Friday, March 15, 2019

संक्षिप्त ब्रह्म पुराण

पाताल वर्णन
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पृथ्वी के भीतर सात तल हैं

अतल काली
वितल सफ़ेद
नितल लाल
सुतल         पीली
तलातल कंकरीली
रसातल पथरीली
पाताल  सुवर्णमयी

सब पातालों के नीचे भगवान् विष्णु का तमोमय विग्रह, शेषनाग है । उन्ही नागश्रेष्ठ ने इस पृथ्वी को धारण कर रखा है
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अदिति के गर्भ से सूर्य(मार्तण्ड) अवतार का वर्णन 
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मुनियों ने पूछा: भगवन ! आपने भगवान् सूर्य को निर्गुण और सनातन देवता बतलाया है; फिर आपके ही मुंह से हमने यह भी सुना है कि वे बारह स्वरूपों में प्रकट हुए । वे तेज की राशि और महान तेजस्वी होकर किसी स्त्री के गर्भ में कैसे प्रकट हुए, इस विषय में हमें बड़ा संदेह है ।

ब्रह्माजी बोले: प्रजापति दक्ष के साथ कन्याएं हुई जो श्रेष्ठ और सुंदरी थीं । उनमें से, अदिति से देवता, दिति से दैत्य और दनु से बलाभिमानी दानव हुए । देवता सात्विक हैं और उनके अतिरिक्त दैत्य आदि राजस और तामस हैं । देवताओं को यज्ञ का भागी बनाया गया है परन्तु दैत्य और दानव उनसे शत्रुता रखते थे सो मिलकर देवताओं को कष्ट पहुंचाने लगे । जब अदिति ने देखा की दैत्यों और दानवों ने मेरे पुत्रों को अपने स्थान से हटा दिया है और साड़ी त्रिलोकी नष्टप्राय कर दी । तब उन्हीने सूर्य की आराधना करने का महान प्रयत्न किया । वे नियमित आहार करके कठोर नियम का पालन करती हुई, एकाग्रचित्त हो आकाश में स्थित तेजोराशि भगवान् भास्कर का स्तवन करने लगीं और इस प्रकार बहुत दिनों तक आराधना करने पर भगवान् सूर्य ने दक्षकन्या को अपने दर्शन दिए ।

अदिति बोली: देव ! आप प्रसन्न हों । अधिक बलवान दैत्यों और दानवों ने मेरे पुत्रों के हाथ से त्रिलोकी राज्य और यञभाग छीन लिए हैं । गोपते ! अपने अंश से मेरे पुत्रों के भाई होकर आप उनके शत्रुओं का नाश करें ।

भगवान् सूर्य ने कहा: देवी ! मैं अपने हज़ारवें अंश से तुम्हारे गर्भ का बालक होकर प्रकट होऊंगा और तुम्हारे पुत्र के शत्रुओं का नाश करूँगा

तत्पश्चात भगवान् सूर्य ने वर्ष के अन्त में अदिति के गर्भ में निवास किया । उस समय देवी अदिति ने, यह सोचकर कि मैं पवित्रतापूर्वक ही इस दिव्य गर्भ को धारण करूंगी, एकाग्रचित्त हो कृच्छ्र और चांद्रायण आदि व्रतों का पालन करने लगीं ।  उनका यह कठोर नियम देखकर कश्यप जी ने कुपित होकर कहा - "तू नित्य उपवास करके गर्भ के बच्चे को क्यों मारे डालती है।" तब वे भी रुष्ट होकर बोलीं - "देखिये, यह रहा गर्भ का बच्चा । मैंने इसे नहीं मारा है, यही अपने शत्रुओं को मारने वाला होगा ।" यों कहकर देवमाता ने उस गर्भ का प्रसव किया । वह उदयकालीन सूर्य के समान तेजस्वी अण्डाकार गर्भ सहसा प्रकाशित हो उठा । इसी समय अंतरिक्ष से कश्यप मुनि को सम्बोधित करके सजल मेघ के समान गंभीर स्वर में आकाशवाणी हुई । - "मुने ! तुमने अदिति से कहा था - 'त्वया मारितम् अण्डम्'(तूने गर्भ के बच्चे को मार डाला), इसलिए तुम्हारा यह पुत्र मार्तण्ड के नाम से विख्यात होगा और यञभाग का अपहरण करनेवाले अपने शत्रुभूत असुरों का संहार करेगा ।"

तत्पश्चात देवताओं सहित इन्द्र ने दैत्यों को युद्ध के लिए ललकारा । उस समय देवताओं और असुरों में बड़ा भयानक युद्ध हुआ । उस युद्ध में मार्तण्ड ने दैत्यों की ओर देखा, अतः वे सभी महान असुर उनके तेज से जलकर भस्म हो गए । तदनन्तर देवताओं को पूर्ववत अपने अपने अधिकार और यज्ञभाग प्राप्त हो गए । भगवान् मार्तण्ड भी अपने अधिकार का पालन करने लगे । ऊपर और नीचे सब ओर किरणे फैली होने से भगवान् सूर्य कदम्बपुष्प की भान्ति शोभा पाते थे । वे आग में तपाये हुए गोले के सदृश दिखाई देते थे । उनका विग्रह अधिक स्पष्ट नहीं जान पड़ता था ।

पैशाचतीर्थ माहात्म्य(हनुमान और अद्रि का जन्म)
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ब्रह्मा जी कहते हैं: मुनिश्रेष्ठ नारद ! ब्रह्मगिरि के पार्श्वभाग में अञ्जन नाम से प्रसिद्ध एक पर्वत है। वहां एक सुंदरी अप्सरा शापभ्रष्ट होकर उत्पन्न हुई । उसका नाम अञ्जना था। उसके सब अंग बहुत सुन्दर थे, किन्तु मुंह वानरी का था । केसरी नामक श्रेष्ठ वानर अञ्जना के पति थे। केसरी के एक दूसरी भी स्त्री थी, जिसका नाम अद्रिका था । वह भी शापभ्रष्ट अप्सरा ही थी । उसके भी सब अंग सुन्दर थे । किन्तु मुंह बिल्ली के समान था । अद्रिका भी अञ्जन पर्वत पर ही रहती थी । एक समय केसरी दक्षिणसमुद्र के तट पर गए थे । इसी बीच में महर्षि अगस्त्य अञ्जन पर्वत पर आये। अञ्जना और अद्रिका दोनों ने महर्षि का यथोचित पूजन किया ।  इससे प्रसन्न होकर महर्षि ने कहा - 'तुम दोनों वर मांगो।' वे बोलीं - 'मुनीश्वर ! हमें ऐसे पुत्र दीजिये, जो बलवान, श्रेष्ठ और सबका उपकार करने वाले हों।' 'तथास्तु' कहकर मुनिश्रेष्ठ अगस्त्य दक्षिण दिशा में चले गए । कुछ काल के बाद अञ्जना ने वायु के अंश से हनुमानजी को जन्म दिया और अद्रिका के गर्भ से निऋति के अंश से पिशाचो का राजा अद्री उत्पन्न हुआ । इसके बाद उन दोनों स्त्रियों ने उक्त देवताओं से कहा - 'हमें मुनि के वरदान से पुत्र तो प्राप्त हुए, किन्तु इन्द्र के शाप से हमारा मुख कुरुप होने के कारण सारा शरीर ही विकृत हो गया है। इसे दूर करने के लिए हम क्या उपाय करें - इसे आप दोनों बायतें।' तब भगवान् वायु और निऋति ने कहा - 'गोदावरी में स्नान और दान करने से तुम्हें शाप से छुटकारा मिल जायेगा।' यों कहकर वे दोनों वहीँ अन्तर्धान हो गए। तब पिशाचरूपधारी अद्री ने अपने भाई हनुमानजी को प्रसन्न करने के लिए माता अञ्जना को लाकर गोदावरी में नहलाया ।  इसी प्रकार हनुमानजी भी अद्रिका को लेकर बड़ी उतावली के साथ गौतमी गंगा के तट पर आये। तबसे वह पैशाच और आञ्जनतीर्थ के नाम से विख्यात हुआ।


कर्म और अकर्म से मुक्ति साधन 
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जनक कहते हैं: 'द्विजश्रेष्ठ ! (याज्ञवल्क्य, उनके पुरोहित) बड़े बड़े मुनियों ने यह निर्जन किया है कि भोग और मोक्ष दोनों श्रेष्ठ हैं; अंतर इतना ही है कि भोग अन्त में विरस हो जाता है और मुक्ति नित्य और निर्विकार है ।
 अतः भोग से भी मुक्ति को ही श्रेष्ठ माना गया है। आप बताएं, भोग से भी मुक्ति कि प्राप्ति कैसे होती है? सब प्रकार कि आसक्तियों का त्याग करने से जो मुक्ति प्राप्त होती है, वह तो अत्यन्त दुःखसाध्य है; अतः जिस उपाय से अत्यन्त सुखपूर्वक मुक्ति हो सके, वह बताइये।'
याज्ञवल्क्य बोले: राजन ! साक्षात् भगवान् वरुण तुम्हारे गुरुजन, श्वसुर और हितकारी हैं । उन्ही के पास चलकर पूछो । वे तुम्हें हित का उपदेश देंगे ।
तदनन्तर याज्ञवल्क्य और जनक दोनों राजा वरुण के पास गए और वहां उन्होंने मुक्ति का मार्ग पूछा।
वरुण ने कहा: दो प्रकार से मुक्ति प्राप्त होती है - एक तो कर्म करने से और एक कर्म न करने से । वेद में यह मार्ग निश्चित किया गया है कि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष - ये चारों पुरुषार्थ कर्म से बंधे हुए हैं । नृपश्रेष्ठ ! कर्मद्वारा सब प्रकार के साध्यों की सिद्धि होती है, इसलिए मनुष्यों को सब तरह से वैदिक कर्म का अनुष्ठान करना चाहिए । इससे वे इस लोक में भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त करते हैं ।

अकर्मणः कर्म पुण्यं कर्म चाप्याश्रमेषु च। जात्याश्रितं च राजेन्द्र तत्रापि श्रुणु धर्मवित् ।।
आश्रमाणि च चत्वारि कर्मद्वाराणि मानदः। चतुर्णामाश्रमाणाम् च गार्हस्थ्यं पुण्यदम् स्मृतम्।।
ब्र पु ८८।१३-१५

