Wednesday, April 24, 2019

श्रीकृष्णाष्टकम्

श्री शंकराचार्यकृत

भजे व्रजैकमण्डनं समस्तपापखण्डनं,
स्वभक्तचित्तरंजनं सदैव नन्दनन्दनम् ।
सुपिच्छगुच्छमस्तकं सुनादवेणुहस्तकं,
अनंगरंगसागरं नमामि कृष्णनागरम् ॥१॥

व्रजभूमि के एकमात्र आभूषण, समस्त पापों को नष्ट करने वाले तथा अपने भक्तों के चित्त को आनन्द देने वाले नन्दनन्दन को सदैव भजता हूँ, जिनके मस्तक पर मोरमुकुट है, हाथों में सुरीली बांसुरी है तथा जो प्रेम-तरंगों के सागर हैं, उन नटनागर श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार करता हूँ ।

मनोजगर्वमोचनं विशाललोललोचनं,
विधूतगोपशोचनं नमामि पद्मलोचनम् ।
करारविन्दभूधरं स्मितावलोकसुन्दरं,
महेन्द्रमानदारणं नमामि कृष्ण वारणम् ॥२॥ 

कामदेव का मान मर्दन करने वाले, बड़े-बड़े सुन्दर चंचल नेत्रों वाले तथा व्रजगोपों का शोक हरने वाले कमलनयन भगवान को मेरा नमस्कार है, जिन्होंने अपने करकमलों पर गिरिराज को धारण किया था तथा जिनकी मुसकान और चितवन अति मनोहर है, देवराज इन्द्र का मान-मर्दन करने वाले, गजराज के सदृश मत्त श्रीकृष्ण भगवान को मैं नमस्कार करता हूँ ।

कदम्बसूनकुण्डलं सुचारुगण्डमण्डलं,
व्रजांगनैकवल्लभं नमामि कृष्णदुर्लभम् ।
यशोदया समोदया सगोपया सनन्दया,
युतं सुखैकदायकं नमामि गोपनायकम् ॥३॥ 

जिनके कानों में कदम्बपुष्पों के कुंडल हैं, जिनके अत्यन्त सुन्दर कपोल हैं तथा व्रजबालाओं के जो एकमात्र प्राणाधार हैं, उन दुर्लभ भगवान कृष्ण को नमस्कार करता हूँ; जो गोपगण और नन्दजी के सहित अति प्रसन्न यशोदाजी से युक्त हैं और एकमात्र आनन्ददायक हैं, उन गोपनायक गोपाल को नमस्कार करता हूँ ।

सदैव पादपंकजं मदीय मानसे निजं,
दधानमुक्तमालकं नमामि नन्दबालकम् ।
समस्तदोषशोषणं समस्तलोकपोषणं,
समस्तगोपमानसं नमामि नन्दलालसम् ॥४॥ 

जिन्होंने मेरे मनरूपी सरोवर में अपने चरणकमलों को स्थापित कर रखा है, उन अति सुन्दर अलकों वाले नन्दकुमार को नमस्कार करता हूँ तथा समस्त दोषों को दूर करने वाले, समस्त लोकों का पालन करने वाले और समस्त व्रजगोपों के हृदय तथा नन्दजी की वात्सल्य लालसा के आधार श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार करता हूँ ।

भुवो भरावतारकं भवाब्धिकर्णधारकं,
यशोमतीकिशोरकं नमामि चित्तचोरकम् ।
दृगन्तकान्तभंगिनं सदा सदालिसंगिनं,
दिने-दिने नवं-नवं नमामि नन्दसम्भवम् ॥५॥ 

भूमि का भार उतारने वाले, भवसागर से तारने वाले कर्णधार श्रीयशोदाकिशोर चित्तचोर को मेरा नमस्कार है। कमनीय कटाक्ष चलाने की कला में प्रवीण सर्वदा दिव्य सखियों से सेवित, नित्य नए-नए प्रतीत होने वाले नन्दलाल को मेरा नमस्कार है ।

गुणाकरं सुखाकरं कृपाकरं कृपापरं,
सुरद्विषन्निकन्दनं नमामि गोपनन्दनं ।
नवीन गोपनागरं नवीनकेलि-लम्पटं,
तडित्प्रभालसत्पटम् नमामि मेघसुन्दरम् 

गुणों की खान और आनन्द के निधान कृपा करने वाले तथा कृपा पर कृपा करने के लिए तत्पर देवताओं के शत्रु दैत्यों का नाश करने वाले गोपनन्दन को मेरा नमस्कार है। नवीन-गोप सखा नटवर नवीन खेल खेलने के लिए लालायित, घनश्याम अंग वाले, बिजली सदृश सुन्दर पीताम्बरधारी श्रीकृष्ण भगवान को मेरा नमस्कार है।

समस्त गोप नन्दनं, हृदम्बुजैक मोदनं,
नमामिकुंजमध्यगं प्रसन्न भानुशोभनम् ।
निकामकामदायकं दृगन्तचारुसायकं,
रसालवेणुगायकं नमामिकुंजनायकम् ७।

समस्त गोपों को आनन्दित करने वाले, हृदयकमल को प्रफुल्लित करने वाले, निकुंज के बीच में विराजमान, प्रसन्नमन सूर्य के समान प्रकाशमान श्रीकृष्ण भगवान को मेरा नमस्कार है। सम्पूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाले, वाणों के समान चोट करने वाली चितवन वाले, मधुर मुरली में गीत गाने वाले, निकुंजनायक को मेरा नमस्कार है।

विदग्ध गोपिकामनो मनोज्ञतल्पशायिनं,
नमामि कुंजकानने प्रवृद्धवह्निपायिनम् ।
किशोरकान्ति रंजितं दृगंजनं सुशोभितं,
गजेन्द्रमोक्षकारिणं नमामि श्रीविहारिणम् 

चतुर गोपिकाओं की मनोज्ञ तल्प (मनरूपी शय्या) पर शयन करने वाले, कुंजवन में बढ़ी हुई विरह अग्नि को पान करने वाले, किशोरावस्था की कान्ति से सुशोभित अंग वाले, अंजन लगे सुन्दर नेत्रों वाले, गजेन्द्र को ग्राह से मुक्त करने वाले, श्रीजी के साथ विहार करने वाले श्रीकृष्णचन्द्र को नमस्कार करता हूँ।

स्तोत्र पाठ का फल
यदा तदा यथा तथा तथैव कृष्णसत्कथा,
मया सदैव गीयतां तथा कृपा विधीयताम् ।
प्रमाणिकाष्टकद्वयं जपत्यधीत्य यः पुमान्,
भवेत्स नन्दनन्दने भवे भवे सुभक्तिमान ॥९॥

प्रभो! मेरे ऊपर ऐसी कृपा हो कि जहां-कहीं जैसी भी परिस्थिति में रहूँ, सदा आपकी सत्कथाओं का गान करूँ। जो पुरुष इन दोनों--श्रीराधा कृपाकटाक्ष व श्रीकृष्ण कृपाकटाक्ष अष्टकों का पाठ या जप करेगा, वह जन्म-जन्म में नन्दनन्दन श्यामसुन्दर की भक्ति से युक्त होगा और उसको साक्षात् श्रीकृष्ण मिलते हैं ।

नंदनन्दन से प्रार्थना
लिख दे सांवरे किस्मत कुछ ऐसी कि,
बची हुई जिन्दगी तेरी सेवा में गुजर जाए ।
आने वाली पीढ़ी जब करेगी चर्चा तेरे दीवानों की,
तब एक नाम हमारा भी आ जाए ।।

Tuesday, April 16, 2019

शिव का स्तवन

शिव का स्तवन 
----------------
जैसे तुम उदार परमेस्वर, तैसी सिवा भवानी।
तुम घट-घटवासी अविनासी व्यापक अंतरजामी,
सुद्ध सच्चिदानन्द अनामय अमल अकाम अनामी।
अविदितगति अनवद्य अगोचर अगुन अनीह अमानी।।
अगम प्रमानि तुमहि निगमागम नेति नेति कहि हारे,
सोइ तुम हित कारन रूप अनेकन धारे ।
किये अनुग्रह भाजन प्रभु ने सकल चराचर प्रानी।।
परखि प्रीति परबत-तनया कों आधे अंग बिठायो,
आधो पुरुष अरध नारी को अद्भुत रूप बनायो।
दंपति की यह एकरूपता तुम ते जग ने जानी।।
आक, धतूर, पात, श्रीफल पै तुम रीझत त्रिपुरारी,
चाउर चारि चढ़ाई पदारथ चारि लहत नर-नारी।
आसुतोष ! तुम बिन त्रिभुवन में को अति कृपानिधानी।।
जाके पदरज के प्रसाद ते सुर सुरपति सुखभोगी,
सोइ सरबस्व अरपि औरन कों फिरै, अकिंचन जोगी।
परहित जाचत कर कपाल लै, डारत भीख भवानी।।
तुम बिन प्रेत पिसचनहू कों को मानत निज प्यारे,
बैर बिहाई मोर अहि मूषक निवसत सदन तिहारे।
वृषभ सिंघ संग संग रह पीअत एक घाट पै पानी।।
विष विषधर दोषाकर दूषन भूषन कौन बनावै,
कौन आप हलाहल पीकै औरहि सुधा पियावै।
तुम बिन काके कंठ कृपा की लखियत नील निसानी।।
कासी बीच मुक्ति-मुक्तमनि कौन लुटावत डोलै,
को पसुपति बिनु बंधे पसुन को पास कृपा करि खोलै।
स्रवन सुनाई कौन तारक मनु तारत अगनित प्रानी।।
जेहि मारत जग जेहि अहि गन कों प्यार करत तुम स्वामी,
लीजै सरन महेस ! कृपा करि, चरन नमामि नमामी।
तुम बिन को अपनावत मो सम कुटिल अधम अभिमानी।।

महत्तत्व

महातेजस्वी भगवान् अपनी शक्ति से महत्तत्व की सृष्टि करके फिर अहंकार और उसके अभिमानी देवता प्रजापति को उत्पन्न करते हैं ।(४१६)
------
यह सम्पूर्ण जगत व्यक्त कहलाता है। प्रतिदिन इसका क्षरण(क्षय) होता है, इसलिए इसको क्षर कहते हैं ।क्षरतत्वों में सबसे पहले महत्तत्व की सृष्टि हुई है । (४१७)
------
प्रकृतिवादी विद्वान्, मूल प्रकृति को अव्यक्त कहते हैं। उससे दूसरा तत्व प्रकट हुआ जो 'महत्तत्व' कहलाता है। महत्तत्व से अहंकार नामक तीसरे तत्व की उत्पत्ति सुनी गयी है । सांख्य-दर्शन के ज्ञाता विद्वान् अहंकार से सूक्ष्म भूतों का - पञ्च तन्मात्राओं का प्रादुर्भाव बतलाते हैं । इन आठों को प्रकृति कहते हैं; इनसे सोलह तत्वों की उत्पत्ति होती है, जो विकृति कहलाते हैं ।
विकार - पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, ग्यारहवां मन और पांच स्थूलभूत
ये प्रकृति और विकृति मिलकर चौबीस तत्व होते हैं

