Sunday, October 14, 2018

संक्षिप्त स्कन्द पुराण

महेश्वर खण्ड
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प्रजापति दक्ष(ब्रह्मा-पुत्र) की पुत्री सती का विवाह महादेव के साथ हुआ, एक बार जब प्रजापति नैमिषारण्य में विचर रहे थे तब सभी (ऋषि-मुनि, असुरादि) ने उनका सत्कार और प्रणाम किया परन्तु महादेव ने नहीं जिससे वो रुष्ट हो गए और भगवान् शंकर को कटु वचन सुनाये और शूलपाणि को यज्ञ से बहिष्कृत होने का शाप दिया । एक बार प्रजापति ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया और सभी ऋषि मुनियो और देवताओं को बुलाया पर महात्मा शंकर को नहीं बुलाया । यह देखकर वहां आये हुए दधीचि बहुत कुपित हुए और वहांटीT से चले गए । जब सती को शंकर जी के न बुलाये जाने का पता लगा तो उनसे आज्ञा लेकर वह अपने पिता के यहाँ उनकी सद्भावना/दुर्भावना जानने गयी । वहाँ दक्ष ने सती को खरीखोटी सुनाई और शंकर जी को भी अपमानित किया जिससे रुष्ट होकर सती ने वहीं देह-त्याग का निश्चय किया और अग्नि में समा गयी ।

 जब नारद जी ने शिवजी को सती के देहत्याग का बताया तो वह क्रोधित हुए और अपनी जटा उखाड़कर पर्वत पर दे मारी जिससे वीरभद्र और करोडो भूतों से घिरी काली का प्राकट्य हुआ । वे दोनों महादेव की आज्ञा से यज्ञ भंग करने गए । अपशकुन होते देख, दक्ष भय से विष्णु भगवन की शरण में आ गए और उपाय पुछा तो उन्होंने भगवन शंकर को मनाने की सलाह दी । भयंकर युद्ध हुआ जिसके अंत में वीरभद्र ने दक्ष का सर काटकर यज्ञवेदी में डालकर यज्ञ भंग कर दिया और सभी ऋषियों, देवताओ, राक्षसों, गन्धर्वो और दिक्पालों को भगा दिया ।  इस प्रकरण के पश्चात ब्रह्मा, सदाशिव के यहाँ कैलाश गए और उनकी स्तुति करके पुछा कि "यज्ञ, यजमान और यज्ञ प्रवर्तक भी आप ही है देवेश्वर, फिर यज्ञ प्रवर्तक होते हुए भी आपने कैसे इस यज्ञ का विनाश किया?"  इस पर महादेव ब्रह्मा के साथ उस यज्ञ-स्थान पर गए और सारा हाल देखा। उन्होंने वीरभद्र से दक्ष का शरीर लाने को कहा तो वे धड़ ले आये परन्तु सर तो अग्नि में स्वाहा हो गया था तो एक जानवर का सर ले आये । शिवजी ने दक्ष को नया जीवन दिया और उसके बाद दक्ष ने उनकी स्तुति की ।

 शिवजी ने कहा कि चार पुण्यात्मा जन मेरा सदा भजन करते हैं - आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी (इन सबमें ज्ञानी श्रेष्ठ हैं)

शिव महिमा और रावण पतन
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लोमश: जो विष्णु हैं उन्हें शिव जानो और जो शिव हैं, वो ही विष्णु हैं ।  शिवलिंग में पीठिका(आधार) विष्णु का रूप है और उस पर स्थापित लिंग महेश्वर का स्वरुप है। रावण ने दुस्सह तपस्या करके शिवजी को प्रसन्न किया तथा उनसे ज्ञान, विज्ञान, संग्राम में अजेयता और शिव जी की अपेक्षा दुगने सर प्राप्त किये । महादेव ने उसे त्रिकूट पर्वत का महाराजा बना दिया । शिवलिंग की पूजा के प्रसाद से रावण ने तीनो लोको को वश में कर लिया देवताओं को चिंता हुई तो वे शिवजी के पास गए, वहाँ नन्दी(वानर मुख वाले) से वार्तालाप में पता लगा के नन्दी से अपनी भक्ति का बखान करने के कारण रावण को वानरों के सम्मुख पराजित होने का शाप मिला है और नन्दी ने उन्हें भगवान विष्णु के पास जाने को कहा ।
 भगवान विष्णु ने देवताओं को वानर रूप में जन्म लेने का आदेश देते हुए कहा की मैं राजा दशरथ के यहाँ प्रकट होऊंगा । रावण शिवजी का भक्त है और उसमे भारी तपोबल है, उसे इन दोनों से भ्रष्ट करने के लिए ब्रह्मविद्या, सीता रूप में जन्म लेंगी । तदनन्तर इंद्र के अंश से बाली, सूर्य से सुग्रीव, ब्रह्मा जी के अंश से जाम्ब्वान और नन्दी(शिव-अनुचर और ग्यारहवें रूद्र), महाकपि हनुमान हुए । शेषनाग, लक्ष्मण रूप में हुए । ब्रह्मविद्या मिथिला में हल की नोक(सीता) से जमीन खोदे जाने पर मिलीं तो उनका नाम सीता हुआ । अन्ततः श्रीविष्णु ने रावण का वध किया और वह शिव सारूप्य को प्राप्त हुआ । जो द्वादश ज्योतिर्लिंगों में से किसी भी लिंग की नित्य पूजा करते हैं उनका अज्ञान दूर होता है और गुणातीत होकर वह मोक्ष का भागी होता है ।

इन्द्र पराजय और समुद्र-मंथन
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एक बार देवराज इन्द्र अपनी सभा में लोकपालों और ऋषियों से घिरे अप्सराओं के नृत्य और गीतों में मग्न थे, तभी वहाँ देव-गुरु बृहस्पति आये।
सभी देवतागण उनके सम्मान में नतमस्तक हए परन्तु इन्द्र, राजमद में उनका सत्कार नहीं करते और न बैठने या जाने के लिए ही कहते हैं जिसके बाद गुरु बृहस्पति वहाँ से चले जाते है । उनके जाने के बाद जब नृत्य और गीत समाप्त होते हैं तब इन्द्र को चेत आता है की गुरु चले गए हैं और वे उनके पीछे उनके निवास स्थान गए परन्तु वे नहीं मिले । देव-गुरु के रुष्ट होने की जानकारी जब पातालवासी राजा बलि को मिली तो उन्होंने अमरावतीपुरी पर आक्रमण कर दिया और भयंकर युद्ध के बाद उसे जीत लिया । ऐरावत(हाथी) और उच्चै:श्रवा(अश्व) आदि रत्नो के लेकर दैत्य पटल चले गए परन्तु वे रत्न पुण्यात्मा पुरुषो के भोग के थे तो दैत्यों के अधिकार में न रहकर समद्र में कूद पड़े । अपने गुरु शुक्राचार्य से पूछने पर पता लगा के देवताओ के राज्य पर अधिकार के लिए उन्हें सौ अश्मेध यज्ञ की दीक्षा लेकर पूर्ण करना होगा ।
  इधर पराजित इन्द्र ब्रह्मा के पास गए जो उन्हें विष्णु भगवान् के पास ले गए । रमापति बोले "जो पापी हैं, अधर्म में तत्पर हैं, केवल विषयो में ही रचे-पचे हैं और जिनके द्वारा अपने माता-पिता की निन्दा होती रहती है, निस्संदेह वे बड़े भाग्यहीन हैं" । यह कहकर श्रीविष्णु उन्हें शत्रुओं से भी मैत्री रखने का परामर्श देते हैं तो इन्द्र सुतल-लोक(पाताल) गए, ये जानकर राजा इन्द्रसेन(बलि) ने उन्हें मारने का सोचा परन्तु नारद मुनि ने उन्हें इन्द्र को न मारने को समझाया। राजा बलि ने देखा की इन्द्र, तेजहीन, ईर्ष्या और अहङ्कार रहित हो गए हैं । राजा बलि के, आने का कारण, पूछने पर इन्द्र बोले हम दोनों एक जैसे ही हैं, अब जब सभी रत्न वापस वही चले गए जहा से आये थे तो हमें मिलकर कर्तव्य के विषय में विचार करना चाहिए, क्योंकि विचार से ज्ञान होता है और ज्ञान होने से, सङ्कट से छुटकारा मिलता है ।  इन्द्र के शरणागत होने से बलि ने उन्हें और दूसरे देवताओं को अपने यहाँ निवास करने दिया और वे अनेक वर्ष वहीं रहे फिर एक दिन इन्द्र ने बलि से रत्नो के उद्धार की बात की तो आकाशवाणी हुई "देवताओं और दैत्यों, आप क्षीर समुद्र का मंथन करो ।मन्दराँचल को मथानी और वासुकि नाग को रस्सी बनाओ । "

 सभी देवता और दैत्य, मन्दराँचल के पास अपना निवेदन लेकर गए जिसे मन्दराँचल ने पुरुष रूप में आकर (इन्द्र के द्वारा वज्र से अपने दोनों पंख काटे जाने के बाद भी) स्वीकार किया । मन्दराँचल समुद्र में नहीं जा सकते थे तो सुरासुर उन्हें उठाकर ले जाने लगे परन्तु उसके भार से दब कर खुद ही मरने लगे । तब देवताओं और दानवों ने श्रीविष्णु की स्तुति कर सहायता मांगी, विष्णु जी ने दृष्टिपात करके पर्वत को समुद्र में रखा और चले गए । तब देवताओं और दानवो ने वासुकि से सहायता मांगी और उसे रस्सी बनाया परन्तु मथना शुरू करते ही निराधार होने से पर्वत नीचे धंसने लगा तब लक्ष्मीपति ने कच्छपरूप में अपनी कठोर पीठ पर पर्वत को आधार प्रदान किया और अपनी चारों भुजाओं से उसे सम्भाल लिया ताकि वह सुखपूर्वक घूम सके ।  मन्थन होने से समुद्र में बड़वानल प्रकट हो गया और साथ ही हलाहल उत्पन्न हुआ । उसे देखते ही नारद जी ने देवताओ और दैत्यों को मन्थन रोक, महादेव की प्रार्थना करने को कहा परन्तु तन्मयता में संलग्न होने के कारण उन्हें सुन न सके और मन्थन करते रहे । कालकूट विष फैलने लगा जिसे अन्ततः शिवजी ने कालकूट विष को अपना ग्रास बना लिया ।

पुनः मन्थन शुरू करने पर


1. जो लोग दूसरों के घर बिना बुलाये जाते हैं वे वहां मृत्यु से भी अधिक कष्टदायक अपमान को प्राप्त होते हैं ।
2. जहाँ अपूज्य व्यक्तियों का पूजन होता है तथा पूजनीय महात्मा का पूजन नहीं किया जाता वह तीन संकट-दुर्भिक्ष, मृत्यु और भय, होंगे । 
3. कर्तव्य के विषय में विचार करना चाहिए, क्योंकि विचार से ज्ञान होता है और ज्ञान होने से, सङ्कट से छुटकारा मिलता है ।
4. जो लोग ब्राह्मण, रोगी, वृद्ध तथा शरणागत की रक्षा नहीं करते वे ब्रह्महत्यारे हैं ।
5. बुद्धिमान पुरुष को उचित है वह अपने न्यायपूर्वक उपार्जित धन का दसवां भाग ईश्वर की प्रसन्नता के लिए किसी सत्कर्म में लगावे ।

Q- महादेव कैसे छः ऐश्वर्यों से युक्त होने से भगवान् हैं ?

कुमारिकाखण्ड
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राजा धर्मवर्मा ने दान का तत्व जानने की इच्छा से बहुत वर्षों तक तपस्या की, तब आकाशवाणी ने इनसे एक श्लोक कहा:

द्विहेतु षडधिष्ठानं षडङ्गं च द्विपाक्युक्।
चतुष्प्रकारं त्रिविधं त्रिनाशम दानमुच्यते।।

दान के दो हेतु, छः अधिष्ठान, छः अङ्ग, दो प्रकार के परिणाम(फल), चार प्रकार, तीन भेद और तीन विनाश साधन हैं, ऐसा कहा जाता है।

राजा ने ढिंढोरा पिटवाया के जो भी विद्वान् इस श्लोक की ठीक ठीक व्याख्या करेगा उसे फलस्वरूप सात लाख गौ, इतनी स्वर्ण-मुद्राएं और सात गाँव देगा | नारद जी उस समय ब्राह्मणो को दान देने के लिए उत्तम भूमि खोज रहे थे जो 'मही' नामक नदी और सागर के सँगम पर स्थित 'स्तम्भ' नामक तीर्थ में स्थित थी और ये भूमि उसी राजा धर्मवर्मा के अधिकार में थी तो नारद जी ने उनसे भूमि की आशा में श्लोक की सम्पूर्ण व्याख्या की:

द्विहेतु: श्रद्धा और शक्ति
  • श्रद्धा: अगर कोई बिना श्रद्धा के अपना सर्वस्व दे दे अथवा अपना जीवन ही न्यौछावर कर दे तो भी वह उसका कोई फल नहीं पाता, इसलिए सबको श्रद्धालु होना चाहिए । यह तीन प्रकार की होती है
    • सात्विक- ऐसी श्रद्धा वाले पुरुष देवताओं की पूजा करते हैं 
    • राजसी- ऐसी श्रद्धा वाले लोग यक्षों और राक्षसों की पूजा करते हैं 
    • तामसी- ऐसी श्रद्धा वाले लोग प्रेतों, भूतों और पिशाचों की पूजा करते है
  • शक्ति: कुटुम्ब के भरण-पोषण से जो अधिक हो, वही धन दान देने योग्य है, वही मधु के समान मीठा है, उसी से वास्तविक धर्म का लाभ होता है, इसके विपरीत करने पर वह आगे चलकर विष के समान हानिकारक होता है, दाता का धर्म, अधर्मरूप में परिणत हो जाता है।
नीचे लिखी नौ प्रकार के दान करने वाला मूढचित्त और प्रायश्चित्त का भागी होता है अतः विद्वान् पुरुषों को आपत्तिकाल में भी इन्हें दान नहीं करना चाहिए:

  1. सामान्य - जो अत्यन्त तुच्छ हो या जिस पर सर्व साधारण का अधिकार हो।
  2. याचित- कहीं से मांगकर लायी हुई वस्तु ।
  3. न्यास - धरोहर का ही दूसरा नाम है।
  4. आधि - बन्धक रखी हुई वस्तु।
  5. दान - दी हुई वस्तु
  6. दान-धन - दान में दी गयी वस्तु ।
  7. अन्वाहित - जो धन एक के यहाँ धरोहर रखा गया हो और रखनेवाले ने उसे पुनः दुसरे के यहाँ रख दिया हो।
  8. निक्षिप्त - जिसे किसी के विश्वास पर उसके यहाँ छोड़ दिया जाय ।
  9. सान्वय सर्वस्व दान - वंशजों के होते हुए भी सब कुछ दुसरे को दे देना ।

षडधिष्ठान:

  • धर्म - सदा ही किसी प्रयोजन की इच्छा न रखकर केवल धर्मबुद्धि से सुपात्र व्यक्तियों को जो दान दिया जाता है, उसे धर्म-दान कहते हैं |
  • अर्थ - मन में कोई प्रयोजन रखकर ही प्रसंगवश जो कुछ दिया जाता है, उसे अर्थ-दान कहते हैं |
  • काम - स्त्री-समागम, सुरापान, शिकार और जुए के प्रसंग में अनधिकारी मनुष्यों को प्रयत्नपूर्वक जो कुछ दिया जाता है, वह काम-दान कहलाता है |
  • लज्जा - भरी सभा में याचकों के मांगने पर लज्जावश देने की प्रतिज्ञा कर के उन्हें जो कुछ दिया जाता है, वह लज्जा-दान माना गया है |
  • हर्ष - कोई प्रिय कार्य देखकर या प्रिय समाचार सुनकर हर्षोल्लास से जो कुछ दिया जाता है उसे हर्ष-दान कहते हैं |
  • भय - निन्दा , अनर्थ और हिँसा का निवारण करने के लिए अनुपकारी व्यक्तियों को विवश हो कर जो कुछ दिया जाता है उसे भय-दान कहते हैं |


षडङ्गं :

  • दाता - निरोग, धर्मात्मा, देने की इच्छा रखनेवाला, व्यसनरहित, पवित्र तथा सदा अनिन्दनीय कर्म से आजीविका चलने वाला होना चाहिए |
  • प्रतिग्रहीता - जिसके कुल, विद्या, आचार तीनों उज्जवल, जीवन निर्वाह की वृत्ति भी शुद्ध और सात्विक हो, जो दयालु, जितेन्द्रिय तथा योनि-दोष से मुक्त हो, वह ब्राह्मण-दान (प्रतिग्रह) का पात्र कहा जाता है |
  • शुद्धि - याचको को देखकर उनसे प्रसन्नमुख हो उनके प्रति हार्दिक प्रेम होना, उनका सत्कार करना तथा उनमे दोष दृष्टि न रखना
  • धर्मयुक्त देय वस्तु - कोई धार्मिक उद्देश्य के साथ जो वस्तु दी जाती है |
  • देश और काल - जिस देश और काल में जो-जो पदार्थ दुर्लभ हो, उस-उस पदार्थ का दान करने योग्य वही वही देश और काल श्रेष्ठ हैं |


द्विविध फल:

  • परलोकी - श्रेष्ठ पुरुषों को जो कुछ दिया जाता है, उसका परलोक में उपभोग होता है |
  • इहलोकी - असत पुरुषों को जो कुछ दिया जाता है, वह दान यहीं भोगा जाता है |


चतुष्प्रकारं:

  • ध्रुव - कुआँ बनवाना, बगीचे लगवाना, पोखरे खुदवाना आदि कार्यों में, जो सबके उपयोग में आते हैं, धन लगाना 'ध्रुव' कहा गया है |
  • त्रिक - प्रतिदिन जो कुछ दिया जाता है उस नित्य दान को त्रिक कहते हैं |
  • काम्य - संतान, विजय, ऐश्वर्य, स्त्री और बल आदि के निमित्त तथा इच्छा पूर्ती के लिए जो दान किया जाता है वह काम्य कहलाता है |
  • नैमित्तिक - यह तीन प्रकार का होता है

    • कालापेक्ष - ग्रहण और संक्रान्ति आदि काल की अपेक्षा से दान किया जाता है | 
    • क्रियापेक्ष - श्राद्ध आदि क्रियाओं की अपेक्षा से किया जाने वाला दान | 
    • गुणापेक्ष  - सँस्कार और विद्या-अध्ययन आदि गुणों की अपेक्षा रखकर दिया जाने वाला दान | 
त्रिविध

  • उत्तम - आठ वस्तुओं के दान - गृह, मंदिर/महल, विद्या, भूमि, गौ, कूप, प्राण और सुवर्ण, इन वस्तुओं का दान अन्य दानो की अपेक्षा उत्तम है।
  • मध्यम - चार वस्तुओं के दान - अन्न, बगीचा, वस्त्र और अश्व आदि वाहन को मध्यम श्रेणी के कारण मध्यम दान माना गया है ।
  • कनिष्ठ - शेष सभी - जूता, छाता, दही, बर्तन, मधु, आसन, दीपक, काष्ठ और पत्थर आदि ।
त्रिनाशम: पश्चाताप, अपात्रता और अश्रद्धा, ये तीनो दान के नाशक हैं
  • असुर दान - यदि दान देकर पश्चाताप हो तो वह असुर-दान है ।
  • राक्षस दान - अश्रध्दा से जो कुछ दिया जाता है वह राक्षस-दान है ।
  • पैशाच दान - ब्राह्मण को डाँट फटकार कर जो दान दिया जाता है वह पैशाच दान है ।
इस तरह से व्याख्या कर के राजा धर्मवर्मा की तपस्या सफल कर नारद जी ने भूमि प्राप्त की और उस भूमि को दान करने के  लिए उचित ब्राह्मण ढूंढने निकल पड़े | वे श्लोको का गान करते हुए प्रश्नो के उत्तर पूछने लगे तब कलाप-ग्राम के सुतनु नामक एक ब्राह्मण ने उनके सभी बारह प्रश्नो के उत्तर दिए जो इस प्रकार हैं :

