Tuesday, June 11, 2019

शिव पुराण

===================== विद्येश्वर संहिता आरम्भ=====================

भगवान् शिव के लिङ्ग एवं साकार विग्रह पूजा के रहस्य तथा महत्व का वर्णन
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ऋषियों ने पूछा: मूर्ती में ही सर्वत्र देवताओं की पूजा होती है(लिङ्ग में नहीं), परन्तु भगवान् शिव की पूजा सब जगह मूर्ती में और लिङ्ग में भी क्यों की जाती है ?
सूत जी ने कहा: मुनिश्वरों ! तुम्हारा यह प्रश्न तो बड़ा ही पवित्र और अत्यंत अद्भुत है । इस विषय में महादेव ही वक्त हो सकते हैं । दूसरा कोई पुरुष कभी और कहीं भी इसका प्रतिपादन नहीं कर सकता । इस प्रश्न के समाधान के लिए भगवान् शिव ने जो कुछ कहा है और उसे मैंने गुरूजी के मुख से जिस प्रकार सुना है, उसी तरह क्रमशः वर्णन करूँगा । एकमात्र भगवान् शिव ही ब्रह्मरूप होने के कारण 'निष्कल' (निराकार) कहे गए हैं । रूपवान होने के कारण उन्हें 'सकल' भी कहा गया है । इसलिए वे 'सकल' और 'निष्कल' दोनों हैं । शिव के निष्कल - निराकार होने के कारण ही उनकी पूजा का आधारभूत लिङ्ग भी निराकार ही प्राप्त हुआ है । अर्थात शिवलिङ्ग, शिव के निराकार स्वरुप का प्रतीक है । इसी तरह शिव के सकल या साकार होने के कारण उनकी पूजा का आधारभूत विग्रह साकार प्राप्त होता है अर्थात शिव का साकार विग्रह उनके साकार स्वरुप का प्रतीक होता है । सकल और अकल(समस्त अंग-आकार सहित साकार और अंग-आकार से सर्वथा रहित निराकार) रूप होने से ही वे 'ब्रह्म' शब्द से कहे जाने वाले परमात्मा हैं । यही कारण है कि सब लोग लिङ्ग (निराकार ) और मूर्ती(साकार) दोनों में ही सदा भगवान् शिव की पूजा करते हैं । शिव से भिन्न जो दूसरे-दूसरे देवता हैं, वे साक्षात् ब्रह्म नहीं हैं । इसलिए कहीं भी उनके लिए निराकार लिङ्ग नहीं उपलब्ध होता ।

पुरुष-वस्तु : दीर्घकाल तक अविकृतभाव से सुस्थिर रहने वाली वस्तु ।
प्रकृत-वस्तु : अल्पकाल तक ही टिकने वाली क्षणभंगुर वस्तुएं ।

पांच कृत्यों का प्रतिपादन प्रणव एवं पञ्चाक्षर मन्त्र की महत्ता 
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ब्रह्मा और विष्णु ने पूछा: प्रभो ! सृष्टि आदि पांच कृत्यों के क्या लक्षण हैं, वह हम दोनों को बताइये ।
भगवान् शिव बोले : मेरे कर्तव्यों को समझना अत्यंत कठिन है । तथापि मैं कृपापूर्वक तुम्हें उनके विषय में बता रहा हूँ । ब्रह्मा और अच्युत ! सृष्टि, पालन, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह - ये पांच ही मेरे जगत-सम्बन्धी कार्य हैं । संसार की रचना जो आरम्भ ?????? 'सृष्टि' कहते हैं । मुझसे पालित होकर सृष्टि का सुस्थिर रूप से रहना ही उसकी स्थिति है । उसका विनाश ही 'संहार' है । प्राणो के उत्क्रमण को 'तिरोभाव' कहते हैं । इन सबसे छुटकारा मिल जाना ही मेरा 'अनुग्रह' है । इस प्रकार मेरे पांच कृत्य हैं । सृष्टि आदि जो चार कृत्य हैं, वे संसार का विस्तार करनेवाले हैं । पांचवां कृत्य, अनुग्रह, मोक्ष का हेतु है । वह सदा मुझमें ही अचल भाव से स्थिर रहता है । मेरे भक्तजन इन पाँचों कृत्यों को पाँचों भूतों में देखते हैं । सृष्टि भूतल में, स्थिति जल में, संहार अग्नि में, तिरोभाव वायु में और अनुग्रह आकाश में स्थित है । इन पांच कृत्यों का भार वहन करने के लिए ही मेरे पांच मुख हैं । चार दिशाओं में चार मुख हैं और इनके बीच में पांचवां मुख है । पुत्रों ! तुम दोनों ने तपस्या करके प्रसन्न हुए मुझ परमेश्वर से सृष्टि और स्थिति नामक दो कृत्य प्राप्त किये हैं ।  ये दोनों तुम्हें बहुत प्रिय हैं । इसी प्रकार मेरी विभूतिस्वरूप 'रुद्र' और 'महेश्वर' ने दो अन्य उत्तम कृत्य -  संहार और तिरोभाव मुझसे प्राप्त किये हैं परन्तु अनुग्रह नामक कृत्य कोई दूसरा नहीं पा सकता । रुद्र और महेश्वर अपने कर्म को भूले नहीं है इसलिए मैंने उनके लिए अपनी समानता प्रदान की है । वे रूप, वेश, कृत्य, वाहन, आसन और आयुध आदि में मेरे समान ही हैं । मैंने पूर्वकाल में अपनी स्वरूपभूत का उपदेश किया है, जो ओंकार रूप में प्रसिद्ध है । वह महामंगलकारी मंत्र है । सबसे पहले मेरे मुख से ओंकार (ॐ) प्रकट हुआ, जो मेरे स्वरुप का बोध करनेवाला है । ओंकार वाचक है और मैं वाच्य हूँ । यह मंत्र मेरा ही स्वरुप है । प्रतिदिन ओंकार का निरंतर स्मरण करने से मेरा ही सदा स्मरण होता है ।
मेरे उत्तरवर्ती मुख से अकार का, पश्चिम मुख से उकार का, दक्षिण मुख से मकार का, पूर्ववर्ती मुख से बिन्दु का तथा मध्यवर्ती मुख से नाद का प्राकट्य हुआ । इस प्रकार पांच अवयवों से युक्त ओंकार का विस्तार हुआ । इन सभी अवयवों से एकीभूत होकर वह प्रणव 'ॐ' नामक एक अक्षर हो गया । या नामरूपात्मक सारा जगत तथा वेद उत्पन्न स्त्री-पुरुषवर्गरूप दोनों कुल इस प्रणव मन्त्र से व्याप्त हैं । यह मन्त्र शिव और शक्ति दोनों का बोधक है । इसी से पंचाक्षर मंत्र की उत्पत्ति हुई है, जो मेरे सकल रूप का बोधक है । वह अकारादि क्रम से और मकारादि क्रम से क्रमशः प्रकाश में आया है ("ॐ नमः शिवाय" यह पञ्चाक्षर मंत्र है) । इस पञ्चाक्षर मंत्र से मातृका वर्ण प्रकट हुए हैं, जो पांच भेद वाले हैं (ञ्, इ, उ, ऋ, लृ - ये पांच मूलभूत स्वर हैं तथा व्यंजन भी पांच-पांच वर्णों से युक्त पांच वर्गवाले हैं)।  उसी से शिरोमन्त्र सहित त्रिपदा गायत्री का प्राकट्य हुआ । उस गायत्री से सम्पूर्ण वेद प्रकट हुए हैं और उन वेदों से करोड़ों मन्त्र निकले हैं । उन उन मन्त्रों से भिन्न-भिन्न कार्यों की सिद्धि होती है । इन मन्त्रसमुदाय से भोग और मोक्ष दोनों सिद्ध होते हैं । मेरे सकल स्वरुप से सम्बन्ध रखनेवाले सभी मंत्रराज साक्षात् भोग प्रदान करनेवाले और शुभ हैं ।

भगवान् शिव द्वारा सात वारों का निर्माण 
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सृष्टि के आरम्भ में सर्वज्ञ, दयालु और सर्वसमर्थ महादेव जी ने समस्त लोकों के उपकार के लिए वारों की कल्पना की । वे भगवान् शिव संसाररूपी रोग को दूर करने के लिए वैद्य हैं । सबके ज्ञाता तथा समस्त औषधों के भी औषध हैं । उन भगवान् ने पहले अपने वार की कल्पना की जो आरोग्य प्रदान करनेवाला है । तत्पश्चात अपनी मायाशक्ति का वार बनाया, जो संपत्ति प्रदान करनेवाला है । जन्मकाल में दुर्गतिग्रस्त बालक की रक्षा के लिए उन्होंने कुमार के वार की कल्पना की । तत्पश्चात सर्वसमर्थ महादेवजी ने आलस्य और पाप की निवृत्ति तथा समस्त लोकों के हित करने की इच्छा से लोकरक्षक भगवान् विष्णु का वार बनाया । इसके बाद सबके स्वामी भगवान् शिव ने पुष्टि और रक्षा के लिए आयुःकर्ता और त्रिलोकस्त्रष्टा परमेष्ठी ब्रह्मा का आयुष्कारक वार बनाया, जिससे सम्पूर्ण जगत के आयुष्य की सिद्धि हो सके । इसके बाद तीनों लोकों की वृद्धि के लिए पहले पुण्य और पाप की रचना हो जाने पर उनके करनेवाले लोगों को शुभाशुभ फल देने के लिए भगवान् शिव ने इन्द्र और यम के वारों का निर्माण किया । ये दोनों वार क्रमशः भोग देने वाले तथा लोगों के मृत्युभय को दूर करनेवाले हैं । इसके बाद सूर्य आदि सात ग्रहों को, जो अपने ही स्वरूपभूत तथा प्राणियों के लिए सुख-दुःख के सूचक हैं, भगवान् शिव ने उपर्युक्त सात वारों का स्वामी निश्चित किया । वे सब के सब ग्रह-नक्षत्रों के ज्योतिर्मय मण्डल में प्रतिष्ठित हैं ।

अधिपति   फल
शिव का वार सूर्य आरोग्य 
शक्तिसम्बन्धी वार सोम सम्पत्ति
कुमारसम्बन्धी दिन  मंगल व्याधि निवारण
विष्णुवार बुध पुष्टि 
ब्रह्माजी का वार बृहस्पति आयुवृद्धि 
इन्द्रवार शुक्र भोग 
यमवार शनैश्चर मृत्यु निवारण 

देवताओं की प्रसन्नता के लिए पांच प्रकार की पूजा पद्धति :
१- देवता के मन्त्रों का जप ।
२- उनके लिए होम करना ।
३- उनके लिए दान करना ।
४- उनके लिए तप करना ।
५- किसी वेदी पर, प्रतिमा में, अग्नि में अथवा ब्राह्मण के शरीर में आराध्य देवता की भावना करके सोलह उपचारों से उनकी पूजा करना ।

इनमें पूजा के उत्तरोत्तर आधार श्रेष्ठ हैं । पूर्व-पूर्व के आभाव में उत्तरोत्तर आधार का अवलम्बन करना चाहिए ।

देश, काल, पात्र और दान आदि का विचार 
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देश
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ऋषियों ने कहा : समस्त पदार्थों के ज्ञाताओं में श्रेष्ठ सूतजी ! अब आप क्रमशः देश, काल आदि का वर्णन करें ।

सूतजी बोले : महर्षियो ! देवयज्ञ आदि कर्मों में अपना शुद्ध गृह समान फल देने वाला होता है अर्थात अपने घर में किये हुए देवयज्ञ आदि शास्त्रोक्त फल को सममात्रा में देनेवाले होते हैं ।
 - गोशाला का स्थान घर की अपेक्षा दस गुना फल देता है ।
 - जलाशय का तट उससे भी दस गुना महत्त्व रखता है ।
 - जहाँ बेल, तुलसी एवं पीपलवृक्ष का मूल निकट हो, वह स्थान जलाशय के तट से भी दसगुना फल वाला होता है ।
 - देवालय को उससे भी दस गुना महत्त्व वाला जानना चाहिए ।
 - तीर्थभूमि का तट देवालय से दस गुना महत्त्व वाला होता है ।
 - उससे दस गुना श्रेष्ठ है नदी का किनारा ।
 - उससे दस गुना उत्कृष्ट है तीर्थ नदी का तट ।
 - उससे भी दस गुना महत्त्व रखता है सप्तगंगा नामक नदियों का तीर्थ (गंगा, गोदावरी, कावेरी, ताम्रपर्णी, सिन्धु, सरयू और नर्मदा)।
 - समुद्र के तट का स्थान इनसे भी दसगुना पवित्र मन गया है ।
 - पर्वत के शिखर का प्रदेश समुद्रतट से भी दस गुना पावन है ।
 - सबसे अधिक महत्व का वह स्थान जानना चाहिए जहाँ मन लग जाय ।

काल
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सत्ययुग में यज्ञ, दान आदि कर्म पूर्णफल देनेवाले होते हैं । त्रेतायुग में उसका तीन-चौथाई फल मिलता है । द्वापर में सदा आधे ही फल की प्राप्ति कही गयी है । कलियुग में एक चौथाई ही फल की प्राप्ति समझनी चाहिए और आधा कलियुग बीतने पर उस चौथाई फल में से भी चतुर्थांश काम हो जाता है ।

 - शुद्ध अन्तः करण वाले पुरुष को शुद्ध एवं पवित्र दिन सम फल देने वाला होता है ।
 - सूर्या-संक्रान्ति के दिन किया हुआ सत्कर्म पूर्वोक्त शुद्ध दिन की अपेक्षा दस गुना फल देने वाला होता है ।
 - इससे दस गुना फल उस कर्म का है जो विषुव नामक योग में किया जाता है ।
 - दक्षिणायन/कर्क-संक्रान्ति में किये पुण्यकर्म का महत्त्व विषुव से भी दस गुना माना गया है ।
 - उससे दस गुना महत्त्व मकर-संक्रान्ति का है ।
 - मकर-संक्रान्ति से दस गुना महत्व चन्द्रग्रहण में किये पुण्य का है ।
 - सूर्यग्रहण का समय सबसे उत्तम है, इसमें किये गए पुण्यकर्म का फल चन्द्रग्रहण से भी अधिक और पूर्णमात्र में होता है ।

जन्म-नक्षत्र के दिन तथा व्रत की पूर्ती के दिन का समय सूर्यग्रहण के समान ही समझा जाता है । परन्तु महापुरुषों के संग का काल करोड़ों सूर्यग्रहण के समान पावन है, ऐसा ज्ञानी पुरुष जानते-मानते हैं ।

पात्र 
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जो पतन से त्राण करता है अर्थात नरक में गिरने से बचाता है, उसके लिए इसी गुण के कारण शास्त्र में 'पात्र' शब्द का प्रयोग होता है । वह दाता का पातक से त्राण करने के कारण 'पात्र' कहलाता है ।

