Monday, March 30, 2020

अग्नि

भगवान् शङ्कर के भजन-पूजन के लिए अग्निकार्य के वर्णन से अग्नि की व्याख्या
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अग्निकुण्ड तैयार करके ब्रह्मवृक्ष(पलास या गूलर) आदि के छिद्ररहित बिछले दो पत्ते लेकर उन्हें कुश से पोंछे और अग्नि में तपकर उनका प्रोक्षण करें ।  उन्हीं पत्तों को स्रुक और स्त्रुवा का रूप दे उनमें घी उठाये और अपने गृह्यसूत्र में बताये हुए क्रम से शिवबीज (ॐ) सहित आठ बीजाक्षरों द्वारा अग्नि में आहुति दे । इससे अग्नि का संसार संपन्न होता है । वे बीज इस प्रकार हैं - भ्रुं, स्तुं, ब्रुं, श्रुं, पुं, ड्रुं, द्रुं । ये साथ हैं, इनमें शिवबीज (ॐ) को सम्मिलित कर लेनेपर आठ बीजाक्षर होते हैं । उपर्युक्त साथ बीज क्रमशः अग्नि की साथ जिह्वाओं के हैं । उनकी मध्यमा जिह्वा का नाम बहुरूपा है । उसकी तीन शिखाएं हैं । उनमें से एक शिखा दक्षिण में और दूसरी वाम दिशा (उत्तर) में प्रज्वलित होती है और बीचवाली शिखा बीच में ही प्रकाशित होती है । ईशानकोण में जो जिह्वा है, उसका नाम हिरण्या है । पुर्वदिशा में विद्यमान जिह्वा कनका नाम से प्रसिद्ध है । अग्निकोण में रक्ता, नैऋत्यकोण में कृष्णा और वायव्यकोण में सुप्रभा नाम की जिह्वा प्रकाशित होती है । इनके अतिरिक्त पश्चिम में जो जिह्वा प्रज्वलित होती है, उसका नाम मरुत यही । इन सबकी प्रभा अपने-अपने नाम के अनुरूप है । अपने-अपने बीज के अनन्तर क्रमशः इनका नाम लेना चाहिए और नाम के अंत में स्वाहा का प्रयोग करना चाहिए । इस तरह जो जिह्वामन्त्र बनते हैं, उनके द्वारा क्रमशः प्रत्येक जिह्वा के लिए एक एक घी की आहुति दे, परन्तु मध्यमा की तीन जिह्वाओं के लिए तीन आहुतियां दे ।

जिह्वामन्त्र - 
ओं भ्रुं त्रिशिखायै बहुरूपायै स्वाहा(दक्षिण मध्ये उत्तर च) ३ ।
ओं स्तुं हिरण्यायै स्वाहा(ऐशान्यै) १ ।
ओं ब्रुं कनकायै स्वाहा(पूर्वस्याम्) १ ।
ओं श्रुं रक्तायै स्वाहा(आग्नेय्याम्) १ ।
ओं पुं कृष्णायै स्वाहा(नैऋत्याम्) १ ।
ओं ड्रुं सुप्रभायै स्वाहा(पश्चिमायाम्) १ ।
ओं द्रुं मरुज्जिह्वायै स्वाहा(वायव्ये) १ ।
(शिव पुराण, वायव्य संहिता, उत्तर खण्ड, अध्याय २३)



अध्याय ५९ - अग्निपुराण

बीजमन्त्र
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आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी - ये पांच भूत हैं । इनके द्वारा ही सबका आधारभूत स्थूल शरीर उत्पन्न होता है । इन तत्वों के वाचक जो उत्तम बीज-मन्त्र हैं उनका न्यास के लिए यहाँ वर्णन किया जाता है ।

'मं' - यह बीज जीवस्वरूप (अथवा जीवतत्व का वाचक) है । वह सम्पूर्ण शरीर में व्यापक है - इस भावना के साथ उक्त बीज का सम्पूर्ण देह में व्यापक-न्यास करना चाहिए ।

'भं' - यह प्राणतत्व का प्रतीक है । यह जीव की उपाधि में स्थित है, अतः इसका वहीँ न्यास करना चाहिए ।

'बं' - विद्वान पुरुष बुद्धितत्व के बोधक बकार का ह्रदय में न्यास करे ।

'फं' - यह अहङ्कार का स्वरुप है अतः इसका भी ह्रदय में न्यास करें ।

'पं' - संकल्प के कारणभूत मनस्तत्त्वरूप पकार का भी वहीँ न्यास करें ।

'नं' - शब्दतन्मात्रतत्त्व के बोधक नकार का मस्तक में न्यास करें

'धं' - स्पर्शरूप धकार का मुखप्रदेश में न्यास करें ।

'दं' - रुपतत्व के वाचक का न्यास नेत्रप्रान्त में ।

'थं' - रसतन्मात्रा के बोधक का वस्तिदेश(मूत्राशय) में न्यास करें ।

'तं' - गन्धतन्मात्रास्वरुप, पिण्डलियों में न्यास।

'णं' - दोनों कानों में न्यास ।

'ढं' - त्वचा में न्यास

'डं' - दोनों नेत्रों में न्यास

'ठं' - रसना में न्यास

'टं' - नासिका में न्यास

'ञं' - वागिन्द्रिय में न्यास

'झं' - पाणितत्वरूप का दोनों हाथों में न्यास

'जं' - दोनों पैरों में न्यास

'छं' - पायु में न्यास

'चं' - उपस्थ में न्यास

'ङं' - पृथ्वी तत्त्व का प्रतीक, युगल चरणों में न्यास

'घं' - वस्ति में न्यास

'गं' - तेजस्तत्वस्वरूप, ह्रदय में न्यास

'खं' - वायुतत्व का प्रतीक, नासिका में न्यास

'कं' - आकाशतत्त्वस्वरूप, मस्तक में न्यास ।

भारतवर्ष का वर्णन
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अध्याय ११८, अग्निपुराण 

अग्निदेव कहते हैं: समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण की जो वर्ष है, उसका नाम 'भारत' है । उसका विस्तार नौ हज़ार योजन है । स्वर्ग तथा अपवर्ग पाने की इच्छा वाले पुरुषों के लिए यह कर्मभूमि है । महेन्द्र, मलय, सह्य, शुक्तिमान, हिमालय, विन्ध्य और पारियात्र - ये साथ यहाँ के कुल-पर्वत हैं । इन्द्रद्वीप, कसेरु, ताम्रवर्ण, गभस्तिमान, नागद्वीप, सौम्य, गान्धर्व और वारुण - ये आठ द्वीप हैं । समुद्र से घिरा हुआ भारत नवां द्वीप है ।
भारतद्वीप उत्तर से दक्षिण की ओर हज़ारों योजन लम्बा है । भारत के उपर्युक्त नौ भाग हैं । भारत की स्थिति मध्य में है । इसमें पूर्व की ओर किरात और पश्चिम में यवन रहते हैं । मध्यभाग में ब्राह्मण आदि वर्णों का निवास है । वेद-स्मृति आदि नदियां पारियात्र पर्वत से निकलती हैं । विंध्याचल से नर्मदा आदि प्रकट हुई हैं । सह्य पर्वत से तापी, पयोष्णी, गोदावरी, भीमरथी और कृष्णवेणा आदि नदियों का प्रादुर्भाव हुआ है ।

मलय से कृतमाला आदि और महेन्द्रपर्वत से त्रिसामा आदि नदियां निकली हैं । शुक्तिमान से कुमारि आदि और हिमालय से चन्द्रभागा आदि का प्रादुर्भाव हुआ है । भारत के पश्चिम में कुरु, पाञ्चाल और मध्यदेश आदि की स्थिति है ।

