Saturday, October 13, 2018

दान

राजा करन्धम ने पूछा: कुश, तिल, अक्षत और जल - इन सबको हाथ में लेकर क्यों दान दिया जाता है ? मैं इसका कारण जानना चाहता हूँ ।

महाकाल ने कहा: राजन ! प्राचीनकाल में मनुष्यों ने बहुत से दान किये और उन सबको असुरों ने बलपूर्वक भीतर प्रवेश करके ग्रहण कर लिया । तब देवताओं और पितरों ने ब्रह्माजी से कहा - 'स्वामिन ! हमारे देखते-देखते दैत्यलोग सब दान ग्रहण कर लेते हैं । अतः आप उनसे हमारी रक्षा करें, नहीं तो हम नष्ट हो जाएंगे ।' तब ब्रह्मा जी ने सोच-विचार कर दान की रक्षा के लिए एक उपाय निकला । पितरों को तिल के साथ दान दिया जाये, देवताओं को अक्षत के साथ दिया जाय तथा जल और कुश का सम्बन्ध सर्वत्र रहे । ऐसा करने पर दैत्य उस दान को ग्रहण नहीं कर सकते । इन सबके बिना जो दान दिया जाता है, उस पर दैत्यलोग बलपूर्वक अधिकार कर लेते हैं और देवता तथा पितर दुःखपूर्वक उच्छवास लेते हुए लौट जाते हैं । वैसे दान से दाता को कोई फल नहीं मिलता । इसलिए सभी युगों में इसी प्रकार(तिल, अक्षत, कुछ और जल के साथ) दान दिया जाता है ।

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राजा धर्मवर्मा ने दान का तत्व जानने की इच्छा से बहुत वर्षों तक तपस्या की, तब आकाशवाणी ने इनसे एक श्लोक कहा:

द्विहेतु षडधिष्ठानं षडङ्गं च द्विपाक्युक्।
चतुष्प्रकारं त्रिविधं त्रिनाशम दानमुच्यते।।

दान के दो हेतु, छः अधिष्ठान, छः अङ्ग, दो प्रकार के परिणाम(फल), चार प्रकार, तीन भेद और तीन विनाश साधन हैं, ऐसा कहा जाता है।

राजा ने ढिंढोरा पिटवाया के जो भी विद्वान् इस श्लोक की ठीक ठीक व्याख्या करेगा उसे फलस्वरूप सात लाख गौ, इतनी स्वर्ण-मुद्राएं और सात गाँव देगा | नारद जी उस समय ब्राह्मणो को दान देने के लिए उत्तम भूमि खोज रहे थे जो 'मही' नामक नदी और सागर के सँगम पर स्थित 'स्तम्भ' नामक तीर्थ में स्थित थी और ये भूमि उसी राजा धर्मवर्मा के अधिकार में थी तो नारद जी ने उनसे भूमि की आशा में श्लोक की सम्पूर्ण व्याख्या की:

द्विहेतुश्रद्धा और शक्ति
  • श्रद्धा: अगर कोई बिना श्रद्धा के अपना सर्वस्व दे दे अथवा अपना जीवन ही न्यौछावर कर दे तो भी वह उसका कोई फल नहीं पाता, इसलिए सबको श्रद्धालु होना चाहिए । यह तीन प्रकार की होती है
    • सात्विक- ऐसी श्रद्धा वाले पुरुष देवताओं की पूजा करते हैं 
    • राजसी- ऐसी श्रद्धा वाले लोग यक्षों और राक्षसों की पूजा करते हैं 
    • तामसी- ऐसी श्रद्धा वाले लोग प्रेतों, भूतों और पिशाचों की पूजा करते है
  • शक्ति: कुटुम्ब के भरण-पोषण से जो अधिक हो, वही धन दान देने योग्य है, वही मधु के समान मीठा है, उसी से वास्तविक धर्म का लाभ होता है, इसके विपरीत करने पर वह आगे चलकर विष के समान हानिकारक होता है, दाता का धर्म, अधर्मरूप में परिणत हो जाता है।
नीचे लिखी नौ प्रकार के दान करने वाला मूढचित्त और प्रायश्चित्त का भागी होता है अतः विद्वान् पुरुषों को आपत्तिकाल में भी इन्हें दान नहीं करना चाहिए:

  1. सामान्य - जो अत्यन्त तुच्छ हो या जिस पर सर्व साधारण का अधिकार हो।
  2. याचित- कहीं से मांगकर लायी हुई वस्तु ।
  3. न्यास - धरोहर का ही दूसरा नाम है।
  4. आधि - बन्धक रखी हुई वस्तु।
  5. दान - दी हुई वस्तु
  6. दान-धन - दान में दी गयी वस्तु ।
  7. अन्वाहित - जो धन एक के यहाँ धरोहर रखा गया हो और रखनेवाले ने उसे पुनः दुसरे के यहाँ रख दिया हो।
  8. निक्षिप्त - जिसे किसी के विश्वास पर उसके यहाँ छोड़ दिया जाय ।
  9. सान्वय सर्वस्व दान - वंशजों के होते हुए भी सब कुछ दुसरे को दे देना ।

षडधिष्ठान:

