Tuesday, April 9, 2019

श्राद्ध कल्प

 संक्षिप्त स्कन्द पुराण, गीताप्रेस, पृष्ठ ११८७
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महाकाल द्वारा करन्धम के प्रश्नानुसार श्राद्ध का वर्णन 
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नारदजी, अर्जुन को सम्बोधित करते हुए कहते हैं:
राजा करन्धम ने महाकाल से प्रश्न पूछा: भगवन ! मेरे मन में सदा यह संशय बना रहता है कि मनुष्यों द्वारा पितरों का जो तर्पण किया जाता है, उसमें जल तो जल में ही चला जाता है; फिर हमारे पूर्वज उससे तृप्त कैसे होते हैं ? इसी प्रकार पिण्ड आदि सब दान भी यहीं देखा जाता है । अतः हम यह कैसे मान लें कि यह पितर आदि के उपभोग में आता है ?

महाकाल ने कहा: राजन ! पितरों और देवताओं की योनि ही ऐसी होती है कि ये दूर की कही हुई बातें सुन लेते, दूर की पूजा भी ग्रहण कर लेते और दूर की स्तुति से भी संतुष्ट होते हैं । इसके सिवा वे भूत, भविष्य और वर्तमान सब कुछ जानते और सर्वत्र पहुँचते हैं । पांचो तन्मात्रयें, मन, बुद्धि, अहंकार और प्रकृति - इन नौ तत्वों का बना हुआ उनका शरीर होता है । इसके भीतर दसवें तत्व के रूप में साक्षात् भगवान् पुरुषोत्तम निवास करते हैं । इसलिए देवता और पितर गन्ध तथा रस-तत्व से तृप्त होते हैं । शब्द-तत्व से रहते हैं तथा स्पर्श-तत्व को ग्रहण करते हैं और किसी को पवित्र देखकर उनके मन में बड़ा संतोष होता है । जैसे पशुओं का भोजन तरुण और मनुष्यों का भोजन अन्न का सार-तत्व है । सम्पूर्ण देवताओं की शक्तिया अचिन्त्य और ज्ञानगम्य हैं । अतः वे अन्न और जल का सार-तत्व ही ग्रहण करते हैं, शेष जो स्थूल वस्तु है, वह यहीं स्थित देखी जाती है ।

करन्धम ने पूछा: श्राद्ध का अन्न तो पितरों को दिया जाता है, परन्तु वे अपने कर्म के अधीन होते हैं । यदि वे स्वर्ग अथवा नरक में हों, तो श्राद्ध का उपभोग कैसे कर सकते हैं ? और वैसी दशा में वे वरदान देने में भी कैसे समर्थ हो सकते हैं ?

महाकाल ने कहा: नृपश्रेष्ठ ! यह सत्य है कि पितर अपने-अपने कर्मों के अधीन होते हैं, परन्तु देवता, असुर और यक्ष आदि के तीन अमूर्त तहत चारों वर्णों के चार मूर्त - ये सात प्रकार के पितर माने गए हैं । ये नित्य पितर हैं, ये कर्मों के अधीन नहीं, वे सबको सब कुछ देने में समर्थ हैं । वे सातों पितर भी सब वरदान आदि देते हैं । उनके अधीन अत्यंत प्रबल इकतीस गण होते हैं । राजन ! इस लोक में किया हुआ श्राद्ध उन्ही मानव पितरों को तृप्त करता है । वे तृप्त होकर श्राद्धकर्ता के पूर्वजों को, जहाँ कहीं भी उनकी स्थिति हो, जाकर तृप्त करते हैं । इस प्रकार अपने पितरों के पास श्राद्ध में दी हुई वस्तु पहुँचती है और वे श्राद्ध ग्रहण करनेवाले नित्य पितर ही श्राद्धकर्ताओं को श्रेष्ठ वरदान देते हैं ।

राजा ने पूछा: विप्रवर ! जैसे भूत आदि को उन्ही के नाम से 'इदं भूतादिभ्यः' कहकर कोई वस्तु दी जाती है, उसी प्रकार देवता आदि को संक्षेप में क्यों नहीं दिया जाता ? मन्त्र आदि के प्रयोग द्वारा विस्तार क्यों किया जाता है ?

महाकाल ने कहा: राजन ! सदा सबके लिए उचित प्रतिष्ठा करनी चाहिए । उचित प्रतिष्ठा के बिना दी हुई कोई वस्तु वे देवता आदि ग्रहण नहीं करते । घर के दरवाजे पर बैठा हुआ कुत्ता जिस प्रकार ग्रास(फेंका हुआ टुकड़ा) ग्रहण करता है, क्या कोई श्रेष्ठ पुरुष भी उसी प्रकार ग्रहण करता है ? इसी प्रकार भूत आदि की भांति देवता कभी अपना भाग ग्रहण नहीं करते । वे पवित्र भोगों का सेवन करने वाले तथा निर्मल हैं । अतः अश्रद्धालु पुरुष के द्वारा बिना मन्त्र के दिया हुआ जो कोई भी हव्य भाग होता है, उसे वे स्वीकार नहीं करते । यहाँ मन्त्रों के विषय में श्रुति भी इस प्रकार कहती है -
मन्त्रा दैवता यद्यद्विद्वान्मन्त्रवत्करोति देवताभिरेव तत्करोति यद्ददाति देवताभिरेव तद्ददाति यत्प्रतिगृह्णाती देवताभिरेव तत्प्रतिगृह्णाती तस्मान्नामन्त्रवत्प्रतिगृह्णीयात् नामन्त्रवत्प्रतिपद्यते । 

'सब मन्त्र ही देवता हैं, विद्वान पुरुष जो-जो कार्य मन्त्र के साथ करता है, उसे वह देवताओं के द्वारा ही सम्पन्न करता है । मन्त्रोचारणपूर्वक जो कुछ देता है, वह देवताओं द्वारा ही देता है । मन्त्रपूर्वक जो कुछ ग्रहण करता है, वह देवताओं द्वारा ही ग्रहण करता है । इसलिए मन्त्रोचारण किये बिना मिला हुआ प्रतिग्रह न स्वीकार करे । बिना मन्त्र के जो कुछ किया जाता है, वह प्रतिष्ठित नहीं होता'
इस कारण पौराणिक और वैदिक मन्त्रोद्वारा ही सदा दान करना चाहिए ।

श्राद्ध कल्प 
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सूतजी कहते हैं: एक समय महामुनि मार्कण्डेय जी राजा रोहिताश्व के यहाँ पधारे और यथायोग्य सत्कार के बाद उन्हें कथा सुनाने लगे । कथा के अन्त में राजा रोहिताश्व ने कहा - "भगवन ! मैं श्राद्धकल्प का यथार्थरूप से श्रवण करना चाहता हूँ ।

मार्कण्डेय जी बोले: राजन ! यही बात आनर्तनरेश ने भर्तृयज्ञ से पूछी थी । वही प्रसंग सुनाता हूँ ।
आनर्त नरेश ने पूछा: ब्रह्मन ! श्राद्ध के लिए कौन सा समय विहित है? श्रद्धोपयोगी द्रव्य कौन से हैं ? श्राद्ध के लिए कौन कौन सी वस्तुएं पवित्र मानी गयी हैं ? कैसे ब्राह्मण श्राद्धकर्म में सम्मिलित करने योग्य है और कैसे ब्राह्मण त्याज्य माने गए हैं ?