भुवनकोश वर्णन 
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अग्निदेव कहते हैं: वसिष्ठ ! भूमि का विस्तार सत्तर हज़ार योजन बताया गया है । इसकी ऊंचाई दस हज़ार योजन है । पृथ्वी के भीतर सात पाताल हैं । एक-एक पाताल दस-दस हज़ार योजन विस्तृत है । सात पातालों के नाम इस प्रकार हैं - अतल, वितल, नितल, प्रकाशमान महातल, सुतल, तलातल और सातवां रसातल या पाताल। इन पातालों की भूमियां क्रमशः काली, पीली, लाल, सफ़ेद, कंकरीली, पथरीली और सुवर्णमयी है । वे सभी पाताल बड़े रमणीय हैं । उनमें दैत्य और दानव आदि सुखपूर्वक निवास करते हैं । समस्त पातालों के नीचे शेषनाग विराजमान हैं, जो भगवान् विष्णु के तमोगुण-प्रधान विग्रह हैं । उनमें अनन्त गुण हैं, इसीलिए उन्हें 'अनन्त' भी कहते हैं । वे अपने मस्तक पर इस पृथ्वी को धारण करते हैं ।
पृथ्वी के नीचे अनेक नरक हैं, परन्तु जो भगवान् विष्णु का भक्त है, वह इन नरकों में नहीं पड़ता है । सूर्यदेव से प्रकाशित होनेवाली पृथ्वी का जितना विस्तार है, उतना ही नभोलोक(अन्तरिक्ष या भुवर्लोक) का विस्तार माना गया है । वसिष्ठ ! पृथ्वी से एक लाख योजन दूर सूर्यमण्डल है

त्रिपुष्करोग - जिन नक्षत्रों के तीन चरण दूसरी राशि में प्रविष्ट हों । जैसे कृत्तिका, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, उत्तराषाढ़ा और पूर्वाभाद्रपदा - इन नक्षत्रों में, जब भद्रा द्वितीय, सप्तमी और द्वादशी तिथियां हों एवं राशि, शनि तथा मंगलवार हों तो त्रिपुष्कर योग होगा

नाड़ीचक्र का वर्णन 
(अग्निपुराण अध्याय २१४) 

अग्निदेव कहते हैं - वसिष्ठ ! अब मैं नाड़ीचक्र के विषय में कहता हूँ जिसके जानने से श्रीहरि का ज्ञान हो जाता है। नाभि के अधोभाग में कन्द(मूलाधार) है उससे अङ्कुरों की भांति नाड़ियां निकली हुई हैं । नाभि के मध्य में बहत्तर हज़ार नाड़ियां स्थित हैं । इन नाडियों ने शरीर को ऊपर-नीचे दाएं-बाएं सब ओर से व्याप्त कर रखा है और ये चक्राकार होकर स्थित हैं । इनमें प्रधान दस नाड़ियां हैं - इड़ा, पिङ्गला, सुषुम्णा, गान्धारी, हस्तिजिह्वा, पृथा, यशा, अलम्बुषा, कुहू और दसवीं शङ्किनी । ये दस प्राणों का वहन करनेवाली प्रमुख नाड़ियां बतलायी गयीं । प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान, नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त और धनञ्जय - ये दस 'प्राणवायु' हैं ।  इनमें प्रथम वायु प्राण दसों का स्वामी है । यह प्राण - रिक्तता की पूर्ति प्रति प्राणों को प्राणयन(प्रेरण) करता है और सम्पूर्ण प्राणियों के हृदयदेश में स्थित रहकर अपान-वायुद्वारा मल-मूत्रादि के त्याग इ होनेवाली रिक्तता को नित्य पूर्ण करता है । जीव में आश्रित यह प्राण श्वासोछवास और कास आदि द्वारा प्रयाण (गमनागमन) करता है, इसलिए इसे 'प्राण' कहा गया है । अपानवायु मनुष्यों के आहार को नीचे की ओर ले जाता है और मूत्र एवं शुक्र आदि को भी नीचे की ओर वहन करता है इस अपानयन के कारण से 'अपान' कहा जाता है । समानवायु मनुष्यों के खाये-पिए और सूंघे हुए पदार्थों को एवं रक्त पित्त कफ और वात को सारे अंगों में समानभाव से ले जाता है इस कारण उसे उसे समान कहा गया है । उदान नामक वायु मुख और अधरों को स्पन्दित करता है नेत्रों की अरुणिमा को बढ़ाता है और मर्मस्थानों को उद्विग्न करता है इसीलिए उसका नाम 'उदान' है । 'व्यान' अंगों को पीड़ित करता है । यही व्याधि को कुपित करता है और कण्ठ को अवरुद्ध कर देता है । व्यापनशील होने से इसे 'व्यान' कहा गया है। 'नागवायु' उदगार(डकार-वमन आदि) में और 'कूर्मवायु' नयनों के उन्मीलन(खोलने) में प्रवृत्त होता है । 'कृकर' भक्षण में और 'देवदत्त' वायु जम्भाई में अधिष्ठित है । 'धनञ्जय' पवन का स्थान  घोष है । यह मृत शरीर का भी परित्याग नहीं करता । इन दसों द्वारा जीव प्रयाण करता है इसलिए प्राणभेद से नाड़ीचक्र के भी दस भेद हैं ।

संक्रान्ति, विषुव, दिन, रात, अयन, अधिमास, ऋण, उनरात्र एवं धन - ये सूर्य की गति से होनेवाली दस दशाएं शरीर में भी होती हैं । इस शरीर में हिक्का(हिचकी), उनरात्र, विजृंभिका(जम्भाई), अधिमास, कास(खांसी), ऋण और निःश्वास 'धन' कहा जाता है । शरीरगत वामनाड़ी 'उत्तरायण' और दक्षिणनाड़ी 'दक्षिणायन' है । दोनों के मध्य में नासिका के दोनों छिद्रों से निर्गत होने वाली श्वासवायु 'विषुव' कहलाती है । इस विषुववायु का ही अपने स्थान से चलकर दुसरे स्थान ये युक्त होना 'संक्रान्ति' है । द्विजश्रेष्ठ वसिष्ठ ! शरीर के मध्य में सुषुम्णा स्थित है, वामभाग में 'इड़ा' और दक्षिणभाग में 'पिङ्गला' है । ऊर्ध्वगतिवाला प्राण 'दिन' माना गया है और अधोगामी अपान को 'रात्रि' कहा गया है । एक प्राणवायु ही दस वायु के रूप में विभाजित है । देह के भीतर जो प्राणवायु का आयाम(बढ़ना) है, उसे 'चन्द्रग्रहण' कहते हैं । वही जब देह से ऊपर तक बढ़ जाता है तब उसे 'सूर्यग्रहण' मानते हैं ।

धनुष के लक्षण 
(अग्निपुराण अध्याय २४५ )

अग्निदेव कहते हैं: वसिष्ठ ! धनुष के निर्माण के लिए लौह,  श्रृंग या काष्ठ - इन तीन द्रव्यों का प्रयोग करें । प्रत्यञ्चा के लिए तीन वस्तु उपयुक्त हैं - वंश, भङ्ग एवं चर्म ।

दारुनिर्मित श्रेष्ठ धनुष का प्रमाण चार हाथ माना गया है । उसी में क्रमशः एक एक हाथ कम मध्यम और अधम होता है । मुष्टिग्राह के निमित्त धनुष के मध्यभाग में द्रव्य निर्मित करावे ।