अकर्म से कर्म पवित्र है । कर्म भिन्न-भिन्न आश्रमों और वर्णो के अनुसार अनेक प्रकार के होते हैं। वर्णो और आश्रमों में भी चार आश्रम कर्म के द्वारा माने गए हैं । उनमें भी गृहस्थाश्रम अधिक पुण्यदायक है । उससे भोग और मोक्ष दोनों प्राप्त हो सकते हैं यही मेरा मत है ।
*गृहस्थ आश्रम में भोग की प्राप्ति तो स्वाभाविक है और मोक्ष की प्राप्ति निष्काम धर्म का अनुष्ठान करने से होती है।

शुक्राचार्य का मृतसंजीवनी शिक्षा ग्रहण करना (शुक्रतीर्थ)
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अङ्गिरा और भृगु - ये दो परम धर्मात्मा ऋषि हुए हैं । इन दोनों के दो पुत्र हुए, जो बड़े ही विद्वान् और रूप तथा बुद्धि से सुशोभित थे । अङ्गिरा के पुत्र का नाम था जीव और भृगु के पुत्र का नाम था कवि(शुक्र)। ये दोनों अपने माता पिता के अधीन रहते थे । जब दोनों का यज्ञोपवीत संस्कार हो गया, तब उनके पिता परस्पर कहने लगे - 'हम दोनों में से एक ही इन दोंनो पुत्रों का शिक्षक हो । इससे एक ही शासन करेगा और दूसरा सुख से बैठा रहेगा।' यह सुनकर अङ्गिरा ने कहा - 'मैं कवि को भी अपने पुत्र के समान ही पढ़ाऊंगा । वह सुख पूर्वक मेरे यहाँ रहे।
अङ्गिरा की बात सुनकर भृगु ने कहा - 'ठीक है' और उन्होंने अपने पुत्र शुक्र को अङ्गिरा की सेवा में सौंप दिया । परन्तु अङ्गिरा उन दोनों बालकों में विषम बुद्धि रखते थे । इसलिए दोनों को पृथक-पृथक पढ़ाते थे । बहुत दिनों तक किसी प्रकार चलता रहा, तब एक दिन शुक्र ने कहा - 'गुरुदेव ! आप मुझे प्रतिदिन विषमभाव से पढ़ाते हैं । गुरुओं के लिए यह उचित नहीं कि वे पुत्र और शिष्य में भेदभाव समझें । जो लोग विषम बुद्धि रखते हैं, उनके पाप की कोई गणना नहीं है । आचार्य ! अब मैंने आपको अच्छी तरह समझ लिया । आपको बारम्बार नमस्कार करता हूँ । अब दुसरे किसी गुरु के यहाँ जाऊँगा । मुझे जाने की आज्ञा दीजिये ।
इस प्रकार गुरु और बृहस्पति से पूछकर उनकी आज्ञा ले शुक्र चले गए । उन्होंने सोचा अब पूर्ण विद्या प्राप्त करके ही पिता के पास चलूँ। किन्तु किससे पूछूं, कौन सबसे श्रेष्ठ गुरु हो सकता है ? इन्हीं सब बातों का विचार करते हुए शुक्र ने महाप्राज्ञ गौतम के पास जाकर पूछा - 'मुनिश्रेष्ठ ! बताइये, कौन मेरा गुरु हो सकता है ? जो तीनो लोकों का गुरु हो, उसी के पास मैं जाऊंगा ।'

गौतम ने कहा: जगद्गुरु भगवान शङ्कर ही गुरु होने योग्य हैं ।

शुक्र ने पूछा: मैं कहाँ रहकर शङ्कर जी की आराधना करूँ ?

गौतम बोले: गौतमी गंगा में स्नान करके पवित्र हो स्तोत्रों द्वारा भगवान् शङ्कर को संतुष्ट करो ।

शुक्र के स्तुति करने पर भगवान् शङ्कर ने प्रसन्न होकर बोले - 'वत्स ! तुम्हारा कल्याण हो । तुम  इच्छानुसार वर मांगो, भले ही वह देवताओं के लिए भी दुरलभ क्यों न हो।' उदारबुद्धि कवि ने भी हाथ जोड़कर कहा - 'नाथ ! ब्रह्मा आदि देवताओं और ऋषिओं को भी जो विद्या नहीं प्राप्त हुई हो, उसके लिए मैं याचना करता हूँ । आप ही मेरे गुरु और देवता हैं ।'

ब्रह्मा जी कहते हैं: शुक्र ने जब इस प्रकार प्रार्थना की, तब देवश्रेष्ठ भगवान् शिव ने उन्हें मृतसंजीवनी विद्या प्रदान की, जिसका ज्ञान देवताओं को भी नहीं था ।  साथ ही उन्हनोने लौकिक, वैदिकी तथा अन्यान्य विद्याएं भी दीं। वह महाविद्या पाकर शुक्र अपने पिता और गुरु के पास गए ।
 अपनी विद्या से पूजित होकर वे दैत्यों के गुरु हुए। किसी समय बृहस्पति के पुत्र कच ने शुक्राचार्य से मृतसंजीवनी विद्या प्राप्त की । कच से बृहस्पति ने और बृहस्पति से पृथक पृथक देवताओं ने उस विद्या को ग्रहण किया । गौतमी के उस तट पर, जहाँ भगवान् महेश्वर की आराधना करके शुक्र ने विद्या पायी थी, वह स्थान शुक्रतीर्थ कहलाता है।


अपरब्रह्म तथा परब्रह्म 
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आपस्तम्ब ने पूछा: मुनिवर ! तीनो देवताओं में कौन पूज्य हैं? अनादि और अनन्त कौन हैं तथा वेदों में किसका यशोगान किया गया है? महामुने ! मेरा संशय दूर करने के लिए उपदेश करें।
अगस्त्यजी बोले: धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि में शब्द प्रमाण बताया जाता है उसमें भी वैदिक शब्द सबसे श्रेष्ट प्रमाण है वेद के द्वारा जिनका यशोगान होता है, वे परात्पर पुरुष परमात्मा हैं । जो मृत्यु के अधीन होता है, उसे अपर (क्षर पुरुष) जानना चाहिए और जो अमृत है, उसे पर (अक्षर पुरुष) कहते हैं। अमृत के भी दो रूप हैं - मूर्त और अमूर्त। जो अमूर्त(निराकार) है, उसे परब्रह्म जानना चाहिए और मूर्त को अपर ब्रह्म कहते हैं । गुणों की व्यापकता के अनुसार मूर्त के भी तीन भेद हैं - ब्रह्मा, विष्णु और शिव । ये एक होते हुए भी तीन कहलाते हैं । इन तीन देवताओं का भी वेद्यतत्व एक ही है । उसे ही परब्रह्म कहते हैं । गुण और कर्म के भेद से एक की ही अनेक रूपों से अभिव्यक्ति होती है । लोकों का उपकार करने के लिए एक ही ब्रह्म के तीन रूप हो जाते हैं । जो इस परमतत्व को जानता है, वही विद्वान् है, दूसरा नहीं । जो इन तीनो में भेद बतलाता है, उसे लिंगभेदी कहते हैं । उसके लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं है ।

क्षर-अक्षर तथा योग और सांख्य का वर्णन 
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करालजनक ने कहा: मुनिश्रेष्ठ ! क्षर और अक्षर(प्रकृति और पुरुष) दोनों का सम्बन्ध तो पति और पत्नी के सम्बन्ध की भांति स्थिर जान पड़ता है । जैसे पुरुष के बिना स्त्री और स्त्री के बिना पुरुष संतान उत्पन्न नहीं कर सकते, उसी तरह प्रकृति और पुरुष भी सदा एक-दुसरे से संयुक्त होकर ही सृष्टि करते हैं । ऐसी दशा में पुरुष का मोक्ष असम्भव जान पड़ता है । यदि मोक्ष के निकट पहुँचनेवाला(उसके स्पष्टरूप का बोध करानेवाला) कोई दृष्टान्त हो तो बताइये; क्योंकि आपको सबकुछ प्रत्यक्ष है ।

वशिष्ठ जी बोले: राजन ! तुम्हारा कहना ठीक है, तुमने वेद और शास्त्रों की दृष्टान्त देकर अपना प्रश्न उपस्थित किया है तथापि अभी ग्रन्थ का यथार्थ तत्व तुम्हारे समझ में नहीं आया है । जो वेद और शास्त्रों के ग्रन्थ को रट लेता है किन्तु उसके तत्व को नहीं समझता, उसका वह रटना व्यर्थ है । जो याद किये हुए ग्रन्थ का अर्थ नहीं जानता, वह तो केवल उसका बोझ ढोता है ।
इसलिए महाराज ! सांख्य और योग के ज्ञाता महात्मा पुरुषों के मत में मोक्ष का जैसा स्वरुप देखा जाता है, उसे मैं यथार्थरूप से बतलाता हूँ; सुनो । योगी जिस तत्व का साक्षात्कार करते हैं, सांख्य विद्वान् भी उसी का ज्ञान प्राप्त करते हैं । जो सांख्य और योग को एक समझता है, वही बुद्धिमान है । जैसे बीज से बीज की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार द्रव्य से द्रव्य, इन्द्रिय से इन्द्रिय और देह से देह की प्राप्ति होती है । परन्तु परमात्मा तो इन्द्रिय, बीज, द्रव्य और देह से रहित और निर्गुण है; अतः उसमें गुण कैसे हो सकते हैं । जैसे आकाश आदि गुण, सत्वादि गुणों से उत्पन्न होते हैं और उन्ही में लीन हो जाते हैं, उसी प्रकार सत्वादि गुण भी प्रकृति से उत्पन्न होकर उसी में लीन हो जाते हैं । आत्मा जो जन्म-मृत्यु से रहित, अनन्त, सबका दृष्टा एवं अद्वितीय है । वह सत्वादि गुणों में केवल आत्माभिमान करने के कारण ही गुणस्वरूप कहलाता है । गुण तो गुणवान में ही रहते हैं, निर्गुण आत्मा में गुण कैसे रह सकते हैं । अतः गुणों के स्वरुप को जाननेवाले विद्वान् पुरुष ऐसा मानते हैं कि जब जीवात्मा इन प्राकृत गुणों में अपनेपन का अभिमान करता है, उस समय वह गुणवान सा ही होकर भिन्न-भिन्न गुणों को देखता है । किन्तु जब उस अभिमान को छोड़ देता है, उस समय देहादि में आत्मबुद्धि का परित्याग करके अपने विशुद्ध परमात्मस्वरूप का साक्षात्कार करता है । उस परमात्मा को बुद्धि आदि से परे सांख्ययोगस्वरुप बताया गया है । वह सत्वादि गुणों से रहित, अव्यक्त, ईश्वर(नियामक), निर्गुण, नित्य तथा प्रकृति और उसके गुणों को अधिष्ठाता पच्चीसवां तत्व है । यह सांख्य और योग में कुशल एवं परम तत्व की खोज करनेवाले विद्वानों का कथन है । इस प्रकार परस्पर सम्बन्ध रखनेवाले क्षर-अक्षर(प्रकृति-पुरुष) का स्वरुप बताया गया । सदा एक रूप में रहनेवाला परमात्मा, अक्षर है और नाना रूपों में प्रतीत होनेवाला प्राकृत जगत, क्षर कहलाता है । सारांश यह कि एकत्व ही अक्षर है और नानात्व को ही क्षर कहते हैं । जब जीवात्मा पच्चीसवें तत्व, परमात्मा में स्थित हो जाता है, उस समय उसकी सम्यक स्थिति बताई जाती है । एकत्व और नानात्व, दोनों रूपों में उस परमात्मा का ही दर्शन होता है । तत्ववेत्ता पुरुष एकत्व और नानात्व, दोनों के पार्थक्य को भलीभांति जानता है । मनीषी पुरुष तत्वों कि संख्या पच्चीस बतलाते हैं; परन्तु उसमें पच्चीसवां तत्व परमात्मा है, जो तत्वों से विलक्षण है ।