पतनात्त्रायत इति पात्रं शास्त्री प्रयुज्यते ।
दातुश्च पातकात्त्राणात्पात्रमित्यभिधीयते ।।
शि। पु। वि। १५।१५

गायत्री अपनी गायक का पतन से त्राण करती है; इसलिए वह गायत्री कहलाती है ।
जैसे इस लोक में जो धनहीन है वह दुसरे को धन नहीं देता - जो यहाँ धनवान है वही दुसरे को धन दे सकता है, उसी तरह जो स्वयं शुद्ध और पवित्रात्मा है, वही दुसरे मनुष्यों का त्राण या उद्धार कर सकता है । जो गायत्री का जप करके शुद्ध हो गया है, वही शुद्ध ब्राह्मण कहलाता है । इसलिए दान, जप, होम और पूजा सभी कर्मों के लिए वही शुद्ध पात्र है । ऐसा ब्राह्मण ही दान तथा रक्षा करने की पात्रता रखता है ।
स्त्री या पुरुष - जो भी भूखा हो, वही अन्नदान का पात्र है । जिसको जिस वास्तु की इच्छा हो, उसे वह वस्तु बिना मांगे ही दे दी जाय तो डाटा को उस दान का पूरा-पूरा फल प्राप्त होता है, ऐसी महर्षियों की मान्यता है । जो सवाल या याचना करने के बाद दिया गया हो, वह दाना आधा ही फल देनेवाला बताया गया है । अपने सेवक को दिया हुआ दान एक चौथाई फल देनेवाला होता है ।
जो जातिमात्रा से ब्राह्मण है और दीनतापूर्ण वृत्ति से जीवन बिताता है, उसे दिया हुआ धन का दान डाटा को इस भूतल पर दस वर्षों तक भोग प्रदान करनेवाला होता है । वही दान यदि वेदवेत्ता ब्राह्मण को दिया जाय तो वह स्वर्गलोक में देवताओं के वर्ष से दस वर्षों तक दिव्य भोग देनेवाला होता है ।
शिल और उञ्छवृत्ति से लाया हुआ और गुरुदक्षिणा में प्राप्त हुआ अन्न-धन शुद्ध द्रव्य कहलाता है ।  उसका दान दाता को पूर्णफल देनेवाला बताया गया है । क्षत्रियों का शौर्य से कमाया हुआ, वैश्यों का व्यापर से आया हुआ और शूद्रों का सेवावृत्ति से प्राप्त किया हुआ धन भी उत्तम द्रव्य कहलाता है । धर्म की इच्छा रखनेवाली स्त्रियों को जो धन पिता और पति से मिला हुआ हो, उनके लिए वह उत्तम द्रव्य है ।

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क्षेत्र पापस्य करणं दृढं भवति भूसुराः ।
पुण्यक्षेत्रे निवासे हि पापमण्वपि नाचरेत् ।।
शि। पु। वि। १२।७

पुण्यक्षेत्र में पापकर्म किया जाय तो वह और भी दृढ़ हो जाता है । अतः पुण्यक्षेत्र में निवास करते समय सूक्ष्म से सूक्ष्म अथवा थोड़ा सा भी पाप न करें ।

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उपांशु जप - मंत्राक्षरों का इतने धीमे स्वर में उच्चारण करें कि उसे दूसरा कोई सुन न सके ।
समानप्रणव - नाद और बिन्दुयुक्त ओंकार का उच्चारण ।
निशीथकाल - रात्रि के चार प्रहरों में से बीच के दो प्रहर ।

भस्म
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महाभस्म
श्रौत - यह केवल द्विजो के उपयोग में आने योग्य कहा गया है । द्विजो को वैदिक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक भस्म धारण करना चाहिए ।
स्मार्त - यह केवल द्विजो के उपयोग में आने योग्य कहा गया है । द्विजो को वैदिक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक भस्म धारण करना चाहिए ।
लौकिक - यह अन्य सभी लोगों के भी उपयोग में आ सकता है

स्वल्पभस्म -

आग्नेय - गोबर से प्रकट होनेवाला भस्म, यह भी त्रिपुण्ड्र का द्रव्य है ऐसा कहा गया है ।
 अग्निहोत्र से उत्पन्न हुए भस्म की भी मनीषी पुरुषों को संग्रह करना चाहिए । अन्य यज्ञ से उत्पन्न हुआ भस्म भी त्रिपुण्ड्र धारण के काम में आ सकता है ।

भौंहों के मध्यभाग से लेकर जहाँ तक भौंहों का अन्त है, उतना बड़ा त्रिपुण्ड्र ललाट पर धारण करना चाहिए । मध्यमा और अनामिका से दो रेखाएं करके बीच में अंगुष्ठ द्वारा प्रतिलोमभाव से की गयी रेखा त्रिपुण्ड्र कहलाती है अथवा बीच की तीन अँगुलियों से भस्म लेकर यत्नपूर्वक भक्तिभाव से ललाट में त्रिपुण्ड्र धारण करें ।

त्रिपुण्ड्र की तीन रेखाओं में से प्रत्येक के नौ-नौ देवता हैं जो सभी अंगों में स्थित हैं: मैं उनका परिचय देता हूँ । सावधान होकर सुनो ।

प्रणव का प्रथम अक्षर अकार, गार्हपत्य अग्नि, पृथ्वी, धर्म, रजोगुण, ऋग्वेद, क्रियाशक्ति, प्रातःसवन तथा महादेव - ये त्रिपुण्ड्र की प्रथम रेखा के देवता हैं ।
प्रणव का दूसरा अक्षर उकार, दक्षिणाग्नि, आकाश, सत्वगुण, यजुर्वेद, मध्यदिनसवन, इच्छाशक्ति, अन्तरात्मा तथा महेश्वर - ये दूसरी रेखा के नौ देवता हैं ।
प्रणव का तीसरा अक्षर मकार, आहवनीय अग्नि, परमत्मा, तमोगुण, द्युलोक, ज्ञानशक्ति, सामवेद, तृतीयसवन तथा शिव - ये तीसरी रेखा के नौ देवता हैं ।

रुद्राक्ष
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शिवजी कहते हैं कि उत्तम रुद्राक्ष असह्य पापसमूहों का भेदन करनेवाले और श्रुतियों के भी प्रेरक हैं । मेरी आज्ञा से वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जाति के भेद से इस भूतल पर प्रकट हुए हैं । रुद्राक्षों की ही जाति के शुभाक्ष भी हैं । उन ब्राह्मणादि वर्ण के रुद्राक्षों के वर्ण श्वेत, रक्त, पीत और कृष्ण जानने चाहिए । मनुष्यों को चाहिए की क्रमशः वर्ण अनुसार अपने वर्ण का ही रुद्राक्ष धारण करें । श्वेत रुद्राक्ष केवल ब्राह्मणों को ही धारण करना चाहिए । गहरे लाल रंग का रुद्राक्ष क्षत्रियों के लिए हितकर बताया गया है । वैश्यों के लिए प्रतिदिन बारम्बार पीले रुद्राक्ष को धारण करना आवश्यक है और शूद्रों को काले रंग का रुद्राक्ष धारण करना चाहिए - यह वेदोक्त मार्ग है ।
आंवले के फल के बराबर जो रुद्राक्ष हो, वह श्रेष्ठ बताया गया है । जो बेर के फल के बराबर हो, उसे माध्यम श्रेणी का कहा गया है और जो चने के बराबर हो उसकी गणना निम्नकोटि में की गयी है । अब इसकी उत्तमता को परखने की दूसरी उत्तम क्रिया बताई जाती है ।

जो रुद्राक्ष बेर के फल के बराबर होता है, वह उतना छोटा होने पर भी लोक में उत्तम फल देनेवाला तथा सुखसौभाग्य की वृद्धि करनेवाला होता है । जो रुद्राक्ष आंवले के फल के बराबर होता है, समस्त अरिष्टों का विनाश करनेवाला होता है तथा जो गुंजाफल के समान बहुत छोटा होता है, वह सम्पूर्ण मनोरथों और फलों की सिद्धि करनेवाला है । रुद्राक्ष जैसे जैसे छोटा होता है, वैसे ही वैसे अधिक फल देनेवाला होता है । एक-एक बड़े रुद्राक्ष से एक-एक छोटे रुद्राक्ष को विद्वानों ने दस गुना अधिक फल देनेवाला बताया है ।

समान आकर-प्रकारवाले, चिकने, मजबूत, स्थूल, कण्टकयुक्त(उभरे हुए छोटे दानों वाले) और सुन्दर रुद्राक्ष पदार्थों के दाता तथा सदैव भोग और मोक्ष देनेवाले हैं ।
जिसे कीड़ों ने दूषित कर दिया हो, जो टूटा-फूटा हो, जिसमें उभरे हुए दाने न हों तथा जो पूरा-पूरा गोल न हो, इन प्रकार के रुद्राक्षों को त्याग देना चाहिए ।

जिस रुद्राक्ष में अपने आप ही डोरा पिरोने के योग्य छिद्र हो गया हो, वही यहाँ उत्तम माना गया है ।
जिसमें मनुष्य के प्रयत्न से छेद किया गया हो, वह माध्यम श्रेणी का होता है ।

रुद्राक्ष धारण, सर पर ईशान मन्त्र से, कान में तत्पुरुष मन्त्र से तथा गले और ह्रदय में अघोर मन्त्र से करना चाहिए । पुरुष दोनों हाथों में अघोर बीजमन्त्र से रुद्राक्ष धारण करें । उदार पर वामदेव मन्त्र से पंद्रह रुद्राक्षों द्वारा गुंथी हुई माला धारण करें । अथवा अंगो सहित प्रणव का पांच बार जप करके रुद्राक्ष की तीन, पांच या सात मालाएं धारण करें । अथवा मूलमन्त्र('नमः शिवाय') से ही समस्त रुद्राक्षों को धारण करें ।

रुद्राक्षधारी पुरुष अपने खान-पान में मदिरा, मांस, लहसुन, प्याज, सहिजन, लिसोड़ा आदि को त्याग दें ।

रुद्राक्ष के भेद -
एकमुखी - साक्षात् शिव का रूप । वह भोग और मोक्षरूपी फल प्रदान करता है ।
मन्त्र - ॐ ह्रीं नमः

दो मुखी - यह देवदेवेश्वर कहा जाता है । सभी मनोकामनाओं और फलों को देने वाला है ।
मन्त्र - ॐ नमः

तीन मुखी - सदा साक्षात् साधन का फल देने वाला, उसके प्रभाव से सभी विद्याएं प्रतिष्ठित होती हैं ।
मन्त्र - क्लीं नमः

चतुर्मुखी - साक्षात् ब्रह्मा का रूप, स्पर्श से शीघ्र ही चरों पुरुषार्थ सिद्ध करता है ।
मन्त्र - ॐ ह्रीं नमः

पंचमुखी - साक्षात् कालाग्निरुद्र रूप, सब कुछ करने में समर्थ तथा समस्त कामनाओं को पूरा और पापों का नाश करने वाला ।
मन्त्र - ॐ ह्रीं नमः

छ मुखी - इसे दाहिनी बांह में धारण करने से मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्त हो जाता है, यह कार्तिकेय का स्वरुप है ।
मन्त्र - ॐ ह्रीं हुं नमः

सात मुखी - यह अनंगस्वरूप है और अनङ्ग नाम से ही प्रसिद्ध है । इसके धारण से दरिद्र भी वैभवशाली हो जाता है ।
मन्त्र - ॐ हुं नमः

आठ मुखी - यह अष्टमूर्ति भैरवरूप है । इसके धारण से मनुष्य पूर्णायु होता है ।
मन्त्र - ॐ हुं नमः

नौ मुखी - इसे भैरव व् कपिल मुनि का प्रतीक माना गया है अथवा नौ रूप धारण करनेवाली दुर्गा उसकी अधिष्ठात्री देवी मानी गयी हैं । बाएं हाथ में इसे धारण करने से वह निश्चय ही सर्वेश्वर हो जाता है ।
मन्त्र - ॐ ह्रीं हुं नमः

दस मुखी - साक्षात् भगवान् विष्णु का रूप, सभी कामनाएं पूर्ण करने वाला ।
मन्त्र - ॐ ह्रीं नमः

ग्यारह मुखी - रूद्र रूप, धारक सर्वत्र विजयी होता है ।
मन्त्र - ॐ ह्रीं हुं नमः

बारह मुखी - यह केश प्रदेश में धारण किया जाता है, इसे धारण करने से मानो बारहों आदित्य विराजमान हो जाते हैं ।
मन्त्र - ॐ क्रौं क्षौं रौं नमः

तरह मुखी - यह विश्वेदेवों का स्वरुप है । इनको धारण करने से मनुष्य सौभाग्य पाटा तथा मंगल लाभ करता है ।
मन्त्र - ॐ ह्रीं नमः

चौदह मुखी - यह परम शिव रूप है, इसे भक्तिपूर्वक मस्तक पर धारण करें। इससे पापों का नाश हो जाता है ।
मन्त्र - ॐ नमः

रुद्राक्ष की माला धारण करने वाले पुरुष को देखकर भूत, प्रेत, पिशाच, डाकिनी, शाकिनी तथा जो अन्य द्रोहकारी राक्षस हैं, वे सब के सब दूर भाग जाते हैं ।

===================== विद्येश्वर संहिता समाप्त =====================

===================== रुद्र संहिता आरम्भ =====================

ब्रह्मा जी द्वारा सृष्टि रचना
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ब्रह्मा जी नारद मुनि से कहते हैं: तात ! महादेव जी की आज्ञा से ही मुझमें सृष्टि करने की इच्छा उत्पन्न हुई है । बेटा ! जब मैं सृष्टि की इच्छा से चिन्तन करने लगा, उस समय पहले मुझमें अनजाने में ही पापपूर्ण तमोगुणी सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे अविद्या-पंचक (या पंचपर्वा) कहते हैं । तदनन्तर प्रसन्नचित्त होकर शम्भु की आज्ञा से मैं पुनः अनासक्त भाव से सृष्टि का चिन्तन करने लगा । उस समय मेरे द्वारा स्थावर-संज्ञक वृक्ष आदि की सृष्टि हुई, जिसे मुख्य सर्ग कहते हैं । उसे देखकर तथा वह पुरुषार्थ का साधक नहीं है, यह जानकर सृष्टि की इच्छा वाले मुझ ब्रह्मा से दूसरा सर्ग प्रकट हुआ, जो दुःख से भरा हुआ है; उसका नाम है - तिर्यक्स्रोता । वह सर्ग भी पुरुषार्थ का साधक नहीं था । उसे भी पुरुषार्थ साधन की शक्ति से रहित जान जब मैं पुनः सृष्टि का चिन्तन करने लगा, तब मुझसे शीघ्र ही तीसरे सात्विक सर्ग का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे ऊर्ध्वस्रोता कहते हैं । यह देवसर्ग के नाम से विख्यात हुआ । देवसर्ग सत्यवादी तथा अत्यन्त सुखदायक है । उसे भी पुरुषार्थसाधन की रूचि एवं अधिकार से रहित मानकर मैंने अन्य सर्ग के लिए अपने स्वामी श्री शिव का आरम्भ किया । तब भगवान् शंकर की आज्ञा से एक रजोगुणी सृष्टि का प्रादुर्भाव हुआ, जिसे अर्वाक्स्रोता कहा गया है । इस सर्ग के प्राणी मनुष्य हैं, जो पुरुषार्थ-साधन के उच्च अधिकारी हैं । तदनन्तर महादेव जी की आज्ञा से भूत आदि की सृष्टि हुई । इस प्रकार मैंने पांच तरह की विकृत सृष्टि का वर्णन किया है । इनके सिवा तीन प्राकृत सर्ग भी कहे गए हैं, जो मुझ ब्रह्मा के सान्निध्य से प्रकृति से ही प्रकट हुए हैं । इनमें पहला महत्तत्व का सर्ग है, दूसरा सूक्ष्म भूतों का अर्थात तन्मात्राओं का सर्ग