धनुष की कोटि कामिनी की भ्रू-लता के समान आकारवाली एवं अत्यंत संयत बनवानी चाहिए । लौह या श्रृंग के धनुष के धनुष पृथक-पृथक एक ही द्रव्य के या मिश्रित भी बनवाये जा सकते हैं । श्रृंगनिर्मित धनुष को अत्यन्त उपयुक्त तथा सुवर्ण बिंदुओं से अलङ्कृत करें ।  कुटिल, स्फुटित या छिद्रयुक्त धनुष निन्दित होता है । धातुओं में सुवर्ण, रजत, ताम्र एवं कृष्ण लौह का धनुष के निर्माण में प्रयोग करें । शार्ङ्गधनुषों में - महिष, शरभ एवं रोहिण मृग के श्रृंगों से निर्मित चाप शुभ माना गया है । चन्दन, बेतस, साल, धव तथा अर्जुन वृक्ष के काष्ठ से बना हुआ दारुमय शरासन उत्तम होता है । इनमें भी शरद ऋतु में काटकर लिए गए पके बांसों से निर्मित धनुष सर्वोत्तम माना जाता है । धनुष एवं खङ्ग की त्रैलोक्यमोहन मन्त्र से पूजा करें ।

लोहे, बांस, सरकण्डे अथवा उससे भिन्न किसी और वस्तु के बने हुए बाण सीधे, स्वर्णाभ, स्नायुश्लिष्ट, सुवर्णपुङ्गभूषित, तैलधौत, सुनहले एवं उत्तम पंखयुक्त होने चाहिए ।

बारह प्रकार के सजातीय पुत्र 
(अग्निपुराण - अध्याय २५६)

औरस - अपनी धर्मपत्नी से स्वकीय वीर्यद्वारा उत्पादित पुत्र। यह सब पुत्रों में मुख्य होता है ।
पुत्रिकापुत्र - यह भी औरस के समान ही है ।
क्षेत्रज - अपनी स्त्री के गर्भ से किसी सगोत्र या सपिण्ड पुरुष के द्वारा अथवा देवर के द्वारा उत्पन्न पुत्र ।
गूढ़ज -  पति के घर में छिपे तौर जो सजातीय पुरुष से उत्पन्न होता है ।
कानीन - अविवाहिता कन्या से उत्पन्न पुत्र । वह नाना का पुत्र माना गया है ।
पौनर्भव - अक्षतयोनि या क्षतयोनि की विधवा से सजातीय पुरुष द्वारा उत्पन्न पुत्र ।
दत्तक - जिसे माता या पिता किसी को गोद दे दें ।
क्रीतपुत्र - जिसे किसी माता-पिता ने खरीदा और दुसरे माता-पिता ने बेचा हो ।
कृत्रिम - जिस को स्वयं धन आदि का लोभ देकर पुत्र बनाया गया हो ।
दत्तात्मा - माता-पिता से रहित बालक जो "मुझे अपना पुत्र बना लें" - ऐसा कहकर स्वयं आत्मसमर्पण करता है ।
सहोढज - जो विवाह से पूर्व ही गर्भ में आ गया और गर्भवती के विवाह होनेपर उसके साथ परिणीत हो गया ।
अपविद्ध - जिसे माता-पिता ने त्याग दिया हो वह समान वर्ण का पुत्र यदि को ले ले ।

इनमें से पूर्व पूर्व के अभाव में उत्तर उत्तर पिण्डदाता और धनांशभागी होता है
*धर्मपत्नी - अपने समान वर्ण की पत्नी जब धर्मविवाह के अनुसार ब्याहकर लायी जाती है ।