राजन ! योगी का प्रधान कर्तव्य है ध्यान; ध्यान ही योगियों का सबसे बड़ा बल है। योगविद्या के ज्ञाता विद्वान पुरुष मन की एकाग्रता और प्राणायाम - ये ध्यान के दो भेद बतलाते हैं । योगी को सब प्रकार की आसक्तियों का त्याग करके मिताहारी और जितेन्द्रिय होना चाहिए । वह रात्रि के पहले और पिछले भाग में मन को परमात्मा में लगाकर अन्तः करण में उनका ध्यान करे । मिथिलेश्वर ! सम्पूर्ण इन्द्रियों को मन के द्वारा स्थिर करके मन को भी बुद्धि में स्थापित कर दे और पत्थर की भांति अविचल हो जाये, तभी उसे योगयुक्त कहते हैं । जिस समय उसे सुनने, सूंघने, स्वाद लेने, देखने और स्पर्श करने का भी भान नहीं रहता, जब मन में किसी प्रकार का संकल्प नहीं उठता तथा वह काठ की भांति स्थिर होकर किसी भी वस्तु का अभिमान या सुध-बुध नहीं रखता, उस समय मनीषी पुरुष उसे अपने स्वरुप को प्राप्त 'योगयुक्त' कहते हैं । ध्याननिष्ठ योगी को अपने ह्रदय में धूम्रहित अग्नि, किरणमलाओं से मण्डित सूर्य तथा विद्युत् के प्रकाश की भांति तेजस्वी आत्मा का साक्षात्कार होता है । धैर्यवान, मनीषी, वेदवेत्ता और महात्मा ब्राह्मण ही उस अजन्मा और अमृतस्वरुप ब्रह्म का दर्शन कर पाते हैं। वह ब्रह्म अणु से भी अणु और महान से भी महान कहा गया है । सर्वत्र सम्पूर्ण भूतों में स्थित होते हुए भी वह किसी को दिखाई नहीं देता । वेदों के पारगामी तत्वज्ञ विद्वानो ने उसे तम से दूर - अज्ञानान्धकार से परे बताया है । वह निर्मल एवं लिङ्गरहित है । यही योगियों का योग है । इसके सिवा योग का और क्या लक्षण हो सकता है । इस प्रकार साधना करनेवाला योगी सबके सृष्टा, अजर-अमर परमात्मा का दर्शन करता है । यहाँ तक मैंने तुम्हें योग-दर्शन का यथार्थस्वरूप बतलाया ।


अब सांख्य का वर्णन करता हूँ, यह विचार-प्रधान दर्शन है । राजन ! प्रकृतिवादी विद्वान मूल प्रकृति को अव्यक्त कहते हैं । उससे दूसरा तत्व प्रकट हुआ जो 'महत्तत्व' कहलाता है । महत्तत्व से अहंकार नामक तीसरे तत्व की उत्पत्ति सुनी गयी है । सांख्य-दर्शन के ज्ञाता विद्वान अहंकार से सूक्ष्म भूतों का - पञ्च-तन्मात्रों का प्रादुर्भाव बताते हैं । इन आठों को प्रकृति कहते हैं; इनसे सोलह तत्वों की उत्पत्ति होती है, जो 'विकृति' कहलाते हैं । पांच ज्ञानेंद्रियां, पांच कर्मेन्द्रिय, ग्यारहवां मन तथा पांच स्थूलभूत - ये ही सोलह विकार हैं । ये प्रकृति और विकृति मिलकर चौबीस तत्व होते हैं । सांख्य-दर्शन में तत्वों की इतनी ही संख्या मानी गयी है । सांख्यमार्ग पर स्थित और सांख्यविधि के ज्ञाता मनीषी पुरुष ऐसा ही कहते हैं । जो तत्व जिससे उत्पन्न होता है, उसका उसी में लय भी होता है । प्रकृति, परमात्मा के संनिधान से अनुलोम क्रम के अनुसार तत्वों की रचना करती है अर्थात प्रकृति से महत्तत्व,  महत्तत्व से अहंकार तथा अहंकार से सूक्ष्म भूत आदि के क्रम से सृष्टि होती है; किन्तु उसका संहार विलोम क्रम से होता है। पृथ्वी का जलमें, जल का तेज में और तेज का वायु में लय होता है; इसी प्रकार सभी तत्व अपने-अपने कारण में लीन होते हैं । जैसे समुद्र से उठी हुई लहरें फिर उसी में शांत हो जाती हैं, उसी प्रकार सम्पूर्ण तत्व अनुलोम क्रम से उत्पन्न होकर विलोमक्रम से लीन होते हैं । नृपश्रेष्ठ इस प्रकृति से ही जगत की उत्पत्ति और उसी में उसका लय होता है । प्रलयकाल में तो वह एक रूप में रहती है और सृष्टि के समय नाना रूप धारण करती है । ज्ञान-निपुण पुरुषों को इसी प्रकार प्रकृति के एकत्व और नानात्व का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए ।
प्रकृति का अधिष्ठाता जो अव्यक्त आत्मा है, उसके विषय में भी यही बात है । वह भी प्रकृति से सम्बन्ध रखने पर एकत्व और नानात्व को प्राप्त होता है । प्रलयकाल में तो वह भी एक रूप में ही रहता है, किन्तु सृष्टि के समय प्रकृति को प्रेरित करने के कारण उसकी ही अनेकता से वह स्वयं भी अनेक सा प्रतीत होता है । परमात्मा ही प्रकृति को प्रसव के लिए उन्मुख करके उसे अनेक रूपों में परिणत करता है । प्रकृति और उसके विकारों को क्षेत्र कहते हैं । चौबीस तत्वों से भिन्न जो पच्चीसवां तत्व महान आत्मा है, वही उस क्षेत्र में अधिष्ठाता रूप में निवास करता है । वह क्षेत्र को जानता है, इसलिए क्षेत्रज्ञ कहलाता है । क्षेत्रज्ञ, प्रकृतिजनित पुर(शरीर) में शयन करता है, इसलिए उसे पुरुष कहते हैं । वास्तव में क्षेत्र अन्य वस्तु है और क्षेत्रज्ञ अन्य। क्षेत्र अव्यक्त(प्रकृति) है और क्षेत्रज्ञ उसका ज्ञाता पच्चीसवां तत्व परमात्मा है । जब पुरुष अपने को प्रकृति से भिन्न जान लेता है, उस समय वह अद्वितीय परमात्मरूप से स्थित होता है । इस प्रकार मैंने तुम्हें सम्यग दर्शन(सांख्य) का यथार्थ वर्णन किया ।

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कन्यापुत्रमहीबाजिगवां विक्रयकारिणः। 
नरकांत निवर्तन्ते यावदाभूतसंप्लवम।।
ब्र पु १५०।9

ब्रह्मा नारदजी से कहते हैं: नारद ! सुयज्ञ के पुत्र अजीगर्ति एक विख्यात ब्राह्मण थे। एक समय अकाल पड़ने पर कुटुम्ब-पालन के भार से दुखित एवं पीड़ित होकर उन्होंने अपने मंझले पुत्र, शुनःशेप को वध के लिए क्षत्रिय के हाथ बेच दिया । उसके बदले में अजीगर्ति को बहुत धन मिला । शुनःशेप ब्रह्मवेत्ताओं में श्रेष्ठ था । ऐसे पुत्र को भी अजीगर्ति ने धन के लोभ से बेच डाला । आपत्ति पड़ने पर विद्वान् पुरुष कौन सा पाप नहीं कर डालता । समय आने पर अजीगर्ति की मृत्यु हुई और वे नरक में डाले गए । क्योंकि इस लोक में पूर्वजन्म के किये हुए पापों का भोग किये बिना क्षय नहीं होता । अनेक पाप-योनियों में पड़ने के पश्चात अजीगर्ति भयंकर आकार वाले पिशाच हुए । उन्हें निर्जल और निर्जन वन में सूखे काठ पर रहना पड़ता था । गर्मी में जहाँ दावानल फैल जाता, वहीँ यमराज के दूत उस प्रेत को डाल देते । कन्या, पुत्र, पृथ्वी, अश्व तथा गौवों का विक्रय करने वाले मनुष्य महाप्रलय काल तक नरक से छुटकारा नहीं पाते ।

धर्म की हानि 
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नारद जी ने कहा: भगवन ! आप धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के ज्ञाता और उपदेशक हैं । अतः आप बताइये - तीर्थ, दान, यज्ञ, तप, देव पूजन, मन्त्र जप और सेवा में श्रेष्ठ क्या है?