नवधा भक्ति 
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ब्रह्मा जी नारद मुनि से कहते हैं: मुने ! एक दिन की बात है देवी सती एकान्त में भगवान् शंकर से मिलीं उन्हें भक्तिपूर्वक प्रणाम करके उस परम तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा की, जो निरतिशय सुख प्रदान करनेवाला है तथा जिसके द्वारा जीव संसार-दुःख से अनायास ही उद्धार पा सकता है ।  
शिव बोले: देवी ! दक्षनन्दिनी ! महेश्वरि ! सुनो; मैं उस परमतत्त्व का वर्णन करता हूँ, जिससे वासनबद्ध जीव तत्काल मुक्त हो सकता है ।  परमेश्वरि ! तुम विज्ञान को परमतत्त्व जानो । विज्ञान वह है जिसके उदय होने पर "मैं ब्रह्म हूँ" ऐसा दृढ़ निश्चय हो जाता है, ब्रह्म के सिवा दूसरी वास्तु का स्मरण नहीं रहता तथा उस विज्ञानी पुरुष की बुद्धि सर्वथा शुद्ध हो जाती है । प्रिये ! वह विज्ञान दुर्लभ है । इस त्रिलोकी में उसका ज्ञाता कोई विरला ही होता है । वह जो और जैसा भी है, सदा मेरा स्वरुप ही है, साक्षात्परात्पर ब्रह्म है । उस विज्ञान की माता है मेरी भक्ति, जो भोग और मोक्षरूप फल प्रदान करनेवाली है । वह मेरी कृपा से सुलभ होती है । भक्ति नौ प्रकार की बताई गयी है । सती ! भक्ति और ज्ञान में कोई भेद नहीं है । भक्त और ज्ञानी, दोनों को ही सदा सुख प्राप्त होता है । जो भक्ति का विरोधी है, उसे ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती । देवि ! मैं सदा भक्त के अधीन रहता हूँ और भक्ति के प्रभाव से जातिहीन नीच मनुष्यों के घरों में भी चला जाता हूँ, इसमें संशय नहीं है । सती ! वह भक्ति दो प्रकार की है - सगुणा और निर्गुण । जो विधि (शास्त्रविधि से प्रेरित) और स्वाभाविकी (ह्रदय के सहज अनुराग से प्रेरित) भक्ति होती है, वह श्रेष्ठ है तथा इससे भिन्न जो कामनामूलक भक्ति होती है, वह निम्नकोटि की मानी गयी है । पूर्वोक्त सगुणा और निर्गुणा - ये दोनों प्रकार की भक्तियाँ नैष्ठिकी और अनैष्ठिकी के भेद से दो भेदवाली हो जाती हैं । नैष्ठिकी भक्ति छः प्रकार की जाननी चाहिए और अनैष्टिकी एक प्रकार की कही गयी है । विद्वान् पुरुष विहिता और अविहिता आदि भेद से उसे अनेक प्रकार की मानते हैं । इन द्विविध भक्तियों के बहुत से भेद-प्रभेद होने के कारण इनके तत्त्व का अन्यत्र वर्णन किया गया है । प्रिये ! मुनियों ने सगुणा और निर्गुणा दोनों भक्तियों के नौ अंग बताये हैं । दक्षनन्दिनी ! मैं उन नवों अंगों का वर्णन करता हूँ, तुम प्रेम से सुनो । देवि ! श्रवण, कीर्तन, स्मरण, सेवन, दास्य, अर्चन, सदा मेरा वन्दन, सख्य और आत्मसमर्पण - ये विद्वानों ने भक्ति के नौ अंग माने हैं। शिवे ! भक्ति के उपांग भी बहुत से बताये गए हैं ।

देवि ! अब तुम मन लगाकर मेरी भक्ति के पूर्वोक्त नवों अंगों के पृथक-पृथक लक्षण सुनो; वे लक्षण भोग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं । 

- जो स्थिर आसन से बैठकर तन-मन आदि से मेरी कथा-कीर्तन आदि का नित्य सम्मान करता हुआ प्रसन्नता पूर्वक अपने श्रवणपुटों से उसके अमृतोपम रास का पान करता है, उसके इस साधन को "श्रवण" कहते हैं । 
 - जो हृदयाकाश के द्वारा मेरे दिव्य जन्म-कर्मों का चिन्तन करता हुआ प्रेम से वाणी द्वारा उनका उच्चस्वर से उच्चारण करता है, उसके इस भजन-साधन को 'कीर्तन' कहते हैं ।
 - देवि ! मुझ नित्य महेश्वर को सदा और सर्वत्र व्यापक जानकार जो संसार में निरन्तर निर्भय रहता है, उसी को 'स्मरण' कहा गया है ।
 - अरुणोदय से लेकर हर समय सेव्य की अनुकूलता का ध्यान रखते हुए ह्रदय और इन्द्रयों से जो निरन्तर सेवा की जाती है, वही 'सेवन' नामक भक्ति है ।
 - अपने को प्रभु का किंकर समझकर हृदयामृत के भोग से स्वामी का सदा प्रिय संपादन करना 'दास्य' कहा गया है । 
 - अपने धन-वैभव के अनुसार शास्त्रीय विधि से मुझ परमात्मा को सदा पाद्य आदि सोलह उपचारों का जो समर्पण करना है, उसे 'अर्चन' कहते हैं । मन से ध्यान और वाणी से वन्दनात्मक मन्त्रों के उच्चारणपूर्वक आठों अंगों से भूतल का स्पर्श करते हुए जो इष्टदेव को नमस्कार किया जाता है, उसे 'वन्दन' कहते हैं ।
 - ईश्वर मङ्गल या अमङ्गल जो कुछ भी करता है, वह सब मेरे मङ्गल के लिए ही है । ऐसा दृढ़ विश्वास रखना 'सख्य' भक्ति का लक्षण है ।
 - देह आदि जो कुछ भी अपनी कही जानेवाली वास्तु है, वह सब भगवान् की प्रसन्नता के लिए उन्हीं को समर्पित करके अपने निर्वाह के लिए भी कुछ बचाकर न रखना अथवा निर्वाह की चिन्ता से भी रहित हो जाना 'आत्मसमर्पण' कहलाता है ।

ये मेरी भक्ति के नौ अंग हैं, जो भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाले हैं । इनसे ज्ञान का प्राकट्य होता है तथा ये सब साधन मुझे अत्यन्त प्रिटी हैं । मेरी भक्ति के बहुत से उपांग भी कहे गए हैं, जैसे बिल्व आदि का सेवन आदि । इनको विचार से समझ लेना चाहिए ।

प्रिये ! इस प्रकार मेरी सांगोपांग भक्ति सबसे उत्तम है । यह ज्ञान-वैराग्य की जननी है और मुक्ति इसकी कदासी है । यह सदा सब साधनों से ऊपर विराजमान है । इसके द्वारा सम्पूर्ण कर्मों के फल की प्राप्ति होती है । यह भक्ति मुझे सदा तुम्हारे समान ही प्रिय है । जिसके चित्त में नित्य-निरन्तर यह भक्ति निवास करती है, वह साधक मुझे अत्यन्त प्यारा है । देवेश्वरी ! तीरों लोकों और चारों युगों में भक्ति के समान दूसरा कोई सुखदायक मार्ग नहीं है । कलियुग में तो यह विशेष सुखद एवं सुविधाजनक है । देवि ! कलियुग में प्रायः ज्ञान और वैराग्य के कोई ग्रहण नहीं हैं । इसलिए वे दोनों वृद्ध, उत्साहशून्य और जर्जर हो गए हैं, परन्तु भक्ति कलियुग में तथा अन्य सब युगों में भी प्रत्यक्ष फल देनेवाली है । भक्ति के प्रभाव से मैं सदा उसके वश में रहता हूँ, इसमें संशय नहीं है । संसार में जो भक्तिमान पुरुष हैं, उसकी मैं सदा सहायता करता हूँ, उसके सारे विघ्नो को दूर हटाता हूँ । उस भक्त का जो शत्रु होता है, वह मेरे लिए दण्डनीय है - इसमें संशय नहीं है । देवि ! मैं अपने भक्तों का रक्षक हूँ । भक्त की रक्षा के लिए ही मैंने कुपित हो अपने नेत्रजनित अग्नि से काल को भी दग्ध कर डाला था । प्रिये ! भक्त के लिए मैं पूर्वकाल में सूर्य पर भी अत्यन्त क्रुद्ध हो उठा था और शूल लेकर मैंने उन्हें मार भगाया था । देवि ! भक्ति के लिए मैंने सैनीसहित रावण को भी क्रोधपूर्वक त्याग दिया और उसके प्रति कोई पक्षपात नहीं किया । सती ! देवेश्वरि ! बहुत कहने से क्या लाभ, मैं सदा ही भक्त के अधीन रहता हूँ और भक्ति करनेवाले पुरुष के अत्यन्त वश में हो जाता हूँ ।

पतिव्रता नारी धर्म
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शिव-पार्वती के विवाह पश्चात जब पार्वती जी विदा होने लगीं, तब मेना(पार्वती की माँ) के मनोभाव को जानकार एक सती-साध्वी ब्राह्मणपत्नी ने गिरिजा को उत्तम पातिव्रत्य की शिक्षा दी ।

ब्राह्मणपत्नी बोली: गिरिराजकिशोरी ! तुम प्रेमपूर्वक मेरा यह वचन सुनो । यह धर्म को बढ़ानेवाला, इहलोक और परलोक में भी आनन्द देनेवाला और श्रोताओं को भी सुख की प्राप्ति करानेवाला है । संसार में पतिव्रता नारी ही धन्य है, दूसरी नहीं । वही विशेष रूप से पूजनीय है । पतिव्रता सब लोगों को पवित्र करनेवाली और समस्त पापराशि को नष्ट कर देनेवाली है । शिवे ! जो पति को परमेश्वर के समान मानकर प्रेम से उसकी सेवा करती है, वह इस लोक में सम्पूर्ण भोगों का उपभोग करके अन्त में कल्याणमयी गति को पाती है । सावित्री, लोपामुद्रा, अरुन्धती, शाण्डिली, शतरूपा, अनसूया, लक्ष्मी, स्वधा, सती, संज्ञा, सुमति, श्रद्धा, मेना और स्वाहा - ये तथा और भी बहुत सी स्त्रियां साध्वी कही गयी हैं । यहाँ विस्तार भय से उनका नाम नहीं लिया गया । वे अपने पातिव्रत्य के बल से ही सब लोगों की पूजनीया तथा ब्रह्मा, विष्णु, शिव एवं मुनिश्वरों की भी माननीया हो गयी हैं । इसलिए तुम्हें अपने पति भगवान् शंकर की सदा सेवा करनी चाहिए । वे दीनदयालु, सबके सेवनीय और सत्पुरुषों के आश्रय हैं । श्रुतियों और स्मृतियों में पातिव्रत्य धर्म को महान बताया गया है । इसको जैसा श्रेष्ठ बताया जाता है, वैसा दूसरा धर्म नहीं है - यह निश्चयपूर्वक कहा जा सकता है ।

पातिव्रत्य धर्म में तत्पर रहनेवाली स्त्री अपने प्रिय पति के भोजन करलेने पर ही भोजन करे । शिवे ! जब पति खड़ा हो, तब साध्वी स्त्री को भी खड़ी ही रहनी चाहिए । शुद्धबुद्धि वाली साध्वी स्त्री प्रतिदिन अपने पति के सो जाने पर सोये और उसके जागने से पहले ही जाग जाय । वह छाल-कपट छोड़कर सदा उसके लिए हितकर कार्य ही करे । शिवे ! साध्वी स्त्री को चाहिए कि जब तक वस्त्राभूषणों से विभूषित न हो ले तब तक वह अपने को पति की दृष्टी के सम्मुख न लाए । यदि पति किसी कार्य से परदेश गया हो तो उन दिनों उसे कदापि श्रृंगार नहीं करना चाहिए । पतिव्रता स्त्री कभी पति का नाम न ले । पति के कटुवचन कहने पर भी वह बदले में कड़ी बात न कहे । पति के बुलानेपर वह घर के सारे कार्य छोड़कर तुरन्त उसके पास चली जाय और हाथ जोड़, प्रेम से मस्तक झुककर पूछे - "नाथ ! किसलिए इस दासी को बुलाया है ? मुझे सेवा के लिए आदेश देकर अनुग्रहीत कीजिये ।" फिर पति जो आदेश दे, उसका वह प्रसन्न ह्रदय से पालन करे । वह घर के दरवाजे पर देर तक न खड़ी रहे । दुसरे के घर न जाय । कोई गोपनीय बात जानकर हर एक के सामने उसे प्रकाशित न करे । पति के बिना कहे ही उनके लिए पूजन-सामग्री स्वयं जुटा दे तथा उनके हितसाधन के यथोचित अवसर की प्रतीक्षा करती रहे । पति की आज्ञा के लिए बिना कहीं तीर्थयात्रा के लिए कभी न जाय । लोगों की भीड़ से भरी हुई सभा या मेले आदि के उत्सवों का देखना वह दूर से ही त्याग दे । जिस नारी को तीर्थयात्रा का फल पाने की इच्छा हो, उसे अपने पति का चरणोदक पीना चाहिए । उसके लिए उसी में सारे तीर्थ और क्षेत्र हैं, इसमें संशय नहीं है ।

पतिव्रता नारी पति के उच्छिष्ट अन्न आदि को परम प्रिय भोजन मानकर ग्रहण करे और पति जो कुछ दे, उसे महाप्रसाद मानकर शिरोधार्य करे । देवता, पितर, अतिथि, सेवकवर्ग, गौ तथा भिक्षुसमुदाय के लिए अन्न का भाग दिए बिना कदापि भोजन न करे । पातिव्रत-धर्म में तत्पर रहनेवाली गृहदेवी को चाहिए कि वह घर की सामग्री को संयत और सुरक्षित रखे । गृहकार्य में कुशल हो, सदा प्रसन्न रहे और खर्च की ओर से हाथ खींचे रहे । पति की आज्ञा लिए बिना उपवासव्रत आदि न करे, अन्यथा उसे कोई फल नहीं मिलता और वह परलोक में नरकगामिनी होती है । पति सुखपूर्वक बैठा हो या इच्छानुसार क्रीड़ाविनोद अथवा मनोरंजन में लगा हो, उस अवस्था में कोई आतंरिक कार्य आ पड़े तो भी पतिव्रता स्त्री अपने पति को कदापि न उठाये । पति नपुंसक हो गया हो, दुर्गति में पड़ा हो, रोगी हो, बूढा हो, सुखी हो या दुखी हो, किसी भी दशा में नारी अपने उस एकमात्र पति का उल्लंघन न करे । रजस्वला होने पर वह तीन रात्रि तक पति को अपना मुख न दिखाए अर्थात उससे अलग रहे । जब तक स्नान करके शुद्ध न हो जाय, तब तक अपनी कोई बात भी वह पति के कानों में न पड़ने दे । अच्छी तरह स्नान करने के पश्चात सबसे पहले वह अपने पति के मुख का दर्शन करे अथवा पति का मन-ही-मन चिन्तन करके सूर्य का दर्शन करे ......

