age
तुण्डं - mouth
मुञ्चति - leaves

The body has become worn out. The head has turned grey. The mouth has become toothless.
The old man moves about leaning on his staff. Even then he leaves not the bundle of his desires.

सारे अंग शिथिल, सिर मुंडा, टूटे दांत, हुआ मुख तुंडा।
वृद्ध हुए तब दंड उठाया, किंतु न छूटी आशा-माया॥6॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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बालस्तावत्क्रीडासक्तः तरुणस्तावत्तरुणीरक्तः।
वृध्दस्तावच्चिन्तामग्नः परे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः॥7॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

बालकपन हंस-खेल गंवाया, यौवन तरुणी संग बिताया।
वृद्ध हुआ चिंता ने घेरा, पार ब्रह्म में ध्यान न तेरा॥7॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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पुनरपि जननं पुनरपि मरणं पुनरपि जननी जठरे शयनम्।
इह संसारे खलु दुस्तारे कृपयापारे पाहि मुरारे॥8॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

फिर-फिर जनम-मरण है होता, मातृ उदर में फिर-फिर सोता।
दुस्तर भारी संसृति सागर, करो मुरारे पार कृपा कर॥8॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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पुनरपि रजनी पुनरपि दिवसः पुनरपि पक्षः पुनरपि मासः।
पुनरप्ययनं पुनरपि वर्षम् तदपि न मुञ्चत्याशामर्षम्॥9॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

फिर-फिर रैन-दिवस हैं आते, पक्ष-महीने आते-जाते।
अयन, वर्ष होते नित नूतन, किंतु न छूटा आशा बंधन॥9॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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वयसि गते कः कामविकारः शुष्के नीरे कः कासारः।
नष्टे द्रव्ये कः परिवारः ज्ञाते तत्वे कः संसारः॥10॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

काम वेग क्या आयु ढले पर, नीर सूखने पर क्या सरवर।
क्या परिवार द्रव्य खोने पर, क्या संसार ज्ञान होने पर॥10॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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नारीस्तनभरनाभिनिवेशं मिथ्यामायामोहावेशम्।
एतन्मांसवसादि विकारं मनसि विचारय बारम्बारम्॥11॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

नारि नाभि कुच में रम जाना, मिथ्या माया मोह जगाना।
मैला मांस विकार भरा घर, बारम्बार विचार अरे नर॥11॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः का मे जननी को मे तातः।
इति परभावय सर्वमसारम् विश्वं त्यक्ता स्वप्नविचारम्॥12॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

तू मैं कौन, कहां से आए, कौन पिता मां किसने जाये।
इनको नित्य विचार अरे नर, जग प्रपंच तज स्वप्न समझकर॥12॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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गेयं ग‍ीतानामसह्स्रम् ध्येयं श्रीपतिरूपमजस्रम्।
नेयं सज्जनसङ्गे चित्तम् देयं दीनजनाय च वित्तम्॥13॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

गीता ज्ञान विचार निरंतर, सहस नाम जप हरि में मन धर।
सत्संगति में बैठ ध्यान दे, दीनजनों को द्रव्य दान दे॥13॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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यावज्जीवो निवसति देहे कुशलं तावत्पृच्छति गेहे।
गतवति वायौ देहापाये भार्या विभ्यति तस्मिन्काये॥14॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

जब तक रहते प्राण देह में, तब तक पूछें कुशल गेह में।
तन से सांस निकल जब जाते, पत्नी-पुत्र सभी भय खाते॥14॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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सुखतः क्रियते रामाभोगः पश्चाद्धन्त शरीरे रोगः।
यद्यपि लोके मरणं शरणम् तदपि न मुञ्चति पापाचरणम्॥15॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

भोग-विलास किए सब सुख से, फिर तन होता रोगी दुःख से।
मरना निश्चित जग में जन को, किंतु न तजता पाप चलन को॥15॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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रथ्याचर्पटविरचितकन्थः पुण्यापुण्यविवर्जितपन्थः।
नाहं न त्वं नायं लोकः तदपि किमर्थं क्रियते शोकः॥16॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

चिथड़ों की गुदड़ी बनवा ली, पुण्य-पाप से राह निराली।
नित्य नहीं मैं, तू जग सारा, फिर क्यों करता शोक पसारा॥16॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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कुरुते गङ्गासागरगमनं व्रतपरिपालनमथवा दानम्।
ज्ञानविहीने सर्वमतेन मुक्तिर्भवति न जन्मशतेन॥17॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...

क्या गंगासागर का जाना, धर्म-दान-व्रत-नियम निभाना।
ज्ञान बिना चाहे कुछ भी कर, सौ-सौ जन्म न मुक्ति मिले नर॥17॥
भज गोविन्दम् भज गोविन्दम्...
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--- श्री शञ्कराचार्यविरचितम्
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