Sunday, April 14, 2019

गर्भाशय की पीड़ा - कर्म या कर्म का त्याग - त्रिविध ताप

गर्भाशय की पीड़ा - ब्रह्म पुराण - विविध तापों का वर्णन (पृष्ठ - ४०२) 
अत्यन्त मल से भरे हुए गर्भाशय में सुकुमार शरीरवाला जीव झिल्ली से लिप्त हुआ रहता है । उसकी पीठ और ग्रीवा की हड्डियां मुड़ी होती हैं । माता के खाये हुए अत्यन्त तापदायक और अधिक खट्टे, कड़वे, चरपरे, गर्म और खारे पदार्थों से कष्ट पाकर उसकी पीड़ा बहुत बढ़ जाती है । वह अपने अंगो को फ़ैलाने या सिकोड़ने में समर्थ नहीं होता । मल और मूत्र के महान पंक में उसे सोना पड़ता है, जिससे उसके सभी अंगों में पीड़ा होती है । चेतनायुक्त होने पर भी वह खुलकर सांस नहीं ले सकता । अपने कर्मो के बन्धन में बंधा हुआ वह जीव सैकड़ो जन्मों का स्मरण करता हुआ बड़े दुःख से गर्भ में रहता है । जन्म के समय उसका मुख मल-मूत्र, रक्त और वीर्य आदि में लिप्त रहता है । प्राजापत्य नामक वायु से उसकी हड्डियों के प्रत्येक जोड़ में बड़ी पीड़ा होती है । प्रबल प्रसूति वायु उसके मुंह को नीचे की ओर कर देती है और वह गर्भस्थ जीव अत्यन्त आतुर होकर बड़े क्लेश के साथ माता के उदर से बाहर निकल पाता है । मुनिवरों ! जन्म लेने के पश्चात बाह्य वायु का स्पर्श होने से अत्यन्त मूर्छा को प्राप्त होकर वह बालक अपनी सुध-बुध खो बैठता है । दुर्गन्धयुक्त फोड़े से पृथ्वी पर गिरे हुए कीड़े की भांति वह छटपटाता है । उस समय उसे ऐसी पीड़ा होती है, मानो उसके सारे अंगों में कांटे चुभो दिए गए हों अथवा वह आरे से चीरा जा रहा हो । उसे अपने अंगो को खुजलाने की भी शक्ति नहीं रहती । वह करवट बदलने में असमर्थ होता है । स्तन-पान आदि आहार भी उसे दूसरों की इच्छा से ही प्राप्त होता है । वह अपवित्र बिछौने पर पड़ा रहता है । उस समय उसे खटमल और डांस आदि काटते हैं तो भी वह उन्हें हटाने में समर्थ नहीं होता । 

----------------------------------X----------------------------------

कर्म करो या कर्म का त्याग करो? - ब्रह्म पुराण - कर्म तथा ज्ञान का अन्तर (पृष्ठ - ४०)
मुनि बोले: महर्षि ! अगर वेद की ऐसी आज्ञा है कि 'कर्म करो' तथा यह भी आदेश है कि 'कर्म का त्याग करो' तो यह बताइये कि मनुष्य ज्ञान के द्वारा कर्म त्याग देने पर किस गति को प्राप्त होते हैं तथा कर्म करने से उन्हें किस फल की प्राप्ति होती है ? इस बात को हम सुनना चाहते हैं, क्योंकि उक्त दोनों आज्ञाएं परस्पर विरुद्ध प्रतीत होती हैं ।

व्यासजी ने कहा: ब्राह्मणो ! ज्ञान से मनुष्य जिस गति को पाते हैं और कर्म से उन्हें जैसी गति मिलती है, उसका वर्णन सुनाता हूँ; सुनो । तुम्हारे इस प्रश्न का उत्तर गहन है । शास्त्र में दो मार्गों का वर्णन है - प्रवृत्ति धर्म और निवृत्ति धर्म । प्रवृत्ति मार्ग को 'कर्म' और निवृत्ति मार्ग को ज्ञान भी कहते हैं । कर्म(अविद्या)- से मनुष्य बन्धन में पड़ता है और ज्ञान से मुक्त हो जाता है; इसलिए पारदर्शी यति कर्म नहीं करते। कर्म से मरने के बाद जन्म लेना पड़ता है, सोलह तत्वों के बने हुए शरीर की प्राप्ति होती है । किन्तु ज्ञान से नित्य, अव्यक्त एवं अविनाशी परमात्मा प्राप्त होते हैं । कुछ मन्दबुद्धि मानव कर्म की प्रशंसा करते हैं, अतः वे भोगासक्त होकर बारम्बार देह के बन्धन में पड़ते हैं । परन्तु जो धर्म के तत्व को भलीभांति समझते हैं तथा जिन्हे उत्तम बुद्धि प्राप्त है, वे कर्म की उसी तरह प्रशंसा नहीं करते, जैसे नदी का पानी पीनेवाला मनुष्य कुएं का आदर नहीं करता । कर्म के फल मिलते हैं - सुख और दुःख, जन्म और मृत्यु । किन्तु ज्ञान से उस पद की प्राप्ति होती है, जहाँ जाकर मनुष्य सदा के लिए शोक से मुक्त हो जाता है । जहाँ जन्म, मृत्यु, जरा और वृद्धि स्पर्श नहीं करते, वह केवल अव्यक्त, अचल, ध्रुव, अव्याकृत  एवं अमृतस्वरूप परब्रह्म की ही स्थिति है ।

त्रिविध ताप  विविध तापों का वर्णन(पृष्ठ ४०९)
आध्यात्मिक ताप के भेद -
१) शारीरिक - शिरोरोग, प्रतिश्याय(पीनस), ज्वर, शूल, भगन्दर, गुल्म(पेट की गाँठ), अर्श(बवासीर), श्वयथु(सूजन), श्वास(दमा), छदि(वमन) आदि ।
२) मानसिक - काम, क्रोध, भय, द्वेष, लोभ, मोह, विषाद(चिन्ता), शोक, असूया(दोषदृष्टि), अपमान, ईर्ष्या, मात्सर्य तथा पराभव ।

आधिभौतिक ताप -
मृग, पक्षी, मनुष्य आदि तथा पिशाच, सर्प, राक्षस और बिच्छू आदि से मनुष्यों को जो पीड़ा होती है ।

आधिदैविक ताप -
शीत, उष्ण, वायु, वर्षा, जल और विद्युत् आदि से होने वाले संताप ।
--------
सत्व, रज और तम - ये तीनो गुण आपने कारणभूत प्रकृति से प्रकट हैं । वे सम्पूर्ण प्राणियों में समान भाव से स्थित हैं। उनके कार्यों द्वारा उनकी पहचान करनी चाहिए। जब अन्तः करण कुछ प्रीतियुक्त सा जान पड़े, अत्यन्त शांति का सा अनुभव हो, तब उसे सत्वगुण जानना चाहिए। जब शरीर और मन में कुछ सन्ताप का सा अनुभव हो, तब उसे रजोगुण की प्रवृत्ति मानना चाहिए । जब अन्तः करण में अव्यक्त, अतर्क्य और अज्ञेय मोह का संयोग होने लगे, तब उसे तमोगुण समझना चाहिए । जब अकस्मात् किसी कारणवश अत्यन्त हर्ष, प्रेम, आनन्द, समता और स्वस्थचित्त का विकास हो, तब उसे सात्विक गुण कहते हैं । अभिमान, असत्यभाषण, लोभ और असहनशीलता - ये रजोगुण के चिन्ह हैं । मोह, प्रमाद, निद्रा, आलस्य और अज्ञान आदि दुर्गुण जब किसी तरह प्रवृत्त हों तब उन्हें तमोगुण का कार्य जानना चाहिए।
जैसे जलचर पक्षी जल में विचरता हुआ भी उससे लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार मुक्तात्मा योगी संसार में रहकर भी उसके गुण-दोषों से लिप्त नहीं होता। इसी प्रकार ज्ञानी पुरुष विषयों में आसक्त न होने के कारण उनका उपभोग करते हुए भी उनके दोषों से लिप्त नहीं होता । जो सदा परमात्मा के चिन्तन में ही लगा रहता है, वह पूर्वकृत कर्मों के बन्धन से रहित हो सम्पूर्ण प्राणियों का आत्मा हो जाता है और विषयों में कभी आसक्त नहीं होता । गुण आत्मा को नहीं जानते, किन्तु आत्मा उन्हें सदा जानता रहता है; क्योंकि वह गुणों का दृष्टा है। प्रकृति और आत्मा में यही अन्तर है । एक(प्रकृति) तो गुणों की सृष्टि करती है किन्तु दूसरा(आत्मा) ऐसा नहीं करता । वे दोनों स्वभावतः पृथक होते हुए भी एक दुसरे से संयुक्त हैं । जैसे पत्थर में सुवर्ण जड़ा होता है, जैसे गूलर और उसके कीड़े साथ साथ रहते हैं, जिस प्रकार मूँज में सींक होती है और ये सभी वस्तुएं पृथक होती हुई भी परस्पर संयुक्त रहती हैं, उसी प्रकार प्रकृति और पुरुष भी एक दुसरे से संयुक्त रहते हैं ।
प्रकृति गुणों की सृष्टि करती है और क्षेत्रज्ञ आत्मा उदासीन की भांति अलग रहकर समस्त विकारशील गुणों को देखा करता है । प्रकृति जो इन गुणों की सृष्टि करती है, वह सब उसका स्वाभाविक कर्म है । जैसे मकड़ी अपने शरीर से तन्तुओं की सृष्टि करती है, वैसे ही प्रकृति भी समस्त त्रिगुणात्मक पदार्थों को जन्म देती है । किन्ही का मत है कि जब तत्वज्ञान से गुणों को नाश कर दिया जाता है, तब वे फिर उत्पन्न नहीं होते , उनका सर्वथा बाध हो जाता है । क्योंकि फिर उनका कोई चिन्ह उपलब्ध नहीं होता । इस प्रकार वे भ्रम या अविद्या के निवारण को ही मुक्ति मानते हैं । दूसरों के मत में त्रिविध दुःखों की आत्यन्तिक निवृत्ति ही मोक्ष है । इन दोनों मतों पर अपनी बुद्धि के अनुसार विचार करके सिद्धान्त का निश्चय करें ।
आत्मा आदि और अन्त से रहित है । उसे जानकर मनुष्य हर्ष और क्रोध को त्याग दे और मात्सर्यरहित होकर विचरण करे । जैसे तैरने की कला न जाननेवाले मनुष्य यदि भरी हुई नदी में कूद पड़ते हैं तो वे डूब जाते हैं, किन्तु जो तैरना जानते हैं, वे कष्ट में नहीं पड़ते, वे तो जल में भी स्थल की ही भाँति विचरते हैं, उसी प्रकार ज्ञान स्वरुप आत्मा को प्राप्त हुआ तत्व-वेत्ता पुरुष संसार-सागर से पार हो जाता है । जो सम्पूर्ण प्राणियों के आवागमन को जानकर सबके प्रति संभव रखते हुए बर्ताव करता है, वह उत्तम शांति को प्राप्त होता है । ब्राह्मण में इस ज्ञान को प्राप्त करने की सहज शक्ति होती है । मन और इन्द्रियों का संयम तथा आत्मा का ज्ञान - ये मोक्षप्राप्ति के लिए पर्याप्त साधन हैं । तत्व का ज्ञान प्राप्त करके मनुष्य बुद्ध(ज्ञानी) हो जाता है ।  बुद्ध का इसके सिवा और क्या लक्षण हो सकता है । बुद्धिमान मनुष्य इस आत्मतत्व को जानकर कृतकृत्य हो संसार-बन्धन से मुक्त हो जाते हैं । अज्ञानी पुरुषों को परलोक में जो महान भय प्राप्त होता है, वह ज्ञानी को नहीं होता। ज्ञानी पुरुषों को जो सनातन गति प्राप्त होती है, उससे बढ़कर दूसरी कोई गति नहीं है।


मृत्युकाल के क्लेश - ब्रह्म पुराण -  (पृष्ठ - ४०3) 

Tuesday, April 9, 2019

श्राद्ध कल्प

 संक्षिप्त स्कन्द पुराण, गीताप्रेस, पृष्ठ ११८७
-----------------------------------------------------


महाकाल द्वारा करन्धम के प्रश्नानुसार श्राद्ध का वर्णन 
-----------------------------------------------------------------
नारदजी, अर्जुन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं:
राजा करन्धम ने महाकाल से प्रश्न पूछा: भगवन ! मेरे मन में सदा यह संशय बना रहता है कि मनुष्यों द्वारा पितरों का जो तर्पण किया जाता है, उसमें जल तो जल में ही चला जाता है; फिर हमारे पूर्वज उससे तृप्त कैसे होते हैं ? इसी प्रकार पिण्ड आदि सब दान भी यहीं देखा जाता है । अतः हम यह कैसे मान लें कि यह पितर आदि के उपभोग में आता है ?