चार प्रकार की पतिव्रता नारियां
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पतिव्रता नारियां उत्तमा भेद से चार प्रकार की बताई गयी हैं , जो अपना स्मरण करनेवाले पुरुषों का सारा पाप हर लेती हैं ।
उत्तमा, मध्यमा, निकृष्टा और अतिनिकृष्टा - ये पतिव्रता के चार भेद हैं । अब में इनके लक्षण बताती हूँ । ध्यान देकर सुनो । भद्रे ! जिसका मन सदा स्वप्न में भी अपने पति को ही देखता है, दुसरे किसी पुरुष को नहीं, वह स्त्री उत्तमा या उत्तम श्रेणी की पतिव्रता कही गयी है । शैलजे ! जो दुसरे पुरुष को उत्तम बुद्धि से पिता, भाई एवं पुत्र के समान देखती है, उसे माध्यम श्रेणी की पतिव्रता कहा गया है । पार्वती ! जो मन से अपने धर्म का विचार करके व्यभिचार नहीं करती, सदाचार में ही स्थित रहती है, उसे निकृष्टा अथवा निम्न श्रेणी की पतिव्रता कहा गया है । जो पति के भय से तथा कुल में कलङ्क लगने के दर से व्यभिचार से बचने का प्रयत्न करती है, उसे पूर्वकाल के विद्वानों ने अतिनिकृष्टा अथवा निम्नतम कोटि की पतिव्रता कहा गया है । शिवे ! ये चारों प्रकार की पतिव्रताएँ समस्त लोकों का पापनाश करनेवाली और उन्हें पवित्र बनानेवाली हैं ।

त्रिपुरासुरों के तीन पुर और उनका वध 
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नारद जी ने पूछा: महान वीरशाली भगवान् शंकर ने देवद्रोहियों के तीनो नगरों को एक ही साथ एक ही बाण से की कारण एवं कैसे भस्म कर डाला था ? भगवान् शंकर का चरित तो देवर्षियों को आनन्द प्रदान करने वाला है । आप वह सारा चरित विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये ।

ब्रह्माजी बोले: ऋषिश्रेष्ठ ! पहले किसी समय व्यास ने सनत्कुमार से ऐसा ही प्रश्न किया था । उस समय सनत्कुमार ने जो कुछ उत्तर दिया था, वही मैं वर्णन करता हूँ ।
सनत्कुमार ने कहा: महाबुद्धिमान व्यास जी ! विश्व का संहार करनेवाले चन्द्रमौलि शिव ने जिस प्रकार एक ही बाण से त्रिपुर को भस्म किया था, वह चरित्र कहता हूँ; सुनो । मुनीश्वर ! जब शिवकुमार स्कन्द ने तारकासुर को मार डाला, तब उसके तीनो पुत्रों को महान सन्ताप हुआ । उनमें तारकाक्ष सबसे ज्येष्ठ था, विद्युन्माली मंझला था और छोटे का नाम कमलाक्ष था । उन तीनो में समान बल था । वे जितेन्द्रिय, सदा कार्य के लिए उद्यत, संयमी, सत्यवादी, दृढ़चित्त, महान वीर और देवों से द्रोह करनेवाले थे । उन तीनो ने सभी उत्तमोत्तम एवं मनोहर भोगों का परित्याग करके मेरुपर्वत की एक कन्दरा में जाकर परम अद्भुत तपस्या आरम्भ की । वहां उन्होंने हज़ारों वर्ष तक ब्रह्मा जी की प्रसन्नता के लिए अत्यन्त उग्र तप किया । तब सुर और असुरों के गुरु ब्रह्मा जी उनकी तपस्या से अत्यन्त सन्तुष्ट होकर उन्हें वर देने के लिए प्रकट हुए ।

ब्रह्मा जी ने कहा: महादैत्यों ! मैं तुम लोगों के तप से प्रसन्न हो गया हूँ, अतः तुम्हारी कामना के अनुसार तुम्हें सभी वर प्रदान करूँगा । देवद्रोहियों ! मैं सबकी तपस्या के फलदाता और सर्वदा सब कुछ करने में समर्थ हूँ; अतः बताओ, तुम लोगों ने इतना घोर ताप किसलिए किया है ?

सनत्कुमार जी कहते हैं: मुने ! ब्रह्मा जी की वह बात सुनकर उन सबने अंजलि बांधकर पितामह के चरणों में प्रणिपात किया और फिर धीरे धीरे अपने मन की बात कहना आरम्भ किया ।

दैत्य बोले: देवेश ! यदि आप हम पर प्रसन्न हैं और हमें वर देना चाहते हैं तो यह वर दीजिये कि समस्त प्राणियों में हम सबके लिए अवध्य हो जाएँ । जगन्नाथ ! आप हमें स्थिर कर दें और हमारे जरा, रोग आदि सभी शत्रु नष्ट हो जाएँ तथा मृत्यु कभी भी हमारे समीप न फटके । हम लोगो का ऐसा विचार है कि हम लोग अजर-अमर हो जाएँ और त्रिलोकी में अन्य सभी प्राणियों को मौत के घात उतारते रहे; क्योंकि ब्रह्मन ! यदि पांच ही दिनों में काल के गाल में चला जाना निश्चित ही है तो अतुल लक्ष्मी, उत्तमोत्तम नगर, अन्यान्य भोग सामग्री, उत्कृष्ट पद और ऐश्वर्य से क्या प्रयोजन है । मेरे विचार से तो उस प्राणी के लिए ये सभी व्यर्थ हैं ।

ब्रह्मा जी ने कहा: असुरो ! अमरत्व सभी को नहीं मिल सकता, अतः तुमलोग अपना यह विचार छोड़ दो । इसके अतिरिक्त अन्य कोई वर जो तुम्हें रुचता हो, मांग लो । क्योंकि दैत्यों ! इस भूतल पर जहाँ कहीं भी जो प्राणी जन्मा है अथवा जन्म लेगा, वह जगत में अजर-अमर नहं हो सकता । इसलिए पापरहित असुरों ! तुमलोग स्वयं अपनी बुद्धि से विचार कर मृत्यु की वंचना करते हुए कोई ऐसा दुर्लभ या दुस्साध्य वर मांग लो, जो देवता और असुरों के लिए अशक्य हो । उस प्रसंग में तुमलोग अपने बल का आश्रय लेकर पृथक-पृथक अपने मरण में किसी हेतु को मांग लो, जिससे तुम्हारी रक्षा हो जाय और मृत्यु तुम्हें वरण न कर सके ।

दैत्यों ने कहा: भगवन ! यद्यपि हम लोग प्रबल पराक्रमी हैं तथापि हमारे पास कोई ऐसा घर नहीं है जहाँ हम शत्रुओं से सुरक्षित रहकर सुखपूर्वक निवास कर सकें; अतः आप हमारे लिए ऐसे तीन नगरों का निर्माण करा दीजिये जो अत्यन्त अद्भुत और सम्पूर्ण सम्पत्तियों से संपन्न हों तथा देवता जिसका प्रधर्षण न कर सकें । लोकेश ! आप तो जगद्गुरु हैं । हम लोग आपकी कृपा से ऐसे तीन पूर्व में अधिष्ठित होकर इस पृथ्वी पर विचरण करेंगे । इसी बीच तारकाक्ष ने कहा कि विश्वकर्मा मेरे लिए जिस नगर का निर्माण करें, वह स्वर्णमय हो और देवता भी उसका भेदन न कर सकें । तत्पश्चात कमलाक्ष ने चांदी के बने हुए अत्यन्त विशाल नगर की याचना की और विद्युन्माली ने प्रसन्न होकर वज्र के समान कठोर लोहे का बना हुआ बड़ा नगर माँगा । ब्रह्मन ! ये तीनो पुर मध्याह्न के समय अभिजीत मुहूर्त में चन्द्रमा के पुष्य नक्षत्र पर स्थित होने पर एक स्थान पर मिला करें और आकाश में नीले बादलों पर स्थित होकर ये क्रमशः एक के ऊपर एक रहते हुए लोगों की दृष्टी से ओझल रहें । फिर पुष्करावर्त नामक कालमेघों के वर्षा करते समय एक सहस्त्र वर्ष के बाद ये तीनो नगर परस्पर मिलें और एकीभाव को प्राप्त हों, अन्यथा नहीं । उस समय कृत्तिवास भगवान् शंकर, जो वैरभाव से रहित, सर्वदेवमय और सबके देव हैं, लीलापूर्वक सम्पूर्ण सामग्रियों से युक्त एक असंभव रथ पर बैठकर एक अनोखे बाण से हमारे पूर्व का भेदन करें । किन्तु भगवान् शंकर सदा हम लोगों के वन्दनीय, पूज्य और अभिवादन के पात्र हैं; अतः वे हमलोगों को कैसे भस्म करेंगे - मन में ऐसी धारणा करके हम ऐसे दुर्लभ वर को मांग रहे हैं ।


विश्वानर की तपस्या तथा जठराग्नि का वर 

विश्वानर की तपस्या तथा जठराग्नि का वर

पूर्वकाल की बात है, नर्मदा के रमणीय तट पर नर्मपुर नाम का एक नगर था । उसी नगर में विश्वानर नाम के एक मुनि निवास करते थे । उनका जन्म शाण्डिल्य गोत्र में हुआ था । वे परम पावन, पुण्यात्मा, शिवभक्त, ब्रह्मतेज के निधि और जितेन्द्रिय थे । वे सदा ब्रह्मयज्ञ में तत्पर रहते थे । फिर उन्होंने शुचिष्मति नाम की एक सद्गुणवती कन्या से विवाह कर लिया और वे ब्राह्मणोचित कर्म करते हुए देवता तथा पितरों को प्रिय लगनेवाला जीवन बिताने लगे । एक दिन वह अपने पति से बोली - "प्राणनाथ ! स्त्रियों के योग्य जितने आनन्दप्रद भोग हैं, उन सबको मैंने आपकी कृपा से आपके साथ रहकर भोग लिया; परन्तु नाथ ! मेरे ह्रदय में एक लालसा चिरकाल से वर्तमान है और वह गृहस्थों के लिए उचित भी है, उसे आप पूर्ण करने की कृपा करें ! स्वामिन ! यदि मैं वर पाने के योग्य हूँ और आप मुझे वर देना चाहते हैं तो मुझे महेश्वर सरीखा पुत्र प्रदान करें । इसके अतिरिक्त मैं दूसरा वर नहीं चाहती ।

नंदीश्वर जी कहते हैं : मुने ! पत्नी की बात सुनकर पवित्र व्रतपरायण व्राह्मण विश्वनार क्षणभर के लिए समाधिस्थ हो गए और ह्रदय में यों विचार करने लगे - "अहो! मेरी इस सूक्ष्मांगी पत्नी ने कैसा अत्यंत दुर्लभ वर माँगा है । ऐसा प्रतीत होता है, मानो उन शम्भू ने ही इसके मुख में बैठकर वाणीरूप से ऐसी बात कही है, अन्यथा दूसरा कौन ऐसा करने में समर्थ हो सकता है । तदनन्तर वे मुनि विश्वानर पत्नी को आश्वासन देकर वाराणसी में गए और घोर तप के द्वारा वीरेश लिंग की आराधना करने लगे । बारह मास की आराधनापूर्व एक दिन वे द्विजवर प्रातःकाल त्रिपथगामिनी गंगा के जल में स्नान करके ज्योंही वीरेश के निकट पहुंचे, त्यों ही उन तपधान को उस लिंग के मध्य एक अष्टवर्षीय विभूतिभूषित बालक दिखाई दिया उस बालक को देखकर विश्वनार मुनि कृतार्थ हो गए और आनंद के कारण उनका शरीर रोमाञ्चित हो उठा तथा बारम्बार "नमस्कार है, नमस्कार है" यों उनका हृदयोद्गार फुट पड़ा । फिर वे अभिलाषा पूर्ण करनेवाले आठ पद्यों द्वारा बालरूपधारी परमानन्दरूप शम्भू का स्तवन करने लगे।

नन्दीश्वर कहते हैं: मुने ! यों स्तुति करके विप्रवर विश्वानर हाथ जोड़कर भूमिपर गिरना ही चाहते थे, तब तक सम्पूर्ण वृद्धों के भी वृद्ध बालरूपधारी शिव परम हर्षित होकर उन भूदेव से बोले ।

बालरूपी शिव ने कहा: मुनिश्रेष्ठ विश्वानर ! तुमने आज मुझे सन्तुष्ट कर दिया है । भूदेव ! मेरा मन परम प्रसन्न हो गया है, अतः अब तुम उत्तम वर मांग लो । यह सुनकर मुनिश्रेष्ठ विश्वानर कृतकृत्य हो गए और उनका मन हर्षमग्न हो गया । तब वे उठकर बालरूपधारी शंकरजी से बोले ।

विश्वानर ने कहा: प्रभावशाली महेश्वर ! आप तो सर्वान्तर्यामी, ऐश्वर्यसम्पन्न, शर्व तथा भक्तों को सब कुछ दे डालनेवाले हैं । भला, आप सर्वज्ञ से कौन सी बात छिपी है । फिर भी आप मुझे दीनता प्रकट करनेवाली यांचा के प्रति आकृष्ट होने के लिए क्यों कह रहे हैं । महेशान ! ऐसा जानकार आपकी जैसी इच्छा हो, वैसा कीजिये ।

नन्दीश्वर कहते हैं: शिशुरूपधारी महादेव हंसकर शुचि(विश्वानर) से बोले - "शुचि ! तुमने अपने ह्रदय में अपनी पत्नी शुचिष्मति के प्रति जो अभिलषा कर रखी है, वह निस्संदेह थोड़े ही समय में पूर्ण हो जायेगी । महामते ! मैं शुचिष्मति के गर्भ से तुम्हारा पुत्र होकर प्रकट होऊंगा। मेरा  नाम गृहपति होगा ।

