Wednesday, July 24, 2019

वैराग्य शतकम् - Part 2



यदेतत्स्वछन्दं विहरणमकार्पण्यमशनं
सहार्यैः संवासः श्रुतमुपशमैकव्रतफलम्।
मनो मन्दस्पन्दं बहिरपि चिरस्यापि विमृशन्
न जाने कस्यैष परिणतिरुदारस्य तपसः।। ५१ ।।

अर्थ:

स्वधीनतापूर्वक जीवन अतिवाहित करना, बिना मांगे खाना, विपद में साहस रखनेवाले मित्रों की सांगत करना, मन को वश में करने की तरकीबें बताने वाले शास्त्रों का पढ़ना-सुनना और चंचल चित्त को स्थिर करना - हम नहीं जानते, ये किस पूर्व-तपस्या के फल से प्राप्त होते हैं ?

पराधीन मनुष्य कभी सुखी नहीं हो सकता, उसे पग-पग पर अपमानित, लाञ्छित और दुखित होना पड़ता है । जो स्वाधीन हैं, किसी के अधीन नहीं है, वे ही सच्चे सुखिया हैं । जिनको अपने पेट के लिए किसी के सामने गिड़गिड़ाना नहीं पड़ता - किसी के सामने दीन वचन नहीं कहने पड़ते, जिनके दुःख में सहायता देने वाले, बिना कहे कष्ट निवारण करनेवाले मित्र हैं; जो मन को शांत करनेवाले और उसकी चञ्चलता दूर करने वाले शास्त्रों को पढ़ते हैं - वे भाग्यवान हैं । कह नहीं सकते, उन्होंने ये उत्तम फल पूर्वजन्म के किस कठोर तप से पाए हैं ।

दोहा
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सत्संगति स्वछन्दता, बिना कृपणता भक्ष।
जान्यो नहिं किहि तप किये, यह फल होत प्रत्यक्ष।।


पाणिः पात्रं पवित्रं भ्रमणपरिगतं भैक्ष्यमक्षय्यमन्नं 
विस्तीर्णं वस्त्रमाशासुदशकममलं तल्पमस्वल्पमुर्वी।
येषां निःसङ्गताङ्गीकरणपरिणत: स्वात्मसन्तोषिणस्ते
धन्याः संन्यस्तदैन्यव्यतिकरनिकराः कर्मनिर्मूलयन्ति।। ५२ ।।

अर्थ:

वे ही प्रशंसाभाजन हैं, वे ही धन्य हैं, उन्होंने ही धर्म की जड़ काट दी है - जो अपने हाथों के सिवा और किसी बासन की जरुरत नहीं समझते, जो घूम घूम कर भिक्षा का अन्न कहते हैं, जो देशो दिशाओं को ही अपना विस्तृत वस्त्र समझते हैं, जो अकेले रहना पसन्द करते हैं, जो दीनता से घृणा करते हैं और जिन्होंने आत्मा में ही सन्तोष कर लिया है ।

जिन्होंने सबसे मन हटाकर, सब तरह के विषयों को त्याग कर, संसारी माया जाल काटकर अपने आत्म में ही सन्तोष कर लिया है; जो किसी भी वास्तु की आकांक्षा नहीं रखते, यहाँ तक की जल पीने को भी कोई बर्तन पास नहीं रखते; अपने हाथों से ही बर्तन का काम लेते हैं; खाने के लिए घर में सामान नहीं रखते, कल के भोजन की फ़िक्र नहीं करते, आज इस गांव में मांगकर पेट भर लेते हैं तो कल दुसरे गांव में जा मांगते हैं, एक गांव में दो रात नहीं बिताते; जो शरीर ढकने के लिए कपड़ों की भी जरुरत नहीं रखते, दशों दिशाओं को ही अपना वस्त्र समझते हैं; जो पलंग-तोशक, गद्दे-तकियों की आवश्यकता नहीं समझते, ज़रा सी जमीन को ही निर्मल पलंग समझते हैं; जब नींद आती है तो अपने हाथ का तकिया लगाकर सो जाते हैं; जो किसी का संग नहीं करते, अकेले रहते हैं, वैराग्य में ही परमानन्द समझते हैं; जो किसी के सामने दीनता नहीं करते अथवा दैत्यरूपी व्यसनों से घृणा करते और अपने स्वरुप में ही मगन रहते हैं, वे पुरुष सचमुच ही महापुरुष हैं । ऐसे पुरुष रत्न धन्य हैं ! उन्होंने सचमुच ही कर्मबन्धन काट दिया है । वे ही सच्चे त्यागी और सन्यासी हैं । ऐसे ही महापुरुषों के सम्बन्ध में महात्मा सुन्दरदास जी ने कहा है -
काम ही क्रोध न जाके, लोभ ही न मोह ताके।
मद ही न मत्सर, न कोउ न विकारो है।।
दुःख ही न सुख माने, पाप ही न पुण्य जाने।
हरष ही न शोक आनै, देह ही तें न्यारौ है।।
निंदा न प्रशंसा करै, राग ही न द्वेष धरै।
लेन ही न दें जाके, कुछ न पसारो है।।
सुन्दर कहत, ताकी अगम अगाध गति।
ऐसो कोउ साधु, सों तो राम जी कू प्यारो है।।

जिसमें काम, क्रोध, लोभ, मद और मत्सर प्रभृति विकार नहीं हैं; जो दुःख सुख और पाप पुण्य को नहीं जानता; जिसे न ख़ुशी होती है न रंज; जो अपने शरीर से अलग है; जो न किसी की तारीफ करता है और न किसी की बुराई करता है; जिसे न किसी से प्रेम है न किसी से वैर, जिसका न किसी से लेना है और न किसी को देना, न और ही किसी तरह का व्यवहार है। सुन्दरदास कहते हैं, ऐसे मनुष्य की गति अगम्य और अगाध है । उसकी गहराई का पता नहीं । ऐसा ही मनुष्य भगवान् को प्यारा लगता है ।

छप्पय

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भोजन को कर पट्ट, दशों दिशि बसन बनाये।
भखै भीख को अन्न, पलंग पृथ्वी पर छाये।
छाँड़ि सबन को संग, अकेले रहत रैन दिन।
नित आतस सों लीन, पौन सन्तोष छिनहिं छिन।
मन को विकार, इन्द्रीन को डारै तोर मरोर जिन।
वे धन्य संन्यास धन, कर्म किये निर्मूल तिन।।


दुराराध्यः स्वामी तुरगचलचित्ताः क्षितिभुजो
वयं तु स्थूलेच्छा महति च पदे बद्धमनसः।
जरा देहं मृत्युर्हरति सकलं जीवितमिदं 
सखे नान्यच्छ्रेयो जगति विदुषोऽन्यत्र तपसः।। ५३ ।।

अर्थ:

मालिक को राज़ी करना कठिन है। राजाओं के दिल घोड़ों के समान चंचल होते हैं। इधर हमारी इच्छाएं बड़ी भारी हैं; उधर हम बड़े भारी पद - मोक्ष के अभिलाषी हैं । बुढ़ापा शरीर को निकम्मा करता है और मृत्यु जीवन को नाश करती है । इसलिए हे मित्र ! बुद्धिमान के लिए, इस जगत में, तप से बढ़कर और कल्याण का मार्ग नहीं है ।

सेवा-धर्म बड़ा कठिन है । हज़ारों प्रकार की सेवाएं करने, अनेक प्रकार की हाँ में हाँ मिलाने, दिन को रात और रात को दिन कहने, तरह तरह की खुशामदें करने से भी मालिक कभी संतुष्ट नहीं होता । राजाओं के दिल अशिक्षित घोड़ों की तरह चंचल होते हैं । उनके चित्त स्थिर नहीं रहते; ज़रा सी देर में वे प्रसन्न होते हैं और ज़रा सी देर में अप्रसन्न हो जाते हैं; क्षणभर में गांव के गांव बक्शते और क्षणभर में सूली पर चढ़वाते हैं; इसलिए राजसेवा में बड़ा खतरा है । उसमें ज़रा भी सुख नहीं, यहाँ तक की जान की भी खैर नहीं है । एक तरफ तो हमारी इच्छाओं और हमारे मनोरथों की सीमा नहीं है दूसरी ओर हम परमपद के अभिलाषी हैं; इसलिए यहाँ भी मेल नहीं खाता । बुढ़ापा हमारे शरीर को निर्बल और रूप को कुरूप करता एवं सामर्थ्य और बल का नाश करता है तथा मृत्यु सिर पर मंडराती है । ऐसी दशा में मित्रवर ! कहीं सुख नहीं है । अगर सुख - सच्चा सुख चाहते हो, तो परमात्मा का भजन करो । उससे आपके परलोक और इहलोक दोनों सुधरेंगे, आप जन्म-मरण के कष्ट से छुटकारा पाकर मोक्ष-पद पाएंगे । सारांश यह है कि सच्चा और नित्य सुख केवल वैराग्य और ईश्वर भक्ति में है । गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -
"तुलसी" मिटै न कल्पना, गए कल्पतरु-छाँह।
जब लगि द्रवै न करि कृपा, जनक-सुता को नाह।।
हित सन हित-रति राम सन, रिपु सन वैर विहाय।
उदासीन संसार सन, "तुलसी" सहज सुभाय।।

मनुष्य चाहे कल्पवृक्ष के नीचे क्यों न चला जाय, जब तक सीतापति की कृपा न होगी तब तक उसके दुखों का नाश नहीं हो सकता; इसलिए शत्रुता-मित्रता छोड़, संसार से उदासीन हो, भगवान् से प्रीति करो ।

खुलासा - कहते हैं, इंद्रा के बगीचे में एक ऐसा वृक्ष है, जिसकी छाया में जाकर मनुष्य या देवता जो चीज़ चाहते हैं, वही उनके पास, आप से आप आ जाती है । उसी वृक्ष को "कल्पवृक्ष" कहते हैं । तुलसीदास जी कहते हैं, जब तक जानकीनाथ रामचन्द्र जी दया करके प्रसन्न न हों तब तक, मनुष्य की कल्पना कल्पवृक्ष की छाया में जाने से भी नहीं मिट सकती ।
जपतपतीर्थव्रतशमदमदयासत्यशौच और दान बगैर काम अगर मन में वासना रखकर किये जाते हैं; यानी करनेवाला यदि उनका फल या परस्कार चाहता है, तो उसे स्वर्गादि मिलते हैं । स्वर्ग में जाने से मनुष्य का आवागमन - इस दुनिया में आना और यहाँ से फिर जाना - पैदा होना और मरना - नहीं बन्द हो सकता । क्योंकि कहते हैं - "पुण्य क्षीणे मृत्युलोके", पुण्यों के क्षीण होते ही फिर स्वर्ग से मृत्युलोक में आना पड़ता है, पर मनुष्य का असल मकसद पूरा नहीं होता; यानि उसे परमपद या मोक्ष नहीं मिलता । इसलिए मनुष्य को निष्काम कर्म करने चाहिए । "गीता" में भी यही बात भगवान् कृष्ण ने कही है । बहुत लिखने से क्या - भगवान् की भक्ति सर्वोपरि है । भगवान् की भक्ति से जो काम हो सकता है, वह घोर-से-घोर तपस्याओं से भी नहीं हो सकता ।
किसी ने कहा है -
पठित सकल वेदश्शास्त्रपारंगतो वा
यम नियम पारो वा धर्म्मशास्त्रार्थकृद्वा।
अटित सकल तीर्थव्राजको वाहिताग्निर्नहि
हृदि यदि रामः सर्वमेतत्वृथा स्यात्।।

चाहे सारे वेद-शास्त्रों को पढ़लो, चाहे यम नियम आदि कर लो, चाहे धर्मशास्त्र को मनन कर लो और चाहे सारे तीर्थ कर लो, अगर आपके दिल में राम नहीं हैं तो सब वृथा है ।
इसीलिए तुलसीदास जी कहते हैं, कि दोस्तों से दोस्ती और दुश्मनो से दुश्मनी छोड़कर एवं संसार से उदासीन होकर भगवान् से प्रीति करो । मतलब यह है, कि न किसी से राग करो और न किसी से द्वेष; सबको उदासीन होकर देखो । जब आपका दिल राज-द्वेषादि से शुद्ध होगा - इस दुनिया में न कोई आपका प्यारा होगा और न कोई कुप्यारा; तभी आपका दिल एक भगवान् में लगेगा ।

सुंदरदास जी कहते हैं -
१)
काहे कूँ फिरत नर! दीन भयो घर-घर।
देखियत, तेरो तो आहार इक सेर है।।
जाको देह सागर में, सुन्यो शत योजन को।
ताहू कूँ तो देत प्रभु, या में नहिं फेर है।।
भूको कोउ रहत न, जानिये जगत मांहि।
कीरी अरु कुञ्जर, सबन ही कूँ देत है।।
"सुन्दर" कहत, विश्वास क्यों न राखे शठ?
बेर-बेर समझाय, कह्यौ केती बेर है।। २ ।।

२)
काहे कूँ दौरत है दशहुं दिशि?
तू नर ! देख कियो हरिजू को।
बैठी रहै दूरिके मुख मुंदी,
उघारत दांत खवाइहि टूको।
गर्भ थके प्रतिपाल करी जिन,
होइ रह्यो तबहिं जड़ मूको।
"सुन्दर" क्यूँ बिल्लात फिरे अब? 
राख ह्रदय विश्वास प्रभु को।। २ ।।

१)
हे पुरुष ! तू दीन होकर क्यों घर-घर मारा-मारा फिरता है ? हैख, तेरा पेट तो एक सेर आते में भर जाता है। सुनते हैं, समुद्र में जिसका शरीर चार सौ कोस लम्बा चौड़ा है, उसको भी प्रभु भोजन पहुंचाते हैं, इसमें ज़रा भी शक नहीं । संसार में कोई भी भूखा नहीं रहता । वह जगदीश चींटी और हाथी सबका पेट भरते हैं । अरे शठ ! विश्वास क्यों नहीं रखता ? सुन्दरदास कहते हैं, मैंने तुझे यह बात बारम्बार कितनी बार नहिं समझाई है ?

२)
अरे ! तू दशों दिशाओं में क्यों भागता फिरता है ? तू भगवान् के किये कामों का ख्याल कर। देख, जब तू मुंह बन्द किये हुए छिपा बैठा था, तब भी तुझे खाने को पहुँचाया और जब तेरे दांत आ गए तब भी तेरे मुंह खोलते ही खाने को टुकड़ा दिया । जिस प्रभु ने तेरी गर्भावस्था से ही - जबकि तू जड़ और मूक था - पालना की है, वही क्या अब तेरी खबर न लेगा? सुन्दरदास जी कहते हैं, तू क्यों चीखता फिरता है ? भगवान् का भरोसा रख; वही प्रभु अब भी तेरी पालना करेंगे।
सारांश यह कि बुद्धिमान को दुनिया के घमण्डी लोगों की खुशामद छोड़, केवल उसकी खुशामद और नौकरी करनी चाहिए, जिसके दिल में न घमण्ड है और न क्रूरता । जो उसकी शरण में जाता है, उसी की वह अवश्य प्रतिपालना करता और उसके दुःख दूर करने को हाज़रा हुज़ूर खड़ा रहता है । मनुष्य ! तेरी ज़िन्दगी अढ़ाई मिनट की है । इस अढ़ाई मिनट की ज़िन्दगी को वृथा बरबाद न कर । इसे ख़तम होते देर न लगेगी । राजाओं और अमीरों की सेवा-टहल और लल्लो-चप्पो में यह शीघ्र ही पूरी हो जाएगी और उनसे तेरी कामना भी सिद्ध न होगी । यदि तू सबका आसरा छोड़, जगदीश की ही चाकरी करेगा; तो निश्चय ही तेरा भला होगा - तेरे दुखों का अवसान हो जायेगा; तुझे फिर जन्म लेकर घोर कष्ट न सहने होंगे; तुझे नित्य और चिरस्थायी शान्ति मिलेगी । अरे ! तू साड़ी चतुराई और चालाकियों को छोड़कर, एक इस चतुराई को कर; क्योंकि यह चातुरी सच्ची चातुरी है । जो जगदीश को प्रसन्न कर लेता है, वही सच्चा चतुर है ।

कहा है -
या राका शशि-शोभना गतघना सा यामिनी यामिनी।
या सौन्दर्य्य-गुणान्विता पतिरता सा कामिनी कामिनी।।
या गोविन्द-रस-प्रमोद मधुरा सा माधुरी माधुरी।
या लोकद्वय साधनी तनुभृतां सा चातुरी चातुरी।।

मेघावरण शून्य पूर्ण-चन्द्रमा से शोभायमान जो रात्रि है, वही रात्रि है । जो सुंदरी है, गुणवती है और पति में भक्ति रखनेवाली है, वही कामिनी है । कृष्ण के प्रेम के आनन्द से मनोहर मधुरता ही मधुरता है । शरीरधारियों का दोनों लोक में उपकार करनेवाली जो चतुराई है, वही चतुराई है ।

दोहा
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नृप-सेवा में तुच्छ फल, बुरी काल की व्याधि।
अपनों हित चाहत कियो, तौ तू तप आराधि।।

भोगा मेघवितानमध्यविलसत्सौदामिनीचञ्चला 
आयुर्वायुविघट्टिताभ्रपटलीलीनाम्बुवद्भङ्गुरम्।
लोला यौवनलालसा तनुभृतामित्याकलय्य द्रुतं
योगे धैर्यसमाधिसिद्धिसुलभे बुद्धिं विधध्वं बुधाः।। ५४ ।।

अर्थ:

देहधारियों के भोग - विषय सुख - सघन बादलों में चमकनेवाली बिजली की तरह चञ्चल हैं; मनुष्यों की आयु या उम्र हवा से छिन्न भिन्न हुए बादलों के जल के समान क्षणस्थायी या नाशमान है और जवानी की उमंग भी स्थिर नहीं है । इसलिए बुद्धिमानो ! धैर्य से चित्त को एकाग्र करके उसे योगसाधन में लगाओ ।

संसार और संसार के सारे पदार्थ आसार और नाशमान हैं । यहाँ जो दिखाई देता है वह स्थिर न रहेगा। यह जो अथाह जल से भरा हुआ समन्दर दिखाई देता है, किसी दिन मरुस्थल में परिणत हो जाएगा; पानी की एक बूँद भी नहीं मिलेगी । यह बगीचा जो आज इंद्रा के बगीचे की बराबरी कर रहा है, जिसमें हज़ारों तरह के फलों के वृक्ष लगे रहते हैं, हौज़ बने हुए हैं, छोटी छोटी नहरे कटी हुई हैं, संगमरमर और संगे-मूसा के चबूतरे बने हुए हैं, बीच में इन्द्रभवन के जैसा महल खड़ा है, किसी दिन उजाड़ हो जाएगा; इसमें स्यार, लोमड़ी और जरख प्रभृति पशु बसेरा लेंगे । यह जो सामने महलों की नगरी दीखती है, जिसमें हज़ारों दुमंजिले, तिमंज़िले, चौमंज़िले और सतमंज़िले आलिशान मकान खड़े हुए आकाश को चूम रहे हैं, जहाँ लाखों मनुष्यों के आने जाने और काम धंधा करने के कारण पीठ-से-पीठ छिलती है, किसी दिन यहाँ घोर भयानक वन हो जाएगा । मनुष्यों के स्थान में सिंह, बाघ, हाथी, गैंडे, हिरन और स्यार प्रभृति पशु आ बसेंगे । और तो क्या - यह सूर्य, जो अपने तेज से तीनो लोकों प्रकाश फैलता है, अंधकार रूप हो जाएगा । यह अमृत से पूर्ण सुधाकर - चन्द्रमा भी शून्य हो जायेगा । इसकी शीतल चांदनी न जाने कहाँ विलीन हो जाएगी ? हिमालय और सुमेरु जैसे पर्वत एक दिन मिटटी में मिल जायेंगे। यह ब्रह्मा, विष्णु और रूद्र भी शून्य हो जाएगने । सारा जगत नाश हो जायेगा । ये स्त्री, पुत्र, नाते-रिश्तेदार न जाने कहाँ छिप जायेंगे ? युगों की सहस्त्र चौकड़ियों का ब्राह्मण का एक दिन होता है । उस दिन के पूरे होते ही प्रलय होती है । तब इस जगत की रचना करने वाला ब्रह्मा भी नष्ट हो जाता है । आज तक अनगिनती ब्रह्मा हुए । उन्होंने जगत की रचना की और अंत में स्वयं नष्ट हो गए । जब हमारे पैदा करनेवाले का यह हाल है, तब हमारी क्या गिनती ?
या काया - जिसे मनुष्य अपना सर्वस्व समझता है, जिसे मल-मल कर धोता है, इत्र फुलेलों से सुवासित करता, नाना प्रकार के रत्नजड़ित मनोहर गहने पहनता, कष्ट से बचने और सुखी होने के लिए नरम-नरम मखमली गद्दों पर सोता, पैरों को तकलीफ से बचाने के लिए जोड़ी-गाडी या मोटर में चढ़ता है - एक दिन नाश हो जाएगी; पांच तत्वों से बानी हुई काया, पांच तत्वों में ही विलीन हो जाएगी । जिस तरह पत्ते पर पड़ी हुई जल की बूँद क्षणस्थायी होती है; उसी तरह यह काया क्षणभंगुर है । दीपक और बिजली का प्रकाश आता जाता दीखता है, पर इस काया का आदि-अन्त नहीं दीखता । यह काया कहाँ से आती है और कहाँ जाती है । जिस तरह समुद्र में बुद्बुदे उठते और मिट जाते हैं; उसी तरह शरीर बनते और क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं । सच तो यह है कि यह शरीर बिजली की चमक और बादल की छाया की तरह चञ्चल और अस्थिर है । जिस दिन जन्म लिया, उसी दिन मौत पीछे पद गयी; अब वह अपना समय देखती है और समय पूर्ण होते ही प्राणी को नष्ट कर देती है ।

जिस तरह जल की तरंगे उठ उठ कर नष्ट हो जाती है; उसी तरह लक्ष्मी आकर क्षणभर में विलीन हो जाती है । जिस तरह बिजली चमक कर गायब हो जाती है; उसी तरह लक्ष्मी दर्शन देकर गायब हो जाती है । हवा और चपला को रोकना अत्यन्त कठिन है, पर शायद कोई उन्हें रोक सके; आकाश का चूर्ण करना अतीव कठिन है, पर शायद कोई आकाश को भी चूर्ण करने में समर्थ हो जाये; समुद्र को भुजाओं से तैरना बाउट कठिन है, पर शायद कोई तैरकर उसे भी पार कर सके; इतने असम्भव काम शायद को सामर्थ्यवान कर सके, पर चञ्चला लक्ष्मी को कोई भी स्थिर नहीं कर सकता। जिस तरह अंजलि में जल नहीं ठहरता; उसी तरह लक्ष्मी भी किसी के पास नहीं ठहरती । जिस तरह वेश्या एक पुरुष से राज़ी नहीं रहती, नित नए पुरुषों को चाहती है; उसी तरह लक्ष्मी भी किसी एक के पास नहीं रहती, नित नए पुरुषों को भजती है । इसी से वेश्या और लक्ष्मी दोनों को ही चपला कहते हैं ।
जिस तरह सांसारिक पदार्थ लक्ष्मी और विषय-भोग तथा आयु चञ्चल और क्षणस्थायी है; उसी तरह यौवन या जवानी भी क्षणस्थायी है । जवानी आते दीखती है, पर जाते मालूम नहीं होती । हवा की अपेक्षा भी तेज़ चाल से दिन-रात होते है और उसी तेज़ी से जवानी झट ख़त्म हो जाती और बुढ़ापा आ जाता है । उस समय विस्मय होने लगता है । यह शरीर तभी तक सुन्दर और मनोहर लगता है, जब तक बुढ़ापा नहीं आता । बुढ़ापा आते ही वह उछल-कूद, वह अकड़-तकड़, वह चमक-दमक, वह सुर्खी, वह छातियों का उभार, वह नयनों का रसीलापन न जाने कहाँ गायब हो जाता है । असल में यौवन के लिए बुढ़ापा, राहु है । जिस तरह चन्द्रमा को जब तक राहु नहीं ग्रसता, तभी तक प्रकाश रहता है; उसी तरह जब तक बुढ़ापा नहीं आता, तभी तक शरीर का सौंदर्य और रूप-लावण्य बना रहता है । प्राणियों को बाल्यावस्था के बाद युवावस्था और युवावस्था के बाद वृद्धावस्था अवश्य आती है । युवावस्था सदा नहीं रहती; अच्छी तरह गहरा विचार करने से जवानी क्षणभर की मालूम होती है ।
संसार में जो नाना प्रकार के मनभावन पदार्थ दिखाई देते है, ये सभी नाशमान है । ये सब वास्तव में कुछ भी नहीं; केवल मन की कल्पना से इनकी सृष्टि की गयी है । मूर्ख ही इनमें आस्था रखते हैं, ज्ञानी नहीं ।
इस जगत में ज्ञानी का जीवन सार्थक और अज्ञानी का निरर्थक है । अज्ञानी के जीने से कोई लाभ नहीं। उसके जीने से अर्थ-सिद्धि नहीं होती । वह वृथा सुअवसर गंवाता है । मूर्ख मोह के मारे नहीं समझता, कि ऐसा मौका बड़ी मुश्किल से मिला है । इस बारे चुके तो खैर नहीं । अज्ञानी अपनी अज्ञानता या मोह के कारन ही नाशमान और दुखों के मूल विषयों की ओर दौड़ता है, पर आयु, यौवन और विषयों की क्षणभंगुरता पर ध्यान नहीं देता । यह मायामोह नहीं तो क्या है ?
"सुभाषितावली" में लिखा है -
चला विभूतिः क्षणभंगी यौवनं कृतान्तदन्तान्तर्वर्त्ति जीवितं।
तथाप्यवज्ञा परलोकसाधने नृणामहो विस्मयकारि चेष्टितं।।

विभूति चञ्चल है, यौवन क्षणभंगुर है, जीवन काल के दांतो में है; तो भी लोग परलोक साधन की परवाह नहीं करते। मनुष्यों की यह चेष्टा विस्मयकारक है !

फिरदौसी ने "शाहना" में कहा है - "मनुष्य इस नापायेदार दुनिया से क्यों दिल लगाते हैं; जबकि मौत का नक्कारा दरवाजे पर बज रहा है ।
मनुष्यों ! होश करो, गफलत की नींद छोडो। वह देखो ! मौत आपका द्वार खटखटा रही है । अब तो मिथ्या संसार का मोह त्यागो । ये जो स्त्री, पुत्र, भाई, बहन, माता-पिता आदि प्यारे और समबन्धी दिखाई देते है, ये उसी वक्त तक हैं, जब तक की शरीर नाश नहीं हुआ है। शरीर के नाश होते ही ये नज़र भी न आएंगे । यह भी समझ में न आवेगा कि कहाँ से आये थे और कहाँ गए। यह बन्धु-बान्धवों का मिलना उन यात्रियों या मुसाफिरों की तरह है, जो भिन्न-भिन्न स्थानों से सफर करते हुए एक वृक्ष के नीचे आकर ठहर जाते हैं और क्षणभर विश्राम लेकर फिर अपनी अपनी राह पर चल देते हैं या उन मुसाफिरों की तरह है, जो अनेक स्थानों से आकर एक सराय या धर्मशाला में ठहरते हैं; और फिर कोई दो दिन, कोई चार दिन ठहर कर अपनी अपनी जगह को चल देते हैं । वृक्षों के नीचे चन्द मिनट ठहरने वालों अथवा सराय के मुसाफिरों का आपस में प्रीती करना क्या अक्लमन्दी है ? जिनका क्षणभर का साथ है, उनमें दिल फंसना, दुःख मोल लेना है । उनके अलग होते ही मन में भयानक वेदना होगी, अतः उनके साथ कोई सरोकार न रखना चाहिए । यह संसार दो स्थानों के बीच का स्थान है । यात्री यहाँ आकर क्षणभर के लिए आराम करते और फिर आगे चले जाते हैं । ऐसे यात्रियों का आपस में मेल बढ़ाना, एक-दुसरे की मुहब्बत के फन्दे में फंसना, सचमुच ही दुःखोत्पादक है । समझदार लोग, मुसाफिरों से दिल नहीं लगाते - उनसे प्रेम नहीं करते - उन्हें अपना-पराया नहीं समझते । न उन्हें किसी से राग है न द्वेष। वे सबको समदृष्टि या एक नज़र से देखते हुए सहाय्य करते और उनका कष्ट निवारण करते हैं, पर उनसे प्रीती नहीं करते; लेकिन मूर्ख लोग स्त्री-पुत्र और माता-पिता प्रभृति को अपना प्यारा समझते और दूसरों को पराया समझते हैं । इस जगत में न कोई अपना है न कोई पराया । यह जगत एक वृक्ष है । इस पर हज़ारों लाखों पक्षी भिन्न भिन्न स्थानों से आकर रात को बसेरा लेते और सवेरे ही अपने अपने स्थानों को उड़ जाते हैं भिन्न भिन्न स्थानों से आये हुए पक्षियों को क्या रातभर के साथ के लिए आपस में नाता जोड़ना चाहिए? हरगिज़ नहीं। दूसरों से समबन्ध जोड़ना, किसी को अपना पुत्र और किसी को अपनी स्त्री एवं किसी को माँ या बहन समझकर स्नेह करना तो मूर्खता ही है । स्नेह तो अपनी काया से भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह भी क्षणभंगुर है - सदा साथ न रहेगी ।
महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं -
बालू के मन्दिर मांहि, बैठी रह्यो स्थिर होइ ।
राखत है जीवन की आश, केउ दिन की।।
पल-पल छीजत, घटत जाट घरी-घरी।
विनाशत बेर कहाँ? खबर न छिन की।।
करत उपाय, झूठे लेन-देन खान-पान।
मूसा इत-उत फायर, ताकि रही मिनकी।। १ ।।

देह सनेह न छाँडत है नर।

जानत है थिर है ये देहा।।
छीजत जात घटै दिन ही दिन।
दीसत है घट को नित छेहा।।
काल अचानक आय गहे कर।
ठाँह गिराई करे तन खेहा।।
"सुन्दर" जानि यह निहचै धर।
एक निरंजन सूँ कर नेहा।।

अरे मूर्ख ! तू इस शरीर की मुहब्बत नहीं छोड़ता, यह तेरी बड़ी भूल है । तू इस बालू के घर को स्थिर या चिरस्थायी समझता है; पर यह दिन-पर-दिन छीजता और घटता जाता है । हमें तो इस घट का नित्य क्षय ही दीखता है । देख, किसी दिन काल अचानक आकर तेरे हाथ पकड़ लेगा और तुझे गिराकर तेरे शरीर को ख़ाक कर देगा । सुन्दरदास जी  कहते हैं - अरे मूर्ख ! तू मेरी बात को - मेरी सलाह को ठीक समझ,  इसमें मीन मेख न लगा । यह अटल बात है और बातों में चाहे फर्क पड़ जाय पर इसमें फर्क नहीं पड़ने का । इसलिए तू अपने इस शरीर से, अपने स्त्री-पुत्रों से और अपनी दौलत से मुहब्बत छोड़कर, एकमात्र जगदीश से प्रेम कर । उनसे स्नेह करेगा तो सदा सुख पायेगा और इनसे मुहब्बत रखेगा तो घोरातिघोर दुःख भोगेगा ।

महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं - अरे अज्ञानी मनुष्य ! मुझे तेरी इस बात पर बड़ा ही अचम्भा आता है कि तू इस बालू के मकान में निःशंक और मस्त होकर बैठा हुआ है और कितने ही दिनों तक जीने की उम्मीद रखता है । यह तेरा बालू का घर, हर क्षण छीजता और घटता जाता है।  इसको नाश होते कितनी देर लगेगी ? मुझे तो एक पल का भी भरोसा नहीं है । तू इस बालू के क्षणभंगुर घर में बेखटके बैठा हुआ अनेक तरह के झूठे उपाय-उद्योग, लेन-देन और खान-पान करता है । तू चूहे की तरह इधर-उधर उछलता कूदता फिरता है । क्या तुझे खबर नहीं कि जिस तरह बिल्ली, चूहे की ताक में बैठी रहती है; उसी तरह तेरी घात में मौत बैठी है ।

खुलासा - ज़रा भी समझ रखनेवाले समझ सकते हैं कि प्राणियों के शरीर के भीतर कोई ऐसी चीज़ है, जिसके रहने से प्राणी चलते-फिरते, काम-धंधा करते और ज़िंदा समझे जाते हैं । जिस वक्त वह चीज़ शरीर से निकल जाती है, उस वक्त मनुष्य मुर्दा हो जाता है, उस समय वह न तो चल-फिर सकता है, न देख-सुन या कोई और काम कर सकता है । जिस चीज़ के प्रकाश से शरीर में प्रकाश रहता है, जिसके बल से यह काम-धंधे करता और बोलता चालता है, उसे जीव या आत्मा कहते हैं । हमारा शरीर हमारे आत्मा के रहने का घर है । जिस तरह मकान में मोरी, परनाले, खिड़की और जंगले होते हैं; उसी तरह आत्मा के रहने के इस शरीर रुपी घर में भी मोरी और परनाले वगैरह हैं । आँख, कान, नाक और मुंह प्रभृति इस शरीर रुपी घर के द्वार और गुदा-लिङ्ग या योनि वगैरह मोरी-परनाले हैं । शरीर के करोड़ों छेद इस मकान के जंगले और खिड़कियां हैं । मतलब यह कि, यह शरीर आत्मा या जीव के बसने का घर है । यह घर मिटटी और जल प्रभृति पञ्च-तत्वों से बना हुआ है इस घर के बनाने वाला कारीगर परमात्मा है ।

जिस तरह परमात्मा ने आत्मा के रहने के लिए पांच तत्वों से बने यह शरीर रुपी घर बना दिया है; उसी तरह हमने भी अपने इस आत्मा के शरीर की रक्षा के लिए - मेह पानी और धूप आदि से बचने के लिए - मिटटी या ईंट पत्थर प्रभृति के मकान बना लिए है । हमारे बनाये हुए ईंट पत्थरों के मकान सौ-सौ, दो-दो सौ और पांच-पांच सौ बरसों तक रह सकते हैं । हज़ार हज़ार बरस से ज्यादा मुद्दत के बने हुए मकान आज तक खड़े हुए हैं । पर हमारे आत्मा के रहने का पञ्च तत्वों से बना हुआ मकान इतना मजबूत नहीं - वह क्षणभर में ढह जाता है । इसलिए इस आत्मा के मकान - शरीर - को महात्मा सुन्दरदास जी बालू का मकान कहते हैं । क्योंकि बालू का मकान इधर बनता और उधर गिर पड़ता है । उसकी उम्र पल भर की भी नहीं ।

मनुष्य अज्ञान और मोह से अँधा रहने के कारण, इस बालू के मकान की क्षणभंगुरता का कभी ख्याल भी नहीं करता । वह इस बालू के मकान में ही सैकड़ों बरसों तक रहने की आशा करता है ! मनुष्य की इस गफलत और बेहोशीपर पूर्णज्ञानी महात्मा सुन्दरदास जी को दुःख और आश्चर्य होता है । महापुरुष सदा पराया भला चाहा करते हैं; वे दूसरों को दुःख और क्लेशों से बचाना अपना कर्तव्य और फ़र्ज़ समझते हैं, इसलिए वे अज्ञानान्धकार में डूबे हुए मनुष्यों को सावधान करने के लिए कहते हैं - अरे मूर्ख ! तू इस बालू के घर में रहकर भी बरसों जीने की - इस घर में रहने की - आशा करता है ? अरे नादान ! होश कर ! जाग ! तेरा यह बालू का घर पलक मारते गिर जायेगा ! जबसे तू इस बालू के घर में आया है, तभी से इसकी नींव हिलने लग गयी है । एक मिनट या एक सेकंड में ये गिर सकता है । ऐसे क्षणभंगुर घर में रहकर तू मकान बनवाता है; बाग़-बगीचे लगवाता है; किसी को अपनी स्त्री, किसी को अपना पुत्र और किसी को अपना बाप, भाई या मित्र समझता है; इनके मोह-जाल में फंसता है; बेहोशी में, लोग पर अत्याचार और जुल्म करता एवं पराया धन हडपता है ! मुझे तेरी इन करतूतों को देखकर बिहायत आश्चर्य भी होता और दुःख भी होता है ! सच तो यह है कि, मुझे तेरी नादानी पर तरस आता है । खैर, जो हुआ सो हुआ, अब भी चेत जा !! धन-दौलत, स्त्री-पुत्र, राज-पाट और ज़मींदारी का मोह त्यागकर अपने बनानेवाले कि शरण में जा । वही तेरे इस बालू के घर में बारम्बार आने और क्षणभर में इसे छोड़ भागने के घोर कष्ट को दूर कर सकता है । अगर तू इस जञ्जाल में फंसा रहेगा, मेरी बात पर ध्यान न देगा, तो पीछे बहुत पछतावेगा ।  जिस समय तेरा यह घर गिरने पर आवेगा, तू इसे छोड़ने के लिए मजबूर होगा; उस समय तू हज़ार चाहने और हज़ार रोने-कलपनेपर भी इसमें क्षणभर भी न रह सकेगा । जब तक तू इस बालू के घर में है, तभी तक तेरी स्त्री और तभी तक तेरा पुत्र और धन-दौलत  आदि हैं । जहाँ तैने यह घर छोड़ा या तेरा यह घर गिरा; फिर न तुझे स्त्री दीखेगी, न पुत्र दीखेगा और न धन-दौलत ही । यह बालू का घर तुझे क्षणभर के लिए, इस गरज़ से मिला है कि, तू इसमें जितनी देर रहे उतनी देर जगदीश की भक्ति करके, अपने कर्मबन्धन काटले और जन्म-मरण के झंझटों से बचकर, अपने मालिक में मिल जावे; ताकि फिर तुझे कभी दुःख न भोगने पड़े - तू सदा-सर्वदा - अनन्त काल तक नित्य और अविनाशी सुख भोगता रहे ।

लक्ष्मी क्षणभंगुर है । समुद्र में जिस तरह तरंगे उठती और विलीन हो जाती हैं; उसी तरह लक्ष्मी से विषय-भोग उपजते और नष्ट हो जाते हैं । जिस तरह चपला की चमक स्थिर नहीं रहती; उसी तरह भोग भी स्थिर नहीं रहते । विषयों के भोगने से तृष्णा घटती नहीं, बल्कि बढ़ती है । तृष्णा के उदय होने से पुरुष के सब गन नष्ट हो जाते हैं । दूध में मधुरता उसी समय तक रहती है, जब तक की उसे सर्प नहीं छूता; पुरुष में गन भी उसी समय तक रहते हैं, जब तक कि तृष्णा का स्पर्श नहीं होता । अतः बुद्धिमानो ! अनित्य, नाशमान एवं दुखों कि खान, विष-समान विषयों से दूर रखो; क्योंकि इनमें ज़रा भी सुख नहीं । जब तक विषय-भोग रहेंगे तभी तक आप सुखी रहेंगे; पर एक-न-एक दिन उनसे आप का वियोग अवश्य होगा; उस समय आप तृष्णा कि आग में जलोगे, बारम्बार जन्म लोगे और मरोगे; अतः इन्द्रियों को वश में करो और एकाग्र चित्त से परमात्मा का भजन करो; क्योंकि विषयों को भोगने से नरकाग्नि में जलोगे और जन्म-मरण के घोर संकट सहोगे; पर परमात्मा के भजन या योगसाधन से नित्य सुख भोगते हुए परमानन्द में लीन हो जाओगे ।

बहुत से मनुष्य मन को एकाग्र नहीं करते, पर दिखावटी माला जपते हैं, गोमुखी में सड़ा-सड़ हाथ चलते हैं, "गीता" और "विष्णु सहस्त्रनाम" प्रभृति का पाठ करते हैं और बीच बीच में कारोबार की बातें भी करते रहते हैं अथवा स्त्री बच्चो के झगडे निपटाया करते हैं । ऐसे भजन करने और माला फेरने से कोई लाभ नहीं । इस तरह समय वृथा नष्ट होता है । मन के एक ठौर हुए बिना, शांत और स्थिर हुए बिना सब वृथा है ।
महात्मा कबीर ने ठीक ही कहा है -
जेती लहर समुद्र की, तेति मन की दौरि।
सहजै हीरा उपजै, जो मन आवै ठौरि।।
माला फेरत युग गया, पाया न मनका फेर।
कर का मनका छाँड़ि के, मन का मनका फेर।।
मूँड़ मुड़ावत दिन गए, अजहुँ न मिलिया राम।
राम नाम कहो क्या करै, मन के औरे काम।।
तन को योगी सब करें, मन को विरला कोय।
सहजै सब विधि पाइये, जो मन योगी होय।।

जितनी समुद्र की लहरें है; उतनी ही मन की दौड़ है। अगर मन ठिकाने आ जाय, उसमें समुद्र की सी तरंगे न उठें, तो सहज हीरा पैदा हो जाय; यानी परमात्मा मिल जाय ।

माला फेरते-फेरते युग बीत गया, पर मनका फेर न मिला; अतः हाथ का मनिया छोड़कर, मनका मनिया फेर। हाथ की माला फेरने से कोई लाभ नहीं; लाभ है मन की माला फेरने से । मन लगाकर एक बार भी ईश्वर को याद करने से बड़ा फल मिलता है; पर चञ्चल चित्त से दिन-रात माला फेरने से भी कुछ नहीं मिलता ।
मूँड़ मुड़ाते अनेक दिन हो गए, पर आज तक भगवान् न मिले । मिले कैसे ? मन राम में लगे तब तो राम मिले ? जिस तरह रवि और रजनी - दिन और रात - एकत्र नहीं होते, उसी तरह राम और काम एकत्र नहीं मिलते । जहाँ काम है, वह राम नहीं और जहाँ राम है, वह काम नहीं ।
तन को योगी सब करते हैं, पर मन को कोई ही योगी करता है । अगर मन होगी हो जाय, तो सहज में सिद्धि मिल जाय । लोग गेरुए कपडे पहन लेते हैं, जटा रखा लेते हैं, हाथ में कमण्डल और बगल में मृगछाला ले लेते हैं - इस तरह योगी बन जाते हैं, पर मन उनका संसारी भोगो में ही लगा रहता है; इसलिए उन्हें सिद्धि नहीं मिलती - ईश्वर दर्शन नहीं होता । अगर वे लोग कपडे चाहें गृहस्थों के ही पहनें, गृशस्थों की तरह ही खाएं-पीएं; पर मन को एक परमात्मा में रक्खें, तो निश्चय ही उन्हें भगवान् मिल जाएं । जो मनुष्य गृशस्थ आश्रम में रहता है, पर उसमें आसक्ति  नहीं रखता, यानी जल में कमल की तरह रहता है, उसकी मुक्ति निश्चय ही हो जाती है; पर जो सन्यासी होकर विषयों में आसक्ति रखता है उसकी मोक्ष नहीं होती । राजा जनक गृहस्थी में रहते थे; सब तरह के राजभोग भोगते थे; पर भोगों में उनकी आसक्ति नहीं थी, इसी से उनकी मुक्ति हो गयी ।

सारांश - विषय-भोग, आयु और यौवन को अनित्य और क्षणभंगुर समझकर इनमें आसक्ति न रखो और मन को एकाग्र करके हर क्षण परमात्मा का भजन करो - तो जन्म-मरण से छुटकारा मिल जाय और परमानन्द की प्राप्ति हो जाय ।
कबीरदास जी कहते हैं -
कहा भरोसो देह को, विनसि जाय छीन मांहि।
श्वास श्वास सुमिरन करो, और जतन कछु नांहि।।

इस शरीर का क्या भरोसा ? यह क्षणभर में नष्ट हो जाय । इस दशा में सर्वोत्तम उपाय यही है कि, हर सांस पर परमात्मा का नाम लो । बिना उसके नाम के कोई सांस न जाने पावे । बस, इससे बढ़कर उद्धार का और उपाय नहीं है ।

कुण्डलिया
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जैसे चञ्चल चञ्चला, त्योंही चञ्चल भोग।
तैसेही यह आयु है, ज्यों घट पवन प्रयोग।
ज्यों घट पवन प्रयोग, तरल त्योंही यौवन तन।
विनस न लगत न वार, गहत ह्वै जात ओसकन।
देख्यौ दुःसह दुःख, देहधारिन को ऐसे।
साधत सन्त समाधि, व्याधि सों छूटत जैसे।।

विनस - विनाश; वार - समय; गहत - पकड़ते हो; ओसकन - ओंस के कण


पुण्ये ग्रामे वने वा महति सितपटच्छन्नपालिं कपाली-
मादाय न्यायगर्भद्विजहुतहुतभुग्धूमधूम्रोपकण्ठं।
द्वारंद्वारं प्रवृत्तो वरमुदरदरीपूरणाय क्षुधार्तो
मानी प्राणी स धन्यो न पुनरनुदिनं तुल्यकुल्येषुदीनः।। ५५ ।।

अर्थ:

वह क्षुधार्त किन्तु मानी पुरुष, जो अपने पेट-रुपी खड्डे के भरने के लिए हाथ में पवित्र साफ़ कपडे से ढका हुआ ठीकरा लेकर वन-वन और गांव-गांव घूमता है और उनके दरवाज़े पर जाता है, जिनकी चौखट न्यायतः विद्वान ब्राह्मणो द्वारा कराये हुए हवन के धुएं से मलिन हो रही है, अच्छा है; किन्तु वह अच्छा नहीं, जो समान कुलवालों के यहाँ जाकर मांगता है ।

तुलसीदास जी ने भी कहा है -
घर में भूखा पड़ रहे, दस फाके हो जाएँ।
तुलसी भैय्या बन्धु के, कबहुँ न माँगन जाय।।

तुलसीदास जी कहते है, अगर मनुष्य के पास खाने को न हो, उसको उपवास करते करते दस दिन बीत जाएं, अन्न बिना प्राण नाश होने की सम्भावना हो; तो भी उसे अपनी या अपने परिवार की जीवन रक्षा के लिए, कुछ मिलने की आशा से, भाई बन्धुओं के पास हरगिज़ न जाना चाहिए । क्योंकि ऐसे मौके पर वे लोग उसका अपमान करते हैं । उस अपमान का दुःख भोजन बिना प्राण नाश होने के दुःख से अधिक दुःखदायी होता है । मृत्यु की यंत्रणाओं का सहना आसान है, पर उस अपमान को सहना कठिन है ।

और भी किसी ने कहा है -
वरं वनं व्याघ्रगजेन्द्र सेवितं।
द्रमालयः पक्कफलाम्बु भोजनं।।
तृणानि शय्या परिधान वल्कलं।
न बन्धुमध्ये धनहीन जीवनं।

व्याघ्र और हाथियों से भरे हुए जंगल में रहना भला, वृक्षों के नीचे बसना भला, पके-पके फल खाना और जल पीना भला, घास पर सो रहना और छालों के कपडे पहन लेना भला; पर भाइयों के बीच में धनहीन होकर रहना भला नहीं ।

सोरठा 
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विप्रन के घर जाय, भीख माँगिबो है भलो।
बन्धुन को सिरनाय, भोजनहु करिबो बुरो।।


चाण्डाल किमयं द्विजातिरथवा शूद्रोऽथ किं तापसः
किं वा तत्त्वविवेकपेशलमतिर्योगीश्वरः कोऽपि किम्।
इत्युत्पन्नविकल्पजल्पमुखरैः सम्भाष्यमाणा जनैः
न क्रुद्धाः पथि नैव तुष्टमनसो यान्ति स्वयं योगिनः।। ५६ ।।

अर्थ:

यह चाण्डाल है या ब्राह्मण है? यह शूद्र है या तपस्वी है? क्या यह तत्वविद योगीश्वर है ? लोगों द्वारा ऐसी अनेक प्रकार की संशय और तर्कयुक्त बातें सुनकर भी योगी लोग न नाराज़ होते हैं न खुश; वे तो सावधान चित्त से अपनी राह चले जाते हैं ।

योगीजन लोगों की बुरी भली बातों का ख्याल नहीं करते; कोई कुछ भी क्यों न कहा करे । चाहे उन्हें कोई शूद्र कहे, चाहे ब्राह्मण, चाहे भंगी और चाहे तपस्वी; चाहे कोई निंदा करे, चाहे स्तुति; वे अच्छी बात से प्रसन्न और बुरी बात से अप्रसन्न नहीं होते सच्चे महात्मा हर्ष शोक, दुःख-सुख और मान-अपमान सबको समान समझते हैं ।

योगेश्वर कृष्ण ने "गीता" के दुसरे अध्याय में कहा है -
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते।।

जो दुःख के समय दुखी नहीं होता; जो राग, भय और क्रोध से रहित है, वह "स्थितप्रज्ञ" मुनि है।
बुद्धिमान को किसी बात की परवाह न करनी चाहिए । हाथी की तरह रहना चाहिए । हाथी के पीछे हज़ारों कुत्ते भौंकते हैं, पर वह उनकी तरफ देखता भी नहीं ।

महात्मा कबीरदास जी कहते हैं -
हस्ती चढ़िये ज्ञान के, सहज हुलीचा डारि।
श्वान-रूप संसार है, भूसनदे झकमारि।।

"कबिरा" काहे को डरै, सिर पर सिरजनहार?