१. मातृका को कौन विशेष रूप से जानता है ? वह मातृका कितने प्रकार की और कैसे अक्षरों वाली है ?
मातृका में बावन अक्षर बताये गए हैं । जिनमें प्रथम ॐकार है । उसके सिवा चौदह स्वर, ३३ व्यंजन, अनुस्वार, विसर्ग, जिह्वामूलीय तथा उपध्मानीय, मातृका वर्ण माने गए हैं ।
अब इनका अर्थ सुनिए:
पूर्वकाल की बात है, मिथिला नगरी में कौथुम नाम से प्रसिद्द एक ब्राह्मण रहते थे । उन्होंने पृथ्वी पर प्रचलित सभी विद्याओं को पढ़ लिया और वर्षों तक आदरपूर्वक अध्ययन किया । उनके पुत्र ने केवल मातृका पढ़ी और उसके बाद वह किसी प्रकार की दूसरी बात याद नहीं करता था । पिता ने पूछा कि तेरी यह बुद्धि बहुत अच्छी है पर तू पढता क्यों नहीं ? 
पुत्र ने कहा: पिताजी ! जानने योग्य जितनी भी बातें हैं, वे सब तो मैंने मातृका में ही जान ली । अब किसलिए कण्ठ सुखाया जाय ?
पिता बोले: मातृका में तूने किस ज्ञातव्य अर्थ का ज्ञान प्राप्त किया है ? बता ।
पुत्र बोला: पिताजी ! आपने ३१,००० वर्षों तक नाना प्रकार के तर्कों का अध्ययन करते हुए भी आपने मन में केवल भ्रम का ही साधन किया है । 'यह धर्म है, यह धर्म है' ऐसा कहकर शास्त्रों में जो धर्म बताया गया है, उसमें चित्त भ्रांत सा हो गया है ।
ॐकार के 
  • -कार ब्रह्मा कहे गए हैं 
  • -कार विष्णु बतलाये गए हैं 
  • -कार महेश्वर का प्रतीक माना गया है 
ये तीन गुणमय स्वरुप बताये गए हैं | ॐकार के मस्तक पर जो अर्धमात्रा है वह सर्वोत्कृष्ट भगवान् सदाशिव का प्रतीक है ।
१४ स्वर (अ-कार से औ-कार तक) : मनुस्वरूप (नाम तथा सम्बंधित रङ्ग नीचे दिए हैं )
  • स्वायम्भुव - श्वेत 
  • स्वारोचिष - पाण्डु
  • औत्तम - लोहित 
  • रैवत - ताम्र 
  • तामस - पीत
  • चाक्षुष - कपिल 
  • वैवस्वत(वर्तमान अवं ऋकाररूप ) - कृष्ण 
  • सावर्णि - श्याम 
  • ब्रह्मसावर्णि - धूम्र 
  • रूद्रसावर्णि - अधिक पिङ्गल
  • दक्षसावर्णि  - थोड़ा पिङ्गल 
  • धर्मसावर्णि - तिरंगा 
  • रौच्य  - बहुरंगा 
  • भौत्य - कबरा
३३ व्यंजन ('क' से 'ह' तक) : देवता 
  • १२ आदित्य - 'क' से 'ठ' तक 
  • ११ रूद्र - 'ड' से 'ब' तक 
  • ८ वसु - 'भ' से 'ष' तक
'स' और 'ह' - अश्विनीकुमार 
अनुस्वार - जरायुज
विसर्ग - अण्डज
जिह्वामूलीय - स्वेदज
उपध्मानीय - उद्भिज

तत्वार्थ : जो पुरुष इन देवताओं का आश्रय लेकर कर्मानुष्ठान में तत्पर होते हैं, वे ही अर्धमात्रास्वरूप नित्यपद (सदाशिव) में लीन होते हैं । चार प्रकार के जीवों में से कोई भी जब मन, वाणी और क्रिया द्वारा इन देवताओं का भजन करता है, तभी उसे मुक्ति प्राप्त होती है । अजितेन्द्रिय मनुष्यों के मोह की महिमा तो देखो । वे पापी, मातृका पढ़ते हैं परन्तु इन देवताओं को नहीं मानते ।

२. कौन द्विज पच्चीस वस्तुओं के बने गृह को अच्छी तरह जानता है ?
  • पाँच महाभूत 
    • पृथ्वी
    • जल
    • तेज
    • वायु
    • आकाश
  • पाँच कर्मेन्द्रियाँ
    • वाक्
    • हाथ
    • पैर
    • गुदा
    • लिंग 
  • पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ 
    • कान
    • नेत्र
    • रसना
    • नासिका
    • त्वचा
  • पाँच विषय 
    • शब्द
    • रूप
    • रस
    • गन्ध
    • स्पर्श 
  • मन
  • बुद्धि
  • अहङ्कार
  • प्रकृति
  • पुरुष (सदाशिवस्वरुप) 
इन पच्चीस तत्वों से संपन्न हुआ यह शरीर ही घर कहलाता है ।
३. अनेक रूपवाली स्त्री को एक रूपवाली बनाने की कला किसे आती है ?
बुद्धि को ही अनेक रूपों वाली स्त्री कहा गया है, क्योंकि वह नाना प्रकार के विषयों अथवा पदार्थों का सेवन करने से अनेक रूप ग्रहण करती है । किन्तु अनेकरूपा होने पर भी वह एकमात्र धर्म के संयोग से एकरूपा ही रहती है । जो इस तत्वार्थ को जानता है वह (धर्म का आश्रय लेने के कारण) कभी नरक में नहीं पड़ता ।

४. संसार में रहने वाला कौन पुरुष विचित्र कथा वाली वाक्य रचना को जानता है ?
मुनियों ने जिसे नहीं कहा है तथा जो वचन देवताओं की मान्यता नहीं स्वीकार करता उसे विद्वानों ने विचित्र कथा से मुक्त बन्ध(वाक्यविन्यास) कहा है तथा जो कामयुक्त वचन हैं, वो भी इसी श्रेणी में हैं ।
५. कौन स्वाध्यायशील पुरुष समुद्र में रहनेवाले महान ग्राह की जानकारी रखता है ?
एकमात्र लोभ इस संसार-समुद्र के भीतर महान ग्राह है । लोभ से पाप में वृद्धि होती है, क्रोध प्रकट होता है, कामना होती है, मोह, माया(शठता), अभिमान, स्तम्भ(जड़ता) दुसरे के धन कि स्पृहा, अविद्या और मूर्खता होती है । लोभ और क्रोध में आसक्त मनुष्य सदाचार से दूर हो जाते हैं । वे ही युक्तिवाद का सहारा लेकर अनेकों पन्थ चलते हैं । कितने ही नीच मनुष्य लोभवश धर्म को अपना बाह्य आभूषण बना धर्मध्वजी होकर जगत को लूटते हैं । वे सदा लोभ में डूबे रहने वाले महान पापी हैं ।

६. किस श्रेष्ठ ब्राह्मण को आठ ब्राह्मणत्व का ज्ञान है ?
ब्राह्मणो के आठ भेद:
  • मात्र - जिसका जन्म मात्र ब्राह्मण कुल में हुआ है, वह जब जातिमात्र से ब्राह्मण होकर ब्राह्मणोचित उपनयन संस्कार तथा वैदिक कर्मों से हीन रह जाता है ।
  • ब्राह्मण - जो व्यक्तिगत स्वार्थ की उपेक्षा करके वैदिक आचार का पालन करता है ।
  • श्रोत्रिय - जो वेदों की किसी एक शाखा को कल्प और छहो अंगों सहित पढ़कर ब्राह्मणोचित छः कर्मों में संलग्न रहता है ।
  • अनूचान - जो वेद-वेदांगों का तत्वज्ञ, पापरहित, शुद्धचित्त, श्रेष्ठ, श्रोत्रिय विद्यार्थियों को पढ़ाने वाला और विद्वान् है ।
  • भ्रूण - जो अनूचान के समस्त गुणों से युक्त होकर केवल्यज्ञ और स्वाध्याय में संलग्न रहता है, यज्ञशिष्ट भोजन करता है और इन्द्रियों को अपने वश में रखता है ।
  • ऋषिकल्प - जो वैदिक और लौकिक विषयों का ज्ञान प्राप्त करके, मन और इन्द्रियों को वश में रखते हुए सदा आश्रम में निवास करता है । 
  • ऋषि - जो नैष्ठिक ब्रह्मचारी होकर नियमित भोजन करता है, जिसको किसी विषय में कोई संदेह नहीं है तथा जो शाप और अनुग्रह में समर्थ और सत्यप्रतिज्ञ है ।
  • मुनि - जो निवृत्ति मार्ग में स्थित, सम्पूर्ण तत्वों का ज्ञाता, काम-क्रोध से रहीं, ध्याननिष्ठ, निष्क्रिय, जितेन्द्रिय तथा मिटटी और सुवर्ण को समान समझने वाला  ।
इस प्रकार वंश, विद्या और वृत्त (सदाचार) से ऊँचे उठे हुए ब्राह्मण 'त्रिशुक्ल' कहलाते है । वे ही यज्ञ आदि में पूजे जाते है ।
७. चारों युगों के मूल दिनों को कौन बता सकता है ?
  • सत्ययुग - कार्तिक मास, शुक्ल पक्ष की नवमी 
  • त्रेतायुग - वैशाख, शुक्ल पक्ष की तृतीया 
  • द्वापरयुग - माघ, कृष्ण पक्ष की अमावस्या 
  • कलियुग - भद्र, कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी 
इन तिथियों में किया गया दान और होम अक्षय जानना चाहिए  
८. चौदह मनुओं के मूल दिवस किसको ज्ञात हैं ?
मन्वन्तर की आरंभिक तिथि:
  • अश्विन शुक्ल नवमी
  • कार्तिक द्वादशी
  • चैत्र और भाद्र की तृतीया 
  • फाल्गुन की अमावस्या
  • पौष की एकादशी
  • आषाढ़ की दशमी
  • माघ की सप्तमी
  • श्रवण की कृष्णा अष्टमी
  • आषाढ़ की पूर्णिमा 
  • कार्तिक की पूर्णिमा
  • फाल्गुन, चैत्र और ज्येष्ठ की पूर्णिमा 
ये भी सभी दान, पुण्य को अक्षय करने वाली है 
९. भगवान् सूर्य किस दिन पहले पहल रथ पर आरूढ़ हुए थे ?
माघ मास की सप्तमी - इसे रथसप्तमी भी कहते है ।
इस तिथि को दिया हुआ दान और किया हुआ यज्ञ अक्षय माना जाता है ।
१०. जो काले सर्प की भांति सबको उद्वेग में डाले रहता है उसे कौन जानता है ?
जो प्रतिदिन याचना करता है, वह स्वर्ग में जाने का अधिकारी नहीं है । जैसे चोर सब जीवों को उद्वेग में डाल देता है, उसी प्रकार वह भी है । वह पापात्मा सबके लिए सदा उद्वेगकारक होने के कारण नरक में पड़ता है ।
११. इस भयंकर संसार में कौन दक्ष मनुष्यों से भी अत्यधिक दक्ष माना गया है ?
इस लोक में किस कर्म से मुझे सिद्धि प्राप्त हो सकती है और यहाँ से मुझे कहाँ, किस लोक में जाना है ? इस बात का भलीभांति विचार करके जो परुष भावी क्लेश के निराकरण का समुचित उपाय करता है, विद्वानों ने उसी को दक्ष पुरुषों से भी दक्ष (चतुरशिरोमणि) कहा है ।
१२. कौन ब्राह्मण दोनों मार्गों को जानता और बतलाता है ?
  • अर्चि मार्ग - इससे जाने वाला पुरुष मोक्ष को प्राप्त होता है । नैष्कर्म्य (कर्मफल-त्याग एवं ज्ञान) से इसकी प्राप्ति होती है ।
  • धूम मार्ग - इस मार्ग से जाने वाला स्वर्ग में पुण्यफल भोग कर पुनः इस संसार में लौट आता है । सकामभाव से किये हुए यज्ञ से इसकी प्राप्ति होती है ।
इन दोनों से भिन्न जो अशास्त्रीय मार्ग है, वह पाखण्ड कहलाता है ।

लोमश जी द्वारा इन्द्रद्युम्न को शिव-अराधना महत्त्व बताना 
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एक बार राजा इन्द्रद्युम्न हुए जो बहुत ही दानी, सभी धर्मों के ज्ञाता और बहुत पुण्य करने वाले थे ।  उनके पुण्यो की गिनती नहीं की जा सकती थी, जिनके प्रभाव से वह सशरीर ब्रह्मलोक में पहुँच गए और देवदुर्लभ भोगों का उपभोग किया । उनके कल्प बीतने के बाद ब्रह्मा जी ने उन्हें वापस पृथ्वी पर भेज दिया । स्वर्ग से निकाले जाने से लज्जित होकर उन्होंने मोक्ष प्राप्ति का निश्चय करके मार्कण्डेय मुनि, नदीजंघ बक, प्राकारकर्ण उलूक, चिरायु गीधराज और मन्थर कछुए से इस संसार सागर से पार करने वाले किसी गुरु के बारे में पूछा ।

कछुए ने कहा: लोमश नाम के मुनि हैं जो आयु में मुझसे भी बड़े हैं और उन्हें मैंने कलाप-ग्राम में कहीं देखा था ।
तत्पश्चात सभी कलाप-ग्राम जाते हैं और लोमश मुनि के दर्शन करते हैं ।

राजा इन्द्रद्युम्न उनसे पूछते हैं: इतनी गर्मी होने पर भी आपने कुटी नहीं बनायीं हुई और तिनको से छाया कर रहे हैं।

लोमश बोले: यह जो सब दिखाई देता है, सब अत्यंत चञ्चल(क्षणभंगुर) है ऐसी दशा में दान करना ही मनुष्यों के लिए सर्वोत्तम गृह है ।
 इस प्रकार संसार को असार और चलायमान जानकर किसके लिए कुटी आदि का संग्रह किया जाय ।

इन्द्रद्युम्न बोले: मैं आपके चिरायु होने से आपके पास आया हूँ फिर आप के मुँह से ऐसी बात क्यों निकलती है ।

लोमश मुनि बोले: प्रत्येक कल्प के अंत में मेरे शरीर से एक रोम टूट जाता है ।  जिस दिन सब रोयें नष्ट हो जायेंगे, मेरी मृत्यु हो जाएगी । अभी मेरे घुटन से दो अंगुल तक रोएं खाली हो गए हैं । तो जब मरना ही है तो घर बना कर क्या होगा ?

तब इन्द्रद्युम्न उनसे पूछते हैं की यह आयु दान का प्रभाव है या तपस्या का ?

लोमश जी बोले: पहले जन्म में मैं एक दरिद्र शूद्र था । भूख से तड़पते हुए इधर उधर घुमते हुए एक दिन एक जलाशय में शिवलिंग दिखा तो जल पीकर मैंने शिवलिंग का पूजन किया और फिर नमस्कार करके आगे चल दिया । उसी रास्ते में मेरी मृत्यु हो गयी और मैं एक ब्राह्मण के यहाँ जन्मा । शिवलिंग की पूजा से मुझे पूर्वजन्म का स्मरण था तो इस जगत को मिथ्या-विलास जानकर मैंने मूकता धारण कर ली । पिता के देहावसान पश्चात घरवालों ने गूंगा जान मुझे त्याग दिया और मैं भूतनाथ के पूजन में लग गया। सौ साल बाद चन्द्रशेखर ने मुझे दर्शन दिए और वर मांगने को कहा । मैंने उनसे अजरता-अमरता मांगी परन्तु उन्होंने कहा कि जो नाम और रूप धारण करता है वो अजर-अमर नहीं हो सकता तो तुम अपनी आयु की एक सीमा निश्चित कर लो । तब मैंने उनसे माँगा की प्रत्येक कल्प में मेरे शरीर का एक रोम गिरे और इस तरह सभी रोम गिर जाने पर मेरी मृत्यु हो ।

शिव की पूजा करने पर मनुष्य ब्रह्महत्या आदि पापों से मुक्त हो जाता है, इसमें संशय नहीं है । महाराज ! तुम भी ऐसा ही करो ।


सम्वर्त के मुख से महिसागर की महिमा 
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नारद जी बोले: मुनि लोमश के वचन सुनकर राजा इन्द्रद्युम्न ने कहा कि अब मैं और कहीं नहीं जाऊंगा और यही आपसे अनुग्रहीत होकर शिवलिंग कि आराधना करूँगा और वक्र, गृध्र, कच्छप और उलूक ने भी वैसा ही विचार प्रकट किया तो मुनि लोमश ने उन्हें शिवदीक्षा कि विधि से लिंगपूजन का उपदेश दिया । तदनन्तर मार्कण्डेय और राजा इन्द्रद्युम्न आदि छहों मित्रों ने शिवशास्त्र के अनुसार क्रिया योग आरम्भ किया । एक समय उनके तपस्याकाल में ही लोमश मुनि का दर्शन करने के लिए उत्सुक हो तीर्थयात्रा के प्रसंग से मैं वहां गया तो, हे अर्जुन ! आदर सत्कार और विश्राम कर चुकने के बाद नाड़ीजंघ आदि भक्तों ने प्रणाम करके मुझसे मोक्ष-साधन के स्थान बतलाने को कहा ।

उनके ऐसा पूछने पर मैंने कहा:  तुम लोग महासम्वर्त से ये बात पूछो वो तुम्हे सब तीर्थो के फल कि प्राप्ति करानेवाले तीर्थ के बारे में बताएँगे ।

वे बोले: योगी सम्वर्त जी कहाँ तपस्या करते हैं, उनका स्थान बताइये ?

मैंने कहा: वे काशी में रहते हैं । वे नंगे, गुप्त वेष में रहते हैं, कुतप काल (दिन के दुसरे पहर कि पिछली घडी और तीसरे पहर कि पहली घडी) के बाद निकलते हैं और हाथ में ही भिक्षान्न भोजन करते हैं । उनके जैसे और भी लोगो के वह होने से कोई मनुष्य उनको पहचान नहीं पाता । तुम लोग वहा मध्य मार्ग में एक मुर्दा इस तरह रख देना के किसी को पता न चले । जो कोई भी उस भूमि के निकट आकर लौट पड़े, वही सम्वर्त होंगे । उनसे विनीत भाव में जाकर प्रश्न पूछना और अगर वे पूछें तो मेरे बारे में बता देना ।

ऐसा सुन कर उन सब ने वैसा ही किया तो सम्वर्त जी मिल गए और वे वापस जाने लगे तब उन्होंने सम्वर्त जी का पीछा किया और उनसे प्रश् करने लगे । सम्वर्त जी बोले: पहले मेरे मार्ग से शल्य को हटाओ मुझे भूख लगी है, मैं पुनः पुरी में भिक्षा के लिए जाऊंगा । ऐसा कहकर उन्होंने प्रश्न के बारे में पूछा और जानने पर बोले: स्वामिकार्तिकेय और नवदुर्गाओं को नमस्कार करके मैं तुम्हे सर्वोत्तम तीर्थ का परिचय देता हूँ ।   उसका नाम है महिसागरसंगम । परमबुद्धिमान, नृपश्रेष्ठ इन्द्रद्युम्न जब यहाँ यज्ञ करते थे, तब उनके द्वारा यह पृथ्वी दो अंगुल ऊँची कर दी गयी थी । उस समय जैसे गीले काठ के तपने पर उससे पानी चूता है उसी प्रकार यज्ञाग्नि द्वारा तपती हुई पृथ्वी से जल का स्त्रोत टपकने लगा । वही महि नामक नदी है पृथ्वी पर जो कोई भी तीर्थ हैं, उन सबके जल से उत्पन्न साररूप महि नदी का जल माना गया है । मालवा नमक देश से नदी उत्पन्न हुई है और दक्षिण सागर में जाकर मिलती है ।  यदि तुम लोग किसी एक स्थान में सभी तीर्थों का संयोग चाहते हो तो परम पुण्य महिसागर संगम तीर्थ में जाओ

*शङ्कर  जी कहते हैं: जहाँ स्वयम्भू लिङ्ग हो वहां मैं स्वयं निवास करता हूँ |  स्वयंभू लिङ्ग , रत्नमय लिङ्ग , धातुज लिङ्ग, प्रस्तर-लिङ्ग और चन्दन आदि लेपजनित लिङ्ग हैं | इनमें से क्रमशः अंतिम लिङ्ग की अपेक्षा पूर्व-पूर्ववाले लिङ्ग दस गुना अधिक फल देने वाले  होते हैं

आकाश में तारकामय लिङ्ग
पातळ में हाटकेश्वर लिङ्ग
भूमण्डल पर स्वयंभू लिंग - ये तीनो शुभ होते हैं |

महात्मा नन्दभद्र के विचार और सत्यव्रत के नास्तिक विचारों का खण्डन 
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नारद जी अर्जुन से कहते हैं: बहूदक स्थान में, नन्दभद्र नाम के वणिक थे जो कपिलेश्वर लिङ्ग का तीन समय बड़े आदर से पूजन करते थे । धर्मो के विषय में कोई बात ऐसी नहीं जो उनको ज्ञात नहीं थी । उन्होंने मन, वाणी और क्रिया द्वारा परोपकार का ही आश्रय ले रखा था । उनके सदाचार से इन्द्रादि देवता भी उनसे स्पृहा रखते थे । नन्दभद्र का एक शूद्र पडोसी था जिसका नाम तो सत्यव्रत था परन्तु वह नास्तिक और सदा नन्दभद्र में दोष ढूंढने वाला था । खोते ह्रदयवाले क्रूर नास्तिकों का यह स्वभाव ही होता है की वे अपने को तो नीचे गिरते ही है, दूसरों को भी गिराने की चेष्टा करते हैं । धार्मिक वृत्ति से रहनेवाले नन्दभद्र के बड़े कष्ट से वृद्धावस्था में एक पुत्र हुआ पर चल बसा परन्तु प्रारब्ध फल जानकार उस महामति ने शोक नहीं किया (देवता हो या मनुष्य, प्रारब्ध विधान से कौन छूट पाता है) । तदनन्तर उसकी गृहस्थधर्म की साक्षात् मूर्ति, पत्नी (कनका) मृत्यु को प्राप्त हुईं ।  यूँ तो नन्दभद्र जितेन्द्रिय थे परन्तु फिर भी पत्नी के न होने से गृहस्थ धर्म का नाश होगा यह सोचकर उन्हें शोक हुआ ।

ये देख सत्यव्रत को प्रसन्नता हुई और हाय हाय करता वह नन्दभद्र के पास आया और बोलै की अगर तुम जैसे धर्मात्मा और सदाचारी के साथ ऐसा हो सकता है तो यही कहूंगा के यह धर्म-कर्म व्यर्थ ही है । मैं सदा तुमसे कुछ कहना चाहता था परन्तु तुमने प्रस्ताव नहीं दिया तो नहीं कहा, क्योंकि बिना किसी प्रस्ताव के बृहस्पतिजी भी कोई बात कहें, तो उनकी बुद्धि की अवहेलना होती है और उन्हें नीच पुरुष की भान्ति अपमान प्राप्त होता है ।  मैं वाणी के अट्ठारह और बुद्धि के नौ दोषों से सर्वथा निर्दोष वाक्य बोलूंगा ।