नन्दीश्वर कहते हैं : मुने ! इतना कहकर बालरूपधारी शम्भु, अन्तर्धान हो गए । तब विप्रवर विश्वानर भी प्रसन्न मन से अपने घर को लौट गए । मुने ! घर आकर उस ब्राह्मण ने बड़े हर्ष के साथ अपनी पत्नी से वह सारा वृत्तान्त कह सुनाया । उसे सुनकर विप्रपत्नी शुचिष्मति को महान आनन्द प्राप्त हुआ । तदनन्तर समय आने पर ब्राह्मण विधिपूर्वक गर्भाधान कर्म सम्पन्न किये जानेपर वह नारी गर्भवती हुई । तदुपरान्त ताराओं के अनुकूल होने पर जब बृहस्पति केन्द्रवर्ती हुए और शुभ ग्रहों का योग आया, तब शुभ लग्न में भगवान् शंकर उस शुचिष्मति के गर्भ से पुत्ररूप में प्रकट हुए । उस समय सम्पूर्ण प्रसिद्ध ऋषि-मुनि तथा देवता, यक्ष, किन्नर, विद्याधर आदि मंगल द्रव्य ले-लेकर पधारे । स्वयं ब्रह्माजी ने नम्रतापूर्वक उसका जातकर्म-संस्कार किया और उस बालक के रूप तथा वेद का विचार करके यह निश्चय किया की इसका नाम गृहपति होना चाहिए । तत्पश्चात सबके पितामह ब्रह्मा चारों वेदों में कथित आशीर्वादात्मक मन्त्रों द्वारा उसका अभिनन्दन करके हंसपर आरूढ़ हो अपने लोक को चले गए । तदनन्तर ब्राह्मण देवता ने यथासमय सब संस्कार करते हुए बालक को वेदाध्ययन कराया । तत्पश्चात नवां वर्ष आने पर माता-पिता की सेवा में तत्पर रहने वाले विश्वानर-नन्दन गृहपति को देखने के लिए वहां पर नारदजी पधारे । बालक ने माता-पिता सहित नारदजी को प्रणाम किया । फिर नारदजी जे बालक की हस्तरेखा, जिह्वा, तालु आदि देखकर कहा - "मुनि विश्वानर ! मैं तुम्हारे पुत्र के लक्षणों का वर्णन करता हूँ, तुम आदरपूर्वक उसे श्रवण करो । तुम्हारा यह पुत्र परम भाग्यवान है परन्तु मुझे शंका है कि इसके बारहवें वर्ष में इस पर बिजली अथवा अग्निद्वारा विघ्न आएगा ।" यों कहकर नारदजी जैसे आये थे, वैसे ही देवलोक को चले गए ।

सनत्कुमार जी ! नारदजी का कथन सुनकर पत्नीसहित विश्वानर ने समझ लिया कि यह तो बड़ा भयङ्कर वज्रपात हुआ । फिर वे "हाय ! मैं मारा गया " यों कहकर छाती पीटने लगे और पुत्रशोक से व्याकुल होकर गहरी मूर्च्छा के वशीभूत हो गए ।  तब माता-पिता को इस प्रकार अत्यन्त शोकग्रस्त देखकर गृहपति मुस्कुराकर बोलै ।

गृहपति ने कहा: माताजी और पिताजी ! बताइये इस समय आप लोगों के रोने का कारण क्या है? किसलिए आपलोग फुट फूटकर रो रहे हैं? कहाँ से ऐसा भय आपलोगों को प्राप्त हुआ है ? माता-पिताजी ! अब आपलोग मेरी प्रतिज्ञा सुनिए - "यदि मैं आप लोगों का पुत्र हूँ तो ऐसा प्रयत्न करूँगा जिससे मृत्यु भी भयभीत हो जायेगी । मैं सत्पुरुषों को सब कुछ दे डालनेवाले सर्वज्ञ मृत्युंजय की भलीभांति आराधना करके महाकाल को भी जीत लूँगा - यह मैं आप लोगों से बिलकुल सत्य कह रहा हूँ ।"

नन्दीश्वर कहते हैं: मुने ! माता-पिता की आज्ञा पाकर गृहपति ने उनके चरणों में प्रणाम किया । फिर उनकी प्रदक्षिणा करके और उन्हें बहुत तरह से आश्वासन दे वे वहां से चल पड़े और उस काशीपुरी में जा पहुंचे, जो ब्रह्मा और नारायण आदि देवों के लिए दुष्प्राप्य, महाप्रलय के सन्ताप का विनाश करनेवाली और विश्वनाथ द्वारा सुरक्षित थी तथा जो कण्ठप्रदेश में हार की तरह पड़ी हुई गंगा से सुशोभित तथा विचित्र गुणशालिनी हरपत्नी  गिरिजा से विभूषित थी । वहां पहुंचकर वे विप्रवर पहले मणिकर्णिका पर गए । वहां उन्होंने विधिपूर्वक स्नान करके भगवान् विश्वनाथ का दर्शन किया । फिर बुद्धिमान गृहपति ने परमानन्दमग्न हो त्रिलोकी के प्राणो की प्राणरक्षा करनेवाले शिव को प्रणाम किया  वे बारम्बार शिवलिङ्ग को देखकर ह्रदय में हर्षित हो रहे थे और सोच रहे थे कि यह लिङ्ग निस्संदेह स्पष्टरूप से आनन्ददायक ही  

शिव के हनुमदवतार का वर्णन

नन्दीश्वर कहते हैं : मुने ! अब तुम हनुमान जी का चरित्र वर्णन सुनो । हनुमद्रूप से शिवजी ने बड़ी उत्तम लीलाएं की हैं । विप्रवर ! इसी रूप से महेश्वर ने भगवान् राम का हित किया था । जब अत्यन्त अद्भुत लीला करनेवाले गुणशाली भगवान् शम्भु को विष्णु के मोहिनी रूप का दर्शन प्राप्त हुआ, तब वे कामदेव के बाणो से आहत हुए की तरह क्षुब्ध हो उठे । उस समय उन परमेश्वर ने रामकार्य की सिद्धि के लिए अपना वीर्यपात किया । तब सप्तर्षियों ने उस वीर्य को पत्रपुटक में स्थापित कर लिया; क्योंकि शिवजी ने ही रामकार्य के लिए आदरपूर्वक उनके मन में प्रेरणा की थी । तत्पश्चात उन महर्षियों ने शम्भु के उस वीर्य को रामकार्य की सिद्धि के लिए गौतमकनया अञ्जनी के कान के रास्ते स्थापित कर दिया । तब समय आने पर उस गर्भ से शम्भु महान बल-पराक्रम सम्पन्न, वानर-शरीर धारण करके उत्पन्न हुए, उनका नाम हनुमान रखा गया । महाबली कपीश्वर हनुमान जब शिशु ही थे, उसी समय उदय होते हुए सूर्यबिम्ब को छोटा सा फल समझकर तुरन्त ही निगल गए । जब देवताओं ने उनकी प्रार्थना की, तब उन्होंने उसे महाबली सूर्य जानकार उगल दिया । तब देवर्षियों ने उन्हें शिव का अवतार माना और बहुत सा वरदान दिया । तदनन्तर हनुमान अत्यन्त हर्षित होकर अपनी माता के पास गए और उन्होंने यह सारा वृत्तान्त आदरपूर्वक कह सुनाया । फिर माता की आज्ञा से धीर-वीर कपि हनुमान ने नित्य सूर्य के निकट जाकर उनसे अनायास ही सारी विद्याएं सीख लीं । तदनन्तर रूद्र के अंशभूत कपिश्रेष्ठ हनुमान सूर्य की आज्ञा से सूर्यान्श से उप्तन्न हुए सुग्रीव के पास चले गए । इसके लिए उन्हें अपनी माता से भी अनुज्ञा मिल चुकी थी ।

तदनन्तर नन्दीश्वर ने भगवान् राम का सम्पूर्ण चरित्र सक्षेप से वर्णन करके कहा - 'मुने ! इस प्रकार कपिश्रेष्ठ हनुमान ने सब तरह से श्रीराम का कार्य पूरा किया, नाना प्रकार की लीलाएं कीं, असुरों का मानमर्दन किया, भूतल पर रामभक्ति की स्थापना की और स्वयं भक्ताग्रगण्य होकर सीता-राम को सुख प्रदान किया । वे रुद्रावतार ऐश्वर्यशाली हनुमान लक्ष्मण के प्राणदाता, सम्पूर्ण देवताओं के गर्वहारी और भक्तों का उद्धार करनेवाले हैं । महावीर हनुमान सदा रामकार्य में तत्पर रहनेवाले, लोक में 'रामदूत' नाम से विख्यात, दैत्यों के संहारक और भक्तवत्सल हैं ।

===================== उमा संहिता आरम्भ =====================


काल को जीतने का उपाय, नवधा शब्दब्रह्म एवं तुंकार के अनुसंधान और उससे प्राप्त होनेवाली सिद्धियों का वर्णन
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देवी पार्वती ने कहा: प्रभो ! काल से आकाश का भी नाश होता है । वह भयङ्कर काल बड़ा विकराल है । वह स्वर्ग का भी एकमात्र स्वामी है । आपने उसे दग्ध कर दिया था, परन्तु अनेक प्रकार के स्तोत्रों द्वारा जब उसने आपकी स्तुति की, तब आप फिर सन्तुष्ट हो गए और वह काल पुनः अपनी प्रकृति को प्राप्त हुआ - पूर्णतः स्वस्थ हो गया । आपने उससे बातचीत में कहा - 'काल! तुम सर्वत्र विचारोगे, किन्तु लोग तुम्हें देख नहीं सकेंगे ।' आप प्रभु की कृपादृष्टि होने और वर मिलने से वह काल जी उठा तथा उसका प्रभाव बहुत बढ़ गया । अतः महेश्वर ! क्या यहाँ ऐसा कोई साधन है, जिससे उस काल को नष्ट किया जा सके ? यदि हो तो मुझे बताइये; क्योंकि आप योगियों में शिरोमणि और स्वतन्त्र प्रभु हैं । आप परोपकार के लिए ही शरीर धारण करते हैं ।
शिव बोले: देवि!  श्रेष्ठ देवता, दैत्य, यक्ष, राक्षस, नाग और मनुष्य - किसी के द्वारा भी काल का नाश नहीं किया जा सकता; परन्तु जो ध्यानपारायण योगी हैं, वे शरीरधारी होने पर भी सुखपूर्वक काल को नष्ट कर देते हैं । वरारोहे ! यह पाञ्चभौतिक शरीर सदा उन भूतों के गुणों से युक्त ही उत्पन्न होता है और उन्हीं में इसका ले होता है । मिटटी की देह मिटटी में ही मिल जाती है । आकाश से वायु उत्पन्न होती है, वायु से तेजस्तत्त्व प्रकट होता है, तेज से जल का प्राकट्य बताया गया है और जल से पृथ्वी का आविर्भाव होता है । पृथ्वी आदि भूत क्रमशः अपने कारण में लीन होते हैं । पृथ्वी के पांच, जल के चार, तेज के तीन और वायु के दो गुण होते हैं । आकाश का एकमात्र शब्द ही गुण है । पृथ्वी आदि में जो गुण बताये गए हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं - शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध । जब भूत अपने गुण को त्याग देता है, तब नष्ट हो जाता है और जब गुण को ग्रहण करता है, तब उसका प्रादुर्भाव हगा बताया जाता है । देवेश्वरि ! इस प्रकार तुम पाँचों भूतों के यथार्थ स्वरुप को समझो । देवि ! इस कारण काल को जीतने की इच्छावाले योगी को चाहिए कि वह प्रतिदीन प्रयत्नपूर्वक अपने-अपने काल में उसके अंशभूत गुणों का चिन्तन करे ।

योगवेत्ता पुरुष को चाहिए कि सुखद आसन पर बैठकर विशुद्ध श्वास(प्राणायाम) द्वारा योगाभ्यास करे । रात में जब सब लोग सो जाएँ, उस समय दीपक बुझाकर अन्धकार में योग करे । तर्जनी अंगुली से दोनों कानों को बंद करके दो घडी तक दबाये रखे । उस अवस्था में अग्निप्रेरित शब्द सुनाई देता है । इससे संध्या के बाद का खाया हुआ अन्न क्षणभर में पच जाता है और सम्पूर्ण रोगों तथा ज्वर आदि बहुत से उपद्रवों का शीघ्र नाश कर देता है । जो साधक प्रतिदिन इसी प्रकार दो घड़ी तक शब्दब्रह्म का साक्षात्कार करता है, वह मृत्यु तथा काम को जीतकर इस जगत में स्वछन्द विचरता है और सर्वज्ञ एवं समदर्शी होकर सम्पूर्ण सिद्धियों को प्राप्त कर लेता है । जैसे आकाश में वर्षा से युक्त बादल गरजता है, उसी प्रकार उस शब्द को सुनकर योगी तत्काल संसार-बन्धन से मुक्त हो जाता है । तदनन्तर योगियों द्वारा प्रतिदिन चिन्तन किया जाता हुआ वह शब्द क्रमशः सूक्ष्म से सूक्ष्मतर हो जाता है । देवि ! इस प्रकार में तुम्हें शब्दब्रह्म के चिन्तन का क्रम बताया है । जैसे धान चाहनेवाला पुरुष पुआल को छोड़ देता है, उसी तरह मोक्ष कि इच्छावाला योगी सारे बन्धनों को त्याग देता है ।