हस्ती चढ़ दुरिये नहीं, कूकर भूसे हज़ार।

महाकवि रहीम कहते हैं -
जो बड़ेन को लघु कहौ, नहिं "रहीम" घट जाहिं।
गिरिधर मुरलीधर कहे, कछु दुख मानत नाहिं।।

सज्जन चित्त कबहुँ न धरत, दुर्जन जान के बोल।

पाहन मारे आम को, तउ फल देत अमोल।।

आप ज्ञान रुपी हाथी पर चढ़कर मस्त हो जाओ; किसी की परवा मत करो; बकनेवालों को बकने दो । यह संसार कुत्ते की तरह है । इसे भौंकने दो । झकमार कर आप ही रह जायेगा । देखते हो, जब हाथी निकलता है, सैकड़ों कुत्ते उसके पीछे पीछे भौंकते हैं; पर वह अपनी स्वाभाविक चाल से, मस्त हुआ, शान से चला जाता है - कुत्तों की तरफ नज़र उठाकर भी नहीं देखता । वह तो चला ही जाता है और कुत्ते भी झकमार के चुप हो जाते हैं । मतलब यह है कि तुम अच्छी राह पर चलो, संसार की बुरी भली बातों पर ध्यान मत दो । हाथी का अनुकरण करो ।
कबीरदास कहते हैं - अरे मनुष्य ! तू क्यों डरता है, जबकि तेरे पास तेरा बनानेवाला मौजूद है ? हाथी पर चढ़कर भागना उचित नहीं, चाहे हज़ारों कुत्ते क्यों न भौंके । मतलब यह कि तुमने जो उत्तम पथ अख्तियार किया है, लोगो के बुरा भला कहने से उसे मत त्यागो । संसारी कुत्तों से न डरो, ईश्वर तुम्हारी रक्षा करेगा ।
रहीम कवी कहते हैं, बड़ो को छोटा कहने से बड़े छोटे नहीं हो जाते - वे तो बड़े ही रहते हैं । गिरिराज या गोवर्धन पर्वत को अपनी छोटी ऊँगली पर उठानेवाले - अतुल पराक्रम दिखनेवाले कृष्ण को लोग गिरिधर की जगह मुरली या बांस की बांसुरी धारण करनेवाले मुरलीधर कहते हैं, लेकिन वे बुरा नहीं मानते ।
सज्जन लोग दुष्टों की कड़वी बातों या बोली-ठोलियों का ख्याल ही नहीं करते । लोग आम के वृक्ष के पत्थर मारते हैं, तो भी वह अनमोल फल ही देता है ।

दोहा
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विप्र शूद्र योगी तपी, सुपच कहत कर ठोक।
सबकी बातें सुनत हों, मोको हर्ष न शोक।।

सखे धन्याः केचित्त्रुटितभवबन्धव्यतिकरा

वनान्ते चिन्तान्तर्विषमविषयाशीविषगताः।
शरच्चन्द्रज्योत्स्नाधवलगगना भोगसुभगां 
नयन्ते ये रात्रिं सुकृतचयचित्तैकशरणाः।। ५७ ।। 

अर्थ:

हे मित्र ! वे पुरुष धन्य हैं, जो शरद के चन्द्रमा की चांदनी से सफ़ेद हुए आकाशमण्डल से सुन्दर और मनोहर रात को वन में बिताते हैं, जिन्होंने संसार बन्धन को काट दिया है, जिनके अन्तः-करण से भयानक सर्प-रुपी विषय निकल गए हैं और जो सुकर्मों को ही अपना रक्षक समझते हैं ।

वही लोग सुखी हैं, वे ही लोग धन्य हैं, जो शरद की चांदनी की मनोहर रात में वन में बैठे हुए परमात्मा का भजन करते हैं, जिन्होंने संसार के जञ्जालों को काट दिया है, जिन्होंने आशा, तृष्णा और राग-द्वेष प्रभृति क्या त्याग दिया है, जिनके भीतरी दिल से विषय रुपी विषैले सर्प भाग गए हैं; यानी जिन्होंने विषयों को विष की तरह दूर कर दिया है, जिनका चित्त केवल पुण्य और परोपकार में ही लगा रहता है ।
हमें संसार की प्रत्येक चीज़ से परोपकार की शिक्षा मिलती है । वृक्ष स्वयं फल नहीं खाते, नदियां आप जल नहीं पीती, सूरज और चाँद अपने लिए नहीं घुमते, बादल अपने लिए मेह नहीं बरसाते - ये सब पराये लिए कष्ट करते हैं । हातिम और विक्रम ने पराये लिए नाना कष्ट उठाये, दधीचि और शिवि ने परोपकार के लिए अपने अपने शरीर भी दे दिए , हरिश्चन्द्र ने पराये लिए घोर दुःसह विपत्ति भोगी । जिनका जीवन परोपकार में बीतता है, उन्ही का जीवन धन्य है ।

शेख सादी ने "गुलिस्तां" में कहा है -
चूं इन्सारा न बाशद फ़ज़लो एहसाँ।
चे फ़र्क़ज़ आदमी ता नक़श दीवार।।

यदि मनुष्य में परोपकार करने की इच्छा ही नहीं है, तो उसमें और दीवार पर खींचे हुए चित्र में क्या फर्क है ?
जिससे प्राणी मात्रा का भला हो, वही मनुष्य धन्य है । उसी की माँ का पुत्र जानना सार्थक है ।

"रहीम" कवी कहते हैं -
बड़े दीन को दुख सुने, देत दया उर आनि।
हरि हाथी सों कब हती, कहु "रहीम" पहिचानि ?
धनि "रहीम" जल पंक को, लघु जिय पियत अघाय।
उदधि बड़ाई कौन है, जगत पियासो जाय? ।।

बड़े लोग दीन और दरिद्रों, निरन्न और दुखियों एवं म्लान और भीतों यानि ख़ौफ़ज़दों की बातें सुनते हैं, उनकी दुख-गाथाओं पर कान देते हैं; फिर ह्रदय में तरस खाकर - दया करके उन्हें कुछ देते और उनका दुख दूर करते हैं । वे इस बात को नहीं देखते कि यह हमारी पहचान का है कि नहीं; यह हमारा अपना आदमी है या गैर है । देखिये, हाथी और भगवान् की पहचान नहीं थी । फिर भी ज्योंही भगवान् को खबर मिली कि गजराज का पैर मगर ने पकड़ लिया है, अब गज का जीवन शेष होना चाहता है, उसने खूब ज़ोर मार लिया है, उसे अपने बचने की ज़रा भी आशा नहीं, इसलिए अब वह तुझे पुकार रहा है; त्योंही, जान-पहचान न होने पर भी भगवान् जल्दी के मारे नंगे पैरों भागे और हाथी की जान बचायी । गज और ग्राह की बात मशहूर है ।

मतलब यह है कि जिससे दूसरों की भलाई हो, दूसरों का दुःख दूर हो वही बड़ा है । वह बड़ा - बड़ा नहीं जिससे दूसरों का उपकार न हो । जो दीनों पर दया करते हैं, दीनों की पालना और रक्षा करते हैं, दीनों के दुःख दूर करते हैं, वे ही बड़े कहलाने योग्य हैं । भगवान् में ये गुण पूर्ण रूप से हैं; इसी से उन्हें दीनदयालु, दीनबन्धु, दीननाथ, दीनवत्सल, दीनपालक और दीनरक्षक आदि कहते हैं । मनुष्य को भगवान् ने अपने जैसा ही बनाया है, वे चाहते हैं कि मनुष्य मेरा अनुकरण करे; दीन दुखियों के दुःख दूर करे, संकट में उनकी सहायता करे, मुसीबत में उन्हें मदद दे । जो मनुष्य ऐसा करते हैं, उन्हें भी संसार दीनबन्धु आदि पदवियाँ देता है और सबसे बड़े दीनबन्धु उससे प्रसन्न होकर, उसकी साड़ी कल्पनाओं को मिटा देते हैं ।
रहीम कवी कहते हैं - कीचड का पानी धन्य है, जिसे छोटे छोटे जीव - कीड़े-मकोड़े धापकर पीते हैं । समुद्र चाहे जितना बड़ा है, पर उसमें तारीफ की कोई बात नहीं, क्योंकि उसके पास जाकर किसी की प्यास नहीं बुझती; जो भी जाता है उसके पास से प्यासा ही लौटता है ।

दोहा
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ते नर जग में धन्य हैं, शरदर्शुभ्र निशि मांहि।
तोड़े बन्धन जगत के, मनते विषयन काहि।।

सोरठा 
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विषय-सर्प को मारि, चित्त लगाय शुभ कर्म में।
पुण्यकर्म शुभधारि, त्यागे सब मन-वासना।।


तस्माद्विरमेन्द्रियार्थ गहनादायासदादाशु च

श्रेयोमार्गमशेषदुःखशमनव्यापारदक्षं क्षणाम्।
शान्तिं भावमुपैहि संत्यज निजां कल्लोललोलां मतिं
मा भूयो भज भङ्गुरां भवरतिं चेतः प्रसीदाधुना।। ५८ ।।

अर्थ:

हे चित्त ! अब विश्राम ले, इन्द्रियों के सुख सम्पादन के लिए विषयों की खोज में कठोर परिश्रम न कर; आन्तरिक शान्ति की चेष्टा कर, जिससे कल्याण हो और दुःखों का नाश हो; तरंग के समान चञ्चल चाल को छोड़ दे; संसारी पदार्थों में और सुख न मान; क्योंकि ये असार और नाशमान हैं । बहुत कहना व्यर्थ है, अब तू अपने आत्मा में ही सुख मान ।
अरे दिल ! अब तू इन्द्रियों के लिए विषय-सुखों की खोज में मत भरम, उनके लिए तकलीफ न उठा, शान्त हो जा; उनमें कुछ भी सुख नहीं है, वे तो विष से भी बुरे और काले नाग से भी भयङ्कर हैं । अरे ! अब तो मेरा कहना मान और अपनी चालों को छोड़ । देख तेरे सर पर काल मण्डरा रहा है । वह एक ही बार में तुझे निगल जायेगा । अरे भैय्या, ये इन्द्रियां बड़ी ख़राब हैं, इनमें दया-मया नहीं, यह शैतान की तरह कुराह पर ले जाती हैं । तू इनसे सावधान रह और इनके भुलावे में न आ । अब शान्त हो और कष्ट सहना सीख । अपनी चञ्चल चाल छोड़, जगत को असार और स्वप्नवत समझ । इस जञ्जाल से अलग हो । बारम्बार इसी की इच्छा न कर । अपनी आत्मा में ही मग्न हो । इस तरह अवश्य तेरा कल्याण होगा ।
कल्याण कैसा? जब तू ज्योति-स्वरुप आत्मा को देख लेगा, तब तू उसी में संतुष्ट रहेगा, उससे कभी न डिगेगा, उसके आगे सब लाभ तुझे हेय जंचेंगे । योगेश्वर कृष्ण ने ऐसी ही बात गीता के छठे अध्याय में कही है । उस सुख को सब नहीं जान सकते, जो अनुभव करता है वही जानता है । उसे कोई कह कर बता नहीं सकता ।

कबीरदास कहते हैं -
ज्यों नर नारी के स्वाद को, खसी नहीं पहचान ।
त्यों ज्ञानी के सुख को, अज्ञानी नहीं जान ।।

स्त्री-पुरुष के सुख को जैसे हिजड़ा नहीं जान सकता, वैसे ही ज्ञानी के सुख को अज्ञानी नहीं जान सकता ।

छप्पय
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अरे चित्त ! कर कृपा, त्याग तू अपनी चालहि।
शिर पर नाचत खड़्यौ, जान तू ऐसे कालहि ।
ये इन्द्रियगण निठुर, मान मत इनको कहिबौ ।
शांतभाव कर ग्रहण, सीख कठिनाई सहिबौ ।
निजमति तरंग-सम चपल तजि, नाशवान जग जानिये ।
जनि करहु तासु इच्छा कछु, शिव-स्वरुप उर आनिये ।।


पुण्यैर्मूलफलैः प्रिये प्रणयिनि प्रीतिं कुरुष्वाधुना
भूशय्या नववल्कलैरकर्णैरुत्तिष्ठ यामो वनं।
क्षुद्राणांविवेकमूढमनसां यत्रेश्वराणाम् सदा
चित्तव्याध्यविवेकविल्हलगिरां नामापि न श्रूयते।। ५९ ।।

अर्थ:

ऐ प्यारी बुद्धि ! अब तू पवित्र फल-मूलों से अपनी गुज़र कर; बानी बनाई भूमि-शय्या और वृक्षों की छाल के वस्त्रों से अपना निर्वाह कर । उठ, हम तो वन को जाते हैं । वहां उन मूर्ख और तंगदिल अमीरों का नाम भी नहीं सुनाई देता, जिन की ज़बान, धन की बीमारी के कारण उनके वश में नहीं है ।
जिन धनवानों की ज़बान में लगाम नहीं है, जो अपनी धन की बीमारी के कारण मुंह से चाहे जो निकाल बैठते हैं, ऐसे मदान्ध और नीच धनी जंगलों में नहीं रहते, इसलिए बुद्धिमानो को वह चला जाना चाहिए । वहां कहे का अभाव है ? खाने को फलमूल हैं, पीने को शीतल जल है, रहने को वृक्षों की शीतल छाया है और सोने को पृथ्वी है । वह दुःख नहीं है, अशान्ति नहीं है; किन्तु और सभी जीवनधारणोपयोगी पदार्थ हैं ।
जो आशा को त्याग देंगे, वह तो धनियों के दास होंगे ही क्यों ? पर धनियों को भी इतराना न चाहिए । यह धन सदा उनके पास न रहेगा । इसे वे अपने साथ न ले जायेंगे । सम्भव है, यह उनके सामने ही विलाय जाय । फिर ऐसे चञ्चल धन पर अभिमान किसलिए ?
किसी ने कहा है -
कितने मुफ़लिस हो गए, कितने तवंगर हो गए।
ख़ाक में जब मिल गए, दोनों बराबर हो गए।।

धनी और निर्धन का भेद तभी तक है, जब तक कि मनुष्य ज़िंदा है; मरने पर सभी बराबर हो जाते हैं ।

गिरिधर कवी कहते हैं -

कुण्डलिया
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दौलत पाय न कीजिये, सपने में अभिमान।
चञ्चल जल दिन चारिकौ, ठाउँ न रहत निदान।।
ठाउँ न रहत निदान, जियत जग यश लीजै।
मीठे वचन सुनाय, विनय सब ही की कीजै।।
कह गिरधर कविराय, अरे यह सब घट तौलत।
पाहुन निशिदिन चारि, रहत सब हीके दौलत।।

धनवान होकर सपने में भी घमंड न करना चाहिए । जिस तरह चञ्चल जल चार दिन ठहरता है, फिर अपने स्थान से चला जाता है; उसी तरह धन भी चार दिन का मेहमान होता है, सदा किसी के पास नहीं रहता । ऐसे चञ्चल, ऐसे अस्थिर और चन्दरोजा धन के नशे से मतवाले होकर ज़बान को बेलगाम न रखना चाहिए और सभी के साथ शिष्टाचार दिखाना और नम्रता का बर्ताव करना चाहिए । जब तक देह में प्राण रहे, जब तक ज़िन्दगी रहे, यश कमाना चाहिए; बदनामी से बचना चाहिए । अपनी ज़ुबान से किसी को कड़वी और बुरी लगनेवाली बात न कहनी चाहिए । ज़बान का ज़ख्म तीर के ज़ख्म से भी भारी होता है । तीर का ज़ख्म मिट जाता है, पर ज़बान का ज़ख्म नहीं मिटता । इस जगत में जो जैसा करता है, वह वैसा ही पाता है । जो जौ बोता है वह जौ काटता है; और जो गेंहू बोता है वो गेंहू काटता है; जो दूसरों का दिल दुखाता है, उसका दिल भी दुखाया जायेगा; जो जैसी कहेगा, वह वैसी सुनेगा ।

उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है -
बद न बोले ज़ेर गर्दू, गर कोई मेरी सुने।
है यह गुम्बद की सदा, जैसी कहे वैसी सुने।।

आसमान के नीचे किसी को बुरी बात ज़बान से न निकालनी चाहिए । यह तो मठ के अन्दर की आवाज़ है, जैसी कहोगे उसको प्रतिध्वनि रूप में वैसी सुनोगे ।

और भी एक कवी ने कहा है -
ऐसी बानी बोलिये मन का आपा खोये।
औरन को शीतल करे, आपौ शीतल होय।।

अभिमान त्यागकर ऐसी बात कहनी चाहिए, जिससे औरों के दिल ठण्डे हों और अपने दिल में भी ठण्डक हो ।

तुलसीदास जी ने कहा है -
ज्ञान गरीबी गुण धरम, नरम बचन निरमोष।
तुलसी कबहुँ न छाँड़िये, शील सत्य सन्तोष।।

नित्य-अनित्य के विचार का ज्ञान, यौवन और धनादि के घमण्ड का त्याग, सतोगुण, प्रभु में निश्छल प्रीती का धर्म, मीठे और नर्म वचन, निराभिमानता, शील, सत्य और सन्तोष, इनको कभी न छोड़ना चाहिए । अज्ञानता, घमण्ड, रजोगुण, तमोगुण, अधर्म, कड़वे वचन, मान, कुशीलता, झूठ और असन्तोष - इनको छोड़ देना चाहिए ।

दोहा
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बकल बसन फल असन कर, करिहौं बन विश्राम। 
जित अविवेकी नरन को, सुनियत नाहीं नाम।।


मोहं मार्जयतामुपार्जय रतिं चन्द्रार्धचूडामणौ
चेतः स्वर्गतरङ्गिणीतटभुवामासङ्गमङ्गीकुरु ।
को वा वीचिषु बुद्बुदेषु च तडिल्लेखासु च स्त्रीषु च
ज्वालाग्रेषु च पन्नगेषु च सरिद्वेगेषु च प्रत्ययः।। ६० ।।

अर्थ:

ऐ चित्त ! तू मोह छोड़कर शिर पर अर्धचन्द्र धारण करनेवाले भगवान् शिव से प्रीति कर और गंगा किनारे के वृक्षों के नीचे विश्राम ले । देख ! पानी की लहार, पानी के बबूले, बिजली की चमक, आग की लौ, स्त्री, सर्प और नदी के प्रवाह की स्थिरता का कोई विश्वास नहीं; क्योंकि ये सातों चञ्चल हैं ।

मनुष्यों ! आप लोग मोह निद्रा में पड़े हुए क्यों अपनी दुर्लभ मनुष्य-देह को वृथा गँवा रहे हैं ? आपको यह देह इसलिए नहीं मिली है कि, आप इस झूठे संसार से मोह कर, स्त्री पुरुष और धन-दौलत में भूले रहे; बल्कि इसलिए मिली है कि आप इस देह से दुर्लभ मोक्ष पद की प्राप्ति करें । पर संसार की गति ही ऐसी है कि वह अच्छे कामों को त्याग कर बुरे काम करता है । वजह यह है कि मोहान्ध अज्ञानी पुरुष को अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं ।
जो नारी, नरक-कूप के समान गन्दगी से भरी है, जो सब तरह से अपवित्र और घृणयोग्य है, जिसमें प्रीति का नामोनिशान भी नहीं है, जो केवल अपने स्वार्थ से पुरुष को प्यार करती है, पति के निर्धन या कर्जदार होते ही उससे प्रीति कम कर देती या त्याग देती है, जो क्षण भर में परायी हो जाती है, उसी नारी को पुरुष अपनी प्राण-वल्लभा कहता और उसके लिए अपनी सारी सुख-शान्ति को तिलाञ्जलि देकर मरने तक को तैयार हो जाता है । क्या यह अज्ञानता नहीं है ?
कवियों ने मोहवश स्त्री के अंगों की बड़ी लम्बी चौड़ी तारीफ की है । उसके दोनों स्तनों को किसी ने अनारों, किसी ने संतरों अथवा दो सोने के कलशों की उपमा दी है; पर वास्तव में वे मांस के लौंदे हैं । उनकी जांघो की केले के खम्भों से उपमा दी है, पर वे महागंदी हैं; उन पर हर समय मूत्र या सफेदा बहता रहता है । उसकी आँखों की उपमा हिरणी के बच्चे की आँखों से दी है, पर वे सर्प से भी भयानक हैं; क्योंकि सर्प के काटने से मनुष्य बेहोश होता और मरता है, पर स्त्री के तो देखने मात्र से ही वह पागल सा होकर मर-मिटता है । वास्तव में स्त्री सर्प से भी बुरी है । सर्प का काटा एक बार ही मरता है, पर स्त्री का काटा बार बार मरता और जन्म लेता है । जिस तरह कदली वन का हाथी कागज़ की हथिनी को देख उसकी इच्छा करता और शिकारियोजन के जाल में फंस कर, बन्धन में बंध नाना प्रकार के दुःख झेलता है; उसी तरह जो पुरुष स्त्री की इच्छा करता है, वह बन्धन में बँधता और नाश होता है । स्त्री संसार वृक्ष का बीज है, अतः स्त्री कामी पुरुष का इस संसार से पीछा नहीं छोटा । वह इस दुनिया में आकर, स्त्री के कारण, नाना प्रकार के दुःख भोगता, चिंताग्नि में दिन-रात जलता और अंत में मरकर ममता और वासना के कारण फिर जन्म लेता और दुःख भोगता है ।
स्त्री, कामी पुरुष को ज़रा से लालच से अपना दास बना लेती है । कामी पुरुष स्त्री के इशारे पर उसी तरह नाचता है, जिस तरह बन्दर मदारी के इशारे पर नाचता है । वह रात-दिन उसे खुश करने की कोशिशों में लगा रहता है, घर-बाहर, सोते-जागते उसी की चिन्ता करता है, उसी के लिए धन-गर्वित धनियों की खुशामदें करता, उनकी टेढ़ी-सूधी सुनता और आत्मप्रतिष्ठा खोता है । इतने पर भी स्त्री की फरमाइशें पूरी नहीं होती । आज वह गहना मांगती है, तो कल कपडे मांगती है और परसों पुत्र या कन्या के विवाह की बात करती है । कभी कहती है, आज आटा नहीं है, कभी कहती है , आज घर में तेल-नोन नहीं है, इसी तरह उसकी फरमाइशों का अन्त नहीं आता, पर बेचारे पुरुष का अन्त आ जाता है । स्त्री की सेवा चाकरी से उसे इतनी भी फुर्सत नहीं मिलती कि वह क्षणभर भी अपने बनाने वाले स्वामी को पदवन्दना कर सके ।
अनेक प्रकार से सेवा-टहल करने पर भी यदि पुरुष से कोई फरमाइश पूरी नहीं होती, तो वह बाघिन की तरह घुर्राती है । दैवात् यदि पुरुष निर्धन हो जाता है या उसके सिर पर ऋणभार हो जाता है, तो वही सात फेरों की ब्याही स्त्री उसका अनादर और उसकी मरण-कामना करती है । क्योंकि इस जगत में धन की ही कीमत है, मनुष्य की कीमत नहीं । कहते हैं, निर्धन मनुष्य को वेश्या तज देती है । वेश्या का तो नाम प्रसिद्ध है ही; पर वेद विधि से ब्याही हुई स्त्री भी अपने पति को तज देती है । धनहीन को माता-पिता, भाई-बहन, भौजाई, नौकर-चाकर एवं अन्य रिश्तेदार सभी बुरी नज़र से देखते और त्याग देते हैं । संसार का अर्थ - धन के वश में है । जिसके पास धन नहीं, उसका कोई नहीं ।

कहा है -
माता निन्दति नाभिनन्दति पिता भ्राता न सम्भाषते
भृत्यः कुप्यति नानुगच्छति सुतः कान्ता च नालगते।
अर्थप्रार्थनशंकया न कुरुतेऽप्यालापमात्रं सुहृत 
तस्मादर्थमुपार्जयस्व च सखे ! ह्यर्थस्यसर्वेवशाः।।

माता निर्धन पुत्र की निन्दा करती है, बाप आदर नहीं करता, भाई बात नहीं करता, चाकर क्रोध करता है, पुत्र आज्ञा नहीं मानता, स्त्री आलिंगन नहीं करती और धन मांगने के डर से कोई मित्र बात नहीं करता; इसलिए मित्र धन कमाओ, क्योंकि सभी धन के वश में हैं ।

"आत्मपुराण" में कहा है -
दरिद्रं पुरुषं दृष्ट्वा नार्यः कामातुरा अपि।
स्प्रष्टुं नेच्छन्ति कुणपं यद्वच्चकृमिदूषितं।।

स्त्रियां काम से आतुर होने पर भी, दरिद्री पति को छूना पसन्द नहीं करती; जिस तरह कीड़ों से दूषित मुर्दे को कोई छूना नहीं चाहता ।
स्पष्ट हो गया कि स्त्री ऊपर से ही सुन्दर है, भीतर से वह महागंदी और पाषाणवत् कठोरहृदय है; जिस समय इसमें निर्दयता आती है, उस समय यह अपने क्रीतदास की तरह सेवा करनेवाले पति और अपने उदर से निकले हुए पुत्र के ऊपर भी दया नहीं करती । अपने स्वार्थ के लिए यह उनकी भी हत्या कर डालती और नरक की राह दिखाती है; अतः स्त्री के मोह में फंसना, अपने नाश का सामान करना है । जिस तरह पतंग दीपक के रूप पर मोहित होकर अपना नाश करता है; उसी तरह कामी भी स्त्री के रूप पर मुग्ध होकर अपने लोक-परलोक गंवाता है - इस जन्म में घोर चिंताग्नि में जलता और मरने पर नरकाग्नि में भस्म होता और तड़पता है ।
वास्तव में स्त्री-पुत्रादि शत्रु हैं, पर पुरुष अज्ञानता से इन्हे अपना मित्र समझता है । महात्मा शंकराचार्य ने अपनी प्रश्नोत्तर माला में लिखा है - "स्त्री-पुत्र देखने में मित्र मालूम होते हैं, पर असल में वे शत्रु हैं ।


एक वैश्य और उसके पुत्र
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एक वैश्य ने लाखों-करोड़ों रुपये कमाए और अपने धन में से चार-चार लाख रुपये अपने पुत्रों को देकर, उनकी अलग-अलग दुकाने करवा दीं । शेष धन उसने दीवारों में चुनवा दिया । चंद रोज़ के बाद वह सख्त बीमार हो गया । उसे सन्निपात हो गया और वह आन-तान बकने लगा । लोगों ने उसका अन्त समय समझ उससे कहा -"सेठ जी ! बहुत धन कमाया है, इस समय कुछ पुण्य कीजिये, क्योंकि इस समय धर्म ही साथ जायेगा; स्त्री पुत्र, धन प्रभृति साथ न जाएंगे।" वैश्य का गला बन्द हो गया था, अतः वो बोल न सकता था । उसने बारम्बार दीवारों की तरफ हाथ किये । इशारों से बताया कि इन दीवारों में धन गड़ा है, उसे निकालकर पुण्य कर दो । पुत्र, पिता का मतलब समझकर बोले - " पिताजी कहते हैं, जो धन था, सो तो इन दीवारों में लगा दिया, अब और धन कहाँ है ? " लोगों ने लड़कों की बात मान ली । वैश्य अपने पुत्रों की बेईमानी देखकर बहुत रोया, पर बोल न सकता था, इसलिए छटपटा छटपटा कर मर गया । लड़कों ने उसे शमशान ले जाकर जला दिया । वैश्य के मन की मन में ही रह गयी । इससे बढ़कर पुत्रों की शत्रुता क्या होगी ?
जो लोग सैकड़ों प्रकार के अनर्थ और बेईमानी से पराया धन हड़प कर अथवा और तरह से दुनिया का गला काटकर लाखों-करोड़ों अपने पुत्र-पौत्रों को छोड़ जाते हैं, वे इस कहानी से शिक्षा ग्रहण करें और पुत्रों का झूठा मोह त्यागें । इस जगत में न कोई किसी का पुत्र है न पिता । माता-पिता, भाई-बहन, स्त्री-पुत्र सभी एक लम्बी यात्रा के यात्री हैं । यह मृत्युलोक उस यात्रा के बीच का मुकाम है । इस मुकाम पर आकर सब इकट्ठे हो गए हैं । कोई किसी से सच्ची प्रीति नहीं रखता । सभी स्वार्थ की रस्सी से एक-दुसरे से बंधे हुए हैं । जब जिसके चलने का समय आ जाता है, तब वही निर्मोही की तरह सब को छोड़ के चल देता है । जो लोग उस चले जाने वाले या मर जाने वाले के लिए प्राण न्यौछावर करते थे, उसके लिए मरने तक को तैयार रहते थे, उनमें से कोई उसके साथ पौली तक जाता है और कोई उसे श्मशान भूमि तक पहुंचकर और जला-बलाकर  ख़ाक कर आता है । ऐसे नातेदारों से अनुराग करना - उनमें ममता रखना बड़ी ही गलती है ।

कहा है -
"परलोक की राह में जीव अकेला जाता है; केवल धर्म उसके साथ जाता है । धन, धरती, पशु और स्त्री घर में रह जाते हैं । लोग श्मशान तक जाते हैं और देह चिता तक साथ रहती है ।"

बहुत लोग यह समझते हैं कि पुत्र बिना गति नहीं होती; पुत्रहीन पुरुष नरक में जाता है और पुत्रवान स्वर्ग में जाता है । जो लोग ऐसा समझते हैं; वह बड़ी भूल करते हैं । पुत्रों से किसी की भी गति न हुई है और न होगी; सब की गति अपने ही पुरुषार्थ से होती है । अगर पुत्रों से स्वर्ग या मोक्ष की प्राप्ति होती, तो कोई विरला ही नरक में जाता । जो जैसा करता है, उसे वैसा ही फल भोगना होता है । ब्रह्मह्त्या, स्त्रीहत्या, भ्रूणहत्या, परस्त्रीगमन और परधन हरण प्रभृति पापों का फल कर्ता को भोगना ही होता है । जो ऐसा समझते हैं कि ऐसे पाप करने पर भी पुत्र-पौत्रों के होने से, हम दण्ड से बच जाएंगे, वे बड़े ही मूर्ख हैं । ज्ञानी लोग तो संसार बन्धन से छूटने के लिए अपने पुत्रों का भी त्याग कर देते हैं ।


एक ब्राह्मण और उसका अन्धा पुत्र
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किसी नगर में एक ब्राह्मण रहता था । उसके पुत्र नहीं हुआ था, इसलिए उसने गंगाजी की उपासना की । अन्त में बूढी अवस्था में, उसके एक अन्धा पुत्र हुआ । ब्राह्मण उस अन्धे पुत्र को पाकर बड़ा ही प्रसन्न हुआ । उसने खूब उत्सव और भोज प्रभृति किये । इसके बाद जब वह पुत्र पांच
 बरस का हुआ, ब्राह्मण ने उसका यज्ञोपवीत संस्कार कराकर, उसे विद्या पढ़ना आरम्भ किया । चन्दरोज में वह अन्धा पूर्ण पण्डित हो गया ।
एक दिन पिता-पुत्र बैठे थे । पुत्र ने पिता से पूछा - "पिताजी ! मनुष्य अन्धा किस पाप से होता है ?" पिता ने उत्तर दिया - "पुत्र ! जो पूर्व जन्म में रत्नो की चोरी करता है, वह अन्धा होता है।" पुत्र ने कहा - "पिताजी ! यह बात नहीं है । कारण के गुण कार्य में भी आ जाते हैं । आप अन्धे हैं, इसी से मैं भी अन्धा हुआ हूँ । पिता ने क्रोध में भरकर कहा, " नालायक, मैं अन्धा कैसे ?" पुत्र ने कहा - "पिताजी ! गंगा माता साक्षात् मुक्ति देने वाली हैं । आपने उनकी उपासना पुत्र की कामना से की; इसी से मैं आपको अन्धा समझता हूँ ।  जो वेद-शास्त्र पढ़कर भी पेशाब के कीड़े की इच्छा करता है, वह अन्धा नहीं तो क्या सूझता है ? पेशाब से जैसे अनेक अनेक प्रकार के कीड़े पैदा होते हैं, वैसे ही पुत्र भी उसका एक कीड़ा ही है । आपने जिस पुत्र के लिए गंगाजी की इतनी तपस्या की, वह पुत्र तो कुत्ते-बिल्ली और सूअर प्रभृति पशुओं के अनायास ही हो जाते हैं । पुत्र जैसे मूत्र के कीड़े से किसी को भी स्वर्ग या मोक्ष लाभ नहीं हो सकता; पिताजी ! न कोई किसी का पुत्र है न स्त्री प्रभृति; सब एक ही हैं क्यंकि सब में एक ही आत्मा है । वही आत्मा पिता में है, वही पुत्र में और स्त्री में । जिस तरह मरुभूमि में भ्रम से जल दीखता है, पर वास्तव में वहां जल का नाम-निशान भी नहीं है; उसी तरह भ्रम से यह जगत सच्चा दीखता है, पर वास्तव में कुछ भी नहीं । यह मेरा पुत्र है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरा धन है, यह मेरा मकान है - ऐसा वासना से दीखता है । वासना से ही जीव संसार बन्धन में बँधता है; यानी वासना से ही शरीर धारण करता है । वासना से ही मनुष्य अज्ञानी बना रहता है । वासना का त्याग करते ही मनुष्य, ज्ञान-लाभ करके, परमानन्द की प्राप्ति करता है । ज्ञानी सच्चिदानंद रूप ब्रह्म को ज्ञान की आँखों से देखता है, पर अज्ञानी उसे नहीं देख सकता । जैसे अन्धे को सूर्य नहीं दीखता, उसी तरह अज्ञानी को ब्रह्म नहीं दीखता; इसी से अज्ञानी को बाहर की आँखें होने पर भी अन्धा कहते हैं । आप भेद-बुद्धि को त्यागकर, सबमें एक आत्मा को देखो । आत्मज्ञानी होने से ही आपको नित्य सुख मिलेगा।"
पिता, पुत्र के अगाध ज्ञान और पाण्डित्य को देख एकदम चकित हो गया और कहने लगा - "पुत्र ! मैंने चार वेद, छहों शास्त्र, उपनिषद, स्मृति और पुराण प्रभृति पढ़कर कुछ भी लाभ न किया; तेरी बातों से मेरी आँखें खुल गयी।"

संसार को मिथ्या समझकर ही कोई ज्ञानी कहता है -
"हे मन ! तू स्त्री के प्रेम में मत भूल; यह बिजली की चमक, नदी के प्रवाह और नदी की तरंग प्रभृति की तरह चञ्चल है । स्त्री के प्रेम का कोई ठिकाना नहीं; आज यह तेरी है, कल पराई है । एक करवट बदलने में स्त्री पराई हो जाती है । इसकी झूठी प्रीति में कोई लाभ नहीं ।

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -
उरग तुरग नारी नृपति, नर नीचे हथियार।
तुलसी परखत रहब नित, इनहिं न पलटत बार।।

सर्प, घोडा, स्त्री, राजा, नीच पुरुष और हथियार - इनको सदा परखते रहना चाहिए, इनसे कभी गाफिल न रहना चाहिए, क्योंकि इन्हें पलटते देर नहीं लगती ।

हे मन ! यदि तुझे प्रीति ही करनी है, तो उठ गंगा के किनारे वृक्षों के नीचे चल बैठ और आशुतोष भगवान् चन्द्रशेखर - शिवजी से प्रीति कर । उनकी प्रीति सच्ची और कल्याणकारी है ।

गोस्वामी जी ने और भी कहा है -
कै ममता करु रामपद, कै ममता करु हेल।
"तुलसी" दो मँह एक अब, खेल छाँड़ि छल खेल।।
सम्मुख ह्वै रघुनाथ के, देइ सकल जग पीठि।
तजै केंचुरी उरग कहँ, होत अधिक अति दीठि।।

या तो भगवान् के चरणों में ममता कर अथवा देह के सब नातों को त्यागकर उदासीन हो जा और कर्म ज्ञानादि साधन करके मन को शुद्ध कर ले । जब तेरा मन शुद्ध हो जाएगा, तब भगवान् के चरणों में आप ही स्नेह हो जाएगा । इन दोनों बातों में से जो एक बात तुझे पसन्द हो, उसे छल छोड़ कर दिल से कर; एक खेल खेल । सारांश यह, कि भगवान् में सहज स्नेह कर । अगर तेरा मन प्रभु की भक्ति में नहीं जमता तो स्त्री-पुत्र आदि संसारी भोगों से मन हटाकर प्रभु की भक्ति की चेष्टा कर ।
जब भगवान् में तेरा मन लग जाए, तब संसार की तरफ से मुंह फेर ले - संसार को पीठ दे दे, जिससे तेरे मन में लोक-वासना न आने पावे; क्योंकि वासना से ह्रदय की दृष्टी मैली हो जाती है । सांप का भीतरी चमड़ा जब मोटा हो जाता है, तब उसे आँखों से साफ़ नहीं दीखता, लेकिन जब वह कांचली छोड़ देता है, तब उसकी आँखों का पटल उतर जाता है; आँखों के साफ़ हो जाने से सांप को खूब साफ़ दिखने लगता है । जिस तरह कांचली त्यागने से सर्प की दृष्टी साफ़ हो जाती है; उसी तरह वासना त्याग देने से ईश्वर के भक्तो की ह्रदय-दृष्टी साफ़ रहती और उन्हें भगवान् के दर्शन होते रहते हैं ।

छप्पय
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मोह छाँड़ मन-मीत ! प्रीति सों चन्द्रचूड़ भज !
सुर-सरिता के तीर, धीर धार दृढ़ आसन सज !!
शम दम भोग-विराग, त्याग-तप को - तू अनुसरि।
वृथा विषय-बकवाद, स्वाद सबहि - तू परिहरि।।
थिर नहि तरंग, बुदबुद, तड़ित, अगिन-शिखा , पन्नग, सरित।
त्योंही तन जोवन धन अथिर, चल दलदल कैसे चरित ।।

शम - इन्द्रिय-निग्रह
दम - बाहरी इन्द्रियों का निग्रह
परिहरि - त्याग
पन्नग - सर्प


अग्रे गीतं सरसकवयः पार्श्वतो दाक्षिणात्याः
पृष्ठे लीलावलयरणितं चामरग्राहिणीनाम् ।
यद्यस्त्येवं कुरु भवरसास्वादने लम्पटस्त्वं नो 
चेच्चेतः प्रविश सहसा निर्विकल्पे समाधौ।। ६१ ।।

अर्थ:

हे मन ! तेरे सामने चतुर गवैये गाते हों, दाहिने-बाएं दक्खन देश के उत्तम कवी सरस काव्य सुनाते हों, तेरे पीछे चंवर ढोलने वाली सुंदरी स्त्रियों के कंकणों की मधुर झनकार होती हो, यदि ऐसे सामान तुझे मयस्सर हों, तो तू संसार रसास्वादन में मग्न हो; नहीं तो सबका ध्यान छोड़, निर्विकल्प समाधि में लीन हो ।

विरमत बुधा योषित्सङ्गात्सुखात्क्षणभंगुरा-
त्कुरुत करुणामैत्रीप्रज्ञा वधूजनसंगमम्।
न खलु नर के हाराक्रान्तं घनस्तनमण्डलम्
शरणमथवा श्रोणीबिम्बम् रणन्मणिमेखलम्।। ६२ ।।

अर्थ:
हे बुद्धिमानो ! स्त्री के संग से बचो, क्योंकि उनके संग से जो सुख मिलता है, वह क्षणिक है । आप मैत्री, करुणा और बुद्धिरूपी वधू के साथ संगम करो । जिस समय नरक में सजा मिलेगी, उस समय युवतियों के हारों से शोभित स्तनद्वय और घुंघरूदार कर्धनियों से सुशोभित कमर तुम्हारी सहायता न करेंगी ।

मनुष्यों, स्त्रियों में मन मत लगाओ । उनके साथ रहने, उनके साथ संगम करने से सुख होता है; पर वह सुख नश्वर और क्षणस्थायी है । वह ऐसा सुख नहीं जो सदा रहे । परिणाम में उससे अनेक प्रकार के दुःख होते हैं । जो सुख अनित्य है, शेष में दुखों का मूल और रोगों की खान है, उस सुख को सुख समझना, बुद्धिमानो का काम नहीं । अगर आपको सङ्गंम ही करना है, तो आप सुहानुभूति, परोपकारवृत्ति एवं प्रज्ञारूपी बहू के साथ सङ्गंम कीजिये । इनके साथ सङ्गंम और प्रीति करने से आप को नित्य सुख मिलेगा; ऐसा सुख मिलेगा, जो इस लोक और परलोक में सदा स्थिर रहेगा ।

जिन लोगों ने पहले दूसरों के दुःख दूर किये हैं, जिन्होंने परोपकार के लिए जानें दी हैं, जिन्होंने ज्ञान से काम लिया है, उनका भला ही हुआ है । अगर आप स्त्री-सुख में भूले रहोगे, तो जब आपको नरक की भयंकर यातनाएं भोगनी पड़ेंगी, जब आप पर यमदूतों के डण्डे पड़ेंगे, उस समय क्या स्त्रियों के हारों से सुशोभित स्तन-मण्डल और कर्धनियों से शोभायमान पतली कमर आपकी रक्षा कर सकेंगी ? नहीं, इनसे कोई लाभ न होगा; उस समय ये आड़े न आएंगे । उस मौके पर, परोपकार करके जो पुण्य संचय किया होगा, वही आपकी रक्षा करेगा । बुद्धि से काम लोगे तो भला होगा; क्योंकि बुद्धि ही आपको नरक से बचने की राह बतावेगी; किन्तु स्त्री तो आपको सीधी नरक की राह दिखावेगी । आश्चर्य है, अज्ञानी लोग अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा समझते हैं । वे अपने सच्चे मित्रों से प्रीति नहीं करते, किन्तु झूठे और कुराह में ले जानेवालों से प्रीति करते हैं ।

महात्मा सुन्दरदास जी ने कहा है -
(१)
विषही की भूमि मांहि, विष के अङ्कुर भये।
नारी-विषवेली बढ़ी, नखशिख देखिये।।
विषही के जर मूल, विषही के डार पात।
विषही के फूल फल, लागे जु विशेखिये।।
विष के तन्तु पसार, उरझायी आंटी मार।
सब नर-वृक्ष पर, लपटेहि लेखिये।।
"सुन्दर" कहत, कोऊ सन्त-तरु बची गए।
तिनके तौ कहूं, लता लागि नहीं पेखिये।।

(२)
कामिनी को अंग, अति मलिन महा अशुद्ध।
रोम-रोम-मलिन, मलिन सब द्वार हैं।।
हाड मांस मज्जा मेद, चामसूँ लपेट राखै।
ठौर-ठौर रकत के, भरेई भण्डार हैं।।
मूत्रहु-पुरीष-आंत, एकमेक मिल रहीं।
औरहु उदर मांहि, विविध विकार हैं।।
"सुन्दर" कहत, नारी नखशिख निन्द्यरूप।
ताहि जो सराहै, सो तौ बड़ोई गंवार है।।

(३)
रसिकप्रिया रसमंजरी और श्रृंगारहि जान।
चतुराई करि बहुत विधि, विषय बनाई आन।।
विषय बनाई आन, लगत विषयिनकूँ प्यारी।
जागे मदन प्रचण्ड, सराहै नखशिख नारी।।
ज्यूँ रोगी मिष्टान्न खाई, रोगहि बिस्तारै।
"सुन्दर" ये गति होइ, जोई रसिकप्रिया धारै।।


(१)
विष की ज़मीन में विष के अङ्कुर जमे। फिर नारी रूप विषलता बढ़ी । उस लता में विष की जड़ें लगीं और विष की डालियाँ और पत्तियां आयीं । फिर उस लता में विष के ही फल और फूल लगे । उस विषलता में विष के तन्तु निकले । फिर उस विषलता ने अपने विष तन्तु फैला-फैलाकर नर-वृक्षों को उलझा लिया और खुद उनसे लिपट गयी । सुन्दरदास जी कहते हैं, उस विषलता के फन्दे में अधिकाँश नर-रुपी वृक्ष फंस गए - कोई विरले ही सन्त रुपी वृक्ष उससे अछूते बच सके । उनके ही शरीरों में यह विष लता लगी हुई न दिखाई दी ।
मतलब यह की स्त्री विष की बेल है । उसकी जड़, उसकी डालियाँ, उसकी पत्तियां, उसके फल फूल सभी विषपूर्ण हैं । सारांश यह कि स्त्री का सर्वाङ्ग विष से भरा है स्त्री का कोई भी अंग ऐसा नहीं जिसमें विष न हो । यह स्त्रीरूपी विषबेल अज्ञानी विषयी लोगों को अपने फन्दे में फंसाकर नाश कर देती है; क्योंकि विष स्वभाव से ही प्राणघाती होता है । सिर्फ वे लोग इस स्त्रीरूपी विषबेल से बचते हैं, जो ज्ञानी हैं, जो इसकी असलियत को जानते हैं, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है, जिनकी इन्द्रियां विषयों की तरफ नहीं झुकतीं । और भी खुलासा यह है, कि स्त्री विष-लता के समान है, विष लता जिस वृक्ष से लिपट जाती है, उसे सुखा-सुखाकर नष्ट कर देती है। इसी तरह स्त्री जिस विषयी पुरुष के पीछे लग जाती है अथवा जो पुरुष स्त्री के फन्दे में फंस जाता है, वह भी सब तरह से नष्ट हो जाता है । इसके सभी अंगों में विष भरा है । जिस तरह विष खाने से ज़हर चढ़ता है, उसी तरह इसकी आँख, इनके गाल, इसकी भौं, छातियां, जांघें प्रभृति किसी भी अंग के देखने और छूने से विष चढ़ जाता है । विष के चढ़ जाने से पुरुष मतवाला हो जाता है; उसके होश-हवास खता हो जाते हैं और बुद्धि मारी जाती है । बुद्धि के मारे जाने से पुरुष बिना पतवार की नाव की तरह नष्ट हो जाता है । इस लोक में नाना प्रकार के रोग और दुःख भोगकर मर जाता और परलोक में भी दुःख ही पाता है । संखिया प्रभृति विष का मारा हुआ इस लोक में दुःख पाता है, पर स्त्री-विष का मारा हुआ अनेक जन्मों में दुःख पाता है । और ज़हर खाने वाला एक ही बार मरता है; पर स्त्री-विष सेवन करने वाला बारम्बार मरता है । अतः बुद्धिमानों को इस स्त्रीरूपी विषलता से सदा दूर रहना चाहिए, ताकि इसका विष शरीर में पैवस्त न होने पावे।


(२)
स्त्री का शरीर अत्यंत मैला और अतीव अशुद्ध या गन्दा है । इस प्रकार प्रत्येक रोम मैला और सारे ही दरवाजे गन्दे हैं । इसका शरीर हाड, मांस, मज्जा, मेद और चमड़े से लिपटा हुआ है । इसके अन्दर जगह जगह खून के हौज़ भरे हुए हैं । पेशाब और पाखाने की आंतें आपस में सट  रहती है । इन सब के अलावा पेट में और भी अनेक तरह के मैले भरे हुए हैं । सुन्दरदास जी कहते हैं, नारी एड़ी से छोटी तक निन्द्य है - नख से शिख तक निन्दा करने योग्य है । ऐसी निन्दा की पात्री नारी की जो सराहना करते हैं, वे तो निश्चय ही बड़े गंवार और भौंदू हैं ।
खुलासा यह है कि स्त्री ऊपर से अच्छी मालूम होती है, पर वास्तव में गन्दगी का पिटारा है । इसकी नाक में रहँट भरा हुआ है। इसकी आँखों में गींडें भरी हुई हैं । इसके मुंह में कफ और खखार भरे हुए हैं । इसकी मूत्रेन्द्रिय से हर समय सफ़ेद-सफ़ेद या लाल-लाल गन्दा पदार्थ बहा करता है । पेशाब से जाँघे भीगी रहती है । इसकी मल और मूत्र की इन्द्रिय में २ अंगुल से ज्यादा का दूर का फर्क नहीं है । जिन छातियों पर विषयी मर मिटते हैं, जिन्हे वे सुन्दर सोने के कलश, कामदेव के नगाड़े अथवा शान्तरे और अनार कहते हैं, वे दो मांस के लौंदे हैं । उनके ऊपर चमड़ा चढ़ा हुआ है, इसी से उनके भीतर की गन्दगी छिपी रहती है । ऐसी गन्दगी की पिटारी की तारीफों में जो लोग कवितायेँ करते हैं वे सचमुच ही बेअक्ल और गंवार हैं ।


(३)
अनेक तरह की इन्द्रिय भोग सम्बन्धी वस्तुओं से बनी हुई और सजी हुई स्त्री विषयी लोगों को बहुत ही प्यारी लगती है । जब बलवान काम जागता है, तब वे इसका नखशिख वर्णन करने में अपनी सारी विद्वता खर्च कर देते हैं । चोटी से एड़ी तक एक-एक अंग की दिल खोल कर तारीफ करते हैं । जिस तरह रोगी मिठाई खाकर अपने रोग को बढ़ाता है; उसी तरह जो लोग स्त्री या प्रिय को धारण करते हैं - अपनाते हैं, अनेक तरह के रोगों और दुखों को जानबूझकर आप बुलाते हैं । उनकी हर तरह से दुर्गति होती है । तरह तरह के रोग होते हैं, बल घटता है, आयु क्षीण होती है, हर क्षण चिंतित रहना पड़ता है, शान्ति पास नहीं आती और ईश्वर भजन में मन नहीं लगता । हर समय उसी को संतुष्ट करने की फ़िक्र लगी रहती है । मरते समय भी उसी में मन अटका रहता है, जीवात्मा उसे छोड़कर जाना नहीं चाहता, उसके संग ही रहना चाहता है, पर समय आ जाने पर कोई भी इस काया में क्षणभर भी नहीं रह सकता; अतः देह त्यागनी ही पड़ती है; पर चूंकि स्त्री में मन लगा रह जाता है, उसकी वासना मन में रह जाती है, इसलिए वासना के कारण फिर जन्म लेना पड़ता है । जो जन्म लेता है, उसे मरना भी पड़ता है । इस तरह स्त्री-लोलुप को बारम्बार जन्म लेने और मरने का घोर क्लेश सहना पड़ता है । उसे कभी सुख नहीं मिलता; उसकी मोक्ष नहीं होती । इसीलिए कहा है कि, जो लोग स्त्री को रखते हैं, उनकी बड़ी बुरी गति होती है ।

सोरठा 
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तजि तरुणी सों नेह, बुद्धिबधू सों नेह कर।
नरक निवारत येह, वहै नरक लै जात है।।

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विरमत बुधा योषित्सङ्गात्सुखात्क्षणभंगुरा-
त्कुरुत करुणामैत्रीप्रज्ञा वधूजनसंगमम्।
न खलु नर के हाराक्रान्तं घनस्तनमण्डलम्
शरणमथवा श्रोणीबिम्बम् रणन्मणिमेखलम्।। ६२ ।।

अर्थ:
हे बुद्धिमतियों ! पुरुष के संग से बचो, क्योंकि उनके संग से जो सुख मिलता है, वह क्षणिक है । आप मैत्री, करुणा और विवेकरूपी वर के साथ संगम करो । जिस समय नरक में सजा मिलेगी, उस समय युवकों की बलिष्ठ काया और सुडौल शरीर तुम्हारी सहायता न करेंगे ।

मनुष्यों, पुरुषों में मन मत लगाओ । उनके साथ रहने, उनके साथ संगम करने से सुख होता है; पर वह सुख नश्वर और क्षणस्थायी है । वह ऐसा सुख नहीं जो सदा रहे । परिणाम में उससे अनेक प्रकार के दुःख होते हैं । जो सुख अनित्य है, शेष में दुखों का मूल और रोगों की खान है, उस सुख को सुख समझना, बुद्धिमतियों का काम नहीं । अगर आपको सङ्गंम ही करना है, तो आप सुहानुभूति, परोपकारवृत्ति एवं विवेकरूपी वर के साथ सङ्गंम कीजिये । इनके साथ सङ्गंम और प्रीति करने से आप को नित्य सुख मिलेगा; ऐसा सुख मिलेगा, जो इस लोक और परलोक में सदा स्थिर रहेगा ।
जिन्होंने पहले दूसरों के दुःख दूर किये हैं, जिन्होंने परोपकार के लिए जानें दी हैं, जिन्होंने ज्ञान से काम लिया है, उनका भला ही हुआ है । अगर आप पुरुष-सुख में भूली रहोगी, तो जब आपको नरक की भयंकर यातनाएं भोगनी पड़ेंगी, जब आप पर यमदूतों के डण्डे पड़ेंगे, उस समय क्या पुरुषों की बलिष्ठ भुजाएं और सुडौल शरीर आपकी रक्षा कर सकेंगे ? नहीं, इनसे कोई लाभ न होगा; उस समय ये आड़े न आएंगे । उस मौके पर, परोपकार करके जो पुण्य संचय किया होगा, वही आपकी रक्षा करेगा । विवेक से काम लेंगी तो भला होगा; क्योंकि विवेक ही आपको नरक से बचने की राह बतावेगा; किन्तु पुरुष तो आपको सीधा नरक की राह दिखावेगा । आश्चर्य है, अज्ञानी लोग अच्छे को बुरा और बुरे को अच्छा समझते हैं । वे अपने सच्चे मित्रों से प्रीति नहीं करते, किन्तु झूठे और कुराह में ले जानेवालों से प्रीति करते हैं । 

महात्मा सुन्दरदास जी ने कहा है -
(१)
विषही की भूमि मांहि, विष के अङ्कुर भये।
नारी-विषवेली बढ़ी, नखशिख देखिये।।
विषही के जर मूल, विषही के डार पात।
विषही के फूल फल, लागे जु विशेखिये।।
विष के तन्तु पसार, उरझायी आंटी मार।
सब नर-वृक्ष पर, लपटेहि लेखिये।।
"सुन्दर" कहत, कोऊ सन्त-तरु बची गए।
तिनके तौ कहूं, लता लागि नहीं पेखिये।।

(२)
कामिनी को अंग, अति मलिन महा अशुद्ध।
रोम-रोम-मलिन, मलिन सब द्वार हैं।।
हाड मांस मज्जा मेद, चामसूँ लपेट राखै।
ठौर-ठौर रकत के, भरेई भण्डार हैं।।
मूत्रहु-पुरीष-आंत, एकमेक मिल रहीं।
औरहु उदर मांहि, विविध विकार हैं।।
"सुन्दर" कहत, नारी नखशिख निन्द्यरूप।
ताहि जो सराहै, सो तौ बड़ोई गंवार है।।

(३)
रसिकप्रिया रसमंजरी और श्रृंगारहि जान।
चतुराई करि बहुत विधि, विषय बनाई आन।।
विषय बनाई आन, लगत विषयिनकूँ प्यारी।
जागे मदन प्रचण्ड, सराहै नखशिख नारी।।
ज्यूँ रोगी मिष्टान्न खाई, रोगहि बिस्तारै।
"सुन्दर" ये गति होइ, जोई रसिकप्रिया धारै।।

(१)
विष की ज़मीन में विष के अङ्कुर जमे। फिर नर रूप विषवृक्ष बढ़ा । उस वृक्ष में विष की जड़ें लगीं और विष की डालियाँ और पत्तियां आयीं । फिर उस वृक्ष में विष के ही फूल लगे । उस विषवृक्ष में विष के फल निकले । फिर उस विषवृक्ष ने नारीरुपी लताओं को उलझा लिया । सुन्दरदास जी कहते हैं, उस विषवृक्ष के फन्दे में अधिकाँश नारी-रुपी लताएं फंस गयीं - कोई विरले ही साध्वी-रूपा लता उससे अछूती  बच सकी । उनके ही शरीर इस विषवृक्ष से लगे हुए न दिखाई दिए ।
मतलब यह की पुरुष विष का वृक्ष है । उसकी जड़, उसकी टहनियां, उसकी पत्तियां, उसके फल फूल सभी विषपूर्ण हैं । सारांश यह कि पुरुष का सर्वाङ्ग विष से भरा है पुरुष का कोई भी अंग ऐसा नहीं जिसमें विष न हो । यह पुरुषरूपी विषवृक्ष अज्ञानी विषया स्त्रियों को अपने फन्दे में फंसाकर नाश कर देता  है; क्योंकि विष स्वभाव से ही प्राणघाती होता है । सिर्फ वे ही स्त्रियां इस पुरुषरूपी विषवृक्ष से बचती हैं, जो ज्ञानवती  हैं, जो इसकी असलियत को जानती हैं, जिन्होंने अपनी इन्द्रियों को अपने वश में कर लिया है, जिनकी इन्द्रियां विषयों की तरफ नहीं झुकतीं । और भी खुलासा यह है, कि पुरुष विष-वृक्ष के समान है, विष वृक्ष से जो लता लिपट जाती है, वह उसे भी विषरूप कर देता है। इसी तरह पुरुष जिस विषया स्त्री के पीछे लग जाता है अथवा जो स्त्री पुरुष के फन्दे में फंस जाती है, वह भी सब तरह से नष्ट हो जाती है । इसके सभी अंगों में विष भरा है । जिस तरह विष खाने से ज़हर चढ़ता है, उसी तरह इसकी आँख, इनकी भुजाएं, इसकी छातियां, जांघें प्रभृति किसी भी अंग के देखने और छूने से विष चढ़ जाता है । विष के चढ़ जाने से स्त्री मतवाली हो जाती है; उसके होश-हवास खता हो जाते हैं और बुद्धि मारी जाती है । बुद्धि के मारे जाने से स्त्री बिना पतवार की नाव की तरह नष्ट हो जाती है । इस लोक में नाना प्रकार के रोग और दुःख भोगकर मर जाती और परलोक में भी दुःख ही पाती है । संखिया प्रभृति विष की मारी हुई इस लोक में दुःख पाती है, पर पुरुष रुपी विष की मारी हुई अनेक जन्मों में दुःख पाती है । ज़हर खाने वाली एक ही बार मरती है; पर पुरुष-विष सेवन करने वाली बारम्बार मरती है । अतः बुद्धिमतियों को इस पुरुष-रूपी विषवृक्ष से सदा दूर रहना चाहिए, ताकि इसका विष शरीर में पैवस्त न होने पावे।

(२)
पुरुष का शरीर अत्यंत मैला और अतीव अशुद्ध या गन्दा है । इस प्रकार प्रत्येक रोम मैला और सारे ही दरवाजे गन्दे हैं । इसका शरीर हाड, मांस, मज्जा, मेद और चमड़े से लिपटा हुआ है । इसके अन्दर जगह जगह खून के हौज़ भरे हुए हैं । पेशाब और पाखाने की आंतें आपस में सट  रहती है । इन सब के अलावा पेट में और भी अनेक तरह के मैले भरे हुए हैं । सुन्दरदास जी कहते हैं, नर एड़ी से शिर तक निन्द्य है - नख से शिख तक निन्दा करने योग्य है । ऐसे निन्दा के पात्र नर की जो सराहना करें, वे तो निश्चय ही बड़ी गंवार और भौंदू हैं ।
खुलासा यह है कि पुरुष ऊपर से अच्छा मालूम होता है, पर वास्तव में गन्दगी का पिटारा है । इसकी नाक में रहँट भरा हुआ है। इसकी आँखों में गींडें भरी हुई हैं । इसके मुंह में कफ और खखार भरे हुए हैं । इसकी मूत्रेन्द्रिय से हर समय गन्दा पदार्थ बहा करता है । जिन भुजाओं पर विषया स्त्रियां मर मिटती हैं, जिन्हे वे पौरुष या बल का प्रतीक कहती हैं, वे दो मांस के लौंदे हैं । उनके ऊपर चमड़ा चढ़ा हुआ है, इसी से उनके भीतर की गन्दगी छिपी रहती है । ऐसी गन्दगी के पिटारे की जो स्त्रियां तारीफ करती हैं वे सचमुच ही बेअक्ल और गंवार हैं ।

(३)
अनेक तरह की इन्द्रिय भोग सम्बन्धी वस्तुओं से बना हुआ पुरुष विषया स्त्रियों को बहुत ही प्यारा लगता है । जब बलवान काम जागता है, तब वे इसका नखशिख वर्णन करने में अपनी सारी विद्वता खर्च कर देती हैं । चोटी से एड़ी तक एक-एक अंग की दिल खोल कर तारीफ करती हैं । जिस तरह रोगी मिठाई खाकर अपने रोग को बढ़ाता है; उसी तरह जो स्त्रियां, पुरुष या प्रिय को धारण करती हैं - अपनाती हैं, अनेक तरह के रोगों और दुखों को जानबूझकर आप बुलाती हैं । उनकी हर तरह से दुर्गति होती है । तरह तरह के रोग होते हैं, रूप घटता है, आयु क्षीण होती है, हर क्षण चिंतित रहना पड़ता है, शान्ति पास नहीं आती और ईश्वर भजन में मन नहीं लगता । हर समय उसी को संतुष्ट करने की फ़िक्र लगी रहती है । मरते समय भी उसी में मन अटका रहता है, जीवात्मा उसे छोड़कर जाना नहीं चाहता, उसके संग ही रहना चाहता है, पर समय आ जाने पर कोई भी इस काया में क्षणभर भी नहीं रह सकता; अतः देह त्यागनी ही पड़ती है; पर चूंकि पुरुष में मन लगा रह जाता है, उसकी वासना मन में रह जाती है, इसलिए वासना के कारण फिर जन्म लेना पड़ता है । जो जन्म लेता है, उसे मरना भी पड़ता है । इस तरह पुरुष-आसक्त को बारम्बार जन्म लेने और मरने का घोर क्लेश सहना पड़ता है । उसे कभी सुख नहीं मिलता; उसकी मोक्ष नहीं होती । इसीलिए कहा है कि, जो स्त्रियां पुरुष के साथ हैं, उनकी बड़ी बुरी गति होती है । 

सोरठा 
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तजि तरुण सों नेह, बुद्धिबर सों नेह कर।
नरक निवारत येह, वहै नरक लै जात है।।

प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं 
कालेशक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम्।
तृष्णास्त्रोतोविभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा 
सामान्यः सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधि:श्रेयसामेष पन्थाः।। ६३ ।।

अर्थ:

किसी भी जीव की हिंसा न करना, पराया माल न चुराना, सत्य बोलना, समय पर सामर्थ्यानुसार दान करना, परस्त्रियों की चर्चा में चुप रहना, गुरुजनो के सामने नम्र रहना, सब प्राणियों पर दया करना और भिन्न भिन्न शास्त्रों में समान विश्वास रखना - ये सब नित्य सुख प्राप्त करने के अचूक रस्ते हैं ।

यदि आप मोक्ष की अचूक राह चाहते हो, यदि आप चिरस्थायी कल्याण चाहते हो, तो आप किसी भी प्राणी का विनाश मत करो; अपने पेट के लिए किसी की जान मत मारो । जब मौका आवे, अपनी शक्ति अनुसार गरीबों और मुहताजों को दान दो, उनके दुःख दूर करो; उनके दुखों को अपना दुःख समझकर उनका कष्ट निवारण करो। जहाँ पराई स्त्रियों का ज़िक्र होता हो, वहां मत बैठो; यदि बैठना ही पड़े, तो तुम अपनी ज़बान से कुछ मत कहो । माता-पिता और गुरु के सामने सदा नम्र रहो, उनकी आज्ञा का पालन करो, उनका मान-सम्मान करो; भूल कर भी उनका अपमान न करो । छोटे बड़े सभी प्राणियों पर दया करो । सभी शास्त्रों को समान समझो; किसी में विश्वास और किसी में अविश्वास न करो, क्योंकि सभी का ध्येय एक ही है, सभी वहीँ पहुँचते हैं । जिस तरह नदियां, टेढ़ी-सीढ़ी बहती हुई समुद्र में ही जा मिलती हैं; उसी तरह सभी शास्त्र अपनी-अपनी राहों से मोक्ष या परमात्मा की ही राह बताते हैं । जो ऐसा विश्वास नहीं रखते, तर्क-वितर्क के झमेले में पड़ते हैं, वे वृथा भटकते और अपनी मंज़िल मक़सूद - परमपद - तक नहीं पहुँचते ।

महात्मा तुलसीदास ने ये सब विषय कैसी खूबी से संक्षेप में ही कह दिए हैं -
सदा भजन गुरु साधु द्विज, जीव दया सम जान।
सुखद सुनै रत सत्यव्रत, स्वर्ग-सप्त सोपान।।

वञ्चक विधिरत नर अनय, विधि हिंसा अतिलीन।

तुलसी जग मँह विदित वर, नरक निसैनी तीन।।

ईश्वर-भजन; गुरु, साधु-महात्मा और ब्राह्मणो की सेवा करना; जीवों पर दया करना; लोक में समदृष्टि रखना - सबको एक नज़र से देखना; सबको सुख देना; सुनीति पर चलना और सत्यव्रत धारण करना - ये सातों स्वर्ग में जाने की सात सीढ़ियां हैं । जो इन कामों को वासना के साथ करते हैं - इन कामों का पुरस्कार चाहते हैं, वे स्वर्ग में जाते हैं और जो इन कामों को बिना वासना के करते हैं, वे भगवान् में मिल जाते हैं ।
खुलासा यह है कि जो लोग परमात्मा का भजन करते हैं, गुरु, महात्मा और ब्राह्मणो को सेवा करते और उनसे उपदेश लेते हैं, जीवों पर दया करते हैं, अपनी भरसक किसी भी जीव को दुःख नहीं होने देते, सबको एक नज़र से देखते हैं, किसी से दोस्ती और किसी से दुश्मनी नहीं रखते; सभी को सुख देते हैं - किसी को भी नहीं सताते; न्याय और नीति के मार्ग पर चलते हैं - अनीति से बचते और अत्याचार नहीं करते तथा सदा सत्य बोलते हैं - सपने में भी झूठ नहीं बोलते - वे स्वर्ग में जाते हैं, क्योंकि ये सात स्वर्ग की सीढिया हैं ।
गोस्वामी जी ने ऊपर स्वर्ग में चढ़ने की सात सीढ़ियाँ बताई हैं, अब वह नरक की तीन नसैनी भी बताते हैं - जो लोग चोरी, जोरी और ठगी अथवा और तरह से धोखा देकर पराया धन हड़पते हैं, जो लोग अनीति और अन्याय करते हैं - पराई स्त्रियों को भोगते हैं, पराई निन्दा या बदनामी करते हैं, पराया काम बिगाड़ते हैं, जुआ खेलते हैं, वेश्यागमन करते हैं, जो लोग अपने सुख के लिए जीवों को मारते हैं अथवा मोह के वश में होकर जीवहत्या करते हैं; यानी छल, अनीति और हिंसा का आश्रय लेते हैं, वे निश्चय ही नरकों में जाते हैं; क्योंकि ये तीनो काम नरक की नसैनी हैं ।

मातर्लक्ष्मि भजस्व कंचिदपरं मत्काङ्क्षिणी मा स्म भूः
भोगेभ्यः स्पृहयालवो न हि वयं का निस्पृहाणामसि।
सद्यःस्यूतपलाशपत्रपुटिकापात्रे पवित्रीकृते 
भिक्षासक्तुभिरेव सम्प्रति वयं वृत्तिं समीहामहे।। ६४ ।।

अर्थ:

हे मां लक्ष्मी ! अब किसी और को खोज, मेरी इच्छा न कर; अब मुझे विषय-भोगों की चाह नहीं है; मेरे जैसे निस्पृह - इच्छा-रहितों के सामने तू तुच्छ है ।  क्योंकि अब मैंने हर ढाकके पत्तो के दोनों में भिक्षा के सत्तू से गुज़ारा करने का संकल्प कर लिया है ।

जो अपनी इच्छा का नाश कर देता है, जो किसी भी पदार्थ की इच्छा नहीं रखता - वह लक्ष्मी क्या - संसार के बड़े बड़े सुख-भोग और धन-दौलत को तुच्छ समझता है; वह बादशाहों को भी माल नहीं समझता । जो जंगल के फलमूलों पर गुज़र कर लेता है या भिक्षा के सत्तू को ढाक के पात में पानी से घोल कर पी जाता है, वस्त्र की भी जरुरत नहीं रखता, उसे किसी परवा ? उसे दुःख कहाँ ? यदि मनुष्य सच्चा सुख चाहे, परमपद या परमात्मा को चाहे तो "इच्छा" को त्याग दे । सब आफतों की जड़ "इच्छा" ही है ।

दोहा
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मौकों तजि भजि और कों, ऐरी लक्ष्मी मात !।
हैं पलाश के पात में, मांग्यो सतुआ खात।।


यूयं वयं वयं यूयमित्यासीन्मतिरावयोः।
किं जातमधुना येन यूयं यूयं वयं वयम्।। ६५ ।।

अर्थ:

पहले हमारा आपका इतना गाढ़ा सम्बन्ध था कि, आप थे सो मैं था और मैं था सो आप थे । अब क्या फर्क हो गया है, कि मैं - मैं ही हूँ और आप - आप ही हैं ?