  • धर्म - सदा ही किसी प्रयोजन की इच्छा न रखकर केवल धर्मबुद्धि से सुपात्र व्यक्तियों को जो दान दिया जाता है, उसे धर्म-दान कहते हैं |
  • अर्थ - मन में कोई प्रयोजन रखकर ही प्रसंगवश जो कुछ दिया जाता है, उसे अर्थ-दान कहते हैं |
  • काम - स्त्री-समागम, सुरापान, शिकार और जुए के प्रसंग में अनधिकारी मनुष्यों को प्रयत्नपूर्वक जो कुछ दिया जाता है, वह काम-दान कहलाता है |
  • लज्जा - भरी सभा में याचकों के मांगने पर लज्जावश देने की प्रतिज्ञा कर के उन्हें जो कुछ दिया जाता है, वह लज्जा-दान माना गया है |
  • हर्ष - कोई प्रिय कार्य देखकर या प्रिय समाचार सुनकर हर्षोल्लास से जो कुछ दिया जाता है उसे हर्ष-दान कहते हैं |
  • भय - निन्दा , अनर्थ और हिँसा का निवारण करने के लिए अनुपकारी व्यक्तियों को विवश हो कर जो कुछ दिया जाता है उसे भय-दान कहते हैं |


षडङ्गं :

  • दाता - निरोग, धर्मात्मा, देने की इच्छा रखनेवाला, व्यसनरहित, पवित्र तथा सदा अनिन्दनीय कर्म से आजीविका चलने वाला होना चाहिए |
  • प्रतिग्रहीता - जिसके कुल, विद्या, आचार तीनों उज्जवल, जीवन निर्वाह की वृत्ति भी शुद्ध और सात्विक हो, जो दयालु, जितेन्द्रिय तथा योनि-दोष से मुक्त हो, वह ब्राह्मण-दान (प्रतिग्रह) का पात्र कहा जाता है |
  • शुद्धि - याचको को देखकर उनसे प्रसन्नमुख हो उनके प्रति हार्दिक प्रेम होना, उनका सत्कार करना तथा उनमे दोष दृष्टि न रखना
  • धर्मयुक्त देय वस्तु - कोई धार्मिक उद्देश्य के साथ जो वस्तु दी जाती है |
  • देश और काल - जिस देश और काल में जो-जो पदार्थ दुर्लभ हो, उस-उस पदार्थ का दान करने योग्य वही वही देश और काल श्रेष्ठ हैं |


द्विविध फल:

  • परलोकी - श्रेष्ठ पुरुषों को जो कुछ दिया जाता है, उसका परलोक में उपभोग होता है |
  • इहलोकी - असत पुरुषों को जो कुछ दिया जाता है, वह दान यहीं भोगा जाता है |


चतुष्प्रकारं:

  • ध्रुव - कुआँ बनवाना, बगीचे लगवाना, पोखरे खुदवाना आदि कार्यों में, जो सबके उपयोग में आते हैं, धन लगाना 'ध्रुव' कहा गया है |
  • त्रिक - प्रतिदिन जो कुछ दिया जाता है उस नित्य दान को त्रिक कहते हैं |
  • काम्य - संतान, विजय, ऐश्वर्य, स्त्री और बल आदि के निमित्त तथा उच्चा पूर्ती के लिए जो दान किया जाता है वह काम्य कहलाता है |
  • नैमित्तिक - यह तीन प्रकार का होता है

  • कालापेक्ष - ग्रहण और संक्रान्ति आदि काल की अपेक्षा से दान किया जाता है | 
  • क्रियापेक्ष - श्राद्ध आदि क्रियाओं की अपेक्षा से किया जाने वाला दान | 
  • गुणापेक्ष  - सँस्कार और विद्या-अध्ययन आदि गुणों की अपेक्षा रखकर दिया जाने वाला दान | 
त्रिविध

  • उत्तम - आठ वस्तुओं के दान - गृह, मंदिर/महल, विद्या, भूमि, गौ, कूप, प्राण और सुवर्ण, इन वस्तुओं का दान अन्य दानो की अपेक्षा उत्तम है।
  • मध्यम - चार वस्तुओं के दान - अन्न, बगीचा, वस्त्र और अश्व आदि वाहन को मध्यम श्रेणी के कारण मध्यम दान माना गया है ।
  • कनिष्ठ - शेष सभी - जूता, छाता, दही, बर्तन, मधु, आसन, दीपक, काष्ठ और पत्थर आदि ।
त्रिनाशम: पश्चातापअपात्रता और अश्रद्धा, ये तीनो दान के नाशक हैं
  • असुर दान - यदि दान देकर पश्चाताप हो तो वह असुर-दान है ।
  • राक्षस दान - अश्रध्दा से जो कुछ दिया जाता है वह राक्षस-दान है ।
  • पैशाच दान - ब्राह्मण को डाँट फटकार कर जो दान दिया जाता है वह पैशाच दान है ।
इस तरह से व्याख्या कर के राजा धर्मवर्मा की तपस्या सफल कर नारद जी ने भूमि प्राप्त की और उस भूमि को दान करने के  लिए उचित ब्राह्मण ढूंढने निकल पड़े |
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निम्न तिथियों पर दिया हुआ दान और किया हुआ यज्ञ सब अक्षय माना जाता है ।
युगादि तिथियां
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी - सत्ययुग
वैसाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया - त्रेतायुग
माघ मास के कृष्ण पक्ष की अमावस्या - द्वापरयुग
भाद्र मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी - कलयुग
माघ मास की सप्तमी - रथसप्तमी - भगवान् सूर्य पहले पहल रथ पर आरूढ़ हुए ।

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