ब्रह्मा जी बोले: नारद ! सुनो, मैं रहस्यमय उत्तम धर्म का वर्णन करता हूँ । चार प्रकार के तीर्थ हैं, चार ही युग हैं। तीन गुण, तीन पुरुष और तीन ही सनातन देवता हैं। स्मृतियों सहित वेद चार बताये गए हैं । पुरुषार्थ भी चार ही है और वाणी के भी चार ही भेद हैं । ये सब समान हैं, धर्म सर्वत्र एक ही है । क्योंकि वह सनातन है । साध्य और साधन के भेद से उसके अनेक रूप माने गए हैं । धर्म के दो आश्रय हैं, देश और काल । काल के आश्रित जो धर्म है, वह सदा घटता-बढ़ता रहता है । युगों के अनुसार उसमें एक एक चरण की न्यूनता होती जाती है । कालाश्रित धर्म भी देश में सदा प्रतिष्ठित रहता है । युगों का क्षय होने परे भी दशाश्रित धर्म की हानि नहीं होती । जो धर्म दोनों आश्रयों से हीन है, उसका अभाव हो जाता है । अतः देश के आश्रित रहने वाला धर्म अपने चारों चरण के साथ प्रतिष्ठित होता है । दशाश्रित धर्म भिन्न भिन्न देशों में तीर्थरूप से स्थित रहता है । सत्ययुग में धर्म, देश और काल दोनों के आश्रित होता है । त्रेता में उसके एक चरण की, द्वापर में दो चरणों की और कलि में तीन चरणों की हानि होती है । द्वापर और कलि में क्रमशः आधे और चौथाई रूप में शेष रहकर धर्म चालु रहता है । कलि में उसकी संकटमयी स्थिति होती है । जो इस प्रकार धर्म को जानता है, उसके धर्म की हानि नहीं होती ।

श्राद्ध कल्प (संक्षिप्त ब्रह्म पुराण, गीताप्रेस, पृष्ठ ३६० )
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मुनियों ने पूछा: भगवन ! अब श्राद्ध कल्प का विस्तार पूर्वक वर्णन कीजिये । तपोधन ! कब, कहाँ, किन देशों में और किन लोगों को किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए - यह बताने की कृपा करें ।

व्यास जी बोले: मुनिवरों ! सुनो, मैं श्राद्ध कल्प का विस्तार से वर्णन करता हूँ। जब जहाँ, जिन प्रदेशों में और जिन लोगों द्वारा जिस प्रकार श्राद्ध किया जाना चाहिए, वह सब बतलाता हूँ । अपने कुलोचित धर्म का पालन करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों को उचित है कि वे अपने अपने वर्ण के अनुरूप वेदोक्त विधि से मंत्रोच्चारणपूर्वक श्राद्ध का अनुष्ठान करें । स्त्रियों और शूद्रों को ब्राह्मण की आज्ञा के अनुसार मंत्रोच्चारण के बिना ही विधिवत श्राद्ध करना चाहिए । उनके लिए अग्नि में होम आदि वर्जित है । पुष्कर आदि तीर्थ, पवित्र मन्दिर, पर्वत शिखर, पावन प्रदेश, पुण्य सलिला नदी, नद, सरोवर, संगम, सात समुद्रों के तट, लिपे-पुते अपने घर, दिव्य वृक्षों के मूल और यज्ञ कुण्ड - ये सभी उत्तम स्थान हैं । इन सबमें श्राद्ध करना चाहिए ।

अब श्राद्ध के लिए वर्जित स्थान बतलाता हूँ । किरात(किलात), कलिङ्ग(उड़ीसा), कोंकण, कृमि, दशार्ण, कुमार्य, तंगण, क्रथ, सिन्धु नदी का उत्तर तट, नर्मदा का दक्षिण तट और करतोया का पूर्व तट - इन प्रदेशों में श्राद्ध नहीं करना चाहिए ।
प्रत्येक मास की पूर्णिमा तथा अमावस्या को श्राद्ध के लिए योग्य काल बताया गया है । नित्य श्राद्ध में विश्वेदेवों का पूजन नहीं होता । नैमित्तिक श्राद्ध विश्वेदेवों के पूजनपूर्वक होता है । नित्य, नैमित्तिक, काम्य - ये तीन प्रकार के श्राद्ध माने गए हैं । इन तीरों का प्रतिवर्ष अनुष्ठान करना चाहिए । जातकर्म आदि संस्कारों के अवसर पर आभ्युदयिक श्राद्ध भी करना उचित है। उसमें युग्म ब्राह्मणो को निमंत्रित करने का विधान है । आभ्युदयिक श्राद्ध माता से आरम्भ होता है । जब सूर्य कन्या राशि पर जाते हैं, तब कृष्ण पक्ष के पंद्रह दिनों तक परवान की विधि से श्राद्ध करना चाहिए । प्रतिपदा को श्राद्ध करने से धन की प्राप्ति होती है । द्वितीय संतान देनेवाली है । तृतीया, पुत्रप्राप्ति की अभिलाषा पूर्ण करती है । चतुर्थी, शत्रु का नाश करने वाली है । पंचमी को श्राद्ध करने से मनुष्य लक्ष्मी को प्राप्त करता है । षष्ठी को श्राद्ध करने से वह पूज्य होता है । सप्तमी को गणो का आधिपत्य, अष्टमी को उत्तम बुद्धि, नौमी को स्त्री, दशमी को मनोरथ की पूर्णता और एकादशी को श्राद्ध करने से सम्पूर्ण वेदों को प्राप्त करता है । द्वादशी को पितरों की पूजा करने वाला मानव विजय-लाभ करता है । त्रयोदशी को श्राद्ध करनेवालाल संतान-वृद्धि, पशु, मेधा, स्वतंत्रता, उत्तम पुष्टि, दीर्घायु अथवा ऐश्वर्य का भागी होता है - इसमें तनिक भी संदेह नहीं है । जिसके पितर युवावस्था में ही मृत्यु को प्राप्त हुए अथवा शस्त्र द्वारा मारे गए हों, वह उन पितरों को तृप्त करने की इच्छा से चतुर्दशी तिथि को श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करें । जो परुष पवित्र होकर अमावस्या को यत्नपूर्वक श्राद्ध करता है, वह सम्पूर्ण कामनाओं तथा अक्षय स्वर्ग को प्राप्त होता है ।

मुनिवरों ! अब पितरों की प्रसन्नता के लिए जो जो वास्तु देनी चाहिए, उसका वर्णन सुनो । जो श्राद्धकर्म में गुड़मिश्रित अन्न, तिल, मधु अथवा मधुमिश्रित अन्न देता है, उसका वह सम्पूर्ण दान अक्षय होता है । पितर कहते हैं - 'क्या हमारे कुल में कोई ऐसा पुरुष होगा, जो हमें जलाञ्जलि देगा, वर्षा और मघा नक्षत्र में हमको मधुमिश्रित खीर अर्पण करेगा ? मनुष्यों को बहुत से पुत्रों की अभिलाषा करनी चाहिए । यदि उनमें से एक भी गया चला जाए अथवा कन्या विवाह करे या नील वृष का उत्सर्ग करे तो पित्रों को पूर्ण तृप्ति और उत्तम गति प्राप्त हो।' कृत्तिका नक्षत्र में पितरों की पूजा करने वाला मानव स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। संतान की इच्छा रखनेवाला पुरुष रोहिणी में श्राद्ध करे । मृगशिरा में श्राद्ध करने से मनुष्य तेजस्वी होता है । आर्द्रा में शौर्य और पुनर्वसु में स्त्री की प्राप्ति होती है; पुष्य में अक्षय धन, आश्लेषा में उत्तम आयु, मघा में संतान और पुष्टि तथा पूर्वफाल्गुनि में सौभाग्य की प्राप्ति होती है । अतः अक्षय फल की इच्छा रखने वाले पुरुष को कन्याराशि पर सूर्य के रहते उक्त तथा अन्य विभिन्न नक्षत्रों में काम्य श्राद्ध का अनुष्ठान करना चाहिए । सूर्या के कन्या राशि पर स्थित रहते मनुष्य जिन-जिन कामनाओं का चिंतन करते हुए श्राद्ध करते हैं, उन सबको प्राप्त कर लेते हैं । जब सूर्य कन्या राशि पर हों, तब नान्दीमुख पितरों का भी श्राद्ध करना चाहिए; क्योंकि उस समय सभी पितर पिण्ड पाने की इच्छा रखते हैं । जो राजसूय और अश्वमेध यज्ञों का दुर्लभ फल प्राप्त करना चाहता हो, उसे कन्याराशि पर सूर्य के रहते जल, शाक और मूल आदि से भी पितरों की पूजा अवश्य करनी चाहिए । उत्तरफाल्गुनी और हस्त नक्षत्रों पर सूर्यदेव के स्थित रहते जो भक्तिपूर्वक पितरों का पूजन करता है, उसका स्वर्गलोक में निवास होता है । उस समय यमराज की आज्ञा से पितरों की पुरी तब तक खाली रहती है जब तक कि सूर्य वृश्चिक राशि पर उपस्थित रहते हैं । वृश्चिक बीत जाने पर भी जब कोई श्राद्ध नहीं करता, तब देवताओं सहित पितर मनुष्य को दुःसह शाप देकर खेदपूर्वक लम्बी सांसे लेते हुए अपनी पुरी को लौट जाते हैं । अष्टका, मन्वन्तरा और अन्वष्टका तिथियों को भी श्राद्ध करना चाहिए । वह मात्रवर्ग से आरम्भ होता है ।
ग्रहण, व्यतिपात, एक राशि पर सूर्य और चन्द्रमा के संगम, जन्म नक्षत्र तथा ग्रहपीड़ा के अवसर पर पार्वण श्राद्ध करने का विधान है । दोनों अयनो के आरम्भ के दिन, दोनों विषुव, योगो के आने पर तथा प्रत्येक संक्रांति के दिन विधिपूर्वक उत्तम श्राद्ध करना चाहिए । इन दिनों पिण्डदान को छोड़कर शेष सभी श्राद्धसंबन्धी कार्य करने चाहिए । माता और पिता की मृत्यु के दिन प्रतिवर्ष एकोदृष्ट श्राद्ध करना चाहिए । यदि पिता के भाई अथवा अपने बड़े भाई की मृत्यु हो गयी हो और उनके कोई पुत्र नहीं हो तो उनके लिए भी निधन तिथि को प्रतिवर्ष एकोदृष्ट श्राद्ध करना उचित है । पार्वण श्राद्ध में पहले विश्वेदेवों का आह्वान और पूजन होता है । किन्तु एकोदृष्ट में ऐसा नहीं होता । देवकार्य में दो और पितृकार्य में तीन ब्राह्मणो को निमंत्रित करना चाहिए अथवा दोनों में एक-एक ब्राह्मण ही निमंत्रित करें । इसी प्रकार मातामहों के श्राद्धकार्य भी समझने चाहिए ।