पहले आपमें और मुझमें भेद नहीं था । जो आप थे सो मैं था और मैं था सो आप थे । मैं और आप दोनों ही एक से थे - आप और मैं दोनों ही पहले विषयासक्त थे; किन्तु अब बड़ा भेद हो गया है; यानी आप अब तक विषयासक्त ही हैं पर मैं विषयों से विरक्त हो गया हूँ । आपने अब तक संसार के झूठे सुखों - विषय वासनाओं का परित्याग नहीं किया है; पर मित्र, मैं तो अब इनसे घबरा गया - थक गया; मुझे इनमें कुछ भी सार या तत्व न दीखा, इसलिए मैंने अब सबसे किनारा करके वैराग्य ले लिया है । आप सभी नरक में ही हैं, पर मैं विवेक-बुद्धि से काम लेकर, नरक से निकलकर स्वर्ग में आ गया हूँ । आप अभी तक दुःख के बीज बो रहे हैं; पर मैं अब सुख के बीज बो रहा हूँ । मित्र ! तुम भी मेरी तरह उन भयंकर जञ्जालों को छोड़कर मेरी जैसी सुख की राहपर क्यों नहीं आ जाते ? मित्रवर ! इस राह में सुख है; उस राह में घोर दुःख और नरक यातनाएं हैं । संसार को छोड़ने और भगवत से प्रीती करने में बड़ा आनन्द है ।

उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है -
दुनिया से ज़ौक़ रिश्तए उल्फत को तोड़ दे।
जिस सर का है यह बाल, उसी सर में जोड़ दे।।

दोहा
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तुम-हम हम-तुम एक हैं, सब विधि रह्यो अभेद।
अब तुम-तुम हम-हमहिं हैं, भयो कठिन यह भेद।।


बाले लीलामुकुलितममीमन्थरा दृष्टिपाताः

किं क्षिप्यते विरम विरमं व्यर्थ एव श्रमस्ते।।
संप्रत्यन्ये वयमुपरतम् बाल्यामावस्था वनान्ते
क्षीणो मोहस्तृणमिव जगज्जालमालोक्यामः।। ६६ ।।

अर्थ:

ऐ बाला ! अब तू लीला से अपनी आधी खुली आँखों से मुझ पर क्यों कटाक्ष बाण चलाती है ? अब तू काममद पैदा करने वाली दृष्टी को रोक ले; तेरे इस परिश्रम से तुझे कोई लाभ न होगा । अब हम पहले जैसे नहीं रहे हैं । हमारी जवानी चली गयी है । अब हमने वन में रहने का निश्चय कर लिया है और मोह त्याग दिया है; अब हम विषय सुखों को तृण से भी निकम्मा समझते हैं ।

महाकवि दाग कहते हैं -
तौबा जो मैंने की, निकल आया ज़रा सा मुंह।
वह रंग रूप ही नहीं, सुबहे बहार का।।


बसन्त को सौंदर्य का बड़ा अभिमान था । जब से मैंने शराब पीने से तौबा कर ली है, तब से बसन्त-लक्ष्मी का मुंह फीका पड़ गया है । जब तक मैं शराबी था, तभी तक उसकी शोभा का कायल था। अब तो मुझे उसमें भी विशेषता मालूम नहीं होती ।


इयं बाला मां प्रत्यनवरतमिन्दीवरदल
प्रभाचोरं चक्षुः क्षिपति किमभिप्रेतमनया।।
गतो मोहोऽस्माकं स्मरकुसुमबाण व्यतिकर-
ज्वलज्ज्वाला शान्ति न तदपि वराकी विरमति।। ६७ ।। 

अर्थ:

यह बाला स्त्री मुझ पर बार-बार नीलकमल की शोभा से भी सुन्दर नेत्रों से कटाक्ष क्यों मारती है ? मैं नहीं समझता इसका क्या मतलब है ? अब तो मेरा मोह जाता रहा है - काम के पुष्प बाणो से निकली हुई आग की ज्वाला शान्त हो गयी है । आश्चर्य है, कि अब तक भी यह मूर्खा बाला अपनी कोशिशों से बाज़ नहीं आती ।

जिनका मोह-जाल कट जाता है, जिनकी विषय-वासना बुझ जाती है, जो स्त्रियों की असलियत को समझ जाते हैं, जो उनको नरक की नसैनी समझ लेते हैं, उन पर स्त्रियों के कटाक्ष बाण असर नहीं करते । हाँ वे अपने स्वभावानुसार अपने तीखे-तीखे बाण चलाया ही करती हैं; परन्तु तत्ववित्त लोग उनके जाल में नहीं फंसते । उन पर उनके अचूक बाण फेल हो जाते हैं ।

दोहा
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केहि कारण डारत बयन, कमलनयन यह नार।
मोह काम मेरे नहीं, तउ न तिय-चित हार।।


रम्यं हर्म्यतलं न किं वसतये श्राव्यं न गेयादिकं

किं वा प्राणसमासमागमसुखं नैवाधिकं प्रीतये।।
किं तूद्भ्रान्तपतङ्गपक्षपवनव्यालोलदीपाङ्कुर-
च्छायाचञ्चलमाकलय्य सकलं सन्तो वनान्तं गताः।। ६८ ।।

अर्थ:

क्या सन्तों के रहने के लिए उत्तमोत्तम महल न थे, क्या सुनने के लिए उत्तमोत्तम गान न थे, क्या प्यारी-प्यारी स्त्रियों के संगम का सुख न था, जो वे लोग वनों में रहने को गए ? हाँ, सब कुछ था; पर उन्होंने इस जगत को गिरने वाले पतंग के पंखों से उत्पन्न हवा से हिलते हुए दीपक की छाया के समान चञ्चल समझकर छोड़ दिया; अथवा उन्होंने मूर्ख पतंग की भांति, जो हवा से हिलते हुए दीपक के छाया में घूम-घूमकर अपने तई जलाकर भस्म कर देता है, संसार को अपना नाश करते देखकर संसार को छोड़ दिया।
यह संसार दीपक की लौ के समान है और इसमें बसनेवाले जीव पतंगों के समान हैं । जिस तरह मूर्ख पतंग दीपक से मोह करके और उस पर गिर-गिर भस्म होते हैं; उसी तरह मनुष्य इस संसार के असल तत्व को न समझकर, इसके मोह में फंसकर, इसमें नाश होते हैं । जिस तरह पतंग नहीं समझता कि दीपक से प्रेम करने में मेरे हाथ कुछ न आवेगा, बल्कि मेरी जान ही जायेगी; उसी तरह संसारी आदमी नहीं समझते, कि इन संसारी विषय-वासनाओं में फंसकर, इनसे प्रेम करके हम अपना नाश करा बैठेंगे । जो बुद्धिमान और विचारवान हैं, वे इस बात को समझते हैं; अतः संसारी पदार्थों से मोह नहीं करते और अपने नाश से बचते हैं । वे संसार को अनित्य और नाश की निशानी समझकर, इससे मन हटाकर परमात्मा में मन लगते हैं । वे अपने तई दुनिया का मुसाफिर मात्र समझकर, मौत का हरदम ख्याल रखते हैं ।
महात्मा कबीर ने कहा है -
तन सराय मन पाहरू, मनसा उतरी आय ।
को काहू को है नहीं, सब देखा ठोक बजाय।।
"कबिरा" रसरि पाँव में, कहँ सोवे सुख चैन।
श्वास-नकारा कूंच का, बाजत है दिन-रैन।।
इस चौसर चेता नहीं, पशु-ज्यों पाली देह।
राम नाम जाना नहीं, अन्त परी मुख खेह।।

यह शरीर सराय है, मन चौकीदार है और मनसा - इच्छा इस शरीर रुपी सराय में उतरा हुआ मुसाफिर है; इस जगत में कोई किसी का नहीं है । अच्छी तरह ठोक बजा या जांच पड़ताल करके देख लिया ।
हे कबीर ! पैरों में रस्सी पड़ी हुई है । फिर भी तू सुख चैन में कैसे सो रहा है ? देख इस दुनिया से कूच करने का श्वास रुपी नागदा दिन-रात बज रहा है !
अगर तू इस चौपड़ के खेल में न चेतेगा, इस जन्म में भी होश न करेगा, पशु की तरह शरीर को पालेगा और राम को नहीं जानेगा; तो अन्त में तेरे मुंह में धुल पड़ेगी ।

छप्पय
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महल महारमणीक, कहा बसिबे नहिं लायक ?
नाहिन सुनवे जोग, कहा जो गावत गायक ?
नवतरुणी के संग, कहा सुखहू नहिं लागत ?
तो काहे को छाँड़-छाँड़, ये बन को भागत ?
इन जान लियो या जगत को, जैसे दीपक पवन में ।
बुझिजात छिनक में छवि भरयो, होत अंधेरो भवन में ।।


अतीव सुन्दर व रमणीक महल क्या बसने योग्य नहीं हैं ? गवैये जो मनोहर गाना गाते हैं, क्या वह सुनने योग्य नहीं है ? नवीना बाला स्त्रियों के साथ रमण करने में क्या आनन्द नहीं आता ? अगर इन सब में आनन्द और सुख है, तो लोग इन सबको छोड़-छोड़ कर बन में क्यों भागे जाते हैं ? इसलिए भागे जाते हैं, कि उन्होंने इस जगत को उस दीपक के समान समझ लिया है, जो हवा में रखा हुआ है और क्षणभर में बुझ जाता है ।


किं कन्दाःकन्दरेभ्यः प्रलयमुपगता निर्झरा व गिरिभ्यः
प्रध्वस्ता वा तरुभ्यः सरसफलभृतो वल्कलिन्यश्च शाखाः।।
वीक्ष्यन्तेयन्मुखानि प्रसभमपगतप्रश्रयाणाम् खलानां
दुःखोपात्ताल्पवित्तस्मयवशपवनानअर्तितभ्रूलतानि।। ६९ ।।

अर्थ:

क्या पहाड़ों की गुफाओं में कन्द-मूल और उनकी चट्टानों में पानी के झरने नहीं रहे, क्या छाल वाले वृक्षों में रसीली फलवती शाखाएं नहीं रहीं, जो लोग उन अभिमानी और नीचों के सामने दीनता करते हैं, जिनकी भौंहें मारे अभिमान के चढ़ी रहती हैं और जिन्होंने बड़े कष्ट से थोड़ा सा धन जमा कर लिया है ?
पहाड़ों में रहने को गुफाएं, खाने को कन्दमूल, पीने को उनके झरनों का जल और वृक्षों में मीठे मीठे रसीले फल मौजूद हैं; फिर भी लोग उन धनियों की टेढ़ी भृकुटियों को क्यों देखते हैं, उनकी टेढ़ी-सूधी क्यों सहते हैं, जिनकी आँखें उस थोड़े से धन के मद से नहीं खुलती, जो उन्होंने बड़े बड़े कष्टों से येनकेन प्रकारेण जमा कर लिया है ! ऐसे नीच अभिमानियों से अपमानित होने की अपेक्षा पहाड़ों में रहना और फलमूल तथा शीतल जल पर गुज़ारा करना भला । इस से उनकी आत्मा खूब सुखी होगी; अभिमानी नीच धनियों की बुरी बातों से आत्मा जल जल कर ख़ाक होती है ।
अगर कुछ भी समझ हो, ज़रा भी आत्मप्रतिष्ठा का ख्याल हो, तो मनुष्य को अपनी "इच्छा" का नाश करना चाहिए । इच्छा रहित मनुष्य सात विलायतों के बादशाह को भी तुच्छ समझता है । धनियों से दीनता करना और माँगना बड़ी बुरी बात है । देखिये गोस्वामी तुलसीदासजी प्रभृति महापुरुषों ने क्या कहा है :-
तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर न करो।
जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरण करो।।
माँगन मरण समान है, मत कोई मांगो भीख।
माँगन ते मरना भला, यह सतगुरु की सीख।।

तुलसीदास जी कहते हैं - हे प्रभु ! हाथ पर हाथ करो, हाथ के नीचे हाथ न करो । जिस दिन हाथ के नीचे हाथ करो, उस दिन हमारी मौत हो जाए । मतलब यह है कि जब तक हम दूसरों को देते रहे, तब तक हम जीवित रहे; जिस दिन हमारी मांगने की नौबत आ जाये, उस दिन हम मर जाएँ ।
अगर दीनता ही करनी है तो परमात्मा से करो । उसके आगे दीनता करने से सभी इच्छाएं पूरी हो सकती हैं । कहा है :-
तेरी बन्दानवाज़ी, हफ्त किश्वर बख़्फ़ा देती है ।
जो तू मेरा - जहाँ मेरा, अरब मेरा, अज़म मेरा ।। दाग़ ।।

कबीर ने कहा है :-
थोड़ा सुमिरन बहुत सुख, जो करि जानै कोय ।
सूत लगे न बिनावनी, सहजै तनसुख होय ।।
साईं सुमिर, मत ढील कर; जा सुमरे ते लाह।
इहाँ ख़लक खिदमत करे, वहाँ अमरपुर जाह।।

भगवान् की थोड़ी सी याद करने से ही बहुत सुख होता है, बशर्ते की कोई याद करना जाने । इसमें न तो सूत लगता है और न बिनवाई देनी पड़ती है; सहज में आनन्द होता है ।
हे मनुष्य ! स्वामी को सुमिरन करने में देर न कर । उसके सुमिरन में बहुत लाभ हैं । जो स्वामी को याद करता है, इस दुनिया में संसारी लोग उसकी सेवा करते हैं और जब मर कर दूसरी दुनिया में जाता है, तब स्वर्गपुरी में बस्ता है ।

छप्पय
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कहा कन्दराहीन भये, पर्वत भूतल से ?
झरना निर्जल भये कहा, जे पूरित जल से ?
कहा रहे सब वृक्ष, फूल-फल बिन मुरझाये ?
सही खलन के बैन, अन्धता जो मद छाये ।
कर संचित धन जे स्वल्प हूँ, इत उत फेरें भ्रू विकट ।
रे मन ! तू भूल न जाहुं कहूं, इन खल पुरुषन के निकट ।।


गंगातरंगकणशीकरशीतलानि

विद्याधराध्युषितचारुशीलतलानि।।
स्थानानि किं हिमवतः प्रलयं गतानि
यत्सावमानपरपिण्डरता मनुष्याः।। ७० ।।

अर्थ:

हिमालय पर्वत के वे चट्टानें जो गंगाजल की लागरों से उठे हुए छींटो से शीतल हो रही है और जहाँ जगह जगह विद्याधर बैठे हैं, क्या अब नहीं रही हैं, जो लोग अपमान से मिले हुए पराये टुकड़ों पर गुज़र करते हैं ?
पराये टुकड़ों पर गुज़र करने की अपेक्षा मर जाना भला है । अगर माँगना ही हो तो, तो मांगने की विधि चातक से सीखनी चाहिए । वह एक से ही मांगता है, दूसरे से हरगिज़ नहीं मांगता, चाहे मर क्यों न जाए; और मांगने में भी यह खूबी, कि वह कभी अधीन होकर नहीं मांगता; एक घनश्याम(बादल) से ही मांगता है । चातक के समान याचक और वारिद(बादल) के समान दानी जगत में कौन है ? जो ओछों से मांगते हैं, जने-जने के पैर पकड़ते हैं, उनको धिक्कार है ! इसलिए मनुष्यों ! पापहीये की तरह एकमात्र घनश्याम से ही मांगो । महात्मा तुलसीदास जी ने कहा है :-
"तुलसी" तीनों लोक में, चातक ही को माथ।
सुनियत जासु न दीनता, किये दूसरो नाथ।।
ऊंची जाति पपीहरा, नीचे पियत न नीर।
कै याचै घनश्याम सों, कै दुःख सहै शरीर।।
ह्वै अधीन चातक नहीं, शीश नाय नहिं लेय।
ऐसे मानी मंगनहीं, को वारिद बिन देय।।

तुलसी कहते हैं - तीनो लोक में सिर्फ एक पापहीये का ही सिर ऊंचा है, क्योंकि उसने अपने स्वामी स्वाति के सिवा और किसी से कभी दीनता नहीं की ।
पपहिए की जाति ऊंची है; क्योंकि वह नदियों और तालाबों वगैरह जलाशयों का पानी नहीं पीता । वह या तो घनश्याम से यानि स्वाति नक्षत्र में बादल से ही मांगता है अथवा दुःख भोगता है ।
पपहिया और मंगतों की तरह अधीन होकर और सिर नवकार नहीं लेता । वह तो मान के साथ ही लेता है । ऐसे मानी मांगते को बादल के सिवा और कौन दे सकता है ? जिनको परमात्मा ने देने लायक बनाया है, उन्हें दिल खोलकर गरीब और मुहताजों को देना चाहिए । जो देते हैं, फिर पाते हैं और जो देते हैं उन्हीं का जीवन सफल है । रहीम कवी कहते हैं :-
दीनहि सबको लखत है, दीन लखे नहीं कोय।
जो "रहीम" दीनहिं लखत, दीनबन्धु सम होय।।
"रहिमन" वे नर मर चुके, जे कहूं माँगन जाहिं।
उनते पाहिले वे मुए, जिन मुख निकसत नाहिं।।
तबही लग जीबो भलो, दीबो परे न धीम।
बिन दीबो जीबो जगत, हमें न रुचे "रहीम"।।

दीन या मुहताज सबकी तरफ देखता है, पर दीन की तरफ कोई नहीं देखता । रहीम कहते हैं, जो दीन की तरफ देखता है, वह दीनबन्धु भगवान् के समान होता है ।

रहीम कहते हैं, वे मनुष्य मर गए जो कहीं मांगने जाते हैं । उनसे पहले वे मरे, जिनके मुंह से नाही निकलती है । मतलब यह है कि मंगता तो मरा हुआ है ही, पर जो मांगने वालों को नहीं देता, वह उससे भी पहले मरा हुआ है । जीना तभी तक अच्छा है जब तक देना मन्दा न हो । बिना दान किये जीना, रहीम कहते हैं, हमें अच्छा नहीं लगता ।

दोहा

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गंगातट गिरिवर गुफा, उहाँ कहँ नहीं ठौर ?
क्यों ऐते अपमान सों, खात पराये कौर ?


यदा मेरुः श्रीमान्निपतति युगान्ताग्निनिहितः 

समुद्राः शुष्यन्ति प्रचुरनिकरग्राहनिलायाः।।
धरा गच्छत्यन्तं धरणिधरपादैरपि धृता 
शरीरका वार्त्ता करिकल भकर्णाग्रचपले।। ७१ ।।

अर्थ:

जब प्रलय की अग्नि के मारे श्रीमान सुमेरु पर्वत गिर पड़ता है; मगरमच्छों के रहने के स्थान समुद्र भी सूख जाते हैं; पर्वतों के पैरों से दबी हुई पृथ्वी भी नाश हो जाती है; तब हाथी के कान की कोर के समान चञ्चल मनुष्य की क्या गिनती ?
जब काल सुमेरु जैसे पर्वतों को जला कर गिरा देता है, महासागरों को सुखा देता है, पृथ्वी को नाश कर देता है, तब इस छोटे से चञ्चल मनुष्य की क्या गिनती ? इसके नाश में कौन सा आश्चर्य ?

दोहा
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मेरु गिरत सूखत जलधि, धरनि प्रलय ह्वै जात।
गजसुत के श्रुति चपल त्यौं, कहा देह की बात।।


एकाकी निस्पृहः शान्तः पाणिपात्रो दिगम्बरः।
कदा शम्भो भविष्यामि कर्मनिर्मूलनक्षमः।। ७२ ।।

अर्थ:

हे शिव ! मैं कब अकेला, इच्छा रहित और शान्त हूँगा ? कब हाथ ही मेरा पात्र होगा और कब दिशाएं मेरे वस्त्र होंगे ? मैं कब कर्मों की जड़ उखाड़ने में समर्थ हूँगा ?

एकान्त वास करना, इच्छाओं को त्याग देना, शान्त रहना, हाथ से ही पानी वगैरह पीने के बर्तन का काम लेना, दिशाओं को ही वस्त्र समझना; यानी नग्न रहना और कर्मो की जड़ उखाड़ने में समर्थ होना - ये ही कल्याण के मार्ग हैं । जिनमें ये गुण हैं, वे धन्य हैं और वे ही सच्चे सुखिया हैं ।

दोहा
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एकाकी इच्छा-रहित, पाणिपात्र दिगवस्त्र।
शिव शिव ! हौं कब होऊंगा, कर्मशत्रु को शस्त्र?


प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुघास्ततः किं

न्यस्तं पदं शिरसि विद्विषतां ततः किं ।
सम्पादिताः प्रणयिनो विभवैस्ततः किं
कल्पस्थितास्तनुभृतां तनवस्ततः किम् ।। ७३ ।।
जीर्णा कंथा ततः किं सितममलपटं पट्टसूत्रं ततः किम् 
एका भार्या ततः किं हय करिसुगणैरावृतो वा ततः किम्।।
भक्तं भुक्तं ततः किं कदशनमथ वा वासरांते ततः किं 
व्यक्त ज्योतिर्नवांतर्मथितभवभयं वैभवं वा ततः किम्।। ७४ ।।

अर्थ:

अगर मनुष्यों को सब इच्छाओं के पूर्ण करनेवाली लक्ष्मी मिली तो क्या हुआ ? अगर शत्रुओं को पदानत किया तो क्या ? अगर धन से मित्रों की खातिर की तो क्या ? अगर इसी देह से इस जगत में एक कल्प तक भी रहे तो क्या ?
अगर चीथड़ों की बनी हुई गुदड़ी पहनी तो क्या ? अगर निर्मल सफ़ेद वस्त्र पहने या पीताम्बर पहने तो क्या ? अगर एक ही स्त्री रही तो क्या ? अगर अनेक हाथी-घोड़ों सहित अनेकों स्त्रियां रहीं तो क्या ? अगर नाना प्रकार के व्यंजन भोजन किये अथवा शाम को मामूली खाना खाया तो क्या ? चाहे जितना वैभव पाया, पर यदि संसार बन्धन को मुक्त करनेवाली आत्मज्ञान की ज्योति न जानी, तो कुछ भी न पाया और कुछ भी न किया ।

मतलब यह है, सारे संसार के राज्य-वैभव अथवा त्रिभुवन के अधिपति होने में भी जो आनन्द नहीं है, वह आत्मज्ञान या ब्रह्मज्ञान में है ।
 आत्मज्ञान होने से ही मनुष्य, जीवन मरण के कष्ट से छुटकारा पाकर, परम शान्ति-लाभ मिलता है ।
अर्ब खर्ब लौं द्रव्य है, उदय अस्त लौं राज।
जो तुलसी निज मरन है, तौ आवे केहि काज?।

अगर अरब खरब तक धन हो और उदयाचल से अस्ताचल तक राज हो, तो भी अगर अपना मरण हो, तो ये सब किस काम के ? धन-दौलत और राज-पाट सब जीते रहने पर काम आते हैं, मरने पर इनसे कोई लाभ नहीं ।

दोहा
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इन्द्र भये धनपति भये, भये शत्रु के साल।
कल्प जिए तोउ गए, अन्त काल के गाल।।


भक्तिर्भवे मरणजन्मभयं हृदिस्थं
स्नेहो न बन्धुषु न मन्मथजा विकाराः।
संसर्गदोषरहिता विजना वनान्ता
वैराग्यमस्ति किमितः परमार्थनीयम्।। ७५ ।।

अर्थ:

सदाशिव की भक्ति हो, दिल में जन्म-मरण का भय हो, कुटुम्बियों में स्नेह न हो, मन से काम-विचार दूर हों और संसर्ग-दोष से रहित होकर जंगल में रहते हों -  अगर हममें ये गुण हों तब और कौन सा वैराग्य ईश्वर से मांगें ?

परमात्मा में प्रेम होना, मन में जन्म-मरण का भय होना, रिश्तेदारों से प्रेम न होना, मन में स्त्री की इच्छा का न उठना, एकान्तस्थान में अकेले वन में निवास करना - ये ही तो वैराग्य के पूरे लक्षण हैं । इनसे अधिक वैराग्य के और लक्षण नहीं ।

दोहा
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मन विरक्त हरिभक्ति-युत, संगी बन तृणडाभ ।
याहुते कछु और है, परम अर्थ को लाभ ?

तस्मादनन्तमजरं परमं विकासि-
तद्ब्रह्म चिन्तय किमेभिरसद्विकल्पैः ।
यस्यानुषङ्गिण इमे भुवनाधिपत्य-
भोगादयः कृपणलोकमता भवन्ति।। ७६ ।।

अर्थ:

उस वास्ते मनुष्यों ! अनन्त, अजर, अमर, अविनाशी और शान्तिपूर्ण ब्रह्म का ध्यान करो । मिथ्या जंजालों में क्या रखा है ? जो ब्रह्म का ज़रा सा  भी आनन्द पा जाते हैं, उनकी नज़रों में संसारी राजाओं का आनन्द तुच्छ जंचता है ।
मतलब है कि लोगों को अनन्त, अजर, अमर, अविनाशी, शोक-रहित, शान्तिपूर्ण ब्रह्म का ध्यान करना चाहिए । उसी के ध्यान में पूर्णानन्द है; संसार के भोग-विलासों में ज़रा भी आनन्द नहीं । वह आनन्द सदा है; या आनंद क्षणिक है । उसमें सदा सुख है; इसमें सदा दुःख है । जिनको ब्रह्मानन्द का ज़रा सा भी मज़ा आ जाता है, वे त्रिलोकी के अधिपति के आनन्द को भी तुच्छ समझते हैं । राज, धन-दौलत और स्त्री-पुत्र प्रभृति सब उस परमात्मा के पीछे हैं; इसलिए इनको छोड़कर उससे ही प्रीति करने में चतुराई है ।

दोहा
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ब्रह्म अखण्डानन्द पद, सुमिरत क्यों न निशङ्क ।  
जाके छिन-संसर्ग सों, लगत लोकपति रंक ?


पातालमाविशशि यासि नभो विलङ्घ्य
दिङ्मण्डलं भ्रमसि मानस चापलेन ।
भ्रान्त्यापि जातु विमलं कथमात्मनीतं  
तद्ब्रह्म न स्मरसि निर्वृतिमेषि येन ।। ७७ ।।

अर्थ:

हे चित्त ! तू अपनी चञ्चलता के कारण पाताल में प्रवेश करता है, आकाश से भी परे जाता है, दशों दिशाओं में घूमता है; पर भूल से भी तू उस विमल परमब्रह्म की याद नहीं करता, जो तेरे ह्रदय में ही मौजूद है, जिसके याद करने से ही तुझे परमानन्द - मोक्ष - मिल सकती है !

इस चञ्चल मन की अद्भुत लीला है । यह कभी आकाश में जाता है, कभी पाताल में जाता है और कभी दशों दिशाओं में फिरता है । इधर-उधर तो इतना भटकता है; पर, भूलकर भी, जहाँ जाना चाहिए वहां नहीं जाता । उसके पास ही अमृत का सरोवर है, उसे छोड़कर सदी-गली नालियों में फिरता है । उसे सब जगह छोड़ कर अपने ह्रदय में ही बैठे हुए ब्रह्म के पास जाना चाहिए और हर समय उसकी ही चिन्तना करनी चाहिए; इस से उसके पापों का नाश हो जाएगा, आवागमन से छुटकारा मिल जाएगा एवं परम शान्ति की प्राप्ति होगी । और चिन्ताओं से कोई लाभ नहीं; उन से तो जञ्जालों में ही फंसना होता है ।
मूर्ख लोग अव्वल तो परमत्मा में दिल ही नहीं लगते । यदि भूल से लगते भी हैं, तो परमात्मा की खोज में जहाँ-तहँ मारे मारे फिरते हैं; पर अपने ह्रदय में ही उसे नहीं खोजते ! यह उनका महा अज्ञान है ।

उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है :-
वह पहलु में बैठे हैं और बदगुमानी ।
लिए फिरती मुझको, कहीं का कहीं है ।।

वह(ईश्वर) बगल में ही बैठा है, पर मैं भ्रम में फंसकर उसे ढूंढने के लिए कहाँ कहाँ मारा फिरता हूँ ।

महात्मा कबीर कहते हैं :-
ज्यों नयनन में पूतली, त्यों खालिक घट मांहि ।
मूरख नर जाने नहीं, बाहर ढूंढन जाहि ।।
कस्तूरी कुण्डल बसै, मृग ढूंढें बन मांहि ।
ऐसे घट-घट ब्रह्म है, दुनिया जाने नाहिं ।।
समझा तो घर में रहे, परदा पलक लगाय ।
तेरा साहिब तुझहि में, अंत कहूँ मत जाय ।।

महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं :-
कोउक जात प्रयाग बनारस।
कोउ गया जगन्नाथहि धावै ।।
कोउ मथुरा बदरी हरिद्वार सु ।
कोउ गंगा कुरुक्षेत्र नहावै ।।
कोउक पुष्कर ह्वै पञ्च तीरथ ।
दौरिहि दौरि जु द्वारिका आवै ।।
सुन्दर चित्त गह्यौ घरमांहि सु ।
बाहिर ढूँढत क्यूंकरि पावै ? ।।

जिस तरह आँखों में पुतली है, उसी तरह घट में (ह्रदय कमल में) पैदा करने वाला है; पर मूर्ख इस बात को नहीं जानता और उसे बहार खोजने जाता है ।
कस्तूरी हिरन की अपनी नाभि में है, पर मृग उसे बन में खोजता है; उसी तरह ब्रह्म घट-घट में है, पर दुनिया इस भेद को नहीं जानती ।
अगर समझता है तो घर में रह और पलकों का पर्दा लगा कर देख, तेरा मालिक तेरे ही अंदर है; अन्यत्र जाने की ज़रुरत नहीं ।
कोई परमेश्वर की खोज में प्रयाग, काशी, गया, पुरी, मथुरा, कुरुक्षेत्र और पुष्कर जाता है और कोई द्वारका जाता है । सुन्दरदास जी कहते हैं, जो धन घर में गड़ा है, वह बाहर कैसे मिलेगा ?
सारांश यह है, कि संसार अज्ञानान्धकार के कारण "छोरा बगल में ढिंढोरा शहर में" वाली कहावत चरितार्थ करता है । ईश्वर इसी शरीर के भीतर ह्रदय-कमल में मौजूद है, पर अज्ञानी लोग उसे पाने के लिए तीर्थों में भटकते फिरते हैं । इस तरह वह मिलता भी नहीं और वृथा हैरानी होती है । जो उसके दर्शन करना चाहें, नेत्र बन्द करके अपने ह्रदय में ही उसे देखें ।

कुण्डलिया 
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फांद्यौ ते आकाश को, पठयौ ते पाताल ।
दशों दिशाओं में तू फिरयो, ऐसी चञ्चल चाल ।।
ऐसी चञ्चल चाल, इतै कबहूँ नहीं आयौ ।
बुद्धि सदन कों पाय, पाय छिनहूँ न छुवायौ ।।
देख्यौ नहीं निज रूप, कूप अमृत को छाँद्यौ ।
ऐरे मन मतिमूढ़ ! क्यों न भव-वारिधि फांद्यौ ? ।।


रात्रिः सैव पुनः स एव दिवसो मत्वा बुधा जन्तवो
धावन्त्युद्यमिनस्तथैव निभृतप्रारब्धतत्तत्क्रियाः ।
व्यापारैः पुनरुक्तभुक्त  विषयैरित्थंविधेनामुना
संसारेण कदर्थिता कथमहो मोहान्न लज्जामहे।। ७८ ।।

अर्थ:

प्राणियों में बुद्धिमान यदि जानते हैं कि दिन और रात ठीक पहले की तरह ही होते हैं; तो भी वे उन्हीं काम-धंधों के पीछे दौड़ते हैं, जिनके पीछे वे पहले दौड़ते थे । वे लोग उन्हीं-उन्हीं कामों में लगे रहते हैं, जिनसे क्षणिक और बारम्बार वही लाभ होते हैं, जिनको वे बारम्बार कह और भोग चुके हैं । आश्चर्य का विषय है, कि मनुष्यों को लज्जा नहीं आती !

देखते हैं कि पहले की तरह ही दिन, रात, तिथि, वार, नक्षत्र और मॉस तथा वर्ष आते हैं और जाते हैं ; उसी तरह हम कहते-पीते, सोते-जाते और काम-धंधे करते हैं; कोई नई बात नहीं देखते । जिन कामों को पहले करते थे, उन्हें ही बारम्बार करते हैं । उनमें कितना सा लाभ और सुख है, इसे भी देखते-सुनते और समझते हैं । फिर भी; आश्चर्य है कि, हम इस मिथ्या संसार से मोह नहीं तोड़ते !

कुण्डलिया 
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वेही निशि वेही दिवस; वेही तिथि वेही बार ।
वे उद्यम वेही क्रिया, वेही विषय-विकार ।
वेही विषय-विकार, सुनत देखत अरु सूंघत ।
वेही भोजन भोग, जागि सोवत अरु ऊंघत ।
महा निलज यह जीव; भोग में भयो विदेही ।
अजहूँ पलटत नाहिं, कढत गन वे के वेही ।।


मही रम्या शय्या विपुलमुपधानं भुजलता

वितानं चाकाशं व्यजनमनुकूलोऽयमनिलः।।
स्फुरद्दीपश्चन्द्रो विरतिवनितासंगमुदितः 
सुखं शान्तः शेते मुनिरतनुभूतिर्नृप इव।। ७९ ।।

अर्थ:

मुनि लोग राजा महाराजाओं की तरह सुख से ज़मीन को ही अपनी सुखदायिनी शय्या मान कर सोते हैं । उनकी भुजा ही उनका गुदगुदा तकिया है, आकाश ही उनकी चादर है, अनुकूल वह ही उनका पंखा है, चन्द्रमा ही उनका चिराग है, विरक्ति ही उनकी स्त्री है; अर्थात विरक्ति रुपी स्त्री को लेकर वे उपरोक्त सामानों के साथ राजाओं की तरह सुख से आराम करते हैं ।

मुनि लोगों के पास न राजाओं की तरह महल हैं, न बढ़िया-बढ़िया पलंग और मखमली गद्दे-तकिये हैं, न ओढ़ने के लिए शाल-दुशाले हैं, बिजली के पंखे हैं, न झाड़-फानूस या बिजली की रौशनी है और न मृगनयनी, मोहिनी कामिनी ही हैं; तो भी वे ज़मीन को ही अपना पलंग, हाथ को ही तकिया, शीतल वह को ही पंखा, चन्द्रमा को ही दीपक और संसारी विषय-भोगों से विरक्ति को ही अपनी स्त्री मान कर सुख से सोते हैं । राजा-महाराजा और अमीर-उमरा बढ़िया-बढ़िया पलंग, कन्दहारी कालीन, मखमली गद्दे-तकिये, बिजली के पंखे और रौशनी तथा सुंदरी स्त्रियों के साथ जो मिथ्या सुख उपभोग करते हैं, उससे लाख दर्जे उत्तम और सच्चा सुख मुनि लोग ज़मीर और अपनी भुजा, अनुकूल वह, चन्द्रमा तथा अपनी विरक्ति रूपिणी स्त्री के साथ उपभोग करते हैं । अब बुद्धिमानो को विचार करना चाहिए, कि उन दोनों में बुद्धिमान कौन है और वास्तविक सुख किसे मिलता है । अमीरों के सुख के लिए कितने झंझट करने पड़ते हैं और कितनी आफतें उठानी पड़ती हैं; तथापि उन्हें  सच्चा सुख नहीं मिलता और मुनि लोग बिना झंझट, बिना आफत और बिना प्रयास के सच्चा सुख भोगते और शान्ति की नींद सोते हैं ।

छप्पय 
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पृथ्वी परम पुनीत, पलंग ताकौ मन मान्यौ ।
तकिया अपनो हाथ, गगन को तम्बू तान्यौ ।।
सोहत चन्द चिराग, बीजना करात दशोंदिशि ।
बनिता अपनी वृत्ति, संगहि रहत दिवस-निशि ।।
अतुल अपार सम्पति सहित, सोहत है सुख में मगन ।
मुनिराज महानृपराज ज्यों, पौढ़े देखे हम दृगन ।।


त्रैलोक्याधिपतित्वमेव विरसं यस्मिन्महाशासने
तल्लब्ध्वासनवस्त्रमानघटने भोगे रतिं मा कृथाः।।
भोगः कोऽपि स एक एव परमो नित्योदितो जृम्भते
यत्स्वादाद्विरसा भवन्ति विषयास्त्रैलोक्यराज्यादयः।। ८० ।।

अर्थ:

हे आत्मा ! अगर तुझे उस ब्रह्म का ज्ञान हो गया है, जिसके सामने तीनो लोक का राज्य तुच्छ मालूम होता है; तो तू भोजन, वस्त्र और मान के लिए भोगों की चाहना मत कर; क्योंकि वह भोग सर्वश्रेष्ठ और नित्य है; उसके मुकाबले में त्रिलोकी के राज्य प्रभृति सुख कुछ भी नहीं हैं ।

जब तक मनुष्य को ब्रह्म ज्ञान नहीं होता, जब तक उसे आत्मज्ञान नहीं होता, जब तक उसे सुख का स्वाद नहीं मिलता, तभी तक मनुष्य संसारी-विषय-भोगों में सुख समझता है । जब मनुष्य को उस सर्वोत्तम - सदा स्थिर रहनेवाले सुख का स्वाद मिल जाता है, तब वह संसारी आनन्द या दुनियावी मज़े तो क्या - त्रिभुवन के राजसुख को भी कोई चीज़ नहीं समझता । मतलब यह है कि सच्चा और वास्तविक सुख ब्रह्मज्ञान या आत्मज्ञान में है । उसके बराबर आनन्द त्रिलोकी के और किसी पदार्थ में नहीं है । जो संसारी पदार्थों में सुख मानते हैं वे अज्ञानी और नासमझ हैं । उनमें अच्छे और बुरे, असल और नक़ल के पहचानने की तमीज नहीं । वे रस्सी को सांप और मृगमरीचिका को जल समझने वालों की तरह भ्रम में डूबे या बहके हुए हैं ।

सोरठा 
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कहा विषय को भोग, परम भोग इक और है ।
जाके होत संयोग, नीरस लागत इन्द्रपद ।।

किं वेदैः स्मृतिभिः पुराणपठनैः शास्त्रैर्महाविस्तरैः
स्वर्गग्रामकुटिनिवासफलदैः कर्मक्रियाविभ्रमैः।।
मुक्तवैकं भवबन्धदुःखरचनाविध्वंसकालानलं 
स्वात्मानन्दपदप्रवेशकलनं शेषा वणिग्वृत्तयः।। ८१ ।।

अर्थ:

वेद, स्मृति, पुराण और बड़े बड़े शास्त्रों के पढ़ने तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के कर्मकाण्ड करने से स्वर्ग में एक कुटिया की जगह प्राप्त करने के सिवा और क्या लाभ है ? ब्रह्मानन्द रुपी गढ़ी में प्रवेश करने की चेष्टा के सिवा, जो संसार बन्धनों के काटने में प्रलयाग्नि के समान है, और सब काम व्यापारियों के से काम हैं ।
वेद, स्मृति, पुराण और बड़े-बड़े शास्त्रों के पढ़ने-सुनने और उनके अनुसार कर्म करने से मनुष्य को कोई बड़ा लाभ नहीं है । अगर ये कर्मकाण्ड ठीक तरह से पार पड़ जाते हैं, तो इनसे इतना ही होता है, कि स्वर्ग में एक कुटी के लायक स्थान मिल जाता है, पर वह स्थान भी सदा कब्ज़े में नहीं रहता; जिस दिन पुण्यकर्मों का ओर आ जाता है, उस दिन वह स्वर्गीय स्थान फिर छिन जाता है; इससे प्राणी को फिर दुःख होता है । मतलब यह हुआ कि कर्मकाण्डों से जो सुख मिलता है, वह सुख नित्य या सदा-सर्वदा रहनेवाला नहीं । उस सुख के अन्त में फिर दुःख होता है - फिर स्वर्ग छोड़ कर मृत्युलोक में जन्म लेना पड़ता है - वही जन्म-मरण के दुःख झेलने पड़ते हैं । इसलिए मनुष्यों को ब्रह्मज्ञानी होने कि चेष्टा करनी चाहिए; क्योंकि ब्रह्मज्ञान रुपी अग्नि प्रलयाग्नि के समान है । वह अग्नि संसार बन्धनों को जड़ से जला देती है; अतः फिर सदा सुख रहता है - दुःख का नाम भी सुनने को नहीं मिलता । इसलिए ज्ञानियों ने ब्रह्मज्ञान - आत्मज्ञान को सर्वोपरि सुख दिलानेवाला माना है । मतलब यह है कि बिना ब्रह्मज्ञान या रामभक्ति के सब जप-तप आती वृथा हैं । सारे वेद-शास्त्रों और पुराणों का यही निचोड़ है कि ब्रह्म सत्य और जगत मिथ्या है तथा जीव ब्रह्मरूप है । जो इस तत्व को जानता है वही सच्चा पण्डित है । जो ब्रह्म या आत्मा को नहीं जानता, वह अज्ञानी और मूर्ख है । उसका पड़ना लिखना वृथा समय नष्ट करना है ।

तुलसीदास जी ने कहा है :-
चतुराई चूल्हे परौ, यम गहि ज्ञानहि खाय ।
तुलसी प्रेम न रामपद, सब जरमूल नशाय ।।

महादेवजी पार्वती से कहते हैं :-
ये नराधम लोकेषु, रामभक्ति पराङ्गमुखाः।
जपं तपं दयाशौचं, शास्त्राणां अवगाहनं।।
सर्व वृथा विना येन, श्रुणुत्वं पार्वति प्रिये ! ।।

हे प्रिये ! जो नराधम इस लोक में राम की भक्ति से विमुख हैं, उनके जप, तप, दया, शौच, शास्त्रों का पठन-पाठन - ये सब वृथा हैं । असल तत्व भगवान् की निष्काम भक्ति या ब्रह्म में लीन होना है ।

छप्पय
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श्रुति अरु स्मृति, पुरान पढ़े बिस्तार सहित जिन ।
साधे सब शुभकर्म, स्वर्ग को बात लह्यौ तिन ।।
करत तहाँ हूँ चाल, काल को ख्याल भयंकर ।
ब्रह्मा और सुरेश, सबन को जन्म मरण डर ।।
ये वणिकवृत्ति देखी सकल, अन्त नहीं कछु काम की ।
अद्वैत ब्रह्म को ज्ञान, यह एक ठौर आराम की ।।


आयुः कल्लोललोलम् कतिपयदिवसस्थायिनी यौवन श्री-
रर्थाः संकल्पकल्पा घनसमयतडिद्विभ्रमा भोगपूराः।।
कण्ठाश्लेषोपगूढं तदपि च न चिरं यत्प्रियाभिः प्रणीतं
ब्रह्मण्यासक्तचित्ता भवत भवभयाम्भोधिपारं तरीतुम्।। ८२ ।।

अर्थ:

आयु - उम्र पानी की लहरों के समान चञ्चल है, जवानी थोड़े दिनों की है, धन मन के संकल्पों से भी कम देर ठहरनेवाला है, भोग वर्षाकाल में चमकनेवाली बिजली की चमक से भी अधिक चञ्चल हैं, प्यारी स्त्री का गले से लगाना भी चिरस्थायी नहीं है। इसलिए मनुष्यों ! भवसागर से पार होने के लिए ब्रह्म में लीन होओ ।

आयु की चंचलता
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प्राणी की आयु का कोई ठिकाना नहीं । यह जल की तरंगों के समान चञ्चल और पानी के बुलबुले के समान क्षणस्थायी है । यह अभी है और अगले क्षण न रहे । जो सांस बाहर जाता है, वह वापस आवे और न आवे । इधर प्राणी जन्म लेता है और उधर मौत उसके पीछे लग जाती है । ऐसे क्षणभंगुर जीवन पर क्या ख़ुशी मनाई जाए ?

"मोहमुद्गर" में कहा है :
नलिनीदलगतजलमतितरलं, तद्वज्जीवितमतिशयचपलम् ।
विद्धि व्याधिव्यालग्रस्तं, लोकं शोकहतञ्च समस्तम् ।।

पद्मपत्र पर पड़ा हुआ जल अतीव चञ्चल होता है, मनुष्य का जीवन भी उसी तरह अतीव चञ्चल है। यह सारा संसार रोग-रुपी सर्पों से ग्रसित हो रहा है । इसमें दुःख ही दुःख है ।

जवानी
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जिस तरह मनुष्य की आयु पानी के लहरों के समान चञ्चल और सदा सर्वदा रहने वाली नहीं है; उसी तरह जवानी भी अल्परोज़ा या अल्पकालस्थायी है । सदा कोई जवान नहीं रहा । अवस्थाएं बदलती ही रहती हैं । बचपन के बाद जवानी और जवानी के बाद बुढ़ापा आता है और अवश्य आता है । चार दिन की चांदनी फिर अँधेरी रात वाली बात है ।

किसी ने कहा है :
सदा न फूलै तोरई, सदा न सावन होय ।
सदा न जीवन थिर रहे, सदा न जीवे कोय ।।

और भी कहा है :
रहती है कब, बहारे जवानी तमाम उम्र ।
मानिन्द बूये गुल, इधर आयी उधर गयी ।।

यौवन अवस्था की बहार उम्र भर थोड़े ही रहती है । यह तो फूल की सुगंध की तरह इधर आयी, उधर गयी ।
जो आज जवानी के नशे में मतवाले हो रहे हैं, जो मल-मल कर और साबुन लगा-लगा कर अपनी मिटटी की काया को धोते और उसे चन्दन-कपूर एवं इत्र-फुलेलों से सुगन्धित करते एवं भाँति-भाँति के गहने पहने रहते हैं, स्त्रियां जो अपनी दोनों छातियों को ऊँची उठा कर चलती हैं और पुरुष जो मूंछो पर बल और ताव देते हैं, वे होश करें और मन में निश्चय समझ लें, कि उनका यह शरीर सदा उनके साथ न रहेगा, एक दिन यहाँ का यहाँ ही पड़ा रह जाएगा और मिटटी में मिल जाएगा । काय के नाश होने से पहले ही वृद्धावस्था, युवावस्था को निगल जाएगी । जो दांत आज मोतियों कि तरह चमकते हैं वे कल हिल-हिल कर अपना दम नाक में कर देंगे और एक-एक करके आपका साथ छोड़ देंगे । उस समय आपका मुख पोपला और भद्दा हो जाएगा । जिन बालों को आप रोज़ धोते और साफ़ रखते हैं तथा जिनकी सजावट आप तरह-तरह से करते हैं, वे एक दिन सफ़ेद या सन की तरह हो जाएंगे । ये फूले हुए गाल पिचक जाएंगे । आँखों में यह रसीलापन न रहेगा । इनमें पीलापन और धुन्ध छा जायेगा । आज की सी अकड़-तकड़ न रहगे, लाठी के सहारे चलेंगे और वह भी कांपने लगेगी । जो लोग आज आपको देखकर खुश होते हैं, आपका आदर करते हैं, वे ही आपका अनादर करेंगे, आपकी बात भी न पूछेंगे, यह तो आपकी काया और जवानी का हाल है, अब अपनी धन-दौलत की चञ्चलता की बातें भी सुनिए ।

लक्ष्मी चञ्चल है
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लक्ष्मी को चञ्चला और चपला भी कहते हैं । लक्ष्मी ठीक उस चपला की तरह है, क्षण में चमकती और क्षणभर में ही बादलों में बिलाय जाती है । अनेकों ने इस धन को मन के विचारों की तरह क्षणस्थायी और बेजड़ कहा है । यह धन किसी के पास सदा नहीं रहा । तीन पीढ़ी से अधिक तो एक परिवार में धन रहते किसी ने देखा ही नहीं । आज जो धनी है, कल वही निर्धन हो जाता है । आज जो हज़ारों को भोजन देता है, कल वही अपने भोजन के लिए औरों के द्वार पर भटकता फिरता है । आज जो राजा है, कल वही रंक हो जाता है । आज जो बिना मोटर और जोड़ी के एक कदम नहीं चल सकता, कल वही पैदल दौड़ता फिरता है । आज जिसकी आज्ञा के पालन के लिए हज़ारों दास-दासी खड़े रहते हैं, कल वही दूसरों की आज्ञा के पालन के लिए खड़ा देखा जाता है ।  सारांश यह कि, धन-वैभव सदा न तो किसी के पास रहा है और न रहेगा । इसलिए धन को भी चञ्चल कहा है ।

निति में लिखा है :
यौवनं जीवितं चित्तं छायालक्ष्मीश्च स्वामिता ।
चञ्चलानि षडेतानि ज्ञात्वा धर्मरतो भवेत् ।।

यौवन, जीवन, मन, शरीर कि छाया, धन और स्वामिता - ये छहों चञ्चल हैं, यानी स्थिर होकर नहीं रहते । मूर्ख हैं वे जो इस झूठे और सदा न रहने वाले धन पर फूलते और घमण्ड करते हैं । वह समझते हैं कि यह हमारे पास सदा रहेगा; पर यह उनकी भारी भूल है फ। धन को सदा बिजली की चमक और बादल की छाया की तरह क्षणस्थायी और चञ्चल समझकर अभिमान न करना चाहिए ।

"मोहमुद्गर" में कहा है :
मा कुरु धनजन यौवन गर्वं, हरति निमेषात् कालः सर्वं ।
मायामयमिदमखिलं हित्वा, ब्रह्मपद प्रविशाशु विदित्वा।।

इस धन-यौवन का गर्व न कर, काल इसको पालक मारते हर लेता है । इस मायामय संसार को त्यागकर, शीघ्र ही ब्रह्मपद में प्रविष्ट हो ।

स्त्री का आलिङ्गन भी चिरस्थायी नहीं
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जिस तरह आयु, धन और यौवन चञ्चल है; उसी तरह नारी भी चञ्चल है । आज जो अपनी है, कल उसे परायी होते देर नहीं लगती । आज जो रमणीयों के आनन्द करते हैं कल वे ही उनके वियोग में तड़पते देखे जाते हैं । कहते हैं की स्त्री करवट बदलते परायी हो जाती है ।

कहा है :
शास्त्रं सुचिन्तितमथो परिचिन्तनीयं।
आराधितोऽपि नृपतिः परिशंकनीयः।
अंकेस्थितापि युवतिः परिरक्षणीयः।
शास्त्री नृपे च युवतौ च कुतो वशित्वं ?

खूब याद किये हुए शास्त्रों की भी बार-बार फेरना चाहिए, खूब सेवा किये हुए राजा से भी डरना चाहिए, गोद में पड़ी स्त्री की भी सावधानी से रक्षा करनी चाहिए; क्योंकि शास्त्र, राजा और युवती इनका विश्वास नहीं ।
"स्त्रीणां विश्वासो नैव कर्तव्यः"
स्त्रियों का विश्वास नहीं करना चाहिए, ऐसे-ऐसे वाक्य जगह जगह मिलते हैं । महाराजा भर्तृहरि को ही लीजिये । महाराज में क्या त्रुटि थी ? क्या उनमें बलवीर्य, रूप, विद्या, चातुरी प्रभृति किसी भी गन की कमी थी ? क्या उनके यहाँ सुख-भोगों के सामानों की कमी थी ? नहीं, कुछ भी नहीं । सब कुछ था; पर पिंगला ने महाराजा को छोड़, घोड़ों के दरोगा से दिल लगाया । फिर,। स्त्रियों की प्रीती को सदा दिल लगाने वाली कैसे कह सकते हैं ?