वाक्य के गुण:


वाक्य - सूक्ष्मता, संख्या, क्रम, निर्णय और प्रयोजन, ये पाँच अर्थ जिसमें उपलब्ध हों उसे वाक्य कहते हैं ।
  • प्रयोजन - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के उद्देश्य से जो कहा जाता है वो प्रयोजन होता है ।
  • निर्णय - धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के विषय में प्रतिज्ञा करके वाक्य के उपसंहार में "यही वह है" ऐसा कहकर जो सिद्धांत बताया जाता है वह निर्णय वाक्य है ।
  • क्रमयोग - "यह पहले और यह पीछे कहना चाहिए" इस प्रकार क्रमविभागपूर्वक जो प्रस्तुत विषय का प्रतिपादन किया जाता है उसे कर्मयोग कहते हैं ।
  • संख्या - जहाँ गुणों और दोषों का यथावत विभाग करके दोनों के लिए प्रमाण उपस्थित किया जय उसे संख्या वाक्य कहते हैं ।
  • सूक्ष्मता - जहाँ वाक्य के विभिन्न अर्थों में अभेद देखा जाता है, उस अतिशय अभेद की प्रतीति में जो हेतु है; उसे ही सूक्ष्मता कहते हैं ।

वाणी के अट्ठारह दोष:
  • अपेतार्थ
  • अभिन्नार्थ
  • अप्रवृत्त
  • अधिक
  • अश्लक्ष्ण
  • संदिग्ध
  • पदान्त अक्षर का गुरु होना
  • पराङ्मुखमुख
  • अनृत
  • असंस्कृत
  • त्रिवर्गविरुद्ध
  • न्यून
  • कष्टशब्द
  • अतिशब्द
  • व्युत्क्रमाभिहृत
  • सशेष
  • अहेतुक
  • निष्कारण


बुद्धि के नौ(छः दोष और तीन गुण) दोष:
  • काम
  • क्रोध
  • भय
  • लोभ
  • दैन्य
  • अनार्जव(कुटिलता)


और गुण
  • दया, सम्मान और धर्म ।
शास्त्रों के जाल से पृथक हो मिथ्यावादों की छोड़कर केवल सत्य कहना ही मेरा व्रत है। इसीलिए मैं 'सत्यव्रत' कहलाता हूँ । भलेमानुस ! जबसे तुम पत्थर पूजने में लग गए, तब से तुम्हें कोई अच्छा फल मिला हो, ऐसा मैंने नहीं देखा । तुम्हारे एक ही तो पुत्र था, वो भी नष्ट हो गया । पतिव्रता पत्नी थी, सो भी संसार से चल बसी । साधो ! झूठे और कपटपूर्ण कर्मों का ही ऐसा फल हुआ करता है । भैया ! देवता कहाँ है ? यदि होते तो दिखाई न देते ? यह सब कुछ कपटी ब्राह्मणो की झूठी कल्पना है । लोग पितरों के उद्देश्य से दान देते हैं, यह देखकर मुझे तो हंसी आती है । मेरी दृष्टी में यह अन्न की बर्बादी है । भला, मरा हुआ मनुष्य क्या खायेगा ? मूर्ख एवं नीच ब्राह्मण, जो समस्त संसार की सृष्टि का अनेक प्रकार से वर्णन किया करते हैं, उसमें भी जो यथार्थ बात है उसे सुनो । संसार की सृष्टि और संहार - ये सब बातें झूठी हैं ।

 वास्तव में यह जगत सत्य है और इसी रूप में सदा बना रहता है । यह जगत स्वभाव से ही सदा वर्तमान रहता है, ये सूर्य आदि ग्रह, वायु, मेघ, बोया हुआ धान्य, नदियां, पर्वत, समुद्र, संतान उत्पत्ति और दुसरे सभी कार्य अपने स्वभाव से ही होते हैं । मनुष्य योनि से बढ़कर और किसी योनि में कष्ट नहीं है और दूसीर योनियों के जीव बंधन मुक्त होकर जीते हैं । यहाँ स्वभाव को ही प्रधान कारण समझो । पुण्य और पाप आदि तो कल्पना मात्र हैं इसलिए तुम मिथ्या धर्म का परित्याग करके मौज से जियो और भोग भोगो, यही सत्य है ।

नारद जी कहते हैं: सत्यव्रत के अशुभकर वाक्य सुन नंदभद्र तनिक भी विचलित नहीं हुए और हँसते हुए उत्तर दिया - यह बात सही नहीं की धर्मनिष्ठ मनुष्य सदा दुःख के भागी होते हैं क्योंकि हम तो पापियों पर भी बहुतेरे दुःख आते देखते हैं । दूसरी बात जो आप कहते हैं कि इस संसार का कारन को ईश्वर नहीं, बच्चों की सी बात है । क्या प्रजा, राजा के बिना रह सकती है ? जो आप लिङ्ग की पूजा को झूठा कहते हैं तो मुझे इतना ही कहना है की आप शिवलिङ्ग की महिमा को नहीं जानते । ब्रह्मा आदि समस्त देवता, समृद्धशाली राजा, साधारण मनुष्य तथा मुनि भी शिवलिङ्ग की पूजा करते हैं, उनके द्वारा स्थापित लिङ्ग उन्ही के नाम से अंकित एवं प्रसिद्ध हैं । क्या ये सब मूर्ख ही थे और अकेले आप, सत्यव्रत जी ही बुद्धिमानी का ठेका लिए बैठे हैं ?

जो आप यह कहते हैं की अगर देवता हैं तो दिखाई क्यों नहीं देते । क्या आप चाहते हैं कि किसी दरिद्र की भाँती देवता भी आपके पास आकर याचना करें ? यदि सभी पदार्थ स्वभाव से ही सिद्ध होते हैं तो बताइये, कर्ता के बिना भोजन क्यों नहीं तैयार हो जाता ? जो भी निर्माण कार्य है वो किसी न किसी कर्ता का ही है । जो आपने यह कहा की पशु आदि प्राणी ही सुखी एवं धन्य हैं, तो तमोगुणी और इन्द्रियों से रहित जो पशु-पक्षी आदि जो प्राणी हैं वे धन्य हैं तो सम्पूर्ण इन्द्रियों से युक्त मनुष्य श्रेष्ठ और धन्य क्यों नहीं ? मायावी लोग जब बोलने लगते हैं तो उनकी बातें आडम्बर से आच्छादित होती हैं परन्तु यहाँ सब दोष मेरा ही है जो मैं आपकी बात सुनता हूँ । मैं पुनः आपसे मिलने की इच्छा नहीं रखता, क्योंकि आप सदा ब्राह्मणो की ही निन्दा करते हैं । वेद, स्मृतियाँ तथा धर्म और अर्थ से युक्त वचन प्रमाण हैं परन्तु जिसकी दृष्टि में ये तीनो ही प्रमाण नहीं उसकी बात को कौन प्रमाण मानेगा ? ऐसा कहकर नन्दभद्र घर से निकल पड़े और भगवान् भट्टादित्य के परम पावन बहूदक तीर्थ में जा पहुंचे ।



नन्दभद्र और बालक संवाद
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शोकस्थानसहस्त्राणि हर्षस्थानशतानि च ।
दिवसे दिवसे मूढमाविशन्ति न पण्डितम् ।।
(स्क० पु०, मा० कुमा० ४१। २३)

इन्द्रियां जिसके वश में हो और शरीर जिसका दृढ़ हो, वह भी यदि साधन के सिवा और किसी वस्तु की इच्छा करे, तो उससे बढ़कर मूर्ख और कौन हो सकता है ? मूर्ख मनुष्य को ही प्रतिदिन शोक के सहस्त्रों और हर्ष के सैकड़ो स्थान प्राप्त होते हैं, विद्वान् पुरुष को नहीं ।

शारीरिक और मानसिक दुखों के चार कारण : रोग, अनिष्ट वस्तु की प्राप्ति, परिश्रम तथा अभीष्ट वस्तु से वियोग ।
मानसिक महाकष्ट : अप्रिय का संयोग और प्रिय का वियोग ।
व्याधि - शारीरिक दुःख
आधि - मानसिक दुःख
ज्ञान से मानसिक दुःख (आधि) शांत होता है ।
मानसिक दुःख की जड़ है स्नेह । स्नेह से दुःख, भय, हर्ष, शोक और आयास होते हैं । स्नेह से ही इन्द्रियराग और विषयराग जन्मते हैं ।
इनमें इन्द्रियराग भारी माना गया है इसलिए मित्रों से तथा धनसंग्रह से होने वाले स्नेह में कभी लिप्त न हों और अपने शरीर के प्रति स्नेह का ज्ञान द्वारा निवारण करें ।

तृष्णा हि सर्वपापिष्ठा नितयोद्वेगकरी मता । 
अधर्मबहुला चैव घोररोपानुबन्धिनी ।।
या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्या न जीर्यति जीर्यतः । 
यासौ प्राणान्तको रोगस्तां तृष्णां त्यजतस्सुखम् ।।
(स्क० पु०, मा० कुमा० ४१। ४० - ४१)

अर्थ:
तृष्णा सबसे बढ़कर पापिष्ठ और सदा उद्वेग में डालने वाली मानी गयी है । इसके द्वारा बहुत से अधर्म होते हैं । तृष्णा का रूप भी बड़ा भयंकर है । यह सबके मन को बाँधने वाली है । खोटी बुद्धि वाले पुरुषों द्वारा बड़ी कठिनाई से जिसका त्याग हो पाता है, जो इस शरीर के वृद्ध होने पर भी बूढी नहीं होती तथा जो प्राणान्तकारी रोगों के समान है, उस तृष्णा का त्याग करनेवाले को ही सुख मिलता है ।

नन्दभद्र बोले: ऐसा क्यों होता है कि पापी मनुष्य भी निरापद होकर स्त्री और धन के साथ आनंदमग्न देखे जाते हैं ?
बालक ने कहा: जिन्होंने पूर्वजन्म में तामसिक भाव से दान दिया, यह उसी जन्म का फल होता है परन्तु तामसिक होने से उनका धर्म में कभी अनुराग नहीं होता, तो ऐसे मनुष्य सभी पुण्य फलों को भोग कर अंततः नर्क में ही जाते हैं ।
मार्कण्डेय जी ने पूर्वकाल में इस प्रकार कहा है - चार प्रकार के मनुष्य होते हैं:
  • एक जिसके लिए इस लोक में तो सुख का भोग सुलभ है, परलोक में नहीं(जिसका पूर्वजन्म का पुण्य शेष है वह उसी को भोगता है और नूतन पुण्य का उपार्जन नहीं करता, उसको प्राप्त हुआ सुख केवल इसी लोक के लिए बताया गया है)।
  • दूसरा जिसके लिए परलोक में सुख सुलभ है, इस लोक में नहीं (जिसका पूर्वजन्मोपार्जित पुण्य नहीं है, किन्तु वह तप करके नूतन पुण्य उपार्जन करता है )।
  • तीसरा जिसको इस लोक में और परलोक दोनों में सुख प्राप्ति होती है (जिसका पहले का पुण्य वर्तमान है और तप से नूतन पुण्य का भी उपार्जन हो रहा है )।
  • चौथा जिसको न इस लोक में सुख प्राप्ति होती है और न परलोक में ही (जिसका पहले का पुण्य नहीं है और इस लोक में भी जो पुण्य का उपार्जन नहीं करता )।

जो अपने मनोरथों के नष्ट होने तथा प्राप्त होने पर शोक करता है या भोगो से तृप्त नहीं होता, वह निश्चय ही दुसरे जन्म के बंधन में पड़ता है ।

नन्दभद्र बोले: हे बालक ! आप बालरूप में उपस्थित होने पर भी वास्तव में बालक नहीं है, बड़े बुद्धिमान हैं, मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।
मैं बड़े विस्मय में हु कि आप कौन हैं, अपने यथार्थ रूप का परिचय दें ।

बालक ने कहा: इससे पहले आठवें जन्म में मैं विदिशा नगर के ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ था । मेरा नाम धर्मजालिक था । मैं वेद-वेदांतो का तत्वज्ञ, धर्मशास्त्रों के अर्थ जानने वाला, विद्वानों में श्रेष्ठ तथा साक्षात् बृहस्पति के समान धर्मशास्त्रों का व्याख्याता था । मैं लोगो के लिए वेद-वर्णन तो करता था परन्तु दुराचारी तथा पापियों में पापीराज था । कभी भी कोई सत्कर्म नहीं करता था तो मरने के बाद कूटशाल्मलि नामक नर्क में गिराया गया । तदनन्तर अत्यन्त यातना भोगने के पश्चात स्थावर योनि में जाकर अनेको क्लेशों का उपभोग करके मैं कीट बना । ब्राह्मण रूप में जो धर्मोपदेश मैंने दिए थे उनके प्रभाव से भगवान् वेद-व्यास उधर आ निकले और मुझे देखकर बोले "ओ कीट ! किसलिए इस प्रकार भागा जा रहा है? किसलिए मृत्यु से इतना डरता है? अहो ! मनुष्य को यदि मृत्यु से भय हो तो उचित हो सकता है, तू तो कीट है । तुझे इस शरीर के छूटने का इतना डर क्यों है ? "
तो मैंने कहा की मैंने मृत्यु से नहीं अपितु किसी और नीच या अधम योनि में जाने से डरता हूँ ।
व्यास जी बोले: कीट ! तू भय न कर, जब तक तू ब्राह्मण योनि में नहीं पहुँचता, तब तक मैं तुझे सभी योनियों से छुटकारा दिलाता रहूँगा ।

ऐसा सुनकर मैं रथ के पहिये के नीचे आकर मृत्यु को प्राप्त हुआ और अंततः ब्राह्मण के घर उत्पन्न हुआ परन्तु मैं व्यथित ही रहा क्योंकि पिता-माता ने मुझे अकेला छोड़ दिया, मुझे गलित कोढ़ रोग हो गया, इसके कारण मैं बहुत पीड़ा अनुभव करता हूँ । ५ वर्ष का होने पर व्यास जी ने मेरे कानो में सारस्वत मन्त्र का उपदेश किया जिसके प्रभाव से मुझे वेदों, शास्त्रों और सम्पूर्ण धर्मों का स्मरण हो आया । बाद में उन्होंने बहूदक तीर्थ में प्राण त्याग के हड्डियां महिसागर संगम में डलवाने का आदेश दिया जिसके बाद मैं 'मैत्रेय ' मुनि होने के पश्चात् मोक्ष को प्राप्त होऊंगा ।

नन्दभद्र बोले: अहो ! आपका अद्भुत चरित्र सुनकर धर्म में  मेरी दृढ़ता बढ़ गयी है । आपके इस उपदेश के लिए मैं आपकी क्या सेवा करू ?

बालक ने कहा: मेरे प्राणत्याग पश्चात् आप बर्करिका तीर्थ में मेरे शरीर का दाह करके मेरी सब हड्डियां इसी तीर्थ में डाल दीजियेगा । और बहूदक तीर्थ में, जहां मैं प्राण त्याग करूँगा, मेरे नाम से भगवान् सूर्य की स्थापना भी कर दीजियेगा ।

सो ही, तत्पश्चात नन्दभद्र ने वह बालादित्य नाम से विख्यात भगवन सूर्य की प्रतिमा स्थापित की । जो बहूदक में स्नान करके बालादित्य का पूजन करता है उस पर भगवन सूर्य प्रसन्न होते हैं और वह मोक्ष का उपाय प्राप्त कर लेता है ।


कमठ द्वारा गर्भवास तथा मानव शरीर की उत्पत्ति 

भोजन दो प्रकार का होता है -
प्राकृत : प्रकृति आदि २४ तत्वों के समुदाय को जो तृप्त करता है, वही प्राकृत भोजन कहलाता है । यह छः रसों और पाँच भेदों वाला बताया गया है। उसके भोजन करने से शरीर रुपी क्षेत्र की तृप्ति होती है ।
  • छः रस - मधुर, अम्ल, लवण, कटु, कषाय तथा तिक्त ।
  • पाँच भेद - भक्ष्य, भोज्य, पेय, लेह्य तथा चोष्य ।

परम :  परम कहते हैं आत्मा को, उसका जो भोजन है, वही परम भोजन है । अतः नाना प्रकार के धर्म का जो श्रवण है, उसे अन्न कहा गया है । क्षेत्रज आत्मा उस अन्न का भोक्ता है और दोनों कान उस अन्न को ग्रहण करने के लिए मुख हैं

भगवान् सूर्य ब्राह्मण रूप में कमठ से प्रश्न करते हैं: जीव कैसे उत्पन्न होता है?

कमठ ने कहा: जीव के जन्म लेने में तीन प्रकार का कर्म कारण होता है, पुण्य, पाप और उभय मिश्रित । अर्थात कर्म तीन प्रकार के हैं - सात्विक, राजस, तामस
  • जो सात्विक है वो स्वर्ग में जाता है फिर समयानुसार जब स्वर्ग से गिरता है तो संसार में धनि, धर्मी और सुखी होता है । 
  • जो तमोगुणी है, वो नरक में पड़ता है और वहां नाना प्रकार की यातनाएं भोगने के पश्चात् स्थावर योनि में जन्म लेता है ।  दीर्घकाल तक उस योनि में रहते हुए महात्मा पुरुषों के दर्शन, स्पर्श और उपभोग आदि से स्थावर शरीर से मुक्त होकर मनुष्य होता है परन्तु तब भी वह दुखी, दरिद्रता से घिरा और विकलेन्द्रिय(अँधा, बहरा, काना, कुबड़ा, लंगड़ा, लूला आदि) होता है 
  • जो पाप और पुण्य दोनों से मिश्रित कर्म वाला पुरुष है, वह पशु-पक्षी आदि की योनि को प्राप्त होता है, तत्पश्चात मनुष्य योनि प्राप्त करके यदि पुण्य अधिक और पाप कम हैं तो पहले दुखी होकर पीछे सुखी होता है अन्यथा पहले सुखी होकर पीछे दुखी होता है । 
पुरुष के वीर्य और स्त्री के रज का संगम होने पर सूक्ष्म ज्ञानेन्द्रिय, मन, बुद्धि तथा शुभाशुभ कर्मसंस्कार के साथ जीव गर्भ में प्रवेश करके रजोवीर्य कलाल में स्थित होता है और पहले एक मास तक मूर्छित अवस्था में रहता है ।
दुसरे मास में वह घनीभव को प्राप्त होता है ।
तीसरे मास में अवयवों का निर्माण होना शुरू होता है ।
इस प्रकार सातवे महीने में माता के खाये पिए हुए अन्न और जल का सार अंश ग्रहण करने लगता है ।
आठवें और नवें महीने में बालक को गर्भ में बड़ा उद्वेग प्राप्त होता है । सब अंग झिल्लियों में लपेटे होते हैं और हाथों की अंगुलिया मुख से बंधी होती हैं ।
यदि गर्भ का बालक अधिकतर उदर के मध्य में रहता है तो नपुंसक होता है, यदि वाम भाग में ठहरता है तो कन्या है और यदि दक्षिण भाग में रहता है तो पुरुष है ।
बालक के लिए गर्भ में रहना दुःसह होता है, माता के ठन्डे या गर्म जल पीने से सर्दी-गर्मी लगती है । अंगों की सुकुमारता के कारण बहुत पीड़ा होती है, रोग होते हैं । गर्भ से बाहर आते समय भी उसे बहुत कष्ट होता है जैसे त्वचा को कोई आरे से काट रहा हो ।
गर्भ में तो बालक को पूर्व जन्मों का स्मरण होता है और गर्भ के दुःख देखकर वह सत्कर्मो के बहुत संकल्प भी लेता है परन्तु पैदा होते है पूर्वकर्मों के अधीन होने से गर्भगत ज्ञान नष्ट हो जाता है और वह पूर्ववत काले, लाल और सफ़ेद कर्म करने लगता है ।

मनुष्य का शरीर एक घर के समान है । इसमें हड्डियां ही प्रधान स्तम्भ हैं, नस-नाड़ियों के बंधन से ही यह बंधा हुआ है, रक्त और मानसरूपी मिटटी से यह लिपा हुआ है, विष्ठा और मूत्र रुपी द्रव्य का यह पात्र है । सात धातुरूपी दीवारों से यह दृढ़ बना हुआ है, केश और रोमकूप रुपी घास से इसे छाया मिलती है, मुख ही घर का प्रधान द्वार है । शेष दो आँख, दो कान, दो नाक, लिङ्ग और गुदा - ये आठ खिड़कियां इस घर की शोभा बढ़ा रही हैं । दोनों ओंठ मुखरूपी द्वार के किवाड़ हैं, दांतों की अर्गला से इस द्वार को बंद किया गया है । नाड़ी ही इसकी नाली और पसीने आदि ही इसके गंदे जल के प्रवाह हैं । यह देह - गेह कफ और पित्त में डूबा हुआ है । जरावस्था और शोकावस्था से व्याप्त है, काल की मुखाग्नि में इसकी स्थिति है, राग और द्वेष आदि से यह सदा ग्रस्त रहता है । इसमें क्षेत्रज्ञ आत्मा गृहस्थ के रूप में रहता है और बुद्धि उसकी गृहणी है । इस शरीर में रहकर जीव नाना प्रकार के साधनो में संलग्न होकर नर्क, स्वर्ग और मोक्ष को प्राप्त होता है ।


शरीर में, वायु, अग्नि और चन्द्रमा - ये पाँच पाँच भागों में विभक्त होकर स्थित हैं ।

वायु के भेद
  • प्राण - उच्छवास(ऊपर की और श्वास खींचना), निःश्वास (श्वास को बाहर निकालना) तथा अन्न और जल को शरीर के भीतर पहुँचाना - ये तीन प्राणवायु के कर्म हैं । इसका निवास कण्ठ से लेकर मस्तक तक है ।
  • अपान -  इसका कर्म है मल, मूत्र, वीर्य का त्याग और गर्भ को योनि से बहार निकालना । इसका स्थान गुदा के ऊपर है ।
  • समान -  यह खाये हुए अन्न को धारण करती है, उसके विभिन्न अंशों को बिलगाती तथा सम्पूर्ण शरीर में रास-संचार करती हुई बेरोक-टोक विचरती है ।
  • उदान -  वाक्य बोलना, उदगार(कण्ठ के भीतर से कुछ निकालना) तथा सब कर्मो के लिए प्रयत्न करना इसके कार्य हैं । इसका स्थान कण्ठ से मुख तक है ।
  • व्यान - यह सदा ह्रदय में स्थित रहती है और सम्पूर्ण शरीर का भरण-पोषण करती है । इसके कार्य हैं - धातु को बढ़ाना, पसीना, लार आदि को निकालना तथा आँख खोलने-मींचने की क्रिया करना ।
*(नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त, धनञ्जय आदि दश वायु; शिव संहिता तृतीय पटल - श्लोक ५, के अनुसार, जो डकार, हिचकी-जम्भाई, क्षुधा, पिपासा उन्मीलन अर्थात निद्रा के समय जो नेत्र के बंद हो जाने का हेतु है, यह सब कार्य करते हैं ।

अग्नि के भेद(इन पाँच रूपों में अग्नि शरीर में स्थित है)
  • पाचक - यह पक्वाशय में स्थित होकर खाये हुए को पचाती है ।
  • रंजक - यह आमाशय में स्थित होकर अन्न के रस को रक्त के रूप में परिणत करती है ।
  • साधक - यह ह्रदय में रहकर बुद्धि और उत्साह आदि को बढाती है ।
  • आलोचक - नेत्रों में निवास करके रूप देखने की शक्ति बढाती है ।
  • भ्राजक - यह त्वचा में स्थित हो शरीर को निर्मल एवं कांतिमान बनती है ।


चन्द्रमा के भेद 
  • क्लेदक - यह पक्वाशय में स्थित होकर खाये हुए अन्न को गलाता है ।
  • बोधक - रसेन्द्रिय में रहकर, मधुर आदि रसों का अनुभव करता है ।
  • तर्पण - यह मस्तक में स्थित होकर नेत्र आदि इन्द्रियों की तृप्ति एवं पुष्टि करता है ।
  • श्लेषण - यह सभी संधियों में स्थित होकर उन्हें परस्पर मिलाय रखता है ।
  • आलम्बक - ह्रदय में स्थित हो शरीर के सभी अङ्गों को परस्पर अवलम्बित रखता है ।
नारद जी के गुणों का वर्णन 

अर्जुन बोले: देवर्षे ! आपमें जो कलह करने की प्रवृत्ति है, आपकी ऐसी चेष्टा क्यों होती है ?