जो हाल का मरा हो, उसके लिए सदा बाहर जल के समीप पृथ्वी पर तिल और कुशसहित पिण्ड और जल देना चाहिए । मृत्यु के तीसरे दिन प्रेत का अस्थि-चयन करना उचित है । घर में किसी की मृत्यु होने पर ब्राह्मण दस दिनों में, क्षत्रिय बारह दिनों में, वैश्य पंद्रह दिनों में और शूद्र एक मास में शुद्ध होता है । सूतक निवृत्त हो जाने पर घर में एकोदृष्ट श्राद्ध करना बताया गया है । बारहवें दिन, एक मास पर, डेढ़ मास पर तथा उसके बाद प्रतिमास एक वर्ष तक श्राद्ध करना चाहिए । वर्ष बीतने पर सपिण्डीकरण श्राद्ध करना उचित है । सपिण्डीकरण हो जाने पर उसके लिए पार्वण श्राद्ध का विधान है । सपिण्डीकरण के बाद मृत व्यक्ति प्रेतभाव से मुक्त होकर पितरों के स्वरुप को प्राप्त होते हैं । पितर दो प्रकार के हैं - मूर्त और अमूर्त । नान्दीमुख नामवाले पितर मूर्तिमान बताये गए हैं । एकोदृष्ट श्राद्ध ग्रहण करने वाले पितरों की 'प्रेत' संज्ञा है । इस प्रकार पितरों के तीन भेद स्वीकार किये गए हैं ।

मुनियों ने पूछा: द्विजश्रेष्ठ ! मरे हुए पिता आदि का सपिण्डीकरण श्राद्ध कैसे करना चाहिए ? यह हमें विधिपूर्वक बताइये ।

व्यास जी बोले: ब्राह्मणो ! मैं सपिण्डीकरण श्राद्ध की विधि बतलाता हूँ, सुनो । सपिण्डीकरण श्राद्ध विश्वेदेवों की पूजा से रहित होता है । इसमें एक ही अर्घ्य और एक ही पवित्रक का विधान है । अग्निकरण और आह्वान की क्रिया भी इसमें नहीं होती । सपिण्डीकरण में अपसव्य होकर अयुग्म ब्राह्मणो को भोजन कराना चाहिए । इसमें जो विशेष क्रिया है, उसका वर्णन करता हूँ; एकाग्रचित्त होकर सुनो। सपिण्डीकरण में तिल, चन्दन और जल से युक्त चार पात्र होते हैं । उनमें से तीन तो पितरों के लिए रखें और एक प्रेत के लिए । प्रेत के पात्र से अर्घ्य-जल लेकर 'ये समानाः समनसः' इत्यादि मंत्र का जप करते हुए पितरों के तीनो पात्रों में छोड़ना चाहिए । शेष कार्य अन्य श्राद्धों की भांति करने चाहिए । स्त्रियों के लिए भी इसी प्रकार एकोदृष्ट का विधान है । यदि पुत्र न हो तो स्त्रियों का सपिण्डीकरण नहीं होता । पुरुषों को उचित है कि वे स्त्रियों के लिए भी प्रतिवर्ष उनकी मृत्युतिथि को एकोदृष्ट श्राद्ध करें । पुत्र के अभाव में सपिण्ड और सपिण्ड के अभाव में सहोदक, इस विधि को पूर्ण करें । जिसके कोई पुत्र न हो, उसका श्राद्ध उसके दौहित्र(नाती) कर सकते हैं । पुत्रिका-विधि से ब्याही कन्या के पुत्र तो अपने नाना आदि का श्राद्ध करने के अधिकारी हैं ही । जिनकी द्वयामुष्यायण संज्ञा है, ऐसी पुत्र नाना और बाबा दोनों का नैमित्तिक श्राद्धों में भी विधिपूर्वक पूजन कर सकते हैं । कोई भी न हो तो स्त्रियां ही अपनी पतियों का मंत्रोच्चारण किये बिना श्राद्ध कर सकती हैं । वे भी न हो तो राजा मृतक के सजातीय मनुष्यों द्वारा दाह आदि समस्त क्रियाएं पूर्ण कराये; क्योंकि राजा सब वर्णो का बन्धु होता है ।

ब्राह्मणो ! सपिण्डीकरण के बाद पिता के जो प्रपितामह हैं, वे लेपभागभोजी पितरों की श्रेणी में चले जाते हैं । उन्हें पितृपिण्ड पाने का अधिकार नहं रहता । उनसे आरम्भ करके चार पीढ़ी ऊपर के पितर, जो पुत्र के लेपभाग का अन्न ग्रहण करते थे, उसके सम्बन्ध से रहित हो जाते हैं । अब उनको लेपभाग पाने का अधिकार नहीं रहता । वे सम्बन्धहीन अन्न का उपभोग करते हैं । पिता, पितामह, प्रपितामह - इन तीन पुरुषों को पिण्ड का अधिकारी समझना चाहिए । इनसे भिन्न अर्थात पितामह के पितामह से लेकर ऊपर के जो तीन पीढ़ी के पुरुष हैं, वे लेपभाग के अधिकारी हैं । इस प्रकार छः ये और सातवां यजमान - सब मिलकर सात पुरुषों का घनिष्ठ सम्बन्ध होता है - ऐसा मुनियों का कथन है । यह सम्बन्ध यजमान से लेकर ऊपर के लेपभागभोजी पितरों तक माना जाता है । इनसे ऊपर के सभी पितर पूर्वज कहलाते हैं । पूर्वजों में से जो नरक में निवास करते हैं, जो पशु-पक्षी की योनि में पड़े हैं तथा जो भूत आदि के रूप में स्थित हैं, उन सबको विधिपूर्वक श्राद्ध करनेवाला यजमान तृप्त करता है । जिसके जिसकी तृप्ति होती है, वह बतलाता हूँ ; सुनो । मनुष्य पृथ्वी पर जो अन्न बिखेरते हैं, उससे पिशाचयोनि में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । स्नान के वस्त्र से जो जल पृथ्वी पर टपकता है, उससे वृक्षयोनि में पड़े हुए पितर तृप्त होते हैं । नहाने पर अपने शरीर से जो जल के कण पृथ्वी पर गिरते हैं, उनसे उन पितरों की तृप्ति होती है जो देवभाव को प्राप्त हुए हैं । पिण्डो के उठाने पर जो जल के कण पृथ्वी पर गिरते हैं, उनसे पशु-पक्षी की योनि में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । कुल में जो बालक दांत निकलने से पहले दाह आदि कर्म के अनधिकारी रहकर मृत्यु को प्राप्त होते हैं, वे सम्मार्जन के जल का आहार करते हैं । ब्राह्मण लोग भोजन करके जो हाथ-मुंह धोते हैं और चरणों का प्रक्षालन करते हैं, उस जल से अन्यान्य पितरों की तृप्ति होती है । ब्राह्मणो ! इस प्रकार विधिपूर्वक श्राद्ध करनेवाले पुरुषों के पितर जो दूसरी-दूसरी योनियों में चले गए हैं, वे भी यजमान और ब्राह्मणो के हाथ से बिखरे हुए अन्न और जल के द्वारा पूर्ण तृप्त होते हैं । मनुष्य अन्यायोपार्जित धन से जो श्राद्ध करते हैं, उससे चाण्डाल आदि योनियों में पड़े हुए पितरों की तृप्ति होती है । इस प्रकार यहाँ श्राद्ध करनेवाले भाई-बंधुओं के द्वारा जो अन्न और जल पृथ्वी पर डाले जाते हैं, उनके द्वारा बहुत से पितर तृप्त होते हैं । अतः मनुष्य को उचित है कि वह पितरों के प्रति भक्ति रखते हुए शाकमात्र के द्वारा भी विधिपूर्वक श्राद्ध करे । श्राद्ध करनेवाले लोगों के कुल में कोई दुःख नहीं भोगता ।