Friday, March 27, 2020

पञ्चावरण शिवमहास्तोत्र

उपमन्युरुवाच

स्तोत्रं वक्ष्यामि ते कृष्ण पञ्चावरणमार्गतः ॥ ७.२,३१.१
योगेश्वरमिदं पुण्यं कर्म येन समाप्यते ॥ ७.२,३१.१
जय जय जगदेकनाथ शंभो प्रकृतिमनोहर नित्यचित्स्वभाव ॥ ७.२,३१.२
अतिगतकलुषप्रपञ्चवाचामपि मनसां पदवीमतीततत्त्वम् ॥ ७.२,३१.२
स्वभावनिर्मलाभोग जय सुन्दरचेष्टित ॥ ७.२,३१.३
स्वात्मतुल्यमहाशक्ते जय शुद्धगुणार्णव ॥ ७.२,३१.३
अनन्तकांतिसंपन्न जयासदृशविग्रह ॥ ७.२,३१.४
अतर्क्यमहिमाधार जयानाकुलमंगल ॥ ७.२,३१.४
निरंजन निराधार जय निष्कारणोदय ॥ ७.२,३१.५
निरन्तरपरानन्द जय निर्वृतिकारण ॥ ७.२,३१.५
जयातिपरमैश्वर्य जयातिकरुणास्पद ॥ ७.२,३१.६
जय स्वतंत्रसर्वस्व जयासदृशवैभव ॥ ७.२,३१.६
जयावृतमहाविश्व जयानावृत केनचित् ॥ ७.२,३१.७
जयोत्तर समस्तस्य जयात्यन्तनिरुत्तर ॥ ७.२,३१.७
जयाद्भुत जयाक्षुद्र जयाक्षत जयाव्यय ॥ ७.२,३१.८
जयामेय जयामाय जयाभाव जयामल ॥ ७.२,३१.८
महाभुज महासार महागुण महाकथ ॥ ७.२,३१.९
महाबल महामाय महारस महारथ ॥ ७.२,३१.९
नमः परमदेवाय नमः परमहेतवे ॥ ७.२,३१.१०
नमश्शिवाय शांताय नमश्शिवतराय ते ॥ ७.२,३१.१०
त्वदधीनमिदं कृत्स्नं जगद्धि ससुरासुरम् ॥ ७.२,३१.११
अतस्त्वद्विहितामाज्ञां क्षमते को ऽतिवर्तितुम् ॥ ७.२,३१.१२
अयं पुनर्जनो नित्यं भवदेकसमाश्रयः ॥ ७.२,३१.१३
भवानतो ऽनुगृह्यास्मै प्रार्थितं संप्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.१३
जयांबिके जगन्मातर्जय सर्वजगन्मयि ॥ ७.२,३१.१४
जयानवधिकैश्वर्ये जयानुपमविग्रहे ॥ ७.२,३१.१४
जय वाङ्मनसातीते जयाचिद्ध्वांतभंजिके ॥ ७.२,३१.१५
जय जन्मजराहीने जय कालोत्तरोत्तरे ॥ ७.२,३१.१५
जयानेकविधानस्थे जय विश्वेश्वरप्रिये ॥ ७.२,३१.१६
जय विश्वसुराराध्ये जय विश्वविजृंभिणि ॥ ७.२,३१.१६
जय मंगलदिव्यांगि जय मंगलदीपिके ॥ ७.२,३१.१७
जय मंगलचारित्रे जय मंगलदायिनि ॥ ७.२,३१.१७
नमः परमकल्याणगुणसंचयमूर्तये ॥ ७.२,३१.१८
त्वत्तः खलु समुत्पन्नं जगत्त्वय्येव लीयते ॥ ७.२,३१.१८
त्वद्विनातः फलं दातुमीश्वरोपि न शक्नुयात् ॥ ७.२,३१.१९
जन्मप्रभृति देवेशि जनोयं त्वदुपाश्रितः ॥ ७.२,३१.१९
अतो ऽस्य तव भक्तस्य निर्वर्तय मनोरथम् ॥ ७.२,३१.२०
पञ्चवक्त्रो दशभुजः शुद्धस्फटिकसन्निभः ॥ ७.२,३१.२०
वर्णब्रह्मकलादेहो देवस्सकलनिष्कलः ॥ ७.२,३१.२१
शिवभक्तिसमारूढः शांत्यतीतस्सदाशिवः ॥ ७.२,३१.२१
भक्त्या मयार्चितो मह्यं प्रार्थितं शं प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.२१
सदाशिवांकमारूढा शक्तिरिच्छा शिवाह्वया ॥ ७.२,३१.२२
जननी सर्वलोकानां प्रयच्छतु मनोरथम् ॥ ७.२,३१.२२
शिवयोर्दयिता पुत्रौ देवौ हेरंबषण्मुखौ ॥ ७.२,३१.२३
शिवानुभावौ सर्वज्ञौ शिवज्ञानामृताशिनौ ॥ ७.२,३१.२३
तृप्तौ परस्परं स्निग्धौ शिवाभ्यां नित्यसत्कृतौ ॥ ७.२,३१.२४
सत्कृतौ च सदा देवौ ब्रह्माद्यैस्त्रिदशैरपि ॥ ७.२,३१.२४
सर्वलोकपरित्राणं कर्तुमभ्युदितौ सदा ॥ ७.२,३१.२५
स्वेच्छावतारं कुर्वंतौ स्वांशभेदैरनेकशः ॥ ७.२,३१.२५
ताविमौ शिवयोः पार्श्वे नित्यमित्थं मयार्चितौ ॥ ७.२,३१.२६
तयोराज्ञां पुरस्कृत्य प्रार्थितं मे प्रयच्छताम् ॥ ७.२,३१.२६
शुद्धस्फटिकसंकाशमीशानाख्यं सदाशिवम् ॥ ७.२,३१.२७
मूर्धाभिमानिनी मूर्तिः शिवस्य परमात्मनः ॥ ७.२,३१.२७
शिवार्चनरतं शांतं शांत्यतीतं मखास्थितम् ॥ ७.२,३१.२८
पञ्चाक्षरांतिमं बीजं कलाभिः पञ्चभिर्युतम् ॥ ७.२,३१.२८
प्रथमावरणे पूर्वं शक्त्या सह समर्चितम् ॥ ७.२,३१.२९
पवित्रं परमं ब्रह्म प्रार्थितं मे प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.२९
बालसूर्यप्रतीकाशं पुरुषाख्यं पुरातनम् ॥ ७.२,३१.३०
पूर्ववक्त्राभिमानं च शिवस्य परमेष्ठिनः ॥ ७.२,३१.३०
शांत्यात्मकं मरुत्संस्थं शम्भोः पादार्चने रतम् ॥ ७.२,३१.३१
प्रथमं शिवबीजेषु कलासु च चतुष्कलम् ॥ ७.२,३१.३१
पूर्वभागे मया भक्त्या शक्त्या सह समर्चितम् ॥ ७.२,३१.३२
पवित्रं परमं ब्रह्म प्रार्थितं मे प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.३२
अञ्जनादिप्रतीकाशमघोरं घोरविग्रहम् ॥ ७.२,३१.३३
देवस्य दक्षिणं वक्त्रं देवदेवपदार्चकम् ॥ ७.२,३१.३३
विद्यापादं समारूढं वह्निमण्डलमध्यगम् ॥ ७.२,३१.३४
द्वितीयं शिवबीजेषु कलास्वष्टकलान्वितम् ॥ ७.२,३१.३४
शंभोर्दक्षिणदिग्भागे शक्त्या सह समर्चितम् ॥ ७.२,३१.३५
पवित्रं मध्यमं ब्रह्म प्रार्थितं मे प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.३५
कुंकुमक्षोदसंकाशं वामाख्यं वरवेषधृक् ॥ ७.२,३१.३६
वक्त्रमुत्तरमीशस्य प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठितम् ॥ ७.२,३१.३६
वारिमंडलमध्यस्थं महादेवार्चने रतम् ॥ ७.२,३१.३७
तुरीयं शिवबीजेषु त्रयोदशकलान्वितम् ॥ ७.२,३१.३७
देवस्योत्तरदिग्भागे शक्त्या सह समर्चितम् ॥ ७.२,३१.३८
पवित्रं परमं ब्रह्म प्रार्थितं मे प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.३८
शंखकुंदेंदुधवलं संध्याख्यं सौम्यलक्षणम् ॥ ७.२,३१.३९
शिवस्य पश्चिमं वक्त्रं शिवपादार्चने रतम् ॥ ७.२,३१.३९
निवृत्तिपदनिष्ठं च पृथिव्यां समवस्थितम् ॥ ७.२,३१.४०