एक स्त्री की दग़ाबाज़ी
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एक साहूकार ने अपने लड़के को नाराज़ होकर घर से निकाल दिया । चलते समय उसने अपनी स्त्री से कहा - "तुझे मैं तेरे पीहर पहुंचाता जाऊँ, क्योंकि वन में बड़े कष्ट हैं और अभी रोज़गार का ठिकाना नहीं। ईश्वर जाने क्या क्या कष्ट उठाने होंगे ।" स्त्री ने कहा - "स्वामिन मैं आपके बिना क्षणभर भी नहीं रह सकती । आपके वियोग के मुकाबले में राह-बाट और वन के कष्ट तुच्छ हैं । मैं आपके साथ चलूंगी और आपकी पदसेवा कर अपने तई धन्य समझूंगी ।" साहूकार के लड़के के बहुत समझाने पर भी जब स्त्री न मानी, तो उसने उसे अपने साथ ले लिया ।
वे दोनों स्त्री पुरुष घर से कुछ द्रव्य लेकर चल पड़े । रोज़ मंज़िलों पर मंज़िलें तय करते हुए एक दिन दोनों दोपहर के समय एक फकीर के तकिये पर पहुंचे । वहाँ वृक्षों की सघन छाया थी, सामने ही थोड़े फ़ासिले पर एक कुंआ था । साहूकार का लड़का लोटा-डोर ले जल लाने गया और स्त्री वहीँ बैठी रही । फ़क़ीर ने देखा कि स्त्री तो परमा सुन्दरी और नवयौवना है; अतः उससे कहा - "तू मेरे साथ रहे, तो दुनिया के मज़े देखे । जा उसे कुँए में धकेल कर आ फिर हम दोनों पास के शहर में चल रहेंगे ।" साहूकार की स्त्री जो पति के लिए प्राण देती थी, जो पति के कहने पर भी पीहर न गयी थी, क्षण भर में पराई हो गयी । फकीर की बातों में आकर वह कुँए पर गयी । ज्यों ही उसका पति लोटा खींचने को झुका, उसने धक्का देकर उसे कुँए में गिरा दिया । उसे ज़रा सी दया भी न आयी । पीछे आकर वह फ़क़ीर के साथ होली । फ़क़ीर उसे नगर में ले आया और उसके धन से मौज करने लगा । साथ ही गाने बजाने वाले उस्तादों को बुलाकर, उसे गाने-बजाने की तालीम दिलाने लगा । उसकी चढ़ती जवानी थी, रूप-लावण्य था; अतः गाने में भी वह पक्की हो गयी । सारे शहर में उसके नाचने गाने की शोहरत हो गयी ।
उधर वह लड़का कुँए में पड़ा हुआ अपनी किस्मत पर रोता था । कहीं से एक बंजारा आया । उसके साथ सौ दो सौ आदमी और बालध  थे । वहीँ पड़ाव पड़ा । लोग रोटी बनाने का उद्योग करने लगे । कोई कुँए पर पानी भरने गया । ज्योंही उसने डोल फांसा, कि साहूकार के लड़के ने डोल पकड़ लिया । लोगों ने पूछा - "तू कौन है ?" उत्तर दिया - "मैं आफत का मारा मनुष्य हूँ । कृपा कर मुझे निकाल लो ।" लोगों ने मिलकर उसे बाहर खींच लिया । देखा तो वह पीला पड़ गया था । बंजारे ने उसकी चिकित्सा कराकर उसे गरम कपड़ों में सुला दिया । चन्दरोज में वह बंजारा भी उसी नगर में पहुंचा । साहूकार का लड़का रोज़गार की तलाश में घूमता रहा । ईश्वर की कृपा से एक बड़े सेठ ने उसे अपने यहाँ रख लिया । लड़का बड़ा ही चलता पुर्ज़ा निकला, इसलिए सेठ ने उसे अपना प्रधान मुनीम बना लिया ।
उन्ही दिनों उस वेश्या की बड़ी तारीफ सुन, राजा ने अपने यहाँ उसे नाच का हुक्म दिया । महफ़िल सजाई गयी, चारों ओर नगर के सेठ-साहूकार, रईस-अमीर बैठे । राजा सिंहासन पर बैठा । वेश्या नाचने लगी, उसे नाच-गान पर महफ़िल  की महफ़िल मुग्ध हो गयी । इतने में उस वेश्या की नज़र उस साहूकार के लड़के या अपने पति पर पड़ गयी । राजा ने प्रसन्न होकर कहा, " बीबी ! तुम मांगो, वही इनाम मिलेगा ।" वेश्या ने कहा - "महाराज ! यदि आप मुझे इनाम देने का वचन देते हैं, तो यह वचन दीजिये की जो मांगू वही मिले।" राजा वचनबद्ध हो गया था, तब वेश्या ने कहा - "राजन ! वह सामने बैठा हुआ पुरुष मेरा चोर है, उसे मरवा दीजिये ।" जब राजा ने उसके मारे जाने की आज्ञा दे दी, तब साहूकार के लड़के ने कहा - "इसके पास मेरी कुछ धरोहर है, इससे कहिये कि हाथ जल में ले मुझे उसे संकल्प कर के दे दे ।" वेश्या ने कहा - "मुए ! तेरा मुझे क्या देना है ? खैर ले; मैं जल लेकर संकल्प करके कहती हूँ, कि जो कुछ तेरा मेरे पास हो तू ले ।" वेश्या के संकल्प छोड़ते ही वह ज़मीन पर गिर पड़ी और मर गयी । राजा को बड़ा विस्मय हुआ । उसने उस लड़के से इस घटना का असली तत्व पूछा । लड़के ने कहा - "राजन ! यह मेरी ब्याहता स्त्री है । मैं और यह घर से निकल आये । राह में इसे सांप ने काट और यह मर गयी, मैं भी इसी के साथ जलने को तैयार हुआ । इतने में महादेव-पार्वती उधर आ निकले । पहले तो उन्होंने कहा - "अरे पागल ! स्त्री के लिए जान देता है ! तू है तो और बहुत स्त्रियां मिल जाएंगी । पर मैं उनकी बात पर राज़ी न हुआ, तब उन्होंने कहा - "तू हाथ में जल लेकर अपनी आधी आयु इसे दे तो यह जी सकती है । फिर भी, जब कभी तू अपनी शेष बची आयु इससे मांगेगा और यह संकल्प छोड़ देगी, तब यह मर जायेगी । महाराज मुझे यह प्राणो से भी  प्यारी थी; अतः मैंने अपनी आधी आयु इसे दे दी । इसके बाद मुझे यह कुँए में धकेल फ़क़ीर के साथ चली आयी और वेश्या हो गयी । आज यह मुझे जान से मरवाने पर ही तुल गयी । स्त्री जाति कि प्रीती का ज़रा भी विश्वास नहीं ।" राजा उससे बहुत प्रसन्न हुआ और उसे अपना प्रधान मंत्री बना लिया ।
इस कहानी से हमने स्त्रियों की प्रीति का नमूना दिखाया है । निश्चय ही, सभी स्त्रियां ऐसी नहीं होती; पर इसमें शक नहीं कि अधिकाँश ऐसी ही होती हैं; अतः स्त्री की प्रीति का आनन्द सदा नहीं मिल सकता । मान लो, स्त्री पतिव्रता भी हो, तो सम्भव है कि वह पहले ही मर जाए । इस तरह भी वियोग हो सकता है ।
सारांश यह कि आयु, यौवन, धन और नारी - ये सभी चञ्चल, अनित्य और क्षणभंगुर हैं । इसीलिए परिणाम में दुखों के भण्डार हैं । अतएव, बुद्धिमानों को चाहिए कि ब्रह्म में चित्त लगाएं, रात-दिन उसी का ध्यान - उसी का चिन्तन करें । उससे वे भवसागर के पार हो जाएंगे । उन्हें बारम्बार जन्म-मरण का कष्ट न होगा - नित्य-स्थायी सुख मिलेगा । स्त्री, पुत्र, धन प्रभृति में मन लगाने से सदा दुःख-सागर में गोते लगाने पड़ते हैं । मर कर फिर जन्म लेना पड़ता है और फिर मरना पड़ता है । अब बुद्धिमान ही विचार करें, कि दोनों में कौन सा मार्ग सुखदायी है ।

छप्पय
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जल की तरल तरंग जात, ज्यों जात आयु यह।
यौवन हूँ दिन चार, चटक की चोंप चाह चह।।
ज्यों दामिनी प्रकाश, भोग सब जानहु तैसे ।
तैसे ही यह देह अथिर, थिर ह्वै है कैसे ।।
सुनि ऐरे मेरे चित्त तू, होही ब्रह्म में लीन गति ।
संसार अपार समुद्र तर, करि नौका निज ज्ञान रति ।।


ब्रह्माण्डमण्डलीमात्रं किं लोभाय मनस्विनः ।

शफरीस्फुरितेनाब्धेः  क्षुब्धता जातु जायते ।। ८३ ।।

अर्थ:

जो विचारवान है, जो ब्रह्मज्ञानी है, उसे संसार लुभा नहीं सकता । मछली के उछालने से समुद्र उड़ नहीं उमड़ता ।

जिस तरह सफरी मछली के उछाल-कूद मचाने से समुद्र अपनी गंभीरता को नहीं छोड़ता, ज़रा भी नहीं उमगता, जैसा का तैसा बना रहता है; उसी तरह विचारवान ब्रह्मज्ञानी संसारी-पदार्थों पर लट्टू नहीं होता वह समुद्र की तरह गंभीर ही बना रहता है; अपनी गंभीरता नहीं छोड़ता । समुद्र जिस तरह मछली की उछल-कूद को कुछ नहीं समझता उसी तरह वह त्रिलोकी की सुख-संपत्ति को तुच्छ समझता है । मतलब यह है कि संसारी विषय-भोग उन्ही को लुभाते हैं, जो विचारवान नहीं हैं, जिनमें विचार शक्ति नहीं है, जिन्हे ब्रह्मज्ञान का आनन्द नहीं मालूम है ।

उस्ताद ज़ौक़ कहते हैं -
दुनिया है वह सय्यद कि सब दाम में इसके।
आ जाते हैं लेकिन कोई दाना नहीं आता ।।

दुनिया एक ऐसा जाल है, जिसमें प्रायः सभी फंसे हुए हैं । कोई दाना अर्थात विचारशील पुरुष ही इस जाल से बचा हुआ है ।
संसार अन्तः सार-शून्य है, इसमें कुछ नहीं है । यह ठीक आंवले के समान है, जो ऊपर से खूब सुन्दर और चिकना-चुपड़ा दीखता है; मगर भीतर कुछ नहीं । किसी ने संसार को स्वप्नवत और किसी ने इसे कोरा ख्याल ही कहा है ।

महाकवि ग़ालिब कहते हैं -
हस्ती के मत फरेब में आ जाइयो असद ।
आलम तमाम हलक़ ये दाम ख़्याल है ।।

ग़ालिब सृष्टि के चक्कर में मत आ जाना । यह सब प्रपंच तुम्हारे ख़्याल के सिवा और कोई चीज़ नहीं है ।
इसके जाल में समझदार नहीं फंसते किन्तु नासमझ लोग, जाल के किनारों पर लगी सीपियों की चमक-दमक देखकर जाल में आ फंसने वाली मछलियों की तरह इसके माया-मोह में फंसकर अनेक प्रकार के कष्ट उठाते हैं; किन्तु ज्ञानी इसकी अनित्यता, इसकी असारता को देखकर इससे किनारा कर लेते हैं ।

दोहा
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ज्यों सफरी को फिरत लख, सागर करत न क्षोभ।
अण्डा से ब्रह्माण्ड को, त्यों सन्तन को लोभ ।।


यदासीदज्ञानं स्मरितिमिरसंस्कारजनितं
तदा दृष्टं नारिमयभिदमशेषं जगदपि ।।
इदानीमस्माकं पटुतर विवेकाञ्जनजुषां
समीभूता दृष्टीस्त्रिभुवनमपि ब्रह्म तनुते ।। ८४ ।।

अर्थ:

जब तक हमें कामदेव से पैदा हुआ अज्ञान-अन्धकार था, तब तक हमें सारा जगत स्त्रीरूप ही दीखता था । अब हमने विवेकरूपी अञ्जन आँज लिया है, इससे हमारी दृष्टी समान हो गयी है । अब हमें तीनो भुवन ब्रह्मरूप दिखाई देते हैं ।

जब हम काम-मद से अन्धे हो रहे थे, जब हमें अच्छे-बुरे का ज्ञान नहीं था, तब हमें स्त्री ही स्त्री दिखाई देती थी, बिना स्त्री हमें क्षणभर भी कल नहीं थी; किन्तु अब हममें विवेक-बुद्धि आ गयी है, अब हम अच्छे-बुरे को समझने लगे हैं, इसलिए अब हमें सारा संसार एक सा मालूम होता है । अब हमें कहीं स्त्री नहीं दीखती, सभी तो एक से दीखते हैं । जहाँ नज़र दौड़ाते हैं, वहीँ ब्रह्म ही ब्रह्म नज़र आता है । मतलब यह कि न कोई स्त्री है न कोई पुरुष, सभी तो एकही हैं; केवल छोले का भेद है । आत्मा न स्त्री है न पुरुष; वह सबमें समान है । मगर अज्ञानियों को यह बात नहीं दीखती । उन्हें और का और दीखता है ।
श्वेताश्वतरोपनिषद में लिखा है -
नैव स्त्री न पुमानेष न चैवायं नपुंसकः ।
यद्यच्छरीरमादत्ते तेन तेन स युज्यते ।।

यह आत्मा न स्त्री है न पुरुष और न नपुंसक । यह जिस शरीर को धारण करता है, उसी-उसी के साथ जुड़ जाता है ।
जब मनुष्य को इस बात का ज्ञान हो जाता है कि स्त्री और पुरुष में कोई भेद नहीं, जो मैं हूँ वही स्त्री है - स्त्री ने और तरह का कपडा पहन रखा है और मैंने और तरह का - तब उसका मन स्त्री पर नहीं भूलता । अपने ही स्वरुप को और समझकर उससे मैथुन करने की इच्छा नहीं होती । ज्ञानी को संसार में शत्रु, मित्र, स्त्री-पुत्र, स्वामी-सेवक नहीं दीखते । वह स्त्री-पुत्र और शत्रु-मित्र सबको समान समझता है; किसी से राग और किसी से द्वेष नहीं रखता । उसे कुत्ते में, आदमी में तथा प्राणी मात्र में ही एक विष्णु दीखता है । यह अवस्था परमपद की अवस्था है ।
स्वामी शंकराचार्य जी कहते हैं -
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ 
मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ ।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वम् 
वाञ्छस्यचिराद् यदि विष्णुत्वम् ।।

शत्रु, मित्र और पुत्र-बांधवों में, विरोध या मेल के लिए चेष्टा न कर । यदि शीघ्र ही मोक्ष पद चाहता है तो शत्रु-मित्र और पुत्र-कलत्र प्रभृति को एक नज़र से देख । सबको अपना समझ, किसी को गैर न समझ; समान चित्त हो जाय । जैसा ही पुरुष वैसी ही स्त्री, जैसा बेटा वैसा दुश्मन और जैसा धन वैसी मिटटी ।

कहानी - एक सच्चा महात्मा
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एक साधु सदा ज्ञानोन्मत्त अवस्था में रहता था । वह कभी किसी से फालतू बातचीत नहीं करता था । एक रोज़ एक गाँव में भिक्षा मांगने गया । एक घर से उसे जो रोटी मिली, वह उसे आप खाने लगा और साथ में कुत्ते को भी खिलने लगा । यह देख वहां अनेक लोग इकट्ठे हो गए और उनमें से कोई-कोई उसे पगला कह कर उसकी हंसी करने लगे । यह देख महात्मा ने उनसे कहा - "तुम क्यों हँसते हो?"

विष्णुः परिस्थितो विष्णुः 
विष्णुः खादति विष्णवे ।
कथं हससि रे विष्णो ?
सर्वं विष्णुमयं जगत् ।।

विष्णु के पास विष्णु है । विष्णु, विष्णु को खिलता है । अरे विष्णु, तू क्यों हँसता है ? सारा जगत विष्णुमय है; यानी सारा संसार उस पूर्णतम विष्णु से व्याप्त है ।
सच्चे और पहुंचे हुए साधू-फ़क़ीर सारे संसार में एक परमात्मा को देखते हैं । उन्हें दूसरा कोई नज़र नहीं आता । अज्ञानी लोग, जिनके ज्ञान-चक्षु बन्द हैं, जगत में किसी को अपना और किसी को पराया समझते हैं ।
किसी ने क्या अच्छा उपदेश दिया है ।
एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयताम् ।
पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्व्यापितं दृश्यतां ।
प्राक्कर्म प्रविलोप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरे श्लिष्यतां ।
प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम् ।।

एकान्त-निर्जन स्थान में सुख से बैठना चाहिए । परब्रह्म परमात्मा में मन लगाना चाहिए । पूर्णात्मा पूर्णब्रह्म से साक्षात् करना चाहिए और इस जगत को पूर्णब्रह्म से व्याप्त समझना चाहिए । पूर्वजन्म के कर्मो का लोप करना चाहिए और ज्ञान के प्रभाव से अब के किये कर्मों के फल त्याग देने चाहिए; यानी निष्काम कर्म करने चाहिए; जिससे कर्मबन्धन में बंधकर फिर जन्म न लेना पड़े । इस संसार में प्रारब्ध या पूर्व जन्म के कर्मो को भोगना चाहिए और इसके बाद परमेश्वररूप से इस जगत में ठहरना चाहिए; यानि अपने में और परमात्मा में भेद न समझना चाहिए ।

दोहा
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काम-अन्ध जबही भयौ, तिय देखी सब ठौर ।
अब विवेक-अञ्जन किये, लख्यौ अलख सिरमौर ।।


रम्याश्चन्द्रमरिचयस्तृणवती रम्या वनान्तस्थळी
रम्यः साधुसमागमः शमसुखं काव्येषु रम्याः कथाः ।
कोपोपहितवाष्पबिन्दुतरलं रम्यं प्रियाया मुखं
सर्वंरम्यमनित्यतामुपगते चित्तेनकिञ्चित्पुनः ।। ८५ ।।

अर्थ: 

चन्द्रमा की किरणे, हरी-हरी घास के तख्ते, मित्रों का समागम, शृङ्गार रस की कवितायेँ, क्रोधाश्रुओं से चञ्चल प्यारी का मुख - पहले ये सब हमारे मन को मोहित करते थे; किन्तु जब से संसार की अनित्यता हमारी समझ में आयी, तब से ये सब हमें अच्छे नहीं लगते ।

जब तक मनुष्य को संसार की असारता, उसकी अनित्यता, उसका थोथापन, उसकी पोल नहीं मालूम होती, तभी तक मनुष्य संसार और संसार के झगड़ों में फंसा रहता है और विषय भोगों को अच्छा समझता है; किन्तु संसार की असलियत मालूम होते ही, उसे विषय सुखों से घृणा हो जाती है । उस समय न उसे चन्द्रमा की शीतल चांदनी प्यारी लगती है, न मित्रमण्डली अच्छी मालूम होती है, न शृङ्गार रस की कवितायेँ अच्छी मालूम होती हैं और न उसका चित्त, चंद्रवदनि कामिनियों को ही देखकर मचलता है ।

छप्पय
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चन्द चाँदनी रम्य, रम्य बनभूमि पहुपयुत ।
योंही अति रमणीक, मित्र मिळवो है अद्भुत ।।
बनिता के मृदु बोल, महारमणीक विराजत ।
मानिनमुख रमणीक, दृगन अँसुअन जल साजत ।
ए हे परमरमणीक सब, सब कोउ चित्त में चहत ।
इनको विनाश जब देखिये, तब इनमें कछुहु न रहत ।।


भिक्षाशी जनमध्यसंगरहितः स्वायत्तचेष्टः सदा

दानादानविरक्तमार्गनिरतः कश्चित्तपस्वी स्थितः।।
रथ्याक्षीणविशीर्णजीर्णवसनैः सम्प्राप्तकंथासखि-
र्निमानो निरहंकृतिः शमसुखाभोगैकबद्धस्पृहः।। ८६ ।।

अर्थ:

ऐसा तपस्वी को विरला ही होता है, जो भीख मांगकर खाता है, जो अपने लोगों में रहकर भी उनमें मोह नहीं रखता, जो स्वाधीनतापूर्वक अपना जीवन निर्वाह करता है, जिसने लेने और देने का व्यवहार छोड़ दिया है, जो राह में पड़े हुए चीथड़ों की गुदड़ी ओढ़ता है, जिसे मान का ख्याल नहीं है, जिसमें अभिमान नहीं है और जो ब्रह्मज्ञान के सुख को ही सुख मानता है ।

ज्ञानी के लक्षण सुन्दरदास जी ने इस भांति कहे हैं -
कर्म न विकर्म करे, भाव न अभाव धरे।
शुभ न अशुभ परे, यातें निधरक है।।
वस तीन शून्य जाके, पापहु न पुण्य ताके।
अधिक न न्यून वाके, स्वर्ग न नरक है।।
सुख दुःख सम दोउ, नीचहूँ न उंच कोउ।
ऐसी विधि रहै सोउ, मिल्यो न फरक है।।
एकही न दोय जाने, बंद मोक्ष भ्रम मानै।
सुन्दर कहत, ज्ञानी ज्ञान में गरक है।।

जो भीख मांगकर पेट की अग्नि को शांत कर लेता है, पर किसी की खुशामद नहीं करता, किसी के अधीन नहीं होता, स्वाधीन रहता है; राह में पड़े हुए चीथड़े उठाकर उनकी ही गुदड़ी बनाकर ओढ़ लेता है; मान-अपमान और सुख-दुःख को समान समझता है; न किसी से कुछ लेता है न किसी को कुछ देता है; गृहस्थी में या अपने बन्धु-बान्धवों में रहकर भी उनमें ममता नहीं रखता; शुभाशुभ, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक को कोई चीज़ नहीं समझता; किसी को नीच और किसी को उंच नहीं समझता, सभी में एक आत्मा देखता है; बन्धन और मोक्ष को भी मन का संकल्प या भ्रम समझता है तथा ब्रह्मज्ञान में गर्क रहता है और उसमें ही पूर्ण सुख समझता है - उससे बढ़कर ज्ञानी और कौन है ? ऐसे ज्ञानी के जीवन्मुक्त होने में संशय नहीं । उसे जन्म-मरण का कष्ट नहीं उठाना पड़ता । वह सदा परमानन्द में मग्न रहता है, पर ऐसे पुरुष कोई-कोई ही होते हैं ।

सोरठा
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उञ्छवृत्ति गति मान, समदृष्टि इच्छारहित।
करत तपस्वी ध्यान, कंथा को आसन किये।।


मातर्मेदिनि तात मारुत सखे तेजः सुबन्धो जलं ।
भ्रातर्व्योम निबद्ध एव भवतामेष प्रणामाञ्जलिः ।।
युष्मतसंगवशोपजातसुकृतोद्रेकस्फुरन्निर्म्मल-
ज्ञानापास्तसमस्तमोहमहिमा लिये परे ब्रह्मणि ।। ८७ ।।

अर्थ:

हे माता पृथ्वी ! पिता वायु ! मित्र तेज ! बन्धु जल ! भाई आकाश ! अब मैं आपको अन्तिम विदाई का प्रणाम करता हूँ । आपकी संगती से मैंने पुण्य कर्म किये और पुण्यों के फल स्वरुप मुझे आत्मज्ञान हुआ, जिसने मेरे संसारी मोह का नाश कर दिया । अब मैं परब्रह्म में लीन होता हूँ ।

मनुष्य शरीर पृथ्वी, वायु, तेज, जल और आकाश - पांच तत्वों से बनता है । जिसे आत्मज्ञान हो गया है, जिसने ब्रह्म को पहचान लिया है, वह इन पांच तत्वों से विदा लेता है और प्रणाम करके कहता है, कि मैं आप पाँचों के संग रहने से - यह शरीर धारण करने से - इस योग्य हुआ कि, ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सका; अब मेरा आपका साथ न होगा, अब मैं छोले में न आऊंगा, अब मुझे जन्म न लेना पड़ेगा । मैं आप लोगों का कृतज्ञ हूँ ; क्योंकि आपकी सुसंगति से ही मुझे या फल मिला है । अब मैं आपसे सदा को विदा होता हूँ । अब मैं ब्रह्म के आनन्द में मग्न हूँ । अब मुझे यहाँ आने की, आप लोगों की संगती करने की; यानि शरीर धारण करने की जरुरत नहीं । मतलब यह है कि मनुष्य का चोला ब्रह्मज्ञान के लिए मिलता है; और चोलों में, यह ज्ञान नहीं हो सकता । जो मनुष्य चोले में आकर ब्रह्मज्ञान लाभ करते हैं और उसकी बदौलत परम पद या मोक्ष प्राप्त करते हैं - वे ही धन्य हैं, उन्हीं का मनुष्य-देह पाना सार्थक है ।

छप्पय 
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अरी मेदिनी-मात, तात-मारुत सुन ऐरे।
तेज-सखा जल-भ्रात, व्योम-बन्धु सुन मेरे।।
तुमको करत प्रणाम, हाथ तुम आगे जोरत।
तुम्हारे ही सत्संग, सुकृत कौ सिन्धु झकोरत।।
अज्ञान जनित यह मोहहू, मिट्यो तुम्हारे संगसों।
आनन्द अखण्डानन्द को, छाय रह्यो रसरंग सों।।


यावत्स्वस्थमिदं कलेवरगृहं यावच्च  दूरे जरा

यावच्चेन्द्रियशक्तिरप्रतिहता यावत्क्षयो नायुषः ।
आत्मश्रेयसि तावदेव विदुषा कार्यः प्रयत्नो महा-
न्प्रोदीप्ते भवने च कूपखननं प्रत्युद्यमः कीदृशः ।। ८८ ।।

अर्थ:

जब तक शरीर ठीक हालत में है, बुढ़ापा दूर है, इन्द्रियों की शक्ति बनी हुई है, आयु के दिन बाकी हैं, तभी तक बुद्धिमान को अपने कल्याण की चेष्टा अच्छी तरह से कर लेनी चाहिए । घर जलने पर कुआँ खोदने से क्या फायदा ।

जब तक आपका शरीर निरोग और तन्दरुस्त रहे, बुढ़ापा न आवे, आपकी इन्द्रियों की शक्ति ठीक बनी रहे, आपका अन्त दूर हो, उम्र बाकी दिखे, तभी तक आप अपनी भलाई की चेष्टा कर लीजिये; यानि ऐसी हालत में ही भगवान् का भजन कर लीजिये । जब आप रोगों से जर्जरित हो जाएंगे, कफ,खांसी और दम घेर लेंगे, आँखों से न दिखेगा, कानो से न सुनाई देगा, गले में घर-घर कफ बोलने लगेगा, मौत अपना पंजा जमा देगी, तब आप क्या करेंगे ? अर्थात कुछ नहीं । उस समय आप कुछ करने की चेष्टा करेंगे भी, तो आपकी दशा उसकी सी होगी, जो घर में आग लगने पर कुआ खोदता है ।
किसी ने कहा है -
प्रथम नार्जिता विद्या, द्वितीय नार्जितं धनं ।
तृतीये नार्जितं पुण्यं, चतुर्थे किं करिष्यति ?।

बचपन में यदि विद्या नहीं सीखी, जवानी में यदि धन सञ्चय नहीं किया, बुढ़ापे में यदि पुण्य नहीं किया; तो चौथेपन में क्या करोगे ?
सबसे अच्छी बात तो बचपन में ही परमात्मा की भक्ति करना है । ध्रुव और प्रह्लाद ने बचपन में ही भक्ति करके परमात्मा के दर्शन किये थे अगर इस उम्र में न हो सके, तो जवानी में, जवानी में न हो सके तो बुढ़ापे में तो चूकना ही न चाहिए । स्त्री-पुत्र, धन-दौलत का मोह छोड़ परमात्मा में मन लगाओ; आजकल पर मत टालो; क्योंकि मौत हर समय घात में है, न जाने कब तुम्हे ले जाय । जब वह आ जाएगी तो तुमसे कुछ करते-धरते न बनेगा, तुम घबरा जाओगे, मुंह से परमात्मा का नाम न निकलेगा और हाथों से दान या पराया उपकार न कर सकोगे । उस समय तुम्हारा परलोक बनाने की चेष्टा करना, आग लग जाने पर कुंआ खोदने वाले के समान मूर्खतापूर्ण काम होगा । अतः जो करना है, मरने के समय से पहले ही करो ।

किसी ने परलोक-साधन के लिए क्या अच्छी सलाह दी है -
वेदो नित्यंधीयतां तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां
तेनेशस्यपिधीयतामपचितिः  कामे मतिसत्यज्यतां।
पापौघः परिधूयतां भवसुखे दोषोऽनुसन्धीयताम्
आत्मेच्छा व्यवसीयतां निजगृहात् तूर्णं विनिर्गम्यताम् ।।

नित्य वेद पढ़ो और वेदोक्त कर्मो का अनुष्ठान करो । वेद विधि से परमेश्वर की पूजा करो । विषय भोगों को बुद्धि से हटाओ ; यानि विषयों को त्यागो । पाप समूह का निवारण करो । संसारी सुख इत्र-फुलेल चन्दनादि के लगाने, स्त्री-भोगने और नाच-गाना देखने सुनने प्रभृति परिणाम विचारो ; यानि इनके दोषों की भावना करो । परमेश्वर या आत्मा में अनुराग करो और गृहस्थी के अनेक दोषों को समझ कर, शीघ्र ही घर को त्यागकर वन को चले जाओ ।

उस्ताद ज़ौक़ कहते हैं -
बेनिशाँ पहले फ़नासे हो, जो हो तुझको बका ।
वर्ना है किसका निशाँ, ज़ौके फनाने रक्खा ।।

मरने से पहले सांसारिक बन्धनों से अपने चित्त को हटा ले - अमर होने की यही एक तरकीब है; वर्ना मौत किसी का निशान नहीं छोड़ती ।

छप्पय
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जौ लौं देह निरोग, और जौ लौं जरा तन ।
अरु जौ लौं बलवान आयु, अरु इन्द्रिन के गन ।
तौं लौं निज कल्याण करन को, यत्न विचारत ।
वह पण्डित वह धीर-वीर, जो प्रथम सम्हारत ।
फिर होत कहा जर्जर भये, जप तप संयम नहिं बनत ।
भव काम उठ्यौ निज भवन जब, तब क्योंकर कूपहि खनत ।।


नाभ्यस्ता भुविवादिवृन्ददमनी विद्या विनीतोचिता
खड्गाग्रैः करिकुम्भपीठदलनैर्नाकं न नीतं यशः ।
कान्ताकोमलपल्लवाधररसः पीतो न चन्द्रोदये
तारुण्यं गतमेव निष्फलमहो शून्यालये दीपवत् ।। ८९ ।।

अर्थ:

हमनें इस जगत में नम्रों को संतुष्ट करनेवाली और वादियों की मान भञ्जन करनेवाली विद्या नहीं पढ़ी, तलवार की धार से हाथी के मस्तक का पिछला भाग काटकर अपना यश स्वर्ग तक नहीं पहुँचाया; चांदनी रात में सुन्दरी के कोमल अधर-पल्लव (निचले होठ) का रस भी नहीं पिया । हाय ! हमारी जवानी सूने घर में जलनेवाले और आपही बुझ जाने वाले दीपक की तरह योंही गयी !

दोहा
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विद्या पढ़ी न रिपु दले, रह्यौ न नारि समीप।
यौवन यह योंही गयो, ज्यों सूने गृह दीप।।


ज्ञानं सतां मानमदादिनाशनं
केषांचिदेतन्मदमानकारणं ।।
स्थानं विविक्तं यामिनां विमुक्तये 
कामातुराणामतिकामकारणाम् ।। ९० ।।

अर्थ:

अच्छे मनुष्यों में तो ज्ञान उनके मान-मद आदि का नाश करता है; किन्तु दुष्टों में वही ज्ञान मान-मद प्रभृति औगुणों की वृद्धि करता है । एकांत स्थान योगियों के लिए तो मुक्ति दिलानेवाला होता है; किन्तु वही कामियों की कामज्वाला बढ़ानेवाला होता है ।

जिस तरह स्वाति-बूँद सीप में पड़ने से मोती और केले में कपूर हो जाती है, किन्तु सर्पमुख में पड़ने से विष का रूपधारण करती है; उसी तरह एक चीज़ पुरुष-भेद से अलग अलग गुण दिखाती है । ज्ञान से अच्छे लोगों का अभिमान नाश हो जाता है, वे सब किसी को अपने बराबर समझते हैं, सबके साथ सुहानुभूति रखते हैं, किसी का दिल नहीं दुखाते; किन्तु उसी ज्ञान से दुष्ट लोगों की दुष्टता और भी बढ़ जाती है, वे अपने सामने जगत को तुच्छ समझते हैं; विद्याभिमान के मारे किसी की ओर नज़र उठा कर भी नहीं देखते, अपने सिवा सबको पशु समझते हैं । एक ही ज्ञान दो स्थानों में, स्थान भेद से अपना अलग-अलग प्रभाव दिखाता है । जैसे एकान्त स्थान योगियों के चित्त को ब्रह्मविचार में लीन करता है और इससे उनको परमपद - मुक्ति - मिल जाती है ; किन्तु वही एकान्त स्थान कामियों के दिलों में मस्ती पैदा करता है ।

दोहा
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ज्ञान घटावै मान-मद, ज्ञानहि देय बढ़ाय।

रहसि मुक्ति पावे यती, कामी रत लपटाय।।



जीर्णा एव मनोरथाः स्वहृदये यातं च जरां यौवनं
हन्ताङ्गेषु गुणाश्च वन्ध्यफलतां याता गुणज्ञैर्विना ।
किं युक्तं सहसाऽभ्युपैति बलवान्कालः कृतान्तोऽक्षमी
ह्याज्ञातंस्मरशासनाङ्घ्रियुगलं मुक्त्वाऽस्तिनान्यागतिः ।। ९१ ।।

अर्थ:

हमारी इच्छाएं हमारे ह्रदय में ही जीर्ण हो गईं, जवानी भी चली गयी, हमारे अच्छे-अच्छे गुण भी कदरदानों के न होने से बेकार हो गए, सर्वशक्तिमान, सर्वनाशक काल (मृत्यु) शीघ्र-शीघ्र हमारे पास आ रहा है; इसलिए अब हमारी समझ में कामारि शिव के चरणों के सिवा और जगह हमारी रक्षा नहीं है ।

मनुष्य दुखित होकर कहता है - हमारे मन की मन में ही रह गयी, हमारे अरमान न निकले और जवानी कूच कर गयी; अब उसके आने की भी उम्मीद नहीं, क्योंकि जवानी किसी की भी लौटकर आती सुनी नहीं ।
मनुष्य की तृष्णा कभी नहीं बुझती, एक पर एक इच्छा उठा ही करती है । इच्छाएं पूरी नहीं होती और मौत आ जाती है । महाकवि ग़ालिब भी पछता कर कहते हैं -
हज़ारों ख्वाहिशें ऐसी, कि हर ख्वाहिश पै दम निकले।
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फिर भी कम निकले।।

महाकवि दाग भी घबरा कर कहते हैं -
भरे हुए हैं हज़ारों अरमान 
फिर उस पै है हसरतों की हसरत।
कहाँ निकल जाऊं या इलाही
मैं दिल की वसअत से तंग होकर।।

मेरे मन में हज़ारों वासनाएं हैं, पर वासनाओं के पूर्ण न होने का दुःख भी कुछ कम नहीं है । हे ईश्वर ! मैं अपने मन की विशालता से तंग हो गया । अब मेरा जी यही चाहता है, कि इस विराट दिल से तंग होकर कहीं चला जाऊं ।
इसी तरह महात्मा सुन्दरदास जी भी कहते हैं -
तीनहिं लोक आहार कियो सब।
सात समुद्र पियो पुनि पानी।।
और जहाँ तहाँ ताकत डोलत।
काढत आँख दरवात प्रानी।।
दांत दिखावत जीभ हिलावत।
या हित मैं यह डाकिनि जानी।।
सुन्दर खात भये कितने दिन।
हे तृष्णा ! अजहुँ न अघानी।।

इस तृष्णा से सभी समझदार अन्त में दुखी ही हुए हैं और उन्होंने पछता पछता कर ऐसी ही बातें कही हैं । इस तृष्णा के फेर में मनुष्य का बुढ़ापा आ जाता है, पर तृष्णा बूढी नहीं होती । बुढ़ापे में उसका ज़ोर और भी बढ़ जाता है । यह तीनो लोको को खाकर और सातों सागरों को पीकर भी नहीं धापति । इसलिए मनुष्य को आशा-तृष्णा त्यागकर, परमात्मा में लौ लगनी चाहिए । जो नहीं चेतते, उनका परिणाम बुरा होता है । जब एकदम से बुढ़ापा छा जाता है, शरीर अशक्त हो जाता है, तब कुछ भी नहीं होता । उम्र ख़त्म होने या मृत्यु आ जाने पर मनुष्य पछताता हुआ सबको छोड़ चला जाता है । कहा है -
ये मम देश विलायत हैं गज ।
ये मम मन्दिर ये मम थाती ।।
ये मम मात पिता पुनि बान्धव ।
ये मम पूत सु ये मम नाती ।।
ये मम कामिनि केलि करै नित ।
ये मम सेवक हैं दिन राती ।।
सुन्दर ऐसेही छाँड़ि गयो सब ।
तेल जरयो सु बुझी जब बाती ।।

यह मेरा देश है, ये मेरे हाथी-घोड़े महल-मकान हैं, ये मेरे माँ-बाप और बन्धु-बान्धव तथा नाती-पोते हैं, यह मेरी स्त्री और यह मेरे सेवक हैं; ऐसे करता करता ही मनुष्य सबको छोड़कर चला जाता है । जिस तरह तेल के जल जाने पर दीपक बुझ जाता है; उसी तरह उम्र पूरी होने पर मनुष्य मर जाता है । अतः जवानी में ही स्त्री-पुत्र प्रभृति सबका मोह छोड़, एकान्त में जा, परमात्मा का भजन करना चाहिए; क्योंकि बुढ़ापे में कुछ नहीं हो सकता ।
शेख सादी ने कहा है और ठीक कहा है -
जवान गोशानशीं, शेर मर्दे राहे खुदास्त ।
कि पीर खुद न तवानद, ज़े गोशये बरखास्त ।।

जवानी में जिन्होंने एकान्त में ईश्वर भजन किया है, सच्चे भक्त वही हैं, बूढा आदमी अगर एकान्तवास पर गर्व करे तो झूठा है, क्योंकि वह तो जहाँ पड़ा है, वह से सरक ही नहीं सकता ।
जो लोग साड़ी उम्र संसारी जंजालों में बिता देते हैं और परमात्मा का भजन नहीं करते, उनका नक्शा स्वामी सुन्दरदास जी ने खूब ही खींचा है -
ग्रीव त्वचा कटि है लटकी ।
कचहुँ पलटे अजहुँ रतीबामी ।।
दन्त गए मुख के उखरे ।
नखरे न गए सु खरो खर कामी ।।
कम्पत देह सनेह सु दम्पति ।
सम्पति जपत है निशि जामी ।।
सुन्दर अन्तहु भौन तज्यो ।
न भज्यो भगवन्त सु लौनहरामी ।।

मनुष्य की गर्दन हिलने लगती है, खाल लटकने लगती है, कमर झुक जाती है, बाल सफ़ेद हो जाते हैं, तो भी स्त्री के साथ भोग करता है । मुंह के दांत उखड जाते हैं, फिर भी कामी गधे के नखरे नहीं जाते, देह कांपती है; पर स्त्री से प्रीति रखता है और रात-दिन धन का जाप करता है । अन्त में घर छोड़ता है, पर नमकहराम मालिक का भजन नहीं करता ।

छप्पय
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मन के मनही मांहि, मनोरथ वृद्ध भये सब ।
निज अंगन में नाश भयो, वह यौवनहु अब ।
विद्या है गयी बाँझ, बूझवारे नहीं दीसत ।
दौरयो आवत काल, कोपकर दशनन पीसत ।
कबहुँ नहिं पूजे प्रीति सों, चक्रपाणि प्रभु के चरण ।
भवबन्धन काटे कौन अब, अजहुँ गहरे हरि शरण ।।


तृषा शुष्यत्यास्ये पिबति सलिलं स्वादु सुरभि 
क्षुधार्तः सञ्शालीन्कवलयति शाकादिवाळितां ।
प्रदीप्ते कामाग्नौ सुदृढतरमाश्लिष्यति वधूं
प्रतीकारो व्याधेः सुखमिति विपर्यस्यति जनः ।। ९२ ।।

अर्थ:

जब मनुष्य का कण्ठ प्यास से सूखने लगता है, तब वह शीतल जल पीता है; जब उसे भूख लगती है, तब वह साग और कढ़ी प्रभृति के संग चावल खाता है; जब उसकी कामाग्नि तेज़ होती है तब वह स्त्री को ज़ोर से गले लगाता है; विचार कर देखने से मालूम होता है, कि ये सब बिमारियों की एक-एक दवा है; परन्तु लोग इन्हे भूल से सुख समान मानते हैं ।

प्यास रोग की दवा शीतल जल है; यानि शीतल जल से तृष्णा नाश होती है । क्षुधारोग की दवा रोटी-भात और साग-दाल प्रभृति हैं; यानी भात-दाल प्रभृति से भूख रोग नाश होता है । कामाग्नि भी एक रोग है, उसके शान्त करने का उपाय स्त्री को छाती से लगाना है, यानी स्त्री का आलिङ्गन करने से या चिपटाने से काम की आग ठण्डी हो जाती है । ( दाह ज्वर में षोडशी कामिनी के शरीर में चन्दन लगाकर चिपटने से बहुत लाभ होता है ) इन बातों पर विचार करने से साफ़ मालूम होता है, कि शीतल जल-पान, भिन्न-भिन्न प्रकार के भोजन और स्त्रियों का आलिङ्गन प्रभृति तृषा, क्षुधा और कामाग्नि प्रभृति रोगों की औषधियां हैं । इनको सुख समझना भूल नहीं तो क्या है ?

छप्पय
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प्यास लगे जब पान करत, शीतल सुमिष्ट जल।
भूख लगे तब खात, भात-घृत दूध और फल।
बढ़त काम की आगि, तबहिं नववधू संग रति।
ऐसे करत विलास, होत विपरीत दैव गति।
सब जीव जगत के दिन भरत, खात पियत भोगहु करत।
ये महारोग तीनो प्रबल, बिना मिटाये नहिं मिटत।।


स्नात्वा गाङ्गैः पयोभिः शुचिकुसुमफलैरर्चयित्वा विभो 
त्वां ध्येये ध्यानं नियोज्य क्षितिधरकुहरग्रावपर्येकमूले ।
आत्मारामः फलाशी गुरुवचनरतस्त्वत्प्रसादात्स्मरारे
दुःखं मोक्ष्ये कदाहं तब चरणरतो ध्यानमार्गैकनिष्ठ ।। ९३ ।।

अर्थ:

हे शिव ! हे कामारि ! गंगा स्नान करके तुझ पर पवित्र फल-फूल चढ़ाता हुआ, तेरी पूजा करता हुआ, पर्वत की गुफा में शिला पर बैठा हुआ, अपने ही आत्मा में मग्न होता हुआ, वन-फल खाता हुआ, गुरु की आज्ञानुसार तेरे ही चरणों का ध्यान करता हुआ कब मैं इन संसारी दुखों से छुटकारा पाउँगा ?

दोहा
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न रसेवा तजि, ब्रह्म भजि, गुरुचरणन चित लाय।
कब गंगातट ध्यान धर, पूजोंगो शिव पाय?।


शय्या शैलशिला गृहं गिरिगुहा वस्त्रं तरुणं त्वचः
सारंगाः सुहृदो ननु क्षितिरुहां वृत्तिः फलैः कमलैः ।।
येषां निर्झरम्बुपानमुचितं रत्येव विद्याङ्गना
मन्ये ते परमेश्वराः शिरसि यैर्बद्धो न सेवांजलिः।। ९३ ।।

अर्थ:

मैं उनको परमेश्वर समझता हूँ, जो किसी के सामने मस्तक नहीं नवाते, जो पर्वत की शिला को ही अपनी शय्या समझते हैं, जो गुफा को ही अपना घर मानते हैं, जो वृक्षों की छालों को ही अपने वस्त्र और जंगली हिरणो को ही अपने मित्र समझते हैं, वृक्षों के कोमल फलों से ही उदार की अग्नि को शान्त करते हैं, जो कुदरती झरनो का जल पीते हैं और जो विद्या को ही अपनी प्राण प्यारी समझते हैं ।

जो किसी चीज़ की चाह नहीं रखते, वे किसी की परवा नहीं करते, वे किसी के सामने मस्तक नहीं नवाते; जिनकी वासनाओं का अन्त नहीं होता, वे ही जने-जने के सामने सर झुकाते हैं । जो संसार के दास नहीं, वे सचमुच ही देवता हैं ।
उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है -
जिस इन्सां को सगे दुनिया न पाया। 
फरिश्ता उसका हमपाया न पाया ।।

जो मनुष्य संसार का दास नहीं - संसार का कुत्ता नहीं - वह देवताओं से कहीं ऊंचा है । देवता उसकी बराबरी नहीं कर सकते । जिसमें सांसारिक वासनाओं का लेश न हो, उस मनुष्य और देवताओं में कोई भेद नहीं ।
सच्चे महात्मा वन और पर्वतों को छोड़कर दुनिया में कभी नहीं आते; वे मांगकर नहीं खाते; उन्हें वन में ही जो कुछ मिल जाता है, वही खा लेते हैं ।
महाकवि ग़ालिब कहते हैं -
वे तलब दें, तो मज़ा उसमें सिवा मिलता है ।
वह गदा, जिसका न हो खुए सवाल अच्छा है ।।

बिना मांगे मिल जाने में बड़ा आनन्द है । फ़क़ीर वही अच्छा जिसमें मांगने की आदत न हो ।

और भी कहा है -
दस्ते सवाल, सैकड़ों ऐबों का ऐब है ।
जिस दस्त में ये ऐब नहीं, वह दस्ते गैब है ।।

कबीर साहब ने भी कहा है -
अनमाँग्या उत्तम कह्यो, माध्यम माँगि जो लेय ।
कहे कबीर निकृष्ट सो, पर घर धरना देय ।।
उत्तम भीख जो अजगरी, सुनि लीजौ निज बैन ।
कहै कबीर ताके गहे, महा परम सुख चैन ।।

महापुरुष भगवान् के भरोसे रहते हैं, इसलिए उन्हें उनकी जरुरत की चीज़ उनके स्थान पर ही मिल जाती है । वे संसार रुपी काजल की कोठरी  में आकर कालिख लगाना पसन्द नहीं करते । संसारी लोगों के साथ मिलने जुलने में भलाई नहीं । संसार से दूर रहना ही भला । क्योंकि मनुष्य जैसे आदमियों को देखता और जैसों की सङ्गति करता है, वैसा ही हो जाता है । रागियों की सङ्गति से वैरागी भी रागी या विषय-भोगी हो जाता है  । जल और वृक्षों के पत्ते खाने वाले ऋषि स्त्रियों के देखने मात्र से अपने तप से हीन हो गए । इसीलिए शास्त्रों में लिखा है कि सन्यासी संसारियों से दूर रहे । वास्तविक महापुरुष जो सच्चे ब्रह्मज्ञानी और रासायनिक हैं; किसी के भी द्वार पर नहीं जाते । जिसे कुछ कामना होती है, वही किसी के द्वार पर जाता है । कामनाहीन पुरुष कभी किसी के पास नहीं जाता । सच्चे महात्मा संसारियों से अपनी जान छुपाते हैं ।

दो महात्मा जो राजा से मिलना नहीं चाहते थे
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एक नगर के बाहर वन में दो बड़े ही त्यागी महात्मा रहते थे । राजा ने चाहा कि मैं उनसे मिलूं । राजा अपने परिवार सहित उनसे मिलने गया । महात्माओं ने सोचा - यह तो बुरी बला लगी । इसे सदा को टालना चाहिए । आज यह आया है, कल नगर भर आवेगा । फिर हम तो भजन ही न कर सकेंगे । जब राजा पास पहुंचा, तो वे आपस में लड़ने लगे । एक बोला - "तूने मेरी रोटी खाली" । दुसरे ने कहा - "तूने भी तो कल मेरी खा ली थी"। यह देखकर राजा को घृणा हो गयी और वह लौट आया । इस तरह महात्माओं के एकान्तवास में विघ्न नहीं पड़ा ।

संसारियों की सङ्गति बुरी
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एक महात्मा कहीं से आकर काशी में रह गए । दस पांच वर्ष बाद अनेक लोग उन्हें जान गए और उन्हें अपने-अपने घर भोजन के लिए ले जाने लगे । महात्मा ने देखा कि, घरों में जाने से विक्षेप होता है, इसलिए उन्होंने अपनी लंगोटी ही उतारकर फेंक दी, कि नंगे रहने से लोग घरों पर न ले जाएंगे । पर फल उल्टा हुआ, उनकी महिमा और भी बढ़ गयी । अब तो बड़े-बड़े राजा, रईस और जमींदार उनके दर्शन को आने लगे । उनका सारा समय अमीरों से मिलने में ही बीतने लगा । इतने में एक और महात्मा आये और उनसे एकान्त में पुछा - "क्या हाल है ?" महात्मा ने कहा - "बवासीर से मरते हैं ।" आगन्तुक महात्मा ने कहा - "लोग तो आपको सिद्ध कहते हैं ?" महात्मा ने कहा - "कहा करें, लोग मूर्ख हैं । हमारे चित्त में तो वासनाएं भरी हैं, न जाने हमें किस योनि में जन्म लेना होगा ? हमारा तो सारा वैराग्य इन धनियों की सङ्गति में ही नष्ट हो गया । सच है, निवृत्ति मार्ग वालों को प्रवृत्ति मार्गवालों की सङ्गति करना अच्छा नहीं ।

छप्पय
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बसैं गुहागिरि, शुचित शिला शय्या मनमानी।
वृक्षवकल के वसन, स्वच्छ सुरसरिको पानी।
बाणमृग जिनके मित्र, वृक्षफल भोजन जिसके।
विद्या जिनकी नारि, नहीं सुरपति सभ तिनके।
ते लगत ईश सम मनुज मोहि, तनशुचि ऐसे जग भये।
जे पर सेवा के काज को, हाथ नहीं जोरत नए ।।

वैराग्य शतकं - 97


नायते समयो रहस्यमधुना निद्राति नाथो यदि
स्थित्वा द्रक्ष्यति कुप्यति प्रभुरिति द्वारेषु येषां वचः
चेतस्तानपहाय याहि भवनं देवस्य विश्वेशितु-
निर्दौवारिकनिर्दयोकत्यपुरुषं नि:सीमशर्मप्रदम् ।। ९७ ।।

अर्थ:
हे मन ! जिनके द्वार पर - "मालिक मकान से मिलने का समय नहीं है, वे इस समय एकान्त में बैठे हैं, वे इस वक्त सो रहे हैं, अगर तुम्हे यहाँ खड़ा देखेंगे तो नाराज़ होंगे" - ऐसी बातें सुनाई देती हैं, उनको त्याग कर विश्वेश की शरण में जा, जिनके द्वार पर रोकने वाला दरबान नहीं, जहाँ निर्दय और कठोर वचन कभी सुनने में नहीं आते, जो अनन्त और नित्य सुख के देने वाले हैं ।

मूर्ख मनुषु, नासमझी के कारण, वृथा अमीरों के दरवाजे पर जाता है और अपमानसूचक बातें सुनता है, जिनके यहाँ जाता है उनसे मिलने के लिए बड़ी-बड़ी कठिनाइयों का सामना करता है, दरबानो की तरह तरह की बेढ़ंगी बातें सुनता है । अगर वह कुछ भी अक्ल से काम ले, तो उसके द्वार पर जाना चाहिए, जहाँ कोई रोकनेवाला नहीं, जहाँ दिल दुखानेवाली बातों का नाम भी नहीं, जो सारे संसार का स्वामी और नित्य सुख देनेवाला है । वह क्या उसकी इच्छा पूरी न करेगा ? अवश्य पूरी करेगा । जो बिना जड़ की अमरबेल को पोषता है, उसे छोड़कर और को खोजना भूल की बात है ।

रहीम कवी कहते हैं -
*अमरबेलि बिन मूल की, प्रतिपालत है ताहि।*
*"रहिमन" ऐसे प्रभुहि तजि, खोजत फिरिये काहि? ।।*

रहीम कवी कहते हैं, जो प्रभु बिना मूल के अमरबेल की प्रतिपालना करता है, ऐसे प्रभु को छोड़कर किसे खोजते फिरे ?

और भी -
(१)
जा दिन तें गर्भवास तज्यो नर ।
आई आहार लियो तबही को ।।
खातहि खात भये इतने दिन ।
जानत नाहिं न भूख कहीं को ।।
दौरत धावत पेट दिखावत ।
तू शठ कीट सदा अनही को ।।
सुन्दर क्यों विश्वास न राखत ?।
सो प्रभु विश्व भरै सबही को ।।

(२)
खेचर भूचर जे जल के चर ।
देत आहार चराचर पोषे ।।
वे हरि जो सबकूँ प्रतिपालत ।
ज्यूं जिहि भांति तिसी विधि तोषे ।।
तू अब क्यों विश्वास न राखत ?।
भूलत है कित धोखहि धोखै ।।
तोहि तहाँ पहुंचाय रहै प्रभु ।
सुन्दर बैठि रहै किन ओखै ।।
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*ईश्वर की शरण में जाने से अभाव नहीं रहता*
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एक राजा बड़ा आलसी और विषयी था । वह राज-काज को ज़रा भी न देखता था । सारा भार वज़ीर के सिर पर था । वज़ीर यदि किसी ज़रूरी कार्य की आज्ञा लेने को आता, तो राजा उसे घण्टो द्वार पर बिठाये रखता, पर अन्दर न बुलाता; इससे मन्त्री को घृणा हो गयी; उसने घर आकर पुत्रों से कहा, कि चार घण्टो में जितना धन और सामान ले जा सकते हो, दुसरे राजा के राज्य में ले जाओ । मैं अब इस संसार को त्यागकर परमात्मा से लौ लगाऊंगा । लड़के जितना धन ले जा सके ले गए । शेष धन वज़ीर ने गरीबों को लुटा दिया और आप किसी और राजा के राज में झोंपड़ी बना कर तप करने लगा ।
दो तीन दिन बाद जब उस विषयी राजा के राज्य में गड़बड़ फैली, उसे अपने प्रधानमन्त्री की याद आयी । बुलाने को आदमी भेजे तो मालूम हुआ, कि वह तो सन्यासी हो गया है । राजा स्वयं उसके पास गया और बोलै - "हे मंत्रिवर ! तुम इतने बड़े राज्य के प्रधानमंत्री और कर्ता धर्ता थे, तुमने वह सब सुखैश्वर्य छोड़ क्यों वन में डेरा लगाया है ? तुम्हें इसमें क्या मिला ?" मन्त्री ने कहा - "महाराज ! ईश्वर की शरण में आने से इतना तो दो-चार दिन में ही मिल गया कि घण्टो आपके द्वार पर आपकी प्रतीक्षा में पाँव पीटा करता था; पर आप दर्शन तक न देते थे; पर आज श्रीमान सपरिवार मेरे स्थान पर मुझे आदरणीय समझकर इस सघन वन में पधारे हैं । यह तो दो-तीन दिन की कमाई है । आगे की बात फिर पूछ सकते हैं ।" इसमें शक नहीं, जो सबकी आशा तजकर एक परमात्मा की शरण में जाता है, उसे कोई अभाव नहीं रहता; पर पक्के और दृढ़ विश्वास की जरुरत है ।
ईश्वर को जिस कामना से भजता है, उसकी वह कामना अवश्य पूरी होती है । पर जो कोई उसे निष्काम भक्ति से भजता है, उसे स्वयं ईश्वर मिलता है और जब वह मिल जाता है, तब कुछ भी घाटा नहीं रहता; त्रिलोकी की सम्पदा उसके चरणों में ज़बरदस्ती आना चाहती है । अतः बुद्धिमानों को परमात्मा को छोड़ और किसी के आगे दीनता न करनी चाहिए । मनुष्य के पास है ही क्या ? कोई छोटा भिखारी है, कोई बड़ा । जिसे किसी भी चीज़ की चाह नहीं, वही सच्चा धनी है । ऐसा धनी करोड़ों में एक भी नहीं; तब मँगते को मँगते से माँगना क्या उचित है ?