सूतजी कहते हैं: शौनक ! अर्जुन के मुख से यह बात सुनकर नारद मुनि हँसते हुए बाभ्रव्य मुनि की ओर देखने लगते हैं जिनका जन्म हरित के कुल में हुआ था ।

बाभ्रव्य बोले: पाण्डुनन्दन ! पूर्वकाल में प्रजापति दक्ष ने मुनिश्रेष्ठ नारद को शाप दिया था । ऐसा इसलिए हुआ की सृष्टि-मार्ग में लगे हुए दक्ष के कुछ पुत्रों को नारदजी ने अपने वैराग्यपूर्ण उपदेशों से विरक्त बनाकर वहां से अन्यत्र भेज दिया था, जो कि दो बार हुआ । इससे रुष्ट होकर दक्ष ने नारद जी को शाप दिया कि वे सदा संसार में भ्रमण करते रहेंगे, ठहरने के लिए कहीं स्थान न मिलेगा और इधर-उधर चुगली करने वाले होंगे । यह दो शाप प्राप्त करके, उन्हें दूर करने में समर्थ होने पर भी उन्होंने साधुता से उन्हें स्वीकार कर लिया ।


नारद जी पहले यह देख लेते हैं कि अमुक दैत्य या राक्षस का विनाशकाल आ पहुंचा है तब वे उसकी कलह-भावना को बढ़ाते हैं और चुगली के लिए झूठ न बोलकर सत्य बताया करते हैं इसलिए वे पाप से लिप्त नहीं होते ।

अर्जुन बोले:देवर्षे ! मैं योग के स्वरुप का तात्विक विवेचन सुन्ना चाहता हूँ ।

चित्त कि वृत्तियों को जो रोकना है, वही योग का तत्व कहलाता है । योगी पुरुष, अष्टांग विधि से उसकी साधना करते हैं ।
ये योग के आठ अंग हैं और इस प्रकार योग आठ अंगों से युक्त बताया गया है
  1. यम 
    • अहिंसा - सम्पूर्ण प्राणियों में आत्मभाव रखकर सबके हित के लिए चेष्टा करने कि प्रवृत्ति ।
    • सत्य - जिसका वेदों में विधान किया गया हो, स्वयं देखा गया हो, सुना गया हो, अनुमान किया गया हो अथवा अनुभव में लाया गया हो, उसे दूसरों को पीड़ा न देते हुए उसे यथार्थरूप से वाणीद्वारा प्रकट करना ।
    • अस्तेय - अपने ऊपर आपत्ति पड़ने पर भी मन, वाणी, क्रिया द्वारा किसी प्रकार भी दूसरों का धन न लेना ।
    • ब्रह्मचर्य - मन, वाणी, शरीर और क्रिया द्वारा मैथुन से सर्वथा दूर रहना सन्यासियों का तथा ऋतुकाल में अपनी ही पत्नी के साथ केवल एक बार समागम कर, अन्य समय में पूर्ण संयम रखना गृहस्थों का ब्रह्मचर्य कहलाता है ।
    • अपरिग्रह - मन, वाणी, शरीर और क्रिया द्वारा सब वस्तुओं का त्याग कर देना सन्यासियों का "अपरिग्रह" तथा सब वस्तुओं का संग्रह रखते हुए भी केवल मन से उनका त्याग करना (ममता और आसक्ति न रखना) गृहस्थों का "अपरिग्रह" माना गया है ।
  2. नियम
    • शौच 
      • बाह्य - मिटटी और जल से जो शरीर के शुद्धि की जाती है ।
      • आभ्यन्तर - मन की शुद्धि ।
    • संतोष - न्याय से प्राप्त हुई जीविका या भिक्षा अथवा वार्ता के द्वारा (कृषि -वाणिज्य के द्वारा) जो कुछ प्राप्त हो, उसी से सदा संतुष्ट रहना ।
    • जप - वेदों का स्वाध्याय तथा प्रणव का अभ्यास ।
    • तप - अपने आहार को घटाते हुए साधक पुरुष जो चान्द्रायण आदि विहित तप का अनुष्ठान करता है ।
    • गुरुभक्ति - भगवान् शिव ही ज्ञानस्वरूप गुरु हैं, उनमें जो भक्ति की जाती है वही गुरुभक्ति मानी गयी है ।
  3. प्राणायाम (*प्राणो का उपरोध (संयम) करने से उस साधन का नाम प्राणायाम है)
    • प्राण और अपान वायु का निरोध । यह तीन प्रकार का बताया गया है :
      • लघु - लघु प्राणायाम बारह मात्रा का होता है, इससे स्वेद(पसीने) को जीते ।
      • मध्यम - लघु से दूना अर्थात चौबीस मात्रा वाला प्राणायाम, इससे कम्प को जीते ।
      • उत्तरीय - त्रिगुणीय अर्थात छत्तीस मात्रा का उत्तम प्राणायाम माना गया है, इससे विषाद को जीते । किसी आसन पर सुखपूर्वक विराजमान हो पद्मासन लगाकर रेचक, पूरक और कुम्भक भेद से त्रिविध प्राणायाम का अभ्यास करें ।
    • प्राणायाम से सिद्ध गुण :
      • शान्ति - स्वाभाविक आगन्तुक पापों की निवृत्ति तथा उनकी वासनाओं का शमन ।
      • प्रशान्ति - मन और बुद्धि के द्वारा लोभ और मोहरूपी दोषों का पूर्णतया निराकरण करने से मिलने वाली शान्ति ।
      • दीप्ति - भूत, भविष्य, दूरस्थ तथा अदृश्य पदार्थों का यहाँ भलीभांति ज्ञान होना ।
      • प्रसाद - सम्पूर्ण इन्द्रियों की प्रसन्नता तथा बुद्धि और प्राणों की निर्मलता ।
  4. प्रत्याहार  - विषय सेवन में लग हुए चित्त को विषयों की ओर से लौटने का प्रयत्न । चित्त को संयम में रखना ही प्रत्याहार है ।
  5. धारणा -  - इसके द्वारा साधित वायु का धीरे धीरे पान किया जाता है । गुदा, लिंग, नाभि, ह्रदय, तालु और भ्रूमध्यभाग(ललाट) में क्रमशः चतुर्दल, षडदल, दशदल, द्वादशदल, षोडशदल तथा द्विदल कमल का चिंतन करके उनमें प्राणवायु की धारणा करें और धीरे धीरे एक स्थान से समेटकर दुसरे स्थान में ऊपर उठाते हुए उस प्राण को मस्तक के भीतर ब्रह्मरन्ध्र में स्थापित कर दे । इन बारह स्थानों में प्राणवायु की धारणा तथा संकोच करने से सब मिलकर बारह प्राणायाम होते हैं, इन्ही को धारणा कहा जाता है ।
  6. ध्येय - ध्येय तत्व बहुत प्रकार का है, इसका कोई अन्त नहीं मिलता । कोई शिव का, कोई विष्णु का, कोई सूर्य और ब्रह्मा का और कोई महादेवी का ध्यान करते हैं । जो जिसका ध्यान करता है, उसी में लीन होता है इसलिए सदा कल्याण करने वाले पंचमुख भगवान् शंकर का ध्यान करना चाहिए ।
  7. ध्यान - 
  8. समाधि - 
उत्कल खण्ड
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इन्द्रद्युम्न ने पूछा: भगवन ! भक्ति का स्वरुप क्या है ? उसके लक्षण का वर्णन कीजिये ।

नारद जे ने कहा: भक्ति के तीन भेद हैं और इनके अतिरिक्त एक चौथी भक्ति है जो मानी गयी है ।
  • तामसी - जो लोग काम और क्रोध का वशीभूत हैं और प्रत्यक्ष के सिवा और किसी की ओर दृष्टि नहीं रखते, वे अपने को लाभ और दूसरों को हानि पहुँचाने के लिए जो भजन करते हैं 
  • राजसी - प्रसंगवश परलोक के लिए जो भक्ति होती है ।
  • सात्विकी - पारलौकिक लाभ को स्थायी समझकर और इहलोक के समस्त पदार्थों को नश्वर देखकर अपने वर्ण और आश्रम के धर्मो का परित्याग न करते हुए आत्मज्ञान के लिए जो भक्ति की जाती है ।
  • निर्गुणा(अद्वैत) - यह जगत, जगन्नाथ का ही स्वरुप है, उनसे भिन्न इसका कोई दूसरा कारण नहीं है, मैं भी भगवन से भिन्न नहीं हूँ और वे भी मुझसे पृथक नहीं हैं ऐसा समझकर भेद उत्पन्न करने वाली बाह्य उपाधियों का त्याग करना और अधिक प्रेम से भगवत स्वरुप का चिन्तन करते रहना ।

वैष्णव खण्ड
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अपृष्टवा यत्कृतं धर्म्यं भर्तारं तत्क्षयं नयेत् ।
स्त्रीणां नास्त्यपरो धर्मो भर्तारं प्रोज्झय कश्चन । ।
स्क. पु., वै. का. मा. ४।७२

अर्थ:
बिना पति कि आज्ञा लिए स्त्रियों को धर्म का कार्य नहीं करना चाहिए क्योंकि बिना पूछे जो धर्मकार्य किया जाता है, वह पति कि आयु को क्षीण कर देता है । स्त्रियों के लिए पति की सेवा छोड़कर दूसरा कोई धर्म नहीं है ।

दरिद्रः पतितो मूर्खो दीनो पि यदि चेत्पति:।
तादृशः शरणम स्त्रीणां तत्त्या गान्निरयं व्रजेत ।।
यस्य हस्तौ च पादौ च  वाङ्मनश्च सुसंयतं । 
विद्या तपश्च कीर्तिश्च स तीर्थ फलभाङ्नरः ।।
अश्रद्दधानः पापात्मा नास्तिकश्छिन्नमानसः ।   
हेतुवादी च पञ्चैते न तीर्थफलभागिनः ।।
स्क. पु., वै. का. मा. ४।७४, ७६, ७७

अर्थ:
जिसके दोनों हाथ, दोनों पैर, वाणी और मन - ये काबू में रहे तथा जिसमें विद्या, तप एवं कीर्ति हो, वही मनुष्य तीर्थ के फल का भागी होता है । जिसकी तीर्थों में श्रद्धा न हो, जो तीर्थ में भी पाप की ही बात सोचता हो, नास्तिक हो, जिसका मन दुविधा में पड़ा हो तथा जो कोरा तर्कवादी हो - ये पांच प्रकार के मनुष्य तीर्थफल के भागी नहीं होते ।

स्नान का तत्व जानने वाले मनीषी पुरुषों ने चार प्रकार के स्नान बतलाये हैं -
  • वायव्य - गोधूलि से किया हुआ स्नान ।
  • वारुण - समुद्र आदि के जल में किया हुआ स्नान । यह सबसे उत्तम है ।
  • ब्राह्म - वेदमन्त्रों के उच्चारणपूर्वक किया हुआ स्नान । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को यह स्नान करना चाहिए तथा स्त्री और शूद्र के लिए बिना मन्त्र के ही स्नान का  विधान है ।
  • दिव्य - मेघो अथवा सूर्य की किरणों द्वारा जो जल अपने शरीर पर गिरता है ।

आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च । 
ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं देहि वनस्पते ।।

हे वनस्पते ! आप मुझे आयु, बल, यश, तेज, सन्तति, पशु, धन, वैदिक ज्ञान, प्रज्ञा और धारणाशक्ति प्रदान करें । यह कहकर वृक्ष से बारह अंगुल की दाँतन ले, दूधवाले वृक्षों से दाँतन नहीं लेनी चाहिए ।

उपवासे नवम्यां च षष्ठयां श्राद्धदिने रवौ । 
ग्रहण प्रतिपद्यश्रे न कुर्याद्दन्त धावनम्  । ।
स्क. पु., वै. का. मा. ५।१५

अर्थ:
उपवास के दिन, नवमी और षष्ठी तिथि को, श्राद्ध के दिन, रविवार को, ग्रहण में, प्रतिपदा को तथा अमावस्या को भी काष्ठ से दाँतन नहीं करनी चाहिए ।

पुण्यशील और सुशील श्रीभगवान के दो पार्षद हैं ।

कांचीपुरी में चोल नामक एक चक्रवर्ती राजा हुए । एक समय राजा चोल अनन्तशयन नामक तीर्थ में गए जहाँ भगवान् विष्णु ने योगनिद्रा का आश्रय लेकर शयन किया था । वहां भगवान् विष्णु के विग्रह की राजा ने विधिवत पूजा करके दिव्य मणि, मुक्ताफल और स्वर्ण के बने हुए सुन्दर फूल चढ़ा कर साष्टांग प्रणाम किया । जैसे ही वे प्रणाम करके बैठे उन्होंने देखा की एक ब्राह्मण ने आकर तुलसीदल और जल से भगवान् की पूजा की और विष्णु सूक्त का पाठ किया । राजा ने देखा की तुलसीदल से उनके चढ़ाये हुए रत्न ढक गए हैं जिससे वे कुपित हुए और ब्राह्मण, विष्णुदास, जो उन्ही की कांचीनगरी के निवासी थे, से बोले की लगता है तुम भगवन विष्णु की भक्ति को बिलकुल नहीं जानते । इस पर द्विजश्रेष्ठ बोले - राजन आप को भक्ति का कुछ नहीं पता । राजा ने कहा तो ठीक है, सभी देखें की कौन पहले भगवान् विष्णु के दर्शन करता है । ऐसा कहकर वे चले गए और वैष्णव यज्ञ शुरू किया । उधर विष्णुदास ने भी माघ, कार्तिक के उत्तम व्रत का अनुष्ठान, तुलसीवन की रक्षा, एकादशी को द्वादशाक्षर मन्त्र का जप, नृत्य, गीत आदि मंगलमय आयोजनों से भगवान् विष्णु की पूजा के नियमो का आचरण किया । एक दिन विष्णुदास ने नित्यकर्म के पश्चात भोजन तैयार किया किन्तु कोई उसे चुरा ले गया तो उन्होंने अगली बार भोजन की रक्षा करने का निश्चय कर छिप गए और देखा कि एक चाण्डाल भोजन लेकर जा रहा था, उन्होंने रोकने कि कोशिश कि तो चाण्डाल भगा परन्तु कमजोरी के कारण थोड़ी दूर जाकर गिर गया । उसकी यह दशा देख विष्णुदास को उस पर दया आ गयी और उन्होंने उसे घी भी ले जाने को कहा । थोड़ी देर में भगवान् विष्णु अपने रूप में उसके सामने प्रकट हुए और विष्णुदास वैकुण्ठधाम को चले । ये देख राजा चोल को आभास हुआ कि दान, यज्ञ आदि नहीं अपितु भगवान् के दर्शन करने में भक्ति ही प्रधान कारण है ।

राजा बचपन से ही यज्ञ आदि में लिप्त रहते थे तो उन्हें कोई पुत्र नहीं था, सो राज्य अपने भांजे कि सौंप यज्ञशाळा में गए और यज्ञकुण्ड के सामने खड़े होकर भगवान् विष्णु को सम्बोधित करते हुए तीन बार ये वचन कहे - भगवान् विष्णु ! आप  मुझे मन, वाणी, शरीर और क्रिया द्वारा होने वाली अविचल भक्ति प्रदान कीजिये । यों कहकर वे अग्निकुंड में कूद गए ज्यों ही वे कूदे, त्यों ही भगवान् विष्णु प्रकट हुए और तत्पश्चात वे भी वैकुण्ठधाम को चले गए । जो विष्णुदास थे, वो पुण्यशील और राजा चोल, सुशील हुए । उन दोनों को अपने ही समान रूप देकर लक्ष्मीपति ने उन्हें अपना द्वारपाल बनाया ।


श्रीमद्भागवत के श्रवण की विधि

इसका सेवन चार प्रकार का होता है:
सात्विक: यह पूर्ण आनन्द को बढ़ानेवाला सेवन, एक या दो महीने में धीरे-धीरे कथा के आस्वादन करते हुए बिना परिश्रम का कथा श्रवण/सेवन होता है ।
राजस: प्रसन्नतापूर्वक किया हुआ सेवन, जिसमें यज्ञ की भांति तयारी की गयी हो, बहुत सी पूजा-सामग्रियों के कारण जो अत्यंत शोभासम्पन्न दिखाई दे रहा हो और बड़े ही परिश्रम से, बहुत उतावली के साथ सात दिनों में ही जिसकी समाप्ति की जाय ।
तामस: यह ऐसा जो कभी भूल से छोड़ दिया जाय और याद आने पर फिर आरम्भ कर दिया जाय, इस प्रकार एक वर्ष तक आलस्य और अश्रद्धा से चलाया जाय । यह कथा सेवन न करने के अपेक्षा अच्छा और सुख ही देने वाला है ।
निर्गुण: जब वर्ष, महीना और दिनों के आग्रह को छोड़कर सदा ही प्रेम और भक्ति के साथ श्रवण किया जाय ।

राजा परीक्षित और शुकदेव के संवाद में भी जो भागवत सेवन हुआ था वह सेवन 'निर्गुण' बताया गया है । उसमें जो सात  दिनों की बात आती है, वह राजा की आयु के बचे हुए दिनों की संख्या के अनुसार है, सप्ताह कथा का नियम करने के लिए नहीं ।