तृतीयं शिवबीजेषु कलाभिश्चाष्टभिर्युतम् ॥ ७.२,३१.४०
देवस्य पश्चिमे भागे शक्त्या सह समर्चितम् ॥ ७.२,३१.४१
पवित्रं परमं ब्रह्म प्रार्थितं मे प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.४१
शिवस्य तु शिवायाश्च हृन्मूर्तिशिवभाविते ॥ ७.२,३१.४२
तयोराज्ञां पुरस्कृत्य ते मे कामं प्रयच्छताम् ॥ ७.२,३१.४२
शिवस्य च शिवायाश्च शिखामूर्तिशिवाश्रिते ॥ ७.२,३१.४३
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां ते मे कामं प्रयच्छताम् ॥ ७.२,३१.४३
शिवस्य च शिवायाश्च वर्मणा शिवभाविते ॥ ७.२,३१.४४
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां ते मे कामं प्रयच्छताम् ॥ ७.२,३१.४४
शिवस्य च शिवायाश्च नेत्रमूर्तिशिवाश्रिते ॥ ७.२,३१.४५
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां ते मे कामं प्रयच्छताम् ॥ ७.२,३१.४५
अस्त्रमूर्ती च शिवयोर्नित्यमर्चनतत्परे ॥ ७.२,३१.४६
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां ते मे कामं प्रयच्छताम् ॥ ७.२,३१.४६
वामौ ज्येष्ठस्तथा रुद्रः कालो विकरणस्तथा ॥ ७.२,३१.४७
बलो विकरणश्चैव बलप्रमथनः परः ॥ ७.२,३१.४७
सर्वभूतस्य दमनस्तादृशाश्चाष्टशक्तयः ॥ ७.२,३१.४८
प्रार्थितं मे प्रयच्छंतु शिवयोरेव शासनात् ॥ ७.२,३१.४८
अथानंतश्च सूक्ष्मश्च शिवश्चाप्येकनेत्रकः ॥ ७.२,३१.४९
एक रुद्राख्यमर्तिश्च श्रीकण्ठश्च शिखंडकः ॥ ७.२,३१.४९
तथाष्टौ शक्तयस्तेषां द्वितीयावरणे ऽर्चिताः ॥ ७.२,३१.५०
ते मे कामं प्रयच्छंतु शिवयोरेव शासनात् ॥ ७.२,३१.५०
भवाद्या मूर्तयश्चाष्टौ तासामपि च शक्तयः ॥ ७.२,३१.५१
महादेवादयश्चान्ये तथैकादशमूर्तयः ॥ ७.२,३१.५१
शक्तिभिस्सहितास्सर्वे तृतीयावरणे स्थिताः ॥ ७.२,३१.५२
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां दिशंतु फलमीप्सितम् ॥ ७.२,३१.५२
वृक्षराजो महातेजा महामेघसमस्वनः ॥ ७.२,३१.५३
मेरुमंदरकैलासहिमाद्रिशिखरोपमः ॥ ७.२,३१.५३
सिताभ्रशिखराकारः ककुदा परिशोभितः ॥ ७.२,३१.५४
महाभोगींद्रकल्पेन वालेन च विराजितः ॥ ७.२,३१.५४
रक्तास्यशृंगचरणौ रक्तप्रायविलोचनः ॥ ७.२,३१.५५
पीवरोन्नतसर्वांगस्सुचारुगमनोज्ज्वलः ॥ ७.२,३१.५५
प्रशस्तलक्षणः श्रीमान्प्रज्वलन्मणिभूषणः ॥ ७.२,३१.५६
शिवप्रियः शिवासक्तः शिवयोर्ध्वजवाहनः ॥ ७.२,३१.५६
तथा तच्चरणन्यासपावितापरविग्रहः ॥ ७.२,३१.५७
गोराजपुरुषः श्रीमाञ्छ्रीमच्छूलवरायुधः ॥ ७.२,३१.५७
तयोराज्ञां पुरस्कृत्य स मे कामं प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.५७
नन्दीश्वरो महातेजा नगेन्द्रतनयात्मजः ॥ ७.२,३१.५८
सनारायणकैर्देवैर्नित्यमभ्यर्च्य वंदितः ॥ ७.२,३१.५८
शर्वस्यांतःपुरद्वारि सार्धं परिजनैः स्थितः ॥ ७.२,३१.५९
सर्वेश्वरसमप्रख्यस्सर्वासुरविमर्दनः ॥ ७.२,३१.५९
सर्वेषां शिवधर्माणामध्यक्षत्वे ऽभिषेचितः ॥ ७.२,३१.६०
शिवप्रियश्शिवासक्तश्श्रीमच्छूलवरायुधः ॥ ७.२,३१.६०
शिवाश्रितेषु संसक्तस्त्वनुरक्तश्च तैरपि ॥ ७.२,३१.६१
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे कामं प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.६१
महाकालो महाबाहुर्महादेव इवापरः ॥ ७.२,३१.६२
महादेवाश्रितानां १ तु नित्यमेवाभिरक्षतु ॥ ७.२,३१.६२
शिवप्रियः शिवासक्तश्शिवयोरर्चकस्सदा ॥ ७.२,३१.६३
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.६३
सर्वशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः शास्ता विष्नोः परा तनुः ॥ ७.२,३१.६४
महामोहात्मतनयो मधुमांसासवप्रियः ॥ ७.२,३१.६४
तयोराज्ञां पुरस्कृत्य स मे कामं प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.६४
ब्रह्माणी चैव माहेशी कौमारी वैष्णवी तथा ॥ ७.२,३१.६५
वाराही चैव माहेंद्री चामुंडा चंडविक्रमा ॥ ७.२,३१.६५
एता वै मातरः सप्त सर्वलोकस्य मातरः ॥ ७.२,३१.६६
प्रार्थितं मे प्रयच्छंतु परमेश्वरशासनात् ॥ ७.२,३१.६६
मत्तमातंगवदनो गंगोमाशंकरात्मजः ॥ ७.२,३१.६७
आकाशदेहो दिग्बाहुस्सोमसूर्याग्निलोचनः ॥ ७.२,३१.६७
ऐरावतादिभिर्दिव्यैर्दिग्गजैर्नित्यमर्चितः ॥ ७.२,३१.६८
शिवज्ञानमदोद्भिन्नर्स्त्रिदशानामविघ्नकृत् ॥ ७.२,३१.६८
विघ्नकृच्चासुरादीनां विघ्नेशः शिवभावितः ॥ ७.२,३१.६९
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.६९
षण्मुखश्शिवसम्भूतः शक्तिवज्रधरः प्रभुः ॥ ७.२,३१.७०
अग्नेश्च तनयो देवो ह्यपर्णातनयः पुनः ॥ ७.२,३१.७०
गंगायाश्च गणांबायाः कृत्तिकानां तथैव च ॥ ७.२,३१.७१
विशाखेन च शाखेन नैगमेयेन चावृतः ॥ ७.२,३१.७१
इंद्रजिच्चंद्रसेनानीस्तारकासुरजित्तथा ॥ ७.२,३१.७२
शैलानां मेरुमुख्यानां वेधकश्च स्वतेजसा ॥ ७.२,३१.७२
तप्तचामीकरप्रख्यः शतपत्रदलेक्षणः ॥ ७.२,३१.७३
कुमारस्सुकुमाराणां रूपोदाहरणं महत् ॥ ७.२,३१.७३
शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपदार्चकस्सदा ॥ ७.२,३१.७४
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.७४
ज्येष्ठा वरिष्ठा वरदा शिवयोर्यजनेरता ॥ ७.२,३१.७५
तयोराज्ञां पुरस्कृत्य सा मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.७५
त्रैलोक्यवंदिता साक्षादुल्काकारा गणांबिका ॥ ७.२,३१.७६