भर्तृयज्ञ ने कहा: राजन ! विद्वान पुरुष को अमावस्या के दिन अवश्य श्राद्ध करना चाहिए । क्षुधा से क्षीण हुए पितर श्राद्धान्न की आशा से अमावस्या तिथि आने की आशा करते रहते हैं । जो अमावस्या तिथि को जल या शाक से भी श्राद्ध करता है, उसके पितर तृप्त होते हैं और उसके समस्त पातकों का नाश हो जाता है ।

आनर्त ने पूछा: विशेषतः अमावस्या को श्राद्ध करने का विधान क्यों है ? मरे हुए जीव तो अपने कर्मानुसार शुभाशुभ गति को प्राप्त होते हैं; फिर श्राद्धकाल में वे अपने पुत्र के घर कैसे पहुँच पाते हैं ?

भर्तृयज्ञ ने कहा: महाराज ! जो लोग यहाँ मरते हैं, उनमें से कितने ही लोग जन्म ग्रहण करते हैं, कितने ही पुण्यात्मा स्वर्गलोक में स्थित होते हैं और कितने ही पापात्मा जीव यमलोक के निवासी हो जाते हैं । कुछ जीव भोगानुकूल शरीर धारण करके अपने किये हुए शुभाशुभ कर्म का उपभोग करते हैं । राजन ! यमलोक या स्वर्गलोक में रहनेवाले पितरों को भी तब तक भूख प्यास अधिक होती है, जब तक कि वे माता या पिता से तीन पीढ़ी के अंतर्गत रहते हैं, उनमें भूख-प्यास की अधिकता रहती है । पितृलोक या देवलोक के पितर तो श्राद्धकाल में सूक्ष्म शरीर से आकर श्राद्धीय ब्राह्मणो के शरीर में स्थित होकर श्रद्धभाग ग्रहण करते हैं; परन्तु जो पितर कहीं शुभाशुभ भोग में स्थित हैं या जन्म ले चुके हैं, उनका भाग दिव्य पितर आकर ग्रहण करते हैं और जीव जहाँ जिस शरीर में होता है - वहां तदनुकूल भोग की प्राप्ति कराकर उसे तृप्ति पहुंचाते हैं । ये दिव्य पितर नित्य और सर्वज्ञ होते हैं । पितरों के उद्देश्य से सदा ही अन्न और जल का दान करते रहना चाहिए । जो नीच मानव पितरों के लिए अन्न और जल न देकर आप ही भोजन किया करता या जल पीता है, वह पितरों का द्रोही है । उसके पितर स्वर्ग में अन्न और जल नहीं पाते हैं । इसलिए शक्ति के अनुसार अन्न और जल उनके लिए अवश्य देने चाहिए । श्राद्ध द्वारा तृप्त किये हुए पितर मनुष्य को मनोवांछित भोग प्रदान करते हैं ।


श्राद्ध की आवश्यकता तथा समय 
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आनर्तनरेश ने कहा: ब्रह्मन ! श्राद्ध के लिए और भी तो नाना प्रकार के पवित्रतम काल हैं; फिर अमावस्या को ही विशेष रूप से श्राद्ध करने की बात क्यों कही गयी है ?

भर्तृयज्ञ ने कहा: महाराज ! यह सत्य है कि श्राद्ध के योग्य और भी बहुत से समय हैं । मन्वादि तिथि, युगादि तिथि, संक्रांति काल, व्यतिपात, गजच्छाया, चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण - इन सभी समयो में पितरों कि तृप्ति के लिए श्राद्ध करना चाहिए । पुण्यतीर्थ, पुण्यमन्दिर, श्रद्धयोग्य ब्राह्मण तथा श्राद्ध के योग्य उत्तम पदार्थ प्राप्त होने पर बुद्धिमान पुरुषों को बिना पर्व के भी श्राद्ध करना चाहिए । अमावस्या को जो विशेष रूप से श्राद्ध करने का उपदेश किया गया है, इसका कारण बताता हूँ, एकाग्रचित होकर सुनो । सूर्य की सहस्त्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है, उसी का नाम 'अमा' है; उस 'अमा' नामक प्रधान किरण के ही तेज से सूर्यदेव तीनो लोकों को प्रकाशित करते हैं । उसी अमा में तिथि विशेष को चन्द्रदेव निवास करते हैं, इसलिए उसका नाम 'अमावस्या' है । यही कारण है कि अमावस्या प्रत्येक धर्मकार्य के लिए अक्षय फल देनेवाली बताई गयी है । श्राद्धकर्म में तो इसका विशेष महत्त्व है ही ।
अग्निष्वात्त, बर्हिषद, आज्यप, सोमप, रश्मिप, उपहूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक तथा नान्दीमुख - ये नौ दिव्य पितर बताये गए हैं ।  आदित्य, वसु, रूद्र और दोनों अश्विनीकुमार भी केवल नान्दीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं । ये पितृगण ब्रह्मा जी के समान बताये गए हैं; अतः पद्मयोनि ब्रह्मा जी उन्हें तृप्त करने के पश्चात सृष्टिकार्य आरम्भ करते हैं ।
इनके सिवा दुसरे भी ऐसे मर्त्य-पितर होते हैं, जो स्वर्गलोक में निवास करते हैं । वे दो प्रकार के देखे जाते हैं; एक तो सुखी हैं और दुसरे दुखी ।  मर्त्यलोक में रहने वाले वंशज जिनके लिए श्राद्ध करते हैं और दान देते हैं, वे सभी वहां हर्ष में भरकर वहां देवताओं के समान प्रसन्न होते हैं । जिनके लिए उनके वंशज कुछ भी दान नहीं करते, वे भूख प्यास से व्याकुल और दुखी देखे जाते हैं । एक समय कि बात है, अग्निष्वात आदि सभी पितर देवराज इन्द्र के पास गए । महाराज इन्द्र उन्हें आया देख सम्पूर्ण देवताओं के साथ भक्तिपूर्वक उनका पूजन किया । इसके बाद जब वे देवदुर्लभ पितृलोक जाने लगे, तब क्षुधा पिपासा से पीड़ित रहने वाले मर्त्यपितरों ने दिव्य स्तोत्रों से, पितृसूक्त के मन्त्रों तथा पितरों को संतुष्ट करनेवाले अन्यान्य वैदिक स्तोत्रों से उन सबकी स्तुति करके दीनतापूर्ण वचनों द्वारा उन्हें प्रसन्न किया । तब वे दिव्य पितर प्रसन्न होकर उनसे बोले - 'सुव्रतों ! हम सब तुम लोगों पर प्रसन्न हैं, बोलो तुम क्या चाहते हो ?