महाकाल ने कहा: राजन ! पितरों और देवताओं की योनि ही ऐसी होती है कि ये दूर की कही हुई बातें सुन लेते, दूर की पूजा भी ग्रहण कर लेते और दूर की स्तुति से भी संतुष्ट होते हैं । इसके सिवा वे भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ जानते और सर्वत्र पहुँचते हैं । पांचो तन्मात्रयें, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति - इन नौ तत्वों का बना हुआ उनका शरीर होता है । इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान् पुरुषोत्तम निवास करते हैं । इसलिए देवता और पितर गन्ध तथा रस-तत्व से तृप्त होते हैं । शब्द-तत्व से रहते हैं तथा स्पर्श-तत्व को ग्रहण करते हैं और किसी को पवित्र देखकर उनके मन में बड़ा संतोष होता है । जैसे पशुओं का भोजन तरुण और मनुष्यों का भोजन अन्न का सार-तत्व है । सम्पूर्ण देवताओं की शक्तिया अचिन्त्य और ज्ञानगम्य हैं । अतः वे अन्न और जल का सार-तत्व ही ग्रहण करते हैं, शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं स्थित देखी जाती है ।

करन्धम ने पूछा: श्राद्ध का अन्न तो पितरों को दिया जाता है, परन्तु वे अपने कर्म के अधीन होते हैं । यदि वे स्वर्ग अथवा नरक में हों, तो श्राद्ध का उपभोग कैसे कर सकते हैं ? और वैसी दशा में वे वरदान देने में भी कैसे समर्थ हो सकते हैं ?

महाकाल ने कहा: नृपश्रेष्ठ ! यह सत्य है कि पितर अपने-अपने कर्मों के अधीन होते हैं, परन्तु देवता, असुर और यक्ष आदि के तीन अमूर्त तहत चारों वर्णों के चार मूर्त - ये सात प्रकार के पितर माने गए हैं । ये नित्य पितर हैं, ये कर्मों के अधीन नहीं, वे सबको सब कुछ देने में समर्थ हैं । वे सातों पितर भी सब वरदान आदि देते हैं । उनके अधीन अत्यंत प्रबल इकतीस गण होते हैं । राजन ! इस लोक में किया हुआ श्राद्ध उन्ही मानव पितरों को तृप्त करता है । वे तृप्त होकर श्राद्धकर्ता के पूर्वजों को, जहाँ कहीं भी उनकी स्थिति हो, जाकर तृप्त करते हैं । इस प्रकार अपने पितरों के पास श्राद्ध में दी हुई वस्तु पहुँचती है और वे श्राद्ध ग्रहण करनेवाले नित्य पितर ही श्राद्धकर्ताओं को श्रेष्ठ वरदान देते हैं ।

राजा ने पूछा: विप्रवर ! जैसे भूत आदि को उन्ही के नाम से 'इदं भूतादिभ्यः' कहकर कोई वस्तु दी जाती है, उसी प्रकार देवता आदि को संक्षेप में क्यों नहीं दिया जाता ? मन्त्र आदि के प्रयोग द्वारा विस्तार क्यों किया जाता है ?

महाकाल ने कहा: राजन ! सदा सबके लिए उचित प्रतिष्ठा करनी चाहिए । उचित प्रतिष्ठा के बिना दी हुई कोई वस्तु वे देवता आदि ग्रहण नहीं करते । घर के दरवाजे पर बैठा हुआ कुत्ता जिस प्रकार ग्रास(फेंका हुआ टुकड़ा) ग्रहण करता है, क्या कोई श्रेष्ठ पुरुष भी उसी प्रकार ग्रहण करता है ? इसी प्रकार भूत आदि की भांति देवता कभी अपना भाग ग्रहण नहीं करते । वे पवित्र भोगों का सेवन करने वाले तथा निर्मल हैं । अतः अश्रद्धालु पुरुष के द्वारा बिना मन्त्र के दिया हुआ जो कोई भी हव्य भाग होता है, उसे वे स्वीकार नहीं करते । यहाँ मन्त्रों के विषय में श्रुति भी इस प्रकार कहती है -
मन्त्रा दैवता यद्यद्विद्वान्मन्त्रवत्करोति देवताभिरेव तत्करोति यद्ददाति देवताभिरेव तद्ददाति यत्प्रतिगृह्णाती देवताभिरेव तत्प्रतिगृह्णाती तस्मान्नामन्त्रवत्प्रतिगृह्णीयात् नामन्त्रवत्प्रतिपद्यते । 

'सब मन्त्र ही देवता हैं, विद्वान पुरुष जो-जो कार्य मन्त्र के साथ करता है, उसे वह देवताओं के द्वारा ही सम्पन्न करता है । मन्त्रोचारणपूर्वक जो कुछ देता है, वह देवताओं द्वारा ही देता है । मन्त्रपूर्वक जो कुछ ग्रहण करता है, वह देवताओं द्वारा ही ग्रहण करता है । इसलिए मन्त्रोचारण किये बिना मिला हुआ प्रतिग्रह न स्वीकार करे । बिना मन्त्र के जो कुछ किया जाता है, वह प्रतिष्ठित नहीं होता'
इस कारण पौराणिक और वैदिक मन्त्रोद्वारा ही सदा दान करना चाहिए ।

श्राद्ध कल्प 
--------------

सूतजी कहते हैं: एक समय महामुनि मार्कण्डेय जी राजा रोहिताश्व के यहाँ पधारे और यथायोग्य सत्कार के बाद उन्हें कथा सुनाने लगे । कथा के अन्त में राजा रोहिताश्व ने कहा - "भगवन ! मैं श्राद्धकल्प का यथार्थरूप से श्रवण करना चाहता हूँ ।

मार्कण्डेय जी बोले: राजन ! यही बात आनर्तनरेश ने भर्तृयज्ञ से पूछी थी । वही प्रसंग सुनाता हूँ ।
आनर्त नरेश ने पूछा: ब्रह्मन ! श्राद्ध के लिए कौन सा समय विहित है? श्रद्धोपयोगी द्रव्य कौन से हैं ? श्राद्ध के लिए कौन कौन सी वस्तुएं पवित्र मानी गयी हैं ? कैसे ब्राह्मण श्राद्धकर्म में सम्मिलित करने योग्य है और कैसे ब्राह्मण त्याज्य माने गए हैं ?

भर्तृयज्ञ ने कहा: राजन ! विद्वान पुरुष को अमावस्या के दिन अवश्य श्राद्ध करना चाहिए । क्षुधा से क्षीण हुए पितर श्राद्धान्न की आशा से अमावस्या तिथि आने की आशा करते रहते हैं । जो अमावस्या तिथि को जल या शाक से भी श्राद्ध करता है, उसके पितर तृप्त होते हैं और उसके समस्त पातकों का नाश हो जाता है ।

आनर्त ने पूछा: विशेषतः अमावस्या को श्राद्ध करने का विधान क्यों है ? मरे हुए जीव तो अपने कर्मानुसार शुभाशुभ गति को प्राप्त होते हैं; फिर श्राद्धकाल में वे अपने पुत्र के घर कैसे पहुँच पाते हैं ?

भर्तृयज्ञ ने कहा: महाराज ! जो लोग यहाँ मरते हैं, उनमें से कितने ही लोग जन्म ग्रहण करते हैं, कितने ही पुण्यात्मा स्वर्गलोक में स्थित होते हैं और कितने ही पापात्मा जीव यमलोक के निवासी हो जाते हैं । कुछ जीव भोगानुकूल शरीर धारण करके अपने किये हुए शुभाशुभ कर्म का उपभोग करते हैं । राजन ! यमलोक या स्वर्गलोक में रहनेवाले पितरों को भी तब तक भूख प्यास अधिक होती है, जब तक कि वे माता या पिता से तीन पीढ़ी के अंतर्गत रहते हैं, उनमें भूख-प्यास की अधिकता रहती है । पितृलोक या देवलोक के पितर तो श्राद्धकाल में सूक्ष्म शरीर से आकर श्राद्धीय ब्राह्मणो के शरीर में स्थित होकर श्रद्धभाग ग्रहण करते हैं; परन्तु जो पितर कहीं शुभाशुभ भोग में स्थित हैं या जन्म ले चुके हैं, उनका भाग दिव्य पितर आकर ग्रहण करते हैं और जीव जहाँ जिस शरीर में होता है - वहां तदनुकूल भोग की प्राप्ति कराकर उसे तृप्ति पहुंचाते हैं । ये दिव्य पितर नित्य और सर्वज्ञ होते हैं । पितरों के उद्देश्य से सदा ही अन्न और जल का दान करते रहना चाहिए । जो नीच मानव पितरों के लिए अन्न और जल न देकर आप ही भोजन किया करता या जल पीता है, वह पितरों का द्रोही है । उसके पितर स्वर्ग में अन्न और जल नहीं पाते हैं । इसलिए शक्ति के अनुसार अन्न और जल उनके लिए अवश्य देने चाहिए । श्राद्ध द्वारा तृप्त किये हुए पितर मनुष्य को मनोवांछित भोग प्रदान करते हैं ।


श्राद्ध की आवश्यकता तथा समय 
-------------------------------------------

आनर्तनरेश ने कहा: ब्रह्मन ! श्राद्ध के लिए और भी तो नाना प्रकार के पवित्रतम काल हैं; फिर अमावस्या को ही विशेष रूप से श्राद्ध करने की बात क्यों कही गयी है ?