श्रेष्ठ द्विजों को देवयज्ञ अथवा श्राद्ध में एक दिन पहले ही निमंत्रण देना चाहिए । उसी समय से ब्राह्मणो तथा श्राद्धकर्ता को भी संयम से रहना चाहिए । जो श्राद्ध में दान देकर अथवा भोजन करके मैथुन करता है, उसके पितर एक मास तक वीर्य में शयन करते हैं । जो स्त्री सहवास करके श्राद्ध करता अथवा श्राद्ध में भोजन करता है, उसके पितर उसके वीर्य और मूत्र का एक मास तक आहार करते हैं । इसलिए विद्वान् पुरुष को एक दिन पहले ही ब्राह्मणों के पास निमंत्रण भेजना चाहिए । यदि पहले दिन ब्राह्मण न मिल सकें तो श्राद्ध के दिन भी निमंत्रण किया जा सकता है । परन्तु स्त्री-प्रसङ्गी ब्राह्मणो को कदापि निमंत्रित न करें । यदि समय पर भिक्षा के लिए संयमी यति स्वयं पधारे हों तो उन्हें भी नमस्कार आदि के द्वारा प्रसन्न करके संयतचित्त से अवश्य भोजन कराएं । विद्वान् पुरुष श्राद्ध में योगियों को भी भोजन कराएं । क्योंकि पितरों का आधार योग है, अतः योगियों का सदा पूजन करना चाहिए । यदि हज़ारों ब्राह्मणों में एक भी योगी हो तो वह जल से नौका की भांति यजमान और श्राद्धभोजी ब्राह्मणो को भी तार देता है । इस विषय में ब्रह्मवादी विद्वान् पितरों की गायी हुई एक गाथा का गान करते हैं । पूर्वकाल में राजा पुरुरवा के पितरों ने उसका गान किया था । वह गाथा इस प्रकार है - 'हमारी वंश परम्परा में कब किसी को ऐसा श्रेष्ठ पुत्र प्राप्त होगा, जो योगियों को भोजन कराने से बचे हुए अन्न को लेकर पृथ्वी पर हमारे लिए पिण्ड देगा? अथवा गया में जाकर पिण्डदान करेगा । या हमारी तृप्ति के लिए सामयिक शाक,तिल , घी, और खिचड़ी देगा ? अथवा त्रयोदशी तिथि और मघा नक्षत्र में विधिपूर्वक श्राद्ध करेगा और दक्षिणायन में हमारे लिए मधु और घी से मिली हुई खीर देगा ?
श्राद्ध में तृप्त हुए पितर मनुष्यों के लिए वसु, रूद्र, आदित्य, नक्षत्र, ग्रह और तारों की प्रसन्नता का सम्पादन करते हैं । इतना ही नहीं वे आयु, प्रजा, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सुख तथा राज्य भी देते हैं । पितरों को पूर्वाह्न की अपेक्षा अपराह्न अधिक प्रिय है । घर पर आये हुए ब्राह्मणो का स्वागतपूर्वक पूजन करके उन्हें पवित्रयुक्त हाथ से आचमन कराने के पश्चात आसनों पर बिठाये; फिर विधिपूर्वक श्राद्ध करके उन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने के पश्चात भक्तिपूर्वक प्रणाम करें और प्रिय वचन कहकर विदा करें । दरवाजे तक उन्हें पहुंचने के लिए पीछे पीछे जाएँ और उनकी आज्ञा लेकर लौटे । तदनन्तर नित्यक्रिया करें और और अतिथियों को भोजन कराये । किन्ही किन्ही श्रेष्ठ पुरुषों का विचार है कि यह नित्यकर्म भी पितरों के ही उद्देश्य से होता है
तदनन्तर श्राद्धकर्ता अपने भृत्य आदि के साथ अवशिष्ट अन्न भोजन करें । धर्मज्ञ पुरुष को इसी प्रकार एकाग्रचित्त होकर पितरों का श्राद्ध करना चाहिए और जिस प्रकार ब्राह्मणों को संतोष हो, वैसी चेष्टा करनी चाहिए । अब मैं श्राद्ध में त्याग देने योग्य अधम ब्राह्मणो का वर्णन करता हौं । मित्रद्रोही, ख़राब नखों वाला, नपुंसक, क्षय का रोगी, कोढ़ी, व्यापारी, काले दांतों वाला, गांजा, काना, अँधा, बेहरा, जड़, गूंगा, पंगु, हिजड़ा। ख़राब चमड़े वाला, हीनांग, लाल आँखों वाला, कुबड़ा, बौना, विकराल, आलसी, मित्र के प्रति शत्रुभाव रखनेवाला, कलंकित कुल में उत्पन्न, पशुपालन करने वाला, अच्छी आकृति से हीन, परिवित्ति(छोटे भाई के विवाहित होने पर भी स्वयं अविवाहित रहने वाला), परिवेत्ता(बड़े भाई के ब्याह से पहले ही विवाह कर लेने वाला), परिवेदनिका(बड़ी बहन के विवाह से पहले ही विवाह करनेवाली स्त्री)- का पुत्र, शूद्रजातीय स्त्री का स्वामी और उसका पुत्र - ऐसे ब्राह्मण श्राद्ध-भोजन के अधिकारी नहीं हैं । जहाँ दुष्ट पुरुषों का आदर और साधु पुरुषों की अवहेलना होती है, वहां देवताओं का दिया हुआ भयंकर दण्ड तत्काल ऊपर पड़ता है । जो शास्त्र-विधि की अवहेलना करके मूर्ख को भोजन कराता है, वह दाता प्राचीन धर्म का त्याग करने के कारण नष्ट हो जाता है । जो अपने आश्रय में रहनेवाले ब्राह्मण का परित्याग करके दुसरे को बुलाकर भोजन कराता है, वह दाता उस ब्राह्मण के शोकोच्छवास की आग में दग्ध होकर नष्ट हो जाता है ।
वस्त्र के बिना कोई क्रिया, यज्ञ, वेदाध्ययन तपस्या नहीं होती। अतः श्राद्धकाल में वस्त्र का दान विशेष रूप से करना चाहिए । जो रेशमी, सूती और बिना कटा हुआ वस्त्र श्राद्ध में देता है, वह उत्तम भोगों को प्राप्त करता है । जैसे बहुत सी गौओं में बछड़ा अपनी माता के पास पहुँच जाता है, उसी प्रकार श्राद्ध में भोजन किया हुआ अन्न जीव के पास, वह जहाँ भी रहता है, पहुँच जाता है । नाम, गोत्र और मंत्र - ये अन्न को वहां ढोकर नहीं ले जाते अपितु मृत्यु को प्राप्त हुए जीवों तक को तृप्ति पहुँचती है - वे श्राद्ध से तृप्ति लाभ करते है ।

'देवताभ्यः पितृभ्यश्च महायोगिभ्य एव च । नमः स्वधायै स्वाहायै नित्यमेव नमो नमः।।' इस मन्त्र का श्राद्ध के आरम्भ और अन्त में तीन बार जप करे । पिण्डदान करते समय भी एकाग्रचित्त होकर इसका जप करना चाहिए । इससे पितर शीघ्र ही आ जाते हैं और राक्षस भाग खड़े होते हैं तथा तीनो लोकों के पितर तृप्त होते हैं । श्राद्ध में रेशम, सन अथवा कपास का सूत देना चाहिए । ऊन अथवा पाटका सूत्र वर्जित है । विद्वान पुरुष, जिसमें कोर न हो, ऐसा वस्त्र फटा न होने पर भी श्राद्ध में न दें; क्योंकि उससे पितरों को तृप्ति नहीं होती और दाता के लिए भी अन्याय का फल प्राप्त होता है । पिता आदि में से जो जीवित हो, उसको पिण्ड नहीं देना चाहिए, अपितु उसे विधिपूर्वक उत्तम भोजन कराना चाहिए । भोग की इच्छा रखने वाला पुरुष श्राद्ध के पश्चात पिण्ड को अग्नि में दाल दे और जिसे पुत्र की अभिलाषा हो, वह माध्यम अर्थात पितामह के पिण्ड को मंत्रोच्चारणपूर्वक अपनी पत्नी को हाथ में दे दे और पत्नी उसे खा ले । जो उत्तम कान्ति की इच्छा रखने वाला हो, वह श्राद्ध के अनन्तर सब पिण्ड गौवों को खिला दे। बुद्धि, यश और कीर्ति चाहने वाला पुरुष पिण्डों को जल में दाल दे । दीर्घायु की अभिलाषा वाला पुरुष उसे कौवो को दे दे । कुमारशाला की इच्छा रखनेवाला पुरुष वह पिण्ड मूगों को दे दे । कुछ ब्राह्मण ऐसा कहते हैं कि पहले ब्राह्मणो से "पिण्ड उठाओ" ऐसी आज्ञा लेले; उसके बाद पिण्डों को उठाये । अतः ऋषियों की बताई हुई विधि के अनुसार श्राद्ध का अनुष्ठान करें; अन्यथा दोष लगता है और पितरों को भी नहीं मिलता ।
अपनी शक्ति के अनुसार श्राद्ध की सामग्री एकत्रित करके विधिपूर्वक श्राद्ध करना सबका कर्तव्य है । जो अपने वैभव के अनुसार इस प्रकार विधिपूर्वक श्राद्ध करता है, वह मानव ब्रह्मा से लेकर कीटपर्यन्त, सम्पूर्ण जगत को तृप्त कर देता है ।

मुनियों ने पूछा: ब्रह्मन !  जिसके पिता तो जीवित हों, किन्तु पितामह और प्रपितामह की मृत्यु हो गयी हो, उसे किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए यह विस्तारपूर्वक बताइये ।

व्यास जी बोले: पिता जिनके लिए श्राद्ध करते हैं, उनके लिए स्वयं पुत्र भी श्राद्ध कर सकता है । ऐसा करने से लौकिक और वैदिक धर्म की हानि नहीं होती ।

मुनियों ने पूछा: विप्रवर ! जिसके पिता की मृत्यु हो गयी हो और पितामह जीवित हों, उसे किस प्रकार श्राद्ध करना चाहिए? यह बताने की कृपा करें ।

व्यास जी बोले: पिता को पिण्ड दे, पितामह को प्रत्यक्ष भोजन कराये और प्रपितामह को भी पिण्ड दे दे । यही शास्त्रों का निर्णय है । मरे हुए को पिण्ड देने और जीवित को भोजन कराने का विधान है । उस अवस्था में सपिण्डीकरण और पार्वणश्राद्ध नहीं हो सकता ।

कलियुग, शूद्र और स्त्री का धन्य होना(संक्षिप्त ब्रह्म पुराण, गीताप्रेस, पृष्ठ ३९४)
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ब्राह्मणो ! कलियुग धन्य है, जहाँ थोड़े ही क्लेश से महान फल की प्राप्ति होती है तथा स्त्री और शूद्र भी धन्य हैं । इसके सिवा और भी सुनो । सत्ययुग में दस वर्ष की तपस्या, ब्रह्मचर्य और जप आदि का अनुष्ठान करने से जो फल मिलता है, वह त्रेता में एक वर्ष, द्वापर में एक मास तथा कलियुग में एक दिन-रात के ही अनुष्ठान से मिल जाता है । इसीलिए मैंने कलियुग को श्रेष्ठ बताया । सत्ययुग में ध्यान, त्रेता में यज्ञों द्वारा यजन और द्वापर में पूजन करने से मनुष्य जिस फल को पाता है, वही कलियुग में केशव का नाम-कीर्तन करने मात्र से मिल जाता है । धर्मज्ञ ब्राह्मणो ! इस कलियुग में थोड़े से परिश्रम से ही मनुष्य को महान धर्म की प्राप्ति हो जाती है । इसीलिए मैं कलियुग से अधिक संतुष्ट हूँ ।
अब शूद्रों की विशेषता का वर्णन सुनो । द्विजों को पहले ब्रह्मचर्य-व्रत का पालन करते हुए वेदाध्ययन करना पड़ता है । फिर धर्मतः प्राप्त हुए धन दे द्वारा विधिपूर्वक यज्ञ करना पड़ता है । इसमें भी व्यर्थ वार्तालाप, व्यर्थ भोजन और व्यर्थ धन द्विजों के पतन के कारण होते हैं; इसलिए उन्हें सदा संयमी रहना आवश्यक है । यदि वे सभी वस्तुओं में विधि का पालन न करें तो उन्हें दोष लगता है । यहाँ तक कि भोजन और पान आदि भी उनकी इच्छा के अनुसार नहीं प्राप्त होते । वे समस्त कार्यों में परतंत्र होते हैं । इस प्रकार विनीत भाव से महान क्लेश उठाकर वे उत्तम लोकों पर अधिकार प्राप्त करते हैं; परन्तु मन्त्र-हीन पाक-यज्ञ का अधिकारी शूद्र केवल द्विजो की सेवा करने मात्र से अपने लिए अभीष्ट पुण्य-लोकों को प्राप्त कर लेता है । इसलिए शूद्र अन्य वर्णो की अपेक्षा अधिक धन्यवाद का पात्र है । स्त्रियां क्यों धन्य हैं, इसका कारन बतलाया जाता है । पुरुषों को अपने धर्म के विपरीत न चलकर सदा ही धनोपार्जन करना, उसे सुपात्रों को देना और विधिपूर्वक यज्ञ करना आवश्यक है । धन के उपार्जन और सरक्षण में महान क्लेश उठाना पड़ता है तथा उसे उत्तम कार्य में लगाने के लिए मनुष्यों को जो गहरी चिन्ता करनी पड़ती है, वह सबको विदित है । ये तथा और भी बहुत से क्लेश सहन करके पुरुष क्रमशः प्राजापत्य आदि शुभ लोक प्राप्त करते हैं; परन्तु स्त्री मन, वाणी और क्रिया द्वारा केवल पति के सेवा करने मात्र से उसके समान लोको पर अधिकार प्राप्त कर लेती है । वे महान क्लेश के बिना ही उन लोकों में जाती है, जिनमें क्लेश-साध्य उपाय करके पुरुष जाता है; इसलिए तीसरी बार मैंने स्त्रियों को साधुवाद दिया है ।