मर्त्यपितर बोले - दिव्य पितृगण ! हम मनुष्यों के पितर हैं । अपने कर्मो द्वारा मर्त्यलोक से स्वर्ग में आकर देवताओं के साथ निवास करते हैं परन्तु यहाँ हमें अत्यंत भयंकर भूख और प्यास का कष्ट होता है । जान पड़ता है हम आग में जल रहे हैं । यहाँ के नन्दन आदि वनों में बड़े सुन्दर सुन्दर वृक्ष हैं । सबमें फल लगे हुए हैं, परन्तु उन फलों को जब हम हाथ में लेते हैं और यत्नपूर्वक जोर जोर से खींचते हैं, तो भी वे डाली से टूटकर अलग नहीं होते । प्यास से पीड़ित होकर यदि हम देवनदी गंगा का जल हाथ में उठाते और पीते हैं, तब हमारे हाथ में उस जल का स्पर्श ही नहीं होता । इस स्वर्गलोक में कोई खाता पीता नहीं दिखाई देता । अतः यहाँ का निवास हमारे लिए भयंकर हो गया है । यहाँ जो देवता या गुह्यक आदि हैं, वे सब विमान में बैठे हुए प्रसन्नचित्त दिखाई देते हैं, इन्हें भूख प्यास का कष्ट नहीं है । ये अनेक प्रकार के भोगों से संपन्न हैं । क्या हम सब लोग भी कभी ऐसे हो सकेंगे ? भूख प्यास के कष्ट से रहित हो परम संतोष पा सकेंगे ।

दिव्यपितरों ने कहा: इन्द्र आदि केवल दुसरे दुसरे कार्यों में व्यग्र होकर जब हमारे लिए श्राद्ध नहीं करते, दान नहीं देते, तब हम लोगों कि ऐसी ही कष्टपूर्ण दशा हो जाती है । उस समय हम वहां से आकर देवताओं से कहते हैं, प्रार्थना करते हैं । उसके बाद जब ये लोग श्राद्ध-तर्पण द्वारा हमें तृप्त करते हैं, तब हमें तृप्ति प्राप्त होती है । इसी प्रकार तुम लोगों के जो वंशज एकाग्रचित्त हो तुम्हारे लिए श्राद्ध का दान देते हैं, उससे तुम लोग भी क्यों नहीं तृप्त होओगे ? अब प्रमादी वंशज, पितरों का तर्पण नहीं करते, तब उनके पितर स्वर्ग में रहने पर भी भूख-प्यास से व्याकुल हो जाते हैं; फिर जो यमलोक में पड़े हैं, उसके कष्ट का तो कहना ही क्या है ?
इतना कहकर दिव्य पितरों ने मर्त्यपितरों को साथ ले ब्रह्मा जी के समीप गमन किया और उनकी तथा अपनी शाश्वत तृप्ति के लिए उपाय पूछा । तब ब्रह्मा जी ने कहा - 'पितरों ! यदि मनुष्य, पिता, पितामह और प्रपितामह के उद्देश्य से तथा मातामह, प्रमातामह और वृद्धमातामह के उद्देश्य से श्राद्ध-तर्पण करेंगे तो उतने से ही उनके पिता और मातामह से लेकर मुझतक सभी पितर तृप्त हो जाएंगे । जिस अन्न से मनुष्य अपने पितरों की तुष्टि के लिए श्रेष्ठ ब्राह्मणों को तृप्त करेगा और उसी से भक्तिपूर्वक पितरों के निमित्त पिण्डदान भी देगा, उससे तुम्हें सनातन तृप्ति प्राप्त होगी । अमावस्या के दिन वंशजों द्वारा श्राद्ध और पिण्ड पाकर पितरों को एक मास तक तृप्ति बनी रहेगी । सूर्यदेव के कन्या राशि पर स्थित रहते समय आश्विन कृष्णपक्ष (पितृपक्ष/महालय) में जो मनुष्य तिथि पर पितरों के लिए श्राद्ध करेंगे, उनके उस श्राद्ध से पितरों को एकवर्ष तक तृप्ति बनी रहेगी ।  यदि मनुष्य गयाशीर्ष में जाकर एक बार भी श्राद्ध कर देंगे तो उसके प्रभाव से तुम सभी पितर सदा के लिए तृप्त हो जाओगे ।

भर्तृयज्ञ कहते हैं: राजन ! ऐसा जानकर विज्ञ पुरुष को चाहिए कि पितरों को तृप्त करने की इच्छा रखकर वह उक्त समयों में श्राद्ध अवश्य करे । इहलोक और परलोक में उसकी उन्नति चाहने वाले पुरुष को विशेषतः गयाशीर्ष में जाकर श्राद्ध करना चाहिए । जो मनुष्य श्राद्ध नहीं करता, उसके पितर भूख-प्यास से पीड़ित हो बहुत दुखी होते हैं । मन ही मन तृप्ति की अभिलाषा रखकर वे पितृपक्ष की प्रतीक्षा करते हैं, ठीक उसी तरह जैसे किसान लोग रात-दिन वर्षा की राह देखते हैं । पितृपक्ष बीत जाने पर भी जब उन्हें श्राद्ध का अन्न नहीं मिलता, तब वे जब तक सूर्य कन्याराशि पर रहते हैं, तब तक अपनी संतानों द्वारा किये हुए श्राद्ध की प्रतीक्षा करते हैं । उसके भी बीत जाने पर पितर तुलाराशि के सूर्य तक पूरे कार्तिकमास में अपने वंशजो द्वारा किये जानेवाले श्राद्ध की राह देखते हैं । जब सूर्यदेव वृश्चिक राशि पर चले जाते हैं, तब वे पितर दीन और निराश होकर अपने स्थान पर लौट जाते हैं । राजन ! इस प्रकार पूरे दो मास तक भूख प्यास से व्याकुल पितर वायुरूप में आकर घर के दरवाजों पर खड़े रहते हैं । अतः जब तक कन्या और तुला पर सूर्य रहते हैं तब तक तथा अमावस्या के दिन सदा पितरों के लिए श्राद्ध करना चाहिए । विशेषतः तिल और जल की अंजलि देनी चाहिए । कन्या और तुला में श्राद्ध न हो तो अमावस्या में अवश्य करें । वह भी न हो तो एक बार गयाजी में आकर श्राद्ध कर दें जिससे नित्य श्राद्ध का फल प्राप्त होता है ।

श्राद्ध की विधि, विहित और निषिद्ध ब्राह्मण तथा मन्वादि एवं युगादी पुण्यतिथियों का वर्णन 
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आनर्त ने पूछा: मुनीश्वर ! सब मनुष्यों को किस विधि से श्राद्ध करना चाहिए ?