दूसरों के पुण्य और पाप कि आंशिक प्राप्ति के कारण


  • जो मनुष्य पुण्यकर्म करने वालो का दर्शन, स्पर्श और वार्तालाप करता है, वह उनके पुण्य का छठा अंश प्राप्त कर लेता है ।
  • पढ़ने से, यज्ञ करने से, एक पंक्ति में बैठकर भोजन करने से मनुष्य दूसरों के किये पुण्य और पाप का चौथाई भाग प्राप्त कर लेता है ।
  • एक आसन पर बैठने, एक सवारी पर यात्रा करने तथा श्वास से शरीर का स्पर्श होने से मनुष्य निश्चय ही पुण्य और पाप का छठे अंश के फल का भागी होता है ।
  • दुसरे के स्पर्श से, भाषण से, उसकी प्रशंसा करने से भी मानव सदा उसके पुण्य और पाप के दसवें अंश को पाता है ।
  • दर्शन और श्रवण से अथवा मन के द्वारा उसका चिन्तन करने से वह दुसरे के पुण्य और पाप का शतांश प्राप्त करता है ।
  • जो दुसरे कि निन्दा करता है, चुगली खाता या उसे धिक्कार देता है, वह उसके किये हुए पातक को स्वयं लेकर बदले में उसे अपना पुण्य दे देता है ।
  • जो मनुष्य किसी पुण्यकर्म करने वाले कि सेवा करता है, वह यदि उसकी पत्नी, भृत्य और शिष्यों से भिन्न है तथा उसे उसकी सेवा के अनुरूप धन नहीं दिया जा रहा है, यो वह भी सेवा के अनुसार उस पुण्यात्मा के पुण्यफल का भागी होता है ।
  • जो रसोई परोसते समय पंक्ति में बैठे पुरुष को छोड़कर आगे बढ़ जाता है, उसके पुण्य का छठा अंश वह छूटा हुआ व्यक्ति पा लेता है ।
  • स्नान और संध्या आदि करते समय जो दुसरे का स्पर्श अथवा दुसरे से भाषण करता है, वह अपने कर्मजनित पुण्य का छठा अंश निश्चय ही दे डालता है ।
  • जो दूसरों का धन चुराकर उसके द्वारा पुण्यकर्म करता है, वह कर्म करनेवाला तो पापी होता है पर जिसका धन चुराकर लगाया जाता है वह पुण्यफल प्राप्त करता है।
  • जो धर्म के उद्देश्य से दूसरों के पास जाकर धन कि याचना करता है, उसके उस पुण्यकर्मजनित फल का भागी वह धन देने वाला भी होता है ।
  • जो दूसरों का ऋण चुकाए बिना मर जाता है, उसके पुण्यों में वह धनी अपने धन के अनुरूप हिस्सा बाँट लेता है ।
  • जो बुद्धि देने वाला, अनुमोदन करने वाला, साधनसामग्री देने वाला तथा बल लगाने वाला है, वह भी पुण्य-पाप में छठे अंश को ग्रहण करता है ।
  • प्रजा के पुण्य और पाप में राजा छठा अंश लेता है ।
  • इसी प्रकार शिष्य से गुरु, स्त्री से उसका पति और पुत्र से उसका पिता, पुण्य-पाप का छठा अंश ग्रहण करता है ।
  • स्त्री भी यदि अपने पति के मन के अनुकूल चलने वाली और सदा उसे संतुष्ट रखनेवाली हो तो वह उसके पुण्य का आधा भाग प्राप्त कर लेती है ।
  • जो दुसरे के हाथ से दान आदि पुण्य कर्म करता है, उसके पुण्य का छठा अंश कर्ता ही लेता है(पुत्र और भृत्य षष्ठांश भागी नहीं होते) ।
  • वृत्ति देने वाला पुरुष वृत्ति भोगने वाले के पुण्य का छठा अंश ले लेता है(किन्तु तभी जब वृत्ति के बदले सेवा न ली गयी हो) ।

शिवयोगी का राजपुत्र को धर्म का उपदेश देना
स्क. पु., ब्रा. ब्रह्मो. १० |-

योगीश्वर ऋषभ बालक को उपदेश देते हुए बोले:
वेद, स्मृति और पुराणों में जिसका उपदेश किया गया है, वही सनातन धर्म है। गौ, देवता, गुरु और ब्राह्मण के प्रति सदा भक्तिभाव रखो । अतिथि के रूप में चाण्डाल भी अपने घर आ जाय, तो सदा उसका सत्कार करो । अपने प्राणो पर संकट आ जाय तो भी सत्य का परित्याग न करो । महाबाहो ! पराये धन की, पराई स्त्री की, देवता तथा ब्राह्मण की वस्तुओं की और अत्यंत दुर्लभ पदार्थों की भी तृष्णा त्याग दो । स्नान, जप, होम, स्वाध्याय, पितृतर्पण, गोपूजा, देवपूजा और अतिथिपूजा में कभी आलस्य को समीप न आने दो । क्रोध,द्वेष, भय, शठता, चुगली, अनुचित आग्रह कुटिलता, दम्भ और उद्वेग का यत्नपूर्वक त्याग करो । अकारण वैर, व्यर्थ बकवाद और दूसरों की निन्दा छोड़ दो । मृगया, द्यूतक्रीड़ा, मद्यपान, स्त्री और स्त्रीलम्पट पुरुष - इन सबके संग का परित्याग करो । अधिक भोजन, अधिक परिश्रम, अधिक बातचीत और अधिक खेल-कूद और क्रीड़ा-विलास को सदा के लिए छोड़ दो । अधिक विद्या, अधिक श्रद्धा, अधिक पुण्य, अधिक स्मरण, अधिक उत्साह, अधिक प्रसिद्धि और अधिक धैर्य जैसे भी प्राप्त हो, उसके लिए सदा चेष्टा करो । अपनी ही पत्नी के प्रति सकाम बनो । अपने शत्रुओं पर ही क्रोध करो । पुण्यराशि के संग्रह के लिए ही लोभ करो । पापाचारियों के प्रति ही असूया(दोषदृष्टि) करो । पाखंडियों के प्रति द्वेष और साध-पुरुषों के प्रति राग रखो । महामते ! जो तुम्हारा विश्वास पात्र रहा हो ऐसा कोई पुरुष यदि चोरी में भी पकड़ा जाय, तो उसे प्राणदण्ड न दो । अनाथ, दीन, वृद्ध, स्त्री, बालक और निरपराध मनुष्य की धन से, बुद्धि से, बल से, शक्ति से तथा अपने प्राणो द्वारा भी रक्षा करो । वध करने योग्य शत्रु भी अगर शरण में आ जाय तो उसे न मारो । माता-पिता और गुरु के कोप से बचो । धन का व्यय, पुत्रों और ब्राह्मणो का अपराध सहन करो । स्नान, जप, होम, देवपूजा तथा श्राद्ध कर्म में उतावली न करो । नींद लेने और भोजन करने में शीघ्रता करो । उदारता युक्त, शठता से रहित, सत्य, मनुष्य के मन को प्रिय लगनेवाली तथा थोड़े से अक्षर और अधिक अर्थ वाली बात बोलो । कहीं भी भय न करो । वेदवेत्ता ब्राह्मण, नियमों से प्रकाशित होने वाले शांत सन्यासी, पुण्य वृक्ष, पुण्य नदी, पुण्य तीर्थ, महासरोवर, धेनु, वृषभ, पतिव्रता स्त्री तथा अपने घर के देवताओं को उनके पास जाते ही सहसा नमस्कार करो । प्रतिदिन मंत्रराज पंचाक्षर का जप और ध्यान करते हुए सदा भगवान् सदाशिव के चरणों में अपने मन को रमते रहो । इस तरह संक्षेप में शिवयोगी ने बालक को धर्म का उपदेश किया । 


 वाल्मीकि की तपस्या
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व्यास जी: भगवन! भगवान् वाल्मीकेश्वर कौन हैं और वे यहाँ किस प्रकार प्रकट हुए हैं ?
सनत्कुमार: विप्रवर! प्राचीनकाल में सुमति नमक एक भृगुवंशी ब्राह्मण थे । उनकी पत्नी कौशिकवंश की कन्या थीं । सुमति के एक पुत्र हुआ, जिसका नाम अग्निशर्मा रखा गया। वह पिता के बार बार कहने पर भी वेदाभ्यास में मन नहीं लगाता था । एक बार उसके देश में बहुत दिनों तक वर्षा नहीं हुई । उस समय बहुत लोग दक्षिण दिशा में चले गए और वहां आश्रम बना कर रहने लगे । वहां अग्निशर्मा का लुटेरों से साथ हो गया; अतः जो भी उस मार्ग से आता, उसे वह पापात्मा मारता और लूट लेता था । उसको अपने ब्राह्मणत्व की स्मृति नहीं रही । वेद का अध्ययन जाता रहा, गोत्र का ध्यान चला गया और वेद-शास्त्रों की सुधि भी जाती रही । किसी समय तीर्थयात्रा के प्रसंग से उत्तम व्रत का पालन करने वाले सप्तर्षि उस मार्ग पर आ निकले । अग्निशर्मा ने उन्हें देखकर मारने की इच्छा से कहा - "ये सब वस्त्र उतार दो, ये जूता और छाता भी रख दो।"  उसकी बात सुनकर अत्रि मुनि बोले - "तुम्हारे ह्रदय में पीड़ा देने का विचार कैसे उत्पन्न हो रहा है ?" हम तपस्वी हैं और तीर्थयात्रा के लिए जा रहे हैं ।

अग्निशर्मा: मेरे माता-पिता, पुत्र और पत्नी हैं । उन सबका पालन पोषण मैं ही करता हूँ । इसलिए मेरे ह्रदय में यह विचार प्रकट हुआ है ।

अत्रि मुनि: तुम अपने पिता से जाकर पूछो तो सही कि मैं आपके लिए पाप करता हूँ, यह पाप किसको लगेगा । यदि वे यह पाप करने की आज्ञा न दें, तब तुम व्यर्थ प्राणियों का वध न करो ।

अग्निशर्मा बोला: अब तक तो मैंने कभी उन लोगों से ये बात न पूछी थी । आज आप लोगों के कहने से मेरी समझ में यह बात आयी है । अब मैं उन सबसे जाकर पूछता हूँ । देखूं किसका कैसा भाव है ? जब तक मैं लौटकर नहीं आता, तब तक आप लोग यहीं रहें ।

ऐसा कहकर अग्निशर्मा तुरन्त अपने पिता के समीप गया और बोला - 'पिताजी! धर्म का नाश करने और जीवों को पीड़ा देने से, बड़ा भरी पाप देखा जाता है और मुझे जीविका के लिए यही सब पाप करना पड़ता है । बताइये पाप किसको लगेगा ?' पिता और माता ने उत्तर दिया - 'तुम्हारे पाप से हम दोनों का कोई सम्बन्ध नहीं है। तुम करते हो अतः तुम जानो । जो कुछ तुमने किया है उसे फिर तुम्हें ही भोगना पड़ेगा ।' उनका यह वचन सुनकर अग्निशर्मा ने अपनी पत्नी से भी पूर्वोक्त बात पूछी । पत्नी ने भी यही उत्तर दिया -  'पाप से मेरा समबन्ध नहीं है, यह सब पाप तुम्हें ही लगेगा ।' फिर उसने अपने पुत्र से पुछा । पुत्र बोला - 'मैं तो अभी बालक हूँ, मेरा आपके पाप से क्या समबन्ध ?'

उनकी बातचीत और व्यवहार को ठीक ठीक समझकर अग्निशर्मा मन ही मन बोला - 'हाय! मैं तो नष्ट हो गया । अब वो तपस्वी महात्मा ही मुझे शरण देनेवाले हैं ।' फिर तो उसने उस डण्डे को दूर फेंक दिया, जिससे कितने ही प्राणियों का वध किया था और सर के बाल बिखराये हुए वह तपस्वी महात्माओं के आगे जाकर खड़ा हुआ । वहां उनके चरणों में दण्डवत प्रणाम करके बोला - 'तपोधनों मेरे माता-पिता, पत्नी और पुत्र कोई नहीं हैं । सबने मुझे त्याग दिया है, अतः मैं आप लोगों की शरण में आया हूँ । अब उत्तम उपदेश देकर आप नरक से मेरा उद्धार करें ।

सभी ऋषि अत्रि जी बोले: मुने! आपके कथन से ही इसे बोध प्राप्त हुआ है, अतः आप ही इसे अनुग्रहीत करें । यह आपका शिष्य हो जाय । 'तथास्तु' कहकर अत्रि जी अग्निशर्मा से बोले - 'तुम इस वृक्ष के नीचे बैठकर इस प्रकार से ध्यान करो । इस ध्यानयोग से और महामन्त्र(रामनाम) - के जप से तुम्हें परम सिद्धि प्राप्त होगी ।' ऐसा कहकर वे सब ऋषि यथेष्ट स्थान को चले गए । अग्निशर्मा तरह वर्षों तक मुनि के बताये अनुसार ध्यानयोग में संलग्न रहा । वह अविचल भाव से बैठा रहा और उसके ऊपर बाँबी जम गई । तरह वर्षों बाद जब वह सप्तर्षि पुनः उसी मार्ग से लौटे, तब उन्हें वल्मीक में से उच्चारित होने वाली रामनाम की ध्वनि सुनाई पड़ी । इससे उनको बड़ा विस्मय हुआ । उन्होंने काठ की कीलों से वह बांबी खोदकर अग्निशर्मा को देखा और उसे उठाया । उठकर उसने उन सभी श्रेष्ठ मुनियों को, जो तपस्या के तेज से उद्भासित हो रहे थे, प्रणाम किया और इस प्रकार कहा - 'मुनिवरों! आपके ही प्रसाद से आज मैंने शुभ ज्ञान प्राप्त किया है । मैं पाप-पंक में डूबा रहा था, आपने मुझ दीं का उद्धार कर दिया है ।'

उसकी बात सुनकर परम धर्मात्मा सप्तर्षि बोले - वत्स! तुम एकचित्त होकर दीर्घकाल तक वाल्मीक(बांबी) में बैठे रहे हो, अतः इस पृथ्वी पर तुम्हारा नाम 'वाल्मीकि' होगा । उनके चले जानेपर तपस्वी जानो में श्रेष्ठ वाल्मीकि ने कुशस्थली में आकर महादेव जी की आराधना की और उसने कवित्वशक्ति प्राप्त कर एक मनोरम काव्य की रचना की, जिसे 'रामायण' कहते हैं और जो कथा साहित्य में सबसे प्रथम माना जाता है ।


नरकों का संक्षिप्त विवरण 
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व्यास जी ने पुछा: प्रभो! नरक कितने हैं ? और किस स्थान पर उनकी स्थिति है ? यह बताने की कृपा करें ।

सनत्कुमार जी: व्यास! समस्त नरक पाताल लोक में स्थित हैं जो सदैव दुःख देने वाले हैं । सब जीव अपने अपने पुण्यों का नाश होने से, अपने अपने कर्मो के अनुसार अधोगति को प्राप्त होते हैं । रौरव, शूकर, रौद्र, ताल, विनशक, तप्तकुम्भ, तप्तायस, महाज्वाल, कुम्भीपाक, क्रकचन, अतिदारुण, कृमिभक्ति, रक्त, लालाभक्ष, गण्डक, अधोमुख, अस्थिभंग, यंत्र-पीडनक, संदंश, रुधिरांग, असिपत्र और कुभोजन इत्यादि सभी नरक अत्यंत भयंकर हैं । यमराज के राज्य में उन सबकी स्थिति है । उनका नाम सुन लेने मात्र से अत्यंत भय हो जाता है । पापकर्म में संलग्न रहने वाले मनुष्य उनमें गिरते हैं और गिरे हुए जीव अपने कर्मों के अनुसार उनमें पकाये जाते हैं । भाँती भाँती की यातनाओं द्वारा उनके पापकर्मो का क्षय होता है । तपाई हुई लोहे की सांकल से मनुष्यों के दोनों हाथ खूब कसकर बाँध दिए जाते हैं और बड़े बड़े वृक्षों के शिखरों पर यमदूत उन्हें लटका देते हैं । वे अपने अपने कर्मो के लिए शोक करते हुए चुपचाप लटके रहते हैं और भयंकर यमदूत अग्नि के सामान कीलों, काँटों और लोह दण्डों से उन पापात्माओं को मारते पीटते रहते हैं ।  इस प्रकार उन नरकों में यातना दे देकर पापी पुरुषों को पकाया जाता है । यह यातना उन्ही पापियों को भोगनी पड़ती है, जो बहुत पाप करके उनके लिए कोई प्रायश्चित्त नहीं करते । जिस पुरुष को पाप करने के बाद उसके लिए बहुत पश्चाताप होता है, उसकी पापशुद्धि के लिए एकमात्र भगवान् शिव का स्मरण ही सर्वोत्तम प्रायश्चित है ।

यमलोक मार्ग के कष्टों और अट्ठाइस नरक कोटियों का वर्णन 
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युधिष्ठिर ने पूछा: विप्रवर ! कौन मनुष्य यमराज के लोक में जाते हैं और यमलोक के नरक कैसे हैं ? ये सब मुझे बताइये।

मार्कण्डेय जी ने कहा: सब दानों में अन्नदान को उत्तम माना गया है । तीनो लोकों में अन्नदान के समान दूसरा कोई दान नहीं है । शरीर में  रक्त, मांस, मज्जा और वीर्य - ये सब अन्न से ही क्रमशः बनते हैं । वीर्य से ही प्राणियों की उत्पत्ति होती है; इसलिए सम्पूर्ण जगत अन्नमय है । अतः सदा ही अन्नदान करना चाहिए । जो पापी मनुष्य कुकर्म करते और ऐसे दान से मुख मोड़ते हैं, वे अत्यंत भयानक दक्षिण मार्ग से यमलोक को जाते हैं ।
यमलोक सब ओर से छियासी हज़ार योजन विस्तृत है । वहां नाना प्रकार के भयानक रूपधारण करने वाले यमदूत रहते हैं और उन्हीं के कारण वह पूरी बड़ी भयङ्कर प्रतीत होती है । दुष्टात्मा, क्रूर एवं पापी पुरुषों के लिए यमपुरी दूर होने पर भी निकट सी ही प्रतीत होती है । वे तीखे काँटों से युक्त, कंकड़ पत्थरों से विभूषित, छुरे की धारों से आच्छादित और तीक्ष्ण पत्थरों से निर्मित मार्ग से यात्रा करते हैं ।

निकृष्ट मार्ग से यमराज के नगर में गए हुए पापी जीव आज्ञा मिलने पर दूतों द्वारा यमराज के सम्मुख पहुंचाए जाते हैं । वहां चित्रगुप्त उन पापियों को धर्मोपदेश करते हुए उनके पापों का स्मरण करते हैं ।  तब उन्हें पाप से शुद्ध करने के लिए यमदूत नरक के समुद्र में डाल देते हैं ।

नरकों की अट्ठाइस श्रेणियां हैं, जो सातवें पाताल के अन्त घोर अन्धकार के भीतर स्थित है -
१। अतिघोरा

  • पहला रौरव है क्योंकि उसमें पड़े हुए प्राणी रोते हैं । 
  • दूसरा महारौरव है जिसकी दुःसह पीड़ा से महान साहसी भी रो देते हैं । 
  • तीसरा तम  चौथा शीत और पांचवां उष्ण है ।
  • इस प्रकार पहली कोटि के ये पांच नायक माने गए हैं । 


२। रौद्रा
  • दूसरी कोटि के अघोर, तीक्ष्ण, पद्म, संजीवन और शठ - ये पांच नायक हैं ।

३। घोरतमा
  • तीसरी कोटि के नायक हैं - महामाय, विलोम, कण्टक, कटक और तीव्र ।

४। अत्यंत दुःखजननी
  • चौथी कोटि के नायक - वाम, कराल, किंकराल, प्रकम्पन और महाचक्र ।

५। घोररूपा
  • पांचवी कोटि के नायक - सुपद्म, कालसूत्र, प्रागार्जन, सूचीमुख और सुनेमी ।

६। तरणतारा
  • छठी कोटि के नायक - खादक, सुप्रपीड़ित, कुम्भीपाक, सुपाक और क्रकच ।

७। भयानका
  • सातवीं कोटि के नायक - सुदारुण, अंगाररात्रि, पाचन, असृक्पूयभव और सुतीक्ष्ण ।

८। कालरात्रि
  • आठवीं कोटि के नायक - शुण्ड, शकुनि, महासंवर्तक, क्रतु और तप्तजन्तु ।

९। घटोत्कटा
  • नवीं कोटि के नायक - पंकलेप, पूतिमान, हृद, त्रपु और उच्छवास हैं ।

१०। चण्डा
  • दसवीं कोटि के नायक - निरुच्छवास, सुदीर्घ, क्रूर, शाल्मलि और उष्ट्रित हैं ।

११। महाचण्डा
  • ग्यारहवीं कोटि के नायक - महानाद, प्रवाह, सुप्रवाहन, वृषाश्रय और वृषश्व हैं ।

१२। चण्डकोलाहला
  • बारहवीं कोटि के नायक - सिंघानन, व्याघ्रानन, गजानन, श्वानन और सूकरानन हैं ।

१३। प्रचण्डा
  • तेरहवीं कोटि के नायक - अजानन, महिषानन, मेषानन, मूषकानन और खरानन हैं ।

१४। वराग्निका
  • चौदहवीं कोटि के नायक - ग्राहानन, कुम्भीरानन, नक्रानन, महाघोर और भयानक हैं ।

१५। जघन्या
  • पंद्रहवीं कोटि के नायक - सर्वभक्ष, स्वभक्ष, सर्वकर्मा, अश्व और वायस हैं ।

१६। अवरालोमा
  • सोलहवीं कोटि के नायक - गृध्रोलूक, उलूक, शार्दूल, कपि और कच्छुर हैं ।

१७। भीषणी
  • सत्रहवीं कोटि के नायक - गण्डक, पूतिवक्त्त्र्य, रक्तास्य, पूतिमूत्रिक और कणधूम्र हैं ।

१८। नायिका
  • अट्ठारहवीं कोटि के नायक - तुषाराग्नि, कृत्रिमान, निरय, आतोद्य और प्रतोद्य हैं ।

१९। कराला
  • उन्नीसवीं कोटि के नायक - रुधिरोद्य, भोजन, कालात्मग, अनुभक्ष और सर्वभक्ष हैं ।

२०। विकराला
  • बीसवीं कोटि के नायक - सुदारुण, कर्कट, विशाल, विकत और कटपूतन हैं ।

२१। वज्रविंशति
  • इक्कीसवीं कोटि के नायक - अम्बरीष, कटाह, कष्टदायिनी वैतरणी, सुतप्त और लौहशंकु हैं । 

२२। अस्ता
  • बाईसवीं कोटि के नायक - एकपाद, अश्रुपूर्ण, घोर असिपत्रवन, प्रतिष्ठित अस्थिलिङ्ग और तिलयंत्र हैं ।

२३। पञ्चकोणा
  • तेईसवीं कोटि के नायक - अतसीयन्त्र , इक्षुयन्त्र, कूट, पाप और प्रमर्दन हैं ।

२४। सुदीर्घा
  • चौबीसवीं कोटि के नायक - महाचुल्ली, विचुल्ली, तप्त लोहमयी शिला, क्षुरधार पर्वत और मय हैं ।

२५। परिवर्तुला
  • पच्चीसवीं कोटि के नायक - यमल पर्वत, सूचीकूप, विष्ठाकूप, अन्धकूप और पतन हैं ।

२६। सप्तभौमा
  • छब्बीसवीं कोटि के नायक - पातन, मुसली, वृषली, अशिवा और संकटला हैं ।

२७। अष्टभौमा और
  • सत्ताईसवीं कोटि के नायक - तालपत्र वन, असिगहन, महामोहक, सम्मोहन और अस्थिभङ्ग हैं ।

२८। दीर्घमाया
  • अट्ठाईसवीं कोटि के नायक - तप्ताचलमय, अगुण, बहुदुःख, महादुःख और कश्मल हैं ।


ये सभी नारको की कोटियां हैं । इन सबके क्रमशः पांच-पांच नायक होते हैं ।

इनके सीवा यमल, हालाहल, विरूप, श्वरूप, च्युतमानस, एकपाद, त्रिपाद और तीव्र आदि नरक हैं ।  इस प्रकार यहाँ नरकों के अट्ठाइस पञ्चक
बताये गए हैं ।


अनसूया जी के पुत्र रूप से ब्रह्मा, शिव और विष्णु का अवतार 
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अनसूया ब्रह्मा जी के मानस पुत्र महर्षि अत्रि कि पत्नी थीं ।

अनसूया बोलीं : ब्रह्मन ! पतिदेव ! जो नारी पतिव्रता है, वह पति और पुत्र दोनों कि वृद्धि करनेवाली है तथा धर्म, अर्थ और काम तीनो की साधिका  है । अतः वह सबके द्वारा पालन करने योग्य है । जप, तप, तीर्थयात्रा, पुत्रेष्टि तथा मन्त्र-साधना आदि साधन पुत्र की प्राप्ति करानेवाले होते हैं । यदि आपकी आज्ञा हो, तो मैं पुत्र के लिए दुष्कर तपस्या करूँ ?