जगत्सृष्टिविवृद्ध्यर्थं ब्रह्मणा ऽभ्यर्थिता शिवात् ॥ ७.२,३१.७६
शिवायाः प्रविभक्ताया भ्रुवोरन्तरनिस्सृताः ॥ ७.२,३१.७७
दक्षायणी सती मेना तथा हैमवती ह्युमा ॥ ७.२,३१.७७
कौशिक्याश्चैव जननी भद्रकाल्यास्तथैव च ॥ ७.२,३१.७८
अपर्णायाश्च जननी पाटलायास्तथैव च ॥ ७.२,३१.७८
शिवार्चनरता नित्यं रुद्राणी रुद्रवल्लभा ॥ ७.२,३१.७९
सत्कृट्य शिवयोराज्ञां सा मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.७९
चंडः सर्वगणेशानः शंभोर्वदनसंभवः ॥ ७.२,३१.८०
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.८०
पिंगलो गणपः श्रीमाञ्छिवासक्तः शिवप्रियः ॥ ७.२,३१.८१
आज्ञया शिवयोरेव स मे कामं प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.८१
भृंगीशो नाम गणपः शिवराधनतत्परः ॥ ७.२,३१.८२
सम्बन्धसामान्यविवक्षया कर्मणि पष्ठी
प्रयच्छतु स मे कामं पत्युराज्ञा पुरःसरम् ॥ ७.२,३१.८२
वीरभद्रो महातेजा हिमकुंदेंदुसन्निभः ॥ ७.२,३१.८३
भद्रकालीप्रियो नित्यं मात्ःणां चाभिरक्षिता ॥ ७.२,३१.८३
यज्ञस्य च शिरोहर्ता दक्षस्य च दुरात्मनः ॥ ७.२,३१.८४
उपेंद्रेंद्रयमादीनां देवानामंगतक्षकः ॥ ७.२,३१.८४
शिवस्यानुचरः श्रीमाञ्छिवशासनपालकः ॥ ७.२,३१.८५
शिवयोः शासनादेव स मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.८५
सरस्वती महेशस्य वाक्सरोजसमुद्भवा ॥ ७.२,३१.८६
शिवयोः पूजने सक्ता स मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.८६
विष्णोर्वक्षःस्थिता लक्ष्मीः शिवयोः पूजने रता ॥ ७.२,३१.८७
शिवयोः शासनादेव सा मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.८७
महामोटी महादेव्याः पादपूजापरायणा ॥ ७.२,३१.८८
तस्या एव नियोगेन सा मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.८८
कौशिकी सिंहमारूढा पार्वत्याः परमा सुता ॥ ७.२,३१.८९
विष्णोर्निद्रामहामाया महामहिषमर्दिनी ॥ ७.२,३१.८९
निशंभशुंभसंहत्री मधुमांसासवप्रिया ॥ ७.२,३१.९०
सत्कृत्य शासनं मातुस्सा मे दिशतु कांक्षितम् ॥ ७.२,३१.९०
रुद्रा रुद्रसमप्रख्याः प्रथमाः प्रथितौजसः ॥ ७.२,३१.९१
भूताख्याश्च महावीर्या महादेवसमप्रभाः ॥ ७.२,३१.९१
नित्यमुक्ता निरुपमा निर्द्वन्द्वा निरुपप्लवाः ॥ ७.२,३१.९२
सशक्तयस्सानुचरास्सर्वलोकनमस्कृताः ॥ ७.२,३१.९२
सर्वेषामेव लोकानां सृष्टिसंहरणक्षमाः ॥ ७.२,३१.९३
परस्परानुरक्ताश्च परस्परमनुव्रताः ॥ ७.२,३१.९३
परस्परमतिस्निग्धाः परस्परनमस्कृताः ॥ ७.२,३१.९४
शिवप्रियतमा नित्यं शिवलक्षणलक्षिताः ॥ ७.२,३१.९४
सौम्याधारास्तथा मिश्राश्चांतरालद्वयात्मिकाः ॥ ७.२,३१.९५
विरूपाश्च सुरूपाश्च नानारूपधरास्तथा ॥ ७.२,३१.९५
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां ते मे कामं दिशंतु वै ॥ ७.२,३१.९६
देव्या प्रियसखीवर्गो देवीलक्षणलक्षितः ॥ ७.२,३१.९६
सहितो रुद्रकन्याभिः शक्तिभिश्चाप्यनेकशः ॥ ७.२,३१.९७
तृतीयावरणे शंभोर्भक्त्या नित्यं समर्चितः ॥ ७.२,३१.९७
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु मंगलम् ॥ ७.२,३१.९८
दिवाकरो महेशस्य मूर्तिर्दीप्तिसुमंडलः ॥ ७.२,३१.९८
निर्गुणो गुणसंकीर्णस्तथैव गुणकेवलः ॥ ७.२,३१.९९
अविकारात्मकश्चाद्य एकस्सामान्यविक्रियः ॥ ७.२,३१.९९
असाधारणकर्मा च सृष्टिस्थितिलयक्रमात् ॥ ७.२,३१.१००
एवं त्रिधा चतुर्धा च विभक्ताः पञ्चधा पुनः ॥ ७.२,३१.१००
चतुर्थावरणे शंभोः पूजितश्चानुगैः सह ॥ ७.२,३१.१०१
शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपादार्चने रतः ॥ ७.२,३१.१०१
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु मंगलम् ॥ ७.२,३१.१०२
दिवाकरषडंगानि दीप्ताद्याश्चाष्टशक्तयः ॥ ७.२,३१.१०२
आदित्यो भास्करो भानू रविश्चेत्यनुपूर्वशः ॥ ७.२,३१.१०३
अर्को ब्रह्मा तथा रुद्रो विष्नुश्चादित्यमूर्तयः ॥ ७.२,३१.१०३
विस्तरासुतराबोधिन्याप्यायिन्यपराः पुनः ॥ ७.२,३१.१०४
उषा प्रभा तथा प्राज्ञा संध्या चेत्यपि शक्तयः ॥ ७.२,३१.१०४
सोमादिकेतुपर्यंता ग्रहाश्च शिवभाविताः ॥ ७.२,३१.१०५
शिवयोराज्ञयानुन्ना मंगलं प्रदिशंतु मे ॥ ७.२,३१.१०५
अथवा द्वादशादित्यास्तथा द्वादश शक्तयः ॥ ७.२,३१.१०६
ऋषयो देवगंधर्वाः पन्नगाप्सरसां गणाः ॥ ७.२,३१.१०६
ग्रामण्यश्च तथा यक्षा राक्षसाश्चासुरास्तथा ॥ ७.२,३१.१०७
सप्तसप्तगणाश्चैते सप्तच्छंदोमया हयाः ॥ ७.२,३१.१०७
वालखिल्या दयश्चैव सर्वे शिवपदार्चकाः ॥ ७.२,३१.१०८
सत्कृत्यशिवयोराज्ञां मंगलं प्रदिशंतु मे ॥ ७.२,३१.१०८
ब्रह्माथ देवदेवस्य मूर्तिर्भूमण्डलाधिपः ॥ ७.२,३१.१०९
चतुःषष्टिगुणैश्वर्यो बुद्धितत्त्वे प्रतिष्ठितः ॥ ७.२,३१.१०९
निर्गुणो गुणसंकीर्णस्तथैव गुणकेवलः ॥ ७.२,३१.११०
अविकारात्मको देवस्ततस्साधारणः पुरः ॥ ७.२,३१.११०
असाधारणकर्मा च सृष्टिस्थितिलयक्रमात् ॥ ७.२,३१.१११
भुवं त्रिधा चतुर्धा च विभक्तः पञ्चधा पुनः ॥ ७.२,३१.१११
चतुर्थावरणे शंभो पूजितश्च सहानुगैः ॥ ७.२,३१.११२
शिवप्रियः शिवासक्तश्शिवपादार्चने रतः ॥ ७.२,३१.११२
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु मंगलम् ॥ ७.२,३१.११३
हिरण्यगर्भो लोकेशो विराट्कालश्च पूरुषः ॥ ७.२,३१.११३