भर्तृयज्ञ ने कहा: महाराज ! यह सत्य है कि श्राद्ध के योग्य और भी बहुत से समय हैं । मन्वादि तिथि, युगादि तिथि, संक्रांति काल, व्यतिपात, गजच्छाया, चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण - इन सभी समयो में पितरों कि तृप्ति के लिए श्राद्ध करना चाहिए । पुण्यतीर्थ, पुण्यमन्दिर, श्रद्धयोग्य ब्राह्मण तथा श्राद्ध के योग्य उत्तम पदार्थ प्राप्त होने पर बुद्धिमान पुरुषों को बिना पर्व के भी श्राद्ध करना चाहिए । अमावस्या को जो विशेष रूप से श्राद्ध करने का उपदेश किया गया है, इसका कारण बताता हूँ, एकाग्रचित होकर सुनो । सूर्य की सहस्त्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है, उसी का नाम 'अमा' है; उस 'अमा' नामक प्रधान किरण के ही तेज से सूर्यदेव तीनो लोकों को प्रकाशित करते हैं । उसी अमा में तिथि विशेष को चन्द्रदेव निवास करते हैं, इसलिए उसका नाम 'अमावस्या' है । यही कारण है कि अमावस्या प्रत्येक धर्मकार्य के लिए अक्षय फल देनेवाली बताई गयी है । श्राद्धकर्म में तो इसका विशेष महत्त्व है ही ।
अग्निष्वात्त, बर्हिषद, आज्यप, सोमप, रश्मिप, उपहूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक तथा नान्दीमुख - ये नौ दिव्य पितर बताये गए हैं ।  आदित्य, वसु, रूद्र और दोनों अश्विनीकुमार भी केवल नान्दीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं । ये पितृगण ब्रह्मा जी के समान बताये गए हैं; अतः पद्मयोनि ब्रह्मा जी उन्हें तृप्त करने के पश्चात सृष्टिकार्य आरम्भ करते हैं ।
इनके सिवा दुसरे भी ऐसे मर्त्य-पितर होते हैं, जो स्वर्गलोक में निवास करते हैं । वे दो प्रकार के देखे जाते हैं; एक तो सुखी हैं और दुसरे दुखी ।  मर्त्यलोक में रहने वाले वंशज जिनके लिए श्राद्ध करते हैं और दान देते हैं, वे सभी वहां हर्ष में भरकर वहां देवताओं के समान प्रसन्न होते हैं । जिनके लिए उनके वंशज कुछ भी दान नहीं करते, वे भूख प्यास से व्याकुल और दुखी देखे जाते हैं । एक समय कि बात है, अग्निष्वात आदि सभी पितर देवराज इन्द्र के पास गए । महाराज इन्द्र उन्हें आया देख सम्पूर्ण देवताओं के साथ भक्तिपूर्वक उनका पूजन किया । इसके बाद जब वे देवदुर्लभ पितृलोक जाने लगे, तब क्षुधा पिपासा से पीड़ित रहने वाले मर्त्यपितरों ने दिव्य स्तोत्रों से, पितृसूक्त के मन्त्रों तथा पितरों को संतुष्ट करनेवाले अन्यान्य वैदिक स्तोत्रों से उन सबकी स्तुति करके दीनतापूर्ण वचनों द्वारा उन्हें प्रसन्न किया । तब वे दिव्य पितर प्रसन्न होकर उनसे बोले - 'सुव्रतों ! हम सब तुम लोगों पर प्रसन्न हैं, बोलो तुम क्या चाहते हो ?

मर्त्यपितर बोले - दिव्य पितृगण ! हम मनुष्यों के पितर हैं । अपने कर्मो द्वारा मर्त्यलोक से स्वर्ग में आकर देवताओं के साथ निवास करते हैं परन्तु यहाँ हमें अत्यंत भयंकर भूख और प्यास का कष्ट होता है । जान पड़ता है हम आग में जल रहे हैं । यहाँ के नन्दन आदि वनों में बड़े सुन्दर सुन्दर वृक्ष हैं । सबमें फल लगे हुए हैं, परन्तु उन फलों को जब हम हाथ में लेते हैं और यत्नपूर्वक जोर जोर से खींचते हैं, तो भी वे डाली से टूटकर अलग नहीं होते । प्यास से पीड़ित होकर यदि हम देवनदी गंगा का जल हाथ में उठाते और पीते हैं, तब हमारे हाथ में उस जल का स्पर्श ही नहीं होता । इस स्वर्गलोक में कोई खाता पीता नहीं दिखाई देता । अतः यहाँ का निवास हमारे लिए भयंकर हो गया है । यहाँ जो देवता या गुह्यक आदि हैं, वे सब विमान में बैठे हुए प्रसन्नचित्त दिखाई देते हैं, इन्हें भूख प्यास का कष्ट नहीं है । ये अनेक प्रकार के भोगों से संपन्न हैं । क्या हम सब लोग भी कभी ऐसे हो सकेंगे ? भूख प्यास के कष्ट से रहित हो परम संतोष पा सकेंगे ।

दिव्यपितरों ने कहा: इन्द्र आदि केवल दुसरे दुसरे कार्यों में व्यग्र होकर जब हमारे लिए श्राद्ध नहीं करते, दान नहीं देते, तब हम लोगों कि ऐसी ही कष्टपूर्ण दशा हो जाती है । उस समय हम वहां से आकर देवताओं से कहते हैं, प्रार्थना करते हैं । उसके बाद जब ये लोग श्राद्ध-तर्पण द्वारा हमें तृप्त करते हैं, तब हमें तृप्ति प्राप्त होती है । इसी प्रकार तुम लोगों के जो वंशज एकाग्रचित्त हो तुम्हारे लिए श्राद्ध का दान देते हैं, उससे तुम लोग भी क्यों नहीं तृप्त होओगे ? अब प्रमादी वंशज, पितरों का तर्पण नहीं करते, तब उनके पितर स्वर्ग में रहने पर भी भूख-प्यास से व्याकुल हो जाते हैं; फिर जो यमलोक में पड़े हैं, उसके कष्ट का तो कहना ही क्या है ?
इतना कहकर दिव्य पितरों ने मर्त्यपितरों को साथ ले ब्रह्मा जी के समीप गमन किया और उनकी तथा अपनी शाश्वत तृप्ति के लिए उपाय पूछा । तब ब्रह्मा जी ने कहा - 'पितरों ! यदि मनुष्य, पिता, पितामह और प्रपितामह के उद्देश्य से तथा मातामह, प्रमातामह और वृद्धमातामह के उद्देश्य से श्राद्ध-तर्पण करेंगे तो उतने से ही उनके पिता और मातामह से लेकर मुझतक सभी पितर तृप्त हो जाएंगे । जिस अन्न से मनुष्य अपने पितरों की तुष्टि के लिए श्रेष्ठ ब्राह्मणों को तृप्त करेगा और उसी से भक्तिपूर्वक पितरों के निमित्त पिण्डदान भी देगा, उससे तुम्हें सनातन तृप्ति प्राप्त होगी । अमावस्या के दिन वंशजों द्वारा श्राद्ध और पिण्ड पाकर पितरों को एक मास तक तृप्ति बनी रहेगी । सूर्यदेव के कन्या राशि पर स्थित रहते समय आश्विन कृष्णपक्ष (पितृपक्ष/महालय) में जो मनुष्य तिथि पर पितरों के लिए श्राद्ध करेंगे, उनके उस श्राद्ध से पितरों को एकवर्ष तक तृप्ति बनी रहेगी ।  यदि मनुष्य गयाशीर्ष में जाकर एक बार भी श्राद्ध कर देंगे तो उसके प्रभाव से तुम सभी पितर सदा के लिए तृप्त हो जाओगे ।

भर्तृयज्ञ कहते हैं: राजन ! ऐसा जानकर विज्ञ पुरुष को चाहिए कि पितरों को तृप्त करने की इच्छा रखकर वह उक्त समयों में श्राद्ध अवश्य करे । इहलोक और परलोक में उसकी उन्नति चाहने वाले पुरुष को विशेषतः गयाशीर्ष में जाकर श्राद्ध करना चाहिए । जो मनुष्य श्राद्ध नहीं करता, उसके पितर भूख-प्यास से पीड़ित हो बहुत दुखी होते हैं । मन ही मन तृप्ति की अभिलाषा रखकर वे पितृपक्ष की प्रतीक्षा करते हैं, ठीक उसी तरह जैसे किसान लोग रात-दिन वर्षा की राह देखते हैं । पितृपक्ष बीत जाने पर भी जब उन्हें श्राद्ध का अन्न नहीं मिलता, तब वे जब तक सूर्य कन्याराशि पर रहते हैं, तब तक अपनी संतानों द्वारा किये हुए श्राद्ध की प्रतीक्षा करते हैं । उसके भी बीत जाने पर पितर तुलाराशि के सूर्य तक पूरे कार्तिकमास में अपने वंशजो द्वारा किये जानेवाले श्राद्ध की राह देखते हैं । जब सूर्यदेव वृश्चिक राशि पर चले जाते हैं, तब वे पितर दीन और निराश होकर अपने स्थान पर लौट जाते हैं । राजन ! इस प्रकार पूरे दो मास तक भूख प्यास से व्याकुल पितर वायुरूप में आकर घर के दरवाजों पर खड़े रहते हैं । अतः जब तक कन्या और तुला पर सूर्य रहते हैं तब तक तथा अमावस्या के दिन सदा पितरों के लिए श्राद्ध करना चाहिए । विशेषतः तिल और जल की अंजलि देनी चाहिए । कन्या और तुला में श्राद्ध न हो तो अमावस्या में अवश्य करें । वह भी न हो तो एक बार गयाजी में आकर श्राद्ध कर दें जिससे नित्य श्राद्ध का फल प्राप्त होता है ।

श्राद्ध की विधि, विहित और निषिद्ध ब्राह्मण तथा मन्वादि एवं युगादी पुण्यतिथियों का वर्णन 
-----------------------------------------------------------------------------------------------------------

आनर्त ने पूछा: मुनीश्वर ! सब मनुष्यों को किस विधि से श्राद्ध करना चाहिए ?

भर्तृयज्ञ ने कहा: उत्तम कर्मो द्वारा उपार्जित धन से पितरों का श्राद्ध करना उचित है । छल-कपट, चोरी और ठगी से कमाए हुए धन से कदापि श्राद्ध न करें । अपने वर्णोचित वृत्ति के द्वारा उपार्जित धन से श्राद्ध के लिए सामग्री एकत्र करें । पहले संध्याकाल आने पर काम-क्रोध से रहित एवं पवित्र हो श्राद्धकर्म के योग्य श्रेष्ठ ब्रह्मचर्यपरायण ब्राह्मणो को निमंत्रित करें । उनके अभाव में ब्रह्मज्ञानपरायण, अग्निहोत्री, वेदविद्या में निपुण गृहस्थ ब्राह्मणो को निमंत्रण दें । जिनका कोई अंग विकल न हो, जो निरोग, आहार पर संयम रखनेवाले तथा पवित्र हों, ऐसे ब्राह्मण श्राद्ध के योग्य बताये गए हैं ।

जो किसी अंग से हीन हो या जिनका कोई अंग अधिक हो, जो सर्वभक्षी हों, निकले गए हो, जिनके दांत काले हों या जिनके दांत गिर गए हों, जो वेद बेचनेवाले और यञवेदी को नष्ट करनेवाले हों, जिनमें वेद-शास्त्रों का ज्ञान न हो, जिनके नख ख़राब हो गए हों, जो रोगी, निर्धन, दूसरों की हिंसा करनेवाले, दुसरे लोगों पर लांछन लगनेवाले, नास्तिक, नाचनेवाले, सूदखोर, बुरे कर्मो में संलग्न, शौचाचार से शून्य, अत्यंत लम्बे, अति दुर्बल, बहुत मोठे, अधिक रोमवाले तथा रोमरहित हों ऐसे ब्राह्मणो को श्राद्ध में त्याग दे । जो पितरों का गौरव रखना चाहे, उसे ऐसा अवश्य करना चाहिए । जो परायी स्त्री में आसक्त, शूद्रजातीय स्त्री से संपर्क रखनेवाले, नपुंसक, मलिन, चोर, क्षत्रिय तथा वैश्य की वृत्ति वाले, माता-पिता का त्याग करनेवाले, गुरुस्त्रीगामी, निर्दोष पत्नी को छोड़नेवाले, कृतघ्न, खेती करनेवाले, शिल्प से जीविका चलनेवाले, भाला बेचकर या भाला चलकर जीववाले, चमड़े के व्यापार से जीवन-निर्वाह करनेवाले तथा अज्ञात कुलवाले हों ऐसे ब्राह्मणो को भी श्राद्ध में त्याग देना चाहिए ।