अत्रि ने कहा: महाप्राज्ञे ! तुम्हें साधुवाद है । मैं आज्ञा देता हूँ, तुम पुत्र के लिए तपस्या करो ।

तब अनसूया ने अपने पति को साष्टांग प्रणाम करके कहा: विप्रवर ! आपके प्रसाद से मैं सिद्धि प्राप्त करुँगी ।

नर्मदा के उत्तरतट पर पहुँच कर अनसूया नियमपालन में संलग्न हुई । वह पत्ते चबाकर रहती और उत्तम स्तोत्रों से देवताओं की स्तुति करती थी । तब ब्रह्मा, विष्णु और महादेव जी ब्राह्मण रूप धारण कर उसके सामने पहुंचे और तप करने का कारण पूछा ।

कारण जानकार उन्होंने अपने स्वरूप के दर्शन दिए और वरदान मांगने को कहा ।

अनसूया ने कहा : अगर आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे वरदान दें कि मेरे पुत्र होकर उत्पन्न हों ।

भगवान् विष्णु बोले: कल्याणी ! मैं तुम्हें देवतुल्य पराक्रमी, पिता के समान गुणवान, सोमयाजी और बहुश्रुत पुत्र देता हूँ ।

अनसूया बोली: भगवन ! मैंने जैसी प्रार्थना की है, उसके अनुकूल, मनोवांछित वास्तु मुझे देनी चाहिए । उसके विपरीत नहीं करनी चाहिए ।

तब तीनो देवता बोले: कल्याणी ! हम तुम्हारे अयोनिज पुत्र होंगे, क्योंकि देवता गर्भ में निवास नहीं करते ।

इतना कहकर तीनो देवता चले गए ।

इसके बाद अनसूया अपने पति के समीप गयीं और उन्होंने अनसूया पर दृष्टिपात किया। परस्पर दर्शन से ही अत्रि के ललाट में के शुभ्र ज्योतिर्मण्डल प्रकट हुआ जिसकी किरणे नौ सहस्त्र योजन तक फैली हुई थी । गोल आकारवाला ब्रहम्मण्डल, त्रिविध परिधिमण्डल से घिरा हुआ था । मण्डल के मध्यभाग में दिव्य पुरूषधारी देवदेवेश्वर ब्रह्माजी प्रकट हुए । ये ही अनसूया के प्रथम पुत्र साक्षात् ब्रह्मा जी के अवतार चन्द्रमा नाम से विख्यात हुए । इन्ही को सोम भी कहते हैं । वह सोलह कलाओं से संयुक्त हो माता पिता के श्रेष्ठ एवं प्रिय पुत्र हुए । इनकी सोलहवीं कला का नाम अमावस्या है । ये चन्द्रमा सूक्ष्म होकर चार प्रकार के जीवों से युक्त सम्पूर्ण चराचर जगत को तृप्त करते हैं । आहुति में दिया हुआ द्रव्य चन्द्रमा में ही स्थित होता है । अमावस्या के ये चन्द्रमा जब वनस्पतिओं में व्याप्त रहते हैं, उस समय जो मूढ़ मानव किसी वनस्पति को काटता है, वह दुःख भोगता है और अपने किये हुए एक वर्ष के पुण्य को भस्म कर देता है ।
उनके दुसरे पुत्र महाभाग दुर्वासा मुनि है जो सृष्टिसंहारकारी साक्षात् महादेव के अवतार हैं ।
उनके तीसरे पुत्र दत्तात्रेय नाम से विख्यात हुए जो जगद्व्यापी जगन्नाथ साक्षात् विष्णु भगवान् के अवतार हैं । 


शर्मिष्ठा द्वारा स्थापित तीर्थ का माहात्म्य/ कर्मफल
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सूतजी कहते हैं: पूर्वकाल में 'वृक' नाम से प्रसिद्ध एक चंद्रवंशी राजा हुए । वे बड़े ही ब्राह्मणभक्त, शरणागतवत्सल और सर्वलोकहितकारी थे । उनकी पत्नी भी बड़ी पतिव्रता और समस्त सद्गुणों से सुशोभित थी । उन दोनों को चौथेपन में एक कन्या हुई । राजा ने विद्वान् ज्योतिषियों को बुलाकर पूछा - "मेरी यह कन्या कैसी होगी?"

ज्योतिषी ब्राह्मण बोले: राजन ! सूर्य के चित्रा नक्षत्र पर रहते सोमवार और चतुर्दशी के योग में जो जन्म ग्रहण करती है, वह विषकन्या होती है । ऐसी कन्या का जो पाणिग्रहण करता है, वह पुरुष छः महीने के भीतर अवश्य मृत्यु को प्राप्त होता है । वह जिस घर में जन्म लेती है, वह कुबेर का ही महल क्यों न हो, उसे छः महीने के भीतर धन से रहित कर देती है । अतः आपकी यह पुत्री वास्तव में विषकन्या है । यह पितृकुल और श्वसुरकुल दोनों का नाश कर देगी । इस कारन आप इसे त्यागकर सुखी हो जाइये । यदि हमारे कहे हुए हितकर वचनपर आपको श्रद्धा हो तो ऐसा ही कीजिये ।

राजा ने कहा: ब्राह्मणो ! मैं इस कन्या को त्याग दूँ या घर में रखूं, दोनों ही दशाओं में मेरे पूर्व शरीर से किया हुआ कर्म ही फलीभूत होगा । पहले का शुभ कर्म हो या अशुभ कर्म उसे मिटाया नहीं जा सकता । अतः मैं अपने कर्म को ही आगे रखकर इस कन्या का त्याग नहीं करूँगा । जो जिस जिस शरीर से जैसा जिअसे कर्म करता है वह उसी उसी शरीर से पुनः सबके फल को भोगता है । अपन इन्द्रियों से पूर्वजन्म  में जो कर्म किया गया है, वह मिट नहीं सकता । उसका फल भोगना ही पड़ेगा और बिना किये हुए किसी कर्म का फल अपने सामने आ नहीं सकता । अतः मेरे सामने जो भी परिणाम आवे, मुझे कोई भय नहीं है । देहधारी जीव के लिए गर्भ में ही आयु, कर्म, धन, विद्या और मृत्यु - इन पांच वस्तुओं की सृष्टि कर दी जाती है । जैसे वृक्षों और लताओं में फल और फूल अपने समयपर आते ही हैं - समय का उल्लंघन नहीं करते, उसी प्रकार पूर्वजन्म का किया हुआ कर्म भी अपने समय का उल्लंघन नहीं करता । नियत समय पर उसका भोग करना ही पड़ता है । कोई भी पुरुष पूर्वशरीर द्वारा किये हुए कर्म को अपने बल और बुद्धि से पलट देने में समर्थ नहीं है । जो शीघ्रता पूर्वक दौड़ता है, उसके पीछे उसका कर्म भी दौड़ता है । कर्म साथ ही सोता और खड़े होने पर साथ ही खड़ा होता है । जिसको जहाँ भी सुख या दुःख भोगना है, वह रस्सी से बंधा हुआ सा बलपूर्वक वहां खींचकर पहुँच जाता है । जैसे तेल समाप्त हो जाने पर दीपक बुझ जाता है, उसी प्रकार कर्मों का नाश हो जाने पर जीव मोक्ष को प्राप्त हो जाता है । ऋतुकाल में पुरुष द्वारा गर्भ में स्थापित किये हुए अचेतन वीर्य के एक बिंदु का आश्रय लेकर जीव अपने कर्म के साथ वृद्धि को प्राप्त होता है । जिस उदार में कितने ही अन्न-पान डाले जाएं, नष्ट हो जाते है, भक्ष्य पदार्थ पच जाता है; वहीँ पड़ा हुआ वह गर्भ क्यों नहीं नष्ट हो जाता । इसलिए लोक में देहधारियों का किया हुआ शुभाशुभ कर्म ही सुख-दुःख रूप में प्राप्त होता है, ऐसा मेरा निश्चय है । अरक्षित वस्तु भी दैव (प्रारब्धकर्म) से सुरक्षित होकर बच जाती है और सुरक्षित भी दैव से हत होकर नष्ट हो जाती है । वन में त्यागा हुआ अनाथ बालक भी जीवित रहता है और घर में बड़े प्रयत्न से पाला-पोसा जानेवाला शिशु भी मृत्यु को प्राप्त हो जाता है ।

इक्ष्वाकु वंश -> अज -> दशरथ -> राम------------------------------------------------------

सूतजी कहते हैं: ब्रह्मर्षियों ! जिस समय सर्वलोकहितकारी राजा अजापाल राज करते थे, उस समय सम्पूर्ण व्याधियां उनके यहाँ अजा(बकरी) के रूप में रहती थीं । उनको अपने अधीन सुरक्षित रखने के कारण ही वे अजापाल कहलाये । वे उन सब बकरियों को रात में ले आकर एक स्थान पर रख देते थे । अतः उन अजाओं का आश्रय स्थान अजागृह के नाम से प्रसिद्ध हुआ । हाटकेश्वर में जो अजागृह नमक तीर्थ है, वह दर्शन करने पर भूतल के समस्त मनुष्यों के पापों का नाश करनेवाला है ।

* इन्ही राजा अज के पुत्र हुए राजा दशरथ जिनसे श्रीराम हुए
**स्कन्द पुराण, नागरखण्ड के अनुसार

शुकदेव जी का जन्म, वैराग्य, व्यासजी से उनका संवाद और वनगमन
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सूत जी कहते हैं: एक समय की बात है, शांतचित्त महात्मा व्यास जी के मन में पत्नी के लिए अभिलाषा हुई, तब उन्होंने जाबालि मुनि से उनकी सुन्दरी कन्या मांगी । जाबालि ने चेटिका नाम की कन्या व्यास जी के साथ ब्याह दी । तब व्यास जी उसके साथ वन में रहते हुए मैथुन में प्रवृत्त हुए । ऋतुकाल में सत्यवती नन्दन, व्यास से मैथुन प्राप्त करके चेटिका गर्भवती हुई । उसका दूसरा नाम पिंगला भी था । उसके उदर में वह गर्भ दिन-दिन पुष्ट होने लगा । बारह वर्ष बीत गए, किन्तु वह गर्भ उत्पन्न नहीं हुआ । वह भीतर ही रहकर जो कुछ सुनता उसे याद कर लेता था, उसकी बुद्धि बड़ी प्रखर थी । उसने गर्भ में रहते हुए ही अङ्गोंसहित सम्पूर्ण वेद पढ़ लिए । स्मृति, पुराण और मोक्षशास्त्र का वह दिन-रात पूर्णरूपेण पाठ करता था । वह गर्भ में ज्यों जिन वृद्धि को प्राप्त होता, त्यों ही त्यों उसकी माता अत्यंत पीड़ा को प्राप्त होकर व्याकुल होती जाती थी । तब विस्मय में पड़े हुए व्यास जी ने उस गर्भस्थ बालक से पुछा - "तुम कौन हो? गर्भ का रूपधारण करके मेरी धर्मपत्नी की कुक्षि में आ बैठे हो ? बाहर क्यों नहीं निकलते ?"

गर्भ बोला: जो चौरासी लाख योनियां बताई गयी हैं, उन सबमें मैंने भ्रमण किया है । अतः मैं क्या बताऊँ कि मैं कौन हूँ । भयंकर संसार में भ्रमण करते करते मुझे बड़ा निर्वेद(वैराग्य) हुआ है । इस समय मनुष्य होकर इस उदर में आया हूँ । अब मेरा विचार किसी प्रकार मनुष्य लोक में निकलने का नहीं है । यहीं रहकर योगाभ्यास में तत्पर हो मोक्ष मार्ग को प्राप्त होऊंगा ।

व्यास जी ने कहा: वत्स ! यदि तुम्हारी ऐसी ही अभिलाषा है, तो तुम्हें पाप नहीं लगेगा । इस गर्भवास रुपी घृणित अवं घोर नरक से निकल आओ और योग का आश्रय लेकर कल्याण को प्राप्त होओ ।

गर्भ बोला: विप्रवर ! जब तक जीव गर्भ में रहता है, तभी तक उसे ज्ञान, वैराग्य और पूर्वजन्म का स्मरण बना रहता है । जब वह गर्भ से निकलता है और भगवान् विष्णु कि माया उसे स्पर्श करती है, तब सारा ज्ञान भूल जाता है इसलिए मैं गर्भ से किसी तरह बाहर नहीं निकलूंगा ।

व्यास जी ने कहा: वैष्णवी माया तुम पर किसी तरह प्रभाव नहीं डालेगी । अतः तुम मुझे अपना मुख दिखाओ ।  तदनन्तर बारह वर्ष के कुमार शुक जो यौवन के समीप पहुँच चुके थे, गर्भ से बाहर निकले और व्यास तथा माता को प्रणाम करके उसी क्षण वनवास के लिए प्रस्थित हुए । तब मुनिवर व्यास ने कहा - "बेटा ! मेरे घर में ठहरो; जिससे तुम्हारे जातकर्म संस्कार तो कर दूँ ।"

शुकदेव बोले: मेरे जन्म-जन्म में सैकड़ों संस्कार हो चुके हैं । उन्ही बाँधनात्मक संस्कारों ने मुझे भवसागर में डाल रखा है ।

व्यास जी ने कहा: द्विज के बालक को पहले ब्रह्मचारी, फिर गृहस्थ, तत्पश्चात वानप्रस्थी और अन्त में संस्यासी होना चाहिए । इसके बाद वह मोक्ष को प्राप्त होता है ।

शुकदेव जी बोले: यदि ब्रह्मचर्य से ही मोक्ष होता है, तब तो नपुंसको को वह सदा ही प्राप्त होना चाहिए । यदि गृहस्थाश्रमियों की मुक्ति होती है, तब तो सम्पूर्ण जगत को ही मुक्त हो जाना चाहिए । यदि कहें कि वनवास में अनुरक्त रहने वालो की मुक्ति होती है तब तो मृगों की मुक्ति अवश्य हो जानी चाहिए । यदि आपका यह विचार हो कि संन्यास धर्म का पालन करने वाले मनुष्यों का मोक्ष होता है, तब तो जितने दरिद्र मनुष्य हैं, उन सबकी मुक्ति पहले हो जानी चाहिए ।

व्यास जी ने कहा: मनु जी का कथन है कि गृहस्थ धर्म में अनुरक्त हो सन्मार्ग पर चलनेवाले मानवों के लिए यह लोक और परलोक दोनों सुखद होते हैं । गृहस्थाश्रमी पुरुषों के द्वारा गृहस्थ धर्म का पालन करने के लिए जो संग्रह किया जाता है, वह इहलोक और परलोक में भी सनातन सुख प्रदान करता है ।

शुकदेव जी बोले: दैवयोग से कभी अग्नि से भी शीतलता प्राप्त हो सकती है, चन्द्रमा से भी ताप हो सकता है; परन्तु इस मर्त्यलोक में परिग्रह से भी सुख की उत्पत्ति हो, ऐसा न तो कभी हुआ है, न होता है और न आगे कभी होगा ही ।

व्यास जी बोले: बहुत पुण्य होने से किसी प्रकार इस पृथ्वी पर अत्यंत दुर्लभ मानवजन्म की प्राप्ति होती है । उसे पाकर यदि मनुष्य गृहस्थधर्म का जानने वाला हो तो उसे क्या नहीं मिल जाता ?

शुकदेव जी ने कहा: यदि मनुष्य जन्मकाल में अपनी अवस्था को देखकर ज्ञानयुक्त होता है तो जन्म लेने के पश्चात वह सारा ज्ञान भूल जाता है ।

व्यासजी ने कहा: मनुष्य का पुत्र हो या गदहे का बच्चा, जब वह शरीर में धूल लपेटे, चञ्चल गति से चलता और तोतली वाणी बोलता है, तब उसका वह शब्द भी लोगों के लिए बड़ा आनन्ददायक होता है ।

शुकदेव जी बोले: मुने ! धूल में रेंगते और लोटते हुए अपवित्र शिशु से जो यहाँ संतुष्ट होते या सुख का अनुभव करते हैं, वे अज्ञानी हैं ।

व्यास जी ने कहा: यमलोक में पुं नामक महाभयंकर नरक है, पुत्रहीन मनुष्य ही उसमें जाता है, इसलिए पुत्र की प्रशंसा की जाती है ।

शुकदेव जी बोले: महामुने ! यदि पुत्र से ही सबको स्वर्ग की प्राप्ति होती, तब तो सूअरों, कुत्तों और टिड्डियों को विशेष रूप से उसकी प्राप्ति होनी चाहिए ।

व्यास जी ने कहा: पुत्र के दर्शन से मनुष्य पितृ-ऋण से मुक्त होता है, पौत्र के दर्शन से वह देव-ऋण से मुक्त होता है और प्रपौत्र को भी देख ले, तब तो वह स्वर्ग का निवासी होता है ।

शुकदेव जी बोले: गीध दीर्घजीवी होता है, वह सदा अपनी कई पीढ़ी की सन्तानो को क्रमशः देखता है, किन्तु क्या वह मोक्ष को प्राप्त हो जाता है ?

