Friday, September 14, 2018

श्रीगोविन्द दामोदर स्तोत्रम्





करारविन्देन पदार्विन्दं मुखार्विन्दे विनिवेशयन्तम्।
वटस्य पत्रस्य पुटे शयानं बालं मुकुन्दं मनसा स्मरामि।।


जिन्होंने अपने करकमल से चरणकमल को पकड़ कर उसके अंगूठे को अपने मुखकमल में डाल रखा है और जो वटवृक्ष के एक पर्णपुट (पत्ते के दोने) पर शयन कर रहे हैं, ऐसे बाल मुकुन्द का मैं मन से स्मरण करता हूँ।

श्रीगोविन्द दामोदर स्तोत्रम्

श्रीकृष्ण गोविन्द हरे मुरारे हे नाथ नारायण वासुदेव।
जिह्वे पिवस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति।।


हे जिह्वे ! तू ‘श्रीकृष्ण ! गोविन्द ! हरे ! मुरारि ! हे नाथ ! नारायण ! वासुदेव ! तथा गोविन्द ! दामोदर ! माधव !’–इस नामामृत का ही निरन्तर प्रेमपूर्वक पान करती रह।

विक्रेतुकामाकिलगोपकन्या मुरारिपादार्पितचित्तवृत्ति:।
दध्यादिकं मोहवशादवोचद् गोविन्द दामोदर माधवेति।।

जिनकी चित्तवृत्ति मुरारि के चरणकमलों में लगी हुई है, वे सभी गोपकन्याएं दूध-दही बेचने की इच्छा से घर से चलीं। उनका मन तो मुरारि के पास था; अत: प्रेमवश सुध-बुध भूल जाने के कारण ‘दही लो दही’ इसके स्थान पर जोर-जोर से ‘गोविन्द ! दामोदर ! माधव !’ आदि पुकारने लगीं।

गृहे गृहे गोपवधूकदम्बा: सर्वे मिलित्वा समवाप्य योगम्।
पुण्यानि नामानि पठन्ति नित्यं गोविन्द दामोदर माधवेति।।

व्रज के प्रत्येक घर में गोपांगनाएं एकत्र होने का अवसर पाने पर झुंड-की-झुंड आपस में मिलकर उन मनमोहन माधव के ‘गोविन्द, दामोदर, माधव’ इन पवित्र नामों को नित्य पढ़ा करती हैं।

जिह्वे सदैवं भज सुन्दराणि नामानि कृष्णस्य मनोहराणि।
समस्त भक्तार्तिविनाशनानि गोविन्द दामोदर माधवेति।।


हे जिह्वे ! तू सदा ही श्रीकृष्णचन्द्र के ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’ इन मनोहर मंजुल नामों को, जो भक्तों के समस्त संकटों की निवृत्ति करने वाले हैं, भजती रह।

सुखं शयाना निलये निजेऽपि नामानि विष्णो: प्रवदन्ति मर्त्या:।
ते निश्चितं तन्मयतां व्रजन्ति गोविन्द दामोदर माधवेति।।

अपने घर में ही सुख से शय्या पर शयन करते हुए भी जो लोग ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’ इन विष्णुभगवान के पवित्र नामों को निरन्तर कहते रहते हैं, वे निश्चय ही भगवान की तन्मयता प्राप्त कर लेते हैं।

सुखावसाने इदमेव सारं दु:खावसाने इदमेव ज्ञेयम्।
देहावसाने इदमेव जाप्यं गोविन्द दामोदर माधवेति।।

सुख के अंत में यही सार है, दु:ख के अंत में यही गाने योग्य है और शरीर का अंत होने के समय भी यही मन्त्र जपने योग्य है, कौन-सा मन्त्र? यही कि ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’


श्रीकृष्ण राधावर गोकुलेश गोपाल गोवर्धननाथ विष्णो।
जिह्वे पिवस्वामृतमेतदेव गोविन्द दामोदर माधवेति।।


हे जिह्वे ! तू ‘श्रीकृष्ण ! राधारमण ! व्रजराज ! गोपाल ! गोवर्धन ! नाथ ! विष्णो ! गोविन्द ! दामोदर ! माधव !’–इस नामामृत का निरन्तर पान करती रह।

त्वामेव याचे मम देहि जिह्वे समागते दण्डधरे कृतान्ते।
वक्तव्यमेवं मधुरं सुभक्त्या गोविन्द दामोदर माधवेति।।


हे जिह्वे! मैं तुझी से एक भिक्षा मांगता हूँ, तू ही मुझे दे। वह यह कि जब दण्डपाणि यमराज इस शरीर का अन्त करने आवें तो बड़े ही प्रेम से गद्गद् स्वर में ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’ इन मंजुल नामों का उच्चारण करती रहना।

जिह्वे रसज्ञे मधुर प्रिया त्वं सत्यं हितं त्वां परमं वदामि।
आवर्णयेथा मधुराक्षराणि गोविन्द दामोदर माधवेति।।