अब उन ब्राह्मणो का परिचय देता हूँ, जो श्राद्धकार्य में प्रशस्त माने गए हैं । त्रिणाचिकेत( नाचिकेत नामक विविध अग्नि का सेवन करनेवाले), 'मधुवाता' आदि तीन ऋचाओं का जप करनेवाले, छहों अंगो के ज्ञाता, त्रिसुपर्ण नामक ऋचाओं का पाठ करनेवाले, विद्या एवं व्रत को पूर्ण करके जो स्नातक हो चुके हों, धर्मद्रोण(धर्मशास्त्र) के पाठक, पुराणवेत्ता, ग्यानी, ज्येष्ठमास के ज्ञाता, अथर्वशीर्ष के विद्वान्, ऋतुकाल में अपनी पत्नी के साथ सहवास करनेवाले, उत्तम कर्मपरायण, सद्यःप्रक्षालक(तत्काल पात्र धो डालने वाले अर्थात एक ही समय के लिए अन्न संग्रह करने वाले ), शुक्ल, पुत्री के पुत्र, दामाद, भांजे, परोपकारी, मिष्ठान्न खाने वाले और पचने में समर्थ, मीठे वचन बोलनेवाले एवं सदा जप में तत्पर रहनेवाले - ये सभी ब्राह्मण पंक्तिपावन जानने चाहिए । ये पितरों के तृप्ति करते हैं । इसलिए थोड़ी विद्यावाले होने पर भी कुल और अचार में जो श्रेष्ठ हों, उन्ही को श्राद्ध में नियुक्त करना चाहिए ।

इस प्रकार ब्राह्मणो का ज्ञान करके सवयभाव से उनके चरणों का स्पर्श करते हुए प्रणाम करें और विश्वेदेव श्राद्ध के लिए दो ब्राह्मणो को निमंत्रण दें । दाहिना घुटना पृथ्वी पर टेककर इस मन्त्र का उच्चारण करें -
आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबलाः।
भक्त्याहूता मया चैव त्वम् चापि व्रतभाग्भव।।

मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक बुलाये हुए परम सौभाग्यशाली महाबली विश्वदेवगण इस श्राद्धकर्म में पधारें और हे ब्राह्मणदेव ! आप भी व्रत के भागी, क्रोधरहित, शौचपरायण तथा ब्रह्मचर्यपालक हों ।

निमंत्रित ब्राह्मणो को उस दिन विशेष संयम से रहना चाहिए । यजमान भी शांतचित्त और ब्रह्मचर्य युक्त रहे । वह रात बीत जाने पर प्रातः काल शयन से उठकर मनुष्य दिनभर किसी पर क्रोध न करे। उस दिन स्वाध्याय बंद रखे और आने द्वारा कोई कुत्सित कर्म न होने दे। तेल लगाना, परिश्रम करना, सवारी या वाहन आदि को दूर से ही त्याग दे।
जिन तिथियों में श्रद्धापूर्ण ह्रदय से स्नान करके पितरों के लिए दिया हुआ तिलमिश्रित जल भी उनके लिए अक्षय तृप्ति का साधक होता है, उनका वर्णन करता हूँ - आश्विन शुक्ला नवमी, कार्तिक की द्वादशी, माघ तथा भादों की तृतीया, फाल्गुन की अमावस्या, पौष की एकादशी, आषाढ़ की दशमी, माघ की सप्तमी, श्रवण कृष्ण अष्टमी, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन, चैत्र और ज्येष्ठ मास की पूर्णिमाएं - ये मन्वादि तिथियां कही गयी हैं ।
इनमें स्नान करने से जो मनुष्य पितरों के उद्देश्य से तिल और कुशमिश्रित जल भी देता है, वह परम गति को प्राप्त होता है । कार्तिक शुक्ल नवमी तथा वैशाख शुक्ला तृतीया, माघ की अमावस्या और श्रवण की तृतीया - ये क्रमशः सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग की आदि तिथियां हैं । ये स्नान, दान, जप, होम और पितृतर्पण आदि करने पर अक्षयपुण्य उत्पन्न करने वाली महान फल देनेवाली होती हैं । जब सूर्य मेषराशि अथवा तुलाराशि पर जाते हैं, उस समय अक्षय पुण्यदायक 'विषुव' नामक योग होता है । जिस समय सूर्य मकर और कर्क राशि पर जाते हैं, उस समय 'अयन' नामक काल होता है । सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि पर जाना 'संक्रान्ति' कहलाता है । ये सब स्नान, दान, जप,होम आदि का महान फल देने वाले हैं ।  इस प्रकार संक्रान्ति और युगादि तिथियों का वर्णन किया गया । इनमें दी गयी वस्तु का पुण्य अक्षय होता है ।


संक्षिप्त ब्रह्म पुराण, गीताप्रेस, पृष्ठ ३६० 
----------------------------------------------------------------
मुनियों ने पूछाभगवन ! अब श्राद्ध कल्प का विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिये । तपोधन ! कब, कहाँ, किन देशों में और किन लोगों को किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए - यह बताने की कृपा करें ।

व्यास जी बोले: मुनिवरों ! सुनो, मैं श्राद्ध कल्प का विस्तार से वर्णन करता हूँ। जब जहाँ, जिन प्रदेशों में और जिन लोगों द्वारा जिस प्रकार श्राद्ध किया जाना चाहिए, वह सब बतलाता हूँ । अपने कुलोचित धर्म का पालन करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को उचित है कि वे अपने अपने वर्ण के अनुरूप वेदोक्त विधि से मंत्रोच्चारणपूर्वक श्राद्ध का अनुष्ठान करें । स्त्रियों और शूद्रों को ब्राह्मण की आज्ञा के अनुसार मंत्रोच्चारण के बिना ही विधिवत श्राद्ध करना चाहिए । उनके लिए अग्नि में होम आदि वर्जित है । पुष्कर आदि तीर्थ, पवित्र मन्दिर, पर्वत शिखर, पावन प्रदेश, पुण्य सलिला नदी, नद, सरोवर, संगम, सात समुद्रों के तट, लिपे-पुते अपने घर, दिव्य वृक्षों के मूल और यज्ञ कुण्ड - ये सभी उत्तम स्थान हैं । इन सबमें श्राद्ध करना चाहिए ।

अब श्राद्ध के लिए वर्जित स्थान बतलाता हूँ । किरात(किलात), कलिङ्ग(उड़ीसा), कोंकण, कृमि, दशार्ण, कुमार्य, तंगण, क्रथ, सिन्धु नदी का उत्तर तट, नर्मदा का दक्षिण तट और करतोया का पूर्व तट - इन प्रदेशों में श्राद्ध नहीं करना चाहिए ।
प्रत्येक मास की पूर्णिमा तथा अमावस्या को श्राद्ध के लिए योग्य काल बताया गया है । नित्य श्राद्ध में विश्वेदेवों का पूजन नहीं होता । नैमित्तिक श्राद्ध विश्वेदेवों के पूजनपूर्वक होता है । नित्य, नैमित्तिक, काम्य - ये तीन प्रकार के श्राद्ध माने गए हैं । इन तीरों का प्रतिवर्ष अनुष्ठान करना चाहिए । जातकर्म आदि संस्कारों के अवसर पर आभ्युदयिक श्राद्ध भी करना उचित है। उसमें युग्म ब्राह्मणो को निमंत्रित करने का विधान है । आभ्युदयिक श्राद्ध माता से आरम्भ होता है । जब सूर्य कन्या राशि पर जाते हैं, तब कृष्ण पक्ष के पंद्रह दिनों तक परवान की विधि से श्राद्ध करना चाहिए । प्रतिपदा को श्राद्ध करने से धन की प्राप्ति होती है । द्वितीय संतान देनेवाली है । तृतीया, पुत्रप्राप्ति की अभिलाषा पूर्ण करती है । चतुर्थी, शत्रु का नाश करने वाली है । पंचमी को श्राद्ध करने से मनुष्य लक्ष्मी को प्राप्त करता है । षष्ठी को श्राद्ध करने से वह पूज्य होता है । सप्तमी को गणो का आधिपत्य, अष्टमी को उत्तम बुद्धि, नौमी को स्त्री, दशमी को मनोरथ की पूर्णता और एकादशी को श्राद्ध करने से सम्पूर्ण वेदों को प्राप्त करता है । द्वादशी को पितरों की पूजा करने वाला मानव विजय-लाभ करता है । त्रयोदशी को श्राद्ध करनेवालाल संतान-वृद्धि, पशु, मेधा, स्वतंत्रता, उत्तम पुष्टि, दीर्घायु अथवा ऐश्वर्य का भागी होता है - इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । जिसके पितर युवावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हुए अथवा शस्त्र द्वारा मारे गए हों, वह उन पितरों को तृप्त करने की इच्छा से चतुर्दशी तिथि को श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करें । जो परुष पवित्र होकर अमावस्या को यत्नपूर्वक श्राद्ध करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं तथा अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होता है ।

मुनिवरों ! अब पितरों की प्रसन्नता के लिए जो जो वास्तु देनी चाहिए, उसका वर्णन सुनो । जो श्राद्धकर्म में गुड़मिश्रित अन्न, तिल, मधु अथवा मधुमिश्रित अन्न देता है, उसका वह सम्पूर्ण दान अक्षय होता है । पितर कहते हैं - 'क्या हमारे कुल में कोई ऐसा पुरुष होगा, जो हमें जलाञ्जलि देगा, वर्षा और मघा नक्षत्र में हमको मधुमिश्रित खीर अर्पण करेगा ? मनुष्यों को बहुत से पुत्रों की अभिलाषा करनी चाहिए । यदि उनमें से एक भी गया चला जाए अथवा कन्या विवाह करे या नील वृष का उत्सर्ग करे तो पित्रों को पूर्ण तृप्ति और उत्तम गति प्राप्त हो।' कृत्तिका नक्षत्र में पितरों की पूजा करने वाला मानव स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। संतान की इच्छा रखनेवाला पुरुष रोहिणी में श्राद्ध करे । मृगशिरा में श्राद्ध करने से मनुष्य तेजस्वी होता है । आर्द्रा में शौर्य और पुनर्वसु में स्त्री की प्राप्ति होती है; पुष्य में अक्षय धन, आश्लेषा में उत्तम आयु, मघा में संतान और पुष्टि तथा पूर्वफाल्गुनि में सौभाग्य की प्राप्ति होती है । अतः अक्षय फल की इच्छा रखने वाले पुरुष को कन्याराशि पर सूर्य के रहते उक्त तथा अन्य विभिन्न नक्षत्रों में काम्य श्राद्ध का अनुष्ठान करना चाहिए । सूर्या के कन्या राशि पर स्थित रहते मनुष्य जिन-जिन कामनाओं का चिंतन करते हुए श्राद्ध करते हैं, उन सबको प्राप्त कर लेते हैं । जब सूर्य कन्या राशि पर हों, तब नान्दीमुख पितरों का भी श्राद्ध करना चाहिए; क्योंकि उस समय सभी पितर पिण्ड पाने की इच्छा रखते हैं । जो राजसूय और अश्वमेध यज्ञों का दुर्लभ फल प्राप्त करना चाहता हो, उसे कन्याराशि पर सूर्य के रहते जल, शाक और मूल आदि से भी पितरों की पूजा अवश्य करनी चाहिए । उत्तरफाल्गुनी और हस्त नक्षत्रों पर सूर्यदेव के स्थित रहते जो भक्तिपूर्वक पितरों का पूजन करता है, उसका स्वर्गलोक में निवास होता है । उस समय यमराज की आज्ञा से पितरों की पुरी तब तक खाली रहती है जब तक कि सूर्य वृश्चिक राशि पर उपस्थित रहते हैं । वृश्चिक बीत जाने पर भी जब कोई श्राद्ध नहीं करता, तब देवताओं सहित पितर मनुष्य को दुःसह शाप देकर खेदपूर्वक लम्बी सांसे लेते हुए अपनी पुरी को लौट जाते हैं । अष्टका, मन्वन्तरा और अन्वष्टका तिथियों को भी श्राद्ध करना चाहिए । वह मात्रवर्ग से आरम्भ होता है ।
ग्रहण, व्यतिपात, एक राशि पर सूर्य और चन्द्रमा के संगम, जन्म नक्षत्र तथा ग्रहपीड़ा के अवसर पर पार्वण श्राद्ध करने का विधान है । दोनों अयनो के आरम्भ के दिन, दोनों विषुव, योगो के आने पर तथा प्रत्येक संक्रांति के दिन विधिपूर्वक उत्तम श्राद्ध करना चाहिए । इन दिनों पिण्डदान को छोड़कर शेष सभी श्राद्धसंबन्धी कार्य करने चाहिए । माता और पिता की मृत्यु के दिन प्रतिवर्ष एकोदृष्ट श्राद्ध करना चाहिए । यदि पिता के भाई अथवा अपने बड़े भाई की मृत्यु हो गयी हो और उनके कोई पुत्र नहीं हो तो उनके लिए भी निधन तिथि को प्रतिवर्ष एकोदृष्ट श्राद्ध करना उचित है । पार्वण श्राद्ध में पहले विश्वेदेवों का आह्वान और पूजन होता है । किन्तु एकोदृष्ट में ऐसा नहीं होता । देवकार्य में दो और पितृकार्य में तीन ब्राह्मणो को निमंत्रित करना चाहिए अथवा दोनों में एक-एक ब्राह्मण ही निमंत्रित करें । इसी प्रकार मातामहों के श्राद्धकार्य भी समझने चाहिए ।