भर्तृयज्ञ ने कहा: उत्तम कर्मो द्वारा उपार्जित धन से पितरों का श्राद्ध करना उचित है । छल-कपट, चोरी और ठगी से कमाए हुए धन से कदापि श्राद्ध न करें । अपने वर्णोचित वृत्ति के द्वारा उपार्जित धन से श्राद्ध के लिए सामग्री एकत्र करें । पहले संध्याकाल आने पर काम-क्रोध से रहित एवं पवित्र हो श्राद्धकर्म के योग्य श्रेष्ठ ब्रह्मचर्यपरायण ब्राह्मणो को निमंत्रित करें । उनके अभाव में ब्रह्मज्ञानपरायण, अग्निहोत्री, वेदविद्या में निपुण गृहस्थ ब्राह्मणो को निमंत्रण दें । जिनका कोई अंग विकल न हो, जो निरोग, आहार पर संयम रखनेवाले तथा पवित्र हों, ऐसे ब्राह्मण श्राद्ध के योग्य बताये गए हैं ।

जो किसी अंग से हीन हो या जिनका कोई अंग अधिक हो, जो सर्वभक्षी हों, निकले गए हो, जिनके दांत काले हों या जिनके दांत गिर गए हों, जो वेद बेचनेवाले और यञवेदी को नष्ट करनेवाले हों, जिनमें वेद-शास्त्रों का ज्ञान न हो, जिनके नख ख़राब हो गए हों, जो रोगी, निर्धन, दूसरों की हिंसा करनेवाले, दुसरे लोगों पर लांछन लगनेवाले, नास्तिक, नाचनेवाले, सूदखोर, बुरे कर्मो में संलग्न, शौचाचार से शून्य, अत्यंत लम्बे, अति दुर्बल, बहुत मोठे, अधिक रोमवाले तथा रोमरहित हों ऐसे ब्राह्मणो को श्राद्ध में त्याग दे । जो पितरों का गौरव रखना चाहे, उसे ऐसा अवश्य करना चाहिए । जो परायी स्त्री में आसक्त, शूद्रजातीय स्त्री से संपर्क रखनेवाले, नपुंसक, मलिन, चोर, क्षत्रिय तथा वैश्य की वृत्ति वाले, माता-पिता का त्याग करनेवाले, गुरुस्त्रीगामी, निर्दोष पत्नी को छोड़नेवाले, कृतघ्न, खेती करनेवाले, शिल्प से जीविका चलनेवाले, भाला बेचकर या भाला चलकर जीववाले, चमड़े के व्यापार से जीवन-निर्वाह करनेवाले तथा अज्ञात कुलवाले हों ऐसे ब्राह्मणो को भी श्राद्ध में त्याग देना चाहिए ।

अब उन ब्राह्मणो का परिचय देता हूँ, जो श्राद्धकार्य में प्रशस्त माने गए हैं । त्रिणाचिकेत( नाचिकेत नामक विविध अग्नि का सेवन करनेवाले), 'मधुवाता' आदि तीन ऋचाओं का जप करनेवाले, छहों अंगो के ज्ञाता, त्रिसुपर्ण नामक ऋचाओं का पाठ करनेवाले, विद्या एवं व्रत को पूर्ण करके जो स्नातक हो चुके हों, धर्मद्रोण(धर्मशास्त्र) के पाठक, पुराणवेत्ता, ग्यानी, ज्येष्ठमास के ज्ञाता, अथर्वशीर्ष के विद्वान्, ऋतुकाल में अपनी पत्नी के साथ सहवास करनेवाले, उत्तम कर्मपरायण, सद्यःप्रक्षालक(तत्काल पात्र धो डालने वाले अर्थात एक ही समय के लिए अन्न संग्रह करने वाले ), शुक्ल, पुत्री के पुत्र, दामाद, भांजे, परोपकारी, मिष्ठान्न खाने वाले और पचने में समर्थ, मीठे वचन बोलनेवाले एवं सदा जप में तत्पर रहनेवाले - ये सभी ब्राह्मण पंक्तिपावन जानने चाहिए । ये पितरों के तृप्ति करते हैं । इसलिए थोड़ी विद्यावाले होने पर भी कुल और अचार में जो श्रेष्ठ हों, उन्ही को श्राद्ध में नियुक्त करना चाहिए ।

इस प्रकार ब्राह्मणो का ज्ञान करके सवयभाव से उनके चरणों का स्पर्श करते हुए प्रणाम करें और विश्वेदेव श्राद्ध के लिए दो ब्राह्मणो को निमंत्रण दें । दाहिना घुटना पृथ्वी पर टेककर इस मन्त्र का उच्चारण करें -
आगच्छन्तु महाभागा विश्वेदेवा महाबलाः।
भक्त्याहूता मया चैव त्वम् चापि व्रतभाग्भव।।

मेरे द्वारा भक्तिपूर्वक बुलाये हुए परम सौभाग्यशाली महाबली विश्वदेवगण इस श्राद्धकर्म में पधारें और हे ब्राह्मणदेव ! आप भी व्रत के भागी, क्रोधरहित, शौचपरायण तथा ब्रह्मचर्यपालक हों ।

निमंत्रित ब्राह्मणो को उस दिन विशेष संयम से रहना चाहिए । यजमान भी शांतचित्त और ब्रह्मचर्य युक्त रहे । वह रात बीत जाने पर प्रातः काल शयन से उठकर मनुष्य दिनभर किसी पर क्रोध न करे। उस दिन स्वाध्याय बंद रखे और आने द्वारा कोई कुत्सित कर्म न होने दे। तेल लगाना, परिश्रम करना, सवारी या वाहन आदि को दूर से ही त्याग दे।
जिन तिथियों में श्रद्धापूर्ण ह्रदय से स्नान करके पितरों के लिए दिया हुआ तिलमिश्रित जल भी उनके लिए अक्षय तृप्ति का साधक होता है, उनका वर्णन करता हूँ - आश्विन शुक्ला नवमी, कार्तिक की द्वादशी, माघ तथा भादों की तृतीया, फाल्गुन की अमावस्या, पौष की एकादशी, आषाढ़ की दशमी, माघ की सप्तमी, श्रवण कृष्ण अष्टमी, आषाढ़, कार्तिक, फाल्गुन, चैत्र और ज्येष्ठ मास की पूर्णिमाएं - ये मन्वादि तिथियां कही गयी हैं ।
इनमें स्नान करने से जो मनुष्य पितरों के उद्देश्य से तिल और कुशमिश्रित जल भी देता है, वह परम गति को प्राप्त होता है । कार्तिक शुक्ल नवमी तथा वैशाख शुक्ला तृतीया, माघ की अमावस्या और श्रवण की तृतीया - ये क्रमशः सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग की आदि तिथियां हैं । ये स्नान, दान, जप, होम और पितृतर्पण आदि करने पर अक्षयपुण्य उत्पन्न करने वाली महान फल देनेवाली होती हैं । जब सूर्य मेषराशि अथवा तुलाराशि पर जाते हैं, उस समय अक्षय पुण्यदायक 'विषुव' नामक योग होता है । जिस समय सूर्य मकर और कर्क राशि पर जाते हैं, उस समय 'अयन' नामक काल होता है । सूर्य का एक राशि से दूसरी राशि पर जाना 'संक्रान्ति' कहलाता है । ये सब स्नान, दान, जप,होम आदि का महान फल देने वाले हैं ।  इस प्रकार संक्रान्ति और युगादि तिथियों का वर्णन किया गया । इनमें दी गयी वस्तु का पुण्य अक्षय होता है ।