देह, इन्द्रिय और मन आदि जो प्रकृति के विकार हैं, वे क्षेत्रज्ञ के आधार पर ही स्थित हैं । वे जड़ होने के कारण क्षेत्रज्ञ को नहीं जानते, किन्तु क्षेत्रज्ञ उन सबको जानता है । जैसे चतुर सारथी अपने वश में किये बलवान एवं उत्तम घोड़ों से अच्छी तरह काम लेता है, उसी तरह क्षेत्रज्ञ भी अपने अधीन किये हुए मन और इन्द्रियों द्वारा सम्पूर्ण कार्य सिद्ध करता है । इन्द्रियों की अपेक्षा उनके विषय (शब्दादि तन्मात्रा) पर - सूक्ष्म, श्रेष्ठ हैं । विषयों से मन पर है । मन से बुद्धि पर है । बुद्धि से महत्तत्व पर है । महत्तत्व से अव्यक्त(मूल प्रकृति) पर है और अव्यक्त से अविनाशी परमात्मा पर है । अविनाशी परमात्मा से पर कुछ भी नहीं । वही परता की सीमा है तथा वही परम गति है और इस प्रकार सभी प्राणियों के भीतर छिपा हुआ वह परमात्मा सबके जानने में नहीं आता । उसे तो सूक्ष्मदर्शी ज्ञानी महात्मा ही अपनी सूक्ष्म एवं श्रेष्ठ बुद्धि से देखते हैं ।


स्थावर -> कीट -> जलचर -> पक्षी -> पशु -> मनुष्य -> धर्मात्मा -> मोक्षप्राप्त महात्मा - ये क्रमशः एक दुसरे से सहस्त्रगुना श्रेष्ठ हैं।


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वस्त्वेकमेव दुःखाय सुखायेदर्प्योदयाय च ।
कोपाय च यतस्तस्माद् वास्तु दुःखात्मकं कुतः।।
तदेव प्रीतये भूत्वा पुनर्दु:खाय जायते।
तदेव कोपाय यतः प्रसादाय च जायते।।
तस्माद्दुःखात्मकं नास्ति न च किञ्चित्सुखात्मकं।
मनसः परिणामोऽयं सुखदुःखादिलक्षणः।।
ब्र पु २२।४५-४७

एक ही वस्तु समय समय पर दुःख-सुख, ईर्ष्या और क्रोध का कारण बनती है । अतः केवल दुःखरूप वस्तु कहाँ से आयी ? वही वस्तु पहले प्रसन्नता का कारण होकर फिर दुःख देनेवाली बन जाती है । फिर वही क्रोध और प्रसन्नता का भी हेतु बनती है । इसलिए कोई भी वस्तु न तो दुःखरूप है न सुखरूप है । यह सुख और दुःख आदि तो मन का विकारमात्र है ।


गुरुरग्निर्द्विजातीनां वर्णानां ब्राह्मणो गुरुः।।
पतिरेव गुरुः स्त्रीणाम् सर्वस्याभ्यागतो गुरुः। अभ्यागतमनुप्राप्तम् वचनैस्तोषयन्ति ये।।
तेषां वागीश्वरी देवी तृप्ता भवति निश्चितं। तस्यान्नस्य प्रदानेन शक्रस्तृप्तिमवाप्नुयात्।।
पितरः पादशौचेन अन्नाद्येन प्रजापतिः। तस्योपचाराद्वै लक्ष्मीर्विष्णुना प्रीतिमाप्नुयात्।।
शयने सर्वदेवास्तु तस्मात्पूज्यतमोतिथि:।
अभ्यागतमनु श्रान्तम् सूर्योढं गृहमागतं। तं विद्याद्देवरूपेण सर्वक्रतुफलो ह्यसो।।
अभ्यागतं श्रान्तमनुव्रजन्ति देवाश्च सर्वे पितरोsग्नयश्च। तस्मिन् हि तृप्ते मुदवाप्नुवन्ति गते निराशेअपि च ते निराशा:।।
ब्र. पु. ८०|४७-५२

ब्राह्मणों के गुरु अग्नि हैं। सब वर्णो का गुरु ब्राह्मण है। स्त्रियों का गुरु उसका पति है और सब लोगों का गुरु अभ्यागत(अतिथि) है। जो लोग अपने घर पर आये हुए अतिथि को वचनों द्वारा संतुष्ट करते हैं, उनके उन वचनों से वाणी की अधीश्वरी सरस्वती देवी तृप्त होती हैं। अतिथि को अन्न देने से इन्द्र तृप्त होते हैं। उसके पैर धोने से पितर, उसके भोजन करने से प्रजापति, उसकी सेवा पूजा से लक्ष्मीसहित श्रीविष्णु तथा उसके सुखपूर्वक शयन करने पर सम्पूर्ण देवता तृप्त होते हैं। अतः अतिथि सबके लिए परम पूजनीय है। यदि सूर्यास्त के बाद थका-माँदा अतिथि घर पर आ जाये तो उसे देवता समझें; क्योंकि वह सब यज्ञों का फलरूप है। थके हुए अतिथि के साथ गृहस्थ के घर पर सम्पूर्ण देवता, पितर और अग्नि भी पधारते हैं। यदि अतिथि तृप्त हुआ तो उन्हें भी बड़ी प्रसन्नता होती है और यदि वह निराश होकर चला गया तो वे भी निराश होकर ही लौटते हैं।


ये बालकं मातृपितृप्रहीणं सनिर्विशेषं स्वतनुप्ररूढैः ।
पश्यन्ति रक्षन्ति त एव नूनं, ब्रह्मादिकानामपि वन्दनीयाः।।
ब्र पु ११०।७०

जो लोग माता-पिता से हीन बालक को अपने औरस पुत्रों के समान देखते और उसी भाव से रक्षा करते हैं, वे निश्चय ही ब्रह्मा आदि देवताओं के भी वन्दनीय हैं।

मृतास्त एवात्र यशो न येषामन्धास्त एव श्रुतवर्जिता ये। 
ये दानशीला न नपुंसकास्ते ये धर्मशीला न त एव शोच्याः।।
ब्र पु ११०।१५६

इस जगत में वे ही मुर्दे हैं, जिन्होंने यश का उपार्जन नहीं किया;
वे ही अन्धे हैं, जिन्होंने शास्त्र नहीं पढ़े।
वे ही नपुंसक हैं, जो सदा दान नहीं देते तथा
वे ही शोक के योग्य हैं, जो सदा धर्मपालन में संलग्न नहीं रहते ।

महतां दर्शनं ब्रह्मन जायते न हि निष्फलं ।
द्वेषादज्ञानतो वापि प्रसङ्गाद्वा प्रमादतः ।।
अयसःस्पर्शसंस्पर्शो रुक्मत्वायैव जायते ।
ब्र पु, १६३ । ३८-३९

महापुरुषों का दर्शन निष्फल नहीं होता, भले ही वह द्वेष अथवा अज्ञान से ही क्यों न हुआ हो । लोहे का पारसमणि से प्रसङ्ग या प्रमाद से भी स्पर्श हो जाये तो भी वह उसको सोना ही बनता है ।

एतदेव सुजातनाम् लक्षणम् भुवि देहिनां ।
कृपार्द्र यन्मनो नित्यं तेषामप्यहितेषु हि।।
ब्र पु, - १७० । ८३

इस पृथ्वी पर उत्तम कुल में उत्पन्न हुए साधू पुरुषों का यही लक्षण है कि अहित करने वालों के प्रति भी उनके मन में सदा कारुण्य ही भरी रहती है ।

त्वया यदभयं दत्तं तद्दत्तमभयं मया। 
मत्तोऽविभिन्नमात्मानं द्रष्टुमर्हसि शंकर।।
योऽहं स त्वं जगच्चेदं सदेवासुरमानुषम्। 
अविद्यामोहितात्मानः पुरुषा भिन्नदर्शिनः।।
ब्र पु, २०६ । ४७ - ४८

शंकर ! आपने जो अभयदान दिया है, वह मैंने भी दिया । आप अपने को मुझसे पृथक न देखें । जो मैं हूँ, वही आप हैं और वही यह देवता, असुर तथा मनुष्योंसहित सम्पूर्ण जगत भी है । जिनका चित्त अविद्या से मोहित है, वे ही पुरुष भेददृष्टी रखनेवाले होते हैं ।

*भगवान शंकर द्वारा बाणासुर को अभय वरदान देने तथा शंकर और कृष्ण के युद्ध पश्चात् का कथन ।

न योनिर्नापि संस्कारो न श्रुतिर्न च संततिः ॥ 
कारणानि द्विजत्वस्य वृत्तमेव तु कारणम् ।
सर्वोऽयं ब्राह्मणो लोके वृत्तेन तु विधीयते ॥
वृत्ते स्थितश्च शूद्रोऽपि ब्राह्मणत्वं च गच्छति ।
ब्र पु, २२३ । ५६ - ५८

जन्म, संस्कार, वेदाध्ययन या संतति - ये सब द्विजत्व के कारण नहीं हैं; द्विजत्व का मुख्य कारण तो सदाचार ही है । संसार में ये सब लोग आचरण से ही ब्राह्मण माने जाते हैं । उत्तम आचरण में स्थित होने पर शूद्र भी ब्राह्मणत्व को प्राप्त हो सकता है ।

गोस्त्रीद्विजानां परिरक्षणार्थ विवाहकाले सुरतप्रसंगे।
प्राणात्यये सर्वधनापहारे पञ्चानृतान्याहुरपातकानि।।
ब्र पु, २२७ | ५०