जो हाल का मरा हो, उसके लिए सदा बाहर जल के समीप पृथ्वी पर तिल और कुशसहित पिण्ड और जल देना चाहिए । मृत्यु के तीसरे दिन प्रेत का अस्थि-चयन करना उचित है । घर में किसी की मृत्यु होने पर ब्राह्मण दस दिनों में, क्षत्रिय बारह दिनों में, वैश्य पंद्रह दिनों में और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है । सूतक निवृत्त हो जाने पर घर में एकोदृष्ट श्राद्ध करना बताया गया है । बारहवें दिन, एक मास पर, डेढ़ मास पर तथा उसके बाद प्रतिमास एक वर्ष तक श्राद्ध करना चाहिए । वर्ष बीतने पर सपिण्डीकरण श्राद्ध करना उचित है । सपिण्डीकरण हो जाने पर उसके लिए पार्वण श्राद्ध का विधान है । सपिण्डीकरण के बाद मृत व्यक्ति प्रेतभाव से मुक्त होकर पितरों के स्वरुप को प्राप्त होते हैं । पितर दो प्रकार के हैं - मूर्त और अमूर्त । नान्दीमुख नामवाले पितर मूर्तिमान बताये गए हैं । एकोदृष्ट श्राद्ध ग्रहण करने वाले पितरों की 'प्रेत' संज्ञा है । इस प्रकार पितरों के तीन भेद स्वीकार किये गए हैं ।

मुनियों ने पूछा: द्विजश्रेष्ठ ! मरे हुए पिता आदि का सपिण्डीकरण श्राद्ध कैसे करना चाहिए ? यह हमें विधिपूर्वक बताइये ।

व्यास जी बोले: ब्राह्मणो ! मैं सपिण्डीकरण श्राद्ध की विधि बतलाता हूँ, सुनो । सपिण्डीकरण श्राद्ध विश्वेदेवों की पूजा से रहित होता है । इसमें एक ही अर्घ्य और एक ही पवित्रक का विधान है । अग्निकरण और आह्वान की क्रिया भी इसमें नहीं होती । सपिण्डीकरण में अपसव्य होकर अयुग्म ब्राह्मणो को भोजन कराना चाहिए । इसमें जो विशेष क्रिया है, उसका वर्णन करता हूँ; एकाग्रचित्त होकर सुनो। सपिण्डीकरण में तिल, चन्दन और जल से युक्त चार पात्र होते हैं । उनमें से तीन तो पितरों के लिए रखें और एक प्रेत के लिए । प्रेत के पात्र से अर्घ्य-जल लेकर 'ये समानाः समनसः' इत्यादि मंत्र का जप करते हुए पितरों के तीनो पात्रों में छोड़ना चाहिए । शेष कार्य अन्य श्राद्धों की भांति करने चाहिए । स्त्रियों के लिए भी इसी प्रकार एकोदृष्ट का विधान है । यदि पुत्र न हो तो स्त्रियों का सपिण्डीकरण नहीं होता । पुरुषों को उचित है कि वे स्त्रियों के लिए भी प्रतिवर्ष उनकी मृत्युतिथि को एकोदृष्ट श्राद्ध करें । पुत्र के अभाव में सपिण्ड और सपिण्ड के अभाव में सहोदक, इस विधि को पूर्ण करें । जिसके कोई पुत्र न हो, उसका श्राद्ध उसके दौहित्र(नाती) कर सकते हैं । पुत्रिका-विधि से ब्याही कन्या के पुत्र तो अपने नाना आदि का श्राद्ध करने के अधिकारी हैं ही । जिनकी द्वयामुष्यायण संज्ञा है, ऐसी पुत्र नाना और बाबा दोनों का नैमित्तिक श्राद्धों में भी विधिपूर्वक पूजन कर सकते हैं । कोई भी न हो तो स्त्रियां ही अपनी पतियों का मंत्रोच्चारण किये बिना श्राद्ध कर सकती हैं । वे भी न हो तो राजा मृतक के सजातीय मनुष्यों द्वारा दाह आदि समस्त क्रियाएं पूर्ण कराये; क्योंकि राजा सब वर्णो का बन्धु होता है ।

ब्राह्मणो ! सपिण्डीकरण के बाद पिता के जो प्रपितामह हैं, वे लेपभागभोजी पितरों की श्रेणी में चले जाते हैं । उन्हें पितृपिण्ड पाने का अधिकार नहं रहता । उनसे आरम्भ करके चार पीढ़ी ऊपर के पितर, जो पुत्र के लेपभाग का अन्न ग्रहण करते थे, उसके सम्बन्ध से रहित हो जाते हैं । अब उनको लेपभाग पाने का अधिकार नहीं रहता । वे सम्बन्धहीन अन्न का उपभोग करते हैं । पिता, पितामह, प्रपितामह - इन तीन पुरुषों को पिण्ड का अधिकारी समझना चाहिए । इनसे भिन्न अर्थात पितामह के पितामह से लेकर ऊपर के जो तीन पीढ़ी के पुरुष हैं, वे लेपभाग के अधिकारी हैं । इस प्रकार छः ये और सातवां यजमान - सब मिलकर सात पुरुषों का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है - ऐसा मुनियों का कथन है । यह सम्बन्ध यजमान से लेकर ऊपर के लेपभागभोजी पितरों तक माना जाता है । इनसे ऊपर के सभी पितर पूर्वज कहलाते हैं । पूर्वजों में से जो नरक में निवास करते हैं, जो पशु-पक्षी की योनि में पड़े हैं तथा जो भूत आदि के रूप में स्थित हैं, उन सबको विधिपूर्वक श्राद्ध करनेवाला यजमान तृप्त करता है । जिसके जिसकी तृप्ति होती है, वह बतलाता हूँ ; सुनो । मनुष्य पृथ्वी पर जो अन्न बिखेरते हैं, उससे पिशाचयोनि में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । स्नान के वस्त्र से जो जल पृथ्वी पर टपकता है, उससे वृक्षयोनि में पड़े हुए पितर तृप्त होते हैं । नहाने पर अपने शरीर से जो जल के कण पृथ्वी पर गिरते हैं, उनसे उन पितरों की तृप्ति होती है जो देवभाव को प्राप्त हुए हैं । पिण्डो के उठाने पर जो जल के कण पृथ्वी पर गिरते हैं, उनसे पशु-पक्षी की योनि में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । कुल में जो बालक दांत निकलने से पहले दाह आदि कर्म के अनधिकारी रहकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे सम्मार्जन के जल का आहार करते हैं । ब्राह्मण लोग भोजन करके जो हाथ-मुंह धोते हैं और चरणों का प्रक्षालन करते हैं, उस जल से अन्यान्य पितरों की तृप्ति होती है । ब्राह्मणो ! इस प्रकार विधिपूर्वक श्राद्ध करनेवाले पुरुषों के पितर जो दूसरी-दूसरी योनियों में चले गए हैं, वे भी यजमान और ब्राह्मणो के हाथ से बिखरे हुए अन्न और जल के द्वारा पूर्ण तृप्त होते हैं । मनुष्य अन्यायोपार्जित धन से जो श्राद्ध करते हैं, उससे चाण्डाल आदि योनियों में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । इस प्रकार यहाँ श्राद्ध करनेवाले भाई-बंधुओं के द्वारा जो अन्न और जल पृथ्वी पर डाले जाते हैं, उनके द्वारा बहुत से पितर तृप्त होते हैं । अतः मनुष्य को उचित है कि वह पितरों के प्रति भक्ति रखते हुए शाकमात्र के द्वारा भी विधिपूर्वक श्राद्ध करे । श्राद्ध करनेवाले लोगों के कुल में कोई दुःख नहीं भोगता ।