*ईश्वर ही कामना पूरी कर सकता है*
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एक राजा ने किसी राजा का राज्य छीन लिया । वह राजा तप करने लगा । कुछ दिन बाद उसकी प्रशंसा सुन कर राजा उस तपस्वी राजा के पास गया और बोला - "आप अपना राज्य वापस लीजिये, इसके सिवा आप जो और मांगो सो दूँ ।" तपस्वी राजा ने कहा - "राजन ! आपको धन्यवाद है; पर यदि आप मृत्युरहित जीवन, नित्यधन, वृद्धावस्था रहित जवानी, बिना दुःख का सुख और बिना रंज की ख़ुशी दे सकें तो दीजिये ।" राजा ने कहा - "इन्हें तो मैं नहीं दे सकता । ये सब तो ईश्वर से ही मिल सकते हैं ।" यह जवाब सुन तपस्वी राजा ने कहा - "इसी से मैं सब को छोड़ ईश्वर की शरण में आया हूँ कि मेरी इच्छा पूरी हो; क्योंकि मनुष्यों से यह न हो सकेगा ।"
अनेक अज्ञानी जिन्हे ईश्वर पर विश्वास नहीं, मन में समझते हैं कि, ईश्वर हमें खाने को देने थोड़े ही आवेगा । यह उनकी गलती है । ईश्वर उनको भी खाना पहुंचाता है, जो उसे कभी याद भी नहीं करते । फिर जो उसे याद करते हैं, उन्हें वह क्यों न खाना पहुँचावेगा ? अवश्य पहुँचावेगा, बशर्ते कि उसमें दृढ़ विश्वास हो । अपने भक्तों के लिए ईश्वर हरदम तैयार रहता है ।

*नापित-भक्त के लिए ईश्वर नापति बना*
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एक नाई दुर्योधन के पैर चापा करता था । एक दिन उसके चलने के समय दो महात्मा उसे उसके द्वार पर मिल गए । वह उन्हें ईश्वर भक्त समझ, उनकी सेवा में लग गया और राजा के यहाँ जाने की बात भूल गया । समय पर राजा ने नाई की याद की । भगवान् नाई का रूप धार कर दुर्योधन के पास पहुंचे और उसके पैर दाबने लगे । अन्त में अपने भक्त की नौकरी पूरी करके वह वहां से चले गए । इतने में नाई डरता काँपता हुआ पहुंचा और क्षमा-प्रार्थना करने लगा । दुर्योधन ने कहा - "अरे पागल हो गया है क्या ! अभी तो तू मेरे पैर दाब ही रहा था ।" इस बात को सुनकर नाई समझ गया कि भगवान् ने स्वयं मेरे लिए नाई का काम किया । इतनी सी भक्ति उपासना का यह फल ! अब मैं उनको छोड़ दुसरे की खुशामद क्यों करूँ ? ऐसा विचार कर वह घर छोड़ वन में चला गया ।

भगवान् का दूसरा नाम विश्वम्भर है । जो विश्व - संसार - का पालन करता है, उसे ही विश्वम्भर कहते हैं । भगवान् त्रिलोकी के जीवमात्र को उनका आहार पहुंचते हैं, इसमें शक नहीं । एक सच्ची घटना है, पाठक पढ़े -

*ईश्वर ही सबका पालन करता है*
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एक बार महाराज शिवाजी एक बहुत बड़ा महल बनवा रहे थे । उसमें हज़ारों मज़दूर और कारीगर लग रहे थे । उन्हें देखकर शिवाजी के मन में अहंकार हुआ कि, मैं ऐसा हूँ, जो इतने मनुष्यों को रोज़ रोटी देता हूँ । इतने में समर्थ स्वामी रामदास आ गए । वे महाराज के मन की ताड़ गए बोले - "राजन ! सामने जो पत्थर पड़ा है उसके दो टुकड़े कराइये ।" राजा के हुक्म से पत्थर के दो टुकड़े किये गए । उस शिला के भीतर एक मोटा-ताज़ा मेंढक निकला । उसे देखते ही शिवाजी विषमय में डूब गए । स्वामी जी ने कहा - "राजन ! इस पत्थर के भीतर मेंढक को खाना कौन पहुंचाता था ? मनुष्य कोई चीज़ नहीं, उसे स्वयं तृष्णा है, अतः वह दरिद्री है । सबकी पालना करने वाले और प्रेम के साथ पालना करने वाले वही भगवान् हैं ।
नरसी मेहता की हुण्डी का भुगतान साहूकार का रूप धरकर स्वयं भगवान् ने किया । द्रौपदी और दुर्वासा के मामले में भगवान् वन में दौड़े आये और द्रौपदी की लाज रक्खी तथा राजा अम्बरीष की दुर्वासा से रक्षा की । ऐसे बहुत से दृष्टान्त हैं । मनुष्य को सदा परमात्मा से माँगना चाहिए । उसका भण्डार अक्षय है और वह परम दयालु है ।

*पिता पुत्र की इच्छा अवश्य पूरी करता है*
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एक वैश्य निर्धनता से तंग आकर काशी चला गया और वह रोज़गार करने लगा । कुछ समय बाद उसके पास लाखों-करोड़ों का धन हो गया । वह एक मन्दिर बनवाने लगा । घर से चलते समय वह एक छोटा सा लड़का छोड़ गया था । लड़का जब सोलह-सत्रह वर्ष का हो गया, तो उसने माँ से पिता का पता पूछा । माँ ने कहा - "मुझे तो पता नहीं ।" यह सुनते ही पुत्र अपने पिता की तलाश में चल निकला । माँ को भी उसने अपने साथ ले लिया । कुछ दिनों बाद, बड़ी-बड़ी तकलीफें उठा कर वह काशी पहुंचा और पेट पालने के लिए उसी मन्दिर में मज़दूरी करने लगा । सेठ ने उसे नया मज़दूर समझ, उससे उसका निवास स्थान और पिता का नाम पूछा । उसने सब बता दिया और कहा, माँ भी आयी है । सेठ ने अपनी स्त्री को पहचान, पुत्र को छाती से लगा लिया और सारा धन दे दिया । इस दृष्टान्त से यह समझना चाहिए, इसी तरह जो पुरुष तकलीफें उठा कर परमेश्वर की खोज करता है, परमेश्वर उसे अवश्य मिल जाता है और अपने पुत्र की इच्छा पूरी करता है ।
अहंकार को त्याग कर, विशुद्ध मन से परमात्मा की खोज करो । वह दूर नहीं, तुम्हारे भीतर ही मौजूद है । खोज करने से तुम्हें अवश्य मिल जाएगा ।

किसी ने बिलकुल ठीक कहा है -
है तजस्सुस शर्त्त याँ, मिलने को क्या मिलता नहीं ।
है खुदी जब तक इन्सां में, खुदा मिलता नहीं ।।

तलाश शर्त है; तलाश करनेवालों को क्या नहीं मिलता ? जब तक मनुष्य में खुदी या अहंकार है, तब तक उसे ईश्वर नहीं मिलता । अहंकार से ह्रदय शुद्ध हुआ और ईश्वर-दर्शन हुए । यदि ईश्वर मिल गया तो जगत का राज्य मिल गया । अतः मनुष्यों ! मनुष्यों की खुशामद छोड़, केवल दयासिन्धु जगदीश की शरण में जाओ । वह बिना अपमान किये, प्रेम के साथ आपके अभावों को सुने और दूर करेगा तथा आपको नित्य-स्थायी सुख-शान्ति बख्शेगा ।

छप्पय
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बैठ पौरिया द्वार, छड़ी कर पहरौ राखत ।
सोवत स्वामी हमार, जाहु तुम ऐसे भाषत ।
करि हैं क्रोध अपार, लखैं जो तुमको द्वारे ।
जाहु विश्वपति द्वार, तहाँ नहिं रोकनहारे ।
जहँ निर्दय कटुवादी नहीं, अवशि तहाँ चलि जाइये ।
वहं निर्भय ब्रह्मानंद सुख, ब्रह्मानंद तहँ पाइये ।।

प्रिय सखि विपद्दण्डव्रतप्रताप परम्परा-
तिपरिचपले चिन्ताचक्रे निधाय विधिः खलः ।।
मृदमिव बलात्पिण्डीकृत्य प्रगल्भकुलालवद्-
भ्रमयति मनो नो जानीमः किमत्र विधास्यति ।। ९८ ।।

अर्थ:

हे प्यारी सखी बुद्धि ! कुम्हार जिस तरह गीली मिटटी के लौंदे को चाक पर चढ़कर डंडे से चाक को बारम्बार घुमाता है और उससे इच्छानुसार बर्तन तैयार करता है; उसी तरह संसार को गढ़नेवाला ब्रह्मा हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर चढ़ा कर, विपत्तियों के डंडे से चाक को लगातार घुमाता हुआ, हमारा क्या करना चाहता है, यह हमारी समझ में नहीं आता ?

मनुष्य के पीछे भगवान् ने चिन्ता बुरी लगा दी है । बात यह है, कि मनुष्य के पूर्व जन्म के कर्मो के कारण या इस जन्म की भूलों के कारण, उसे विपत्तियां भोगनी ही पड़ती है । विपत्तियों से पार होने के लिए, मनुष्य रात-दिन चिन्तित रहता है । चिन्ता या फ़िक्र से मनुष्य का रूप-रंग  सब नष्ट होकर शीघ्र ही बुढ़ापा आ जाता है । आजकल चालीस बरस की उम्र में ही लोग बूढ़े हो जाते हैं, इसका कारण चिन्ता ही है । अगर चिन्ता न होती, तो मनुष्य को कुछ दुःख न होता । जहाँ तक हो, मनुष्य को चिन्ता को अपने पास न आने देना चाहिए; क्योंकि चिन्ता, चिता से भी बुरी है । चिता मरे हुए को भस्म करती है, पर चिन्ता जीते हुए को ही जलाकर ख़ाक कर देती है; अतः चिन्ता से दूर रहो । स्त्री, पुत्र और धन की चिन्ता में अपनी अमूल्य दुर्लभ काया को नाश न करो; क्योंकि ये स्त्री-पुत्र प्रभृति तुम्हारे कोई नहीं । अगर चिन्ता और विचार ही करना है, तो इस बात का करो कि तुम कौन हो और कहाँ से आये हो ?

स्वामी शंकराचार्य ने मोहमुद्गर में कहा है -
का तव कान्ताः कस्ते पुत्रः संसारोऽयमतीव विचित्रः ।
कस्य त्वम् वा कुत आयातः तत्त्वं चिन्तय तदिदं भ्रातः ।।

कौन तेरी स्त्री है ? कौन तेरा पुत्र है ? यह संसार अतीव विचित्र है । तू कौन है ? कहाँ से आया है ? हे भाई ! इस तत्व की चिन्ता कर; अर्थात न कोई तेरी स्त्री है और न कोई तेरा पुत्र है, वृथा चिन्ता क्यों करता है ?

तू कौन है ? कहाँ से आया है ? क्यों आया है ? तूने अपना कर्तव्य पालन किया है या नहीं ? तेरा अन्तिम परिणाम क्या है ? इत्यादि विचारों द्वारा अपने स्वरुप को पहचान जाने अथवा ईश्वर की शरण में चले जाने से ही चिन्ता से पीछा छूटेगा और शान्ति मिलेगी । निश्चय ही चिन्ता और विपत्तियों से बचने के लिए भगवान् का आश्रय लेना सर्वोपरि उपाय है । विपत्ति रुपी समुद्र में डूबते हुए के लिए भगवान् का नाम ही सच्चा सहारा है ।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है -
तुलसी साथी विपति के, विद्या विनय विवेक ।
साहस सुकृत सत्यव्रत, राम भरोसो एक ।।
तुलसी असमय के सखा, साहस धर्म विचार ।
सुकृत शील स्वाभाव ऋजु, रामशरण आधार ।।
खेलत बालक व्याल संग, पावक मेलत हाथ ।
तुलसी शिशु पितु मातु इव, राखत सिय रघुनाथ ।।
तुलसी केवल रामपद, लागे सरल सनेह ।
तौ घर घट बन बाट मँह, कतहुँ रहै किन देह ।।

सारांश यह कि जो हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर चढ़ा कर विपत्तियों के डंडे से घुमाता है, यदि हम उसकी ही शरण में चले जाएँ, उसी से प्रेम करें, तो वह हमारे चित्त को चिन्ता के चाक पर न रक्खे; अर्थात हमें चिंताग्नि में न जलना पड़े; सुख-शान्ति सदा हमारे सामने हाथ बांधे खड़े रहे । यह बाला उन्हीं को खाती है, जो भगवान् से विमुख रहते हैं । इसलिए यदि इस चिन्ता-डायन से बचना चाहो तो परमात्मा को भजो ।

दोहा
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मन को चिंताचक्र धर, खल विधि रह्यौ घुमाय ।
रचि है कहा कुलालसम, जान्यौ कछु न जाय ?।।


महेश्वरे वा जगतामधीश्वरे जनार्दने वा जगदन्तरात्मनि।
तयोर्न भेदप्रतिपत्तिरस्ति मे तथापि भक्तिस्तरुणेन्दुशेखरे।। ९९ ।।

अर्थ:
यद्यपि मुझे विश्वेश्वर शिव और सर्वात्मन विष्णु में कोई भेद नहीं दीखता; तथापि मेरा मन उन्ही की ओर झुकता है, जिनके मस्तक में तरुण चन्द्रमा विराजमान है; अर्थात मैं शिव को ही चाहता हूँ ।

विष्णु और शिव में कोई भेद नहीं, एक ही परमात्मा के अलग अलग नाम हैं, वही कृष्ण हैं, वही रघुनाथ हैं, वही राम हैं और वही शिव हैं । पर फिर भी; जिस नाम का आश्रय ले लिया उसी का भरोसा करना ठीक है । मन भटकाना अच्छा नहीं ।
एक बार गोस्वामी तुलसीदास जी वृन्दावन गए । वहां उन्हें भगवान् कृष्ण के दर्शन हुए । भगवान् की बांकी झांकी देखकर गोस्वामी जी मुग्ध हो गए, पर उन्होंने उनको सिर न नवाया; क्योंकि उनके इष्टदेव रामचन्द्र जी थे । उन्होंने उस समय कहा -
कहा कहूँ छवि आज की, भले बने हो नाथ ।
तुलसी मस्तक जब नवै, धनुषबाण लेयो हाथ ।।

आपकी छवि आज भी बहुत मनोमुग्धकर है, पर मैं तो आपको तभी प्रणाम करूँगा, जब आप धनुष-बाण हाथ में लेकर रामचन्द्र बनोगे । भगवान् को तत्काल रामरूप धर धनुष-बाण हाथ में लेना पड़ा । यह काम भगवान् को भक्त की दृढ़ता देखकर करना पड़ा ।
प्रीति पपहिये की सच्ची और आदर्श है । वह चाहे प्यासा मर जाए, पर मेघ के सिवा किसी भी जलाशय का जल नहीं पीता । "उत्तर चातकाष्टक" में लिखा है -
पयोद हे ! वारि ददासि वा न वा ।
तवडेकचित्तः पुनरेष चातकः ।।
वरं महत्या म्रियते पिपासया
तथापि नान्यस्य करोत्युपासनाम् ।।

हे मेघ ! तू जल दे चाहे न दे, चातक तो तेरा ही आश्रय रखता है । घोर प्यास से भले ही मर जाए, पर वह दुसरे की उपासना नहीं करता । गोस्वामी तुलसीदास जी ने भी कहा है -

चातक घन तजि दूसरे, जियत न नाई नारि।
मरत न मांगे अर्घजल, सुरसरिहु को वारि ।।
व्याधा बधो पपीहरा, परो गंगजल जाय ।
चोंच मूँदि पीवे नहीं, धिक् पीवन प्रण जाय ।।

चातक ने मेघ को छोड़ और किसी को अपनी ज़िन्दगी में सर न नवाया । मरते समय गंगा का जल भी ग्रहण न किया । किसी शिकारी ने किसी चातक को मारा, वह गंगाजी में गिर पड़ा, प्यास के मारे घबरा रहा था, पर गंगाजल नहीं पीता था । उसने उलटी चोंच बन्द कर ली; कि कहीं जल मुख में न चला जाय और मेरा प्रण टूट जाय । वाह वाह ! प्रीति और भक्ति हो तो ऐसी ही हो ।
सारांश यह है, कि भगवान् के भी जिस नाम से प्रेम हो, उसे छोड़ कर दूसरे से प्रेम न करना चाहिए । एक ही पति की स्त्री होने में भलाई है । जिसके अनेक पति होते हैं, उसका भला नहीं होता । अनेक देवी-देवताओं के उपासक चातक से शिक्षा ग्रहण करें । कहा है -

पतिव्रता को सुख घना, जाके पति है एक।
मन मैली व्यभिचारिणी, जाके खसम अनेक।।
पतिव्रता पति को भजै, और न अन्य सुहाय।
सिंह बचा जो लंघना, तो भी घास न खाय।।
"कबिरा" सीप समुद्र की, रटे पियास पियास।
सकल बूँद को न गिनै, स्वाति बूँद की आस।।
प्रीति रीति तुझ सों मेरे, बहु गुनियाला कन्त।
जो हँसि बोलूं और सूँ, तो नील रंगाऊं दन्त।।

पतिव्रता, जिसके एक पति होता है, सदा सुखी रहती है; किन्तु अनेक खसमवाली व्यभिचारिणी सदा दुखी रहती है । पतिव्रता सदा अपने पति को ही चाहती है; उसे दूसरा अच्छा नहीं लगता । सिंह का बच्चा लंघन पर लंघन करने पर भी घास नहीं खाता । कबीरदास कहते हैं, समुद्र की सीप प्यास ही प्यास रटा करती है; कितनी ही बूंदे क्यों न गिरें, उसे तो स्वाति की बूँद ही प्यारी लगती है । मेरे गुणनिधान कन्त ! मेरी प्रीती तुझसे है । जो मैं दुसरे से हंसकर बोलूं तो मेरा काला मुंह हो ।

दोहा 
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नाहिन शिव अरु विष्णु में, सूझै अन्तर मोय ।
तदपि चन्द्रशेखर लखत, प्रीति अधिक कछु होय ।।


रे कंदर्प करं कदर्थयसि किं कोदण्डटंकारितैः। 

रे रे कोकिल कोमलैः किं त्वं वृथाजल्पसि ।।
मुग्धे स्निग्धविदग्धमुग्धमधुरैर्लोलैः कटाक्षैरलं
चेतश्चुम्बितचन्द्रचूड़चरणध्यानमृतं वर्त्तते ।। १०० ।।

अर्थ:

हे कामदेव ! तू धनुष्टङ्कार सुनाने के लिए क्यों बारबार हाथ उठाता है ? हे कोकिला ! तू मीठी-मीठी सुहावनी आवाज़ में क्यों कुहू-कुहू करती है ? ए मूर्ख स्त्री ! तू अपने मनोमोहक मधुर कटाक्ष मुझ पर क्यों चलाती है ? अब तुम मेरा कुछ नहीं कर सकते; क्योंकि अब मेरे चित्त ने शिव के चरण चूमकर अमृत पी लिया है ।

जब तक मनुष्य का मन ब्रह्मानन्द का मज़ा नहीं जानता, जब तक वह परमात्मा के चरणों में ध्यान लगा कर अमृत नहीं पीटा, तभी तक कामदेव का ज़ोर चलता है, तभी तक कोकिला का पञ्चम स्वर उसके दिल में खलबली पैदा करता है, तभी तक स्त्री के कटाक्ष-बाण उस पर असर करते हैं; कामारि शिव से प्रीति होने पर ये सब कुछ नहीं कर सकते । भगवान् शिव और कामदेव में वैर है; अतः शिवभक्तों पर कामदेव अपने अस्त्र अपने अस्त्र नहीं चला सकता ।

छप्पय
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अरे काम वेकाम, धनुष टंकारत तर्जत।
तू हू कोकिल व्यर्थ बोल, काहे को गरजत।।
तैसे ही तू नारि वृथा ही करत कटाक्षै।
मोहि न उपजै मोह, छोह सब रहिगे पाछै।।
चित चन्द्रचूड़चरण को, ध्यान अमृत बरषत हिते।
आनन्द अखण्डानन्द को, ताहि अमृत सुख क्यों हिते।।


कौपीनं शतखण्डजर्ज्जरतरं कन्था पुनस्तादृशी
निश्चिन्तम्  सुखसाध्यभैक्ष्यमशनं शय्या श्मशाने वने ।
मित्रामित्र समानताऽतिविमला चिन्ताऽथशून्यालये 
ध्वस्ता शेषमदप्रमाद मुदितो योगी सुखं तिष्ठति ।। १०१ ।।

अर्थ:

वही योगी सुखी है, जो एकदम से फटी-पुरानी सैकड़ो चीथड़ों से बनी कोपीन पहनता है और वैसी ही गुदड़ी ओढ़ता है, जिसके पास चिन्ता नहीं फटकती, जो सुख से मिला हुआ भिक्षान्न खाता है, जो श्मशान भूमि या वन में सो रहता है, जो मित्र और शत्रुओं को समान समझता है, जो सूनी झोंपड़ी में ध्यान करता है और जिसके मद और प्रमाद सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो गए हैं ।

फटी-पुरानी कोपीन पहनने, चीथड़ों की गुदड़ी ओढ़ने, निश्चिन्त रहने, सुख से मिले भिक्षान्न के खाने, मरघट या जंगल में सो रहने, दोस्त और दुश्मन को बराबर समझने और नितान्त सूने घर में पवित्र ध्यान करने से जिसके मद और प्रमाद नाश हो गए हैं, वही योगी संसार में सुखी है । ऐसी महापुरुषों को किसी की इच्छा नहीं होती । जिसे किसी चीज़ की इच्छा नहीं, उसके किसकी गरज़ ? जो मित्र और शत्रु को एक नज़र से देखते हैं, जहाँ जगह पाते हैं वही पद रहते हैं, वहीँ खा लेते हैं, उन्हें न चिन्ता राक्षसी सताती है, न उन्हें घमण्ड होता है और न उन्हें मस्ती आती है । वे तो ब्रह्म के ध्यान में मग्न रहते हैं, इसलिए दुःख उनके पास नहीं आता; वे सदा सुख में दिन बिताते हैं । जो लोग बढ़िया बढ़िया कपडे पहनते हैं, शाल-दुशाले ओढ़ते है, अच्छे-अच्छे स्वादिष्ट भोजन करते हैं, मखमली गद्दे-तकियों पर सोते हैं, किसी को दोस्त और किसी को दुश्मन समझते हैं, ब्रह्म का ध्यान नहीं करते, उनको चिन्ता लगी ही रहती है । देखने में वे सुखी मालूम होते हैं, पर भीतर ही भीतर उनकी आत्मा जला करती है । चिन्ता उनको खोखला कर डालती है । क्योंकि बढ़िया बढ़िया भोजन और वस्त्रों के लिए उन्हें सदा उपाय करने पड़ते हैं और उनकी रक्षा की चिन्ता करनी पड़ती है । ऐसो के ही मित्र और शत्रु होते हैं । जिनका वे भला करते हैं, जिन्हे कुछ सहायता देते हैं अथवा जिन्हे उनसे कुछ मिलने की आशा रहती है, वे मित्र बन जाते हैं; पर जिनका स्वार्थ साधन नहीं होता, जो उनके ठाठ-बाठ और वैभव को फूटी आँख नहीं देख सकते, वे उनके नाश की चेष्टा करते हैं और उनके दुश्मन हो जाते हैं । इसलिए उन्हें रात-दिन शत्रुओं से बदला लेने और उन्हें पराजित करने की फ़िक्र के मारे क्षणभर भी सुख की नींद नहीं आती । अपने वैभव और ऐश्वर्य को देखकर उन्हें स्वतः ही अभिमान हो आता है । अभिमान के नशे में वो अनर्थ करने लगते हैं; इससे उन्हें सदा भयभीत रहना पड़ता है । बहुत क्या कहें; जिनको आप अमीर देखते हैं, जिनको आप स्त्री-पुरुष, धन-रत्न, गाडी-घोड़े, मोटर प्रभृति से सुखी देखते हैं, वे वास्तव में ज़रा भी सुखी नहीं । सुखी वही है जिसे किसी चीज़ की ज़रूरत नहीं, जिसे किसी से वैर या प्रीति नहीं, जिसे ज़रा भी अभिमान नहीं, जिसकी इन्द्रियां वश में हैं, जो कभी चिन्ता को पास नहीं आने देता और जो ब्रह्मानन्द में ही मग्न रहता है । भला राजा महाराजा और धनी लोग इस सुख को कैसे पा सकते हैं ? अगर सुखी होना चाहो, तो संसार को त्याग कर, एकदम से निश्चिन्त होकर, परमात्मा के सिवा किसी चीज़ की चिन्ता न करो ।
जो लोग संसार त्यागें, वह सच्चे मन से त्यागें; ढोंग करने से कोई लाभ नहीं । आजकल ऐसे बनावटी महात्मा बहुत देखने में आते हैं, जो जाता-जूट बढ़ा लेते हैं, ख़ाक रमा लेते हैं आँखें लाल कर लेते हैं, गंगा में पहरों खड़े रहते हैं, शूलों की शय्या पर सोते हैं, पर उनकी आशा और तृष्णा नहीं जाती । वे ज़ाहिरा कष्ट उठाते हैं, कर्मेन्द्रियों से उनका काम नहीं लेते; पर मन और ज्ञानेन्द्रियों को अपने वश में नहीं करते, वासनाओं का त्याग नहीं करते, इससे उनका जीवन वृथा जाता है । ऐसे लोगों के सम्बन्ध में महात्मा कबीर कहते हैं -
निर्बन्धन बंधा रहे, बंध्या निरबन्ध होय ।
कर्म करे करता नहीं, दास कहावे सोय ।।

कृष्ण भगवान् गीता के तीसरे अध्याय के छठे श्लोक में कहते हैं -
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्  । 
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ।।

जो मनुष्य कर्मेन्द्रियों को वश में करके कुछ काम तो नहीं करता; किन्तु मन में इन्द्रियों के विषयों का ध्यान किया करता है, वह मनुष्य झूठा और पाखण्डी है ।

मतलब यह है, कि मनुष्यों को हाथ, पाँव, मुंह, गुदा और लिङ्ग को वश में कर लेने और इनसे कोई काम न लेने से कोई लाभ नहीं; इनसे तो इनका कोई काम लेना ही चाहिए; किन्तु आँख, कान, नाक, जीभ और त्वचा को वश में करना चाहिए । आँख, कान आदि पांच इन्द्रियों को वश में करना या अपने अपने विषयों से रोकना जरूरी है । बहुत से लोग, ज़ाहिर में सिद्ध बनने के लिए, हाथ-पाँव प्रभृति कर्मेन्द्रियों से काम नहीं लेते, किन्तु मन में भाँती भाँती के इन्द्रिय विषयों की इच्छा किया करते हैं । भगवान् कृष्ण ऐसों को पाखण्डी कहते हैं ।
सबसे अच्छा और सिद्ध पुरुष वही है जो ज़ाहिरा तो काम करता है, किन्तु अन्दर से मन और ज्ञानेन्द्रियों को विषय वासना से रोकता है । गीता में कहा है -
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ।।

हे अर्जुन ! जो मन से आँख कान नाक आदि इन्द्रियों को वश में करके और इन्द्रियों को विषयों में न लगा कर "कर्मयोग" करता है, वही श्रेष्ठ है ।
रहीम ने यही बात कैसी अच्छी तरह कही है -
जो "रहीम" मन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहिं ।
जल में छाया जो परी, काया भीजत नाहिं ।।
तन को योगी सब करें, मन को विरला कोय ।
सहजे सब विधि पाइये, जो मन योगी होय ।।

मतलब यह है कि ढोंग करने से कोई लाभ नहीं । जिनका दिल साफ़ है, जिनके दिल से वासनाएं निकल गयी है, उन्हें नहाने धोने प्रभृति दिखाऊ कामों या दुकानदारी की जरुरत नहीं है । रहीम कहते हैं, मन यदि हाथ में है तो मनसा कहीं क्यों न जाय, हानि नहीं; क्योंकि जल में शरीर की परछाईं पड़ने से शरीर नहीं भीजता । लोग शरीर को जोगी करते हैं - तिलक छापे लगाते हैं, जटाजूट बढ़ाते हैं, नेत्रों को सुर्ख करते हैं, भभूत मलते हैं, कोपीन बांधते हैं; पर मन को कोई विरला ही जोगी करता है । लोग ऊपर से योगी बन जाते हैं, पर मन उनका विषय-भोगों में लगा रहता है । शरीर से चाहे जो काम क्यों न किये जाएँ, पर मन में विषयों की कामना न रहे; यानि शरीर जोगी न हो, मन जोगी हो जाये; तो सिद्धि या मोक्ष मिलने में संदेह नहीं । सारांश यह कि, मन के योगी होने से ही ईश्वर मिलता है ।

महाकवि ज़ौक़ कहते हैं -
सरापा पाक हैं धोये जिन्होंने हाथ दुनिया से ।
नहीं हाजत कि वह पानी बहाएं सर से पाऊं तक ।।

जिन्होंने दुनिया से हाथ धो लिए हैं, वे सिरसे पाँव तक शुद्ध हो गए हैं । उन्हें सिर से पाँव तक पानी बहाकर स्नान करने की जरुरत नहीं ।
मन जब वासना-हीन हो जाता है, तब वह सूखी दिया-सलाई के समान हो जाता है । सूखी दिया-सलाई जिस तरह झट जल उठती है, पर गीली नहीं जलती; उसी तरह वासनाहीन मन पर परमात्मा का रंग जल्दी चढ़ता है ; किन्तु वासनायुक्त मन पर हरगिज़ नहीं । इसलिए मन को वासनाहीन करना चाहिए । साथ ही भक्ति भी निष्काम करनी चाहिए । ईश्वर से मुराद न मांगनी चाहिए । कामना रखकर भक्ति करने से कामना निश्चय ही पूर्ण होती है - ईश्वर भक्त की इच्छा अवश्य पूरी करता है; पर वैसी भक्ति से परिणाम में भय है ; क्योंकि फलों के भोगने के लिए जन्मना और मरना पड़ता है । किन्तु जो लोग बिना किसी इच्छा के परमात्मा की भक्ति करते हैं, वे मुक्ति लाभ करते हैं - उन्हें जन्म लेना और मरना नहीं पड़ता ।
जब साधक के मन में कामना नहीं रहती, तब उसके मन से ईर्ष्या-द्वेष और मित्रता-शत्रुता सब दूर हो जाती है । वह सब जगत को एक नज़र से देखता है । वह मनुष्यों की आशा नहीं रखता, केवल परमात्मा की शरण ले लेता है; इसलिए उसे सहज में मुक्ति मिल जाती है । गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है -
तब लगि हमते सब बड़े, जब लगि है कुछ चाह ।
चाह-रहित कह को अधिक, पाय परमपद थाह ।।
जब तक मन में ज़रा भी आशा रहती है, तभी तक मनुष्य किसी को बड़ा मानता है और किसी का दास बनता है; जब आशा नहीं रहती तब वह सबको समान समझता है और सबका आसरा छोड़ एकमात्र परमात्मा का आसरा पकड़ता है; इससे उसको भवबन्धन से छुटकारा मिलकर परमपद की प्राप्ति हो जाती है ।

छप्पय

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कन्था अरु कोपीन, फटी पुनि महा पुरानी ।
बिना याचना भीख, नींद मरघट मनमानी ।।
रह जग सों निश्चिन्त, फिरै जितहि मन आवै ।
राखे चित कू शान्त, अनुचित नहीं भाषै ।।
जो रहे लीन अस ब्रह्म में, सोवत अरु जागत यदा ।
है राज तुच्छ तिहुँ भुवन को, ऐसे पुरुषन को सदा ।।


भोगा भंगुरवृत्तयो बहुविधास्तैरेव चायं भवः
तत्कस्यैव कृते परिभ्रमतरे लोका कृतं चेष्टितैः ।
आशापाशशतोपशान्तिविशदं चेतः समाधीयतां
कामोच्छित्तिवशे स्वधामनि यदि श्रद्धेयमस्मद्वचः ।। १०२ ।।

अर्थ:
नाना प्रकार के विषय भोग नाशमान और संसार-बन्धन के कारण हैं, इस बात को जानकार भी मनुष्यों ! उनके चक्कर में क्यों पड़ते हो ? इस चेष्टा से क्या लाभ होगा ? अगर आपको हमारी बात का विश्वास हो, तो आप अनेक प्रकार के आशा-जाल के टूटने से शुद्ध हुए चित्त को सदा कामनाशक स्वयंप्रकाश शिवजी के चरण में लगाओ । (अथवा अपनी इच्छाओं के समूल नाश के लिए, अपने ही आत्मा के ध्यान में मग्न हो जाओ ।

आप आज जिन विषय-सुखों को देखकर फूले नहीं समाते, वे विषय-सुख सदा आपके साथ नहीं रहेंगे । वे आज हैं तो कल नहीं रहेंगे । वे बिजली की चमक के समान चञ्चल हैं; अभी बिजली चमकी और फिर नहीं । आप ऐसे नश्वर, असार और क्षणस्थायी सुखों पर मत भूलो । होश करो ! अपनी काया नाशमान है । आप सदा इस संसार में नहीं रहेंगे । आपकी ज़िन्दगी का कोई भरोसा नहीं । आपका जो दम आता है, उसे ही गनीमत समझिये । आप एक कदम रखकर, दूसरा कदम रखने की भी दृढ़ आशा न कीजिये । आपका जीवन हवा के झोंको से छिन्न-भिन्न मेघों के समान है । अभी घटा छा रहीं थी; देखते देखते हवा उन्हें कहाँ का कहाँ उड़ा ले गयी; आकाश साफ़ हो गया। यह सारा संसार, संसार के सुख-भोग, स्त्री-पुत्र, धन-रत्नादि सभी स्वप्न की सी माया हैं । यह दुनिया मुसाफिरखाना है । रोज़ अनेक आदमी मुसाफिरखाने, सराय या धर्मशालाओं में आते और जाते रहते हैं; सदा उनमें कोई नहीं रहता । वे जिस तरह एक दिन या दो-तीन दिन रहकर चले जाते हैं; उसी तरह आपको भी, इस दुनिया रुपी सराय में चन्द रोज़ क़याम करके, आगे जाना होगा । ये सारे सामान यहाँ के यहीं रह जायेंगे । ये सब ऐसे ही रहेंगे, पर आप न रहेंगे । इसलिए आप होशियार रहिये, भूलिए मत । जिस जवानी पर आप इतना इतराते और इतने श्रृंगार-बनाव करते हैं, यह भी चन्दरोज़ा है । यह चार दिन की चाँदनी है । इसके बाद अन्धेरी रात निश्चय ही आवेगी । उस समय आपको यह अकड़, यह उछाल कूद, यह एन्ठना, यह मूंछे मरोड़ना - सब हवा हो जाएगा । आप शीघ्र ही लाठी तक कर चलने लगेंगे । आपका रूप-लावण्य नाश हो जाएगा । जो लोग आपको खूबसूरत समझकर आज प्यार करते हैं, वे ही कल आपको देखकर नाक-भौं सिकोड़ेंगे । फिर भला, आप ऐसी नश्वर निकम्मी काया क्यों इतना अभिमान करते हैं ? आप अहङ्कार को त्यागिये और अपने को उस खिलाडी का एक मिटटी का पुतला मात्र समझिये । सबकी शुभकामना और परोपकार कीजिये और एकमात्र अपने बनानेवाले से ही दिल लगाइये । इसी में आपका कल्याण है । यह जगत कुछ भी नहीं, कोरा भ्रम है । यह मृगमरीचिका या स्वप्न की सी माया है । इस पर ज्ञानी नहीं भूलते ।

महात्मा सुन्दरदास जी कहते हैं -
कोउ नृप फूलन की सेज पर सूतो आई ।
जब लग जाग्यो तौ लों, अति सुख मान्यो है ।।
नींद जब आयी, तब वाही कूँ स्वप्न भयो ।
जब परयो नरक के कुण्ड में, यूं जान्यो है ।।
अति दुःख पावे, पर निकस्यो न क्यूँ ही जाहि ।
जागि जब परयो, तब स्वप्न बखान्यो है ।।
यह झूठ वह झूठ, जाग्रत स्वप्न दोउ ।
"सुन्दर" कहत, ज्ञानी सब भ्रम मान्यो है ।।

छप्पय
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अति चञ्चल ये भोग, जगत हूँ चञ्चल तैसो ।
तू क्यों भटकत मूढ़ जीव, संसारी जैसो ।।
आशाफांसी काट, चित्त तू निर्मल ह्वैरे ।
करि रे प्रतीति मेरे वचन, ढुरिरे तू इह ओर को ।।
छिन यहै यहै दिनहुँ भल्यौ, निज राखै कुछ भोर को ।


धन्यानां गिरिकन्दरे निवसतां ज्योतिः परं ध्यायतां-
आनन्दाश्रुजलं पिबन्ति शकुना निःशङ्कमङ्केशयाः ।।
अस्माकं तु मनोरथोपरचितप्रासादवापीतट-
क्रीडाकाननकेलिकौतुकजुषामायुः परिक्षीयते ।। १०३ ।।

अर्थ:

वे धन्य हैं, जो पर्वतों की गुफाओं में रहते हैं और परब्रह्म की ज्योति का ध्यान करते हैं, जिनके आनन्दाश्रुओं को उनकी गोद में बैठे हुए पक्षी निर्भयता से पीते हैं । हमारी ज़िन्दगी तो मनोरथों के महल की बावड़ी के किनारे के क्रीड़ा-स्थान में लीलाएं करते हुए ही वृथा बीतती है ।

मतलब यह कि वे लोग सफल काम हैं, जो पहाड़ों की गुफाओं में बैठे हुए परमात्मा ज्योति का ध्यान करते रहते हैं और ध्यान में इतने मग्न हो जाते हैं कि उन्हें अपने तनबदन की भी सुध नहीं रहती । उनको भीतर ही भीतर उस ब्रह्म के ध्यान से जो आनन्द-बोध होता है, उससे उनकी आँखों से आनन्द के आंसू बहने लगते हैं । पक्षी उनकी गोद में निडर बैठे हुए उन आंसुओं को पीते हैं । उन्हें कुछ खबर नहीं, कि पक्षी गोद में बैठे हैं या क्या कर रहे हैं । वे तो आनन्द में बेसुध रहते हैं । यही आनन्द परमानन्द है । इससे परे और आनन्द नहीं । जिनको यह सच्चा आनन्द  मिलता है, वही सच्चे भाग्यवान हैं । एक वह हैं और एक हम अभागे हैं, जो रात-दिन मनोरथों के महल गढ़ा करते हैं - रात-दिन मिथ्या कल्पनाएं किया करते हैं । इन शेखचिल्ली के से गढन्तों से हमें कोई लाभ नहीं - इन झूठे ख्याली पुलावों के पकने में हमारा दुष्प्राप्य जीवन वृथा नष्ट हो रहा है ।

जो मनुष्य मानव-चोला पाकर परमात्मा का भजन नहीं करते, परमात्मा के दर्शनों की चेष्टा नहीं करते - उनका जीवन वृथा है ।

इसलिए उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है -
दिल वह क्या, जिसको नहीं तेरी तमनाये विसाल ।
चश्म वह क्या, जिसको तेरे दीद की हसरत नहीं ।।

वह दिल ही नहीं, जिसे तुझे पाने की इच्छा न हो और वह आँख ही नहीं, जिसे तेरे दर्शन की लालसा न हो ।


बीती सो बीती, अब तो होश करो !
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भाइयों ! बीती सो बीती, अब तो चेत करो और प्रभु से लौ लगाओ । आजकल मत करो, नहीं तो पछताओगे । अन्त समय पछताने से कोई लाभ न होगा । जो लोग विचार ही विचार करते रहते हैं, वे धोखे में रह जाते हैं और काल एक दिन अचानक आकर उनकी छोटी पकड़ लेता है ।

गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -
गए पलट आवें नहीं, सो करु मन पहचान ।
आजु जोई सोई कालहि है, तलसी मर्म न मान ।।
रामनाम रटिबो भलो, तुलसी खता न खाय ।
लरिकाई ते पैरिबो, धोखे बूड़ि न जाय ।।

नदी की जो धार चली गयी है, लौटकर नहीं आएगी, जो दिन चले गए हैं, वापस नहीं आएंगे । जो दिन आज है, वही कल है । कल कोई नई बात नहीं हो जायेगी । अतः जो कल करना है उसे आजही करो; और जो आज करना है, उसे अभी करो; क्योंकि यदि पल भर में प्रलय हो गयी - आप चल बसे - तो फिर कब करोगे ? बचपन से ही राम नाम रटना अच्छा है ।  जो लोग बचपन से ही तैरना सीख लेते हैं, धोखे से नहीं डूबते । जो लोग यही विचार किया करते हैं, कि अमुक काम हो जायेगा, तो उसके बाद हम सब गृहस्थी के झगड़े छोड़ भगवत भजन करेंगे, वे इस तरह के विचार किया ही करते हैं कि इतने में समय पूरा हो जाता है और काल उनका चोटा पकड़ कर उन्हें ले जाता है । उस वक्त वह बहुत पछताते और सिर धुनते हैं; लेकिन उस समय क्या हो सकता है ? उस समय उनकी गति उस भौंरे सी होती है, जो कमल के मुख में बन्द हो कर कहता है -

रात्रिर्गमिष्यति भविष्यति सुप्रभातं।
भास्वानुदेष्यति हसिष्यति पंकजालं ।।
इत्थं विचिन्तयति कोशगते द्विरेफे ।
हा हन्त हन्त नलिनीं गज उज्जहार ।।

बड़े बड़े शाल के लट्ठों को छेद डालने की शक्ति रखने वाला भौंरा, प्रेम के मारे, कोमल कमल में बन्द हो जाता है । रात हो जाती है और भौंरा कमल के अन्दर बैठा विचार करता है - "अब रात का अवसान होगा, सवेरा होगा, सूरज उदय होगा और यह कमल खिल जायेगा; तब मैं निकल जाऊंगा । अब रात भर यहीं आनन्द करूँ ।" वह तो ऐसे विचार करता ही रहता है, कि जंगली हाथी कमल को उखाड़ कर मुंह में रख लेता है और भौंरो के मन की मन में ही रह जाती है । यही दशा संसारी विषय-लोलुपों की है । वह विचार बाँधा ही करते हैं और काल उन्हें मुंह में धर लेता है, अतः हो सके तो बचपन में ही ईश्वर भजन करो । बचपन में यदि ऐसा सौभाग्य न हो, तो जवानी में तो न चूको । जवानी इसके लिए अच्छा समय है । उस अवस्था में शक्ति रहती है । जाने में ईश्वरभक्ति करनेवाला निश्चय ही मोक्ष या स्वर्ग पाता है ।

कहा है -
दानं दरिद्रस्य प्रबोशच शान्तिः 
यूनां तपो ज्ञानवताञ्च मौनं ।
इच्छा निवृत्तिश्च सुखासितानां
दया च भूतेषु दिवं नयन्ति ।।

दरिद्रता का किया दान, निग्रह अनुग्रह की शक्ति होने पर क्षमा, जवानी का किया तप, विद्वान् होकर चुप रहना, सुख-भोग की सामर्थ्य होने पर इच्छाओं को रोक लेना और प्राणियों पर दया करना - ये स्वर्ग की प्राप्ति करते हैं ।


ईश्वर भजन में आजकल मत करो 
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एक धनवान सदा घर-धंधों में लीन रहता था । उसकी स्त्री उससे बहुत कुछ कहती थी कि हे स्वामी ! यह शरीर विषय-भोगों के लिए नहीं, बल्कि परमात्मा की भक्ति के लिए मिला है । पारसमणि समझकर, इससे मोक्ष रुपी सोना बना लीजिये । ऐसा न हो कि आप सोना न बनावें और यह पारसमणि पहले ही आपसे छीन ली जाय । इस शरीर का बारम्बार मिलना कठिन है । ८४ लाख योनियां भोगने के बाद यह मनुष्य चोला मिला है । इस बार यदि इससे काम न लिया जायेगा, तो फिर चौरासी लाख योनियों में जन्म-मरण होने पर यह मनुष्य-चोला मिलेगा; इसलिए दो चार घडी तो सब तरफ से मन हटाकर परमात्मा की याद किया करो । स्त्री उससे बार बार कहती, पर वह सेठ उसकी बात टाल देता ।

एक दिन सेठ बीमार हो गया । उसने सेठानी से वैद्य को बुलाने को कहा । सेठानी ने वैद्य को बुलाया । वैद्य ने नाड़ी-नब्ज़ देख, रोग का हाल पूछ, दवा का नुस्खा लिख दिया और सेवन-विधि बताकर चला गया । सेठानी ने पंसारी के यहाँ से दवा मंगा, आले में रख दी । दिन भर हो गया पर सेठ को दवा न दी । संध्या समय सेठ ने कहा - "क्या दवा नहीं मंगाई गयी ?" सेठानी ने कहा - "जी, दवा तो मंगा ली है, पर वह रक्खी है उस ताक में ।" सेठ ने पूछा - "अब तक दी क्यों नहीं ?" सेठानी ने कहा - "जल्दी क्या है ? आज नहीं तो कल, नहीं तो परसों दे दूंगी । कभी न कभी दे ही दूंगी ।" सेठ ने कहा - "अगर मैं मर गया तो दवा कौन काम आवेगी ?" सेठानी ने कहा - "मरने को तो आप मानते ही नहीं । मैं जब जब भगवत भजन करने को कहती हूँ, तब-तब आप कह देते हैं कि देखा जायेगा; जल्दी थोड़े ही है । यदि आपको मरने की ही याद होती तो ऐसा न कहते । आज दवा के लिए आपको मरने की याद आयी है । जिस तरह दवा की रोगनाश के लिए जरुरत है; उसी तरह भजन-पूजन की जन्म-मरण का फन्दा काटने के लिए जरुरत है । ऐसा न हो कि पशु योनि मिल जाय और सारा गुड़-गोबर हो जाय ।" आज स्त्री का उपदेश लग गया । सेठ को वैराग्य हो गया । सेठानी ने उसे दवा पिला दी और वह अच्छा भी हो गया । उसी दिन से उसने ईश्वर भजन में लौ लगा दी । वह और सब भूला पर ज़िन्दगी भर, मौत और ईश्वर को न भूला ।


मौत को हरदम याद रक्खो 
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एक बादशाह ने अपने दरबार और बैठने के स्थानों में कब्रें बनवा रक्खी थीं । वह चाहता था कि मैं हरदम कब्रों को देखकर मौत को न भूलूँ । मौत की याद रहने से पापों से बचा रहूँगा और ईश्वर को न भूलूंगा । हमारे यहाँ के अनेक सच्चे सिद्ध अक्सर शमशान भूमि में ही डेरा रखते हैं । सारांश यह कि मनुष्य को अपनी मौत सदा याद रखनी चाहिए, ताकि संसार से वैराग्य होकर ज्ञान हो और ज्ञान से मोक्ष मिले ।

महात्मा कबीर ने खूब जबरदस्त चेतावनी दी है -
"कबिरा" जो दिन आज है, सो दिन नाहिं काल।
चेत सके तो चेतियो, मीच परी है ख्याल।।

हे कबीर ! जो दिन आज है, वह कल नहीं होगा; यानी आज का सा मौका कल फिर न मिलेगा । चेतना है तो चेत जा ! देख, मृत्यु तेरे घात में है । चूहे पर बिल्ली की तरह झपट्टा मारना ही चाहती है ।

गोस्वामी जी ने भी खूब कहा है -
"तुलसी" विलम्ब न कीजिये, भेज लीजै रघुबीर।
तन तरकस ते जात है, श्वास सार सो तीर।।
काल करे सो आज कर, आज करे सो अब।
पल में परलय होएगी, बहुरि करोगे कब?

तुलसीदास जी कहते हैं, देर न करो, भगवान् को भेज लो; क्योंकि तनरूपी तरकस से श्वास रुपी तीर, जो सार है, निकला जाता है । जो काम कल करना है, उसे आज ही कर डालो और जो आज करना है, उसे अभी कर डालो; क्योंकि यदि पल में प्रलय हो गयी, तो फिर कब करोगे ?

जो मनुष्य दिन-रात घर-धन्धों में ही लगे रहते हैं, कभी खुश होते हैं कभी रंज करते हैं, कभी कन्या के वैधव्य दुःख को देखकर जलते रहते हैं, तो कभी पुत्र के मरण से औंधा मुंह किये पड़े रहते हैं अथवा कान्ता-वियोग या स्त्री के मरण से तड़फते हैं अथवा धनवृद्धि के लिए दौड़ते फिरते हैं । लेकिन परमात्मा का नाम कभी नहीं लेते; यदि लेते हैं तो हाथ को तो गोमुखी में रखते हैं, पर मन को विषयों में लगाए रहते हैं, लोगों से बातें करते रहते और सड़ासड़ माला फेरा करते हैं, ऐसों के पास एक दिन भी चतुर पृष्ठों को न रहना चाहिए ।

कहा है -
राजा धर्मविना, द्विजः शुचिविना, ज्ञानं विना योगिनः ।
कान्ता सत्यविना, हयो गति विना, भूषा च ज्योतिर्विना ।।
योद्धा शूरविना, तपो व्रत विना, छन्दो विना गीयते ।
भ्राता स्नेह विना, नरो हरि विना, मुञ्चन्ति शीघ्रं बुधाः ।।

धर्महीन राजा को, शौचहीन ब्राह्मण को, ज्ञानहीन योगी को, असत्यवादिनी स्त्री को, गतिहीन घोड़े को, चमक-दमक रहित गहने को, शूरताहीन योद्धा को, नियम रहित तप को, छन्द बिना कविता को, स्नेह-हीन भाई को और हरिभक्ति रहित पुरुष को बुद्धिमान लोग शीघ्र ही छोड़ देते हैं ।

हरिभक्ति रहित पुरुष को चतुर लोग इसलिए त्याग देते हैं, कि उसकी सङ्गति में उनका मन भी कहीं वैसा न हो जाय । मनुष्य जैसी सङ्गति करता है, वैसा ही हो जाता है । जो विषयी पुरुषों की सङ्गति करता है, वह विषयी हो जाता है; पर जो ज्ञानी और वैरागियों की सङ्गति करता है, वह ज्ञानी और वैरागी हो जाता है । महापुरुषों की एक शुभ दृष्टी से मनुष्य निहाल हो जाता है; यानी भाव-बन्धन से उसका पीछा छूट जाता है । हम आगे दोनों तरह के दृष्टान्त देते हैं -


एक राजा और महात्मा 
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किसी जंगल में एक महात्मा रहते थे । वह पेड़-पत्ते और हवा खाकर ज़िन्दगी बसर करते थे । उनकी शोहरत सारे देश में फ़ैल गयी । उस देश के राजा ने भी उनसे मिलना चाहा । वज़ीर ने यह खबर महात्मा को दी । महात्मा उस जंगल को छोड़ भागने को तैयार हुए; लेकिन मंत्री के बहुत समझने बुझाने से वह वहां रह गए और राजा को दर्शन देने पर भी राज़ी हो गए ।

एक दिन राजा अपने परिवार और दरबारियों समेत महात्मा के दर्शन को गया । महात्मा के दर्शन कर वह बहुत ही खुश हुआ और उनसे नगर में चलकर बाग़ में तप करने की प्रार्थना की । महात्मा बहुत ज़ोर देने से इस बात पर राज़ी हो गया । राजा ने अपने बाग़ में उसके लिए एक एकान्त कमरा खूब सजवा दिया । मखमली गद्दे, तकिये, कौच, पलंग और कुर्सियां रखवा दीं और चौदह-चौदह बरस की सुन्दरी मनमोहिनी कामिनियाँ महात्मा जी की सेवा को नियुक्त कर दीं ।

महात्मा जी खूब आनन्द से दिनी गुज़ारने और विधुवदिनी कामिनियों को भोगने लगे । चन्दरोज में ही वह विषयों के वशीभूत हो गए । एक दीं राजा फिर उनसे मिलने गया । उसने देखा कि महात्मा जी का रंग रूप गुलाब के फूल जैसा हो गया है । वह मसनद के सहारे लेते हुए हैं और चन्द्रानना स्त्रियां उन पर मोरछल कर रही हैं । यह तमाशा देख राजा को बड़ा दुःख हुआ । उसने अपने मंत्री से यह हाल कहा । मंत्री ने कहा - "महाराज ! निवृत्ति मार्ग वालों को प्रवृत्ति मार्ग वालों की सङ्गति भूलकर भी न करनी चाहिए ।"

कहा है -
कामीनाम् कामिनीनां च संगात् कामी भवेत् पुमान्।  
देहान्तरे ततः क्रोधी लोभी मोहि च जायते।।
काम क्रोधादि संसर्गाद शुद्धं जायते मनः।
अशुद्धे मनसि ब्रह्मज्ञानं तच्च विनश्यति।।

कामी पुरुषों और स्त्रियों की सङ्गति से पुरुष कामी और जन्मान्तर में मोहि और क्रोधी हो जाता है ।

काम क्रोधादि के सम्बन्ध से मन भी अशुद्ध हो जाता है । अशुद्ध मन से उपदेश किया हुआ ब्रह्मज्ञान भी नष्ट हो जाता है ।


एक महात्मा और वेश्या 
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एक महात्मा एक दिन वर्षा में भीगते हुए और कीच में लिपटे हुए एक मकान के छज्जे के नीचे जा खड़े हुए । वह मकान राजा की वेश्या का था । महात्मा सर्दी के मारे थर-थर काँप रहे थे । वेश्या की दासी ने महात्मा को देखा और अपनी स्वामिनी से सारा हाल जा कहा । वेश्या ने कहा - "जाओ, महात्मा की लिवा लाओ ।" दासी उन्हें ले आई । वेश्या ने उनको स्नान कराकर नए कपडे पहनाये और भोजन कराया । इसके बाद आप भोजन करके उनके पास गयी और उन्हें पलंग पर लिटा कर उनके पैर दबाने लगी । महात्मा ने एक नज़र भर के वेश्या की तरफ देखा और उसके ह्रदय में अमृत की धारा बहा दी । वह सो गए और वेश्या रात भर उनके चरण चापती रही । सवेरे के समय वह सो गयी और महात्मा उठ कर चल दिए । भोर में उठते ही वेश्या ने दासी से पूछा कि महात्मा कहाँ गए ? उसने कहा कि वो तो चले गए । वेश्या उसी समय नंगी होकर घर से निकल गयी और एक वृक्ष के नीचे जाकर बैठ गयी । राजा ने यह समाचार सुनते ही अपने आदमी उसको लिवा लाने को भेजे । वेश्या ने कहा - "राजा से कह दो, कि मैं आपका वह मैला उठाने वाली पहले की भंगन नहीं हूँ ।" राजा ने यह बात सुन, हुक्म दे दिया कि उसे कोई न छेड़े । अगले दिन वह कहीं चली गयी । सच है, महापुरुषों की क्षणभर की सङ्गति से महापापी भी निहाल हो जाता है । निस्संदेह सत्संग बड़ी चीज़ है ।

कहा है -
महानुभावसंसर्गः कस्य नोन्नतिकारकः।
पद्मपत्रस्थितम् वारिधत्ते मुक्ताफलश्रियम ।।

महापुरुषों की सङ्गति से किसकी उन्नति नहीं होती ? कमल के पत्ते पर पड़ी जल की बून्द मोती की शोभा को धारण करती है ।

और भी -

दोहा
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जेहि जैसी सङ्गति करी, सो तैसो फल लीन ।
कदली सीप भुजंग मुख, एक बून्द गुण तीन ।।

जो जैसी सङ्गति करता है, वह वैसा ही फल पाता है । मेह की एक बून्द केले में कपूर, सीप में मोती और सर्प मुख में विष हो जाती है ।

सवैय्या 
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ज्ञान बढै गुनवान की संगत,
ध्यान बढै तपसी-संग कीने ।
मोह बढै परिवार की संगत,
लोभ बढै धन में चित दीने ।
क्रोध बढै नर मूढ़ की संगत,
काम बढै तिय के संग कीने ।
बुद्धि विवेक विचार बढै,
कवि "दीन" सुसज्जन संगत कीने ।।

सत्संग की महिमा का पार नहीं । सत्संग से ही दस्यु भील वाल्मीकि ऋषि हो गए । पद्मयोनि से पैदा हुए ब्रह्मा कैवर्त्ति से पैदा हुए व्यासजी, उर्वशी से पैदा हुए वशिष्ठ जी और हिरनी से पैदा हुए ऋषि श्रृंगी सत्संग से ब्रह्मतत्व को प्राप्त हुए; अतः महापुरुष्णो का संग करना चाहिए । "सत्संग" भाव-सागर से पर करने के लिए नौका-स्वरुप है ।

कहा है -
तत्त्वं चिन्तय सततं चित्ते,
परिहर चिन्तां नश्वरवित्ते ।
क्षणमिह सज्जनसङ्गतिरेका,
भवति भवार्णवतरणे नौका ।।

हमेशा तत्व की चिन्तना कर, चञ्चल धन की चिन्ता छोड़ । यह जगत अल्पकालीन है; केवल सज्जनों की सङ्गति ही भवसागर के पार जाने के लिए नाव के समान है ।

इस संसार वृक्ष के जितने फल हैं, सभी प्राणी के नाश करनेवाले और उसे सदा दुखों के गर्त में पटक रखनेवाले हैं; केवल दो फल अमृत समान हैं;

कहा है -
संसारविषवृक्षस्य द्वे फैले अमृतोपमे ।
काव्यामृत रसास्वाद आलापः सज्जनैः सह ।।

इस संसार रुपी विष-वृक्ष के दो फल अमृत के समान हैं
१) काव्यरुपी अमृत का रसास्वादन करना, २) साधु पुरुषों की सङ्गति करना ।

शंकराचार्य जी ने कैसा अच्छा उपदेश दिया है । इसमें संसार-सागर से पार होने का सारा मसाला है -
संगः सत्सु विधीयतां, भगवतोभक्तिर्दृढ़ा धीयतां,
शान्त्यादिः परिचीयतां, दृढतरं कर्माशु संत्यज्यताम्।
सद्विद्या ह्युपसर्प्यतां, प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां,
ब्रह्मैकाक्षरमर्थ्यतां श्रतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम्।।

साधु पुरुषों का संग करना चाहिए । भगवान् में दृढ़ भक्ति करनी चाहिए । क्षमा और दम प्रभृति का अभ्यास करना चाहिए । संसार-बन्धन के कारण "कर्म - सकाम कर्मों को" शीघ्र त्यागना चाहिए । सच्चे विद्वानों की सेवा करनी चाहिए और उनकी पादुकाएं उठानी चाहिए । ब्रह्म बोधक एकाक्षर प्रणव "ॐ" का जाप करना चाहिए और वेद के शिरोवाक्य "वेदान्त" को सुनना चाहिए ।
वाह ! क्या खूब कहा है ! जो इस वचन पर अमल करेगा, उसे परमानन्द की प्राप्ति क्यों न होगी ? अवश्य होगी ।

छप्पय
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योगी जग विसराय, जाय गिरिगुहा बसत हैं ।
करत ज्योति को ध्यान, मगन आंसू वरसत हैं ।।
खगकुल बैठत अंक, पियत निःशंक नयनजल ।
धनि-धनि हैं वे धीर, धरयो जिन यह समाधिबल ।।
हम सेवत बारी बाग सर, सरिता बापी कूपतट ।
खोवत है योंही आयु को, भये निपटही नीरघट ।।


आघ्रातं मरणेन जन्म जरया विद्युच्चलं यौवनं
सन्तोषो धनलिप्सया शमसुखं प्रौढाङ्गनाविभ्रमैः ।
लोकैर्मत्सरिभिर्गुणा वनभुवो व्यालैर्नृपा दुर्जनैः
अस्थैर्येण विभूतिरप्यपहृता ग्रस्तं न किं केन वा ।। १०४ ।।

अर्थ:

मृत्यु ने जन्म को ग्रस रक्खा है, बुढ़ापे ने बिजली के समान चञ्चल युवावस्था को ग्रस रक्खा है, धन की इच्छा ने सन्तोष को ग्रस रक्खा है, जलनेवालों ने गुणों को ग्रस रक्खा है, सर्प और जंगली जानवरों ने वन को ग्रस रक्खा है, दुष्टों ने राजाओं को ग्रस रक्खा है, अस्थिरता या चञ्चलता ने धनैश्वर्य को ग्रस रक्खा है; तब ऐसी कौन सी चीज़ है, जो किसी दूसरी नाशक चीज़ के चंगुल में नहीं है ?