सूतजी कहते हैं : इस प्रकार कह कर शुकदेव जी वन में चले गए और चेटिका ने महादेव की तपस्या कर के वंशवृद्धि के लिए कपिंजल नामक पुत्र प्राप्त किया ।


ताम्बूल के दोष तथा सूर्ती खाने का निषेधराजा सिद्धसेन (दम्भ)-विश्वामित्र संवाद ----------------------------------------------------------

आनर्तनरेश ने विश्वामित्र से शंखतीर्थ का माहात्म्य पूछा

विश्वामित्र बोले: राजन ! जैसे आजकल तुम आनर्तदेश के स्वामी हो, इसी प्रकार पूर्वकाल में 'दम्भ' नाम से प्रसिद्ध राजा इस देश के शासक थे । उनके कोई पुत्र नहीं था । एक दिन ऐसा आया, जब वे सहसा कुष्ठरोग से ग्रस्त हो गए । इसी समय अनेक शत्रुओं ने भी उन पर धावा कर दिया । उनका राज्य छिन गया और वे रैवतक पर्वत पर चले गए । वहां जाने पर भी चोर और बटमार उन्हें सब ओर से पीड़ा देने लगे । उनसे बचने का विचार करके वे देवर्षि नारदजी का दर्शन करने के लिए गए । उन्होंने नारद मुनि से हाथ जोड़ दीन भाव से कहा - 'मुनिश्रेष्ठ ! मैं सब ओर से शत्रुओं द्वारा सताया गया, अतः राज्य छोड़कर रैवतक पर्वत पर चला आया । वन में आने पर भी मुझे शांति नहीं मिली । पापी लुटेरों ने सब ओर से मुहे पीड़ा दी और मेरे पास जो कुछ भी हाथी, घोड़े, रथ, खजाना आदि वस्तुए तथा स्त्रियां थी, उन सबको लूट लिया ।
उसका वचन सुनकर मुनिवर नारदजी ने दिव्य दृष्टी से सब वृत्तांत जान लिया और कहा - महाराज ! पूर्व शरीर में तुमने कोई कुकर्म नहीं किया है । मैंने दिव्य दृष्टी से तुम्हारे पूर्व-जन्म का सब हाल जान लिया है ।

दम्भ बोले: प्रभो ! यदि पूर्वजन्म में मैंने पाप नहीं किया है, तो इस जन्म में कोई पाप किया हो, यह याद नहीं आता । फिर क्या कारण है की सहसा मेरा राज्य छिन गया ।

राजा का वचन सुनकर नारदजी ने बहुत देर तक सोचकर कहा - राजन ! मैं तुम्हें पुनः राज्य की प्राप्ति एवं आरोग्य का उपाय बताता हूँ । तुम्हारे राज्य में अतिसुन्दर हाटकेश्वर नमक पुण्यमय तीर्थ है, जहाँ सब पातकों का नाशक शंखतीर्थ बहुत प्रसिद्ध है । जो मनुष्य श्रध्दापूर्वक वैशाखमास के शुक्ल पक्ष की अष्टमी को रविवार के दिन सूर्योदय के समय इसमें स्नान करता है वह सब प्रकार के कुष्ठरोगों से मुक्त हो सूर्य के समान तेजस्वी हो जाता है ।

विश्वामित्र कहते हैं: देवर्षि नारदजी की बात सुनकर  राजा दम्भ ने वैसा ही किया और उसी समय कुष्ठरोग से मुक्त हो गए । तदनन्तर उनसे पूर्वकाल में जो एक भूल हुई थी उसका प्रायश्चित्त किया । भूल यह हुई थी कि उन्होंने किसी समय चूर्णपत्र (सूर्ती) के साथ ताम्बूल पान भक्षण कर लिया था, उसी का यह फल था ।

सुनकर आनर्तनरेश को बड़ा आश्चर्य हुआ और जानने कि उत्सुकता हुई कि चूर्णपत्र खाने से दोष क्यों होता है ।

विश्वामित्र बोले: प्राचीन काल की बात है, देवताओं ने समुद्र मन्थनद्वारा अमृत प्राप्त करके उसे नन्दनवन में रखा । वही ऐरावत हाथी के बांधने का खम्भा भी था । नागराज ऐरावत रात-दिन उस अमृत की दिव्य सुगन्ध लेता था । एक समय उस कलश से एक लता प्रकट हुई और वह वैल्टी हुई नागराज ऐरावत के आलान(बाँधने के खम्भे) पर चढ़ गयी । देवता लोग उस अपूर्व सुगन्धित लता के पत्र तोड़कर मुखशुद्धि के लिए खाते थे और खाकर बड़े प्रसन्न होते थे । तदनन्तर धन्वन्तरि वैद्य ने उसे देखकर कहा - "यह नाग के आलान पर फैली है इसलिए नागवल्ली नाम से प्रसिद्ध होगी और मेरे वचन से यह सदा कामदेव का स्थान(उद्दीपन करनेवाली) होगी।" तत्पश्चात उन्हने उसके साथ सुपारी, चूना और कत्थे का संयोग करके उसके द्वारा इन्द्रदेवता को तृप्त किया

इन्द्र ने कहाराजन ! वर मांगो ।

धन्वन्तरि बोले: यह नागवल्ली कृपा करके मुझे भी दीजिये, मर्त्यलोक में इसका प्रचार हो ।

'तथास्तु' कहकर इन्द्र ने नागवल्ली (पान की बेल) उन्हें दे दी । राजा ने अपने नगर में जाकर उसे उद्यान में आरोपित किया । तदनन्तर शीघ्र ही उसका सब ओर प्रचार हो गया । उसे खा-खाकर मनुष्य काम-भोग में आसक्त हो गए । कोई भी यज्ञ आदि सत्कर्म न तो करता था और न कराता ही था । समस्त धार्मिक क्रियाएं लुप्त हो गयीं । देववृन्द यज्ञभाग से वंचित हो गए और क्षुधा से पीड़ित हो ब्रह्मा जी के समीप जा कर बोले - "सुरश्रेष्ठ ! मर्त्यलोक में समस्त धर्मकार्य बंद हो गए । सारा जगत ताम्बूल भक्षण करके कामासक्त होता जा रहा है । अतः हमलोगों पर कृपा कीजिये, जिससे हमारा यज्ञकार्य नष्ट न होने पावे ।"
इसी समय ब्रह्मा जी यज्ञ के लिए पुष्करतीर्थ में आये । उस समय दारिद्र्य ने उनके पास जा प्रणाम करके विनयपूर्वक कहा - "देव ! मैं तो ब्राह्मणो के घर में रहकर उपवास करते-करते ऊब गया हूँ, अब कोई धनवानों का अच्छा सा घर मेरे रहने के लिए बताइये, जहाँ खूब पेट भरकर भोजन मिले और तृप्ति बनी रहे ।"

सोच-विचार कर ब्रह्मा जी बोले: "दारिद्र्य ! तुम्हें चूर्णपत्र(सूर्ती) में सदा निवास करना चाहिए । ताम्बूल के पत्ते के अग्रभाग में पत्नी के साथ रहो और वृन्त में पुत्र के साथ निवास करो । रात होने पर तुम तीनो कत्थे में निवास करना ।"  इस प्रकार धनवानों के यहाँ छिद्र उत्पन्न करने के लिए दरिद्रता को ये चार स्थान दिए गए हैं *। राजन ! राजा दम्भ ने न जानने के कारण उन सब दोषों से युक्त पान खा लिए थे, इसीलिए उन्हें सहसा ऐश्वर्य से हाथ धोना पड़ा ।

* इस प्रसंग से जान पड़ता है, पान न खाना सर्वोत्तम है । दोष से बचकर खाना हो तो, पान में सुर्ती तो कभी डाले ही नहीं, क्योंकि उसमें सदा दारिद्र्य का वास है । देखा भी जाता है, गरीब लोग ही अधिक सुर्ती खानेवाले हैं । रात में भी पान न खाये, क्योंकि कत्थे में उस समय दरिद्रता का वास है । पान के पत्ते का अग्रभाग और डण्ठल तोड़कर केवल दिन में बिना सुर्ती का पान देवता को अर्पण करके खाने में दोष नहीं है । शायद इसी से पान का डण्ठल और अगला भाग तोड़ने की प्रथा है ।


श्राद्धकल्प 
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सूतजी कहते हैं: एक समय महामुनि मार्कण्डेय जी राजा रोहिताश्व के यहाँ पधारे और यथायोग्य सत्कार के बाद उन्हें कथा सुनाने लगे । कथा के अन्त में राजा रोहिताश्व ने कहा - "भगवन ! मैं श्राद्धकल्प का यथार्थरूप से श्रवण करना चाहता हूँ ।

मार्कण्डेय जी बोले: राजन ! यही बात आनर्तनरेश ने भर्तृयज्ञ से पूछी थी । वही प्रसंग सुनाता हूँ ।

आनर्त नरेश ने पूछा: ब्रह्मन ! श्राद्ध के लिए कौन सा समय विहित है? श्रद्धोपयोगी द्रव्य कौन से हैं ? श्राद्ध के लिए कौन कौन सी वस्तुएं पवित्र मानी गयी हैं ? कैसे ब्राह्मण श्राद्धकर्म में सम्मिलित करने योग्य है और कैसे ब्राह्मण त्याज्य माने गए हैं ?

भर्तृयज्ञ ने कहा: राजन ! विद्वान पुरुष को अमावस्या के दिन अवश्य श्राद्ध करना चाहिए । क्षुधा से क्षीण हुए पितर श्राद्धान्न की आशा से अमावस्या तिथि आने की आशा करते रहते हैं । जो अमावस्या तिथि को जल या शाक से भी श्राद्ध करता है, उसके पितर तृप्त होते हैं और उसके समस्त पातकों का नाश हो जाता है ।

आनर्त ने पूछा: विशेषतः अमावस्या को श्राद्ध करने का विधान क्यों है ? मरे हुए जीव तो अपने कर्मानुसार शुभाशुभ गति को प्राप्त होते हैं; फिर श्राद्धकाल में वे अपने पुत्र के घर कैसे पहुँच पाते हैं ?

भर्तृयज्ञ ने कहा: महाराज ! जो लोग यहाँ मरते हैं, उनमें से कितने ही लोग जन्म ग्रहण करते हैं, कितने ही पुण्यात्मा स्वर्गलोक में स्थित होते हैं और कितने ही पापात्मा जीव यमलोक के निवासी हो जाते हैं । कुछ जीव भोगानुकूल शरीर धारण करके अपने किये हुए शुभाशुभ कर्म का उपभोग करते हैं । राजन ! यमलोक या स्वर्गलोक में रहनेवाले पितरों को भी तब तक भूख प्यास अधिक होती है, जब तक कि वे माता या पिता से तीन पीढ़ी के अंतर्गत रहते हैं, उनमें भूख-प्यास की अधिकता रहती है । पितृलोक या देवलोक के पितर तो श्राद्धकाल में सूक्ष्म शरीर से आकर श्राद्धीय ब्राह्मणो के शरीर में स्थित होकर श्रद्धभाग ग्रहण करते हैं; परन्तु जो पितर कहीं शुभाशुभ भोग में स्थित हैं या जन्म ले चुके हैं, उनका भाग दिव्य पितर आकर ग्रहण करते हैं और जीव जहाँ जिस शरीर में होता है - वहां तदनुकूल भोग की प्राप्ति कराकर उसे तृप्ति पहुंचाते हैं । ये दिव्य पितर नित्य और सर्वज्ञ होते हैं । पितरों के उद्देश्य से सदा ही अन्न और जल का दान करते रहना चाहिए । जो नीच मानव पितरों के लिए अन्न और जल न देकर आप ही भोजन किया करता या जल पीता है, वह पितरों का द्रोही है । उसके पितर स्वर्ग में अन्न और जल नहीं पाते हैं । इसलिए शक्ति के अनुसार अन्न और जल उनके लिए अवश्य देने चाहिए । श्राद्ध द्वारा तृप्त किये हुए पितर मनुष्य को मनोवांछित भोग प्रदान करते हैं ।


श्राद्ध की आवश्यकता तथा समय 
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आनर्तनरेश ने कहा: ब्रह्मन ! श्राद्ध के लिए और भी तो नाना प्रकार के पवित्रतम काल हैं; फिर अमावस्या को ही विशेष रूप से श्राद्ध करने की बात क्यों कही गयी है ?

भर्तृयज्ञ ने कहा: महाराज ! यह सत्य है कि श्राद्ध के योग्य और भी बहुत से समय हैं । मन्वादि तिथि, युगादि तिथि, संक्रांति काल, व्यतिपात, गजच्छाया, चन्द्रग्रहण तथा सूर्यग्रहण - इन सभी समयो में पितरों कि तृप्ति के लिए श्राद्ध करना चाहिए । पुण्यतीर्थ, पुण्यमन्दिर, श्रद्धयोग्य ब्राह्मण तथा श्राद्ध के योग्य उत्तम पदार्थ प्राप्त होने पर बुद्धिमान पुरुषों को बिना पर्व के भी श्राद्ध करना चाहिए । अमावस्या को जो विशेष रूप से श्राद्ध करने का उपदेश किया गया है, इसका कारण बताता हूँ, एकाग्रचित होकर सुनो । सूर्य की सहस्त्रों किरणों में जो सबसे प्रमुख है, उसी का नाम 'अमा' है; उस 'अमा' नामक प्रधान किरण के ही तेज से सूर्यदेव तीनो लोकों को प्रकाशित करते हैं । उसी अमा में तिथि विशेष को चन्द्रदेव निवास करते हैं, इसलिए उसका नाम 'अमावस्या' है । यही कारण है कि अमावस्या प्रत्येक धर्मकार्य के लिए अक्षय फल देनेवाली बताई गयी है । श्राद्धकर्म में तो इसका विशेष महत्त्व है ही ।
अग्निष्वात्त, बर्हिषद, आज्यप, सोमप, रश्मिप, उपहूत, आयन्तुन, श्राद्धभुक तथा नान्दीमुख - ये नौ दिव्य पितर बताये गए हैं ।  आदित्य, वसु, रूद्र और दोनों अश्विनीकुमार भी केवल नान्दीमुख पितरों को छोड़कर शेष सभी को तृप्त करते हैं । ये पितृगण ब्रह्मा जी के समान बताये गए हैं; अतः पद्मयोनि ब्रह्मा जी उन्हें तृप्त करने के पश्चात सृष्टिकार्य आरम्भ करते हैं ।
इनके सिवा दुसरे भी ऐसे मर्त्य-पितर होते हैं, जो स्वर्गलोक में निवास करते हैं । वे दो प्रकार के देखे जाते हैं; एक तो सुखी हैं और दुसरे दुखी ।  मर्त्यलोक में रहने वाले वंशज जिनके लिए श्राद्ध करते हैं और दान देते हैं, वे सभी वहां हर्ष में भरकर वहां देवताओं के समान प्रसन्न होते हैं । जिनके लिए उनके वंशज कुछ भी दान नहीं करते, वे भूख प्यास से व्याकुल और दुखी देखे जाते हैं । एक समय कि बात है, अग्निष्वात आदि सभी पितर देवराज इन्द्र के पास गए । महाराज इन्द्र उन्हें आया देख सम्पूर्ण देवताओं के साथ भक्तिपूर्वक उनका पूजन किया । इसके बाद जब वे देवदुर्लभ पितृलोक जाने लगे, तब क्षुधा पिपासा से पीड़ित रहने वाले मर्त्यपितरों ने दिव्य स्तोत्रों से, पितृसूक्त के मन्त्रों तथा पितरों को संतुष्ट करनेवाले अन्यान्य वैदिक स्तोत्रों से उन सबकी स्तुति करके दीनतापूर्ण वचनों द्वारा उन्हें प्रसन्न किया । तब वे दिव्य पितर प्रसन्न होकर उनसे बोले - 'सुव्रतों ! हम सब तुम लोगों पर प्रसन्न हैं, बोलो तुम क्या चाहते हो ?

मर्त्यपितर बोले - दिव्य पितृगण ! हम मनुष्यों के पितर हैं । अपने कर्मो द्वारा मर्त्यलोक से स्वर्ग में आकर देवताओं के साथ निवास करते हैं परन्तु यहाँ हमें अत्यंत भयंकर भूख और प्यास का कष्ट होता है । जान पड़ता है हम आग में जल रहे हैं । यहाँ के नन्दन आदि वनों में बड़े सुन्दर सुन्दर वृक्ष हैं । सबमें फल लगे हुए हैं, परन्तु उन फलों को जब हम हाथ में लेते हैं और यत्नपूर्वक जोर जोर से खींचते हैं, तो भी वे डाली से टूटकर अलग नहीं होते । प्यास से पीड़ित होकर यदि हम देवनदी गंगा का जल हाथ में उठाते और पीते हैं, तब हमारे हाथ में उस जल का स्पर्श ही नहीं होता । इस स्वर्गलोक में कोई खाता पीता नहीं दिखाई देता । अतः यहाँ का निवास हमारे लिए भयंकर हो गया है । यहाँ जो देवता या गुह्यक आदि हैं, वे सब विमान में बैठे हुए प्रसन्नचित्त दिखाई देते हैं, इन्हें भूख प्यास का कष्ट नहीं है । ये अनेक प्रकार के भोगों से संपन्न हैं । क्या हम सब लोग भी कभी ऐसे हो सकेंगे ? भूख प्यास के कष्ट से रहित हो परम संतोष पा सकेंगे ।

दिव्यपितरों ने कहा: इन्द्र आदि केवल दुसरे दुसरे कार्यों में व्यग्र होकर जब हमारे लिए श्राद्ध नहीं करते, दान नहीं देते, तब हम लोगों कि ऐसी ही कष्टपूर्ण दशा हो जाती है । उस समय हम वहां से आकर देवताओं से कहते हैं, प्रार्थना करते हैं । उसके बाद जब ये लोग श्राद्ध-तर्पण द्वारा हमें तृप्त करते हैं, तब हमें तृप्ति प्राप्त होती है । इसी प्रकार तुम लोगों के जो वंशज एकाग्रचित्त हो तुम्हारे लिए श्राद्ध का दान देते हैं, उससे तुम लोग भी क्यों नहीं तृप्त होओगे ? अब प्रमादी वंशज, पितरों का तर्पण नहीं करते, तब उनके पितर स्वर्ग में रहने पर भी भूख-प्यास से व्याकुल हो जाते हैं; फिर जो यमलोक में पड़े हैं, उसके कष्ट का तो कहना ही क्या है ?
इतना कहकर दिव्य पितरों ने मर्त्यपितरों को साथ ले ब्रह्मा जी के समीप गमन किया और उनकी तथा अपनी शाश्वत तृप्ति के लिए उपाय पूछा । तब ब्रह्मा जी ने कहा - 'पितरों ! यदि मनुष्य, पिता, पितामह और प्रपितामह के उद्देश्य से तथा मातामह, प्रमातामह और वृद्धमातामह के उद्देश्य से श्राद्ध-तर्पण करेंगे तो उतने से ही उनके पिता और मातामह से लेकर मुझतक सभी पितर तृप्त हो जाएंगे । जिस अन्न से मनुष्य अपने पितरों की तुष्टि के लिए श्रेष्ठ ब्राह्मणों को तृप्त करेगा और उसी से भक्तिपूर्वक पितरों के निमित्त पिण्डदान भी देगा, उससे तुम्हें सनातन तृप्ति प्राप्त होगी । अमावस्या के दिन वंशजों द्वारा श्राद्ध और पिण्ड पाकर पितरों को एक मास तक तृप्ति बनी रहेगी । सूर्यदेव के कन्या राशि पर स्थित रहते समय आश्विन कृष्णपक्ष (पितृपक्ष/महालय) में जो मनुष्य तिथि पर पितरों के लिए श्राद्ध करेंगे, उनके उस श्राद्ध से पितरों को एकवर्ष तक तृप्ति बनी रहेगी ।  यदि मनुष्य गयाशीर्ष में जाकर एक बार भी श्राद्ध कर देंगे तो उसके प्रभाव से तुम सभी पितर सदा के लिए तृप्त हो जाओगे ।

भर्तृयज्ञ कहते हैं:  राजन ! ऐसा जानकर विज्ञ पुरुष को चाहिए कि पितरों को तृप्त करने की इच्छा रखकर वह उक्त समयों में श्राद्ध अवश्य करे । इहलोक और परलोक में उसकी उन्नति चाहने वाले पुरुष को विशेषतः गयाशीर्ष में जाकर श्राद्ध करना चाहिए । जो मनुष्य श्राद्ध नहीं करता, उसके पितर भूख-प्यास से पीड़ित हो बहुत दुखी होते हैं । मन ही मन तृप्ति की अभिलाषा रखकर वे पितृपक्ष की प्रतीक्षा करते हैं, ठीक उसी तरह जैसे किसान लोग रात-दिन वर्षा की राह देखते हैं । पितृपक्ष बीत जाने पर भी जब उन्हें श्राद्ध का अन्न नहीं मिलता, तब वे जब तक सूर्य कन्याराशि पर रहते हैं, तब तक अपनी संतानों द्वारा किये हुए श्राद्ध की प्रतीक्षा करते हैं । उसके भी बीत जाने पर पितर तुलाराशि के सूर्य तक पूरे कार्तिकमास में अपने वंशजो द्वारा किये जानेवाले श्राद्ध की राह देखते हैं । जब सूर्यदेव वृश्चिक राशि पर चले जाते हैं, तब वे पितर दीन और निराश होकर अपने स्थान पर लौट जाते हैं । राजन ! इस प्रकार पूरे दो मास तक भूख प्यास से व्याकुल पितर वायुरूप में आकर घर के दरवाजों पर खड़े रहते हैं । अतः जब तक कन्या और तुला पर सूर्य रहते हैं तब तक तथा अमावस्या के दिन सदा पितरों के लिए श्राद्ध करना चाहिए । विशेषतः तिल और जल की अंजलि देनी चाहिए । कन्या और तुला में श्राद्ध न हो तो अमावस्या में अवश्य करें । वह भी न हो तो एक बार गयाजी में आकर श्राद्ध कर दें जिससे नित्य श्राद्ध का फल प्राप्त होता है ।


महादेव जी के अनुसार 

चार प्रकार के जन्म व्यर्थ हैं:
१। कुपुत्रों का जन्म
२। धर्म से बहिष्कृत
३। परदेश में जाने वाले
४। परस्त्रियों में आसक्त रहने वाले

सोलह प्रकार दान व्यर्थ हैं:
१। जो दूसरों के यहाँ भोजन करते हैं तथा स्त्री लम्पट हैं, उन्हें किया हुआ दान व्यर्थ है।
३। एक बार देने से इन्कार करके दिया हुआ दान ।
४। आरूढ़-पतित (सन्यासी होकर फिर गृहस्थ होनेवाले) को दिया हुआ दान
५। अन्यायोपार्जित धन का दान
६। ब्रह्महत्यारे
७। पतित
८। चोर
९। गुरु को प्रसन्न न रखनेवाले
१०। कृतघ्न
११। ग्राम-पुरोहित
१२। अधम ब्राह्मण
१३। शूद्रा स्त्री से सम्बन्ध रखने वाले ब्राह्मण
१४। वेद विक्रेता 
१५। जिसकी स्त्री का किसी और पुरुष से सम्बन्ध हो तथा
१६। जो स्त्री के अधीन रहता हो
ऐसे ब्राह्मणो को दिए हुए दान असफल होते हैं तथा व्यर्थ हैं।

चार प्रकार के जन्म उत्तम/श्रेष्ठ हैं :
१। जो माता-पिता के उत्तम पुत्र हैं।
२। सदा धर्म में तत्पर रहते हैं।
३। परदेश नहीं जाते ।
४। परायी स्त्रियों से विमुख हैं ।

सोलह प्रकार के दान को महादान कहते हैं:
गौ, सुवर्ण, चांदी, रत्न, विद्या, तिल, कन्या, हाथी, घोडा, शय्या, वस्त्र, भूमि, अन्न, दूध, छत्र तथा आवश्यक सामग्रियों सहित गृह ।