संक्षिप्त ब्रह्म पुराण, गीताप्रेस, पृष्ठ ३६० 
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मुनियों ने पूछाभगवन ! अब श्राद्ध कल्प का विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिये । तपोधन ! कब, कहाँ, किन देशों में और किन लोगों को किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए - यह बताने की कृपा करें ।

व्यास जी बोले: मुनिवरों ! सुनो, मैं श्राद्ध कल्प का विस्तार से वर्णन करता हूँ। जब जहाँ, जिन प्रदेशों में और जिन लोगों द्वारा जिस प्रकार श्राद्ध किया जाना चाहिए, वह सब बतलाता हूँ । अपने कुलोचित धर्म का पालन करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को उचित है कि वे अपने अपने वर्ण के अनुरूप वेदोक्त विधि से मंत्रोच्चारणपूर्वक श्राद्ध का अनुष्ठान करें । स्त्रियों और शूद्रों को ब्राह्मण की आज्ञा के अनुसार मंत्रोच्चारण के बिना ही विधिवत श्राद्ध करना चाहिए । उनके लिए अग्नि में होम आदि वर्जित है । पुष्कर आदि तीर्थ, पवित्र मन्दिर, पर्वत शिखर, पावन प्रदेश, पुण्य सलिला नदी, नद, सरोवर, संगम, सात समुद्रों के तट, लिपे-पुते अपने घर, दिव्य वृक्षों के मूल और यज्ञ कुण्ड - ये सभी उत्तम स्थान हैं । इन सबमें श्राद्ध करना चाहिए ।

अब श्राद्ध के लिए वर्जित स्थान बतलाता हूँ । किरात(किलात), कलिङ्ग(उड़ीसा), कोंकण, कृमि, दशार्ण, कुमार्य, तंगण, क्रथ, सिन्धु नदी का उत्तर तट, नर्मदा का दक्षिण तट और करतोया का पूर्व तट - इन प्रदेशों में श्राद्ध नहीं करना चाहिए ।
प्रत्येक मास की पूर्णिमा तथा अमावस्या को श्राद्ध के लिए योग्य काल बताया गया है । नित्य श्राद्ध में विश्वेदेवों का पूजन नहीं होता । नैमित्तिक श्राद्ध विश्वेदेवों के पूजनपूर्वक होता है । नित्य, नैमित्तिक, काम्य - ये तीन प्रकार के श्राद्ध माने गए हैं । इन तीरों का प्रतिवर्ष अनुष्ठान करना चाहिए । जातकर्म आदि संस्कारों के अवसर पर आभ्युदयिक श्राद्ध भी करना उचित है। उसमें युग्म ब्राह्मणो को निमंत्रित करने का विधान है । आभ्युदयिक श्राद्ध माता से आरम्भ होता है । जब सूर्य कन्या राशि पर जाते हैं, तब कृष्ण पक्ष के पंद्रह दिनों तक परवान की विधि से श्राद्ध करना चाहिए । प्रतिपदा को श्राद्ध करने से धन की प्राप्ति होती है । द्वितीय संतान देनेवाली है । तृतीया, पुत्रप्राप्ति की अभिलाषा पूर्ण करती है । चतुर्थी, शत्रु का नाश करने वाली है । पंचमी को श्राद्ध करने से मनुष्य लक्ष्मी को प्राप्त करता है । षष्ठी को श्राद्ध करने से वह पूज्य होता है । सप्तमी को गणो का आधिपत्य, अष्टमी को उत्तम बुद्धि, नौमी को स्त्री, दशमी को मनोरथ की पूर्णता और एकादशी को श्राद्ध करने से सम्पूर्ण वेदों को प्राप्त करता है । द्वादशी को पितरों की पूजा करने वाला मानव विजय-लाभ करता है । त्रयोदशी को श्राद्ध करनेवालाल संतान-वृद्धि, पशु, मेधा, स्वतंत्रता, उत्तम पुष्टि, दीर्घायु अथवा ऐश्वर्य का भागी होता है - इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । जिसके पितर युवावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हुए अथवा शस्त्र द्वारा मारे गए हों, वह उन पितरों को तृप्त करने की इच्छा से चतुर्दशी तिथि को श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करें । जो परुष पवित्र होकर अमावस्या को यत्नपूर्वक श्राद्ध करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं तथा अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होता है ।