खुलासा यह है, कि जन्म को मृत्यु का भय है, जवानी को बुढ़ापे का भय है, सन्तोष को लोभ का भय है, शान्ति को स्त्रियों के हावभाव और विलासों का भय है, गुणों को उनसे जलने या कुढ़नेवालों का भय है, वन में सर्प और हिंसक पशुओं का भय है, राजाओं में दुष्ट दरबारियों का भय है, धन और ऐश्वर्य में क्षणभंगुरता का भय है । संसार में ऐसी कोई अच्छी वास्तु नहीं है, जिसे किसी का भय न हो । मतलब यह है कि, संसार और संसार के सभी पदार्थ नाशमान हैं । ऐसी कोई चीज़ नहीं है, जिसका काल नाश नहीं कर देता अथवा जिसे किसी तरह का भय नहीं है ।

संसार की यह दशा है, तब भी तो मनुष्य चेत नहीं करता, यही तो आश्चर्य की बात है ! अज्ञानी मनुष्य, मोहवश, अपना हानि-लाभ नहीं देखता; संसार की झूठी माया में फंसा रहता है ।

तुलसीदास जी ने ठीक ही कहा है -
करत चातुरी मोहवश, लखत न निज हित हान ।
शूक मर्कट इव गहत हठ, तुलसी परम सुजान ।।
दुखिया सकल प्रकार शठ, समुझि परत तोई नाहिं ।
लखत न कण्टक मीन जिमि, अशन भखत भ्रम नाहिं ।।

विषयों के संसर्ग से मनुष्य के मन में कामना - इच्छा पैदा होती है । जब इच्छा पूरी नहीं होती, तब क्रोध होता है और क्रोध से मोह की उत्पत्ति होती है । मोह होने से प्राणी को अपना हित या परलोक की हानि नहीं दीखती । राग-द्वेष प्रभृति के कारण उसमें ज्ञानदृष्टी नहीं रहती; पर पढ़ने-लिखने के कारण वह अपने तई परम चतुर समझता है और जिस तरह हठ करके तोता बहेलिये के फन्दे में आप ही फंस जाता है और पिंजरे में कैद हो जाता है तथा बन्दर छोटे मुंह की ठिलिया में रोटी के लिए हाथ डालकर बंदरवाले के कब्जे में हो जाता है; उसी तरह विषयी पुरुष, विषयों के लालच में आकर, अपने तई संसार-बन्धन में फंसा लेता है ।

मनुष्य भूख, प्यास, रोग, शोक, दरिद्रता, प्रिय-वियोग, बुढ़ापा, जन्म-मरण, चौरासी लाख योनियों में दुःख-भोग तथा नरक प्रभृति से हर तरह दुखी है, उसे ज़रा भी सुख नहीं है, पर वह मोह के मारे ऐसा अन्धा हो रहा है कि उसे कांटे में लगे चारे के लिए फंसने वाली मछली कि तरह कुछ भी नहीं सूझता । जिस तरह मछली को रोटी का टुकड़ा प्यारा है; उसी तरह मनुष्य को विषय-भोग प्यारा है । जिस तरह मछली को काँटा है, उसी तरह मनुष्य को ममता का काँटा है । मतलब यह है, अज्ञानी मनुष्य विषय रुपी चारे के लोभ से ममता के कांटे में फंसकर अपना नाश कराता है; पर मज़ा यह कि वह दुःख को दुःख नहीं समझता; तरह-तरह के भयों से घिरा हुआ नाना प्रकार के संकट झेलता है; मछली, तोते और बन्दर की तरह बन्धन में फंसता है, पर निकलना नहीं चाहता । इन दुःखों का उसे ज़रा भी ख्याल नहीं आता । रोज़ लोगों को मरते हुए देखता है, रोज़ बूढ़ों को असह्य कष्ट उठाते देखता है; पर आप नहीं समझता कि मेरी भी यही गति होनेवाली है ! उल्टा हर साल जन्मतिथि को वर्षगाँठ का उत्सव करता है । मित्रों और रिश्तेदारों को निमंत्रण देता है । गाना बजाना और नाच रंग कराता है । कैसी बात है, जहाँ रंज करना चाहिए, वहां नादान मनुष्य ख़ुशी मनाता है ! उसे समझना चाहिए कि हर सालगिरह को उसकी उम्र का एक साल काम  होता है ।

महात्मा सुन्दरदास जी ने क्या खूब कहा है -
जबतें जनम लेत, तबही तें आयु घटे ।
माई तो कहत, मेरो बड़ो होत जात है ।।
आज और काल और दिन-दिन होत और ।
दौरयो दौरयो फिरत, खेलत और खात है ।।
बालपन बीत्यो, जब यौवन लाग्यो है ।
यौवनहु बीते बूढ़ो डोकरो दिखात है ।।
"सुन्दर" कहत, ऐसे देखत ही बूझिगयो ।
तेल घटी गए, जैसे दीपक बुझात है ।।

प्राणी जब से जन्म लेता है, तभी से उसकी उम्र घटने लगती है । माँ समझती है कि मेरा लाल बड़ा होता जाता है । दिन-दिन उसके रंग बदलते हैं । बचपन में खाता खेलता और भागा फिरता है । बचपन के बीतते ही जवानी आ जाती है और जवानी के बीतते ही बुढ़ापा आ जाता है और वह बूढा डोकरा सा दिखने लगता है । सुन्दरदास कहते हैं कि देखते-देखते जिस तरह तेल घट जाने से चिराग बुझ जाता है; उसी तरह वह बुझ जाता है; यानी मर जाता है ।

छप्पय
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ग्रस्यो जन्म को मृत्यु, जरा यौवन को ग्रास्यौ ।
ग्रसिवे को सन्तोष, लोभ यह प्रगट प्रकास्यो ।।
तैसहि समदृष्टि ग्रसित, बनिता बिलास वर ।
मत्सर गुण ग्रसिलेत, ग्रसत वन को भुजङ्गवर ।।
नृप ग्रसित किये इन दुर्जनन, कियौ चपलता धन ग्रसित ।
कछुहु न देख्यौ बिन ग्रसित जग, याही तें चित अति त्रसित ।।


आधिव्याधिशतैर्जनस्य विविधैरारोग्यमुन्मूल्यते
लक्ष्मीर्यत्र पतन्ति तत्र विवृतद्वारा इव व्यापदः ।
जातं जातमवश्यमाशु विवशं मृत्युः करोत्यात्मसात्तत्किं 
नाम निरङ्कुशेन विधिना यन्निर्मितं सुस्थितम् ।। १०५ ।।

अर्थ:

सैकड़ों मानसिक और शारीरिक रोग स्वास्थ्य का नाश कर डालते हैं । जहाँ संपत्ति और प्रभुता है, वहां विपत्ति दरवाज़ा तोड़कर चोर की तरह चढ़ाई करती है । जो जन्म लेता है उसे मृत्यु शीघ्र ही अपनी जबड़ों में फंसा लेती है; तब निरंकुश विधाता ने सदा स्थायी रहनेवाली कौन सी चीज़ बनायीं है ?

मनुष्य शरीर रोगों का घर है । मानसिक और कायिक रोग सदैव उसके भीतर डेरा डाले रहते और स्वास्थ्य का नाश करते रहते हैं । संपत्ति पर विपत्ति सदा ताक लगाए खड़ी रहती है और ज़रा सा भी मौका पाते ही दरवाज़ा तोड़ कर उसका विनाश कर देती है । जन्म लेनेवाले के सिर पर मौत सदा मंडराया करती है एवं दांव-घात देखती रहती है और जब मौका पाती है, उसे अपने पंजो में फंसा लेती है । सारांश यह कि शरीर के साथ रोग, संपत्ति के साथ विपत्ति, जन्म के साथ मृत्यु, संयोग के साथ वियोग, सुख के साथ दुःख और जवानी के साथ बुढ़ापा प्रभृति एक दुसरे के नाशक विधाता ने लगा रखे हैं । विधाता ने कोई भी चीज़ सदा स्थायी नहीं बनाई; जो कुछ बनाया है वह चंदरोज़ा और नाशमान बनाया है ।

संसार की असारता देखकर, मनुष्य को अपने तई इस संसार में पाहुने की तरह समझना चाहिए । जिस तरह पाहुना जहाँ कहीं जाता है और जहाँ ठहरता है, वहां के लोगों से दिल नहीं लगाता; उसी तरह समझदारों को इस दुनिया से दिल न लगाना चाहिए ।

जिसको रहना उत घर, सो क्यों मोड़े मित्त ।
जैसे पर-घर पाहुना, रहै उठाय चित्त ।।
इत पर-घर उत है घरा, बनिजन आये हाट ।
कर्म करीना बेचि के, उठि करि चाले बाट ।।
मेरा संगी कोई नहीं, सबै स्वारथी लोय ।
सुन परतीति न उपजे, जीव विश्वास न होय ।।
"कबिरा" ऐसा संसार है, जैसा सैमल-फूल ।
दिन दशके व्यौहार में, झूठे रंग न भूल ।।

मनुष्य का अपना घर वह है जहाँ से वह आया है, यह नहीं ; अतः उसे अपने उस घर से दिल न हटाना चाहिए । इस घर में आकर मेहमान की तरह रहना चाहिए और मेहमान की तरह ही अपना दिल उठाये रखना चाहिए ।

यह पराया घर है और वह अपना घर है । यहाँ हाट में अपना व्यवसाय करने आये हैं । हाट में सौदा बेचकर अपनी राह लगेंगे; यानि इस दुनिया में अपने कर्मों का फल भोगकर यहाँ से चले जाएंगे ।

इस दुनिया में अपना कोई साथी नहीं है । सभी मतलबी यार है और मतलब के लिए ही हमारे बन रहे हैं । सुनकर प्रतीत नहीं होता और जे में विश्वास नहीं आता; पर बात सच्ची है ।

कबीरदास जी कहते हैं - यह संसार सेमल के फूल की तरह है । दस दिन के व्यवहार और मेल-जोल से झूठे रंग पर न भूलना चाहिए ।

सारांश यह है कि दुनिया पराया घर है और प्राणीमात्र यहाँ मेहमान है; अथवा यह संसार सराय है और हमलोग मुसाफिर हैं । यदि हम पाहुने हैं तो, और यदि हम मुसाफिर हैं तो - दोनों ही हालातों में - हमें इस दुनिया से दिल नहीं लगाना चाहिए । हम जहाँ से आये हैं अथवा जहाँ हमारा घर है, हमें अपना दिल वहां के लिए ही उठाये रहना चाहिए ।

दुनिया गोरख धन्धा है
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यह संसार बिलकुल मिथ्या और असार है; इसमें कुछ भी तत्व नहीं है । केले के खम्भे और प्याज को ज्यों ज्यों छीलते जाइये, त्यों त्यों उसके भीतर से सिवा छिलकों के कुछ नहीं निकलता । यह जगत भी उनकी तरह ही सारहीन है । इसमें कुछ भी नहीं है । यह कोरा मायाजाल या धोखा है । इस गोरखधन्धे में जो फंस जाते हैं, वे बुरी तरह नष्ट होते और अन्त में पछताते हैं । इसलिए भाइयों ! इस मायाजाल से निकलने कि चेष्टा करो । खूब खबरदार रहो ! इस जगत के सभी सुख भोग झूठे और प्राणी के पक्ष में अहितकर हैं । आगा हश्र ने थियेटर के गाने के तर्ज़ में क्या खूब कहा है -
इस जाल में सब उलझाए, दुनिया है गोरखधन्धा।
डाल रखा है सबने गले में, लोभ-मोह का फन्दा।।
ये दुनिया है बूर का लड्डू, देख के जी ललचाये।
न खाये तो भी पछताए, खाये तो पछताए।।
फिर भी सकल जगत है अन्धा।
इस दुनिया के सुख भी झूठे, इसका प्यार भी झूठा।।
सावधान हो ! इस ठगनी ने बड़ों बड़ों को लूटा।
मूरख ! मत बन इसका बन्दा ।।

यह चोला परोपकार और ईश्वर भजन के लिए है 
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आप जब इस दुनिया में आने के लिए माँ के गर्भ में थे, तब अपने परमात्मा से प्रार्थना की थी कि हे नाथ ! मुझे इस नरक कुण्ड से निकालिये; मई दुनिया में जाकर माया-मोह में न फंसकर, केवल आपकी ही परिस्तिश और उपासना तथा जगत के दुसरे प्राणियों का उपकार करूँगा; पर यहाँ आकर बचपन अपने खेल-कूद में और जवानी स्त्री के साथ ऐश-आराम में बिता दी !! क्या आपको ऐसा ही करना चाहिए था ?

यह मनुष्य चोला इसलिए मिला है कि मनुष्य इस जगत में दुसरे प्राणियों की शुभचिन्तना करे और अपने कर्म-बन्धन काट कर परमपद की प्राप्ति करे; पर लोग तो इसकी चमक-दमक पर ऐसे भूल जाते हैं, कि उन्हें अपने आगे के सफर का ख्याल ही नहीं रहता । ऐसा समझने लगते हैं मानो वह सदा यहीं रहेंगे । यहाँ के लिए, जहाँ उन्हें बहुत ही थोड़े दिन रहना होता है, हज़ारों तरह के सामान करते हैं; पर आगे के लम्बे सफर के लिए कुछ नहीं करते ! यहाँ के लिए इतना आडम्बर और वहां के लिए कुछ नहीं । यह चतुराई तो अच्छी नहीं मालूम होती ।

उस्ताद ज़ौक़ ने कहा है -
क्या यह दुनिया, जिसमें कोशिश न हो दीं के वास्ते।
वास्ते वां के बी कुछ - या सब यहीं के वास्ते ।।

इस दुनिया में आकर कुछ परलोक के लिए भी करना चाहिए । यह नहीं कि उधर की फ़िक्र बिलकुल न की जाय ।

हमें सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ और प्रकृति के प्रत्येक काम से परोपकार की शिक्षा मिलती है । सूर्य परोपकार के लिए ही भ्रमण करता है । चन्द्रमा परोपकार के लिए ही कष्ट सहकर जगत में शीतल चांदनी छिटकाता है । सितारे अँधेरी रात में मुसाफिरों को राह दिखने के लिए ही रात-भर टिमटिमाते हैं । ध्रुव उत्तर दिशा का ज्ञान कराने और समुद्र के अगाध और अनन्त जल में जहाज़ों को राह दिखने के लिए ही चमकता है । नदियां परोपकार के लिए ही बहती हैं । वृक्ष परोपकार के लिए ही फलते हैं । परोपकार के लिए ही शेष जी ने इस लम्बी-चौड़ी पृथ्वी का बार अपने सहस्त्र फणों पर धारण कर रखा है । । कच्छप ने परोपकार के लिए ही शेष समेत पृथ्वी का भार अपनी पीठ पर वहन कर रखा है । भगवान् ने परोपकार के लिए ही बारम्बार अवतार लेकर जन्म-मरण का कष्ट उठाया है । शिवि और दधीचि ने परोपकार के लिए ही अपनी जाने दे दी । किसी कवी ने कहा है -

बिरछा फलै न आपको, नदी न अचवे नीर ।
परोपकार के कारणे, सन्तन धरो शरीर ।।
शेष शीश धारे धरा, कछु न अपनो काज ।
परहित पर सारथी रथी, वाइक बने न लाज ।।

किसी जंगल में चूहों की एक कतार चली जाती थी । उनमें एक चूहा अन्धा था । उसके मुख में एक तिनका पकड़ाकर दुसरे चूहे ने उसे अपने मुंह में पकड़ रखा था । उसके सहारे अन्धा चूहा भी चला जाता था । यह जानवरों का हाल है । पशुओं में भी परोपकार-बुद्धि होती है । जो मनुष्य होकर परोपकार शून्य है, वह पशुओं से भी गया-बीता है । खासकर मनुष्य-देह तो परोपकार के लिए ही दी गयी है; अतः मनुष्य को परोपकार करना ही चाहिए ।

कहा है -
परोपकारः कर्तव्यः प्राणैरपि धनैरपि ।
परोपकारजं पुण्यं न स्यात् क्रतुशतैरपि ।।
परोपकारशून्यस्य धिङ्मनुष्यस्य जीवितम् ।
यावन्तः पशवस्तेषां चर्माप्युपकरिष्यति ।।
आत्मार्थं जीवलोकेऽस्मिन को न जीवति मानवः ।
परं परोपकारार्थं यो जीवति स जीवति ।।

धन और प्राणो से परोपकार करना चाहिए ; क्योंकि परोपकार के पुण्य के बराबर है सौ यज्ञों का भी पुण्य नहीं है । परोपकार शून्य मनुष्यों के जीने को भी धिक्कार है ! पशुओं का चमड़ा भी पराये काम आता है ।
अपने लिए इस लोक में कौन नहीं जीता ? पराये के लिए जो जीता है वही जीता है और तो मृतकवत हैं ।

सौ यज्ञों का पुण्य भी परोपकार-जन्य पुण्य की बराबरी नहीं कर सकता 
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एक वैश्य ने अपने करोड़ों रुपये यज्ञों में खर्च कर दिए । शेष में वह निर्धन हो गया । उसकी स्त्री ने उसे सलाह दी कि राजा को अपने दो चार यज्ञों का फल देकर धन ले आओ, तो शेष जीवन सुख से कट जाय । वैश्य राज़ी हो गया । सेठानी ने उसे राह में खाने के लिए नौ रोटियां रख दिन । वह वन में पहुँच कर एक वृक्ष के नीचे ठहर गया । वह पानी ज़ोर से बरसने के कारण राह न थी । उसी पेड़ के खोंतरे में एक कुतिया ब्यायी थी । वह वर्षा के मारे नौ दिन से खुराक की तलाश में कहीं न जा सकी थी; इसलिए भूखी मरणासन्न हो रही थी । वैश्य ने उसे अपनी सब रोटियां खिला दीं और आप भूखा रह गया । वह भूखा-प्यासा राजा के पास पहुंचा और उसे अपनी राम कहानी कह सुनाई । राजा ने राज-ज्योतिषी से पूछा - "इस सेठ के कौन से यज्ञ का फल उत्तम है ?" ज्योतिषी ने कहा -"महाराज ! इसने राह में कुतिया को अपनी रोटियां खिलाकर जो उपकार किया है, उसी का फल उत्तम है; आप उसे ही खरीद लीजिये ।" वैश्य उस परोपकार के फल को देने पर राज़ी न हुआ; तब राजा ने उसे कई लक्ष मुद्रा देकर विदा किया । सारांश यह, कि संसार में परोपकार और दया के समान और पुण्य नहीं है । अतः मनुष्य को निस्वार्थ भाव से परोपकार करना चाहिए । जो मनुष्य होकर परोपकार नहीं करता उसका जन्म वृथा है ।

किसी ने कहा है -
जातः कूर्मः स एकः पृथुभुवनभरायार्पितं येन पृष्ठं ।
श्लाघ्यं जन्म ध्रुवस्य भ्रमति मियमितं यत्र तेजस्विचक्रम् ।।
संजातव्यर्थपक्षाः परहितकरणे नोपरिष्टान्न चाधो ।
ब्रह्माण्डोदुम्बरान्तर्मशकवदपरे प्राणिनोजातनष्टाः ।।

संसार में उस प्रसिद्ध कछुए का जन्म ही सफल है, जिसने इस विशाल पृथ्वी का भार उठाने के लिए अपनी पीठ दे रक्खी है; और इसी तरह ध्रुव का जन्म प्रशंसनीय है, जिसको बीच में लेकर सप्तर्षियों का ज्योतिमण्डल घूमता है । परोपकार करने में अशक्य मनुष्यों का जन्म इस ब्रह्माण्ड में गूलर के बीच में रहने वाले उन मच्छरों के समान वृथा है जो पंख सहित होने पर भी कुछ नहीं कर सकते ।

अतः भाइयों ! स्त्री-पुत्र प्रभृति के लिए अमूल्य जीवन वृथा नाश मत करो । ये आपके कोई नहीं । ये यहीं के साथी और बड़े स्वार्थी हैं; परलोक में आपके साथ न जाएंगे; वह केवल धर्म ही आपके साथ जाएगा । मौत आपके ले जाने के लिए आना ही चाहती है । इसलिए चेत करो, आँखें खोलो, अब न सोओ । सांस सांस पर जगदीश का सुमिरन करो और निष्काम भाव से प्राणियों पर दया और परोपकार करो; क्योंकि मरने पर ये ही आपके काम आएंगे ।
कविता या गाने की चीज़ों का प्रभाव मनुष्य पर बड़ी जल्दी पड़ता है; इसी से हम चार-पांच चित्ताकर्षक और मोहभञ्जन करनेवाले गाने नीचे देते हैं -

भजन (राजबिहाग)
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हे मन गुमानी ! चेत कर; हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।
बीती यह जाती है उमर; हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।।
नारी नरक की खान है; जिस पर जगत गलतान है।
इसका मज़ा इस आन है; हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।।
सुत बन्धु माता और पिता; कुनबा कबीला आशनां।
सब सुख के साथी हैं तेरे; हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।।
दुनिया कहौ क्या माल है; माया का फैला जाल है।
इसपर तू क्या खुशहाल है; हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।।
कहना मेरा मान ले तू, हरगिज़ न कर अभिमान तू।
एक प्रभु को साँचा जान तू, हरि को सुमिर, हरि को सुमिर।।

भजन
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क्या देख दीवाना हुआ रे ।। टेक ।।
माया बनी सार की सूली, नारी नरक का कुआँ रे ।। १ ।।
हाड़ चाम का बना पींजरा, तामें मनुआं सूआ रे ।। २ ।।
भाई बन्धु और कुटुम्ब घनेरा, तिन में पच पच मूआ रे ।। ३ ।।
कहत कबीर सुनो भई साधो, हार चला जग जूआ रे ।। ४ ।।

भजन (राग काफी)
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नर समझत नाहिं अनारी ।। टेक ।।
गर्भवास में उलटो लटक्यो, पायो दुःख अति भारी ।
जो प्रभु ! अबके मैं बाहर निकसो, तेरो भजन करूँ हरबारी ।
पलक नहिं देउँ बिसारी ।। १ ।।

जन्म होत माया लिपटायो, भूल गया सुध सारी ।

भक्ति भाव में चित्त न राख्यो, ऐसी कुमत बिचारी ।
जन्म की कर दई ख्वारी ।। २ ।।

आया था कुछ लाभ करन को, गाँठ की पूँजी हारी ।

सौदा कर ले राम नाम का, आओ शरण गिरधारी ।
भरोसा जिनका है भारी ।। ३ ।।

श्री सतगुरु तोहिं नित समझावें, वे हैं सबके हितकारी ।

आप तरें औरन को तारें, कहै "हरिदास" पुकारी ।
उमर योंही मुफ्त गुज़ारी ।। ४ ।।

ग़ज़ल
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उठ जागरे मुसाफिर ! किस नींद सो रहा है ?।
जीवन अमूल्य प्यारे, क्यों मुफ्त खो रहा है ? ।।१।!
रहना न यहाँ पे होगा, दुनिया सराय फानी ।
फंसकर बदी में प्यारे, क्यों मस्त हो रहा है ? ।।२।।
ले ले धरम का तोषा, मत भूल ए दिवाने !।
नेकी की खेती कर ले, क्यों पाप बो रहा है ?।।३।।
माता पिता व भाई, होंगे न कोई साथी।
क्यों मोहरूपी बोझा, नाहक का ढो रहा है ?।।४।।
किश्ती तेरी पुरानी, हिकमत से पार कर ले ।
ए दिल ! अथाह जल में, तू क्यों डुबो रहा है ?।।५।।

भजन(लावनी)
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पड़ लोभ मोह के जाल में, नर आयु क्यों खोता है ।। टेक ।।
यह जग जान रैन का सुपना, जिसको कहता अपना अपना।
भूल गया ईश्वर का जपना, फंसा हुआ धन माल में ।
क्या सुख की नींद सोता है ?।। १ ।।

चलै अकड़ बन छैल-छबीला, अन्त समय सब हो जाय ढीला ।

काम न आये कुटुम्ब-कबीला, भूला जिनके ख्याल में ।
कोई साथी नहिं होता है ।। २ ।।

अब क्यों सिर धुनि-धुनि पछतावे, रुदन करै और रौल मचावे ।

कुछ नहिं तेरी पार बसावे, चूका पहिली चाल में ।
क्या खड़ा-खड़ा रोटा है ?।। ३ ।।

समझ-सोचकर कदम उठाना, मुश्किल मनुष जन्म है पाना ।

कहै "मुरारी" जो हो दाना, भेज हर को हर हाल में ।
क्यों पाप-बीज बोता है ?।। ४ ।।

महात्मा सुन्दरदास जी की भी सुनिए -
बैरी घर मांहि तेरे, जानत सनेही मेरे।
दारा सुत वित्त तेरे, खोंसी-खोंसी खाएंगे।
औरहु कुटुम्बी लोग, लूटें चहुँ ओरही ते।
मीठी मीठी बात कहि, तोसूं लपटायेंगे।
संकट परेगो जब, कोई नहिं तेरो तब।
अन्तहि कठिन, बाकि बेर उठि जायेगे।
"सुन्दर" कहत, तातें झूठो ही प्रपञ्च सब।
स्वप्न की नाइ, यह देखत बिलायेंगे।।१।।

घरी घरी घटत, छीजत जात छिन छिन।

भीजतही गरिजात, माटी को सो ढेल है।
मुकुति के द्वार आई, सावधान क्यूँ न होइ।
बेर-बेर चढ़त न, तिया को सो तेल है।
करि ले सुकृत, हरि भेज ले अखण्ड नर।
याहि में अन्तर पड़े, यामे ब्रह्म मेल है।
मनुष्य जनम यह, जीत भावै हार अब।
"सुन्दर" कहत यामे जूआ को सो खेल है।।२।।

जिनको तू अपने स्नेही मित्र और स्त्री-पुत्र, माता-पिता, भाई-बहन आदि समझता है, वे तेरे घर में तेरे ही दुश्मन हैं । वास्तव में वे सब तेरे शत्रु हैं  पर मोह के कारण वे तुझे वे मित्र से मालूम होते हैं । स्त्री पुत्र आदि तुझसे तेरा धन छीन छीन कर खाएंगे । और कुटुम्बी लोग भी तुझे चारों और से लूटेंगे और मीठी मीठी बातें बनाकर तेरे लिपटेंगे । तेरे लिए वे धन-दौलत, जीव-जान और सर्वस्व तक स्वाहा कर देने को डींगें मारेंगे ।, लेकिन जब तुझ पर संकट पड़ेगा, काल तुझ पर आक्रमण करेगा, तब तेरा कोई न होगा । अन्तकाल ही कठिन है और उस समय सब तुझे छोड़ छोड़ कर दूर हो जाएंगे । "सुन्दरदास" कहते हैं, इसलिए यह सब प्रपञ्च झूठा है; कोई किसी का साथी नहीं है । मरने पर सब स्वप्न की माया की तरह बिलाय जाएंगे ।
घड़ी घड़ी उम्र घटती है और क्षण क्षण काया छीजती है । जिस तरह मिटटी का ढेला भीजते ही गल जाता है; उसी तरह यह काया गल जाती है । अरे मूढ़ ! मुक्ति के द्वार पर आकर, होशियार क्यूँ नहीं होता ? मनुष्य चोला पाकर, आवागमन से पीछा क्यूँ नहीं छुड़ाता ? यह चोला तुझे उसी तरह बारम्बार नहीं मिलेगा; जिस तरह त्रिया का तेल बार बार नहीं चढ़ता । तू पुण्य कर ले और अखण्ड अविनाशी ब्रह्म को भज ले। इसमें अन्तर पड़ने से अन्तर पड़ता है और इसमें लग जाने से जीव ब्रह्म में मिल जाता है । इस मनुष्य जन्म का मिलना जुए का सा खेल है । अब चाहे जीत या हार; अब बाज़ी मार ले चाहे खो दे ।

दोहा
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रोग विरोग विपत्ति बहु, देह आयु आधीन।
निडर विधाता जग रच्यो, महा अथिरता लीन।।


कृच्छ्रेणामेध्यमध्ये नियमिततनुभिः स्थीयते गर्भमध्ये 
कान्ताविश्लेषदुःखव्यतिकरविषमे यौवने विप्रयोगः ।
वामाक्षीणामवज्ञाविहसितवसतिर्वृद्धभावोऽप्यसाधुः
संसारे रे मनुष्या वदत यदि सुखं स्वल्पमप्यस्ति किंचित् ।। १०६ ।।

अर्थ:

प्रथमावस्था में प्राणी गर्भावस्था में पड़ा रहता है । वहां वह मल-मूत्र राध लोहू प्रभृति गन्दी चीज़ों के बीच में पड़ा हुआ, बड़े बड़े कष्ट भोगता और हिल भी नहीं सकता । दूसरी अवस्था - जवानी में, वह अपनी प्यारी स्त्री की जुदाई के दुःख सहन करता है । तीसरी अवस्था - बुढ़ापे में, वह स्त्रियों से अनादृत होकर दुःख में पड़ा रहता है । हे मनुष्यों ! इस संसार में ज़रा सा भी सुख हो तो बताओ ।


गर्भावस्था
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माता के खून और पिता के वीर्य से, गर्भाशय में, प्राणी की देह बनती है । चार मास बाद, उस देह में जीव आ जाता है । उस समय वह घोर अन्धकारपूर्ण कैदखाने में हाँथ-पाँव बंधा हुआ, उल्टा लटका रहता है । मुंह पर झिल्ली होने के कारण, न बोल सकता है और न रो सकता है,
जिस स्थान में वह नौ मास तक रहता है, वह स्थान - गर्भाशय, मल, मूत्र राध, खून, पीव और कफ प्रभृति महागंदे पदार्थों से भरा रहता है । वह जगह गन्दगी होने के सिवा इतनी तंग भी है कि वहां वह अच्छी तरह फैल-पसर कर रह भी नहीं सकता । उसी मैली और तंग जगह में जो साक्षात् नर्क है, वह बड़े ही कष्ट से नौ महीने काटता है । नर्क-कुण्ड के कष्टों से दुखी होकर, वह परमात्मा को याद करता है और उससे वादा करता है कि इस बार मैं जन्म लूँगा तो और कुछ न करके, केवल आपकी उपासना ही करूँगा । खैर, भगवान् दया करके उसे बाहर निकलते हैं; पर बाहर आते ही वह, माया-मोह में फंसकर, ईश्वर को भूल जाता है ।


बालावस्था
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बालावस्था भी परमदुख की मूल है । इस अवस्था में प्राणी पराधीन और अतीव दीन रहता है । अशक्तता, मूर्खता, चपलता, दीनता और दुःख-सन्ताप - ये विकार इस अवस्था में आ जाते हैं । बालक एक पदार्थ की ओर दौड़ता, दुसरे को पकड़ता और तीसरे की इच्छा करता है । वह बड़ी बड़ी इच्छाएं करता है, पर उसकी इच्छाएं पूरी नहीं होती । वह सदा तृष्णा के फेर में पड़ा रहता और क्षण-क्षण में भयभीत होता है । उसे कभी शान्ति प्राप्त नहीं होती । जिस तरह कदलीवन का हाथी, सांकलों में बंधा हुआ, दीन हो जाता है; उसी तरह यह चैतन्य पुरुष, बालावस्था रुपी सांकलों में, महादीन हो जाता है । जिस तरह क्षण क्षण में द्वार की ओर दौड़ने वाले कुत्ते का अपमान होता है; उसी तरह बालक का अनादर होता है । उसे सदा माता-पिता और बांधवों का भय रहता है । यहाँ तक की अपने से बड़े बालकों और पशु-पक्षियों से भी उसे भीत रहना पड़ता है । स्त्री के नयन और नदी के प्रवाह से भी बालक और मन की चञ्चलता अधिक है । सच तो यह है कि बालक और मन कि चञ्चलता समान है; और सब की चञ्चलता, इन दोनों की चञ्चलता से नीचे है । जिस तरह वेश्या का मन एक पुरुष में नहीं ठहरता; उसी तरह बालक का मन भी एक पदार्थ में नहीं ठहरता ।

इस काम या पदार्थ से मेरा अनिष्ट होगा या कल्याण, इतना भी ज्ञान बालक को नहीं होता । जिस तरह ज्येष्ठ आषाढ़ में पृथ्वी तपती रहती है; उसी तरह सुख-दुःख और इच्छा प्रभृति दोषों से बालक जलता रहता है ।

बालक में अशक्तता और पराधीनता इतनी होती है कि, वह आप न उठ सकता है, न बैठ सकता है, न चल सकता है और न खा सकता है । कोई उठा लेता है तो गोद में आ जाता है; नहीं तो अपने मल-मूत्र में ही पड़ा रोया करता है । कोई दूध पीला देता है तो पी लेता है; नहीं तो रोता रहता है । यह शिशु अवस्था है । इस अवस्था को पार कर वह बालकावस्था में आता है;  तब पढ़ने-लिखने का भार उसके सिर पर आता है । उस समय बालक गुरु से इस तरह डरता है; जिस तरह कोई यमदूत से डरता है । ज़रा भी दंगा करने या न पढ़ने से माता-पिता और गुरु प्रभृति की ताड़नाएँ सहनी पड़ती हैं । अगर उसे कुछ रोग हो जाता है, तो वह साफ़ साफ़ कह नहीं सकता और उसे सह भी नहीं सकता; भीतर ही भीतर सहता और दुःख पाता है । यह अवस्था महामूर्खतापूर्ण है । बालक कभी कहता है कि मुझे बर्फ का टुकड़ा भून दो; कभी कहता है कि आकाश का चाँद उतार दो । भोला इतना होता है कि, थाली में जल भर कर चाँद दिखाने और दूध की जगह आटा घोल कर दे देने से भी राज़ी हो जाता है । इस अवस्था में दुःख ही दुःख हैं, सुख और स्वाधीनता का नाम ही नहीं । परमात्मा यह अवस्था किसी को न दे ।


युवावस्था
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बालकावस्था के बाद युवावस्था आती है । यद्यपि ये अवस्था नीचे से ऊपर चढ़ती है; पर यह और भी बुरी है । १५।१६ साल की अवस्था में शादी कर दी जाती है । इसे 'शादी खाने आबादी' कहते हैं, पर यह है बर्बादी । बेचारे के पैरों में ऐसी बेड़ियाँ डाल दी जाती हैं, कि उसे जन्म भर आज़ादी नहीं मिलती । लोहे और काठ की बेड़ियों से चाहे मनुष्य को छुटकारा मिल जाये; पर स्त्री रुपी बेड़ियों से जीवन-भर छुटकारा नहीं मिलता । अब तक पढ़ने लिखने की चिन्ता और गुरु प्रभृति के भय से ही दुखी रहना पड़ता था; पर अब और फ़िक्र - चिंताएं सिर पर सवार होती हैं । वही माता-पिता, जिन्होंने शादी शादी कहकर पैरों में स्त्रीरुपी बेड़ियाँ पहना दी थीं, उठती जवानी के पट्ठे को को भून-भूनकर खाते हैं । कहते हैं - "हमने तुझे पढ़ा लिखा दिया, तेरा शादी-ब्याह कर दिया; हमारा कर्तव्य पूरा हुआ; अब तू कमा । अगर नहीं कमाता है तो अपनी स्त्री को लेकर अलग हो जा ।" इस समय बेचारे की जान पर बन आती है । नौकरी या रोज़गार मिलना कोई खेल नहीं; इसलिए बेचारा भीतर ही भीतर जल-जलकर ख़ाक होने लगता है । अगर धनी घर में जन्म होता है, तो ये कष्ट भोगने नहीं पड़ते । उस अवस्था में और ही नाश के सामान आ इकट्ठे होते हैं । धन, यौवन और प्रभुता इनमें से प्रत्येक अनर्थ की जड़ है । जहाँ ये सब इकट्ठे हो जाएँ, वहां का तो कहना ही क्या ? जिस तरह धन पाने की आशा से, निर्धन लोग धनी को घेरे रहते हैं; उसी तरह इस अवस्था में, सब दोष आकर युवक को घेर लेते हैं । युवावस्था रुपी रात्रि को देखकर काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार, "आत्मज्ञान रुपी धन" को लूटते हैं; इसलिए चित्त शांत नहीं रहता और विषयों की ओर दौड़ता है । विषयों का संयोग होने से तृष्णा बढ़ती है । इस तृष्णा राक्षसी के मारे प्राणी जन्म-जन्मांतर में दुःख भोगता है ।

इस अवस्था में विषय भोगों की ओर मन ज़ियादा रहता है । स्त्री अत्यधिक प्यारी लगती है । नित नई स्त्रियों पर मन चला करता है । अगर कोई मित्र आता है, तो नवयुवक उससे कहता है - "अरे यार ! वह नाज़नी कैसी खूबसूरत है ! उसने तो मेरा दिल ही ले लिया । उसके दीदार बिना मुझे क्षण भर चैन नहीं । वह कैसे मिले ?" बस; ऐसी ही बातें अच्छी लगती हैं । अगर इच्छित स्त्री नहीं मिलती, तो मन में क्रोध होता है; क्रोध से मोह होता है और मोह से बुद्धि नष्ट हो जाती है । बुद्धि के नष्ट होने से, मनुष्य बिना पतवार की नाव की तरह से नष्ट हो जाता है । समुद्र में अगाध जल भरा है । उसमें अनन्त तरंगे उठती हैं । इतना विशाल महासागर, ईश्वर आज्ञा के विरुद्ध, मर्यादा को नहीं मेटता; पर युवावस्था शास्त्र और ईश्वर दोनों की आज्ञाओं को मेट देती है । जिस तरह अँधेरे में पदार्थों का ज्ञान नहीं रहता; उसी तरह युवावस्था में शुभ-अशुभ या भले-बुरे का ज्ञान नहीं रहता । जवानी दीवानी में लोक-लाज और हया-शर्म सब हवा हो जाती हैं ।

लिख चुके हैं, युवा अवस्था में स्त्री सबसे अधिक प्यारी लगती है । अगर किसी तरह स्त्री से वियोग हो जाता है, तो पुरुष उसकी वियोगग्नि में इस तरह जलता है, जिस तरह दावाग्नि से वन के वृक्ष जलते हैं । युवावस्था में बड़े से बड़े बुद्धिमानों की बुद्धि उसी तरह मलिन हो जाती है; जिस तरह वर्षाकाल में निर्मल नदी मलिन हो जाती है । इस अवस्था में "वैराग्य और संतोष" प्रभृति गुणों का अभाव हो जाता है ।

मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र जी ने मुनि वसिष्ठ से कहा - "हे मुनिवर ! जिस महासागर में अनन्त और अगाध जलराशि है तथा लाखों करोड़ों बड़े बड़े मगरमच्छ और घड़ियाल हैं, उसका पार करना महाकठिन है; पर मैं उसका पार करना उतना मुश्किल नहीं समझता, जितना की मैं इस युवावस्था का पार करना कठिन समझता हूँ । युवावस्था विषयों की ओर ले जाने वाली, महा अनर्थकारी और लोक-परलोक नशानेवाली है । जिस तरह आकाश में वन का होना आश्चचर्य की बात है; उसी तरह युवावस्था में सब सुखों के मूल वैराग्य, विचार, सन्तोष और शान्ति का होना आश्चर्य है ।"

महाराजा रामचन्द्र एक और जगह कहते हैं - "युवावस्था ! मुझ पर दया करके तू न आना ! मुझे तेरी जरुरत नहीं, क्योंकि मेरी समझ में तेरा आना दुखों का कारण है । जिस तरह पुत्र के मरने का सङ्कट पिता के सुख के लिए नहीं होता; उसी तरह तेरा आना भी सुख के लिए नहीं होता ।"


वृद्धावस्था 
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यह अवस्था, पहली दो अवस्थाओं से भी बुरी है । बाल्यावस्था महाजड़ और अशक्त है; युवावस्था अनर्थ और पापों का मूल है तथा वृद्धावस्था में शरीर जर्जर और बुद्धि क्षीण हो जाती है, खूब निकल आता है, दांत गिर पड़ते हैं, बाल सफ़ेद हो जाते हैं, बल काम हो जाता है, आँखों से काम सूझता है या सूझता ही नहीं, कानो से सुनाई नहीं देता, पैरों से चला नहीं जाता, लकड़ी तक-तक कर चलना होता है, कफ और खांसी अपना दौरा-दौरा जमा लेते हैं, हर समय सांस फूलने लगता है । बहुत क्या - सारे रोग, शत्रुओं की तरह मौका पाकर, इस अवस्था में चढ़ाई कर देते हैं । स्त्री-पुत्रादि सभी नाते-रिश्तेदार बूढ़े को उसी तरह त्याग देते हैं; जिस तरह पके फल को वृक्ष और निकम्मे बूढ़े बैल को बैलवाले त्याग देता है ।

ज़रा अवस्था या बुढ़ापा मृत्यु का पेशखीमा है । जिस तरह सांझ होने से रात निकट आती है; उसी तरह बुढ़ापे के आने से मौत निकट आ जाती है । संध्या के आने पर जो दिन की इच्छा करते हैं और बुढ़ापे के आने पर जो जीने की अभिलाषा रखते हैं, वे दोनों ही मूर्ख हैं । जिस तरह बिल्ली, चूहे को खा जाने की घात में रहती है और चाहती है कि चूहा आवे तो खाऊं; उसी तरह मौत देखती रहती है कि बुढ़ापा आवे तो मैं इसे ग्रहण करूँ । ऐसा जान पड़ता है मानो वृद्धावस्था काल की सखी है । वह आकर रोगरूपी आग से शरीर के मांस को जलाती या पकाती और उसका स्वामी - काल आकर प्राणी को भक्षण कर जाता है । अशक्तता, अङ्गपीड़ा और खांसी - ये तीनो काल की पटरानियां हैं । जिस तरह वन में बाघिन आकर पहले शब्द करती या गरजती और मृग का नाश करती है; उसी तरह शरीर रुपी वन में खांसी रुपी बाघिन आकर बल-रुपी मृग का नाश करती है । जिस तरह चन्द्रमा के उदय होने से कमलिनी खिल उठती है; उसी तरह बुढ़ापे के आने से मृत्यु प्रसन्न होती है । जरा बड़ी जबरदस्त है । इसने बड़े बड़े शत्रुहन्ताओं के मान-मर्दन कर दिए हैं । यह शरीर को आग की तरह जलाती है । जिस तरह वृक्ष में आग लगती है, तब धुंआ निकलता है; उसी तरह शरीर वृक्ष में जरा-रुपी अग्नि के लगने से तृष्णा-रुपी धुंआ निकलता है । जरा-रुपी जञ्जीर में बंधने से मनुष्य दीन हो जाता है, अंग शिथिल हो जाते हैं, बल क्षीण हो जाता है, इन्द्रियां निर्बल हो जाती हैं और शरीर जर्जर हो जाता है, पर तृष्णा उलटी बलवती हो जाती है । इस अवस्था में घोर दुःख हैं, सुख का तो लेश भी नहीं ।

जिस समय पुरुष बूढा हो जाता है, उसमें कमाने की शक्ति नहीं रहती; तब सभी उसे पागल समझकर उसकी हंसी करते और उसके पुत्र-पौत्रादि बुरी नज़र से देखते हैं । यहाँ तक की ख़ास उसकी अर्द्धांगी उससे घृणा करने लगती है । पुत्र उसे कोई चीज़ नहीं समझते और लोग भी उसे वृथा की बला समझते हैं । पुत्र और पुत्र-वधुएं उसे एक टूटी सी खाट पर, पौली में डाल देते हैं और उसके थूकने को एक ठीकरा रख देते हैं । आप समय पर अच्छे से अच्छा खाना खाते हैं; पर समय-बे-समय, जब याद आ जाती है, बचा खुचा बासी कूसी खाना, एक पुरानी और फूटी सी थाली या ठीकरे में रख कर दे आते हैं । जब उसका थूक-खखार या मल-मूत्र उठाते हैं - "अब मर क्यों नहीं जाते? जवान-जवान मरे जाते हैं, पर तुमको मौत नहीं आती !" प्रभृति । यह दुर्गति बुढ़ापे में होती है ।

अगर घर गृहस्थी में सौभाग्य से कोई दुःख नहीं होता, घरवाले स्त्री-पुत्र आदि अच्छे मिल जाते हैं, घर में परमात्मा की दया से सुखैश्वर्य के सभी सामान मौजूद होते हैं; तो दूसरों का भला न चेतने वाले, दूसरों को अच्छी अवस्था में देखकर कुढ़ने वाले ही वाले तंग करते हैं । वह अपनी ओर से उसका सर्वनाश करने में कोई बात न उठा रखते हैं । यद्यपि ऐसी बातों से उन्हें कोई लाभ नहीं होता; तो भी वो बिल्ली की सी करतूतों से बाज़ नहीं आते; हरदम नाक में दम किये रहते हैं । मतलब यह कि, संसार में दुखों की ही अधिकता है । यहाँ सुख है ही नहीं । अगर है तो उसके परिणाम में कोई लाभ नहीं; वरन हानि है ।

उस्ताद ज़ौक़ कहते हैं -
राहतो रंज ज़माने में हैं दोनों, लेकिन।
याँ अगर एक को राहत है, तो है चार को रंज ।।

निस्संदेह संसार में सुख और दुःख दोनों ही हैं - पर बहुलता दुःख की ही है, क्योंकि चार दुखियों में मुश्किल से एक सुखी मिलता है ।

उस्ताद ज़ौक़ ही एक जगह और कहते हैं -
हलावते शरमो पासदारी, जहाँ में है ज़ौक़ रंजोख्वारी ।
मज़े से गुज़री, अगर गुज़ारी किसी ने बे नामोनंग होकर ।।

संसार से दूर रहना अच्छा; यहाँ के संबंधों की जड़ में दुःख और क्लेश भरा हुआ है । जिसने अपनी ज़िन्दगी चुपचाप गुज़ार दी; सच तो ये है, उसने अच्छी गुज़ार दी ।

सारांश यह कि सभी महात्माओं ने संसार के दुखों का अनुभव करके औरों को चेतावनी दी है, कि इस मिथ्या जगत की माया में न भूलो; इससे दिल मत लगाओ, किन्तु इसके बनानेवाले के साथ दिल लगाओ । इसके साथ दिल लगाने से तुम्हारा बुरा और उसके साथ दिल लगाने से भला है ।

गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है -
सलिल युक्त शोणित समुझ, पल अरु अस्थि समेत ।
बाल कुमार युवा जरा, है सु समुझ करु चेत ।।
ऐसेही गति अवसान की, तुलसी जानत हेत ।
ताते यह गति जानि जिय, अविरल हरि चित चेत ।।

स्त्री की रज और पुरुष के वीर्य से तुम्हारे शरीर के खून, मांस और हड्डियां बनी । फिर तुम गर्भाशय से बाहर आये । फिर बालक अवस्था में रहे; उसके बाद युवावस्था आयी; फिर बुढ़ापा आया । फिर तुम मरे और कर्मफल भोगने को फिर जन्म लिया । इस तरह लोक-वासना के कारण तुम्हें बारम्बार जन्मना और मरना पड़ता है । इसमें कैसे कैसे कष्ट उठाने पड़ते हैं, इन बातों को याद करते रहो और कष्टों से बचने के लिए सावधान होकर परमात्मा से प्रीति करो; तभी तुम्हारा भला होगा । तुम्हारे सारे नातेदार मतलबी हैं; केवल एक वह सच्चा सहायक और रक्षक है । यही सब विषय नीचे के भजनो में कैसी खूबी से दिखाए हैं -

भजन (राग धनाश्री)
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हरि बिन और न कोई अपना, हरि बिन और न कोई रे।
मात पिता सुत बन्धु कुटुम सब, स्वारथ के ही होई रे ।।
या काय को भोग बहुत दे, मरदन कर कर सोई रे ।
सो भी छूटत नैक न खसकी, संग न चाली धोई रे ।।
घर की नारि बहुत ही प्यारी, तन में नाहीं दोई रे ।
जीवट कहती संग चलूंगी, डरपन लागी सोई रे ।।
जो कहिये यह द्रव्य आपनो, जिन उज्जल मति खोई रे ।
आवत कष्ट राखत रखवारी, चालत प्राण ले जोई रे ।।
इस जग में कोई हितू न दीखे, मैं समझों तोई रे ।
चरणदास-सुखदेव कहैं, ये सुन लीजो सब कोई रे ।।

भजन (राग सोरठ)
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सुध राखो वा दिन की कछु तुम, सुध राखो वा दिन की रे ।
जादिन तेरी यह देह छूटैगी, ठौर बसौगे बन की रे ।।
जिनके संग बहुत सुख कीने, तेरो मुख ढँक होएंगे न्यारे रे ।
जम के त्रास होएं बहु भाँती, कौन छुटावनहारे रे ।।
देहल लों तेरी नारि चलेगी, बड़ी पौल लो माई रे ।
मरघट लों सब बीर भतीजे, हंस अकेला जाए रे ।।
द्रव्य पड़ें और महल खड़े रहे, पूत रहैं घर माहीं रे ।
जिनके काज पचैं दिन राती, सो संग चालत नाहीं रे ।।
देव पितर तेरे काम न आवें, जिनकी सेवा लावे रे । 
चरणदास-सुखदेव कहत हैं, हरि बिन मुक्ति न पावे रे ।।

परमात्मा की भक्ति करो तो ऐसी करो कि परमात्मा के सिवा अन्य किसी भी देवी-देवता या संसारी पदार्थ को कुछ समझो ही नहीं; यानि उस जगदीश के सिवा सबको झूठे, निकम्मे और नाशमान समझो । केवल उसके प्रेम में गर्क हो जाओ और उससे प्रेम के बदले में कुछ मांगो नहीं; तब देखो, क्या आनन्द आता है !

कबीर साहब कहते हैं -
सुमिरन से मन लाइए, जैसे दीप पतंग।
प्रान तजै छीन एक में, जरत न मोरे अंग।।

इसी बात को उस्ताद ज़ौक़ ने किस तरह कहा है -
कहा पतंग ने यह, दारे शमा पर चढ़ कर ।
अजब मज़ा है, जो मर ले किसी के सर चढ़ कर ।।

ऐसी प्रीति को ही प्रीति कहते हैं । दीपक और पतंग, मछली और जल, नाद और कुरङ्ग, चातक और मेघ - इनकी प्रीति आदर्श प्रीति है । ऐसी प्रीति से ही सच्ची सिद्धि मिलती है - ऐसी प्रीति वालों को ही परमात्मा के दर्शन होते हैं ।

दोहा

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सह्यो गर्भदुख जन्मदुःख, जौवन त्रिया वियोग।
वृद्ध भये सबहिन तज्यो, जगत किधौं यह रोग।।




आयुर्वर्षशतं नृणां परिमितं रात्रौ तदर्धं गतं
तस्यार्धस्य परस्य चार्धमपरं बालत्ववृद्धत्वयोः ।
शेषं व्याधिवियोगदुःखसहितं सेवादिभिर्नीयते
जीवे वारितरङ्गचञ्चलतरे सौख्यं कुतः प्राणिनाम् ।। १०७ ।।

अर्थ:
मनुष्य की उम्र औसत सौ बरस की मानी गयी है । उसमें से आधी तो रात में सोने में गुज़र जाती है; बाकी में एक भाग बचपन में और एक भाग बुढ़ापे में चला जाता है । शेष में जो एक भाग बचता है - वह रोग, वियोग, पराई चाकरी, शोक और हानि प्रभृति नाना प्रकार के क्लेशों में बीत जाता है । जल तरंगवत चञ्चल जीवन में प्राणियों के लिए सुख कहाँ है ?

खुलासा: शास्त्रों में मनुष्य की आयु सौ बरस की मानी गयी है । उसमें से पचास बरस; यानि आधी आयु तो रात के समय सोने में बीत जाती है । अब रहे पचास बरस; उनके तीन भाग कीजिये । पहले १७ साल बचपन की अज्ञानावस्था और पराधीनता में बीत जाते हैं । दुसरे १७ साल वृद्धावस्था में चले जाते हैं और शेष १६ साल नाना प्रकार के रोग, शोक, वियोग, हानि-लाभ की चिन्ता और दूसरों से लड़ने-झगड़ने प्रभृतुय में बीत जाते हैं ।

दुःखपूर्ण जीवन में कहीं सुख नहीं
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यद्यपि इस जीवन में ज़रा भी सुख नहीं है, क्षण-भर भी शान्ति नहीं है; तो भी मनुष्य का ऐसा मोह है कि वह मरना नहीं चाहता; मौत का नाम सुनते ही काँप उठता है । अगर इस जीवन में सुख होता, तो न जाने क्या होता ? घोर कष्ट और दुखों में भी यदि मनुष्य मरता है तो कहता है -" हम कुछ न जिए, अगर और कुछ दिन जीते तो ................."