सनत्कुमारः सनकः सनंदश्च सनातनः ॥ ७.२,३१.११४
प्रजानां पतयश्चैव दक्षाद्या ब्रह्मसूनवः ॥ ७.२,३१.११४
एकादश सपत्नीका धर्मस्संकल्प एव च ॥ ७.२,३१.११५
शिवार्चनरताश्चैते शिवभक्तिपरायणाः ॥ ७.२,३१.११५
शिवाज्ञावशगास्सर्वे दिशंतु मम मंगलम् ॥ ७.२,३१.११६
चत्वारश्च तथा वेदास्सेतिहासपुराणकाः ॥ ७.२,३१.११६
धर्मशास्त्राणि विद्याभिर्वैदिकीभिस्समन्विताः ॥ ७.२,३१.११७
परस्परविरुद्धार्थाः शिवप्रकृतिपादकाः ॥ ७.२,३१.११७
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां मंगलं प्रदिशंतु मे ॥ ७.२,३१.११८
अथ रुद्रो महादेवः शंभोर्मूर्तिर्गरीयसी ॥ ७.२,३१.११८
वाह्नेयमण्डलाधीशः पौरुषैश्वर्यवान्प्रभुः ॥ ७.२,३१.११९
शिवाभिमानसंपन्नो निर्गुणस्त्रिगुणात्मकः ॥ ७.२,३१.११९
केवलं सात्त्विकश्चापि राजसश्चैव तामसः ॥ ७.२,३१.१२०
अविकाररतः पूर्वं ततस्तु समविक्रियः ॥ ७.२,३१.१२०
असाधारणकर्मा च सृष्ट्यादिकरणात्पृथक् ॥ ७.२,३१.१२१
ब्रह्मणोपि शिरश्छेत्ता जनकस्तस्य तत्सुतः ॥ ७.२,३१.१२१
जनकस्तनयश्चापि विष्णोरपि नियामकः ॥ ७.२,३१.१२२
बोधकश्च तयोर्नित्यमनुग्रहकरः प्रभुः ॥ ७.२,३१.१२२
अंडस्यांतर्बहिर्वर्ती रुद्रो लोकद्वयाधिपः ॥ ७.२,३१.१२३
शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपादार्चने रतः ॥ ७.२,३१.१२३
शिवस्याज्ञां पुरस्कृत्य स मे दिशतु मंगलम् ॥ ७.२,३१.१२४
तस्य ब्रह्म षडंगानि विद्येशांतं तथाष्टकम् ॥ ७.२,३१.१२४
चत्वारो मूर्तिभेदाश्च शिवपूर्वाः शिवार्चकाः ॥ ७.२,३१.१२५
शिवो भवो हरश्चैव मृडश्चैव तथापरः ॥ ७.२,३१.१२५
शिवस्याज्ञां पुरस्कृत्य मंगलं प्रदिशंतु मे ॥ ७.२,३१.१२५
अथ विष्णुर्महेशस्य शिवस्यैव परा तनुः ॥ ७.२,३१.१२६
वारितत्त्वाधिपः साक्षादव्यक्तपदसंस्थितः ॥ ७.२,३१.१२६
निर्गुणस्सत्त्वबहुलस्तथैव गुणकेवलः ॥ ७.२,३१.१२७
अविकाराभिमानी च त्रिसाधारणविक्रियः ॥ ७.२,३१.१२७
असाधारणकर्मा च सृष्ट्यादिकरणात्पृथक् ॥ ७.२,३१.१२८
दक्षिणांगभवेनापि स्पर्धमानः स्वयंभुवा ॥ ७.२,३१.१२८
आद्येन ब्रह्मणा साक्षात्सृष्टः स्रष्टा च तस्य तु ॥ ७.२,३१.१२९
अंडस्यांतर्बहिर्वर्ती विष्णुर्लोकद्वयाधिपः ॥ ७.२,३१.१२९
असुरांतकरश्चक्री शक्रस्यापि तथानुजः ॥ ७.२,३१.१३०
प्रादुर्भूतश्च दशधा भृगुशापच्छलादिह ॥ ७.२,३१.१३०
भूभारनिग्रहार्थाय स्वेच्छयावातरक्षितौ ॥ ७.२,३१.१३१
अप्रमेयबलो मायी मायया मोहयञ्जगत् ॥ ७.२,३१.१३१
मूर्तिं कृत्वा महाविष्णुं सदाशिष्णुमथापि वा ॥ ७.२,३१.१३२
वैष्णवैः पूजितो नित्यं मूर्तित्रयमयासने ॥ ७.२,३१.१३२
शिवप्रियः शिवासक्तः शिवपादार्चने रतः ॥ ७.२,३१.१३३
शिवस्याज्ञां पुरस्कृत्य स मे दिशतु मंगलम् ॥ ७.२,३१.१३३
वासुदेवो ऽनिरुद्धश्च प्रद्युम्नश्च ततः परः ॥ ७.२,३१.१३४
संकर्षणस्समाख्याताश्चतस्रो मूर्तयो हरेः ॥ ७.२,३१.१३४
मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नारसिंहो ऽथ वामनः ॥ ७.२,३१.१३५
रामत्रयं तथा कृष्णो विष्णुस्तुरगवक्त्रकः ॥ ७.२,३१.१३५
चक्रं नारायणस्यास्त्रं पांचजन्यं च शार्ङ्गकम् ॥ ७.२,३१.१३६
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां मंगलं प्रदिशंतु मे ॥ ७.२,३१.१३६
प्रभा सरस्वती गौरी लक्ष्मीश्च शिवभाविता ॥ ७.२,३१.१३७
शिवयोः शासनादेता मंगलं प्रदिशंतु मे ॥ ७.२,३१.१३७
इन्द्रो ऽग्निश्च यमश्चैव निरृतिर्वरुणस्तथा ॥ ७.२,३१.१३८
वायुः सोमः कुबेरश्च तथेशानस्त्रिशूलधृक् ॥ ७.२,३१.१३८
सर्वे शिवार्चनरताः शिवसद्भावभाविताः ॥ ७.२,३१.१३९
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां मंगलं प्रदिशंतु मे ॥ ७.२,३१.१३९
त्रिशूलमथ वज्रं च तथा परशुसायकौ ॥ ७.२,३१.१४०
खड्गपाशांकुशाश्चैव पिनाकश्चायुधोत्तमः ॥ ७.२,३१.१४०
दिव्यायुधानि देवस्य देव्याश्चैतानि नित्यशः ॥ ७.२,३१.१४१
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां रक्षां कुर्वंतु मे सदा ॥ ७.२,३१.१४१
वृषरूपधरो देवः सौरभेयो महाबलः ॥ ७.२,३१.१४२
वडवाख्यानलस्पर्धां पञ्चगोमातृभिर्वृतः ॥ ७.२,३१.१४२
वाहनत्वमनुप्राप्तस्तपसा परमेशयोः ॥ ७.२,३१.१४३
तयोराज्ञां पुरस्कृत्य स मे कामं प्रयच्छतु ॥ ७.२,३१.१४३
नंदा सुनंदा सुरभिः सुशीला सुमनास्तथा ॥ ७.२,३१.१४४
पञ्चगोमातरस्त्वेताश्शिवलोके व्यवस्थिताः ॥ ७.२,३१.१४४
शिवभक्तिपरा नित्यं शिवार्चनपरायणाः ॥ ७.२,३१.१४५
शिवयोः शासनादेव दिशंतु मम वांछितम् ॥ ७.२,३१.१४५
क्षेत्रपालो महातेजा नील जीमूतसन्निभः ॥ ७.२,३१.१४६
दंष्ट्राकरालवदनः स्फुरद्रक्ताधरोज्ज्वलः ॥ ७.२,३१.१४६
रक्तोर्ध्वमूर्धजः श्रीमान्भ्रुकुटीकुटिलेक्षणः ॥ ७.२,३१.१४७
रक्तवृत्तत्रिनयनः शशिपन्नगभूषणः ॥ ७.२,३१.१४७
नग्नस्त्रिशूलपाशासिकपालोद्यतपाणिकः ॥ ७.२,३१.१४८
भैरवो भैरवैः सिद्धैर्योगिनीभिश्च संवृतः ॥ ७.२,३१.१४८
क्षेत्रेक्षेत्रे समासीनः स्थितो यो रक्षकस्सताम् ॥ ७.२,३१.१४९
शिवप्रणामपरमः शिवसद्भावभावितः ॥ ७.२,३१.१४९
शिवश्रितान्विशेषेण रक्षन्पुत्रानिवौरसान् ॥ ७.२,३१.१५०
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां स मे दिशतु मङ्गलम् ॥ ७.२,३१.१५०
तालजङ्घादयस्तस्य प्रथमावरणेर्चिताः ॥ ७.२,३१.१५१
सत्कृत्य शिवयोराज्ञां चत्वारः समवन्तु माम् ॥ ७.२,३१.१५१