मुनिवरों ! अब पितरों की प्रसन्नता के लिए जो जो वास्तु देनी चाहिए, उसका वर्णन सुनो । जो श्राद्धकर्म में गुड़मिश्रित अन्न, तिल, मधु अथवा मधुमिश्रित अन्न देता है, उसका वह सम्पूर्ण दान अक्षय होता है । पितर कहते हैं - 'क्या हमारे कुल में कोई ऐसा पुरुष होगा, जो हमें जलाञ्जलि देगा, वर्षा और मघा नक्षत्र में हमको मधुमिश्रित खीर अर्पण करेगा ? मनुष्यों को बहुत से पुत्रों की अभिलाषा करनी चाहिए । यदि उनमें से एक भी गया चला जाए अथवा कन्या विवाह करे या नील वृष का उत्सर्ग करे तो पित्रों को पूर्ण तृप्ति और उत्तम गति प्राप्त हो।' कृत्तिका नक्षत्र में पितरों की पूजा करने वाला मानव स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। संतान की इच्छा रखनेवाला पुरुष रोहिणी में श्राद्ध करे । मृगशिरा में श्राद्ध करने से मनुष्य तेजस्वी होता है । आर्द्रा में शौर्य और पुनर्वसु में स्त्री की प्राप्ति होती है; पुष्य में अक्षय धन, आश्लेषा में उत्तम आयु, मघा में संतान और पुष्टि तथा पूर्वफाल्गुनि में सौभाग्य की प्राप्ति होती है । अतः अक्षय फल की इच्छा रखने वाले पुरुष को कन्याराशि पर सूर्य के रहते उक्त तथा अन्य विभिन्न नक्षत्रों में काम्य श्राद्ध का अनुष्ठान करना चाहिए । सूर्या के कन्या राशि पर स्थित रहते मनुष्य जिन-जिन कामनाओं का चिंतन करते हुए श्राद्ध करते हैं, उन सबको प्राप्त कर लेते हैं । जब सूर्य कन्या राशि पर हों, तब नान्दीमुख पितरों का भी श्राद्ध करना चाहिए; क्योंकि उस समय सभी पितर पिण्ड पाने की इच्छा रखते हैं । जो राजसूय और अश्वमेध यज्ञों का दुर्लभ फल प्राप्त करना चाहता हो, उसे कन्याराशि पर सूर्य के रहते जल, शाक और मूल आदि से भी पितरों की पूजा अवश्य करनी चाहिए । उत्तरफाल्गुनी और हस्त नक्षत्रों पर सूर्यदेव के स्थित रहते जो भक्तिपूर्वक पितरों का पूजन करता है, उसका स्वर्गलोक में निवास होता है । उस समय यमराज की आज्ञा से पितरों की पुरी तब तक खाली रहती है जब तक कि सूर्य वृश्चिक राशि पर उपस्थित रहते हैं । वृश्चिक बीत जाने पर भी जब कोई श्राद्ध नहीं करता, तब देवताओं सहित पितर मनुष्य को दुःसह शाप देकर खेदपूर्वक लम्बी सांसे लेते हुए अपनी पुरी को लौट जाते हैं । अष्टका, मन्वन्तरा और अन्वष्टका तिथियों को भी श्राद्ध करना चाहिए । वह मात्रवर्ग से आरम्भ होता है ।
ग्रहण, व्यतिपात, एक राशि पर सूर्य और चन्द्रमा के संगम, जन्म नक्षत्र तथा ग्रहपीड़ा के अवसर पर पार्वण श्राद्ध करने का विधान है । दोनों अयनो के आरम्भ के दिन, दोनों विषुव, योगो के आने पर तथा प्रत्येक संक्रांति के दिन विधिपूर्वक उत्तम श्राद्ध करना चाहिए । इन दिनों पिण्डदान को छोड़कर शेष सभी श्राद्धसंबन्धी कार्य करने चाहिए । माता और पिता की मृत्यु के दिन प्रतिवर्ष एकोदृष्ट श्राद्ध करना चाहिए । यदि पिता के भाई अथवा अपने बड़े भाई की मृत्यु हो गयी हो और उनके कोई पुत्र नहीं हो तो उनके लिए भी निधन तिथि को प्रतिवर्ष एकोदृष्ट श्राद्ध करना उचित है । पार्वण श्राद्ध में पहले विश्वेदेवों का आह्वान और पूजन होता है । किन्तु एकोदृष्ट में ऐसा नहीं होता । देवकार्य में दो और पितृकार्य में तीन ब्राह्मणो को निमंत्रित करना चाहिए अथवा दोनों में एक-एक ब्राह्मण ही निमंत्रित करें । इसी प्रकार मातामहों के श्राद्धकार्य भी समझने चाहिए ।

जो हाल का मरा हो, उसके लिए सदा बाहर जल के समीप पृथ्वी पर तिल और कुशसहित पिण्ड और जल देना चाहिए । मृत्यु के तीसरे दिन प्रेत का अस्थि-चयन करना उचित है । घर में किसी की मृत्यु होने पर ब्राह्मण दस दिनों में, क्षत्रिय बारह दिनों में, वैश्य पंद्रह दिनों में और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है । सूतक निवृत्त हो जाने पर घर में एकोदृष्ट श्राद्ध करना बताया गया है । बारहवें दिन, एक मास पर, डेढ़ मास पर तथा उसके बाद प्रतिमास एक वर्ष तक श्राद्ध करना चाहिए । वर्ष बीतने पर सपिण्डीकरण श्राद्ध करना उचित है । सपिण्डीकरण हो जाने पर उसके लिए पार्वण श्राद्ध का विधान है । सपिण्डीकरण के बाद मृत व्यक्ति प्रेतभाव से मुक्त होकर पितरों के स्वरुप को प्राप्त होते हैं । पितर दो प्रकार के हैं - मूर्त और अमूर्त । नान्दीमुख नामवाले पितर मूर्तिमान बताये गए हैं । एकोदृष्ट श्राद्ध ग्रहण करने वाले पितरों की 'प्रेत' संज्ञा है । इस प्रकार पितरों के तीन भेद स्वीकार किये गए हैं ।

मुनियों ने पूछा: द्विजश्रेष्ठ ! मरे हुए पिता आदि का सपिण्डीकरण श्राद्ध कैसे करना चाहिए ? यह हमें विधिपूर्वक बताइये ।

व्यास जी बोले: ब्राह्मणो ! मैं सपिण्डीकरण श्राद्ध की विधि बतलाता हूँ, सुनो । सपिण्डीकरण श्राद्ध विश्वेदेवों की पूजा से रहित होता है । इसमें एक ही अर्घ्य और एक ही पवित्रक का विधान है । अग्निकरण और आह्वान की क्रिया भी इसमें नहीं होती । सपिण्डीकरण में अपसव्य होकर अयुग्म ब्राह्मणो को भोजन कराना चाहिए । इसमें जो विशेष क्रिया है, उसका वर्णन करता हूँ; एकाग्रचित्त होकर सुनो। सपिण्डीकरण में तिल, चन्दन और जल से युक्त चार पात्र होते हैं । उनमें से तीन तो पितरों के लिए रखें और एक प्रेत के लिए । प्रेत के पात्र से अर्घ्य-जल लेकर 'ये समानाः समनसः' इत्यादि मंत्र का जप करते हुए पितरों के तीनो पात्रों में छोड़ना चाहिए । शेष कार्य अन्य श्राद्धों की भांति करने चाहिए । स्त्रियों के लिए भी इसी प्रकार एकोदृष्ट का विधान है । यदि पुत्र न हो तो स्त्रियों का सपिण्डीकरण नहीं होता । पुरुषों को उचित है कि वे स्त्रियों के लिए भी प्रतिवर्ष उनकी मृत्युतिथि को एकोदृष्ट श्राद्ध करें । पुत्र के अभाव में सपिण्ड और सपिण्ड के अभाव में सहोदक, इस विधि को पूर्ण करें । जिसके कोई पुत्र न हो, उसका श्राद्ध उसके दौहित्र(नाती) कर सकते हैं । पुत्रिका-विधि से ब्याही कन्या के पुत्र तो अपने नाना आदि का श्राद्ध करने के अधिकारी हैं ही । जिनकी द्वयामुष्यायण संज्ञा है, ऐसी पुत्र नाना और बाबा दोनों का नैमित्तिक श्राद्धों में भी विधिपूर्वक पूजन कर सकते हैं । कोई भी न हो तो स्त्रियां ही अपनी पतियों का मंत्रोच्चारण किये बिना श्राद्ध कर सकती हैं । वे भी न हो तो राजा मृतक के सजातीय मनुष्यों द्वारा दाह आदि समस्त क्रियाएं पूर्ण कराये; क्योंकि राजा सब वर्णो का बन्धु होता है ।