गाय, घर, शरण तथा कन्या - ये वस्तुएं अनेक पुरुषों को नहीं देनी चाहिए - इनमें से एक वस्तु, एक ही व्यक्ति को देनी चाहिए ।


अखण्डा एकादशी

नमामि देवं वरदं वरेण्यं, नमामि देवं च सदा सनातनम्। 
नमामि देवाधिमपीश्वरं हरं नमामि शम्भु जगदेकबन्धुम्।।
नमामि विश्वेश्वरविश्वरूपं सनातनं ब्रह्म निजात्मरूपम्।
नमामि सर्वं निजभावगम्यं वरं वरेण्यं वरदं नतोऽस्मि।।
स्क पु, मा के ५।३९-४०

जगत के एकमात्र बन्धु शम्भू को मैं नमस्कार करता हूँ। जो सम्पूर्ण विश्व के स्वामी, विश्वरूप, सनातन ब्रह्म और स्वात्मरूप हैं, उन भगवान् शिव को मैं शीश झुकता हूँ । अपनी भक्ति से प्राप्त होने योग्य सर्वरूप भगवान् शिव को मैं प्रणाम करता हूँ । जो वरदायक हैं, वरस्वरुप हैं और वरण करने योग्य हैं, उन भगवान् शिव को मैं मस्तक नवता हूँ ।

धर्मो हि महतामेश शरणागतपालनं ।
शरणागतं च विप्रं च रोगिणम् वृद्धमेव च।
य एतान्न च रक्षन्ति ते वै ब्राहम्हणों नराः।।
स्क पु, मा के ९।५२-५४

शरण में आये हुए प्राणी की रक्षा करना महापुरुषों का धर्म है । जो लोग विप्र, रोगी, वृद्ध तथा शरणागत की रक्षा नहीं करते वे ब्रह्महत्यारे हैं ।

ये मदान्धा दुराचाराः कामुक विषयात्मकाः।
विप्रनामवमानेन पतन्ति नरकेऽशुचौ।।
तस्मात् सर्वप्रयत्नेन पदं प्राप्य विचक्षणैः।
अप्रमत्तैर्निर्भाव्यमिहामुत्र च लब्धये।।
स्क पु, मा के १५।८७-८८

जो राजमद से अन्धे, दुराचारी, कामी तथा विषयों में रचे-पचे रहनेवाले हैं, वे ब्राह्मणो का अपमान करके अपवित्र नरक में पड़ते हैं । इसलिए बुद्धिमान पुरुष को उचित है कि इहलोक और परलोक में सुख पाने की इच्छा होने पर वह सर्वथा प्रयत्न करके उत्तम पद को पाकर कभी प्रमाद में न पड़े - सदा अपने कर्तव्य के प्रति सावधान रहे।

दशम्यां चैव नक्तं च एकादश्यामुपोषणम् । 
द्वादश्यामेकभुक्तं च अखण्डा इति कथ्यते ।। 
दिवसस्याष्टमे भागे मन्दीभूते दिवाकरे ।
तद्धि नक्तं विजानीयान्न नक्तं निशि भोजनम् ।।
स्क. पु., वै. मा. मा.,  १२।२२-२४

अर्थ:
दशमी को नक्तव्रत करे, एकादशी को दिन में और रात्रि में भी उपवास करे तथा द्वादशी को पारणा के रूप में केवल एक बार भोजन करे । इसे अखण्डा एकादशी कहते हैं । दिन के आठवें भाग में, जब सूर्य कि ज्योति मन्द हो गयी हो, उसी समय को नक्त जानना चाहिए । उसी में किये हुए भोजन को नक्तव्रत कहते हैं । रात्रि में भोजन करने को नक्तव्रत नहीं कहते हैं ।

उपवृत्तस्तु पापेभ्यो यस्तु वासो गुणै: सह ।
उपवासः स विज्ञेयो न शरीरस्य शोषणम ।।
स्क. पु., वै. मा. मा.,  १२।३०

अर्थ:
पापों से उपवृत्त (निवृत्त) होकर जो गुणों के साथ वास किया जाय, उसी को उपवास समझना चाहिए । शरीर को सुखा डालने का नाम उपवास नहीं है ।

अन्यत्र हि कृतं पापं तीर्थमासाद्यं नश्यति । 
तीर्थेषु यत्कृतं पापं वज्रलेपो भविष्यति ।।
स्क. पु., वै. मा. मा.,  १७।१७

अर्थ:
अन्य स्थानों में किया हुआ पाप तीर्थस्थानों में जाने से नष्ट हो जाता है, किन्तु तीर्थो में किया हुआ पाप, वज्रलेप(cement ) हो जाता है ।

जाह्नवी वृद्धगङ्गा च कालिन्दी च सरस्वती ।
कावेरी नर्मदा वेणी सप्तगङ्गा प्रकीर्तिता ।।

अर्थ:
जाह्नवी(गङ्गा), वृद्ध गङ्गा (गोदावरी), कालिन्दी(यमुना), सरस्वती, कावेरी, नर्मदा और वेणी - ये सात गङ्गाएं कही गयी हैं ।

कृते यद् वत्सरात्साध्यम्  पुण्यं माधवतोषणम् ।
त्रेतायां मासतः साध्यम् द्वापरे पक्षातो नृपः ।।
तस्मादृशगुणं पुण्यं कलौ विष्णुस्मृतेर्भवेत् । 
स्क. पु., वै. वै. मा.,  २२।२०-२१

अर्थ:
सत्ययुग में भगवान् विष्णु को संतुष्ट करनेवाला जो पुण्य एक वर्ष में साध्य है, वही त्रेता में एक मास में और द्वापर में पंद्रह दिनों में साध्य होता है । परन्तु कलियुग में भगवान् विष्णु का स्मरण कर लेने से ही उससे दसगुना पुण्य होता है ।

सत्यं क्षमाऽऽर्जवं ध्यानमानृशंस्यमहिंसनम् ।
दमः प्रसादो माधुर्य मृदुतेति यमा दश ।।
शौचं स्नानं तपो दानं मौनेञ्याध्ययनम् व्रतम् । 
उपोषणोपस्थदण्डौ दशैते नियमाः स्मृता ।।
स्क. पु., ब्रा. ध. मा.,  ५।१९-२१

सत्य, क्षमा, सरलता, ध्यान, क्रूरता का अभाव, हिंसा का सर्वथा त्याग, मन और इन्द्रियों का संयम, सदा प्रसन्न रहना, मधुर बर्ताव करना और सबके प्रति कोमल भाव रखना - ये दस 'यम' कहे गए हैं ।
शौच, स्नान, तप, दान, मौन, यज्ञ, स्वाध्याय, व्रत, उपवास और उपस्थ-इन्द्रिय का दमन - ये दस 'नियम' बताये गए हैं ।

जायते चैकलः प्राणी म्रियते च तथैकलः।
एकलः सुकृतं भुङ्क्ते भुङ्क्ते दुष्कृतमेकलः।।
देहे पञ्चत्वमापन्ने त्यकत्वैकम् काष्ठलोष्टवत्।
बान्धवा विमुखा यान्ति धर्मो यान्तमनु व्रजेत्।।
स्क. पु., ब्रा. ध. मा.,  ५।२४-२६

जीव अकेला ही जन्म लेता है, अकेला ही मरता है, अकेला ही पुण्य भोगता और अकेला ही पाप का उपभोग करता है । मृत्यु होने पर इस शरीर को काठ और मिटटी के ढेले कि भाँती त्यागकर भाई-बन्धु मुंह फेर लेते हैं । परलोक में जाते हुए जीव के साथ केवल उसका धर्म ही जाता है ।

अतिथिर्यस्य भग्नाशो गृहात्प्रतिनिवर्तते।
स दत्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति।।
स्क. पु., ब्रा. ध. मा.,  ६।२३-२४

जिसके घर से अतिथि निराश होकर लौटता है, वह उसे अपना पाप देकर बदले में उसका पुण्य ले जाता है ।

ऋतुकालाभिगामी यः स्वदारनिरतश्च यः।
स सदा ब्रह्मचारी हि विज्ञेयः स गृहाश्रमी।।
स्क. पु., ब्रा. ध. मा.,  ६।३७

जो केवल ऋतुकाल में स्त्री-समागम करता और सदा अपनी ही स्त्री में अनुराग रखता है, वह गृहस्थ रहने पर भी ब्रह्मचारी ही जानने योग्य है ।

मितं ददाति हि पिता मितं भ्राता मितं सुतः।
अमितस्य हि दातारं भर्तारं का न पूजयेत्।।
भर्ता देवो गुरुर्भर्ता धर्मतीर्थव्रतानि च।
तस्मात् सर्वं परित्यज्य पतिमेकम् समर्चयेत्।।
स्क. पु., ब्रा. ध. मा.,  ७।४७-४८

पिता, भाई और पुत्र - ये सब परिमित - नपी-तुली वस्तुएं प्रदान करते हैं, परन्तु पति अपनी पत्नी को अपरिमित दान करता है । इसके दान की कोई सीमा नहीं होती । ऐसे पति का कौन स्त्री है जो पूजन न करे? पति ही देवता है, पति ही गुरु है और पति ही धर्म, तीर्थ एवं व्रत है । अतः स्त्री सब छोड़कर एकमात्र पति की पूजा करे।

द्विजातानं सहोङ्कारः सहितो द्वादशाक्षरः।
स्त्रीशूद्राणां नमस्कारपूर्वकः समुदाहृतः ।।
स्क. पु., ब्रा. चा. मा.,  २५।२

द्विजों के लिए ॐकारसहित द्वादशाक्षर मन्त्र का विधान है तथा स्त्रियों और शूद्रों के लिए ॐकाररहित नमस्कारपूर्वक (नमो भगवते वासुदेवाय) द्वादशाक्षर मन्त्र का जप बताया गया है।

किं तस्य बहुभिर्मन्त्रैः किं तीर्थैः किं तपोऽध्वरैः।
यस्यो नमः शिवायेति मन्त्रो हृदयगोचरः।।
स्क. पु., ब्रा. ब्रह्मो. १।१६

जिसके ह्रदय में 'ॐ नमः शिवाय' यह मंत्र निवास करता है, उसके लिए बहुत से मंत्र, तीर्थ, तप और यज्ञों कि क्या आवश्यकता है ?

यः स्वार्थं माँसपचनं कुरुते पापमोहितः ।
यावन्त्यस्य तु रोमणि तावत्स नरके वसेत ।।
परप्राणैस्तु ये प्राणान् स्वान् पुष्णन्ति हि दुर्धियः ।
आकल्पं नरकान् भुक्त्वा ते भुज्यन्तेऽत्र तैः पुनः ।।
जातु मासं न भोक्तव्यं प्राणैः कण्ठगतैरपि ।।

स्क. पु. का. पू. ३। ५१-५३

जो मनुष्य पाप से मोहित होकर मांस पकाता है, वह उस पशु के शरीर में जितने रोएं होते हैं, उतने वर्षो तक नरक में निवास करता है । जो दूषित बुद्धि वाले मनुष्य पराये प्राणो से अपने प्राणो का पोषण करते हैं, वे एक कल्प तक नरक भोगकर इस संसार में जन्म लेते और उन्ही प्राणियों के खाद्य बनते हैं । भूख से प्राण निकलकर कण्ठ तक आ गए हों तो भी मांस नहीं खाना चाहिए ।


ध्यानपूते ज्ञानजले रागद्वेषमलापहे। 
यः स्नाति मानसे तीर्थे स याति परमां गतिम्।।
स्क. पु., का.पू., ६।

जिसने अपने इन्द्रिय समुदाय को वश में कर लिया है, वह मनुष्य जहाँ निवास करता है, वहीँ उसके लिए कुरुक्षेत्र, नैमिषारण्य और पुष्कर आदि तीर्थ हैं । ध्यान से पवित्र और ज्ञानरुपी जल से भरे हुए राग-द्वेषमय मल को दूर करने वाले मानसतीर्थ में जो पुरुष स्नान करता है, वह उत्तम गति को प्राप्त होता है ।


विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः ।
वैश्यानां धान्यधनतः शूद्राणां च जन्मतः ।।

(स्कo पुo, आवo रेo, ३४। १९-२० )

ब्राह्मण ज्ञान की अधिकता से ज्येष्ठ माने जाते हैं, क्षत्रियों में जिसका बल और पराक्रम अधिक हो, वही ज्येष्ठ माना गया है, वैश्यों का ज्येष्ठत्व धन और धान्य की अधिकता पर निर्भर है तथा शूद्र जन्म एवं आयु के अनुसार ही ज्येष्ठ माने जाते हैं ।

सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च।
वंशानुचरितं चेति पुराणं पञ्चलक्षणं ।।
(स्कo पुo, आवo रेo, ३५। १५ )

सर्ग, प्रतिसर्ग, वंश, मन्वन्तर और वंशानुचरित - ये पुराण के पांच लक्षण हैं ।

न हि मासं तृणात् काष्ठाद्युत्पलादपि जायते।
हते जन्तौ भवेन्मासं तस्मात्तत्परिवर्जयेत्।।
स्कo पुo, नाo २९।२३२

मांस की उत्पत्ति घास, काठ या पत्थर से नहीं होती, किसी जीव की हिंसा करने पर ही मांस मिलता है ।

हन्ता चैवानुमन्ता च विशस्ता क्रयविक्रयी । संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चाष्टघातकाः।। 
धनेन क्रयकृद्धन्ति भक्षणेन च खादकः । घातको वधबन्धाभ्यामित्येवं त्रिविधो वधः।।
कर्मणा मनसा वाचा यो हिनस्ति न किञ्चन । स प्राप्नोति परं स्थानं जरामरणवर्जितं ।।
स्कo पुo, नाo २९।२३५-२३७

जो जीवों को मारता है, मारने की अनुमति देता है, जो उसे काट काटकर अलग करता है, जो खरीदता और बेचता है, जो उसे पकाकर तैयार करता है, जो उसे परोसता है तथा जो खानेवाला है - ये आठ प्रकार के व्यक्ति हिंसक  माने गए हैं ।
खरीदने वाला धन से मारता है, खानेवाला भक्षण के द्वारा हत्या करता है तथा घातक वध और बन्धन के द्वारा मारता है । इस प्रकार जीवों का तीन तरह से वध होता है।
जो मन वाणी और क्रिया द्वारा किसी भी जीव की हिंसा नहीं करता वह जरा-मृत्यु से रहित परम धाम को प्राप्त होता है ।

अनन्तपारा दुष्पूरा तृष्णा दुःखशतावहा ।
अधर्मबहुला चैव तस्मात्ताम् परिवर्जयेत् ।।
स्कo पुo, नाo ३२।४५

जैसे पूरे शरीर के बढ़ने के साथ साथ प्रत्येक अंग भी वृद्धि को प्राप्त होता है, उसी प्रकार तृष्णा भी धन के बढ़ने के साथ साथ बढ़ती रहती है । तृष्णा का कहीं अन्त नहीं है । उसे पूर्ण करना भी बहुत कठिन है, वह अपने साथ सैकड़ो दुःख लिए चलती है और उसके द्वारा प्रायः अधर्म ही होता है । अतः तृष्णा को सर्वथा त्याग देना चाहिए ।

या दुस्त्यजा दुर्मतिभिर्यां न जीर्यति जीर्यतः ।
यासौ प्राणान्तको रोगस्ताम् तृष्णां त्यजतः सुखम् ।।
स्कo पुo, नाo ३२।५७

देहधारियों की देह में विद्यमान तृष्णा अनेक अनर्थों का आश्रय है, खोटी बुद्धिवालों के लिए जिसका त्याग करना अत्यन्त कठिन है, जो वृद्ध होने पर भी स्वयं बूढी नहीं होती तथा जो प्राणान्तकारी रोग के समान है, उस तृष्णा का त्याग कर देने वाले पुरुष को ही सुख मिलता है ।

तपः कृते प्रशंसन्ति त्रेतायां ध्यानमेव च । द्वापरे यज्ञदाने च दानमेकं कलौ युगे ।। 
सर्वेषामेव दानानां नास्ति दानमतः परम् । चराचराणाम् भूतानामभयं यः प्रयच्छति ।।
स्क पु, ना ५१।६७-६८

सत्ययुग में तप की, त्रेता में ध्यान की, द्वापर में यज्ञ की और दान की तथा कलियुग में एकमात्र दान की प्रशंसा करते हैं । जो सम्पूर्ण चराचर प्राणियों को अभय दान देते हैं, उनका वह दान सब दानो में श्रेष्ठ है ।

अतिथिर्वस्य भग्नाशो गृहात्प्रतिनिवर्तते ।
स दत्वा दुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति ।।
सत्यं तथा तपोऽधीतं दत्तमिष्टं शतं समाः ।
तस्य सर्वमिदं नष्टमतिथिं यो न पूजयेत ।।
दूरादतिथयो यस्य गृहमायान्ति निवृताः ।
स गृहस्थ इति प्रोक्तः शेषाश्च गृहरक्षिणः ।।
स्क पु, ना उ १७६।४-७

अतिथि से महान कोई देवता नहीं है; अतिथि के उल्लंघन से बड़ा पाप होता है । जिसके घर से अतिथि निराश होकर लौट जाता है, उसे वह अपना पाप देकर और उसका पुण्य लेकर चल देता है । जो अतिथि का आदर नहीं करता उसके सौ वर्षों के सत्य, तप, स्वाध्याय, दान और यज्ञ आदि सभी सत्कर्म नष्ट हो जाते हैं । जिसके घर पर दूर से प्रसन्नतापूर्वक अतिथि आते हैं, वही गृहस्थ कहा गया है; शेष सब लोग तो गृह के रक्षक मात्र हैं ।

सकृज्जल्पन्ति राजानः सकृज्जल्पन्ति च द्विजाः ।
सकृत् कन्या प्रदीयेत त्रीण्येतानि सकृत् सकृत् ।।
स्क पु, ना उ १८८।१७-१८

राजा एक बार कोई बात कहते हैं, ब्राह्मण भी एक ही बार कहते हैं और कन्या भी एक ही बार किसी को दी जाती है । ये तीन बातें एक एक बार ही होती हैं इन्हें बदला नहीं जाता ।

सत्यं दमस्तपः शौचं सन्तोषोऽनैर्ष्यमार्जवं ।
ज्ञानं शमो दया दानमेतत्पात्रस्य लक्षणं ।।
स्क पु, प्र ख २०२।१८-१९

सत्य, इन्द्रियसंयम, तप, शौच, सन्तोष, ईर्ष्या न होना, सरलता, ज्ञान, मनःसंयम, दया और दान - ये सद्गुण ही सुपात्र के लक्षण हैं ।

अप्रक्षालितपादस्तु यो भुङ्क्ते दक्षिणामुखः।
यो वेष्टितशिरा भुङ्क्ते प्रेता भुञ्जन्ति नित्यशः ।।
स्क पु, प्र ख २१६।४१

जो पैर धोये बिना खाता है, जो दक्षिण की ओर मुंह करके भोजन करता है अथवा जो सर में वस्त्र लपेटकर भोजन करता है, उसके अन्न को सदा प्रेत ही खाते हैं ।

येनर्चितो महादेवस्यतस्य तुष्यति केशवः ।
अनर्चिते नीलकण्ठे न गृह्णात्यर्चनं हरिः ।।
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन पूज्यतां नीललोहितः ।
येन सम्पूर्णतां याति कृष्णपूजा कृता सदा ।।
स्क पु, द्वा मा १५।४-५

जिसने महादेव जी का पूजन किया है, उस पर भगवान् विष्णु प्रसन्न होते हैं । यदि भगवान् शिव की पूजा नहीं की जाए तो श्रीहरि अपनी पूजा को ग्रहण नहीं करते । अतः सब प्रकार से यत्न करके भगवान् शङ्कर का पूजन करना चाहिए ।

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पांचालदेश में पुरुयशा(भूरियशा के पुत्र) नामक राजा थे जो पूर्वजन्म के पापों के कारण अपना देश हार गए परन्तु पुरोहितों याज और उपयाज के मार्गदर्शन पर, वैसाख मास के सम्पूर्ण धर्मो का श्रद्धापूर्वक पालन किया और भगवन मधुसूदन कि कृपा से युद्ध कर अपना राष्ट्र वापिस लिया और उनके पांच पुत्र हुए - धृष्टकीर्ति, धृष्टकेतु, धृष्टद्युम्न, विजय और चित्रकेतु ।
क्या राजा पुरुयशा ही राजा द्रुपद (पृषता के पुत्र) हैं ?

व्याध - शङ्ख मुनि के संवाद के पश्चात मुनि ने व्याध को 'राम' नाम का उपदेश किया जिससे वह व्याध अगले जन्म में वह ऋषि वल्मीक के यहाँ हुआ और वाल्मीकि नाम से प्रसिद्ध हुआ ।

सेतुबंध की लम्बाई सौ योजन और चौड़ाई १० योजन बताई गयी है परन्तु अब यह लम्बाई रामेश्वरम से श्री लंका के तट तक अधिकतम ४० किमी है और अगर सौ योजन = ८०० किमी नापा जय तो पूरी लंका भी छोटी पड़ जाती है ।
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 जो मनुष्य वैसाख में सड़क पर यात्रियों के लिए प्याऊ लगाता है, वह विष्णुलोक में प्रतिष्ठित होता है ।
कनकश्रृंग -> कुशस्थली -> अवन्तिपुरी -> उज्जयिनी -> पद्मावती -> कुमुद्वती -> अमरावती -> विशाला
 १ धनुष = ४ हाथ (स्कन्द पुराण, वृत्तासुर सन्दर्भ) 

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