किसी कवी ने कहा है -
हो उम्र खिज्र भी, तो कहेंगे बवक्ते मर्ग।
हम क्या रहे यहाँ, अभी आये अभी चले।।

चाहे हज़ारों बरस की उम्र हो जाए, मरते समय यही कहेंगे, इस संसार में कुछ भी न रहे, अभी आये अभी जाते हैं । जीने की अभिलाषा बनी ही रहती है ।

घृणित जीवन से भी क्यों घृणा नहीं होती?
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मनुष्य जीवन में दुःख ही दुःख हैं; फिर भी मनुष्य इस घृणित जीवन से सन्तुष्ट क्यों रहता है ? इससे उसे घृणा क्यों नहीं होती ? जिस तरह मैले से भंगी को घृणा नहीं होती; उसी तरह जिनके स्वाभाव में मनुष्य जीवन के दुःख समा गए हैं, उन्हें इस मलिन और घृणित जीवन - दु:खपूर्ण जीवन से घृणा नहीं होती । मैले का कीड़ा मैले में ही सुखी रहता है; मैले से निकलने में उसे दुःख होता है । यही हाल उनका भी है, जिनके अन्तः कारन मलिन हैं । वे मलिन गृहस्थाश्रम में ही सही हैं ।

मनुष्य का कर्तव्य क्या है ?
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मनुष्य-जन्म बड़ा दुर्लभ है । यह ८४ लाख योनियां भोगने के बाद मिलता है । अगर मनुष्य इस मानव जीवन में भी चूक जाता है - आवागमन - जन्म-मरण के फन्दे से छूटने का उपाय नहीं करता, तो पछताता और रोता है; पर यह सुअवसर उसे फिर जल्दी नहीं मिलता । इस पर एक दृष्टान्त है -

अवसर चुके पछताना होता है
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किसी राजा के ३६० रानियां थीं । राजा विदेश गया था । जिस दिन वह लौटकर आया उस दिन ३६०वे नम्बर की रानी के यहाँ उसके जाने की बारी थी । रानी ने दासियों से कह दिया कि मैं सोती हूँ; जब राजाजी आवें, मुझे जगा देना । रात को राजा आया; किन्तु दासियों ने भय के मारे रानी को न जगाया । सवेरे राजा चला गया । रानी ने उठकर पुछा - "क्या राजाजी आये थे ?" दसियों ने कहा -"हाँ, आये थे । हम लोग उनके भय के मारे आपको जगा न सकीं ।" रानी बहुत रोई, पछताई । उसे ३६० दिन तक फिर राह देखनी पड़ी । बस, यही हाल उनका है, जो इस मनुष्य जन्म को वृथा गवां देते हैं । इसमें भगवत्भक्ति या उपासना नहीं करते । मर जाने पर, ८४ लाख योनियों को भोगकर, फिर कहीं ऐसा अवसर हाथ आता है । अतः मनुष्य को सब जञ्जाल छोड़कर, एकमात्र भगवत्भक्ति में लग्न चाहिए; एक क्षण भी व्यर्थ न गवाना चाहिए । दम निकले तो जगदीश्वर की याद करता हुआ ही निकले । इसी में कल्याण है । सांस का भरोसा क्या ? आया आया, न आया न आया । 

"गुरु-कौमुदी" में कहा है -
अरे भेज हरेर्नाम, क्षेमधाम क्षणे क्षणे ।
बहिस्सरति निःश्वासे विश्वासः कः प्रवर्त्तते ।।

अरे जीव ! प्रत्येक क्षण हरि का नाम भज । हरि का नाम कल्याण धाम है । जो सांस बाहर निकल जाता है, उसका क्या भरोसा ? आवे, न आवे ।

महाभारत में आयु की क्षणभंगुरता पर एक इतिहास लिखा है -
एक ब्राह्मण राह भूलकर किसी भयानक वन में जा निकला । वहां हाथी और सर्प प्रभृति भयानक हिंसक पशु घूम रहे थे । एक पिशाचिनी हाथ में फांसी लिए सामने आ रही थी । उन्हें देखकर वह डर के मारे रक्षा का स्थान खोजने लगा । उसने एक अन्धा कुआँ देखा, जिसमें घास छा रही थी तथा अनेक प्रकार की बेलें लगी थी । वह एक बेल को पकड़ कर औंधा सिर किये, कुँए में लटक गया । थोड़ी देर बाद उसने नीचे की ओर देखा तो एक बड़ा भारी सर्प मुंह फाड़े नज़र आया; ऊपर की ओर देखा तो एक मस्त हाथी खड़ा दीखा । उस हाथी के छः मुख थे । उसका शरीर आधा सफ़ेद और आधा काला था । जिस बेल को वह ब्राह्मण पकडे हुए था, उसको वह हाथी खा रहा था और सफ़ेद और काले दो चूहे चूहे उस बेल की जड़ को काट रहे थे ।

इसका मतलब यों है - वह ब्राह्मण जीव है । सघन वन यह संसार है । काम क्रोध आदि भयानक जीव, इस जीव को नष्ट करने को घूम रहे हैं । स्त्री रुपी पिशाचिनी, भोग-रुपी पाश लेकर, इस जीव के फंसने के लिए फिरती है । कुँए में जो बेल लटक रही है, वही आयु है । उसी को पकड़ कर यह जीव लटक रहा है । कुँए में जो कालसर्प है, वह इस जीव का काल है, वह अपनी घात देख रहा है; उधर रात-दिन रुपी चूहे इस आयु रुपी बेल की जड़ काट रहे हैं । वह हाथी वर्ष है । उसके छः मुख, छः ऋतुएं हैं । कृष्ण और शुक्ल दो पक्ष उस हाथी के दो वर्ण या रंग हैं । मनुष्य इस तरह मौत के मुंह में है । हर क्षण मौत उसे निगलती जा रही है; पर आश्चर्य है कि इस आफत में भी - मृत्यु-मुख में पड़ा हुआ भी - वह अपने को सुखी समझता है और इस नितान्त भयपूर्ण जीवन से सन्तुष्ट है ।

बीत गयी सो बात गयी, आगे की सुधि लो
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बहुत से लोग कहा करते हैं कि हमने सारी उम्र परपीड़न या पापकर्मों में खोयी; भगवान् को कभी भूल से भी याद न किया; अब हम क्या कर सकते हैं ? यह कहना हमारी भूल है । जो समय बीत गया, वह तो लौट कर आवेगा नहीं; पर जो समय हाथ में है, उसे तो सुकर्म और ईश्वर कि याद में लगाना चाहिए । यदि बाकी उम्र भी व्यर्थ के झंझटों में गवाईं जाएगी, तो अन्तकाल में भारी पछतावा होगा ।

किसी कवी ने ठीक कहा है -
पुत्र कलत्र सुमित्र चरित्र,
धरा धन धाम है बन्धन जीको।
बारहिं बार विषय फल खात,
अघात न जात सुधारस फीको।
आन औसान तजो अभिमान,
कही सुन, नाम भजो सिय-पीको।
पाय परमपद हाथ सों जात,
गई सो गई अब राख रही को।

एक नट की उपदेशप्रद कहानी
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एक राजा बड़ा ही कञ्जूस था । उसने प्रचुर धन-सञ्चय किया था; पर उससे न तो वह अपने पुत्र को सुख भोगने देता था और न खर्च के डर से अपनी कन्या की शादी ही करता था । एक दिन एक नट-नटी उसके दरबार में आये और राजा से तमाशा देखने की प्रार्थना की । राजा ने कहा -"अच्छा अमुक दिन देखा जाएगा ।" नटनी बार बार याद दिलाती रही और राजा बार बार टालता रहा । अन्त में नटनी ने वज़ीर से कहा - "अगर राजा साहब तमाशा न देखें, तो हम चले जाएँ; हमें खर्च खाते बहुत दिन हो गए ।" यह सुन वज़ीर ने राजा से कहा - "महाराज ! आप तमाशा देख लीजिये । हम लोग चन्दा करके कुछ नट को दे देंगे । अगर आप तमाशा न देखेंगे तो बड़ी बदनामी होगी ।" राजा इस बात पर राज़ी हो गया । तमाशा हुआ । तमाशा होते होते जब दो घडी रात रह गयी और राजा ने कुछ भी इनाम न दिया, तब नटनी ने नट से कहा -
रात घडी भर रह गयी, थाके पिंजर आये ।
कह नटनी सुन मालदेव, मधुरा ताल बजाय ।।

नटनी की बात सुकर नट ने कहा -
बहुत गयी थोड़ी रही, थोड़ी भी अब जाय।
कहे नाट सुन नायिका, ताल में भंग न पाय।।

एक तपस्वी भी वहां तमाशा देख रहा था । उसने ये सवाल जवाब सुनते ही नट को अपना कम्बल दे दिया, राजा के लड़के ने अपनी हीरों की जडाऊँ कड़ों की जोड़ी दे दी और राजकन्या ने अपने गले के हीरों का हार दे दिया ।

राजा यह सब देखकर चकित हो गया । उसने सबसे पहले तपस्वी से पूछा - "तुम्हारे पास यही एक कम्बल था । तुमने क्या समझकर उसे दे दिया ?" तपस्वी ने कहा - "आपके ऐश्वर्य को देखकर मेरे मन में भोगों की वासना उठ खड़ी हुई थी; पर नट के दोहे से मेरा विचार बदल गया । मैंने उससे यह उपदेश ग्रहण किया, कि बहुत सी आयु तो तप में बीत गयी; अब जो थोड़ी सी रह गयी है, उसे भोगों की वासना में क्यों ख़राब करूँ ? मुझे नट से उपदेश मिला, इससे मैंने अपना एकमात्र कम्बल - अपना सर्वस्व उसे दे दिया ।

इसके बाद राजा ने पुत्र से पूछा - "तुमने क्या समझकर अपने कड़ों की बेशकीमती जोड़ी उसे दे दी ?" राजपुत्र ने कहा - "मैं बड़ा दुखी रहता हूँ, क्योंकि आप मुझे कुछ भी खर्च करने नहीं देते । दुखी होकर मैंने यह विचार कर रखा था कि किसी दिन राजा को विष देकर मरवा दूंगा; पर इस नट के दोहे से मुझे यह उपदेश हुआ है कि राजा कि बहुत सी आयु तो बीत गयी, अब वह बूढा हो गया है; दो-चार बरस की बात और है; इस अर्से में वह आप ही मर जाएगा, अतः पितृहत्या क्यों की जाय ? इसी उपदेश के बदले में मैंने नट को कड़ों की जोड़ी दे दी ।"

फिर राजा ने राजकन्या से पूछा - "तुमने अपना कीमती हार नट को क्यों दिया ?" कन्या ने कहा - मेरी जवानी आ गयी है; आप खर्च के भय से मेरी शादी नहीं करते । कामदेव बड़ा बलवान है । काम की प्रबलता के मारे, मेरा विचार वज़ीर के लड़के के साथ निकल भागने का था; पर नट के दोहे से मुझे यह उपदेश मिला कि राजा कि बहुत सी आयु तो चली गयी; अब जो शेष रह गयी है वह भी बीतने ही वाली है । थोड़े दिनों के लिए पिता के नाम में क्यों बट्टा लगाऊं ? यह अनमोल उपदेश मुझे नट के दोहे से मिला, इसी से मैंने अपना बहुमूल्य हार उसे दे दिया । हे पिता ! नट के दोहे ने आपकी जान और इज़्ज़त बचाई है; अतः आपको भी उसे कुछ इनाम देना चाहिए ।" राजा ने यह सब बातें सोच-समझकर नट को इनाम दे विदा किया और वज़ीर के लड़के के साथ कन्या की शादी कर दी । राजपुत्र को गद्दी देकर आप वैरागी हो गया और अपनी शेष रही आयु आत्मविचार में लगा दी । इसी तरह सभी संसारियों को अपनी शेष आयु सुकर्म और ब्रह्मविचार में लगा, जन्म-मरण से पीछा छुड़ा, नित्य सुख-शान्ति लाभ करनी चाहिए ।

बाल-बच्चो का क्या किया जाय
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प्रथम तो स्त्री-पुत्र प्रभृति आपके कोई नहीं; एक सराय के मुसाफिर के समान हैं । यहाँ आकर नाता जुड़ गया है । अपने अपने समय पर सब अपनी अपनी राह लगेंगे । इसके सिवा, ये आपसे सच्ची मुहब्बत भी नहीं करते । आपसे इनका काम निकलता है, पाप-पुण्य की गठरी आप बांधते हैं और सुख ये भोगते हैं; इसीसे आपको कोई "बाबूजी", कोई "चाचाजी" और कोई "नानाजी" कहता है । अगर आप इनकी जरूरतों और फरमाइशों को पूरी न करें, तो ये आपका नाम भी न लें । ऐसे स्वार्थी लोगों को मिथ्या प्रीति के फेर में पड़कर, आप अपने अमूल्य और दुष्प्राप्य जीवन को क्यों नष्ट करते हैं ? जब आप इस देह को छोड़कर परलोक में चले जाएंगे, तब क्या ये आपके साथ जाएंगे ? हरगिज़ नहीं । कोई पौली तक और कोई श्मशान तक आपकी लाश के साथ जाएंगे । वहां पहुँच, आपको जला-बला ख़ाक कर सब भूल जायेंगे ।

आप भी मुसाफिर हैं और आपके स्त्री-पुत्र भी मुसाफिर हैं । आपकी अगली सफर बड़ी लम्बी है । यह तो बीच का एक मुकाम है । कर्म-भोग भोगने को आप यहाँ ठहर गए और कर्मवश ही आप से इन सबका मेल हो गया । ये अपने सफर का प्रबन्ध करें चाहे न करें, पर आप तो अवश्य करें । इनके झूठे मोह में आप न भूलें । अगर आप बाल-बच्चों की रोटी और कपड़ों की फ़िक्र में लगे रहेंगे तो यह फ़िक्र तो अन्त तक लगी ही रहेगी और आपको ले जाने वाली गाड़ी या मौत आ जाएगी । उस समय बड़ी कठिनाई होगी । जो लोग उम्र भर गृहस्थी के झंझटों में लगे रहे, अन्त में उनका बुरा ही हुआ । ये घर-झगडे ही तो ईश्वर-दर्शन या स्वर्ग अथवा मोक्ष की प्राप्ति में बाधक हैं । 

महात्मा शेख सादी ने कहा है -
ऐ गिरफ़्तारे पाये बन्दे अयाल।
दिगर आज़ादगी मबन्द ख़याल।।
ग़मे फ़रज़न्दों नानो जामओ कूत।
बाज़द आरद ज़े सेर दर मलकूत।।

ऐ औलाद की मुहब्बत में गिरफ्तार रहने वाले, तू किसी तरह भी बन्धन मुक्त नहीं हो सकता ।  सन्तान, रोटी, कपडा तथा जीविका की फ़िक्र तुझे स्वर्ग की चिन्ता से रोकती है ।
इसलिए "सब तज और हर भज"।

क्या घर में रहकर ईश्वर-उपासना नहीं की जा सकती ?
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घर गृहस्थी में रहकर ईश्वर-उपासना की जा सकती है; पर घर में रहकर भक्ति करना है टेढ़ी खीर । जैसी सङ्गति होती है, वैसा ही मनुष्य हो जाता है । ज्ञानियों की सङ्गति में ज्ञान की और स्त्रियों की सुहबत में काम की उत्पत्ति होती है । घर में रहकर वैराग की उत्पत्ति होना कठिन है । 

किसी कवी ने कहा है -
जाइयो ही तहाँ ही जहां संग न कुसंग होय,
कायर के संग शूर भागे पर भागे है ।
फूलन की वासना सुहाग भरे वासन पै,
कामिनी के संग काम जागे पर जागे है ।
घर बेस घर पै बसो, घर वैराग कहाँ,
काम क्रोध लोभ मोह, पागे पर पागे है ।
काजर की कोठरी में लाखु ही सयानो जाय,
काजर की ऐक रेख लागे पर लागे है ।

संसार की संगतियों में मनुष्य संसारी हो जाता है; विषय भोगों की ओर उसका मन चलायमान होता है और स्त्री-पुत्र आदि में उसका राग बना ही रहता है; पर जो वेदान्त ग्रंथों को विचारते और महापुरुषों की सङ्गति करते हैं, उनका अन्तःकरण शुद्ध होते रहने की वजह से, उन्हें गृहस्थाश्रम में ही, वैराग्य उत्पन्न होने लगता है । गृहस्थी में एक न एक दुःख बना ही रहता है । उस दुःख के कारण मनुष्य के मन में वैराग्य भी पैदा होता रहता है । विषयों में दुःख समझना ही वैराग्य का और सुख समझना ही राग का हेतु है । महामूढ़ों को भी कुछ न कुछ वैराग्य बना ही रहता है । जिस समय कोई कष्ट आता है, स्त्री-पुत्र आदि मर जाते हैं, धन नाश हो जाता है, तब मूढ़ भी अपने तई और संसार को धिक्कारता है; लेकिन ज्योंही वह कष्ट दूर हो जाता है, उसका वैराग्य भी काफूर हो जाता है । पर वास्तव में वैराग्य का कारण है - गृहस्थाश्रम ही; क्योंकि बिना गृहस्थाश्रम तो किसी की उत्पत्ति होती ही नहीं । रामचन्द्र और वशिष्ठ प्रभृति को गृहस्थाश्रम में ही वैराग्य हुआ था । और भी बड़े-बड़े सन्यासियों को गृहस्थाश्रम में ही वैराग्य हुआ था । वैराग्य उत्पन्न होते ही, उन्होंने घर गृहस्थी त्याग, वन की राह ली थी ।

यह बात भी नहीं है कि गृहस्थाश्रम में ज्ञान होता ही न हो । जनकादि महात्मा गृहस्थाश्रम में ही ज्ञानी हुए थे । ज्ञान का कारण "वैराग्य" है । जो गृहस्थ होकर सदैव वैराग्य और विचार में मग्न रहता है, उसके ज्ञानी होने में सन्देह नहीं; पर जो सन्यासी होकर भी भोगों में राग रखता है, उसके अज्ञानी होने में संशय नहीं । "वैराग्य" ही आत्मज्ञान का साधन है । मनुष्य - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास - किसी आश्रम में क्यों न हो, बिना वैराग्य के ज्ञान नहीं और ज्ञान बिना मोक्ष नहीं । जो पुरुष गृहस्थाश्रम में रहकर भी उसमें आसक्त नहीं होता, जल में कमल की तरह रहता है, उसकी मुक्ति में ज़रा भी सन्देह नहीं । एक दृष्टान्त इस मौके का हमें याद आया है, उससे पाठकों को अवश्य लाभ होगा -

राजा जनक और शुकदेव जी
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एक बार व्यास जी ने शुकदेव जी से कहा कि तुम राजा जनक के पास जाकर उपदेश लो । शुकदेव जी जनक के द्वार पर गए । भीतर खबर कराई तो राजा ने कहला भेजा, कि द्वार पर ठहरो । शुकदेव जी तीन दिन तक द्वार पर खड़े रहे पर उन्हें क्रोध न आया । राजा ने क्रोध की परीक्षा करने के लिए ही उन्हें तीन दिन तक द्वार पर खड़ा रखा और चौथे दिन अपने पास बुलाया । वहाँ जाकर शुकदेव जी क्या देखते हैं कि राजा जनक सोने के जडाऊ सिंहासन पर बैठे हैं, सुन्दरी नवयौवना स्त्रियां उनके चरण दाब रही हैं और कुछ मोरछल और पंखे कर रही हैं । जगह-जगह विषय भोग या ऐशो आराम के सामान धरे हैं । सामने ही सुन्दर नर्तकियां नाच रही हैं । यह हाल देखकर शुकदेव जी के मन में राजा की ओर से घृणा हुई । उन्होंने मन में कहा - "नाम बड़े और दर्शन छोटे वाली बात है । यह तो भोगों में आसक्त हैं; पिताजी ने इन्हें परम ज्ञानी क्यों कहा ?" राजा जनक शुकदेव जी के मन की बात ताड़ गए । दैवात उसी समय मिथिलापुरी में भीषण आग लग गयी । बाहर से दूत दौड़े आये और कहने लगे - "महाराज ! पुरी में आग लग गयी और और राजद्वार तक आ पहुंची है ।" शुकदेव जी मन में सोचने लगे कि मेरा दण्ड-कमण्डल बाहर रखा है, कहीं वह जल न जाय । उस समय राजा ने कहा -
अनन्तवत्तु मे वित्तं यन्मे नास्ति हि किञ्चन।
मिथिलायां प्रदग्धायां न मे दह्यति किञ्चन।।

मेरा आत्मरूप-धन अनन्त है । उसका अन्त कदापि नहीं हो सकता । इस मिथिला के जलने से मेरा तो कुछ भी नहीं जल सकता ।

राजा जनक के इस वाक्य से पदार्थों में उनकी आसक्ति नहीं - अनासक्ति ही साबित होती है । अगर कोई मनुष्य गृहस्थी में रहकर, स्त्री-पुत्र-धन प्रभृति में अनासक्त रहे, उनमें ममता न रक्खे, चाहे व्यवहार सब तरह करे, वह सच्चा ज्ञानी है, उसकी मोक्ष अवश्य होगी ।

ममता ही दुखों का कारण है । जिसकी किसी भी पदार्थ में ममता नहीं, उसे दुःख क्यों होने लगा ? उसकी ओर से, वह पदार्थ मिले तो अच्छा और न मिले तो अच्छा । बचा रहे तो भला और नष्ट हो जाय तो भला । जिसकी जिस चीज़ में ममता होती है, उसे उस चीज़ के नाश होने या उसके न मिलने से अवश्य दुःख होता है ।

कहा है -
यस्मिन वस्तूनि ममता नायस्तत्र तत्रेव।
यत्नेवाहमुदासे मुदा स्वभाव संतुष्टः।।

जिस जिस चीज़ में मनुष्य की ममता है, वही-वही दुखी है और जिस जिससे उदासीनता है, वही सन्तुष्टता है । मतलब यह कि "ममता" ही दुखों का मूल है । घर-गृहस्थी में रहो और गृहस्थी के सारे कार्य-व्यवहार करो; पर किसी भी पदार्थ में ममता मत रक्खो । तुम्हारी ओर से कोई मर जाय तो शोक नहीं; धन-दौलत नष्ट हो जाय तो रंज नहीं, आ जाय तो ख़ुशी नहीं; इस तरह उदासीन भाव रक्खो । अगर इस तरह गृहस्थी में रहो, तो तुमसे बढ़कर ज्ञानी कौन है ? तुम्हें अवश्य मोक्षपद मिलेगा ।

निर्मोही पुरुष 
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एक मनुष्य के एक ही लड़का था । लड़का जवान हो गया था । उसकी शादी भी हो गयी थी । एक दिन पिता ने किसी उद्देश्य से शाम को एक सभा बुलाने का निमंत्रण दिया । दैवयोग से दोपहर में उसका पुत्र अचानक मर गया । उसने, उसकी लाश को बैठक में लिटाकर ऊपर से कपड़ा उढ़ा दिया और आप शान्त भाव से द्वार पर बैठकर हुक्का पीने लगा । इतने में सभा का समय हो गया; मित्र लोग आने लगे । उनमें से एक मित्र उसी बैठक में किसी ज़रूरी काम से गया । वहां एक लाश पड़ी देख उसने बाहर आकर पूछा - "यह क्या !"  
उसने कहा - "भाई ! लड़का मर गया है पहले सभा का काम कर लें; तब सब मिलकर इसे शमशान घाट पर ले चलेंगे ।" मित्र लोग उस निर्मोही पिता की बात सुनकर चकित हो गए । उन्होंने कहा - "तुम तो अजब आदमी हो ! तुम्हें अपने इकलौते जवान पुत्र का भी रंज नहीं !" उसने कहा - "भाई ! मेरा इसका क्या नाता ? हम सब सराय के मुसाफिर हैं । पूर्वजन्म के कर्मवश एक दुसरे से मिल गए हैं । अपना-अपना समय होने से, अपनी-अपनी राह चले जा रहे हैं; इसमें रंज या शोक की बात ही क्या है ?" ऐसे ही मनुष्य, गृहस्थी में रहकर भी, जन्म-मरण के फन्दे से छूटकर, मोक्षलाभ करते और जीवन्मुक्त कहलाते हैं ।

काम करो, पर मन को ईश्वर में रक्खो 
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अगर भगवान् कृष्ण के कथनानुसार संसार के काम-धंधे किये जाएँ, तो भी हर्ज नहीं; पर मन को संसारी पदार्थों या विषय-भोगों से हटाकर एकमात्र भगवान् में लगाना चाहिए । दुनियावी काम करते रहने और मन को भगवान् में लगाए रहने से सिद्धि मिल सकती है । 

महाकवि रहीम कहते हैं -

दोहा
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जो "रहीम" मन हाथ है, मनसा कहुँ किन जाहि ।
जल में जो छाया परी, काया भीजत नाहिं ।।

सारा दारोमदार मन पर है । व्यभिचारिणी स्त्री घर के धन्धे किया करती है, पर मन को हर क्षण अपने यार में रखती है । गाय जहाँ-तहाँ घास चरती फिरती है, पर मन को अपने बच्चे में रखती है । स्त्रियां जब धान कूटती हैं, तब एक हाथ से मूसल चलाती हैं और दुसरे से ओखल के धान को ठीक करती जाती हैं । इसी बीच में यदि उनका बच्चा आ जाता है, तो उसे दूध भी पिलाती रहती हैं; किन्तु उनका ध्यान बराबर मूसल में ही रहता है । अगर ज़रा भी ध्यान टूटे तो हाथ के पलस्तर उड़ जाएँ । इसी तरह मनुष्य, यदि संसार के काम-धन्धे करता हुआ भी, ईश्वर में मन लगाकर उसकी भक्ति करता रहे, तो कोई हर्ज नहीं; उसे भगवत-दर्शन अवश्य होंगे । यद्यपि इस संसार में रहकर सिद्धि लाभ करना - है बड़े शूरवीरों का काम; तो भी इस तरह अनेक लोग, गृहस्थी में रहते हुए भी मोक्षपद पा गए हैं ।

ईश्वर प्राप्ति की सहज राह कौन सी है 
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गृहस्थी में रहने की अपेक्षा, गृहस्थी त्यागकर, वन के एकान्त भाग में रहकर, भगवत में मन लगाना अवश्य आसान है ।" गृहस्थी में रहने से मन विषय-भोगों की ओर दौड़ता ही है । स्त्री को देखने से काम जागता ही है; पर न देखने से मन नहीं चलता । पराशर ऋषि ने मत्स्यगन्धा देखी, तो उनका मन चलायमान हुआ । विश्वामित्र ने मेनका देखी तो उनका मन बिगड़ा । शिव ने मोहिनी देखी तो उनका मन चञ्चल हुआ । इसीलिए पहले के अनेक महापुरुष अपने-अपने घर त्यागकर वन में चले गए और वहाँ उन्हें सिद्धि प्राप्त  हो गयी । पर वन में जाकर भी जो मन को विषयों में लगाए रहते हैं, ममता को नहीं त्यागते; कामना को नहीं छोड़ते, वे गृहस्थी में भी बुरे हैं । वे धोबी के कुत्ते की तरह, न घर के न घाट के ।

त्याग में ही सुख है 
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जो धन-दौलत, राजपाट, स्त्री-पुत्र प्रभृति को त्यागकर वन में रहते हैं; किसी भी चीज़ की इच्छा नहीं रखते, यहाँ तक की खाने के लिए पाव भर आटे की भी जरुरत नहीं रखते; जहाँ जगह पाते हैं, वही पड़े रहते हैं; जो मिल जाता है, उसी से पेट भर लेते हैं - वे सचमुच ही सुखी हैं । 

शंकराचार्य महाराज ने "मोहमुद्गर" में कहा है -
सुरमन्दिरतरुमूलनिवासः शय्याभूतलमजिनंवासः ।
सर्वपरिग्रहभोगत्यागः कस्य सुखम न करोति वैराग्यः  ।।

जो देवमन्दिर या पेड़ के नीचे पड़े रहते हैं, भूमि ही जिनकी चारपाई है, मृगछाला ही जिनका वस्त्र है, सारे विषय-भोग के सामान जिन्होंने त्याग दिए हैं; यानी वासना रहित हो गए हैं - ऐसे किन मनुष्यों को सुख नहीं है ? अर्थात ऐसे त्यागी सदा सुखी हैं ।

देह नहीं मन के वैराग्य से लाभ है 
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अनेक लोग गेरुए कपडे पहन लेते हैं, तिलक-छापे या राख लगा लेते हैं; पर उनका मन सदा भोगों में लगा रहता है । वे शरीर को वैरागियों सा बना लेते हैं; पर उनका मन भोगियों सा रहता है; इसलिए उनका जन्म वृथा जाता है । आजकल साधु-सन्यासी बनना एक प्रकार का रोज़गार हो गया है । जिनसे किसी तरह की मेहनत मज़दूरी नहीं होती, वे साधु वेश बनाकर लोगों को ठगते और घर मनीआर्डर भेजते हैं । बहुत से ढोंगी नगरों में आकर बड़े आदमियों के यहाँ डेरा लगा देते हैं, चेले-चेलियों से भेंट लेते हैं, नवयौवना सुन्दरियों को पास बिठाकर उपदेश देते हैं, अपने कदमों में रुपयों और अशर्फियों के ढेर लगवाते हैं, भला ऐसों का मन परमात्मा में लग सकता है ? जब विश्वामित्र और पराशर जैसे, हवा और पानी पर गुज़ारा करने वाले, मुनियों का मन स्त्रियों के देखते ही चञ्चल हो गया; तब रबड़ी-मलाई, मावा-मोहनभोग उड़ाने वालों का मन कैसे स्त्रियों पर न चलेगा ? ऐसा कौन है जिसका मन स्त्रियों ने खण्डित नहीं किया ? 

कहा है -
कोऽर्थान् प्राप्य न गर्वितो ?
विषयिणः कस्यापदो नागताः ?
स्त्रीभिः कस्य न खण्डितं भुवि मनः ?
को नामा राज्ञां प्रियः ?
कः कालस्य न गोचरान्तरगतः ?
कोऽर्थी गतो गौरवं ?
को वा दुर्जनवागुरा निपतितः 
क्षेमेण यातः पुमान् ?

किसको धन पाकर गर्व नहीं हुआ ? किस विषयी पर आफत नहीं आयी ? पृथ्वी पर किसका मन नारी ने आकृष्ट नहीं किया ? कौन राजाओं का प्यारा हुआ ? कौन काल की नज़र से बचा ? किस मँगते का गौरव हुआ ? कौन सज्जन दुष्टों के जाल में फंसकर कुशल से रहा ?

सन्यासियों को स्त्री-दर्शन भी मना है 
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धर्मशास्त्र में लिखा है -
सम्भाषायेत्  स्त्रियं नैव, पूर्वदृष्टां च न स्मरेत । 
कथाम् च वर्जयेत्तासां, नो पश्येल्लिखितामपि ।।
यस्तु प्रव्रजितो भूत्वा पुनः सेवेत्तु मैथुनम् ।
षष्ठिवर्षसहस्त्राणि विष्ठायां जायते कृमिः ।।

यति को स्त्री से बात न करनी चाहिए, पहले की देखी हुई स्त्री की याद न करनी चाहिए तथा स्त्रियों की चर्चा भी न करनी चाहिए और स्त्री का चित्र भी न देखना चाहिए ।

जो सन्यासी होकर स्त्री के साथ मैथुन करता है, वह साठ हज़ार वर्ष तक विष्ठा का कीड़ा होता है । और विषयों से मन को रोकना उतना कठिन नहीं, जितना कि स्त्री से रोकना कठिन है; इसी से स्त्री का चित्र तक देखने की मनाही की है । जो ढोंगी, साधु-सन्यासी दुनियादारों के घर आते और स्त्रियों में बैठे रहते हैं, उनको उपदेश ग्रहण करना चाहिए ।

ढोंगी साधुओं के लिए अमूल्य उपदेश
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बनावटी या ढोंगी साधुओं के सम्बन्ध में महात्मा तुलसीदास जी ने कहा है -
तन को योगी सब करें, मन को विरला कोय।
सहजे सब सिधि पाइये, जो मन योगी होय।।
जाके उर बर वासना, भई भास कछु आन।
तुलसी ताहि विडम्बना, केहि बिधि कथहि प्रमान।।
काह भयो बन बन फिरे, जो बनि आयो नाहिं।
बनते बनते बनि गयो, तुलसी घर ही माहिं।।
रामचरण परचे नहीं, बिन साधन पद-नेह।
मूँड़ मुड़ायो बादिहीं, भाँड़ भये तजि गेह।।
कीर सरस बाणी पढ़त, चाखत चाहें खाँड़।
मन राखत वैराग मँह, घर में राखत राँड़।।
जहाँ काम तहँ राह नहीं, जहाँ राम नहिं काम।
तुलसी दोनों नहिं मिलें, रवि रजनी इक ठाम।।
तब लगि योगी जगतगुरु, जब लगि रहे निरास।
जब आशा मन में जगी, जग गुरु योगी दास।।
(*व्याख्या ज्यादा होने के कारण यहाँ नहीं दी गयी है)

कोरा सन्यासी भेष धारना, नरक के सामान करना है 
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आजकल अनेक वेद विरुद्ध काम करने वाले, मनगढंत मत चलानेवाले, झूठ बोलनेवाले, बगुला और बिलाव की सी वृत्ति रखनेवाले फिरते हैं । गृहस्थों को चाहिए कि उनका बातों से भी सत्कार न करें । ठगों का सत्कार होने से ही ठग-साधू बढ़ रहे हैं । उनमें से कोई मूर्ती बनाकर पूजता और पुजवाता है । कोई अपने को कबीरपन्थी, कोई नानकपन्थी, कोई रामानुजी और कोई दादूपन्थी कहता है । इन पन्थों से कोई लाभ नहीं । जब तक "आत्मज्ञान" नहीं होता, तब तक सिद्धि या मोक्ष नहीं मिलती; अतः मन को सब तरफ से हटाकर, आत्मचिंतन में लगाना चाहिए । ढोंग करने से मनुष्य-जन्म वृथा जाता है । काम तो सब यतियों के से किये जाते हैं, कष्ट भी उन्ही की तरह उठाये जाते हैं; पर परिणाम में मिलता कुछ भी नहीं । बिना आत्मज्ञान या ब्रह्मविचार के कल्याण नहीं होता । गृहस्थों को भी चाहिए कि ऐसे ठगों का आदर-सम्मान न करें । ऐसे बनावटी साधु-सन्यासी आप नरक में जाते हैं और अपने शिष्यों को भी नरक में घसीट ले जाते हैं ।

किसी ने ठीक यही बात कविता में बड़ी खूबी से कही है -
आत्मभेद बिन फिरें भटकते, सब धोखे की टाटी में।
कोई धातु में ईश्वर मानत, कोई पत्थर कोई माटी में।।
वृक्ष कोई जल में कोई, कोई जंगल कोई घाटी में।
कोई तुलसी रुद्राक्ष कोई, कोई मुद्रा कोई लाठी में।
भगत कबीर कोई कहे नानक, कोई शंकर परिपाटी में।
कोई नीमार्क रामानुज है, कोई बल्लभ परिपाटी में।।
कोई दादू कोई गरीब दासी, कोई गेरू रंग की हाटी में।
कहै "आज़ाद" भेष जो धारे, चले नरक की भाटी में।।

सन्यासी एक जगह न रहे
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सन्यासी का मन किसी प्रीती में न फंस जाय अथवा किसी से उसकी मुहब्बत न हो जाय; इसलिए धर्मशास्त्र में सन्यासियों को एक दिन से ज्यादा एक गाँव में रहना तक मन लिखा है ।

कहा है -
आबे दरिया बहे तो बेहतर, 
इन्सां रवाँ रहे तो बेहतर।
पानी न बहे तो उसमें दुर्गन्ध आये,
खञ्जर न चले तो मोर्चा खाये।।

गिरिधर कवी कहते हैं -
कुण्डलिया 
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(१) 
बहता पानी निर्मला, पड़ा गन्ध सो होय ।
त्यों साधू रमता भला, दाग लागे न कोय ।।
दाग लागे न कोय, जगत से रहे अलहदा ।
राग-द्वेष युग प्रेत, न चित को करें बिच्छेदा ।।
कहा "गिरिधर" कविराय, शीट उष्णादिक सहता ।
होय न कहुँ आसक्त, यथा गंगाजल बहता ।।

(२) 
रहने सदा इकन्त को, पुनि भजनो भगवन्त ।
कथन श्रवण अद्वैत को, यही मतो है सन्त ।।
यही मतो है सन्त, तत्व को चितवन करनो ।
प्रत्येक ब्रह्म अभिन्न, सदा उर अन्तर धरनो ।।
कहा "गिरिधर" कविराय, बचन दुर्जन को सहनो ।
तज के जन-समुदाय, देश निर्जन में रहनो ।।

सन्यासियों के कर्तव्य कर्म
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(यति पञ्चक से)
वेदान्तवाक्येषु सदा रमन्तो,
भिक्षान्नमात्रेण च तुष्टिमन्तः।
विशोकमन्तः करणे रमन्तः,
कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।

(२)
मूलं तरो: केवलमाश्रयन्तः,
पाणिद्वयं भोक्तुममन्त्रयन्तः।
कत्थामिव श्रीमपि कुत्सयेतः,
कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।

(३)
देहादिभावं परिवर्त्तयन्तः,
आत्मानमात्मन्यवलोकयन्तः।
नान्तं न मध्यं न वहिः स्मरन्तः,
कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।

(४)
स्वानन्दभावे परितुष्टिमन्तः,
सुशान्त सर्वेन्द्रियतुष्टिमन्तः।
अहर्निशं ब्रह्मसुखे रमन्तः,
कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।

(५)
पञ्चाक्षरं पावन मुच्चरन्तः,
पतिं पशूनां हृदि भावयन्तः।
भिक्षाशिनो दिक्षु परिभ्रमन्तः,
कौपीनंवन्तः खलु भाग्यवन्तः।।

भावार्थ
(१)
वेदान्त वाक्य या उपनिषदों में अथवा ब्रह्मविद्या में मन लगाए रहनेवाला, केवल भिक्षा के अन्न से सन्तुष्ट रहनेवाला, मन को शोक-ताप शून्य करके सन्तुष्ट रहेवाला और कोपीन पहनने वाला योगी भाग्यवान है ।

(२)
केवल वृक्ष के मूल में आश्रय लेने वाला, दोनों हाथों को भोजन के लिए न लगाने वाला, आत्मश्लाघा की तरह लक्ष्मी की निन्दा करनेवाला अर्थात अपनी तारीफ और धन से दूर रहनेवाला एवं कोपीन धारण करनेवाला योगी सुखी है ।

(३)
सुखासक्ति, वासना को त्यागनेवाला, अपने स्वरुप में औरों को देखनेवाला, अन्त, मध्य और पुत्र कलत्र आदि को न याद करनेवाला एवं कोपीन बाँधनेवाला यति भाग्यवान है ।

(४)
अपने आत्मा में ही आनन्दमग्न रहनेवाला, आँख कान नाक जीभ प्रभृति इन्द्रियों के विषय-सुखों के त्यागने से सन्तुष्ट और आत्मसाक्षात्कार से खुश रहनेवाला और दिन-रात ब्रह्म के दर्शनों से पैदा हुए आनन्द में रहनेवाला तथा कोपीन पहनने वाला योगी सुखी है ।

(५) 
"शिवाय नमः" इस पांच अक्षर के, आत्मा को शुद्ध करनेवाले, मन्त्र का उच्चारण करनेवाला, ह्रदय में पशुपति शङ्कर की भावना करता हुआ, भिक्षान्न पर गुज़ारा करके, दिशाओं में घूमनेवाला और कोपीन धारण करनेवाला योगी भाग्यवान है ।

यतिपञ्चक का फल
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वास्तविक महापुरुष होने की इच्छा रखनेवालों को उपरोक्त "यति पञ्चक" कण्ठाग्र कर लेना और इस पर अमल करना चाहिए; तब उन्हें  निश्चय ही शान्ति और सिद्धि मिलेगी ।

छप्पय
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शतहि वर्ष की आयु में, रात में बीतत आधे।
ताके आधे आध, वृद्ध बालकपन साधे।।
रहे यहै दिन, आधि व्याधि गृहकाज समोये।
नाना विधि बकवाद करत, सबहिन को खोये।।
जल की तरंग बुदबुद सदृश, देह खेह ह्वै जात है।
सुख कहो कहाँ इन नरन कौ, जासों फूल गात है।।


ब्रह्मज्ञानविवेकिनोऽमलधियः कुर्वन्त्यहो दुष्करं
यन्मुञ्चन्त्युपभोगकांचनधनान्येकान्ततो निःस्पृहाः ।
न प्राप्तानि पुरा न सम्प्रति न च प्राप्तौ दृढप्रत्ययो
वाञ्छामात्रपरिग्रहाण्यपि परं त्यक्तुं न शक्त वयम् ।। १०८ ।।

अर्थ:
उन बुद्धिमान, निर्मल ज्ञान वाले, ब्रह्मज्ञानियों का कठिन व्रत देखकर हमें बड़ा विस्मय होता है, जो विषय-भोग, धन-दौलत, सोना-चाँदी और स्त्री-पुत्र प्रभृति को एकदम से त्याग देते हैं और फिर उनकी इच्छा नहीं रखते ।

सत् और असत् का विचार करनेवाले देह और आत्मा को अलग अलग समझनेवाले इस संसार को स्वप्न मानने वाले, इस जगत की झूठी चमक-दमक पर मोहित न होनेवाले पुरुह "ज्ञानी" कहलाते हैं । जिनके सामने माया का पर्दा हट जाता है, जिन्हे देह के नाशमान और आत्मा के नित्य और अविनाशी होने का ज्ञान हो जाता है, उन्हें परमात्मा दीखने लगता है । उन्हें परमात्मा के ध्यान में जो आनन्द आता है, उसकी बराबरी त्रिभुवन के सारे सुखैश्वर्य भी नहीं कर सकते । ऐसे ज्ञानी इस जगत से नाता क्यों जोड़ने लगे ? जब तक उन्हें ज्ञान नहीं होता; माया का पर्दा उनकी आँखों के सामने से नहीं हटता, शरीर और आत्मा का भेद मालूम नहीं होता, तभी तक वे इस संसारी जाल में फंसे रहते हैं; जहाँ उन्हें ज्ञान हुआ और उन्होंने संसार की असलियत समझी, तहाँ फ़ौरन ही इसे छोड़ा । एकबार छोड़कर, फिर इसकी इच्छा वे इसलिए नहीं करते, कि वे समझबूझकर इसे छोड़ते हैं; जबरदस्ती या किसी के बहकाने से अथवा दुकानदारी के लिए तो वे इसे छोड़ते ही नहीं, जो उनकी लालसा इनमें बनी रहे ।

जो लोग रूपया पैदा करने या पुजने के लिए घर-गृहस्थी को छोड़ते हैं, उनका मन संसार के विषय-भोगों में लगा रहता है । वे न इधर के रहते हैं न उधर के ही । वे "धोबी का कुत्ता, न घर का न घाट का" अथवा "खुदही मिला न विसाले सनम" या "दुविधा में दोनों गए, माया मिली न राम " वाली कहावत चरितार्थ करते हैं । ऐसे कच्चे त्यागियों के सम्बन्ध में गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं -
इत कुल की करनी तजे, उत न भजे भगवान्।
तुलसी अधवर के भये, ज्यों बघूर को पान।।

अर्थात इधर तो वे अपना घरबार और स्त्री-पुत्र तथा अपने कुल के कामों को छोड़ बैठते हैं और उधर भगवान् को भी नहीं भजते । वे हवा के बवण्डर या भभूले में चक्कर खानेवाले पत्ते की तरह अधर में ही चक्कर खाते रहते हैं 

अगर वे अपने घर में ही रहते, तो अपने कुल-वर्ण के अनुसार कर्म करते और और महात्माओं की सङ्गति और सेवा-टहल से संसार की असारता, अपने नातेदारों की स्वार्थपरता एवं ईश्वर की महिमा का ज्ञान लाभ करके, ईश्वर की भक्ति करते हुए, प्रह्लाद, जनक और अम्बरीष प्रभृति की तरह, घर में रहकर ही सिद्धि लाभ करते । नादान लोग बिना पूर्ण वैराग्य और ज्ञान के, घर गृहस्थी को छोड़कर वन में चले तो जाते हैं; पर उनकी वासना - ममता अपने घरवालों अथवा पराई स्त्रियों या धन-दौलत में बनी रहती है; इसलिए वे संसारियों की निन्दा के भय से लुक-छिपकर विषयों को भोगते हैं और परमात्मा में मन नहीं लगाते । इस तरह उनके लोक-परलोक दोनों बिगड़ते हैं - वे न तो संसारी सुख ही भोग सकते हैं और न स्वर्ग या मोक्ष ही लाभ कर सकते हैं । सारांश यह, मनुष्य को संसार से पूरी विरक्ति होने पर ही संन्यास लेना चाहिए और एक बार त्यागी बनकर फिर अत्यागी न बनाना चाहिए । त्यागी होकर विषयों में लालसा रखनेवाले महानीच हैं । उनकी दोनों जहाँ में महान दुर्गति होती है ।

प्रत्येक मनुष्य को समझना चाहिए कि यह संसार वास्तव में ही मायाजाल है । कोई किसी का नहीं है । सब अपना अपना मतलब गांठते हैं । मतलब नहीं, तो कोई किसी का नहीं ।

तुलसीदास जी कहते हैं -
तुलसी स्वारथ के सगे, बिन स्वारथ कोई नाहिं।
सरस वृक्ष पंछी बसें, नीरस भये उड़ जाहिं।।

सभी स्वार्थ के सगे हैं; बिना स्वार्थ कोई किसी का नहीं । जब तक वृक्ष में फल रहते हैं, तभी तक पंछी उस पर रहते हैं; जहाँ वृक्ष फलहीन हुआ कि वे उसे छोड़कर और जगह उड़ जाते हैं । यही हाल संसार का है । सब खड़े दम का मेला है । सभी जीते जी के साथी हैं; मरते ही साड़ी मुहब्बत उड़ जाती है । जो स्त्री अर्द्धाङ्गी कहलाती है, जो पुरुष को अपना प्राण प्यारा कहती है, उसे गले से लगाती है और उसके लिए जान देने तक को तैयार रहती है, दम निकलते ही उससे डरने या भय खाने लगती है । अगर वह रोटी भी है, तो अपने सुखों के लिए रोती है; उसके लिए नहीं रोती । और कुटुम्बी - माता पिता भाई बहिन इत्यादि भी दम निकलते ही कहने लगते हैं - "जल्दी उठाओ, अब घर में रखना ठीक नहीं।"

इस मौके की एक कहानी हमें याद आयी है, उसे हम पाठकों के उपकारार्थ नीचे लिखते हैं -

सब जीते जी के साथी हैं
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एक सेठ का लड़का किसी महात्मा के पास जाया करता था । सेठ को भय हुआ कि कहिं पुत्र वैराग्य न ले ले; इसलिए उसने पुत्र वधु से कला दिया कि वह पुत्र को हर तरह से अपने वश में कर ले; जिससे महात्मा की सङ्गति छूट जाय । लड़के की स्त्री उस दिन से उसकी सेवा-टहल और भी ज्यादा करने लगी; हाथों में उसका मन रखने लगी । लड़का जब घर से बाहर जाता, तभी वह कहती - "आपका वियोग मुझसे सहा नहीं जाता । क्षणभर में ही मेरे प्राण अकुलाने लगते हैं; अतः आप मुझे छोड़कर कहीं नहीं जाया करें । लड़के ने महात्मा के पास जाना काम जरूर कर दिया; पर कभी कभी वह चला ही जाता था । एक दिन वह बहुत दिन बीच में देकर पहुंचा । महात्मा ने कहा - "भाई ! आजकल तुम आते क्यों नहीं ?" उसने कहा - "मेरी स्त्री मुझे बहुत ही प्यार करती है । उसे मेरे बिना क्षणभर भी कल नहीं पड़ती; इसी से आना नहीं होता; महात्मा ने कहा - "भाई ! ये सब झूठी बातें हैं । संसार में कोई किसी को नहीं चाहता । अगर तुमको विश्वास न हो तो परीक्षा कर लो ।"
सेठ के पुत्र ने परीक्षा करना ही उचित समझा । महात्मा ने उसे प्राणायाम या सांस चढाने की क्रिया सिखा दी । जब वह प्राणायाम क्रिया में पक्का हो गया, तब महात्मा ने कहा - "आज तू घर जाकर कहना, मेरे पेट में बड़ा दर्द है । इसके बाद सांस चढ़कर पड़ जाना; पर पहले यह कह देना कि यदि मेरी मृत्यु हो जाय, तो अमुक महात्मा को बुलाये बिना मुझे मत जलाना ।" लड़का घर पहुंचा और पेट के दर्द के मारे चिल्लाने लगा । कुछ देर बाद ज़मीन पर गिर पड़ा और माता पिता से कहने लगा - "यदि मैं मर जाऊं; तो बिना अमुक महात्मा को बुलाये और दिखाए मुझे मत जलाना ।" इसके बाद उसने सांस चढ़ा लिया । घरवालों ने उसे देखा तो बोले -" अब इसमें दम नहीं, काठी-कफ़न लाओ और शमशान की तयारी करो ।" इतने में उसकी माँ बोली -"पुत्र ने अमुक महात्मा को बुलाने को कहा था, इसलिए पहले उन्हें बुलवाओ ।" सेठ ने महात्मा के पास आदमी भेजा । वह तत्काल चले आये । उन्हें देखते ही सेठ बोला - "मैं मर जाऊं तो हानि नहीं; पर मेरा पुत्र जी उठे यही मेरी इच्छा है ।" यही बात सेठानी और लड़के की स्त्री ने भी कही । महात्मा ने कहा - "मैं एक पुड़िया देता हूँ । तुममे से जो कोई इसे खा लेगा, वह मर जाएगा और लड़का जी उठेगा ।" इस बात के सुनते ही, सब लगे बगलें झाकने और बहाना करने । तब महात्मा ने कहा - "खैर तुम सब नहीं खाते तो मैं ही खा लेता हूँ ।" यह कहकर महात्मा ने पुड़िया खा ली और क्रिया द्वारा सांस उतार उसे होश में कर दिया । लड़के ने सारा हाल सुना । सुनते ही उसे संसारी मुहब्बत का सच्चा हाल मालूम हो गया और उसने घर छोड़ वैराग्य ले लिया । देखिये ! कुटुम्बियों की प्रीती का चित्र महात्मा सुन्दरदास जी कैसी उम्दगी के साथ खींचते हैं -
(१)
माता पिता युवती सुत बान्धव।
लागत है सब कूँ अति प्यारो।।
लोक कुटुम्ब खरो हित राखत।
होइ नहीं हमते कहुँ न्यारो।।
देह-सनेह तहाँ लग जानहु।
बोलत है मुख शब्द उचारो।।
"सुन्दर" चेतन शक्ति गयी जब।
बेगि कहें घर बार निकारो।।

(२)
रूप भलो तबही लग दीसत।
जौं लग बोलत-चालत आगे।।
पीवत खात सुनै और देखत।
सोइ रहे उठि के पुनि जागै।।
मात पिता भइया मिली बैठत।
प्यार करे युवती गल लागे।।
"सुन्दर" चेतन शक्ति गयी जब।
देखत ताहि सबै डरि भागे।।

माँ, बाप, स्त्री, पुत्र और नातेदार सबको पुरुष बहुत ही प्यारा लगता है । सब लोग उससे खूब मुहब्बत करते और चाहते हैं कि यह हमसे अलग न हो । लेकिन यह देह की मुहब्बत उसी समय तक है, जब तक की प्राणी अच्छी तरह बोलता चालता है । "सुन्दरदास जी" कहते हैं - जहाँ शरीर में से चेतन शक्ति - आत्मा निकल गयी कि वही सब कहने लगते हैं - "इसे जल्दी घर से बाहर निकालो।" जब तक प्राणी बोलता, चालता, खाता, पीता, सुनता और देखता है एवं सोकर फिर जाग उठता है; तभी तक माँ-बाप और भाई पास बैठते हैं और युवती गले से लगकर प्यार करती है । "सुन्दरदास जी" कहते हैं - ज्योंही चेतन शक्ति शरीर से निकल कर बाहर गयी कि लोग उसे देखते ही डर कर भागने लगते हैं ।

जिस संसार की ऐसी गति है जो नीरा माया-जाल या गोरखधन्धा है, जिसमें कुछ भी सार-तत्व नहीं है, जिसमें स्वार्थपरता या खुदगर्ज़ी कूट-कूट कर भरी है, उस पर मूर्ख ही लट्टू होते हैं । जो समझदार हैं वे उसके जाल में नहीं फंसते, अगर फंस भी जाते हैं, तो सबको छोड़-छोड़कर अलग हो जाते हैं । जितने विद्वान और महात्मा हुए हैं सभी ने कहा - "इस संसार के साथ दिल मत लगाओ; इसके बनाने वाले के साथ दिल लगाओ । इसी में आपकी भलाई और आपका कल्याण है । उसकी शरण में जाने वाले के पास दुःख और क्लेश नहीं फटकते । वह अपने शरणार्थी की सदैव रक्षा करता है । कौरव-सभा में उसी ने द्रौपदी की लाज रखी थी । जो उसे याद करता है, उसकी खबर वह अवश्य लेता है ।

कहा है-
जो तुमको सुमिरत जगदीशा, ताहि आपनो जानत ईशा ।
अभिमानी से हो तुम दूरा, सतवादी के जीवनमूरा
सुखी मीन जहँ नीर अगाधा, जिमि हरशरण न एकौ बाधा।।

दोहा
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बड़े विवेकी तजत हैं, सम्पत्ति सुत पितु मात।
कंथा और कोपीन हूँ, हमसे तजो न जात।।



व्याघ्रीव तिष्ठति जरा परितर्जयन्ती
रोगाश्च शत्रव इव प्रहरन्ति देहम् ।
आयुः परिस्रवति भिन्नघटादिवाम्भो
लोकस्तथाप्यहितमाचरतीति चित्रम्।। १०९ ।।

अर्थ:
वृद्धावस्था भयङ्कर बाघिनी की तरह सामने खड़ी है । रोग शत्रुओं की तरह आक्रमण कर रहे हैं, आयु फूटे हुए घड़े के पानी की तरह निकली चली जा रही है । आश्चर्य की बात है, फिर भी लोग वही काम करते हैं, जिससे अनिष्ट हो ।

बुढ़ापा मौत का पेशखीमा है
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बुढ़ापा मौत का पेशखीमा या बकौल "सिसरो" ज़िन्दगी के नाटक का आखिरी सीन है । इसी से चतुर पुरुष बुढ़ापे को देखते ही समझ लेते हैं कि मौत अब आने ही वाली है - हमारे जीवन नाटक का अन्तिम पर्दा गिरने ही वाला है - हमारी ज़िन्दगी का अभिनय अब समाप्त होने ही वाला है । इसी से उन्होंने अगर जवानी और बचपन के दिन वृथा जञ्जालों में भी खोये हैं; तो बुढ़ापे में चेत जाते हैं और सब तजकर हर भजने लगते हैं; पर ऐसे समझदारों की संख्या बहुत थोड़ी है । ज़ियादा तादाद उन अज्ञानियों की है, जो बुढ़ापे को सामने देखकर भी, दम और खांसी के आक्रमण होने पर भी, घरवालों से तिरस्कृत होनेपर भी, संसार की ममता नहीं छोड़ते । अनेक बूढ़े ठीक चला-चली के समय शादी-विवाह करते हैं ; अनेक बेटे-पोतों की पालना में लगे रहते हैं और अनेक धन बढ़ने की चिन्ता में ही मशगूल रहते हैं । इन सब कामों से मनुष्यों का अनिष्ट साधन होता है । न तो उन्हें इस जन्म में ही क्षण-भर को शान्ति मिलती है और न मरने पर अगले जन्म में ही । ममता और कामना के कारण उनका संसार-बन्धन दृढ़ हो जाता है और वे बारबार मरते और जन्म लेते हैं तथा इस घोर दुःख को सुख समझते हैं । भगवान् जाने उन्हें इन घोर दुखों को देखकर भी कैसे सन्तोष होता है ?

भगवान शंकराचार्य कहते हैं -
यावज्जनं तावन्मरणं, तावज्जननि जठरे शयनं।
इति संसारे स्फुटतर दोषः, कथमिह मानव ! तव सन्तोषः?।।

जब तक जन्म ग्रहण करना है, तब तक मरना और माता के पेट में सोना है । संसार में यह दोष स्पष्ट है । हे मनुष्य ! फिर भी तुझे इस जगत में कैसे सन्तोष है ?

रोज़ आँखों से देखते हैं कि इस संसार में ज़रा भी सुख नहीं है । माता के पेट में प्राणी नौ महीने तक घोर नरक-कुण्ड में पड़ा पड़ा सड़ता है । वहां परमात्मा से बारम्बार विनय करता है कि मुझे इस नरक से बाहर कीजिये । मैं बाहर जाते ही केवल आपका भजन करूँगा; पर बाहर आते ही वह सब भूल जाता है । उसे अपने वादे का ध्यान भी नहीं रहता । बाल्यावस्था वह खेल-कूद या पढ़ने-लिखने में गवां देता है; तरुणावस्था में वह तरुणी के फन्दे में फंसा रहता है और बुढ़ापे में नाती-पोतों और दोहितों का सुख देखना चाहता है । इसी तरह उसकी सारी उम्र बीत जाती है और जिस काम के लिए वह यहाँ आया था, वह काम अधूरा या बिना हुआ रह जाता है और समय पूरा होने पर, काल छोटी पकड़ कर ले जाता है । इसके बाद, वह फिर जन्म लेता और मरता है । इस तरह उसे ८४ लक्ष योनियों में जन्म लेना पड़ता है; तब कहीं फिर ऐसा अवसर उसे मिलता है; यानी जन्म-मरण की फांसी काटने वाली मनुष्य-देह मिलती है । अतः ज्ञानी को चाहिए कि अपने मन को अपने अधीन करे और एकाग्र चित्त से परमत्मा की उपासना में लवलीन हो जाय । इस दुर्लभ मनुष्य-देह को वृथा न गवाएं ।

महात्मा चरणदास ने यही सब मोह-मदिरा का नशा उतरनेवाली और गफलत को दूर करनेवाली बातें नीचे के भजन में बड़ी ही खूबी से अदा की हैं - 
भजन (राग जंगला)
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पीले रे प्याला हो जा मतवाला, प्याला प्रेम हरिरस का रे ।।टेक।।
पाप-पुण्य दोउ भुगतन आये, कौन तेरा और तू किसका रे?।
जो दम जीवे प्रभु के गुण गाले, धन यौवन सुपना निश का रे।।
बाल अवस्था खेल गवाँई, तरुण भय नारी-बश का रे।
वृद्ध भय कफ बाय ने घेरा, खाट परा नहिं जाय मसका रे।।
नाभ-कमल बिच है कस्तूरी, कैसे भरम मिटे पशु का रे।
मन सतगुरु यों भरमत डोले, जैसे मिरग फिरै बन का रे।।
लाख चौरासी से उबरा चाहे, छोड़ कामिनी का चसका रे।
प्रेम लगन "चरणदास" कहत है, नखसिख स्वास भरा विष का रे।।

बुढ़ापे में तो मोक्ष रुपी सोना बना लो
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मनुष्य की आयु फूटे घड़े के जल की तरह नित्य निकली जा रही है । प्राणी हर क्षण काल के गाल में है । जब तक वह काल के गाल के नीचे नहीं उतरता, तभी तक खैर है । पर मज़ा यह कि मनुष्य आप काल के गाल में है; तोभी विषयों का पीछा नहीं छोड़ता । इसकी दशा उस मेंढक के समान है, जो सांप के मुंह में फंसा हुआ मछरों को मारने की चेष्टा करता था । मनुष्य नित्य देखता है कि करोड़पति, अरबपति और राजा महाराजा अपनी धन-दौलत को यहीं छोड़-छोड़ कर चले जा रहे हैं; फिर भी उसे होश नहीं होता ! भला इस बेहोशी और गफलत का भी कोई ठिकाना है ! बचपन और जवानी में ही परमात्मा से प्रीति करनी चाहिए । अगर उन अवस्थाओं में भूल हो गयी हो; तो बुढ़ापे में तो अवश्य ही सम्भल जाना चाहिए । यह काया पारसमणि है । यह इसलिए मिली है कि इससे मोक्षरूपी सोना बना लिया जाय । जो लोग देर करते हैं, अवधि बीतने पर, यह पारसमणि उनसे छीन ली जाती है और वे मोक्षरूपी सोना नहीं बना पाते; यानी मोक्षलाभ के उपाय करने के पहले ही काल उन्हें ले जाता है ।

पारस पत्थर की बटिया
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एक महापुरुष के पास पारस पत्थर की बटिया थी । उन्होंने एक दरिद्र गृहस्थ पर दया कर उसे वह बटिया दे दी और कह दिया कि हम तीर्थ करने जा रहे हैं; १८ महीने बाद लौटेंगे; तब तक तुम इस बटिया से इच्छानुसार सोना बनाकर अपना दारिद्र दूर कर लेना । महात्मा चले गए । गृहस्थ ने बाजार में जाकर लोहे का भाव पूछा । भाव महंगा था, इसलिए सोचा कि जब लोहा सस्ता होगा, लाकर झट सोना बना लूँगा । इस तरह १८ महीनों में जब दो चार दिन रह गए, तब वह लोहा गाड़ियों पर लादकर लाया । विचार किया - "अब क्या देर है, झट सोना बना लेंगे।" उसे तो ख्याल रहा नहीं और १८ मास का आखिरी दिन आ गया । महात्मा भी आ गए । उन्होंने आते ही अपनी पारसमणि मांगी । गृहस्थ ने कहा - "मैं आज शाम को ही आप की बटिया दे दूंगा।" महात्मा ने कहा - "अब समय हो गया; एक क्षण भी बटिया तुम्हारे पास नहीं रह सकती ।" महात्मा ने बटिया ले ली । गृहस्थ रोटा और हाथ मलता रह गया । यह दृष्टान्त है । दृष्टान्त यह है कि समय पूरा हो जाने पर काल इस बात की प्रतीक्षा नहीं करता कि किसी का समय हुआ है कि नहीं; वह तो प्राणी को लेकर चलता बनता है; अतः समय रहते मोक्ष का उपाय करना चाहिए । आग लगने पर कुआँ खोदने से कोई लाभ नहीं । बुढ़ापा या मौत का पेशखीमा आया देखकर भी होश न करना भारी नादानी है ।

मनुष्यों ! विषयों को छोड़ो और परलोक बनाने की फ़िक्र करो; क्योंकि काल तुम्हारे सिरों पर उसी तरह मण्डरा रहा है; जिस तरह बाज़ चिड़िया की घात में मण्डराता है ।

महात्मा सुन्दरदास जी ने खूब कहा है -
तू अति गाफिल होय रह्यो शठ,
कुञ्जर ज्यूं कछु शंक न आनै।
माय नहीं तनमें अपनो बल,
मत्त भयो विषय-सुख ठानै।
खोंसत-खात सबै दिन बीतत,
नीत अनीत कछु नहीं जानै।
"सुन्दर" के हरि काल महारिपु,
दन्त उखारी कुम्भस्थल भानै।।
*इस कविता में मनुष्य को हाथी और मौत को सिंह माना है । सिंह जिस तरह हाथी के दाँत उखाड़ कर उसके कुम्भस्थल को चीर डालता है; उसी तरह काल-सिंह मनुष्य को मार डालता है । (हाथी की पेशानी के ऊपरी भाग में, सामने ही, जो दो गोले होते हैं । उन्हें "कुम्भस्थल" कहते हैं ।

अरे शठ ! तू बहुत ही गाफिल और असावधान हो रहा है । हाथी की तरह मन में भय नहीं करता । तेरे शरीर में तेरा बल नहीं समाता । मतवाला होकर विषय-भोगों का आनन्द लूट रहा है । छीनते और खाते तेरे दिन बीते जा रहे हैं । तू न्याय-अन्याय, कुछ नहीं समझता । "सुन्दरदास" कहते हैं, घोर शत्रु कालरुपी सिंह तेरे दांतों को उखाड़ कर तेरा कुम्भस्थल फाड़ देगा ।

(२)
सन्त सदा उपदेश बतावत,
केश सबै सर श्वेत भये हैं ।
तू ममता अजहुँ नहीं छाँड़त,
मौतहु आयी सन्देश दये हैं ।
आजु कि कल चलै उठी मूरख,
तेरे हि देखत केते गए हैं ।
"सुन्दर" क्यूँ नहीं राम सँभारत ?
या जगहू में कौन रहे हैं?।।

सन्त लोग सदा उपदेश देते हैं । तेरे सर के बाल सफ़ेद हो गए हैं; मौत ने अपना सन्देश भेज दिया है । अरे मूर्ख ! आज या कल तू उठ जाएगा । पर अफ़सोस ! इतनी खबर पाने पर भी तू होश नहीं करता और अब तक भी ममता नहीं छोड़ता ! अरे शठ ! तेरी आँखों के सामने, देखते देखते कितने ही चले गए; क्या तू यहीं रहेगा ? इस जगत में कौन रहा है ? अब भी तू भगवन को क्यों नहीं याद करता ?