ब्राह्मणो ! सपिण्डीकरण के बाद पिता के जो प्रपितामह हैं, वे लेपभागभोजी पितरों की श्रेणी में चले जाते हैं । उन्हें पितृपिण्ड पाने का अधिकार नहं रहता । उनसे आरम्भ करके चार पीढ़ी ऊपर के पितर, जो पुत्र के लेपभाग का अन्न ग्रहण करते थे, उसके सम्बन्ध से रहित हो जाते हैं । अब उनको लेपभाग पाने का अधिकार नहीं रहता । वे सम्बन्धहीन अन्न का उपभोग करते हैं । पिता, पितामह, प्रपितामह - इन तीन पुरुषों को पिण्ड का अधिकारी समझना चाहिए । इनसे भिन्न अर्थात पितामह के पितामह से लेकर ऊपर के जो तीन पीढ़ी के पुरुष हैं, वे लेपभाग के अधिकारी हैं । इस प्रकार छः ये और सातवां यजमान - सब मिलकर सात पुरुषों का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है - ऐसा मुनियों का कथन है । यह सम्बन्ध यजमान से लेकर ऊपर के लेपभागभोजी पितरों तक माना जाता है । इनसे ऊपर के सभी पितर पूर्वज कहलाते हैं । पूर्वजों में से जो नरक में निवास करते हैं, जो पशु-पक्षी की योनि में पड़े हैं तथा जो भूत आदि के रूप में स्थित हैं, उन सबको विधिपूर्वक श्राद्ध करनेवाला यजमान तृप्त करता है । जिसके जिसकी तृप्ति होती है, वह बतलाता हूँ ; सुनो । मनुष्य पृथ्वी पर जो अन्न बिखेरते हैं, उससे पिशाचयोनि में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । स्नान के वस्त्र से जो जल पृथ्वी पर टपकता है, उससे वृक्षयोनि में पड़े हुए पितर तृप्त होते हैं । नहाने पर अपने शरीर से जो जल के कण पृथ्वी पर गिरते हैं, उनसे उन पितरों की तृप्ति होती है जो देवभाव को प्राप्त हुए हैं । पिण्डो के उठाने पर जो जल के कण पृथ्वी पर गिरते हैं, उनसे पशु-पक्षी की योनि में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । कुल में जो बालक दांत निकलने से पहले दाह आदि कर्म के अनधिकारी रहकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे सम्मार्जन के जल का आहार करते हैं । ब्राह्मण लोग भोजन करके जो हाथ-मुंह धोते हैं और चरणों का प्रक्षालन करते हैं, उस जल से अन्यान्य पितरों की तृप्ति होती है । ब्राह्मणो ! इस प्रकार विधिपूर्वक श्राद्ध करनेवाले पुरुषों के पितर जो दूसरी-दूसरी योनियों में चले गए हैं, वे भी यजमान और ब्राह्मणो के हाथ से बिखरे हुए अन्न और जल के द्वारा पूर्ण तृप्त होते हैं । मनुष्य अन्यायोपार्जित धन से जो श्राद्ध करते हैं, उससे चाण्डाल आदि योनियों में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । इस प्रकार यहाँ श्राद्ध करनेवाले भाई-बंधुओं के द्वारा जो अन्न और जल पृथ्वी पर डाले जाते हैं, उनके द्वारा बहुत से पितर तृप्त होते हैं । अतः मनुष्य को उचित है कि वह पितरों के प्रति भक्ति रखते हुए शाकमात्र के द्वारा भी विधिपूर्वक श्राद्ध करे । श्राद्ध करनेवाले लोगों के कुल में कोई दुःख नहीं भोगता ।

श्रेष्ठ द्विजों को देवयज्ञ अथवा श्राद्ध में एक दिन पहले ही निमंत्रण देना चाहिए । उसी समय से ब्राह्मणो तथा श्राद्धकर्ता को भी संयम से रहना चाहिए । जो श्राद्ध में दान देकर अथवा भोजन करके मैथुन करता है, उसके पितर एक मास तक वीर्य में शयन करते हैं । जो स्त्री सहवास करके श्राद्ध करता अथवा श्राद्ध में भोजन करता है, उसके पितर उसके वीर्य और मूत्र का एक मास तक आहार करते हैं । इसलिए विद्वान् पुरुष को एक दिन पहले ही ब्राह्मणों के पास निमंत्रण भेजना चाहिए । यदि पहले दिन ब्राह्मण न मिल सकें तो श्राद्ध के दिन भी निमंत्रण किया जा सकता है । परन्तु स्त्री-प्रसङ्गी ब्राह्मणो को कदापि निमंत्रित न करें । यदि समय पर भिक्षा के लिए संयमी यति स्वयं पधारे हों तो उन्हें भी नमस्कार आदि के द्वारा प्रसन्न करके संयतचित्त से अवश्य भोजन कराएं । विद्वान् पुरुष श्राद्ध में योगियों को भी भोजन कराएं । क्योंकि पितरों का आधार योग है, अतः योगियों का सदा पूजन करना चाहिए । यदि हज़ारों ब्राह्मणों में एक भी योगी हो तो वह जल से नौका की भांति यजमान और श्राद्धभोजी ब्राह्मणो को भी तार देता है । इस विषय में ब्रह्मवादी विद्वान् पितरों की गायी हुई एक गाथा का गान करते हैं । पूर्वकाल में राजा पुरुरवा के पितरों ने उसका गान किया था । वह गाथा इस प्रकार है - 'हमारी वंश परम्परा में कब किसी को ऐसा श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त होगा, जो योगियों को भोजन कराने से बचे हुए अन्न को लेकर पृथ्वी पर हमारे लिए पिण्ड देगा? अथवा गया में जाकर पिण्डदान करेगा । या हमारी तृप्ति के लिए सामयिक शाक,तिल , घी, और खिचड़ी देगा ? अथवा त्रयोदशी तिथि और मघा नक्षत्र में विधिपूर्वक श्राद्ध करेगा और दक्षिणायन में हमारे लिए मधु और घी से मिली हुई खीर देगा ?
श्राद्ध में तृप्त हुए पितर मनुष्यों के लिए वसु, रूद्र, आदित्य, नक्षत्र, ग्रह और तारों की प्रसन्नता का सम्पादन करते हैं । इतना ही नहीं वे आयु, प्रजा, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सुख तथा राज्य भी देते हैं । पितरों को पूर्वाह्न की अपेक्षा अपराह्न अधिक प्रिय है । घर पर आये हुए ब्राह्मणो का स्वागतपूर्वक पूजन करके उन्हें पवित्रयुक्त हाथ से आचमन कराने के पश्चात आसनों पर बिठाये; फिर विधिपूर्वक श्राद्ध करके उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने के पश्चात भक्तिपूर्वक प्रणाम करें और प्रिय वचन कहकर विदा करें । दरवाजे तक उन्हें पहुंचने के लिए पीछे पीछे जाएँ और उनकी आज्ञा लेकर लौटे । तदनन्तर नित्यक्रिया करें और और अतिथियों को भोजन कराये । किन्ही किन्ही श्रेष्ठ पुरुषों का विचार है कि यह नित्यकर्म भी पितरों के ही उद्देश्य से होता है
तदनन्तर श्राद्धकर्ता अपने भृत्य आदि के साथ अवशिष्ट अन्न भोजन करें । धर्मज्ञ पुरुष को इसी प्रकार एकाग्रचित्त होकर पितरों का श्राद्ध करना चाहिए और जिस प्रकार ब्राह्मणों को संतोष हो, वैसी चेष्टा करनी चाहिए । अब मैं श्राद्ध में त्याग देने योग्य अधम ब्राह्मणो का वर्णन करता हौं । मित्रद्रोही, ख़राब नखों वाला, नपुंसक, क्षय का रोगी, कोढ़ी, व्यापारी, काले दांतों वाला, गांजा, काना, अँधा, बेहरा, जड़, गूंगा, पंगु, हिजड़ा। ख़राब चमड़े वाला, हीनांग, लाल आँखों वाला, कुबड़ा, बौना, विकराल, आलसी, मित्र के प्रति शत्रुभाव रखनेवाला, कलंकित कुल में उत्पन्न, पशुपालन करने वाला, अच्छी आकृति से हीन, परिवित्ति(छोटे भाई के विवाहित होने पर भी स्वयं अविवाहित रहने वाला), परिवेत्ता(बड़े भाई के ब्याह से पहले ही विवाह कर लेने वाला), परिवेदनिका(बड़ी बहन के विवाह से पहले ही विवाह करनेवाली स्त्री)- का पुत्र, शूद्रजातीय स्त्री का स्वामी और उसका पुत्र - ऐसे ब्राह्मण श्राद्ध-भोजन के अधिकारी नहीं हैं । जहाँ दुष्ट पुरुषों का आदर और साधु पुरुषों की अवहेलना होती है, वहां देवताओं का दिया हुआ भयंकर दण्ड तत्काल ऊपर पड़ता है । जो शास्त्र-विधि की अवहेलना करके मूर्ख को भोजन कराता है, वह दाता प्राचीन धर्म का त्याग करने के कारण नष्ट हो जाता है । जो अपने आश्रय में रहनेवाले ब्राह्मण का परित्याग करके दुसरे को बुलाकर भोजन कराता है, वह दाता उस ब्राह्मण के शोकोच्छवास की आग में दग्ध होकर नष्ट हो जाता है ।
वस्त्र के बिना कोई क्रिया, यज्ञ, वेदाध्ययन तपस्या नहीं होती। अतः श्राद्धकाल में वस्त्र का दान विशेष रूप से करना चाहिए । जो रेशमी, सूती और बिना कटा हुआ वस्त्र श्राद्ध में देता है, वह उत्तम भोगों को प्राप्त करता है । जैसे बहुत सी गौओं में बछड़ा अपनी माता के पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार श्राद्ध में भोजन किया हुआ अन्न जीव के पास, वह जहाँ भी रहता है, पहुँच जाता है । नाम, गोत्र और मंत्र - ये अन्न को वहां ढोकर नहीं ले जाते अपितु मृत्यु को प्राप्त हुए जीवों तक को तृप्ति पहुँचती है - वे श्राद्ध से तृप्ति लाभ करते है ।

'देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः।।' इस मन्त्र का श्राद्ध के आरम्भ और अन्त में तीन बार जप करे । पिण्डदान करते समय भी एकाग्रचित्त होकर इसका जप करना चाहिए । इससे पितर शीघ्र ही आ जाते हैं और राक्षस भाग खड़े होते हैं तथा तीनो लोकों के पितर तृप्त होते हैं । श्राद्ध में रेशम, सन अथवा कपास का सूत देना चाहिए । ऊन अथवा पाटका सूत्र वर्जित है । विद्वान पुरुष, जिसमें कोर न हो, ऐसा वस्त्र फटा न होने पर भी श्राद्ध में न दें; क्योंकि उससे पितरों को तृप्ति नहीं होती और दाता के लिए भी अन्याय का फल प्राप्त होता है । पिता आदि में से जो जीवित हो, उसको पिण्ड नहीं देना चाहिए, अपितु उसे विधिपूर्वक उत्तम भोजन कराना चाहिए । भोग की इच्छा रखने वाला पुरुष श्राद्ध के पश्चात पिण्ड को अग्नि में दाल दे और जिसे पुत्र की अभिलाषा हो, वह माध्यम अर्थात पितामह के पिण्ड को मंत्रोच्चारणपूर्वक अपनी पत्नी को हाथ में दे दे और पत्नी उसे खा ले । जो उत्तम कान्ति की इच्छा रखने वाला हो, वह श्राद्ध के अनन्तर सब पिण्ड गौवों को खिला दे। बुद्धि, यश और कीर्ति चाहने वाला पुरुष पिण्डों को जल में दाल दे । दीर्घायु की अभिलाषा वाला पुरुष उसे कौवो को दे दे । कुमारशाला की इच्छा रखनेवाला पुरुष वह पिण्ड मूगों को दे दे । कुछ ब्राह्मण ऐसा कहते हैं कि पहले ब्राह्मणो से "पिण्ड उठाओ" ऐसी आज्ञा लेले; उसके बाद पिण्डों को उठाये । अतः ऋषियों की बताई हुई विधि के अनुसार श्राद्ध का अनुष्ठान करें; अन्यथा दोष लगता है और पितरों को भी नहीं मिलता ।
अपनी शक्ति के अनुसार श्राद्ध की सामग्री एकत्रित करके विधिपूर्वक श्राद्ध करना सबका कर्तव्य है । जो अपने वैभव के अनुसार इस प्रकार विधिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह मानव ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त, सम्पूर्ण जगत को तृप्त कर देता है ।

मुनियों ने पूछा: ब्रह्मन !  जिसके पिता तो जीवित हों, किन्तु पितामह और प्रपितामह की मृत्यु हो गयी हो, उसे किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए यह विस्तारपूर्वक बताइये ।

व्यास जी बोले: पिता जिनके लिए श्राद्ध करते हैं, उनके लिए स्वयं पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है । ऐसा करने से लौकिक और वैदिक धर्म की हानि नहीं होती ।

मुनियों ने पूछा: विप्रवर ! जिसके पिता की मृत्यु हो गयी हो और पितामह जीवित हों, उसे किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए? यह बताने की कृपा करें ।

व्यास जी बोले: पिता को पिण्ड दे, पितामह को प्रत्यक्ष भोजन कराये और प्रपितामह को भी पिण्ड दे दे । यही शास्त्रों का निर्णय है । मरे हुए को पिण्ड देने और जीवित को भोजन कराने का विधान है । उस अवस्था में सपिण्डीकरण और पार्वणश्राद्ध नहीं हो सकता ।


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लेपभागभोजी

नैमित्तिक श्राद्ध
देवकार्य
पितृकार्य 

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