भैरवाद्याश्च ये चान्ये समंतात्तस्य वेष्टिताः ॥ ७.२,३१.१५२
ते ऽपि मामनुगृह्णंतु शिवशासनगौरवात् ॥ ७.२,३१.१५२
नारदाद्याश्च मुनयो दिव्या देवैश्च पूजिताः ॥ ७.२,३१.१५३
साध्या मागाश्च ये देवा जनलोकनिवासिनः ॥ ७.२,३१.१५३
विनिवृत्ताधिकाराश्च महर्लोकनिवासिनः ॥ ७.२,३१.१५४
सप्तर्षयस्तथान्ये वै वैमानिकगुणैस्सह ॥ ७.२,३१.१५४
सर्वे शिवार्चनरताः शिवाज्ञावशवर्तिनः ॥ ७.२,३१.१५५
शिवयोराज्ञया मह्यं दिशंतु मम कांक्षितम् १ ॥ ७.२,३१.१५५
गंधर्वाद्याः पिशाचांताश्चतस्रो देवयोनयः ॥ ७.२,३१.१५६
सिद्धा विद्याधराद्याश्च ये ऽपि चान्ये नभश्चराः ॥ ७.२,३१.१५६
असुरा राक्षसाश्चैव पातालतलवासिनः ॥ ७.२,३१.१५७
अनंताद्याश्च नागेन्द्रा वैनतेयादयो द्विजाः ॥ ७.२,३१.१५७
कूष्मांडाः प्रेतवेताला ग्रहा भूतगणाः परे ॥ ७.२,३१.१५८
डाकिन्यश्चापि योगिन्यः शाकिन्यश्चापि तादृशाः ॥ ७.२,३१.१५८
क्षेत्रारामगृहादीनि तीर्थान्यायतनानि च ॥ ७.२,३१.१५९
द्वीपाः समुद्रा नद्यश्च नदाश्चान्ये सरांसि च ॥ ७.२,३१.१५९
गिरयश्च सुमेर्वाद्याः कननानि समंततः ॥ ७.२,३१.१६०
पशवः पक्षिणो वृक्षाः कृमिकीटादयो मृगाः ॥ ७.२,३१.१६०
भुवनान्यपि सर्वाणि भुवनानामधीश्वरः ॥ ७.२,३१.१६१
अण्डान्यावरणैस्सार्धं मासाश्च दश दिग्गजाः ॥ ७.२,३१.१६१
वर्णाः पदानि मंत्राश्च तत्त्वान्यपि सहाधिपैः ॥ ७.२,३१.१६२
ब्रह्मांडधारका रुद्रा रुद्राश्चान्ये सशक्तिकाः ॥ ७.२,३१.१६२
यच्च किंचिज्जगत्यस्मिन्दृष्टं चानुमितं श्रुतम् ॥ ७.२,३१.१६३
सर्वे कामं प्रयच्छन्तु शिवयोरेव शासनात् ॥ ७.२,३१.१६३
अथ विद्या परा शैवी पशुपाशविमोचिनी ॥ ७.२,३१.१६४
पञ्चार्थसंज्ञिता दिव्या पशुविद्याबहिष्कृता ॥ ७.२,३१.१६४
शास्त्रं च शिवधर्माख्यं धर्माख्यं च तदुत्तरम् ॥ ७.२,३१.१६५
शैवाख्यं शिवधर्माख्यं पुराणं श्रुतिसंमितम् ॥ ७.२,३१.१६५
शैवागमाश्च ये चान्ये कामिकाद्याश्चतुर्विधाः ॥ ७.२,३१.१६६
शिवाभ्यामविशेषेण सत्कृत्येह समर्चिताः ॥ ७.२,३१.१६६
ताभ्यामेव समाज्ञाता ममाभिप्रेतसिद्धये ॥ ७.२,३१.१६७
कर्मेदमनुमन्यंतां सफलं साध्वनुष्ठितम् ॥ ७.२,३१.१६७
श्वेताद्या नकुलीशांताः सशिष्याश्चापि देशिकाः ॥ ७.२,३१.१६८
तत्संततीया गुरवो विशेषाद्गुरवो मम ॥ ७.२,३१.१६८
शैवा माहेश्वराश्चैव ज्ञानकर्मपरायणाः ॥ ७.२,३१.१६९
कर्मेदमनुमन्यंतां सफलं साध्वनुष्ठितम् ॥ ७.२,३१.१६९
लौकिका ब्राह्मणास्सर्वे क्षत्रियाश्च विशः क्रमात् ॥ ७.२,३१.१७०
वेदवेदांगतत्त्वज्ञाः सर्वशास्त्रविशारदाः ॥ ७.२,३१.१७०
सांख्या वैशेषिकाश्चैव यौगा नैयायिका नराः ॥ ७.२,३१.१७१
सौरा ब्रह्मास्तथा रौद्रा वैष्णवाश्चापरे नराः ॥ ७.२,३१.१७१
शिष्टाः सर्वे विशिष्टा च शिवशासनयंत्रिताः ॥ ७.२,३१.१७२
कर्मेदमनुमन्यंतां ममाभिप्रेतसाधकम् ॥ ७.२,३१.१७२
शैवाः सिद्धांतमार्गस्थाः शैवाः पाशुपतास्तथा ॥ ७.२,३१.१७३
शैवा महाव्रतधराः शैवाः कापालिकाः परे ॥ ७.२,३१.१७३
शिवाज्ञापालकाः पूज्या ममापि शिवशासनात् ॥ ७.२,३१.१७४
सर्वे ममानुगृह्णंतु शंसंतु सफलक्रियाम् ॥ ७.२,३१.१७४
दक्षिणज्ञाननिष्ठाश्च दक्षिणोत्तरमार्गगाः ॥ ७.२,३१.१७५
अविरोधेन वर्तंतां मंत्रश्रेयो ऽर्थिनो मम ॥ ७.२,३१.१७५
नास्तिकाश्च शठाश्चैव कृतघ्नाश्चैव तामसाः ॥ ७.२,३१.१७६
पाषंडाश्चातिपापाश्च वर्तंतां दूरतो मम ॥ ७.२,३१.१७६
बहुभिः किं स्तुतैरत्र ये ऽपि के ऽपिचिदास्तिकाः ॥ ७.२,३१.१७७
सर्वे मामनुगृह्णंतु संतः शंसंतु मंगलम् ॥ ७.२,३१.१७७
नमश्शिवाय सांबाय ससुतायादिहेतवे ॥ ७.२,३१.१७८
पञ्चावरणरूपेण प्रपञ्चेनावृताय ते ॥ ७.२,३१.१७८
इत्युक्त्वा दंडवद्भूमौ प्रणिपत्य शिवं शिवाम् ॥ ७.२,३१.१७९
जपेत्पञ्चाक्षरीं विद्यामष्टोत्तरशतावराम् ॥ ७.२,३१.१७९
तथैव शक्तिविद्यां च जपित्वा तत्समर्पणम् ॥ ७.२,३१.१८०
कृत्वा तं क्षमयित्वेशं पूजाशेषं समापयेत् ॥ ७.२,३१.१८०
एतत्पुण्यतमं स्तोत्रं शिवयोर्हृदयंगमम् ॥ ७.२,३१.१८१
सर्वाभीष्टप्रदं साक्षाद्भुक्तिमुक्त्यैकसाधनम् ॥ ७.२,३१.१८१
य इदं कीर्तयेन्नित्यं शृणुयाद्वा समाहितः ॥ ७.२,३१.१८२
स विधूयाशु पापानि शिवसायुज्यमाप्नुयात् ॥ ७.२,३१.१८२
गोघ्नश्चैव कृतघ्नश्च वीरहा भ्रूणहापि वा ॥ ७.२,३१.१८३
शरणागतघाती च मित्रविश्रंभघातकः ॥ ७.२,३१.१८३
दुष्टपापसमाचारो मातृहा पितृहापि वा ॥ ७.२,३१.१८४
स्तवेनानेन जप्तेन तत्तत्पापात्प्रमुच्यते ॥ ७.२,३१.१८४
दुःस्वप्नादिमहानर्थसूचकेषु भयेषु च ॥ ७.२,३१.१८५
यदि संकीर्तयेदेतन्न ततो नार्थभाग्भवेत् ॥ ७.२,३१.१८५
आयुरारोग्यमैश्वर्यं यच्चान्यदपि वाञ्छितम् ॥ ७.२,३१.१८६
स्तोत्रस्यास्य जपे तिष्ठंस्तत्सर्वं लभते नरः ॥ ७.२,३१.१८६
असंपूज्य शिवस्तोत्रं जपात्फलमुदाहृतम् ॥ ७.२,३१.१८७
संपूज्य च जपे तस्य फलं वक्तुं न शक्यते ॥ ७.२,३१.१८७
आस्तामियं फलावाप्तिरस्मिन्संकीर्तिते सति ॥ ७.२,३१.१८८
सार्धमंबिकया देवः श्रुत्यैवं दिवि तिष्ठति ॥ ७.२,३१.१८८
तस्मान्नभसि संपूज्य देवं देवं सहोमया ॥ ७.२,३१.१८९
कृतांजलिपुटस्तिष्ठंस्तोत्रमेतदुदीरयेत् ॥ ७.२,३१.१८९

इति श्रीशिवमहापुराणे सप्तम्यां वायवीयसंहितायामुत्तरखण्डे शिवमहास्तोत्रवर्णनं नामैकत्रिंशो ऽध्यायः

(शिवपुराण - वायवीयसंहिता - अध्याय ३१)