इस शब्दब्रह्म को पाकर भी जो दूसरी वास्तु कि अभिलाषा करते है, वे मुक्के से आकाश को मारते और भूख-प्यास की कामना करते हैं । यह शब्दब्रह्म ही सुखद, मोक्ष का कारण, बाहर-भीतर के भेद से रहित, अविनाशी और समस्त उपाधियों से रहित परब्रह्म है । इसे जानकार मनुष्य मुक्त हो जाते हैं । जो लोग कालपाश से मोहित हो शब्दब्रह्म को नहीं जानते, वे पापी और कुबुद्धि मनुष्य मौत के फन्दे में फंसे रहते हैं । मनुष्य तभी तक संसार में जन्म लेते हैं, जब तक सब के आश्रयभूत परमतत्व (परब्रह्म परमात्मा) की प्राप्ति नहीं होती । परमतत्त्व का ज्ञान हो जानेपर मनुष्य जन्म-मृत्यु के बन्धन से मुक्त हो जाता है । निद्रा और आलस्य साधना का बहुत बड़ा विघ्न है । इस शत्रु को यत्नपूर्वक जीतकर सुखद आसनपर आसीन हो प्रतिदिन शब्दब्रह्म का अभ्यास करना चाहिए । सौ वर्ष की अवस्थावाला वृद्ध पुरुष आजीवन इसका अभ्यास करे तो उसका शरीररूपी स्तम्भ मृत्यु को जीतनेवाला हो जाता है और उसे प्राणवायु की शक्ति को बढ़ानेवाला आरोग्य प्राप्त होता है । वृद्ध पुरुष में भी ब्रह्म के अभ्यास से होनेवाले लाभ का विश्वास देखा जाता है, फिर तरुण मनुष्य को इस साधना से पूर्ण लाभ हो इसके लिए तो कहना ही क्या है । यह शब्दब्रह्म न ओंकार है, न मन्त्र है, न बीज है, न अक्षर है । यह अनाहत नाद (बिना आघात के अथवा बिना बजाये ही प्रकट होनेवाला शब्द) है । इसका उच्चारण किये बिना ही चिन्तन होता है । यह शब्दब्रह्म परम कल्याणमय है । प्रिये ! शुद्ध बुद्धिवाले पुरुष यत्नपूर्वक निरन्तर इसक अनुसंधान करते हैं । अतः नौ प्रकार के शब्द बताये गए हैं, जिन्हें प्राणवत्ता पुरुषों ने लक्षित किया है । मैं उन्हें प्रयत्न करके बता रहा हूँ । उन शब्दों को नादसिद्धि भी कहते हैं । वे शब्द क्रमशः इस प्रकार हैं -

घोष, कांस्य (झांझ आदि ), श्रृंग (सिंगा आदि), घण्टा, वीणा आदि, बांसुरी, दुन्दुभि, शंख और नवां मेघगर्जन - इन नौ प्रकार के शब्दों को त्यागकर तुंकार का अभ्यास करें ।



पृथिव्यादिपञ्चक - पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश
शब्दादिपञ्चक - शब्द, स्पर्श, रूप, रास और गन्ध
वागादिपञ्चक - वाक्, पाणि, पाद, पायु तथा उपस्थ
श्रोत्रादिपञ्चक - श्रोत्र, नेत्र, नासिका, रसना और त्वक्
शिरादिपञ्चक - शिर, पाश्र्व, पृष्ठ, उदार और जंघा
त्वागादिपञ्चक -
प्राणादिपञ्चक - प्राण, अपान, उदान, व्यान,
अन्नमयादिकोशपञ्चक - अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनन्दमय
इनके शिव मन, चित्त, बुद्धि, अहङ्कार, ख्याति, संकल्प, गुण, प्रकृति और पुरुष हैं
तत्त्वपञ्चक(पञ्चकंचुक) - नियति, काल, राग, विद्या और कला (ये पांचों माया से उत्पन्नहैं - 'मायां तु प्रकृति विद्यात्')

नियति, प्रकृति के नीचे है और यह पुरुष प्रकृति से ऊपर है । जैसे कौव्वे की एक ही आँख उसके दोनों गोलकों में घूमती रहती है, उसी प्रकार पुरुष प्रकृति और नियति दोनों के पास रहता है । यह विद्यातत्त्व कहा गया है ।

शिवतत्त्व - विद्या, महेश्वर, सदाशिव, शक्ति और शिव


========================= वायवीय संहिता =========================== 

पशु, पाश और पशुपति का तात्विक विवेचन 
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मुनि वायु देवता ने जो ज्ञान ब्रह्मा जी के मुख से प्राप्त किया था उसके बारे में प्रश्न करते हुए कहते हैं -

मुनियों ने पूछा: आपने वह कौन सा ज्ञान प्राप्त किया, जो सत्य से भी परम सत्य एवं शुभ है तथा जिसमें उत्तम निष्ठा रखकर रखकर पुरुष परमानन्द को प्राप्त करता है ?

वायुदेव बोले: महर्षियों ! मैंने पूर्वकाल में पशु-पाश और पशुपति का जो ज्ञान प्राप्त किया था, सुख चाहनेवाले पुरुष को उसी में ऊंची निष्ठा रखनी चाहिए । अज्ञान से उत्पन्न होनेवाला दुःख ज्ञान से ही दूर होता है । वस्तु के विवेक का नाम ज्ञान है । वस्तु के तीन भेद माने गए हैं - जड़(प्रकृति), चेतन(जीव) और उन दोनों का नियन्ता(परमेश्वर) । इन्ही तीनों को क्रम से पाश, पशु और पशुपति कहते हैं । तत्वज्ञ पुरुष प्रायः इन्हीं तीन तत्वों को क्षर, अक्षर तथा उन दोनों से अतीत कहते हैं । अक्षर ही पशु कहा गया है । क्षर तत्त्व का ही नाम पाश है तथा क्षर और अक्षर दोनों से परे जो परमतत्व है, उसी को पति या पशुपति कहते हैं ।  प्रकृति को ही क्षर कहा गया है । पुरुष (जीव) को ही क्षर कहते हैं और जो इन दोनों को प्रेरित करता है, वह क्षर और अक्षर दोनों से भिन्न तत्त्व परमेश्वर कहा गया है। माया का नाम ही प्रकृति है । पुरुष उस माया से आवृत है । मल और कर्म के द्वारा प्रकृति का पुरुष के साथ सम्बन्ध होता है । शिव ही इन दोनों के प्रेरक ईश्वर हैं । माया महेश्वर की शक्ति है । चित्स्वरूप जीव उस माया से आवृत है । चेतन जीव को आच्छादित करनेवाला अज्ञानमय पाश ही मल कहलाता है । उससे शुद्ध हो जाने पर जीव स्वतः ही शिव हो जाता है । वह विशुद्ध ही शिवतत्व है ।

मुनियों ने पूछा : सर्वव्यापी चेतन को माया किस हेतु से आवृत करती है ? किसलिए पुरुष को आवरण प्राप्त होता है ? और किस उपाय से उसका निवारण होता है ?

वायुदेवता बोले: व्यापक तत्त्व को भी आंशिक आवरण प्राप्त होता है; क्योंकि कला आदि भी व्यापक हैं । भोग के लिए किया गया कर्म ही उस आवरण में कारण है । मल का नाश होने से वह आवरण दूर हो जाता है । कला, विद्या, राग, काल और नियति - इन्हीं को कला आदि कहते हैं । कर्मफल का जो उपभोग करता है, उसी का नाम पुरुष(जीव) है । कर्म दो प्रकार के हैं - पुण्य कर्म और पाप कर्म । पुण्य कर्म का फल सुख और पापकर्म का फल दुःख है । कर्म अनादि है और फल का उपभोग कर लेने पर उसका अन्त हो जाता है । यद्यपि जड़ कर्म का चेतन आत्मा से कोई सम्बन्ध नहीं है, तथापि अज्ञानवश जीव ने उसे अपने आप में मान रखा है । भोग कर्म का विनाश करनेवाला है, प्रकृति को भोग्य कहते हैं और भोग का साधन है शरीर । बाह्य इन्द्रियां और अन्तः करण उसके द्वार हैं । अतिशय भक्तिभाव से उपलब्ध हुए महेश्वर के कृपाप्रसाद से मल का नाश होता है और मल का नाश हो जाने पर पुरुष निर्मल - शिव के समान हो जाता है । विद्या पुरुष की ज्ञान शक्ति को और कला उसकी क्रिया शक्ति को अभिव्यक्त करने वाली है । राग, भोग्य वस्तु के लिए क्रिया में प्रवृत करनेवाला होता है । काल उसमें अवच्छेदक होता है और नियति उसे नियंत्रण में रखनेवाली है । अव्यक्तरूप जो कारण है, वह त्रिगुणमय है; उसी से जड़ जगत की उत्पत्ति होती है और उसी में उसका लय होता है । तत्त्व चिन्तक पुरुष उस अव्यक्त को ही प्रधान और प्रकृति कहते हैं । सत्व, रज और तम - ये तीनों गुण प्रकृति से प्रकट होते हैं; तिल में तेल की भांति वे प्रकृति में सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहते हैं । सुख और उसके हेतु को संक्षेप से सात्विक कहा जाता है, दुःख और उसके हेतु राजस कार्य हैं तथा जड़ता और मोह - वे तमोगुण के कार्य हैं । सात्विकी वृत्ति उर्ध्व को ले जाने वाली है, तामसी वृत्ति अधोगति में डालनेवाली है तथा राजसी वृत्ति मध्यम स्थिति में रखनेवाली है । पांच तन्मात्राएं, पांच भूत, पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ तथा प्रधान (प्रकृति), महत्तत्व(बुद्धि), अहंकार और मन - ये चार अन्तः करण - सब मिलकर चौबीस तत्त्व होते हैं । इस प्रकार संक्षेप से ही विकारसहित अव्यक्त (प्रकृति) का वर्णन किया गया । कारणावस्था में रहने पर ही इसे अव्यक्त कहते हैं और शरीर आदि के रूप में जब वह कार्यावस्था को प्राप्त होता है, तब उसकी 'व्यक्त' संज्ञा होती है - ठीक उसी तरह, जैसे कारणावस्था में स्थित होने पर जिसे हम 'मिट्टी' कहते हैं वही कार्यावस्था में 'घट' आदि नाम धारण कर लेती है । जैसे घट आदि कार्य मृत्तिका आदि कारण से अधिक भिन्न नहीं है, उसी प्रकार शरीर आदि व्यक्त पदार्थ अव्यक्त से अधिक भिन्न नहीं है । इसलिए एकमात्र अव्यक्त ही कारण, करण, उनका आधारभूत शरीर तथा भोग्य वस्तु है, दूसरा कोई नहीं ।

मुनियों ने पूछा : प्रभो ! बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर से व्यतिरिक्त किसी आत्मा नामक वस्तु की वास्तविक स्थिति कहाँ है ?

वायुदेवता बोले : महर्षियों ! सर्वव्यापी चेतन का बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर से पार्थक्य अवश्य है । आत्मा नामक कोई पदार्थ अवश्य ही विद्यमान है; परन्तु उसकी सत्ता में किसी हेतु की उपलब्धि बहुत ही कठिन है । सत्पुरुष बुद्धि, इन्द्रिय और शरीर को आत्मा नहीं मानते; क्योंकि स्मृति (बुद्धि का ज्ञान) अनियत है तथा उसे सम्पूर्ण शरीर का एकसाथ ज्ञान नहीं होता । इसीलिए वेदों और वेदान्तों में आत्मा को पूर्वानुभूत विषयों का स्मरणकर्ता, सम्पूर्ण ज्ञेय पदार्थों में व्यापक तथा अंतर्यामी कहा जाता है । यह न स्त्री है, न पुरुष और न नपुंसक ही है । न ऊपर है, न अगल-बगल में है, न नीचे है और किसी स्थान-विशेष में है । यह सम्पूर्ण चल शरीरों में अविचल, निराकार और अविनाशी रूप से स्थित है । ज्ञानी पुरुष निरंतर विचार करने से उस आत्मतत्त्व का साक्षात्कार कर पाते हैं ।

पुरुष जो वह शरीर कहा गया है, इससे बढ़कर अशुद्ध, पराधीन, दुखमय और अस्थिर दूसरी कोई वस्तु नहीं है । शरीर ही सब विपत्तियों का मूल कारण है । उससे युक्त हुआ पुरुष अपने कर्म के अनुसार दुखी, सुखी और मूढ़ होता है । जैसे पानी से सींचा हुआ खेत अंकुर उत्पन्न करता है, उसी प्रकार अज्ञान से आप्लावित हुआ कर्म नूतन शरीर को जन्म देता है । ये शरीर अत्यन्त दुखों के आलय माने जाते हैं । इनकी मृत्यु अनिवार्य होती है । भूतकाल में कितने ही शरीर नष्ट हो गए और भविष्य में सहस्त्रों शरीर आनेवाले हैं वे सब आ-आकर जीर्ण-शीर्ण हो जाते हैं, तब पुरुष उन्हें छोड़ देता है । कोई भी जीवात्मा किसी भी शरीर में अनन्त काल तक रहने का अवसर नहीं पाता । यहाँ स्त्रियों, पुत्रों और बन्धु-बान्धवों से जो मिलन होता है, वह पथिक को मार्ग में मिले हुए दुसरे पथिको के समागम के ही समान है । जैसे महासागर में एक काष्ठ कहीं से और दूसरा काष्ठ कहीं से बहकर आता है, वे दोनों काष्ठ कहीं थोड़ी देर के लिए मिल जाते हैं और मिलकर फिर बिछुड़ जाते हैं । उसी प्रकार प्राणियों का यह समागम भी संयोग-वियोग से युक्त है । ब्रह्मा जी से लेकर स्थावर प्राणियों तक सभी जीव पशु कहे गए हैं । उन सभी पशुओं के लिए ही यह दृष्टान्त या दर्शन-शास्त्र कहा गया है । यह जीव पाशों में बंधता और सुख-दुःख भोगता है, इसीलिए पशु कहलाता है । यह ईश्वर के लीला का साधन भूत है, ऐसा ज्ञानी महात्मा कहते हैं ।

उपमन्यु द्वारा श्रीकृष्ण को पाशुपत ज्ञान का उपदेश*
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[ वायवीय संहिता(उत्तरखण्ड), अध्याय १ ]

*ऋषियों ने पूछा:* पाशुपत ज्ञान क्या है? भगवान् शिव पशुपति कैसे हैं ? और अनायास ही महान कर्म करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण ने उपमन्यु से किस प्रकार प्रश्न किया था? वायु देव! आप साक्षात् शङ्कर के स्वरुप हैं, इसलिए ये सब बातें बताइये। तीनों लोकों में आपके समान दूसरा कोई वक्त इन बातों को बताने में समर्थ नहीं है ।

*सूतजी कहते हैं* - उन महर्षियों की यह बात सुनकर बायुदेव ने भगवान् शङ्कर का स्मरण करके इस प्रकार उत्तर देना आरम्भ किया ।
*वायुदेव बोले:* महर्षियों ! पूर्वकाल में श्रीकृष्णरूपधारी भगवान् विष्णु ने अपने आसन पर बैठे हुए महर्षि उपमन्यु से उन्हें प्रणाम करके न्यायपूर्वक यों प्रश्न किया ।

*श्रीकृष्ण ने कहा:* भगवन ! महादेवजी ने देवी पारवती को जिस दिव्य पाशुपत ज्ञान तथा अपनी सम्पूर्ण विभूति का उपदेश दिया था, मैं उसी को सुनना चाहता हूँ । महादेव जी पशुपति कैसे हुए ? पशु कौन कहलाते हैं ? वे पशु किन पाशों से बांधे जाते हैं और फिर किस प्रकार उनसे मुक्त होते हैं ?