हे रसों को चखने वाली जिह्वे ! तुझे मीठी चीज बहुत अधिक प्यारी लगती है, इसलिए मैं तेरे हित की एक बहुत ही सुन्दर और सच्ची बात बताता हूँ। तू निरन्तर ‘हे गोविन्द ! हे दामोदर ! हे माधव !’ इन मधुर मंजुल नामों की आवृत्ति किया कर।

अग्रे कुरूणाम् अथ पाण्डवानां दुःशासनेनाहृत-वस्त्र-केशा ।           
कृष्णा तदाक्रोशत् अनन्यनाथागोविन्द दामोदर माधवेति  ।।

जिस समय कौरव और पांडवो के सामने भरी हुई सभा मैं दुशासन ने द्रौपदी के वस्त्र और बालों को पकड़कर खींचा , तब उस समय उसका ( द्रौपदी ) का कोई दूसरा नाथ नहीं है ऐसी द्रौपदी ने रोकर  पुकारा - हे गोविन्द, हे दामोदर, हे माधव .

कृष्ण विष्णो मधु-कैटभारे भक्तानुकम्पिन् भगवन् मुरारे ।
त्रायस्व मां केशव लोकनाथ गोविन्द दामोदर माधवेति  ।।

हे कृष्ण, हे विष्णु , हे मधुकेटभ को मारने वाले , हे भगतों पर अनुकम्पा करने वाले , हे भगवान , हे मुरारी , हे केशव , हे लोकेश्वर , हे गोविन्द , हे दामोदर , हे माधव , मेरी रक्षा करो , रक्षा करो

उलूखले सम्भृत-तन्डुलांश्च सैघट्टयन्त्यो मुसलैः प्रमुग्धाः              
गायन्ति गोप्यो जनितानुरागा गोविन्द दामोदर माधवेति 

ओखली मे धान भरे हुए हैं । उन्हें गोप - रमणियाँ मूसलों से कूट रही हैं । और कूटते कूटते कृष्ण प्रेम मे विभोर होकर , गोविन्द , दामोदर, माधव .इस प्रकार गायन करती जाती हैं ।

काचित् कराम्भोज-पुटे निषण्णं क्रीडा-शुकं किंशुक-रक्त-तुण्डम् ।             
अध्यापयामास सरोरुहाक्षी गोविन्द दामोदर माधवेति  ।।

कोई कमलनयनी मनोविनोद के लिये पाले हुए अपने कर कमल पर बैठे किंशुककुसुम ( पलाश के पौधे ) के समान रक्तवर्ण चोंच वाले सुग्गे ( तोता )को पड़ा रही थी । पड़ो तो तोता गोविन्द , दामोदर, माधव कहने लगा .

पर्य्यण्किकाभाजम् अलम् कुमारं प्रस्वापयन्त्योऽखिल-गोप-कन्याः ।        
जगुः प्रबन्धं स्वर-ताल-बन्धं गोविन्द दामोदर माधवेति ।।

पालने मे पौड़े हुए अपने नन्हें बच्चे को सुलाती हुई सभी गोपकन्याएँ ताल स्वर के साथ गोविन्द , दामोदर , माधव, इस पद को गाती जाती थी ।

रामानुजं वीक्षण-केलि-लोलं गोपि गृहीत्वा नव-नीत-गोलम् ।
आबालकं बालकम् आजुहाव गोविन्द दामोदर माधवेति  ।।

हाथों मे माखन का गोला लेकर मैया जशोदा ने आँखमिछोनी क्रीड़ा मे व्यस्त बलराम के छोटे भाई कृष्ण को बालकों के बीच में से पकड़ कर पुकारा अरे गोविन्द , अरे दामोदर , अरे माधव ।

विचित्र-वर्णाभरणाभिरामेऽभिधेहिऽवक्त्राम्बुज-राजहंसे ।      
सदा मदीये रसनेऽग्र-रङ्गे गोविन्द दामोदर माधवेति ।।

विचित्र वर्णमय आभरणों से अत्यन्त सुन्दर प्रतीत होने वाली है. मुखकमल की राजहंसीरूपिणी मेरी रसने तू सर्वप्रथम गोविन्द , दामोदर , माधव इस ध्वनी का ही विस्तार कर ।

अङ्काधिरूढं शिशु-गोप-गूढं स्तनं धयन्तं कमलैक-कान्तम् ।         
सम्बोधयामास मुदा यशोदा गोविन्द दामोदर माधवेति ।।

अपनी गोद मैं बैठकर दूध पीते हुए बालगोपाल रूपधारी भगवान लक्ष्मीकान्त को लक्ष्य करके प्रेमानन्द मे मगन हुई जशोदा मैया इस प्रकार बुलाती करती थी . ऐ मेरे गोविन्द , ऐ गोविन्द , ऐ माधव ज़रा बोलो तो सही ।

क्रीडन्तम् अन्तर्-व्रजम् आत्मनं स्वं समं वयस्यैः पशु-पाल-बालैः ।              
प्रेम्णा यशोदा प्रजुहाव कृष्णं गोविन्द दामोदर माधवेति ।।

अपने सामवयस्क गोपबालकौं के साथ गौष्ठ में खेलते हुए अपने पुत्र कृष्ण यशोदा मैया ने अत्यंत स्नेह के साथ पुकारा . हे गोविन्द , हे मुरारी , हे माधव ( कहाँ चला गया ).