श्रेष्ठ द्विजों को देवयज्ञ अथवा श्राद्ध में एक दिन पहले ही निमंत्रण देना चाहिए । उसी समय से ब्राह्मणो तथा श्राद्धकर्ता को भी संयम से रहना चाहिए । जो श्राद्ध में दान देकर अथवा भोजन करके मैथुन करता है, उसके पितर एक मास तक वीर्य में शयन करते हैं । जो स्त्री सहवास करके श्राद्ध करता अथवा श्राद्ध में भोजन करता है, उसके पितर उसके वीर्य और मूत्र का एक मास तक आहार करते हैं । इसलिए विद्वान् पुरुष को एक दिन पहले ही ब्राह्मणों के पास निमंत्रण भेजना चाहिए । यदि पहले दिन ब्राह्मण न मिल सकें तो श्राद्ध के दिन भी निमंत्रण किया जा सकता है । परन्तु स्त्री-प्रसङ्गी ब्राह्मणो को कदापि निमंत्रित न करें । यदि समय पर भिक्षा के लिए संयमी यति स्वयं पधारे हों तो उन्हें भी नमस्कार आदि के द्वारा प्रसन्न करके संयतचित्त से अवश्य भोजन कराएं । विद्वान् पुरुष श्राद्ध में योगियों को भी भोजन कराएं । क्योंकि पितरों का आधार योग है, अतः योगियों का सदा पूजन करना चाहिए । यदि हज़ारों ब्राह्मणों में एक भी योगी हो तो वह जल से नौका की भांति यजमान और श्राद्धभोजी ब्राह्मणो को भी तार देता है । इस विषय में ब्रह्मवादी विद्वान् पितरों की गायी हुई एक गाथा का गान करते हैं । पूर्वकाल में राजा पुरुरवा के पितरों ने उसका गान किया था । वह गाथा इस प्रकार है - 'हमारी वंश परम्परा में कब किसी को ऐसा श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त होगा, जो योगियों को भोजन कराने से बचे हुए अन्न को लेकर पृथ्वी पर हमारे लिए पिण्ड देगा? अथवा गया में जाकर पिण्डदान करेगा । या हमारी तृप्ति के लिए सामयिक शाक,तिल , घी, और खिचड़ी देगा ? अथवा त्रयोदशी तिथि और मघा नक्षत्र में विधिपूर्वक श्राद्ध करेगा और दक्षिणायन में हमारे लिए मधु और घी से मिली हुई खीर देगा ?
श्राद्ध में तृप्त हुए पितर मनुष्यों के लिए वसु, रूद्र, आदित्य, नक्षत्र, ग्रह और तारों की प्रसन्नता का सम्पादन करते हैं । इतना ही नहीं वे आयु, प्रजा, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सुख तथा राज्य भी देते हैं । पितरों को पूर्वाह्न की अपेक्षा अपराह्न अधिक प्रिय है । घर पर आये हुए ब्राह्मणो का स्वागतपूर्वक पूजन करके उन्हें पवित्रयुक्त हाथ से आचमन कराने के पश्चात आसनों पर बिठाये; फिर विधिपूर्वक श्राद्ध करके उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने के पश्चात भक्तिपूर्वक प्रणाम करें और प्रिय वचन कहकर विदा करें । दरवाजे तक उन्हें पहुंचने के लिए पीछे पीछे जाएँ और उनकी आज्ञा लेकर लौटे । तदनन्तर नित्यक्रिया करें और और अतिथियों को भोजन कराये । किन्ही किन्ही श्रेष्ठ पुरुषों का विचार है कि यह नित्यकर्म भी पितरों के ही उद्देश्य से होता है
तदनन्तर श्राद्धकर्ता अपने भृत्य आदि के साथ अवशिष्ट अन्न भोजन करें । धर्मज्ञ पुरुष को इसी प्रकार एकाग्रचित्त होकर पितरों का श्राद्ध करना चाहिए और जिस प्रकार ब्राह्मणों को संतोष हो, वैसी चेष्टा करनी चाहिए । अब मैं श्राद्ध में त्याग देने योग्य अधम ब्राह्मणो का वर्णन करता हौं । मित्रद्रोही, ख़राब नखों वाला, नपुंसक, क्षय का रोगी, कोढ़ी, व्यापारी, काले दांतों वाला, गांजा, काना, अँधा, बेहरा, जड़, गूंगा, पंगु, हिजड़ा। ख़राब चमड़े वाला, हीनांग, लाल आँखों वाला, कुबड़ा, बौना, विकराल, आलसी, मित्र के प्रति शत्रुभाव रखनेवाला, कलंकित कुल में उत्पन्न, पशुपालन करने वाला, अच्छी आकृति से हीन, परिवित्ति(छोटे भाई के विवाहित होने पर भी स्वयं अविवाहित रहने वाला), परिवेत्ता(बड़े भाई के ब्याह से पहले ही विवाह कर लेने वाला), परिवेदनिका(बड़ी बहन के विवाह से पहले ही विवाह करनेवाली स्त्री)- का पुत्र, शूद्रजातीय स्त्री का स्वामी और उसका पुत्र - ऐसे ब्राह्मण श्राद्ध-भोजन के अधिकारी नहीं हैं । जहाँ दुष्ट पुरुषों का आदर और साधु पुरुषों की अवहेलना होती है, वहां देवताओं का दिया हुआ भयंकर दण्ड तत्काल ऊपर पड़ता है । जो शास्त्र-विधि की अवहेलना करके मूर्ख को भोजन कराता है, वह दाता प्राचीन धर्म का त्याग करने के कारण नष्ट हो जाता है । जो अपने आश्रय में रहनेवाले ब्राह्मण का परित्याग करके दुसरे को बुलाकर भोजन कराता है, वह दाता उस ब्राह्मण के शोकोच्छवास की आग में दग्ध होकर नष्ट हो जाता है ।
वस्त्र के बिना कोई क्रिया, यज्ञ, वेदाध्ययन तपस्या नहीं होती। अतः श्राद्धकाल में वस्त्र का दान विशेष रूप से करना चाहिए । जो रेशमी, सूती और बिना कटा हुआ वस्त्र श्राद्ध में देता है, वह उत्तम भोगों को प्राप्त करता है । जैसे बहुत सी गौओं में बछड़ा अपनी माता के पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार श्राद्ध में भोजन किया हुआ अन्न जीव के पास, वह जहाँ भी रहता है, पहुँच जाता है । नाम, गोत्र और मंत्र - ये अन्न को वहां ढोकर नहीं ले जाते अपितु मृत्यु को प्राप्त हुए जीवों तक को तृप्ति पहुँचती है - वे श्राद्ध से तृप्ति लाभ करते है ।

'देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः।।' इस मन्त्र का श्राद्ध के आरम्भ और अन्त में तीन बार जप करे । पिण्डदान करते समय भी एकाग्रचित्त होकर इसका जप करना चाहिए । इससे पितर शीघ्र ही आ जाते हैं और राक्षस भाग खड़े होते हैं तथा तीनो लोकों के पितर तृप्त होते हैं । श्राद्ध में रेशम, सन अथवा कपास का सूत देना चाहिए । ऊन अथवा पाटका सूत्र वर्जित है । विद्वान पुरुष, जिसमें कोर न हो, ऐसा वस्त्र फटा न होने पर भी श्राद्ध में न दें; क्योंकि उससे पितरों को तृप्ति नहीं होती और दाता के लिए भी अन्याय का फल प्राप्त होता है । पिता आदि में से जो जीवित हो, उसको पिण्ड नहीं देना चाहिए, अपितु उसे विधिपूर्वक उत्तम भोजन कराना चाहिए । भोग की इच्छा रखने वाला पुरुष श्राद्ध के पश्चात पिण्ड को अग्नि में दाल दे और जिसे पुत्र की अभिलाषा हो, वह माध्यम अर्थात पितामह के पिण्ड को मंत्रोच्चारणपूर्वक अपनी पत्नी को हाथ में दे दे और पत्नी उसे खा ले । जो उत्तम कान्ति की इच्छा रखने वाला हो, वह श्राद्ध के अनन्तर सब पिण्ड गौवों को खिला दे। बुद्धि, यश और कीर्ति चाहने वाला पुरुष पिण्डों को जल में दाल दे । दीर्घायु की अभिलाषा वाला पुरुष उसे कौवो को दे दे । कुमारशाला की इच्छा रखनेवाला पुरुष वह पिण्ड मूगों को दे दे । कुछ ब्राह्मण ऐसा कहते हैं कि पहले ब्राह्मणो से "पिण्ड उठाओ" ऐसी आज्ञा लेले; उसके बाद पिण्डों को उठाये । अतः ऋषियों की बताई हुई विधि के अनुसार श्राद्ध का अनुष्ठान करें; अन्यथा दोष लगता है और पितरों को भी नहीं मिलता ।
अपनी शक्ति के अनुसार श्राद्ध की सामग्री एकत्रित करके विधिपूर्वक श्राद्ध करना सबका कर्तव्य है । जो अपने वैभव के अनुसार इस प्रकार विधिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह मानव ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त, सम्पूर्ण जगत को तृप्त कर देता है ।

मुनियों ने पूछा: ब्रह्मन !  जिसके पिता तो जीवित हों, किन्तु पितामह और प्रपितामह की मृत्यु हो गयी हो, उसे किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए यह विस्तारपूर्वक बताइये ।

व्यास जी बोले: पिता जिनके लिए श्राद्ध करते हैं, उनके लिए स्वयं पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है । ऐसा करने से लौकिक और वैदिक धर्म की हानि नहीं होती ।

मुनियों ने पूछा: विप्रवर ! जिसके पिता की मृत्यु हो गयी हो और पितामह जीवित हों, उसे किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए? यह बताने की कृपा करें ।

व्यास जी बोले: पिता को पिण्ड दे, पितामह को प्रत्यक्ष भोजन कराये और प्रपितामह को भी पिण्ड दे दे । यही शास्त्रों का निर्णय है । मरे हुए को पिण्ड देने और जीवित को भोजन कराने का विधान है । उस अवस्था में सपिण्डीकरण और पार्वणश्राद्ध नहीं हो सकता ।


======================================================

लेपभागभोजी

नैमित्तिक श्राद्ध
देवकार्य
पितृकार्य 

Sunday, April 7, 2019

शास्त्र ज्ञान सत्र के श्लोक

Day - ७

सर्व मङ्गल मांगल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणी नमोस्तुते।।

आप सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करने वाली हैं । आप ही शिव हैं, सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, शरणागत वत्सल, तीन नेत्रों वाली गौरी, आप को नमस्कार ।

Day - ९

या कुन्देन्दु तुषार हार धवला या शुभ्र वस्त्रावृता
या वीणा वरदण्डमण्डितकरा या श्वेत पद्मासना।।
या ब्रह्माच्युत शङ्कर प्रभृति भिर्देवै सदा वन्दिता
सा माम् पातु सरस्वती भगवती निः शेष ज्याड्याऽपहा।।

जो कुन्द के फूल और इन्दु(चन्द्रमा) और बर्फ की तरह धवल(गौरवर्ण) हैं, जिनके हाथ में वीणा है, वर मुद्रा में हैं और हाथ में दण्ड है। जो कमल के फूल के आसन पर हैं। जो ब्रह्मा, विष्णु और शिवजी द्वारा सदा वन्दित/पूजित हैं। वे संसार की जड़ता, अज्ञानता से मेरी रक्षा करें ।
*पद्मासन - ध्यान के लिए, इससे स्मरण शक्ति बढ़ती है। ज्यादा वजन, घुटनो के दर्द वालों के लिए वर्जित ।

Day - १०

नमो काशीवासी अजित अविनाशी प्रभु नमो

Day - ११ - भोजन मन्त्र

ॐ यन्तु नद्यौ वर्षन्तु पर्जन्या सुपिप्पला औषधयो भवन्तु।
अन्नवताम् मोदान्न्वताम् मामिक्षवताम्, एषाम् राजाभूयासम्
ओदनमुद्ब्रुवते परमेष्ठी वा एषः यदोदनः
परमावैनम् श्रियं गमयति ।।

हे ईश्वर वर्षा होती रहे, नदियां बहती रहे, वृक्षों पर औषधि, फल-फूल, फले फूलें, मुझे अन्न और दूध उत्पादन करने वालों से लाभ ह, ऐसी धरती का मैं राजा बनूँ। हे ईश्वर इस थाली में रखा भोजन आपके द्वारा प्रदत्त प्रसाद है, इस प्रसाद का सेवन मुझे स्वास्थ्य और समृद्धि की ऊंचाइयों पर ले जाए ।

मा भ्राता भ्रातरं दिक्षण, मा स्वसारमुतस्वसा सम्यन्च सव्रता भूत्वा, वाचं वदत भद्रया

भाई-भाई से न लाडे, बहनें दयालु हों, सभी एक दुसरे से सम्भाषण करें और आपस में सत्य, सेवा एवं सहयोग की भावना पैदा करें ।

Day - १२

शुक्लाम्बर धरं देवम शशिवर्णं चतुर्भुजं।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत सर्वविघ्नपशान्तये ।।