महात्मा श्रीकृष्ण के इस प्रकार पूछनेपर श्रीमान उपमन्यु ने महादेव जी तथा देवी पार्वती को प्रणाम करके उनके प्रश्न के अनुसार उत्तर देना आरम्भ किया ।

*उपमन्यु बोले:* देवकीनन्दन ! ब्रह्माजी से लेकर स्थावरपर्यन्त जो भी संसार के वशवर्ती चराचर प्राणी हैं, वे सब के सब भगवान् शिव के पशु कहलाते हैं और उनके पति होने के कारण देवेश्वर शिव को पशुपति कहा गया है । वे पशुपति अपने पशुओ को मल और माया आदि पाशों से बांधते हैं और भक्तिपूर्वक उनके द्वारा आराधित होनेपर वे स्वयं ही उन्हें उन पाशों से मुक्त करते हैं । जो चौबीस तत्त्व हैं, वे माया के कार्य एवं गुण हैं । वे ही विषय कहलाते हैं, जीवों(पशुओं) को बांधनेवाले पाश वे ही हैं । इन पाशोंद्वारा ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त समस्त पशुओं को बांधकर महेश्वर पशुपतिदेव उनसे अपना कार्य करते हैं । उन महेश्वर की ही आज्ञा से प्रकृति पुरुषोचित बुद्धि को जन्म देती है । बुद्धि अहङ्कार को प्रकट करती है तथा अहङ्कार कल्याणदायी देवाधिदेव शिव की आज्ञा से ग्यारह इन्द्रियों और पांच तन्मात्राओं को उत्पन्न करता है । तन्मात्रयें भी उन्हीं महेश्वर के महान शासन से प्रेरित हो क्रमशः पांच महाभूतों को उत्पन्न करती हैं । वे सब महाभूत शिव की आज्ञा से ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त देहधारियों के लिए देह की सृष्टि करते हैं, बुद्धि कर्तव्य का निश्चय करती है और अहङ्कार अभिमान करता है । चित्त चेतता है और मन संकल्प करता है, श्रवण आदि ज्ञानेन्द्रियाँ पृथक-पृथक शब्द आदि विषयों को ग्रहण करती हैं । वे महादेवजी के आज्ञाबल से केवल अपने ही विषयों को ग्रहण करती हैं । वाक् आदि कर्मेन्द्रियाँ कहलाती हैं और शिव की इच्छा से अपने लिए नियत कर्म ही करती हैं, दूसरा कुछ नहीं । शब्द आदि जाने जाते हैं और बोलना आदि कर्म किये जाते हैं । इन सबके लिए  भगवान् शङ्कर की गुरुतर आज्ञा का उल्लंघन करना असंभव है । परमेश्वर शिव के शासन से ही आकाश सर्वव्यापी होकर समस्त प्राणियों को अवकाश प्रदान करता है, वायुत्व प्राण आदि नामभेदों द्वारा बाहर-भीतर के सम्पूर्ण जगत को धारण करता है । अग्नितत्व देवताओं के लिए हव्य और कव्यभोजी पितरों के लिए कव्य पहुंचाता है । साथ ही मनुष्यों के लिए पाक आदि का भी कार्य करता है । जल सबको जीवन देता है और पृथ्वी सम्पूर्ण जगत को सदा धारण किये रहती है ।

शिव की आज्ञा सम्पूर्ण देवताओं के लिए अलंघनीय है । उसी से प्रेरित होकर देवराज इन्द्र देवताओं का पालन, दैत्यों का दमन और तीनों लोकों का संरक्षण करते हैं । वरुणदेव सदा जलतत्व के पालन और संरक्षण का कार्य सँभालते हैं, साथ ही दण्डनीय प्राणियों को अपने पाशोंद्वारा बाँध लेते हैं । धन के स्वामी यक्षराज कुबेर प्राणियों को उनके पुण्य के अनुरूप सदा धन देते हैं और उत्तम बुद्धिवाले पुरुषों को सम्पत्ति के साथ ज्ञान भी प्रदान करते हैं । ईश्वर असाधु पुरुषों का निग्रह करते हैं तथा शेष शिव की ही आज्ञा से अपने मस्तक पर पृथ्वी को धारण करते हैं । उन शेष को श्रीहरि की तामसी रौद्रमूर्ति कहा गया है, जो जगत का प्रलय करनेवाली है । ब्रह्माजी शिव की ही आज्ञा से सम्पूर्ण जगत की सृष्टि करते हैं तथा अपनी अन्य मूर्तितयों द्वारा पालन और संहार का कार्य भी करते हैं । भगवान् विष्णु अपनी त्रिविध मूर्तितयों द्वारा पालन, सर्जन और संहार भी करते हैं । विश्वात्मा भगवान् हर भी तीन रूपों में विभक्त हो सम्पूर्ण जगत का संहार, सृष्टि और रक्षा करते हैं । काल सबको उत्पन्न करता है । वही प्रजा की सृष्टि करता है तथा वही विश्व का पालन करता है । यह सब वह महाकाल की आज्ञा से प्रेरित होकर करता है । भगवान् सूर्य उन्ही की आज्ञा से अपने तीन अंशों द्वारा जगत का पालन करते, अपनी कारणों द्वारा वृष्टि के लिए आदेश देते और स्वयं ही आकाश में मेघ बनकर बरसते हैं । चंद्रभूषण शिव का शासन मानकर ही चन्द्रमा औषधियों का पोषण और प्राणियों को आह्लादित करते हैं । साथ ही देवताओं को अपनी अमृतमयी कलाओं का पान करने देते हैं । आदित्य, रूद्र, अश्विनीकुमार, मरुद्गण, आकाशचारी ऋषि, सिद्ध, नागगण, मनुष्य, मृग, पशु, पक्षी, कीट आदि स्थावर प्राणी, नदियों, समुद्र, पर्वत, वन, सरोवर, अङ्गोंसहित वेद, शास्त्र, मन्त्र, वैदिकस्तोत्र और यज्ञ आदि, कालाग्नि से लेकर शिवपर्यन्त भुवन, उनके अधिपति, असंख्य ब्रह्माण्ड, उनके आवरण, वर्तमान, भूत और भविष्य, दिशा-विदिशाएं, कला आदि काल के भिन्न-भिन्न भेद तथा जो कुछ भी इस जगत में देखा और सुना जाता है, वह सब भगवान्  शङ्कर आज्ञा के बल से ही टिका हुआ है । उनकी आज्ञा के ही बल से यहाँ पृथ्वी, पर्वत, मेघ, समुद्र, नक्षत्रगण, इन्द्रादि देवता, स्थावर, जंगम अथवा जड़ और चेतन - सबकी स्थिति है ।
ॐ नमः शिवाय शुभं शुभं कुरु कुरु शिवाय नमः ॐ

पांच प्रकार के जप (वाचिक, उपांशु, मानस, अगर्भ, सगर्भ) 
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मानस जप उत्तम है, उपांशु जप मध्यम है तथा वाचिक जप उससे निम्नकोटि का माना गया है - ऐसा आगमार्थविशारद विद्वानों का कथन है । जो ऊंचे-नीचे स्वर से युक्त तथा स्पष्ट और अस्पष्ट पदों एवं अक्षरों के साथ मन्त्र का वाणी द्वारा उच्चारण करता है, उसका यह जप 'वाचिक' कहलाता है । जिस जप में केवल जिह्वा मात्र हिलती है अथवा बहुत धीमे स्वर से अक्षरों का उच्चारण होता है तथा जो दूसरों के कान में पड़ने पर भी उन्हें कुछ सुनाई नहीं देता, ऐसे जप को 'उपांशु' कहते हैं । जिस जप में अक्षर पङ्क्ति का एक वर्ण से दूसरे वर्ण का, एक पद से दूसरे पद का तथा शब्द और अर्थ का मन के द्वारा बारम्बार चिन्तनमात्र होता है, वह 'मानस' जप कहलाता है । वाचिक जप एकगुणा ही फल देता है, उपांशु जप सौ गुना फल देने वाला बताया गया है, मानस जप का फल सहस्त्र गुना कहा गया है तथा सगर्भ जप उससे सौगुना अधिक फल देनेवाला है । प्राणायामपूर्वक जो जप होता है उसे 'सगर्भजप' कहते हैं । अगर्भजप में भी आदि और अन्त में प्राणायाम कर लेना श्रेष्ठ बताया गया है । मन्त्रार्थवेत्ता बुद्धिमान साधक प्राणायाम करते समय चालीस बार मन्त्र का स्मरण कर ले । जो ऐसा करने में असमर्थ हो, वह अपनी शक्ति के अनुसार जितना हो सके, उतने ही मन्त्रों का मानसिक जप कर ले । पांच, तीन अथवा एक बार अगर्भ या सगर्भ प्राणायाम करे । इन दोनों में सगर्भ प्राणायाम श्रेष्ठ माना गया है । सगर्भ के अपेक्षा भी ध्यानसहित जप सहस्त्रगुना फल देनेवाला कहा जाता है । इन पांच प्रकार के जपों में कोई एक जप अपनी शक्ति के अनुसार करना चाहिए ।
अंगुली से जप की गणना करना एक गुना बताया गया है । रेखा से गणना करना आठगुना उत्तम समझना चाहिए । पुत्रजीव(जियापोता) के बीजों की माला से गणना करनेपर जप का दसगुना अधिक फल होता है । शङ्ख के मनकों से सौ गुना, मूंगों से हजारगुना, स्फटिक मणि की माला से दस हज़ार गुना, मोतियों की माला से लाख गुना, पद्माक्ष से दस लाख गुना और सुवर्ण के बने हुए मनको से गणना करनेपर कोटिगुना अधिक फल बताया गया है । कुश की गाँठ से तथा रुद्राक्ष से गणना करनेपर अनन्तगुणे फल की प्राप्ति होती है । तीस रुद्राक्ष के दानों से बनायीं गयी माला जप-कर्म में धन देनेवाली होती है । सत्ताईस दानों की माला पुष्टिदायिनी और पच्चीस दानों की माला मुक्तिदायिनी होती है, पंद्रह रुद्राक्षों की बनी माला अभिचार कर्म में फलदायक होती है । जपकर्म में अंगूठे को मोक्षदायक समझना चाहिए और तर्जनी को शत्रुनाशक ! मध्यमा धन देती है और अनामिका शांति प्रदान करती है । एक सौ आठ दानों की माला उत्तमोत्तम मानी गयी है । सौ दानों की माला उत्तम और पचास दानों की माला मध्यम होती है । चौवन दानों की माला मनोहारिणी एवं श्रेष्ठ कही गयी है । इस तरह की माला से जप करे । वह जप किसी को दिखाए नहीं । कनिष्ठिका ऊँगली अक्षरिणी(जप के फल को क्षरित - नष्ट न करनेवाली) मानी गयी है; इसलिए जपकर्म में शुभ है । दूसरी अँगुलियों के साथ अंगुष्ठ द्वारा जप करना चाहिए; क्योंकि अंगुष्ठ के बिना किया हुआ जप निष्फल होता है ।
घर में किये हुए जप को समान या एकगुणा समझना चाहिए । गोशाला में उसका फल सौगुना हो जाता है, पवित्र वन या उद्यान में किये हुए जप का फल सहस्त्रगुना बताया जाता है । पवित्र पर्वत पर दस हज़ार गुना, नदी के तट पर लाख गुना, देवालय में कोटि गुना और मेरे निकट किये हुए जप को अनन्तगुना कहा गया है । सूर्य, अग्नि, गुरु, चन्द्रमा, दीपक, जल, ब्राह्मण और गौओं के समीप किया हुआ जप श्रेष्ठ होता है । पूर्वाभिमुख किया हुआ जप वशीकरण में और दक्षिणाभिमुख किया हुआ जप अभिचारकर्म में सफलता देने वाला है । पश्चिमाभिमुख जप को धनदायक जानना चाहिए और उत्तराभिमुख जप शांतिदायक होता है । सूर्य, अग्नि, ब्रह्मा, देवता तथा अन्य श्रेष्ठ पुरुषों के समीप उनकी ओर पीठ करके जप नहीं करना चाहिए, सिर पर पगड़ी रखकर, कुर्ता पहनकर, नंगा होकर, बाल खोलकर, गले में कपड़ा लपेटकर, अशुद्ध हाथ लेकर, सम्पूर्ण शरीर से अशुद्ध रहकर तथा विलापपूर्वक कभी जप नहीं करना चाहिए । जप करते समय क्रोध, मद, छींकना, थूकना, जम्भाई लेना तथा कुत्तों और नीच पुरुषों की ओर देखना वर्जित है । यदि कभी वैसा सम्भव हो जाय तो आचमन करके अथवा तुम्हारे साथ मेरा (पार्वतीसहित शिव का) स्मरण करे या ग्रह-नक्षत्रों का दर्शन करे अथवा प्राणायाम कर ले ।
बिना आसान के बैठकर, सोकर, चलते-चलते अथवा खड़ा होकर जप न करे । गली में या सड़क पर, अपवित्र स्थान में तथा अँधेरे में भी जप न करे । दोनों पाँव फैलाकर, कुक्कुट आसन से बैठकर, सवारी या खाटपर चढ़कर अथवा चिन्ता से व्याकुल होकर जप न करे । यदि शक्ति हो तो इन सब नियमों का पालन करते हुए जप करे और अशक्त पुरुष यथाशक्ति जप करे । इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ ? संक्षेप से मेरी यह बात सुनो । सदाचारी मनुष्य शुद्धभाव से जप और ध्यान करके कल्याण का भागी होता है । आचार परम धर्म है, आचार उत्तम धन है, आचार श्रेष्ठ विद्या है और आचार ही परम गति है । आचारहीन पुरुष संसार में निन्दित होता है और परलोक में भी सुख नहीं पाटा । इसलिए सबको आचारवान होना चाहिए । वेदज्ञ विद्वानों ने वेद-शास्त्र के कथनानुसार जिस वर्ण के लिए जो कर्म विहित बताया है, उस वर्ण के पुरुष को उसी कर्म का सम्यक आचरण करना चाहिए । वही उसका सदाचार है, दूसरा नहीं । सत्पुरुषों ने उसका आचरण किया है; इसीलिए वह सदाचार कहलाता है । उस सदाचार का भी मूल कारण आस्तिकता है । यदि मनुष्य आस्तिक हो तो प्रमाद आदि के कारण सदाचार से कभी भ्रष्ट हो जानेपर भी दूषित नहीं होता । अतः सदा आस्तिकता का आश्रय लेना चाहिए । जैसे इहलोक में सत्कर्म करने से सुख और दुष्कर्म करने से दुःख होता है, उसी तरह परलोक में भी होता है - इस विश्वास को आस्तिकता कहते हैं ।

रेचक आदि नाड़ीशोधनपूर्वक जो प्राणायाम का अभ्यास किया जाता है, उसे स्वेच्छा से उत्क्रमणपर्यन्त करते रहना चाहिए - यह बात योगशास्त्र में बताई गयी है ।  कनिष्ठ आदि के क्रम से प्राणायाम चार प्रकार का कहा गया है । मात्रा और गुणों के विभाग - तारतम्य से ये भेद बनते हैं । चार भेदों में से जो कन्याक या कनिष्ठ प्राणायाम है, यह प्रथम उद्घात कहा गया है; इसमें बारह मात्राएं होती हैं । उत्तम श्रेणी का प्राणायाम तृतीय उद्घात है, उसमें छत्तीस मात्राएं होती हैं । उससे भी श्रेष्ठ जो सर्वोत्कृष्ट चतुर्थ प्राणायाम है, वह शरीर में स्वेद और कम्प आदि का जनक होता है ।