(३)
करत करत धन्ध, कछु न जाने अन्ध।
आवत निकट दिन, अगले चपाकदे।।
जैसे बाज़ तीतर कुं, दावत है अचानक।
जैसे बक मछरी कुं, लीलट लपाकदे।।
जैसे मक्षिका की घात, मकरी करत आय।
जैसे सांप मूसक कुं, ग्रस्त गपाकदे।।
चेत रे अचेत नर, "सुन्दर" सँभार राम।
ऐसे तांहि काल आय, लेइगो टपाकदे।।

अरे अन्धे ! धन्धों में लगकर तुझे होश नहीं, तेरे अन्तिम दिन शीघ्र शीघ्र नज़दीक आ रहे हैं । जिस तरह बाज़ अचानक आकर तीतर को दबा लेता है, जिस तरह बगुला मछली को चट से निगल जाता है, जिस तरह मकड़ी, मक्खी की घात में लगी रहती है, जिस तरह सांप चूहे को गप से गपक लेता है; उसी तरह काल तुझ पर झपट्टा मारना ही चाहता है । अरे गाफिल मनुष्य ! होशकर और भगवान् को याद कर ।

(४)
मेरो देह, मेरो गेह, मेरो परिवार सब।
मेरो धन-माल, मैं तो बहु विधि भारो हूँ।।
मेरे सब सेवक, हुकम कोउ मेटे नाहिं।
मेरी युवती को मैं तो अधिक पियारो हूँ।।
मेरो वंश ऊंचो, मेरे बाप-दादा ऐसे भये।
करत बड़ाई, मैं तो जगत उजारो हूँ।।
"सुन्दर" कहत, मेरो मेरो करि जानै शठ।
ऐसे नहिं जाने, मैं तो काल ही को चारो हूँ।।

यह मेरी देह है, यह मेरा घर है, यह सब मेरा कुटुम्ब है, या मेरा धन-माल है, मैं हर तरह से बड़ा आदमी हूँ । मेरे सब नौकर हैं, जो मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करते । मैं अपनी युवती का बहुत ही प्यारा हूँ; मेरा कुल और वंश ऊंचा है; मेरे बाप-दादा ऐसे नामी हुए; मैं जगत का उजियारा हूँ; इस तरह मनुष्य अपनी बड़ाई करता और शेखी बघारता है । "सुन्दरदास" कहते हैं, शठ मेरा ही मेरा करता है पर यह नहीं जानता कि मैं स्वयं मौत का चारा हूँ ।

(५)
माया जोरि जोरि, नर राखत जतन करि।
कहत है एक दिन, मेरे काम आइ है।।
तोहि तौ मरत, कछु बेर नहीं लागे शठ।
देखत ही देखत, बबूला सो बिलाई है।।
धन तो धरयो ही रहे, चालत न कौड़ी गहै।
रीते हाथन से जैसो आयो, तैसो ही जाइ है।।
करिले सुकृत, यह बेरिया न आवै फेरि।
"सुन्दर" कहत नर पुनि पछताई है।।

मनुष्य धन जोड़-जोड़ कर रखता है और कहता है कि यह एक दिन मेरे काम आएगा । अरे मूर्ख ! तुझे तो मरते देर न लगेगी; देखते देखते पानी के बबूले की तरह, बिलाय जाएगा । तेरा धन, यहाँ का यहीं रक्खा रह जायेगा; चलते समय कौड़ी भी तू साथ न ले जाएगा; जिस तरह रीते हाथों आया था, उसी तरह खाली हाथों चला जाएगा । अरे मूर्ख ! परोपकार या धर्म-पुण्य कर ले, यह मौका फिर न मिलेगा । "सुन्दरदास जी" कहते हैं, अगर हमारी चेतावनी पर ध्यान न देगा, तो अन्त समय पछ्तावेगा ।

किसी कवी ने मोह-निद्रा में सोनेवाले गाफिल को जगाने और उसे अपने कर्तव्य पर आरूढ़ करने के लिए कैसा अच्छा भजन कहा है -

भजन
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मूरख छाँड़ वृथा अभिमान ।। टेक ।।
औसर बीत चल्यो है तेरो, तू दो दिन को मेहमान ।।
भूप अनेक भये पृथ्वी पर, रूप तेज बलवान ।
कौन बच्यो या काल बली से, मिट गए नामनिशान ।।
धवल धाम धार रथ गज सेना, नारी चन्द्र समान ।
अन्त समाही सबहिं को तज के, जाय बसै समसान ।।
तज सतसङ्ग भ्रमत विषयन में, जा विधि मर्घट-स्वान ।
क्षण भर बैठ सुमिरन न कीनो, जासों होत कल्याण ।।
रे मन मूढ़ ! अन्त मत भटके, मेरो कह्यो अब मान ।
"नारायण" ब्रजराज कुंवर से, बेगि करो पहचान ।।

दोहा
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कुपित सिंहनी ज्यों जरा, कुपित शत्रु ज्यों रोग।
फूटे घट जल ज्यों वयस, तउ अहितयुत लोग ।।


सृजति तावदशेषगुणाकरं पुरुष रत्नमलंकरणं भुवः।
तदपि तत्क्षणभङ्गि करोति चेदहह कष्टमपंडितंताविधेः।। ११० ।

अर्थ:
ब्रह्मा की यह अज्ञानता खटकती है कि वह मनुष्य को गुणों की खान, पृथ्वी का भूषण और प्राणियों में रत्नरूप बनता है; किन्तु उसे क्षणभंगुर कर देता है ।
मनुष्य, समस्त जीवधारियों में श्रेष्ठ, अशरफुल, मख़लूक़ात, गुणों का सागर और सृष्टि की शोभा है । यह सब होने पर भी, उसकी उम्र कुछ नहीं; वह पानी के बुलबुले की तरह क्षणभर में नाश हो जाता है ! ब्रह्मा गुणों की खान - पृथ्वी के शोभारूप पुरुष को बनता है, यह तो अच्छी बात है; किन्तु उसे क्षणभर में ही नाश कर देता है, यह दुःख की बात है ! यह विधाता की मूर्खता है ! यदि वह पुरुष को सदा रहनेवाला  - अमर और अजर बनता, तो अच्छा होता । इसमें उसकी बुद्दिमत्ता दीखती । क्योंकि अपने बाग़ में आप ही वृक्ष लगा कर, आप ही जल से सींच कर और बढाकर, अपने ही हाथों से अपने लगाए हुए वृक्ष को कोई नहीं काटता । जो ऐसा करता है; वह मूर्ख ही समझा जाता है ।

विधाता की और भी गलतियां
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इस सृष्टि की रचना में, विधाता ने अपनी अनुपम कारीगरी और चातुरी के जो काम किये हैं; उन्हें देखकर मनुष्य की अक्ल दंग रह जाती है । तरह-तरह के फल-फूल और वृक्ष लता पत्रादि; नाना प्रकार के जल, थल और आकाश में विचरने वाले प्राणी; अनगिनत तारे और सूरज-चन्द्रमा तथा नीलगगन प्रभृति को देखकर रचयिता की रचनाचातुरी की हज़ार दिल से तारीफ करनी पड़ती है । निस्सन्देह, विधाता की क्षमता और बुद्धिमत्ता, चतुरी और कारीगरी का पार पाना असंभव है; तथापि यह कहना पड़ता है कि, उस चतुर कारीगर ने भूलें भी बहुत कि हैं । जिस तरह उसने मनुष्य को, सृष्टि का सरदार बनाकर, क्षणभंगुर करने की भूल की है; उसी तरह उसने सोने में सुगन्ध और ईख में फूल न लगाने तथा चन्द्रमा को कलंकी बनाने की भूलें की हैं ।

किसी ने कहा है -
शशिनि खलु कलङ्कः, कण्टक पद्मनाले,
युवतिकुचनिपात, पक्वता केशजाले।
जलधिजलमपेयं, पण्डिते निर्धनत्वं,
वयसि धनविवेको, निर्विवेको विधाता।।

चन्द्रमा में कलङ्क, कमल की डण्डी में काँटे, युवतियों की छातियों का गिर जाना, बालों का सफ़ेद हो जाना, समुद्र के जल का पीने योग्य न होना, विद्वानों का धनहीन रहना और बुढ़ापे में धनागम की चिन्ता रहना - ये सब विधाता की मूर्खता का परिचय देते हैं ।


कहाँ तक कहें, विधाता ने ऐसी-ऐसी अनेक भूलें की हैं । हमने उसकी भूलों के चन्द नमूने यहाँ दिखा दिए हैं । ये सब भूलें मन में काँटे की तरह खटकती हैं; पर इन सब में भी, मनुष्य जैसे प्राणी का, क्षणभर में ही, बबूले की तरह बिलाय जाना सब से अधिक खटकता है ।



गात्रं संकुचितं गतिर्विगलिता भ्रष्टा च दन्तावलिः-
दृष्टिर्नश्यति वर्धते बधिरता वक्त्रं च लालायते ।
वाक्यं नाद्रियते च बान्धवजनो भार्या न शुश्रूषते
हा कष्टं पुरुषस्य जीर्णवयसः पुत्रोप्यमित्रायते ।। १११ ।।

अर्थ:

मनुष्य की वृद्धावस्था बड़ी खेदजनक है । इस अवस्था में शरीर सुकड़ जाता है, चाल मन्दी पद जाती है, दन्त-पंक्ति टूटकर गिर जाती है, दृष्टी नाश हो जाती है, बहरापन बढ़ जाता है, मुंह से लार टपकती है, बन्धुवर्ग बातों से भी सम्मान नहीं करते, स्त्री भी सेवा नहीं करती और पुत्र भी शत्रु हो जाते हैं ।

बुढ़ापे का चित्र

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मनुष्य का बुढ़ापा सचमुच ही दुखों की खान है । जिस तरह शत्रु घात लगाए रहते हैं और मौका पाते ही हमला करते हैं; वैसे ही रोग जवानी में तो दबे-छिपे पड़े रहते हैं, पर बुढ़ापे की अवायी देखते ही प्रणिपार चढ़ बैठते हैं । बुढ़ापे में शरीर निकम्मा हो जाता है, खाल झूलने लगती है, इन्द्रियां बेकाम हो जाती हैं, आँखों से दिखाई नहीं देता, कानो से सुनाई नहीं देता, पैरों से चला नहीं जाता और दम चढ़ा करता है । हर समय खों-खों लगी रहती है; दांत अलग ही कष्ट देते और हिल हिल कर प्राण लेते हैं । कोई कड़ी चीज़ खाई नहीं जाती । ज़रा भी कड़ी चीज़ दांतों-टेल आने से दम निकलने लगता है । जिस समय दन्त-पीड़ा के मारे माथा और कनपटी भन्नाने लगते हैं, तब मनुष्य मृत्यु को याद करने लगता है । 

दांतो पर उस्ताद ज़ौक़ ने खूब कहा है :-

जिन दांतों से हँसते थे हमेशा, खिल-खिल।
अब दर्द से हैं वही रुलाते, हिल-हिल।।
पीरी में कहाँ, अब वह जवानी के मज़े।
ए ज़ौक़, बुढ़ापे से हैं दांता किल-किल।।

जिन दांतो से जवानी में खिल खिलाकर हंसा करते थे, अब बुढ़ापे में वही हिल हिल कर हमें रुलाते हैं । ए ज़ौक़ ! बुढ़ापे में अब वह जवानी के मज़े कहाँ हैं ? अब तो इस बुढ़ापे से दांता किल-किल है !


महाकवि नज़ीर अकबराबादी "बुढ़ापे" का क्या ही अच्छा चित्र खींचते हैं -

बुढ़ापा
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क्या कहर है यारों, जिसे आ जाय बुढ़ापा।
और ऐश जवानी के तई, खाय बुढ़ापा।।
इशरत को मिला ख़ाक में, गम लाय बुढ़ापा।
हर काम को हर बात को, तरसाय बुढ़ापा।।
सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।
आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।

आगे तो परीजाद ये, रखते थे हमें घेर।

आते थे चले आप, जो लगती थी ज़रा देर।।
सो आके बुढ़ापे ने किया, है ये अन्धेर।
जो दौड़ के मिलते थे, वो अब लेते हैं मुंह फेर।।
सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।
आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाये बुढ़ापा।।

क्या यारो, उलट है गया हमसे ज़माना।

जो शोख कि थे, अपनी निगाहों के निशाना।।
छेड़े है कोई डाल के, दादा का बहाना।
हंस कर कोई कहता है, कहाँ जाते हो नाना।।
सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।
आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।

पूछैं जिसे कहता है, वो क्या पूंछे है बुड्ढे।

आवें तो ये गुल-शोर; कहाँ आवे है बुड्ढे।।
बैठे तो ये है धूम, कहाँ बैठे है बुड्ढे।
देखें जिसे वह कहता है, क्या देखे है बुड्ढे।।
सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।
आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।

वह जोश नहीं, जिसके कोई खौफ से दहले।

वह ज़ोम नहीं, जिससे कोई बात को सहले।।
जब फस हुए हाथ, थके पाँव भी पहिले।
फिर जिसके जो कुछ शौक में आवे, सोइ कहले।।
सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।
आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।

करते थे जवानी में, तो सब आपसे आ चाह।

और हुस्न दिखाते थे, वह सब आन के दिलख़्वाह।।
यह कहर बुढ़ापे ने किया, आह नज़ीर आह ! 
अब कोई नहीं पूछता, अल्लाह ही अल्लाह।।
सब चीज़ को होता है, बुरा है बुढ़ापा।
आशिक को तो अल्लाह, न दिखलाय बुढ़ापा।।

बुढ़ापे में निर्धनता मरण है

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यदि मनुष्य जवानी में प्रचुर धन कमाकर रख देता है, तब तो बुढ़ापा सुख से पार हो जाता है; घरवाले हलवा और मोहन-भोग खिलाते, गरमागरम दूध पिलाते अथवा कोई और सुख से खाये जाने योग्य पदार्थ बना देते हैं; यदि पास पैसा नहीं होता, तो सभी घरवाले हर तरह से अनादर करते और सूखे टुकड़े सामने रखते हैं; इच्छा हो बूढ़ा खाय, इच्छा हो न खाय । अगर बूढ़े के पास धन होता है, तो स्त्री, पुत्र, पौत्र और पुत्री तथा पुत्र-वाद्यें हर समय बूढ़े की हाज़िरी में खड़े रहते हैं; मुंह से बात निकलती नहीं और काम हो जाता है । अगर बूढ़े के पास धन नहीं होता, तो सब उसे त्याग देते हैं; क्योंकि यह संसार मतलब का है; बिना स्वार्थ, बिना मतलब और बिना पैसे कोई बात नहीं करता । मतलब से ही लोग एक दुसरे के नातेदार और सम्बन्धी बने हुए हैं; वास्तव में कोई किसी का नहीं है ।

कहा है -

वृक्षं क्षीणफलं त्यज्यन्ति विहगाः, शुष्कसरः सारसाः।
पुष्पं पर्य्युषितं त्यज्यन्ति मधुपा, दग्धं वनान्तं मृगाः।।
निर्द्रव्यं पुरुषं त्यज्यन्ति गणिकाः, भृष्टश्रियं मन्त्रिणः।
सर्व्वः कार्यवशाद् जनोऽभिरमते, कस्यास्तिको वल्लभः ?।।

फलहीन वृक्ष को पक्षी त्याग देते हैं, सूखे तालाब को सारस छोड़ देते हैं, मधुहीन फूलों को भौंरे त्याग देते हैं, जले हुए वन को हिरन छोड़ देते हैं, धनहीन पुरुष को वेश्या त्याग देती है और श्रीहीन राजा को मन्त्री त्याग देते हैं । सब मतलब से एक दुसरे को चाहते हैं; नहीं तो कौन किसका प्यारा है ?


"मोहमुद्गर" में लिखा है -

यावद् वित्तोपार्जनशक्तः, तावन्निजपरिवारो रक्तः।
तदनु च जरया जर्जर देहे, वार्तां कोऽपि न पृच्छति गेहे।।

जब तक धन कमाने की सामर्थ्य रहती है, तब तक कुटुम्ब के लोग राज़ी रहते हैं; इसके बाद, बुढ़ापे से शरीर जर्जर होते ही कोई बात तक नहीं पूछता।

संसार की यही धरा है । जिस पुत्र के लिए बचपन में कहीं से धन लाते और उसे अच्छा पिलाते-खिलाते और पहनाते थे, हर तरह लाड-प्यार करते थे; पास पैसा न होने पर भी, पढ़ाने-लिखाने में अपनी शक्ति से अधिक खर्च करते थे; आप तंगी भोगते थे, पर पुत्र को तंगदस्त न होने देते थे; आप फाटे कपडे पहने फिरते थे; पर उसे अच्छे से अच्छा पहनाते थे; अब वही पुत्र मुंह से नहीं बोलता, मौका पड़ने से वह या उसके पुत्र गालियां देते और कभी कभी बूढ़े को मार तक बैठते हैं; पुत्र-वधुएं दिन-भर टनटनाया करती और कहती हैं - "ससुरजी मारें तो संकट कटे; दिन-भर पड़े पड़े खाते और थूक-थूक कर घर ख़राब करते हैं; हमसे तो रोज़ रोज़ मैला साफ़ नहीं होता।" बेटों की बहुएं तो बहुएं, ख़ास अपनी अर्धाङ्गी देखते ही आँखें चढ़ा लेती और खाऊँ-खाऊँ करती रहती है; बूढ़े पति को आलिङ्गन करना, उसकी सेवा करना तो दूर की बात है, उसे पास बैठना भी बुरा समझती है । बीमारी में सेवा-सुश्रुषा करती-करती कहने लगती है - "अब तो तुम मर जाओ तो अच्छा हो । मुझसे यह सब अब नहीं होता ।" कहाँ तक गिनाव, बुढ़ापे में ऐसे-ऐसे अनगिन्तो दुःख आ घेरते हैं; पर आश्चर्य तो यह है कि, इतने पर भी, अज्ञानियों का मोह नहीं छूटता । हमें एक मोहान्ध बूढ़े की की कहानी याद आयी है, उससे पाठकों को बहुत कुछ ज्ञान होता - उनकी आँखें खुल जाएंगी -

एक बूढ़े सेठ की दुर्दशा

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किसी नगर में एक बूढ़ा सेठ रहता था । उसने जवानी में बहुत सा धन सञ्चय किया था । बुढ़ापे में पुत्रों ने सारा धन उससे अपने हाथोने में ले लिया । बूढ़े को पौली में एक टूटी सी चारपाई पर, एक फटी-पुरानी गुदडी बिछाकर पटक दिया । एक लाठी उसके हाथ में दे दी और कह दिया कि घर में चोर-चकोर या कुत्ता-बिल्ली न आने पावे। सब घर के भोजन कर लेने पर बचा खुचा खाना एक फूटी सी थाली में रखकर बाह्यें बूढ़े को दे जातीं । कुछ दिन इस तरह गुज़रे । पुत्र-वधुओं को यह भी अच्छा न लगा । उन्होंने कहा - "ससुरजी के कारण निकलने-बैठने में बार-बार घूंघट करना होता है, इससे बड़ा कष्ट होता है । अच्छा हो अगर ऊपर के चौबारे में रख दिए जाएँ और एक घण्टी इन्हें दे दी जाय । जब इन्हें किसी चीज़ की जरुरत होगी, यह घण्टी बजा देंगे ।" कलियुग में जोरू का हुक्म खुदा के हुक्म के बराबर समझा जाता है । बेटों ने अपनी घरवालियों की बात मंजूर कर ली और कह-सुन कर बूढ़े को ऊपर पहुंचा दिया और एक घण्टी उसे दे दी । बूढ़े को जब खाना या पानी वगैरह की जरुरत होती, घण्टी बजा देता । कुछ दिनों बाद एक दिन, बूढ़े का नाती ऊपर चला गया । बूढ़ा उसे खिलता रहा । शेष में, वह खेलता-खेलता घण्टी ले आया । अब तो मुश्किल हो गयी; बूढ़ा खाये-पिए बिना मर गया । २४ घण्टे बीतने पर किसी को उसकी याद आयी । देख, तो बुधिराम कूच कर गए थे । पुत्रों ने उसे श्मशान पर ले जाकर जला दिया । बुढ़ापे में ऐसी ही दुर्गति होती है ।

बुढ़ापे में ममता और भी बढ़ जाती है

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एक बूढ़ा अपने मकान की पौली में पड़ा रहता था । कोई उसकी बात न पूछता था । बेचारा ज्यों त्यों करके दिन काटता था । एक दिन उसका पोता उसे मारने और गाली देने लगा । बूढ़ा भी उसे गाली देने लगा । इतने में नारदजी उधर से आ निकले । उन्होंने बूढ़े से सारा हाल पूछा । उसकी दुर्दशा का हाल सुनकर, नारद जी ने उससे कहा - "तुम्हारा जीवन वृथा है । तुम या तो वन में जाकर तप करो या हमारे साथ स्वर्ग को चलो ।" सुनते ही बूढ़ा लाल हो गया और बोलै - "महाराज ! अपनी राह लीजिये । मेरे नाती-बेटे मुझे मारें चाहें गाली दें, आप काज़ी या मुल्ला ? मैं इन्हीं में खुश हूँ ।" नारदजी संसार की मोह-ममता देखकर दंग रह गए । बात यह है कि, अज्ञानी लोगों कि तृष्णा और ममता बुढ़ापे में और भी बढ़ जाती है । वे हज़ारों तरह के कष्ट सहते और अपमानित होते हैं; पर गृहस्थाश्रम को नहीं त्यागते । इसी मिथ्या और स्वार्थपर संसार कि हाय-हाय में एक दिन मर जाते और ममता के कारण बार-बार जन्म लेते और मरते हैं । इस तरह उनके जन्म-मरण का चक्र घूमा ही करता है ।

मोह त्यागने में ही भलाई है

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मोह-ममता ही संसार-बन्धन का कारण है । ज्ञानी समझते हैं कि यहाँ कोई किसी का नहीं है । सभी सराय के मुसाफिर हैं । राह चलते-चलते एक जगह एकत्र हो गए हैं । अपना-सपना समय होने पर, अपनी-अपनी राह लगते हैं । न कोई किसी कि स्त्री है और न कोई किसी का पति है; न कोई किसी का पुत्र है और न पिता; न कोई किसी का भतीजा है और न चाचा प्रभृति । स्वार्थ की जञ्जीर में सब बन्धे हुए हैं । फिर इन स्वार्थियों का साथ भी सदा-सर्वदा को नहीं । आज साथ हैं, तो कल अलग हो जाएंगे । जन्म के साथ मृत्यु निश्चित है और संयोग के साथ वियोग अटल है । जब पुरुष का स्त्री से वियोग होता है, तब उसको बड़ा कष्ट और शोक होता है । इसी तरह पुत्र के मरने पर भी महा शोक होता है । पर जो ज्ञानी हैं , तत्त्ववेत्ता हैं, वे इस जगत के नातों की असलियत को जानते हैं; अतः या तो वे गृहस्थी को तज देते हैं या कुटुम्बियों में रहते हुए भी उनमें मोह-ममता नहीं रकते । जो परिवार में रहते हुए भी, परिवार में मोह-ममता नहीं रखते, वे जीवन्मुक्त हैं । धन्य हैं ऐसे नररत्न ! 

एक निर्मोही राजा की कहानी सुनने और ध्यान देने योग्य है -


निर्मोही राजा

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किसी नगर में एक ज्ञानी राजा था । उसे सब निर्मोही कहते थे । एक दिन उसका राजकुमार बन में शिकार खेलने गया । उसे प्यास ज़ोर से लगी । पानी की खोज में, वह एक मुनि के आश्रम में जा पहुंचा । मुनि ने उसे जल पिलाया और पूछा - "आप किसके पुत्र हैं ?" लड़के ने कहा - "मैं निर्मोही राजा का पुत्र हूँ ।" महात्मा ने कहा - "राजकुमार ! एक ही मनुष्य निर्मोही भी हो और साथ ही राजा भी हो, यह नितान्त असंभव है । जो राजा होगा, वह निर्मोही न होगा और जो निर्मोही होगा, वह राजा न होगा ।" राजकुमार ने कहा - "यदि आपको विश्वास नहीं आता; तो आप जाकर परीक्षा कर लीजिये ।" मुनि ने कहा - "अच्छा, हम नगर में जाते हैं । जब तक हम न लौटें, तब तक आप यहीं ठहरें ।" यह कहकर मुनि महाराज नगर को चले गए और राजभवन के द्वार पर जा पहुंचे । द्वार पर उन्हें एक दासी कड़ी मिली ।
मुनि ने दासी से कहा:
तू सुन चेरी श्याम की, बात सुनावौं तोहि ।
कुंवर विनास्यौ सिंह ने, आसान परयौ मोहि ।।

दासी ने जवाब दिया:

ना मैं चेरी श्याम की, नहि कोई मेरो श्याम ।
प्रारब्धवश मेल यह, सुनो ऋषि अभिराम ।।

इसके बाद ऋषि आगे चले, तो उन्हें राजकुमार की स्त्री मिली । उससे उन्होंने कहा -

।। दोहा ।।
तू सुन चातुर सुन्दरी, अबला यौवनवान ।
देवीवाहन दलमल्यौ, तुम्हरो श्रीभगवान ।।

स्त्री ने जवाब दिया:

।। दोहा ।।
तपिया पूरब जनम की, क्या जानत हैं लोक ।
मिले कर्मवश आन हम, अब विधि कीन वियोग ।।

इसके बाद ऋषि ने राजकुमार की माता से मिलना चाहा । वे रानी के पास जा पहुंचे और उससे मिलकर उन्होंने कहा -

।। दोहा ।।
रानी तुमको विपत्ति अति, सूत खायो मृगराज ।
हमने भोजन न कियो, तिसी मृतक के काज ।।

रानी ने जवाब दिया:

।। दोहा ।।
एक वृक्ष डालें घनी, पंछी बैठे आय ।
यह पाटी पीरी भई, उड़ उड़ चहुँ दिशि जाएँ ।।

इसके बाद ऋषि राज-दरबार में गए और राजा से मिले । कुशल-प्रश्न होने के बाद ऋषि ने कहा -

।। दोहा ।।
राजा मुखत में राम कहु, पल-पल जात घडी ।
सुत खायो मृगराज ने, मेरे पास खड़ी ।।

राजा ने जवाब दिया:

।। दोहा ।।
तपिया तप क्यों छांडियो, इहाँ पालक नहि सोग ।
वासा जगत सराय का, सभी मुसाफिर लोग ।।

राजा का जवाब सुनते ही ऋषि को विश्वास हो गया कि, राजा ही नहीं, राजा और राजा का सारा कुटुम्ब निर्मोही है ।


मनुष्य को प्रथम तो गृहस्थाश्रम में रहना ही नहीं चाहिए और यदि रहे भी, तो निर्मोही राजा कि तरह मोह त्याग कर रहे । ममता त्याग कर गृहस्थी में रहने से, मनुष्य भवबंधन में नहीं बांधता और संसार के दुःख-क्लेश उसे संतप्त नहीं कर सकते । ऐसे ज्ञानी को जीवन्मुक्त कहते हैं ।


पर हम देखते हैं कि बुढ़ापे में मनुष्य कि आशा-तृष्णा और भी बढ़ जाती है । बूढ़ा रात-दिन अपने बेटे-पोतों और दोहितों की चिन्ता में ही मग्न रहता है । आप मरने के किनारे बैठा रहता है; तोभी पुत्र-पौत्रों के लिए धन की चिन्ता किया करता है । उसे काम से काम इस चला चली की अवस्था में तो परमात्मा का भजन करना चाहिए; पर बूढ़े से यह नहीं होता । 


शंकराचार्य कृत "मोहमुद्गर" में लिखा है -

बालस्तावत् क्रीड़ासक्तः, तरुणस्तावत् तरूणीरक्तः।
वृद्धस्तावत् चिंतामग्नः, परमे ब्रह्मणि कोऽपि न लग्नः।।

बचपन में मनुष्य खेल-कूद में लगा रहता है, जवानी में युवती स्त्री में आसक्त रहता है और बुढ़ापे में चिन्ता फ़िक्रों में डूबा रहता है; लेकिन परम ब्रह्म की चिन्तना में कोई नहीं लगा रहता ।


शोक चिन्ता करना वृथा है

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शोक चिन्ता करना वृथा और नाशमान है । यहाँ कोई किसी का नहीं फिर वृथा शोच-फ़िक्र में अपनी दुर्लभ मनुष्य-देह को नाश करना और जिस काम के लिए जगत में आये हैं, उस काम की ओर ध्यान न देना, सचमुच ही भारी नादानी है । पुत्र मर गया तो क्या ? स्त्री मर गयी तो क्या ? धन चला गया तो क्या ? जिस तरह स्त्री-पुत्र, मित्र-यार प्रभृति चले गए; मर गए; उसी तरह हम भी एक दिन मर जाएंगे; फिर शोच किसका ? यदि वे चले जाते और हम सदा बने रहते; तो भी शोच सकते थे; पर जब सभी को जाना है तो कौन किसका शोच करे ? 

कहा है -
अष्टकुलाचलसप्तसमुद्राः ब्रह्म-पुरन्दर-दिनकर-रुद्राः।
न त्वं नाहं नायं लोकः, तदपि किमर्थं क्रियते शोकः ।।

हिमाचल और विंध्याचल प्रभृति आठ पर्वत, सातों समुद्र, ब्रह्मा, इन्द्र, सूर्य और रूद्र सभी अनित्य और नाशमान हैं । न तू, न मैं और न यह लोक स्थायी है; तो फिर शोक किस लिए किया जाता है ?

मृत्यु से डरने और घबराने की जरुरत नहीं
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जब तक मनुष्य को शरीर और शरीरी अथवा देह और आत्मा के अलग-अलग होने का ज्ञान नहीं होता, तब तक वह इस बात को नहीं समझता कि आत्मा, अमर,अविनाशी, नित्य और शाश्वत है; वह कभी नहीं मरता, उसे जल डूबा नहीं सकता, आग जला नहीं सकती, हवा सोख नहीं सकती, तलवार-बन्दूक प्रभृति मार नहीं सकती, तभी तक वह डरता और घबराता है । यह शरीर नाश होता है, आत्मा नहीं; मरना, एक कपडा उतारकर दूसरा पहनना है; शरीर आत्मा के ठहरने की धर्मशाला मात्र है; अगर यह धर्मशाला टूट जायेगी तो आत्मा दूसरी में जा रहेगा - ऐसा ज्ञान होते ही, मनुष्य के मन में भय और भावना नहीं रहती । दुःख सुख का सम्बन्ध शरीर से है, आत्मा से नहीं; आत्मा को दुःख सुख नहीं व्यापते, क्योंकि वह निराकार है - ऐसा ज्ञान होते ही, दुःख आप से आप भाग जाते हैं - हाँ मौत की याद हरदम रखनी चाहिए, क्योंकि मौत को याद रखने से पाप नहीं होते और परमात्मा की शरण में शांति लाभ करना ही अच्छा मालूम होता है; पर मौत से डरना कभी न चाहिए । जो शरीर और आत्मा में भेद नहीं समझते, वे ही मौत के नाम से काँप उठते हैं; किन्तु जो शरीर और आत्मा को जुदा-जुदा समझते हैं, जीवन में कभी पाप नहीं करते, सदा पराया भला करते और परमात्मा को हर क्षण याद करते हैं, वे हँसते-हँसते चोला छोड़ देते हैं । भीष्म-पितामह कई दिनों तक शरशय्या पर लेटे रहे उन्हें ज़रा भी कष्ट न मालूम हुआ । अन्तिम दिन उन्होंने जगदीश को याद करते करते, नश्वर चोला हँसते-हँसते त्याग दिया । 

भीष्म-पितामह आत्मतत्त्व को पूर्वतया जानने वाले थे । वे जानते थे कि मैं पहले भी था अब वर्त्तमान में भी हूँ और आगे भविष्य में भी इसी तरह रहूँगा । शत्रु मेरा बाल भी बांका नहीं कर सकते । हाँ, वे मेरी इस देह का नाश कर सकते हैं; पर देह का नाश होने से मेरी क्या हानि ? इस देह के नाश होने पर, दूसरी देह, इससे ताज़ा और नई, मुझे मिलेगी । मेरा आत्मा नित्य और अविनाशी है, उसे नाश करनेवाला जगत में कोई भी नहीं ।

गीता में कहा है - 
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि, नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो, न शोषयति मारुतः ।। 23 ।।

अविनाशी तू तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् । 
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ।। १७ ।।

मुझको काटे कहाँ है वह तलवार ।
दाग दे मुझको कहाँ है वह नार ।।
गरम मुझको करे, कहाँ है वह पानी ।
वह में कब ताब, सूखने की ।।
मौत को मौत न आएगी ।
क़सद मेरा जो करके जायेगी ।।

मौत का शोक दूर करने का नुस्खा
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महात्मा बुद्ध के ज़माने में किसी स्त्री का इकलौता पुत्र मर गया । पुत्र-शोक, सब शोकों से भारी होता है; इसलिए वह स्त्री शोकाभिभूत होकर, महात्मा बुद्ध के पास गयी और उनसे लड़के के जिला देने की प्रार्थना की । महात्मा ने कहा - "जिस घर में कोई न मारा हो, उस घर से थोड़े राय के दाने ले आओ । अगर तुम वो दाने ले आई तो हम तुम्हारे पुत्र को ज़िन्दा कर देंगे ।" वह स्त्री घर-घर पूछती फिरी; पर उसे एक भी घर ऐसा न मिला,जिसमें मौत न हुई थी । अतः वह बैरंग वापस आयी और महात्मा से सारा हाल निवेदन कर दिया । सुनते ही महात्मा ने कहा - "मौत प्राणिमात्र के पीछे लगी हुई है; जो जन्मा है वह अवश्य मरेगा । यह संसार नाशमान है । आगे पीछे सब को इस जगत से चल देना है। कोई सदा सर्वदा के लिए यहाँ नहीं आया । इसलिए इसमें शोक की कोई बात नहीं । मूर्ख ही मरे हुए का शोच किया करते हैं, ज्ञानी नहीं । ज्ञानी जानते हैं, कि आत्मा अजर, अमर, नित्य और अविनाशी है; इसी से वे शोच नहीं करते; किन्तु मूर्ख देह को आत्मा समझते हैं; इसी से शोक करते हैं ।" महात्मा का यह उपदेश सुनते ही, स्त्री का शोक दूर हो गया और उसे परम शांति लाभ हुई । 

भगवान् की शरण में ही सुख है
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इस जगत में मनुष्य को किसी भी अवस्था में सुख नहीं है । फिर बुढ़ापा तो हर तरह दुखों की खान ही है । अतः मनुष्य को जवानी में ही, आगे आनेवाले बुढ़ापे का ख्याल करके, विषयों से मन हटा लेना और परिवार वालों के नाम को भी न रखा चाहिए । सामझदार को कम से कम जवानी के उतार में तो घर जञ्जाल त्याग, वन में जा, परमात्मा की भक्ति और उपासना करनी चाहिए । मन बारम्बार दबाने और समझने से से शान्त हो जाता है और धीरे-धीरे रही सही ममता भी छूट जाती है । अभ्यास के कारण, अन्तकाल में भगवत ही मन में रहने से, मनुष्य की मुक्ति भी हो जाती है; यानि आवागमन से पीछा छूट जाता है । परब्रह्म की शरण में चले जाने से जो आनन्द आता है, उसे लिखकर बता नहीं सकते ।
बुढ़ापे का चित्र देखकर, मौत को सिर पर मँडराती समझकर, कुटुम्बियों का नाता झूठा समझकर, विषय-वासनाओं को त्यागकर, पुत्र-कलत्र और धन-दौलत की ममता छोड़कर वैराग्य में मन लगाओ । अच्छा हो यदि शरीर में शक्ति सामर्थ्य होते हुए घर से निकल कर वन में जा बसों और सबसे नाता तोड़ एकमात्र परमात्मा से नाता जोड़ लो । उसका नाता ही सच्चा नाता है; और सब नाते झूठे हैं । उसकी शरण में चले जाने से शोक-ताप सता नहीं सकते । भगवान् को भूलने से ही मनुष्य दुःख भोगता और संसारी शत्रुओं से तंग रहता है; किन्तु जो भगवान् के चरण-कमलों में चला जाता है, उसका कोई अनिष्ट नहीं कर सकता और शोक-ताप तो उससे हज़ार कोस दूर भागते हैं । याद रक्खो, परमात्मा की शरण में चले जाने वाले से काल और यमराज तक भय खाते हैं ऋद्धि सिद्धि तो उसके सामने हाथ बांधे खड़ी रहती हैं ।

भगवान् ने कहा है -
जो समीप आवै शरणाई ।
राखौं ताहि प्राण की नाई ।।

गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं -
कोटि विघ्न संकट विकट, कोटि शत्रु जो साथ।
तुलसी बल नहीं कर सकें, जो सुदृष्टि रघुनाथ।।
राखन हारा साइयाँ, मारि न सकहे कोय ।
बाल न बांका कर सकै, जो जग बैरी होय ।।

बुढ़ापे में जगदीश को याद करो
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बुढ़ापा आ जाने पर भी, जो परलोक बनाने की सुध नहीं करते, स्त्री-पुरुषों की ममता में पड़कर, घर-गृहस्थी के जञ्जाल में फंसकर, उम्र पूरी कर देते हैं, उनकी भयङ्कर हानि और निन्दा होती है । 
कहा है -
मूर्खो द्विजातिः स्थविरो गृहस्थः ।
कामी दरिद्रो, धनवान तपस्वी ।।
वेश्या कुरूपा, नृपतिः कदर्य्यः ।
लोके षडेतानि विडम्बितानि ।।

मूर्ख ब्राह्मण, बूढा गृहस्थ, दरिद्री कामी, धनवान तपस्वी, कुरूपा वेश्या और स्वेच्छाचारी राजा - ये ६ अपना फजीता और लोकनिन्दा करनेवाले हैं ।

जो बुढ़ापे तक भी गर्भावस्था का किया इकरार पूरा नहीं करते, उनको विद्वान् और तत्त्ववेत्ता लोग पुरुष नहीं "नपुंसक" कहते हैं । उनको बारम्बार जन्म लेना और मरना होता है । अतः बुढ़ापे में तो मनुष्य को सब तज कर हर भजन और अपना परलोक सुधारना चाहिए ।

छप्पय
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भयो संकुचित गात, दन्तु उखरि परे महि।
आँखिन दीखत नाहिं, बदन ते लार परत बहि।।
भई चाल बेचाल, हाल बेहाल भयो अति ।
बचन न मानत बन्धु, नारिहु तजि प्रीति गति ।।
यह कष्ट महा दिए वृद्धपन, कछु मुख सों नहिं कहि सकत।
निज पुत्र अनादर कर कहत, यह बूढ़ो यों ही बकत ।।



क्षणं बालो भूत्वा क्षणमपि युवा कामरसिकः
क्षणं वित्तैहीनं क्षणमपि च सम्पूर्णविभवः।
जराजीर्णैरङ्गैर्नट इव क्लीमंडिततनुर्नरः
संसारान्ते विशति यमधानीजवनिकाम्।। ११२ ।।

अर्थ:
मनुष्य नाटक के एक्टर के समान है; जो क्षणभर में बालक, क्षणभर में युवा और कामी रसिया बन जाता है तथा क्षण में दरिद्र और क्षण में धनैश्वर्य-पूर्ण हो जाता है । फिर; अन्त में बुढ़ापे से जीर्ण और सुकड़ी हुई खाल का रूप दिखाकर, यमराज के नगर की ओट में छिप जाता है ।

महाराज भर्तृहरि जी ने मनुष्य का नाटक के स्टेज-एंकर से खूब ही अच्छा मिलान किया है । सचमुच ही मनुष्य नाटक के किरदार सा ही काम करता है ।

मंच पर जिस तरह एक ही कलाकार कभी बालक, कभी जवान, कभी बूढ़ा, कभी धनि, कभी निर्धन, कभी राजा, कभी फ़कीर, कभी साधू, कभी असाधु तथा कभी रोगी और निरोगी, त्यागी और अत्यागी, भोगी और योगी, गृहस्थ और सन्यासी बनकर, तरह-तरह के तमाशे दिखता और शेष में नाटक के परदे के पीछे छिप जाता है; उसी तरह मनुष्य बालक और जवान, धनी और निर्धन प्रभृति के स्वांग भर और दिखाकर, अन्त में जीवन-नाटक का आखिरी सीन - बुढ़ापे का रूप - दिखा कर, यमपुरी-रुपी परदे की ओट में जाकर छिप जाता है; यानि इस दुनिया से कूच कर जाता है ।

छप्पय

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छिन में बालक होत, होत छिनहि में यौवन।
छिन ही में धनवन्त, होत छिन ही में निर्धन।।
होत छिनक में वृद्ध, देह जर्जरता पावत।
नट ज्यों पलटत अंग, स्वांग नित नए दिखावत।।
यह जीव नाच नाना रचत, निचल्यो रहत न एकदम।
करके कनात संसार की, कौतुक निरखत रहत यम।।


अहौ वा हारे वा बलवति रिपौ वा सुहृदि वा
मणौ वा लोष्ठे वा कुसुमशयनेवा दृषदि वा।
तृणे वा स्त्रैणे वा मम समदृशो यान्तु दिवसाः
क्वचितपुण्यारण्ये शिवशिवशिवेति प्रलपतः।। ११३ ।।

अर्थ:
हे परमात्मा ! मेरे शेष दिन, किसी पवित्र वन में, "शिव शिव" रटते हुए बीतें; सर्प और पुश-हार, बलवान शत्रु और मित्र, कोमल पुष्प-शय्या और पत्थर की शिला, मणि और पत्थर, तिनका और सुन्दरी कामिनियों के समूह में मेरी समदृष्टि हो जाय, मेरी यही इच्छा है ।

खुलासा - कोई विरक्त पुरुष परमात्मा से प्रार्थना करता है कि मेरी मति ऐसी कर दे कि, मुझे सर्प और हार, शत्रु और मित्र, पुष्प-शय्या और शिला, रत्न और पत्थर, तिनका और सुन्दरी स्त्री सब एक से दीखने लगें; इनमें मुझे कुछ भेद न मालूम हो; मैं समदर्शी हो जाऊं और मेरा शेष जीवन किसी पवित्र वन में "शिव शिव शिव" जपते बीते।

जब सभी शरीरों में एक ही व्यापक ब्रह्म दीखने लगे; शत्रु-मित्र में भेद न मालूम हो; हर्ष-शोक और दुःख-सुख सब में चित्त एकसा रहे; तब योगसिद्धि हुई समझनी चाहिए ।
कबीरदास कहते हैं -
सदृष्टि सतगुरु करौ, मेरा भरम निकार।
जहाँ देखों तहाँ एक ही, साहब का दीदार।।
समदृष्टि तब जानिये, शीतल समता होय।
सब जीवन कि आत्मा, लखै एकसी सोय।।
समदृष्टि सतगुरु किया, भरम किया सब दूर।
दूजा कोई दिखे नहीं, राम रहा भरपूर।।

यही अवस्था सर्वोत्तम अवस्था है । इसी में परमानन्द है । इस अवशता में शोक और दुःख का नाम भी नहीं है; पर यह अवस्था उन्ही को प्राप्त होती है, जिन पर जगदीश कि कृपा होती है या जिनके पूर्व जन्म के सञ्चित पुण्यों का उदय होता है ।

समदर्शी होने के उपाय
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समदर्शिता ही परमानन्द की सीढ़ी है 
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चित्त की समता ही योग है । जब समान दृष्टी हो गयी, तब योगसिद्धि में बाकी ही क्या रहा ? जब मनुष्य को इस बात का ज्ञान हो जाता है, कि समस्त जगत और जगत के प्राणियों में एक ही चेतन आत्मा है; छोटे बड़े, नीच-उंच सभी शरीरों में एक ही ब्रह्म का प्रकाश है; तब उसकी नज़र में सभी समान हो जाते हैं । जब वह राजा-महराजा, अमीर और गरीब, मनुष्य और पशु-पक्षी, हाथी और चींटी, सर्प और मगर - सब में एक ही चेतन आत्मा को व्यापक देखता है; तब उसके दिल में किसी से राग और किसी से विराग, किसी से विरोध और किसी से प्रणय-भाव रह नहीं जाता; उस समय उसे न कोई शत्रु दीखता है और न कोई मित्र । इस अवस्था में पहुँचने पर, वह न किसी को अपना समझता है, न पराया । इस समय ही उसे स्त्री और पुरुष, दोस्त और दुष्काण, सर्प और पुष्प-हार, सोना और मिट्टी प्रभृति में कोई फर्क नहीं मालूम होता । इस अवस्था में, उसके अन्तःकरण से दुखों का घटाटोप दूर होकर, परमानन्द कि प्राप्ति होती है । उस समय जो आनन्द होता है, उसको कलम से लिखकर बताना कठिन ही नहीं; असंभव है ।

समस्त जगत में एक ही आत्मा व्यापक है ?
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बेशक, सारे जगत में एक ही चेतन आत्मा है । जिस तरह गुलाब-जल से भरे घड़े में, गङ्गाजल से भरे घड़े में, मूत्र से भरे घड़े में और शराब से भरे घड़े में एक ही सूर्य का प्रतिबिम्ब - अक्स पड़ता है, सबमें एक ही सूर्य दीखता है; उसी तरह मनुष्य, पशु-पक्षी और मागत-मैच प्रभृति जगत के सभी प्राणियों में एक ही चेतन ब्रह्म का प्रतिबिम्ब या प्रकाश है । अलग-अलग प्रकार के शरीरों या उपाधियों के कारण, सबमें एक ही आत्मा होने पर भी अलग-अलग दीखते हैं । लेकिन भिन्न-भिन्न शरीरों में भिन्न-भिन्न आत्मायों का होना, अज्ञानियों को ही मालूम होता है; जो सच्चे तत्ववेत्ता और पपूर्ण ज्ञानी हैं अथवा जो आत्मतत्त्व कि तह तक पहुँच गए हैं, उन्हें सभी शरीरों में एक ही आत्मा दीखता है । वे समझते हैं कि, जो आत्मा हम में है, वही समस्त जगत और जगत के प्राणियों में है । बकरी के शरीर में जो आत्मा है, वह बकरी; हाथी के शरीर में जो आत्मा है, वह हाथी और मनुष्य के शरीर में जो आत्मा है, वह मनुष्य कहलाता है । जिन जिन शरीरों में आत्मा प्रवेश कर गया है, उन्ही उन्हीं शरीरों के नाम से वह पुकारा जाता है; शरीरों या उपाधियों का भेद है; आत्मा में कोई भेद नहीं । नदी, तालाब, झील, बावड़ी, झरना, सोता और कुंआ - इन सब में एक ही जल है, पर नाम अलग-अलग है । नाम अलग अलग हैं । एक लोहे के डण्डे पर कपडा लपेट कर जो अग्नि जलाई जाती है, उसे मशाल कहते हैं और एक मिट्टी के दीवले में जो अग्नि जलती है, उसे दीपक कहते हैं । पृथ्वी एक ही है, पर उसके नाम अलग-अलग हैं । किसी को नगर, किसी को गाँव, किसी को ढानी और किसी को घर कहते हैं; पर है तो सब धरती ही । ताना और बाना एक ही सूत के दो नाम हैं; पर है दोनों में ही सूत । वन एक ही है; उस में अनेक वृक्ष हैं और उनके नाम तथा जातियां अलग-अलग हैं । बीज से वृक्ष होता है और वृक्ष से बीज होता है; अतः बीज वृक्ष है और वृक्ष बीज है । दोनों एक ही हैं, पर नाम अलग-अलग हैं । बाप से बीटा पैदा होता है; अतः बाप में और बेटे में एक ही आत्मा है, अतएव बाप बेटा है और बेटा बाप है । बहुत कहना-समझाना वृथा है । निश्चय ही सबमें एक ही चेतन आत्मा है, पर भिन्न-भिन्न प्रकार के शरीरों के कारण नाम अलग-अलग हैं । भ्रम के कारण मनुष्य को असल बात समझ नहीं पड़ती । मृगमरीचिका में जल नहीं है; पर भ्रमवश मनुष्य को जल दीख पड़ता है और वह कपडे उतार कर तैरने को तैयार हो जाता है । रस्सी-रस्सी है, सांप नहीं; पर अँधेरे में वही रस्सी सांप सी दीखती है और मनुष्य डर कर उछालता और भागता है । इसी तरह जब तक मनुष्य के ह्रदय में अज्ञान रुपी अंधकार रहता है, उसे और का और दीखता है । देख और आत्मा अलग़-अलग हैं । देह नाशमान और आत्मा अविनाशी हैं; पर अज्ञानी को, जिसके दिल में अँधेरा है, देह और आत्मा एक मालूम होते हैं तथा शरीर और आत्मा दोनों ही नाशमान जान पड़ते हैं । इसी तरह सब जगत में एक ब्रह्म व्यापक है - शरीर-शरीर में एक ही चेतन आत्मा है; पर अज्ञानी सब प्राणियों में एक ही आत्मा नहीं मानता है । अज्ञान-अंधकार के मारे, वह इस बात को नहीं समझता कि मुझमें, उधो में, माधव में, रामा में, मेरी स्त्री में, मेरे पुत्र में, माधव के पुत्र में, घोड़े में, हाथी में, सर्प में और सिंह में एक ही आत्मा है; यानी जो आत्मा मुझमें है वही समस्त जगत में है ।

बिहारीलाल कवी ने कहा है -
मोहन मूरति श्याम की, अति अद्भुत गति जोइ।
वसत सुचित अन्तर तऊ, प्रतिबिम्बित जग होइ।।

श्याम की मोहिनी मूरत की गति अति अद्भुत है । वह सुन्दर ह्रदय में रहती है, तोभी उसका प्रतिबिम्ब - अक्स - सारे जगत में पड़ता है ।

महाकवि नज़ीर कहते हैं -
ये एकताई ये यकरंगी, तिस ऊपर यह क़यामत है।
न कम होना न बढ़ना और हज़ारों घट में बंट जाना।।

ईश्वर एक है और एक रंग है - निर्विकार और अक्षय है; उसमें रूपान्तर नहीं होता और वह घटता-बढ़ता भी नहीं; लेकिन अचम्भे की बात है कि, वह घट-घट में इस तरह प्रकट होता है, जिस तरह एक सूर्य का प्रतिबिम्ब सैकड़ों जलाशयों में दिखाई देता है ।

क्या जीवात्मा और परमात्मा में भी कुछ भेद नहीं है ?
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निस्संदेह; जीवात्मा और परमात्मा में कोई भेद नहीं है । दोनों में  एक ही आत्मा है । जीव की उपाधि अन्तःकरण है और परमेश्वर की उपाधि माया है । जीव की उपाधि छोटी है और परमात्मा की बढ़ी है; इसी से ईश्वर में जो सर्वज्ञता प्रभृति धर्म हैं; जीव में नहीं । गंगा की बढ़ी धरा में नाव और जहाज़ चलते है, हज़ारों मगरमच्छ और करोड़ों मछलियां तैरती हैं तथा किनारे पर लोग स्नान करते हैं । पर वही गङ्गाजल अगर एक गोलास में भर लिया जाय, तो उसमें न तो नाव और जहाज़ होंगे, न मगरमच्छ और मछलियां होंगी और न किनारे पर लोग स्नान करते होंगे । दरअसल, गंगा की बड़ी धरा में जो जल है, व्है जल गिलास में है । वह गंगा का बड़ा प्रवाह है और गिलास में थोड़ा सा जल है । जिस तरह दोनों जलों के एक होने में सन्देह नहीं; उसी तरह जीवात्मा और परमात्मा के एक होने में सन्देह नहीं । सारांश यह कि, जीवात्मा, परमात्मा और समस्त जगत में एक ही ब्रह्म है । जो इस बात कि तह तक पहुँच जाएगा, वह किस से बैर करेगा और किससे प्रीती ? जब तक मनुष्य इस बात को अच्छी तरह नहीं समझ लेता और यही बात उसके दिल पर नक्श हुई नहीं रहती कि, जो आत्मा मेरे शरीर में है वही जगत के और प्राणियों  के शरीर में है, तभी तक वह किसी को अपना और किसी को पराया, किसी को अपनी स्त्री और किसी को अपना पुत्र, किसी को शत्रु और किसी को मित्र, किसी को सर्प और किसी को फूलों का हार समझता है; किसी से खुश होता है और किसी से नाराज़, किसी से विरोध करता और किसी से प्रणय । पहले के पहुंचे हुए महात्मा जो सिंहो को अपने आश्रमों में भेद बकरी कि तरह पालते और सर्पों को गले का हार बनाये रहते थे, वह क्या बात है ? और कुछ नहीं, यही बात है, कि वे भीतरी दिल से सिंह में भी और अपने में एक ही आत्मा समझते थे; इसी से वे उनसे डरते नहीं थे और सिंह तथा सर्प प्रभृति हिंसक जीव भी उन्हें कष्ट न पहुंचते थे ।

कैवल्यौपनिषद में लिखा है -
यत्परं ब्रह्म सर्वात्मा, विश्वस्यायतन महत्।  
सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं नित्यं स त्वमेव त्वमेव तत्। ।

जो ब्रह्म सब प्राणियों का आत्मा, सम्पूर्ण विश्व का आधार, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म और नित्य है, वही तुहि है और तू वही है ।

ज्ञानकाण्ड उपनिषत् ही तो वेद का निष्कर्ष और सार है ।  उसमें सर्वत्र आत्मा को ही ईश्वर कहा है । हमारे वेद ही नहीं, संसार के समस्त धर्मशास्त्र - कुरान और बाइबिल आदि में भी यही बात कही है । कुरान में "ला इलाहा इल्ला अन्ना" यही निचोड़ कहा है, यानी आत्मा के सिवा दूसरा और ईश्वर नहीं है । बाइबिल में भी ईसा मसीह ने कहा है - "Ye are the living temples of God अर्थात चमक ईश्वर के जीवित मंदिर हो; अर्थात "तत्वमसि" । वह तुम हो ।

समदर्शी होने से मोक्ष मिलती है 
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"समस्त जगत में एक ही ब्रह्म या चेतन आत्मा व्यापक है - इस बात को जाने-समझे बिना, समदर्शी हो नहीं सकता इसी से हमने यह बात विस्तार स समझायी है । अब रही यह बात कि, समदर्शी होने कि क्या जरुरत है ? समदृष्टि होने से क्या लाभ है ? इन प्रश्नों का उत्तर हम संक्षेप में ही दिए देते हैं - समदृष्टि हो जाने से मनुष्य का दुःख और क्लेशों से पीछा छूट जाता है; वर्णनातीत परमानन्द कि प्राप्ति होती है; संसार-बन्धन काट जाता है; आवागमन का झगड़ा मिट जाता है; प्राणी को बारम्बार जन्म लेना और मरना नहीं पड़ता; उस कि मोक्ष हो जाती है और वह परमपद या विष्णुत्व को प्राप्त हो जाता है । स्वामी शंकराचार्य जी महाराज कहते हैं -
शत्रौ मित्रे पुत्रे बन्धौ, मा कुरु यत्नं विग्रहसन्धौ ।
भव समचित्तः सर्वत्र त्वं, वाञ्छस्यचिराद् यदि विष्णुत्वम् ।।

हे मनुष्य ! यदि तू शीघ्र ही मोक्ष या विष्णुत्व चाहता है, तो शत्रु और मित्र, पुत्र और बंधुओं से विरोध और प्रणय मत कर; यानी सब को एक नज़र से देख, किसी में भेद न समझ ।

सार- यदि मोक्ष, मुक्ति या परमानन्द चाहते हो, तो सब जगत में अपने ही आत्मा को देखो, किसी को अपना और किसी को पराया, किसी को शत्रु और किसी को मित्र मत समझो ।

छप्पय
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सर्प सुमन को हार, उग्र बैरी अरु सज्जन।
कंचन मणि अरु लोह, कुसुम शय्या अरु पाहन।
तृण अरु तरुणी नारि, सबन पर एक दृष्टी चित।
कहूँ राग नहि रोष, द्वेष कितहुँ न कहुँ हित।।


-------------------------इति वैराग्य शतकम्-------------------------