गौ, स्त्री और ब्राह्मण की रक्षा के लिए, विवाह के समय, रति के प्रसङ्ग में, प्राण - सङ्कटकाल में, सर्वस्व का अपहरण होते समय - इन पांच अवसरों पर असत्य भाषण से पाप नहीं लगता।

यदा यदा हि पाखण्डवृत्तिरत्रोपलक्ष्यते। तदा तदा कलेर्वृद्धिरनुमेया विचक्षणैः।।
यदा यदा सतां हानिर्वेदमार्गानुसारिणाम्। तदा तदा कलेर्वृद्धिरनुमेया विचक्षणैः।।
प्रारम्भाश्चावसीदन्ति यदा धर्मकृतां नृणाम्।  तदनुमेयं प्राधान्यं कलेर्विप्रा विचक्षणैः।।
ब्र पु, २२९ । ४४ - ४६

जब-जब इस जगत में पाखण्डवृत्ति दृष्टिगोचर होने लगे, तब-तब विद्वान् पुरुषों को कलियुग की वृद्धि का अनुमान करना चाहिए । जब-जब वैदिक मार्ग का अनुसरण करनेवाले साधु पुरुषों की हानि हो, तब-तब बुद्धिमान पुरुषों को कलियुग की वृद्धि का अनुमान करना चाहिए । जब धर्मात्मा मनुष्यों के किये हुए कार्य शिथिल हो जाएं, तब उसमें विद्वानों को कलियुग की प्रधानता का अनुमान करना चाहिए ।


क्रोधं शमेन जयति कामं संकल्पवर्जनात्।।
सत्त्वसंसेवनाद्धीरो निद्रामुच्छेत्तुमर्हति। धृत्या शिश्नोदरं रक्षेत्पाणिपादं च चक्षुषा।। 
चक्षुः श्रोत्रं च मनसा मनो वाचं च कर्मणा। अप्रमादाद्भयं जह्यद्दम्भं प्राज्ञोपसेवनात्।।
ब्र पु, २३५ । ४० - ४२


धीर पुरुष मन को वश में रखने से क्रोध पर और संकल्प का त्याग करने से कामपर विजय पाता है । सत्वगुण का सेवन करने से वह निद्रा का नाश कर सकता है । धैर्य के द्वारा योगी शिश्न और उदर की रक्षा करे । नेत्रों की सहायता से हाथ और पैरों की रक्षा करे । मन के द्वारा नेत्र और कानो की रक्षा करे । प्रमाद के त्याग से भय का और विद्वान् पुरुषों के सेवन से दम्भ का त्याग करे ।


रजस्तमश्च सत्त्वं च त्रय एते स्वयोनिजाः।
समाः सर्वेषु भूतेषु तान् गुणान् उपलक्षयेत्।।
तत्र यत् प्रीतिसंयुक्तं किंचिद् आत्मनि लक्षयेत्।
प्रशान्तमिव संयुक्तं सत्त्वं तद् उपधारयेत्।।
यत् तु संतापसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत् ।
प्रवृत्तं रज इत्येवं तत्र चाप्युपलक्षयेत्।।
यत् तु सम्मोहसंयुक्तमव्यक्तं विषमं भवेत् ।
अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तद् उपधारयेत्।।
प्रहर्षः प्रीतिरानन्दं स्वाम्यं स्वस्थात्मचित्तता ।
अकस्माद् यदि वा कस्माद् वदन्ति सात्त्विकान् गुणान्।।
अभिमानो मृषावादो लोभो मोहस्तथाक्षमा ।
लिङ्गानि रजसस्तानि वर्तन्ते हेतुतत्त्वतः।।
तथा मोहः प्रमादश्च तन्द्री निद्राप्रबोधिता ।
कथंचिद् अभिवर्तन्ते विज्ञेयास्तामसा गुणाः।।
ब्र पु, २३६/२३७


सत्व, रज और तम - ये तीनो गुण आपने कारणभूत प्रकृति से प्रकट हैं । वे सम्पूर्ण प्राणियों में समान भाव से स्थित हैं। उनके कार्यों द्वारा उनकी पहचान करनी चाहिए। जब अन्तः करण कुछ प्रीतियुक्त सा जान पड़े, अत्यन्त शांति का सा अनुभव हो, तब उसे सत्वगुण जानना चाहिए। जब शरीर और मन में कुछ सन्ताप का सा अनुभव हो, तब उसे रजोगुण की प्रवृत्ति मानना चाहिए । जब अन्तः करण में अव्यक्त, अतर्क्य और अज्ञेय मोह का संयोग होने लगे, तब उसे तमोगुण समझना चाहिए । जब अकस्मात् किसी कारणवश अत्यन्त हर्ष, प्रेम, आनन्द, समता और स्वस्थचित्त का विकास हो, तब उसे सात्विक गुण कहते हैं । अभिमान, असत्यभाषण, लोभ और असहनशीलता - ये रजोगुण के चिन्ह हैं । मोह, प्रमाद, निद्रा, आलस्य और अज्ञान आदि दुर्गुण जब किसी तरह प्रवृत्त हों तब उन्हें तमोगुण का कार्य जानना चाहिए।

ये घातयन्ति विप्रान् गा बालं वृद्धं तथातुरम् । शरणागतं विश्वस्तं स्त्रियं मित्रं निरायुधम् ।।
येऽगम्यागामिनो मूढाः परद्रव्यापहारिणः । निक्षेपस्यापहर्तारो विषवह्निप्रदाश्च ये ।।
परभूमिं गृहं शय्यां वस्त्रालंकारहारिणः । पररन्ध्रेषु ये क्रूरा ये सदानृतवादिनः ।।
ग्रामराष्ट्रपुरस्थाने महादुःखप्रदा हि ये । कूटसाक्षिप्रदातारः कन्याविक्रयकारकाः ।।
अभक्ष्यभक्षणरता ये गच्छन्ति सुतां स्नुषाम् । मातरं पितरं चैव ये वदन्ति च पौरुषम् ।।
अन्ये ये चैव निर्दिष्टा महापातककारिणः । दक्षिणेन तु ते सर्वे द्वारेण प्रविशन्ति वै ।।
ब्र पु, २१४ । १२३- १२८

जो ब्राह्मण, गौ, बालक, वृद्ध, रोगी, शरणागत, विश्वासी, स्त्री, मित्र और निहत्थे मनुष्य की हत्या करते हैं, अगम्य स्त्री के साथ सम्भोग करते हैं, दूसरों के धन का अपहरण करते हैं, धरोहर हड़प लेते हैं, दूसरों को ज़हर देते हैं, दूसरों के घरों में आग लगाते है, परायी भूमि, गृह, शय्या, वस्त्र और आभूषण की चोरी करते हैं, दूसरों के छिद्र देखकर उनके प्रति क्रूरता का बर्ताव करते हैं, सदा झूठ बोलते हैं, ग्राम, नगर तथा राष्ट्र को महँ दुःख देते हैं, झूठी गवाही देते, कन्या बेचते, अभक्ष्य भक्षण करते, पुत्री और पुत्रवधु के साथ समागम करते, माता-पिता को कटुवचन सुनते तथा अन्यान्य प्रकार के महापातकों में संलग्न रहते हैं, वे सब दक्षिण द्वार से यमपुरी में प्रवेश करते हैं ।

यमपुरी के द्वारों का वर्णन
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वह पुरी बहुत ही विशाल है, उसका विस्तार लाख योजन का है । वह चौकोर बताई जाती है, उसके चार सुन्दर दरवाजे हैं । उसकी चारदीवारी सोने की बनी है, जो दस हज़ार योजन ऊँची है ।
यमपुरी का पूर्व द्वार बहुत ही सुन्दर है । वहां फहरती हुई सैकड़ो पताकाएं उसकी शोभा बढाती हैं । हीरे, नीलम, पुखराज और मोतियों  से वह वह द्वार सजाया जाता है। वहां गंधर्वों और अप्सराओं के गीत नृत्य होते रहते हैं । उस द्वार से देवताओं, ऋषियों, योगियों, गंधर्वों, सिद्धों, यक्षों और विद्याधरों का प्रवेश होता है।

नगर का उत्तर द्वार घण्टा, छात्र, चंवर और नाना प्रकार के रत्नो से अलंकृत है । वह वीणा और वेणु की मनोहर ध्वनि गूंजती रहती है । वह महर्षियों का समुदाय शोभा पाता है उस द्वार से उन्हीं पुण्यात्माओं का प्रवेश होता है, जो धर्मज्ञ और सत्यवादी हैं। जिन्होंने गर्मियों में दूसरों को जल पिलाया है और सर्दी में अग्नि का सेवन कराया है, जो थके मांदे मनुष्यों की सेवा करते और सदा प्रिय वचन बोलते हैं, जो दाता, शूर और माता-पिता के भक्त हैं तथा जिन्होंने ब्राह्मणो की सेवा और अतिथियों का पूजन किया है, वे भी उत्तर द्वार से ही पुरी में प्रवेश करते हैं ।

पश्चिम द्वार भांति-भांति के रत्नों से विभूषित है । विचित्र विचित्र मणियों की वहां सीढ़ियां बनी हैं । वहां भेरी, मृदंग और शंख आदि वाद्यों की ध्वनि हुआ करती है । जो मनुष्य, भगवान् शिव की भक्ति में संलग्न रहते हैं, जो सब तीर्थों में गोते लगा चुके हैं, जिन्होंने पञ्चाग्नि का सेवन किया है, जो किसी उत्तम तीर्थ स्थान में अथवा कलिंजर पर्वत पर प्राण त्याग करते हैं और जो स्वामी, मित्र अथवा जगत का कल्याण करने के लिए एवं गौओं की रक्षा के लिए मारे गए हैं, वे शूरवीर और तपस्वी पुरुष पश्चिम द्वार से यमपुरी में प्रवेश करते हैं ।

पूरी का दक्षिण द्वार अत्यंत भयानक है । वह सम्पूर्ण जीवों के मन में भय उपजानेवाला है । वहां निरन्तर हाहाकार मचा रहता है । सदा अँधेरा छाया रहता है । उसके द्वार पर तीखे सींग, कांटे, बिच्छू, सांप, वज्रमुख कीट, भेड़िये, व्याघ्र, रीछ, सिंह, गीदड़, कुत्ते, बिलाव और गीध उपस्थित रहते हैं । उनके मुखों से आग की लपटें निकला करती हैं । जो सदा सबका अपकार करने वाले पापात्मा हैं, उन्ही का उस मार्ग से पूरी में प्रवेश होता है ।

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