योगी के अन्दर आनन्दजनित रोमाञ्च, नेत्रों से अश्रुपात, जल्प, भ्रान्ति और मूर्च्छा आदि भाव प्रकट होते हैं । घुटने के चारों ओर प्रदक्षिण-क्रम से न बहुत जल्दी और न बहुत धीरे-धीरे चुटकी बजाये । घुटने की एक परिक्रमा में जितनी देर तक चुटकी बजती है, उस समय का मान एक मात्रा है । मात्राओं को क्रमशः जानना चाहिए । उद्घात क्रम-योग से नाड़ीशोधनपूर्वक प्राणायाम करना चाहिए । प्राणायाम के दो भेद बताये गए हैं - अगर्भ और सगर्भ । जप और ध्यान के बिना किया गया प्राणायाम 'अगर्भ' कहलाता है और जप तथा ध्यान के सहयोगपूर्वक किये जानेवाले प्राणायाम को 'सगर्भ' कहते हैं । अगर्भ से सगर्भ प्राणायाम सौ गुना अधिक उत्तम है । इसलिए योगीजन प्रायः सगर्भ प्राणायाम किया करते हैं । प्राणविजय से ही शरीर की वायुओं पर विजय पायी जाती है । प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त और धनञ्जय - ये दस प्राणवायु हैं । प्राण प्रयाण करता है, इसीलिए इसे 'प्राण' कहते हैं । जो कुछ भोजन किया जाता है, उसे जो वायु नीचे ले जाती है, उसको 'अपान' कहते हैं । जो वायु सम्पूर्ण अंगो को बढाती हुई उनमें व्याप्त रहती है, उसका नाम 'व्यान' है । जो वायु मर्मस्थानों को उद्वेजित करती है, उसकी 'उदान' संज्ञा है । जो वायु सब अंगों को समभाव से ले चलती है, वह अपने उस समनयनरूप कर्म से 'समान' कहलाती है । मुख से कुछ उगलने में कारणभूत वायु को 'नाग' कहा गया है । आँख खोलने के व्यापर में 'कूर्म' नामक वायु की स्थिति है । छींक में कृकल और जम्भाई में 'देवदत्त' नामक वायु की स्थिति है । 'धनञ्जय' नामक वायु सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त रहती है । वह मृतक शरीर को भी नहीं छोड़ती । क्रम से अभ्यास में लाया हुआ यह प्राणायाम जब उचित प्रमाण या मात्रा से युक्त हो जाता है, तब वह करता के सारे दोषों को दग्ध कर देता है और उसके शरीर की रक्षा करता है ।

प्राण पर विजय प्राप्त जो जाय तो उससे प्रकट होनेवाले चिह्नों को अच्छी तरह देखे । पहली बात यह होती है कि विष्ठा, मूत्र और कफ कि मात्रा घटने लगती है, अधिक भोजन करने कि शक्ति हो जाती है और विलम्ब से सांस चलती है । शरीर में हल्कापन आता है । शीघ्र चलने कि शक्ति प्रकट होती है । ह्रदय में उत्साह बढ़ता है । स्वर में मिठास आती है । समस्त रोगों का नाश हो जाता है । बल, तेज और सौन्दर्य कि वृद्धि होती है । धृति, मेधा, युवापन, स्थिरता और प्रसन्नता आती है । तप, प्रायश्चित्त, यज्ञ, दान और व्रत आदि जितने भी साधन हैं - ये प्राणायाम के सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हैं । अपने-अपने विषय में आसक्त हुई इन्द्रियों को वहां से हटाकर जो अपने भीतर निगृहीत करता है, उस साधन को 'प्रत्याहार' कहते हैं । मन और इन्द्रियां ही मनुष्य को स्वर्ग तथा नर्क में ले जाने वाली हैं । यदि उन्हें वश में रखा जाय तो वे स्वर्ग की प्राप्ति कराती हैं और विषयों की ओर खुली छोड़ दिया जाय तो वे नर्क में डालनेवाली होती हैं । इसलिए सुख की इच्छा रखनेवाले बुद्धिमान पुरुष को चाहिए कि वह ज्ञान-वैराग्य का आश्रय ले इन्द्रियरूपी अश्वों को शीघ्र ही काबू में करके स्वयं ही आत्मा का उद्धार करे ।

*उद्घात अर्थ नाभिमूल से प्रेरणा की हुई वायु का सर में टक्कर खाना है । यह प्राणायाम में देश, काल और संख्या परिमाण है ।
*योगसूत्र में चतुर्थ प्राणायाम का पर्चे इस प्रकार दिया गया है - 'बाह्यान्तरविषयाक्षेपि चतुर्थः' अर्थात बाह्य और आभ्यन्तर विषयों को फेंकनेवाला प्राणायाम चौथा है ।


योग के अनेक भेद, उसके आठ और छः अंगों का विवेचन 
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श्रीकृष्ण ने कहा: भगवन्! आपने ज्ञान, क्रिया और चर्या का सक्षिप्त सार उद्धृत करके मुझे सुनाया है । यह सब श्रुति के समान आदरणीय है और इसे मैंने ध्यानपूर्वक सुना है । अब मैं अधिकार, अंग, विधि और प्रयोजनसहित परम दुर्लभ योग का वर्णन सुनना चाहता हूँ । यदि योग आदि का अभ्यास करने से पहले ही मृत्यु हो जाय तो मनुष्य आत्मघाती होता है; अतः आप योग का कोई ऐसा साधन बताइये जिसे शीघ्र सिद्ध किया जा सके, जिससे कि मनुष्य को आत्मघाती न होना पड़े । योग का वह अनुष्ठान, उसका कारण, उसके लिए उपयुक्त समय, साधन तथा उसके भेदों का तारतम्य क्या है ?

उपमन्यु बोले: श्रीकृष्ण ! तुम सब प्रश्नो के तारतम्य के ज्ञाता हो । तुम्हारा यह प्रश्न बहुत ही उचित है, इसलिए मैं इन सब बातों पर क्रमशः प्रकाश डालूंगा । तुम एकाग्रचित्त होकर सुनो । जिसकी दूसरी वृत्तियों का निरोध हो गया है, ऐसे चित्त कि भगवान् शिव में जो निश्चल वृत्ति है, उसी को संक्षेप से 'योग' कहा गया है । यह योग पांच प्रकार का है - मन्त्र योग, स्पर्शयोग, भावयोग, अभावयोग और महायोग । मंत्रजप के अभ्यासवश मन्त्र के वाच्यार्थ में स्थित हुई विक्षेपरहित जो मन की वृत्ति है, उसका नाम मंत्रयोग है। मन की वही वृत्ति जब प्राणायाम को प्रधानता दे तो उसका नाम 'स्पर्शयोग' होता है । वही स्पर्शयोग जब मन्त्र के स्पर्श से रहित हो तो 'भावयोग' कहलाता है । जिससे सम्पूर्ण विश्व के रूपमात्र का अवयव विलीन (तिरोहित) हो जाता है, उसे 'अभावयोग' कहा जाता है; क्योंकि उस समय सद्वस्तु का भी मान नहीं होता । जिससे एकमात्र उपाधिशून्य शिवस्वभाव का चिन्तन किया जाता है और मन की वृत्ति शिवमयी हो जाती है, उसे 'महायोग' कहते हैं ।
 देखे और सुने गए लौकिक और पारलौकिक विषयों की ओर से जिसका मन विरक्त हो गया हो, उसी का योग में अधिकार है, दुसरे किसी का नहीं है । लौकिक और पारलौकिक, दोनों विषयों के दोषों का और ईश्वर के गुणों का सदा ही दर्शन करने से मन विरक्त होता है । प्रायः सभी योग आठ या छः अंगों से युक्त होते हैं । यम, नियम, स्वस्तिक आदि आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि - ये विद्वानों ने योग के आठ अंग बताये हैं । आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि - ये थोड़े में योग के छः लक्षण हैं । शिव शास्त्र में इनके पृथक-पृथक लक्षण बताये गए हैं । अन्य शिवागमों में, विशेषतः कामिक आदि में, योग-शास्त्रों में और किन्ही-किन्ही पुराणों में भी इनके लक्षणों का वर्णन है । अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह - इन्हें सत्पुरुषों ने यम कहा है । इस प्रकार यम पांच अवयवों के योग से युक्त है । शौच, संतोष, तप, जप(स्वाध्याय) और प्रणिधान - इन पांच भेदों से युक्त दुसरे योगांग को नियम कहा गया है । तात्पर्य यह कि नियम अपने अंशों के भेद से पांच प्रकार का है । आसन के आठ भेद कहे गए हैं - स्वस्तिक आसन, पद्मासन, अर्धचंद्रासन, वीरासन, योगासन, प्रसाधितासन, पर्यङ्कासन और अपनी रूचि के अनुसार आसन । अपने शरीर में प्रकट हुई जो वायु है, उसको प्राण कहते हैं । उसे रोकना ही उसका आयाम है । उस प्राणायाम के तीन भेद कहे गए हैं - रेचक, पूरक और कुम्भक । नासिका के एक छिद्र को दबाकर या बंद करके दूसरे से उदरस्थित वायु को निकाले। इस क्रिया को रेचक कहा गया है । फिर दूसरे नासिका छिद्र के द्वारा बाह्य वायु से शरीर को धौंकनी की तरह भर लें । इसमें वायु के पूर्ण की क्रिया होने के कारण इसे 'पूरक' कहा गया है । जब साधक भीतर की वायु को न तो छोड़ता है न बाहर की वायु को ग्रहण करता है, केवल भरे हुए घड़े की भान्ति अविचल भाव से स्थित रहता है, तब उस प्राणायाम को 'कुम्भक' नाम दिया जाता है । योग के साधक को चाहिए कि वह रेचक आदि तीनों प्राणायामों को न तो बहुत जल्दी जल्दी करे और न बहुत देर से करे । साधना के लिए उद्यत हो क्रमयोग से उसका अभ्यास करे ।

भगवान् शङ्कर के भजन-पूजन के लिए अग्निकार्य के वर्णन से अग्नि की व्याख्या
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अग्निकुण्ड तैयार करके ब्रह्मवृक्ष(पलास या गूलर) आदि के छिद्ररहित बिछले दो पत्ते लेकर उन्हें कुश से पोंछे और अग्नि में तपकर उनका प्रोक्षण करें ।  उन्हीं पत्तों को स्रुक और स्त्रुवा का रूप दे उनमें घी उठाये और अपने गृह्यसूत्र में बताये हुए क्रम से शिवबीज (ॐ) सहित आठ बीजाक्षरों द्वारा अग्नि में आहुति दे । इससे अग्नि का संसार संपन्न होता है । वे बीज इस प्रकार हैं - भ्रुं, स्तुं, ब्रुं, श्रुं, पुं, ड्रुं, द्रुं । ये साथ हैं, इनमें शिवबीज (ॐ) को सम्मिलित कर लेनेपर आठ बीजाक्षर होते हैं । उपर्युक्त साथ बीज क्रमशः अग्नि की साथ जिह्वाओं के हैं । उनकी मध्यमा जिह्वा का नाम बहुरूपा है । उसकी तीन शिखाएं हैं । उनमें से एक शिखा दक्षिण में और दूसरी वाम दिशा (उत्तर) में प्रज्वलित होती है और बीचवाली शिखा बीच में ही प्रकाशित होती है । ईशानकोण में जो जिह्वा है, उसका नाम हिरण्या है । पुर्वदिशा में विद्यमान जिह्वा कनका नाम से प्रसिद्ध है । अग्निकोण में रक्ता, नैऋत्यकोण में कृष्णा और वायव्यकोण में सुप्रभा नाम की जिह्वा प्रकाशित होती है । इनके अतिरिक्त पश्चिम में जो जिह्वा प्रज्वलित होती है, उसका नाम मरुत यही । इन सबकी प्रभा अपने-अपने नाम के अनुरूप है । अपने-अपने बीज के अनन्तर क्रमशः इनका नाम लेना चाहिए और नाम के अंत में स्वाहा का प्रयोग करना चाहिए । इस तरह जो जिह्वामन्त्र बनते हैं, उनके द्वारा क्रमशः प्रत्येक जिह्वा के लिए एक एक घी की आहुति दे, परन्तु मध्यमा की तीन जिह्वाओं के लिए तीन आहुतियां दे ।

जिह्वामन्त्र - 
ओं भ्रुं त्रिशिखायै बहुरूपायै स्वाहा(दक्षिण मध्ये उत्तर च) ३ ।
ओं स्तुं हिरण्यायै स्वाहा(ऐशान्यै) १ ।
ओं ब्रुं कनकायै स्वाहा(पूर्वस्याम्) १ ।
ओं श्रुं रक्तायै स्वाहा(आग्नेय्याम्) १ ।
ओं पुं कृष्णायै स्वाहा(नैऋत्याम्) १ ।
ओं ड्रुं सुप्रभायै स्वाहा(पश्चिमायाम्) १ ।
ओं द्रुं मरुज्जिह्वायै स्वाहा(वायव्ये) १ ।
(शिव पुराण, वायव्य संहिता, उत्तर खण्ड, अध्याय २३)

विधेर्विष्णोर्हराद्वापि पतिरेकोऽधिको मतः।
पतिव्रताया देवेशि स्वपतिः शिव एव च।।
(शि. पु. रु. सं. पा. खं. ५४।  ४३ )

पतिव्रता नारि के लिए एकमात्र पति ही ब्रह्मा, विष्णु और शिव से भी अधिक माना गया है, उसके लिए अपना पति शिवरूप ही है ।


भर्ता देवो गुरुर्भर्ता धर्मतीर्थव्रतानि च ।
तस्मात्सर्वं परित्यज्य पतिमेकं समर्चयेत् ।।
(शि. पु. रु. सं. पा. खं. ५४।  ५१ )

पति हे देवता है, पति ही गुरु है और पति ही धर्म, तीर्थ एवं व्रत है; इसलिए सबको छोड़कर एकमात्र पति की ही आराधना करनी चाहिए ।



आचारः परमो धर्मः आचारः परमं धनम् । आचारः परमा विद्या आचारः परमा गतिः ।।
आचारहीनः पुरुषो लोके भवति निन्दितः । परत्र च न सुखी न स्यात्तस्मादाचारवान् भवेत् ।।
(शि. पु. वा. सं. उ. ख. १४। ५५-५६)

आचार परम धर्म है, आचार उत्तम धन है, आचार श्रेष्ठ विद्या है, आचार ही परम गति है । अचारहीन पुरुष संसार में निन्दित होता है और परलोक में भी सुख नहीं पाता। इसलिए सबको आचारवान् होना चाहिए ।