वो देव जिन्होंने गौर वस्त्र धारण किये हैं, जिनकी कान्ति चन्द्र के समान है, चार भुजाओं वाले, मुख पे प्रसन्नता छायी रहती है ।

Day - १३

शुक्लां ब्रह्मविचार सार परमां आधां जगाद्वापिनी 
वीणा पुस्तक धारिणी अभयदां जाड्यान्धकारपहां।
हस्ते स्फाटिक मालिकां विदधति पद्मासने संस्थिता
वनडे तां परमेश्वरीं भगवतीं बुद्धिप्रदां शारदां।।

परब्रह्म के स्वरोप्प के विचार और सार स्वरुप जगत को व्याप्त करने वाली, वीणा और पुस्तक धारण करने वाली, अभयदान देने वाली, अज्ञान का अन्धकार हटाने वाली हैं । हाथों में स्फटिक की माला लिए कमल पर स्थित हैं । आप मुझे बुद्धि प्रदान कीजिये, इसके लिए मैं आपकी वंदना करता हूँ ।

Day - १८

आवाहनं न जानामि नैव जानामि विसर्जनं।
पूजनम न चैव जानामि क्षम्यतां परमेश्वरी।।
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं भक्तिहीनं सुरेश्वरि।
यत पूजनम मया देवि परिपूर्णं तदस्तु मे।।

Day - २० - द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग

शान्ताकारं भुजंगशयनम पद्मनाभं सुरेशं।
विश्वाधारं गगन सदृशं मेघवर्णं शुभांगम।।
लक्ष्मीकान्तं कमलनयनं योगिभिर्ध्यानगम्यम्।
वन्दे विष्णुं ! भव भय हरं सर्वलोकैकनाथं।।

सौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्‌।
उज्जयिन्यां महाकालमोंकारं ममलेश्वरम्‌ ॥1॥

परल्यां वैजनाथं च डाकिन्यां भीमशंकरम्‌।
सेतुबन्धे तु रामेशं नागेशं दारुकावने ॥2॥

वारणस्यां तु विश्वेशं त्र्यम्बकं गौतमी तटे।
हिमालये तु केदारं घृष्णेशं च शिवालये ॥3॥

एतानि ज्योतिर्लिंगानि सायं प्रातः पठेन्नरः।
सप्तजन्मकृतं पापं स्मरेण विनश्यति ॥4॥

Day - २५ - श्री सूक्त

ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं, सुवर्णरजतस्त्रजाम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आ वह।।१।।

हे जातवेदा (सर्वज्ञ) अग्निदेव! सुवर्ण के समान पीले रंगवाली, किंचित हरितवर्ण वाली, सोने और चांदी के हार पहनने वाली, चांदी के समान धवल पुष्पों की माला धारण करने वाली, चन्द्र के समान प्रसन्नकान्ति, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी को मेरे लिए आवाहन करो (बुलाइए)।

तां म आ वह जातवेदो, लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं, गामश्वं पुरूषानहम्।।२।।

हे अग्निदेव! आप उन जगत प्रसिद्ध लक्ष्मीजी को, जिनका कभी विनाश नहीं होता तथा जिनके आगमन से मैं सोना, गौ, घोड़े तथा पुत्रादि को प्राप्त करुंगा, मेरे लिए आवाहन करो।

अश्वपूर्वां रथमध्यां, हस्तिनादप्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुप ह्वये, श्रीर्मा देवी जुषताम्।।३।।

जिन देवी के आगे घोड़े तथा उनके पीछे रथ रहते हैं अथवा जिनके सम्मुख घोड़े रथ में जुते हुए हैं, ऐसे रथ में बैठी हुई, हाथियों के निनाद से प्रमुदित होने वाली, देदीप्यमान एवं समस्तजनों को आश्रय देने वाली लक्ष्मीजी को मैं अपने सम्मुख बुलाता हूँ। दीप्यमान व सबकी आश्रयदाता वह लक्ष्मी मेरे घर में सर्वदा निवास करें।

कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम्।
पद्मेस्थितां पद्मवर्णां तामिहोप ह्वये श्रियम्।।४।।

जो साक्षात् ब्रह्मरूपा, मन्द-मन्द मुसकराने वाली, जो चारों ओर सुवर्ण से ओत-प्रोत हैं, दया से आर्द्र हृदय वाली या समुद्र से प्रादुर्भूत (प्रकट) होने के कारण आर्द्र शरीर होती हुई भी तेजोमयी हैं, स्वयं पूर्णकामा होने के कारण भक्तों के नाना प्रकार के मनोरथों को पूर्ण करने वाली, भक्तानुग्रहकारिणी, कमल के आसन पर विराजमान तथा पद्मवर्णा हैं, उन लक्ष्मीदेवी का मैं यहां आवाहन करता हूँ।

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्।
तां पद्मिनीमीं शरणं प्र पद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे।।५।।

मैं चन्द्र के समान शुभ्र कान्तिवाली, सुन्दर, द्युतिशालिनी, यश से दीप्तिमती, स्वर्गलोक में देवगणों के द्वारा पूजिता, उदारशीला, पद्महस्ता, सभी की रक्षा करने वाली एवं आश्रयदात्री लक्ष्मीदेवी की शरण ग्रहण करता हूँ। मेरा दारिद्रय दूर हो जाय। मैं आपको शरण्य के रूप में वरण करता हूँ अर्थात् आपका आश्रय लेता हूँ।

आदित्यवर्णे तपसोऽधि जातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽक्ष बिल्वः।
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः।।६।।

हे सूर्य के समान कान्ति वाली! तुम्हारे ही तप से वृक्षों में श्रेष्ठ मंगलमय बिना फूल के फल देने वाला बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआ। उस बिल्व वृक्ष के फल हमारे बाहरी और भीतरी (मन व संसार के) दारिद्रय को दूर करें।

उपैतु मां दैवसखः, कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन्, कीर्तिमृद्धिं ददातु मे।।७।।

हे लक्ष्मी! देवसखा (महादेव के सखा) कुबेर और उनके मित्र मणिभद्र अर्थात् चिन्तामणि तथा दक्ष प्रजापति की कन्या कीर्ति मुझे प्राप्त हों। अर्थात् मुझे धन और यश की प्राप्ति हो। मैं इस राष्ट्र में–देश में उत्पन्न हुआ हूँ, मुझे कीर्ति और ऋद्धि प्रदान करें।

क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धिं च, सर्वां निर्णुद मे गृहात्।।८।।

लक्ष्मी की ज्येष्ठ बहिन अलक्ष्मी (दरिद्रता की अधिष्ठात्री देवी) का, जो क्षुधा और पिपासा से मलिन–क्षीणकाय रहती हैं, मैं नाश चाहता हूँ। देवि! मेरे घर से सब प्रकार के दारिद्रय और अमंगल को दूर करो।

गन्धद्वारां दुराधर्षां, नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्वभूतानां, तामिहोप ह्वये श्रियम्।।९।।

सुगन्धित पुष्प के समर्पण करने से प्राप्त करने योग्य, किसी से भी दबने योग्य नहीं, धन-धान्य से सर्वदा पूर्ण, गौ-अश्वादि पशुओं की समृद्धि देने वाली, समस्त प्राणियों की स्वामिनी तथा संसार प्रसिद्ध लक्ष्मीदेवी का मैं यहां–अपने घर में आवाहन करता हूँ।

मनसः काममाकूतिं, वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य, मयि श्रीः श्रयतां यशः।।१०।।

हे लक्ष्मी देवी! आपके प्रभाव से मन की कामनाएं और संकल्प की सिद्धि एवं वाणी की सत्यता मुझे प्राप्त हों; मैं गौ आदि पशुओं के दूध, दही, यव आदि एवं विभिन्न अन्नों के रूप (भक्ष्य, भोज्य, चोष्य, लेह्य, चतुर्विध भोज्य पदार्थों)  को प्राप्त करुँ। सम्पत्ति और यश मुझमें आश्रय लें अर्थात् मैं लक्ष्मीवान एवं कीर्तिमान बनूँ।

कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्।।११।।

लक्ष्मी के पुत्र कर्दम की हम संतान हैं। कर्दम ऋषि! आप हमारे यहां उत्पन्न हों (अर्थात् कर्दम ऋषि की कृपा होने पर लक्ष्मी को मेरे यहां रहना ही होगा) मेरे घर में लक्ष्मी निवास करें। पद्मों की माला धारण करने वाली सम्पूर्ण संसार की माता लक्ष्मीदेवी को हमारे कुल में स्थापित कराओ।

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले।।१२।।

समुद्र-मन्थन द्वारा चौदह रत्नों के साथ लक्ष्मी का भी आविर्भाव हुआ है। इसी अभिप्राय में कहा गया है कि वरुण देवता स्निग्ध पदार्थों की सृष्टि करें। पदार्थों में सुन्दरता ही लक्ष्मी है। लक्ष्मी के आनन्द, कर्दम, चिक्लीत और श्रीत–ये चार पुत्र हैं। इनमें चिक्लीत से प्रार्थना की गयी है। हे लक्ष्मीपुत्र चिक्लीत! आप भी मेरे घर में वास करें और दिव्यगुणयुक्ता तथा सर्वाश्रयभूता अपनी माता लक्ष्मी को भी मेरे कुल में निवास करायें।

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिंगलां पद्ममालिनीम्।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं, जातवेदो म आ वह।।१३।।

हे अग्निदेव! हाथियों के शुण्डाग्र से अभिषिक्त अतएव आर्द्र शरीर वाली, पुष्टि को देने वाली अर्थात् पुष्टिरूपा, पीतवर्णा, पद्मों (कमल) की माला धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान शुभ्र कान्ति से युक्त, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी का मेरे घर में आवाहन करें।

आर्द्रां य करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह।।१४।।

हे अग्निदेव! जो दुष्टों का निग्रह करने वाली होने पर भी कोमल स्वभाव की हैं, जो मंगलदायिनी, अवलम्बन प्रदान करने वाली यष्टिरूपा हैं (जिस प्रकार लकड़ी के बिना असमर्थ पुरुष चल नहीं सकता, उसी प्रकार लक्ष्मी के बिना संसार का कोई भी कार्य ठीक प्रकार नहीं हो पाता), सुन्दर वर्णवाली, सुवर्णमालाधारिणी, सूर्यस्वरूपा तथा हिरण्यमयी हैं (जिस प्रकार सूर्य प्रकाश और वृष्टि द्वारा जगत का पालन-पोषण करता है, उसी प्रकार लक्ष्मी ज्ञान और धन के द्वारा संसार का पालन-पोषण करती है), उन प्रकाशस्वरूपा लक्ष्मी का मेरे लिए आवाहन करें।

तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम्।।१५।।

हे अग्निदेव! कभी नष्ट न होने वाली उन स्थिर लक्ष्मी का मेरे लिए आवाहन करें जो मुझे छोड़कर अन्यत्र नहीं जाने वाली हों, जिनके आगमन से बहुत-सा धन, उत्तम ऐश्वर्य, गौएं, दासियां, अश्व और पुत्रादि को हम प्राप्त करें।

य: शुचि: प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम्।
सूक्तं पंचदशर्चं च श्रीकाम: सततं जपेत्।।१६।।

जिसे लक्ष्मी की कामना हो, वह प्रतिदिन पवित्र और संयमशील होकर अग्नि में घी की आहुतियां दे तथा इन पंद्रह ऋचाओं वाले–’श्री-सूक्त’ का निरन्तर पाठ करे।