यशोदया गाढम् उलूखलेन गो-कण्ठ-पाशेन निबध्यमानम् ।  
रुरोद मन्दं नवनीत-भोजी गोविन्द दामोदर माधवेति ।।

अधिक चपलता करने के कारण मैया ने गौ बाँधने वाली रस्सी से ख़ूब कसकर ओखली में उन घनश्याम को बॉध दिया . तब तो वे माखन भोगी कृष्ण धीरे धीरे ( आँखे मलते हुए ) सिसक सिसककर गोविन्द, दामोदर , माधव कहते हुए रोने लगे

निजाङ्गणे कङ्कण-केलि-लोलं गोपी गृहीत्वा नवनीत-गोलम् ।           
आमर्दयत् पाणि-तलेन नेत्रे गोविन्द दामोदर माधवेति ।।

श्री नन्दनंदन अपने ही घर के आँगन मे अपने हाथ के    कंक्ण ( कंगन ) से खेलने में लगे हुए है . उसी समय मैया ने धीरे से जाकर उनके कमलनयनों को जाकर अपनी हथेली से मूँद तथा दूसरे हाथ में नवनीत का गोल लेकर प्रेम पूर्वक कहने लगी गोविन्द , दामोदर , माधव ( लो देखो माखन खा लो )

मन्दार-माले वदनाभिरामं बिम्बाधरे पूरित-वेणु-नादम्।             
गो-गोप-गोपी जन-मध्य-संस्थं गोविन्द दामोदर माधवेति ।।

जिनका मुखारबिंद बड़ा ही मनोहर हे । जी अपने बिम्ब के समान अरूण अधरों पर रखकर वंशी की मधुर धुन कर रहे हैं तथा जो कदम्ब के तले गौ, गोप  और गोपियों के मध्य में विराजमान । उन भगवन का हे गोविन्द , हे दामोदर , हे माधव इस प्रकार कहते हुए सदा स्मरण करना चाहिये 

उत्थाय गोप्योऽपर-रात्र-भोगे स्मृत्वा यशोदा-सुत-बाल-केलिम् ।               
गायन्ति प्रोच्चैः दधि-मन्थयन्त्यो गोविन्द दामोदर माधवेति ।।

व्रजाड्गनाएँ ब्राह्ममुहूर्त मे उठकर और उन यशुमतीनन्दन की बाल क्रीड़ाओं की बातों को 
याद करके दही मथते मथते गोविन्द , दामोदर, माधव । इन पदों को उच्च स्वर से गाया करती है

जग्धोऽथ दत्तो नवनीत-पिण्डो गृहे यशोदा विचिकित्सयन्ती ।           
उवाच सत्यं वद हे मुरारे गोविन्द दामोदर माधवेति ।।

दधि मथकर माता ने माखन का लौदाँ रख दिया था। माखन भोगी क्रष्ण की दृष्टि पड़ गयी , झट से उठा लाये . कुछ खाया कुछ बाँट दिया । जब ढूँढते ढूँढते नहीं मिला तो यशोदा मैया ने आप (कृष्ण) पर संदेह करते हुए पूछा हे मुरारी, हे गोविन्द , हे माधव सही सही बता माखन के लौंदा का क्या हुआ

अभ्यर्च्य गेहं युवतिः प्रवृद्ध-प्रेम-प्रवाहा दधि निर्ममन्थ ।             
गायन्ति गोप्योऽथ सखी-समेता गोविन्द दामोदर माधवेति ।।

जिसके ह्रदय मैं प्रेम की बाड़ आ रही है , ऐसी माता 
यशोदा घर को लीपकर दही को मथने लगी । तब और सब गोपांगनाए तथा सखियाँ मिलकर गोविन्द , दामोदर , माधव , इस पद का गान करने लगीं

क्वचित् प्रभाते दधि-पूर्ण-पात्रे निक्षिप्य मन्थं युवती मुकुन्दम् ।
आलोक्य गानं विविधं करोति गोविन्द दामोदर माधवेति ।।

किसी दिन प्रातः काल ज्यों ही माता यशोदा दही भरे भांडे मे मथानी को छोड़कर उठी त्यों ही उसकी 
दृष्टि शैया पर बैठे हुए मनमोहन मुकुंद पर पड़ी । सरकार को देखते ही वह प्रेम से पगली हो गयी । और मेरा गोविन्द , मेरा माधव , मेरा मुरारी ऐसा कहकर तरह तरह से गाने लगी.



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